सोमवार, 13 अगस्त 2012

हमारा भूमण्डल
अमीर देश कितने अमीर हैं
                                             सचिन कुमार जैन

    दुनिया के अमीर देशों ने उपनिवेशवाद अर्थात् दूसरे देशों को अपना गुलाम बनाकर खूब संपत्ति हासिल की । उसी के माध्यम से अपनी औद्योगिक क्रान्ति को आगे बढ़ाया, रेल मार्गो का विस्तार किया और संसाधन सम्पन्न हुए । उन्होनें अपने उपनिवेशों की जमीनों और जंगलों के साथ ही साथ श्रम का भी खूब शोषण किया और यह साबित करने की कोशिश की कि पूंजीवादी विकास ही जनकल्याणकारी रास्ता है और इसी से समानता    आएगी । परन्तु आज की स्थिति कुछ और ही कहानी कह रही है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट अब इन अमीर देशों को भी लीलने को आतुर दिखाई दे रहा है ।
    अभी तक तो लोग, परिवार और कम्पनियाँ ही कंगाल हुआ करती थी लेकिन अब तो देश दिवालिया घोषित किये जाने की कगार पर आ गए है । हाल ही में ग्रीस के सामने दिवालिया हो जाने की नौबत आ गई है । ग्रीस का कुल सकल घरेलू उत्पाद ३०३ अरब डालर का है, पर उसकी सरकार पर ४८९ अरब डालर का कर्जा हो गया है । ऐसे में अब उसे कोई और अधिक कर्जा देने को तैयार नहीं है । इस स्थिति में यूरोपियन कमीशन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, और यूरोपीय केन्द्रीय बैंक ने उसे कर्ज देने से पहले यह पूछा कि वह अपने खर्चे में ३२.५ करोड़ यूरो की कटौती कैसेकरेगा । ग्रीस को १३० अरब यूरो के बेल आउट पैकेज के लिए उधार की जरूरत है और इसके लिए उसे वेतन, पेंशन और सरकारी सेवाआें में होने वाले अपने खर्चो को कम करना होगा तभी उसे किसी भी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था से कर्ज मिल पायेगा । इसका मतलब है कि उसे अपने नागरिकों को बेरोजगार करना होगा और स्वास्थ्य, शिक्षा और उनकी सामाजिक सुरक्षा पर किये जाने वाले व्यय को भी कम करना होगा ।
    ग्रीस तो केवल एक उदाहरण है । दुनिया में सम्पन्न माने जाने देशों - इटली, पुर्तगाल, स्पेन, जर्मनी आदि भी कमोबेश इसी तरह की स्थिति में हैं । गौरतलब है कि ऐसे देश, जिनके ऊपरबाहरी कर्जा उनके सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में ज्यादा हो चुका है, उन्हें गहरे संकट में माना जाता है । ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड ऐसे ही देश है और इन देशों की बेरोजगारी की दर भी १४ प्रतिशत हो चुकी है । वैसे भी जो देश विकसित बने भी हुए हैं वे वास्तव में या तो दूसरें देशों को लूट कर विकसित हुए हैं या फिर खूब कर्जा   लेकर । आंकड़े थोड़ा बोर तो करते हैं लेकिन कई बार ये अत्यन्त रूचिकर भी दिखाई पड़ते हैं । जरा नीचे दिए आंकड़ों पर गौर कीजिए -
    - ग्रीस का सकल घरेलू उत्पाद ३०३ अरब डालर है और उस पर कर्जा है ४८९ अरब डालर तथा प्रति व्यक्ति कर्ज ३५८७४ डालर ।
    - इटली का सकल घरेलू उत्पाद २.२ खरब डालर है और कर्ज है २.५४ खरब डालर है तथा प्रति व्यक्ति कर्ज ३८३८४ डालर ।
    - अमेरिका का सकल घरेलू उत्पाद १५.१३ खरब डालर है और कर्ज है १२.८ खरब डालर है एवं प्रति व्यक्ति कर्ज ३७९५२ डालर ।
    - फ्रांस का सकल घरेलू उत्पाद २.७६ खरब डालर है तो कर्ज २.२६ खरब डालर है तथा प्रति व्यक्ति कर्ज ३५६४८ डालर ।
    - जर्मनी का सकल घरेलू उत्पाद है ३.५६ खरब डालर है तो कर्ज २.७९ खरब डालर, और प्रति व्यक्ति कर्ज २८७२८ डालर ।
    - ब्रिटेन का सकल घरेलू उत्पाद २.४६ खरब डालर तो कर्ज १.९९ खरब डालर, तथा प्रति व्यक्ति कर्ज ३२२०७ डालर ।    
    - जापान का सकल घरेलू उत्पाद ५.८८ खरब डालर है तो कर्ज १३.७ खरब डालर, एवं प्रति व्यक्ति कर्ज ८७६०० डालर ।
    प्रति व्यक्ति कर्ज जापान में भारत से १२० गुना ज्यादा, अमेरिका में भारत से ५१ गुना ज्यादा, ग्रीस और फ्रांस में भारत से ५० गुना ज्यादा है । पर जिन्हें विकासशील देश माना जाता है उनके हालात कम से कम दिवालिया होने के तो नहींहै । भारत में एक व्यक्ति के ऊपर ७२२.८२ डालर का कर्जा है और हमारे ऊपर सकल घरेलू उत्पाद के लगभग ५४ प्रतिशत हिस्से के बराबर कर्ज है । चीन पर प्रति व्यक्ति ७०९ डालर, मिस्त्र पर २०३५ डालर और इथियोपिया पर ११५.९१ डालर का कर्ज है । आज चीन दुनिया में उभर चुकी नयी ताकत है और उसकी ताकत के पीछे एक बड़ा कारण है उसका कम कर्जदार होना । इससे उसकी अर्थव्यवस्था ज्यादा संतुलित और सुरक्षित बन जाती है । चीन पर १.०९ खरब डालर का कर्ज है, परन्तु यह कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद का केवल १७.४ प्रतिशत है । जबकि भारत पर ९२७ अरब डालर का कर्ज है जो कुल सकल घरेलू उत्पाद का ५५ प्रतिशत      है । यही स्थिति हमेंपूँजी बाजार के सामने झुकने और ढांचागत बदलाव की उनकी शर्तो को मानने के लिए मजबूर करती  है ।
    आर्थिक सम्पन्नता का मतलब है कि कुछ देशोंने कर्ज लेकर उपभोक्तावादी नीति को अपनाया है और इसे ही वे पूँजी की तरलता भी मानते    है । मतलब साफ हैं - कुछ देशों ने उपनिवेशवादी तरीकों से दूसरे देशों के संसाधनों को लूटा और अपना विकास किया और दूसरी बात यह है कि जब प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद की दायरा कम हो गया तो उन्होनें बेईमानी से व्यापार के जरिये विकासशील देशों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया । तीसरी बात - उन्होंने अपने नागरिकों को कर्ज के नशे की लत लगाई, जिससे वहां का समाज इन अन्यायपूर्ण नीतियों पर चुप रहा ।
         अमेरिकी यूनाईटेड फेडरलरिजर्व के प्रमुख एलन ग्रीनस्पन ने भी स्वीकार (१३ जनवरी २०००) किया कि आर्थिक विकास की दर वास्तव मेंबनावटी है । उन्होंने कहा कि अमेरिका स्टाक मूल्य १९९३ से २००० के बीच १५० प्रतिशत बढ़ गया इससे हमें अपनी पूँजी की कीमत बढ़ी हुई नजर आती है, पर वास्तव में इसमें कोई भौतिक वृद्धि नहीं हुई है । हम मौजूदा वस्तुआें या संपत्तियों की कीमत बढ़ाते जाते हैं और उसे जोड़कर बताते है कि हमने विकास  किया । उन्होनें यह भी बताया कि करों के भुगतान के बाद अमेरिकावासियों ने अपनी आय का १००.५ प्रतिशत खर्च किया, इसका मतलब है कि उन्होनें खूब कर्ज लिया ।
    आखिर इतनी लूट के बाद भी ये देश आर्थिक संकट में क्यों है ? इसकी वजह है पिछले १०० सालों से जिस आर्थिक विकास की वकालत की जा रही है वह संसाधनों के सही उपयोग पर केन्द्रित न होकर उसके बेतहाशा शोषण पर लूट कर केन्द्रित रहा और यह माना जाता रहा है कि लोगों की उपभोक्तावादी प्रवृति को जितना उभरा जा सकता है उतना उभारा जाए ।

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