सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

प्रसंगवश

मेढ़कों का सफाया उनके व्यापार ने किया
मेंढकों पर मंडराता विश्वव्यापी खतरा आजकर चिंता का विषय बना हुआ है । दरअसल, खतरा सिर्फ मेढ़कों पर नहीं वरन समस्त उभयचर जीवों पर मंडरा रहा है । यह खतरा एक घातक फफूंद के फैलने से पैदा हुआ है । और एक ताजा अध्ययन बताता है कि इस खतरे को बढ़ाने में व्यापार की अहम भूमिका हो सकती है ।
इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के रिस फेरर और उनके सहकर्मियों ने इस फफूंद बैट्रोकोकइट्रियम डेंड्रोबेटिडिस (बीडी) के २० नमूनों का डीएनए विश्लेषण किया । ये नमूने यूरोप, अफ्रीका, उत्तरी व दक्षिण अमरीका तथा ऑस्ट्रेलिया से प्राप्त् किए गए थे । उन्होंने पाया कि २० में से १६ नमूने जिनेटिक रूप से एक जैसे थे । ये सभी फफूंद की एक ही किस्म (बीडीजीपीएल) से आए थे । यानी यह फफूंद इन पांच महाद्वीपों पर फैल चुकी है । मेढ़कों के टैडपोल्स पर किए गए परीक्षणों में पता चला कि फफूंद की यह किस्म जानलेवा और संक्रामक है ।
बीडीजीपीएल के जीनोम के विश्लेषण से पता चला कि यह तब बना था जब फफूंद की दो अलग-अलग किस्मों का समागम हुआ था । यह क्रिया पिछले करीब १०० सालों से दरम्यान हुई होगी । फफंूद की अलग-अलग किस्मों का समागम एक बिरली घटना है क्योंकि फफंूद खुद तो यहां-वहां जाती नहीं है । इसकी सबसे संभव व्याख्या यह है कि बीसवी सदी में मेढकों के व्यापार के दौरान जब मेढ़कों को दुनिया भर में यहां से वहां ले जाया जाता था, तब फफंूदों की इन अलग-अलग किस्मों का संपर्क हुआ होगा । शोधकर्ताआें के मुताबिक उभयचरों को बचाने का एकमात्र तरीका यह है कि उनके व्यापार पर प्रतिबंध लगे । कम से कम उन्हें तब तक एक जगह से दूसरी जगह न ले जाया जाए, जब तक कि वे संक्रमण मुक्त साबित न हो जाएं ।
जब यह पता चला कि इस फफूंद का प्रसार व्यापार की वजह से हो रहा है तो वर्ल्ड ऑर्गेनाइजेशन फॉर एनिमल हेल्थ ने इस रोग की सूचना देना अनिवार्य बना दिया । वैसे मेडागास्कर और दक्षिण पूर्व एशिया में अभी भी संक्रमण मुक्त उभयचर प्रजातियां फल-फूल रही हैं । ये दोनों स्थान उभयचर जैव विविधता के हॉट स्पॉट है । शोधकर्ताआें को लगता है कि कम से कम इन दो स्थानों को तो व्यापार के जरिए फैलने वाले संक्रमण से बचाया जाना चाहिए ।

संपादकीय

पर्यावरण को लेकर भारत चिंतित नहीं

भारत के लोग दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित हवा में सांस ले रहे है ं । एक ताजा अध्ययन के अनुसार पूरी दुनिया मेंहमारे देश की वायु सबसे अधिक प्रदूषित है । वायु गुणवत्ता पर आधरित १३२ देशों में हुए अध्ययन में भारत आखिरी दस देशों में शामिल है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि बांग्लादेश की स्थिति भारत से बेहतर है ।
अमेरिकी की येल और कोलबिंया विश्वविघालय के वैज्ञानिकों की ओर से १३२ देशों में कराए गए वायु गुणवत्ता के इस वैज्ञानिक अध्ययन में भारत को १२५ वां स्थान मिला है, जबकि चीन को ११६ वां स्थान मिला है । सूची में पूरे दक्षिण एशियाई देशों की ही स्थिति बहुत खराब है, इसमें नेपाल, पाकिस्तान और चीन भी शामिल है ।
यह सूचकांक विश्व के देशों के पर्यावरण संबंधी सौ बिन्दुआें को २२ श्रेणियों के आधार पर निर्धारित किया गया है । इनमें से दो प्रमुख श्रेणियां हैं - पर्यावरण स्वास्थ्य, जल, वायु प्रदूषण का प्रकृति पर प्रभाव, वायु प्रदूषण का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव, जल संसाधन, जैव विविधता, उपजाऊ भूमि, वन, मछली पालन, कृषि और जलवायु परिवर्तन आदि । इनवायरमेंट परफामेंस इंडेक्स (ईपीआइ) निकालने के लिए येल और कोलंबिया विश्वविघालय सन २००६ से लगातार हर दो साल पर अपना लेखा-जोखा दुनिया के सामने रखती है ।
इस सूची में ब्राजील को ३०वां स्थान मिला है । अमेरिका ४९ स्थान पर फ्रांस छठे स्थान पर, जर्मनी ११ वें स्थान पर और जापान २३ वें स्थान पर है । सूची में लातविया, नॉर्वे, लक्जमबर्ग और कोस्टारिका शीर्ष पंाच स्थानों में शामिल है । सूची में सबसे निचले पांच स्थान पर है दक्षिण अफ्रीका, कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और इराक । हालांकि पिछले दो सालों में भारत ने वन, मछली पालन, जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन की दिशा में अच्छा प्रदर्शन किया है । लेकिन प्रयासों का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव हो या फिर प्रकृति पर प्रभाव हो, नतीजे बहुत ठीक नहीं आए हैं । इस रिपोर्ट को जल्दी ही दावोस में होने वाले वर्ल्ड इकोनामिक फोरम में पेश किया जाएगा ।

सामयिक

मानव विकास मेंपिछड़ता भारत
डॉ. रामप्रताप गुप्त

संयुक्त राष्ट्र मानव विकास २०११ में दिए गए आंकड़ों से भारत की इस क्षेत्र में दयनीय स्थिति स्पष्ट होती है । सरकारी दावों के बावजूद स्थितियाँ उतनी तीव्रता से सुधर नहीं रही हैं जितनी की अपेक्षा की जा रही थी । इस रिपोर्ट के जारी होने के बाद भारत सरकार व राज्य सरकारों के रूख में कोई परिवर्तन आता है या नहीं यह तो समय ही बताएगा ।
पूंजीवादी व्यवस्था और नवउदारवाद के कारण आय वितरण की बढ़ती विषमता के विरूद्ध आक्रोश के प्रतीक अमेरिका मेंवाल स्ट्रीट पर कब्जे के आंदोलन की खबरों और विश्लेषणों की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट सन् २०११ ने भी कुछ इसी तरह की चेतावनी दी है । कोपनहेगन (डेनमार्क) में गत २ नवम्बर को प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर हमने जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए तो सबसे गरीब राष्ट्रों की सन् २०५० तक विकास प्रक्रिया रूक जायेगी और विश्व के राष्ट्रों के मध्य तथा उनके भीतर आय के वितरण की विषमता में और भी वृद्धि हो जाएगी ।
यह रिपोर्ट इस तथ्य को भी रेखांकित करती है कि हम जो भी कार्य करते हैं, वह विश्व की ७ अरब आबादी को प्रतिकूल या अनुकूल रूप से प्रभावित करते ही हैं । यूएनडीपी के प्रशासक हेलन क्लार्क का कहना है कि हमारे अनसोचे कदमों के कारण जलवायु में परिवर्तन और प्राकृतिक परिवेश के विनाश के कारण विकासशील राष्ट्रों में आय और स्वास्थ्य में सुधार के प्रयास खतरे में पड़ जायेंगे ।
मानव विकास सूचकों की गणना के लिए तीन घटकों को शामिल किया जाता है, प्रथम है दीर्घ स्वस्थ जीवन, द्वितीय है ज्ञान और शिक्षा तक पहुंच और तृतीय है समुचित जीवन स्तर । अगर इन तीन घटकों के आधार पर निर्मित सूचकांकों में स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाआें तक पहुंच और आय के वितरण की विषमता को भी समायोजित कर लिया जाए तो वर्तमान में मानव विकास सूचकांकों की दृष्टि से प्रथम दस राष्ट्र - ऑस्टे्रलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाड़ा, जर्मनी, जापान, फ्रांस, इटली, इंग्लैंड, चिली और अर्जेंाटीना - में से कुछ राष्ट्र विश्व के प्रथम २० राष्ट्रों की सूची से भी बाहर हो जायेंगे ।
अमेरिका और इजराइल के क्रम में गिरावट मुख्यत: आय वितरण की विषमता के कारण होगी । अमेरिका के संबंध में स्वास्थ्य सुविधाआें में विषमता का भी महत्व है । दक्षिणी कोरिया के संदर्भ में शिक्षा तक पहुंच में विषमता समायोजित मानव विकास सूचकांक में गिरावट के लिए जिम्मेदार होगी । यूएनडीपी के प्रमुख सांख्यिकीविद मिलोरड कोवो सेविक का कहना है कि आय वितरण की विषमता के मानव विकास सूचकांकों की गणना में शामिल किये जाने से हम मात्र औसत के स्थान पर समाज के सभी वर्गो के विकास स्तर का बेहतर अनुमान लगा सकते हैं । उनका यह भी कहना कि आय वितरण की विषमता के साथ-साथ अनेक राष्ट्रों में जनता के शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाआें तक पहुंच में भी भारी विषमताएं हैं । इनमें व्याप्त् विषमताएं मानव कल्याण को प्रमुखता से प्रभावित करती है । अत: विषमता के साथ समायोजन करने वाले मानव विकास सूचकांक ही बेहतर होंगे । ये समाज के सभी वर्गो के विकास को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करते हैं ।
अगर हम भारत की बात करें तो सन् २०११ में इसको मानव विकास सूचकांक वाले राष्ट्रों में शामिल किया जाता है और विश्व के १८७ राष्ट्रों में इसका स्थान १३४ वां आता है । जब हम इसमें आय वितरण की विषमता को भी समायोजित करते हैं तो यह २८ प्रतिशत गिरकर मात्र ०.३९२ ही रह जाता है । हम भारत में लैंगिक विषमता सूचकांक की बात करें तो सन् २०११ में इसका आकार ०.६१७ के बराबर आता है और विश्व के १४६ राष्ट्रों में भारत का स्थान १२९ वां आता है ।
मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत की संसद में १०.७ स्थान महिलाआें के पास है, २६.६ प्रतिशत महिलाएं ही हायर सेकेण्डरी या इससे उच्च् स्तर की शिक्षा प्राप्त् कर पाती है, जबकि पुरूषों के संदर्भ में यह आंकड़ा ५०.४ प्रतिशत का है । श्रम बाजार में पुरूषों की ८१.५ प्रतिशत की भागीदारी के मुकाबले महिलाआें की भागीदारी ३२.८ प्रतिशत ही है । महिलाआें को प्रजनन संबंध खतरे भी उठाने पड़ते हैं, प्रति एक लाख जीवित प्रसवों में प्रतिवर्ष २३० महिलाएं अकाल मृत्यु का शिकार हो जाती हैं । इन सब तथ्यों को देखते हुए मानव विकास प्रतिवेदन सन् २००१ में बहुआयामी गरीबी सूचकांकों की गणना की थी ।
बहुआयामी गरीबी सूचकांक परिवारों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रहन-सहन के स्तर की दृष्टि से लोगों के बहिष्कार को प्रदर्शित करता है । भारत के संदर्भ में इस तरह के आंकड़े सन् २००५ से ही उपलब्ध हैं । भारत में ५३.७ प्रतिशत लोग इस तरह के बहुआयामी पिछड़ेपन के शिकार हैं और इसके अलावा १६.४ प्रतिशत लोगों में इस तरह के पिछड़ेपन के शिकार होने की प्रबल संभावनाएं मौजूद हैं ।
भारत में गरीबी के मापदण्ड को लेकर इस समय विवाद हो रहे हैं और अलग-अलग मापदण्डों पर प्रतिशत में काफी अंतर बताया जा रहा है । परन्तु मानव विकास की दृष्टि बहुआयामी बहिष्कार के शिकार लोगों के प्रतिशत का ५३.७ होना शासकों की आंखे खोल देने वाला है । इससे हमारी सरकार का यह दावा कि यह सर्वसमावेशी विकास की दिशा में प्रयास कर रही है, भी खोखला ही सिद्ध होता है ।
मानव विकास प्रतिवेदन का कथन है कि सर्वाधिक गरीब लोग बहिष्कार का दोहरा भार वहन करने के लिए बाध्य होते है । वे पर्यावरण के प्रभावों के शिकार होेते ही हैं, साथ ही उन्हें अपने आवास में वायु प्रदूषण, अशुद्ध पेयजल तथा शौचालयों के अभाव में खुले में शौच करने के दुष्प्रभावों को भी झेलना पड़ता है । रिपोर्ट के अनुसार गरीबी के कारण खाना पकाने की गैस, शुद्ध पेयजल और मूलभूत साफ सफाई की सुविधाआें के अभाव का भी इन्हें अलग से शिकार होना पड़ता है । इस दृष्टि से गरीब आबादी का इनसे बहिष्कार अपने आप में महत्वपूर्ण तो है ही, यह मानव अधिकारों का उल्लंघन भी है । इस प्रकार के बहिष्कारों को दूर करने से आम आदमी की कार्यकुशलता में वृद्धि भी होगी और मानव विकास की दिशा में भी प्रगति होगी, सूचकांक भी बेहतर होंगे ।
अनेक राष्ट्रों में गरीब वर्गो को इस तरह के वंचन से मुक्त करने के लिए निश्चित हीवित्त की भी आवश्यकता होगी जो गरीब राष्ट्रों के लिए एक बड़ी समस्या होती है । मानव विकास प्रतिवेदन में इसके लिए भी एक रास्ता सुझाया है । अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की तुलना में विश्व में मुद्राआें का लेनदेन कई गुना होता है, अत: रिपोर्ट का सुझाव है कि अगर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राआें के लेनदेन पर ०.००५ प्रतिशत भी कर लगा दिया जाए तो उससे ४० अरब डॉलर एकत्रित हो सकेंगे जो वर्तमान में प्रदत्त विदेशी सहायता को मिलाकर १३० अरब डॉलर के बराबर हो जायेंगे ।
जलवायु परिवर्तन के साथ समायोजन करने के लिए भी विकासशील राष्ट्रों को विशेषकर दक्षिणी एशिया के राष्ट्रों को १०५ अरब डॉलर की आवश्यकता होगी । अत: अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन पर ०.००५ प्रतिशत का कर इस दिशा में सहायक सिद्ध हो सकेगा ।
रिपोर्ट आम जनता के पर्यावरणीय अधिकारों का संविधान में प्रावधान की आवश्यकता को भी प्रतिपादित करती है । अतएव मूलभूत अधिकारों में भी पर्यावरणीय अधिकारों को शामिल किया जा सकता है ।

हमारा भूमण्डल

डरबन में धीमी रफ्तार से पहल
मार्टिन खोर

पिछले दिनों डरबन में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में काफी गहमा-गहमी रही । आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर भी चला । दो सप्तह के इस सम्मेलन में कई रूकावटें भी खड़ी हुई लेकिन अंतत: एक नई जलवायु नीति निर्माण की दिशा में पहला कदम भी रखा गया । कुल मिलाकर यह सम्मेलन भी पिछले जलवायु सम्मेलनों से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाया ।
डरबन में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का ११ दिसम्बर २०११ को समापन वर्ष २०१५ तक एक नई वैश्विक जलवायु नीति बनाने के संकल्प के साथ हुआ । इस नई नीति का उद्देश्य है सभी भागीदारों द्वारा आपसी समझैते हेतु अधिकतम प्रयासों का किया जाना । इसका अर्थ है देशों को या तो ग्रीन हाउस उत्सर्जन में अत्यधिक कमी करनी होगी या उनके उत्सर्जन की वृद्धि दर को कम करना होगा । यह संलेख (प्रोटोकॉल) एक अन्य कानूनी दस्तावेज या कानूनी शक्ति वाले परिणाम के रूप में सामने आएगा । एक नाटकीय घटनाक्रम में यूरोपियन संघ ने भारत और चीन पर दबाव डालकर यह प्रयास किया कि वे एक कानूनी बाध्यता वाले प्रपत्र (प्रोटोकॉल) पर हस्ताक्षर करें और संभावित नतीजों की सूची में से कानूनी निष्कर्ष या परिणाम जैसी शब्दावली को निरस्त कर दें । उनका मानना था कि यह अत्यन्त कमजोर विकल्प है ।
यूरोपियन यूनियन एवं अमेरिका का कहना था कि वे चाहते हैं कि मुख्य विकासशील देश उनके जैसे ही उत्सर्जन कम करने वाले बंधनों को मानें । यह उस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से अलग हटना है, जिसने अमीर देशों के लिए उत्सर्जन में बंधनकारी कमी की बाध्यता और विकासशील देशों द्वारा स्वैच्छिक तौर नर कमी किए जाने के मध्य भेद किया था । ११ दिसम्बर को भारत की पर्यावरण मंत्री श्रीमती जयंती नटराजन ने अपने भावावेश से भरे संबोधन में इस बात का बचाव किया कि भारत किसी भी कानूनी बाध्यकारी दस्तावेज के खिलाफ क्यों है और नई बातचीत समानता के आधार पर ही होना चाहिए । उन्होंने पूछा कि भारत ऐसे दस्तावेज का सहभागी होने के लिए आंख मींच कर हामी क्यों भर दे जबकि दस्तावेज की विषय वस्तु ही अभी तक ज्ञात नहीं है ?उनका कहना था हम जीवनशैली में परिवर्तन की नहीं कर रहे हैं बल्कि हम लाखों लाख किसानों की जीविका पर पड़ने वाले प्रभावों पर बात कर रहे हैं । मैं एक अरब २० करोड़ लोगों के अधिकारों को लेकर हस्ताक्षर क्यों कर दूं ? क्या यह समदृष्टि है ?
श्रीमती नटराजन का कहना कि वार्ता के दौर के प्रस्ताव में समदृष्टि या साझा लेकिन विभेदीकरण मूलक जिम्मेदारी जैसा शब्दों को शामिल ही नहीं किया गया जबकि सम्मेलन की एक शब्दावली के हिसाब से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में अमीर देशों को गरीब देशों से अधिक योगदान देना होगा (यह सिद्धांत उनकी उस ऐतिहासकि जवाबदारी पर आधारित है जिसके अनुसार अमीर देशों द्वारा वातावरण में ग्रीन हाउस गैसें एकत्रित हुई हैं) और इसी के परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन हुआ है । यदि इस तरह का दस्तावेज विकसित किया जाता है जिसमें गरीब देशों को अपने उत्सर्जन में अमीर देशों जितनी ही कमी लानी होगी तो इसे समानता या समदृष्टि नहीं कहा जा सकता । यह साझा और विभेदी जिम्मेदारी से पलायन होगा । इतना ही नहीं यह सबसे बड़ी त्रासदी भी होगी ।
अनेक देश जिनमें चीन, फिलीपींस, पाकिस्तान और मिस्त्र भी शामिल हैं, ने भारत की बात का समर्थन किया । अंतत: कानूनी परिणाम शब्द को कानूनी शक्ति से परिणाम के रूप में बदलने पर सहमती बनी । इसी समय जलवायु परिवर्तन पर वर्तमान रूपरेखा में, जिसमें क्योटो प्रोटोकॉल एवं बाली रोड मेप को धीमे लागू करने के लिए कदम उठाने पर भी चर्चा हुई । क्योटो प्रोटोकॉल को मुख्यतया यूरोपियन देशों और उत्सर्जन कमी हेतु वर्ष २०१३ से प्रारंभ होने वाले दूसरी अवधि में शामिल होने की सहमति देने से बचाया जा सका ।
इसके बावजूद क्योटो प्रोटोकॉल काफी हद तक कमजोर हुआ है । जापान, रूस एवं कनाड़ा ने दूसरी अवधि में इसमें शामिल होने से स्वयं को अलग कर लिया जबकि ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड का कहना था वे इसमें शामिल भी हो सकते हैं और नहीं भी । और जबकि क्योटो प्रोटोकॉल में केवल यूरोपीय देश ही बचे हैं ऐसे में यह प्रोटोकॉल वर्ष २०१७ या २०२० तक जिंदा तो रह सकता है लेकिन इस पर अभी से ही नए समझौते की परछाईयां पड़ने लग गई है । इस नए समझौते में अंकित शब्दावली विकसित देशों के पूर्णतया पक्ष में है और समदृष्टि का सिद्धांत इसमें से जानबूझकर अनुपस्थित है और इसमें यह सिद्धांत थोपा जा रहा है कि सभी देश इसमें भागीदारी करें और इसमें उत्सर्जन मे ंपूर्ण कमी को लेकर अत्यधिक महत्वाकांक्षा दिखाई गई है । डरबन सम्मेलन में ग्रीन जलवायु कोष की बातों को लेकर अंतिम सहमति बनी है जो कि अपने बोर्ड एवं सचिवालय के माध्यम से वर्ष २०१२ के प्रारंभ में परिचालन प्रारंभ कर देगा । डरबन सम्मेलन में अनेक बार ऐसा लगा कि वार्ता पटरी से उतर रही है क्योंकि वहां अनेक मसलों पर असहमति साफ नजर आ रही थी ।
इतना ही नहीं दो हफ्तों के सत्र के बावजूद अंतिम सत्र को एक दिन के लिए बढ़ाया गया और दक्षिण अफ्रीका जिस तरह से बिना परिवर्तन के दस्तावेजों को पारित करवाने का प्रयास कर रहा था उसे लेकर सबके बीच नाराजगी भी थी । अंत में यही कहा जा सकता है कि डरबन को समानता आधारित जलवायु परिवर्तन रूपरेखा से अलग हटने और एक नई संधि जिसकी विषय वस्तुत अभी ज्ञात नहीं है, की ओर कदम बढ़ाने के लिए याद रखा जाएगा ।

विशेष लेख

अक्षय ऊर्जा की व्यावहारिकता
के. जयलक्ष्मी

अक्षय ऊर्जा ही हमारा भविष्य है मगर इसके बावजूद हमें सावधानीपूर्वक इस बदलाव को चरणबद्ध तरीके से और जरूरत के अनुसार ही लाना होगा, जल्दबाजी में या लालचवश नहीं ।
कोयले से मिलने वाली बिजली और परमाणु ऊर्जा परिदृश्य से जल्दी बाहर होने वाले नहीं । २०५० से पहले तक जीवाश्म ईधन को हटाकर साफ-सुथरी ऊर्जा ला पाना संभव नहीं लगता । साफ-सुथरी ऊर्जा की रूमानियत में व्यवहारिकता का मिश्रण जरूरी होगा । आज के हालात में यह कथन राजनैतिक रूप से तो सही नहीं है मगर इसमें सच्चई है ।
अक्षय ऊर्जा के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा आधारभूत संरचना का अभाव है । पारंपिक ऊर्जा ठोस, द्रव या गैसीय बायोमास के रूप में संरक्षित है जिसके उपयोग के लिए सिर्फ निष्कर्षण की तकनीक और परिवहन की दरकार है । दूसरी ओर, वैकल्पिक ऊर्जा के संग्रहण या रूपांतरण के लिए उपकरणों और बुनियादी ढांचे की जरूरत होगी ।
कच्च्े माल से लेकर उत्पादन तक वैकल्पिक ऊर्जा आपूर्ति की पूरी श्रृंखला (खनन, परिवहन, निर्माण और रखरखाव) आज भी जीवश्म ईधन पर ही आश्रित है । फिलहाल जीवाश्म ईधन की मदद के बगैर कोई वैकल्पिक ऊर्जा नहीं प्राप्त् की जा सकती और न ही इससे ऐसे उपकरण बनाए जा सकते हैं कि जो वैकल्पिक ऊर्जा उत्पादन के लिए जरूरी है ।
यहां और भी कई मुद्दे हैं जो इस बात को साफ कर देते है कि अलग-अलग परिस्थितियों को स्वतंत्र रूप से देखा जाना चाहिए और हरेक परिस्थिति के लिए सही तरीकों का सम्मिश्रण किया जाना चाहिए ।
आइए हम उदाहरण के रूप में सौर फोटो-वोल्टेइक की बात करते हैं । यह बात सही है हमारे देश के कई भागों में धूप की तीव्रता काफी ज्यादा है - भारत की भूमि पर प्रति वर्ष ५००० ट्रिलियन किलोवाट घंटे सौर ऊर्जा पहुंचती है और इसमें से १ प्रतिशत का भी २०३० में होने वाली ऊर्जा की खपत को पूरा कर सकता है । मगर इसमें कई मुद्दे छिपे हुए हैं ।
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार २०५० तक सौर ऊर्जा से विश्व की कुल बिजली आपूर्ति का एक चौथाई हिस्सा प्राप्त् किया जा सकता है । सौर फोटो-वोल्टेइक और सौर ऊर्जा के संकेंद्रण के जरिए हम ऊर्जा सुरक्षा तो प्राप्त् कर ही सकते हैं साथ ही इससे प्रति वर्ष ऊर्जा से संबंधित ६ अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को भी रोका जा सकता है । इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी को उम्मीद है कि उत्तरी अमरीका सौर ऊर्जा संकेंद्रण से प्राप्त् बिजली का सबसे बड़ा उत्पादक होगा, जो अपने कुल उत्पादन का आधा हिस्सा यूरोप को निर्यात करेगा । इसके बाद भारत और उत्तरी अफ्रीका का नंबर होगा ।
प्रदूषण
अर्थव्यवस्था के लिए तो निर्यात अच्छी बात है पर पर्यावरण पर इसका क्या असर होगा ? सोलर पैनल बनाने का तरीका अर्धचालक उपकरण बनाने जैसा ही है । इसमें भी सिलिकॉन टेट्राक्लोराइड, धूल और सिलिकॉन की सिल्लियां काटने से बचे नैनों कण जैसे विषाक्त अवशेष भी निकलेंगे और साथ ही सल्फर हेक्साफ्लोेराइड जैसी कुछ ग्रीन हाउस गैंसे निकलेंगी । एक टन सल्फर हेक्साफ्लोराइड २५,००० टन कार्बन डाइआक्साइड के बराबर ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करती है ।
इनके चलते पर्यावरण में कई हानिकारक प्रभाव हो सकते हैं । उदाहरण के लिए, सिलिकॉन टेट्राक्लोराइड मिट्टी पर प्रभाव डाल उसे फसल के लिए अनुपयुक्त बना देता है और एक टन पॉलीसिलिकान के उत्पादन में चार टन सिलिकॉन टेट्राक्लोराइड बनता है ।
क्रिस्टलीकृत सिलिकॉन सेल के निर्माण में सिलिकॉन के कण (जिसे कर्फ कहते हैं) कचरे के रूप में निकलते हैं । सिलिकॉन वेफर्स की धुलाई के दौरान ५० प्रतिशत पदार्थ हवा और पानी मे ंचला जाता है । यह मजदूरों में सांस सम्बधी तकलीफ पैदा कर सकता है क्योंकि सिलिकॉन की धूल सांस के लिए हानिकारक होती है । क्रिस्टलीकृत सिलिकॉन सेल के निर्माण के लिए सिलिका को उच्च् ताप पर परिष्कृत किया जाता है ताकि उसमें से ऑक्सीजन निकल जाए । इसके बाद ही धातुकर्म ग्रेड का सिलिकॉन प्राप्त् होता है । क्रिस्टलीकृत सिलिकॉन सेल निर्माण की प्रक्रिया में एक अति विस्फोटक गैस सिलेन भी निकलती है ।
क्या हवा और पानी में प्रदूषण की इस मात्रा को देखते हुए निर्यात को अच्छा माना जा सकता है ?
यह जरूरी है कि हम इस पूरी प्रक्रिया को एक साथ देंखे । हमें किसी भी उत्पाद के पूरे जीवन चक्र को देखना होगा । उत्पादकों के लिए नियम बनाने की जरूरत है ताकि वे अपने लाभ के बरक्स जोखिमों को भी आकलन करने का विवश हों ।
इससे भी बड़ा मुद्दा ऐसे नियोजन का अभाव है जिसमें कोई संयंत्र लगाकर उत्पादन शुरू करने से पहले यह पता लगाया जा सके कि आखिर इसकी मांग है कहां । किसी स्थान पर विशाल फोटोवोल्टेइक अधोरचना तैयार करने के लिए यह कारण पर्याप्त् नहीं माना जा सकता कि वहां खाली जगह पड़ी है जबकि उसके लिए कच्चा माल कहीं दूर से ढोकर लाना होगा । इसकी जगह बेहतर होगा कि पहले इस बात की पड़ताल कर ली जाए कि वहां किस प्रकार की मांग है और उसकी सर्वोत्तम आपूर्ति किस स्त्रोत से हो सकती है । यही बात समुद्रों में स्थापित पवन ऊर्जा संयंत्रों पर भी लागू होती है । समुद्र में टरबाइन लगा लेना तो ठीक है पर उस ऊर्जा को शहरों तक पहुंचाने में होने वाले खर्च का क्या करेंगे ? क्या यह आर्थिक रूप से व्यावहारिक है ? जर्मनी जैसे देश के अनुभवों के मददेनजर ऐसा नहीं है ।
नई टेक्नॉलॉजी के उपयोग से पहले हम अन्य देशों के अनुभवों से सबक ले सकते हैं । यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि किस प्रकार की गतिविधि के लिए किस इंर्धन का उपयोग हो । क्या ग्रिड से आने वाली इतनी महंगी बिजली का उपयोग एयरकंडीशनर चलाने में किया जाए या फिर ठंडा-गर्म करने के लिए ऊर्जा का कोई और विकेंद्रीकृत इंतजाम किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए, जर्मनी को देखें। वहां बिजली की सबसे अधिक खपत यातायात और उसके बाद रहवासी इलाकों में होती है । क्या नवीकरणीय ऊर्जा इसकी पूर्ति कर सकेगी ? लगता है कि जैव इंर्धन इस मामले में उपयुक्त है मगर उसमें उत्सर्जित कार्बन और इंडोनेशिया से उसके परिवहन का खर्च उसे अनुपयुक्त बना देते हैं ।
हमें थोक में नई तकनीक अपनाने से परहेज़ करना चाहिए । वही गलतियां दोहराने की बजाय बेहतर होगा कि उनसे सीखा जाए जिन्होंने शुरूआती दिनों में ये तकनीकें अपनाई थीं । बड़े पैमाने पर अक्षय ऊर्जा अपनाने में धीमा चलने के आग्रह के कई सशक्त कारणों पर लॉरेंस बर्कले लैब के विशेषज्ञों ने कुछ प्रकाश डाला है ।

पैमाना और समय सीमा:
वैकल्पिक ऊर्जा के स्त्रोतोंकी आपूर्ति एक निश्चित समय सीमा के अंदर, सही मात्रा में और वाजिब दाम पर होनी चाहिए । किन्तु वैकल्पिक ऊर्जा उत्पादन के जो भी प्रदर्शन सामने हैं उनसे ऐसे कोई संकेत नहीं मिलते कि उनसे बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव है । ऊर्जा और उसके संसाधन, उनकी किस्म व मात्रा विकल्प की व्यावहारिकता का निर्धारण करते हैं । उदाहरण के रूप में देखें तो सौर फोटो-वोल्टेइक तकनीक के लिए गैलियम और इंडियम की ज़रूरत होती है । आधुनिक बैटरी लीथियम पर निर्भर होती हैं । ये सभी दुर्लभ और मंहगे तत्व हैं ।
व्यावसायीकरण:
अगला मुद्दा यह है कि अक्षय ऊर्जा के स्त्रोत पूरी तरह से व्यावसायिक रूप में स्थापित होने से कितनी दूर हैं । इस काम में अभी २५ साल और लग सकते हैं ।
रूक-रूककर ऊर्जा प्रािप्त्:
अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों को लेकर विरोधियों का सबसे बड़ा आक्षेप इसमें रूक-रूककर ऊर्जा प्रािप्त् का है । इस समस्या का हल भंडारण है और इसके लिए कुछ आधुनिक तकनीकें उभरी हैं जैसे संपीड़ित हवा का भंडारण, बैटरियां और सौर तापीय ऊर्जा संयंत्र में पिघले हुए लवण का उपयोग आदि । मगर प्रमुख समस्या ऊर्जा भंडारण और पुन:प्रािप्त् के दौरान होने वाली ऊर्जा भंडारण की सघनता की भी सीमा है ।
ऊर्जा घनत्व:
ऊर्जा घनत्व ऊर्जा स्त्रोत की एक निश्चित इकाई में निहित ऊर्जा की मात्रा है । इस लिहाज़ से वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत कमज़ोर हैं ।
१७ वीं और १८वीं शताब्दी में ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में लकड़ी छोड़कर कोयले के उपयोग को हाथों हाथ लिया गया क्योंकि लकड़ी के बराबर वज़न का कोयला लकड़ी से दुगुनी ऊर्जा देता था । इसी तरह २०वीं सदी में जहाज़ों में इंर्धन के रूप में कोयले की जगह पेट्रोलियम अपनाने के पीछे भी यही कारण था । कोयले की तुलना में पेट्रोलियम का ऊर्जा घनत्व लगभग दुगुना है । पेट्रोलियम ने यह सुविधा दी कि जहाज़ बार-बार इंर्धन के लिए रूके बिना लम्बी यात्राएं कर सकते थे ।
मोटर वाहनों में आंतरिक दहन इंजन अधिक क्षमता वाला नहीं होता । उसमें भी अगर इंर्धन के रूप में एक किलोग्राम अत्यंत सम्पीड़ित गैसोलिन का इस्तेमाल करते हैं तो वह १३०० किलोग्राम वज़न को लगभग १७ किलोमीटर तक ले जा सकता है । लीथियम आयन बैटरी, जिस पर आज सबका ध्यान है और जिसकी मदद से हम बिजली से चलने वाले चाहन चलाना चाहते हैं, उसके एक किलोग्राम में केवल ०.५ मेगाजूल ऊर्जा होती है जबकि इतने ही गैसोलिन में ४६ मेगाजूल । हम रोज़ाना बैटरी तकनीक में हो रहे विकास की खबरों से रूबरू होते रहते हैं मगर तथ्य यह है कि बैटरी ऊर्जा की सैद्धांतिक सीमा ३ मेगाजूल प्रति किलोग्राम है । गौरतलब है कि ऊर्जा का जितना ही संघनित रूप होगा उसे रखने और इस्तेमाल के लिए उतनी ही कम जगह की जरूरत होगी ।
चूंकि कई वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतों का ऊर्जा घनत्व जीवाश्म इंर्धन की तुलना में काफी कम है, इसलिए अगर हम वैकल्पिक ऊर्जा का नियोजन बड़े पैमाने पर करना चाहते हैं तो उसके लिए काफी भूमि की जरूरत होगी और खर्च बढ़ेगा । उदाहरण के लिए, १००० मेगावाट क्षमता का एक कोयला ऊर्जा संयंत्र लगाने के लिए १ से ४ वर्ग किलोमीटर भूमि कि आवश्यकता होगी । इसमें कोयले की खदान और उसके परिवहन के लिए जरूरी जगह शामिल नहीं है । इसके विपरीत इतनी ही ऊर्जा की क्षमता वाले फोटोवोल्टेइक संयंत्र लगाने के लिए २० से ५० वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र या यूं कहें कि एक छोटे शहर जितनी जमीन की जरूरत होगी । पवन ऊर्जा के लिए तो यह ज़रूरत बढ़कर ५० से १५० वर्ग किलोमीटर और बायोमास के लिए ४००० से ६००० वर्ग किलोमीटर तक पहुंच जाएगी ।
एक लीटर गैसोलीन के उपयोग में जहां २.५ गैलन पानी लगता है वहीं बायोमास और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्त्रोतों के लिए पानी की ज़रूरत इससे कहीं ज्यादा होती है ।
एक महत्वपूर्ण मुद्दा नेट ऊर्जा का है । ऊर्जा की वह मात्रा जो ऊर्जा उत्पादन में होने वाली खपत के बाद शेष रह जाती है उसे ही नेट ऊर्जा कहते हैं । यह ऊर्जा निवेश से ऊर्जा प्रािप्त् बहुत ज्यादा हो सकती है (उदाहरण के लिए १००:१, जिसका मतलब है प्रत्येक १०० इकाई ऊर्जा उत्पादन के लिए १ यूनिट ऊर्जा खर्च की गई ।) एक अध्ययन के अनुसार औद्योगिक समाज के लिए इसका न्यूनतम मूल्य ५:१ है । यानी ऊर्जा उत्पादन पर २० प्रतिशत से ज्यादा सामाजिक और आर्थिक स्त्रोत न्यौछावर नहीं किए जा सकते और यदि ऐसा किया गया तो औद्योगिक समाज की संरचना कमजोर होगी । ऊर्जा के ज्यादातर वैकल्पिक स्त्रोतों में ऊर्जा निवेश से ऊर्जा प्रािप्त् काफी कम है ।
अंतत: यह जरूर कहा जा सकता है कि हमें अक्षय ऊर्जा स्त्रोतों की ओर बढ़ना तो चाहिए और जल्द से जल्द बढ़ना चाहिए मगर इस बदलाव के लिए हमें सावधानी पूर्वक योजना बनानी चाहिए अन्यथा हम एक समस्या से बचने के चक्कर में दूसरी समस्या में फंस जाएंगे ।

विरासत

बाघ नहीं चिड़ियाएं भी है जंगल में
संतोष कुमार द्विवेदी

भारतीय वन्यजीव पर्यटन कमोवेश बाघ के आस-पास केन्द्रित होता जा रहा है । आवश्यकता इस बात की है कि परिपूर्ण वन्यजीवन को समझने का प्रयास किया जाए । हम सभी जानते है कि हमारी सृष्टि के वर्तमान हरे-भरे स्वरूप को बनाए रखने और विस्तारित करने मे ंचिड़ियाआें की भूमिका अविस्मरणीय है ।
बांधवगढ़ की चिरइंया प्रसिद्धि की नई-नई ऊचाईयां छू रही है । शौकिया छायाकार राजीव शर्मा के कैमरे ने उन्हें उड़ने का नया आकाश दिया है । सरकारी यायावरी ने राजीव को बांधवगढ़ का सानिध्य दिया तो उन्होनें इसे जीव जगत के और खासकर चिरइंयो के सानिध्य और सोहबत में बदल दिया । यह सिलसिला २ साल तक इस समझौते के तहत चला कि चिरइयां उन्हें नई, रंगीन और संगीतमय सुबह देंगी और वे उन्हें पहचान और प्रसिद्ध का नया आकाश देंगे ।
बांधवगढ़ की चिरइंया (बंर्ड्स ऑफ बांधवगढ़) छायाचित्र प्रदर्शनी अपनी यात्रा के क्रम में बांधवगढ़, उमरिया और भोपाल होते हुए जबलपुर की पर्यावरणीय चेतना को झकझोर चुकी है । रानी दुर्गावती संग्रहालय में लगाई गई इस प्रदर्शनी को छात्रों, नागरिकों के अलावा पत्रकारों, साहित्यकारों और वन्यजीव प्रमियों ने देखा-सराहा । प्रसिद्ध लेखक एवं संस्कृतिकर्मी अमृतलाल वेगड़ की उपस्थिति एवं टिप्पणी ने इसे और भी यादगार बना दिया । श्री वेगड़ ने कहा बर्ड्स ऑफ बांधवगढ़ की उपस्थिति से जबलपुर वैली ऑफ बर्ड बन गया । बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व यूं तो बाघ पर्यटन के लिये ही जाना जाता है, किन्तु यहां पर जैव विविधता का व्यापक संसार है । यहां पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां, जीव-जन्तु और आनुवांशिक सामग्री जैव विविधता के ही घटक है ।
राजीव शर्मा को यह बात बेहत अखरती थी कि बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान का विपुल वन वैभव और मोहक प्राणी जगत पर्यटकों की नजरों से ओझल है । बाघ केन्द्रित पर्यटन के कारण बाकी चीजों की तरफ उनकी नजर ही नहीं जाती । इसलिए वन एव वन्य जीवन के प्रति लोगों का नजरिया बदलने की गरज से उन्होंने अपने कैमरे का फोकस बाघ से हटाकर पक्षियों की तरफ मोड़ दिया।
एक अनुमान के मुताबिक बांधवगढ़ ने पक्षियों की लगभग २७० प्रजातियां पाई जाती हैं । ऐसा माना जाता है कि विश्व में पक्षी वर्ग में कुल ९०२६ प्रजातियां पहचानी गई हैं, उनमें से भारत में ११६६ पाई जाती है । राजीव शर्मा की दो वर्षो की कोशिश के परिणामस्वरूप ७० चिरइंया उनके कैमरे में कैद हो गई । कहना न होगा कि आकाशचारी पक्षियों का रंग-बिरंगा संसार मनुष्य के लिए अत्यन्त उत्सुकता का विषय रहा है । आंगन में फुदकती गौरय्या के साथ हमारे मन भी फुदकते रहे हैं । तोता, मैना, कोयल और कबूतर हमारी और हम उनकी भाषा बोलते-समझते रहे हैं । बच्चें के आकर्षक के केन्द्र में रहने वाले पक्षी किसानों, प्रेमियों और योद्धाआें तक के मित्र और स्नेह भाजन रहे हैं । लेकिन हमारी अपनी ही करतूतों ने उनके लिये संकट खड़े कर दिये हैं । बिजली के तारों का जाल और टेलीफोन टॉवर इसके छोटे नमूने हैं । हमारी भोगवादी जीवनशैली एवं वैश्वीकरण की नीतियों के कारण प्रकृति का शोषण बढ़ा है, जिसके परिणामस्वरूप कई दुर्लभ प्रजातियां विलुिप्त् के कगार पर जा पहुंची हैं तो कई विलुप्त् ही हो चुकी है ।
पिछले दिनों यह कविता पढ़ने को मिली मैने पूछा - चिड़िया तुम हमसे दूर क्यूं गई ? चिड़िया ने हंसकर कहा तुमने जिस तरह का जीवन चुना उसमें मेरी जगह कहां रह गई ? बात सचमुच सौ टंच खरी है । यदि हम जैव विविधता का महत्व जान समझ पाये हों तो हमें अपना जीवन और सामाजिक आर्थिक व्यवस्था उसके अनुरूप बनानी होगी । पक्षियों के बिना मनहूस सुबह की कल्पना तक से हम डर जाते हैं । हमें पेड़ चाहिए, पेड़ों में शाखाएं और शाखों पर बैठे पक्षी, उनका कलरव- किलोल और किवदंतियां चाहिये । राजीव शर्मा ने कैमरेकी आंख से इस जरूरत और हकीकत को उभारा है । हमारे अंदर पक्षियों के प्रति नई जुगुप्सा जगाई है उनके व्यापक समाज और संसार से परिचित कराया है ।
इनके छायाचित्रों में दरजिन है, धोबिन है तो कोतवाल भी है । कला, संस्कृति साहित्य एवं मिथकों में वर्णित पक्षी, उल्लू, मोर, गिद्ध और राजहंस से लेकर कौआ, कोयल और नीलकण्ठ तक हैं । इन छायाचित्रों में बाज के आंखों से टपकती क्रूरता है तो खंजन के नयनों की सुंदरता - सुकुमारता भी है । दूर गगन से बातेंकरती चील हैं, तो आंखें मटकाता उल्लू भी । शर्मीली पहाड़ी बलालचस्म है तो चुलबुली शौबीजी भी है । बांधवगढ़ में पाये जाने वाले विलुप्त् प्राय पक्षी राजगिद्ध के विराट रूप को देखकर रामायण के अमर पात्र जटायु का सहज ही स्मरण आता है ।
बांधवगढ़ की चिरइंया छायाचित्र प्रदर्शनी हमें हमारी समृद्ध विविधता के दर्शन कराती है । कई आकार, कई प्रकार, कई रंग और कई रूप के देश से परदेश तक के इन परिदों को देखकर दुष्यंत का यह शेर-परिंदे पर तोले हुए हैं, हवा में सनसनी घोले हुए हैं, खूब याद आया । पर हमें कुछ और भी याद रखना है यह कि हमें लौटाना है परिन्दों को उनका आवास, उनका आकाश । निरापद बनाना है उनका दाना-खाना । बचाना है जगह-जगह नीर । इस प्रदर्शनी ने हमें जगाया है । हमें लौटाना है, क्योंकि हमें लौटना है । क्योंकि हमारे पास जो कुछ भी है वह सबका है, साझा है ।

जन चेतना

पर्यावरण सुरक्षा के चार कदम
डॉ. गार्गीशरण मिश्र मराल

जन्म लेते ही धरती माँ हमें अपनी गोद में थाम लेती है । मरणोपरान्त हमारी समाधि भी उसी की गोद में बनती है । जन्म से मृत्यु तक धरती माँ हमारा हित साधन करती हैं । अनाज, कंद,मूल फल आदि का भोजन नहीं हमें देती है । तन ढाँकने के लिए कपास की व्यवस्था भी वही करती है और इस प्रकार हमें सम्य कहे जाने लायक बनाती है । मकान के लिए लकड़ी इंर्ट, पत्थर आदि भी तो वहीं हमें देती है । इस प्रकार धरती माँ के हम पर अनगिनत अहसान हैं ।
लेकिन धरती माँ के इन अहसानों और उपकारों का बदला हम किस तरह चुका रहे हैं ? हरे-भरे वृक्षों से धरती माँ ने अपना घानी चीर सजाया है । हम लगातार वृक्ष काटकर उसका चीरहरण कर रहे हैं । हम कचरा डालकर उसकी गोद को गंदा कर रहे हैं । धरती माँ ने हमें पानी पीने के लिए शुद्ध जल की नदियाँ और झरने दिये । हम उनमें गंदगी पहुंचाकर उन्हें प्रदूषित कर रहे हैं । धरती माँ अपने वृक्षों की सहायता से हमें शुद्ध प्राणवायु प्रदान करती है, लेकिन हम इस शुद्ध प्राणवायु को भाँति-भाँति से प्रदूषित कर रहे हैं ।
शायद हमने तय कर लिया है कि हम धरती माँ के उपकारों को बदला अपकार करके दुराचरण करके चुकायेगें । भले ही इसके लिए लोग हमें कृतध्न क्यों न कहें । हमने यह भी नहीं सोचा कि वृक्षों की अंधाधंुध कटाई करके, जल भूमि और वायु को प्रदूषित करके हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं । अपनी ही मौत को जल्दी बुला रहे है । बेतहाशा जनसंख्या बढ़ाकार पर्यावरण - प्रदूषण को दिन-दुना चौगुना बढ़ा रहे हैं ।
मनुष्य धरती का सबसे बुद्धिमान प्राणी है । लेकिन पर्यावरण को प्रदूषित करने का उसका आचरण उसकी बुद्धिमता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहा है तो आइये, मनुष्य होने के नाते हम इस बात पर विचार करें कि पर्यावरण सुरक्षा हेतु हमारा कर्त्तव्य क्या हैं ? मेरे विचार से इस संबंध में हमारा मुख्य कर्तव्य यह है कि -
वसुंधरा को शस्य-श्यामला मिलकर हमें बनाना है ।
पर्यावरण-प्रदूषण से धरती को हमें बचाना है ।
इस लक्ष्य की प्रािप्त् हेतु हमारा पहला कदम यह होगा कि - स्वच्छ रहेगे, स्वस्थ रहेगे पहली शिक्षा जीवन की । पर्यावरण स्वच्छ सुंदर हो, प्रथम जरूरत जनजन की । स्वस्थ रहे तन-मन, घर-बाहर यह संकल्प उठाना है।
हमारा दूसरा कदम होगा कि - शुद्ध वायु पर हर प्राणी का निर्भर है अस्तित्व यहाँ । करें प्रदूषण मुक्त वायु को हम सबका कर्तव्य यहाँ ।
हमारा तीसरा कदम यह होगा कि - जल ही जीवन है वर्षा का बूंद-बूंद हमें बचाना है । शुद्ध साफ उसको रखना है करना नहीं बहाना है ।
हमारा चौथा और अंतिम कदम यह होगा कि - वृक्ष एक वरदान जगत का, जग को सुंदर करता है । शीतल छाया, काठ, फूल-फल, दान हमें यह करता है । पेड़ मित्र सबका इससे वन, उपवन हमें सजाना है ।

पर्यावरण परिक्रमा

बढ़ती आबादी और घटते संसाधन

ताजा जनगणना की रपट से पता चलता है कि जिस रफ्तार से देश की आबादी बढ़ रही है उस रफ्तार से संसाधनों में बढ़ोतरी नहीं हो रही है, जिससे तमाम तरह की समस्याएँ बढ़ रही है । पिछले दिनों शहरी विकास मंत्रालय के सचिव सुधीर कृष्ण ने रियल एस्टेड एंड कंस्ट्रक्शन प्रोफेशनल्स इन इंडिया २०२० (रिक्स) की रपट जारी करते हुए देश की बढ़ती आबादी और घटते संसाधनों का आँकड़ा पेश किया । इस आँकड़े के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में रोजगार, बुनियादी सुविधाआें और अन्य सुविधाआें की कमी से बहुत बड़ी तादाद में लोग गाँवों से शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। इससे शहरों पर लगातार दबाव बढ़ रहा है ।
शहरों में संसाधनों की कमी है। शहरों में झुग्गियों के बढ़ने की वजह गाँवोें से शहरों की तरफ हो रहा पलायन है । रपट बताती है कि अगले दस सालों में ४२ फीसद आबादी के सेवा एवं उद्योगों में कार्यशील होने के मद्देनजर नौ करोड़ ७० लाख नौकरियों की जरूरत होगी । गौरतलब है इतनी बड़ी तादाद में नौकरियों का सृजन करना एक बहुत बड़ी समस्या है । रपट यह भी कहती है कि शहरों पर बढ़ते दबाव की वजह से देश के बुनियादी ढाँचे और अचल संपत्ति क्षेत्र पर गौर करने की जबर्दस्त आवश्यकता है ।
गांवों में संयुक्त परिवार की परम्परा लगातार टूट रही है । इस कारण पारिवारिक बँटवारे से खेती की जमीन घटती जा रही है । इससे ग्रामीण इलाकों में आय लगातार घटती जा रही है । इससे वहाँ की आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर असर दिखाई दे रहा है । लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारें समस्या के समाधान के लिए वैसी कोशिश करती नहीं दिखाई दे रही है जैसी कोशिश होनी चाहिए । गौरतलब है कि केन्द्र और राज्य सरकारों की ज्यादातर योजनाएँ आम आदमी को न तो फायदा पहुंचा पा रही हैं और न आम आदमी प्रकृतिप्रदत्त संसाधानों का ही बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर पा रहे है । ऐसे में ग्रामीण इलाकों में समस्याएँ तेजी के साथ बढ़ रही है । जब तक इन समस्याआें पर गंभीरता से केन्द्र और राज्य सरकारें गौर नहीं करेेगी और इनके समाधन के लिए सच्च्े मन से प्रयास नहीं करेंगी, तब तक इनका समाधान नहीं हो सकता है । दरअसल सरकार विकास दर को महज जीडीपी की विकासदर बढ़ने से यह मान लेती है कि देश का हर तबका खुशहाल हो रहा है ।
संसाधनों की कमी की एक बड़ी वजह बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संसाधनों की लूट भी है । केन्द्र और राज्य सरकारें इस बात को नहीं समझ पा रही हैं । ज्यादातर प्राकृतिक संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय निगमों का कब्जा है । देश के जल, जंगल और जमीन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है । यदि यह लूट नहीं रोकी गई तो आने वाले चंद सालों में ही समाज का बड़ा हिस्सा संसाधनों से विहीन हो सकता है ।

प्लास्टिक के कचरे से बना लिया पेट्रोल

भारतीय पेट्रोलियम संस्थान (आईआईपी) के वैज्ञानिकों के एक दल ने पर्यावरण के लिए घातक प्लास्टिक को पेट्रोलियम उत्पादों में तब्दील करने की तकनीक विकसित कर ली है । एक दशक की मेहनत के बाद यह संभव हो सका है ।
इस दल का नेतृत्व खुद आईआईपी के निदेशक मधुकर गर्ग ने किया । उन्होनेंबताया कि उत्प्रेरकों का संयोजन विकसित करने में सफलता मिलने पर ही साफ हुआ कि हम प्लास्टिक को गैसोलिन या डीजल या अन्य एरोमेटिक पदार्थो में तब्दील कर सकते हैं । इसका सह-उत्पाद एलपीजी होगा । आईआईपी प्रवक्ता एसके शर्मा ने कहा कि यह बड़ी उपलब्धि है ।
भारतीय गैस प्राधिकरण लि. (गेल) ने इस परियोजना को प्रायोजित किया था । अब इसकी आर्थिक उपयुक्तता पर काम किया जा रहा है, ताकि व्यापक पैमाने पर ऐसा पेट्रोल बनाया जा सके । इस प्रौघोगिकी की खासियत यह है कि तरल ईधन-गैसोलिन और डीजल यूरो ३ मानकों पर खरे हैं । अनुसंधान करने वाली टीम ने कहा कि कच्ची सामग्री से कुछ और उत्पाद भी मिल सकते हैं, इसमें बस उत्प्रेरक बदलना होगे । इसके अलावा कोई अवशिष्ट पदार्थो का उत्सर्जन इस ईधन को जलाने से नहीं होगा ।
एक अन्य वैज्ञानिक श्रीकांत नानोति ने बताया कि यह प्रक्रियाबड़े उद्योग के लिए भी उचित है । प्रोजेक्ट वेस्ट प्लास्टिक टू फ्यूल्स एंड पेट्रोकेमिकल्स २००२ में प्रांरभ किया था । इसमें चार साल कचरा प्लास्टिक के सुरक्षित निपटान में लग गए ।
कचरा प्लास्टिक का अपघटन काफी अधिक तापमान पर करते हैं । इससे अणुआें को तोड़ा जा सकता है और उत्प्रेरक परिवर्तन करते हैं । इसके बाद कंडेनसेशन कर तरल किया जाता है, ताकि गैसोलिन, डीजल और अन्य एरोमेटिक्स बनें । एक किलो पोल्योलेफिनिक प्लास्टिक की मदद से ६५० से ७०० मिली पेट्रोल व एलपीजी, ८५० मिली डीजल व एलपीजी और ४५० मिली एरोमेटिक्स व एलपीजी बनेगा । एक अनुमान के अनुसार दुनिया में ३००० लाख टन प्लास्टिक की खपत है । यह हर साल १०-१२ फीसद की दर से बढ़ा है । पोल्योलेफिनिक प्लास्टिक जैसे पोलिथिलीन और पोलिप्रॉपिलीन पेट्रोल और अन्य उत्पाद के लिए प्रयुक्त कर सकते है ।

खतरे मेंहै नर्मदा का उद्गम

नर्मदा मध्यप्रदेश और गुजरात की जीवन रेखा कहलाती है । इसके उद्गम स्थल अमरकंटक के चप्पे-चप्पे से प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिकता और समृद्ध परम्पराआें की गंध आती है । अमरकंटक एक तीर्थ स्थान और पर्यटन केन्द्र ही नहींबल्कि एक प्राकृतिक चमत्कार भी है । हिमाच्छादित न होते हुए भी यह पाँच नदियों का उद्गम स्थल है । इनमें से दो सदानीरा विशाल नदियां हैं, जिनका प्रवाह परस्पर विपरीत दिशाआें में है । हाल ही में मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नर्मदा की बायोमॉनिटरिंग करवाई तो पता चला कि केवल दो स्थानों को छोड़कर नर्मदा नदी स्वस्थ हैं । जिन दो स्थानों पर नदी की हालत चिंताजनक दिखी उनमें से एक अमरकंटक है।
चिरकुमारी नर्मदा पश्चिम मुखी है और यह १३०४ किलोमीटर की यात्रा तय करती है । सोन नदी का बहाव पूर्व दिशा में ७८४ किमी तक है । इसके अलावा जोहिला, महानदी का भी यह उद्गम स्थल है । यहाँ प्रचुर मात्रा में कीमती खनिजों का मिलना, इस सुरम्य प्राकृतिक सुषमा के लिए दुश्मन साबित हो रहा है । तेजी से कटते जंगलों, कांक्रीट जंगलों की बढ़ोतरी और बॉक्साइट की खदानों में अंधाधुंध उत्खनन के चलते यह भूमि विनाश की ओर अग्रसर है ।
अमरकंटक की पहाड़ियों पर बाक्साइट की नई-नई खदानें बनाने के लिए वहाँ खूब पेड़ काटे गए । इन खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूर भी ईधन के लिए इन्हीं जंगलों पर निर्भर रहे । सो पेडों की कटाई अनवरत जारी है । पहाड़ों पर पेड़ घटने से बरसात का पानी, खनन के कारण एकत्र हुई धूल को तेजी से बहाता है। यह धूल नदियों को उथला बना रही है। यदि शीघ्र ही यहाँ जमीन के समतलीकरण और पौधोरोपण की व्यापक स्तर पर शुरूआत नहीं की गई तो पुण्य सलिला नर्मदा भी खतरे में आ सकती है ।

कौवों पर मँडरता खतरा

देश में कौवों की तादाद पिछले कई सालों से घट रही है । हालाँकि इसकी वैश्विक संख्या अब भी करोड़ों में है लेकिन इसके घटने की रफ्तार इतनी तेज है कि संभव है जल्द ही हमें टाइगर प्रोजेक्ट की तरह क्रो प्रोजेक्ट की जरूरत पड़े ।
हाल में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के १२ फीसद पक्षी लुप्त् होने की कगार पर हैं। इनमें कौवे का नाम गौरेया, चील, गिद्ध वाली श्रेणी में ही है जिन पर सबसे अधिक खतरा है । गत १५-२० सालों में उनके घटने के कई कारण है । आवासीय क्षेत्रों में घटते पेड़ों की तादाद से इन्हें काफी परेशानी हो रही है । कौवे ज्यादातार अपना घोंसला ऊँचे पेड़ों पर बनाते हैं लेकिन अब ऐसे पेड़ बहुत कम बचे हैं । घरेलू कचरे और पेड़ों से झड़ने वाले कचरे को जलाने की मनुष्य की आदतें भी पक्षियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है । इससे कौवे जैसे पक्षियों का भोजन और घोंसला बनाने में प्रयुक्त होने वाला रॉ मैटेरियल नष्ट हो जाता है । फिर कचरा जलाने से निकलने वाली जहरीली गैसें भी इनके लिए जानलेवा होती हैं । इनके घटने का एक बड़ा कारण चूहे भी है । पक्षी वैज्ञनिक रजा तहसीन बताते हैं कि लोग घरों में जहर देकर मारे गए चूहों को खुले में फेंक देते हैं जिसे खाकर कौवे अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं ।

प्रदेश चर्चा

राजस्थान : बच गयी कृषि भूमि
सुश्री लता जिशनु

बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों को राजस्थान की कृषि थाली में परोस कर प्रस्तुत कर दी गई थी । किसानों एवं किसान संगठनों के विरोध के पश्चात् राजस्थान सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की सलाह पर सहमति पत्र रद्द कर दिया है ।
०४ नवम्बर २०११ को राजस्थान सरकार ने सात बीज कंपनियों को बुलाकर यह बुरी खबर दी कि गतवर्ष उनके साथ हस्ताक्षर करा हुआ सहमति पत्र (एमओयू) जिसके अन्तर्गत कृषि शोध को समाहित किया जाना था, को १५ महीनों तक पशोपेश में पड़े रहने के बाद अंतत: राज्य सरकार ने रद्द कर दिया गया है । समझौते से सामने आया निजी सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) समझौता काफी व्यापक था और इसके दूरगामी परिणाम भी निकलते, खासकर अमेरिका की मान्सेंटो कंपनी के लिए, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी बीज एवं बायो टेक्नॉलॉजी प्रबंधन कंपनी है ।
करीब ६ हफ्तों तक लागू यह सहमति पत्र (जुलाई २०१० से प्रारंभ) विश्व की दो प्रमुख कृषि बायो टेक कंपनियों - मान्सेटों जिसका प्रतिनिधित्व उसकी सहायक मोन्सेंटो इंडिया लिमिटेड एवं मोन्सेंटो होल्डिंग प्रा.लि. ने किया था और पीएचआई सीड्स लिमिटेड जो कि पायोनियर हाईब्रीड इंटरनेशनल (ड्यू पांट के व्यापार का हिस्सा) की भारतीय प्रतिनिधि के मध्य हुआ था । इस मामले में अन्य प्रमुख भारतीय बायोटेक बीज कंपनियां थीं, एडवंट इंडिया, जे.के. एग्रीजेनेटिक्स, डीसीएम श्रीराम कन्सालिडेटेड, कृषि धन सीड्स और एक स्थानीय कंपनी कंचन ज्योति एग्रो इंडस्ट्रीज । आठवां समझौता बेयर साइंस प्रा.लि. जो कि विशाल जर्मन फर्म बेयर क्रॉप साइंस की भारतीय सहायक कंपनी है, के बीच होना तय हुआ था लेकिन पहले वाली सात कंपनियों के साथ हो रहे विवाद के चलते इस पर हस्ताक्षर नहीं हो पाए थे ।
इन समझौतों से तब हड़कंप मचा जब इन्हें पर्यावरण पत्रिका डाउन टू अर्थ (राजस्थान ने कृषि के दरवाजे खोले १-१५ नवम्बर २०१०) ने उजागर किया था । इसमें रहस्योद्घाटन किया गया था कि निजी क्षेत्र को राज्य की शोध सुविधाआें तक की पहंंुच की अनुमति देने के साथ ही साथ उन्हें उनके हाईब्रीड बीजों एवं अन्य तकनीकों के लिए शर्तिया बाजार भी उपलब्ध कराया जाएगा । यह किसी भी राज्य सरकार द्वारा की गई अपनी तरह की पहली पहल थी जिसके अन्तर्गत राज्य के चार कृषि विश्वविघालयों के साथ ही साथ राज्य के कृषि एवं बागवानी विभाग को भी व्यापक तौर पर भागीदार बनाया गया था । इसके परिणामस्वरूप कृषि के पूरे स्वरूप के ही बदल जाने की आंशका थी । इस तरह के समझौतोंसे कृषक समुदाय पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर भी प्रश्न उठे थे ।
उत्तेजित किसानों ने मार्च में विधानसभा के समक्ष प्रदर्शन कर सहमति पत्र को रद्द करने की मांग की । इसी दौरान कुछ गैर सरकारी संगठनों ने भी विरोध दर्ज तो कराया लेकिन वे इसे मात्र मान्सेंटो विरोधी संघर्ष में परिवर्तित कर मामले को ठंडा कर देना चाहते थे ।
राजस्थान सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि हम इस सहमति पत्र को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की सलाह पर रद्द कर रहे हैं, जिसमें कहा गया कि हमें इस तरह के समझौतों के क्रियान्वयन के पूर्व निजी सार्वजनिक भागीदारियों (पीपीपी) के संबंध में मार्गदर्शिका बनाए जाने तक इंतजार करना चाहिए । अधिकारी का यह भी कहना था कि उन्होंने इस संबंध में अनेक कृषि विशेषज्ञों जिसमें कि एम.एस. स्वामीनाथन, जिन्हें भारतीय हरित क्रांति का जनक भी कहा जाता है भी शामिल हैं, की इस मामले में राय जानने का प्रयास किया गया था कि विवादित सहमति पत्र के साथ क्या किया जाए, लेकिन कहीं से कोई स्पष्ट जवाब नहीं आया । परस्पर विरोध के बढ़ते जिसमें एक ओर प्रभावशाली राजनीतिज्ञ तथा कृषकों के संगठनों का समूह साझा मंच था तो दूसरी ओर बायो टेक उद्योग था, के चलते अंतत: सरकार ने आईसीएआर का दरवाजा खटखटाया ।
आईसीएआर ने राजस्थान के कृषि निदेशक को सहमति पत्र की गंभीर समीक्षा के बाद जो जवाब भेजा उससे स्पष्ट था कि विदेशी कंपनियों के साथ हस्ताक्षरित सहमति पत्र को रद्द किया जाना चाहिए । इसमें कहा गया कि राज्य सरकार विदेशी कंपनियों के साथ शोध एवं विकास संबंधित कोई भी समझौता बिना कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग की अनुमति के नहीं कर सकती है । कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग (डीएआरई) संघ कृषि मंत्रालय का एक विभाग है ।
आईसीएआर ने राजस्थान को कृषि अनुसंधान में निजी कंपनियों के साथ गठबंधन के प्रति सतर्क करते हुए कहा है कि अभी तक इस तरह के निजी सार्वजनिक भागीदारी को लेकर कोई प्रक्रिया नहीं बनी है । चिंता इस बात की है वे सम्पदा अधिकार लागत, लाभ में हिस्सेदारी, जैव सुरक्षा आदि से संबंधित अनेक मुद्दे उठाएंगे । डीएआरई और आईसीएआर इस संबंध में व्यवस्थित प्रणाली बनाने की प्रक्रिया में है ।
राजस्थान के लिए आईसीएआर की सलाह राहत देने वाली है । एक वरिष्ठ अधिकारी ने स्वीकार किया है कि सहमति पत्र पर हस्ताक्षर एक भूल थी । उनका कहना है कि कंपनियों की रूचि केवल उनके बीज बेचने में है न कि अनुसंधान में । सहमति पत्रों के क्रियान्वयन में उनकी तरफ से कोई बहुत प्रस्ताव नहीं आए थे । ऐसे में हमें कोई इन समझौतों पर जोर देने में कोई तुक समझ में नहीं आई ।

कृषि जगत

पशुधन पर निर्भर कृषि क्षेत्र
रिचर्ड महापात्र

पिछले एक दशक के दौरान अनेक विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए पशुधन व्यवसाय ने भारतीय कृषि व अर्थव्यवस्था में व्यापक योगदान दिया है । इसके माध्यम से बड़ी संख्या में रोजगार का सृजन भी हुआ है । इसमें निहित संभावनाआें के पूर्ण दोहन के लिए आवश्यक है कि इसे प्राथमिकता वाले क्षेत्र में सम्मिलित किया जाए ।
भारत के नीति निर्माताआें ने पिछले एक दशक से कृषि क्षेत्र में आ रहे बदलाव को अंतत: स्वीकार कर लिया है । आज पशुधन का आर्थिक योगदान खाद्यान्नों से अधिक हो गया है । पारम्परिक तौर पर कृषि क्षेत्र के तीन घटक फसलें, पशुधन एवं मछलियों की पैदावर वृद्धि में योगदान करते हैं और खाद्यान्न का हिस्सा इनमें प्रमुख होता है । इसके परिणामस्वरूप सारी नीतियां और कार्यक्रम इसी पर केन्द्रित होते हैं । जब वर्ष २००२-०३ में खाद्यान्नों के बजाय पशुआें का आर्थिक योगदान अधिक हो गया तो इस पर नीति निर्माताआें जो इसे अस्थायी मानते थे, का कहना था कि इसके पीछ की वजह लगातार पड़ते अकाल के कारण से कृषि उत्पादन में आ रही गिरावट है । राष्ट्रीय कृषि अर्थव्यवस्था एवं नीति अध्ययन केन्द्र के प्रमुख वैज्ञानिक प्रताप सिंह ब्रिथल का कहना है कि लेकिन तब से पशुधन का योगदान, लगातार ५ से १३ प्रतिशत तक अधिक रहा है । वास्तविकता यही है कि पिछले एक दशक में पशुधन एवं मछलियां वाला क्षेत्र बजाए फसलों के अधिक तेजी से वृद्धि कर रहा है । शीघ्र लागू होने वाली १२ वीं पंचवर्षीय योजना के लिए दिसम्बर में तैयार एक रिपोर्ट में इस बदलाव को मान्यता देते हुए पशुधन को कृषि वृद्धि का इंजिन माना है ।
पशुधन की अब कृषि सकल घरेलू उत्पाद में भागीदारों एक चौथाई हो गई है । वर्ष २०१०-११ में इसके माध्यम से ३,४०,५०० करोड़ रूपये का राजस्व (वर्तमान मूल्यों पर) अर्जित हुआ । यह कृषि जीडीपी का २८ प्रतिशत और देश की जीडीपी का करीब ५ प्रतिशत पड़ता है । लुधियाना स्थित गुरू अंगद देव पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के उपकुलपति वी.के. तनेजा का कहना है, पशुधन से कुल प्राप्त्यिां खाद्यान्न (३,१५,६००० करोड़) एवं सब्जियां (२,०८,८०० करोड़) से अधिक थी और भविष्य में इसके पर्याप्त् मात्रा में बढ़ने की भी संभावना है ।
आणंद राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड के वरिष्ठ प्रबंधक राजशेखरन का कहना है कि कृषि जीडीपी में पशुधन के बाद सर्वाधिक योगदान धान का है । राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष २००९-१० में पशुधन से कुल प्राप्त्यिां धान से २.५० गुना व गेहूं के मूल्य से तीन गुना तक अधिक थीं। वहीं श्री तनेजा का कहना है जानवर प्राकृतिक पूंजी हैं और इन्हें एक जीवित बैंक के रूप में आसानी से पुर्नउत्पादित भी किया जा सकता है और ये फसल के खराब होने और प्राकृतिक विपदाआें की स्थिति में आर्थिक हानि से बचाने में बीमे का भूमिका भी निभा सकते हैं ।
पशुधन तीन स्तरों पर सर्वाधिक तेजी से वृद्धि करने वाले घटक के रूप में सामने आ रहा है । इसका सन् १९८१-८२ कृषि जीडीपी में योगदान १५ प्रतिशत था जो कि सन् २०१०-११ में बढ़कर २६ प्रतिशत पर आ गया । श्री ब्रिथल का कहना है कि पशुधन कृषि वृद्धि में सहायक सिद्ध हो रहा है । सन् १९८० के दशक में इसकी वृद्धि दर ५.३ प्रतिशत थी जो कि फसलों से तकरीबन दुगनी थी । वहीं वर्ष २००० के दशक में यह गिरकर ३.६ प्रतिशत आ गई है लेकिन इसके बावजूद यह अभी भी कृषि वृद्धि दर से दुगनी है ।
पशुधन की वृद्धि मेंकिसानों एवं खाद्य उपभोग की प्रणाली में आए परिवर्तन ने भी योगदान किया है । कृषि परिचालन के मशीनीकरण एवं जोतों के आकार में आई कमी ने पशुधन के अकाल में प्राप्य शक्ति के इसके महत्व को कम किया है । गोबर के बदले रासायनिक खादों का प्रयोग भी होने लगा है । लेकिन ठीक इसी समय शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही इलाकों में बढ़ते मध्यम वर्ग की वजह से पशुधन उत्पाद जैसे अंडों, दूध व मांस के उपभोग में भी वृद्धि हुई है । वर्ष १९८३ एवं २००४ के मध्य कुल खाद्य व्यय में पशुधन उत्पादों का हिस्सा शहरी क्षेत्रों में २१.८ प्रतिशत से बढ़कर २५ प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में १६.१ प्रतिशत से बढ़कर २१.४ प्रतिशत हो गया है ।
१२वीं पंचवर्षीय योजना के लिए कृषि नीति तैयार करने वाली समिति के सदस्य एम.एम. राय का कहना है ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे एवं सीमांत किसान, भूमिहीन श्रमिक और महिलाएं अपनी स्थानापन्न आय एवं रोजगार के लिए पशुधन पर अधिक निर्भर है ।
नीति निर्माता भी अब इस नई अर्थव्यवस्था को गंभीरता से लेने लग गए हैं और इसे व्यापक कृषि वृद्धि के प्रमुख सहायक क े रूप मेंप्रस्तुत किया जा रहा है । उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने सन् २०१०-११ के वित्तीय आकलन में आशाजनक कृषि वृद्धि का आधार पशुधन को ही बनाया है । वर्ष २००९ के अकाल के बावजूद पशुधन क्षेत्र मेंहुई वृद्धि ने कृषि वृद्धि को स्थायित्व प्रदान किया है । पशुपालन एवं डेयरी कार्यसमूह की रिपोर्ट में कहा गया है कि पशुधन खाद्य उत्पादों की बढ़ती मांग के मद्देनजर १२ वीं पंचवर्षीय योजना में पशुधन क्षेत्र के कृषि विकास के इंजिन के रूप में उभरने की उम्मीद है । पशुधन की रोजगार उपलब्ध कराने एवं आय अर्जन के अवसर सृजित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका है । हालांकि फसलें अभी भी सर्वाधिक लोगों को रोजगार प्रदान कर रही हैं लेकिन पशुधन में भी तेजी से रोजगार सृजित हो रहा है ।
पशुधन क्षेत्र के उभरने के प्रभाव गरीबी पर भी पड़ेगें । योजना आयोग की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि उन राज्यों में जहां पशुधन कृषि आय में अधिक योगदान करता है उन राज्यों में ग्रामीण गरीबी भी कम है । पंजाब, हरियाणा, जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, केरल, गुजरात और राजस्थान इसके उदाहरण हैं । पशुधन व्यवसाय में अधिकांशत: सीमांत किसान एवं जिन्होंने खेती छोड़ दी है, वे ही आ रहे हैं । श्री राय का कहना है भारत में पशुधन का करीब ७० प्रतिशत, ६७ प्रतिशत छोटे एवं सीमांत किसानों एवं भूमिहीनों के स्वामित्व में है । इसे यदि एक अन्य तरह से देखें तो अब समृद्धि बजाय खेत या कृषि के प्रति व्यक्ति कितना पशुधन है, पर अधिक निर्भर हो गई है । श्री ब्रिथल का कहना है इससे यह भी पता चलता है कि पशुधन क्षेत्र की वृद्धि गरीबी हटाने में कृषि क्षेत्र से अधिक प्रभावशाली सिद्ध हो सकती है ।
लेकिन वर्तमान में इस क्षेत्र की सम्पूर्ण संभावनाआें का दोहन भी नहीं किया जा सका है । नीति की अनुपस्थिति के कारण निर्धनतम को सहेजने वाले इस क्षेत्र का विकास अवरूद्ध हो रहा है । भारतीय पशुधन की उत्पादकता वैश्विक औसत से २० से ६० प्रतिशत तक कम है । चारे की कमी भी संभाव्य उत्पादकता में ५० प्रतिशत तक की कमी के लिए जिम्मेदार है । इसके अलावा अपर्याप्त् गर्भाधान और प्रजनन तथा जानवरों में बढ़ती बीमारियां भी निम्न उत्पादकता के लिए जिम्मेदार हैं ।
पशुधन एवं वर्षा आधारित कृषि के विशेषज्ञ एन.जी. हेगड़े का कहना है कि पशुधन को वैश्विक तापमान वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन से कम नुकसान पहुंचेगा अतएव इसे वर्षा आधारित खेती से अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है । परन्तु पशुधन पर कृषि क्षेत्र में होने वाले खर्च में से महज १२ प्रतिशत व्यय होता है और कुल सांस्थानिक ऋणों में इसकी हिस्सेदारी ४ से ५ प्रतिशत की है । इसके अतिरिक्त मुश्किल से ६ प्रतिशत पशुधन का ही बीमा है । पशुधन को लेकर वर्ष २०११-१२ के लिए बनी १५ करोड़ की एकमात्र योजना में से अभी तक पैसा भी खर्च नहीं हुआ है । वहीं श्री तनेजा का कहना है, पशुपालन विस्तार नेटवर्क की अनुपस्थिति की वजह से पशुधन संबंधित तकनीकों को भी कम ही अपनाया जा रहा है । वैसे ११ वीं पंचवर्षीय योजना में भारतीय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान परिषद की स्थापना का निर्णय लिया गया था । लेकिन ऐसा अभी तक संभव नहीं हो पाया है । १२वीं पंचवर्षीय योजना कार्यदल ने भी इस सुझाव को फिर दोहराया है ।

२५ साल पहले

पड़त भूमि की समस्यायें
खुशालसिंह पुरोहित

५ जनवरी १९८५ को विश्व वन वर्ष के दौरान प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपनी कामकाज के शुरूआती दौर में पड़त भूमि विकास और बड़े पैमाने पर पौधारोपण की सरकारी घोषणा की थी । दो वर्ष हो गये घोषणाआें को, लक्ष्य था ५० लाख हेक्टेयर में प्रति वर्ष वन लगाने का, अब तक एक चौथाई लक्ष्य भी पूरा नहीं हो सका । लेकिन भूमि समस्या पर सभी दृष्टि से सोच विचार जरूर चला, निकट भविष्य में इसके परिणाम भी निकलेंगे ।
भारत देश एक विशाल भूखंड है, क्षेत्रफल की दृष्टि से यह विश्व का सातवां बड़ा देश है । यह भी सुखद बात है कि भारत का उत्तरी हिमालय प्रदेश का भाग छोड़कर शेष ८० प्रतिशत भाग ऐसा है, जो देशवासियों के उपयोग में आता है । जबकि दूसरे देशों में ऐसा संभव नहीं हो पाता है । वहां पहाड़ों के कारण मैदानी क्षैत्रों की कमी है । भौगोलिक दृष्टि से हमारे देश में अनेक भिन्नायें मिलती है कहीं गगनचुम्बी पर्वत, कही नदियों की गहरी और उपजाऊ घाटियां, कही पठार तो कही लहलहाते खेत, भूमि की लगभग सभी प्रकार की प्राकतिक दशायें यहां देखी जा सकती है । देश के कुल क्षेत्रफल का १०.७ प्रतिशत क्षेत्र पर्वतीय, १८.६ प्रतिशत क्षेत्र पहाड़ियां, २७.७ प्रतिशत पठारी क्षेत्र और ४३ प्रतिशत भू भाग मैदानी है । देश की लगभग ७० प्रतिशत जनसंख्या भूमि पर अवलंबित है ।
भारत के बारे में एक बात स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है कि प्रकृति भारत के बारे में अत्यन्त उदार रही है । प्राकृतिक साधनों की प्रचुरता के कारण ही भारत सोने की चिड़िया कहलाता था । देश की पर्वत श्रेणियों, अनुकुल भौगोलिक स्थिति और जलवायु प्रचुर जल और वन संपदा, समृद्ध खनिज और उपजाऊ मिट्टी देश को समृद्ध बनाने में सक्षम है । विडम्बना यह है कि प्राकृतिक संपदा और मानव शक्ति का समन्वयकारी उपयोग नहीं हो सका है । यही कारण है कि देश के अधिकांश लोग निर्धन है । प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मीरा एन्सेट ने ठीक ही कहा है कि भारत निर्धन लोगों से बसा एक धनी देश है ।
देश के अधिकांश लोगों का भूमि से सीधा संबंध आता है, लेकिन हमारे यहां भूमि प्रबंध और भूमि स्त्रोतों के उपयोग की वर्तमान दशा देखकर नहीं लगता कि जमीन के प्रबंध की हमने कोई चिंता की है । देश में भूमि उपयोग की कोई सुविचारित राष्ट्रीय नीति और योजनाबद्ध कार्यक्रम नहीं है । इस कारण शहरी, ग्रामीण भूमि और वन क्षेत्र सभी इलाकों में जो भी भूमि उपलब्ध है, उसकी गंभीर उपेक्षा हो रही है । राष्ट्रीय स्तर पर वन, भूमि और जल के संरक्षण और निगरानी का काम समुचित नहीं होने के कारण ठीक परिणाम नहीं आ पा रहे हैं । भूमि क्षरण की समस्या भी आज गंभीर चुनौती बनती जा रही है ।
भारत में कुल कितनी भूमि क्षरणग्रस्त है, इसके संबंध में अनेक अनुमान है, जो ५५ लाख हेक्टेयर से लेकर १७.५० करोड़ हेक्टेयर तक है । छटी पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में सरकार ने माना था कि देश की कुल ३२.९० करोड़ हेक्टेयर भूमि में से १७.५० करोड़ हेक्टेयर भूमि समस्याग्रस्त है । भूमि संबंधी विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि गैर खेती वाली जमीन ज्यादा उपेक्षित है, इस कारण बीमार है । कृषि भूमि का स्वास्थ्य ठीक है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है । देश में कुल भूमि का तीन चौथाई हिस्सा ऐसा है, जिस पर तक्ताल ध्यान देने की जरूरत है। एक तिहाई ऐसा है जो लगभग अनुत्पादक हो चुका है । आंकड़ों की दृष्टि से देखे तो कृषि भूमि का ६१ प्रतिशत और गैर कृषि भूमि का ७२ प्रतिशत क्षरणग्रस्त है । देश में लगभग १२ प्रतिशत क्षेत्र में रेगिस्तान है ।
भूक्षरणसे जमीन के कटाव को होने वाली क्षति का मूल्यांकन कर पाना असंभव है क्योंकि भूमि की उपजाऊ सतह को एक इंची परत बनने में ५०० से १००० साल लगते है । सन् १९७२ में डॉ. जे.एस. कंवर ने एक अध्ययन में बताया था कि सिर्फ वर्षा द्वारा बहाकर बर्बाद होने वाली उपजाऊ सतह की मात्रा ६०० करोड़ टन प्रतिवर्ष है । इस भूमि के प्रमुख पोषक तत्व एन.पी.के. की लागत लगभग ७०० अरब रूपये है शेष तत्वों का मूल्य इसमें शामिल नहीं है । यह मूल्यांकन १९७२ का है । यदि हवा-पानी से होने वाले कुल भूक्षरण के नुकसान का अंदाज करे तो पता चलेगा कि हम प्रतिवर्ष खरबों रूपये गंवा रहे है।
पड़त भूमि विकास कार्यक्रम को ग्रामीण बेरोजगारी, खाद्यान्न उत्पादन और ग्राम विकास के विविध कार्यक्रमों से जोड़कर इसको प्रमुख राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया जा सकता है । जिला ग्रामीण विकास अभिकरण को कुल खर्च राशि का एक निश्चित भाग पड़त भूमि विकास पर खर्च करने को कहा गया है । लेकिन क्या सरकारी बजट और सरकारी लक्ष्य पूर्ति के लिये लगाये गये पौधों से पड़त भूमि में हरियाली आ सकती है ? स्थानीय आवश्यकता और क्षेत्र विशेष की परिस्थिति में अनुकूल पौधों का चयन कर उनको लगाते समय समर्पण भाव से काम करने वाले व्यक्ति/संगठनों के साथ ही जन-जन को इसमें सहभागी बनाना होगा । अब तक तो इस तरह की प्रक्रिया दिखायी नहीं दे रही है । पड़त भूमि विकास कार्यक्रम को जन आंदोलन बनाने के लिये प्रशासकीय संकल्प और जन सहयोग दोनों ही समान रूप से जरूरी है ।
(पर्यावरण डाइजेस्ट में फरवरी १९८७ अंक में प्रकाशित)

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

ज्ञान विज्ञान

डिस्पोजेबल कप्स से मधुमक्खियों की शामत

मधुमक्खियों की बस्तियों में गिरावट के चलते कृषि उत्पादकता में कमी की खबरें दुनिया भर से मिल रही हैं । मधुमक्खियों की संख्या में कमी के कई सारे जैविक व भौतिक कारण बताए गए हैं । जैसे बीमारियों, कीटनाशक, पर्यावरणीय तनाव वगैरह । वैसे इस संदर्भ में पर्यावर-जनित कारणों का अध्ययन बहुत कम हुआ है ।
हाल में मदुरै कामराज विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के एस. चन्द्रशेखरन व उनके साथियों ने पर्यावरण के अजीबो-गरीब कारक को मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट के लिए जिम्मेदार पाया है । अपने अध्ययन में उन्होनें देखा कि डिस्पोजेबल कागजी कपों के इस्तेमाल की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है । उन्होनें स्पष्ट किया है कि इन कागजी कपों का इस्तेमाल आजकर कई पेय पदार्थो के सेवन में किया जाता है । बाद में इनमें शक्कर युक्त अवशेष रह जाते हैं । इसे पाने के लिए मधुमक्खियां इन पर मंडराती रहती हैं और फूलों पर जाना भूल जाती हैं । इस तरह ये कप भोजन का स्त्रोत न रहकर मौत के कुंए बन जाते हैं ।

चन्द्रशेखरन व साथियों ने मई २०१० से एक वर्ष तक पंाच कॉफी हाउसों में मधुमक्खियों का अवलोकन किया। इन कॉफी हाउसों में औसतन प्रतिदिन करीब १२२५ तक कागजी कप फेंके जाते है ।
देखा गया कि जब मधुमक्खियां शकर का घोल पीने इन कपों पर आती हैं, तो प्राय: इनमें गिर जाती हैं । इसकी वजह से हरेक दुकान में प्रतिदिन औसतन १६८ मधुमक्खियां मारी गई । शोधकर्ताआें ने इन पांच काफी हाउसों में ३० दिन की अवधि में २५.२११ मधुमक्खियों को मरते देखा । मृत्यु दर पर कप की गहराई, बचे हुए पदार्थ की मात्रा वगैरह का असर पड़ता है । बाद में जब ये कप रीसायक्लिंग के लिए भेजे जाते हैं तो वे मक्खियां भी मार डाली जाती हैं जो चाशनी में डूबने से बच गई होती हैं । यहां प्रतिदिन करीब ७०० मधुमक्खियां मारी जाती है ।
ग्लोबल वार्मिग नहीं, अब हिम युग

धरती के गरम होने और उससे पिघलने वाली बर्फ के कारण समुद्र के जलस्तर के बढ़ने के खतरों से आगाह किया जाता रहा है । लेकिन अब वैज्ञानिक ताजा आंकड़ों के आधार कह रहे है कि पिछले पन्द्रह साल से धरती के तापमान में वृद्धि नहीं हुई है । यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा । यहां तक कि हिम युग के आने का खतरा भी मंडरा रहा है । पिछली बार १७ वीं सदी में लगभग ७० साल तक लगातार तापमान में गिरावट दर्ज की गई थी और तब लंदन की मशहूर थेम्स नदी जम गई थी ।
दुनिया भर में ३० हजार जगहों से इकट्ठा किए गए आंकड़े कहते हैं कि १९९७ के बाद से धरती के तापमान में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है । इसकी वजह यह है कि २० वीं सदी में लगातार उच्च् स्तर पर ऊर्जा छोड़ने के बाद अब सूर्य न्यूनतम स्तर की ओर बढ़ रहा है । इसे हिम युग के वापस लौटने का संकेत माना जा रहा है । ऐसे में गर्मियों में सर्दी पडेगी, सर्दियां जमा देने वाली होगी और अनाज उगाने लायक मौसम छोटा हो जाएगा ।
वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य अपनी ऊर्जा के उच्च्तम स्तर से न्यूनतम की ओर बढ़ रहा है । इसे साइकिल २५ का नाम दिया गया है । इसी साइकिल के कारण गर्मीकम होगी । यह दौर आगे भी जारी रहेगा । सूर्य की गतिवधि में १७९० से १८३० के दौरान भी ऐसा ही बदलाव देखा गया था । इसके अलावा १७१५ के बीच भी सूर्य ऊर्जा छोड़ने के न्यूनतम स्तर पर था ।
यद्यपि हिम युग की वापसी के बारे में अमेरिकी अंतरिक्ष संस्था नासा के वैज्ञानिकों के इस निष्कर्ष पर सवाल उठाने वाले विशेषज्ञों की भी कमी नहीं है । उनका तर्क है कि सूर्य के ऊर्जा स्तर में कमी आएगी लेकिन धरती पर होने वाली औघोगिक गतिविधियों के कारण बढ़ रहे तापमान के कारण इसका ज्यादा असर नहीं पड़ेगा । इस पर डेनमार्क के नेशनल स्पेस इंस्टीट्यूट के निदेशक हेनरी स्वेंसमार्क की टिप्पणी काबिल-ए-गौर है। वे कहतें है, कुछ मौसम वैज्ञानिकों को यह समझाने में काफी वक्त लगेगा कि धरती के लिए सूर्य अहम है । यह अपने तरीके से यह दिखा देगा ।इसके लिए उसे हमारी जरूरत नहीं पड़ेगी ।

बैक्टीरिया से बनायी नियॉन लाईट

आनुवंशिक दृष्टि से परिवर्तित किए गए ई-कोलाई बैक्टीरिया ने विज्ञान की दुनिया में धूम मचा रखी है । सेन डिएगो स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीव वैज्ञानिकोंव जैविक इंजीनियरों ने ई-कोलाई बैक्टीरिया से एक ऐसी जीवित नियॉन लाइट बनाई है, जो सामान्य नियॉन लाइट की तरह ही चमकती है । वैज्ञानिकों का कहना है कि बैक्टीरिया एक-दूसरे के साथ एक खास ढंग से संवाद करते है ।
वैज्ञानिक भाषा में उनके आपसी संवाद की विधि को कोरम सेंसिंग कहते हैं । इसके जरिए बैक्टीरिया आपस में समन्वय के लिए मॉलिक्यूल्स का हस्तांतरण करते हैं । इससे उनमें एक जैसी प्रतिक्रियाके लिए जिम्मेदार उत्प्रेरक अथवा ट्रिगर को नियंत्रित करने का तरीका मिल जाए तो बैक्टीरिया से एक जैसी प्रतिक्रिया करवाई जा सकती है । वैज्ञानिकोंने जब जीन इंजीनियरिंग के जरिए बैक्टीरिया की जैविक घड़ी में चमक उत्पन्न करने वाला एक खास प्रोटीन जोड़ा तोे उसने एक चमकदार प्रतिक्रिया उत्पन्न की । यह आश्चर्यजनक उपलब्धि थी । लेकिन ई-कोलाई के लाखोंजीवाणुआें को एक साथ चमक उत्पन्न करने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता । इसके लिए वैज्ञानिकों ने एक सुक्ष्म द्रव्ययुक्त चिप (माइक्रोलुइडि चिप) बनाई । यह स्थानीय ट्रिगर का इस्तेमाल करती है व चिप पर जमा बैक्टीरिया की कालोनी इसके असर में रिएक्ट करती है ।
रिसर्च टीम के प्रमुख जैफ हेस्टी का कहना है कि बैक्टीरिया आधारित जैविक सेंसर किसी भी नमूने की लंबी समय तक निगरानी रख सकते हैं, जबकि इस समय ऐसे कार्योंा के लिए प्रचलित किट का इस्तेमाल एक ही बार हो सकता है । विषैले तत्वों या रोगाणुआें की मात्रा पर बैक्टीरिया की प्रतिक्रियाअलग-अलग ढंग से होती है, अत: वे यह बता सकते हैं कि इनकी मात्रा का स्तर कितना खतरनाक है । नई खोज ने कई दिलचस्प संभावनाएं उत्पन्न कर दी हैं । निकट भविष्य में कृत्रिम जीव विज्ञान और जैव प्रौद्योगिकी जैसे विज्ञान के नए उभरते हुए क्षेत्रोंमें जैविक सेंसर बहुत उपयोगी होंगे ।


झुक रही हैं ताजमहल की मीनारें

दुनिया के सात आश्चर्यो में शुमार ताजमहल की चारों मीनारें १९७७ के मुकाबले कुछ और झुक गई हैं । दक्षिणी-पश्चिमी मीनार सबसे ज्यादा ३.५७ सेंटीमीटर झुकी है । यह बात ताजमहल की स्थिति पर अध्ययन के बाद दी गई सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में कही गई है । रिपोर्ट में ताजमहल की स्थिति की अनवरत निगरानी की सिफारिश के साथ यह भी कहा गया है कि मीनार में आया झुकाव या बदलाव बहुत अहम नहीं है और ये मानकों के भीतर ही है ।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर सर्वे ऑफ इंडिया की यह रिपोर्ट भी अदालत में दी हैं । मालुम हो कि ताजमहल की सुरक्षा को खतरे के बारे में मीडिया में आई खबरों पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं संज्ञान लेकर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को स्थिति का अध्ययन कर रिपोर्ट देने को कहा था । इसके बाद ही सर्वेऑफ इंडिया से ताजमहल का जिओडेटिक सर्वे करने को कहा गया था । सर्वे के मुताबिक १९७६-१९७७ से स्थिर ताजमहल की दक्षिणी-पश्चिमी मीनार में पिछले तीन दशकों से झुकाव बढ़ा है । ये २००९-१० में बढ़ कर करीब ३.५७ सेंटीमीटर ज्यादा झुक गई । इस मीनार में पहले की अपेक्षा झुकने की दर में वृद्धि हुई है । उत्तर पूर्वी मीनार में ज्यादा झुकाव नहीं आया है । ताजा जांच में यह मीनार ०.५२ सेंटीमीटर झुकीं थीं जो कि निर्धारित मानकों के भीतर ही हैं ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि तुलनात्मक अध्ययन का यही नतीजा निकलता है कि ताजमहल और उसकी मीनारें फिलहाल स्थिर और दुरूस्त हैं । लेकिन रिपोर्ट में ताजमहल पर पर्यटकों के बढ़ते दबाव के कारण उसकी स्थिति की सतत निगरानी और जांच का सुझाव दिया गया है । कहा गया है कि कुछ वर्षो तक लगातार प्रतिवर्ष ताजमहल की स्थिति का अध्ययन कराने के लिए सर्वे ऑफ इंडिया के सर्वेयर जनरल से एक दल तैनात करने का अनुरोध किया गया है ।

जल प्रदूषण

अमृत का जहर हो जाना
भरतलाल सेठ

उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले में बहने वाली अमि (अमृत) नदी में उद्योगों और नजदीकी शहरों ने इतना जहर प्रवाहित कर दिया है कि आसपास बसे लोगों का सांस लेना तक दूभर हो गया है । देश में एक के बाद एक नदियां अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं । इसका परिणाम कितना विनाशक होगा इसका अंदाजा हमारा नियामक तंत्र क्यों नहीं लगा पा रहा है ?
इन्द्रपाल सिंह भावुक होकर बचपन में अमि नदी से मीठा पानी पीने की याद करते हैं । गांव के बुजुर्ग बताते है नदी को अपना यह नाम आम और अमृत से मिला है । उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के अदिलापार गांव के प्रधान पाल सिंह का कहना है कि १३६ कि.मी. लंबी यह नदी अब मुसीबत बन गई है । गोरखपुर औघोगिक विकास क्षेत्र (गिडा) से निकलने वाले अनउपचारित गंदे पाने के एक नाले ने इस नदी को गंदे पानी की एक इकाई में बदलकर रख दिया है । नदी के निचले बहाव की ओर निवास कर रहे १०० से अधिक परिवारों के निवासी अक्सर सर्दी जुकाम, रहस्यमय बुखार, मितली आने वाले उच्च् रक्तचाप की शिकायत करते हैं । रात में गंदे पानी से उठने वाली बदबू से उनका सांस लेना तक दूभर हो गया है । निवासियों का कहना है कि सूर्यास्त के बाद प्रवाह का स्तर आधा मीटर तक बढ़ जाता है ।
नोएडा की राह पर गिडा की स्थापना १९८० के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह द्वारा की गई थी । यहां पर कुल १५८ इकाइंया हैं, जिनमें कागज मिल एवं कपड़ा निर्माण इकाइयां शामिल हैं । ये इकाइयां प्रतिदिन ४.५ करोड़ अनुपचारित गंदा पानी नालियों में छोड़ती हैं । गिडा का गठन इस प्रतिबद्धता के साथ हुआ था कि वह एक साझा प्रवाह उपचार करने वाला संयंत्र सन १९८९ तक लगाएगा । लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो पाया है । इस हेतु वर्ष २००९ में एक समिति गठित भी की गई लेकिन उसकी अब तक केवलएक ही बैठक हुई है । जबकि अधिकारियों ने इस बात पर जोर दिया है कि सुविधा पर काम चल रहा है ।
नजदीक के दो नगरों का अनुपचारित गंदा पानी भी इसी नदी में मिलता है । नगर के सीवर का गंदा पानी भी नदी की सेहत को नुकसान पहुंचा रहा है । गोरखपुर स्थित मदन मोहन इंजीनियरिंग कॉलेज के गोविन्द पांडे नदी की बिगड़ती सेहत के लिए उद्योग को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते है कि इन नगरों से ७० लाख लीटर गंदा पानी प्रतिदिन निकलता है और प्रदूषण का यह भार अमि के पानी इकट्टा होने वाले क्षेत्र पर ही पड़ता है।
अभियान का जन्म - गिडा के गठन के पूर्व नदी के ५५२ वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश मछुआरे एवं किसान अमि से लाभान्वित होते थे । धान इस इलाके की मुख्य फसल है और गेहूं एवं जौ भी यहां बोई जाती है । परन्तु प्रदूषण की वजह से उपज एक तिहाई रह गई है । बोई और रोेहू जैसी ताजे पानी की मछलियां अब नदी में दिखलाई ही नहीं देती । कई हजार मछुआरे या तो शहरी क्षेत्रां में दिहाड़ी मजदूरी कर रहे हैं या शराब बेच रहे हैं।
क्षेत्रीय रहवासियों ने १९९० के दशक में पहली बार नदी में आ रहे परिवर्तनों को देखा । वर्ष १९९४ के विश्व पर्यावरण दिवस पर निचले क्षेत्र के एक गांव के प्रधान ने सभा का आयोजन किया और अमि को बचाने का अभियान प्रारंभ हो गया । श्री पांडे का कहना है मैने निवासियों से कहा कि गिडा नदी में अनुपचारित सीवेज डाला जा रहा है और वहां शोधन संयंत्र भी नहीं है । वर्ष १९९४ में ही उन्होंने गिडा के मुख्य कार्यकारी जो कि कॉलेज में उनके वरिष्ठ थे, से क्षेत्र में पर्यावरण प्रभाव आकलन करने और पर्यावरण प्रबंधन योजना बनाने को भी कहा । श्री पांडे का कहना है वे तैयार तो हो गए लेकिन धन की कमी की वजह से योजना कार्यान्वित नहीं हो पाई । अब तो इस बात को १५ वर्ष से अधिक बीत चुके है ।
श्री पांडे ने जनवरी २००९ की मकर संक्रांति को आंदोलन को तब नई दिशा दी जब उन्होनें इस दिन नदी में प्रतीक स्वरूप मुट्ठीभर फिटकरी, स्कंदक या जामन एवं ब्लीचिंग पाउडर प्रवाहित किया । कुछ समय पश्चात पूर्व छात्र नेता विश्व विजय सिंह ने आंदोलन की बागडोर संभाली और पूरे नदी क्षेत्र की पदयात्रा भी की । इसके पश्चात् तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को यहां की स्थिति से अवगत कराया गया । उन्होनें मुख्यमंत्री मायावती को पत्र लिखा और अप्रैल २०११ में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मामले की जांच का आदेश भी दिया ।
इस बीच उत्तरप्रदेश निवारण बोर्ड व नागरिकों के बीच हुए संघर्ष ने भी सुर्खियां बंटोरी । बोर्ड द्वारा प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को प्रमाण पत्र दिए जाने से उत्तेजित नागरिकों ने नदी के पानी का सेम्पल लेने गए अधिकारियों का मुंह काला कर उन्हें गांव में घुमाया । जिला कलेक्टर की मध्यस्थता के बाद ही उन्हें छोड़ा गया । यू.पी. प्रदूषण बोर्ड का कहना है कि इकाइयों को बंद करना समस्या का कोई हल नहीं है । उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। लेकिन इकाइयां अभी भी कार्यरत हैं ।
अप्रैल २०११ में केन्द्रीय नियंत्रण बोर्ड की एक तीन सदस्यीय टीम को नदी एवं नाले के पानी की गुणवत्ता की निगरानी के लिए तैनात किया गया । प्रदूषण फैलाने वाले छ: उद्योगों का निरीक्षण भी किया गया ।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पानी का सर्वप्रथम परीक्षण गांव के पास एक ऐसे स्थान पर किया जहां कि पानी में गंदा रिसाव नहीं मिलता । रिपोर्ट के अनुसार यहां पानी सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता (ए श्रेणी) का था । इसके पश्चात ऐसे स्थान के पानी का नमूना लिया गया जहां पर गंदा पानी नदी में मिलता है वहां पर पानी गुणवत्ता (डी श्रेणी) ऐसी है, जो कि नहाने तक के लिए अनुपयुक्त है । नाले के और निचले हिस्से पर पानी ई श्रेणी का पाया गया । यह रिपोर्ट जून २०११ में पर्यावरण मंत्रालय को सौंप दी गई ।
बहरहाल नाले के पानी की गुणवत्ता प्रदूषण मापदण्डों के अन्तर्गत ही पाई गई । इसकी वजह यह है कि जब नमूने एकत्रित किए गए उस दौरान प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग परिचालन ही नहीं कर रहे थे । विजय सिंह का कहना है हमने केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कहा था कि वे निरीक्षण के बारे में उद्योगों को न बताएं । जिस दौरान निरीक्षण हो रहा था, उस दौरान उद्योगों ने अपनी सुविधानुसार कुछ समय के लिए परिचालन रोक दिया । एक संयंत्र रखरखाव के लिए बंद था, एक विद्युत कनेक्शन के लिए और दो अन्य कच्च्े माल की अनुपलब्धता की वजह से बंद थे । इसके बावजूद बोर्ड को कुछ जगह पानी प्रदूषण स्तर से ज्यादा गंदा मिला । क्योंकि कागज मिल हाल ही में बंद हुई थी । इस पर बोर्ड ने उस इकाई को अपनी जमीन के अंदर डली १४०० मीटर की ड्रेनेज लाइन नष्ट करने को कहा है । लेकिन इकाई द्वारा अब तक निर्देशों का पालन नहीं किया गया है ।
बोर्ड ने गिडा को एक शोधन संयंत्र जिसमें उपचारित करने की यथोचित सुविधाएं हों, की अनुशंसा की है साथ ही शहर को भी अपना सीवरेज उपचारित करने वाला संयंत्र स्थापित करने की अनुशंसा की है ।
गोरखपुर की महापौर अंजु चौधरी का कहना है कि नदी बजाए एक सम्पत्ति के समस्या बन गई है । विकास प्राधिकारी बिना यह सुनिश्चित किए कि उद्योग नियमों का पालन कर रहे हैं या नहीं अनुमति दे देते हैं ।
उम्मीद की जा रही है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री इस क्षेत्र का दौरा करेंगी और समस्या के स्थायी समाधान की पहल करेंगी ।

सामाजिक पर्यावरण

अनाज का संकट बढ़ाती शराब
प्रमोद भार्गव

ब्रिटेन की स्वयंसेवी संस्था ऑक्सफेम ने दुनिया में बढ़ रहे खाद्यान्न संकट के सिलसिले में चेतावनी दी है कि अनाज से यदि शराब और इथेनॉल बनाना बंद नहीं किया गया तो २०३० तक खाद्यान्नों की मांग ७० फीसदी बढ़ जाएगी और इनकी कीमतें भी आज के मुकाबले दुगुनी हो जाएंगी ।
इस सच्चई को भारत के परिप्रेक्ष्य में तो कतई नहीं झुठलाया जा सकता है, क्योंकि केंद्र की वर्तमान यूपीए सरकार के महज सात साल के कार्यकाल में ही खाद्यान्नों की कीमतें डेढ़ सौ से दो सौ फीसदी तक बढ़ चुकी हैं । इस लिहाज से ऑक्सफेम के आंकड़ों को मनगढ़ंत नहीं कहा जा सकता है । शराब और इथेनॉल उत्पादन के अलावा वायदा व्यापार भी अनाज की कीमतों में इजाफा करने में सहायक हो रहा है । भारतीय अर्थशास्त्रियों की मानें तो भारत में प्रति माह करीब ३५ हजार करोड़ का वायदा व्यापार होता है ।
अकेले महाराष्ट्र में अनाज स े शराब बनाने वाली २७० भटि्टयों में ७५ हजार लीटर से डेढ़ लाख लीटर तक शराब रोजाना बनाई जा रही है । इथेनॉल बनाने का कारोबार भी हजारों टन का आंकड़ा पार कर चुका है । इसके साथ ही मांसाहारियों की बढ़ती तादाद भी खाद्यान्न संकट की एक बड़ी वजह बन रही है ।
अभी तक भूख के बढ़ते प्रकोप के लिए औद्योगिक विकास, जलवायु परिवर्तन और धरती के गरम होते मिजाज को दोषी माना जा रहा था । लेकिन ऑक्सफेम की रिपोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अनाज से शराब और इंर्धन इथेनॉल बनाए जाने के हालात खाद्यान्न संकट की पृष्ठभूमि में हैं । उपभोक्तावादी जीवन-शैली का विस्तार भी आग में घी डालने का काम कर रहा है । कुछ लोगों की क्रय शक्ति में बहुत इजाफा हुआ है और उपभोग की प्रवृत्ति बड़ी है । इसके साथ ही खाद्यान्नों की खपत में भी वृद्धि हुई है ।
जानकारों की मानें तो १०० कैलोरी के बराबर गोमांस तैयार करने के लिए ७०० कैलोरी के बराबर अनाज खर्च होता है । इसी तरह बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे खाया जाए, तो वह कहीं ज्यादा भूख मिटा सकता है । ब्रिटिश प्रणीविद जेम्स बेंजामिन का अध्ययन बताता है कि एक मुर्गा जब तक आधा किलो मांस देने लायक होताहै, तब तक वह १५ किलोग्राम तक का अनाज खा चुका होता है । यह अनाज का दुरूपयोग है ।
इधर चीन और भारत में एक वर्ग की बड़ी आय के चलते शराब पीने और मांस खाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है । एक आम चीनी नागरिक अब सालाना औसतन ५० किलोग्राम मांस खा रहा है । जबकि ९० के दशक के मध्य में यह खपत महज २० किलोग्राम थी । इन सबसे बावजूद अभी तक ऐसे कोई उपाय नहीं किए जा रहे हैं, जिनसे प्रेरित होकर लोग इस विलासी जीवन से मुक्त हों । बल्कि इन्हें बढ़ावा देने वाली नीतियों को कानून में ढालने का काम किया जा रहा है ।
खाद्यान्न संकट गहराने और बढ़ती मंहगाई की जड़ में अमरीका और अन्य युरोपीय देशों द्वारा बड़ी मात्रा में खाद्यान्न का उपयोग जैव ईधन के निर्माण में किया जाना है । गेहूं, चावल, मक्का, सोयाबीन, गन्ना और रतनजोत आदि फसलों से इथेनॉल और बायोडीजल का उत्पादन किया जा रहा है । ऐसा ऊर्जा संसाधनों की ऊंची लागतों को कम करने के लिए वैकल्पिक जैव ईधनों को बढ़ावा देने के नजरिए से किया जा रहा है । जैव ईधन के उत्पादन ने अनाज बाजार के स्वरूप को विकृत कर दिया है ।
भारत में भुखमरी के बदतर हालात होने के बावजूद महाराष्ट्र में अनाज से शराब बनाने के कारखानों में लगातार वृद्धि हो रही है । जबकि महाराष्ट्र ऐसा राज्य है जहां विदर्भ क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और कर्ज के चलते ढाई लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं । गरीबी का आकलन करने वाली सुरेश तेंदुलकर समिति ने भी महाराष्ट्र को देश के उन छह राज्यों में शामिल किया है, जहां गरीबी सबसे बदतर हाल में है । इन चौंकाने वाली जानकारियों के बावजूद महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को शराब पिलाने का बीड़ा उठाया हुआ है । गरीब की भूख शांत करने वाले ज्वार, बाजरा और मक्का से शराब बनाने का सिलसिला जारी है । सरकार का मानना है कि जब ज्वार, बाजरा और मक्का से बड़े पैमाने पर शराब का उत्पादन होगा तो किसान इन फसलों को उपजाना शुरू कर देंगे ।

कविता

विस्मृत भोर
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

जीवन की गति कटिल अंध-तम-जाल,
फंस जाता हॅू, तुम्हें नहीं पाता हॅू प्रिय
आता हॅू पीछे डाल -
रश्मि - चमत्कृत स्वर्णालंकृत नवल प्रभात,
पुलकाकल अलि-मुकल-विपुल हिलाते तरू प्रात,
हरित ज्योति जल भरित सरित, सर, प्रखर प्रभात,
वह सर्वत्र व्याप्त् जीवन से अलक-विचुम्बित सुखकर वात
जगमग जग में पग-पग एक निरंजन आशीर्वाद,
जहा नहीं कोई भय-बाधा, कोई वाद-विवाद
बढ़ जाता
प्रति-श्वास-शब्द-गति से उस ओर,
जहां हाय, केवल श्रम, केवल श्रम,
केवल श्रम, कर्म कठोर -
कुछ ही प्रािप्त् अधिक आशा का
कुटिल अधीर अशांत मरोर
केवल अंधकार करना वन पार
जहां केवल श्रम घोर ।
स्वप्न प्रबल विज्ञान, धर्म, दर्शन,
तम - सुिप्त् शांति, हा भोर
कहां जहां आशाआें ही की
अन्तहीन अनिराम हिलोर ?
मेरी चाहे बदल रहीं नित आहों में
क्या चाहॅू और ?
मुझे फेर दो प्रभो, हेर दो,
हर नयनों में भूला भोर ।
महाकवि के परिमल काव्य संग्रह में प्रकाशित कविता ।

पर्यावरण समाचार

स्पेशल कमांडो करेंगे अब बाघों की सुरक्षा

देश में बाघों को बचाने की नाकाम होती कोशिश के बीच कर्नाटक सरकार ने नई पहल की है । कर्नाटक ने बाघों की सुरक्षा के लिए स्पेशल टाइगर फोर्स का गठन किया है । इस फोर्स को जंगलों में तैनात किया गया है, ताकि बाघों का शिकार रोका जा सके ।यह देश की पहली फोर्स है जिसे हथियारों के साथ इस ऑपरेशन को सफलतापूर्वक अंजाम देने की खास ट्रेनिंग दी गई है ।
स्पेशल टाइगर फोर्स के लोगों को हर पल चौकस रहकर शिकारियों के मंसूबों को बेनकाब करने की ट्रेनिंग दी गई है । हर माहौल में इन्हें अपनी और बाघ की सुरक्षा की ट्रेनिंग दी गई है । कर्नाटक में करीब ३०० बाघ रहते हैं, यानि देश में अगर सबसे ज्यादा बाघ किसी राज्य में है तो वो है कर्नाटक । कर्नाटक के बांदीपुर टाइगर रिजर्व में १५० बाघ हैं । लिहाजा इन बाघों की रक्षा एक बड़ी चुनौती है ।
स्पेशल टीम को एक साल की कठिन ट्रेनिंग के बाद बांदीपुर टाइगर रिजर्व में तैनात किया गया है । हथियारों के अलावा इनको वॉकी टॉकी और जीपीएस से लैस किया गया है, ताकि पल पल की जानकारी मुख्यालय तक पहुंच सके । कर्नाटक सरकार को उम्मीद है कि इससे राज्य में बांघों को बचाने में मदद मिलेगी ।
अधिकारियों के अनुसार स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स के सामने बाघों को मध्यप्रदेश के भावरिया ट्राइब से बचाने की चुनौती है । वन विभाग के मुताबिक मध्यप्रदेश की भावरिया जाति जिन्हेें बहेलिया ट्राइव से भी जाना जाता है । वो कर्नाटक में घूस आई है । ये जाति बाघों का शिकार करने के लिए जानी जाती है । ये शिकारी बेहद चालाक होते है । माना जाता है कि एक बार ये बाघों के जंगल में घुस जांए तो बिना शिकार किए वापस नहीं लौटते हैं । पिछले ६ सालों में ५० से ज्यादा बाघों की मौत हो चुकी है, जिनमें २० बाघों की मौत शिकार की वजह से हुई है ।