मंगलवार, 3 जून 2008

आवरण







संपादकीय

२१ सितम्बर, भारत का पर्यावरण दिवस हो
भारतीय जनमानस में पर्यावरण संरक्षण की चेतना और पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों की परम्परा सदियों पुरानी है । हमारे धर्मग्रंथ, हमारी सामाजिक कथायें और हमारी जातीय परम्परायें हमें प्रकृति से जोड़ती है । प्रकृति संरक्षण हमारी जीवन शैली में सर्वोच्च् प्राथमिकता का विषय रहा है । प्रकृति संरक्षण के लिये प्राणोत्सर्ग कर देने की घटनाआें ने समूचे विश्व में भारत के प्रकृति प्रेम का परचम फहराया है । अमृता देवी और पर्यावरण रक्षक बिश्नोई समाज की प्रकृति प्रेम की एक घटना हमारे राष्ट्रीय इतिहास में स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित है । सन् १७३० में राजस्थान के जोधपुर राज्य में छोटे से गांव खेजड़ली में घटित इस घटना का विश्व इतिहास में कोई सानी नहीं है । खेजड़ली में राजा के कर्मचारी जब अमृता देवी के आंगन में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आये तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि ``यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी है, इसे मैं नहीं काटने दूंगी ।'' अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया ``सिर साटे रूख रहे तो सस्तो जाण'' अर्थात् हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिये तैयार है । कुछ दिन बाद राजा के कर्मचारी पूरी तैयारी से आये और अमृता के आंगन के पेड़ को काटने लगे तो गुरू जंभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले अमृता देवी पेड़ से लिपट गयी क्षणभर में उनकी गर्दन धड़ से अलग हो गयी, फिर उनके पति, तीन लड़किया और ८४ गावों के कुल ३६३ बिश्नोईयों (६९ महिलायें और २९४ पुरूष) ने पेड़ की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी, खेजड़ली की धरती बिश्नोईयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गयी । यह गुरूवार २१ सितम्बर १७३० (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत १७८७) का ऐतिहासिक दिन विश्व इतिहास में इस अनूठी घटना के लिये हमेशा याद किया जायेगा । समूचे विश्व में पेड़ रक्षा में अपने प्राणों को उत्सर्ग कर देने की ऐसी कोई दूसरी घटना का विवरण नहीं मिलता है । बिश्नोई समाज का यह बलिदानी कार्य आने वाली अनेक शताब्दियों तक पूरी दुनिया में प्रकृति प्रेमियों में नयी प्रेरणा और उत्साह का संचार करता रहेगा । हमारे देश में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय तथा सभी राज्य सरकारों द्वारा पर्यावरण एवं वन्यजीवों के संरक्षण के लिये अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं । हमारे यहां प्रतिवर्ष ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है । केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के तत्वावधान में एक माह की अवधि का राष्ट्रीय पर्यावरण जागरूकता अभियान भी चलाया जाता है । यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हमारे सरकारी लोक चेतना प्रसायों को इस महान घटना से कहीं भी नही जोड़ा गया है । हमारे यहां राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के लिये इस महान दिन से उपयुक्त कोई दूसरा दिन कैसे हो सकता है ? आज सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि २१ सितम्बर के दिन को भारत का पर्यावरण दिवस घोषित किया जाये यह पर्यावरण शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रृद्धांजलि होगी और इससे प्रकृति संरक्षण की जातीय चेतना का विस्तार हमारी राष्ट्रीय चेतना तक होगा, जिससे हमारा पर्यावरण समृद्ध हो सकेगा ।

प्रसंगवश

पत्र, एक पर्यावरण प्रेमी का
नर्मदा का गिरता जल स्तर
निरंतर गिरते जल स्तर, सतत दोहन, कम होती जल आवक से नर्मदा थम सी गई है । जगह-जगह पत्थर निकल आने से इसका स्थूल रूप बिगड़ गया है । शिव का प्रवाहमान स्वरूप नर्मदा का छरहरापन चौंकने नहीं, चिंतन का विषय है । स्वार्थ और सुविधा के लिए नर्मदा के अत्यधिक दोहन, जिसे शोषण ही कहना अधिक उपयुक्त होगा, की तो परिणति है वर्तमान स्थिति । अमरकंटक से खंभात की खाड़ी तक १३२६ किमी की दूरी तय करने वाली नर्मदा जिन किनारों से साँस लेती है, वे आज प्रदूषण के अड्ढे बनकर रह गए हैं । जिस सतपुड़ा-विंध्याचल-मैकल पर्वतों का पानी पीकर यह सदानीरा रहती है; वे आज वृक्षों से विहीन होते जा रहे हैं । फलत: वहाँ से रिसने वाले जल की आवक में पिछले १५ वर्षो में ५० फीसदी की कमी आ गई है । यही सब जारी रहा तो इतने नहीं, इससे भी कम वर्षो बाद, नर्मदा की क्या हालत होगी, सोचकर ही कलेजा काँप जाता है। यह विडम्बना नहीं तो क्या है, गत ६० वर्षो से इससे `पानी' लेने के `विचार' पर हमने जितना खर्च किया है, उसका ५ प्रतिशत भी इसके रखरखाव पर नहीं लगाया है । इससे नहरें निकालने वाला मनुष्य ही इसमें गंदे नाले बहाकर कृतघ्नता की पराकाष्ठा पार कर रहा है । नर्मदा के जल से खेत और पेटे की आग बुझाने वालों ने ही तो इसके जलग्रहण क्षेत्र में आने वाले वृक्षों को निर्ममता से काट मारा है । एक समय था, जब इसमें समाने वाली ३९ सहायक नदियाँ बारह महीने ही बह कर अपने साथ इसे भी लबालब रखती थीं । स्थिति बदल गई है । अब ये नदियाँ नवंबर, दिसंबर महीने तक ही साथ देती हैं । बाकी ६-७ महीनों तक (वर्षा होने तक) नर्मदा अपने अंत: स्त्रोतों के सहारे ही प्रवाहमान रहती है । कम होती बरसात एवं जल के निरंतर दोहन के चलते ये आंतरिक स्व प्रवाह कब तक साथ देंगे, कहा नहीं जा सकता है । नर्मदा का अखिल सौंदर्य अनंत वैभव लौटाने के लिए जल-जंगल किनारे, प्रदूषण भू-गर्भ की जलग्रहण रचना पर विचार करना होगा । नए सिरे से, अनुसंधान करना होगा, जिससे अपने परिणामों को हम जल्दी और ज्यादा प्रमाण से प्राप्त् कर सके । नर का मद हरने वाली नर्मदा, हमारी मदांधता से किसी दिन धरती से ही हर ली जाएगी, जिसकी दोषी, समस्त नर्मदा संतति ही होगी
जगदीश गुरूजी,
घरोंदा, नेमावर(देवास) म.प्र.

१ पर्यावरण दिवस पर विशेष

जलवायु परिवर्तन और हमारा भविष्य
डॉ. लक्ष्मीकांत दाधीच
बदलती जलवायु के प्रमुख कारक कार्बन डाई आक्साइड की अधिक मात्रा से गरमाती धरती का कहर बढ़ते तापमान से अब स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है । तापमान का बदलता स्वरूप मानव द्वारा प्रकृति के साथ किये गये निर्मम तथा निर्दयी व्यवहार का सूचक है । अपने ही स्वार्थ में अंधे मानव ने अपने ही जीवन प्राण वनों का सफाया कर प्रकृति के प्रमुख घटको जल, वायु तथा मृदा से स्वयं को वंचित कर दिया है। बढ़ती कार्बन डाई आक्साइड ने वायु मंडल से आक्सीजन को कम कर वायुमंडलीय परिवर्तन को ``ग्लोबल वार्मिंग'' का नाम दिया गया है ने संसार के सभी देशों को अपनी चपेट में लेकर प्राकृतिक आपदाआें का तोहफा देना प्रारंभ कर दिया है । भारत और चीन सहित कई देशों में भूमि कंपन, बाढ़, तूफान, भूस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, भूमि की धड़कन के साथ ग्लेशियरों का पिघलना आदि प्राकृतिक आपदाआें के संकेत के रूप में भविष्य दर्शन हैं । गर्माती धरती का प्रत्यक्ष प्रभाव समुद्र तथा नदियों के जल तापक्रम में वृद्धि हैं जिसके कारण जलचरों के अस्तित्व पर सीधा खतरा मंडरा रहा है । यह प्रत्यक्ष खतरा मानव पर अप्रत्यक्ष रूप से उसकी क्षुधापूर्ति से जुड़ा है । पानी के अभाव में कृषि व्यवस्था का जब दम टूटेगा तो शाकाहारियों को भोजन का अभाव झेलना एक विवशता होगी तो मरती मछलियों, प्रांस (झींगा) तथा अन्य भोजन जलचरों के अभाव में मांसाहारियों को कष्ट उठाना होगा । उक्त दोनों प्रक्रियाआें से आजीविका पर सीधा असर होगा तथा काम के अभाव में शिथिल होते मानव अंग अब बीमारी की जकड़ में आ जायेंगे। वैश्विक जलवायु परिवर्तन मानव को गरीबी की ओर धकेलतेहुए आपराधिक दुनियां की राह दिखायेगा जिससे पर्यावरणीय आतंकवाद को बढ़ावा मिलेगा तथा दुनियां में पर्यावरण शरणार्थियों को शरण देने वाला कोई नहीं होगा । बढ़ता तापक्रम विश्व के देशों के वर्तमान तापक्रम प्रक्रिया में जर्बदस्त बदलाव लायेगा जिसके कारण ठंडे देश गर्मी की मार झेलेंगे तो गर्म उष्ण कटिबंधीय देशों में बेतहाशा गर्मी से जल संकट गहरा जायेगा और वृक्षों के अभाव में मानव जीवन संकट में पड़ जायेगा । वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम फलस्वरूप कृषि तंत्र प्रभावित होकर हमें कई सुलभ ख़ाद्य पदार्थो की सहज उपबल्धि से वंचित कर सकता है । अंगूर, संतरे, स्ट्राबेरी, लीची, चेरी आदि फल ख्वाब में परिवर्तित हो सकते है । इसी प्रकार धोघे, यूनियों, छोटी मछलियां, प्रांस, वाइल्ड पेसिफिक सेलमान, स्कोलियोडोन जैसे कई जलचर तथा समुद्री खाद्य शैवाल मांसाहारियों के भोजन मीनू से बाहर हो सकते हैं । तापक्रम में वृद्धि के कारण वर्षावनों में रहने वाले प्राणी तथा वनस्पति विलुप्त् हो सकते हैं तथा नये कीट जन्म लेकर उपलब्ध वनस्पति को चट कर सकते हैं । हमारी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक धरोहरों को नुकसान पहुंच सकता है और हम पर्यटन के रूप में विकसित स्थलों से वंचित हो सकते हैं । वर्षो तक ठोस बर्फ के रूप में जमें पहाड़ों की ढलानों पर स्क्रीइंग खेल का आनंद बर्फ के अभाव में स्वप्न हो सकता है । हॉकी, बेसवाल, क्रिकेट, बेडमिंटन, टेनिस, गोल्फ आदि खेलों पर जंगलों में उपयुक्त लकड़ी के अभाव तथा खेल के मैदानों पर सूखे का दुष्प्रभाव देखने को मिल सकता है । विभिन्न खेलों में कार्यरत युवतियों की आजीविका छिनने से व्यभिचार और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है । समुद्री जलचरों में तापक्रम परिवर्तन के कारण अलग थलग पड़े जलचर अपनी सीमा लांघ सकते हैं तथा समुद्री सीमाआें को लांधकर अन्य जलचरों को हानि पहुंचा सकते हैं । वैश्विक तापक्रम वृद्धि के फलस्वरूप जंगली जीवों की प्रवृति तथा व्यवहार में परिवर्तन होकर उनकी नस्लों की समािप्त् हो सकती हैं । प्रवजन पक्षी (माइग्रेटरी बर्डस) अपना रास्ता बदलकर भूख और प्यास से बदहाल हो सकते है। घर के पिछवाड़े में आने वाली चिड़ियों की आवाजों से हम वंचित हो सकते हैं । सांप, मेंढक, तथा सरीसर्प प्रजाति के जीवों को जमीन के अंदर से निकलकर बाहर आने को बाध्य होना पड़ सकता है। पिघलते घुवों पर रहने वाले स्लोथ बीयर जैसे बर्फीले प्रदेश के जीवों को नई परिस्थितियों और पारिस्थितिकी से अनुकूलनता न होने के कारण अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता हैं । बढ़ते तापमान के कारण उत्पन्न लू के थपेड़ो से जनजीवन असामान्य रूप से परिवर्तित हो सकता है तथा शहरों व कस्बों के नदी, नाले व झीलें सूखकर सूखे मैदानों में परिवर्तित होकर हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता की याद के रूप में गहरे कुआें व बावड़ियों, कुईयों आदि के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अभी हाल ही में जारी अपनी रिपोर्ट में वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भावी परिदृश्य के रूप में बढ़ते तापक्रम के साथ बढ़ते प्रदूषण से बीमारियों विशेषत: हार्ट अटैक, मलेरिया, डेंगू, हैजा, एलर्जी तथा त्वचीय रोगों में वृद्धि के संकेत देकर विश्व की सरकारों को अपने शारारिक स्वास्थ्य बजट में कम से कम २० प्रतिशत वृद्धि करने की सलाह दी हैं। विभिन्न देशों के विदेश मंत्रालयों तथा सैन्य मुख्यालयों द्वारा जारी सूचनाआें में वैश्विक तापमान वृद्धि से विश्व के देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरें के मंडराने का संकेत दिया गया हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव बान की मून ने इसी वर्ष अपने प्रमुख भाषण में वैश्विक तापमान वृद्धि पर चिंता व्यक्त करते हुये इसे `युद्ध' से भी अधिक खतरनाक बताया हैं । वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भविष्य दर्शन के क्रम में यह स्पष्ट हैं कि पर्यावरण के प्रमुख जीवी घटको हेतु अजीवीय घटकों वायु, जल और मृदा हेतु प्रमुख जनक वनों को तुरंत प्रभाव से काटे जाने से संपूर्ण संवैधानिक शक्ति के साथ मानवीय हितों के लिये रोका जाये ताकि बदलते जलवायु पर थोड़ा ही सही अंकुश तो लगाया जा सके । अन्यथा सूखते जल स्त्रोत, नमी मुक्त सुखती धरती, घटती आक्सीजन के साथ घटते धरती के प्रमुख तत्व, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती व्याधियों, पिघलते ग्लेशियर के कारण बिन बुलाये मेहमान की तरह प्रकट होती प्राकृतिक आपदायें मानव सभ्यता को कब विलुप्त् कर देगी, पता ही नहीं चल पायेगा। आवश्यकता है वैश्विक स्तर पर पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ प्रस्फुटित राजनीतिक इच्छा शक्ति की, जिसमें मानव के साथ पर्यावरण की सुरक्षा एवं संतुलन का एक निष्ट भाव निहित हो ।***

२ हमारा भूमण्डल

प्रलय के बाद का इंतज़ाम
जयंत एरंडे
अब से साठ साल बाद कोलकाता और उसके बाद मुंबई शहर पानी में डूबने वाले है । यह सब आज से पच्चीस साल बाद भी हो सकता है । ऐसी कई भविष्यवाणियां की जा रही हैं । पिछले कुछ सालोे से दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, ऐसे भी कई संकेत मिल रहे हैं । उत्तरी ध्रुव ओर हिमालय के इलाके में ज्यादा मात्रा में बर्फ पिघलने लगी है । कुल मिलाकर प्रलय होने वाला है यह निश्चित है लेकिन कब होगा यह तय नहीं है । मान लीजिए कोलकाता और मुंबई साठ साल बाद प्रलय की चपेट में आने वाले हैं तो क्या हम आज हाथ पर हाथ धरें बैठे रहें ? प्रलय का सामना करने के लिए कुछ तैयारी भी तो होना चाहिए । पुराण बताते है कि काफी पहले प्रलय हुआ था । प्रलय के बाद जो भी पहला जीव उत्पन्न हुआ होगा उसने खाया क्या होगा ? किसे पता ? करीब ६ करोड़ साल पहले भूकंप आए, बाढ़ें आई, जो जीव मौजूद थे वे विलुप्त् हो गए । डायनासौर भी विलुप्त् हो गए । वैज्ञानिक बताता है कि सिर्फ २५ प्रतिशत वनस्पतियां बच पाई थी । लेकिन आने वाले समय के कभी प्रलय हुआ, तो इस बात की क्या गारंटी है कि २५ प्रतिशत सजीव सृष्टि बची रहेगी? इसलिए प्रलय के बाद बचे हुए जीवों के लिए या नए सिरे से उत्पन्न होने वाले जीवों को अनाज मिल सके इसकी व्यवस्था हम अभी से कर रहे हैं । पूरी इंसानी बिरादरी की और से नॉर्वे सरकार यह कदम उठा रही है । उत्तर दिशा में मौजूद पहाड़ में एक विशाल पेटी या संदूक (डशशव तर्रीश्रीं) का निर्माण किया गया है। इस संदूक का तापमान शून्य से १८ डिग्री सेल्सियस कम रहेगा । इस संदूक के निर्माण में करीब चार करोड़ रुपए खर्च हुए हैं । इस पेटी में अंतत: बीज के कई सारे नमूने रखे जाएंगे । नॉर्वे से लगभग एक हज़ार किलोमीटर की दूरी पर स्वालबर्ड द्वीप समूह के स्पीटबर्गेन द्वीप में इस संदूक का निर्माण किया गया है । पहाड़ में यह पेटी १२० मीटर गहरी है । इसकी दीवारें एक मीटर मोटी हैं । इस पेटी के निर्माण और रख-रखाव का ज़िम्मा नॉर्वे के ग्लोबल क्रॉप डायवर्सिटी ट्रस्ट ने लिया है । इस काम को शुरु करने से पहले इस पहाड़ द्वारा उत्सर्जित विकिरण, पहाड़ की भूवैज्ञानिक संरचना का गहराई से अध्ययन कर लिया गया था । ग्लोबल वार्मिंग यानी दुनिया का तापमान काफी बढ़ने वाला है । यदि ग्रीनलैंड की काफी बर्फ पिघल भी जाये तब भी यह पेटी सुरक्षित रहे इस बात का भी ध्यान रखा गया है । यानी बर्फ पिघलने पर बढ़े हुए जल स्तर से भी उपर यह पेटी रहेगी । इस बात को सुनिश्चित करने के लिए साल में एक बार जांच-पड़ताल की जाएगी । बीज बैंक सूरजमुखी, गेंहू जैसे बीज ठंडी पेटी में एक हज़ार साल तक सही-सलामत रह सकते है ।चना तीस साल तक बना रह सकता है । और वैसे देखें तो करीब ढाई लाख वनस्पति प्रजातियों में से करीब दो सौ प्रजातियों की पैदावार के लिए गंभीर प्रयास करने पड़ते है । इसलिए संग्रहित बीजों से आगे का काम चल जाएगा ऐसा अंदाज है । इस समय दुनिया में १४०० बीज बैंक मोजूद है । की-गौर्डेस द्वारा शुरु किए गए बीज बैंक में दुनिया की वनस्पतियों में से १० प्रतिशत प्रजातियों का संग्रह किया गया है । इन संग्रहित प्रजातियों में से कई का बीच-बीच में बोवाई के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है । अन्यथा बीज नष्ट होने का खतरा बना रहता है । बीज बैंको को अन्य खतरों का सामना भी करना पड़ता है । पिछले साल फिलीपीन्स में आए ज़बर्दस्त तूफान के साथ आई बाढ़ में वहां का एक बीज बैंक नष्ट हो गया । इसलिए एक सुरक्षित पेटी बनाना बेहद जरुरी है । आर्कटिक प्रदेश में पहाड़ में यह पेटी बनाना बेहद मुश्किल है । इस पेटी को बनाई जाने की वजह से बीजों के नष्ट होने का खतरा कम हो जाएगा । एक ही तरह की खेती फिलहाल विकसित देशों में नई तकनीको से खेती होने की वजह से कुछ खास किस्म की प्रजातियों की ही खेती होती है । कई जगहों पर छोटै पैमाने पर की जाने वाली खेेती को अनदेखा किया जाता है । एक ही किस्म के अनाज का उत्पादन करने के प्रवृत्ति भी बढ़ी है । फिलहाल खेती लगभग २० किस्मों और ८ वनस्पति वंशो पर निर्भर है । संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण समिति ने इस बात का खुलासा किया है कि आने वाले ५० सालों में दुनिया के फूलधारी पौधों की २५ प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त् हा जाएंगी । अफ्रीका महाद्वीप के कुछ देशों में तो खाद्यान्न और जैव इंधन निर्यात के लिए कुछ खास वनस्पतियों की ही खेती की जा रही है । किसानों को दुर्लभ प्रजातियों की खेती करनी चाहिए । और यदि वे ऐसा करने के लिए तैयार हों, तो उन्हें वे वनस्पतियां उपलब्ध भी होना चाहिए । इस सब लिहाज से नॉर्वे द्वारा बनाई गई संदूक काफी उपयोगी साबित होगी । जिस तरह पौराणिक कथा में बताया गया है कि प्रलय के बाद नोआ या मनु और उनकी नाव को सहारा देने वाली मछली की वजह से सृष्टि की शुरुआत हुई थी, उसी तरह भविष्य में आने वाले प्रलय के बाद संभव है उत्तरी ध्रुव का भालू और वहां का मनु भी यही भूमिका निभाएंगे । ***

३ विरासत

संजीवनी का सच क्या है ?
डॉ ओ. पी. जोशी/डॉ. जयश्री सिक्का
पौराणिक कथा के अनुसार त्रेतायुग में राम-रावण युद्ध के दौरान घायल लक्ष्मण की बेहोशी दूर करने हेतु संजीवनी बूटी का उपयोग किया गया था जिसे हनुमान हिमालय पर्वत से लाए थे । हनुमान को प्रसिद्ध वेद्य सुषेण ने बताया था कि रात्रि में जिस पौधें से प्रकाश निकले वही संजीवनी बूंटी है । महर्षि वाल्मिकी ने लगभग २०० प्रकार की वनस्पतियों का वर्णन किया है जिसमें से कुछ आज भी पाई जाती है एवं औषधि के रुप में उपयोग है । कुछ वनस्पतियां ऐसी भी हैं जिनके सही पर्याय नहीं मिलते है यानी या तो वे विलुप्त् हो गई या उनके सही नामों को भुला दिया गया । इन कारणो से उन वनस्पतियों की पहचान आज भी मुश्किल है । इन वनस्पतियों मेें सजीवनी, विशल्यकारणी, संधानकरणी एवं सवर्णकरणी आदि प्रमुख हैं । संजीवनी एवं संधानकरणी का अंतिम विवरण राजकवि बलाल ने १० वीं सदी में अपने ग्रंथ भोज प्रबंध में दिया था । इसमें बताया गया है कि राजा भोज के सिर की शल्य क्रिया करके कोई गठान निकाली गई थी और संधानकरणी से घाव ठीक करके संजीवनी की मदद से उन्हें होश में लाया गया था । लक्ष्मण के इलाज हेतु चार प्रकार की वनस्पतियों के उपयोग का ज़िक्र है । प्रथम वे वनस्पतियोंे थीं जो मांसपेशियोंको शिथिल कर देती हैं ताकि लगा हुआ तीर आसानी से निकाला जा सके । दूसरी वे वनस्पतियाँ थी जो तीर निकलने के बाद घाव के निशान को मिटाएं । तीसरी वे थी जो जल्दी घाव भरने में सहायक हों एवं चौथी वे जो मूर्छा या बेहोशी को हटाएं । संभवत: यह चौथी प्रकार की वनस्पति ही संजीवनी थी । संजीवनी की खोज में वैज्ञानिकांे एवं वनस्पतिज्ञों की काफी रुचि रही है एवं समय-समय पर इसकी खोज के दावे भी किए गए हैं । लगभग १८-१९ वर्ष पूर्व १९८९ में बैतूल निवासी डॉ जान वेसली मकबूल ने गांव बोरादेही से दूर जंगलों में घूमते समय एक पौधा देखा जो चमक रहा था। पौधे के चमकने की यह क्रिया लगभग २-३ घंटे तक जारी रही । डॉ. मकबूल को आश्चर्य हुआ । जहां चमकता पौधा दिखाई दिया था वहां उन्होने एक निशानी रख दी ताकि पौधे को भविष्य में भी पहचानने में भूल न हो । अगस्त एवं सितम्बर माह की रात्रि में जाकर डॉ. मकबूल ने इस पौधे का अवलोकन अपनी रखी निशानी के आधार पर लगातार किया। चमकने वाले कुछ पौधे निशानी के आसपास भी देखे गए । अक्टूबर माह में डॉ. मकबूल ने अपने अवलोकन की जानकारी बैतूल एवं छिंदवा़़डा के कलेक्टरों को दी एंव तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी पत्र लिखकर भेजी । छिंदवाड़ा कलेक्टर के आदेश पर डॉ मकबूल इस पौधे का नमूना लेकर आए एवं स्थानीय वन अधिकारी एंव पत्रकारों को बताया । डॉ.मकबूल के अवलोकन के अनुसार इस पौधे से प्रकाश निकलकर चमकने की प्रक्रिया केवल अगस्त, सितंबर एवं अक्टूबर में ही होती है, बाद में धीरे-धीरे कम होकर समाप्त् हो जाती है । कुछ राष्ट्रीय समाचार पत्रों एंव पत्रिकाआें में यह घटना उस समय सुर्खिया में प्रकाशित की गई । लेकिन फिर यह बात आई-गई हो गई । उस समय इतने टीवी चैलन नहीं थे अन्यथा कोई-न-कोई चैनल इसका लाईव प्रसारण करता एवं देश-विदेश में वैज्ञानिक एवं वनस्पतिज्ञ इसे देख पाते एवं सही पहचान का प्रयास करते।यदि चमकना ही संजीवनी का प्रमुख गुण माना जाए तो उत्तराखंड में पाई जाने वाली कुछ घांस की जड़े भी अंधेरे में रेडियम की भांति चमकती हैं । घास की इन प्रजातियों को स्थानीय भाषा में गुड़िया, महवलिया एवं तुअड़िया आदि कहते हैं । हाल ही में लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने बताया है कि संजीवनी पौधे की यह विशेषता होती है कि वह सूखने पर भी नहीं मरता एवं थोड़ी-सी नमी मिलने पर फिर तरोताज़ा होकर जीवन यापन करने लगता है । संजीवनी के इस गुण को महत्ता देकर चमकने वाली बात भुला दी गई । वनस्पति शास्त्र की पुस्तकों में दिए वर्णन के अनुसार सिलोजिनेला दुनिया भर में पाया जाता है एवं इसकी लगभग ७५० प्रजातियां है । ज़्यादातर प्रजातियां पर नम एंव छायादार स्थानों पर पाई जाती है । कुछ प्रजातियां सुखे स्थानों पर भी पाई जाती हैं जिन्हे मरुद्भिद कहते है । इनमें सिलेजिनेला लेपिडोफीला एवं सिलेजिनेला रुपेस्ट्रीस प्रमुख हैं । ये प्रजातियां शुष्क अवस्था में सिमटकर एक छोटी गेंद या गोली के समान हो जाती है किंतु नमी के सम्पर्क में आने पर फैलकर पूर्वावस्था प्राप्त् कर लेती है । राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान के वैज्ञानिक इन प्रजातियों के ही संजीवनी मान रहे हैं । सिलोजिनेला में कोई चमक नहीं होती है, जैसा संजीवनी के बारे में बताया जाता है । इसके अलावा वनस्पति शास्त्र की किसी भी उपलब्ध पुस्तक में सिलेजिनेला के किसी औषधि गुण का उल्लेख नहीं है । राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक सिलेजिनेला की इन्हीं प्रजातियों का अध्ययन एक पंचवर्षीय योजना बनाकर इस आधार पर कर रहे हैं कि इन प्रजापतियों को पुनर्जीवित होने की क्षमता अनुवंशिक आधार पर किसी जीन से नियंत्रित होगी । इस जिन को पृथक कर यदि अन्य पौधे में डाला जाये तो उनमें भी पुनर्जीवित होने की क्षमता आ सकती है । इस जीन को यदि गेहूं एवं धान के पौधे में डाला जाए तो वे सूखा प्रतिरोधी बन सकते है । संजीवनी का पौधा चाहे जो रहा हो परंतु यदि सिलेजिनेला की प्रजापियों से पुनर्जीवित क्षमता का जीन पृथक कर अन्य उपयोगी फसलों में सफलता पूर्वक डाला जा सके तो निश्चित ही भारतीय खेती के लिए यह किसी संजीवनी से कम नहीं होगा । भोपाल स्थित राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय भी संजीवनी पर अनुसंधान कर रहा है । इसके जल्दी ही परिणाम की उम्मीद है । ***

४ सामयिक

आलू : अतीत से अब तक
डॉ. किशोर पंवार
राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन ने वर्ष २००८ को अंतराष्ट्रीय आलू वर्ष घोषित किया है । आलू आम व खास सभी के लिए महत्वपूर्ण पोषक पदार्थ है। घरों से लेकर उद्योगों तक आलू की पैठ है । आज जिस आलू के बिना हमारा काम नहीं चलता उसे एक जमाने में जहरीला पौधा समझा जाता था । कई बार उसे कैदियों को जबरन खिलाया गया । कुछ लोगों को उसके फूल इतने पसंद आए कि उन्होने इन्हें कोट के बटन में टांक लिया । आज आलू पूरी दुनिया में एक महत्वपूर्ण खाद्य फसल के रुप में स्थापित हो चुका है । आलू बड़ा पाव, बटाटा राइस, आलू इन समोसा , आलू की चिप्स वगैरह, आज हर तरफ आलू है । आइए अंतर्राष्ट्रीय आलू वर्ष पर आलू से जुड़ी कुछ व्यावहारिक बातें की जाएं । कहां से आया आलू : यद्यपि आलू को आयरिश पोटेटो कहा जाता है मगर टिटिकाका झील के पठारी क्षेत्रों में (जो समुद्र तल से ३१२ मीटर ऊंचाई पर स्थित है ) आलू इनका लोगों द्वारा मक्का के साथ उगाया जाता था । ये उनके प्रमुख भोज्य पदार्थ थे । तब से यह कंद आज तक दक्षिणी अमेरिका के एनुडिअन क्षेत्र के लोगों के जीवन का प्रमुख हिस्सा है। वहां खुदाई से प्राप्त् बर्तनों पर इनकी आकृतियां इसका प्रमाण है । इन बर्तनों का काल ८०० से १५०० ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है । आलू की खेती से सम्बंधित कई बातेंं इन बर्तनों पर उकेरी गई हैं । पुरानी दुनिया में १६ वीं शताब्दी के पूर्व तक आलू को कोई नहीं जानता था । यहां तक कि कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज के समय तक यह उत्तरी और मध्य अमेरिका में भी यह अनजाना था । अत: स्पेनिश विजेताआें ने ही आलू को यूरोप में प्रसारित किया, आयरिश लोगों ने नहीं जैसी कि मान्यता है । भारत में आलू : भारत में इसे पुर्तगाली लोगों द्वारा १७ वीं शताब्दी में लाया गया परंतु इसकी खेती बहुत धीरे-धीरे बढ़ी । सम्भवत: आयरिश लोगो ने ही आलू के महत्व को मुख्य खाद्य पदार्थ के रुप में पहचाना और इसे एक फसल के रुप में १७ वीं शताब्दी में उगाना शुरु किया । इसका उपयोग १८ वीं शताब्दी में धीरे-धीरे फैलने लगा । हालांकि यूरोप के कुछ हिस्सों में इसका तीव्र विरोध भी हुआ, क्योंकि यह पौधा और इसके अन्य सदस्य जैसे धतूरा, चिरकोटी आदि ज़हरीले कुल सोलेनेसी के सदस्य हैं । अलबत्ता १८ वीं शताब्दी के अंतिम वर्षो में इसे एक महत्वपूर्ण व्यापारिक फसल का दर्जा प्राप्त् हो चुका था । खाद्य पदार्थ के रुप में इसके महत्व को देखते हुए जर्मनी और स्वीडन में इसे उगाने के लिए शाही आदेश दिए गए थे।आलू और अकाल आयरलैंड में आलू को मुख्य भोजन के रुप मेें विशेषकर गरीब लोगों द्वारा अपनाया गया । वहां के लोग १८४५-४६ तक मुख्य रूप से इसी पर निर्भर रहे । इसी समय आलू पर पोटेटो ब्लाइट नामक बीमारी का आक्रमण हुआ जो एक फफूंद से होती थी । उसके प्रकोप से पूरे यूरोप में आलू की फसल चौपट हो गई । इस तरह इतिहास का एक बहुत ही बुरा अकाल देखने में आया । जिसे दी ग्रेट आयरिश पोटेटो फेमीन कहा जाता है । इस अकाल के कारण हजारों लोगों को देश भी छोड़ना पड़ा ।आलू चीज़ क्या है ? तो देखें कि सबकी पसंदीदा सदाबहार सब्जी आलू है क्या ? वनस्पति विज्ञान की दृष्टि से आलू तना है । यह रूपांतरित तना जड़ की तरह जमीन में रहता है और जड़ की ही तरह भूरा मटमैला होता है । आलू तना है, इसके पक्ष में कई प्रमाण है । मसलन आलू पर गठानों का पाया जाना और इस पर `आंखे' होना। आलू की सतह पर यहां-वहां दिखाई देने वाले छोटे-छोटे गढ्ढे जिन्हें बोलचाल में आंखें कहते हैं वास्तव में तने पर पाई जाने वाली कलियां है । एक आंख में प्राय: ऐसी तीन कलियां होती हैं । कली की उपस्थिति तने पर गठान (पर्व संधि) की मौजूदगी दर्शाती है । दो आंखों के बीच की जगह को पर्व कहते हैं । आलू (सोलेनम ट्यूबरोसम) का पौधा एक बहुवर्षीय शाक है जिसे खेती के तहत एक वर्षीय बना दिया गया है । इसके मुख्य तने के आधार से कई शाखाएं निकलती हैं जो मिट्टी के अंदर सतह के समानांतर आगे बढ़ती हैं । कुछ ही समय बाद इन शाखाआेंकी आगे की वृद्धि रूक जाती है परंतु पत्तियों में बन रहे भोजन का नीचे की ओर प्रवाह बना रहता है । इस अतिरिक्त भोजन के कारण इनका आगे का भाग भोजन संग्रह के कारण धीरे-धीरे फूलता जाता है और आलू के रूप में हमारे सामने आता है । तो आलू एक फूला हुआ तना है जो जमीन के अंदर रहता है और इसे ट्यूबर (कंद) कहते हैं। यह कंद सफेद, लाल, जामुनी और पीला भी होता है । यानी आलू का रंग पीला, सफेद ही नहीं लाल, नीला भी होता है। आलू की बाहरी सतह में ही प्रोटीन, खनिज लवण, टेनिन और रंजक पाए जाते हैं । अत: आलू को ज्यादा छीलना उचित नहीं होता क्योंकि इसी पर्त में प्रमुख पोषक पदार्थ रहते हैं । आलू की कुछ किस्मों में फूल आते हैं, कुछ में नहीं । फूल आने पर फल बने यह भी जरूरी नहीं । फूल बैंगन, टमाटर जैसे ही होते हैं क्योंकि ये भी सोलेनेसी कुल के सदस्य हैं । आलू के फल गोल १.२ से २.५ से.मी. व्यास के कच्च्े रहे होते हैं और पकने पर पीले, जामुनी या काले होते हैं । प्रत्येक फल में लगभग २०० बीज होते हैं ।पोषण मान आलू का हमारे यहां सब्जी के रूप में ही उपयोग किया जाता है या पोटेटो चिप्स के रूप में जो एक फलता-फूलता व्यवसाय है । आलू में लगभग ७८ प्रतिशत पानी, १८ प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, २ प्रतिशत प्रोटीन, ०.१ प्रतिशत वसा और लगभग १ प्रतिशत पोटेशियम होता है । आलू विटामिन सी और खनिज लवणों, विशेषकर पोटेशियम, फास्फोरस, लोह और मैंगनीज़ जैसे तत्वों का एक अच्छा स्त्रतोत है । हरे या उगते हुए आलू खाने से बचना चाहिए क्योंकि इनमें एक जहरीला पदार्थ सोलेनिन होता है। ज्यादा मात्रा में उपयोग करने पर यह जानलेवा हो सकता है ।आलू की आंख आलू की खेती भी बड़ी रोचक है । अन्य फसलों और सब्जियों की तरह आलू के बीज नहीं बोये जाते । ऐसा नहीं है कि आलू में बीज बनते ही नहीं है । परंतु आलू की खेती के लिए इसके बीजों का नहीं इसकी आंखों का प्रयोग किया जाता है । आलू की आंखों को ही बीजों की तरह प्रयोग करते हैं । आलू के तीन-चार टुकड़े करके उन्हें जमीन में गाड़ा जाता है। इस बात का ध्यान रखा जाता है कि उस टुकड़े के कम से कम दो-तीन आंखे जरूर हों । ऐसे आंख दार आलू को जब हम बोते हैं और वे नई-नई शाखाआें को जन्म देती है । परंतु आलू को शीत गृह में रखने पर ये लंबे समय तक सुप्त् रखने के लिए नेफ्थलीक ऐसीटिक अम्ल का घोल भी छिड़का जाता है । जब आलुआें का प्रयोग बीज के रूप में करना होता है तब इन्हें शीतग्रहों से निकालकर २ प्रतिशत अमोनियम थायोसायनिक अम्ल से उपचारित करते हैं । आलू को इथीलीन क्लोरोहायड्रिन की वाष्प में २४ घंटे रखने से भी उनकी नींद उड़ जाती है और ये अंकुरित हो उठते हैं ।किचन से प्रयोगशाला तक दुनिया की अर्थव्यवस्था में आलू का बड़ा महत्व है । ताजी सब्जी के रूप में आलू को उबालकर, भूनकर, तलकर कई तरीकों से खाया जाता है । किचन में तो आलू एक आवश्यक सब्जी के रूप में रहता है कि अन्य कोई सब्जी न हो तो आलू-प्याज ही बना लो । दोनों की विशेषता है लंबे समय तक बिना किसी सुरक्षा के खराब ना होना । हमारे देश में भी जब से आलू आया है तब से नई-नई डिश हमारे खाने में जुड़ गई है । जैसे बटाटा भात, आलू की कचोरी व समोसे । समोसे तो बिना आलू के बन ही नहीं सकते । आलू का आटा भी बनाया जाता है । इससे रूसी शराब वोदका बनाई जाती है । छोटे कंद पालतू जानवरों को खिलाए जाते हैं । इससे स्टार्च, अल्कोहल, लेक्टिक अम्ल बनाया जाता है । आलू का उपयोग प्रयोगशालाआें में भी होता है । बिना आलू के जीव विज्ञान की प्रयोगशाला पूरी नहीं होती । परासरण क्रिया का प्रदर्शन करने के लिए आलू को काटकर उससे पोटेटो ऑस्मोस्कोप बनाया जाता है । विज्ञान की पुरानी शाखा मार्फोलॉजी से लेकर बायोटेक्नोलाजी तक आलू का प्रयोग होता है । सूक्ष्मजीवियों अथवा कोशिकाआें को कृत्रिम पोषक माध्यम में उगाने के लिए इससे पी.डी.ए. माध्यम बनाया जाता है जिस पर सूक्ष्मजीवियों को कांच के बर्तनों में उगाया जाता है । निश्चित रूप से वह आलू ही था जिसने जर्मनी को दो विश्वयुद्धों के दौरान जीवित रखा । क्योंकि दुश्मन अन्य फसलों की तरह इसे जला या नष्ट नहीं कर पाते थे । हमारे देश में आलू की जो किस्में लोकप्रिय हैं उनमें कुफ्री अलंकार, कुफ्री ज्योति एवं कुफ्री शीतमान । ये शब्द कुफ्री शिमला के पास कुफ्री स्थित पोटेटो रिर्सच इन्टीट्यूट का है जहां आलू की नई-नई किस्में बनाई जाती हैं । ***

५ विशेष लेख

कचरे से सामुदायिक शहरी कृषि
डॉ. आर.एस.धनोतिया
शहरवासियों कचरे से प्यार करें। यह धन पैदा करने का एक स्त्रोत हैं । किन्तु आवश्यक यह है कि कचरे को ही `सोना' बनाने की साजिश से बचते हुए हम कचरे से सोना बनाएं । इससे कचरा निष्पादन की स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी शून्य तक पहुंच सकती है । बड़े-बड़े शहरों के विकास के साथ ही शहरों से गंदगी हटाने एवं कचरा निष्पादन की वैधानिक जिम्मेदारी स्थानीय शहरी निकायों पर आ जाती है और इसलिए बजट का बड़ा हिस्सा प्रतिवर्ष कचरा निष्पादन पर व्यय करना पड़ता है। फिर भी शहरों में चहुँ ओर गंदगी का साम्राज्य फैला रहता है । नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के साथ यदि अपने सामाजिक दायित्वों एवं कर्तव्यों का गंभीरता से निर्वहन करें तो चमत्कारिक परिणाम देखाने को मिल सकते हैं । इसी दिशा में `प्रयोग' परिवार के सान्निध्य एवं निर्देशन में मुम्बई शहर के निवासी डॉ. आर.टी. डोशी ने `कम्युनिटी सिटी फार्मिंग' (सामुदायिक शहरी कृषि) जो कि न दिखने वाला महान प्रकल्प है विकसित किया है। उम्मीद की जा रही है कि यह न केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक होगा वरन् पर्यावरण हितैषी भी सिद्ध होगा । बड़े शहरों में प्रति व्यक्ति लगभग ५०० ग्राम कचरा प्रतिदिन उत्पन्न होता है। इस तरह शहरों में हजारों टन कचरा प्रतिदिन उत्पन्न होकर निष्पादन की उचित व्यवस्था न होने के कारण गंदगी फैलाता है जो कई खतरनाक बीमारियों को जन्म देती है । यद्यपि करोड़ों का व्यय कर कचरे को ट्रेचिंग ग्राउण्ड पर एकत्रित कर दिया जाता है फिर भी स्थितियां बद्तर होती जा रही है । इसका प्रमुख कारण है नागरिकों का उदासीन रवैया । नागरिक सालाना कर चुकाकर स्वयं की सामाजिक जिम्मेदारी से मुक्त मानकर जीता रहता है और प्लेग जैसी महामारी को चुपके से आमंत्रित कर बैठता है । इसी कारण राजनीतिज्ञों और प्रशासन ने कचरा निष्पादन को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के समान उद्योग में परिवर्तित करने की साजिश रच डाली है । फिर भी समस्या सुरसा की तरह मुँह बायें ही खड़ी है । स्थानीय निकायों द्वारा ट्रेचिंग ग्राउण्ड पर एकत्रित करचे को मसाला मिट्टी में रूपांतरित कर इसे शाहरवासियों को किचन गार्डन व बगीचों के लिए उपयोग में लाए हेतु नाममात्र के मूल्य पर वितरित किया जा सकता है बशर्ते राजनीति एवं भ्रष्टाचार आड़े न आए । इसका एक और अति सरल एवं पर्यावरण हितैषी उपाय है कम्युनिटी सिटी फार्मिंग जिसके द्वारा रसोई के कचरे को उपयोगी मिट्टी में रूपांतरित कर घर पर ही ताजे फल, सब्जियाँ, फूल आदि प्राप्त् किए जा सकते हैं । अति लघु प्रशिक्षण द्वारा नेच्यूको कल्चर एवं कम्युनिटी सिटी फार्मिंग के मूल तत्वों से नागरिकों को प्रशिक्षित करते हुए प्रत्येक नागरिक को अपने आस-पास सफाई रखने तथा घर के कचरे को घर में ही पुनश्चक्रण करने के लिए तत्पर होना होगा । रसोई घर के कचरे से बायो गैस बनाने का उपकरण अब चलन में आने लगा है । बायो गैस प्राप्त् करने के बाद बचे अवशेष को किचन गार्डन में काम में लाया जा सकता है अथवा बायो गैस उपकरण की व्यवस्था न कर पाने की स्थिति में कॉलोनी के नागरिक मिलकर कम्युनिटी सिटी फार्मिंग प्रारंभ कर सकते हैं । पाँच सदस्यों के एक परिवार के लिए प्रतिदिन ताजा सब्जियाँ प्राप्त् करने के लिए अधिकतम दो सौ वर्ग फीट सूर्य प्रकाश को हार्वेस्ट करने की सुविधा, बाजार से सब्जी खरीदकर लाने में व्यय समय से भी कम समय में अपने घर पर पौधों से बातचीत करने की इच्छा शक्ति, स्वयं समय दे सके व थोड़ी मेहनत कर सकें तो व्यक्तिगत रूप से अपने घर की छत पर ही यह बागवानी कर सकते हैं अन्यथा एक श्रमिक रखकर कुछ परिवार मिलकर भी यह कार्य सामूहिक रूप से कर सकते हैं । इसे कम्युनिटी सिटी फार्मिंग कहते हैं । इससे सबसे अधिक लाभ नगर निगम या स्थानीय निकाय को होगा । कचरा इकट्ठा करना, परिवहन द्वारा उसे निष्पादित करना आदि में स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी लगभग शून्य तक पहुंच जाएगी तथा करोड़ों रूपए की बचत होगी जिसे अन्य विकास कार्यो पर खर्च किया जा सकता है । दूसरा प्रमुख लाभ गृहणियों को होगा वे अपने घरों के आसपास ही उच्च् गुणवत्ता युक्त प्राकृतिक स्वाद वाली ताजी सब्जियाँ प्राप्त् कर सकेगी । कम्युनिटी सिटी फार्मिंग के प्रमुख तत्व इस प्रकार कचरा जहां उत्पन्न होता है वहीं उसे दो अलग-अलग बाल्टियों में जैविक एवं अजैविक कचरे के रूप में इकट्ठा कर लिया जाता है । दो सौ लीटर क्षमता वाले ड्रम होते हैं । इसके ऊपरी एवं निचले ढक्कनों (पैंदे) को हटा देते हैं, इस तरह यह एक बेलनाकार बन जाता है। यह ड्रम ९० से.मी. ऊँचा तथा ६० से.मी. व्यास का होता है । इसमें ८ से १० से.मी. व्यास के १२ छेद किए जात हैं । निचली सतह से २२ से.मी. ऊँचाई पर समान दूरी पर ४ छेद किए जाते हैं । पुन: ४४ से.मी. ऊँचाई पर इसी तरह ८ से १० से.मी. व्यास के ४ छेद किए जाते हैं । ४५ डिग्री पर ६६ से.मी. ऊँचाई पर इसी तरह ४ छेद और किए जाते हैं । इस तरह कुल मिलाकर समान व्यास वाले १२ छेद हो जाते है। प्रत्येक परिवार के लिए एक ड्रम नियत किया जाता है जिसमें उस परिवार का जैविक कचरा डाला जाता है । पैंदे में सर्वप्रथम लगभग ५ से.मी. मोटाई की बायो मास की परत बिछा दी जाती है, इसके लिए गन्ने की बगास, गिरी पड़ी सूखी पत्तियाँ एवं अन्य वनस्पति ले सकते हैं । इस पर रसोई का जैविक कचरा डालना प्रारंभ करते हैं । कचरा सूख कर सिकुड़ना प्रारंभ कर देता है । इस तरह कचरा डालना जारी रखें । प्रथम तल पर छेद तक कचरा डालते रहे । अब इस कचरे की सतह पर चारों छेदों से सब्जियों के पौधे लगा दे या बीज भी डाल सकते हैं । इन पौधों पर या बीजों पर गन्ने की बगास या अन्य बायो मास डाल दें तथ रसोई का जैविक कचरा डालना जारी रखें ताकि ४४ से.मी. ऊँची पंक्ति के छेद तक ड्रम की भराई हो जाए। पुन: छेदों में पौधे लगा दे या बीज डाल दे और वही प्रक्रिया तब तक दोहराए जब तक कि तृतीय स्तर के छेद तक बायोमास न पहुंच जाए । इस तृतीय स्तर के छेदों में पौधे लगा दें और पुन: कचरा भरना जारी रखें जब तक कि ऊपरी सतह तक कचरा न पहुंच जाए । ऊपरी सतह पर भी समान दूरी पर सब्जी के चार पौधे लगा दें । इस तरह एक ड्रम में कुल १६ पोधे उगाये जा सकते हैं । सब्जी का चयन सुविधानुसार किया जा सकता है । इस प्रक्रिया के प्रारंभ के दो हफ्तों के भीतर गैस का उत्पादन प्रारंभ हो जाता है। प्रति परिवार एक ड्रम नियत किया जाता है जिसे भरने में लगभग एक वर्ष का समय लग जाता है किंतु प्रथम सतह तीन या चार महीने में भर सकती है और उसमें पौधे लगाए जा सकते हैं । भराव के दौरान ड्रम से यद्यपि किसी भी प्रकार की गंध नहीं आती हैं किंतु अगर गंध आने लगे तो गन्ने के बगास की एक पतली परत बिछा दें । गर्मी के दिनों में पांच लीटर पानी प्रतिदिन प्रति ड्रम पर्याप्त् है । पानी ड्रम की दीवारों के सहारे डालना चाहिए ताकि पौधों की जड़ों को पर्याप्त् पानी मिलता रहें । यद्यपि `सामुदायिक शहरी कृषि' जो कि किचन गार्डन का ही उन्नत स्वरूप है शहरवासी अपने स्तर पर बिना किसी बाहरी सहायता के अपना सकते हैं । इसकी सफलता की सर्वाधिक संभावना तभी है जबकि यह पूरा कार्य आपसी सहयोग से हो एवं स्थानीय निकायो का कम से कम सहयोग लिया जाए । ***

६ दृष्टिकोण

ग्लोबल वार्मिंग : समस्या और समाधान
सूरज प्रकाश गुप्त
पृथ्वी की सतह का कुल क्षेत्र १९७० लाख वर्गमील है । इसमें १/४ भाग ठोस एवं शेष ३/४ भाग तरल पानी से घिरा हुआ है । धरती का ११ प्रतिशत भाग कृषि कार्य के लिए उपयोग में आता है । पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जिस पर पानी तरल अवस्था में पाया जाता है तथा जिसका १/१० भाग हमेशा बर्फ से ढका रहता है । पृथ्वी पर कुल पानी का २ प्रतिशत भाग ही नदियों, झीलों आदि में सोफ्ट वाहट के रूप में है । तथा शेष ९८ प्रतिशत पानी हार्ड वाटर के रूप में समुद्रों, महासागरों आदि में है । पिछले १०० वर्षो में पृथ्वी का तापमान ०.७४ डिग्री अधिक हो गया है। और आने वाले ५० वर्षो में यह ताप ३ से ४ प्रतिशत डिग्री और बढ़ने की संभावना है । सन २०३५ तक सभी बर्फ से ढके हुए ग्लेसियर पूरी तरह पिघल जाने की संभावना है । चाहे वह हिमालय पर जमीं बर्फ हो या उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव प्रदेश हो । बर्फ पिघलने से प्राप्त् मीठा पानी समुद्रों में समा जाने वाला है जिससे सागरों, महासागरों का वर्तमान जलस्तर ऊँचा होकर तबाही मचाने वाला है । सागरों, महासागरों के किनारे बसे दुनिया के २२ बड़े शहर जिनमें मुम्बई, कोलकाता, न्यूयार्क, टोकियो आदि शामिल है सभी डूबने वाले हैं । इस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग के कारण मनुष्यों की एक बड़ी आबादी नष्ट होने के साथ साथ अन्य जीवों की प्रजातियों के समाप्त् होने का खतरा सर पर मण्डरा रहा है । इस भयंकरतम तबाही को रोकने के लिए क्या किया जावे ? ग्रीन हाउस गैसों तथा कार्बन डाई आक्साईड, नाइट्रस आक्साईड, मिथेन आदि जो हर समय प्राकृतिक रूप से एक निश्चित अनुपात में वातावरण में रहती हैं। किन्तु मानवीय क्रियाकलापों के कारण यह गैसे अत्यधिक मात्रा में उत्सर्जित होकर प्राकृतिक चक्र बिगाड़ रही हैं । जिसके कारण ओजोन परत जो सबसे उपरी परत है और जो सूर्य की किरणों को जमीन पर सीधा आने से रोकती है, में विशाल छिद्र हो गए हैं । इस कारण सूर्य किरणें सीधे धरती पर आ रही है । इससे तापमान बड़ रहा है । अत्यधिक प्रखरता के कारण धरती पर ``ग्लोबल वार्मिंग'' जैसी समस्या उत्पन्न हो गई है । इस समस्या से उबरने के लिए क्या किया जावे ? इस पर सारी दुनिया में चिंता हो रही है । आज मनुष्य ने ऐसे मकानों को बनाना आरंभ कर दिया है जिसकी छतों पर सूर्य ताप को रोककर व उसे सोलर एनर्जी में बदलकर, उससे घर गृहस्थी में खर्च होने वाली बिजली की पूर्ति हो जाती है । मकानों की छतों पर बरसात का पानी रोककर उसे जल प्रािप्त् के स्त्रोतों पर पहुंचाकर, स्त्रोतों की रिचार्जिंग आरंभ कर दी है । इस क्रिया को ``वाटर हार्वेस्टिंग'' कहते हैं । घर-गृहस्थी में काम आ चुके पानी को भी साफ कर पुन: काम में लेने की विधियां भी प्रयोग में आने लगी हैं। समन्दर के खारे पानी को साफ कर सोफ्ट वाटर में बदल लिया गया है जो मनुष्य के रोजमर्रा के इस्तेमाल में आता है । अब एक-एक बूंद पानी खर्च करने के प्रति जागरूकता आई है/किन्तु ये प्रयत्न अभी बहुत छोटे स्तर पर हैं और इनकी प्रगति इतनी धीमी है कि ग्लोबल वार्मिंग जैसी बड़ी विश्वव्यारी समस्या के आगे ऊँट के मुंह में जीरा जैसी स्थिति में हैं। कहते हैं जहां समस्या होती है उसके समाधान के साधन भी वहीं छुपे होते हैं । इस दृष्टि से देखें तो सूर्य ताप का बढ़ता हुआ प्रकोप हमारे लिए वरदान भी बन सकता है । बशर्ते विश्व स्तर पर इस दिशा में सभी का सहयोग ईमानदारी से हो व दृढ़संकल्प और पूर्ण निष्ठा के साथ हो। ग्लोबल आधार पर हर राष्ट्र, हर संस्था, यू.एन.ओ. वर्ल्ड बैंक एवं अन्य अन्तर्राष्ठ्रीय संस्थाएं एक साथ मिलकर बैठकर एक ही प्रोग्राम हाथ में लेवें, कि सोलर हीट को जहां पर भी संभव हो, और जैसे भी संभव हो, सस्ती महंगी विधि से उसे सोलर एनर्जी में बदलना है । इतने विशाल पैमाने पर बिजली उत्पादन करने से क्या होगा ? धरती पर पानी दो प्रकार का है, (१) नदियों, झीलों आदि में सोफ्ट वाटर जो हमारे पीने के काम आता है, यह पानी बिजली का अच्छा संचालक नहीं होता है और (२) हार्ड वाटर जो समुद्रों में है, उसमें थोड़ा फेर बदल कर देने से यह बिजली का सुचालक बन जाता है । पानी विज्ञान की भाषा में क२ज कहलाता है । याने हाईड्रोजन के दो अणु और ऑक्सीजन का एक अणु मिलकर पानी बनता है और यदि विद्युत-विच्छेदन की किया की जावे तो क२ तथा ज गैसोंको अलग भी किया जा सकता है । सोलर हीट से प्राप्त् सोलर एनर्जी का उपयोग कर समुद्री पानी को हाईड्रोजन व ऑक्सीजन गैसों के रूप में बदला जा सकता है । इस क्रिया को करने में किसी भी प्रकार से प्राप्त् बिजली काम में आ सकती है । किन्तु सोलर हीट हमको प्रचुरता से प्राप्त् होने के कारण इसका उल्लेख किया गया । हाईड्रोजन ज्वलनशील गैस है तथा ऑक्सीजन जलने में सहायक गैस है । प्राकृतिक क२ और ज अनुपात में प्राप्त् इन गैसों को जलाकर विस्फोटक स्थिति बन जाती है । और इन विस्फोटों से प्राप्त् शक्ति को आटोमेशन प्राप्त् करने के लिए यंत्रों वाहनों मशीनों आदि सभी प्रकार के साधनों में इन्हें इंर्धन के बतौर काम में लिया जा सकता है । इस प्रकार समाप्त् होते जा रहे हमारे तेल, कोयला के भण्डारों के मुकाबले इंर्धन का एक बड़ा स्त्रोत हमारे हाथ में आ जाता है । यह क्रिया जब विश्व स्तर पर एक साथ की जावेगी तो समुद्र खाली होने लगेंगे और उनमें बर्फीले ग्लेशियरों का पिघल कर आने वाला पानी समा जावेगा। इस प्रकार ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न गर्मी और उससे पिघलने वाले बर्फीले ग्लेशियारों का पानी समुद्रों में आने पर, उनका जल स्तर नहीं बढ़ेगा और मानव जाति एक भयंकरतम तबाही से त्राण पा जावेगी । साथ में हमारे हाथ में आ जावेगा हाइड्रोजन एवं आक्सीजन गैसों का विशाल भण्डार जिसका उपयोग हम इंर्धन के रूप में हमारे सभी यांत्रिक एवं औद्योगिक क्रियाकलापों को पूरा करने में कर सकते हैं । इंर्धन के रूप में प्रयुक्त होने के बाद भी हमोर पास गैसों का विशाल भण्डार शेष रहेगा । उसको पुन: पानी में बदलकर नदीयों व झीलों की प्यास बुझेगी और सिंचाई के लिए कृत्रिम वर्षा कर खेतों में फसलें उगाने के काम आवेगी । मानव की भूख और प्यास दोनों मिटेंगी । और धरती हरी भरी बनेगी । आज के क्रिया कलापों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन रूक जावेगा और एक ग्रीन अर्थ एण्ड क्लीन अर्थ पर मानव जाति अन्य जीवों के साथ रहने के लायक बन जावेगी । ***

७ कृषि जगत

भारत और इंडिया के मध्य उलझी कृषि
कांची कोहली/मंजु मेनन
संप्रग सरकार के मंत्री सम्मिलित या संपूर्ण विकास की चर्चा करते नहीं अघाते, क्योंकि हमारे प्रजातंत्र का यही लक्ष्य है । वही हमारे कृषक मछुआरों और अदिवासी समुदायो के लिए छलांग लगाती यह आर्थिक वृद्धि दु:स्वप्न ही साबित हो रही है । वित्तमंत्री पी.चिदंबरम ने इस वर्ष केंद्रीय बजट प्रस्तुत करते हुए अपने भाषण में कहा भी है कि हमें सम्पत्ति निर्माण की और ध्यान देना होगा तभी हम उसका उचित वितरण कर पाएंगे। आखिर बिना संपदा के एक राज्य कल्याणकारी राज्य कैसे बन पाएगा ? लेकिन इस तरह की सतही विचारधारा से कुछ नहीं हो पाएगा। हाल ही का कृषि ऋणमाफी का निर्णय ही देखें, यह सत्ताधारी दल के लिए कुछ सींटे भले ही बटोर ले परंतु हितग्राहियों के मूल मुद्दों के बारे में यह कुछ कर पाएगा ? क्या यह विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए जमीन अधिग्रहण के मामले में कोई मार्गदर्शन दे पाएगा ? छोटे और सीमांत किसान इस वक्त महत्वपूर्ण मुद्दों पर आशा लगाए बेठे हैं । मात्र साठ हजार करोड़ रुपयों की ऋणमाफी से कृषि क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं हो पाएगा । केन्द्रीय बजट सरकार की इस मानसिकता को दर्शाता है कि विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों का ज्यादा महत्व है और कृषि क्षेत्र तीव्र अर्थिक वृद्धि के लिए प्रतियोगी नहीं है । किंतु कृषक समुदाय इस नजरिए से सहमत नहीं है । बजट पेश होने के एक दिन पहले दिल्ली मेंसेज से संबंधित एक सभा में रायगढ़ उड़ीसा के कृषकों ने साफ-साफ कहा था कि अर्थशास्त्री भले ही कृषि व्यवसाय को तुच्छ मानें हम इसे छोड़ने के पक्ष में नहीं है । कृषि क्षेत्र पर आई इस विपत्ति ने समाचार माध्यमों का ध्यान भी आकृष्ट किया है । किंतु वे सभी इसे सिर्फ आर्थिक समस्या मानते हैं और इसके लिए आर्थिक समाधान ही प्रस्तुत करते हैं । इस समस्या के पर्यावरण कोण को सभी यहां तक कि हमारा ताजा बजट भी नजरअंदाज कर रहे हैं । पिछले दस सालों में भारतीय कृषि की निर्भरता बाह्य साधनों पर होती जा रही है । बीज, खाद, कीटनाशक, कृषि औजार और यहां तक कि पानी भी व्यावसायिक दरों पर उपलब्ध हो पा रहा है । बाजरे जेसी क्षेत्रीय मौसमी पारम्परिक फसल, जिसमें कम पानी और कम खाद की आवश्यकता होती है अब चलन से बाहर हो रही है । इस तरह के कृषि उत्पादों के लिए समुचित वितरण पद्धति के अभाव एवं रासायनिक खादों पर साल-दर-साल बढ़ती सब्सिडी ने न सिर्फ पारम्परिक कृषि को बेदखल कर दिया है बल्कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी खत्म कर दिया है । इसके दुष्परिणाम भी भयावह हैं । उदाहरण के लिए उड़ीसा के कृषक आत्महत्या के ताजा मामलोंको ही देखें, ये सभी नगद फसल उगाने वाले कृषक थे जिसमेंं विनियोग के लिए बड़ी रकम चाहिए । यदि एक बार की फसल बिगड़ जाय तो घाटा वहन करना अंसभव होता है । कृषि/समस्याआें के लिए रामबाण मानी जाने वाली बड़ी कृषि परियोजनाएं भी ज्यादा सफल नहीं रही है। सरदार सरोवर जैसी बहुप्रारित परियोजना ने भी कमांड एरिया में पानी के वृहद जमाव की वजह से स्थाई नुकसान पहुुंचाया है । अलबत्ता ताजा बजट में सिचांई क्षेत्र को बड़ा विनियोग प्राप्त् हुआ है, सिंचाई एवं जल संसाधन वित्त निगम की स्थापना के लिए १०० करो़़ड रुपयों का आबंटन प्रारंभिक पूंजी के रुप में किया गया है । एक्सीलेरेटेड इरीगेशन बेनिफिट प्रोगा्रम के लिए वर्ष २००८-०९ में २० हजार करोड़ के खर्च का प्रावधान है जिसमे २४ वृहद एवं मध्यम दर्जे की परियोजनाएं एवं ७५३ छोटे दर्जे की सिंचाई योजनाएं आगामी वर्ष में सम्पन्न की जानी है सूची में सरदार सरोवर बांध ओर मणिपुर के थोबल बांध के नाम भी हैं । यह अलग बात है कि मणिपुर में हाल ही में माणिटोल बांध प्रभावित ग्राम समिति ने थोबल बांध के पुनर्निरीक्षण की मांग की है । उनकी शिकायत है कि जब सन् १९८० में परियोजना को मंजूरी मिली थी तब पर्यावरण आर्थिक एवं सुरक्षा आधारों पर इसकी उचित रुप से जांच नहीं की गई थी । मूल्यों में अस्थिरता, बाजार की अनिश्चितता और कृषि क्षेत्र में बड़े खिलाड़ियों के पदार्पण ने इस क्षेत्र में बड़ी हलचल मचा दी है । कृषि व्यवसाय के ऋणो के संदर्भ में इस समय हमें एक सुविचारित योजना की आवश्यकता है । वरना हम पाएंगे कि हमारी सम्मिलित वृद्धि हमारे गरीब कृषकों की पीठ पर सवारी करने की अपनी प्रवृत्ति जारी रखे रहेगी । ***

८ पर्यावरण परिक्रमा

कई पक्षी प्रजातियों के लुप्त् होने का खतरा

वैश्विक तापमान परिवर्तन के चलते संसार भर की हर आठ में से एक पक्षी प्रजाति पर लुप्त् होने का खतरा मंडराने लगा है । विख्यात पत्रिका न्यू सांईटिस्ट ने हाल ही में पक्षियों की उन प्रजातियों की लिस्ट छापी है जिन्हें इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कन्जरवेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने अपनी `रेड लिस्ट' में शामिल किया है । इस लिस्ट में इस बार १२२६ पक्षी प्रजातियों का नाम शामिल किया गया है । उल्लेखनीय है कि यह विश्व प्रसिद्ध संस्था अपनी रेड लिस्ट में उन्हीं प्रजातियों को शामिल करती है जिन पर लुप्त् होने का संकट मंडरा रहा होता है । इस बार की लिस्ट में उन पक्षियों पर और अधिक खतरा बताया गया है जो पिछली बार खतरे वाली सूची में शामिल किए जा चुके थे । इस बार २६ पक्षी प्रजातियों को पिछली बार के मुकाबले अधिक खतरे में बताया गया है जबकि सिर्फ दो पक्षी प्रजातियों को पहले के मुकाबले बेहतर स्थिति में बताया गया है। पत्रिका ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि पक्षियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और वैज्ञानिकों ने इसके लिए मुख्य कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि और मौसम में हो रहे लगातार परिवर्तनों को बताया है। आईयूसीएन ने डाँवाडोल हो रही प्रकृति के लिए मानव की हरकतों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि वह अपनी इच्छाआें पर काबू नहीं कर पा रहा है । उसने जंगलों का बेतहाशा दोहन करना भी नहीं रोका है। पापुआ न्यू गिनी का उदाहरण देते हुए रिपोर्ट में लिखा है कि वहाँ बॉयोफ्यूल का उत्पादन करने के लिए जंगलों को बेतरतीब तरीके से काट दिया गया और इससे वहाँ रहने वाले पक्षियों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है ।


यूका परिसर का कचरा सेना की मदद से हटेगा

भोपाल के जहरीले यूनियन कार्बाइड परिसर में रखे ३९० टन रसायनिक कचरे को गुजरात में ले जाकर नष्ट करने की योजना है । इस कचरे को हटाने के लिए नई रणनीति बनाई जा रही है जिसके तहत यूका परिसर से कचरे को हटाने के लिए सेना के विशेषज्ञों की राय ली जायेगी। पिछले महीने गैस राहत और पुर्नवास विभाग ने भारतीय सेना से इस संबंध में संपर्क किया था, साथ ही ट्रांसपोर्टस को भी पत्र लिखा गया था, जिसका परिणाम सकारात्मक बताया जा रहा है । जिसमें केन्द्र और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नियम और शर्तो की जानकारी दी गई है । यूका परिसर में मौजूदा कचरे में से कुछ हिस्सा जमीन में दफनाया जायेगा जबकि शेष बचे कचरे को गुजरात ले जाकर जलाया जायेगा । प्रदूषण निवारण मंडल के वैज्ञानिकोंद्वारा बनाए नये नियमों के तहत जमींदोज किये जाने वाले कचरे को ठोस रूप में जमा दिया जायेगा । जबकि बाकी जहरीले कचरे को १४०.० डिग्री सेल्सियस तापमान पर जलाकर नष्ट कर दिया जायेगा । हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान गैस राहत व पुर्नवास मंत्री अजय विश्नोई ने भी स्वीकार किया था कि कुछ ट्रांसपोर्ट से उन्होंने बात की है । कचरे की मात्रा को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है । यूनियन कर्बाइड परिसर में कितना जहरीला रसायन है, इसे लेकर अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हैं । सरकार का दावा जहां ३९० मैट्रिक टन का है, वही गैस पीड़ित संगठनों का कहना है कि परिसर में १८ हजार टन घातक रसायन मौजूद हैं, बहरहाल प्रदूषण निवारण मंडल ने लगभग दो वर्ष पहले जो पैकिंग कराई थी, वह कचरा सबसे पहले हटाया जायेगा।

वनों की रक्षा करती है युवकों की टोली

जब जंगलों पर चौतरफा हमला हो रहा हो, रक्षक भी भक्षक बन रहे हों, ऐसी स्थिति में बंगाल के कुछ युवकों की टोली जंगलों की रक्षा के लिए आगे आई है । पं. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के दूरा क्षेत्र में २०-२५ वर्ष के चौबीस युवकों का यह समूह छ:-छ: की टुकड़ियों में क्षेत्र के वनों की रक्षा करता है । मदारीहाट वन क्षेत्र के रेंजर असीम कुमार ने बताया कि ये युवक वनों की तस्करों से रक्षा का कार्य बड़ी मुस्तैदी से कर रहे हैं । ये युवक गत अप्रैल माह से यह कार्य कर रहे हैं । फलस्वरूप पेड़ों की अवैध कटाई में पचास प्रतिशत तक कमी आई है । युवकों की यह रक्षक टोली वन विभाग और ग्रामीणों के बेहतर संबंधों का नतीजा है । सन् १९९१ में वन विभाग ने वनवासियों को वनों की रक्षा में सहभागी बनाने की पहल शुरू की थी । वन रक्षक समितियों का गठन किया गया था । ये समितियाँ वनों के अलावा वनोपज और वन्यजीवों की रक्षा का कार्य भी कर रही हैं । बदले में वन विभाग, समिति सदस्यों को वन भूमि पर खेती करने और चूल्हे के लिए जलाऊ लकड़ी लेने की छूट देता है । ऐसी ही एक समिति का सदस्य भैया ओरांव कहता है - हमें वन विभाग ने सड़क बना दी है और पीने का पानी भी उपलब्ध कराया है । हमें सब्जियाँ उगाने की भी छूट हैं । वनों पर हमारी अंतरनिर्भरता है । युवकों की इस रक्षक टोलियों को वन विभाग ने साइकलें, टार्च और लाठियाँ उपलब्ध करा दी हैं । इन युवकों को दो हजार रू. प्रतिमाह मानदेय मिलता है । युवकों की इस टोली के साथ पंद्रह सदस्यीय महिलाआें की टोली भी जुड़ने के लिए तैयार है । फिलहाल वन विभाग से इस पर चर्चा चल रही है ।

जैविक खाद से बढ़ सकती है ३० प्रतिशत उपज

खाद्यान्न की बढ़ती मांग पूरी करने में जैविक खाद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है । इनके इस्तेमाल से कृषि उपज में २५ प्रतिशत से ३० प्रतिशत तक का इजाफा हो सकता है और नाइट्रोजन और फास्फोरस पर निर्भरता २५ प्रतिशत तक घटाई जा सकती है । कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक खाद के अंधाधुंध और अनुचित इस्तेमाल के कारण कृषि भूमि का स्वास्थ्य बिगड़ रहा है या उसकी रासायनिक संरचना में असंतुलन हो गया है । इससे कृषि पैदावार में ठहराव की स्थिति पैदा हो गयी है । राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम के विभिन्न परीक्षणों के परिणामों के अनुसार जैविक खाद के इस्तेमाल से पौधों का विकास तरीके से होता है और भूमि की जैव सक्रियता बढ़ती है । कृषि भूमि की उवर्रकता बरकरार रहती है और भूमि को कई तरह की बीमारियों से बचाया जा सकता है । देश के विभिन्न हिस्सों में किए गए परीक्षण के अनुसार जैविक खाद के इस्तेमाल से चावल की उपज में औसत २७ प्रतिशत, गेहूँ में २५ प्रतिशत, जौ में १५ प्रतिशत, दालों में १२ प्रतिशत, तिलहन में १० प्रतिशत, गन्ने में १३ प्रतिशत और सब्जियों में १९ प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है । देश में प्रति वर्ष १५ हजार से २० हजार टन जैविक खाद की आवश्यकता है जबकि उत्पादन केवल १० हजार से १२ हजार टन प्रतिवर्ष हो रहा है। कृषि मंत्रालय के अनुसार देश में कुल कृषि उपज का ५० प्रतिशत श्रेय विभिन्न खादों को जाता है । किसान अपनी उपज बढ़ाने के लिए ज्यादातर रासायनिक खाद पर निर्भर रहे हैं । हाल के वर्षो में जैविक खाद पर निर्भर रहे हैं । हाल के वर्षो में जैविद खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देना शुरू किया । सातवीं पंचवर्षीय योजना में जैविक खाद के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने की एक व्यापक योजना तैयार की गयी । इसके तहत कृषि मंत्रालय के अधिन राष्ट्रीय विकास एवं जैविक खाद उपयोग परियोजना के तहत राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास केन्द्र का गठन किया गया जबकि भुवनेश्वर, बेंगलूर, नागपुर, जबलपुर, हिसार और इंफाल में उपकेन्द्र बनाए गए है । इन केन्द्रों को जैविक खाद के क्षेत्र परीक्षण और प्रदर्शन करने के लिए अधिकृत किया गया । प्रत्येक क्षेत्र के किसानों के लिए अलग अलग जैविक खाद लिए गए और किसानों को उन्हें अपनाने के लिए प्रेरित किया गया । इन अनुसंधानों से जुड़े रहे बायोनिक्स ट्रेक्नोलाजिजके अंबर जैन के अनुसार किसानों की रूचि मूल रूप से उपज बढ़ाने, बेहतर उपज प्राप्त् करने और कम खाद का इस्तेमाल करने में होती है। यदि किन्हीं खाद के मिश्रण से किसानों को ये उद्देश्य प्राप्त् होते हैं तो वह इन्हें अपनाने में संकोच नहीं करते है ।

मैकडोनाल्ड बेचेगा `इको - फैंडली' कॉफी

इस कंपनी के बर्गरों को भले ही लोग `जंक फूड' कहते हों लेकिन `फॉस्ट फूड' के क्षेत्र में अग्रणी कंपनी मैकडोनाल्ड्स पहली बार पर्यावरण की ओर कदम बढ़ा रही है । इसने अपने यहाँ मिलने वाली कॉफी के लिए उन कोको के दानों को खरीदा है जो पर्यावरण हितैषी माहौल में उगाए गए है । मैकडोनाल्ड्स ने घोषणा की है कि अगले वर्ष से वह ऑस्ट्रेलिया में स्थित अपने ४८४ कैफेटेरिया में कॉफी उपलब्ध कराने लग जाएगा जो दक्षिणी अमेरिका में उच्च् श्रेणी के पर्यावरण हितैषी (इको- फ्रैंडली') माहौल में उगाई गई है । मैकडोनाल्ड्स अगले वर्ष मार्च से यह कदम उठाने जा रहा है । उल्लेखनीय है कि कंपनी ने अपने यहाँ परोसी जाने वाली फिल्टर कॉफी की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए न्यूयॉर्क की रेनफॉरेस्ट एलायंस नामक कंपनी को ठेका दिया था जो ग्रीन फ्रॉग लेबल के नाम से कॉफी उपलब्ध करवाती है । मैकडोनाल्ड्स की सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) कैट्रिओना नोबल के अनुसार, हम संसार के लिए एक सकारात्मक योगदान देना चाहते हैं और अगर यह शुरूआत एक कप कॉफी से ही हो रही हो तो इसमें बुरा क्या है । `सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड' ने नोबल के हवाले से कहा कि दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाना । अब सिर्फ एक सपना ही नहीं बल्कि इसे आज की जरूरत माना जाना चाहिए ।***

९ स्वास्थ्य

पर्यावरण एवं श्वासपैथी
कृष्णांश अश्वनी अग्रवाल
यह बात प्रत्येक प्राणी अच्छी तरह से जानता है कि सांस से ही जीवन चलता है । योगी तो सांस ही को प्राण मानते है । पिछले दिनांेटाईम क्लॉक म्युजियम एवं रिसर्च सैंटर नई दिल्ली की टीम ने नाड़ीज्ञन ४ आल के सहयोग से इस विषय पर विचार करके एक प्रोजेक्ट श्वासपैथी : बीमारियों से लड़ाई, बिना किसी पर र्निभर हुए पर कार्य प्रारंभ किया। इस प्रोजेक्ट में एक विचार, क्या एक चीज़ जो जीवन चलाता है शरीर को स्वस्थ नहीं कर सकता को केन्द्र में रखा गया है । सबसे पहले क्या श्वास प्रक्रिया अपने आप चलती है या यह प्राणी के नियंत्रण में आती है । और यह पाया गया कि हृदय की धड़कन की प्रक्रिया तो स्वत: कम यहंा तक कि शून्य तक ले जाते थे पर हम अभी तक किसी भी ऐसे प्राणी से मिल नहीं पाए । लेकिन श्वास प्रकिे्रया एक ऐसी प्रक्रिया है जो निश्चित रुप से पूर्णतया प्राणी के नियंत्रण में है । और यह बात हमने अपने ऊपर प्रयोग करके विवेचना करके हर प्रकार से पक्का सिद्ध कर लिया । इस निर्णय के बाद प्रोजेक्ट की दिशा र्निधारित हो गई। एक पुस्तिका ``वयस्कता की और बढ़ते कदम'' में लंग्स एफीशीयेन्सी नामक लेख पढ़ने को मिला जिसमें संक्षेप में फेफड़े के उपयोग व उसकी कार्य प्रणाली तथा क्षमता के बारे में जानकारी दी गई है । और इसी में क्षमता नापने तथा उसे बढ़ाने की सलाह भी दी गई है । यहॉ प्रश्न उठा कि फेफड़े की कार्य क्षमता को कैसे बढ़ाया जा सकता है । उसका उत्तर योग व प्राणायाम की पुस्तक में मिल गया। कार्य क्षमता बढ़ाने के लिए आपको सिर्फ अपने सांस लेने व छोड़ने के समय को लगातार बढ़ाते जाना है । याद रखें सांस लेने का समय व छोड़ने का समय लगभग बराबर होना चाहिए । और जैसे जैसे फेफड़ो की कार्य क्षमता बढ़ती जाएगी वैसे वैसे आप अपने आप ही रोगों से छुटकारा पाते चलें जाते है । यानि बिना दवाई के रोग से मुक्ति और बिना किसी फालतु प्रयास के क्योंकि सांस तो प्राणी हर समय लेता है । मात्र ध्यान रखना है कि ठीक से लेन देन करना है । ऐसे सिस्टम व उपकरण उपलब्ध है जो इस कार्य में आपकी सहायता कर सकते है । जैसे शंख बजाओ टैस्टर, अग्रसेन व्यवस्था डेमोन्स्ट्रेट आदि । क्षमता बढ़ाने में स्वास्थ वायु का होना भी बहुत आवश्यक है जो कि सिर्फ वृक्ष ही प्रदान कर सकते है । हम सब जानते है सांस प्रक्रिया में आक्सीजन का प्रयोग रक्त में उपस्थित कार्बन को जला कर कार्बन डाई ऑक्साईड में परिवर्तित करना और फिर शरीर से बाहर कर देना होता है । इसी प्रकार वृक्ष भी करते है परंतु वृक्षो की भोजन पाचन प्रक्रिया प्राणी की पाचन प्रक्रिया में सिर्फ एक भेद है । प्राणी जगत आक्सीजन का उपयोग करता है और कार्बन डाई आक्साईड उत्सर्जित करता है और वनस्पति जगत कार्बन डाई आक्साईड का उपायोग करके सूर्य की उपस्थिति में आक्सीजन का उत्सर्जन करता है । फेफडो की कार्य क्षमता बढ़ाने से न सिर्फ आप अपने आप को स्वस्थ करते है बल्कि वातावरण में प्रदूषण को भी कम करते है क्योंकि सारे प्राणी जगत में सांस प्रक्रिया का नियंत्रण सिर्फ मनुष्यों के लिए हीं संभव हैं । सांस लेते समय जितना अधिक समय लगाएगें उतना ही अधिक आक्सीजन का प्रयोग होगा और सांस छोड़ते हुए जितना अधिक समय लगा देंगे उतना ही अधिक कार्बन अपने शरीर से बाहर फैंक पाएगें और इस से कम वृक्ष होने के बावजूद भी वातावरण अधिक स्वच्छ होगा जो प्रत्येक प्राणी को लाभ पहुॅचाएगा । पर्यावरण का महत्व श्वासपैथी में ेकितना है यह समझना सरल है और श्वासपैथी को कामयाब बनाने से आप पर्यावरण की सुरक्षा में भागीदार अवश्य बनेंगे । ***

११ ज्ञान विज्ञान

मानव की तरह चलेगा रोबोट


नीदरलैंड के डल्फ्ट तकनीकी विश्वविद्यालय के शोधार्थी ने एक ऐसा रोबोट बनाया है, जो हूबहू मानव की तरह चलता है । डान होबेलिन नामक इस छात्र ने ३० मई को अपनी पीएच-डी पूरी की और इसमें उसने पहली बार खोज कर बताया है कि कि रोबोट ऊर्जा बचाने वाले और स्थायित्व वाले हो सकते हैं । होबेलिन ने इस विषय पर अपने लेखों मेें कहा है कि उन्होने कम्प्यूटर और रोबोट के ऊपर इस तकनीक को आजमाने से पूर्व मानव के चलने के तरीकों का गहन अध्ययन किया था । इन सब बातों का ध्यान उन्होने अपने रोबोट के लिए तकनीक विकसित करने में लगाया उन्होने कहा कि उनका रोबोट उन सभी तरीकों को अपनाता है , जो मानव के है । इस तकनीक से उसकी चाल में सुधार हुआ है और वह मानव की तरह ही चलता है । उन्होने अपने रोबोट का नाम फ्लेम रखा है जिसमें सात मोटर संतुलन के एक विशेष अंग और स्थायित्व कें लिए जोड़-तोड़ किए गए है । अपने इस विशेष अंग के कारण यह चलते समय अपना पूरा संतुलन बनाए रखता है और इस वजह से इसके गिरने के मौके खत्म हो जाते है। होबेलिन के अनुसार फ्लेम दुनिया का एकमात्र ऐसा रोबोट है, जो हूबहू मानव की तरह चलता है । डेल्फ्ट विवि अपनी इस सफलता के बाद अब एक ऐसा रोबोट बनाने की सोच रहा है जो मानव की तरह दौ़़ड और सोच भी सके । वह रोबोट इतना आधुनिक हो कि फुटबॉल भी खेल सके । मानव की तरह चलने वाले रोबोट का प्रदर्शन विवि इंटरनेशनल डायनेमिक वाकिंग २००८ सम्मेलन में भी करेगा ।
करोड़ों साल पहले पृथ्वी के पास थे कई चाँद




वैज्ञनिकों द्वारा ब्राह्माण्ड के पुराने स्वरुप खोजने और उस पर मॉडल बनाए जाने की प्रक्रिया से पता चला है कि करोड़ साल पहले पृथ्वी पर कई चंद्रमाआें के अस्तित्व की संभावना थी । वैज्ञानिकों के अनुसार वह समय पृथ्वी पर कई प्राकृतिक उपग्रहों का था और इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय पृथ्वी से कई चाँद नजर आते होंगे । न्यू साइंटिस्ट पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार उस समय पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति जिस तरह की थी, उससे तो यहीं प्रतीत होता है कि पृथ्वी के लिए एक से ज्यादा चाँद उपलब्ध होंगे। इस बारे में नासा केेलिफोर्निया स्थित रिसर्च सेंटर के अध्ययन दल के सदस्य जैक लेसर बताते हैं कि यह स्थति लैगरेनगियन कहलाती है जिसमें गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बल से कई ग्रह और उपग्रह आपस में जुड़े होते है । ये सभी जिन बिन्दुआे पर एक दूसरे से जुड़ते हैं, उन्हें ट्रोजन कहा जाता है और अगर उस गुरुत्वाकर्षण में कोई छेड़छाड़ नहीं हो तो यह स्थिति लंबे समय तक जस की तस बनी रह सकती है । उस समय पृथ्वी के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थित के साथ भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनी होगी । अगर कोई अन्य उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में उस दौरान आया होगा और ट्रोजन बिंदु पर जम गया होगा तो उस स्थिति में वह उपग्र्रह १०० करोड़ साल तक पृथ्वी के लिए प्राकृतिक उपग्रह की भूमिका निभाता रहा होगा, ठीक उसी तरह जैसे कि आज चन्द्रमा निभा रहा है । बाद में जब उस स्थिमि में कोई बदलाव आया होगा तब वह उपग्रह या तो पृथ्वी की कक्षा से बाहर हो गया होगा या फिर पृथ्वी पर गिरकर नष्ट हो गया होगा । वैज्ञानिकों ने ऐसे उपग्रहों को `ट्रोजन सेटेलाइट' नाम दिया है । वैज्ञानिकों के अनुसार वह स्थिति बहुत रोचक रही होगी, क्योंकि तब ये उपग्रह पृथ्वी के आस-पास ठीक वैसे ही दिखते होंगे जैसे कि वर्तमान में जूपीटर और वीनस ग्रहों के उपग्रह दिखते हैं । वैज्ञानिकों ने इस रिपोर्ट में कहा है कि हो सकता है कि उन उपग्रहों ने पृथ्वी की कक्षा में अरबों साल तक चक्कर लगाए हों और बाद में वे सब लापता हो गए हों ।
सबसे बुर्जुग गोरिल्ला ने ५५वाँ जन्मदिन मनाया

पिछले दिनों अमेरिका में डलास के चिड़ियाघर में रहने वाली दुनिया की सबसे बुर्जुग गोरिल्ला जेनी ने अपना ५५वाँ जन्मदिन मनाया । जंगल में रहने वाले गोरिल्ला की उम्र ३०-३५ वर्ष तक होती है । पालतू प्राणियों या चिड़ियाघर के पिंजरे में बंद जानवरों की उम्र तो सही-सही बताई जा सकती है, परंतु जो जंगल में आजाद रहते हैं उनकी उम्र गिनना आसान नहीं है । इतना तय है कि मनुष्य के साथ पालतू बन कर रहने वालों की उम्र उनके वनवासी भाई-बहनों की तुलना में ज्यादा रहती है । कारण उनकी देखभाल और बेहतर खाने से है । वैज्ञानिकों ने जंगली जानवरों की उम्र का अंदाज ठीक-ठीक लगाने के तरीके खोज निकाले हैं। ये उनकी हडि्डयाँ, दाँत वगैरह को बारीकी से जाँचने के हैं। जिस तरह पेड़ के तने में हर वर्ष एक छल्ला बढ़ता है और सूखे या अच्छे साल के अनुसार छल्ला पतला-मोटा बनता है, प्राणियों की उम्र नापने का तरीका भी यही है ।

कीटनाशक बन सकते हैं कैंसर का कारण
पंजाब में हुए एक शोध के मुताबिक खेती में कीटनाशकों के इस्तेमाल से लोगों के डीएनए को नुकसान पहँच सकता है । शोध के मुताबिक खेत में काम कर रहे मजदूरों में कैंसर का कारण भी यही कीटनाशक हो सकते हैं । पटियाला विश्वविद्यालय के इस शोध में मजदूरों पर महीनों तक अध्ययन किया गया । यही कारण है कि इस शोध को अन्य अध्ययनों से बेहतर माना जा रहा है । कई वर्षो से इस बात पर चिंता जताई जाती रही है कि खेतों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों से कैंसर जैसे रोग हो सकते हैं । इस नए अध्ययन में पंजाब के किसानों के डीएनए में परिवर्तन पाया गया जिससे उन्हें कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है । विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सतबीर कौर के मुताबिक इस शोध मेंपाया गया कि किसानों की उम्र, उनका शराब या सिगरेट का सेवन करना, इन सब बातों का डीएनए में होने वाले बदलाव से कोई ताल्लुक नहीं है । प्रोफेसर कौर कहती है कि डीएनए में होने वाले परिवर्तन का सबसे संभावित कारण खेतों में कीटनाशकों का छिड़काव ही है । उधर क्रॉप केयर एसोसिएशन के सलिल सहगल का कहना है कि किसानों को होने वाले कैंसर का खेतों में कीटनाशकों के इस्तेमाल से कोई ताल्लुक नहीं हैं । वे कहते हैं -`आज की तारीख में खेतों में ऐसा कोई भी कीटनाशक इस्तेमाल नहीं होता है जिससे कैंसर हो सकता हो ।' श्री सहगल कहते हैं कि किसान कीटनाशक का इस्तेमाल हर सत्र में कुछ ही बार करते हैं, लेकिन किसान का कहना है कि उन्हें कीटनाशकों का इस्तेमाल बहुत ज्यादा बार करना पड़ता है ताकि फसल को नुकसान नहीं पहुँचे । ऐसे वक्त जब खाद्य वस्तुआें की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं और नई फसलों की किस्मों से जिस पैदावार की उम्मीदें लगाई जा रही थीं, वे उम्मीदें पूरी नहीं हो पाई हैं, उस वक्त इस शोध का निष्कर्ष चिंता का विषय है । पटियाला विश्वविद्यालय के इस शोध से सवाल भी खड़े हुए हैं कि क्या गहन खेती ज्यादा दिनों तक चल सकती है ? ***

१२ कविता

इस मिट्टी का कर्ज चुकाये
किशोर पारीक



हर बेटे से हर बेटी से, मेरा एक सवाल है,
इस मिट्टी का कर्ज चुकायें, वो ही मां का लाल है ।
छेद हुआ ओजोन परत में, वह जमीन को भारी है,
अंबर से भू पर तेजाबी, बरखा की तैयार है ।
कोई गन्दे नालों से, मां गंगा दूषित करता है,
चिमनी के धुएं से कोई, गगन कलुषित करती है ।
श्याम चिरैया, सोन चिरैया, ना गौरेया गाती है,
अमराई सूनी उदास है, कोयल ना इठलाती है ।
तिनका तिनका चुनकर पंछी बेमन नीड़ बनाते है,
फूलों के बिन तितली मधुकर, सब गुमसुम हो जाते हैं।
मन मोहक झरने केवल अब, चित्रों में बच पाये हैं,
मानव से स्वार्थ के खातिर, जंगल भी कटवाये हैं ।
नदिया कूप बावड़ी सूने, पानी गया पातालों में,
मीलों से जल लाती वधू के चरण भरे है छालों में ।
इस पीड़ा को कोई ना जाने, यही किशोर मलाल है,
आँखें खोलेगा जो जग की, सोई मां का लाल है ।
मौसम हमसे रूठ गये हैं तापमान भी ज्यादा है,
और सुनामी बाढ़े आने को, कितनी आमादा है ।
आये दिन अति वृष्टि कहीं तो, पड़ता कहीं अकाल है,
इस मिट्टी का कर्ज चुकाये, वो ही मां का लालहै।
पेड़ झाड़ियां ढूंढ बेलड़ी, गली सूखे सब कटते,
अपने अपने रूतबे माफिक, ऊपर तक हिस्से बँटते ।
कानन का आनन मुरझाया, ना चुग्गा है ना पानी,
गिद्ध हो गया गुम, बहुत सी नसलें, भी है गुम जानी ।
भूल गये तुम खेजड़ली की अदभुद सी कुरबानी को,
शीश कटा कर पेड़ बचाया, ऐसी अदभुद रानी को ।
मूक जानवर किससे बोलें अपने मन की लाचारी,
सलमान सरीखे भोले चेहरे उन पर पड़ते है भारी ।
कहां गई गोड़ावन अपनी, केहरी हुवा हलाल है,
इस संकट से हमें बचाए कोई मां को लाल है ।
हर बेटे से हर बेटी से, मेरा एक सवाल है,
इस मिट्टी का कर्ज चुकाये, वो ही मां का लाल है ।
* * *

१३ जैव टेक्नालॉजी

उपज के लिए पौधों से खिलवाड़

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

अनाज, फलों और नगदी फसलों की अच्छी उपज देने वाले संकर पौधे उपयोगी हैं मगर लंबे समय तक इनका संवर्धन करना एक चुनौती रही है क्योंकि `संकर स्फूर्ति' समय के साथ फीकी पड़ जाती है । इस संदर्भ में हैदराबाद के कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र के डॉ. इमरान सिद्दिकी और उनके साथियों द्वारा नेचर के २८ फरवरी २००८ के अंक में प्रकाशित शोध पत्र मील का पत्थर है। इसमें उन्होंने एक तकनीक का ब्यौरा दिया है जिसकी मदद से ज्यादा पैदावार वाले पौधों को निरंतर उगाना संभव हो सकेगा । इस तकनीक में जिनेटिक स्विचिंग का एक चरण शामिल है जो पौधे के सेक्स जीवन को बदल डालेगा । बच्च पैदा करने के कितने तरीके हैं? जवाब इस बात पर निर्भर है कि यह सवाल किससे पूछा गया है । कई एक कोशिकीय बैक्टीरिया के पास संतानोत्पत्ति का आत्मनिर्भर तरीका मौजूद है । वे तो बस अपनी जिनेटिक सामग्री (जीनोम) की एक नकल बनाते हैं और दो कोशिकाआें में विभाजित हो जाते हैं । समय आने पर इनमें से प्रत्येक कोशिका फिर से दो-दो में विभाजित हो जाती है । और यह प्रक्रिया चलती रहती है । जल्दी ही एक मूल कोशिका से करोड़ों, अरबों कोशिकाएं बन जाती हैं । यह एक जांची परखी प्रक्रिया है, जिसे माइटोसिस या समसूत्री विभाजन कहते हैं और यह करोड़ों सालों से जारी है । चूंकि प्रजनन की यह शैली एक अकेली कोशिका से चलती है और उसकी लगभग सत्य प्रतिलिपियां बनती हैं, इसलिए संतानें पालक की क्लोन होती हैं । इसे क्लोनल विस्तार भी कहते हैं । बहु-कोशिकीय जीवों में कोशिकाएं न सिर्फ हूबहू अनुकृति के रूप में विभाजित होती हैं बल्कि विभेदित होकर अन्य किस्म की कोशिकाएं भी बनाती हैं। ये विभेदित कोशिकाएं फिर क्लोनल विस्तार के जरिए ऊतक व अंगों का निर्माण करती हैं । क्लोनल प्रजनन काफी कार्यक्षम है मगर कभी-कभी इसमें त्रुटियों की संभावना रहती है । जब नकल बनाने में इस तरह की त्रुटियां होती हैं तो डी.एन.ए. में उपस्थित सूचना में फेरबदल हो जाता है । समय के साथ जीवों में प्रूफ रीडिंग, संपादन व मरम्मत की तकनीकें विकसित हुई हैं । इसके बावजूद यदि त्रुटि हो जाए और वह संतान कोशिका तक पहुंच जाए, तो म्यूटेशन्स यानी उत्परिवर्तन पैदा होते हैं । यदि ऐसा कोई म्यूटेशन संयोगवश उस जीव को किसी पर्यावरण में बेहतर जीने की क्षमता देता है, तो वह लाभदायक हो जाता है । यह म्यूटेशन युक्त कोशिका (म्यूटेन्ट) अन्य कोशिकाआें से ज्यादा जी पाती है । औषधि प्रतिरोधी बैक्टीरिया इसी तरह विकसित होते हैं । दूसरी ओर, कोई म्यूटेशन कोशिका को दुर्बल भी बना सकता है । यदि यह जिनेटिक त्रुटि पीढ़ियों तक चलती रहे तो सजीवों का कम तंदुरूस्त खानदान तैयार होता है । लिहाजा यह अच्छा होगा यदि नए व उपयोगी जीन्स हासिल करने का तथा प्रजनन का कोई और तरीका मिल जाए । यदि उपरोक्त सवाल हमारे जैसे किसी स्तनधारी से पूछा जाए, तो जवाब होगा: सेक्स, जिसमें बच्च्े पैदा करने के लिए दो पालक (एक मादा व एक नर) की जरूरत होती है । नर व मादा के शरीर में २०० विविध किस्म की कोशिकाआें के अलावा एक विशेष किस्म की कोशिकाएं बनती हैं जन्हें अंडाणु या शुक्राणु कहते हैं । इनमें जीव की पूरी जिनेटिक सामग्री नहीं होती, सिर्फ आधी सामग्री होती है । शुक्राणु और अंडाणु के मिलने से निषेचन होता है और एक भ्रूण बनता है। समय के साथ भ्रूण विकसित होकर शिशु बनता है । अर्थात माता व पिता दोनों जीन्स संतान को हस्तांतरित किए जाते हैं । इस तरह के लैंगिक प्रजनन में क्लोनिंग की अपेक्षा कई फायदे हैं । इसके जरिए नए-नए जीन्स जुड़ते हैं और विविधता बढ़ती है । नए गुण जुड़ते हैं व नई संभावनाएं खुलती हैं । इसके अलावा मादा और नर को अपना प्रजनन साथी चुनने का मौका मिलता है ताकि वे स्वस्थ संतान उत्पन्न कर सकें । जीन का मिश्रण लैंगिक प्रजनन का एक फायदा है । मगर इसमें जो जैविक प्रक्रियाएं होती हैं, वे समसूत्री विभाजन की अपेक्षा ज्यादा पेचीदा है । पालकों के जिनेटिक पदार्थ को पहले गैमेट्स (अंडाणु व शुक्राणु) में बांटा जाता है, और फिर निषेचन के दौरान इन्हें फिर से मिलाया जाता है - इन प्रक्रियाआें को अर्धसूत्री विभाजन और पुनर्मिश्रण कहते हैं । कई पौधों में यही रास्ता अपनाया जाता है । फूलधारी पौधों के स्त्रीकेसर में अंडाणु होते हैं । (इन्हें बीजांड कहते हैं) पुंकेसर नर प्रजनन अंग है जिसमें पराग कोश होते हैं । पराग कोशों में पराग कण होते हैं जो नर प्रजनन कोशिकाएं हैं । जब पराग कण स्त्रीकेसर पर पहुंचकर बीजांड से मिलते हैं तो निषेचन होकर भ्रूण बनता है । यह बीज के अंदर होता है । बीजांड के आसपास की कोशिकाएं भी विभाजित होकर बीज बनाती हैं । जैसे हम खुद के लिए प्रजनन साथी का चुनाव करते हैं उसी प्रकार खेती में हम विभिन्न गुणों वाले पौधों का चयन करके उनका निषेचन करवाते हैं ताकि मनचाहे गुणों वाले पौधे पा सकें । जैसे, ज्यादा पैदावार, कीट प्रतिरोध, बेहतर फल, या ज्यादा सुंदर फूल वगैरह । खेजी में प्रमुख खाद्यान्न फसलों में इस तरह से संकरण से ऊंचीपैदावार वाली संकर किस्में बनाई जाती हैं । हरित क्रांति इसी तरह की कवायद का नतीजा थी । मगर किसानों के सामने एक समस्या आती है । एक अच्छी संकर किस्म मिल जाने पर चाहते हैं कि उसके जीन्स बरकरार रहें । तब वे संकर किस्म में स्व निषेचन के जरिए इसका फैलाव करते हैं ताकि संतानें बेहतर होती जाएं । मगर तथ्य यह है कि यह संकर स्फूर्ति स्व निषेचन से उत्पन्न कुछ ही पीढ़ियों बाद समाप्त् हो जाती है । संकर किस्म में उपस्थित विभिन्न जीन्स बीजांड या पराग कणों के निर्माण के दौरान अलग-अलग हो जाते हैं और फिर अलग ढंग से पास-पास आते हैं । परिणाम यह होता है कि हमें हर बार पालकों की मूल संकर किस्म के साथ निषेचन करवाना होता है ताकि स्फूर्ति बने रहे । किसानों की दृष्टि से यह कोई संतोषजनक स्थिति नहीं है । अलबत्ता, एक रास्ता है । यह रास्ता कई पौधों (तथा कीट व मछली जैसे कुछ जंतुआें) के एक विचित्र गुण का परिणाम है । डेंडेलियन तथा बेरियों व घासों जैसे कुछ पौध अर्धसूत्री विभाजन को तिलांजलि दे देते हैं और क्लोन विधि से बीज पैदा करते हैं । मादा का पूरा का पूरा जीन सेट पुत्री बीज को मिल जाता है। इस अजीब किंतु रोमांचक गुण को एपोमिक्सिस कहते हैं । इसमें मियोसिस यानी अर्धसूत्री विभाजन नहीं होता है । यह अलैंगिक प्रजनन है । जहां बेरियां व घासें ऐसा करती हैं, वहीं प्रमुख फसलों पौधों में ऐसा नहीं होता । वे तो लैंगिक प्रजनन ही करते हैं। काश, उन्हें भी एपोमिक्टिक बनाया जा सके । तब संकर स्फूर्ति सदा के लिए बनी रहेगी क्योंकि जीन्स का पुनर्मिश्रण नहीं होगा । यदि एपोमिक्सिस का जीव वैज्ञानिक आधार व प्रक्रिया समझ सकें, तो शायद हम गेहूं, चावल और मक्का जैसी फसलों को एपोमिक्सिस की राह पर भेज सकेंगे और अच्छी पैदावार ले सकेंगे। तो वे कौन-से जीन्स हैं जो एपोमिक्सिस का नियंत्रण करते हैं ? डॉ. इमरान सिद्दिकी और उनके साथियों ने इसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रकाश डाला है । इसके लिए उन्होंने अलैंगिक प्रजनन करने वाले एक पौधे एरेबिडोप्सिस का उपयोग किया। उन्होंने दर्शाया है कि ऊधअऊ नामक एक जीन में फेरबदल करने से एपोमिक्सिस का रास्ता खुल जाता है और पौधा अलैंगिक प्रजनन करने लगता है । ऊधअऊ जीन सामान्य रूप से अर्धसूत्री विभाजन के दौरान गुणसूत्रों के संगठन का नियमन करता है । मगर ऊधअऊ जीन में उत्परिवर्तन होने पर पौधों में ऐसे बीज बनने लगते हैं जिनमें एक ही पालक के पूरे गुणसूत्र होते हैं । इस जीन का काम भलीभांति ज्ञात है मगर इस एक अकेले जीन में उत्परिवर्तन से पौधा एपोमिक्टिक बन सकता है, यह सचमुच एक पथ प्रदर्शक खोज है । सिद्दिकी का कहना है, ``हमारे नतीजे ऐसे अन्य जीन्स की खोज को प्रेरित करेंगे, जिनका उपयोग करके हम खाद्य फसलों में एपोमिक्सिस पैदा कर सकेंगे जो दुनियाभर में कृषि जैव-टेक्नॉलॉजी का लक्ष्य है ।***

१४ प्रदेश चर्चा

म.प्र. : गेहूँ की आग से झुलसते गांव
रामकुमार गौर
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के मकोड़िया गांव के कृषक रघुवीर लोवंशी और उसके तीन भाईयों के आँसू उस दिन थम नही रहे थे । २२ वर्षीय लड़की की हालत पागलों जैसी हो रही थी । कारण था गांव में लगी आग । इस आग में रघुवीर का घर पूरी तरह झुलस गया । हरे पेड़ जल पाए । खलियान में बंधे दो जानवर भी जल गए । इस घटना से रघुवीर पूरी तरह बर्बाद हो गया था । गौरतलब है गत अप्रैल माह में खेत में गेहूँ की नरवाई (गेहूँ काटने के बाद नीचे का हिस्सा) में लगाई गई आग के कारण मकोड़िया गांव में आग लग गई थी । देखते ही देखते गांव के ४० मकान और इनमेंं रखा करीब डेढ़ करोड़ रुपये का गृहस्थी का सामान व अनाज जलकर खाक हो गया । मकोड़िया गांव की यह घटना नरवाई की आग से इतनी बड़े नुकसान की इस वर्ष की सबसे बड़ी घटना है । लेकिन बात होशंगाबाद जिले के इस गांव की ही नहींहै, मध्यप्रदेश के गेहूँ प्रधान किसी भी गाँव के लिए यह आम घटना हो गई है । अप्रैल माह में ऐसी दर्जनों घटना देखी जा सकती हैं, जिनमें किसानों के घर खेत की फसल, जानवर, हरे पेड़ आदि जलकर खाक हो गये । नरवाई में लगाई जा रही आग से खेतों के हरे पेड़ तो जलते ही हैं साथ ही इस आग ने कई जगह तो सड़क के बाजू में लगे वर्षो पुराने पेड़ो को भी जला डाला है । गर्मी के दिनों में ऐसे दर्जनों पेड़ किसी भी सड़क किनारे देखे जा सकते हैं जो कि राख में तब्दील हो चुके है या मात्र ठूंठ ही रह गये हैं । नरवाई की आग जहां बेकसूर लोगों की क्षति पहुँचा रही है वहीं इसने प्रशासन की नाक में दम कर रखा है । होशंगाबाद जिले की सोहागपुर तहसील के तहसीलदार कहते है कि एक तहसील में एक फायर ब्रिगेड है और एक दिन में तीन से चार आगजनी सूचना एक समय में मिल रही है ऐसे में व्यवस्था बनाना बड़ा मुश्किल हो गया है । एस.डी.एम. के अनुसार सोहागपुर तहसील में नरवाई बुझाने में अप्रैल माह के अंत तक लगभग एक लाख रुपये का डीजल जल चुका है। नरवाई में आग लगाने से किसान भी बाज नहीं आ रहे हैं । नरवाई की आग से होश्ंगाबाद जिले की पिपरिया नगर पालिका का दमकल विभाग भी परेशान है । मुख्य नगर पालिका अधिकारी ने साफ तौर पर कहा कि अब नरवाई में आग लगने की घटनाआें में पिपरिया का दमकल आग बुझाने नहीं जायेगा । उन्होने कहा कि नगरीय प्रशासन के साफ आदेश है कि ऐसे स्थानों पर दमकल न भेजें दमकल विभाग रोज-रोज की आग की घटनाआें से परेशान है । हाल ही में एक स्थान पर आग बुझाने गये दमकल के ड्रायवार और कंडक्टर आग की लपट में झुलस गये । नरवाई लगाई में लगाई जा रही आग के प्रत्यक्ष दुष्परिणाम तो आये दिन सामने आ ही रहे हैं । इसके अप्रत्यक्ष नुकसान भी हैं जिन पर हमें विचार करने की आवश्यकता है । नरवाई में लगाई जा रही आग से भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो रही है और वातावरण दूषित हो रहा है आग से भूमि के कार्बनिक पदार्थ नष्ट हो रहे हैं, जिसका सीधा असर पैदावार पर पड़ेगा । कृषि विभाग से प्राप्त् जानकारी के मुताबिक नरवाई की आग मेें नरवाई तो जल रही है साथ ही जमीन में उत्पादन में सहयोग करने वाले जीवाणु भी दम तोड़ रहे हैं । पैदावार को बढ़ाने वाले बैक्टीरिया और वायरस आग में नष्ट हो रहे हैं । यह तापमान को बढ़ाने में भी सहायक है । यदि नरवाई में लगाई जा रही आग पर विचार किया जावे तो ज्ञात होगा कि पिछले दस वर्षो में यह घटनायें ज्यादा देखी जा रही हैं । यही नहीं प्रतिवर्ष आग का कहर बढ़ता ही जा रहा है । इन दस सालों में खेती में बड़े पैमाने पर मशीनीकरण हुआ है । साथ ही खेतों की मेढ़ समाप्त् होने से भी आग को फैलने में आसानी हो गई है । एक तरफ जहां मशीनीकरण से किसान को कम मेहनत एवं समय की बचत हो रही है वहीं उसके सामने नई समस्यायें आ रही है जिनका विकल्प खोजने की आवश्यकता है । पहले मिश्रित खेती की जाती थीं। इससे आग लगने का खतरा कम रहता था क्योंकि यदि आग लगती भी थी तो दूसरे खेत में आग लगने का कोई खतरा नहीं रहता था । परन्तु वर्तमान समय में एकल खेती करने के कारण चारों तरफ गेहँू ही गेहँू नजर आता है । कटाई के बाद किसान को सबसे अच्छा तरीका नरवाई में आग लगाना ही सूझता है । यदि किसान न भी चाहे तो भी उसका खेत जलना ही हैं क्योंकि नरवाई जलते जलते उड़कर जाती है एवं अगले खेत में आग लगा देती है । ***

१५ पर्यावरण समाचार

एक हजार पेड़ बचाने के लिये मुख्यमंत्री को पत्र
पर्यावरणविद् डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने पश्चिमी म.प्र. में लेबड़-जावरा फोरलेन सड़क निर्माण में अनावश्यक रुप से काटे जा रहे पेड़ो को बचानेे की गुहार लगाई है । मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को लिखी चिट्ठी में उन्होने कहा कि करीब एक हजार पेड़ो को अनावश्यक रुप से कटने से बचाया जा सकता है । डॉ. पुरोहित ने बताया कि लेबड़ से जावरा (बरगढ़ फंटे तक) की १२५ किमी लंबी फोरलेन सड़क के निर्माण का ठेका मुंबई की वेेस्टर्न एमपी इन्फास्ट्रक्चर एंड टोल रोड प्रा.लि.कंपनी को दिया गया है। इस कंपनी ने टोटल प्रोजेक्ट मैनेजमेंट का ठेका स्तुप कंसलटेंसी मुंबई को दिया है । पिछले दिनों स्तुप कंसलटेंसी द्वारा तैयार (सड़क चौड़ीकरण) योजना के आधार पर बने भूअर्जन प्रकरणोंमें कलेक्टर रतलाम ने अवार्ड भी पारित कर दिये है । जिले में फोरलेन निर्माण के लिए सड़क के दोनो ओर के ११५६० पेड़ काटने की अनुमति जिला प्रशासन से ली गई है । इसमें से करीब ७ हजार पेड़ कट भी गए है । दु:खद पहलू यह है कि पेड़ो को कटने से बचाने के लिए किसी भी संभावना पर विचार न करके बेरहमी से करीब २ हजार पेड़ो की अनावश्यक कटाई हो चुकी है । डॉ. पुरोहित का कहना है कि सड़क के बाएँ और जहाँ निर्माण होना है, वहाँ दाई ओर के पेड़ काटने और दाइंर् ओर के निर्माण वाले स्थानो पर बाई ओर के पेड़ काटने का क्या औचित्य है ? अभी १३ गाँवों के पेड़ काटना शेष हैं । यदि संवेदनशील दृष्टिकोण से कार्य किया जाए तो १ हजार पेड़ों को अनावश्यक रूप से कटने से बचाया जा सकेगा । इन पेड़ों में नीम, बबूल, शीशम, करंज, आम और अमलतास जैसे पेड़ शामिल हैं । डॉ. पुरोहित ने विरल वन वाले मालवा क्षेत्र के लिए मुख्यमंत्री श्री चौहान से पेड़ों को बचाने की दिशा में कारगर कदम उठाने का आग्रह किया है । ***