शनिवार, 11 जुलाई 2009

७ कविता



आज रातभर बरसेे बादल


- डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन






साँझ ढली, नभ के कोने में कारे मेघ छाए
ये विरहनि के ताप, काम के शाप गरज, इतराए,
दीप छिपाए चली समेटे
निशा दिशा का आँचल आज रातभर बरसे बादल ।
अमराई अकुलाई, सिहरी नीम
हँस पड़े चलदल ।
मुखरित मूक अटारी शापित यक्ष हो उठे चंचल ।
गमके मन्द्र मृदंग, बज उठी
रिमझिम-रिमझिम पायल
आज रातभर बरसे बादल ।
खिड़की से झीनी-झीनी
बौछार बिखरती आई,
अनायास ही किसी निठुर की-
याद दृगोंे में छाई ।
बहा आँख का काजल
आज रातभर बरसे बादल ।***

८ पर्यावरण परिक्रमा

दिल्ली में प्लास्टिक की थैली पर रोक
देशकी राजधानी में यदि कहीं प्लाास्टिक की थैली दिख गई तो अब तौ डेढ़ साल की सजा व १ लाख तक जुर्माना भी हो सकता है दिल्ली सरकार ने स्थानीय निकाय के अधिकारियो को यह अधिकार दे दिया है कि प्लास्टिक की थैली का प्रयोग करने वाले दुकानदारों, होटलों और अस्पताल के चालान बनाएँ । यह अधिकार संबंंधित अधिकारियो को दिये गए । इस अभियान की शुरूआत पुरानी दिल्ली से होगी, जहाँ प्लास्टिक के गोदाम हैं। अधिकारियों का दल चालान बनाएगा और अर्थदंड दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) तय करेगी । ६ माह पहले ही दिल्ली सरकार ने पॉलीथिन प्रतिबंध की अधिसूचना जारी का दी थी। पर्यावरण सुरक्षा कानुन के तहत सभी स्थानों पर इसके उपयोग को प्रतिबंधित किया था । तापस एनजीओ चलाने वाले वीके जैन ने प्लास्टिक के उत्पादों पर रोक के लिए जनहित याचिका लगा रखी है। इसमें कहा गया है कि यह प्रकृति के खिलाफ है । इससे नालियाँ अवरूद्ध होती हैं, जो पशु इनका सेवन करते हैं, वे मारे जाते हैं, इसलिए केवल कानून के अमल से ही इसे रोका जा सकता है ।
सवा लाख पुराने जीवाणु को फिर सक्रिय करने में सफलता !
जमीन के तीन किलोमीटर नीचे से निकाले गए हिमखंड में बैक्टीरिया पाए गए थे। वैज्ञानिकों को ऐसे बैक्टीरिया या जीवाणुआें को सक्रिय करने में सफलता मिली है जो कि करीब १,२०,००० वर्षो से निष्क्रिय पड़े थे । पूरा किस्सा ये है कि ग्रीनलैंड में ड्रिलिंग के दौरान करीब तीन किलोमीटर की गहराई से निकाले गए हिमखंड में दो अलग-अलग प्रजातियों के जीवाणु मिले थे । हिमखंड के काल के हिसाब से दोनों जीवाणुआें को भी करीब एक लाख २० हजार वर्ष पुराना माना गया है । सामान्य जीवाणुआें से करीब ५० गुना छोटे आकार के इन दोनोंजीवाणुआें को बहुत ही धीरे-धीरे सामान्य माहौल में लाया गया । इस प्रक्रिया में महीनों लगे। एक बार सक्रिय होते ही बैंगनी रंग वाले इन जीवाणुआें ने अपना कुनबा बनाना शुरू कर दिया । यानी ये पूरी तरह सामान्य जीवन जीने लगे । इस चमत्कारिक प्रयोग की रिपोर्ट इस हफ्ते एक अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान जर्नल में छापी है । इस अध्ययन की अगुआई करने वाली वैज्ञानिक जेनिफर लवलैंड कर्ट्ज के अनुसार इस शोध से इस संभावना को बल मिलता है कि मंगल ग्रह या बृहस्पति ग्रह के चाँद यूरोपा के अति-ठंडे माहौल मेंे भी कोई न कोई सूक्ष्म जीव मौजूद हो सकता है । बैक्टीरिया से जुड़ा एक अन्य अध्ययन लंदन में चल रहा है । वैज्ञानिक इस बात की पड़ताल कर रहे हैं कि क्या बैक्टीरिया मौसम को प्रभावित करते हैं ? इस बात के सबूत मिल है कि कुछ खास तरह के जीवाणु की बरसात कराने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । दरअसल, बरसात होने के लिए जरूरी है कि बादलों में मौजूद जलकण जम सकें। जलकण शून्य सेल्सियस तापमान पर ही जम जाए, ये जरूरी नहीं, बल्कि ये उसमें मौजूद अशुद्धियों पर काफी निर्भर करता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि स्यूडोमोनस सिरिन्गे नामक बैक्टीरिया की मदद से जलकण को अपेक्षाकृत ऊँचे तापमान पर हिमकण में बदलना संभव है ।
विकास के साथ बढ़ रही ई-कचरे की समस्या
पर्यावरण को लेकर अभी भी हमारे देश में पूरी तरह जागरूकता नहीं आई । प्रदूषण जैसे अहम् मुद्दे विकास के नाम पर पीछे छुट गए हैं । ऐसे में ई (इलेक्ट्रॉनिक) कचरे के बारे में देश में बिलकुल भी जानकारी नहीं है । न ही इस दिशा में कोई कदम उठते नजर आ रहे हैं । इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से बाजार भरे पड़े है । तकनीक में हो रहे लगातार बदलावों के कारण उपभोक्ता भी नए-नए इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से घर भर रहे हैं । ऐसे में पुराने उत्पादों को वह कबाड़ में बेच देते है और यही से आरंभ होती है ई-कचरे की शुरूआत । ई-कचरे को लेकर कई विकसित देशों में सख्त नियम कानून बनाए हैं तथा उस पर अमल भी आरंभ हो चुका है। जबकि विकासशील देशों में अभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेसल कर्न्वेशन के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक कचरे संबंधी नियमों का पालन होता है । चीन ने अपने यहाँ पर ईकचरे आयात करने पर रोक कुछ महीने पहले ही लगाई है । हांगकांग में बैटरियाँ व केथोड रे ट्यूब का आयात नहीं किया जा सकता । इसके अलावा दक्षिण कोरिया, जापान व ताईवान ने यह नियम बनाया है कि जो भी कंपनियाँ इलेक्ट्रोनिक उत्पाद बनाती हैं वे अपने वार्षिक उत्पादन का ७५ प्रतिशत रिसाइकल करें । वहीं भारत की बात की जाए तो अभी ई-कचरे के निपटान व रिसाइकलिंग के लिए कोई प्रयास शुरू नहीं हुए । देश में तेजी से बढ़ रही कम्प्यूटर व इलेक्ट्रोनिक उपकरणों की संख्या से भी अब इस तरह के नियम कायदे बनाना जरूरी हो गया है । क्योंकि, इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातु से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं । इन्हें अलग-अलग करने में काफी समय भी लगता है। इस दौरान जो लोग यह काम करते हैं उन्हें भी नुकसान होने की आशंका रहती है। विकसित देशों में अमेरिका की बात करें तो वहाँ प्रत्येक घर में वर्षभर में छोटे-मोटे २४ इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदे जाते हैं । इन पुराने उपकरणों का फिर उपयोग नहीं होता । इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में कितना इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकलता होगा। यह तथ्य भी देखने में आया है कि केवल अमेरिका में ही ७ प्रतिशत लोग प्रतिवर्ष मोबाईल कबाड़ में बेचे जाते है । इससे भी ई-कचरे की समस्या तेजी से बढ़ रही है । इस कचरे से निपटने के लिए संपूर्ण तंत्र को विकसित कर अमल करना होगा। विकसित देश अपने यहाँ के इलेक्ट्रॉनिक कचरे को गरीब देशों को बेच रहे हैं । विकसित देश यह नहीं देख रहे कि गरीब देशों में ई-कचरे के निपटान के लिए नियम-कानून बने हैं या नहीं । इस कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसमें ३८ अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं जिनसे काफी नुकसान भी हो सकता है । जैसे पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर मेंे लगी सीआरटी (केथोड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है । इस कचरे में लेड, मरक्यूरी, कैडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं । अमेरिका के बारे में यह कहा जाता है कि वह अपने यहाँ ८० प्रतिशत ई-कचरा चीन, मलेशिया, भारत, कीनिया तथा अन्य अफ्रीकी देशों में भेज देता है। भारत सहित कई अन्य देशों में हजारों की संख्या में महिला पुरूष व बच्च्े इलेक्ट्रोनिक कचरे के निपटान में लगे हैं । इस कचरे को आग में जलाकर इसमें से आवश्यक धातु आदि निकाली जाती हैं । इसे जलाने के दौरान जहरीला धुआँ निकलता है जो कि काफी घातक होता है । भारत में दिल्ली व बंगलुरू ई-कचरे को निपटाने के प्रमुख केन्द्र है ।
शहरों में बढ़ते वाहनों की समस्या
मुंबई के एक गैर सरकारी संगठन की इस माँग पर उन सभी शहरों को विचार करना चाहिए कि वाहनों की संख्या सीमित की जाए । वाहनों का उत्पादन अपनी गति से चल रहा है । बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाआें से मिलने वाले आसान कर्ज ने वाहन खरीदना आसान बना दिया है । सोच यह हो सकती है कि वाहनों के उत्पादन पर ही नियंत्रण क्यों न लागू किया जाए जो समस्या की जड़ है । दूसरा तरीका यह हो सकता है जो मुंबई में उच्च् न्यायालय ने व्यक्त किया है । न्यायालय ने इस संभावना का पता लगाने के निर्देश प्रशासन को दिए हैं कि सप्तह में एक दिन कारों को सड़क पर न आने दिया जाए । इस विकल्प से वायु प्रदूषण और यातायात की विकराल होती समस्याआें से कुछ हद तक छुटकारा तो मिल सकता है, लेकिन पूरी तरह नहीं । सड़कों की चौड़ाई बढ़ाकर बढ़ते वाहन यातायात की समस्या से पीछा छुड़ाना एक सीमित विकल्प जरूर है परंतु इसमें कई पेचीदगियाँ भी हैं । सड़कों की चौड़ाई बढ़ाने के लिए बरसों पुराने और वैध निर्माणों को तोड़ा जाना जन आक्रोश के साथ-साथ अनेक मानवीय पहलुआें को भी न्यौता देता है । फिर वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या ऐसे प्रयासों को कुछ ही समय के बाद निरर्थक साबित कर देती है । फिर इतना विनाश क्यों ? जाहिर है कि सड़कों पर वाहनों की तेजी से बढ़ती संख्या पर नियंत्रण करने के लिए वाहन मालिकों, वर्तमान और भावी दोनों की मदद लेना ही कारगर हो सकता है । लेकिन वाहनों का उत्पादन फिर भी एक सवाल बना रहेगा । स्थिति काफी जटिल है । इंदौर में ही तेरह लाख से अधिक वाहन होने का अनुमान है । प्रति व्यक्ति एक वाहन की स्थिति आने में कितना समय शेष है इसका अनुमान लगाने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करना पड़ेगी। जबकि वास्तविकता यह है कि वाहनों की पार्किग के लिए जगह अभी ही काफी कम पड़ने लगी है । ***

९ प्रदेश चर्चा

उ.प्र. : धरती के गर्भ में हलचल
- डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल
ग्लोबल वॉर्र्मिंगं एवं जलवायु परिवर्तन का मुद्दा सुर्खियों में चल ही रहा है । अब मौसम का मिजाज बदल गया और ऋतुचक्र्र गड़बड़ा गया । बादल भी ज्यादा ही झमाझम बरसे तो टूट गये कई दशकों के रिकार्ड । सूखी धरती में जब अत्यधिक मात्रा में पानी पहुँचा तो उसके आँचल में पड़ने लगी है दरार । उत्तर प्रदेश के कईजिलो में जमीन दरकने की अनेक घटनाएं प्रकाश में आई । कही-कही तो दरारें इतनी अधिक चौड़ी हो गई कि वे खाई बन गई। प्रभावित क्षेत्रो के लोग भयभीत हो उठे तथा अपने क्षेत्रों से पलायन करने लगे । बुंदेलखण्ड इलाके में दरारें कुछ अधिक गहरी हैं ।इसके अलावा हमीरपुर, इटावा, जालौन, लखनऊ, इलाहाबाद , रायबरेली तथा कानपुर के देहाती परिक्षेत्रों मे भी यह भू-धंसान हुआ है । अब जिला मुरादाबाद की तहसील चन्दौसी से सटे बदायूँ जिले के गाँव में जाफरपुर के मजरा धीमरपुरा में धरती फट गई जहाँ गेहूँ की फसल से खाली हुए खेत पर ६२ फुट लम्बी तथा एक फुट से तीन फुट तक चो़ड़ी दरार बन गई है । दरार की गहराई १० फुट से भी अधिक है । यद्यपि कुछ लोग घटना को दैवीय आपदा समझ कर मनौती मना रहे है । किन्तु वैज्ञानिक तथ्य कुछ और ही बयाँ करते हंै । धरती धंसने की घटनाआें से उत्पन्न चिंता में उत्तर प्रदेश सरकार ने आपात बैठक बुलाकर स्थिति पर विचार विमर्श किया क्योंकि भू-धंसान की घटनाओ के कारण दिल्ली-हावड़ा रेल टै्रक तथा उसके साथ-साथ डली बरौनी तेल पाइप लाइन भी खतरे की सीमा में आ गई हैं । यद्यपि सरकार की तरह से कोई प्रतिकिया तत्काल ही नही मिली है किन्तु इस भू-गभीर्य समस्या पर गहन चर्चा एवं चितां चल रही है । यद्यपि कोई भी प्राकृतिक हलचल एवं आपदा वस्तुत: प्रकृति की स्वनियामक सत्ता अथवा उसकी विवश्ता के रूप में ही सामने आती है, फिर भी उन तथ्यों की अनदेखी नहीं की जा सकती है, जो ऐसी विकट समस्याआें के कारण बनते है। धरती धंसने और जमीन दरकने की इन घटनाओ के पीछे भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन ही मुख्य है । हाल के वर्षो में लगातर सूखा पड़ने और जल ससंाधनो के अतिशय दोहन से भूजल का स्तर काफी नीचे चला गया है जो एक से तीन फुट प्रतिवर्ष की दर से नीचे जा रहा है । शासन की तरफ से आकलन कर अनेक इलाको को ``डार्क जोन'' घोषित भी किया जा रहा है फिर भी चोर्यवृत्ति से भूजल का दोहन जारी है । यही तो हमारी धरती की लाचारी है । भू-जल निचले स्तर पर पहुँचन के कारण धरती का रस रूपी जल सूख जाता है । मिट्टी की नमी खत्म होती है वह कही भुर भुरा उठती है तो कहीं अतिशय सख्त होती है । मिट्टी में मृदा कणों को जोड़े रखने की ताकत भी कम हो जाती है । सामान्य स्थिति में जहाँ सरसता रहती थी वहॉ अब जल के अभाव मेें जहरीली गैसे भर जाती है । धरती को जहरीली बनाया है अंधाधु्रंध इस्तेमाल होने वाले रासायनिक उर्वरको ने तथा कीटनाशको ने । जब वर्षा का जल धरती में पहुँचा तो गैस उसका भार सह नहीे पाई और धरती तोड कर बाहर आईं। कुछ ऐसा ही बयाँ किया है भूगोल विद् एवं कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा । दरअसल धरती फटने की धटनाआें के पीछे कुछ कारणों का सम्मिलित प्रभाव परिलक्षित लगता है । जो कुछ आपदा जनित कारण प्रकाश में आये है उनमें भू-कंपीय लहरों का उठना तथा भू-गर्भीय प्लेटों का विवर्तन भी है क्योकि प्रभावित क्षेत्र भू-कम्प की दृष्टि से भी अत्यधिक संवेदनशील है । जलवाष्प गैसों का दबाव भी एक बड़ा कारण है तथा धरती पर भारी निमार्ण और भूस्खलन भी इसके कारकों मेंे शुमार हैं ।अधिकतम जल दोहन से विशिष्ट प्रकार की भूगर्भीय हलचलें धरती मेंे पैदा होती है । रेडियो धर्मी तत्वों से बनी संवहनी धाराआें के साथ-साथ धरती की गर्भीय ताप जनित ज्वाला भी जिम्मेदार है जो विस्फोटक स्थिति में आने से पूर्व अपने पार्श्व प्रभाव दिखलाती है । जानकारो के अनुसार पहले केवल काली मिट्टी वाले खेतो में जमीन फटने की घटनाआेंे की पुनरावृत्ति होती थी किन्तु अब तो यह भयाभय धटनाएं हर प्रकार की मिट्टी वाली धरती पर व्यापकता से हो रही है । यद्यपि धरती धंसाव की घटनाआें के कारणां को आवश्यक जाँच के बाद ही खुलासा होगा किन्तु पुनरावृत्ति रोकने के उपाय केे रूप में भूजल ्रदोहन पर तत्काल रोक लगानी होगी क्योकि यदि हम लोग अभी न चेते है तो परेशानियाँ और भी बढ़ जायेंगी । ``डार्क जोन'' में घोषित आपदाग्रस्त इलाको में सरकारी नलकूपों के लगाये जाने पर तो रोक लग चुकी है किन्तु निजी स्तर पर बोरिगं पर अभी तक कारगर अंकुाश नहीं लगा हैं। बोरिंग कम करने के बजाये उसे और भी गहराई तक किया जा रहा है तथा मशीन की लम्बाई बढने लगे हंै । जल का पुर्नभरण काफी कम है तथा मशीन की लम्बाई बढानें लगे हैं । जल का पुर्नभरण काफी कम है यदि वाटर रीचार्ज हो तो परिक्षेंत्र ड्राई एण्ड डार्क से बाहर निकले । एक बात और जो भू-धंसाव के सम्बध में दिखलाई दे रही है कि यह घटनाएं नदियों के आसपास अधिक हो रही है । बदायू जिले के धीमरपुरा की घटना चन्दौसी के पास सोत नदी के समीपवर्ती खेत में हुई तथा इसके आलवा बादयूँ का ही एक और क्षेत्र जो चन्दौसी के समीप है और अरिल नदी के किनारे है वह है आसफपुर जहाँ गन्ने के खाली खेत में भूगर्मिक हलचलों से १० वर्ग फुट ओर ३० वर्ग फुट के ग े बन गये इन ग ों के आसपास के दर्जन भर से अधिक यूकिलिप्टस के पेड़ भी धराशायी हो गए । सोत नदी एवं अरिल नदी दोनों ही अपनें अस्तित्व बनाये रखने को संघर्ष कर रही हैं इनमें जल स्त्रोत सूख जाने के कारण सोत नदी लगभग सुप्त् हो चुकी है तो अरिल नदी प्रदूषण की झेलती हुई खेतों में ही समा कर दम तोड़ रही है। एक अन्य और घटना जिला मुरादाबाद के कंुदरके रायब नगला गाँव में मक्का के खेत में प्रकाश में आई हैं जहाँ आधा दर्जन स्थानों पर दो से तीन फिट गहरे ग े दिखलाई पड़े है यहाँ भी यूकेलिप्टिस ही इन ग ो के आसपास खड़ा है । धरती के अंदर बहुत कुछ घटित होता है । जब प्रवेशित चट्टानों में भरा जल सूख जाता है तो भूगर्भ में रिक्तता उत्पन्न होती है जमीन खोखली एवं पोली होने लगती है। इस दरम्यान अधिक वर्षा तथा ऊपरी दबाव एवं गैसीय रिसाव से धरती धंस जाती है और प्रलय आती है । धरती धंसाव के आसन्न संकट के संदर्भ में निष्कर्षत: यही कहा जा सकता है कि हम प्रकृतिपरक बनें । प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में संयम बरतें । धरती एवं प्रकृति से अन्य उपादानित उपहारों को त्याग के साथ ग्रहण करें अन्यथा यूँ बारम्बार धरती के फटने से हमारी श्री समृद्धि भी धरती में समा जायेगी। ***

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

जुलाई आवरण कथा

सूर्य ग्रहण के प्रमुख पड़ाव
- माधव केलकर
२२जुलाई २००९ को एक बार फिर भारत के काफी बड़े हिस्से में पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखाई देगा । विछले तीस वर्षो मंे भारत में पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखने का यह कम- से-कम चौथा मौका है अब भारत में भी सूर्य ग्रहण देखने के लिए लोग दूरदराज़ के इलाको तक पँहुचते हंै । विशेष तरह से चश्मे, कैमरे और टेलिस्कोप से लैस होकर लोग ग्रहण का लुत्फ उठाते हैं,बिलकुल मेले जैसा माहौल होता है । इस दौरान अखबारों, पत्रिकाओं और विविध चेनलों पर सूर्य ग्रहण को काफी तव्वजो दी गई है । काफी पहले से पूर्ण सूर्य की पट्टी दर्शाते हुए नक्शे, ग्रहण लगने का समय, पूर्णता का समय, उन खास जगहों के नाम जहाँ से पूर्ण ग्रहण दिखाई देगा जैसी ढेरों जानकारियाँ हाज़िर कर दी जाती है । आम जनता के लिए पूर्ण सूर्य ग्रहण में मज़ा है, कौतुहल है: वही वैज्ञानिक बिरादरी के लिए सूर्य ग्रहण कई समस्याओं के समाधान तलाशने का ़़ ज़रिया । यह सब इतना सहज -सा दिखता है कि ऐसा लगता है कि सूर्य ्रग्रहण विविध पड़ाव पार करके यहाँ तक पहुँचा होगा । यदि सूर्य ग्रहण के इतिहास पर नज़र डालंे तो समझ में आता है कि १७ वीं सदी तक ग्रहण की तारीख और समय की गणनाआें के बार मेंे कई लोगों ने काफी महारत हासिल कर ली थी और पृथ्वी-सूर्य-चाँद की गतियों से भी वे वाकिफ थे । लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि पिछले तीन सौ सालों में सूर्य ग्रहण को लेकर हमारी सोच में काफी बदलाव आया है । इस दौरान सिर्फ छाया के खेल के रूप में न देखते हुए सूर्य ग्रहण को विज्ञान की अन्य शाखाआें के साथ भी जोड़कर देखा जाने लगा । खगोल विज्ञान जैसे विषयों में वैचारिक क्रान्ति लाने में भी सूर्य ग्रहण ने महती भूमिका निभाई है । आइए, पिछले तीन सौ वर्षो में सूर्य ग्रहण के विविध पड़ावों पर एक नज़र डालते हैं । दक्षिणी इग्ंलैड में १७१५ को दिखाई देने वाला पूर्ण सूर्य ग्रहण विविध पड़ावों में से पहला प्रमुख्स पड़ाव था । इस ग्रहण से पहले सूर्य ग्रहण के नक्शे बनाने या प्रकाशित करने की कोई परम्परा नहीं थी । अपवाद स्वरूप १६२६ में जॉन स्पीड और १७०० में कारेल एलार्ड ने छोटे चित्रों के माध्यम से धरती के ग्लोब पर कुछ महाद्वीप दिखाकर, सूर्य ग्रहण वालें इलाको को चिन्हित करने का प्रयास किया था । इसलिए कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम १७१५ के सूर्य ग्रहण के पहले एडमण्ड हैली (जिन्हे हम प्रमुखत: हैली पुच्छल तारे के सन्दर्भ मेंयाद करते हैं )ने सूर्य ग्रहण का नक्शा जारी किया । इस नक्शे में चाँद की छाया इग्लैंड के किस-किस हिस्से से होकर गुज़रेगी,पूर्ण सूर्य ग्रहण की पट्टी की चौथाई, पट्टी में कितने मिनट चाँद सूर्य को ढाँककर रखेगा जैसी सूचनाँए भी दी गई थीं ।हैली के इस नक्शे में पूर्ण सूर्य ग्रहण की पट्टी (चाँद की मुख्य छाया)तो बनी थी,किन्तु खण्ड ग्रहण दिखने वाली पट्टी (चाँद की उपछाया)या इलाकों को नहीं दिखाया गया था ।लेकिन यह तो बस शुरूआत ही थी । १७१५ का खग्रास सूर्य ग्रहण इंग्लैंड में अधिकतम तीन मिनट दिखाई देने वाला था ।हैली ने ग्रहण के दौरान अपने नक्शे की जाँच की व्यवस्था भी की थी उन्होंने लगभग एक दर्जन स्थानौं पर चाँद की मुख्य छाया की चौ़़डाई का अन्दाज़ लगाने और मुख्य छाया में कितने मिनट चाँद सूर्य को ढाँककर रखता है इसे मालूम करने की कोशिश भी की थी । यह पहला मौका था । जब ग्रहण के बारे में इस तरह के ब्यौरे इकट्ठ किए जा रहे थे ।इस ग्रहण के दौरान इकट्ठ जानकारी से एडमण्ड हैली को समझ में आया कि इंग्लैंड में जहाँ-जहाँ पूर्ण सूर्य ग्रहण की पट्टी की जो चौड़ाई उन्होंने निर्धारित की थी उसमें कुछ किलोमीटर का अन्तर आ रहा था, साथ ही चाँद की मुख्य छाया वाली पट्टी के विविध स्थानों पर पूर्ण ग्रहण दिखाई देने की अवधि का जो पूर्वानुमान उन्होंने लगाया था,उसमें भी सुधार की जरूरत है । खैर,हेली ने अपने नक्शों में सुधार तो किया ही साथ ही १७२४ के सूर्य ग्रहण के लिए नक्शा जारी किया । रॉबर्ट ब्राउन, विस्टन जैसे गणितज्ञोें ने भी ग्रहण के नक्शोें की सटीकता पर काम किया जिससे अगले पचास सालों मे इनमें काफी सुधार होते चले गए और ग्रहण सम्बन्धी सटीक नक्शे यूरोप के विभिन्न वैज्ञानिक सोसायटी की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे । जल्द ही ये नक्शे अखबारों में भी प्रकाशित होने लगे और ग्रहण सम्बन्धी जानकारियॉं आम जनता तक आसानी से पहुॅंचने लगीं । सूर्य ग्रहण के आधुनिक इतिहास में दूसरा अहम पड़ाव एस्ट्रोनॉमी में स्पेक्ट्रोस्कोपी का इस्तेमाल किया जाना है । टेलिस्कोप की खोज के बाद सौरमण्डल के ग्रहों के अलावा कई तारों का गहन निरीक्षण का पाना सम्भव हो पाया था । १७८१ मेंयूरेनस और १८४६ में नेपच्यून की खोज से टेलिस्कोप ने धाक जमा ली थी । लेकिन टेलिस्कोप की अपनी सीमाएँ थी । १८३५ में फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगॅस्त कॉम्ते ने कहा था कि आकाशीय पिण्डों के रासायनिक संघटन, उन पर पाए जाने वाले खनिजोंऔर जैविक पदार्थो की जानकारी के लिए किसी और उपकरण आदि की जरूरत होगी । ऑगॅस्त की बातों में दम था । उस समय दूर के तारों की तो बात छोड़िए सबसे पास के तारे सूर्य की रासायनिक बनावट के बारे में भी कोई खास जानकारी हमारे पास नहीं थी। १९वीं सदी में रसायन शास्त्र का सुनहरा दौर चल रहा था । नए तत्वों की खोज हो रही थी । आवर्त सारणी बनाने की कोशिश चल रही थी । न्यूटन द्वारा दिखाए गए सतरंगी स्पेक्ट्रम को देखने के लिए अब बेहतर तकनीक उपलब्ध थी । जर्मनी के फ्राउनहोफर (१७८७-१८२६) ने सूरज के सतरंगी वर्णक्रम को जब उन्नत प्रकाशीय उपकरणों से देखा तो उन्होंने पाया कि इस सतरंगी स्पेक्ट्रम में पाँच छह सौ काली लकीरें भी मौजूद हैं । उन्होंने यही प्रयोग चाँद और अन्य ग्रहों से आने वाले प्रकाश के साथ दोहराया तब भी स्पेक्ट्रम में काली लकीरें दिखाई दे रही थी । सूरज की तरह चमकदार एक और तारे सीरियस से आने वाले प्रकाश के वर्णक्रम में ये काली रेखाएँ मौजूद थी । फ्राउनहोफर ने प्रयोगशाला में निर्मित सफेद रोशनी की जाँच की तो पाया कि यह बिना काली लकीरों वाला सामान्य स्पेक्ट्रम हैं । हालाँकि फ्राउनहोफर इन काली लकीरों के बारे में कुछ खास नहीं बता पाए लेकिन उनके प्रयोगों और अवलोकन से इतना पक्का हो गया कि इन काली रेखाआें का उद्गम सूर्य से ही जुड़ा हैं । अगले३०-४० साल फ्राउनहोफर द्वारा देखी गई काली रेखाआें की कोई व्याख्या सामने नहीं आई। लेकिन सूर्य के स्पेक्ट्रम में इन गहरी-काली लकीरों को अँग्रेजी अक्षर डी से दर्शाया जाने लगा। कुछ वर्षोंा बाद पता चला कि ये डी रेखाएँ सोडियम के स्पेक्ट्रम से मेल खाती है। दो वैज्ञानिकों बुन्सन और किरचॅाफ की जोड़ी ने स्पेक्ट्रोस्कोपी के काम को आगे बढ़ाया । जल्द ही किरचॉफ ने बतया कि कोई भी तत्व जब गैस या वाष्प के रूप में हो तब वह वर्णक्रम की लगभग उन्हीं काली लकीरों को अवशोषित करता है जिन्हें वह खूद उत्सर्जित कर सकता है । किरचॉफ के इन निष्कर्षोंा से वर्णक्रम के विश्लेषण में काफी मदद मिली । साथ ही खगोल विदों को दूर के तारों या अन्य पिण्डों की रासायनिक बनावट को जानने के लिए वहाँ से कोई नमूूना लाने की ज़रूरत नहीं रह गई । बुन्सन और किरचॉफ जानते थे कि हरेक तत्व का अपना एक खास वर्णक्रम होता है - जैसे हमारे फिंगरप्रिंट । इस खासियत की वजह से किसी भी तारे या सूरज की रोशनी के वर्णक्रम की तुलना, धरती पर पहले से ज्ञात तत्वों के वर्णक्रम से करते हुए, सूरज की रासायनिक बनावट के बारे में जानकारी हासिल की जा सकती है । स्ेक्ट्रोस्कोपी की मदद से सूर्य की रासायनिक बनावट को समझने का अहम पड़ाव १८६८ का सूर्य ग्रहण था। १८६८ में भारत से दिखाई देने वाले सूर्य ग्रहण में स्पेक्ट्रस्कोपी के इस्तेमाल से सूर्य ग्रहण में स्पेक्ट्रस्कोपी के इस्तेमाल से सूर्य में मौजूद एक प्रमुख तत्व हीलियम की धरती पर उपस्थिति दर्ज नहीं हुई थी । सूरज की रोशनी में हीलियम खोजने के कुछ साल बाद हीलियम को धरती पर खोजा जा सका । आखिरकार, फ्राउनहोफर रेखाआें की उपस्थिति के बारे में बुन्सन ने बताया कि चमकीली लकीरों का प्रकाश सूरज के गरम गैस वाले हिस्से से आता है और गहरी काली रेखाएँ सूरज की बाहरी अपेक्षाकृत ठण्डे हिस्से द्वारा प्रकाश के अवशोषण की वजह से बनती है । इस दौर की एक प्रमुख घटना थी - सूर्य ग्रहण के फोटोग्राफ लेना। इससे पहले लोग ग्रहण के पलों को यादों में संजोए रखते थे । कभी-कभार ग्रहण के उन पलों का अनुभव कोई लिखकर देता था । कोई कलाकार रंग-कूची की मदद से ग्रहण को कैनवास पर उतार देता । फ्रांस के लुइस डेगुरर ने १८३९ में फोटोग्राफिक प्लेट पर तस्वीर को उभारने में सफलता हासिल की थी । जल्द ही सूर्य प्रकाश के वर्णक्रम की भी तस्वीर ली गई । १८५१ में हुए पूर्ण सूर्य ग्रहण की तस्वीरें भी खींची गई और उन्हें लंदन में प्रदर्शित किया गया । फोटोग्राफी ने खगोल की दुनिया ही बदल दी । फोटोग्राफ और स्पेक्ट्रम खगालीय शोध के प्रमुख औज़ार बन गए और प्रमाण प्रमाण के रूप में मान्य होने लगे । इसके बाद कई तारों, ग्रहों, उपग्रहों, उल्का पिण्डों, आकाश गंगा आदि की तस्वीरें हमारे पास उपलब्ध होने लगीं । सन् १८५० के बाद यातायात और संचार के साधर भी काफी विकसित हो गए थे जिसकी वजह से वैज्ञानिक बिरादरी दुनिया के किसी भी कोने में जाकर सूर्य ग्रहण देख सकती थी । आप भी यह सवाल कर सकते हैं कि जब मोटे तौर पर सूर्य ग्रहण के बारे में काफी बातें मालूम हो गई थीं तो दुनिया के कोने-कोने तक जाकर हर बार सूर्य ग्रहण देखने की ज़हमत क्यों उठाई जा रही थी ? दरअसल, सूरज किन-किन रासायनिक पदार्थोंा से बना और उसके सबसे बाहरी भाग कोरोना के बारे मंे ठोस जानकारी जुटाना अभी भी बाकी था । इसलिए वैज्ञानिक बिरादरी बहुत पहले से उन जगहों का चुनाव कर लेती थी जहाँ से पूर्ण सूर्य ग्रहण दिखेगा । स्थान का चुनाव करके भारी साजो-सामान और दल-बल के साथ वैज्ञानिक वहाँ पहुँच जाते थे और ग्रहण सम्बन्धी सूक्ष्म अवलोकन करते थे । सूरज का सबसे बाहरी हिस्सा या वायुमण्डल जिसे कोरोना कहा जाता है, वह सिर्फ पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय दिखाई देता है । इसलिए कोरोना के अध्ययन के लिए सूर्य ग्रहण एक खास मौका बनकर आता है । ग्रहण के अलावा भी सूर्य का अध्ययन किया जा सकता है । इन अध्ययनों से भी सूर्य कोरोना, फोटोस्फीयर आदि अलग-अलग भागों के तापमान, सूरज के रासायनिक संघटन और सूर्य में होने वाली रासायनिक क्रियाआें के बारे में काफी जानकारियाँ जुटाई जा सकीं । प्रकाश आकाश को मोड़ता है। २० वीं सदी में सूर्य ग्रहण को अइंस्टाइन के सापेक्षता के सिद्धांत की जाँच की प्रमुख कसौटी बनाया गया । अल्बर्ट आइंस्टाइन ने सापेक्षता के सिद्धांत में स्पेस-टाईम, गुरूत्वाकर्षण, आकाश की वक्रता आदि के बारे में विचार किया था । मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि प्रकाश आकाश (स्पेस) में एक तरंग के रूप में गमन करता है। अत: यह आकाश में परिवर्तन का प्रत्युत्तर दे सकता है । या और सरल शब्दों में कहें तो गुरूत्वाकर्षण आकश में वक्रता उत्पन्न करे और प्रकाश इस वक्र आकाश के समान्तर चले । वक्रता के समान्तर चलना ही वक्र आकाश में सबसे सीधा मार्ग है । इस बात को हम प्रकाश का मुडना कहें या आकाश की वक्रता लेकिन क्या ऐसा वाकई होता भी है या नहीं यह दूर की कौड़ी थी । आइस्टाइन ने भी ख्याली प्रयोग के आधार पर ऐसा कहा था, करके के तो देखा नहीं था । परन्तु कुछ गणनाआें के आधार पर आइस्टाइन ने प्रकाश कितना मुड़ेगा इसका आँकड़ा दिया था । सन् १९१५ के बाद गुरूत्वीय क्षेत्र में प्रकाश के मुड़ने को लेकर प्रयोग की तैयारियाँ शुरू हो चुकी थी। खगोंलविदों का मानना था कि सूरज के ठीक पीछे मौजूद तारे का प्रकाश जब सूरज के पास से गुजरता है तो गुरूत्वाकर्षण की वजह से तारे से आने वाला प्रकाश अपने मार्ग से विचलित हो जाता हैं और प्रकाश किरण थोड़ी मुड़ जाती है । लेकिन प्रकाश किरण थोड़ी मुड़ जाती है । लेकिन प्रकाश किरण के मुड़ने की जाँच सिर्फ पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान ही हो सकती थी । इस जाँच के लिए जरूरी था कि निकट भविष्य में जो भी पूर्ण सूर्य ग्रहण होने वाला है उस समय सूरज के ठीक पीछे पृष्ठभूमि में दिखाई देेने वाले तारा समूह के फोटोग्राफ काफी पहले से ही ले लिए जाएँ और पूर्ण ग्रहण के दौरान काले होते आसमान में जब वह तारा समूह सूरज के पीछे प्रकट होगा तब एक बार फिर उस तारा समूह की तस्वीर ली जाए । चूँकि ग्रहण के समय इस तारे का प्रकाश सूरज के पास से होकर हमारे पास आ रहा होगा इसलिए सूरज के गुरूत्वाकर्षण की वजह से प्रकाश किरण में विचलन होगा । इस फोटो की तुलना काफी पहले लिए फोटो से (जब यह तारा मण्डल सूरज के आस-पास न हो) करने पर प्रकाश के मुड़ने की बात साबित हो जाएगी। अगला सूर्य ग्रहण १९१९ में होने वाला था । २९ मई १९१९ के सूर्य ग्रहण पर सबकी नज़रे टिकी हुइंर् थी । ग्रहण के पीछे की पृष्ठभूमि में दिखाई देने वाले तारा समूह (कूरवशी) के फोटोग्राफ काफी पहले से लिए जा चुके थे । दक्षिणी अमरीका और अफ्रीका में यह पूर्ण ग्रहण दिखाई देने वाला था । इंग्लैड के आर्थर एडिंगटन ने प्रकाश के गठित किए, एक दल ब्राज़ील भेजा गया और दूसरा पश्चिमी अफ्रीका के प्रिंसिपी द्वीप समूह गया जिसकी अगुवाई एडिंगटन कर रहे थे । बादलों की आँखमिचौली के बीच आखिरकार, एडिंगटन फोटो खींचने से सफल रहें । पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान खींचे गए फोटोग्राफ की तुलना पहले से खींचे गए फोटो से करने पर प्रकाश किरण में विचलन की बात साबित होती थी । १९२२ के सूर्य ग्रहण के दौरान एक बार फिर यही सब दोहराकर पुष्टि कर ली गई । जब एक बार सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की परख हो गई तो ब्रह्माण्ड को समझने के लिए एक नज़रिया भी मिल गया। आइंस्टाइन के बाद भी अन्य लोगों ने इस काम को आगे बढ़ाया है । यहाँ पूर्ण सूर्य ग्रहण के सिर्फ तीन प्रमुख पड़ावों की बात की है । ग्रहण के सटीक नक्शे बनाने की शुरूआत, ग्रहण में फोटोग्राफ-स्पेक्ट्रोस्कोपी का इस्तेमाल और सूर्य ग्रहण से सापेक्षता सिद्धांत का संबंध और ब्रह्माण को समझने का एक नज़रिया मिलना । इन पड़ावों से विज्ञान में जाँच पड़ताल और खोजबीन के बहुत से नए दरवाज़े खुले हैं । ***

जुलाई नंाग पचमी (२६ जुलाई) के अवसर पर

नागपूजा : आस्था का दूसरा आयाम
डा.ख्ुाशालसिंह पुरोहित
सर्प प्राचीन काल से ही मनुष्य के लिए जिज्ञासा के विषय रहे है । सर्प का भारतीय संस्कृति से अनन्य सबंध है । इन्हे देवयोनि का प्राणी माना जाता है, इसलिए मंदिरों में अनादि काल से नाग देवता की पूजा की परम्परा रही है । सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमाणांे से जानकारी मिलती है कि भारत मेेंं सर्प पूजा की परम्परा ६००० वर्ष पुरानी है। सिंधु घाटी की गुफाआें पर सांपो की विभिन्न आकृतियां खुदी हुई है, जिसमे सर्प को देववृक्ष शमी की रक्षा करते हुए अंकित किया गया है । वैदिक काल में भी सर्र्प पूजा होती थी। सर्पों को देवता के रूप में मान्यता तथा उनके प्रति पूजा का भाव सभी धर्मोंा में है । भारतीय लोक कथाआंेे, धर्म एवं कला के क्षेत्र में सापों का प्रमुख स्थान है । मनुस्मृति में सांपों का वर्णन है, वैदिक साहित्य, पुराण, महाभारत, चरक संहिता और सुश्रुत संहिता आदि ग्रंथों मेंे नागों का वर्णन मिलता है । पुराणों मे कहा जाता है कि यह पृथ्वी शेषनाग के फ न पर स्थित है । हमारे देश में नागपंचमी, अनंत चतुर्दशी, भाद्रपद कृष्ण अष्ष्टमी और भाद्र पद शुक्ल दशमी सर्पोे की पूजा के विशेष दिन होते है । भारतीय संस्कृति में संाप को स्वास्थ्य, भाग्य, बुघ्दि एवं अमरत्व का प्रतीक माना गया है । पुराणोें मे ऐसी अनेक कथायें है जो सापों के अद्भुत स्वरूप से परिचय कराती है । नागपचंमी हमारे देश में सर्प के प्रति लोक-आस्था का पर्व रहा है । इस दिन नागपूजा के लिए घर के मुख्य द्वार पर गोबर के द्वारा नागोें का रूप बना कर या गोबर के स्थान पर हल्दी या चंदन से चित्र बनाकर अथवा सोना चांदी की धातु की मुर्ति की दही, दुर्वा, कुश, गंध, दूध, पंचामृत, पुष्प, घी, फल और खीर के द्वारा नागोें की पूजा की जाती थी । संाप सरिसृप वर्ग का प्राणी है, संापो का विस्तार प्राय: पुरी दुनिया मंे है । उतर एवं दक्षिण ध््राुव, ग्रीन लैड, न्युजीलैड एवं मेडागारकर आदि कुछ क्षेत्रों को छोडकर सांप सारे संसार मंे पाये जाते हैै । हमारे देश मंे ये घने जंगलो, ख्ेातो, अमराइयों, बगीचोेें, ग्रामीणो परिवेश मंे लकडियों एवं कंडो के ढेरो तथा मानव-बसाहट के आसपास मिलते है। नदी-नालो,नहरो व तालाबो के समीप नमीयुक्त स्थान तथा अनाज के गोदाम सर्पोे के प्रिय वास स्थल है । सर्प के मुख्य आहार चुहे, मेंढक, पक्षी, छिपकलिया, अन्य छोटे संाप पक्षियोें के अंडे तथा छोटे कुतरने वाले प्राणी है । संाप अपने भोजन को धीरे-धीरे निगलता है । यह प्रकृ ति व पारिस्थितिक संतुलन बनाये रखने मेें बहुत ही उपयोगी प्राणी है । सभी संाप जहरीले नही होते लेकिन मनुष्य संाप को अपने काल के रूप में देखता है । मनुष्य का संाप से मनौवेज्ञानिक डर सदियोें पुराना है जबकि सांप मनुष्य का मित्र है और हमेशा मनुष्य से डरता रहा है । सर्प आज भी एक सीधा-सादा सरीसृप है । मनुष्य को देखते ही उसकी पहली प्रतिक्रिया सुरक्षित स्थान की ओर भाग जाने की होती है । सर्पदंश के प्रकरणों मेें मनुष्य के प्रति विष का प्रयोग संाप केवल आत्मरक्षार्थ ही करता है । अपनी प्राणरक्षा के लिये जहर का धारण करना ही मानव जाति से उसके बैर का प्रमुख कारण है । सर्प के शत्रुआंे में मोर, गरूड, बाज व नेवला प्रमुख है, लेकिन सबसे बडा शत्रु मनुष्य है । कई कपोलकल्पित और अवैज्ञानिक बातों ने सर्प को जनमानस मेें भयंकर आंतक का पर्याय प्रचारित कर रखा है । सर्प बदला लेता है, यह दूध पीता है, बीन की धुन पर नाचता है, नाग इच्छाधारी होता है आदि अनेक निराधार एवं अवैज्ञानिक मान्यताओ पर आज भी लोग सहज ही विशवास कर लेते है दूसरी और पूजा की पंरपराआें में अनेक लोग सांप को दुध पिलाने और कंकु-गुलाल आदि सामग्री से पूजा करके सांप के जीवन के साथ खिलवाड़ कर अपने को सर्प भक्त मानते है वर्तमान मंे बरसात के दौरान श्रावणमास की शुक्लपंचमी के दिन नागचपंचमी को सर्प की पूजा होती है । नागपंचमी से एक-दो दिन पहले से ही सपेरे गली-मोहल्लो में लोगों के घरांे पर नाग दर्शन के लिये जीवित सर्प लेकर आते है , हर घर पर सर्प की पूजा होती है जहाँ सर्प को मस्तक पर गुलाल लगाया जाता है, गृहणियां अपने हाथो से सर्प को दूध पिलाती है । एक सर्वेक्षण मे बताया गया कि प्रति वर्ष नागपंचमी की पूजा के कारण देश भर मेंएक लाख सर्प मर जाते है । इसमेंसे कुछ तो पकड़ने के और परिवहन के दौरान मर जाते है । लेकिन अधिकांश सर्पोंा की मृत्यु का कारण उन्हे दूध पिलाना है । दूध सर्प का आहार नही है जब उनके मंुह मंे जबर्दस्ती दूध डाला जाता है तो वह फेंफड़ों मंे पहँुच जाता है । दूध के कारण फे फडो मंे संक्रमण एवं दम घुटने से अधिकंाश सर्पो की जीवन लीला समाप्त् हो जाती है। इस प्रकार धार्मिक विश्वास के कारण की जाने वाली यह पूजा सर्प हत्या का कारण बन रही है । देश में पर्यावरण प्रेमी सगंठन निरन्तर इस बात का प्रचार कर रहे है कि लोग नागपंचमी के दिन जीवित सर्प के बजाय उसकी प्रतिमा या चित्र की पूजा करे । लेकिन आज भी बहुसंख्यक लोग जीवित सर्प की पूजा करते है,उन्हे शायद यह पता नही है कि उनकी पूजा ही उनके आराघ्य के जीवन को संकट मंे डाल रही है । इसमें शासकीय-सामाजिक सगठनांे, मीडिया और पर्यावरण प्रेमी नागरिको को जन सामान्य के बीच सर्प के बारे मंे भ्रांतियों का निवारण करते हुए सत्य से अवगत कराने के प्रयास होने चाहिये। जन सामान्य को इस बात से भी अवगत कराना होगा कि सर्प को भारतीय वन्य प्राणी सरक्षण अधिनियम १९७२ की अनुसुची दो के भाग दो मे रखा गया है । वन्य प्राणी अधिनियम में किसी भी वन्य प्राणी को धार्मिक अनुष्ठान पूजा या मनोरंजन में इस्तेमाल करने की अनुमति नही है । नागपंचमी के दिन सर्प पकड़कर लाने वाले और जीवित सर्प की पूजा कर उसकी जान जोखिम मंे डालने वाले दौनों ही व्यक्ति इस कानून का उल्लंघन करते है, जो कि दंडनीय अपराध की श्रेणी मंे आता है । देश मे वन्य प्राणियों के संरक्षण और सुरक्षा के अनेक प्रयास हो रहे है , परन्तु सर्पोंा के संरक्षण और सुरक्षा की दिशा में कोई खास पहल नहीं हो रही है । सर्प की वैज्ञानिक जानकारी ओर कानूनी संरक्षण मे प्रयासों से जन सामान्य परिचित होगा तभी सदियो से चली आ रही पूजा परम्पराओ में सामाजिक परिवर्तन संभव हो सकेंगें इन परिवर्तनो से हम न केवल सांपो को सुरक्षित रख पायेगे अपितु हमारे पर्यावरण को भी सुरक्षित रखने मे सफल होगे । ***
सत्रह हजार प्रजातियंा विलुप्ति के कगार पर
पिछली पांच शताब्दियोें में आठ सौ से अधिक वन्य जीव और वनस्पति की प्रजातियंा लुप्त हो चुकी है, जबकि सत्रह हजार प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर हैैं । यह बात प्रकृ ति संरक्षण के लिए काम कर रही अतंरराष्ष्ट्रीय सस्थां इंटरनेश्नल यूनियन फॉर कन्जर्वेेशन ऑफ नेचर `आईयूसीएन' की एक रिपोर्ट मेें कही गई । रिपोर्ट के अनुसार आंकड़ों को विश्लेषण करने पर पता चलता है कि अतंरराष्ट्रीय समुदाय को सन २०१० तक जैव विविधता को जीवित रखने और उसे मजबुत करन का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाएगा । सन २०१० में विभिन्न देशों की सरकारों ने मिलकर २०१० तक यह लक्ष्य हासिल करने का संकल्प लिया था । यह विश्लेषण २०१० के लिए निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के लिए निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के लिए वितीय और पर्यावरण संबंधी सकंट के बीच सम्पर्क का पता लगाने के निए जारी किया गया हैं ।

जुलाई पर्यावरण समाचार

पर्यावरण बदलने से भूखमरी का खतरा!
दुनिया की जानी-मानी संस्था ऑक्स्फैम का कहना है कि पर्यावरण में हो रहें बदलावों के कारण ऐसी भूखमरी फैल सकती है, जो इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी साबित होगी । इस अंतर्राष्ट्रीय चैरिटी की नई रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में बदलाव गरीबी और विकास से जुड़े हर मुद्दे पर प्रभाव डाल रहा है । इटली में जी-आठ देशों के सम्मेलन से पहले ऑक्सफैम ने धनी देशों के नेताआें से अपील की है कि वे कार्बन उत्सर्जन में कमी करें । साथ ही गरीब देशों की मदद के लिए १५० अरब डॉलर की राशि की व्यवस्था करें । ऑक्सफैम का कहना है जलवायु परिवर्तन के कारण एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीकी देशों में गरीब लोग और गरीब होते जा रहे हैं । इन देशों मेें गरीब लोग और गरीब होते जा रहे हैं । इन देशों मेंकिसानों ने ऑक्सफैम से कहा है कि बरसात का मौसम बदल रहा है जिससे उनको खेती में दिक्कतें हो रही हैं । ये किसान कई पीढ़ियों से खेती के लिए मौसमी बरसात पर ही निर्भर रहे हैं । लेकिन, अब बदलते मौसम के कारण उन्हें नुकसान हो रहा है । रिपोर्ट के अनुसार भारत और अफ्रीकी देशोंं में बारिश के मौसम में बदलाव के कारण अगले दस वर्षोंा मेंे मक्का के उत्पादन में पंद्रह फीसद की गिरावट आ सकती है । इतना ही नहीं बढ़ती गर्मी के कारण मलेरिया जैसी बीमारियाँ फैल रही हैं । उन इलाकों में भी मलेरिया फैल रहा है । जहाँ पहले इसके फैलने की संभावनाएँ नहीं थीं । मौसम के बारे में सही अनुमान नहीं लग रहे हैं और दुनिया के कई इलाकों में अप्रत्याशित तौर पर बाढ़, आँधी, तूफान और जंगलो में आग लगने की घटनाएँ बढ़ गई हैं । ऑक्सफैम ने धनी देशों से अपील की है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए वे निजी तौर पर जिम्मेदारी लें और निष्पक्ष तरीके से काम करें ताकि एक मानवीय त्रासदी को रोका जा सके। रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन में २०२० तक कम से कम ४० फीसद की गिरावट करनी चाहिए। इतना ही नहीं धनी देशों को गरीब देशों की मदद के लिए १५० अरब डॉलर का एक कोष तैयार करना चाहिए ताकि इन देशों को अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने और बड़ी चुनौतियों से निपटने में मदद मिले । ***

आवरण




१ सामयिक

भारतीय दर्शन में जल की महत्ता
- राजीव मिश्र
संसार के सबसे पुराने ग्रंथ ऋग्वेद में जल को महिमामंडित करते हुए कहा गया है कि `` जल में अमृत है , जल विश्व भेषज है '' अर्थात् जल सब रोगों की एक दवा है। वह जल में ऊर्जा (अग्नि) की कल्पना करता है और उसे परम कल्याणकारी बताता है । जल हमें हमारे मन, वाणी, चक्षु, श्रोत तथा आत्मा को तृप्त् करता है । जल हमें रोगों के आक्रमण से भी बचाता है । यजुर्वेद के तैत्त्तरेय आरण्यक में कहा है कि जलाशयों के पास मल-मूत्र आदि नहीं करना चाहिए, थूंकना नहीं चाहिए । अर्थववेद के एक मंत्र में वर्षा और पृथ्वी पर पड़े जल को शुद्घ करके सेवन की बात कही गई है क्योंकि शुद्ध जलपान से अश्वों के समान बल प्राप्त् होता है । जल के प्रति श्रद्धा ही भारतीयों का ऐसा गुण है जो उन्हें अन्य मानव समूहों से भिन्नता प्रदान करता है । यथार्थ में भारतीयों के प्रत्येक उत्सव पर निकटस्थ नदी, तालाब आदि में स्नान करने की प्रथा प्रचलित हे । यही कारण है कि हिंदुआें के अधिकांश तीर्थ विशिष्ट नदियों या सरोवरों के रूप में तथा उन्हीं से संबद्ध है । नदियों के विषय में ऐसी वैज्ञानिक धारणा है कि नदियों का जल विशेष गुण और प्रभाव रखता है । सब जल एक से नहीं होते अर्थात् किसी नदी के जल में कीड़े जल्दी पड़ते हैं, किसी में देर से और किसी में पड़ते ही नहीं है । आजकल लोग कहने लगे हैं कि आने वाला युद्घ जल के लिये होगा । लेकिन भारत में जल की अगर प्रचुरता है तो इसका कारण सदानीरा वर्ष भर जल देने वाली नदियों का उद्गम हिमालय यही पर स्थित है । दुनिया का पांच प्रतिशत से अधिक शुद्घ जल हिमालय की नदियां वर्ष भर में बहा कर लाती हैं । इसके अलावा १७ हजार वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में हिमालय पर स्थायी हिमक्षेत्र हैं जो दक्षिणी ध्रुव के बर्फ क्षेत्र से भी बड़ा है । समूचे उत्तर भारत को पेयजल की आपूर्ति प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से हिमालय से ही होती है क्योंकि सर्वाधिक नदियां भी मध्य हिमालय से ही निकलती है । भारतवर्ष में वैदिक काल से पावन पुण्य सलिला गंगा नदी की महिमा है । भारत की अन्य नदियां की तरह गंगा का जन्म भी हिमालय की गोद में हुआ । एक छोटे से सोते के रूप में गंगा एक तरह से फूट कर बह निकली । इस स्थान को गोमुख कहते हैं । पहाड़ों पर जमी बर्फ को पिघला कर पानी बहकर इस सोते में आ मिला । इस प्रकार गंगा का आकार बढ़ा । गंगा तेजी से नीचे की ओर बहती गई । गंगाजल की महिमा अपरम्पार है। गंगा के स्वास्थ्य संबंधी गुणों का प्राचीन काल से ही उल्लेख मिलता है । चरक ने लिखा है हिमालय से निकलने वाले जल पथ्य हैं । चक्रपाणि दल ने भी सन् १०६० के लगभग लिखा है कि हिमालय से निकलने के कारण गंगाजल पथ्य है । भण्डारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट पूना में अठारहवीं शताब्दी का एक हस्तलिखित ग्रंथ है `भोजन कुतुहूल' । इसमें कहा गया है कि गंगा जल श्वेत, स्वच्छ, अत्यंत रूचिकर , पथ्य भोजन पकाने योग्य, पाचन शक्ति बढ़ाने वाला, सब पापों को नष्ट करने वाला , प्यास को शांत तथा मोह को नष्ट करने वाला , श्रद्घा और बुद्धि को बढ़ाने वाला होता है। टैवर्नियर के यात्रा विवरण से पता चलता है कि उन दिनों हिंदुआें के विवाह के अवसर पर भोजन के पश्चात् अतिथियों को गंगाजल पिलाने का चलन था । इसके लिए बड़ी दूर-दूर से गंगाजल मंगाया जाता था । जो जितना अमीर होता था, उतना ही अधिक गंगाजल पिलाता था । पेशवाआें के लिए गंगाजल पूना जाया करता था ।मराठी पुस्तक `पशवाइरूया सावलीतपून (१९३७) से पता लगता है कि काशी से पूना ले जाने के लिये एक बहंगी गंगाजल का खर्च २० रूपया और पूना से रामेश्वरम् ले जाने के लिये ४० रूपया पड़ता था । गढ़मुक्तेश्वर तथा हरिद्वार से भी पेशवाआें के लिए गंगाजल जाता था। हिमानियां अर्थात ग्लेशियर सदानीरा नदियों के अक्षय जलस्त्रोत कहे जा सकते हैं । पश्चिम हिमालय का बाटी ग्लेशियर विगत १००-१५० वर्षोंा में लगभग ८०० मीटर पीछे हट चुका है । इसी प्रकार केन्द्रीय हिमालय का ग्लेशियर इतने ही वर्षोंा में अब तक १६०० मीटर सिकुड़ चुका है । ध््राुव प्रदेशों में वर्षभर होने वाले हिमपात के बाद हिमालय की ये हिमानियां जल के अक्षय स्त्रोत हैं और हिमालय का लगभग २० प्रतिशत हिस्सा इन्हीं ग्लेशियरों अथवा हिमानियों से आच्छादित हैं । इसके अतिरिक्त आधे से अधिक भाग पर मौसमी बर्फ घिरी रहती है । यदि ये ग्लेशियर २५ मी. प्रतिवर्ष की औसत से पिघलते रहे तो एक दो दशक बाद गंगा नदी एक मौसमी नदी बन कर रह जाएगी । समय के चलते भारतीयों ने इसका महत्व कमतर आंका और जल का दुरूपयोग शुरू हो गया तथा जलसंचय के तौर - तरीकों को नकारा जाने लगा। इस सबके चलते आज जो जलसंकट हमें दिख रहा है उससे उबरने का एकमात्र उपाय यह है कि भारतीय समाज जल की कीमत जाने और उसके संचय के हर संभव तौर तरीके तो अपनाए ही साथ ही साथ उसका दुरूपयोग भी तत्काल बंद करे । ***
जलवायु परिवर्तन के कारण एक साल में हुई ३१५००० मौतें
विश्व में जलवायु परिवर्तन से होने वाली बीमारी, प्राकृतिक आपदा और भूख आदि से प्रतिवर्ष करीब तीन लाख से भी ज्यादा लोगों की मौत होने का अनुमान है और वर्ष २०३० तक यह संख्या पांच लाख तक पहुंच सकता है । जलवायु परिवर्तन से जानमाल के नुकसान की भयावह तस्वीर पेश करने वाली जिनेवा की ग्लोबल ह्मुमनिटेरियन फोरम (जीएचएफ) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मानव जनित इस प्राकृतिक परिवर्तन के कारण प्रतिवर्ष तीन लाख १५ हजार लोगों की मौत हो रही है । जलवायु परिवर्तन से हर साल ३२ करोड़ ५० लाख लोग गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं और अगले २० सालों में यह संख्या दोगुनी होने की आशंका है , जो उस समय विश्व की जनसंख्या का करीब १० फीसदी होगी । रिपोर्ट के मुताबिक धरती का तापमान बढ़ने से सालाना १२५ अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है । और २०३० तक इसके सालाना ३४० अरब डॉलर तक पहुंचने की आशंका है। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव और जीएचएफ के अध्यक्ष कोफी अन्नान ने एक बयान में कहा कि जलवायु परिवर्तन ने पूरे विश्व में करोड़ों लोगों को प्रभावित किया है और इस समय यह मानव जाति के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है । उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन के कारको के लिए सबसे कम जिम्मेदार विश्व का गरीब और कमजोर तबका इससे सबसे पहले और सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है।

२ हमारा भू-मण्डल

दक्षिण एशिया में ताजे पानी का संकट
- यूएनईपी की रिपोर्ट
भौतिकवाद के इस दौर में हम यह भूल रहे हैं कि मनुष्य प्रकृति का एक हिस्सा है, नियंता नहीं । पूरी पृथ्वी पर मीठे या ताजे पानी की उपलब्धता अत्यंत सीमित है परंतु सबसे ज्यादा दुरूपयोग भी इसी प्राकृतिक संसाधन का हो रहा है । दक्षिण एशिया की तीन महत्वपूर्ण नदी घाटियों पर संयुक्त राष्ट्र संघ का अध्ययन स्थानीय समुदाय पर यह आरोप लगा रहा है कि वे जल का अत्यंत दोहन कर रहे हैं । परंतु वह इस बात को रेखांकित नहंी कर रहा है कि विकास का जौ भौतिकवादी स्वरूप हमने अपनाया है उसमें ऐसी परिस्थितियों का निर्माण अवश्यंभावी है । अत्यधिक दोहन, जलवायु परिवर्तन और संबंधित राष्ट्रों के मध्य अपर्याप्त् सहयोग के कारण दक्षिण एशिया में स्थित विश्व की महानतम नदीघाटियां (बेसिन) आज संकट में है । गौरतलब है कि इनके आसपास ७५ करोड़ से अधिक लोग निवास करते है । ये निष्कर्ष संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण र्काक्रम (यूएनईपी) और एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एआईटी) द्वारा अपनी रिपोर्ट `दक्षिण एशिया: ताजा पानी संकट में' की बानगी भर है । रिपोर्ट में दक्षिण एशिया की चुनिंदा महत्वपूर्ण नदीघाटियों में स्थित ताजे जल के स्त्रोतों का अध्ययन किया गया है । इस रिपोर्ट में जल संसाधन विकास और इसके प्रबंधन पर पड़ने वाले प्रमुख संकटों की पहचान और इससे निपटने में आने वाली मुश्किलों का आकलन भी किया गया है । दक्षिण एशिया में दुनिया की एक तिहाई आबादी निवास करती है जिसमें से कुछ दुनिया के सबसे गरीब लोग भी शामिल हैं जिन्हें पृथ्वी के ताजा पानी के स्त्रोतों में से ५ प्रतिशत से भी कम उपलब्ध है । रिपोर्ट में दक्षिण एशिया की निम्न तीन अंतरदेशीय नदीघाटियों का अध्ययन किया गया है ये हैं गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेघना (जीबीएम) नदीघाटी (जिसका फैलाव बांग्लादेश, भूटान, चीन , भारत और नेपाल) सिंधु नदी घाटी (अफगानिस्तान, चीन , भारत, नेपाल व पाकिस्तान और हेलमण्ड नदीघाटी (जो कि अफगानिस्तान, इरान व पाकिस्तान में बहती है ।) संयुक्त राष्ट्र के उप महासचिव एवं यूएनईपी के कार्यकारी निदेशक अचिम स्टेनर का कहना है कि ये नदी प्रणालियां केवल महत्वपूर्ण आर्थिक शिराएं भर नहंी है बल्कि ये दक्षिण एशिया की सामाजिक एवं पर्यावरणीय सम्पत्ति भी है। इनके टिकाऊ प्रबंधन में निवेश एशिया की वर्तमान व भविष्य की समृद्धि में निवेश है और संसाधन से भरपूर टिकाऊ हरित अर्थव्यवस्था हेतु इसकी एक केन्द्रीय एवं निर्णायक भूमिका है ।' दिल्ली टिकाऊ विकास सम्मेलन में इस रिपोर्ट को जारी करने वाले यूएनईपी के क्षेत्रीय संचालक एशिया एवं प्रशांत क्षेत्र के प्रतिनिधि यंग वू पार्क का कहना है कि `दक्षिण एशिया में जहां ये तीन अंतर्देशीय नदीघाटियां स्थित है और जिसके आसपास इस क्षेत्र के आधे अर्थात करीब १.५ अरब लोग निवास करते हों और उनमें से कुछ दुनिया के सबसे गरीब लोग भी हैं , के लिए पानी स्वास्थ्य एवं जीविका का महत्वपूर्ण स्त्रोत है । एआईटी के डॉ. मुकुन्द बाबे का कहना था कि इस महत्वपूर्ण स्त्रोत को जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि , उपभोग, के गैर जिम्मेदाराना तरीकों, उपलब्ध जलस्त्रोतों का दोषपूर्ण प्रबंधन , अधोसंरचना में अपर्याप्त् निवेश के साथ ही साथ पर्यावरणीय परिवर्तन खासकर जलवायु परिर्वन से गंभीर खतरा उत्पन्न हो रहा है । उनका यह भी कहना था कि यह स्थिति इस क्षेत्र में व्याप्त् गरीबी के कारण और भी बदतर हो सकती है । रिपोर्ट में स्त्रोतों पर पड़ने वाले भार, विकास का दबाव, पर्यावरणीय स्वास्थ्य और प्रत्येक नदीघाटी में दोषपूर्ण प्रबंधन को भी एक चुनौती बताया गया है। इस रिपोर्ट के निष्कर्षोंा में बताया गया है कि`जलवायु परिवर्तन से घाटियों के क्षेत्र में लम्बी अवधि में पानी की भयंकर कमी आ जाएगी क्योंकि हिमालय के ६७ प्रतिशत ग्लेशियर पिघल रहे हैं जो कि इन नदियों के पानी की पूर्ति करते हैं । सिंधु और हेलमण्ड नदीघाटी के जलस्त्रोत भी संकट में हैं इसकी मुख्य वजह है क्षेत्र में वनस्पति का कम होना और जल की गुणवत्ता में गिरावट आना । सिंधु नदीघाटी में स्त्रोतों पर सर्वाधिक दबाव पड़ रहा है । इस नदीघाटी में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता के हिसाब से सर्वाधिक दोहन हो रहा है । जीबीएम और हेमलेण्ड नदीघाटियों में अभी बहुत अधिक दबाव नहीं है पर असमान दोहन को रोकने के लिए पूरे धाटी क्षेत्र में विकास और प्रबंधन की प्रक्रिया को सुधारने की आवश्यकता है । जीबीएम घाटी मे ंजल प्रबंधन अब सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने आ रहा है । जीबीएम और सिंधु नदीघाटी के अनेक क्षेत्रामें नलकूप के माध्यम से अत्यधिक दोहन के कारण भू-जल स्तर प्रतिवर्ष २ से ४ मीटर की रफ्तार से नीचे गिर रहा है जिससे मिट्टी और पानी की गुणवत्ता को खतरा पैदा हो गया है । इतना ही नहीं इसके परिणामस्वरूप भू-जल में खारे पानी का मिश्रण भी हो गया है । रिपोर्ट में कहा गया है कि भविष्य में जल संबंधित गंभीर संकटों से बचने के लिए नीतिगत ध्यान देना और जलस्त्रोतों पर जलवायु परिवर्तन से पढ़ने वाले प्रभावों के हेतु किए जा रहे शोध में तेजी लाना एवं अधोसंरचना और प्रबंधन तकनीकों पर विचार करना आवश्यक है । रिपोर्ट में संबंधित देशों के मध्य बेहतर सहयोग और सम्मिलित घाटी प्रबंधन पर जोर दिया गया है । `फ्रेश वाटर अण्डर थ्रेट : साउथ एशिया' यूएनईपी द्वारा इस क्षेत्र के तीन उप अपंचलों क्रमश: उत्तर पूर्वी एशिया, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया पर किया जाने वाला श्रृंखलाबद्ध अध्ययन है जिसकी प्रथम कड़ी के रूप में यह रिपोर्ट जारी हुई है । अफ्रीका की चुनी हुई नदीघाटियों पर भी इस तरह का अध्ययन पूर्ण हो चुका है । इस अध्ययन का उद्देश्य एशिया में सरकारों, गैर सरकारी संगठनों एवं विकास एजेंसियों के माध्यम से जल प्रणाली को बेहतर बनाना है । इसके अतिरिक्त ये संबंधित देशों को पानी की मांग की पूर्ति हेतु जानकारी भी उपलब्ध करवाएेंगें । ***
पर्यावरण संरक्षण की नयी पहल
मध्यप्रदेश प्रदेश के धार नगर के हटवाड़ा क्षेत्र के नागरिकोंने रक्तदान को पेड़-पौधों के लिए जलदान से जोड़कर पर्यावरण के प्रति प्रेम का ऐसा अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है । यहाँ के लोग जरूरतमंद लोगों के जीवन रक्षा के लिए वर्षोंा से रक्तदान करते आ रहे है । रक्तदान अपने आप में बड़ा काम है, लेकिन हटवाड़ा निवासियों के दिल में मानव जीवन के साथ-साथ वनस्पति के जीवन के प्रति भी करूणा गहरे तक पैठी है । इस तपती धूप और भीषण जलसंकट के मौसम में पेड़-पौधों का जीवन बचाने के लिए उन्होंने तय किया कि रक्तदान के बदले जलदान के लिये सहयोग राशि स्वेच्छा से देने के लिए लोगों को प्रेरित किया जाए ।

३ विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष

पर्यावरण और व्यक्तिगत चेतना
- डॉ. किशोर पंवार
पर्यावरण एवं प्रकृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । जनसामान्य के लिए जो प्रकृति है उसे ही विज्ञान पर्यावरण कहता है ।``परिआवरण'' यानि हमारे चारों और जो भी वस्तुएं है, शक्तियां हैं और जो हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं वे सभी हमारा पर्यावरण बनाती हैं । मोटे तौर पर जल, जंगल, जमीन , हवा, सूर्य का प्रकाश, रात का अंधकार और अन्य जीव-जन्तु सभी हमारे पर्यावरण के भिन्न तथा अभिन्न अंग हैं । जीवित और मृत को जोड़ने का काम सूर्य की शक्ति करती है । प्रकृति जो हमेंजीने के लिए स्वच्छ वायु, पीने के लिए साफ शीतल जल और खाने के लिए कंद, मूल, फल एवं शिकार उपलब्ध कराती रही है वही अब संकट में है । आज उसकी सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा हुआ है । यह धरती माता आज तरह- तरह के खतरों से जूझ रही है । आज से कोई १००-१५० साल पहले घने जंगल थे । कल- कल बहती स्वच्छ सरिताएं थी ।निर्मल झील एवं पावन झरने थे । हमारे जंगल तरह-तरह के जीव जंतुआें से आबाद थे और तो और जंगल का राजा शेर भी तब इनमें निवास करता था । आज ये सब ढूंढे नहीं मिलते हैं । नदियां प्रदूषित कर दी गई हैं ? झील - झरने सूख रहे हैं । जंगलों से पेड़ और वन्य जीव गायब होते जा रहे हैं । चीता हमारे देश से देखते - देखते विलुप्त् हो चुका है । सिंह भी गिर जंगलों में ही बचे हैं । इसी तरह राष्ट्रीय पक्षी मोर, हंस, कौए और घरेलू चिड़ियाआें पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं । यही हाल हवा का है । शहरों की हवा तो बहुत ही प्रदूषित कर दी गई है जिसमें हम सभी का येागदान है । महानगरों की बात तो दूर इंदौर, भोपाल जैेसे मध्यम आकार के शहरों की हवा भी सांस लेने लायक नहीं है । आंकड़े बताते हैं कि कणीय पदार्थ की मात्रा जिसे आरएसपीएम कहते हैं में इंदौर का पूरे देश में चौथा स्थान है । शहरी हवा में सल्फर डायआक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड जैसी जहरी गैसें घुली रहती है । कार्बन मोनो ऑक्साइड और कार्बन डायआक्साइड जैसी गैसों की मात्रा हायड्रो कार्बन के साथ बढ़ रही हैै । वहीं खतरनाक ओजोन के भी वायुमंडल में बढ़ने के संकेत हैं । विकास की आंधी में मिट्टी की भी मिट्टी पलीद हो चुकी है । जिस मिट्टी में हम सब खेले हैं जो मिट्टी खेत और खलिहान है, खेल का मैदान है वह तरह- तरह के कीटनाशकों को एवं अन्य रसायनों के अनियंत्रित प्रयोग से प्रदूषित हो चुकी है । खेतों से ज्यादा से ज्यादा उपज लेने की चाह में किए गए रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण वर्तमान में पंजाब एवं हरियाणा की हजारों हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है । हमारे कई सांस्कृतिक त्यौहार एवं रीति - रिवाज भी पर्यावरण हितैषी नहंी है । दीपावली और शादी ब्याह के मौकों पर की जाने वाली आतिशबाजी हवा को बहुत ज्यादा प्रदूषित करती है । होली भी हर गली-मोहल्ले की अलग - अलग न जलाकर एक कॉलानी या कुछ कॉलोनियां मिलकर एक सामूहिक होली जलाएं तो इससे इंर्धन भी बचेगा और पर्यावरण भी कम प्रदूषित होगा । जब हम स्वचालित वाहन चलाते हैं तब यह नहीं सोचते कि इससे निकलने वाला धुआें हमारे स्वास्थ्य को भी खराब करता है ।इससे निकली गैसें अम्लीय वर्षा के रूप में हम पर ही बरसेंगी व हमारी मिट्टी और फसलों को खराब करेंगी। यूरोपीय देशों की अधिकांश झीलें अम्लीय वर्षा के कारण मर चुकी हैं । उनमें न तो मछली जिंदा बचती है न पेड़- पौधे । सवाल यह है कि इन पर्यावरणीय समस्याआें का क्या कोई हल है ? क्या हमारी सोच में बदलाव की जरूरत है ? दरअसल प्रकृति को लेकर हमारी सोच में ही खोट है ।तमाम प्राकृतिक संसाधनों को हम धन के स्त्रोत के रूप में देखते हैं और अपने स्वार्थ की खातिर उनका अंधाधुंध दोहन करते हैं । हम यह नहीं सोचते कि हमारे बच्चें को स्वच्छ व शांत पर्यावरण मिलेगा या नहीं । वर्तमान स्थितियों के लिए मुख्य रूप से हमारी कथनी और करनी का फर्क ही जिम्मेदार है। एक ओर हम पेड़ों की पूजा करते हैं तो वहीं उन्हें काटने से भी जरा नहीं हिचकते । हमारी संस्कृति में नदियों को माँ कहा गया है परन्तु इन्हीं माँ स्वरूपा गंगा-जमुना की हालत किसी से छिपी नहीं है। इनमें हम शहर का सारा जल-मल, कूड़ा - करकट, हारफूल यहां तक कि शवों को भी बहा देते हैं । नतीजन अब देश की सारी प्रमुख नदियां गंदे नालों में बदल चुकी हैं । पेड़ों को पूजने के साथ उनकी रक्षा का संकल्प भी हमें उठाना होगा । पर्यावरण रक्षा के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं । जैसे खुले में कचरा नहीं जलाने का एवं प्रेशर हार्न नहीं बजाने का नियम है परन्तु इनका सम्मान नहीं किया जाता है । हमें यह सोच भी बदलनी होगी कि नियम तो बनाए ही तोड़ने के लिए जाते हैं । पर्यावरणीय नियम का न्यायालय या पुलिस के डंडे के डर से नहीं बल्कि दिल से सम्मान करना होगा । सच पूछिए तो पर्यावरण की सुरक्षा से बढ़कर आज कोई पूजा नहीं है । प्रकृति का सम्मान ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी । कहा भी जाता है कि प्रकृति ही ईश्वर है । अगर आप सच्च्े ईश्वर भक्त हैं तो भगवान की बनाई इस दुनिया की हवा, पानी, जंगल और जमीन को प्रदूषित होने से बचाएं । वर्तमान संदर्भोंा में इससे बढ़कर कोई पूजा नहीं है । जरूरत हमें स्वयं सुधरने की है साथ ही हमें अपनी आदतों में पर्यावरण की खातिर बदलाव लाना होगा । याद रहे हम प्रकृति से हें, प्रकृति हमसे नहीं । ***
अब श्वानों के लिए भी मैट्रिमोनियल साइट
अगर आप ने अपने घर में श्वान पाल रखा है और उसके लिए जीवन साथी की तलाश कर रहे है, तो अब आपको ज्यादा परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। बस अपने श्वान की जानकारी `डॉगमेटऑनलाईन.कॉम' के नाम की वेबसाइट में डालिए और पाइए उसके लिए उपयुक्त जीवन साथी। इस वेबसाइड की मालिक इशिता सुखादावाला बताती है कि यह साइट काफी लोकप्रिय हो रही है और हजारों की संख्या में लोग इसका प्रयोग कर रहे हैं । इंडिया इंटरनेशनल पेट ट्रेड फेयर (आईआईपीटीएफ) के ऑकड़े के अनुसार भारत के ६ बड़े शहरों में ही ३० लाख से ज्यादा पालतु श्वान हैं। पालतू जानवरों के लिए साथी तलाशने हेतु पिछले वर्ष भी इसी तरह एक वेबसाइट `पपीलव.इन' की शुरूआत की गई थी ।

४ आवरण कथा

निर्वृक्ष होते हुए वन
- डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
इस लेख का आगाज नवगीतकार नईम के गीत को उद्धरित करते हुए कर रहा हूँ -`` वनों को निर्वृक्ष होते देखना कितना कठिन हैदेखना निष्प्राण होते वनों को, कितना कठिन हैएक क्रिया - कर्म की पूरी बुनावटमौत की नजदीक आती हुई आहटवृक्ष - वध का दृश्य स्वर यहदेखना - सुनना कठिन है छीनना रक्षा कवच छल से करण काचश्मदीद गवाह हूँ अपने मरण का आज तो साकेत में हीदेखना सीता हरण हैबसंती निष्पन्न हरियाली वनों को भूमिका दें हरिजनों को, गिरिजनों कोपीठ पर इनके रखा जोदेखना किसका चरण है क्रौंच वध से सवाये हैं दृश्य सारे अपहरण है ये नहंी कोई स्वयंवर खून से लोहित कणों को खोजना कितना कठिन हैआज भी इतिहास के जीवित कथानकविन्ध्य हो या सतपुड़ा या अमरकण्टकनर्मदा को अभय दोपाषाणपुत्रों की बहिन है । '' वास्तव में बड़ा कठिन है किसी कटे वृक्ष को देखना ही । विगत दिनों मेरे शहर चन्दौसी की सीमा पर एक सरसब्ज पेड़ काट डाला गया तो पेड़ों के प्रति आत्मीय लोगों की भीड़ जुट गई और जनविरोध के फलस्वरूप अन्य पेड़ों का कटान रूक गया । यकीनन हमको वृक्ष विनाश की गफलत से बाहर निकलना ही होगा । पेड़ - पौघों के प्रति भावमयी बनना होगा । अस्मिता के रक्षक पेड़ ही तो देते हैं हरित परिधान धरती को । पेड़ ही तो बांधते है भूमि परती को । बहुत कुछ देते हैं पेड़। बहुत कुछ सहते हैं पेड़ । हमारी अस्मिता की रक्षा के लिए पेड़ की नस्लें कुर्बान हो जाती हैं । क्या हम पेड़ों द्वारा हमारे प्रति किये गये उपकारों को अपनी संततियों को समझा रहे हैं । विकास के नाम पर पेड़ ही तो कुर्बान होते जा रहे हैं । हर आरी पेड़ पर ही चलती है और देखते - देखते धराशायी कर दिये जाते हैं सरसब्ज पेड़। एक पेड़ बहुत से जीव जन्तुआें का सहारा होता है । वह सर्वहारा होता है । अपनी इस भावना को अपनी कविता``यह सच है कि ..... पेड़ सरसब्ज था'' को उद्धरित कर रहा हूँ - `` सच तो यह है कि .... नीम सरसब्ज था / वह लहलहा उठता था/ कोमल पत्तियों से / पतझर के बाद / बरसात में निंबोलियां लद जाती थीं पेड़ पर / महकाती थीं/ परिवेश को / झांकते थे पेड़ की कोटरों से / गरदन मटकाते हुए तोते/उछलकूद करती थी गिलहरियां/ शाखाआें पर चढ़ती / फिर पैराशूट की तरह उतरती / अठखेलियां करतीं / गुंजायमान रहता था परिवेश /मधुमक्खियों की भ्रामरी से / जो पेड़ की कोटरों में बनाये गये हाइव (छत्ते) में / जमा करती थी मकरंद पराग /बनाती थीं मधु/ एक दिन अचानक ही / पेड़ काटने का जतन हुआ शुरू/एक - एक करके / काट डाली गयी / पेड़ की बाजू सरीखी /शाखाएं/ धराभूत हो गया सरसब्ज पेड़/ काटने वाले ने / काटने से पूर्ण /उसे सूखा करा देते हुए / प्रस्तावपास करवाया था / किन्तु सच तो यह है कि ....... पेड़ सरसब्ज था । पेड़ वाले स्थान पर / बनना था विकास भवन / इसलिए विकास के नाम पर हो गयी पेड़ की बलि । पेड़ के पास वाले फुव्वारे पर / अब तोते नहीं करते जल से अठखेलियां/मधुमक्खियां हो गयीं निराश्रित/ गिलहरियां हो गयीं गुमसुम उदास/किन्तु वह कहते हैं / हुआ विकास/ सच है कि पेड़ सूखा नहीं था /किन्तु आदमी की भूख ने उसे कर ही दिया / धराभूत और अस्तित्वहीन। सच तो यह भी है कि हम भूल रहे हैं अपनी मनीषा को । अपने पूर्वजों द्वारा दी गयी शिक्षा को । अग्नि पुराण में लिखा है कि प्रमादवश यदि कोई व्यक्ति नगर अथवा वन - उपवन में पेड़ काटता है तो वह घोर नरक (जृम्मण) का दु:ख अवश्य ही भोगता है -`तस्मान्नाछेदयेत् वृक्षान् सपुष्पफलितान् कदा। यदीच्छेत् कुलवृद्धिश्च धनवृद्धिय शाश्वतीम्।।नगरोपवने वृक्षान् प्रमादाद्धि दिनत्रिय: ।स गच्छेन्नरकं नाम जुम्मणं रौद्र दर्शनम् ।।(अग्नि पुराण) वृक्षारोपण करने वाला व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा पाता है - `` प्रतिष्ठाम् ते गमिष्यन्ति ये नरा : वृक्ष रोपका: ।। '' बात केवल प्रतिष्ठा की नहीं वरन अस्मिता की भी है । क्योंकि मिट्टी और जल के संयोग से जो ये नाना प्रकार की वृक्ष प्रजातियां और खाद्यान्न उपजते हैं, उनसे ही प्राणियों का पोषण होता है।-`` ऊवींच नीरसंयोगान्नानावृक्षा प्रजायते '' । वृक्ष हमारे प्राणाधार हैं । वृक्ष सेवा पुण्य प्रदायक है । हर वृक्ष हमें सेवा देता ही देता है । अत: यदि हम किसी वृक्ष की सेवा करें, वृक्ष को जल से सींचे तो पुण्य मिलेगा ही । वाराह पुराण में गोकर्ण महात्मा अध्याय में संदर्भ है कि भूमिदान और गऊदान करने से जो पुण्य फल हमें मिलता है वही पुण्य हमें वृक्षारोपण से मिलता है-`भूमिदानेन ये लोका गोदानेन चकीर्तिता:। ते लोका:प्राप्यते मुक्ति: पादपानां पुरोहणे ।।'(वाराह पुराण) पेड़ सदैव हमारे मुक्तिदाता हैं । मृत्युपरांत आत्मा के तर्पण हेतु जलघट पीपल के पेड़ पर बांधा जाता है ताकि मृतक की आत्मा को शांति मिले । पेड़ तो शांतिदाता है जो जन्मांतर तक साथ निभाता है । मृतक की चिता में काष्ठ ही जलाया जाता है । जरा सोचें पेड़ों का उपकार और उनका संस्कार । ऐसे परोपकारी पेड़ों को अवध्य होना चाहिए। हमारे वांड्गमय में वृक्षों की भूमिका भलीभांति रेखांकित है । वैज्ञानिक दृष्टि से वनों को धरती के फेफड़े सरीखे जाना गया है क्योंकि वृक्ष ही प्राणवायु प्रदायक है । वेद पुराणों में पेड़ों को न काटने के परामर्ष बार - बार दिेय गये हैं। वृक्षारोपण तथा वन संरक्षण हेतु प्रेरित प्रसंग साहित्यमें सर्वत्र दिये गये हंै। प्रदूषण के नियंत्रण में वृक्षों की भूमिका सिद्घ है वृक्ष वायु को शुद्ध करते हैं । ओषजन को नियंत्रित करते है ।वायु की गति को कम करते हैं । वृक्ष ही जलवायु के संरक्षक और ऋतुआें के उद्गाता हैं । अत: हमारा परम् पुनित कर्त्तव्य है कि हम पेड़ लगायें और उन्हें सरसब्ज बनायें । देखा जाये तो पेड़ों की पत्तियों की सरसराहट ही जीवन स्पंदन की आहट होती है । हरियाली वनों सी सुरम्य प्रकृति सुरमय होती है । पेड़- पौधे, पशु- पक्षी और समस्त जीव - जन्तु प्रकृति कि प्रभूतमयी एंव प्रसूतीयी अनुग्रह की परिणति है । प्रकृति में अर्हनिश आनंदित अनहद स्वर गूंजता है । प्रकृति के स्वर हमारी अनुभूतियों को जगा देते हैं । जीवन को सुगंधियों से महका देते हैं । प्रकृति का संगीत ही तो हमें रचनात्मक सर्जना देता है । जंगल के गीत को ऋग्वेद के अरण्यानी सूक्त में इस प्रकार व्यक्त किया गया है -``वृषारवाये वदते यदुपावति चिच्च्कि:।आघाटििाखि धावयन्नरण्य र्निमेहीयते ।।'' (ऋग्वेद अरण्यानी सूक्त १०/१४६/२) अर्थात कोई जन्तु बैल के समान शब्द करता ह । कोई चीं..चीं करता हुआ उसका उत्तर सा देता है । उस समय लगता है कि वे वीणा के प्रत्येक स्वर को निकालते हुए अरण्यावली का यशोगान कर रहे हैें । प्रश्न यह है कि क्या निर्वृक्ष होते वनों में भी रहेगा संगीत जिन्दा ? पेड़ जीवनदाता ही नहीं धरती का श्रृंगार भी हैं । धरती के आभूषण हैं पेड़ । रक्षा कवच हैं ओजाने परत के जो हमारे वातावरण को आच्छादित करती है और सूर्य प्रकाश की पराबैंगनी किरणांे को अवशोषित कर लेती है । किन्तु प्रदूषण ने इस रक्षा कवच को तोड़ा है । पेड़ - पौधे बहुत बड़ा काम चुपचाप करते हैं और हमे आहट भी नहंी होती । पेड़ पौधे ही ऋतुचक्र के नियंता हैं । हरीतिमा से प्रकृति नवयौवना-सी सज जाती है । पर्वत श्रृंखलाआें की थाती, मृगछाला पहने शिव सी नजर आती है । गंगाधर सरीखे पर्वतों से ही जल का निर्झरण होता है । जलधाराएं यज्ञोपवित सी संस्कारी हैं । अरण्यानियों में अहर्निशं वैदिक ऋचाएं सी गुंजायमान रहती हैं । वन देवियां सुदर्शनाएं हैं यही कहती हैं वाल्मिकी रामायण में बडा ही मनोहारी वर्णन मिलता है - ``धर्म परिक्लिस्ता नववारी परिप्लुता मेधा कृष्णा जिन् धरा धारा यज्ञोपवीतिन: प्राधिता इव पर्वता: काषाविरिभहेमिभ: विद्युद्भिराभितादितम् जातामही शस्य वनाभिरामा।'' अर्थात् ग्रीष्म के सूर्य से सूखी धरती अब नये जल के आगमन से मुस्कुरा रही है । पर्वत ऐसे प्रतीत हो रहे हैंजैसे कि मृगछाला पहले हुए हों । जलधाराएं यज्ञोपवित सी लग रही हैं । पर्वत मानों वैदिक ऋचाआें का पाठ कर रहे हैं । विद्युत ऐसे चमक रही है मानों कि आकाश को स्वर्णिम चाबुक से मारा गया हो । हरी-भरी धरती बहुत सुन्दर लग रही है । क्या ऐसे शिवत्व एवं सुन्दरता से परिपूर्ण वनों को काट डालना स्वयं हमारे लिए अभिशाप सिद्ध नहीं होगा । प्रश्न पर जरा विचार करें आधुनिकताके व्यामोह में वृक्ष मर्दन न करें । वनों को निर्वृक्ष न करें। स्वयं को स्वाभाविक एवं प्राकृतिक ढंग से विकसित होने दें ताकि प्रकृति की अमूल्य कृति रूप यह वन प्रांतर सुरक्षित एवं संवध्र्ाित रह सकें । ``हम कृतघ्न नहीं है'' पेड़ों से नजर मिलाकर हम यह कह सकें। ***

५ कविता

पर्यावरणीय गीत-गज़ल
-मेहता डॉ. नगेन्द्रसिंह
गीत
तपती धरती तपता अम्बर
उबल रहा है सात समन्दर ।
तेज धूप का तेज बढ़ा है
क्रोध सूर्य का शिखर चढ़ा है
फटी दरारें शुष्क धरा पर
ठूँठ बना हर वृक्ष खड़ा है ।
सूख चुके सब ताल-तलैया
रेत चमकती उसके ऊपर ।
सूरज का यह क्रोध निराला
बाँट रहा है विष का प्याला
वृक्ष नहीं अब काटे कोई
बढ़ जायेगी विष की ज्वाला ।
ताप धरा पर कम हो कैसे
खोज रहा जग इसका मन्तर ।
ग़ज़ल
पेड़ कटा तो घायल हो पाई धरती
धूल-धूआँ से काज़ल हो गई धरती ।
पेड़ बिना मौसम भी गरम हुआ जब
धूप लगी तो तातल हो गई धरती ।
नदी ताल कुएँ से गुम हुआ पानी
प्यास लगी तो बेकल हो गई धरती ।
बाग सभी उजड़ गए शहर की खातिर
चीर-हरण से मुख़्तल हो गई धरती ।
लोभ-स्वार्थ ने लूटा इसका सारा धन
अतिदोहन से पागल हो गई धरती ।
ख्वाब में देखा `मेहता' ने एक दिन
सौर-जगत से ओझल हो गई धरती ।
***

६ प्रदेश चर्चा

पंजाब : यूरेनियम प्रदूषण के शिकार बच्च्े
- सेव्वी सौम्या मिश्रा
यह अविश्वसनीय प्रतीत होता है कि पंजाब, जहां किसी भी तरह का कोई सैन्य या असैन्य परमाणु संयत्र नहीं है वहां के बच्चें में यूरेनियम और रेडियोधर्मिता के चिन्ह पाए गए है । प्रदूषण की इस पराकाष्ठा की गंभीरता को समझने की जरूरत है । रासायनिक कीटनाशकों से फैलने वाले प्रदूषण के पश्चात् पंजाब में यूरेनियम प्रदूषण गंभीर पर्यावरणीय प्रश्न खड़े कर रहा है । वे संख्या में १४९ हैं और अधिकांश १३ वर्ष से कम उम्र के बच्च्े हैं वैसे उनमें से कुछ वयस्क भी हैं और इन सभी का पंजाब स्थित बाबा फरीद विशेष बाल केंद्र में आत्मविमोह (ऑटिज्म), बाल मस्तिष्क पक्षाघात (सेरब्रल पाल्सी) एवं मस्तिष्क अवरूद्घता का ऊपचार चल रहा है । इनमें से अधिकतर पजाब से व कुछ तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और कुछ तो विदेश से भी हैं । ये सभी आजकल इसलिए चर्चा के केन्द्र में हैं क्येांकि इनमें से अधिकांश के बालो में यूरेनियम पाया गया है । यह खोज अनायास ही हुई । ब्रिटेन की एक विष वैज्ञानिक केरीन स्मित (टाक्सिकालाजिस्ट) ने पिछले वर्ष फरीदकोट स्थित इस केन्द्र का भ्रमण किया था । वे इतने व्यापक पैमाने पर मस्तिष्क विकार एवं विकास अवरूद्धा के पीछे के कारण को खोजना चाहती थीे । उन्होंने इस केंद्र से १४९ बच्चें और वयस्कों के बालों के नमूने इकटठे कर उन्हें जांच के लिए जर्मनी भेजा । बालों के इन नमूनों मं से अधिकतर में टिन, सीसा, एल्यूमिनियम, मैगनीज और लौहे जैसी भारी धातुएं पाई गई । सुश्री स्मित को इन नतीजों से कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि जहरीले रसायन और उनकी प्रवृत्ति का अध्ययन करने वाली चिकित्सक के नाते इन नमूनों को जांच पर भेजने के पूर्व ही उन्हें आशंका थी कि ये भारी धातुएं बालों में मौजूद हो सकती हैं । जिसकी उम्मीद उन्हांने नहीं की थी वह थी बालों में यूरेनियम की मौजूदगी । ८० प्रतिशत से अधिक नूमनों में बालों में यूरेनियम की उपस्थिति पाई गई । सुश्री स्मित का कहना है कि -`` हम तो यूरेनियम के लिए जांच ही नहीं कर रहे थे बल्कि भारी धातु के जहरीलेपन से संबंधित जांच कर रहे थे । इसी दौरान एकाएक यूरेनियम के लक्षण दिखाई दिए। प्रयोगशाला की रिपोर्ट में कहा गया है कि नमूनों में यूरेनियम के स्तर को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह बीमारी उत्पन्न कर सकता है । '' सात वर्षीय युवराज के पिता देविन्दर सिंह का कहना है, `नमूने में यूरेनियम पाए जाने से मैं अत्यंत दु:खी हूँ मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मेरे बच्च्े का क्या होगा ? युवराज का यहां मस्तिष्क पक्षाघात का उपचार चल रहा है। स्मित मार्च के अंतिम सप्तह में कुछ और नमूने इकठ्ठा करने आई थीं । उन्होंने भारी धातु जिसमें यूरेनियम शामिल है को नियंत्रित करने संबंधी उपचार के पूर्व एवं बाद में मरीजों के मूत्र के नमूने भी लिए हैं । सुश्री स्मित का कहना है कि यह शरीर में यूरेनियम के स्तर को दर्शा देगा । जून में इन परीक्षणों के नतीजों के आने की संभावना है । केन्द्र में प्राकृतिक चिकित्सा , स्नायुरोग चिकित्सा एवं योग के माध्यम से उपचार किया जाता है यहां के प्राकृतिक चिकित्सक हरीश बाबू का कहना है कि इस बात का परीक्षण करना अनिवार्य है कि क्या यूरेनियम आत्मविमोह जैसी बीमारियों का कारण बनता है ? दक्षिण अफ्रीका में जन्मी स्मित को आठ वर्ष पूर्व इस केन्द्र का पता एक आत्मविमोह ग्रस्त बालक अंकित शर्मा के माध्यम से चला । अंकित उस समय सात वर्ष का था और बोत्सवाना में रहता था । जब स्मित के उपचार से उसमें कोई लाभ नजर नहीं आया तो २००६ में अंकित के अभिभावक उसे फरीदकोट स्थित इस केंद्र में ले जाए । अंकित की स्थिति में आए परिवर्तन से प्रेरित होकर स्मित गतवर्ष यहंा आई । लुधियाना (पंजाब) में कार्यरत् स्त्रीरोग विशेषज्ञ नीलम सोधी का कहना है कि पंजाब पहले से ही कीटनाशकों के मिश्रण और भूजल मेंभारी धातुआें की मौजूदगी को भुगत रहा है । यह कहना काफी जल्दबाजी होगी कि आत्मविमोह का कारण यूरेनियम है । यह स्नायुमंत्र में पहुंच रहे किसी अन्य रसायन से भी संभव है । नमूनों में यूरेनियम की मौजूदगी से कई लोग चक्कर में पड़ गए हैं क्येंाकि इस इलाके में यूरेनियम की केाई खदान मौजूद ही नहंी है । इस संबंध में यहंा एक अन्य बात जो चर्चा है वह यह है कि यहां यूरेनियम इराक से आया होगा जहां पर अमेरिकी सेना ने युद्घ में इसका प्रयोग किया था । एक गैर सरकारी सगठन माईन्स, मिनरल एण्ड पीपुल के संयोजक आर.श्रीधर का कहना है कि `ताप विद्युत गृह में उपयोग में आने वाले कोयले में भी यूरेनियम जैसे रेडियोधर्मी पदार्थ होने की बात पाई गई है ।' फरीदकोट केद्र के निदेशक प्रितपालसिंह को भी इसमें आपसी संबंध नजर आता है । इसकी वजह यह है कि समीप स्थित जिले भटिंडा में एक ताप विद्युत गृह है एवं जिन १४९ नमूनों की जांच हुई है उनमें से ४० बच्च्े और वयस्क भटिंडा के ही निवासी हैं । सुश्री स्मित द्वारा यूरेनियम के चिन्ह पाए जाने से हड़कंप मच गया है । मुम्बई से परमाणु ऊर्जा विभाग का एक दल ६ अप्रेल को फरीदकोट पहुंच गया है । जांच दल के सदस्य स्वप्नेश मल्होत्रा ने सूचना दी कि हमने फरीदकोट केंद्र से बालों एवं मिट्टी, पानी और खाद्य पदार्थोंा के नमूने एकत्रित कर लिये हैं । राज्य सरकार ने भी एक पांच सदस्यीय जांच दल भेजा है । इस दल ने भी फरीदकोट केन्द्र से मिट्टी और पानी के नमूने लुधियाना स्थित पंजाब कृषि विश्वविद्यालय को भेजे हैं । अपना नाम गुप्त् रखे जाने की शर्त पर एक चिकित्सक ने बताया कि पांच बच्चें और उनके अभिभावकों के बाल, खून एवं मूत्र के नमूने एकत्रित कर उन्हें भाभा परमाणु शोध केन्द्र मुम्बई भेजा गया है । ऐसे अभिभावक जो कि उनके बच्चें के बालों के नमूनों में यूरेनियम की उपस्थित से तारतम्य बैठाने का प्रयास कर रहे थे राज्य सरकार के दल की कार्यप्रणाली से विचलित हो गए हैं । एक अभिभावक देविन्दरसिंह का कहना है `उन्होंने हमारी सहमति लेने तक की जहमत नहीं उठाई। वे बहुत ही क्रूर और असंवेदनशील थे । उन्होंने मेरे बच्च्े के सिर से एकाएक बाल उखाड़ लिए । उन्हांेने एक ही सिरिंज और सुई से परिवार के सभी सदस्यों के खून के नमूने ले लिए ।' उनका कहना था कि अभिभावक इतने गुस्से में आ गए थे कि वे सरकार पर दावा लगाना चाहते थे परंतु गुस्सा ठंडा होते ही उन्होंने माना कि इस बात में कोई दम नहीं है । ***
::: चिपको संदेश :::
क्या है , जंगल के उपकारमिट्टी, पानी और बयार ।
मिट्टी पानी और बयार,ये है जिंदा रहने के आधार ।।

७ पर्यावरण परिक्रमा

यूनेस्को की सूची में तीन अभ्यारण्य
भारत के तीन वन्य जीव अभ्यारण्यों को यूनाइटेड नेशन्स ऐजुकेशनल साइंर्टिफिक एण्ड कल्चरल ऑर्गनाईजेशन (यूनेस्को) ने अपनी सूची में शामिल कर लिया है । इसमें उड़ीसा स्थित सिमलीपाल, मेघालय स्थित नोक्रेक के अलावा मध्यप्रदेश का पचमढ़ी अभ्यारण्य भी शामिल है । अब तक १०७ देशों में यूनेस्को के बायोस्फीयर रिजर्व हैं । ये बायोस्फीयर रिजर्व ऐेसे इलाके में हैं जिनका इस्तेमाल जमीन, ताजे पानी, तटीय और समुद्री इलाके में मिलने वाले जीव-जंतुआें के बेहतर मेनेजमेंट समझने के लिए किया जाता है । इसकी मदद से टिकाऊ विकास की सोच को भी बढ़ावा मिलता है । पचमढ़ी रिजर्व मध्यप्रदेश स्थित पचमढ़ी अपने बाघों के लिये जाना जाता है । इसके अलावा यह अपने अनोखे पेड़ - पौधों के लिए भी काफी मशहूर है । बाघों के अलावा बाकी जानवर हैं तेंदुआ, जंगली सुअर, गौर,चीतल, संाभर, मकाऊ बंदर । पेडों में टीक और साल प्रमुख हैं । बोरी सेंचुरी, सतपुड़ा नेशनल पार्क और पचमढ़ीसेंचुरी इस बायोस्फीयर रिजर्व का हिस्सा है । सिमलीपाल रिजर्व सिमलीपाल वाइल्ड लाईफ रिजर्व भुवनेश्वर से ३०० किलोमीटर दूर है । पहले मयूरभंज के महाराजा यहां शिकार खेला करते थे । यह बाघ, एशियाई हाथी और गौर का घर है । इसके अलावा यह अपनी पहाड़ी मेना, तेंदुआें और आर्किड के खूबसूरत पेड़ों के लिए बहुत मशहूर है। सिमलीपाल को अपना नाम सेमल के पेड़ों से मिला है ।नोक्रेक रिजर्व नोक्रेक मेघालय के गारो हिल्स जिले में तूरा जीव पीक के पास स्थित है। यहां बहुत बड़ी संख्या में दुलर्भ प्रजाति के पौधे और जानवर पाए जाते हैं । इनमें बाघ, तेंदुए, गिबन और फिशिंग कैट शामिल हैं । यह रिजर्व अपनी जैव विविधता और प्राकृतिक माहौल में जनजातीय लोगों की संस्कृति पर शोध करने वालों के लिहाज से काफी अहम है ।
न्यायालय द्वारा आेंकारेश्वर बांध में पानी भरने से इंकार
सर्वोच्च् न्यायालय ने अपने महत्वपूर्ण आदेश में आेंकारेश्वर बंाध में १९३ मीटर तक पानी भरने से इंकार कर दिया है । सर्वोच्च् न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि चूकि एक बड़ी संख्या में प्रभावितों की शिकायतों का निराकरण होना बाकी है अत: शिकायत निवारण प्राधिकरण शिकायतों का निवारण कर अपनी रिपोर्ट २० जून तक उच्च् न्यायालय में प्रस्तुत करे एवं उसके बाद उच्च् न्यायालय उचित आदेश प्रदान करे । उल्लेखनीय है कि म.प्र. सरकार ने आेंकारेश्वर परियोजना के संदर्भ में नर्मदा बचाओ आंदोलन की याचिका पर उच्च् न्यायालय द्वारा १६ मार्च २००९ को दिए आदेश को सर्वोच्च् न्यायालय में चुनौती दी थी । इस आदेश के खिलाफ सर्वोच्च् न्यायालय में दायर विशेष अनुमति याचिका दाखिल की थी कि उन्हें आेंकारेश्वर बांध में वर्तमाल जल स्तर १८९ से बढ़ाकर १९३ मीटर तक भरने की अनुमति दी जाए । नर्मदा बचाओ आंदोेलन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. राजीव धवन, संजय पारीख एवं निखिल नैय्यर ने न्यायालय को बताया कि अभी हजारों प्रभावितों को उनके अधिकार दिए जाने बाकी हैं ।न्यायालय को तमाम फोटो दिखाते हुए बताया गया कि शुरूआती हिस्से में ही अभी तक नहर नहीं खुदी, अत: नहर से पानी देने का प्रश्न ही नहीं उठता । न्यायालय को यह भी बताया गया कि न सिर्फ आेंकारेश्वर परियोजना से गत दो वर्षों में लक्ष्य से ज्यादा बिजली उत्पादन हुआ है वरन परियोजना को बनाने वाली कम्पनी नर्मदा हाइड्रो इलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कार्पोरेशन (एनएचडीसी) ने गत तीन वर्षोंा में लगभग १००० करोड़ रूपए का शुद्ध लाभ कमाया है । याचिका पर निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम् एवं न्यायमूर्ति दीपक वर्मा की खण्डपीठ ने दिया। सर्वोच्च् न्यायालय ने उच्च् न्यायालय से कहा कि रिपोर्ट प्रािप्त् के बाद वह उचित आदेश पारित कर सकता है ।
गांव में चारों तरफ नीम का मंजर
पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरों के बीच अगर किसी गांव में इस तपती दोपहरी में चारों तरफ लहराते हरे भरे नीम के वृक्षों का मंजर नजर आए तो क्या कूल कूल एहसास होगा । यह कोरी कल्पना नहीं हकीकत है । म.प्र. मेंहरदा जिले के अंतर्गत आने वाले नीम गांव में नीम के वृक्ष ही वृक्ष नजर आते हैं। यहां लगभग हर घर आंगन और खेतों में नीम के वृक्षों की सुंदर कतारें नजर आती हैं । हरदा जिला मुख्यालय से करीब पांच किलोमीटर दूर नीमगांव में प्रवेश करते ही नीम के छायादार सुंदर वृक्षों की छटा देखने को मिलती है । ऐसा हो भी क्यों न । इस गांव में उस विश्नोई समुदाय के लोगों की बहुलता है जिन्होंने राजस्थान में वृक्ष काटने की जगह अपनी गर्दन कटाना पसंद किया था । राजस्थान के जोधपुर जिले के खेजड़ली गांव में वृक्षों की रक्षा के लिए अमृतादेवी की अगुवाई में इस समुदाय के ३६३ लोगों का बलिदान इतिहास के पन्नों पर अमिट कहानी के रूप में दर्ज है। इस गांव के लोग उस अमूल्य शहादत को अपनी शानदार विरासत मानते हैं और हर वर्ष पर्यावरण दिवस को मनाने के साथ वृक्षारोपण करते हैं । नीमगांव के बुजुर्ग जगन्नाथ पंवार बताते हैं कि पर्यावरण सुधार और समृद्धिशाली खेती के नारे को ध्यान में रखते हुए इस गांव मंे आरम्भ से ही बड़ी संख्या में नीम के वृक्ष लगाए गए । यह वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित तथ्य है कि अन्य वृक्षों की तुलना में नीम गर्मी में अधिक शीतल छाया देता है । इसका औषधीय महत्व भी बहुत अधिक है और इसकी पत्तियां तथा छाल का उपयोग कई रोगों के उपचार में होता है । श्री पवार ने कहा कि नीम की सूची पत्तियां जला कर गांव में बिना किसी दुष्प्रभाव के मच्छर भगाए जाते हैं । इसकी छाल का उपयोग अनेक प्रकार के चर्म रोगों की रामबाण औषधि है । घरों के साथ साथ खेतों की मेड़ पर नीम के वृक्ष लगाए जाने का कारण बताते हुए श्री पवार ने कहा कि इससे कृषि व्यवसाय को बहुत लाभ पहुंचता है । श्री पवार ने कहा कि नीम की पत्तियां और निम्बोली निरन्तर गिरती रहती है और इनके जरिए बेहद उर्वरक खाद का निर्माण किया जाता है । खेतों में काम करने वाले किसान और श्रमिक भी थकने पर इन्हीं वृक्षों की शीतल छांव में सुस्ताते हैं और भोजन करते हैं । एक हजार की आबादी वाले नीमगांव में लगभग ४० ट्रेक्टर हें और सभी परिवार सुख-दु:ख में बराबर के भागीदार होते हैं । हरदा शहर से नजदीक होने के कारण गांव के कई किसानों के बच्च्े शहर के अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते हैं । गांव के कईयुवकों ने उच्च् शिक्षा भी हासिल की लेकिन उन्होंने खेती के परंपरागत व्यवसाय को नहीं छोड़ा। इन युवकों ने खेती किसानी के आधुनिक तौर तरीकों का इस्तेमाल कर अपनी आय में और बढ़ौत्री की है । नीमगांव में किसानों ने बड़ी संख्या में दुधारू पशु भी रखे हैं। दूध घी आदि की बिक्री से उनकी अतिरिक्त आमदनी होती है । गांव के विश्नोई समुदाय के धर्मगुरू जम्भेश्वर महाराज का भव्य मंदिर भी स्थित है । यहां प्रतिवर्ष एक विशाल मेला लगता है।
गंगा एक्सप्रेस - वे निर्माण पर रोक
इलाहाबाद उच्च् न्यायालय ने नोएडा से बलिया तक प्रस्तावित गंगा एक्सप्रेस वे निर्माण पर रोक लगाते हुए पर्यावरण अनापत्ति की संपूर्ण प्रक्रिया को अवैध करार दिया है । न्यायालय के इस फैसले से गंगा एक्सप्रेस- वे परियोजना खटाई में पड़ गई है । न्यायालय ने उत्तर प्रदेश राज्य पर्यावरण इम्पेक्ट एसेसमेंट कमेटी द्वारा अपनाई गई अनापत्ति की पूरी प्रक्रिया को दोषपूर्ण व अवैध मानते हुए २३ अगस्त ०७ के क्लीयरेंस आदेश को रद्द कर दिया है । न्यायालय ने कहा है कि नियमानुसार पर्यावरण मंत्रालय का क्लीयरेंस लिए बगैर गंगा एक्सप्रेस-वे का निर्माण न किया जाए। न्यायालय ने २० फरवरी ०९ की अधिसूचना से गठित राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी से कहा है कि वह गंगा प्रदूषण व पर्यावरणीय खतरे की दृष्टि से परियोजना पर विचार करे। यह आदेश न्यायमूर्ति अशोक भूषण तथा न्यायमूर्ति अरूण टंडन की खंडपीठ ने गंगा महासभा, वाघम्बरी गद्दी के महंत नरेंद्र गिरी व विंध्य इन्वायरमेंटरल सोसायटी की जनहित याचिका को स्वीकार करते हुए दिया है । न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम एवं इसके तहत नियमावली १९८६ के अंतर्गत केंद्रीय पर्याव्रण मंत्रालय ने १४ सितम्बर ०६ को अधिसूचना जारी कर स्पष्ट किया है कि बिना क्लीयरेंस (अनापत्ति) प्राप्त् किए निर्माण नहीं किया जा सकता । इसके तहत निर्माण के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय तथा राज्य पर्यावरण इंस्पेक्ट एसेसमेंट कमेटी से अनापत्ति प्राप्त् करने की प्रक्रिया है । सरकार ने कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया है । सरकार ने गंगा किनारे तटबंध बनाने व हाईवे बनाने के लिए क्लीयरेंस मांगा, इसके विपरीत निर्माण योजना में शापिंग माल, स्कूल,मार्केट, पार्क आदि भी शामिल कर लिया गया । इन चीजों की कमेटी ने अनुमति नहीं दी है । हर स्तर पर नियमों का उल्लंघन किया गया और नियमानुसार अनापत्ति लिये बगैर की गयी सारी कार्रवाई अवैध है ।**

८ लघुकथा

फूलों की बगिया
-श्रीमती नीलम राकेश
रूपा अपने गुलाब के पौधे पर खिले सुन्दर गुलाब के फूलों को मुग्ध नजरों से देख रही थी । अनजाने ही उसका मन अतीत की ओर चला गया । इस साल रूपा पहली बार गांव गई थी। दादी के पास गांव जा कर वहां की हरियाली ने उसके मन को ऐसा छुआ कि शहर में जन्मी चौदह साल की रूपा को अचानक अपना शहर , अपनी कॉलोनी बहुत वीरान और सूखे लगने लगे । गांव से लौटी रूपा बहुत बेचैन रहती । तभी बरसात शुरू हो गई । चारों ओर जंगली घास निकलने लगी । एक दिन रूपा ने अपनी कॉलोनी के सभी बच्चें को एकत्र करके अपनी बात उन्हें समझाई `` साथियों मैं इन छुटि्टयों में गांव गई थी और वहंा मैने देखा चारों ओर खूब पेड़ पौधे और हरियाली होेने के कारण, वहां का वातावरण बहुत शुद्घ रहता है । इसीलिये वहां लोग कम बीमार पड़ते हैं । क्यों ना हम सभी कॉलोनी के बीच इस खाली मैदान को एक सुन्दर पार्क बना लें ? अपनी कॉलोनी के फूलों की सुगन्ध और शुद्घ हवा से भर दें ।'' अमन चहक कर बोला `` हाँ दीदी ! बड़ा मजा आयेगा। हम सब मिलकर पौधे लगायेंगें ।'' बाकी बच्चें को भी बात समझ में आ गई थी । सब बच्च्े वर्मा आंटी के माली के पास गये । बच्चें के उत्साह को देखकर माली काका उनका साथ देने को तैयार हो गये । कॉलोनी में बीस बच्च्े थे । सबने मिलकर दस क्यारियां बनाई । दो -दो बच्चें की टोलियों ने एक-एक क्यारी की जिम्मेदारी ले ली । अपनी गुल्लक के पैसों से पौघे मंगाये गये । माली काका की मदद से उन्हें लगाया गया । सब बच्च्े पूरी लगन से उनकी देखभाल में जुट गये। बच्चों के उत्साह को देख कर माली काका खुशी से उनके साथ जुड़ गये । बच्चें के उत्साह से उनके माता-पिता भी प्रभावित हुए ।और उनके कहने पर उनके माता पिता ने भी अपने - अपने घरों के आगे दो-दो पेड़ लगाये । अपने हाथों लगाये पौधों का बढ़ना , उन पर नई पत्तियों का आना, कलियेां का खिलना,नन्हें बच्चें को रोमांचित कर जाता । साथ ही साथ एक लक्ष्य के प्रति समर्पित हो कर साथ - ासथ काम करने से बच्चें कीे अन्दर एकता की भावना पैदा हुई और उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा । अचानक रूपा अपने कन्धे पर किसी का स्पर्श से चौंक कर वर्तमान में लौट आई । वर्मा आंटी खड़ी मुस्कुरा रही थीं , बोली `` रूपा यहंा खड़ी क्या देख रही हो ? चलो पार्क में सब लोग तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहे हैं । आज का यह बसन्त पंचमी का पर्व हम सब बच्चें की इस फूलों की बगिया में मनायेंगें । आज हम सब कॉलोनी के बड़े सदस्य तुम्हारी इस बाल टोली को सम्मानित करेंगें। तुम बच्चें ने वह कार्य कर दिखाया है , जिसे हम बड़ों ने सोचा भी नहीं था। आंटी के साथ पार्क की ओर आती रूपा ने देखा रंगबिरंगे परिधानों में सजे लोग और क्यारियों में झूमते सतरंगे फूल उनकी बगिया की शोभा को दुगुना कर रहे थे । रूपा के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई । ***
घटती आबादी से चिंतित है जापान
जापान की जनसंख्या में लगातार हो रही कमी देश के लिए चिंता का विषय बन गई है । स्वास्थ्य विभाग के एक रिपार्ट के अनुसार जापान में लोगों की प्रजनन दर में वृद्धि हुई है लेकिन इसके बाद भी जनसंख्या घट रही है । रिपोर्ट में बताया गया है कि जापान मंे मरने वालों की संख्या जन्म लेने वालों की संख्या से ज्यादा हैं। वहां जितने बच्च्े जन्म लेते हैं उसकी तुलना में ५१,३०० लोग ज्यादा मरते है । इस समय जापान की जनसंख्या १२ करोड़ ७६ लाख है और २०१५ तक एक-चौथाई से ज्यादा लोग ६५ वर्ष से ज्यादा उर्म के हो जांएगें। यदि जनसंख्या इसी दर से घटती रही तो अगले ५० वर्षो में देश की एक तिहाई जनसंख्या खत्म हो जाएगी । रिपोर्ट में बताया गया है कि २००८ में जापान की प्रजनन दर बढ़कर १.३७ हो गई है जो कि पिछले साल की तुलना में ०.०३ प्रतिशत अधिक है । लेकिन यह आवश्यकता से काफी कम है यदि जापान अपनी वर्तमान जनसंख्या को बनाए रखना चाहता है तो भी प्रजनन दर २.०७ होनी चाहिए । गौरतलब है कि विकसित देशों में जापान की प्रजनन दर सबसे कम है। संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रजनन दर २.१२ है जबकि ब्रिटेन में यह दर १.८४ है ।

९ खास खबर

वन विहार में बनेगा गिद्ध प्रजनन केन्द्र
(विशेष संवाददाता द्वारा)
आगामी वर्ष भोपाल के राष्ट्रीय उद्यान `वन विहार' में गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केंद्र स्थापित होगा । इस कंेद्र में मध्यभारत से विलुप्त् होने की कगार पर खड़ी गिद्घ की दो प्रजातियों का संरक्षण और उनकी संतति को बढ़ाने का कार्य किया जाएगा । वनविहार के संचालक एसएस राजपूत ने बताया कि `सेन्ट्रल जू अथारिटी' ने इस आशय के प्रस्ताव को सैद्घांतिक रूप से स्वीकार कर लिया है । इसके लिए वन विहार के पांच एकड़ क्षेत्रफल में कार्य भी प्रारंभ हो गया है । केंद्र की स्थापना के लिए गिद्ध संरक्षण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने वाली सस्था ` बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी' का सहयोग भी लिया जा रहा है । यह केंद्र जुलाई २०१० तक तैयार हो जाएगा । श्री राजपूत ने बताया कि इस केंद्र में मध्यभारत से विलुप्त् होने की स्थिति में पहुंच रही गिद्घ की दो प्रजातियों वाइट रम्पड और लांग बिल्ड को संरक्षित करने के साथ उनकी वंशवृद्धि के प्रयास किए जाएंगें । मध्यभारत क्षेत्र में गिद्ध की चार प्रजातियां मुख्य रूप से पाई जाती हैं । इनमें इजिप्शियन वल्चर को छोड़कर किंग वाइ उपड और लांग बिल्ड प्रजातियों पर संकट की तलवार लटक रही है । दो दशक पहले तक देश में ८५ लाख गिद्ध थे । अब उनकी संख्या ३०० से ४००० तक होने का अनुमान है । भारत में १०-१५ वर्षो में गिद्घों की संख्या ९५ प्रतिशत नष्ट हो चुकी है । गिद्घों की नौ प्रजातियों में से तीन जातियों के गिद्घ अर्थात व्हाइट बेक्ड गिद्ध स्लेंडर बिल्ड गिद्घ और लाँग बिल्ड गिद्धों की संख्या पिछले दशक के पूर्व से ही तेजी से घट रही है । वीएनएचएस सर्वेक्षण जांच के आधार पर उनकी संख्या स्लेंडर बिल्ड गिद्धों की संख्या लगभग १०००, व्हाइट बेक्ड लगभग १००० और लांग बिल्ड गिद्घों की संख्या २००० तक होने का अनुमान है । भारत में गिद्धों की संख्या २००५ तक ९७ प्रतिशत तक घट चुकी है । बढ़ता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों का अंधाधुध प्रयोग , बढ़ता हुआ प्रदूषण और बड़े स्तर पर गिद्धों को मारना जैसे कई कारण हैं जिनसे यह प्राणी लुप्त् होने की कगार पर है । `रामायण' में भगवान श्रीराम के सहयोगियों के रूप में जटायु और सम्पाती के रूप में दो गिद्घों का वर्णन है । दोनों के नाम साहस और बलिदान की कहानियों से जुड़े हुए हैं । आकाश में ऊँची उड़ान भरने के इन उल्लेखों से सिद्ध होता है कि प्राचीनकाल में गिद्धों को अलग दृष्टि से देखा जाता था । गिद्घ केवल भारत में ही नहीं अपितु अनेक और देशों से भी विलुप्त् हो रहे हैं। पर्यावरण संतुलन में इनकी एक व्यापक भूमिका है । ये हष्ट-पुष्ट शारीरिक गठन वाले होते हैं और इन्हें प्रकृति का निजी सफाईकर्मी दल माना जा सकता है । मृत जीव गिद्धों की एक खास प्रकार की खुराक है और इन्हें खाकर अपनी भूख शांत करने की इनकी आदतें जानवरों और मानवों में संचारी रोगों के फैलाव को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। डॉ. सालिम अली ने अपनी पुस्तक `इंडियन बर्ड्स' में गिद्धों का वर्णन प्रकृति की सफाई मशीन के रूप में किया है जिसकी जगह मानव के आविष्कार से बनी कृत्रिम मशीन नहीं ले सकती है । गिद्ध गर्म क्षेत्रों में सफाईकर्मी के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । गिद्धों का एक दल एक सांड के शव का केवल ३० मिनट में निपटारा कर सकता है । गिद्धों की संख्या में तेजी से हो रही कमी के कारण जीव- जगत की कुछ महत्वपूर्ण कड़ियां हम खोते जा रहे हैं। विज्ञान व पर्यावरण केंद्र का कहना है कि कृषि में कीटनाशक दवाआें का अधिक इस्तेमाल और डीडीटी, आल्ड्रिन तथा डिआल्ड्रिन गिद्घों की मौत का प्रमुख कारण है । सरकार ने अप्रेल २००६ में भारत में गिद्ध संरक्षण के लिए एक कार्ययोजना की घोषणा की थी । चरणबद्ध ढंग से डाइक्लोफेनेक के पशु चिकित्सकीय इस्तेमाल पर रोक तथा गिद्घों के संरक्षण और प्रजनन केंद्र की भी घोषणा की गयी थी । पर नतीजा कुछ खास नहीं निकला। प्रथम गिद्घ संरक्षण प्रजनन केन्द्र हरियाणा के पिंजौर में है और दूसरा प्रजनन केंद्र पश्चिम बंगाल के राजा त्वाखा, बुक्सा टाइगर रिजर्व में हैं । ये दोनों पहले से ही संचालित हैं ।***

१० स्वास्थ्य

औद्योगिक पशु पालन से पैदा होती महामारियां
-सुनील
दुनिया में अचानक एक नया आतंक पैदा हो गया है । स्वाइन फ्लू या सुअर - ज्वर नामक एक नई संक्रामक बीमारी से पूरा विश्व आतंकित दिखाई दे रहा है । कई देशोंमें हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया है । हवाई अड्डों पर विशेष जांच व निगरानी की जा रही है । यह बीमारी मेक्सिको से शुरू हुई थी, जहंा २०० मौतें हो चुकी हैं । वहां के राष्ट्रपति ने पूरे देश में ५ दिन का आर्थिक बंद घोषित कर दिया था और लोगों को घरों में रहने की सलाह दी थी। स्कूल-कॉलेज, सिनेमाघर, नाइट क्लब बंद कर दिए गए हैं और फुटबाल मैच रद्द कर दिए गए हैं । बगल में संयुक्त राज्य अमेरिका में भी दशहत छााई है और राष्ट्रपति ओबामा ने स्थिति से निबटने के लिए संसद से १५० करोड़ डॉलर मांगे हैं । अमरीका के अलावा कनाडा, स्पेन, ब्रिटेन, जर्मनी, न्यूजीलैण्ड, इस्राइल, ऑस्ट्रिया, स्विट्जलैण्ड, नीदरलैण्ड आदि में भी यह संक्रमण फैल चुका है । बाकी दुनिया में भी खलबली मच गई है । मिस्र ने तो सावधानी बतौर ३ लाख सुअरों को मारने के आदेश जारी कर दिए हैं । भारत के सारे हवाई अड्डों पर बाहर से आने वाले यात्रियों की जांच की जा रही है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि स्वाइन फ्लू एक महामारी बन सकता है । पहले यह बीमारी सिर्फ सुअरों में होती थी, अब इंसानों में फैल रही है। एच१एन१ नामक नया वायरस बन गया है, जिसकी प्रतिरोधक शक्ति इंसानों के शरीर में नहीं है । इसलिए मौतें हो रही हैं। इसका कोई टीका भी नहीं है और टैमीफ्लू नाम की एक ही दवाई है । पिछले कुछ दशकों में पालतु पशुआें के जरिए इंसानों में बीमारी फैलने का यह चौथा- पांचवा मामला हे । इसके पहले एन्थ््रेाक्स, सार्स, बर्ड फ्लू, मैडकाऊ डिसीज़ आदि से अफरा-तफरी मची थी। इंसान इन बीमारियों से इतना आतंकित है कि इनकी ज़रा भी आशंका होने पर हज़ारों - लाखों मुर्गियों, गायों, सुअरों को मार दिया जाता है । बर्ड फ्लू के डर से भारत, में असम, पं. बंगाल, महाराष्ट्र आदि में पिछले कुछ वर्षोंा में लाखों मुर्गियों को मौत के घाट उतारा गया है । मैड काऊ रोग के चक्कर में ब्रिटेन व अन्य देशों में लाखों गाय - बछड़ों का कत्ल कर दिया गया। आखिर ऐसे हालात पैदा कैसे हुए ? इनका सीधा संबंध आधुनिक ढंग से औद्योगिक पशुपालन से है, जिसमें बड़े - बड़े फार्मोंा में छोटे-छोटे दड़बों या पिंजरों में हजारों-लाखों पशुआें को एक जगह पाला जाता है । उनको घूमने -फिरने की कोई जगह नहंी होती है । अक्सर काफी गंदगी होती है । काफी रसायनयुक्त आहार खिलाकर, दवाइयां एवं हार्मोन देकर,कम से कम समय में उन्हंे ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की कोशिश होती हैं । इन्हें फार्म के बजाए फैक्टरी कहना ज्यादा सही होगा । पालतू मुर्गियों व बतखों में बर्ड फ्लू की बीमारी काफी समय से चली आ रही है । किंतु नए हालात में इसका रोगाणु एच५एन१ नामक नए घातक रूप में बदल गया है , जो प्रजाति की बाधा लांघकर इंसानों को प्रभावित करने में सक्षम है । विश्व खाद्य संगठन ने इसकी उत्पत्ति को चीन और दक्षिण - पूर्व एशिया में मुर्गी पालन के तेज़ी से विस्तार और औद्योगीकरण से जोड़ा है । पिछले पंद्रह वर्षोंा में चीन में मुर्गी उत्पादन दुगुना हो गया है । थाईलैण्ड, वियतनाम और इण्डोनेशिया में मुर्गी उत्पादन अस्सी के दशक की तुलना में तीन गुना हो गया है।संभव है कि बर्ड फ्लू का यह नया रोगाणु इंसान से इंसान को संक्रमित करने लगेगा तब यह एक महामारी का रूप धारण कर सकता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इससे निपटने की व्यापक तैयारी की ज़रूरत बताई है । मैड काऊ रोग का किस्सा तो और भयानक है । गायों की इस बीमारी (बीएसई) में मस्तिष्क को काफी क्षति पहुंचती है , इसलिये इसे पागल गाय रोग कहा गया है । यह इसलिए फैल रहा है क्योंकि गायों को उन्हीं की हडि्डयों, खून और अन्य अवशेषों का बना हुआ आहार खिलाया जा रहा है । आधुनिक बूचड़खानों में गायों आदि को काटने के बाद मांस को तो पैक करके बेच दिया जाता है किन्तु बड़े पैमाने पर हडि्डयां, आंतड़ियां, खून आदि का कचरा निकलता है , जिसको ठिकाने लगाना एक समस्या होता है । इस समस्या से निपटने का एक तरीका यह निकाला गया है कि इस कचरे का चूरा करके पुन: गायों के आहर में मिला दिया जाए । रोग के व्यापक प्रकोप के बाद ब्रिटेन ने इस पर पाबंदी लगाई है। मगर उत्तरी अमेरिका सहित कुछ स्थानों पर यह प्रथा चालू है । इस तरह के रोग से ग्रस्त गाय का मांस खाने वाले इंसानों को भी यह रोग हो सकता है । इसी तरह भोजन से फैलने वाले कुछ अन्य संक्रमित रोगों का सम्बंध भी आधुनिक फैक्टरीनुमा पशुपालन से जोड़ा जा रहा है । मांसाहार शुरू से मनुष्य के भोजन का हिस्सा रहा है और भोजन के लिए पशुपालन हजारों सालों से चला आ रहा है । किंतु आधुनिक औद्योगिक पशुपालन एक बिल्कुल ही अलग चीज़ है , जो काफी अप्राकृतिक, बर्बरतापूर्ण, प्रदूषणकारी और पूंजी प्रधान है । इसने लालच व क्रूरता की सारी मर्यादाएं तोड़ दी हैं । इसमें पशुआें को खुले चारागाहों या खेतों में नहीं चराया जाता और न ही उन्हें कुदरती भोजन दिया जाता है । ये परिवर्तन खास तौर से पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए हैं । इस अवधि में दुनिया में मांस का उत्पादन और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तेज़ी से बढ़ा है । फैक्टरीनुमा पशुपालन पहले मुर्गियां का शुरू हुआ, उसके बाद सुअरों का नंबर आया । मिडिकिफ नामक एक अमरीकी लेखक ने कंपनियों के आधुनिक मांस कारखानों पर अपनी किताब में इन्हें `पीड़ा और गंदगी का निरंतर फैलता हुआ दायरा ' कहा है । एम.जे. वाट्स ने इनकी तुलना `उच्च् तकनीकी यातना गृहों से की है । टोनी वैस ने अपनी ताज़ा पुस्तक में सुअर फार्मोंा का वर्णन इस प्रकार किया है- `` इन फैक्टरी फार्मोंा में मादा सुअर अपना पूरा जीवन धातु या कांक्रीट के फर्श पर बने छोटे-छोटे खांचों में बच्च्े जनते और पालते बिता देती है । ये खांचे इतने छोटे होते हैं कि वे मुड़ भी नहीं पातीं । शिशुआें को तीन-चार सप्तह में मां से अलगकर मादा सुअरों को फिर से गर्भ धारण कराया जाता है । शिशुआें को अलग कोठरियों में रखकर एन्टी-बायोटिक दवाईयों और हारमोन युक्त जीन परिवर्तित आहार दिया जाता है ताकि उनका वज़न तेजी से बढ़े। इस कैद के कारण होने वाले रोगों और अस्वाभाविक व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए काफी दवाईयां दी जाती हैं । उनकी पूंछ काट दी जाती है और इससे होने वाली गंदगी व दूषित कचरे को नदियों या समुद्री खाड़ियों में बहा दिया जाता है ।'' ए.कॉकबर्न ने दुनिया के मांस के इतिहास पर अपने एक पर्चे में संयुक्त राज्य अमरीका के एक प्रमुख सुअर - मांस उत्पादक राज्य उत्तरी कैरोलीना के बारे में भी ऐसे ही हालात बयान किए हैं । बर्ड फ्लू, स्वाईन फ्लू और मैड काऊ रोग दरअसल एक बड़ी और गहरी बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं । वह बीमारी है भोग, लालच व गैर बराबरी पर आधारित पूंजीवादी सभ्यता की , जिसमें शीर्ष पर बैठे थोड़े से लोगों ने अपने मुनाफे एवं विलास के लिए बाकी लोगों, प्राणियों तथा प्रकृति पर अत्याचार करने को अपना करोबार बना लिया है । आप यह भी कह सकते हैं कि ये नयी महामारियां उन निरीह प्राणियों या प्रकृति के प्रतिशोध के तरीके हैं । ***
एचआईवी वायरस से बनेगी एड्स की दवा !
एड़स खत्म करने के लिए इस बीमारी के लिए जिम्मेदार एचआईवी वायरस से ही दवा तैयार किए जाने की तैयारी है । इस शोध कार्य में ब्रिटेन के विश्वस्तरीय वैज्ञानिकों के साथ म.प्र. में सागर के डॉ. हरिसिंह गौर विवि के पूर्व छात्र डॉ. प्रेमनारायण गुप्त भी शामिल रहेगें । दवा तैयार करने का कार्य वैज्ञानिकों का दल ब्रिटेन की क्वींस यूनिवर्सिटी में करेगा । एड्स वैक्सीन की खोज में लगे में लगे हुए अंतरराष्ट्रीय संगठन ने डॉ. गुप्त का चयन पोस्ट डॉक्टरल कार्य के लिए किया है । डॉ. गुप्त ने बताया कि एड्स की रोकथाम के लिए होने वाली इस रिचर्स वर्क में इस रोग के लिए जिम्मेदार एचआईवी वायरस के एलीमेट को लेकर नैनो पार्टिकल किया जाएगा, जो एक बार फिर एड्स से पीड़ित मरीज की प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करेगा । डॉ. गुप्त ने फार्मेसी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. एसपी व्यास के निर्देशन में पीएच-डी. की है । उन्हें लक्ष्यभेदी हेपेटाइटिस वैक्सीन पर कार्य करने के लिए रैनवैक्सीन पर कार्य करने के लिए रैनवैक्सीन साइंस फाउंडेशन द्वारा युवा वैज्ञानिक का पुरस्कार दिया जा चुका है ।

११ वातावरण

तेज़ाबी बारिश के आसार
- नरेन्द्र देवांगन
आज जो बरसात हमें आनंदित करती है, वही निकट भविष्य में एक खतरनाक संकट बन कर बरस सकती है । वैज्ञानिक अध्ययन से पता लगा है कि भारत के आकाश से बरसने वाले स्वच्छ जल के बजाए तेज़ाबी बारिश के नाम से जगप्रसिद्ध पर्यावरणीय विपदा भारतवासियों को भी झेलनी पड़ सकती है । नईदिल्ली स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) के वायुमंडल विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन द्वारा बताया है कि भारत के कई हिस्सों में वर्षा जल की रासायनिक प्रवृत्ति धीरे- धीरे अम्लीयता की ओर बढ़ रही है । इस रिपोर्ट मेंे बताया गया है कि राजधानी दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र मध्यप्रदेश , तमिलनाडु और अंडमान द्वीपो में वर्षा जल की अम्लीयता लगातार बढत़ी जा रही है । फिलहाल यहां होने वाली वर्षा को अम्लीय नहंी कहा जा सकता , लेकिन यदि इस संभावित संकट पर रोक कहा जा सकता ,लेकिन यदि इस संभावित संकट पर रोक लगाने के लिए जल्द ही आवश्यक कदम नही उठाए गए तो हमारे देश मे अम्लीय वर्ष को रहकीकत बनने मे ज्ज़्यादा देर नही लगेगी। अम्लीय वर्षा की मुख्य वजह तेज़ी से बढ़ता वायु प्रदूषण है । कोयला और डीज़ल जैसे जीवाश्म इंर्धनों की लगातार बढ़ती खपत के कारण हवा में सल्फर ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड्स गैसों की मात्रा में तेजी से वृद्धि हो रही है । इसके लिए मोटर वाहनों के अलावा ताप बिजलीघर और इस्पात उद्योग को सबसे बड़ा दोषी माना जा रहा है । सूर्य की तीखी किरणें जब धरती पर मौजूद पानी को भप बनाकर आकाश की ओर खींचती है तो हवा में तैरती ये गैसें भाप ें घुल-मिल जाती हैं । इससे भाप में सलफ्यूरिक और नाइट्रिक अम्ल बन जाते हैं । यही अम्लीय भाप जब बादल बनकर बरसती है तो वर्षा की बूंदें तेज़ाब बरसाने लगती है । वर्षा जल में घुले - मिले रासायनिक प्रदूषक धरती की जीवनदायी मिट्टी, वनस्पतियों, ताल-तलैयों, नदियों आदि पर कहर बरसाने लगते हैं । भारत में जैसे - जैसे औद्योगिकरण और विकास की रफ्तार ज़ोर पकड़ती जा रही है, वैसे - वैसे हवा में वायु प्रदूषकों की मात्रा भी बढ़ती जा रही है । एक अनुमान के अनुसार १९९० में हमारा देश ४४०० किलो टन गंधक (सल्फर) हवा में छोड़ता था, जबकि आज इसकी मात्रा बढ़कर ८५०० किलो टन के आसपास है । हिसाब लगाया गया है कि २०२० में यह मात्रा बढ़कर १९५०० किलोटन हो जाएगी । इस गंभीर स्थिति के पीछे डीज़ल के बढ़ते उपयोग के अलावा इसकी खराब क्वालिटी का भी हाथ है । हमारे यहां इस्तेमाल किए जा रहे डीज़ल में सल्फर की मात्रा ०.५ फीसदी (भार के हिसाब से) है । आजकल भारत में कई राज्यों/ शहरों में कम सल्फर वाले डीज़ल की आपूर्ति की जा रही है , फिर भी पश्चिमी देशों की तुलना में भारतीय डीज़ल कहीं अधिक सल्फरयुक्त है । उदाहरण के तौर पर स्वीडन का डीजल भारतीय डीज़ल की तुलना में कोई ढाई सौगुना अधिक स्वच्छ है । कुछ वर्ष पहले यह मामला उठा तो भारतीय उद्योग महासंघ (सीआईआई) के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष का कहना था कि यदि सरकार डीज़ल के उपयोग को इसी तरह बढ़ावा देती रही तो आई.आई.टी. द्वारा व्यक्त की गई संभावना जल्द ही हकीकत बन जाएगी । आई.आई.टी. के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि तेज़ाबी बारिश के कहर से कोई भी जीव बच नहीं सकता । भले ही वह जीवाणु जैसा सूक्ष्मजीव हो या फिर हमारे जैसा समझदार प्राणी । तेज़ाबी बारिश मिट्टी में मौजूद जीवाणुआें को नष्ट करती है, जिससे पौधों की उत्पादकता पर बुरा असर पड़ता है । दरअसल मिट्टी में अम्ल घुलने की वजह से पेड़- पौधे पोटेशियम, कैल्शियम और मैग्निशियम जैसे पोषक तत्वों को भली प्रकार सोख नहीं पाते । इसके अलावा तेजाबी बारिश के कारण हरी पत्तियों की चिकनी मोटी परत नष्ट हो जाती है, जिससे वे धूप में भोजन बनाने का काम (प्रकाश संश्लषण) ठीक से नहंी कर पाती । तेज़ाबी बारिश वाले पानी में एल्यूमिनियम मौजूद हेाता है , जो मछलियों समेत अनेक जलीय जीवों के लिए ज़हर का काम करता है । यही एल्यूमिनियम जब पक्षियों की खुराक में शामिल हो जाता है तो उनमें अंडे बनने की प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है । तेज़ाबी बारिश में मौजूद रसायनों के प्रभाव से मिट्टी से बेहतर खतरनाक पारा (मरकरी) निकलने लगता है, जो अंतत: नदियो, झीलों आदि में इकट्ठा हो जाता है ।जब इन प्रदूषित नदियों - झीलों में पल रही मछलियों को मनुष्य उदरस्थ करता है तो यही पारा देह में इकठ्ठा होकर बेहद खतरनाक प्रभाव डाता है । तेज़ाबी बारिश के कारण उत्पन्न होने वाला केडमियम हमारे गुर्दोंा में कई प्रकार के विकार उत्पन्न करने के अलावा घाव भी पनपा सकता है । इसी तरह एल्युमिनियम की मौजूदगी से हडि्डयों और दिमाग को क्षति पहुंचती सकती है । विशेषज्ञों का विश्वास है कि जैसे - जैसे भारत का आर्थिक विकास ज़ोर पकड़ेगा, वैसे - वैसे कोयले की खपत भी बढ़ती जाएगी । सन् २०२० तक यह तीन गुना हो सकती है । इससे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, बिहार, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के हिस्सों तथा दक्षिण के तटीय क्षेत्रों में तेज़ाबी बारिश के बादल गहरा सकते हैं । इन क्षेत्रों की मिट्टी पहले ही अम्लीयता की ओर कदम बढ़ा चुकी है । ऐसे में यदि तेज़ाबी बारिश भी शुरू हो गई तो यहंा की भूमि बंजर होकर कृषि के लिए बेकार हो जाएगी । वैज्ञानिकों ने ताप बिजलीघरों के आसपास के क्षेत्रों में २६ फसलों की उत्पादकता पर अध्ययन करके बताया है कि हवा में अधिक सल्फर डाइऑक्साइड के कारण इनकी उपज गिर रही है ।उन्होंने फसलों में अनाज के अलावा फलों, सब्जियों को भी शामिल किया था । एक अध्ययन में सिंगरौली, कोराडी, दादरी, भुसावल और सिक्का के बिजलीघरों के दस किलोमीटर के दायरे के भीतर फसलों की औसत उपज में १३-५९ फीसदी गिरावट दर्ज की गई । इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि देश भर में सल्फर डाइ ऑक्साईड की मात्रा बढ़ती है, तो कृषि उत्पादन पर कितना बुरा असर पड़ेगा ? विडंबना यह है कि ऐसी विकट संभावना उस दौर में बन रही है जब हमें बढ़ती आबादी के भरण - पोषण के लिए खाद्यान्न का उत्पादन प्रति वर्ष ४० से ५० लाख टन बढ़ाना है । तेज़ाबी बारिश पर रोक लगाने के उपाय अजमाने के साथ ही यह जरूरी है कि समस्या को समझने के लिए देश को क्षेत्रवार बांटकर वहां तेज़ाबी बारिश की संभावना को दर्शाया जाए । आम जनता और उद्योगों को बताया जाए कि यदि उनके क्षेत्र में तेज़ाबी बारिश होती है तेा कौन - कौन सी विपदाएं टूट सकती हैं ?यह एक जाना - माना तथ्य है कि प्रदूषण पर रोक लगाने से जनता स्वस्थ रहती है , कृषि उत्पादन बढ़ता है और वनस्पतियों की तादाद में वृद्धि होती है । किसी भी देश को खुशहाल बनाने के लिये ये तीनों चीज़ें आवश्यक हैं । यह सच है कि तेज़ाबी बारिश एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समस्या है, परंतु इस पर रोक लगाने का काम राष्ट्रीय स्तर पर ही करना होगा। ***
सबसे छोटा समुदाय लड़ रहा है, अस्तित्व की लड़ाई
विश्व के सबसे छोटे संगठित धार्मिक समुदाय समैरिटन अपनी जनसंख्या के सिमटते जाने के खतरे के मद्देनजर अब अपने अस्तित्व बचाने की हरचंद कोशिश में जुट गया है । और इसके लिए उसे इंटरनेट, जेनेटिक परीक्षण जैसी आधुनिकतम तकनीकोंके इस्तेमाल से कोई परहेज नहीं है । खुद को मूल इजरायली कहने वाले और खाने, यौन एवं विश्राम के खास तरीकों एवं नियमों को बिना किसी बदलाव अब तक चलाने वाले इस समैरिटन समुदाय की जनसंख्या केवल १४५ सदस्यों तक सिमट गई है । इससे इस समुदाय के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया है । सामुदायिक जीवन की इस जद्दोजहद में इस समुदाय ने अब नई तकनीकों और जीवन संगिनी ढूंढने के आधुनिक तरीकों एवं विवाह से पहले आनुवांशिक रोगों की पहचान जैसे तरीकों का प्रयोग शुरू कर दिया है । समैरिटन समुदाय का जिक्र ईसाइयों की पवित्र किताब बाईबिल में मिलता है । फिलहाल ये लोग इजरायल अधिकृत पश्चिम किनारे वाले इलाके के गिरीजिम पर्वत पर बसे आधुनिक गांव किरयातलुजा में रह रहे है । धार्मिक किताबों में इस पर्वत की बहुत मान्यता है । इनकी आबादी का शेष आधा हिस्सा राजधानी तेल अबीब मेंे रह रहा है । इस समुदाय के १२ आनुवंशिक धर्मगुरूआें में से एक हुसीने कोहेन (६५) भर्राई हुई आवाज में बताते हैं कि इतिहास के पन्नों में दर्ज रोमन साम्राज्य के दौर में उनके समुदाय की आबादी एक लाख से अधिक थी लेकिन आज यह विश्व का सबसे छोटा समुदाय भर रह गया है ।