बुधवार, 19 जून 2019



सम्पादकीय
हिमालयन वियाग्रा को लेकर दो गांवों में जंग
हिमालयन वियाग्रा को लेकर उत्तराखंड में जंग छिड़ गई है । उत्तराखंड के दो गांव इस पर अपने दावे को लेकर आमने-सामने आ गए हैं । अंतरराष्ट्रीय बाजार में हिमालयन वियाग्रा की मांग ज्यादा होने से अच्छी कीमत मिलती है, जिसके चलते पिथौरागड़ जिले के दो गांवोंधारचुला और मनुस्यारी के लोगों ने इस पर अपना दावा ठोंका है । 
गौरतलब है कि गर्मी के मौसम में पिथौरागढ़ के धारचुला और मनुस्यारी के लोग हिमालय की पहाड़ियों में हिमालयन वियाग्रा  की खोज के लिए जाते हैं । हिमालयन वियाग्रा को स्थानीय भाषा में कीड़ा जड़ी के नाम से भी जाना जाता है, लेकिन बीते कुछ सालों से यहां के बुई और पाटो गांव के लोग एक-दूसरे के खिलाफ हो गए हैं । मिली जानकारी के मुताबिक दोनोंगांवों के लोग रालम और राजरम्भा मैदानी चारागाहों पर मिलनेवाले कीड़ा जड़ी पर अपना दावा जता रहे हैं । ग्रामीणों का कहना है कि मैदानी चारागाह वन पंचायत के दायरेमें आता   हैं । ऐसे में दूसरे किसी को इलाके से कीड़ा जड़ी लेने का अधिकार नहीं है, जिससे दोनों गांव के बीच तलवारें खिंच गई है । तेजी से बिगड़ते हालात के मद्देनजर जिला प्रशासन ने झगड़ा सुलझाने की कोशिश की, लेकिन अब तक इसका कोई फायदा नहीं हुआ । मजबूरन प्रशासन ने इलाके में शांति बनाए रखने के लिए धारा १४४ लागू कर दी है । मनुस्यारी के सब-डिवीजनल मजिस्ट्रेट आरसी गौतम ने बताया कि हिमालयन वियाग्रा को लेकर झगड़ा इतना बढ़ चुका है कि पिछले दिनों पिथौरागढ़ के डीएम को हस्तक्षेप कर ग्रामीणों से मिलना पड़ा था, लेकिन इस मुद्दे पर कोई समाधान नहीं निकला । 
हिमालय वियाग्रा को कोर्डिसेप्स साइनेसिस वैज्ञानिक नाम से जाना जाता है । इसे स्थानीय इलाकों में कीड़ा जड़ी, यारसागम्बू भी कहा जाता है । कीड़ा जड़ी हिमालय के तीन से पांच हजार मीटर की ऊंचाई वाले बर्फीलेपहाड़ों पर पाई जाती है । रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के अलावा इसका इस्तेमाल सांस और गुर्दे की बीमारी में भी किया जात ा है । कहा जाता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह १० लाख रूपए प्रति किलो के ि हसाब से बिकता है । 
प्रसंगवश
भारत डोगरा
यह दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होता जा रहा है इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं और विशेष परिस्थितियां,  मानव-निर्मित कारणों से गंभीर खतरे में पड़ गई हैं।
यह एक बहुपक्षीय संकट है पर इसमें दो पक्ष विशेष उल्लेखनीय हैं। पहला कि अनेक पर्यावरणीय समस्याएं सहनीय दायरे से बाहर जा रही हैं। इनमें सबसे प्रमुख जलवायु बदलाव की समस्या है पर इससे कम या अधिक जुड़ी हुई अन्य गंभीर समस्याएं भी हैं। इन समस्याओं के साथ टिपिंग पॉइंट की अवधारणा जुड़ी है: समस्याओं का एक ऐसा स्तर जहां पहुंचकर उनमें अचानक बहुत तेज वृद्धि होती है और  ये समस्याएं नियंत्रण से बाहर जा सकती हैं।
दूसरा पक्ष यह है कि धरती पर महाविनाशक हथियारों का बहुत बड़ा भंडार एकत्र हो गया है। इनके उपयोग से धरती पर जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। इस समय विश्व में लगभग १४,५०० परमाणु हथियार हैं जिनमें से ३७५० हमले की पूरी तैयारी के साथ तैनात हैं। यदि परमाणु हथियारों का बड़ा उपयोग एक बार भी हुआ तो इसका असर केवल हमलास्थल पर ही नहीं बल्कि दूर-दूर होगा। उन देशों में भी होगा जहां परमाणु हथियार हैं ही नहीं। हमले के स्थानों पर तुरंत दसियों लाख लोग बहुत दर्दनाक ढंग से मारे जाएंगे। इसके दीर्घकालीन असर दुनिया के बड़े क्षेत्र में होंगे जिससे जीवनदायिनी क्षमताएं बुरी तरह क्षतिग्रस्त होंगी।
परमाणु हथियारोंकी दिक्कत यह है कि विपक्षी देशों में एक-दूसरे की मंशा को गलत समझ कर परमाणु हथियार दागने की संभावना बढ़ती है। परमाणु हथियारों के उपयोग की संभावना को रोकने वाली संधियों के नवीनीकरण की संभावनाएं कम हो रही है। इस समय नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं। निकट भविष्य में परमाणु हथियार वाले देशों की संख्या बढ़ सकती है। संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस दोनों ने अपने हथियारों की विध्वंसक क्षमता बढ़ाने के लिए हाल में बड़े निवेश किए हैं, खासकर  संयुक्त  राज्य अमेरिका ने।
इसके अतिरिक्त बहुत खतरनाक रासायनिक व जैविक हथियारों के उपयोग की संभावना भी बनी हुई है। हालांकि इन दोनों हथियारों को प्रतिबंध करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समझौते हुए हैं, पर अनेक देश जरूरी जानकारी पारदर्शिता से नहीं देते हैं व इन हथियारों के चोरी-छिपे उत्पादन की अनेक संभावनाएं हैं।                   
सामयिक
जल संकट विस्फोटक हो सकता है ?
सुश्री सुनीता नारायण
नीति आयोग के समग्र सूचकाक- २०१८ के मुताबिक, ६० करोड़ लोग यानी लगभग आधी भारतीय आबादी गंभीर जल संकट का सामना कर रही है। इतना ही नहीं, साल २०२० तक दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद में भू-जल काफी नीचे चला जाएगा और २०३० तक भारत की ४० फीसदी आबादी पीने के लिए साफ पानी को तरसेगी ।
यह भयावह तस्वीर है और हमें डराती है, लेकिन यदि हम चाहें, तो इसे बदल भी सकते हैं। पानी दरअसल ऐसा संसाधन माना जाता है, जिसका फिर से भंडारण किया जा सकता है। इस काम में बर्फबारी और बारिश मदद करती है। इससे भी महत्वपूर्ण यह समझना है कि हम खेती-बाड़ी के कामों में पानी का बेतहाशा इस्तेमाल करते हैं, उसका कुशल उपभोग नहीं करते, इसीलिए इस पानी की  री-साइकिलिंग , यानी इसका दोबारा इस्तेमाल संभव नहीं हो पाता, यानी हमारा एजेंडा साफ है। 
हमें सबसे पहले पानी की हर बूंद का उचित इस्तेमाल करना सीखना होगा और इसे जीवन के सब क्षेत्रों में उतारना होगा। तभी हम देश में पानी की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं । वैसे भी, भारत जैसे जलवायु-जोखिम वाले देश में, जहां बारिश अधिक होती है और मौसमी बदलाव अपने चरम पर है, वहां इस एजेंडे को आगे बढ़ाना ही होगा। हम बारिश की बूंदों का अधिक-से-अधिक संग्रह करके अपने भूजल को संपन्न बना सकते हैं।
दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा है, कुशल इस्तेमाल के साथ-साथ पानी के भंडारण को बढ़ाना । हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि पानी की हर एक बूंद अधिकाधिक फसलों में या अन्य जरूरतों में इस्तेमाल की जाएगी । इसका मतलब है कि पानी के इस्तेमाल को कम करने के लिए हमें अपने तईं प्रयास करने होंगे। कृषि के लिहाज से इसका अर्थ है फसलों के पैटर्न में बदलाव लाना ताकि हम उन इलाकों में धान, गेहूं और गन्ने जैसी फसलें उगाना बंद करें, जहां पानी की किल्लत है। हमारे नीति-नियंताओं को ऐसी नीतियां तैयार करनी चाहिए, जो किसानों  को फसलों की विविधता अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें। आम लोगों में भी उन आहारों को बढ़ावा देना होगा, जो जल के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करके तैयार किए जाते हैं।
यदि खेती-किसानी के लिए जल का विवेकपूर्ण इस्तेमाल एक एजेंडा है, तो शहरों और उद्योगों के लिए जल का पुन: चक्रण यानी उसे फिर से इस्तेमाल के लायक बनाना अन्य एजेंडा होना चाहिए । यह कैसी विडंबना है कि हमारे पास कोई ऐसा अधिकृत आंकड़ा नहीं है कि हम यह जान सकें कि शहरी या औद्योगिक भारत में आज पानी का कितना इस्तेमाल हो रहा है ? पानी के उपभोग को लेकर अंतिम अनुमान १९९० के दशक के मध्य में लगाया गया था, जिसमें कहा गया था कि हमारी खेती लगभग ७५ से ८० प्रतिशत पानी का उपयोग करती है। जाहिर है, अब इस आंकड़े का कोई महत्व नहीं है। जैसे-जैसे शहरों का विकास हुआ है, शहरी जरूरतों के लिए पानी का उपभोग बढ़ा है और यह आगे भी होता रहेगा। अगर शहरों में पानी की किल्लत होगी तो उसकी भरपाई किसी दूसरी जगह से पानी को ढोकर पूरी की जाएगी। ऐसा हमने कई शहरों में देखा भी है। यही नहीं, जहां लोगों को जरूरत पर पानी नहीं मिल पाता, वे भूजल की अधिकाधिक इस्तेमाल की ओर उन्मुख हो जाते हैं, जिससे स्वाभाविक तौर पर भू-जल का स्तर गिरता जाता है।
इससे भी भयावह बात यह है कि शहरों से निकलने वाला पानी बिना साफ किए बहा दिया जाता है। अनुमान है कि लगभग ८० प्रतिशत पानी अपशिष्ट के रूप में शहरों से निकलता है। इससे प्राकृतिक जल भंडार में साफ पानी फिर से नहीं पहुंच पाता । यह आपराधिक कृत्य जैसा ही है, जबकि इसमें से न जाने कितना पानी साफ किया जा सकता है और कितना फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सकता है। हम ऐसा कर भी सकते हैं मगर हम करते नहीं हम उन्हें बहाना पसंद करते हैं। पानी के उपयोग और दुरुपयोग का अंतर हम भूल गए हैं। भारत के इस आधुनिक संकट को हमें एक और समस्या से जोड़ना चाहिए, जो उत्तरोत्तर बढ़ भी रही है और वह है- जलवायु परिवर्तन। इसी के कारण अब बारिश अधिक परिवर्तनशील और अनिश्चित हो गई है। यह अप्रत्याशित रूप से अधिक बरसने भी लगी है। मौसम का यह बदलाव जल संकट और बढ़ाएगा ही। मगर इसे भी हम थाम सकते हैं। ऐसा करने के लिए हमें वास्तव में साथ मिलकर कुछ काम करना होगा। 
पहला काम तो यह किया जाना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधन को बढ़ाने के लिए हमें वे तमाम प्रयास करने होंगे जो किए जा सकते हैं। पानी की हर बूंद बचाइए, उसे जमा कीजिए और भूजल को संपन्न बनाइए । ऐसा करने के लिए हमें वर्षा जल के संचयन की लाखों संरचनाएं बनानी होंगी। ये सभी संरचनाएं जल संचयन को सफल बनाने के लिए हो, न कि यह किसी की कमाई व रोजगार का जरिया बने। इस तरह के निकायों के पूरे प्रबंधन का जिम्मा भी हमें स्थानीय लोगों को ही देना चाहिए । 
आज दरअसल होता यह है कि जिस जगह पर जल निकाय होता है, वह जमीन किसी और विभाग के जिम्मे होती है और जहां वर्षा का जल संचित किया जाता है, वह जगह किसी अन्य विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है। दोनों विभागों में कोई तालमेल भी नहीं होता। अगर स्थिति यही बनी रही, तो पानी का संचयन हम नहीं कर पाएंगे । 
दूसरा काम ड्राउट कोड को बदलते वक्त के साथ दुरूस्त करना और उसकी फिर से समीक्षा करना है। ऐसा नहीं है कि दुनिया के अमीर हिस्सों में सूखा नहीं पड़ता । ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देश भी पानी की कमी के दौर से गुजर चुके हैं। लेकिन वहां की सरकारों ने पानी के तमाम गैर-जरूरी इस्तेमाल को रोककर इस समस्या से पार पाई है। इन गैर-जरूरी इस्तेमाल में कारों को धोना भी शामिल है। भारत में भी कुछ ऐसा किया जाना जरूरी है। 
तीसरा काम जाहिर तौर पर सभी वक्त (अच्छेे और बुरे) के लिए पानी को सुरक्षित रखने का प्रयास करना हैै। इसका मतलब यह है कि भारत में रोजाना के पानी के इस्तेमाल को लेकर नियम तय किया जाएं। हमें कृषि से लेकर उद्योग-धंधे तक, हर क्षेत्र में पानी के उपयोग को कम करना होगा, यानी पानी के इस्तेमाल और साल-दर-साल उसके उपयोग को कम करने को लेकर एक लक्ष्य तय करना होगा। हमें पानी  के कुशल इस्तेमाल वाले व्यवसायों को बढ़ावा देना होगा, साथ ही ऐसे आहार को प्रोत्साहन देना होगा, जिसकी पैदावार में पानी की कम खपत होती हो
हमारा भूमण्डल
जन्तुआें पर प्रयोग करके हम क्या सीखते है ?
डॉ. सुशील जोशी
किसी ने एक सवाल पूछा था कि चूहों पर इतने प्रयोग क्यों किये जाते हैं। परंतु उस सवाल में उलझने से पहले यह देखना दिलचस्प होगा कि जंतुओं पर प्रयोग किए ही क्यों जाते हैं। 
वैसे इस संदर्भ में आम लोगोंके  मन में यह धारणा है कि जंतुओं पर प्रयोग इंसानों की बीमारियों के इलाज खोजने के लिए किए जाते हैं। यह धारणा कुछ हद तक सही है किन्तु पूरी तरह सही नहीं है। तो चलिए देखते हैं कि मनुष्यों ने जंतुओं पर प्रयोग करना कब शुरू किया था, किस मकसद से ये प्रयोग किए जाते हैं और किन जन्तुआें पर किए जाते हैं। 
कुछ  आंकड़े  -
सबसे पहले यह देखते हैं कि आजकल प्रयोगों में कितने जंतुओं का उपयोग होता है। कई कारणों से इस सम्बंध में कोई पक्का या विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। एक कारण तो यह है कि जंतुओं पर प्रयोग करने को लेकर अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून और व्यवस्थाएं हैं । कुछ देशों में सारे जंतु प्रयोगों की रिपोर्ट देनी होती है तो कुछ देशों में कोई रिपोर्ट देना जरूरी नहीं है। कुछ देशों में जंतु कल्याण कानून लागू है और इन देशों में सिर्फ जंतुओं के बारे में रिपोर्ट देनी पड़ती है जो इस कानूनी में शामिल हैं। 
फिर प्रयोग में जन्तु का उपयोग की परिभाषाएं भी अलग-अलग हैं - जैसे किसी देश में प्रयोग के लिए जंतुओं को प्रयोगशाला में रखना भी प्रयोग माना जाता है, तो किसी देश में प्रयोग होने का सम्बंध जंतु की चीरफाड़ से माना जाता है।
बहरहाल, ब्यूटी विदाउट कु्रएल्टी नामक संस्था के मुताबिक हर साल दुनिया भर में ११.५ करोड़ जन्तु प्रयोगशालाओं में मारे जाते हैं। अमरीकी कृषि विभाग के एनिमल एंड प्लांट हेल्थ इंस्पेक्शन सर्विस (जंतु एवं वनस्पति स्वास्थ्य निरीक्षण सेवा)की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष २०१६ में अमरीका में सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं में लगभग ८,२०,००० जंतुओं पर प्रयोग किए गए थे। किंतु इनमें सिर्फ वही जंतु शामिल हैं जो अमरीका के एनिमल वेलफेयर कानून में शामिल हैं। माइस, चूहे, मछलियां वगैरह इस कानून में कवर नहीं होते। इसके अलावा इस आंकड़े में उन १,३७,००० से अधिक जंतुओं को भी शामिल नहीं किया गया है जिन्हें प्रयोगशालाओं में रखा गया था किन्तु वे किसी प्रयोग का हिस्सा नहीं थे। 
एक अनुमान के मुताबिक, यदि अन्य जंतुओं को भी जोड़ा जाए, तो अकेले अमरीका में प्रयोगों में इस्तेमाल किए गए जंतुओं की संख्या १.२-२.७ करोड़ तक हो सकती है। एक शोध पत्र के मुताबिक दुनिया भर में प्रयोगों में प्रति वर्ष करीब ११ करोड़ जंतुओं का इस्तेमाल किया जाता है। भारत के  बारे में अलग से कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
मकसद -
यह तो सही है कि आजकल जंतु प्रयोग दवाइयों के विकास या सौंदर्य प्रसाधनों की जांच के लिए किए जाते हैं। किन्तु ऐसा भी नहीं है कि सारे जंतु प्रयोग मात्र इन्हीं लक्ष्यों की प्रािप्त् के लिए किए जाते हैं। कई जंतु प्रयोग मूलभूत जीव वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए भी किए जाते हैं।
ऐतिहासिक रूप से जंतु प्रयोगों का मूल मकसद जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समझ बढ़ाने का रहा है। प्रयोगों में जंतुओं का उपयोग मूलत: इस समझ पर टिका है कि सारे जीव-जंतु विकास के माध्यम से परस्पर सम्बंधित हैं। विकास की दृष्टि से देखें तो कुछ जंतु परस्पर ज्यादा निकट हैं जबकि कुछ अपेक्षाकृत अधिक भिन्न हैं। जैसे यदि हम आनुवंशिकी का अध्ययन करना चाहते हैं तो कोई भी जीव इसमें सहायक हो सकता है क्योंकि विकास की लंबी अवधि में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों के हस्तांतरण की विधि एक-सी रही है। किसी प्रक्रिया या परिघटना के अध्ययन के लिए जिस जीव को चुना जाता है उसे मॉडल कहते हैं। कभी-कभी कोई जीव किसी रोग विशेष या परिघटना विशेष का मॉडल भी होता है। 
मॉडल जीवों का चयन उनके साथ काम करने तथा उनमें फेरबदल करने की सरलता पर निर्भर है। आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सर्वप्रथम मॉडल जीव एक किस्म के वायरस थे जिन्हें बैक्टीरिया-भक्षी वायरस (बैक्टीरियोफेज) कहते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया को संक्रमति करते हैं। ये काफी रफ्तार से संख्या  वृद्धि करते हैं। इसलिए इनके साथ काम करना सुविधाजनक है। बैक्टीरिया भक्षी वायरस भी प्रजनन करते हैं और मनुष्य भी। यह सही है कि प्रजनन की प्रक्रिया की बारीकियों में अंतर होते हैं किन्तु  जीवन के सबसे निचले से लेकर सबसे ऊपरी स्तर तक सिद्धांत वही रहता है। बैक्टीरिया-भक्षियों ने हमें यह खोज करने में मदद दी कि आनुवंशिक पदार्थ प्रोटीन नहीं बल्कि डीएनए है।
अलबत्ता, वायरस स्वतंत्र जीव नहीं होते और उन्हें अपना कामकाज चलाने के लिए किसी अधिक विकसित जीव के सहारे की जरूरत होती है। इसलिए मशहूर एशरीशिया कोली नामक बैक्टीरिया जीवन का बेहतर मॉडल बन गया। इस बैक्टीरिया ने न सिर्फ प्रजनन के मूल रूप को समझने में मदद की बल्कि यह समझने में भी मदद की कि आम तौर पर शरीर की बुनियादी क्रियाएं यानी चयापचय कैसे चलती हैं और कोशिका नामक सजीव कारखाना कैसे जीवनदायी रसायनों के उपभोग व उत्पादन का नियमन करता है।
लेकिन ई. कोली व अन्य बैक्टीरिया मनुष्य से बहुत भिन्न होते हैं। इनकी कोशिकाओं में केन्द्रक तथा अन्य कोशिकांग नहीं होते। इसलिए खमीर कोशिकाओं जैसी ज्यादा पेचीदा केन्द्रक -युक्त कोशिकाएं मनुष्य की कोशिकीय प्रक्रियाओं को समझने का बेहतर मॉडल बनकर उभरीं। अलबत्ता, खमीर यानी यीस्ट एक-कोशिकीय जीव होते हैं जबकि मनुष्य बहु-कोशिकीय हैं। किसी बहु-कोशिकीय जीव का जीवन कहीं अधिक पेचीदा होता है। बहु-कोशिकीय जीवों में अलग-अलग कोशिकाएं अलग-अलग काम करने लगती हैं, उनके बीच परस्पर संवाद और सहयोग की जरूरत होती है। लिहाजा, बहु-कोशिकीय मगर काम करने में आसान फ्रूट फ्लाई  (फल-मक्खी) और अन्य कृमि मनुष्य के जीव विज्ञान के अध्ययन के बेहतर मॉडल बन गए।
यहां यह कहना जरूरी है कि कई वैज्ञानिकों ने मनुष्य की शरीर क्रियाओं के अध्ययन के लिए स्वयं पर भी प्रयोग किए हैं। ऐसे वैज्ञानिकों में ब्रिटिश वैज्ञानिक (जिन्होंने आगे चलकर भारत की नागरिकता ले ली थी) जे.बी.एस. हाल्डेन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। हाल्डेन ने कई खतरनाक प्रयोग स्वयं पर किए थे।
इसके बाद आती है बीमारियों को समझने और उनका उपचार करने की जरूरत। इसके  लिए ऐसे जीवोंका चयन करना होता है जिनमें वह बीमारी या तो कुदरती रूप से होती हो या कृत्रिम रूप से पैदा की जा सके । इसके लिए हमें चूहों, खरगोशों और बंदरों का उपयोग करना होता है। कई बार हमें इनके जेनेटिक रूप से परिवर्तित रूपों का भी उपयोग करना पड़ता है। इन अध्ययनों के चलते न सिर्फ कई महत्वपूर्ण खोजें हुइंर् बल्कि इन्होंने जंतु अधिकार सम्बंधी कई विवादों को भी जन्म दिया।
बड़े जंतुओं पर प्रयोग
बड़े जंतुओं पर प्रयोग कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। छोटे जंतुओं (जैसे वायरस, बैक्टीरिया, फल-मक्खी, कृमि वगैरह) पर प्रयोग बुनियादी जीवन क्रियाओं के संदर्भ में उपयोगी होते हैं क्योंकि बुनियादी स्तर पर ये क्रियाएं लगभग एक समान होती हैं । किन्तु यदि विशेष रूप से किसी बीमारी या ऐसे गुणधर्म का अध्ययन करना हो जो मनुष्यों के लिहाज से महत्वपूर्ण है तो ऐसे जन्तु का चयन करना होता है जिसे वह बीमारी होती हो या उस गुणधर्म विशेष के मामले में कुछ समानता हो। जैसे यदि आप दर्द की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं तो जन्तु ऐसा होना चाहिए जिसे दर्द होता हो। इस दृष्टि से बड़े जंतुओं पर प्रयोग महत्वपूर्ण हो जाते हैं । 
उदाहरण के लिए एंतोन लेवॉजिए ने गिनी पिग (एक किस्म का चूहा) पर प्रयोगों की मदद से ही यह स्पष्ट किया था कि श्वसन एक किस्म का नियंत्रित दहन ही है। इसी प्रकार से भेड़ों में एंथ्रेक्स का संक्रमण करके लुई पाश्चर ने रोगों का कीटाणु सिद्धांत विकसित किया था जो आधुनिक चिकित्सा की एक अहम बुनियाद है। जंतुओं पर प्रयोगों से ही पाचन क्रिया की समझ विकसित हुई थी और यह स्पष्ट हुआ था कि पाचन एक भौतिक नहीं बल्कि रासायनिक प्रक्रिया है।
जन्तुआें पर प्रयोगों ने हमें मनुष्य की शरीर क्रियाओंको समझने में बहुत मदद की है। इसके अलावा संक्रामक रोगों को समझने व उनका उपचार करने की दिशा में भी जंतु प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैसे १९४० में जो नास साल्क ने रीसस बंदरों पर प्रयोग किए थे और पोलियो के सबसे संक्रामक वायरस को अलग किया था जिसके आधार पर पहला पोलियो का टीका बनाया गया था। इसके बाद अल्बर्ट सेबिन ने विभिन्न जंतुओं पर प्रयोग करके इस टीके में सुधार किया और इसने दुनिया से पोलियो का सफाया करने में मदद की। इसी प्रकार से थॉमस हंट मॉर्गन ने फल-मक्खी ड्रोसोेफिला पर प्रयोगों के माध्यम से यह स्पष्ट किया था कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों का हस्तांतरण करने वाले जीन्स गुणसूत्रों के माध्यम से फैलते हैं। आज भी फल-मक्खी भणीय विकास और आनुवंशिकी को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण मॉडल जन्तु है ।  
माउस एक प्रकार का चूहा होता है और इस पर ढेरों प्रयोग किए जाते हैं। दरअसल विलियम कासल और एबी लेथ्रॉप ने माउस की एक विशेष किस्म विकसित की थी । तब से ही माउस कई जीव वैज्ञानिक खोजों के लिए मॉडल जन्तु रहा है। 
गिनी पिग एक और चूहा है जिसने वैज्ञानिक खोजों में योगदान दिया है। जैसे, उन्नीसवीं सदी के अंत में डिप्थेरिया विष को पृथक करके  गिनी पिग में उसके असर को देखा गया था। इसी आधार पर प्रतिविष बनाया गया था। यह टीकाकरण की आधुनिक विधि के विकास का पहला कदम था।
कुत्तों पर किए गए शोध से पता चला था कि अग्न्याशय के स्त्राव का उपयोग करके कुत्तोंमें मधुमेह पर नियंत्रण किया जा सकता है। इसके आधार पर १९२२ में इंसुलिन की खोज हुई और इसका उपयोग मनुष्यों में मधुमेह के उपचार में शुरू  हुआ । गिनी पिग्स पर अनुसंधान से पता चला था कि लीथियम के लवण मिर्गी जैसे दौरे में असरकारक हैं। इसके परिणामस्वरूप बाईपोलर गड़बड़ी के इलाज में बिजली के झटकों का उपयोग बंद हुआ। निश्चेतकों का आविष्कार भी जंतुओं पर किए गए प्रयोगों से ही संभव हुआ है और अंग प्रत्यारोपण की तकनीकों का विकास भी हुआ है।
जन्तु का चयन  
यह तो सही है कि विकास के जरिए सभी जंतु परस्पर सम्बंधित हैं और कई गुणधर्म साझा करते हैं। मगर कुछ जन्तु मनुष्य के ज्यादा करीब हैं। मनुष्य की शरीर क्रिया या रोगों को समझने के लिए ऐसे ही जन्तुआेंके साथ प्रयोग करने की जरूरत होती है। अध्ययनों से पता चला है कि हमारे सबसे करीबी जीव चिम्पैंजी हैं। मनुष्य और चिम्पैजी के  जीनोम में ९८.४ प्रतिशत समानता है। शरीर क्रिया की दृष्टि से देखें तो चूहे जैसे कृंतक (कुतरने वाले जीव) भी हमसे बहुत अलग नहीं हैं। चिम्पैजी पर प्रयोग करना काफी मुश्किल काम है। एक तो इनकी आबादी बहुत कम है, और ऊपर से इनका प्रजनन भी काफी धीमी गति से होता है और इन्हें पालना आसान नहीं है। और सबसे बड़ी बात है कि अधिकांश देशों में चिम्पैंजी तथा अन्य वानर प्रजातियों को सख्त कानूनी संरक्षण प्राप्त् है । इसलिए चूहे, माउस, गिनी पिग वगैरह सबसे सुलभ मॉडल जीव बन गए हैं। 
विकल्प - 
कई शोधकर्ताओं ने जंतु प्रयोगों की समीक्षाओं में बताया है कि पिछले कई वर्षों में नई-नई औषधियां खोजने के मकसद से किए गए जंतु प्रयोग निष्फल रहे हैं। जंतुओं पर प्रयोगों से प्राप्त् जानकारी प्राय: मनुष्योंके संदर्भ में लागू नहीं हो पाती है। विकल्प के तौर पर कई सुझाव आए हैं और कई प्रयोग-शालाओं में जंतु प्रयोगों को कम से कम करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। 
जैसे आजकल कम्प्यूटरों की मदद से कई रसायनों के प्रभावों के बारे में काफी कुछ जाना जा सकता है। कोशिकाओं और प्रयोगशाला में निर्मित  ऊतकोंपर अध्ययन ने भी नए-नए मॉडल उपलब्ध कराएं। और इनके अलावा आजकल प्रयोग-शालाओं में विकसित कृत्रिम अंगों का उपयोग भी किया जा रहा है। 
विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष 
आधुनिक जीवन और पर्यावरण
रूपनारायण काबरा

चुनौतियों को स्वीकारना और जूझना मानव की साहसिकता में प्रांरभ से ही रहा है । प्रकृति की चुनौतियों से जूझना एक बात है किन्तु इस दिशा में अविवेक पूर्ण ढंग से कार्य करना दूसरी बाता है, यह तो एक प्रकार की दुश्मनी ठान लेना है । 
अतीत में जब मनुष्य के पास ज्ञान तो था पर विज्ञान नहीं, वह प्रकृति से जूझता था । अपनी आकांक्षाआें एवं महत्वकांक्षाआें की पूर्ति के लिये पर उसने दुश्मनी नहीं ठानी थी । आज विज्ञान की शक्ति से उन्मत वह विवेकहीन हो गया है और अत्यन्त तीव्र आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के दोहन की ही सोचता है, पोषण को नहीं । इस प्रकार हम उसी डाल को काटे जा रहे हैं जिस पर हम बैठे है । आज हमने तथाकथित विकास की महत्वाकांक्षा में हमारी धरती, वायु, वनस्पति, जीव जन्तु एवं जल इत्यादि पूरे पर्यावरण को प्रदूषित कर डाला है । 
मानव एवं पर्यावरण का अनन्य संबंध है । वे एक दूसरे के पूरक एवं परिपूरक है । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संदिग्ध है । कोई भी जीवधारी अकेला नहींरह सकता । सभी जीवधारी चाहे वह मनुष्य हो, जीव-जन्तु हो अथवा वनस्पति सभी एक पर्यावरण में रहते हैं । मनुष्य भी पर्यावरण का एक भाग है । बायो-स्फीयर परत में जहां जीवन का अस्तित्व है, मानव एक अद्वितीय स्थान रखता है । जीव और वनस्पति की अनिगत जातियों के अतिरिक्त मनुष्य के चारों ओर प्राकृतिक संसाधन भी प्रचुर मात्रा में है । 
मनुष्य के पास सोचने, योजना बनाने तथा आसपास की प्रकृति यानी पर्यावरण को अपने लाभ के लिये परिवर्तित करने की अद्भभुत क्षमता है लेकिन दुर्भाग्यवश वह अपने पर्यावरण के लिये एक संकुचित एवं स्वार्थीदृष्टिकोण रखने वाला एक कुप्रबंधक सिद्ध हुआ है । प्राकृतिक संतुलन को नकारते हुए मानव ने अपने चारों ओर के वातावरण से मिलने वाले तुरन्त, अस्थायी व छोटे लाभों को प्राथमिकता दी है । इस प्रकार जहां-जहां भी मानव रहा है उसने पर्यावरणीय समस्याआें को जन्म दिया है । 
अनवरत जनसंख्या वृद्धि एवं तदुपरान्त तीव्र औघोगिक विकास के कारण इस सदी से ही पर्यावरण प्रदूषण की समस्या सबसे विकट हो गई है । मनुष्य रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति एवं संतुष्टि केलिये तीव्र औघोगिकरण व अनियोजित शहरी-करण में व्यस्त हो रहा है । उसकी इन गतिविधियों ने भौतिक पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधन जहां से भी ऊर्जा प्राप्त् हो सकती थी, सबके लिये इसी प्रवृत्ति ने संकट पैदा कर दिया है । 
भारत में पर्यावरण के प्रति चेतना की पुरातन भारतीय परम्परा बहुत महत्व की थी । छोटे जीवों पर दया का भाव, वृक्षों की रक्षा और पूजा की भावना, यज्ञ आदि से वायु का शुद्धिकरण और जल में मलविसर्जन का वर्जन इत्यादि ऐसे सिद्धाथ थे, जो पर्यावरण के संतुलन में स्वत: ही सहयोगी थे लेकिन औघोगीकरण और शहरीकरण की अंधाधुंध दौड़ में भारतवासी भी पीछे नहीं रहे । अपनी प्राचीन भावनाआें को ताक पर रखकर औघोगिक विकास के नाम पर अनगिनत जंगल काट डाले और अरबों टन लकड़ी औघोगिक ज्वाला के होम में समर्पित कर दी है । 
यह सही है कि हम आज औघोगीकरण से बच नहीं सकते । उद्योग लगते है तो बस्तियां बसती हैं, धरती की छाती को चीर कर सड़कें बनती हैं, रेल की पटरियां बिछती हैं । कारखानों की चिमनियां धुआं फेंकती हैं, उनसे बहकर आने वाले फालतू विषैले रासायनिक पदार्थ नदी-नहरों में जाकर मिल जाते हैं, खानें खुदती है तो जमीन ऊपर से तोड़ी जाती है, अन्दर से खोखली की जाती है, बढ़ता हुआ यातायात विषैला धुंआ एवं जहरीली गैसों से वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं, परिणामस्वरूप पर्यावरण प्रदूषित होता है, पानी प्रदूषित होता है, पहाड़ टूटते है, धंसते है, धसकते है, पेड कटते है, रेगिस्तान का विस्तार होता है, नदियों का कटाव बढ़ता है । दुनिया में हर मिनट अस्सी हेक्टेयर क्षेत्र में वृक्षों पर कुल्हाडी चल रही है, परिणाम सामने है - भयंकर बाढ़े, सूखा, रोग और प्रदूषण और अंतत: मनुष्य का विनाश । 
पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलन की दिशा में पेड़ ही हमारे सबसे अच्छे मित्र है । पेडों पर बैठने वाले पक्षी हमारी फसलों को कीटों से बचाते है । पेड़ धरती की उर्वरक शक्ति को बनाये रखते हैं । मृदा को थामे रखते हैं, बहकर चले नहीं जाने देते, मौसम पर नियंत्रण रखते है और मनुष्यों को कई रोगों से बचाते हैं । ये पेड़ अनावश्यक हवाआें को शोषित कर लेते हैं, वायु प्रदूषण को दूर कर शुद्ध वायु देते है । पर पेड़ों को कितनी बेरहमी से काटा जा रहा है । 
पिछले चालीस वर्षो में भारत में कोई ६० लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र समाप्त् हो गया है, परिणाम सामने हैं, भंयकर बाढ़, सूखा और प्रदूषण । पहले भयंकर बाढ़ दस साल या पच्चीस साल में आती है और अब हर पाचवें, तीसरें, दूसरे और कभी तो हर वर्ष ही आने लगी है । और सूखे के क्षेत्र में तो सूखा हर वर्ष ही पड़ने लग गया है, मौसम बदल रहे हैं । 
पर्यावरण प्रदूषण कोई आसमान से टपकी हुई समस्या नहीं है । यह हमने स्वयं पैदा की है । अपनी सुख सुविधा के साधन जुटाने के चक्कर में हम उसी डाल को काटे जा रहे हैं जिस पर हम बैठे हैं । अत्यधिक यंत्रीकरण ने हमे तो पंगु और रोगी बनाया ही है हमारे पर्यावरण को भी प्रदूषित कर दिया है । आज हवा, पानी, आसमान, भोजन, औषधियां सभी प्रदूषित हैं । पतितपावनी गंगा का पानी तक हमने मैला कर दिया है । 
भोपाल त्रासदी और चेरनोबिल परमाणु संयंत्र विस्फोट हमें चेतावनी दे चुके हैंपर हम सुनते ही नहीं । यदि हमने वृक्षों की काटना बन्द करके सघन वृक्षावलि विकसित नहीं की, यदि परमाणु बम परीक्षणों को, कारखानों की गैसों को, शहरों की भीड़ को, बढ़ती जनसंख्या को, वाहनों के धुंए को, रासायनिक  खादों, छिड़काआें तथा अत्यधिक यंत्रीकरण को नियंत्रित नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब कयामत स्वयं हमारी बुलाई हुई आयेगी और तब गंगा-यमुना, ताजमहल, अजन्ता, काशी एवं पुरी का यह सुन्दर देश एक कब्रिस्तान बनकर रह जायेगा । 
रेगिस्तान बने नहीं बनाये गये है । सूखा एवं अनावृष्टि एवं बाढ़ स्वयं मानव द्वारा किये गये वृक्ष-विनाश का ही तो परिणाम है और हम अपने इन पापों का प्रायश्चित पेड़ लगाकर ही कर सकते है और यही होगी मानव की प्रकृति के प्रति श्रद्धा, उसके प्रति प्रेम और उसकी पूजा और निश्चय ही प्रकृति देगी अपना आशीर्वाद एवं वरदान । हमारी धरती लहलहा उठेगी, पक्षियों के संगीत से गूंज उठेगी । 
मौसम सुहाने होंगे, न होगी बाढ़ और न होगी अनावृष्टि, हमारी फसल भरपूर होगी । हमारे प्रायोगिक संस्थान विकसित होगे, ऊर्जा की समस्या स्वत: ही हल हो जायेगी । हम और हमारे पशु पक्षी सुखी एवं स्वस्थ होगे । और तब पग-पग पर पसरा प्रकृति का सौन्दर्य भौतिकवाद से ग्रस्त मानव को एक अनुपम शान्ति देगा ।
प्राणी जगत
मधुमक्खी की प्रजनन क्षमता और कीटनाशक
सुश्री दीक्षा शर्मा / शुभम कुमार

मधुमक्खी एक कीट वर्ग का प्राणी है जिससे मधु प्राप्त होता है ये अत्यन्त पौष्टिक भोजन है। यह संघ बनाकर रहती हैं, प्रत्येक संघ में एक रानी, कई सौ नर और शेष श्रमिक होते हैं। 
मधुमक्खियाँ मोम के छत्ते बनाकर रहती है । एक मौनवंश (मधुमक्खियों का एक पूरा समूह) में हजारों मधुमक्खियां होती हैं इनमें केवल एक ही रानी (क्वीन) होती है जो की पूर्ण विकसित मादा होती है और पुरे मौनवंश में अंडे देने का काम करती है। यह आकार में अन्य मधुमक्खियों से बडी और चमकीली होती है जिससे इसे झुंड में आसानी से पहचाना जा सकता है। मौसम और प्रजनन काल के अनुसार नर मधुमक्खी (डरोन) की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। 
प्रजनन काल में एक मौनवंष में ये ढाई-तीन सौ तक हो जाते हैंजबकि विपरीत परिस्थितियोंे में इनकी संख्या शून्य तक हो जाती है। इनका काम केवल रानी मधुमक्खी का गर्भाधान करना है। गर्भाधान  के लिए यद्यपि कई नर प्रयास करते हैं जिनमें से केवल एक ही सफल हो पाता है। यह मधुमक्खी पूरी प्रकृति का संतुलन बनाकर रखती है, लेकिन आज  के समय में पूरी दुनिया के कृषि क्षेत्र में जैसे, कीटनाशकों का उपयोग धडल्ले से बढ़ता जा रहा है इससे इनके लिए समस्याएं उत्पन हो गए है । 
कीटनाशकों के उपयोग में ब्राजील सबसे पहले क्रम पर है, जहां २०१४ में १.८८ किलोग्राम/ हेक्टेयर कीटनाशक की खपत हुई    है ।  इसी के साथ भारत कीटनाशकों के उपयोग में पूरी दुनिया में नौवें स्थान पर है, यहां २०१४ में ०.२९ किलोग्राम/ हेक्टेयर कीटनाशक का उपयोग हुआ है । भारत में कीटनाशकों का उपयोग २०१० से लगातार बढ़ता ही जा रहा है, पंजाब राज्य में इसका उपयोग सबसे ज्यादा ०.७४ किलोग्राम/हेक्टेयर है। भारत कीटनाशकों के उत्पादन में भी महत्वपूर्ण भूमिका रखता है, अभी २०१६-१७ में भारत ने ३७७.७६ हजार टन कीटनाशकों का निर्यात किया। इनमे मुख्यत: कीटनाशक मेंकोजेब, सीपेरमेथ्रिन, सल्फर और क्लोरपैरिफोस थे । इन कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग की वजह से मधुमक्खियों के लिए बहुत समस्याए उत्पन हो गयी है, जिसमे उनका सही से संघ ना बना पाना, विकास ना होना, उडने की क्षमता में कमी होना और इन सबके साथ-साथ सबसेमहत्वपूर्ण इनकी प्रजनन क्षमता में कमी होना है।
मधुमक्खी एक परागकारी जीव है, जो दुनिया की अन्य परागकारी जीवो की तुलना में अकेले ही दसवां भाग है इसके साथ- साथ ये दुनिया की तीन चौथाई फसलों की परागण अकेले ही करती है। इसके परागण की उपयोगिता को देखने के लिए अनेको अध्ययन हुए है, जिसमें पाया गया कि मधुमक्खी परागीकृत फूलो में ज्यादा बीज और फल की उत्पत्ति होती है और इसी के साथ ही कई पौधो की जाति तो ऐसी है जो सिर्फ मधुमक्खी परागीकरण पर ही निर्भर है। इससे ये साबित होता है कि मधुमक्खी ना सिर्फ कृषि उत्पादन में बल्कि जैव विविधता को बनाये रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । 
            कीटनाशकों से मधमक्िखयों का संपर्क कीटनाशकों के उपयोग पर निर्भर करता है, जो की मुख्यत तीन प्रकार से होता है:-
१- प्रत्यक्ष स्प्रे द्वारा छिड़काव - ये सबसे ज्यादा उपयोग होने वाला तरीका है यह बाग- बगीचों में प्रयोग किया जाता है और ये मधुमक्खियों के  लिए सबसे ज्यादा हानिकारक होता है ये अलग-अलग तरीको से मधुमक्िखयों तक पहुँचता है ।
२- सीधा मिट्टी में कीटनाशक का उपयोग - जब कीटनाशकों का सीधे मिट्टी में उपयोग होता है तो ये लम्बे समय तक के लिए मिट्टी में एकत्रित हो जाते है और उस से पौधो में पहुंच जाते है जब मधुमक्खी भोजन की तलाश में घूमती है तो इन कीटनाशक युक्त पौधो के संपर्क में आती है और अक्सर कीटनाशक युक्त पराग को खा लेती है । कुछ मधुमक्खियोंकी ऐसी भी पर-जातिया है जो कि मिट्टी में ही घर बनाकर  रहती है वो मुख्य रूप से प्रभावित होती है। ये एक साल के ४९ सप्ताह तक मिट्टी के बिल में ही रहती है और सिर्फ ४ सप्ताह के लिए बाहर भोजन और नर कि तलाश में आती है। इस तरह से एक काफी लम्बे समय के लिए ये मिट्टी में एकत्रित कीटनाशक के संपर्क में रहती है ।  
३- कीटनाशक से उपचारित बीजों का उपयेाग  - आज कल अच्छी खेती लिए कुछ किसान कीटनाशक से उपचारित बीजों का उपयोग भी करते है इससे पैदावार तो बढ़  जाती है पर कई बार ये कीटनाशक बीज  से  खत्म नही होते है और मिट्टी में संचित हो जाते है जो की सिर्फ मधुमक्खियों के लिए ही नहीं बल्कि मिट्टी के सभी जीवों के लिए  नुकसानदायक होते है । 
नीओनीकोटीनॉइड कीट-नाशक जो कि तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है और यह पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला कीटनाशक है । इसका उपयोग फसलों, फलों और फलों पर किया जाता है जो कि रस तथा पराग में इक्ट्ठा होकर मधुमक्खी से उनके छत्ते तक पहुंचता है यह नर और मादा दोनों को ही प्रभावित करके उनके विकास को रोकता है, नर की उम्र को कम करने के साथ-साथ जीवित शुक्राणुआें की संख्या कम करता है । 
यह कीटनाशक यूरोप में आंशिक रूप से बंद है लेकिन भारत में इसका उपयोग पूर्ण रूप से किया जाता है । जोकि सबसे ज्यादा हानि  रानी मधुमक्खी को पहुंचता है। जैसा कि हम जानते है कि रानी मधुमक्खी पूरे संघ (कालोनी) को चलाती है और उसके मरने की वजह से पूरा संघ खतरे में आ जाता है । विभिन्न अध्ययनों में पाया गया कि यह कीटनाशक रानी मधुमक्खी की उम्र को कम करता है जो की उनके पूर्ण विकास, यौन परिपक्वता और शारीरिक परिवर्तन पर निर्भर करती है । यह परिवर्तन सफल संभोग (मेटिंग) के बाद शुरू होते है जिससे यह साबित होता है कि यह कीटनाशक संभोग (मेटिग) की प्रक्रिया को प्रभावित करता है । 
ये रानी के अंडाशय अतिजननता (ओवरी ह्मपरप्लासिए) के लिए भी उत्तरदायी है जिसकी वजह से मादा रानी के अंदर संग्रहीत शुक्राणु की संख्या और गुणवत्ता दोनों को कम करता है । शुक्राणु का उचित संग्रह रानी मादा के जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है जैसे ही ये संग्रहित शुक्राणु की संख्या और गुणवत्ता कम होती है पहली रानी मधुमक्खी को हटाकर दूसरी मादा मधुमक्खी को रानी बना दिया जाता है । पिछले कुछ समय से संघ की मृत्यु के लिए, रानी मधुमक्खी की खराब सेहत एक सबसे कारण पाया गया है । एक अध्ययन मेंयह पाया गया है कि एक अन्य कीटनाशक फिब्रोनिल नर में वीर्य की मात्रा कम करता है और साथ ही साथ इसमें शुक्राणु की संख्या को भी ८.४ु १०६ से घटाकर ६.६ ु १०६रह गया । एक अन्य अध्ययन में जब क्लोथियनिदिन कीटनाशक का उपयोग नर मधुमक्खी में किया गया तो शुक्राणु पर पहले जैसा ही असर देखने को मिला । 
कीटनाशक बचाव के उपाय - 
१. कीटनाशक पर दी गई चेतावनी पढ़कर ही उसका उपयोग करें । 
२.फूलों के खिलते समय कम से कम कीटनाशक का छिडकाव कम से कम करे ।  
३. शाम के समय कीटनाशक का छिडकाव करे, ताकि सुबह तब तक मधुमक्खियों कि भोजन की तलाश होने तक कीटनाशको का हानि-कारक असर कुछ कम हो सके । ४. जितना हो सके मधुमक्खियों को कीटनाशक के सीधे संपर्क से बचाये । 
मधुमक्िखयां  सिर्फ  शहद और मोम ही नहीं बनाती है बल्कि गाजर से लेकर बादाम और सरसो तक के परागण के लिए जरुरी है। बहुत सी फसल और फल सिर्फ इनके परागण पर ही निर्भर है। ये कृषि उत्पादन से लेकर जैव विविधता बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है इसलिए इन्हे अगर पशुधन कहा जाये तो कोई अतिसंयोक्ति नहीं होगी । 
हालांकि इनके लिएए कोई सीमाएं नहीं हैं, यह चलता फिरता पशुधन  है जो की दुनिया के पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । अत: इनका स्वस्थ होना, और सही संख्या में होना बहुत जरूरी है इसके लिये सभी किसानों को इनकी मुख्यता को समझना और सही तरीके से कीटनाशक का उपयोग करना अति आवश्यक है ।
स्वास्थ्य
शांत और सचेत रहने के लिए गहरी सांस 
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
  वाद-विवाद प्रतियोगिता में जीतने के लिए प्रतियोगी को प्रतिद्वंद्वी की बात का जवाब सटीकता से और प्रभावशाली शब्दों में देना होता है और वह भी थोड़े-से समय में। ऐसी ही एक अन्य प्रतियोगिता होती थी: तात्कालिक भाषण। इस प्रतियोगिता में रेफरी आपसे उसकी पसंद के किसी विषय पर बोलने को कहेगा । और एक मिनट में सबसे सार्थक वक्तव्य देने वाला विजेता होता है। 
प्रतियोगिताओं में प्रतियोगी बेहतर प्रदर्शन कर सकें इसलिए उनकेशिक्षक या कोच उन्हें प्रतियोगिता शुरू होने से पहले गहरी सांस लेने की सलाह देते हैं। इस्राइल स्थित वाइजमैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के प्रोफेसर नोम सोबेल और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में इस बात की पुष्टि की है कि प्रशिक्षकों की सलाह सही है। उनका यह अध्ययन नेचर ह्मूमन बिहेवियर नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।  
अध्ययन में प्रतिभागियों को संज्ञानात्मक क्षमता से जुड़े कुछ कार्य करने को दिए गए । इनमें गणित की पहेलियां, स्थान-चित्रण से जुड़े  सवाल (जैसे दिखाया गया त्रि-आयामी चित्र वास्तव में संभव है या नहीं) और कुछ शाब्दिक सवाल (स्क्रीन पर दिखाए शब्द वास्तविक हैं या नहीं) शामिल थे। शोधकर्ताओं ने इन कार्यों के दौरान प्रतिभागियों के प्रदर्शन की तुलना की और उनके सांस लेने व छोड़ने की क्रिया पर ध्यान दिया। अध्ययन के दौरान प्रतिभागी इस बात से अनजान थे कि प्रदर्शन के दौरान उनकी सांस पर नजर रखी जा रही है। इसके अलावा प्रदर्शन के समय ई.ई.जी. की मदद से प्रतिभागियों के मस्तिष्क की विद्युतीय गतिविधियों पर भी नजर रखी गई । 
इस अध्ययन में तीन प्रमुख बातें उभर कर आई । पहली, शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रतिभा-गियों का प्रदर्शन तब बेहतर था जब उन्होंने सवाल करते समय सांस अंदर ली, बनिस्बत उस स्थिति के जब उन्होंने सवाल हल करते हुए सांस छोड़ी। दूसरी, इस बात से प्रदर्शन पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि सांस मुंह से अंदर खींची जा रही है या नाक से। वैसे आदर्श स्थिति तो वही होगी जब नाक से सांस ली और छोड़ी जाए । तीसरी बात ई.ई.जी. के नतीजों से पता चलता है कि श्वसन चक्र के दौरान मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों के बीच संपर्क अलग-अलग तरह से हुआ था। 
गौरतलब बात है कि जब हम सांस लेते हैं तो हम हवा में से ऑक्सीजन अवशोषित करते हैं। तो क्या बेहतर प्रदर्शन में इस अवशोषित ऑक्सीजन की कोई भूमिका है ? यह सवाल जब प्रो. सोबेल से पूछा गया तो उन्होंने इसके जबाव में कहा कि नहीं, समय के अंतराल को देखते हुए यह संभव नहीं लगता। जबाव देने में लगने वाला समय, फेफड़ों से मस्तिष्क  तक ऑक्सीजन पहुंचने में लगने वाले समय की तुलना में बहुत कम है। ... सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया के प्रति सिफ गंध संवेदना तंत्र (सूंघने की प्रणाली) संवेदनशील नहीं होता बल्कि पूरा मस्तिष्क इसके प्रति संवेदनशील होता है। हमें तो लगता है कि हम सामान्यीकरण करके कह सकते हैं कि मस्तिष्क अंत:श्वसन के दौरान बेहतर कार्य करता है। हम इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि मस्तिष्क सूंघता है ।  
यह अध्ययन इस बात की ओर भी इशारा करता है कि बिना किसी गंध के, सिर्फ सांस लेना भी तंत्रिका सम्बंधी गतिविधियों के बीच तालमेल बनाता है। यानी यह सुगंध या दुर्गध का मामला नहीं है। शोधकर्ताओं की परिकल्पना है कि नासिका अंत:श्वसन (नाक से सांस लेने की क्रिया) ना सिर्फ गंध सम्बंधी सूचनाओं का प्रोसेसिंग करती है बल्कि गंध-संवेदी तंत्र के अलावा अन्य तंत्रों द्वारा बाह्य  सूचनाओं को प्रोसेस करने में मदद करती है। 
इस बात को जैव विकास के इतिहास में भी देखा जा सकता है कि अंत:श्वसन मस्तिष्क की गतिविधियों का संचालन करता है। एक-कोशिकीय जीव और पौधे हवा से वाष्पशील या गैसीय पदार्थ लेते हैं । हम यह जानते हैं कि चूहे फुर्ती से भागते समय और आवाज करते समय लंबी-लंबी सांस लेते हैं। और चमगादड़ प्रतिध्वनि (इको) द्वारा स्थान निर्धारण के  समय लंबी सांस लेते हैं। डॉ. ओफेर पर्ल का कहना है कि गंध प्राचीन संवेदना है, इसी के आधार पर अन्य इंद्रियों और मस्तिष्क का विकास हुआ होगा । उक्त अध्ययन के  शोधकर्ता ध्यान दिलाते हैं कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी मे
इंस्पाइरेशन (अंत:श्वसन) शब्द का मतलब सिर्फ सांस खींचना नहीं बल्किदिमागी रूप से प्रेरित/ उत्साहित होने की प्रक्रिया भी है।
वैसे इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने ऐसा नहीं कहा है किन्तु कई वैज्ञानिक यह कहते हैं कि  योग (नियंत्रित तरीके से सांस लेने) से शांति और चैन मिलता है। स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि चूहों के मस्तिष्क में १७५ तंत्रिकाओं का एक समूह सांस की गति के नियंत्रक (पेसमेकर) की तरह कार्य करता है, और नियंत्रित तरीके से सांस लेना जानवरों में दिमागी शांति को बढ़ावा देता है। मनुष्यों की बात करें, तो ऑस्ट्रेलिया स्थित मोनाश युनिव-र्सिटी के डॉ. बैली और उनके  साथियों ने ६२ लोगों के साथ एक अध्ययन किया, जिनमें से ३४ लोग ध्यान करते थे और जबकि २८ लोग नहीं। दोनों समूह उम्र और लिंग के हिसाब से समान थे। तुलना करने पर उन्होंने पाया कि जो लोग ध्यान करते थे उनमें कार्य करने के लिए मस्तिष्क सम्बंधी गतिविधियां अधिक थीं। 
बीजिंग के शोधकर्ताओं के समूह ने इसी तरह का एक अन्य अध्ययन किया। अध्ययन में २०-२० लोगों के दो समूह लिए। पहले समूह के लोगों को लंबी सांस लेने के लिए प्रशिक्षित किया। दूसरा समूह कंट्रोल समूह था जिन्हें सांस सम्बंधी कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था। तुलना करने पर पाया कि प्रशिक्षित किए गए समूह में कार्टिसोल का स्तर कम था और उनकी एकाग्रता लंबे समय तक बरकरार रही। 
अंत में, जकारो और उनके साथियों ने एक समीक्षा में बताया है कि धीरे-धीरे सांस लेने की तकनीक सह-अनुकंपी तंत्रिका सम्बंधी गतिविधी को बढ़ाती है, भावनाओं को नियंत्रित करती है और मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ रखती है। 
पर्यावरण परिक्रमा
ईस्ट तिमोर दुनिया का पहला प्लास्टिक कचरा मुक्त देश
दक्षिण पूर्वी एशियाई देश ईस्ट तिमोर दुनिया का पहला प्लास्टिक कचरा मुक्त देश बनने की राह पर है । इसके लिए वह देश में निकलने वाले सारे प्लास्टिक कचरे को रिसाइकल करेगा । पर्यावरण संरक्षण से जुड़े अपने इस अभियान के तहत उसने एक रिसाइकलिंग संयंत्र लगाने के लिए ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताआें से हाथ मिलाया है । चार करोड़ डॉलर की लागत से बनने वाले इस संयंत्र के जरिए इस्तेमाल हुए प्लास्टिक सामान को नए उत्पादों में तब्दील किया जाएगा । ईस्ट तिमोर की सरकार ने पिछले दिनोंकहा कि इस संयंत्र के २०२० के आखिर तक शुरू होने की संभावना है । 
गरीब देश ईस्ट तिमोर की आबादी महज १३ लाख है । इस छोटे से देश में रोजना करीब ७० टन प्लास्टिक कचरा निकलता है । इसमें से ज्यादातर समुद्र तटों और शहरी इलाकों से एकत्र होता है । इसे अभी खुले में जला दिया जाता है । 
हिन्द महासागर में स्थित कोको द्वीप समूह केतटों पर बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कचरा मिला है । ऑस्ट्रेलिया के इस  दूरस्थ  द्वीप समूह के तटों पर दस लाख जूते और तीन लाख ७० हजार टूथब्रश समेत प्लास्टिक के करीब ४१.४ करोड़ टुकड़े मिले है । साइंसटिफिक रिपोट्र्स जर्नल में प्रकाशित एक सर्व में अनुमान लगाया गया है कि द्वीप समूह के तटों पर करीब २३८ टन प्लास्टिक पड़ा है । कोको आइलैडस पर महज ५०० लोग रहते हैं । तटों पर पाए गए प्लास्टिक कचरे में बोतलों के ढक्कन,स्ट्रा, जूते और चप्पले शामिल है । 
म.प्र. में बढ़ रही बड़े पौधे रोपने की परिपाटी 
म.प्र. में वन विभाग भोपाल शहर आगामी मानसून सीजन में वन विभाग दो लाख से अधिक पौधे रोपने की तैयार कर रहा है । विभाग के अधिकारियों का जोर वन क्षेत्रों से लेकर शहर तक पौधारोपण की संख्या बढ़ाने पर जोर है, दूसरी और महानगरों में टॉल प्लॉटिंग का चलन जोर पकड़ रहा है, जिससे ब्राउजिंग हाईट (पशुआें के चरने की सीमा तक की ऊंचाई) से ऊंचे बड़े पौधे रोपे जाते है। । 
दक्षिण भारत के कई राज्यों में टॉल प्लांटेशन के लिए अलग से नर्सरिया है । विशेषज्ञों का कहना है कि प्रदेश को भी इस तकनीक से हराभरा करने की जरूरत है, जिसके लिए दो साल पहले से तैयार शुरू करनी चाहिए, लेकिन प्रदेश में इस ओर सार्थक प्रयास नहीं किए गए हैं । 
पौधों को दो से तीन साल नर्सरी में रखा जाता है । पॉलीथीन बेग में पौधे विकसित करने के बाद उसे प्लास्टिक के बड़े शंकु आकार के पाइप रूपी रूट ट्रेनर में रखा जाता है । इसके बाद उसे लगभग ४० किलो के पैकेट में लगा देते हैं । इस तरह से सात से आठ सेटीमीटर गोलाई और छह से सात फीट की ऊंचाई का हो जाता है । इसके बाद मौके पर गड्ढा करने वाली ओगर मशीन से गड्ढा करके पौधा लगाकर खुलने वाला ट्री गार्ड देते हैं । एक से दो सीजन में ही यह १५ से २० फीट का पेड़ बन जाता है । 
जंगल में डेढ फीट का पौधा पर्याप्त् होता है । शहरी क्षेत्र में बड़े पौधे लगाना बेहतर है । अभी ऐसी नर्सरी तो नहीं है, लेकिन इस दिशा में बढ़ते हुए हमने अपनी नर्सरियों में २५ हजार से अधिक पौधे डेढ मीटर से अधिक ऊंचाई के तैयार किए है । शहरी क्षेत्र मेंपौधारोपण करने वाली एजेसियों को ऊंचे पौधों की नर्सरी विकसित करनी चाहिए । 
वैज्ञानिकों ने रंगीन कपास उगाने में पाई सफलता
कपास से बने धागे को रंगकर कपड़ा बनाना अब बीते जमाने की तकनीक होने जा रही है । उ.प्र. के  गाजियाबाद स्थित नॉर्दर्न इंडिया टेक्सटाइल रिसर्च एसोसिएशन(निटरा) के वैज्ञानिकों ने  रंगीन कपास के बीज से खेती कर उससे कपड़ा बनाने में सफलता हासिल की है । यह बीज दिल्ली के पूसा इस्टीट्यूट में तैयार हुआ । इसके अगले चरण निटरा में पूरे हुए । पहले हरे और भूरे रंग की कपास की खेती की गई । स्वस्थ फसल लहलाने तक कामयाबी के बाद कपास से धागा बनाकर कपड़ा तैयार किया गया । अब उसी कपड़े से पायजामा और बैग बनाए गए है । योरपीय देश के केमिकल रंगोंसे रंगे गए कपास नहीं लेते क्योंकि रासायनिक रंग कैंसर कारक होते हैं । 
जर्मनी ने १९९३ में रंगीन कपड़े में प्रयुक्त एजो डाइज (खतरनाक रासायनिक रंग) को प्रतिबंधित किया था । यहीं से रंगीन कपास उगाने की प्रेरणा मिली । पूसा इंस्टीट्यूट और निटरा के बीच सहमति बनी । सरकारी मशीनरी की मंजूरी में थोड़ समय लगा । उसके बाद रंगीन कपास का बीज तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हुई । साधारण बीज के जीन में रंग भरने पर शोध किया गया । पूसा इंस्टीट्यूट को एक दशक में बीज तैयार करने में सफलता मिली । फिर यह बीज निटरा को दिया गया । उन्होंने अपने संस्थान में इस बीज से कपास की खेती की । तीन चरणों में खेती करने के बाद  उत्तम फसल मिली । उस कपास के धागा बनाकर देखा गया । हालांकि शुरूआत में धागा बनाने में कुछ दिक्कतें आई । उन दिक्कतों को दूर कर निटरा ने कपड़ा बनाने में सफलता हासिल की । 
निटरा के वैज्ञानिकों ने मानव शरीर के अनुकूल रंगीन कपास को लेकर शोध किया । वैज्ञानिकों के मुताबिक, एजोकलर्स व  रासायनिक रंगोंसे रंगी रूई, धागा व कपड़े से स्किन कैंसर समेत कई गंभीर त्वचा रोगों की पुष्टि हो चुकी है । यही नहीं एक किलो कपड़े को रंगने के लिए एक हजार लीटर पानी बर्बाद होता है । निटरा को मिली सफलता के बाद धागे को रासायनिक रंगों से रंगने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।  रंगीन कपास से निर्मित कपड़े पूरी तरह मानव शरीर व पर्यावरण के अनुकूल होगें । 
निटरा के महानिदेशक डॉ. अरिदम बसु के मुताबिक, निटरा व पूसा के वैज्ञानिक अगले चरण के शोध में लगे हैं । अंतिम रूप से सफलता मिलने पर रंगीन कपास का पेटेंट कराकर किसानों को इसकी सौगात दी जाएगी । 
समुद्र किनारे मिले जूते और टूथब्रश
प्लास्टिक रूपी महामारी से भारत ही नहीं दुनिया के ज्यादातर देश त्रस्त है । आस्ट्रेलिया के समुद्री किनारे प्लास्टिक और अन्य गैर जरूरी सामानों से भरे हुए हैं । यहां के दूरस्थ कोकोस द्वीप में हिन्द महासागर के किनारे करीब ४१४ मिलियन प्लास्टिक के टुकड़े मिले हैं, जिसमें दाख लाख जूते और तीन लाख सत्तर हजार टूथब्रश शामिल है । एक नए शोध में यह जानकारी मिली है । 
जर्नल साइटिफिक रिपोट्र्स में प्रकाशित नए शोध में पाया गया कि यहां सिर्फ लगभग ५०० लोग ही घरों में रहते हैं । इसके बावजूद यह ऑस्ट्रेलियाई क्षेत्र २३८ टन प्लास्टिक से भरा हुआ है । यह २७ द्वीपों का समूह ज्यादातर निर्जन है जो पर्थ से २७५० किमी (१७०८ मील) दूर हैं । यह क्षेत्र पर्यटकों के लिए बगैर विकसित हुए ऑस्ट्रेलिया का अंतिम स्वर्ग माना जाता है । इस अध्ययन को नेतृत्व करने वालों में तस्मानिया मरीन इको टॉक्सिकोलॉजिस्ट जेनिफर लावर्स शामिल रही है । उन्होंने बताया कि यहां उपभोक्ताआें के अधिकतर एकल उपयोग वाले सामान जैसे बोतल के ढक्कन, स्ट्रा, जूते और सेडल मिले । 
लावर्स ने एक मीडिया विज्ञिप्त् में कहा कि प्लास्टिक प्रदूषण अब हमारे महासागरों में सर्वव्यापी है । दूरदराज के द्वीपों में प्लास्टिक के मलबे का एक उद्देश्यपूर्ण दृश्य के लिए एक आदर्श स्थान है । इस तरह के द्वीप समूह कोयले की खान में एक भेदिया की तरह है । 
ग्रामीणों ने दुल्हन को उपहार में दिया पानी
इन दिनों देश में पेयजल संकट बड़ी समस्या बन चुका है । ऐसे में किसी परिवार में शादी या अन्य समारोह का आयोजन हो तो आप स्थिति समझ सकते  हैं । मगर मध्यप्रदेश में एक गांव ऐसा भी है जहांं लोग गिफ्ट के तौर पर पानी लेकर पहुंचे । शादी-ब्याह जैसे समारोह मेंजहां लोगों को बड़े तौर पर जमावड़ा होता है वही पानी की कितनी ज्यादा मात्रा में जरूरत होती है यह आप सोच ही सकते है । 
खरगौन जिले के एक  गांव में आयोजित शादी समारोह में ग्रामीणों ने दुल्हन को महंगे उपहार की जगह पानी के रूप में अनमोल भेंट दी । जिस गांव में यह शादी थी, वहां के लोग भीषण जलसंकट से जूझ रहे  हैं । संकट का समाधान निकालने के लिए ग्रामीणों ने यह अनूठी पहल की । 
जिला मुख्यालय से करीब ६२ किमी दूर दुर्गम पहाड़ियों में बसे आदिवासी गांव रायटेमरी में २२ मई को कुंवर सिंह की बेटी की शादी थी । शादी की तैयारियों के बीच सामूहिक भोज में सबसे बड़ी चुनौती पेयजल की बनी । लगभग २५० लोगों के लिए भोजन के साथ पानी की व्यवस्था करना मुश्किल था, क्योंकि गांव में भीषण जलसंकट है । 
कुंवरसिंह ने यह समस्या सरपंच और ग्रामीणों से साझा की । आखिर में तय किया गया कि गांव के आमंत्रित परिवार भोजन करने आएं तो पानी का उपहार लाएं । ग्रामीण दिनेश पटेल, रामसिंह और वाहरिया ने बताया कि लगभग हर परिवार ३०० लीटर क्षमता का ड्रम पानी से भरकर बैलगाड़ी के जरिये शादी वाले घर पहुंचा । देखते ही देखते कुंवर सिंह के यहां रखी तीन हजार लीटर की टंकी लबाबल हो गई । सरपंच जागीराम जमरे व अन्य ग्रामीणों ने संकल्प लिया कि अब किसी भी आयोजन में पानी का उपहार देने की परम्परा बनाए रखेगे ।                                  
पर्यटन
भारत मेंपर्यावरणीय पर्यटन
डॉ.दीपक कोहली
भारत एक ऐसा देश है जो पूरी तरह से प्राकृतिक संपदा से संपन्न है। यहां नदीं पहाड, झरने, रेगिस्तान, एवं जगंल इत्यादि सभी कुछ है। जो इसे विविधताओं में एकता वाला राष्ट्र बनाते है । 
भारत में प्रकृति से जुड़े कई पर्यटन स्थल है जो ना केवल आपको प्रकृति के करीब ले जाने में मदद करते हैं बल्कि प्रकृति की विविधता और उसके सृजन को भी परिभाषित करते हैं। पर्यावरणीय पर्यटन पूरी तरह से पर्यटन के क्षेत्र में एक नया दृष्टिकोण है। मूलरूप से पर्यावरणीय पर्यटन जितना संभव हो कम पर्यावरणीय प्रभाव के रूप में क्षेत्र की मूल आबादी को बनाए रखने में मदद करता है, जिससे आप वहां की यात्रा के साथ उस जगह के वन्य जीवन और उनके निवास के संरक्षण को प्रोत्साहित करते है।यह, वातावरण की सांस्कृतिक और प्राकृतिक इतिहास की सराहना करने के लिए प्राकृतिक क्षेत्रों के लिए एक संरक्षण यात्रा है। 
मनोरंजन के लिए प्रकृति में गहरी यात्रा करने के लिए इको-टूरिज्म यानि पारिस्थितिक पर्यटन बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। यह प्राकृतिक परिवेश को परेशान या नष्ट किए बिना और साथ ही उस स्थान पर मौजूद मूल संस्कृतियों का दोहन किए बिना आपका मनोंरजन करते है। पारिस्थितिक पर्यटन यात्री और सेवा प्रदाता दोनों की जिम्मेदारी है कि वो प्रकृति को किसी भी तरह का नुकसान  ना पहुंचाए ।    
देश में विभिन्न वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों की घोषणा ने निश्चित रूप से वन्यजीव संसाधनों के विकास में वृद्धि को प्रोत्साहित किया है। वर्तमान में, देश में ४४१ वन्यजीव अभ्यारण्य और ८० राष्ट्रीय उद्यान हैं जो सामूहिक रूप से भारत में पशुओं के संरक्षण और उनकी देखभाल के लिए कार्य करते हैं। 
जागरूकता फैलाने के लिए, भारत सरकार ने देश में पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय में पारिस्थितिक पर्यटन को लेकर विभाग भी स्थापित किया है जो वर्तमान में भारत में वन्यजीव संसाधन के संरक्षण के काम करता है । इन दिनों देश में अवैध शिकार को काफी हद तक बंद कर दिया है। शिकारियों, शिकारी और जानवरों और पेड की अवैध व्यापारियों के लिए गंभीर सजा कर रहे हैं। जानवरों और पौधों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए जो कई पशु और पादप अधिकार संगठन काम कर रहे हैं । 
पर्यावरण पर्यटन प्रकृति से जुड़ा पर्यटन है जिसमें आप देश की संस्कृति, सभ्यता के साथ विभिन्न जीव-जंतुओं के बारे में भी जान पाते हैं। विभिन्न पेड़-पौधे फल-फूल इस पर्यटन का हिस्सा होते हैं इसीलिए आपको यह विशेष रुप से ध्यान रखने की आवश्यकता है कि आप इनका किसी भी तरह से दोहन ना करें। आप इन्हें बिना नुकसान पहुंचाए प्रकृति की इस सुरम्य यात्रा का आनंद लें।   पर्यावरण पर्यटन पारिस्थितिकी संतुलन को नुकसान नहीं यकीन कर रही है, जबकि उनके प्राकृतिक सुंदरता और सामाजिक संस्कृति के लिए प्रसिद्ध हैं कि स्थानों के लिए यात्रा पर जोर देता। 
पारिस्थितिकी पर्यटन एक स्वाभाविक रूप से संपन्न क्षेत्र है और इसकी सुंदरता और स्थानीय संस्कृति को बनाए रखने की विविधता को संरक्षित करने के लिए एक जागरूक और जिम्मेदार प्रयास से संबंधित है। आपकी पर्यावरणीय यात्रा के लिए हम आपको कुछ ऐसे ही स्थलों के बारे में बताने जा रहे है जो आपकी यात्रा को प्रकृति से जोड़ उसके और करीब ले आएगी । जो देश में पारिस्थितिक पर्यटन का एक बड़ा हिस्सा हैं। 
तिरुवनंतपुरम से लगभग ७२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित तनमाला भारत का पहला नियोजित पारिस्थितिक पर्यटन स्थान है। सुंदर पश्चिमी घाटों और शेन्दुरुनी वन्यजीव अभयारण्य के सुन्दर जंगलों से घिरा हुआ, तनमाला अपने एक तरह की कामकाजी और जैव-विविधता के लिए जाना जाता है। यह तीन प्रमुख क्षेत्रों में विभाजित है - अवकाश क्षेत्र, साहसिक क्षेत्र और संस्कृति क्षेत्र प्रत्येक एक विशेष विषय के अनुसार डिजाइन किया गया। यहां पर कई रिसॉट्र्स भी स्थित हैं जहां आगंतुक शांतिपूर्वक रह सकते हैं।
महाराष्ट्र में स्थित अंजता और एलोरा की गुफाएं सबसे प्राचीन पर्यावरणीय पर्यटन का स्थल है। यह सबसे लोकप्रिय पर्यटक  आकर्षणों में से एक, के रुप में जानी जाती हैं। खासकर यदि आप एक वास्तुकला प्रेमी हैं।  यहां की गुफाएं सुंदर और उत्तम दीवार चित्रों और कला का घर हैं जो बुद्ध और हिंदू धर्म के जीवन पर आधारित हैं। 
यह गुफाएं महाराष्ट्र के  औरंगाबाद जिले में स्थित हैं। बड़े-बड़े पहाड़ और चट्टानों को काटकर बनाई गई ये गुफाएं भारतीय कारीगरी और वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। अजंता की गुफाओं में ज्यादातर दीवारों पर की गई नक्काशी बौद्ध धर्म से जुड़ी हुई है जबकि एलोरा की गुफाओं में मौजूद वास्तुकला और मूर्तियां तीन अलग-अलग धर्मों से जुड़ी  हैं- बौद्ध धर्म, जैन धर्म और हिंदू धर्म का प्रतीक हैं। अजंता एक दो नहीं बल्कि पूरे ३० गुफाओं का समूह है जिसे घोड़े की नाल के आकार में पहाड़ो को काटकर बनाया गया है और इसके सामने से बहती है एक संकरी सी नदी जिसका नाम वाघोरा है। 
एलोरा की गुफाएं पहाड़ और चट्टानों को काटकर बनाई गई वास्तुकला का सबसे बेहतरीन उदाहरण है। धार्मिक चित्रों, मूर्तियों और गुफाओं की प्राकृतिक सुंदरता पर्यावरण के अनुकूल आगंतुकों को उस समय की मौजूद संस्कृतियों में गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। व्यावसायीकरण से दूर, अजंता और एलोरा गुफाएं आपके इको-टूर के हिस्से के रूप में जाने के लिए एक शानदार जगह हैं।
भारतीय मुख्य भूमि से दूर स्थित, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह ५७२ छोटे द्वीपों का एक समूह है जो अपने निर्वासित जंगलों, स्पष्ट जल और सदाबहार पेड़ों के लिए जाने जाते हैं। चूंकि वे अन्य देशों के नजदीक स्थित हैं, इसलिए द्वीप विभिन्न वनस्पतियों और जीवों की एक विस्तृत श्रृंखला का एक घर हैं ।   पर्यावरण पर्यटकों के लिए इस द्वीप के पास बहुत कुछ है। एक शांत वातावरण, स्वच्छ हवा, सुन्दर जंगल और एक समृद्ध समुद्र के साथ, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह  कपर्यावरण पर्यटन के लिए सबसे पसंदीदा स्थानों में से एक बन गए हैं। यहां की प्रदूषण रहित हवा, पौधों और जानवरों की नायाब प्रजातियों की मौजूदगी की वजह से आपको इस जगह से प्यार हो जाता है।
नंदा देवी और फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान हिमालय में एक अविश्वनीय जैव विविधता के साथ असाधारण रूप से सुंदर पार्क हैं। भारत के दूसरे सबसे ऊंचे पर्वत नंदा देवी का प्रभुत्व, नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान अपने निर्बाध पर्वत जंगल के लिए जाना जाता है और सुंदर ग्लेशियर और अल्पाइन मीडोज के पक्ष में है। राष्ट्रीय उद्यान के तौर पर नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना १९८२ में हुई थी। यह उत्तरी भारत में उत्तराखंड राज्य में नंदा देवी की चोटी (७८१६ मी) पर स्थित है। वर्ष १९८८ में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल किया था।
फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान में एक और अधिक सभ्य परिदृश्य है । फूलों का एक शानदार क्षेत्र यहां आपको देखने को मिलता है। यह दोनों राष्ट्रीय उद्यान खूबसूरती से एक-दूसरे की प्रशंसा करते हैं और हिमालय में दीर्घकालिक पारिस्थि-तिकीय अवलोकन के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। इस उद्यान में १७ दुर्लभ प्रजातियों समेत फूलों की कुल ३१२ प्रजातियां हैं। देवदार, सन्टी/ सनौबर, रोडोडेंड्रन (बुरांस) और जुनिपर यहां की मुख्य वनस्पतियां हैं।  नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में आकर पर्यटक, हिम तेंदुआ, हिमालयन काला भालू, सिरो, भूरा भालू, रूबी थ्रोट, भरल, लंगूर, ग्रोसबिक्सम, हिमालय  कस्तूकरी मृग और हिमालय तहर को देख सकते हैं। इस राष्ट्रीय पार्क में लगभग १०० प्रजातियों की चिड़ियों का प्राकृतिक आवास है। 
राजस्थान के भरतपुर में स्थित, केवलादेव नेशनल पार्क मानव निर्मित आर्द्रभूमि है और भारत में सबसे प्रसिद्ध अभयारण्यों में से एक है जो पक्षियों की हजारों प्रजातियों का घर है। इस राष्ट्रीय उद्यान में ३७९ से अधिक पुष्प प्रजातियां, ३६६ पक्षी प्रजातियां, मछली की ५० प्रजातियां, छिपक-लियों की ५ प्रजातियां, १३ सांप प्रजातियां, ७ कछुआ प्रजातियां और ७ उभयचर प्रजातियां हैं। केवलादेव नेशनल पार्क देश के सबसे अमीर पक्षी विहारों में में से एक है, खासकर सर्दियों के महीनों के दौरान यहां देश-विदेशी पक्षियों का जमावड़ा लगता है।  पहले भरतपुर पक्षी विहार के नाम से जाना जाता था। इस पक्षी विहार में हजारों की संख्या में दुर्लभ और विलुप्त् जाति के पक्षी पाए जाते हैं, जैसे साईबेरिया से आये सारस, जो यहाँ सर्दियों के मौसम में आते हैं। १९८५ में इसे यूनेस्को की विश्व विरासत भी घोषित कर दिया गया था ।
उत्तरी कर्नाटक में दांदेली उन लोगों के लिए छुट्टी के लिए एक उत्तम विचार स्थान है जो पर्यावरण-पर्यटन और प्रकृति से प्यार करते हैं। यह अपने साहसी जल खेलों के लिए जाना जाता है और इसे कई पर्यावरण गतिविधियों के साथ एक पारिस्थि-तिकी-अनुकूल पर्यटन स्थल के रूप में घोषित किया गया है जो क्षेत्र में मौजूद प्राकृतिक सौंदर्य और वन्यजीवन को संरक्षित रखने में मदद करता है।
पर्णपाती जंगलों और एक विविध वन्यजीवन से घिरा हुआ, दांदेली पर्यटकों को एक अद्वितीय प्राकृतिक सुंदरता प्रदान करता है। पश्चिमी घाट के घने पतझड़ जंगलों सो घिरा दांदेली दक्षिण भारत के साहसिक क्रीड़ा स्थल के रूप में जाना जाता है। राफ्िंटग के लिए दान्डेली भारत में दूसरी सबसे लोकप्रिय जगहों में शुमार है।  इसके अलावा कायकिंग, कोरेकल राइडिंग, ट्रैकिंग और रोप क्लाइबिंग कर सकते हैं।  यहाँ पर पक्षियों की  लगभग २०० प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें ऐशी स्वालो श्राइक, ड्रॉगो, ब्राहमिनी काइट, मालाबार हॉर्नबिल और मिनीवेट शामिल हैं। पर्यटक अभ्यारण्य के जंगल में ट्रेकिंग के साथ-साथ नौकायन भी कर सकते हैं। 
लक्षद्वीप  दुनिया में सबसे प्रभावशाली उष्णकटिबंधीय द्वीप प्रणालियों में से हैं। ४२०० वर्ग किलोमीटर से अधिक में फैला हुआ लक्षद्वीर ३६ द्वीपों का एक छोटा सा समूह हैं, जो समुद्री जीवन से अत्यधिक समृद्ध हैं। केन्द्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप द्वीप समूह पर्यावरण-पर्यटन के कारण प्रसिद्ध हैं । नारियल वीथिकाओं के अतिरिक्त पपीते, केले व  अमरूद के पेड़ों की कतारें भी सैलानियों को अलग अहसास से भर देती हैं।
लक्षद्वीप का सबसे बड़ा आकर्षण है- प्राचीन सुन्दरता और सकुनू की जिंदगी। शहरी भाग-दौड? और व्यस्त दिनचर्या के कोलाहल से दूर, आपको यहां सिर्फ समुद्री तटों से टकराती लहरों की आवाज सुनाई देगी। इस द्वीप पर आपको स्कूबा डाइविंग, स्नोर्किंलग, कयाकिंग, कैनोइंग, विंडसर्फिंग, याच और इसी तरह की कई अन्य रोमांचक गतिविधियां मिल जाएंगी।
राजस्थान के अलवर से ३७ किलोमीटर दूर स्थित, सरिस्का टाइगर रिजर्व भारत में प्रमुख वन्यजीव अभयारण्यों में से एक है।  एक विशिष्ट पारिस्थितिक तंत्र के साथ, सरिस्का टाइगर रिजर्व अद्वितीय वनस्पतियों और जीवों की कई प्रजातियों का घर है।  अरावली पहाडियों के संकीर्ण घाटियों और तेज चट्टानों पर स्थित, सरिस्का टाइगर रिजर्व का शानदार परिदृश्य पर्णपाती पेड़ो और उत्कृष्ट घास के मैदानों से भरा हुआ है। इस खूबसूरत वन्यजीव अभयारण्य का पूरी तरह से अन्वेषण करने का सबसे अच्छा तरीका आपके वाहन के माध्यम से है। सरिस्का को वन्य जीव अभ्यारण्य का दर्जा १९५५ में मिला, और जब प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत हुई, तो १९७८ में इसे टाइगर रिजर्व बना दिया गया। कुछ ही सालों बाद इसे राष्ट्रीय पार्क घोषित कर दिया गया। 
अरावली पर्वत श्रृंखला के बीच स्थित यह अभ्यारण्य बंगाल टाइगर, जंगली-बिल्ली, तेंदुआ, धारीदार लकडबग्घा, सुनहरे सियार, सांभर, नीलगाय, चिंकारा जैसे जानवरों के लिए तो जाना ही जाता है, मोर, मटमैले तीतर, सुनहरे कठफोडा, दुर्लभ बटेर जैसी कई पक्षियों का बसेरा भी है। इसके अतिरिक्त यह अभ्यारण्य कई ऐतिहासिक इमारतों को भी खुद में समेटे हुए है, जिसमें कंकवाड़ी किला प्रसिद्ध है। सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान विविध प्रजातियों के जंगली जानवरों-तेंदुए, चीतल, सांभर, नीलगाय, चार सींग वाला हिरण, जंगली सुअर, रीसस मकाक, लंगूर, लकड़बग्घा और जंगली बिल्लियों का शरणस्थल है। 
कॉर्बेट  नेशनल पार्क भारत का पहला राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य है जो टाइगर परियोजना का हिस्सा बन गया है । यह वनस्पति और बड़ी संख्या में बाघों के लिए जाना जाता है, कॉर्बेट नेशनल पार्क ११० पेड़ प्रजातियों, ५८० पक्षी प्रजातियों, सरीसृपों की २५ प्रजातियों और ५० स्तनपायी प्रजातियों का घर है। इस अभयारण्य का पता लगाने का सबसे अच्छा तरीका जीप सफारी के माध्यम से है जिसे आसानी से पर्यटक केन्द्र में रखा जा सकता है। 
कॉर्बेट नेशनल पार्क वन्य जीव प्रेमियों के लिए एक स्वर्ग है जो प्रकृति माँ की शांत गोद में आराम करना चाहते हैं । पहले यह पार्क (उद्यान) रामगंगा राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता था परंतु वर्ष १९५७ में इसका नाम कॉर्बेट नेशनल पार्क (कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान) रखा गया । यह भारत में जंगली बाघों की सबसे अधिक आबादी के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है और जिम कॉर्बेट पार्क  लगभग १६० बाघों का आवास है। इस पार्क में लगभग ६०० प्रजातियों के रंगबिरंगे पक्षी रहते है इसके अलावा यात्री यहाँ ५१ प्रकार की झाडियाँ, ३० प्रकार के बाँस और लगभग ११० प्रकार के विभिन्न वृक्ष देख सकते हैं । कॉर्बेट नेशनल पार्क  आने वाले पर्यटकों के लिए कोसी नदी रॉफ्िटंग का अवसर प्रदान करती है।  
मुम्बई के नजदीक स्थित, महाराष्ट्र में एलिफंटा गुफाएं अपने रॉक-कट मूर्तियों के लिए जानी जाती हैं जो सम्मानित हिंदू देवता - भगवान शिव को समर्पित हैं। इनमें से कुछ गुफाएं विशाल आकार में हैं, जिनमें मंदिर शामिल हैं, जो लगभग ६०,००० वर्ग फुट कवर करते हैं। यूनेस्को द्वारा विरासत स्थल के रूप में घोषित, एलिफंटा गुफाआें की मूर्तियां एक वास्तुकला प्रेमी के लिए स्वर्ग हैं।
एलिफेंटा गुफाआें को यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल के   रूप में भी घोषित किया है और भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) विभाग द्वारा इसका रखरखाव किया जाता है। एलिफेंटा की गुफाएं कलात्मक कलाकूतियों की श्रृंखला है जो कि एलिफेंटा आईलैंड में स्थित है। इसे सिटी आफ केव्य कहा जाता   है । मुंबई के गेटवे आफ इंडिया से लगभग १२ किमी की दूरी पर अरब सागर में स्थित यह छोटा सा टापू है। यहां सात गुफाएं बनी हुई है जिनमें से मुख्य गुफा में २६ स्तंभ हैं । भगवान शिव के कई रूपों को उकेरा गया है। यहां भगवान शंकर की नौ बड़ी-बड़ी मूर्तियां हैं। शिल्प दक्षिण भारतीय मूर्तिकला से प्रेरित है। 
एलिफेंटा की गुफांए कलात्मक कलाकूतियों की श्रृंखला है जो कि एलिफेंटा आईलैंड में स्थित है। एलिफेंटा में भगवान शंकर के कई लीला रूपों की मूर्तिकारी, एलौरा और अजंता की मूर्तिकला के समकक्ष ही है। एलिफेंटा की गुफाओ में चट्टानों को काट कर मूर्तियाँ बनाई गई है। इस गुफा के बाहर बहुत ही मजबूत चट्टान भी है। इसके अलावा यहाँ एक मंदिर भी है जिसके भीतर गुफा बनी हुई है ।  
पारिस्थितिक पर्यटन अभी भी भारत में विकसित हो रहा है और पिछले कुछ वर्षों में उल्लेखनीय रूप से बढता जा रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरणीय जीव-जन्तु, पेड़ पौधों का संरक्षण हो सके जो आज के समय में भारत सरकार की प्रथम प्राथमिकता है।                   
जन जीवन
वन अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन 

  जल संरक्षण और पारिस्थि-तिकीय संतुलन में वनों की भूमिका को प्राथमिकता देना, वनवासी और वन निर्भर समुदायों की आजीविका की रक्षा करना भी आज की वानिकी के लक्ष्य होने चाहिए । 
भारतीय वन अधिनियम १९२७ में ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाया गया कानून है । आजादी के ७२ साल बाद तक भी हम अपने वन प्रबंधन को उसी कानून के आधार पर चला रहे हैं। हालांकि ९० के दशक मेंभी इस कानून के स्थान पर नया कानून लाने के प्रयास किए गए थे, किन्तु वन संसाधन पर दावेदारों के हितों में आपसी टकराव इतने अधिक हैं कि उनमें आपसी समन्वय बिठाना कोई आसान काम नहीं । अत: तत्कालीन सरकार ने यह सोचा होगा कि एक नई सिरदर्द क्योें मोल ली जाए और मामला वहीं पड़ा रहा । १९२७ के बाद देश की नदियों में बहुत जल बह चुका है । 
इसलिए एक नए कानून की जरूरत तो सभी समझते हैं, किन्तु हर दावेदार अपने हितों के मुताबिक नया वन अधिनियम चाहता है । १९२७ में ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश हितों की पूर्ति के लिए वन अधिनियम बनाया था, इस बात पर किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए । ज्यादा से ज्यादा वन औघोगीकरण का हित साधना ही उसका मुख्य लक्ष्य था । इसीलिए पहला वन अधिकारी जो भारत के मालाबार जंगलों के प्रबंध के नाम पर भारत में भेजा गया, वह एक पुलिस अफसर था । तब से ही वन विभाग एक पुलिस प्रशासन की तर्ज पर काम करने वाला विभाग है और उसी कार्य प्रणाली को मजबूत करने के लिए १९२७ का वन अधिनियम आधारभूत कानून का काम करता आ रहा है । एक बड़ा मुद्दा यह भी है कि वन संसाधनों के दावेदार, आज की परिस्थितियों के आधार पर कौन हो, यह बात भी सुलझाई नही गई है । 
ब्रिटिश राज में तो मुख्य दावेदार वन विभाग, उद्योग, खनन आदि क्षेत्र ही थे, जिनके हितसाधन के लिए वन संसाधनों को स्थानीय उपयोगकर्ताआें के हाथ से बाहर निकालने के लिए पुलिस की तर्ज पर वन विभाग का गठन किया गया था । इसके लिए वनों के बंदोबस्त की प्रक्रिया अपनाई गई, जिसके तहत स्थानीय बरतनदारों की  सुनवाई करके एक सेटलमेंट अफसर उनके अधिकारों की सीमा निर्धारित कर देता था । जहां स्थानीय जनता ने कुछ विरोध किया, वहां के लिए कुछ छूट दे दी । वनों के मामले में दो पहलू हैं । एक तो वनों की विविध उपज है, दूसरी वन भूमि है । ब्रिटिश वन विभाग ने वनों पर कब्जा करके पहले तो वन उपज का लाभ लेने के लिए योजना बनाई, जिसमें अधिक से अधिक से दोहन और वन कटाई से वन विनाश की दर बहुत ज्यादा है, यदि इसके साथ वन रोपण का कार्य नहींकिया गया, तो संसाधन नष्ट होने का खतरा पैदा हो जाएगा । 
वन रोपण कार्य आरंभ करने के लिए जर्मन वानिकी वैज्ञानिकों का सहयोग लिया गया । क्योंकि ब्रिटेन को वन विज्ञान की उतनी जानकारी तब तक नहीं थी । जर्मन वैज्ञानिकों का क्योंकि कोई निहित स्वार्थ नहीं था, इस कारण उन्होंने वानिकी का अच्छा वैज्ञानिक आधार तैयार करने में सहयोग किया, किन्तु वानिकी नीति और प्रशासन तो ब्रिटिश सरकार तथा वन विभाग को ही चलाना था । उन्होंने प्राकृतिक विविधता से परिपूर्ण वनों को एकल प्रजाति के इमारती लकडी के वनों में बदलने का क्रम शुरू  कर दिया । 
देश का एक बहुत बड़ा वर्ग जो वन संसाधनों पर अपनी आजीविका के लिए पूर्णतया या आंशिक रूप से निर्भर है और इसी कारण वनों का स्वाभाविक संरक्षक है, उसका सशक्तिकरण हो । उसके रोजगार की समस्या हल हो तथा मध्य भारत में उनके अंदर माओवादियों की घुसपैठ  का वैचारिक अधिष्ठान भी समाप्त् हो ।         
कविता
पर्यावरण जीवन का आधार 
डॉ. रामनिवास मानव

पेड़ कटे, जंगल घटे, मौसम हुआ उदास।
लेकिन चिट्ठी दर्द की, भेजे किसे पास ।।
चिड़िया बैठी घोंसले, साधे बिल्कुल मौन । 
दर्द भरी उसकी कथा, लेकिन समझे कौन ।।
जीने के अधिकार की, खारिज हुई दलील । 
मौसम ने की क्रूरता, मरी प्यास से झील ।।
ऋतुएं भूली चाल हैं, चिड़िया भूली गीत । 
छांव कहीं भटकी फिरे, गर्मी से भयभीत ।।
पर्वत सब नंगे हुए, सूखे सारे खेत । 
विवश दिखती है नदी, भर आंखों में रेत ।।
पानी पर पहरा लगा, फिर भटकती प्यास,
अब दुनिया करने लगी, जीवन का उपहास ।।
सूखा सूना खेत है, खड़ा बिजूका बीच ।
भरकर अंजलि आग की, मौसम रहा उलीच ।।
सूख गई हरियालियां, फसलें हई तबाह । 
कोल्हू जैसी जिन्दग्री, फिर-फिर रही कराह ।।
वट पीपल के देश में, पूजित आज कनेर । 
बूढ़ा बरगद मौन है, देख समय का फेर ।।
मानव अब करने लगा, नित्य नये उत्पात ।
प्रकृति तभी देने लगी, बार-बार आघात ।।
धरती मां, सूरज पिता, पेड़ प्रकृति परिवार ।
पर्यावरण को समझिये, जीवन का आधार ।।
वानिकी जगत
भारत में वनों का क्षेत्रफल बढ़ा
नरेन्द्र देवागंन

भारत के जीडीपी में वनों का योगदान ०.९ फीसदी है। इनसे इंर्धन के लिए सालाना १२.८ करोड़ टन लकड़ी प्राप्त् होती है। हर साल ४.१ करोड़ टन इमारती लकड़ी मिलती है। महुआ, शहद, चंदन, मशरूम, तेल, औषधीय पौधे प्राप्त् होते हैं। 
पेड़-पौधों का हर अंग अचंभित करता है। पत्तियां, टहनियां और शाखाएं शोर को सोखती हैं, तेज बारिश का वेग धीमा कर मृदा क्षरण रोकती है। पेड़ पक्षियों, जानवरों और कीट-पतंगों को आवास मुहैया कराते हैं। शाखाएं, पत्ते छाया प्रदान करते हैं, हवा की रफ्तार कम करने में सहायक होते हैं। जड़ें मिट्टी के क्षरण को रोकती हैं ।
देश में ६.४ लाख गांवों में से २ लाख गांव जंगलों में या इनके आसपास बसे हैं । ४० करोड़ आबादी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से वनों पर निर्भर है। इनकी आय में वन उत्पादों का योगदान ४० से ६० फीसदी है। वन हर साल २७ करोड़ मवेशियों को ७४.१ करोड़ टन चारा उपलब्ध कराते हैं। हालांकि इससे ७८ फीसदी जंगलों को नुकसान पहुंच रहा है। १८ फीसदी जंगल बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। 
खुद को कीटों से बचाने के लिए पेड़-पौधे वाष्पशील फाइटोन-साइड रसायन हवा में छोड़ते हैं। इनमें एंटी बैक्टीरियल गुण होता है। सांस के जरिए जब ये रसायन हमारे शरीर में जाते हैं तो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। 
देश में ८ करोड़ हैक्टर भूमि हवा और पानी से होने वाले अपरदन से गुजर रही है। ५० फीसदी भूमि को इसके चलते गंभीर नुकसान हो रहा है। भूमि की उत्पादकता घट रही है। इस भूमि को पेड़-पौधों के जरिए ही बचाया जा सकता है। 
पेड़-पौधे वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड सोखकर ऑक्सीजन  देते हैं। एक एकड़ में लगे पेड़ उतना कार्बन सोखने में सक्षम हैं जितनी एक कार ४०,००० कि.मी. चलने में उत्सर्जित करती है। साथ ही वे वातावरण में मौजूद हानिकारक गैसों को भी कैद कर लेते हैं । पेड़-पौधे धूप की अल्ट्रा वायलेट किरणों के असर को ५० फीसदी तक कम कर देते हैं। ये किरणें त्वचा के कैंसर लिए जिम्मेदार होती हैं । घर के आसपास, बगीचे और स्कूलों में पेेड़ लगाने से बच्च्े धूप की हानिकारक किरणों से सुरक्षित रहते हैं। यदि किसी घर के आसपास पौधे लगाए जाएं तो ये गर्मियों के दौरान उस घर की एयर कंडीशनिंग की जरूरत को ५० फीसदी तक कमकर देते हैं। घर के आसपास पेड़-पौधे लगाने से बगीचे से वाष्पीकरण बहुत कम होता है, नमी बरकरार रहती है। 
ऐसा नहीं है कि सिमटती हरियाली और उसके दुष्प्रभावों को लेकर लोग चिंतित नहीं है। लोग चिंतित भी हैं और चुपचाप बहुत संजीदा तरीके से अपने फर्ज को अदा भी कर रहे हैं। अपनी इस मुहिम में वे नन्हे-मुन्नों को सारथी बना रहे हैं, जिससे आज के साथ कल भी हरा-भरा हो सके । जहां दुनिया के तमाम देशों के वन क्षेत्र का रकबा लगातार कम होता जा रहा है, वहीं भारत ने अपने वन और वृक्ष क्षेत्र में एक फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की है। इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट २०१७ के अनुसार २०१५ से २०१७ के बीच कुल वन और वृक्ष क्षेत्र में ८०२१ वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ है। लगातार चल रहे सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों और जागरूकता कार्यक्रमों से ही ऐसा संभव हो सका है। 
कुल वन क्षेत्र के लिहाज से दुनिया में हम दसवें स्थान पर हैं और सालाना वन क्षेत्र में होने वाली वृद्धि के लिहाज से दुनिया में आठवें पायदान पर । अच्छी बात यह है कि जनसंख्या घनत्व को देखा जाए तो शीर्ष ९ देशों के लिए यह आंकड़ा १५० प्रति वर्ग कि.मी. है जबकि भारत का ३५० है। इसका मतलब है कि आबादी और पशुओं के दबाव के बावजूद भी हमारे संरक्षण और संवर्धन के प्रयासों से ये नतीजे संभव हुए हैं। 
आज के दौर में पेड़-पौधों की महत्ता और बढ़ गई है। शहरीकरण की दौड़ में बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को रोकनाभी बड़ी चुनौती बन गया है। ऐसे में कार्बन डाईऑक्साइड को सोखने के लिए वनीकरण को बढ़ावा देने के अलावा और कोई चारा नहीं है। जलवायु परिवर्तन पर आयोजित पेरिस जलवायु समझौते में भारत संयुक्त राष्ट्र को भरोसा दिला चुका है कि वह वर्ष २०३० तक कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में २.५ से ३ अरब टन तक की कमी करेगा। यह इतनी बड़ी चुनौती है कि इसके लिए ५० लाख हैक्टर में वनीकरण की जरूरत है। मात्र अधिसूचित वनों की बदौलत यह लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है। 
यह तभी हो पाएगा, जब आज की पीढ़ी भी इस काम में मन लगाकर जुटेगी। निजी व कृषि भूमि पर वनीकरण को बढ़ावा देकर पेरिस समझौते के मुताबिक परिणाम दिए जा सकते हैं। 
हर साल एक से सात जुलाई तक देश में वन महोत्सव मनाया जाता है। इसमें पौधे लगाने के लिए लोगों को जागरूक किया जाता है। हमें एक सप्ताह के इस हरियाली उत्सव को साल भर चलने वाले अभियान में बदलना होगा। जैसे ही मानूसनी बारिश धरती को नम करे, चल पड़े पौधारोपण का सिलसिला। अगर सांस लेने के लिए शुद्ध ऑक्सीजन चाहिए तो इतना तो करना ही होगा। 
ज्ञान विज्ञान
सर्प दंश की नई दवा पर निवेश करेगा ब्रिटिश ट्रस्ट 

सर्प दंश के लिए नई दवाआें की सख्त जरूरत है । वैज्ञानिकों का कहना है कि वर्तमान में सर्प दंश के खिलाफ जो दवा बनाई जाती है उसे १०० साल पहले हजाद किया गया था । जिसमें सांप के  जहर का इंजेक्शन घोड़े को लगाकर एंटीबॉडी बनाई जाती थी । 
यह तरीका बेहद महंगा होन के साथ कई बार घातक एलर्जी का कारण भी बन जाता है । एक ब्रिटिश ट्रस्ट के अनुसार सर्प दंश दुनिया का सबसे बड़ा छिपा हुआ स्वास्थ्य सकंट है । वेलकम ट्रस्ट इस समस्या को खत्म करने के लिए करीब ८० मिलियन पाउंड (७१८४१४२८८० रूपया) का निवेश करेगा । सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन इसी महीने सर्प दंश से होने वाली मौतों को २०३० तक पूरी तरह रोकने के लिए एक रणनीति को सार्वजनिक करेगा । संगठन के अनुसार हर पांच मिनट में दुनिया भर में ५० लोगों को सांप डसता है । ८१००० से १३८००० लोगों की हर साल सर्प दंश से मौत होती है । जबकि ४,००,००० लोग स्थाई रूप से विकलांग हो जाते हैं । इसमें से अधिकतर लोग सम्पन्न देशों के होते है लेकिन वे गरीब समुदाय से ताल्लुक रखते हैं । 
वेलकम ट्रस्ट के निदेशक प्रोफेसर माइक टर्नर ने कहा कि सर्प दंश का इलाज संभव है । यदि समय पर पीडित को एंटीवेनम उपलब्ध हो जाए तो सबसे अधिक संभावना होती है उसके बचाए जाने की । जहरीले सांप लोगों को काट लेते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि बहुत से लोगों को मरने को छोड़ दिया जाए । उन्होंने कहा कि पिछले एक सदी में सर्प दंश के इलाज की दिशा में सबसे कम काम हुआ है । न तो एंटी वेनम के सुरक्षित,सुलभ और प्रभावी तरीके से हर व्यक्ति तक पहुंच ही संभव हो पाई है । जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है । यह एक अविश्वसनीय चुनौती है । श्री टर्नर ने बताया कि पिछले एक दशक में सर्प दंश के लिए अनुसंधान में लगभग नहीं के बराबर निवेश हुआ है । 
उन्होंने कहा कि दुनिया के करीब ६० फीसदी जहरीले सांपों की  एंटी वेनम मौजूद है । लेकिन एक एंटीवनेम दूसरी तरह के सांपों के लिए काम नहीं करता है । यहां तक कि जिस सांप के खिलाफ एंटीवेनम भारत में इस्तेमाल किया जाता है उसके लिए अफ्रीका में किसी दूसरे एंटीवेनम की जरूरत हो सकती है । 
मेडेकिंस सैंस फ्रंटियर्स एक्ससे कैपेन में एक उपेक्षित उष्णकंटिबंधीय रोग के सलाहकार जुलियन पोटेट ने कहा कि सांप भिन्न-भिन्न है । कई प्रजातियां ऐसी है जिनका एंटीवेनम मुश्किल से बन जाता है । डॉक्टर और नर्स को उनके लिए अपने पास मौजूद एंटीवेनम पर भरोसा नहीं रहता । उन्होंने कहा, मैं हाल ही में केन्या में था । डॉक्टर एक केस में एंटीवेनम इस्तेमाल करने से इस लिए डर रहे थे कि कही उसके साइड इफेक्ट ने हो जाए । 
पृथ्वी धुरी पर क्यों घूमती है ?
पृथ्वी केअस्तित्व में आने से लेकर अभी तक वह लगातार अपनी धुरी पर घूम रही है। इसके घूमने से ही हम रोज सूर्योदय और सूर्यास्त देखते हैं । और जब तक सूरज एक लाल दैत्य में परिवर्तित होकर पृथ्वी को निगल नहीं जाता तब तक ऐसे ही घूमती रहेगी।  लेकिन सवाल यह है कि पृथ्वी घूमती क्यो है?
      पृथ्वी का निर्माण सूर्य के चारों ओर घूमने वाली गैस और धूल की एक डिस्क से हुआ। इस डिस्क में धूल और चट्टान के टुकड़े आपस में चिपक गए और पृथ्वी का निर्माण हुआ । जैसे-जैसे इसका आकार बढ़ता गया, अंतरिक्ष की चट्टानें इस नए-नवेले ग्रह से टकराती रहीं और इन टक्करों की शक्ति से पृथ्वी घूमने लगी। चूंकि प्रारंभिक सौर मंडल में सारा मलबा सूर्य के चारों ओर एक ही दिशा में घूम रहा था, टकराव ने पृथ्वी और सौर मंडल की सभी चीजों को उसी दिशा में घुमाना शुरू कर दिया । 
   लेकिन सवाल यह उठता है सौर मंडल क्यों घूम रहा था? धूल और गैस के बादल का अपने ही वजन से सिकुड़ने के कारण सूर्य और सौर मंडल का निर्माण हुआ था। अधिकांश गैस संघनित होकर सूर्य में परिवर्तित हो गई, जबकि शेष पदार्थ ग्रह बनाने वाली तश्तरी के रूप में बना रहा। 
इसके संकुचन से पहले, गैस के  अणु और धूल के कण हर दिशा में गति कर रहे थे किन्तु किसी समय पर कुछ कण एक विशेष दिशा में गति करने लगे। जिससे इनका घूर्णन शुरू हो गया। जब गैस बादल पिचक गया तब बादल का घूमना और तेज हो गया। जैसे जब कोई स्केटर अपने हाथों को समेट लेता है तो उसकी घूमने की गति बढ़ जाती है। अब अंतरिक्ष में चीजों को धीमा करने के लिए तो कुछ है नहीं, इसलिए, एक बार जब कोई चीज घूमने लगती है, तो घूमती रहती है। ऐसा लगता है कि शैशवावस्था में सौर मंडल के सारे पिंड एक ही दिशा में घूर्णन कर रहे थे। 
अलबत्ता, बाद में कुछ ग्रहों ने अपने स्वयं का घूर्णन को निर्धारित किया है। शुक्र पृथ्वी के विपरीत दिशा में घूमता है, और यूरेनस की घूर्णन धुरी ९० डिग्री झुकी हुई है। वैज्ञानिकों के पास इसका कोई ठोस उत्तर तो नहीं है किन्तु कुछ अनुमान जरूर हैं। जैसे, हो सकता है कि किसी पिंड से टक्कर के कारण शुक्र उल्टी दिशा में घूमने लगा हो। या यह भी हो सकता है कि शुक्र के घने बादलों पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव और शुक्र के अपने कोर व मेंटल के बीच घर्षण की वजह से ऐसा हुआ हो। यूरेनस के मामले में वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि या तो एक पिंड से जोरदार टक्कर या दो पिंडों से टक्कर ने उसे पटखनी दी है। 
ऐसा नहीं है कि सिर्फ  ग्रह ही अपनी धुरी पर घूमते हैं। सौर मंडल में मौजूद सभी चीजें(क्षुद्रग्रह, तारे, और यहां तक कि आकाश गंगा भी) घूमती हैं। 
चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी की गति में भी कमी आती है। २०१६ में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी के अनुसार एक सदी में पृथ्वी का एक चक्कर १.७८ मिलीसेकण्ड धीमा हो गया है।
पिघलते एवेरस्ट ने कई राज उजागर किए 
माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचना हमेशा से एक बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इसके शिखर पर पहुंचने का रास्ता जितना रहस्यों से भरा है उतना ही बाधाओं से भी भरा है। गिरती हुई बर्फ,उबड़ खाबड़ रास्ते, कड़ाके की ठंड और अजीबो-गरीब ऊंचाइयां इस सफर को और चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। अभी तक जहां लगभग ५,००० लोग सफलतापूर्वक पहाड़ की चोटी पर पहुंच चुके हैं, वहीं ऐसा अनुमान है कि ३०० लोग रास्ते में ही मारे गए है ं। 
पर्वतारोहियों के अनुसार अगर उनका कोई साथी ऐसे सफर के दौरान मर जाता है तो वे उसको पहाड़ों पर ही छोड़ देते हैं। तेज ठंड और बर्फबारी के चलते शव बर्फ में ढंक जाते हैं और वहीं दफन रहते हैं। लेकिन वर्तमान जलवायु परिवर्तन से शवों के आस-पास की बर्फ पिघलने से शव उजागर होने लगे हैं।
पिछले वर्ष शोधकर्ताओं के एक समूह ने एवरेस्ट की बर्फ को औसत से अधिक गर्म पाया । इसके अलावा चार साल से चल रहे एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि बर्फ पिघलने से पर्वत पर तालाबों के क्षेत्र में विस्तार भी हो रहा है। यह विस्तार न केवल हिमनदों के पिघलने से हुआ है बल्कि नेपाल में खम्बु हिमनद की गतिविधि के कारण भी हुआ है।
अधिकांश शव पहाड़ के सबसे खतर-नाक क्षेत्रों में से एक, खम्बु में जमे हुए जल प्रपात वाले इलाके में पाए गए। वहां बर्फ के बड़े-बड़े खंड अचानक से ढह जाते हैं और हिमनद प्रति दिन कई फीट नीचे खिसक जाते हैं । वर्ष २०१४ में, इस क्षेत्र में गिरती हुई बर्फ  के नीचे कुचल जाने से १६ पर्वता-रोहियों की मौत हो गई थी।
पहाड़ से शवों को निकालना काफी खतरनाक काम होने के साथ कानूनी अड़चनों से भरा हुआ है। नेपाल के कानून के तहत वहां किसी भी तरह का काम करने के लिए सरकारी एजेंसियों को शामिल करना आवश्यक होता है। एक बात यह भी है कि ऐसे पर्वतारोही शायद चाहते होंगे कि यदि एवरेस्ट के रास्ते में जान चली जाए तो उनके शव को वहीं रहने दिया जाए ।                                     
पर्वतारोहियों के लिए सुविधाएें जुटाना इतना आसान नहीं होता है । पर्वतारोहियों की सामान्य सुविधाआें के साथ उनकी विशेष समस्याआें का समाधान खोजना पड़ेगा । यह कैसे हो सकता है कि पर्वतारोहियों के  शव अनन्तकाल तक बर्फ मेंदबे रहे और कोई कदम नहीं उठाए जाए ।