मंगलवार, 19 जनवरी 2016


प्रसंगवश   
पश्चिमी घाट मेंबचेंगे ३ लाख पेड़
 भरत डोगरा
    पर्यावरणविद बहुत समय से कहते रहे है कि किसी भी विकास के नाम पर बनाई जा रही परियोजना में इस ओर समुचित ध्यान दिया जाए कि इसमें वनों और वृक्षों की कितनी क्षति हो रही है । यदि यह क्षति बहुत अधिक है तो ऐसी परियोजना पर पुनर्विचार करना चाहिए ।
    हाल ही में एक ऐसा उदाहरण सामने आया है कि पर्यावरणविदों के परामर्श को माना गया व इस कारण लगभग ३ लाख पेड़ों की रक्षा हो सकी है ।
    यह मामला है हुबली-अंकोला ब्रॉड गेज रेलवे लाइन परियोजना का जिसे आरंभ में लौह अयस्क के आयात को बढ़ाने के लिए व बड़े पैमाने पर लौह अयस्क ढोने के लिए जरूरी बताया गया । इस परियोजना के लिए पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील माने गए पश्चिमी घाट के ९६५ हेक्टर वन क्षेत्र को काटने की अनुमति मांगी गई । बाद में दबाव पड़ने पर इसे ७२० हेक्टर तक और फिर ६६७ हेक्टर तक कम किया गया ।
    पश्चिमी घाट का क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से सबसे समृद्ध क्षेत्रों में माना जाता है । इसके बावजूद यहां प्राकृतिक वनों का बहुत विनाश हुआ है । अत: जो प्राकृतिक वन बचे हैं उनकी रक्षा बहुत जरूरी है । बहुत से वन्य जीवों का अस्तित्व इनसे जुड़ा हुआ है तो बहुत से गांववासियों की आजीविका भी इनसे जुड़ी है ।
    परिसर संरक्षण केन्द्र व वाइल्डरमेन क्लब जैसे कई पर्यावरण संगठनों ने इन वनों की रक्षा का अभियान चलाया । इसके लिए अनेक जन सभाआें का आयोजन किया गया । दूसरी और कुछ लोगों ने परियोजना के पक्ष में भी आवाज उठाई जिसमें अनेक असरदार स्थानीय नेता भी थे ।
    वर्ष २००४ में केन्द्र सरकार के वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इस परियोजना की समीक्षा कर कहा कि इतने बड़े क्षेत्र में पर्यावरण की दृष्टि इतने अमूल्य वनों का विनाश उचित नहीं ठहराया जा सकता है और इस परियोजना को स्वीकृत नहीं किया जा सकता है ।
    परिसर संरक्षण केन्द्र व वाइल्डरनेस क्लब ने वनों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया । सुप्रीम कोर्ट द्वारा सेन्ट्रल एम्पावर्ड समिति की टीम क्षेत्र में भेजी गई । इस समिति ने ३ अगस्त २०१५ को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है कि इतने बड़े पैमाने पर अति महत्वपूर्ण वनों का विनाश करने वाली परियोजना को स्वीकृति न दी  जाए । पर्यावरण संगठनों का अनुमान है कि इस तरह लगभग ३ लाख वृक्षों की रक्षा हो सकेगी ।       
सम्पादकीय
नये साल में नये वायरस की चुनौती
     विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक युगांडा के जाइका जंगलोंमें खोजे गए जाइका वायरस पर नियंत्रण वर्ष २०१६ की प्रमुख चुनौती होगी । यह वायरस मच्छरों के माध्यम से फैलता है । दरअसल यह वायरस १९४७ में खोजा गया था और अफ्रीका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में इसकी वजह से छिटपुट प्रकोप होते रहे हैं ।
    अलबत्ता, पिछले १० वर्षो में प्रशांत सागर के कईद्वीपों पर इय वायरस ने रोग फैलाया है । जैसे २००७ में याप द्वीप के ८० प्रतिशत लोग जाइका के संक्रमण की चपेट में आए थे । पिछले साल ब्राजील में हमला करने के बाद यह नौ और देशों में पहुंच गया है । विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिलवियन एल्डीगिएरी का मत है कि यह वायरस जिस तेजी से फैल रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि स्वास्थ्य सेवाआें को इसके लिए तैयार हो जाना चाहिए और इसके मामलों की सख्त निगरानी की जानी चाहिए ।
    वयस्क लोगों में यह वायरस शरीर पर चकते पैदा करता है जो दर्दनाक तो होते हैं मगर अस्थायी ही होते हैं । इस लिहाज से इसके लक्षण बहुत गंभीर नहीं है । मगर यह माना जा रहा है कि यह वायरस अजन्मे बच्चें में मस्तिष्क को क्षति पहुंचा सकता है । एम्सटरडम विश्वविघालय के कटिबंधीय व सफरी चिकित्सा केन्द्र के अब्राहम गुरहुइस का कहना है कि वैसे अभी तक जाइका के संक्रमण और अजन्मे बच्चेंमें मस्तिष्क क्षति का परस्पर संबंध प्रमाणित नहीं हुआ है मगर ब्राजील और पोलीनेशिया में जहां भी वायरस का प्रकोप हुआ है, वहां मस्तिष्क के विकारों में नाटकीय वृद्धि देखी गई है । इसका मतलब है कि गर्भवती महिलाआें को खास सावधानी बरतनी चाहिए और मच्छरों से बचने का हर संभव प्रयास करना चाहिए ।
    अन्य ऐसे वायरस प्रकोपों के समान ही इसका भी कोई इलाज नहीं है और न ही टीका उपलब्ध है । इसके प्रसार को रोकने का प्रमुख उपाय भी कई अन्य बीमारियों जैसा ही है । मच्छरों के प्रजनन स्थलों पर नियंत्रण किया जाए, मच्छरों की आबादी को न बढ़ने दिया जाए और मच्छर काटने से बचा जाए, इसी में समझदारी है ।
सामयिक
दिल्ली में संकट बनी हवा
प्रमोद भार्गव

    पिछले कई दिनों से दिल्ली में छाई धुंध और धुंए ने कई चिंताजनक सवाल छोड़े है । औद्योगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोगवादी संस्कृति आधुनिक विकास के वे लक्षण हैं जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए मनुष्य समेत समूचे जीव-जगत को संकटग्रस्त बना रहे हैं ।
    दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण के मद्देनजर राष्ट्रीय हरित ट्रायबनूल (एनजीटी) ने दिल्ली सरकार को फटकार लगतो हुए समस्या का हल ढूंढने की सलाह दी है । दिल्ली उच्च् न्यायालय ने कहा कि दिल्ली अब एक गैस चैंबर में बदलती जा रही    है । मुख्यमंत्री केजरीवाल ने इस समस्या पर तात्कालिक हल के लिए तीन नीतिगत फैसले लिए हैं । एक, दिल्ली का ताप विद्युत बिजली घर बंद कर दिया जाएगा । दो, वाहनों के लिए यूरो-६ मानक लागू होगा और तीसरा, एक दिन सम और दूसरे दिन विषय नम्बरों के ही वाहन सड़कों पर उतरेंगे । यह फैसला १ जनवरी २०१६ से लागू हो रहा है । 
     भारत में औद्योगिकरण की रफ्तार भूमण्डलीकरण के बाद तेज हुई । एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बड़ा तो दूसरी तरफ औघोगिक कचरे में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई । लिहाजा दिल्ली में जब शीत ऋतु ने दस्तक दी तो वायुमण्डल में धूल और धुंए के बारीक कणों को कोहरा छा गया । मौसम विज्ञानी इसकी तात्कालिक वजह पंजाब एवं हरियाणा के खेतों में जलाए जा रहे फसल के डठंल बता रहे हैं । यदि वास्तव में इसी आग से निकला धुंआ दिल्ली में छाए कोहरे का कारण होता तो यह स्थिति चंडीगढ़, अमृतसर, लुधियाना और जालधंर जैसे बड़े शहरों में भी दिखनी चाहिए थी, लेकिन नहीं  दिखी ।    
    अलबत्ता इसकी मुख्य वजह हवा में लगातर प्रदूषक तत्वों पर बढ़ना है । दरअसल मौसम गरम होने पर जो धूल और धुंए के कण आसमान में कुछ ऊपर उठ जाते हैं, वे सर्दी बढ़ने के साथ-साथ नीचे खिसक जाते हैं । दिल्ली में बढ़ते वाहन और उनकी वजह से पैदा होता धुंआ और सड़क से उड़ती धूल अंधियारे की इस परत को और गहरा बना देते हैं ।
    इस प्रदूषण के लिए बढ़ते वाहन कितने दोषी हैं, इस तथ्य की पृष्टि इस बात से होती है कि हाल ही में दिल्ली में कार मुक्त दिवस आयोजित किया गया था । उस दिन वायु प्रदूषण करीब २६ प्रतिशत कम हो गया था । इससे पता चलता है कि दिल्ली में कारों को नियंत्रित कर दिया जाए तो प्रदूषण काफी कम हो सकता है । इस नाते सम-विषम संख्या वाली कारों को सड़कों पर उतारने का फैसला कारगर साबित होगा ।
    किन्तु विडंबना है कि एनजीटी दिल्ली में इस प्रदूषण का कारण उन ८० हजार ट्रकों को मान रहा है, जो दिल्ली में अनाज, फल-सब्जी, मांस और अन्य जरूरी चीजें बाजारों तक पहुंचाते हैं । एनजीटी की सलाह है कि इन ट्रकों का दिल्ली में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया जाता है तो ये ट्रक दिल्ली से सटी हरियाणा, राजस्थान और उत्तरप्रदेश की सीमा पर माल उतारेंगे । और फिर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में उतारे गए इस सामान को छोटे वाहनों से दिल्ली के बाजारों में पहुंचाया जाएगा । समस्या जस की तस बनी रहेगी, क्योंकि जो माल ८० हजार ट्रकों से दिल्ली के भीतर आता है, उसे दिल्ली की सीमाआें से करीब ४ लाख छोटे वाहन लादकर दिल्ली लाएंगे । इससे प्रदूषण बढ़ेग या घटेगा इसका तकनीकी आक लन कराने की जरूरत है । ट्रको पर प्रतिबंध अपनी समस्या को दूसरे क्षेत्रों में स्थानान्तरति करने जैसा ही होगा ।
    दिल्ली में इस वक्त वायुमण्डल में प्रदूषक तत्वों की मात्रा मानक से ६० गुना ज्यादा हो गई   है । इस वजह से लोगों में गले, फेफड़ों और आंखों की तकलीफ बढ़ जाती है । कई लोग मानसिक अवसाद की गिरफ्त में भी आ जाते हैं । वैसे हवा में घुलता जहर महानगरों में ही नहीं छोटे नगरों में भी प्रदूषण का सबब बन रहा है । कार-बाजार ने इसे भयावह बनाया   है । यही कारण है कि लखनऊ, कानपुर, अमृतसर, इन्दौर और अहमदाबाद जैसे शहरों में प्रदूषण खतरनाक सीमा लांघने को तत्पर   है । उद्योगों से निकलता धुंआ और खेतों में बड़े पैमाने पर औघोगिक व इलेक्ट्रानिक कचरा जलाने से भी दिल्ली की हवा में जहरीले तत्वों की सांद्रता बढ़ी है । इस कारण दिल्ली दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है । वैसे भी दुनिया के जो २० सर्वाधिक प्रदूषित शहर है, उनमें भारत के १३ शहर शामिल है ।
    बढ़ते वाहनों के चलते वायु प्रदूषण की समस्या दिल्ली में ही नहीं पूरे देश में भयावह होती जा रही है । मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के लगभग सभी छोटे शहर प्रदूषण की गिरफ्त में है । डीजल व घासलेट से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पंपों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है । केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड देश के १२१ शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन करता है । इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरूपति जैस अपवादों को छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में दिख रहा है । इस प्रदूषण की मुख्य वजह तथाकथित  वाहन क्रांति है । विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और घासलेट से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्च्े सांस की बीमारी की गिरफ्त में है ।
    इस खतरनाक हालात से वाकिफ होने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियां अपना रही है, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किए बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे । यही कारण है कि डीजल वाहनों का चलन लगातार बढ़ रहा   है । आवासीय बस्तियों, बाजारों, दुकानों और दफ्तरों व बैंको में लगे जनरेटर भी हवा को जहरीली बनाने में मदद कर रहे हैं ।
    जिस गुजरात को हम आधुनिक विकास का मॉडल मानकर चल रहे हैं, वहां भी प्रदूषण के हालात भयावह है । कुछ समय पहले टाइम पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के चार प्रमुख प्रदूषित शहरों में गुजरात का वापी शहर शामिल है । इस नगर में ४०० किलोमीटर लंबी औघोगिक पट्टी है । इन उघोगों में कामगार और वापी के रहवासी कथित औघोगिक विकास की बड़ी कीमत चुका रहे है । वापी के भूजल में पारे की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों से ९६ प्रतिशत ज्यादा है । यहां की वायु में धातुआें का संदूषण जारी है, तो फसलों को नुकसान पहुंचा रहा है । कमोबेश ऐसे ही हालात अंकलेश्वर बंदरगाह के हैं ।
    यहां दुनिया के अनुपयोगी जहाजों को तोड़कर नष्ट किया जाता है । इन जहाजों में विषाक्त कचरा भी होता है, जो मुफ्त में भारत को निर्यात किया जाता है । इनमें ज्यादातर सोड़ा की राखा, एसिडयुक्त बैटरियां और तमाम किस्म के घातक रसायन होते हैं । प्रदूषित कारोबार पर शीर्ष न्यायालय के निर्देश भी अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में प्रदूषित कचरा भी आयात हो रहा है । विश्व व्यापार संगठन के मंत्रियों की बैठक में भारत पर दबाव बनाने के लिए एक परिपत्र जारी किया गया है कि भारत विकसित देशों द्वारा पुननिर्मित वस्तुआें और उनके अपशिष्टों के निर्यात की कानूनी सुविधा दे ।
    विडंबना यह है कि जो देश भोपाल में हुई यूनियन कार्बाइड के औघोगिक कचरे को ३० साल बाद भी ठिकाने नहीं लगा पया, वह दुनिया के औघोगिक कचरे को आयात करने की छूट दे रहा है । यूनियन कार्बाइड परिसर में आज भी ३४६ टन कचरा पड़ा है, जो हवा-पानी में जहर घोल रहा है । इस कचरे को नष्ट करने का ठिकाना मध्यप्रदेश सरकार को नहीं मिल रहा है । दुनिया की इस सबसे बड़े औघोगिक त्रासदी में ५२९५ लोगों की मौतें हुई थी और लाखों लोग लाइलाज बीमारियों के शिकार हो गए थे । ये लोग आज भी इस त्रासदी का दंश झेल रहे हैं ।
हमारा भूमण्डल
क्रिस्पर : जीन संपादन की नई तकनीक
डॉ. सुशील जोशी

    हाल में क्रिस्पर का काफी हल्ला रहा है । यह जेनेटिक संरचना में सटीक फेरबदल की एक ऐसी तकनीक है जो जीव विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है ।    
    क्रिस्पर का पूरा नाम थोड़ा जटिल है - क्लस्टर्ड रेगुलरली स्पेस्ड पेलिंड्रोमिक रिपीट्स । मगर क्रिस्पर नाम ही प्रचलित है । दरअसल क्रिस्पर बैक्टीरिया की अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली का एक हथियार है । बैक्टीरिया के डीएनए के विश्लेषण से पता चला था कि उसमें बीच-बीच में ऐसे हिस्से पाए जाते हैं जो बार-बार दोहराए जाते हैं । ये हिस्से लगभग २०-२० क्षार जोड़ियों से बने होते    हैं । 
     बैक्टीरिया डीएनए का यह एक अनोखा गुण है, कहकर बात आई-गई हो गई । फिर पता चला कि इन बारम्बार दोहराए जाने वाले हिस्सों के बीच में क्षार जोडियों के जो क्रम पाए जाते हैं वे भी लगभग इसी साइज के होते हैं । यह भी एक निरर्थक सूचना की तरह रह जाती अगर यह पता न चला होता कि बीच के अंतरालों की क्षार श्रृंखलाएं दरअसल उन वायरसों के डीएनए के टुकड़ों से मेल खाती हैं जो इन बैक्टीरिया पर हमला करते हैं ।
    यहीं से बात शुरू हुई क्रिस्पर के महत्व की । विचार बना कि शायद बारम्बार दोहराए जाने वाले हिस्सों के बीच पाई जाने वाली क्षार श्रृंखलाएं उन हमलावर वायरसों से ही हासिल की गई हैं । तब इन हिस्सों को नाम दिया गया क्रिस्पर और बीच में पाई जाने वाली श्रृंखलाआें को स्पेसर कहा गया । और खोजबीन से पता चला कि इन क्रिस्पर के आसपास ही कुछ जीन्स होते हैं जो प्रोटीन बनाने का काम करते हैं । इन्हें क्रिस्पर एसोसिएटेड जीन्स (कास) कहा  गया । यह भी पता चला कि ये प्रोटीन्स कोशिका में एंजाइम की तरह काम करते हैं और डीएन को तोड़ सकते है ।
    धीरे-धीरे पूरी क्रियाविधि स्पष्ट हुई । बैक्टीरिया क्रिस्पर की स्पेसर श्रृंखलाआें की नकल बनाता है और हरेक को कास प्रोटीन के साथ जोड़ देता है । ये स्पेसर-कास संकुल कोशिका में चक्कर काटते हैं । यदि उन्हें अपने स्पेसर के समान श्रृंखला नजर आती है तो वे उसे तोड़ देते हैं । अब जैसे पहले कहा गया, ये स्पेसर श्रृंखलाएं तो हमलावर वायरसों से हासिल की गई थी । यानी ये एक मायने में बैक्टीरिया के पास हमलावर वायरसों की फाइल है । जैसे ही उसे फिर से वैसी श्रृंखला दिखती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है ।
    इसके आधार पर ही वैज्ञानिकों ने क्रिस्पर तकनीक विकसित की है । तकनीक का आधार यह है कि स्पेसर और कास प्रोटीन मिलकर ऐसा संकुल बनाते है जो विशिष्ट स्थानों पर डीएनए को काट देता है ।
    तकनीक का उपयोग करते समय करना यह होता है कि जिस स्थान पर डीएनए को काटना  है उसकी क्षार श्रृंखला को आरएनए के रूप में तैयार किया जाए । कास प्रोटीन को स्पेसर की जगह इस आरएनए टुकड़े के साथ जोड़ दिया जाता है । अब इस संकुल को कोशिका में प्रविष्ट कराया जाता    है । जैसे ही इस संकुल को आरएनए के उस टुकड़ें से मेल खाती क्षार श्रृंखला नजर आती है वह उसे वहीं से काट देता है । तो सवाल है कि ये डीएनए और आरएन क्या हैं । डीएनए यानी डीऑक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड वह अणु है जो तय करता है कि हमारे शरीर में कौन से प्रोटीन बनेंगे, कौन से एंजाइम बनेंगे, कौन सी रासायनिक क्रियाएं संभव होगी ।
    डीएनए वास्तव में चार क्षारों - एडीनीन, थायमीन, सायटोसीन और ग्वानीन की एक श्रृंखला होती है (वास्तव में ये एक-दूसरे से लिपटी दो श्रृंखलाएं होती हैं) क्षारों के क्रम से तय होता है कि डीएनए का कौन सा हिस्सा किस प्रोटीन को बनाने का निर्देश दे सकता है । जब यह निर्देश प्रसारित करना होता है तो उस हिस्से की डीएनए दोहरी श्रृंखला को अलग-अलग किया जाता है और उसकी प्रतिलिपि बनाई जाती है । इस प्रतिलिपि को राइबोन्यूक्लिक एसिड या आरएनए कहते हैं । आरएनए का यह टुकड़ा केन्द्रक से निकलकर कोशिका में पहुंचता है और वहां संबंधित प्रोटीन बनवाने का काम करता है ।
    क्रिस्पर तकनीक का उपयोग करने से पहले डीएनए के उस विशिष्ट हिस्से के क्षार क्रम का आरएनए बनाना होता है जिसका संपादन किया जाना है । वैसे यदि यह पता हो कि आरएनए में क्षारों का क्रम क्या है, तो यह टुकड़ा किसी प्रयोगशाला में प्राप्त् किया जा सकता है । फिर आरएनए के इस टुकड़ें को कास प्रोटीन से जोड़कर कोशिका में डाल दिया जाता है । आम तौर पर इस तकनी में आरएन का जो टुकड़ा डाला जाता है वह २०-३० क्षारों की श्रृंखला से बना होता है । यह इन २०-३० क्षारों के क्रम का मिलान करता है और डीएनए को वहीं से काटता है जहां हुबहू वैसा ही क्रम पाया जाए । इसलिए इस बात की संभावना बहुत कम होती है कि डीएन को गलत जगह पर काट दिया जाएगा । वैसे यह संभावना रहती तो है ।
    आप देख ही सकते है कि इस तकनीक ने काम को कितना आसान बना दिया है । पहले यदि कोई वैज्ञानिक चाहे कि उसे ऐसा जन्तु चाहिए जिसमें कोई जीन विशेष काम न करें तो उसे काफी पापड़ बेलने पड़ते थे और जन्तु की तीन पीढ़ियों के बाद ही उसे ऐसे मनपंसद जन्तु मिल जाते थे । अब यह काम चंद महीनों में हो जाता है ।
    ऐसा नहीं है कि क्रिस्पर से पहले वैज्ञानिकों के पास जीन संपादन की कोई और तकनीक नहीं थी । दो अन्य तकनीकें रही हैं जिंक फिंगरन्यूक्लिएज तकनीक और टेलन तकनीक । इसके अलावा पारम्परिक तकनीक भी रही है ।
    पारंपरिक रूप से यदि आपको कोई ऐसा जन्तु (मान लीजिए चूहा) बनाना है जिसमें कोई  एक जीन काम न करता हो तो आपको करना यह होगा कि पहले उस जीन की परिवर्तित डीएनए श्रृंखला तैयार करें, और फिर उसे चूहे के भ्रूण में डाल दें । अब यह संयोग की बात होगा कि वह जीन चूहे के भ्रूण में फिट हो जाएगा । इसके बाद जो चूहे बनेंगे उसमें दो तरह की कोशिकाएं होगी - एक मूल जीन वाली और दूसरी परिवर्तित जीन वाली । ऐसी मिली-जुली जेनेटिक संरचना वाले जन्तुआें को शिमेरा कहते हैं । इनमें से कुछ शिमेरा (संयोगवश) ऐसे होंगे जिनके प्रजनन अंगों में परिवर्तित जीन    होगे ।
    अब इन चूहों को चुनकर उनको सामान्य चूहों से प्रजनन करने दिया जाएगा । अब जो चूहे पैदा होंगे उनमें संभावना है कि कुछ चूहों की हरेक कोशिका में एक सामान्य जीन तथा एक परिवर्तित जीन होगा । जब इनकी मदद से तीसरी पीढ़ी बनाई जाएगी तब जाकर कुछ ऐसे चूहे मिलेंगे जिनमें जीन की दोनों प्रतिलिपियों परिवर्तित वाली होगी । यानी हर मोड़ पर संयोग और संभावना का खेल है यह ।
    इसके बाद आई टेलन व जिंक फिंगर न्यूक्लिएज तकनीकें । इन दोनों ने काम तो आसान हो गयाम गर फिर भी श्रमसाध्य रहा । दोनों में ही एसे एंजाइम का उपयोग होता है जो डीएनए को विशिष्ट क्षार श्रृंखला पर तोडते है मगर इनमें करना यह होता है कि ऐसी प्रत्येक श्रृंखला के लिए अलग एंजाइम का निर्माण करना पड़ता है । क्रिस्पर ने पूरी प्रक्रिया को एकदम आसान बना दिया है । आपको सिर्फ इतना करना है कि मनचाहे जीन की क्षार श्रृंखला पता करके उसके साथ कास एंजाइम को जोड़ देना है और इस संकुल को कोशिका में प्रविष्ट करा देना है ।
    इस तकनीक की सरलता को देखते हुए वैज्ञानिकों को लग रहा है कि इसका चिकित्सा कार्य में उपयोग बहुत आसानी से हो   सकेगा । यह चिंता का विषय भी   है । इस तकनीक की मदद से यह बहुत आसान हो जाएगा कि किसी आनुवंशिक रोग से संबंधित जीन को निष्क्रिय कर दिया जाए या गलत जीन के स्थान पर सही जीन को प्रत्यारोपित कर दिया जाए । यह काम उन कोशिकाआें में भी किया जा सकता है जो प्रजनन में शरीक नहीं होंगी । इन कोशिकाआें को जीव विज्ञान की भाषा में कायिक कोशिकाएं कहते है । यदि कायिक कोशिकाआें में जीन का संपादन किया जाता है, तो वह उसी व्यक्ति तक सीमित रहेगा, अगली पीढ़ी में नजर नहीं आएगा । मगर जैसा कि चीन में किए गए अनुसंधान से स्पष्ट हो गया है, क्रिस्पर की मदद से ऐसे परिवर्तन भ्रूण कोशिकाआें में भी किए जा सकते हैं, जहां से वे प्रजनन कोशिकाआें में पहुंच जाएंगे और अगली पीढ़ियों में बरकरार रहेंगे ।
    एक बड़ी चिंता यह भी है कि क्रिस्पर तकनीक, अपनी सरलता के चलते, मनपसंद गुणों वाले शिशु (जिन्हें डिजाइनर शिशु कह सकते हैं) के निर्माण का रास्ता खोल सकते   हैं । मतलब जरूरी नहीं है कि बात सिर्फ व्यक्तियों रोगों के इलाज पर रूक जाए । यह हमेशा के लिए किसी जीन को चुप कराने या नया जीन प्रत्यारोपित करने तक पहुंच सकती  है । और बात सिर्फ रोगवाहक जीन तक नहीं बल्कि मनचाहे गुण (जैसे गोरापन) पैदा करने की कोशिशों तक जा सकती है । क्रिस्पर तकनीक की क्षमता का सबसे पहला प्रदर्शन २०१२ में किया गया था । उसके बाद २०१३ में इस तकनीक की मदद से एक जीन को हटाकर उसकी जगह दूसरा जीन जोड़ने में सफलता मिली । फिर तो बाढ़ आ गई । पिछले दो वर्षो में क्रिस्पर को लेकर सैकड़ों शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं । कुछ वैज्ञानिकों ने चूहों के डीएनए की मरम्मत करके उन्हें रोगों से मुक्ति दिलवाई । कुछ वैज्ञानिकों ने फसलों में नए-नए जीन जोड़ने से संबंधित प्रयोग किए । 
    इस विषय पर विचार-विमर्श के लिए हाल ही में आयोजित एक सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कहा है कि फिलहाल प्रजनन कोशिकाआें के साथ इस तरह के प्रयोग न किए जाए और यदि किए जाएं तो उन्हें गर्भावस्था तक न ले जाया जाए । हां, वैज्ञानिकों ने इस तकनीक की क्षमता को कई क्षेत्रों में लाभदायक ढंग से उपयोग करने की बात भी स्वीकार की है । जैसे जीन संपादन के जरिए फसलों को उन्नत बनाना इसका एक उदाहरण हो सकता है । यह भी कहा जा रहा है कि रोगवाहक जन्तुआें (जैसे मच्छर) में इस तरह के जीन वाले मच्छरों को प्रविष्ट कराया जा सकता है जो मच्छरों पर नियंत्रण में मददगार साबित होंगे । यह भी माना गया है कि व्यक्ति को किसी रोग (जैसे हीमोफीलिया, मधुमेह वगैरह) से छुटकारा दिलवाने के लिए इस तकनीक पर प्रयोग जारी रहने  चाहिए । इस संदर्भ में बौद्धिक संपदा के मामले भी उभरेंगे और उभर चुके है । इस मामले में विभिन्न देशों में अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं, अलग-अलग कानूनी परिवेश हैं ।
कविता
शुभकामनाएं
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

नए साल की  शुभकामनाएं
खेतों की मेडों पर
धूल भरे पांव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गांव को
नए की साल शुभकामनाएं
जाते के गीतों को
बैलों की चाल को
करघे को कोल्हू को
मछुआें के जाल को
नए की साल शुभकामनाएं
इस पकती रोटी को
बच्चे के शोर को
चौके की गुनगुन को
चूल्हे की भोर को
नए की साल शुभकामनाएं
वीराने जंगल को
तारो को रात को
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को
नए की साल शुभकामनाएं
इस चलती आंधी में
हर बिखरे बाल को
सिगरेट की लाशों पर
फूलों से ख्याल को
नए की साल शुभकामनाएं
कोट के गुलाब और
जूड़े के फूल को
हर नन्हींयाद को हर छोटी भूल को
नए की साल शुभकामनाएं
उनको जिनने चुन-चुन कर
ग्रीटिंग कार्ड लिखे
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे
नए की साल शुभकामनाएं
हमारा देश
भारत की प्राकृतिक संपदा की लूट
डॉ. मिथिलेश कुमार दांगी
    भारत और इंडिया के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। भारत का एक वर्ग सत्ताधीशों के साथ मिलकर देश की प्राकृतिक संपदा को खुलेआम लूट रहा है । इस प्रक्रिया से देश के आम नागरिकों का आर्थिक व सामाजिक स्तर दिनांे दिन कमजोर होता जा रहा है ।
    मानव जीवन के सृष्टिकाल से ही मानव का अपने पर्यावरण के साथ अगाध संबंध है । मनुष्य अपनी जरूरत की चीजें पर्यावरण से लेता रहा है । वस्तुत: वह भी स्वयं प्रकृति का एक अंग है। परंतु जब मानव सभ्यता स्थायी हुई और पहले समाज एवं बाद में सरकार नामक संस्थाओं का गठन शुरु हुआ तभी से मानव जीवन में दूसरे शक्तिशाली मानव की दखल अंदाजी भी प्रारंभ हो गई ।
     भारत के संदर्भ में कहें तो आदिकाल से अंग्रेजों के आने तक प्राकृतिक संसाधनों की मालिकियत जनसमुदाय के हाथों में सुरक्षित    रही । परंतु अंग्रेजों के शासनकाल में सभी संसाधनों से धन वसूली की चाहत ने लोेगों से यह अधिकार छीन लिये । अंग्रेजोंे के चले जाने के बाद हालांकि संविधान में सिद्धांत: संसाधनों पर जनसमुदाय को नियंत्रण दिया गया है परंतु गैर संवैधानिक ढंग से सरकारों ने इन्हें अपने हाथों में रख लिया तथा इनके लूट की खुली छूट देशी एवं विदेशी कंपनियों को दे दी है । विकास एवं रोजगार के नाम पर हमारे देश का एक वर्ग सरकारों के इन कुकृत्यों का समर्थक एकं पोषक बना हुआ है । तथाकथित विकास के इस दौर में देश के अंदर स्पष्टत: दो देश दिख रहे हैं। इनमें से एक का नेतृत्व इसके१०-१५ प्रतिशत लोग कर रहे हैं जो देश को ``इंडिया`` कहते हैंऔर जिन्होंने देश के ७०-८० प्रतिशत संसाधनों पर कब्जा कर रखा है ।
    यह देश भारत का शोषक   है । दूसरे भाग में ८५-९० प्रतिशत लोेग निवास करते हैं जो अपने देश को भारत के नाम से जानते हैंऔर जिनके हिस्से में देश के २०-३० प्रतिशत संसाधन आ पाते हैं । इसी भारत में शोषित समाज जिनमें किसान, कारीगर, एवं अन्य मेहनतकश ग्रामीण शामिल हैं, निवास करते हैं ।
    इंडिया एवं भारत के बीच की खाई अब विकराल रूप लेती जा रही है । सबसे दुखद बात तो यह है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें `इंडिया` के विकास के लिए `भारत` को नेस्तनाबूत करने पर तुली हुई हैं ।  विकास के नाम पर भारत केदलितों, जनजातियों एवं किसानों से उनकी उपजाऊ जमीनें कंपनियोंके लिए छीनकर उन्हें बेदखल किया जा रहा है । भारत सरकार नए नए कानूनों एवं अध्यादेशों के माध्यम से उन्हें बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है । कारपोरेट शक्तियों के हाथों देश के संसाधनों को बुरे तरीके से लुटवाया जा रहा है। आज का भारत एक तरह से इंडिया का उपनिवेश बन कर रह गया है ।
    सौभाग्यवश इस लूट के खिलाफ संघर्ष करने वाले मुट्ठी भर लोग वास्तविक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं । परंतु दुर्भाग्य यह है कि अपने संसाधनों की रक्षा करने वाले यह तमाम संघर्षशील लोग बिखरे हुए हैं । इन लोगों की स्थिति कबीले जैसी है । प्रत्येक कबीला प्रमुख अपने आप को श्रेष्ठ तथा दूसरे नेतृत्व को कमतर समझता है । इसका परिणाम यह हो रहा है कि सभी बचाने वाले अलग अलग दिखाई पड़ते हैं जबकि संसाधनों को लूटने वाले एकजुट होकर आम जनता पर लगातार आक्रमण कर रहे हैं । समय की पुकार है कि ऐसे तमाम संघर्षशील अपने अपने कबीलों से बाहर निकलकर एकजुट हों तथा सभी प्राकृतिक संसाधनों जो जनसमुदाय के हैं, उनकी रक्षा एवं उस पर मालिकियत स्थापित करने के लिए साझा संघर्ष प्रारंभ किया जाए ।
    भारत का संविधान (अनुच्छेद ३९ बी) भी संसाधनों पर जनसमुदाय की मालिकियत की बात करता है । सर्वोच्च् न्यायालय के एक फैसले में यहां तक कह दिया गया कि जमीन मालिक ही खनिज का मालिक है सरकारें नहीं । इतने स्पष्ट फैसले के बावजूद वर्तमान मोदी सरकार ने एक और कानून बनाकर खनिज लूट को बेतहाशा बढ़ाया गया है । अब तो रायल्टी के नाम पर देश को  ठगा जा रहा है ।
    खनिजों पर मालिकियत की अनिवार्यता को समझने के लिए झारखंड़ में कोयला एवं सोना भंडार को देख सकते हैं । अन्य खनिजों की लूट को शामिल कर दिया जाए तो यह लूट लगभग १००० गुना हो    जाएगी । झारखंड सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक ``ग्रीन कॉरिडोर`` के अनुसार झारखंड में सोने का भंडार ७२ मिलियन टन है यानी ७ करोड़ २० लाख टन अर्थात ७२ अरब किलोग्राम  अगर भारत की आबादी अगले दो वर्षों में १४४ करोड़ हो जाए तो भारत में प्रति व्यक्ति ५० किलोग्राम सोना भंडार सिर्फ  झारख्ंाड में है । यह भंडार यहां की सरकार ने न्यूजीलैंड की दो कंपनियों को खनन के लिए दिया    है । इसी प्रकार झारख्ंाड मेें कोयला का भंडार है ६९००० मिलियन टन जिसकी बाजार भाव ३००० रु. प्रति टन के हिसाब से कुल कीमत आती है २०७ मिलियन रुपये । इसका अर्थ हुआ २ करोड़ ७ लाख करोड़ रुपये । अर्थात् झारखंड से सिर्फ  कोयला मद में देश के एक व्यक्ति के हिस्से के एक लाख ६५ हजार रु. कंपनियों को दिए जा रहे हैं । इसी तरह समूचे देश की संपत्ति का ब्योरा लगाया जा सकता है ।
    अतएव संघर्ष के साथियों के बीच यह प्रश्न उठता है कि इस लूट के चुपचाप सहते रहंे या इसके खिलाफ एकजुट होकर इसे रोकें तथा इन संसाधनों पर जनसमुदाय के स्वामित्व की दिशा में आगे बढ़ें । हमें अब मुआवजा तथा पुनर्वास के बहकावे से ऊपर उठना होगा । तभी भारत के ७०-८० जनता की भलाई हो पाएगी तथा उन्हें इज्जत की जिंदगी नसीब हो पाएगी अन्यथा वे उजड़ते रहेंगे ।
भारतीय पत्रकारिता स्थापना दिवस पर विशेष
पत्रकारिता : स्पष्ट विचारोंकी अभिव्यक्ति
स्वामी निरंजनानंद सरस्वती
    हम समाज में दो शब्दों का प्रयोग करते हैं । एक शब्द है समाज का विकास और दूसरा शब्द है समाज का निर्माण । दोनों का अर्थ अलग होता है ।
    हम देखें तो समाज विकास का जो क्षेत्र है, उसको हम सरकारी तंत्र से जोड़कर देख सकते हैं क्योंकि सरकारी तंत्र का जो कार्य होता है, जनता के लिए सुविधा तथा कौशल उपलब्ध कराने का, ताकि जनता अपने सुख, समृद्धि तथा शांति के मार्ग पर चल सके । परिवार तथा समाज का उत्थान एवं कल्याण दोनों कर सके । समाज विकास का संबंध है परिवर्तन और व्यवस्था के साथ । चिंतन के दो रूप होते हैं । एक सकारात्मक चिंतन, जो जीवन परिवार और समाज कल्याण के  लिए होता है । एक नकारात्मक चिंतन, जो जीवन में चिंता और परेशानी का कारण बनता है। दोनों की उत्पत्ति एक ही है । जब हम अपने प्रयासों से दूसरे का उत्थान और कल्याण करते हैं तो, वह चिंता का रूप नहीं चिंतन का रूप होता है और हमारे देश के जो मनीषी रहे हैं, हमारे देश के जो अच्छे लोग हैं, वे चिंतक हैं । हम आपको एक और तरीके से समझाने का प्रयास करते हैं । चिंंता और चिंतन मंे अंतर या भेद । एक मनुष्य यात्रा करता है, लेकिन उसके पास नक्शा नहीं है, उसको हर पल की चिंता होती है कि मैं किस दिशा में जाऊं । जिस दिशा में जा रहा हूं, क्या वह सही दिशा है या मेरा रास्ता भटक रहा है । तो जिस व्यक्ति के पास नक्शा नहीं होता है, उसके जीवन में चिंता है । लेकिन जो व्यक्ति समाज के नक्शे को देखता है ओर समझता है, वह चिंतन है । 
     यही अंतर सकारात्मक सोच और नकारात्मक सोच में भी है । हमारे भारत में चिंता करने वाले और चिंतन करने वाले भी लोग हैं । हम चिंतन करते हैं तो वह समाज के लिए प्रेरणा कार्य होता है । समाज को प्रेरित करते हैं । एक विचार देकर, एक लक्ष्य देकर, एक उद्देश्य प्रदान करके । समाज निर्माण की बात करंे तो जब एक मनुष्य अपने चिंतन द्वारा अपना पथ तय करता है और वर्तमान की आवश्यकताओं के अनुसार समाज को आगे बढ़ाने का निर्माण करने का संकल्प लेता है तब उस चिंतन को समाज में प्रसारित करने के लिए जरूरत होती है पत्रकारिता की । और पत्रकारिता का अर्थ होता है स्पष्ट विचारों को व्यक्त करना, भ्रांतिपूर्ण विचारों को नहीं । भ्रांतिपूर्ण विचारों से बचते हुए आप जो कहना चाहते हैंं उसे कम शब्दों या वाक्यों में कहने की जरूरत है, क्योंकि स्थान उतना ही मिलता है । इसलिए आपको अपना स्पष्ट विचार रखना होता है । इसलिए अपनी ही लेखनी पर आपको स्वयं विचार करना होता है, आप जो लिख रहे हैं, वह सही है या नहीं इस पर भी ध्यान देना होता है । हम जो सोच रहे हैं या व्यक्त कर रहे हैं वह सही है या नहीं ।
    पत्रकारिता चिंतन की अभिव्यक्ति है और उस चिंतन का एक लक्ष्य रहता है। इसलिए पत्रकारिता में भी इसकी स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है कि मनुष्य संकल्प को लेकर, विचार को लेकर आगे बढ़ रहा है । जब लक्ष्य सामने नहीं हो तो वहां विच्छेद आरंभ होता है । मनुष्य के मन का भटकाव आरंभ होता है और फिर पत्रकारिता में, संदेश के प्रसारण में उद्देश्य नहीं दिखाई देते ।
गांधी जी ने अपने चिंतन में भारत के बारे में एक कल्पना की । भारतीय समाज की कल्पना की । जिस प्रकार समाज के भेदों, विचारों को उन्होंने प्रस्तुत किया, उनके विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम बना पत्रकारिता। उसी प्रकार आधुनिक परिवेश में ऊनके चिंतन का रूप केवल आध्यात्मिक नहीं था, जब वे बार-बार कहते रहे, उदाहरण देकर गए कि अगर एक परिवार में चार बच्च्ें हैं, एक सक्षम है, स्फूर्तहै, एक कमजोर और अपंग है, तो एक अभिभावक के नाते आप किसका अधिक ध्यान रखोगे ? जो सक्षम है, मजबूत है उनका ख्याल करोगे या एक अपंग का, जो कमजोर है उसका ख्याल करोगे ?
    हमारे भारतीय समाज में भी यही परिस्थिति रही है और हमने गलती की । हमने मजबूत, शिक्षित संतानों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया, जो अपंग था, कमजोर था, उसके लिए नहीं    किया । आज समाज में जो अराजकता है, वह इसी कारण है, क्योंकि हमने पूर्व में गलती की है, हमने अपनी कमजोर संतानों का ख्याल नहीं किया । यही तो आज हम सबको चाहिए, समाज को चाहिए और हम सब एक दूसरे का सहयोग कर सकते हैं, एक दूसरे के उत्थान के लिए कार्य कर सकते हैं । समाज निर्माण के लिए एकत्र हो सकते हैं । पहले नीति स्पष्ट करो । आधुनिक परिप्रेक्ष्य और संदर्भ को मनुष्य के उत्थान के लिए क्या परिपाटी होनी है, क्या मार्ग होना है, क्या तरीका होना है, इसको तो स्पष्ट किया जाए । हम तो ऐसी परंपरा से जुड़े हैंजो शांति को प्राप्त करने का प्रयास नहीं करता है। इसलिए इस विचारधारा से प्रभावित होकर यह जानने के प्रयास करते हैं कि अशांति के क्या-क्या कारण हैं और इन कारणों का निवारण किस प्रकार सकारात्मक रूप में हो सकता है । 
    इस चिंतन का प्रसारण यदि पत्रकारिता के माध्यम से हो तो हम एक अच्छे समाज की कल्पना कर सकते हैं । जैसा कि कहा गया सोशल मीडिया में पत्रकारिता प्रवेश कर रहीं है । ठीक है सोशल मीडिया अपना काम करे । सोशल मीडिया में छोटी सी बात को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप मिल सकता है । मनुष्य को भटकने से रोकें और यह शक्ति पत्रकारों के पास है । हम लोग सही विचार व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन उस विचार को प्रसारित करना, जन-जन तक पहुंचाना और मानने के लिए लोगों को प्रेरित करना आदि काम पत्रकार करते हैंऔर कर सकते हैं । समाज में सकारात्मक व्यवस्था लाने की दिशा में हमारे प्रयास निरंतर जारी रहना चाहिए ।
जनजीवन
भूकम्प क्षेत्रों का पुननिर्धारण
डॉ. ओ.पी. जोशी
    विकास की आधुनिक अवधारणा के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन का दानव अब पृथ्वी और आकाश के बाद पाताल लोक में भी पहुंच गया है । भारत के तमाम हिस्से जो पहले सामान्यतया भूकम्परोधी माने जाते थे अब भूकम्प के प्रति संवेदनशील होते जा रहे हैं । यह हमारे भविष्य की पीढ़ियों व वर्तमान आधारभूत संरचना के लिए अत्यंत खतरनाक है ।
    भारत विश्व के उन पांच देशों में शामिल है जहां भूगर्भीय आपदाओं का सबसे ज्यादा खतरा है । ब्यूरो आफ इंडियन स्टंेडर्ड के अनुसार देश को पांच भूकम्पीय क्षेत्रों (जोन) में बांटा गया था । परंतु बाद में किये गये अध्ययनों के आधार पर चार जोन ही रह गये । वर्ष २००५ में भूगर्भ वैज्ञानिकों ने बताया कि देश का कोई भी हिस्सा जोन एक में नहीं है । 
     पहले देश का निचला हिस्सा यानी दक्षिण भारत के कुछ भागों को जोन एक में रखा गया था । वर्तमान में केवल २ से ५ तक जोन हैं। जोन दो, जिसे सबसे कम खतरे वाला माना जाता है, अब दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्र शामिल हैं। जोन तीन, जहां झटके आने की सम्भावना बनी रहती है, उसमें देश के मध्य भाग को रखा गया है। जोन चार, जहां खतरा लगातार बना रहता है, उसमें उत्तर भारत सहित दिल्ली व तराई के क्षेत्र शामिल हैं । जोन पांच के अंतर्गत भूकम्प के हिसाब से माने जाने वाले सबसे खतरनाक हिमालयीन क्षेत्र, पूर्वीतट क्षेत्र एवं कच्छ आते हैं ।
    दक्षिण भारत को भूकम्प के संदर्भ में सुरक्षित समझे जाने वाली अवधारणा कोउस क्षेत्र में आए भूकम्पों ने गलत साबित कर दिया है। ११ दिसम्बर १९६७ को जब भूकम्प आया तो वैज्ञानिक आश्चर्यचकित रह गए क्योंकि तब तक यह माना जाता था कि यह इलाका भूगर्भीय गतिविधियों से सुरक्षित है । पश्चिमी तटीय क्षेत्र भी भूकम्प के संदर्भ मंे अब उतना सुरक्षित नहीं है जितना कि माना जाता था । यहां वर्ष १५९८ से लेकर १८३२ तक १० भूकम्पांे का वर्णन मिलता है। वर्ष १७५७ व वर्ष १७६४ के भूकम्प महाबलेश्वर के क्षेत्र में आये थे ।
    सितम्बर १९९३ में महाराष्ट्र के लातूर तथा उस्मानाबाद में आये भयानक भूकम्प पर बैंगलूर के सेंटर फार मेथेमेटिक्स के वैज्ञानिक प्रो. विनोद गौड़ ने बताया था कि ``लातूर के भूकम्प ने प्रचलित मान्यताओं को हिलाकर रख दिया है जिससे साबित होता है कि भारतीय महाद्वीप में कहीं भी ६.५ तीव्रता का भूकम्प आ सकता है अर्थात कन्याकुमारी से हिमालय तक फैला देश भूकम्प का शिकार बन सकता  है ।``
    इस भूकम्प ने स्पष्ट कर दिया कि दक्षिण भारत का क्षेत्र भी अब स्थायी एवं सुरक्षित नहीं है। दिसम्बर २००४ में आयी सुनामी ने भी कई पुरानी प्रचालित मान्यताओं को बदल दिया । इस समय देश विदेश के प्रसिद्ध भू-वैज्ञानिकांे तथा भूकम्प विशेषज्ञों ने बताया था कि भारतीय प्लेट भूकम्प के हिसाब से ज्यादा सक्रिय हो गई है जिसका लगातार अध्ययन कर निगरानी रखना  जरुरी हो गया है। भूकम्प कोई भौगोलिक सीमा नहीं मानता अत: इस समस्या से जुड़े देशों को संयुक्त रूप से अध्ययन व निगरानी का कार्य करना चाहिए । ९.३ तीव्रता की सुनामी के तीन माह बाद उसी स्थान पर ८.६ तीव्रता का भूकम्प आया एवं वर्ष २००५ में ७.६ तीव्रता का भूकम्प फिर भारत व पाकिस्तान में आया ।
    वर्ष २००९ में पूर्वोतर क्षेत्र में प्रत्येक दस दिन में भूकम्पीय झटकें आये एवं भूगर्भीय हलचल तेज हुई । शिलांग स्थित संेट्रल सिस्मोलाजिकल आब्जर्वेटरी के अनुसार इस क्षेत्र में पिछले २५ वर्षोंं में हल्के व मामूली तीव्रता के ३४ झटके आये । इसी संस्थान के आकलन के अनुसार वर्ष २००५, २००६ एवं २००७ में क्रमश: ३८, २३ एवं २६ कंपन महसूस किये गये । अप्रैल २०१५ में नेपाल में आया भूकम्प तथा २४ अक्टूबर २०१५ को पाकिस्तान व अफगानिस्तान में आया ७.८ तीव्रता का भूकम्प प्लेट की सक्रियता बढ़ने को दर्शाते हैं । तिरुवनंतपुरम स्थित सेंटर फार अर्थ साइंस के प्रो. सी.पी. राजेन्द्रन ने भी प्लेट की सक्रियता बढ़ने को सही बताते हुए देश भर में सतर्कता रखने हेतु कहा था ।
    अप्रैल २०१५ में नेपाल में आये विनाशकारी भूकम्प के संदर्भ में आय.आय.टी. खडगपुर के भूकम्प वैज्ञानिकक  प्रो. एस. के. नाथ ने कहा था कि ``भूगर्भीय संरचनाओं में आ रहे बदलाव के कारण भूकम्प के क्षेत्रों का फिर से निर्धारण करना जरुरी हो गया है । कल तक देश के जो शहर भूकम्प के जोन तीन में थे वे आज जोन चार में हो सकते हैं ।
    वैसे भी भूकम्प मानव द्वारा बनाये नियम, कानून या जोन आदि को नहीं मानता । कुछ वर्षों पूर्व तक दक्षिण भारत सुरक्षित था परंतु अब नहीं रहा । भविष्य मंे यह भी हो सकता है कि पूरा देश ही भूकम्प के प्रति संवदेनशील हो जाए । अभी देश में विकास की आंधी चल रही है, स्मार्ट शहर बनाये जा रहे हैं, मेट्रो रेल परियोजनाओं की डी.पी.आर. बन रही है, विदेशी पूंजी निवेश कई क्षेत्रों मेंे बढ़ रहा है, कस्बे नगर व नगर महानगर बन रहे हैं एवं इंडिया डिजीटल हो रहा है। इन सभी में भूकम्प की सम्भावनाओं को प्राथमिकता देना जरुरी है ।``
विज्ञान, हमारे आसपास
मानव क्लोनिंग : सत्यता के बेहद करीब
संध्या राय चौधरी
    वैज्ञानिकों  ने त्वचा की स्टेम कोशिकाआें को प्रारंभिक भ्रूणों में बदल कर मानव क्लोनिंग में एक बहुत बड़ी सफलता प्राप्त् की है । स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं, जो विभाजित होने के बाद शरीर की किसी भी विशिष्ट कोशिका के रूप में विकसित हो सकती है ।
    नई तकनीक से उत्पन्न भ्रूणों का इस्तेमाल प्रत्यारोपण ऑपरेशनों के लिए विशिष्ट ऊतक (टिशु) उत्पन्न करने में किया जा सकता है । क्लोनिंग तकनीक में यह सफलता डॉली नामक भेड़ के जन्म के १७ साल बाद हासिल हुई है और इससे ह्दय रोग और पार्किसन जैसी बीमारियों के बेहतर इलाज की उम्मीदें जगी है । लेकिन इस सफलता से कुछ नए विवाद खड़े हो सकते हैं । कुछ लोग मेडिकल उद्देश्यों के लिए मानव भ्रूण उत्पन्न करने पर नैतिक सवाल उठाएंगे । 
     सबसे बड़ा खतरा वैज्ञानिक यह मान रहे है कि शिशु क्लोन चाहने वाले दंपतियों के लिए इसी तकनीक से परखनली भ्रूण उत्पन्न किए जा सकते हैं । बहरहाल, नई तकनीक विकसित करने वाले वैज्ञानिकों का दावा है कि उनकी रिसर्च का मुख्य उद्देश्य मरीज की अपनी स्टेम कोशिकाआें से एसे विशिष्ट ऊतक उत्पन्न करने का है, जिन्हें प्रत्यारोपण के लिए इस्तेमाल किया जा सके । उनका यह भी कहना है कि इस तकनीक का प्रजनन से कोई लेना-देना नहीं है । लेकिन दूसरे वैज्ञानिकों का मानना है कि इस उपलब्धि से हम शिशु क्लोन की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गए है ।
    मरीज की स्टेम कोशिकाआें से समुचित मात्रा में भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करना चिकित्सा विज्ञान के लिए एक बड़ी चुनौती    थी । अमेरिका में पोर्टलैंड स्थित ओरेगन हेल्थ एंड साइंस युनिवर्सिटी के प्रमुख रिसर्चर शोहरत मितापिलोव ने एक साक्षात्कार में बताया कि उन्होनें बहुत कम मात्रा में मानव अंडाणुआें से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने के लिए सेल के कल्चर में कैफीन मिलाई थी । पहले यह सोचा गया था कि ऐसा करने के लिए हजारों मानव अंडाणुअेेंकी जरूरत पड़ेगी । लेकिन मितापिलोव की टीम ने सिर्फ दो मानव अंडाणुआें से एक भ्रूण स्टेम कोशिका उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त् की । डाँ. मितापिलोव का कहना है कि यह तरीका मेडिकल इस्तेमाल के लिए ज्यादा कारगर और व्यावहारिक है ।
    इस विधि से उन मरीजों के लिए स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न की जा सकती हैं, जिनके अंग बेकार या अशक्त हो चुके हैं । इससे उन रोगों से छुटकारा पाने में मदद मिलेगी, जो दुनिया में लाखों लोगों को प्रभावित करते हैं । शोधकर्ताआें ने अपनी नई तकनीक में आनुवंशिक रोग वाले शिशु की त्वचा कोशिकाएं निकाल कर उन्हें डोनेट किए गए मानव अंडाणुआें में प्रत्यारोपित कर दिया । इस विधि से उत्पन्न मानव भ्रूण आनुवंशिक दृष्टि से आठ महीने के भ्रूण से मिलते-जुलते थे । भ्रूण से उत्पन्न कोशिकाआें में मरीज का ही डीएनए था, लिहाजा इन्हें बेहिचक मरीज के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा सकता था । शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली द्वारा इन्हें ठुकराने का कोई खतरा नहीं था ।
    प्रयोगशाला में चूहों और बंदरों जैसे जानवरों में इस तकनीक से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने में सफलता मिल गई थी । अलबत्ता, मनुष्यों में इसको दोहराने के प्रयास विफल हो रहे थे क्योंकि मानव अंडाणु कोशिकाएं बेहद नाजुक होती है ।
    विज्ञान शोध पत्रिका सेल में प्रकाशित रिसर्च में वैज्ञानिकों ने अंडाणु के विकास में आने वाली समस्याआें से बचने के तरीके बताए और सिद्ध किया कि इस तकनीक से दिल, लीवन और स्नायु कोशिकाएं विकसित की जा सकती हैं । शोधकर्ताआें का विचार है कि पिछली क्लोनिंग तकनीकों की तुलना में नई विधि नैतिक दृष्टि से ज्यादा स्वीकार्य है क्योंकि इसमें निषेचित भ्रूणों का प्रयोग नहीं किया जाता ।
    जापानी शोधकर्ताआें ने कुछ समय पहले मानव त्वचा से स्टेम सेल निकालने का तरीका विकसित किया था, लेकिन इसमें उन्होनें रसायनों का इस्तेमाल किया था । कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तरीके से जीन्स में हानिकारक बदलाव हो सकते हैं । दक्षिण कोरिया की सोल नेशनल युनिवर्सिटी के वू सुक ह्ववांग के नेतृत्व में कुछ वैज्ञानिकों ने २००४ में क्लोनिंग से मानव भ्रूण उत्पन्न करने का दावा किया था । बाद में उन्होनें इन भ्रूणों से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं निकालने का दावा भी किया था ।
    लेकिन अनैतिक आचरण और धोखधड़ी के आरोपों के बाद उन्हें रिसर्च के नतीजों को वापस लेना पड़ा । कुछ अन्य शोधकर्ताआें ने भी क्लोनिंग से मानव भ्रूण उत्पन्न करने का दावा किया, लेकिन इनमें कोई भी यह साबित नहीं कर सका कि इन भ्रूणों से समुचित मात्रा में ऐसी भ्रूणीय कोशिकाएं उत्पन्न करना संभव है, जिन्हें प्रयोगशाला में विशिष्ट ऊतकों में बदला जा सके ।
    डॉ. मितापिलोव की तकनीक की खास बात यह है कि क्लोन किए गए मानव भ्रूण १५० कोशिकाआें वाली अवस्था तक जीवित रह सकते हैं । इस अवस्था को ब्लास्टोसिस्ट भी कहते हैं । इस अवस्था से भ्रूण स्टेम कोशिकाआें निकालजी जा सकती हैं, जिन्हें बाद में स्नायु कोशिकाआें, ह्दय कोशिकाआें या लीवर की कोशिकाआें के रूप में विकसित किया जा सकता है । प्रत्यारोपण के बाद मरीज द्वारा इन्हें खारिज किए जाने की आशंका नहीं है क्योंकि इन कोशिकाआें को मरीज की अपनी आनुवंशिक सामग्री से ही उत्पन्न किया गया है ।
    इस क्लोनिंग तकनीक का दुरूपयोग संभव है । ह्मूमन जेनेटिक्स अलर्ट के निदेशक डेविड किंग का कहना है कि वैज्ञानिकों ने अंतत: वह रास्ता दिखा दिया है, जिसका मानव क्लोन बनाने में जुटे शोधकर्ताआें को बेसब्री से इंतजार था । उन्होंने कहा कि नए शोध को प्रकाशित करना एक गैर-जिम्मेदाराना कदम है । इस संबंध में और आगे शोध शुरू होने से पहले ही हमें मानव क्लोनिंग पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने पर शीघ्र विचार करना चाहिए । कमेंट ऑन रिप्रोडक्शन एथिक्स की जोसेफीन क्विंटावाल ने इस शोध के औचित्य पर ही सवाल उठाया है । उन्होनें कहा कि स्टेम कोशिका उत्पन्न करने के गैर विवादित तरीके पहले से उपलब्ध है । ऐसे में इस शोध की जरूरत क्या थी ।
    इमें उम्मीद करनी चाहिए कि इस शोध को प्रजनन क्लोनिंग की तरफ मोड़ने की कोशिश नहीं की जाएगी । डॉ. मितापितलोव का कहना है कि वे क्लोनिंग के जरिए बंदर शिशु उत्पन्न करने में असफल रहे    हैं । अत: इस बात की संभावना बहुत कम है कि इस तकनीक का उपयोग मनुष्य के क्लोन उत्पन्न करने के लिए किया जाएगा ।
    ब्रिटेन की न्यू कैसल युनिवर्सिटी की प्रोफेसर मैरी हर्बटे का मानना है कि नई तकनीक शरीर को अशक्त बनाने वाली बीमारियों के इलाज के लिए मरीज की जरूरत के हिसाब से स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने में मदद कर सकती है । एडिनबरा विश्वविघालय के डॉ. पॉल डिसूजा का मानना है कि महिलाआें के अंडाणुआें के बारे में हमारी बेहतर समझदारी से अनुर्वरता के नए इलाज खोजे जा सकते हैं ।
पर्यावरण परिक्रमा
बदलते पर्यावरण का बढ़ता प्रकोप
    पिछले दिनों सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की जारी रिपोर्ट बॉडी बर्डन २०१५ : स्टेट ऑफ इडियाज हेल्थ में देश की बिगड़ती आबोहवा का इंसानी स्वियास् पर पड़ने वाले नकारात्मक असर को लेकर गंभीर चिंता व्यकत् की गई   है । रिपोर्ट बताती है कि पर्यावरण में परिवर्तन से जन स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली आपदाआें में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है । इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन में मौसमी दशाआें की तीव्रता और डेगू मलेरिया जैसी बीमारियों में बढ़ोत्तरी देखने को मिलती है ।
    जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न हो रही अति मौसमी दशाआें के कारण जीवाणु और विषाणु जनित बीमारियां बारंबार महामारी का रूप ले रही है ।
    देश में ३.५ करोड़ भारतीय हर साल जलजनित बीमारियों का शिकार होते है । कुपोषण : २६ प्रतिशत रिपोर्ट के मुताबिक जल, साफ-सफाई और कुपोषण के बीच संबंध है । २०१५ में सहस्त्रादी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) में देश में कुपोषितों की संख्या घटकर २६ प्रतिशत करने का लक्ष्य था लेकिन अभी भी देश इस लक्ष्य से सात प्रतिशत पीछे है ।
    देश की आबादी में विटामिन और खनिज तत्वों की कमी से जीडीपी के १२ अरब डॉलर का नुकसान होता है । देश में १५ लाख बच्च्े केवल डायरिया से ही हर साल मर जाते हैं । जलजनित बीमारियों से उत्पन्न होने वाले रोगों से कार्य दिवसों का नुकसान होता है । पशु जनित बीमारियां पिछले ७० वर्षो मे पशुआें में होने वाली तकरीबन ३०० बीमारियां इंसानों को संक्रमित कर रही है । २७ लाख इन बीमारियों की वजह से सालाना मरने वाले लोगों की संख्या है ।
चीन में ताजी हवा बेची जा रही है     चीन में बढ़ता प्रदूषण सबकी चिंता का कारण बना हुआ है लेकिन कनाड़ा की एक कंपनी इसको कैश करने में लग गई है । ये कंपनी लोगों को ताजा पर्वतीय हवा से भरी बोतलें बेच रही हैं, जिसकी कीमत करीब १,८७० रूपये (२८ डॉलर) है। कनाडा के बैंफ और लेक लुईस से ताजी हवा लाने का दावा करती ये बोतलें चीन में लोगों का ध्यान खींच रही है और इन्हें खरीदने के लिए अभी से होड़ शुरू हो चुकी है । वाइटैलिटी एयर नाम की कंपनी प्रीमियम ऑक्सिजन की बोतल के लिए करीब १८७० रूपये वसूल रही है, जबकि बैंकएयर की बोतल के लिए लोगों को करीब १६०० रूपये देने पड़ रहे हैं ।
    चीन में वाइटैलिटी एयर के रीप्रेजेटेटिव हैरिसन वैंग ने बताया कि जैसे ही चीन की बेवसाइट टाओबा पर बोतलों को बेचने के लिए रखा गया, उन्हें तुरन्त खरीद लिया गया । कंपनी ने करीब दो महीने पहले चीने में इन बोतलों की मार्केटिंग शुरू की थी । ५०० बोतलों की बिक्री हो चुकी  है, जबकि ७०० बोतलों की शिपिंग की जा रही है । वैंग ने बताया कि चीन में प्रदूषण उनकी कंपनी के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है और वो चाहते है कि लोगों को ताजी हवा में सांस लेने का मौका मिले । वाइटैलिटी एयर अकेली ऐसी कंपनी नहीं है जो चीन के प्रदूषण को कैश कर रही है बल्कि यहां के एक रेस्त्रां ने हाल ही मेंएयर फिल्टरेशन मशीनें लगाई है ।
    बीजिंग में प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंचने के बाद दिसम्बर  में यहां रेड अलर्ट जारी कर दिया गया है । कुछ वक्त के लिए स्कूल को बंद और निर्माण कार्यो को रोक दिया गया है । कुछ ही गाड़ियां सड़कों पर उतर रही है और लोगों को घरों के अंदर ही रहने की हिदायत दी गई है । शंघाई में जनवर की शुरूआत से ही स्मॉग की समस्या बड़े स्तर पर है ।

अब खेत में बिजली बन सकेगी

    अगर सबकुछ सही रहा तो मध्यप्रदेश के किसान आने वाले समय में खेत में फसल के साथ बिजली उत्पादन भी करेंगे । इसके लिए सरकार तीन साल में ५ हजार करोड़ खर्च करने वाली है । किसानों को सौर ऊर्जा की ५ हॉर्सपॉवर की यूनिट पर ८० प्रतिशत सबसिडी    देंगे । इससे वे खेतों में ही बिजली तैयार कर सकेंगे ।
    खेतों में सौर ऊर्जा से बिजली तैयार होने पर बिजली कटौती से होने वाली समस्याआें से छुटकारा मिल जाएगा । इस यूनिट से उन्हें ७५ साल तक मुफ्त बिजली मिलेगी । यूनिट की प्लेटों की २५ साल की गांरटी होने से रखरखाव खर्च नहीं उठाना पड़ेगा । ५ से ६ लाख रूपये में युनिट पंप, पाइप, र्स्टाटर उपलब्ध है । किसान को बोरिंग करवाना पड़ेगा ।
    ५ हॉसपॉवर का पंप सीधे सोलर प्लेट से कनेक्ट रहेगा, जिसके बीच में चार्ज कंट्रोलर लगेगा । चार्ज कंट्रोलर सूर्य की घटती-बढ़ती तपन के हिसाब से करंट की सप्लाई देगा । पंप के साथ स्टार्टर लगा होगा, जिससे आवश्यकता होने पर पंप को बिजली दी या बंद की जा सकेगी ।
    अगल तीन वर्षो के लिए सरकार दो तरह की योजना बना रही है । एक तो जो किसान अस्थायी लेते हैं उन्हें स्थायी कनेक्शन दिया  जाएगा । दूसरी योजना खेतों में सोलर एनजी यूनिट लगाने की है । इच्छुक सभी किसानों को प्रदेश सरकार सहकारी बैंक से जोड़ेगी, वहा उनका पंजीयन होगा ।
    पूरे मामले में उन्हें ८० प्रतिशत तक सबसिडी मिलेगी, यानी यदि ६ लाख का प्रोजक्ट हुआ तो ४.८० लाख रूपये का अनुदान मिलेगा । इस प्रकार किसान की जेब से १.२० लाख रूपये ही खर्च होंगे । वह भी सहकारी बैंक से कर्ज पर उपलब्ध होंगे ।
अमीर लोग सबसे ज्यादा उज२ पैदा करते हैं
    ब्रिटिश संस्था ऑक्सफैम की रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के सबसे अमीर १० प्रतिशत लोग ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में से ५० प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं । यानी जीवाश्म ईधन को जलाकर धरती को गर्म करने वाली गैसों के कुल उत्सर्जन में से आधा तो ये १० प्रतिशत लोग पैदा करते हैं । और सबसे गरीब लोग (आबादी का ५० प्रतिशत) मात्र १० प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार  है । 
    यह तो लंबे समय से विवाद का विषय रहा है कि धरती को गर्म करने वाली जो गैंस बहुत अधिक मात्रा में वातावरण में पहुंच रही है, उसके लिए किसे दोषी ठहराया    जाए । ऑक्सफैम के जलवायु नीति के अध्यक्ष टिम गोरे का मत है कि जो लोग सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस पैदा करते हैं, उन्हीं को इसके लिए जवाबदेह माना जाना चाहिए और ये दुनिया के सबसे अमीर १० प्रतिशत लोग हैं । रिपोर्ट के मुताबिक सबसे अमीर १ प्रतिशत लोगों में औसतन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन सबसे निचले पायदान पर रहने वाले १० प्रतिशत लोगों के औसत कार्बन उत्सर्जन से पूरे १७५ गुना ज्यादा है।
    जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याआें में जवाबदेही के मामले में अमीर और गरीब देशों के बीच काफी  विवाद रहा है । मूलत: कोयला, तेल और गैस जलाने की वजह से पैदा होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड की जिम्मेदारी के मामले में विकासशील देशों का कहना है कि औघोगिक देशों ने अधिकांश प्रदूषण फैलाया है और उन्हें इसकी क्षतिपूर्ति करनी चाहिए । विकासशील देशों की एक मांग     यह भी है कि औघोगिक देशों को धरती गर्माने के प्रभावों से निपटने में गरीब राष्ट्रों की मदद करनी चाहिए क्योंकि ये प्रभाव औघोगिक देशों की करतूतों के परिणाम है ।
    मगर ऑक्सफैम की ताजा रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट होता है कि जहां राष्ट्रों के बीच जिम्मेदारी का बंटवारा होना चाहिए, वहीं राष्ट्रों के अंदर भी जिम्मेदारी को एकसार ढंग से बांटा नहीं जा सकता । यहां भी आबादी के अलग-अलग तबके अलग-अलग हद तक जिम्मेदार     है ।
वैश्विक तापमान कम रखने का लक्ष्य
    जलवायु परितर्वन सम्मेलन में समझौते का महत्वाकांक्षी मसौदा तैयार कर लिया गया है । इसके तहत विश्व के १९५ देशों को वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से काफी कम रखने में अपना अहम योगदान देना होगा । भारतीय प्रस्ताव के तहत इस समझौते का सबसे अहम पहलू यह है कि वर्ष २०२० से विकासशील देशों को इस पर्यावरण संकट से निपटने के लिए आर्थिक सहायता मिलेगी । फिलहाल पांच साल बाद प्रतिवष्र यह रकम १०० अरब डॉलर (लगभग ६७०० अरब रूपये) होगी । भारत ने मसौदे को संतुलित और दुनिया के लिए बेहतर बताया है ।
    पेरिस में हुए ऐतिहासिक समझौते के तहत ग्लोबल वार्मिग को २ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की चुनौती और भी कड़ी हो सकती है क्योंकि यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य आवश्यकतानुसार १.५ डिग्री सेल्सियस भी हो सकता है । हालांकि इतना कठिन लक्ष्य विकासशील देशों जैसे भारत और चीन को मंजूर नहीं होगा । यह दोनों देश चाहते है कि लक्ष्य को २ डिग्री सेल्सियस से कम का ही रखा जाए ताकि वह अपने प्राकृतिक संसाधनों जैसे कोयले का लंबे समय तक उपयोग कर सकें ।
जीवन शैली
वैज्ञानिक शब्दों का उपयोग और दुरूपयोग
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

    शेक्सपियर ने यह कर हमें चेतावनी दी थी कि न साहूकार बनो, न कर्जदार और यदि आप ऐसा करते हैं तो आप मुसीबत मोल लेंगे ।
    यह चेतावनी आज के समय में और भी प्रासंगिक बन गई है, जब आधुनिक दिनों के विश्लेषक, रिपोर्टर्स और यहां तक कि वक्ता भी विज्ञान और तकनीकी के शब्द उधार लेते हैं, यह सोचकर कि इस तरह उधार लेकर वैज्ञानिक शब्दों का तड़का लगाने से विद्वत्ता और अधिकार हासिल हो जाएंगे । पिछले वर्ष में, एक बड़े भारतीय राजनीतिज्ञ ने एक बड़े प्रतिद्वंद्वी समूह के खिलाफ डीएनए शब्द का इस्तेमाल करते हुए कहा था कि हमारे प्रतिद्वंद्वी कभी सुधर नहीं सकते । यह उनके डीएनए में नहीं  है । 
     दुख कि बात है कि उन्हें यह नहीं समझ आया कि विज्ञान में बताया गया है कि पृथ्वी पर पाए जाने वाले किसी भी मनुष्य का डीएनए किसी अन्य मनुष्य से ९९.९ प्रतिशत तक समान होता है । कैसे इस डीएनए की तहें बनती है या पर्यावरण से आए हुए अणुआें, जीवन जीने के तरीकों, खानपान और बीमारियों (जिन्हें एपिजेनेटिक कारक कहते हैं)्र से यह निर्धारित होता है कि कैसे कोशिकाएं उस डीएनए को पढ़ती हैं । यही हमें दूसरों से अलग बनाता है । तो, श्रीमान जी, पहले यह सुनिश्चित कर लीजिए कि उनका डीएनए भी उतनी ही कुशलता से पढा जाए, उनके रहने की स्थिति, पोषण वगैरह में सुधार कीजिए, तो वे भी आप की ही तरह स्वस्थ और उन्नत होंगे ।
    इसी तरह एक और शब्द है ऑप्टिक्स (प्रकाशिकी) । अब, ऑप्टिक्स भौतिक शास्त्र की गहन शाखा है जिसका संबंध प्रकाश, उसके गुणधर्मो, प्रभावों और उपयोगों से है । न्यूटन और आइंस्टाइन जैसे विद्वानों ने इस विषय पर काम किया था और हमारी समझ को बढ़ाने में काफी योगदान दिया था । फिलहाल, मीडिया में इसका इस्तेमाल बेतुके ढंग से और तड़क-भड़क के साथ किया जाता है, सामान्यत: इसे फोटो के एक अवसर के रूप में देखा जाता है । कैसे इस तरह का ढीला-ढाला उपयोग शुरू हुआ, और कैसे शुरू हुआ ? इस तरह के सवाल का जवाब पाने के लिए इंटरनेट पर वर्ड डिटेक्टिव (शब्द जासूस) का रूख कीजिए ।
    वर्ड डिटेक्टिव का कहना है कि सबसे पहले इसका इस्तेमाल १९७८ में अमेरिकन राष्ट्रपति जिमी  कॉर्टर के जन संपर्क सहायक द्वारा किया गया था - उनके मुताबिक तस्वीर केवल प्रभाव पैदा करने के लिए  या सिर्फ पाठकों का ध्यान खींचने के लिए होती है ।
    एक और इसी तरह का शब्द है वायरल, जिसका मतलब किसी भी संदेश या जानकारी को सोशल मीडिया के जरिए तेजी से फैलाना, प्रिंट मीडिया में आने वाले मैसेजों से भी कई गुना तेजी से । विज्ञान में एक वायरल अपने होस्ट (मेजबान) को संक्रमित करता है ताकि वह उसकी मशीनरी का उपयोग करके अपने वृद्धि कर सके । वायरस की संख्या वृद्धि सेंकडो में होती है जबकि पौधों (जिनसे प्रिंट मीडिया के लिए कागज बनता है) धीमे होते हैं और उन्हें प्रजनन करने में महीनों या सालों लगते हैं । सोशल मीडिया इलेक्ट्रॉनिक्स का इस्तेमाल करता   है जहां गति लगभग प्रकाश की होती है । इस लिहाज से गति के लिए वायरस शब्द का चयन बहुत गलत भी नहीं है । मगर अक्सर हम वायरस को बीमारी  और मृत्यु के साथ जोड़ते है । शुक्र है कि टि्वटर या ईमेल के जरिए फैलने वाली गपशप और राय-मशवरे हमेशा खतरा-ए-जान नहीं होते ।
    हाल में एक और शब्द प्रचलित हुआ है - मेट्रिक - जो मैनेजमेंट और वैज्ञानिकों दोनों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है । दुख की बात है कि यह विशेषण एक संंज्ञा के रूप मेंइस्तेमाल किया जा रहा   है । मूलत: यह फ्रेंच शब्द ाशींीळिंर्शी से आया, जिसका संबंध मापन प्रणाली से होता है, इसके द्वारा किसी वस्तु की लंबाई नापी जा सकती है (जिससे लंबाई, चौड़ाई के लिए सेंटीमीटर आया और समय के मापन के लिए सेंकड और द्रव्यमान के लिए ग्राम आया और सीजीएस प्रणाली बनी  ।) अब मेट्रिक शब्द का इस्तेमाल मूल्यांकन ग्रेड में नंबर मापने के लिए किया जाता है, इसके पीछे सोच शायद गहनता प्रदान करने की होगी । बहुत दुख की बात है कि वैज्ञानिक प्रशासकों द्वारा भी इस मेट्रिक का इस्तेमाल वैज्ञानिकों के प्रदर्शन का मूल्यांकन साथियों के समूह द्वारा न करवाके अंको में करने की शुरूआत हुई है ।
    जिस तरह विज्ञान शब्द उधार देता है, उसी तरह यह दूसरे स्त्रोतों और विषयों से उधार लेता भी है । ब्रह्मांड की उत्पत्ति कैसे हुई थी, इस संबंध में वर्तमान सिद्धांत (कि ब्रह्मांड की शुरूआत एक विशाल विस्फोट से हुई थी, जिसके  परिणाम आज तक नजर आते हैं) को बिग बैग सिद्धांत कहते हैं ।
    लेकिन इनमें से मेरा सबसे पंसदीदा शब्द है शेपरॉन जिसे फ्रांसीसी समाज से उधार लिया गया है । यहां युवा लड़कियों के साथ एक बुजुर्ग महिला होती थी - शेपरॉन - जो यह सुनिश्चित करती थी कि ये लड़कियां सामाजिक अवसरों पर शिष्ट आचरण रखेगी । जैव रसायन शास्त्र में सबसे पहले १९७८ में केम्ब्रिज के रोनाल्ड लास्की ने आणविक शेपरॉन का उपयोग एक प्रोटीन के लिए किया था - एक प्रोटीन जो अंडों में नाभिकीय पदार्थ को सही ढंग से व्यवस्थित करने में भूमिका निभाता है । यदि प्रोटीन सही आकार में फोल्ड नहीं होता है तो रेशे बन जाते हैं जो सामान्य कोशिका की क्रियाविधि में दखल देते हैं ।  और इसके कारण केई विकास पैदा होते हैं और तंत्रिका संबंधी बीमारियां होती हैं । इस संदर्भ में प्रोटीन की सही फोल्डिंग का मार्गदर्शन करने में प्रोटीन की शेपरॉन भूमिका का महत्व समझा जा सकता है ।
गणतंत्र दिवस पर विशेष
गणतंत्र और पारितंत्र
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    गणतंत्र में हमारी नीतियाँ, हमारी रीतियाँ और हमारी शक्ति, हमारा संविधान तय करता है । आज गण और तंत्र का मेल नहीं है । गण अलग है तंत्र अलग है । इंडिया में भारत कही खो रहा है । गण पहरा देने के स्थान पर सो रहा है या अपनी दुखती पीठ पर तंत्र को ढो रहा है ।
    पारितंत्र में हर जीव के मौलिक अधिकार सुरक्षित रहने चाहिए । मनुष्य जाति में भी सबको पौष्टिक भोजन, शुद्ध पेयजल, सुरक्षित आवास, जीविकोपार्जन हेतु रोजगार तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए । यही गणतंत्र का उद्देश्य है । पारितंत्र में गणतंत्र की सुरक्षा तभी सुचारू हो सकती है जब हम संसाधनों के चक्रांतरण को न तोड़ें । यदि हम प्रकृति दत्त किसी भी उपहार की अवहेलना करेंगे तो इसका प्रभाव सम्पूर्ण प्रकृति एवं पारितंत्र पर प्रतिकूल ही पड़ेगा । हमें यह समझना होगा कि स्वस्थ पर्यावरण में ही जनतंत्र सुरक्षित रहता है । 
     जनतंत्र या लोकतंत्र को अंग्रेजी में डेमोक्रेसी कहते है । यह शब्द ग्रीक (यूनानी) भाषा के दो शब्दों से डेमोस तथा क्रेशिया से मिलकर बना है । डेमोस का अर्थ जनता तथा क्रेशिया का अर्थ शक्ति या सत्ता होता है । यह जनता की शक्ति है । जनता की सत्ता है । जनता का शासन है जिसमें हर जर्रे-जर्रे की महत्ता है । क्योंकि प्रकृति ही सर्वोपरि है । जनता प्रकृति का उपभोग तो कर सकती है उस पर शासन नहीं कर सकती । डेमोके्रसी में व्यक्ति तथा समष्टि की बात होती है किन्तु सृष्टि की नहीं, जबकि सृष्टा ने सम्पूर्ण सृष्टि की व्यवस्था को सुचारू रखने का उत्तरदायित्व मनुष्य को ही सौंपा है । क्या हम बखूबी निभा रहे है उस उत्तरदायित्व को यही विचारणीय प्रश्न है ?
    शिक्षा शास्त्रियों ने लोकतंत्र को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक रूपों में अभिव्यक्त किया गया है । राजनीतिक अर्थ में लोकतंत्र वह व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत जनता शासन शक्ति का प्रयोग करती है । सामाजिक लोकतंत्र समाज को समरसता पूर्ण एवं न्यायपूर्ण संरचना देता है । आर्थिक लोकतंत्र समाज के प्रत्येक सदस्य को विकास करने हेतु समान आर्थिक सुविधाएं प्रदान करता है । नैतिक लोकतंत्र सम्पूर्ण जीवन दर्शन है जो कहता है कि प्रत्येक मनुष्य व्यक्तित्व साध्य है । किसी मनुष्य को दूसरे के सुख के लिए साधन नहीं माना जा सकता है । पारिस्थितिक लोकतंत्र लोक शकित न केवल मनुष्य का वरन सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों का सहयोग करे । उन्हें सरंक्षित एवं सुरक्षित तथा संबर्द्धित करें । प्रकृतिका दुरूपयोग कदापि न करे ताकि सम्पूर्ण सृष्टि जिस पर अन्य जीव जन्तुओ का भी समान अधिकार है सुचारू रूप से चल सके ।
    गणतंत्र तथा पारितंत्र में हर घटक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है किसी कारक की भूमिका प्रत्यक्ष दिखलाई देती है तो किसी की भूमिका अदृश्य रहती है । ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार पेड़-पौधों की जड़े धरती में छुपी रहने के कारण दिखलाई नहीं देती है किन्तु उनकी भूमिका को कमतर नहीं आँका जा सकता है । जड़े ही तो वनस्पतियों को आधार से जोड़ती है तथा पोषक तत्व प्रदान करती हैं । जल एव भूखनिज तत्व जड़ो के माध्यम से ही अवशोषित होते हैं । पेड़ के पत्ते, भोजन बनाते हैं । जिस प्रकार वनस्पतियों में हर पत्ती का महत्व है उसी प्रकार गणतंत्र में जन-जन का महत्व है । अब जन-जन का मन अति महत्वाकांक्षी होता जा रहा है और उसमें गण-गुणिता की जगह अधिनायकत्व समा रहा है और अधिनायककारी प्रवृत्ति प्रकृति तथा पर्यावरण के लिए घातक है ।
    सभ्यता के विकास के साथ-साथ प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति हमारी उम्मींदे बढ़ती गई है किन्तु कर्तव्यों के प्रति उदासीनता पनपी है । हम यह भूल गए है कि प्रकृति कमनीय एवं परिवर्तनीय है जिसमें जुड़ना और टूटना अहर्निश चलता   है । सत्ता की महत्ता के संज्ञान मिलकर सत्ता संचालन करता है और समाज के उत्थान के लिए निर्णय लेता है किन्तु हम अपने व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों से बचना चाहते हैं । समाज और पर्यावरण के प्रति बेपरवाह रहते हैं । हम फल खाने की इच्छा तो रखते है किन्तु पेड़ नहीं लगाना चाहते । इतना ही नहीं हम इतने कृतहन है कि अवसर मिलने पर फलीभूत पेड़ को काट डालने से नहीं चूकते है । ऐसी स्थिति में कैसे संरक्षित होगा परितंत्र और कैसे मजबूत होगा हमारा लोकतंत्र ।
    लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था में न तो लोक और तंत्र के बीच की खाई को पाटने की कोई सुसम्मत व्यवस्था है और न ही स्वराज की गांरटी क्योंकि दोष तो दृष्टि में है इसी से सृष्टि खराब हो रही है । यह हमारी पश्चिमी भोगवादी सभ्यता की सौगात है । नागरिक शास्त्र कहीं पीछे टूट गया है । नीति की बात अतीत हो गई है नई - नई परिभाषाएं सामने आ रही है । अब लोकतांत्रिक व्यवस्था का मतलब बदल रहा है ।
    संविधान हमारे गणतंत्र को एक व्यवस्था देता है । नियति का विधान परितंत्र को व्यवस्थित रखता है । जीवन में जो भी उतार चढ़ाव आते हैं उन्हें हर जीव स्वयं सहता है। जब तक हम नियति के विधान और राजपत्रित संविधान का पालन ईमानदारी से करते हैं तो सभी व्यवस्था सुचारू रहती है किन्तु किसी भी प्रकार का अनधिकृत एवं अनुचित हस्तक्षेप कहीं भी विक्षोभ पैदा करता है । किसी भी प्रकार की जोर जबरदस्ती सारी व्यवस्थाआें को चौपट करती हैं । समर्थवान अपने धनबल या बाहुबल से व्यवस्था को मनमाने ढंग से चलाना चाहता है तो सम्पूर्ण व्यवस्था में अराजक स्थिति उत्पन्न होती है । इतिहास गवाह है कि अतिवादी तत्व कुछ कालतक तो विधान एवं संविधान को धोखा दे सकते है किन्तु अन्त में विजय गणतंत्र की होती है ।
    प्रकृति में अदभूत स्वनियामक शक्ति होती है । प्रकृति की सन्निहित शक्तियाँ मनुष्य को पर्याप्त् समय एवं अवसर प्रदान करती है ताकि वह व्यवस्था के अनुरूप ढल जाये । प्रकृति इस व्यवस्था पर हमें गर्व है ।
    हम गणतंत्र की बात करते  है । मानव अधिकार एवं सामाजिक सुरक्षा की बात करते है किन्तु अपनी धरती माँकी अवहेलना करते हैं । जबकि धरती के अधिकारों की सुरक्षा सबसे अधिक जरूरी है । यहाँ मैं सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद वंदना शिवा के विचार उद्धरित कर रहा है जिनमें व्यापक दृष्टि एवं दिशा बोध है - मेरा मानना है कि अर्थ डेमोक्रेसी हमे रहन सहन में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू करने में समर्थ बनाती है, जो सभी प्रजातियों, लोगों और संस्कृतियों के वास्तविक मूल्य पर आधारित है । यानि धरती के सभी महत्वपूर्ण संसाधनों और उनके इस्तेमाल पर समान बटवारा । वह जीवन के अधिकार का आधार भी है, जिसमें जल, आहार, स्वास्थ्य, शिक्षा, नौकरी और आजीविका का अधिकार शामिल है । हमें यह तय करना होगा कि क्या हम कॉरपोरेट लालसा पर टिके बाजारू कानून का पालन करेंगे या पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र और उसकी उत्पत्ति की विविधता को अक्षुण्य बनाए रखने की दिशा में सोचेगे ।
    भोजन और जल की आवश्यकता तभी पूरी हो सकती है, जब प्रकृति में मौजूद खाद्य और पानी की सुरक्षा की जाए । मृत मिट्टी और सूखी नदियाँ भोजन और जल नहीं दे सकती । लिहाजा मानव अधिकारों और सामाजिक सुरक्षा के लिए चल रहे संघर्ष में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण धरती माँ के अधिकारों की सुरक्षा   है ।
    इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि हमें अपने तथा अपनी प्रकृति के उपादानों की सुरक्षा एवं उनके अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ रही है । हमें अपने आजादी अधूरी लग रही है और अपने ही देश में अपनी ही सरकारों के सामने पूर्ण आजादी की गुहार लगानी पड़ रही  है । ताकि सबकी मूलभूत आवश्यकताएं समानता से पूर्ण हो । हमारी प्रकृति, पारितंत्र ओर पर्यावरण हमारे साथ है । हमें प्रकृति देवी का वरद प्राप्त् है । हम ऐसे भयमुक्त समाज का निर्माण करें जहाँ न कोई शोषक हो न कोई शोषित हो । सभी में प्रेम भाईचारा हो तथा समृद्ध खुशहाल पारितंत्र हमारा हो ।
ज्ञान-विज्ञान
कार्बन डाईऑक्साइड और तापमान दोनों बढ़ रहे हैं
    मौसम की खबरें अच्छी नहीं है । यदि कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन के स्तर में वृद्धि को तत्काल रोक दिया जाए, तो भी दुनिया का औसत तापमान औघोगिक युग से पहले के तापमान से १.६ डिग्री सेल्सियस ज्यादा हो जाएगा । आज तक जलवायु को लेकर जो भी बातचीतें हुई है उनमें तापमान में वृद्धि को २ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने पर जोर दिया जाता रहा है । मगर वह लक्ष्य पूरा होता नहीं दिखता । 
       वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा काफी हद तक वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए जिम्मेदार है । विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि इतने सालों में पहली बार वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा ४०० अंश प्रति दस लाख अंश (यानी ४०० पीपीएम) को पार कर गई ।
    दूसरी और, यूके के मौसम विभाग ने रिपोर्ट दी है कि दुनिया का तापमान औघोगिक युग से पहले की अपेक्षा १ डिग्री सेल्सियस अधिक हो चुका है । इसी के आधार पर कहा जा रहा है कि यदि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में और वृद्धि न हो तो भी ०.६ डिग्री की और वृद्धि से बचा नहीं जा सकेगा । विकास की वर्तमान राजनीति को देखते हुए यह तो संभव नहीं लगता कि रातों रात सारे देश कार्बन उत्सर्जन को आज के स्तर पर रोकने को तैयार हो जाएंगे ।
    वैसे कई सारी जलवायु संधियों में विभिन्न देशों ने कार्बन उत्सर्जन को लेकर वायदे किए हैं । यदि सारे देश अपने-अपने वचनों का पालन करेंगे तो भी २०३०   तक तो कार्बन उत्सर्जन बढ़ता ही जाएगा । यानी वैश्विक तपन में वृद्धि को २ डिग्री तक सीमित रखना अब संभव नहीं लगता ।
एक झील, एक मछली और एक हजार प्रजातियां
    दक्षिण-पूर्वी अफ्रीका की मालवी झील में चिक्लिड मछली की कम से कम १००० प्रजातियां पाई गई है । ये काफी मिलती-जुलती हैं और नजदीकी संबंधी भी है मगर हैं सारी की सारी अलग-अलग प्रजातियां अर्थात इनमें आपस में प्रजनन नहीं हो सकता ।
    इनका अध्ययन   करने वाले सिरेक्यूज विश्व-विघालय के क्रिस्टोफर शोल्ज का ख्याल है कि इतने छोटे से इलाके में एक ही मछली की इतनी सारी प्रजातियों का होना काफी रोमांचक है और प्रजातियों की उत्पत्ति के मॉडल्स में इसका प्रमुख स्थान है । मगर सवाल यह है कि इतनी विविधता पैदा कैसे हुई ।
     कुछ लोगों को लगता है कि पर्यावरणीय कारकों ने यह विविधता पैदा की है । मगर कुछ अन्य लोगों का विचार है कि इस विविधता के पीछे जैविक कारकों का हाथ है । उदाहरण के लिए कुछ मादाएं ऐसे नरों के प्रति वर्णाध होती है जो उन्हीं के रंंग के न हो । यानी उनमें सिर्फ वहीं रंग पहचानने की क्षमता होती है  जो उनका खुद का रंग है । यह स्थिति उनके बीच प्रजनन में बाधक बन जाएगी ।
        इस बहस को विराम देने के लिए शोल्ज और उनके साथियों ने झील में से करीब १३ लाख वर्षो की तलछट का अध्ययन किया । उन्होंने पाया कि इस अवधि में इस झील का जल स्तर कम से कम २४ बार २०० मीटर से कम हुआ था । इस तरह के नाटकीय परिवर्तनों  के कारण प्राकृतवास का स्वरूप बदल जाता है । एक तो पानी कम होने पर चट्टानी तटरेखा अंदर की ओर सिकुड़ जाती है । पानी की अम्लीयता भी बदलती है और लवणों की सांद्रता भी बदल जाती है । कई बार तो पानी कम होने पर झील टुकड़ों में बंट जाती है, उसमें टापू उभर आते हैं । ऐसी परिस्थितियां विविधता को बढ़ावा देती है ।
    मगर जो बात गौरतलब है वह यह कि हर झील फिर से अपने मूल स्वरूप में आई और ये सारी मछलियां फिर से साथ-साथ रहने लगी । मगर किसी वजह से वे एक-दूसरे से भिन्न बनी रही । ऐसा क्यों हुआ होगा, इसे समझने के लिए उनके व्यवहार में बारीक अंतरों, उनके प्रजनन व्यवहार में अंतरों और उनके भोजन लेने के अंगों में पैदा हो रहे अंतरों के जेनेटिक आधार को समझना होगा । वैसे शोल्ज का मत तो यही बना है कि झील के पानी में उतार चढ़ावों ने ही इतनी विविधता को जन्म दिया है । वे कहते है कि पास की एक अन्य झील तंजानिका झील में घोंघो की ऐसी ही जबर्दस्त विविधता है । वे दखना चाहेंगे कि क्या वहां भी इसी तरह के कारक रहे है ।
बिना मेहनत कपड़े होंगे चकाचक
    तकनीक की बदौलत हमारे रोजमर्रा के काम हर दिन आसान होते जा रहे है । ताजा उदाहरण है जर्मन उद्यमी लेना सोलिस द्वारा ईजाद डॉल्फी नामक यह उपकरण । इस किफायती उपकरण की खास बात है कि यह अल्ट्रासोनिक तरंगों से कपड़ों की धूलाई करता है । मतलब अब कपड़े धोने के लिए मेहनत  की जरूरत नहीं पड़ेगी । 
     डॉल्फी का आकार साबुन की बट्टी जितना है यह बिजली से चलने वाला एक उपकरण है । डॉल्फी की कीमत तकरीबन ६६०० रूपये और २०१६ की पहली तिमाही में कंपनी ८ हजार उपकरण बेचने की योजनाबना रही है ।  
    पहले गंदे कपडो को डिटर्जेंाट वाले पानी में डाला जाता है और इस पानी में डॉल्फी को डाल दिया जाता है । उपकरण से शक्तिशाली अल्ट्रा-सोनिक तरंगे निकलती है, जिससे उच्च् दबा पैदा होता है जो बुलबुले बनात है ।
    बुलबुले पानी में फटते है और मैल निकाल देते है । प्रक्रिया से कपडे आधे घण्टे में साफ हो जाते है ।
    धुलाई के दौरान कपड़े रगड़ने की जरूरत नहीं पड़ती । इससे बार बार धुलाई करने पर भी कपड़े खराब  नहीं होते है ।
एक झील में डायनासौर के सैकड़ों पदचिन्ह मिले
    अकस्मात ही सही मगर स्कॉटलैंड की एक तटीय झील में डायनासौर के सैकड़ों पदचिन्हों के जीवाश्म मिले है । यह झील स्काई टापू पर समुद्र तट से थोड़ी ही अंदर है । एडिनबरा विश्वविघालय के स्टीफन बु्रसेट और टॉम चेलैंड्स ने किसी अन्य चीज की तलाशा करते-करते ये पदचिन्ह खोजे हैं । चाहे यह खोज संयोगवश हुई हो मगर डायनासौर के जीवन को समझने में इससे काफी मदद मिलने की उम्मीद है । 
     दरअसल, ब्रुसेट और चेलैंडस उस इलाके में काफी समय से मछलियों के दांत और मगरमच्छों की हडि्डयों की खोज कर रहे थे । जब वे दिन का काम पूरा करके लौटने को ही थे कि उनकी नजर कुछ ग ो जैसी रचनाआें पर पड़ी । ध्यान से अवलोकन करने पर समझ में आया कि ये तो किसी जन्तु के पैरों के निशान है ।
    पदचिन्हों की साइज - ७० से.मी. से अंदाज लगा कि ये शुरूआती सौरोपोड्स ने छोड़े होंगे । सौरोपोड्स काफी बड़े जानवर होते   थे । इनका वजन करीब २०-२० टन और लंबाई १५ मीटर तक होती थी, ऊंचाई तो कई मंजिलों के बराबर होती थी । डायनासौर में सबसे मशहूर टायरेनौसैरस रेक्स (टी.रेक्स) के मुकाबले ये कहीं ज्यादा बड़े हुआ करते थे और शाकाहारी थे ।
    अनुमान है कि ये जीवाश्म मध्य जुरासिक युग (यानी करीब १७ करोड़ वर्ष पूर्व) के हैं । सौरोपोड्स की हडि्डयों के जीवाश्म तो बहुत दुर्लभ है और पदचिन्ह भी बहुत कम पाए जाते हैं । इसीलिए स्कॉटलैंड में हुई खोज महत्वपूर्ण मानी जा रही है । ब्रुसेट व चेलैंडस का विचार यह है कि सौरोपोड्स तैराक तो नहीं रहे होगें । मगर उनकी ऊंचाई काफी थी ।
स्वास्थ्य
बच्चो में मिट्टी खाने की आदत
डॉ. अरविन्द गुप्त्

    बच्च्े मिट्टी खाते ही क्यों है ? इसका सीधा सा जवाब यह है कि दो वर्ष तक की उम्र के बच्च्े अपने आसपास के वातावरण की छानबीन करते हैं, उसके बारे में सीखते रहते हैं ।
    इसी छानबीन का एक तरीका है हर चीज का स्वाद चखना । यह एक  बहुत सामान्य सी बात है कि एक छोटे बच्च्े के हाथ में जो भी चीज पड़ जाती है उसे वह सबसे पहले मुंह में डालता है । यही क्रिया वह मिट्टी के साथ भी करता है । आम तौर पर दो वर्ष की आयु के बाद बच्च्े की यह आदत अपने आप छूट जाती है । वैसे कई बच्चें की मिट्टी खाने की आदत वयस्क होने के बाद भी नहींछूटती । ऐसे लोग मिट्टी के अलावा दीवार पर पेन्ट या प्लास्टर, चॉक, सिगरेट की राख, प्लास्टर सिगरेट के ठंूठ, म, गोंद, बाल, बटन आदि कई प्रकार की चीजें खाते हैं । गर्भवती महिलाआें को भी कभी-कभी मिट्टी खाने की इच्छा होती है, किन्तु प्रसव के बाद यह आदत प्राय: छूट जाती है । 


     अभी केवल छोटे बच्चें की ही बात की जाए ।
    यह माना जाता है कि मिट्टी खाना पूरी तरह हानिकरक नहीं है और इसके निम्नलिखित फायदे होते है :-
१. प्रतिरक्षा तंत्र का विकास - मिट्टी में कई प्रकार के बैक्टीरिया पाए जाते है । जब ये बैक्टीरिया शरीर में प्रवेश करते हैं तब शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र हानिकारक बैक्टीरिया को नष्ट करने के लिए प्रतिरक्षी (एंटीबॉडीज) बनाता है जो शरीर में लंबे समय तक बने रहते हैं और उसी प्रकार के बैक्टीरिया के फिर से शरीर में आने पर उन्हें नष्ट कर देते हैं । विकसित देशों में स्वच्छता पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है और पूरे पर्यावरण को इतना साफ रखा जाता है कि वहां के बच्चें का प्रतिरक्षा तंत्र बैक्टीरिया से परिचित नहीं हो पाता । यही कारण है कि इन देशों से भारत और अन्य विकासशील देशों में आने वाले व्यक्तियों को खानपान में काफी सावधानी बरतनी पड़ती है अन्यथा वे बैक्टीरिया से होने वाली पेट की बीमारियों का शिकार हो जाते है ।
२. लाभदायक बैक्टीरिया का शरीर में प्रवेश - मनुष्य की आहार नाल में सैकड़ों प्रकार के बैक्टीरिया रहते हैंऔर मिट्टी में भी लाभदायक और हानिकारक बैक्टीरिया होते हैं । आहार नाल में रहने वाले कुछ बैक्टीरिया शरीर के लिए आवश्यक विटामिन्स का निर्माण करते हैं । मिट्टी से इस प्रकार के कुछ लाभदायक बैक्टीरिया भी बच्च्े की आंत में पहुंच जाते हैं ।
३. खनिज पदार्थ - शरीर के लिए कई प्रकार के खनिज पदार्थ आवश्यक होते हैं । वयस्क व्यक्तियों को ये खनिज पदार्थ भोजन से मिल जाते हैं, किन्तु छोटे बच्चें के लिए मिट्टी खनिज पदार्थो का महत्वपूर्ण स्त्रोत होता है ।
    मिट्टी खाने के जिन फायदों का विवरण ऊपर दिया गया है वे मुख्य रूप से विकसित देशों के लिए लागू होते हैं । विकासशील देशों में स्थिति कुछ अलग होती है । यहां स्वच्छता की काफी कमी होती है । मिट्टी में पालतू जानवरों और प्राय: जंगली पशुआें का मल बड़ी मात्रा में मिला होता है । भारत को ही देखे तो यहां गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी आदि जन्तुआें को घरों में पाला जाता है और इनका मल प्राय: मिट्टी में मिल होता है जिसमें कई प्रकार के हानिकारक जीव और उनके अंडे रहते हैं । इनका आहार नाल में पहुंचना बहुत हानिकारक होता है ।
    अमेरिका के जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविघालय के शोधकर्ताआेंने जिम्बाम्बे में किए गए अपने अध्ययन में पाया कि वहां ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकांश घरों में मुर्गियां पाली जाती हैं । इन मुर्गियों का मल घरों के आसपास की मिट्टी में मिल जाता    है । इस मल में पाए जाने हानिकारक सूक्ष्मजीव मिट्टी खाने वाले बच्चें की आंत की आंतरिक सतह पर पाए जाने वाले उभारों को नष्ट कर देते हैं और वहां की कोशिकाआें के बीच के जोडों को कमजोर कर देते हैं ।
    इसके दो प्रकार के परिणाम होते हैं । इन उभारों के कारण आंत की आंतरिक सतह का क्षेत्रफल बढ़ता है और पचे हुए भोजन से पोषक पदार्थो का अधिक से अधिक अवशोषण शरीर में होता है । उभारों के नष्ट होने के कारण शरीर को पोषक पदार्थ पर्याप्त् मात्रा में नहीं मिल पाते । इसी प्रकार, आंत की कोशिकाआें के जोड़ कमजोर होने से मिट्टी के साथ आए हुए कई प्रकार के हानिकारक सूक्ष्मजीव इन कमजोर जोड़ों से होते हुए आंत से रक्त के प्रवाह में पहुंच जाते हैं और प्रतिरक्षा तंत्र को उत्तेजित कर देते हैं । फलस्वरूप पोषक पदार्थ वहां नहीं पहुंच पाते जहां उनकी आवश्यकता होती है ।
    इस संक्रमण से शरीर में साइटोकाइनिन नाम पदार्थ बनते हैं जो शरीर की वृद्धि के लिए आवश्यक  हारमोन्स का उत्पादन रोक देते हैं । इन सबका परिणाम यह होता है कि बच्चें के शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के विकास धीमे हो जाते हैं । इन बच्चें की न केवल कदकाठी छोटी रह जाती है, बल्कि ये पढ़ाई में भी पिछड़ जाते हैं । इसी प्रकार के अवलोकन इथिओपिया से भी प्राप्त् हुए है ।
    भारत में गायों, सूअरों और कुत्तों का मल प्राय: बिखरा रहता    है । इनके मल में कई हानिकारक जीव पाए जाते हैं जो मिट्टी के साथ आहार नाल में पहुंचने पर कई प्रकार के रोगों का कारण बनते हैं । हमारे देश में एक अतिरिक्त समस्या खुले में शौच की है । मनुष्य की आंत में पाए जाने वाले कृमियों के अंडे मल के साथ बाहर आते हैं और मिट्टी, पानी और खाद्य पदार्थो में मिल जाते हैं ।
    इसका परिणाम यह होता है कि भारत में बड़ी संख्या में बच्च्े कृमियों से संक्रमित है । चूंकि आंत में रहने वाले कृमिपचे हुए भोजन का बड़ा हिस्सा चट कर जाते हैं, बच्च्े द्वारा भरपेट भोजन करने के बाद भी उसे पर्याप्त् पोषक पदार्थ नहीं मिल पाते । वह कुपोषित हो जाता है और उसकी शारीरिक और मानसिक वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । आंत के कृमि भारत में बच्चें में कुपोरण का एक बड़ा कारण है । चूंकि हमारे देश में पीने के पानी और खाद्य पदार्थो के साथ पर्याप्त् सूक्ष्मजीव आहार नाल में आ जाते हैं, मिट्टी से मिलने वाले अतिरिक्त सूक्ष्मजीवों से बच्चें को हानि हो होती है ।
    हमारे देश के कईभागों में मिट्टी में आर्सेनिक और सीसे के समान विषैले रसायन बहुतायत से पाए जाते हैं । पीने के पानी और खाद्य पदार्थो के साथ ये शरीर में पहुंचते ही हैं, मिट्टी खाने से इनकी अतिरिक्त मात्रा शरीर में पहुंचती है । इसी प्रकार रासायनिक कारखानों, पेट्रोल पंपो, कपड़ों की रंगाई और चमड़े की कमाई करने वाले, कीटनाशक बनाने वाले कारखानों आदि से भी विषैले पदार्थ निकल कर आसपास की मिट्टी में मिलते रहते हैं ।
    विकसित देशों में कई डॉक्टर यह मानते हैं कि बच्चें का मिट्टी खाना उनके प्रतिरक्षा तंत्र का मजबूत बनाता है, किन्तु भारत और उसके समान विकासशील देशों में, जहां सफाई के मानक काफी शिथिल हैं, बच्चें का मिट्टी खाना कुल मिलाकर हानिकारक ही होता है ।
 पर्यावरण समाचार
 तीन देश और ३ राज्य अपनाएंगे म.प्र. का टाइगर मॉडल
    दुनिया के लुप्त् होने के कगार पर पहुंच रहे बाघोंके संरक्षण के लिए मिसाल बने पन्ना टाइगर रिजर्व के मॉडल को अब दुनिया के दूसरे देश भी अपना रहे हैं ।
    कंबोडिया, म्यांमार और थाईलैण्ड ने पन्ना में बाघों के संरक्षण के लिए चलाए गए अभियान को चलाने का निर्णय लिया है । इसके अलावा देश मेंछत्तीसगढ़ के अचानकमार, उत्तराखंड के राजाजी और पश्चिम बंगाल के बक्सा टाइगर रिजर्व में भी पन्ना का संरक्षण मॉडल लागू किया जाएगा । २००९ में पन्ना को बाघ विहीन घोषित कर दिया गया था और २०१५ तक यहां बाघों की संख्या ३७ तक पहुंच गई है । वर्तमान में भोपाल के मुख्य वन संरक्षक, वन्य प्राणी एवं पन्ना के तत्कालीन क्षेत्र संचालक श्रीनिवास मूर्ति के अनुसार यहां बाघों की संख्या बढ़ाने का सुपर फार्मूला अपनाया गया, जिसमें इन जीवों को आश्वस्त किया गया कि उनकी जान को यहां कोई खतरा नहीं है । इसके लिए भरपूर तकनीक अपनाई गई । इसमें सर्विलांस से उनकी सुरक्षा से लेकर एक-एक बाघ की लोकेशनपर नजर रखना तक शामिल है ।
    २००९ में पन्ना को बाघ विहीन घोषित कर दिया गया था । इसके बाद शासन ने बाघ पुनर्स्थापना योजना प्रारंभ की । सबसे पहले ४ मार्च २००९ को बांधवगढ़ से पहली बाघिन टी-१ यहां लाई गई । इसके बाद ९ मार्च २००९ को कान्हा की बाघिनी टी-२ को यहां लाया गया । फिर कान्हा से ही बाघिन टी-४ और टी-५ लाई गई । इसके बाद पेच से बाघ टी-३ और बाघिन टी-६ को यहां लाकर रखा गया । बाघिन टी-२ ने सबसे पहले ४ अक्टूबर २०१० को ४ शावकों को जन्म दिया । २००९ से २०१५ तक की अवधि में ये बाघ १८बार में ४१ शावकों को जन्म दे चुके हैं । इनमें से ३७ बाघ जीवित है । वर्ष २०१५ में भोपाल से बाघ टी-७ को यहां से लेकर जाकर छोड़ा गया था ।
क्या इन्दौर में भोपाल से प्रदूषण कम है ?
    केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इन्दौर में प्रदूषण को लेकर जो आंकड़ा जारी किये है, वो गलत है । इन्दौर में प्रदूषण की डेंसिटी १०८ बताई गई हैं, जबकि उज्जैन की ११५, भोपाल की १८१है । क्या ऐसा हो सकता है कि आबादी और क्षेत्रफल में बडे होने के अलावा प्रदेश में सर्वाधिक १७ लाख वाहनों वाले शहर में प्रदूषण इन शहरों के मुकाबले कम होगा ?
    ये बात विकास मित्र दृष्टि २०५० के किशोर कोडवानी ने पिछले दिनों इन्दौर में पत्रकारों से चर्चा करते हुए बताया कि इन्दौर में सड़कों में सड़कों का निर्माण की धूल से ३५ प्रतिशत, वाहनों से २५-३५ प्रतिशत, घरेलू, ईधन उपयोग से २२ प्रतिशत प्रदूषण उत्पन्न होता है । इन तीनों कारणों से इन्दौर प्रदूषण के मामलों में दिल्ली, जयपुर से भी आगे है ।
    तीन दशक पूर्व शहर में एक भी डायलिसिस मशीन नहीं थी, जबकि ३०० रिटेल दवा दुकानें थी, लेकिन आज ६० से अधिक डायलिसिस मशीनें है और ३००० से अधिक दुकानें हैं । इससे पता चलता है कि प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के इलाज की सुविधाएं बढ़ी हैं । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इन्दौर को उज्जैन और भोपाल की तुलना में कम प्रदूषित बताया है, जबकि जनसंख्या घनत्व में इन्दौर में १६६७० लोग प्रति वर्ग कि.मी., उज्जैन में ६६१९,भोपाल में ३३८८, जयपुर में १५१६९ लोग रहते हैं । वाहनों के घनत्व में भी इन्दौर आगे है । यहीं प्रति वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में १३०७५ वाहन है जबकि जयपुर में ११३१७, दिल्ली में ९८२९, भोपाल में २९२३ और उज्जैन में २०२६ हैं ।
    आबादी और वाहन संख्या के मान से प्रदेश में इन्दौर सबसे आगे है । फिर भी मात्र तीन जगह प्रदूषण गणना की जाती है । उज्जैन, भोपाल अपेक्षाकृत छोटे है फिर भी चार जगह गणना की जा रही है । उन्होनें मांग्र की कि शहर में कम से कम ११ स्थानों पर गणना की जाना चाहिए । उनके अनुसार ये स्थान कालानी नगर, मरीमाता चौराहा, महू नाका, भंवरकुआ, बगाली चौराहा, विजय नगर चौराहा, पालदा, सांवरे रोड़, प्रदूषण केन्द्र और टी. चोइथराम पर प्रदूषण की गणना की जाना    चाहिए जब इन स्थानों के आंकड़ें आएंगे, वो सही होंगे । उन्होनें कहा कि दिल्ली में छह, भोपाल में चार, नागदा में तीन, जयपुर में छह, उज्जैन में चार, देवास में तीन, पीथमपुर में दो स्थानों पर प्रदूषण की गणना की जाती है, जबकि इन्दौर में मात्र तीन स्थानों पर ही प्रदूषण पर नजर रखी जाती है ।