मंगलवार, 3 जून 2008

प्रसंगवश

पत्र, एक पर्यावरण प्रेमी का
नर्मदा का गिरता जल स्तर
निरंतर गिरते जल स्तर, सतत दोहन, कम होती जल आवक से नर्मदा थम सी गई है । जगह-जगह पत्थर निकल आने से इसका स्थूल रूप बिगड़ गया है । शिव का प्रवाहमान स्वरूप नर्मदा का छरहरापन चौंकने नहीं, चिंतन का विषय है । स्वार्थ और सुविधा के लिए नर्मदा के अत्यधिक दोहन, जिसे शोषण ही कहना अधिक उपयुक्त होगा, की तो परिणति है वर्तमान स्थिति । अमरकंटक से खंभात की खाड़ी तक १३२६ किमी की दूरी तय करने वाली नर्मदा जिन किनारों से साँस लेती है, वे आज प्रदूषण के अड्ढे बनकर रह गए हैं । जिस सतपुड़ा-विंध्याचल-मैकल पर्वतों का पानी पीकर यह सदानीरा रहती है; वे आज वृक्षों से विहीन होते जा रहे हैं । फलत: वहाँ से रिसने वाले जल की आवक में पिछले १५ वर्षो में ५० फीसदी की कमी आ गई है । यही सब जारी रहा तो इतने नहीं, इससे भी कम वर्षो बाद, नर्मदा की क्या हालत होगी, सोचकर ही कलेजा काँप जाता है। यह विडम्बना नहीं तो क्या है, गत ६० वर्षो से इससे `पानी' लेने के `विचार' पर हमने जितना खर्च किया है, उसका ५ प्रतिशत भी इसके रखरखाव पर नहीं लगाया है । इससे नहरें निकालने वाला मनुष्य ही इसमें गंदे नाले बहाकर कृतघ्नता की पराकाष्ठा पार कर रहा है । नर्मदा के जल से खेत और पेटे की आग बुझाने वालों ने ही तो इसके जलग्रहण क्षेत्र में आने वाले वृक्षों को निर्ममता से काट मारा है । एक समय था, जब इसमें समाने वाली ३९ सहायक नदियाँ बारह महीने ही बह कर अपने साथ इसे भी लबालब रखती थीं । स्थिति बदल गई है । अब ये नदियाँ नवंबर, दिसंबर महीने तक ही साथ देती हैं । बाकी ६-७ महीनों तक (वर्षा होने तक) नर्मदा अपने अंत: स्त्रोतों के सहारे ही प्रवाहमान रहती है । कम होती बरसात एवं जल के निरंतर दोहन के चलते ये आंतरिक स्व प्रवाह कब तक साथ देंगे, कहा नहीं जा सकता है । नर्मदा का अखिल सौंदर्य अनंत वैभव लौटाने के लिए जल-जंगल किनारे, प्रदूषण भू-गर्भ की जलग्रहण रचना पर विचार करना होगा । नए सिरे से, अनुसंधान करना होगा, जिससे अपने परिणामों को हम जल्दी और ज्यादा प्रमाण से प्राप्त् कर सके । नर का मद हरने वाली नर्मदा, हमारी मदांधता से किसी दिन धरती से ही हर ली जाएगी, जिसकी दोषी, समस्त नर्मदा संतति ही होगी
जगदीश गुरूजी,
घरोंदा, नेमावर(देवास) म.प्र.

कोई टिप्पणी नहीं: