नागपूजा : आस्था का दूसरा आयाम
डा.ख्ुाशालसिंह पुरोहित
सर्प प्राचीन काल से ही मनुष्य के लिए जिज्ञासा के विषय रहे है । सर्प का भारतीय संस्कृति से अनन्य सबंध है । इन्हे देवयोनि का प्राणी माना जाता है, इसलिए मंदिरों में अनादि काल से नाग देवता की पूजा की परम्परा रही है । सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमाणांे से जानकारी मिलती है कि भारत मेेंं सर्प पूजा की परम्परा ६००० वर्ष पुरानी है। सिंधु घाटी की गुफाआें पर सांपो की विभिन्न आकृतियां खुदी हुई है, जिसमे सर्प को देववृक्ष शमी की रक्षा करते हुए अंकित किया गया है । वैदिक काल में भी सर्र्प पूजा होती थी। सर्पों को देवता के रूप में मान्यता तथा उनके प्रति पूजा का भाव सभी धर्मोंा में है । भारतीय लोक कथाआंेे, धर्म एवं कला के क्षेत्र में सापों का प्रमुख स्थान है । मनुस्मृति में सांपों का वर्णन है, वैदिक साहित्य, पुराण, महाभारत, चरक संहिता और सुश्रुत संहिता आदि ग्रंथों मेंे नागों का वर्णन मिलता है । पुराणों मे कहा जाता है कि यह पृथ्वी शेषनाग के फ न पर स्थित है । हमारे देश में नागपंचमी, अनंत चतुर्दशी, भाद्रपद कृष्ण अष्ष्टमी और भाद्र पद शुक्ल दशमी सर्पोे की पूजा के विशेष दिन होते है । भारतीय संस्कृति में संाप को स्वास्थ्य, भाग्य, बुघ्दि एवं अमरत्व का प्रतीक माना गया है । पुराणोें मे ऐसी अनेक कथायें है जो सापों के अद्भुत स्वरूप से परिचय कराती है । नागपचंमी हमारे देश में सर्प के प्रति लोक-आस्था का पर्व रहा है । इस दिन नागपूजा के लिए घर के मुख्य द्वार पर गोबर के द्वारा नागोें का रूप बना कर या गोबर के स्थान पर हल्दी या चंदन से चित्र बनाकर अथवा सोना चांदी की धातु की मुर्ति की दही, दुर्वा, कुश, गंध, दूध, पंचामृत, पुष्प, घी, फल और खीर के द्वारा नागोें की पूजा की जाती थी । संाप सरिसृप वर्ग का प्राणी है, संापो का विस्तार प्राय: पुरी दुनिया मंे है । उतर एवं दक्षिण ध््राुव, ग्रीन लैड, न्युजीलैड एवं मेडागारकर आदि कुछ क्षेत्रों को छोडकर सांप सारे संसार मंे पाये जाते हैै । हमारे देश मंे ये घने जंगलो, ख्ेातो, अमराइयों, बगीचोेें, ग्रामीणो परिवेश मंे लकडियों एवं कंडो के ढेरो तथा मानव-बसाहट के आसपास मिलते है। नदी-नालो,नहरो व तालाबो के समीप नमीयुक्त स्थान तथा अनाज के गोदाम सर्पोे के प्रिय वास स्थल है । सर्प के मुख्य आहार चुहे, मेंढक, पक्षी, छिपकलिया, अन्य छोटे संाप पक्षियोें के अंडे तथा छोटे कुतरने वाले प्राणी है । संाप अपने भोजन को धीरे-धीरे निगलता है । यह प्रकृ ति व पारिस्थितिक संतुलन बनाये रखने मेें बहुत ही उपयोगी प्राणी है । सभी संाप जहरीले नही होते लेकिन मनुष्य संाप को अपने काल के रूप में देखता है । मनुष्य का संाप से मनौवेज्ञानिक डर सदियोें पुराना है जबकि सांप मनुष्य का मित्र है और हमेशा मनुष्य से डरता रहा है । सर्प आज भी एक सीधा-सादा सरीसृप है । मनुष्य को देखते ही उसकी पहली प्रतिक्रिया सुरक्षित स्थान की ओर भाग जाने की होती है । सर्पदंश के प्रकरणों मेें मनुष्य के प्रति विष का प्रयोग संाप केवल आत्मरक्षार्थ ही करता है । अपनी प्राणरक्षा के लिये जहर का धारण करना ही मानव जाति से उसके बैर का प्रमुख कारण है । सर्प के शत्रुआंे में मोर, गरूड, बाज व नेवला प्रमुख है, लेकिन सबसे बडा शत्रु मनुष्य है । कई कपोलकल्पित और अवैज्ञानिक बातों ने सर्प को जनमानस मेें भयंकर आंतक का पर्याय प्रचारित कर रखा है । सर्प बदला लेता है, यह दूध पीता है, बीन की धुन पर नाचता है, नाग इच्छाधारी होता है आदि अनेक निराधार एवं अवैज्ञानिक मान्यताओ पर आज भी लोग सहज ही विशवास कर लेते है दूसरी और पूजा की पंरपराआें में अनेक लोग सांप को दुध पिलाने और कंकु-गुलाल आदि सामग्री से पूजा करके सांप के जीवन के साथ खिलवाड़ कर अपने को सर्प भक्त मानते है वर्तमान मंे बरसात के दौरान श्रावणमास की शुक्लपंचमी के दिन नागचपंचमी को सर्प की पूजा होती है । नागपंचमी से एक-दो दिन पहले से ही सपेरे गली-मोहल्लो में लोगों के घरांे पर नाग दर्शन के लिये जीवित सर्प लेकर आते है , हर घर पर सर्प की पूजा होती है जहाँ सर्प को मस्तक पर गुलाल लगाया जाता है, गृहणियां अपने हाथो से सर्प को दूध पिलाती है । एक सर्वेक्षण मे बताया गया कि प्रति वर्ष नागपंचमी की पूजा के कारण देश भर मेंएक लाख सर्प मर जाते है । इसमेंसे कुछ तो पकड़ने के और परिवहन के दौरान मर जाते है । लेकिन अधिकांश सर्पोंा की मृत्यु का कारण उन्हे दूध पिलाना है । दूध सर्प का आहार नही है जब उनके मंुह मंे जबर्दस्ती दूध डाला जाता है तो वह फेंफड़ों मंे पहँुच जाता है । दूध के कारण फे फडो मंे संक्रमण एवं दम घुटने से अधिकंाश सर्पो की जीवन लीला समाप्त् हो जाती है। इस प्रकार धार्मिक विश्वास के कारण की जाने वाली यह पूजा सर्प हत्या का कारण बन रही है । देश में पर्यावरण प्रेमी सगंठन निरन्तर इस बात का प्रचार कर रहे है कि लोग नागपंचमी के दिन जीवित सर्प के बजाय उसकी प्रतिमा या चित्र की पूजा करे । लेकिन आज भी बहुसंख्यक लोग जीवित सर्प की पूजा करते है,उन्हे शायद यह पता नही है कि उनकी पूजा ही उनके आराघ्य के जीवन को संकट मंे डाल रही है । इसमें शासकीय-सामाजिक सगठनांे, मीडिया और पर्यावरण प्रेमी नागरिको को जन सामान्य के बीच सर्प के बारे मंे भ्रांतियों का निवारण करते हुए सत्य से अवगत कराने के प्रयास होने चाहिये। जन सामान्य को इस बात से भी अवगत कराना होगा कि सर्प को भारतीय वन्य प्राणी सरक्षण अधिनियम १९७२ की अनुसुची दो के भाग दो मे रखा गया है । वन्य प्राणी अधिनियम में किसी भी वन्य प्राणी को धार्मिक अनुष्ठान पूजा या मनोरंजन में इस्तेमाल करने की अनुमति नही है । नागपंचमी के दिन सर्प पकड़कर लाने वाले और जीवित सर्प की पूजा कर उसकी जान जोखिम मंे डालने वाले दौनों ही व्यक्ति इस कानून का उल्लंघन करते है, जो कि दंडनीय अपराध की श्रेणी मंे आता है । देश मे वन्य प्राणियों के संरक्षण और सुरक्षा के अनेक प्रयास हो रहे है , परन्तु सर्पोंा के संरक्षण और सुरक्षा की दिशा में कोई खास पहल नहीं हो रही है । सर्प की वैज्ञानिक जानकारी ओर कानूनी संरक्षण मे प्रयासों से जन सामान्य परिचित होगा तभी सदियो से चली आ रही पूजा परम्पराओ में सामाजिक परिवर्तन संभव हो सकेंगें इन परिवर्तनो से हम न केवल सांपो को सुरक्षित रख पायेगे अपितु हमारे पर्यावरण को भी सुरक्षित रखने मे सफल होगे । ***
सत्रह हजार प्रजातियंा विलुप्ति के कगार पर
पिछली पांच शताब्दियोें में आठ सौ से अधिक वन्य जीव और वनस्पति की प्रजातियंा लुप्त हो चुकी है, जबकि सत्रह हजार प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर हैैं । यह बात प्रकृ ति संरक्षण के लिए काम कर रही अतंरराष्ष्ट्रीय सस्थां इंटरनेश्नल यूनियन फॉर कन्जर्वेेशन ऑफ नेचर `आईयूसीएन' की एक रिपोर्ट मेें कही गई । रिपोर्ट के अनुसार आंकड़ों को विश्लेषण करने पर पता चलता है कि अतंरराष्ट्रीय समुदाय को सन २०१० तक जैव विविधता को जीवित रखने और उसे मजबुत करन का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाएगा । सन २०१० में विभिन्न देशों की सरकारों ने मिलकर २०१० तक यह लक्ष्य हासिल करने का संकल्प लिया था । यह विश्लेषण २०१० के लिए निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के लिए निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के लिए वितीय और पर्यावरण संबंधी सकंट के बीच सम्पर्क का पता लगाने के निए जारी किया गया हैं ।