सोमवार, 21 अक्तूबर 2019



सम्पादकीय
देश में जीन क्रांति की जरूरत
 हरित क्रांति के बाद अब जीन क्रांति जरूरी है । ऐसी खोज जरूरी है जो क्लाइमेटिक जोन और पानी की उपलब्धता को देखते हुए कृषि उत्पादकता बढ़ा सके । उन्नत प्रजाति के बीज, उचित उर्वरक, कीटनाशक और एग्रो मशीनरी तैयार करने की कोशिश तो हुई, लेकिन इसके आगे की जीन टेक्नोलॉजी का उपयोग वैश्विक स्तर पर किया जा रहा है । बायो टेक्नोलॉजी विधेयक लम्बे समय से संसद में लंबित है, जिसके बगैर इस दिशा में आगे बढ़ना संभव नहीं हो पा रहा है । 
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के १०० से अधिक रिसर्च इंस्टीट्यूट और ७५ से अधिक कृषि विश्वविद्यालयों समेत बायो टेक्नोलॉजी संस्थानों में साढ़े सात हजार से ज्यादा वैज्ञानिक है । 
देश में उदारीकरण के बाद कृषि क्षेत्र में किसानों की जरूरतों के हिसाब से शोध नहीं हुई । देश की ५३ फीसदी खेती असिंचित जमीन से होती है, जिसे ध्यान में रखते हुए न तो उन्नत बीज तैयार किए गए और न ही उपयुक्त टेक्नोलॉजी का विकास हुआ । करीब ४० वर्ष पहले तैयार गेंहू की दो-तीन प्रजातियों का कब्जा देश की दो तिहाई खेती पर है, जबकि गेंहू की लगभग साढ़े चार सौ प्रजातियां विकसित की जा चुकी हैं । ज्यादातर प्रजातियां ऐसी हैं, जिन्हें छह-छह बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है । जबकि जरूरत एक या दो सिंचाई वाली प्रजाति की है । कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर रामबचन सिंह का कहना है कि देश में कृषि वैज्ञानिकों के कार्यो को कमतर नहीं आंकना चाहिए । 
जलवायु परिवर्तन के बावजूद खाघान्न की पैदावार लगातार बढ़ रही है । इस समय जरूरत है किसानों की उपज का उचित मूल्य दिलाने की, जो उन्हें नहीं मिल पा रही है । संसद में लंबित बायोटेक विधेयक को मंजूरी तत्काल मिलनी चाहिए । 
कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में बजटीय आवंटन बढ़ाने की जरूरत है । नीति आयोग के रणनीति पत्र के मुताबिक फिलहाल कृषि अनुसंधान पर जीडीपी का केवल ०.३ फीसदी खर्च हो रहा है । इसे बढ़ाकर एक फीसदी करने की आवश्यकता ह ै। 
प्रसंगवश
प्लास्टिक विरोधी मुहिम की दिशा क्या हो ?
एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के खिलाफ छेड़ी जाने वाली मुहिम स्वच्छ भारत अभियान में केवल जागरूकता फैलाकर अपेक्षित सफलता हासिल नहीं की जा सकती है । प्लास्टिक की तमाम ऐसी वस्तुएं प्रचलन में आ चुकी हैं, जिनका विकल्प उपलब्ध कराकर ही उसका उपयोग कम किया जा सकता है । 
एक बार इस्तेमाल होने वालेप्लास्टिक का उपयोग सीमित करने के लिए उसके विकल्प उपलब्ध कराने के साथ ही आम जनता के समक्ष यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि २ अक्टूबर से किस-किस तरह के प्लास्टिक पर पाबंदी होगी ? आम लोगों को इससे भी अवगत कराने की जरूरत है कि प्लास्टिक का उपयोग पर्यावरण के साथ ही सेहत के लिए भी हानिकारक है । 
लोगोंको चेताया जाना चाहिए कि प्लास्टिक की थैलियों में खाने-पीने की सामग्री रखने के कैसे दुष्परिणाम सामने आते हैं ? यह काम इसलिए प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, क्योंकि प्लास्टिक की थैलियों के साथ कप-प्लेट आदि का इस्तेमाल गांवो-कस्बों में बड़े पैमाने पर होने लगा है और वहां अधिकतर लोग इससे अनजान ही हैं कि उनमें खान-पान की गर्म सामग्री रखना एक तरह से सेहत से जान बूझकर खिलवाड़ करना है । 
यह यही है कि एक बार इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक से बनी वस्तुआें केविकल्प रातोंरात उपलब्ध नहीं कराए जा सकते, लेकिन इस दिशा में तेजी से कदम उठाए जाना आवश्यक है । प्लास्टिक के खिलाफ अभियान केवल प्लास्टिक की थैलियोंकी  जगह छूट या कपड़े के थैले या फिर प्लास्टिक केकप के स्थान पर कुल्हड़ के इस्तेमाल को बढ़ावा देने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए । 
वर्तमान में खान-पान की लगभग प्रत्येक सामग्री की पैकिंग प्लास्टिक में हो रही है । दूध भी प्लास्टिक की थैलियों में मिल रहा है । इसे देखते हुए यह भी समय की मांग है कि वे कंपनियां भी इस अभियान में योगदान देने के लिए सक्रिय हो, जो अपने उत्पादों की पैकिंग प्लास्टिक में करती हैं । केन्द्र और राज्य सरकारों को ऐसे उपाय भी करने होगे जिससे प्लास्टिक की रिसाइक्लिंग बढ़ सके । इसके साथ ही प्लास्टिक कचरे के निस्तारण के ऐसे तौर-तरीके विकसित करने की जरूरत है, जो पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाए या फिर कम से कम से कम नुकसान पहुचाने वाले हो । 
गांधी १५० पर विशेष
गांधीजी क्या चाहते थे ?
विनोबा भावे 
गांधीजी के सचिव प्यारेलाल की अद्भुत पुस्तक  लास्ट फेज में, जो उन्होंने १९५८ में प्रकाशित की थी, यह चर्चा देखने को मिलती है- ``उन दिनों स्वराज्य मिल गया था, किंतु उसमें गांधी जी की आशाएं उतनी सफल नहीं हुई थीं-न खादी -ग्रामोद्योग के बारे में और न शांति-स्थापना और अहिंसा के विचार के बारे में। यानी उनके  जीवन के जो दो बड़े पहलू थे, उन दोनों में उनको असंतोष रहा । 
गांधीजी चाहते थे कि उनके साथी कहलाने वाले सभी एकत्र हों, अलग-अलग चलने वाली सारी सेवाएं एकत्र कर भारत में अहिंसक-शक्ति निर्माण करें और आजाद भारत को गलत रास्ते पर न जाने दें । इसलिए उन्होंने सेवाग्राम में एक सम्मेलन करने को सोचा था, पर वह कार्यान्वित होने से पूर्व ही वे चल बसे ।
उनकी अनुपस्थिति में उनके बहुत सारे निकटवर्ती साथी और सेवक सेवाग्राम में एकत्र हुए । उस समय मुझे बोलने को कहा गया। मैंने कहा- ``मैं यहां बहुत ज्यादा बोलना नहीं चाहता क्योंकि हम एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं हैं। हम सब मिले हैं तो आगे क्या करें, यही यहां सोचें । मैं भी सोचूंगा । आज तो अपना यह प्रथम परिचय ही रहा है। यहां जितने लोग एकत्र हुए हैं, उन सबसे मैं अपरिचित हँू। कारण, जब तक गांधी जी थे, तब तक तो मैं एकान्त-साधना में ही रहता था । लगातार तीस वर्ष तक अध्ययन, अध्यापन, ग्रामीणों और आश्रमवासियों की सेवा, ध्यान-धारण और भक्ति योग की साधना,  ज्ञान-चिन्तन आदि का ही मेरा कार्यक्रम चलता रहा। इसीलिए बहुत-से लोगों से मैं अपरिचित हूं। अतएव आज मैं बोलना नहीं, सुनना ज्यादा चाहता  हँू  ।``
गांधी जी की मौजूदगी में सिर्फ चन्द भाई वर्धा आते थे। कभी मुझसे मिलने चले आते थे, कभी बापू भी उन्हें मेरे पास भेज देते थे। उन्हीं से मैं परिचित था, बाकी बहुतों से अपरिचित ही था। ऐसी हालत में भी वहां मांग हुई कि ``हम शरणार्थियों की समस्या में मदद करें ।`` किसी तरह से मान्य करके जाजूजी और जानकी देवी बजाज को साथ लेकर मैं निकल पड़ा।  इधर-उधर हिन्दुस्तान में घूमकर देखा, तो दीख पड़ा कि रचनात्मक कार्यकर्ताओं में हद दर्जे की मायूसी छायी हुई है जिसे ``समग्र निराशा`` कह सकते हैं। सब समझते थे कि अब तो अपना विचार समाप्त ही है, कुछ चलने-चलाने वाला नहीं है। एक युग समाप्त हुआ, दूसरा शुरू हुआ है। इस नए युग में अहिंसा का विचार कुछ खास नहीं चलेगा, पनप नहीं पाएगा ।
मैं वापस पवनार लौटा। लौटने पर ``कांचन-मुक्ति`` (स्वर्ण या धन से मुक्त वस्तु- विनिमय) का प्रयोग शुरू कर दिया । निश्चय किया कि इसे पूरा कर भारत की सेवा के लिए पैदल निकल पडूंगा । पर कब ? कह नहीं सका । एक-डेढ़ साल तो यह प्रयोग मेरे और नए युग के लिए जरूरी था। 'कांचन-मुक्ति` के प्रयोग के बिना नए युग का आरंभ नहीं हो सकता । बीच में सर्वोदय सम्मेलन में जाना पड़ा, पर जब निकला तो पैदल ही निकला । लोगों के मन में इसका कोई ख्याल नहीं था। बहुतों के दिल को यह कुछ विचित्र-सा लगा, लेकिन निकट के लोगों ने सोचा कि शायद इसी में से कुछ मतलब की चीज निकल पड़े ।
तब से लगातार यह यात्रा जारी है। अन्तरात्मा साक्षी है कि जिस संकल्प से निकला हूं, उस संकल्प की पूर्ति के सिवा दूसरा कोई विचार नहीं आता । जितना भी काम किया जा रहा है, उतना कुल-का-कुल उसी संकल्पपूर्ति के  लिए किया जा रहा है । इस समस्त कार्यक्रम में मैं बापू को निरंतर अपने साथ पाता हूं ।
गांधी जी आये और गये, पर हमारे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक चिन्तन का स्तर सभी क्षेत्रों में वही पुराना रहा । आज भी सारा दारोमदार यदि सेना, पुलिस, राजतंत्र और सरकार पर ही माना जाय तो गांधी जी के आने से लाभ ही क्या हुआ ? यह नहीं कि सरकार की जिम्मेवारी हम न उठाएं । वह तो उठानी ही चाहिए और हमने उठ ा ली, यह  ठीक ही किया, किन्तु उतने से अहिंसा नहीं आएगी ।
आज विज्ञान के युग में बहुत बड़ी मांग यह है कि करूणा का स्त्रोत फूट निकले और अहिंसा एक दासी नहीं, सम्राज्ञी बने । दण्डशक्ति के राज्य में अहिंसा रहे, यह तो आज तक चला ही । राज्य दण्डशक्ति का ही रहा है, भले ही उसके रूप अलग-अलग हों। अभी ``लोकतंत्र`` का रूप आया है, लेकिन फिर भी राज्य दण्डशक्ति का ही है। अहिंसा पहले भी थी और आज भी है, लेकिन है वह दासी ही । मैं बहुत बार कहता रहता हूं कि युद्ध में सेना की सेवा करने के लिए जाने वालों में करूणा और दया दोनों हैं, किन्तु वह करूणा युद्ध को समाप्त नहीं कर सकती । वह करूणा तो पहले भी थी और आज तक है। यदि वह भी न होती तो हम जानवर ही होते ।
गांधीजी क्या चाहते थे ? गांधीजी जो करूणा चाहते थे, वह यह नहीं है। वे ऐसी करूणा चाहते थे, जो सम्राज्ञी हो, उसी के आधार पर मानव-मानव बने । वह बन सकता है और हम बना सकते हैं, ऐसा विश्वास मानव को ही । धीरे-धीरे दण्डशक्ति क्षीण हो जाय और आखिर उसका परिवर्तन दूसरे रूप में हो-करूणामूलक, साम्य पर आश्रित स्वतंत्र लोकशक्ति के रूप में वह बढ़े । आगे एक जमाना आयेगा, जब करूणा सम्राज्ञी बनेगी । वह जल्दी आना ही चाहता है । यदि हम शीघ्र उसके योग्य नहीं बनते, तो आज ही नष्ट हो जाने की नौबत है। 
विज्ञान ने जो साधन पैदा किए हैं, उनके साथ अहिंसा जुट जाए तो स्वर्ग उतर आएगा । इसके विपरीत उनके साथ हिंसा जुट जाय तो मानव-जाति का विनाश हो जाएगा । हम ऐसी गलत-फहमी में न रहें कि हम विज्ञान को नहीं चाहते । मेरा दावा है कि विज्ञान को अधिक-से-अधिकचाहने का मुझे हक है। दूसरे जो विज्ञान को चाहते हैं, नाहक चाहते हैं। सर्वोदय-सेवक का ही विज्ञाान पर सच्च हक है । विज्ञान पर अहिंसा का ही अधिकार है ।
हम पैदल यात्रा करते थे तो कुछ लोग शुरू-शुरू में कहा करते कि यह दकियानूसी विचार हैं, लेकिन समझने की चीज है कि इस युग में पदयात्रा ही टिकने वाली है । या फिर हवाई जहाज टिकेंगे । बीच के सारे साधन धीरे-धीरे समाप्त हो जायंगे । एक बाजू ग्राम-रचना होगी तो दूसरी बाजू विश्व-व्यवस्था । बीच के राष्ट्र, प्रान्त आदि नास्तिवत् हो जायंगे । एक ``विश्व-संस्था`` होगी तो दूसरी ``ग्राम-संस्था``। दोनों को जोड़ने वाले प्रान्त, जिले एक-एक करके कम होंगे, नाममात्र रहेंगे ।
वेद ने कहा है: 'शिव पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातरम` - इस ग्राम में स्वस्थ और परिपुष्ट विश्व का दर्शन हो । ग्राम का दर्शन हो, ऐसा नहीं कहा । भारत का दर्शन हो, ऐसा भी नहीं कहा । दुख-रहित, रोग-रहित, समग्र विश्व का दर्शन इस गांव में हो, यही प्रार्थना इस वेदमंत्र में की गयी है । गांव विश्व-रूप हो, विश्व का प्रतिनिधि हो इसलिए हम इधर ``जय ग्रामदान`` कहते हैं, तो उधर ``जय-जगत ।`` करूणामूलक साम्य की ऐसी समाज-रचना करने के लिए विज्ञान बहुत उपयोगी होगा । पदयात्रा भी इसमें एक वैज्ञानिक साधन समझी जाएगी, जो हमने शुरू की है ।  
करूणा की सत्ता चले । विज्ञान के  दूसरे भी  साधन हैं, आण्विक   साधन । उनका उपयोग हम अहिंसा में करेंगे । यह आज के जमाने की आवश्यकता है । आज के जमाने की मांग ही है, अहिंसा और विज्ञान जुड़ जायंे, समाज पर अहिंसा और करूणा की सत्ता चले । उस बीच दण्ड की आवश्यकता रहेगी, किन्तु सम्राज्ञी करूणा ही होगी । आज हालत यह है कि राज्य दण्डशक्ति का है और उसमें करूणा और अहिंसा दासी के तौर पर   हैं । 
शायद वे खत्म भी हो सकती है और उनके साथ-साथ मानव भी । इससे भिन्न करूणा का राज हो और उसमें दण्ड-शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जाय और करूणा ही करूणा दुनिया में रहे ऐसा एक स्वप्न मैं देख रहा है। मैं मानता हूं कि किसी विचार को किसी मनुष्य का नाम देना गलत है । फिर भी, यदि इस विचार को नाम देना ही है तो मैं इसे ``गांधी-विचार`` कहूंगा। मैं नाम देना नहीं चाहता, किन्तु आज उनकी स्मृति में बोल रहा हूं, इसलिए यह कहता  हँू ।                     
हमारा भूमण्डल
कैसे जलते हैं, दुनिया के फेफड़े 
डॉ. ओ.पी. जोशी
दुनियाभर को प्राणवायु यानि ऑक्सीजन मुहैया करवाने वाले अमेजान के जंगलों में लगी आग इन दिनों सर्वत्र चर्चा और चिंता का विषय बनी हुई है। 
दुनिया के सबसे बड़े अमेजन के वर्षा-वन अपनी प्राकृतिक नमी के कारण आमतौर पर आग के लिए प्रतिरोधी होते हैं, परन्तु शुष्क मौसम होने से वहां जून से अक्टूबर तक आग लगती रहती है। इस वर्ष भी १३ अगस्त से लगी आग अब तक ७५ हजार से भी अधिक स्थानों तक फैलचुकी है। जीवधारियों के श्वसन के लिए जरूरी प्राणवायु (ऑक्सीजन) का २० प्रतिशत भाग इन्हीं वर्षा-वनों द्वारा प्रदान किये जाने के कारण इन्हें ``विश्व का फे फड़ा`` भी कहा जाता है। अमेजन के वर्षा वन लगभग एक अरब एकड़ में फैले हैंएवं लेटिन-अमरीका के नौ देश (ब्राजील, बोलिविया, कलमिबोया, गिनी, इक्वाडोर, पेरू, सूरीनाम व वेनेजुएला) इनसे जुड़े हैं। इन वर्षा-वनों का सबसे अधिक क्षेत्र ब्राजील में है जहां इस वर्ष लगभग ७८,००० अग्निकांड हुए हैं जिनमें से आधे वर्षा-वनों में पाये गये। मौजूदा आग की गंभीरता इसी बात से लगाई जा सकती है कि वहां प्रति मिनट तीन फूटबाल के मैदानों के बराबर क्षेत्रों में आग फैल रही है।
ब्राजील तथा बोलिविया के बाद यह आग और आगे तक फैल गयी है तथा इससे वर्षा-वन का ९,५०००० हेक्टर क्षेत्र नष्ट हो गया है। ब्राजील के साओ-पाउलो तथा अन्य शहरों में आग का धुंआ फैल गया है जो हवा के साथ अन्य देशों में भी फैलेगा । वनों की आग से पैदा धुंए में विषैली गैसें तथा जहरीले पदार्थों के बारीक कण पाये जाते हैं। विषैली गैसों में कार्बन डाय-ऑक्साइड तथा कार्बन मोनो-ऑक्साइड, नाइट्रो-जन-ऑक्साइड्स, मीथेन तथा हाईड्रो- कार्बन्स प्रमुख हैं। ब्राजील के 'अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र` ने इस आग से पैदा धुएं को स्थानीय पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी-तंत्र (इकोसिस्टम) के लिए आपदा बताया है। अमेरीकन एजेंसी 'नासा` (नेशनल एरोनाटिक स्पेस एडमिनि-स्टेशन) के अनुसार मानवीय हस्तक्षेप से पैदा हुई यह आग वैश्विक कार्बन संतुलन को बिगाडेग़ी। 
वर्षा-वन में फैली यह आग 'शिखर-आग` (क्राउन फायर) है। यह पेड़ों की ऊपरी शाखाओं तथा पत्तियों से मिलकर बनी छतरी (केनोपी) में लगकर एक-से-दूसरे पेड़ तक फैलती है। वनों में वैसे भूतल-आग (ग्रांउड फायर) तथा सतही-आग (सरफेस फायर) भी लगती है जो वन के धरातल पर फैले सूखे पदार्थांे को जला देती है। सतही आग में कभी-कभी लपटें भी पैदा हो जाती हैं। सामान्यत: आग का प्रभाव फैले हुए क्षेत्र, तीव्रता, ज्वलनशील पदार्थ की गुणवंत्ता, मौसम तथा भौगोलिक स्थिति (टोपोग्राफी) पर निर्भर रहता है।
वर्षोंा से आग विश्व पर्यावरण का एक हिस्सा रही है, जो प्राकृतिक या मानवीय कारणों से लगती है। आकाशीय विद्युत, ज्वालामुखी का फटना तथा सूखे तनों की रगड़ या घर्षण (बांस में) आदि इसके प्राकृतिक कारण हैं। मानवीय कारणों में प्रमुख हैं, विकास कार्य, जैसे-बांध, सड़क, राजमार्ग, विद्युत या जल-प्रदाय पाईप लाईन एवं विमानतलों का निर्माण आदि । कई देशों में वन एवं पर्यावरण के कानून सख्त होने से जब किसी निर्माण कार्य हेतु पेड़ काटने की अनुमति नहीं मिलती तो गुपचुप तरीके से निर्धारित क्षेत्र में आग लगवाकर उसे प्राकृतिक कारण बतलाकर अपना कार्य सिद्ध कर लिया जाता है। ग्वाले, चरवाहे या वन विभाग के कर्मचारी जब भूल से बीड़ी-सिगरेट का कोई जलता टुकड़ा फेंक देते हैं तो वह भी आग का एक कारण बन जाता है। वन क्षेत्र में पिकनिक मनाने गये लोगों के भोजन आदि पकाने में की गयी लापरवाही भी आग को जन्म देती है। 
वैसे प्रकृति ने कुछ पेड़ों में ऐसी विशेषताएं या अनुकूलन दिये हैं जिससे या तो वे आग से बच जाते हैं या आग के बाद फिर पैदा हो जाते हैं। सिकोईया (दुनिया के ऊंचे पेड़), ओक (बांज) तथा चीड़ की कुछ प्रजातियों की छाल आग प्रतिरोधी होती है। आस्ट्रेलिया में यूकोलिप्टस की कुछ प्रजातियों में भूमिगत प्रमुख  कलिकाएं(डारमेंट-बड्स) पायी जाती हैं जो आग के बाद नई शाखाओं को जन्म देती हैं ।  
ज्यादातर वैज्ञानिक वनों की आग को हानिकारक ही मानते हैं। इससे पैदा विषैली गैसें व कणीय पदार्थ वायु प्रदूषण पैदा करने के साथ-साथ मौसम व जलवायु को भी प्रभावित करते हैं। जैव-विविधता घटने के साथ शाकाहारी पशुओं का चारा समाप्त हो जाता है एवं कई पक्षियों के घोंसले, अंडे एवं बच्च्े समाप्त हो जाते हैं। पादप अनुऋमण तथा परितंत्र का विकास भी रूक जाता है। भूमि क्षरण (इरोजन) तथा घसान की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार नियंत्रित आग से अनचाहे पौधे समाप्त हो जाते हैं तथा मिट्टी में कुछ पोषक पदार्थों की मात्रा बढ़ जाती है ।
आग से लाभ-हानि पर कुछ भी विवाद हो, परंतु सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि उपलब्ध संसाधनों से इस पर तुरंत काबू पाया जाए । कई देशों की सरकारों ने वनों को सरकारी सम्पत्ति मानकर वहां के वनवासियों को शरणार्थी बना दिया है। यह जरूरी है कि वनवासियों को या आसपास के गांवों के रहवासियों को विश्वास में लेकर सरकारें वन सुरक्षा समितियां बनाएं एवं वनों को बचाने की जिम्मेदारी उन्हें प्रदान की जाए । शुष्क मौसम प्रारंभ होने के पूर्व वन क्षेत्र में फैले सूखे पदार्थों को एकत्र कर उनके उपयोग की कोई योजना भी आग के नियंत्रण में एक अच्छा प्रयास हो सकता है।
वनों की प्रकृति के अनुसार अग्नि-रेखाएं (फायर लाईन) तथा जलाशय भी बनाये जाने चाहिये। अग्नि-रेखाएं वे स्थान होती है जहां पेड़ काट दिये जाते हैं ताकि आग का फैलाव न हो। जलाशय भूमि में नमी बनाये रखते हैं जिससे भूतल तथा सतही-आग की सम्भावनाएं कम हो जाती हैं। वर्तमान समय में हवाई जहाज, हेलिकाप्टर तथा ड्रोन का उपयोग भी वनों की आग के नियंत्रण में किया जाने लगा है। ब्राजील के वर्षा-वन में फैली आग से सबक लेकर दुनिया के अन्य देश अपने वनों को आग से बचाने की  ठोस  योजनाएं बनायें। वन तो हर देश के फेफड़े ही होते हैं, उन्हें बचाना सबसे ज्यादा जरूरी  है।                   
विशेष लेख
प्रदूषण का पौधों और जन्तुआें पर प्रभाव 
डॉ. दीपक कोहली
सम्पूर्ण विश्व आज प्रदूषण की समस्या से ग्रस्त है या हम कह सकते हैं कि संसार का कोई भी हिस्सा पूर्णतया प्रदूषण रहित नहीं है। सरल शब्दों में पर्यावरण प्रदूषण को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- `मानव गतिविधियों के फलस्वरूप पर्यावरण में अवांछित पदार्थों का एकत्रित होना, प्रदूषण कहलाता है। जो पदार्थ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं उन्हें प्रदूषक कहते हैं।` 
प्रदूषण का प्रभाव सभी जीव-जन्तुओं एवं पर्यावरण पर पड़ता है। अगर पर्यावरण जीवन है तो प्रदूषण मृत्यु है। प्रदूषण को चार भागों में बांटा जा सकता है-वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि प्रदूषण एवं ध्वनि प्रदूषण। इन सभी प्रकार के प्रदूषण का प्रभाव मानव, पौधों और जन्तुओं पर पड़ता है ।  
वायु में जब जहरीली गैसें तथा अवांछनीय तत्व इतनी अधिक मात्रा में मिल जाते हैं कि मनुष्य, जीव-जंतु और वनस्पतियां विपरीत रूप से प्रभावित होने लगती हैं तो यह स्थिति वायु-प्रदूषण कहलाती है। वायु प्रदूषण के प्रमुख कारकों में प्रथम है, ईंधनों का जलना । जिनके दहन से कार्बन मोनो ऑक्साइड, कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड व अनेक हाइड्रोकार्बन जैसे बैंजीपाइरिन आदि उत्पन्न होते हैं। परिवहन माध्यमों द्वारा उत्सर्जित धुआँ, कार्बन कणों, सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन के  ऑक्सा-इड, लैड कणों आदि के कारण भी वायु निरन्तर प्रदूषित हो रही है। इस प्रकार का प्रदूषण महानगरों में अधिक देखने को मिलता है। जहाँ अनगिनत छोटे-बड़े कारखाने अपनी चिमनियों द्वारा वायुमंडल में धुएँ के बादल बनाते रहते हैंं। 
इसके अतिरिक्त परमाणु ऊर्जा प्रक्रम एवं तापीय बिजली घरों द्वारा भी उत्सर्जित पदार्थ वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण बनते हैं। आज अत्यन्त प्रचलित शब्द यथा, 'ग्रीन हाउस प्रभाव', 'अम्लीय वर्षा' एवं 'ओजोन परत छिद्र' वायु प्रदूषण के प्रभाव से ही जनित हैं। वायु प्रदूषक विषैली गैसों से साँस की बीमारियाँ-ब्राँकाइटिस, फेफड़ों का कैन्सर हो सकता है। श्वांस रोगों के अतिरिक्त हृदय रोग, सिर दर्द एवं आँखों के सामने अंधेरा छाना आदि रोग भी हो जाते हैं । सल्फर डाई ऑक्साइड से एम्फॉयसीमा नामक रोग होता है, यह एक प्राणलेवा बीमारी है। वाहनों के धुएँ में उपस्थित सीसा कण शरीर में पहुँचकर यकृत, आहार नली, बच्चें में मस्तिष्क विकार, हड्डियों का गलना जैसे रोगों का कारण बनते हैंं। बहु केन्द्रित हाइड्रोकार्बन भी कैंसर का कारण बनते हैंं। 
वायु प्रदूषण से पौधे भी अछूते नहीं हैं ।  पेड़-पौधों पर भी वायु प्रदूषण का प्रभाव पड़ता है। वायु प्रदूषण के कारण पौधों को प्रकाश कम मिलता है जिससे उनकी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जो पौधे घूम कोहरे के क्षेत्र में पनपते हैं, उनका विकास कम हो जाता है। उनकी पत्तियां विकृत एवं सफेद होकर गिरने लगती हैं। इसी प्रकार सौंदर्यवर्द्धक फूल एवं लताएँ वायु प्रदूषण से प्रभावित होती हैं। जहरीली गैसों के कारण फूल बदरंग होकर मुरझा जाते हैं एवं लताएँ सूख जाती हैं। वायु प्रदूषण के कारण पत्तियों में विद्यमान स्टोमेटा को धूम्रकण अवरूद्ध कर देते हैं, फलत: पौधे की जीवन संबंधी प्रक्रियाएँ रूक जाती हैं और पौधे क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। 
कुछ पौधे इस प्रकार के होते हैं जिन्हें 'प्रदूषक सूचक' पौधे कहा जाता है। लाइकेन एवं मॉस प्रजाति के पादप प्रदूषण से अत्यंत संवेदनशील होते हैं। लाइकेन सल्फर डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने से प्रभावित होते हैं और इनकी वृद्धि कम हो जाती है। ये वायु प्रदूषण के अच्छे सूचक होते हैंं अत्यधिक वायु प्रदूषित क्षेत्रों हमे लाइकेन विलुप्त हो जाते हैं। लाइकेन केसमान कुछ  ब्रायोफाइट्स पौधे जैसे मॉस भी वायु प्रदूषण के अच्छे सूचक पौधे माने जाते हैं । यह पौधे प्रदूषण के कणों को अधिक जल्दी और ज्यादा मात्रा में अवशोषित कर लेते हैं ।  परिणामत: वह एक अच्छे जीव सूचक का कार्य करते हैं।
आज जल प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है और व्यापक रूप से जीव-जंतुओं को प्रभावित कर रहा है। घरेलू तथा औघोगिक दोनों ही कारणों से लगातार जल प्रदूषित होता जा रहा है। घरों में साबुन, सोडा, ब्लीचिंग पाउडर एवं डिटर्जेंट का अत्यधिक प्रयोग या उद्योगों में धात्विक, अम्ल, क्षार या लवण के प्रयोग से जल प्रदूषित हो रहा है। कृषि में प्रयुक्त कीटनाशकों एवं रासायनिक उर्वरकों ने भी जल प्रदूषण की समस्या को बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। जल प्रदूषण के कारण मानव तो बुरी तरह प्रभावित होते ही हैं, जलीय पौधों एवं जलीय जंतु तथा पशु-पक्षी भी प्रभावित होते हैं। 
विश्व भर में ८० प्रतिशत से भी अधिक रोगों का कारण प्रदूषित जल ही है। प्रदूषित जल से हैजा, पेचिश, टायफायड, पीलिया, पेट में कीड़े और यहाँ तक  कि मलेरिया, जो कि गंदे  हरे पानी में पाये जाने वाले मच्छरों के कारण होता है। आजकल जल प्रदूषण के कारण भारत की अधिकांश नदियां अत्यधिक प्रदूषित हो चुकी हैं। नदियों में कारखानों द्वारा छोड़े गये प्रदूषित जल से पानी विषाक्त हो जाता है तथा बड़े पैमाने पर जलीय जीव-जंतु जैसे-मछलियां, कछुए आदि जंतु मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। 
महासागरों एवं समुद्रों में तैलीय पदार्थों एवं हाइड्रोकार्बन के सागरीय सतह पर फैल जाने की वजह से जलीय जीवों को ऑक्सीजन नहीं मिल पाती और वे मर जाते हैं। हालात इतने चिंताजनक हो चुके हैं कि कई जलीय जीवों की प्रजातियां समाप्ति के कगार पर हैं। 
प्रदूषित जल, जलीय जीवों की प्रजनन शक्ति पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है। भारी धातुुओं जैसे-पारा, सीसा, तांबा, जस्ता, कैडमियम, क्रोमियम आदि द्वारा प्रभावित मछलियों को खाने से मनुष्य के मस्तिष्क एवं स्नायु तंत्र को क्षति पहुंचती है। घरेलू वाहित मल आदि से फास्फेट्स एवं नाइट्रेट्स की मात्रा जल में अधिक हो जाती है। जिसके कारण जल में नील हरित शैवलों की संख्या बढ़ जाती है व जल में ऑक्सीजन की मात्रा में कमी हो जाती है। इस कारण जलीय जीव-जंतु मर जाते हैं। 
जीव-जंतुओं के अतिरिक्त जलीय पौधे भी जल प्रदूषण से प्रभावित होते हैं। प्रदूषित जल में काई की अधिकता से सूर्य का प्रकाश गहराई तक नहीं पहुँच पाता, जिससे जलीय पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया और उनकी वृद्धि प्रभावित होती है। जल प्रदूषण के कारण जल में फास्फेट एवं नाइट्रेट युक्त कार्बनिक यौगिकों के मिलने से जल में पोषक तत्वों की अप्रत्याशित वृद्धि होती है। इसे 'यूट्रोफिकेशन' कहा जाता है। यूट्रोफिकेशन के चलते जलकुंभी या आइकार्निया पौधों से जल की सतह पट जाती है। जिससे धीरे-धीरे स्वैम्प, मार्श गैसों आदि का निर्माण होता है और अन्तत: जलस्त्रोत में उपस्थित पानी सड़ने लगता है। 
विभिन्न प्रकार के रासाय-निक प्रदूषणों तथा अन्य अपशिष्ट पदार्थों का विलय प्राय: भूमि में होता रहता है। जिसके कारण भूमि प्रदूषित हो जाती है। भूमि प्रदूषण के कारकों में जीवानाशक रसायन, कृत्रिम उर्वरक, नगरीय अपशिष्ट पदार्थ, जहरीले अकार्बनिक पदार्थ व कार्बनिक पदार्थ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। भूमि प्रदूषण का प्रभाव भी पौधों एवं जंतुओं पर पड़ता है।
भूमि प्रदूषण फसलों और पौधों की पैदावार को कम कर देता है। यह मिट्टी और प्राकृतिक पोषक तत्वों के नुकसान का कारण बनता है, जिससे फसल उत्पादन मे कमी आती है। भूमि प्रदूषण से मिट्टी के भौतिक और रासायनिक गुण प्रभिााव्त हो रहे हैं। आम तौर पर ठोस अपशिष्ट पदार्थों को मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है। इससे मिट्टी की उत्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और पेड़-पौधों की वृद्धि  रूक जाती है। कभी-कभी लोग गटर के पानी से खेतों की सिंचाई करते हैं। इससे दिन-प्रतिदिन मिट्टी में मौजूद छिद्रों की संख्या कम हो जाती है। बाद में एक स्थिति ऐसी आती है कि भूमि केप्राकृतिक मल-जल उपचार प्रणाली पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। जब भूमि ऐसी स्थिति में पहुँचती है तो उसे बीमार भूमि कहा जाता है। ऐसी भूमि पर होने वाली कृषि पर विपरीत असर पड़ता है ।  
भूमि की एक ग्राम मिट्टी में लगभग १०० मिलियन बैक्टीरिया, अनेक प्रकार के कवक, शैवाल, कीट व केंचुएँ इत्यादि होते हैं। भूमि प्रदूषकों जैसे रसायनों, कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवों हका जीवन-चक्र प्रभावित होता है। जिसका असर भूमि की उर्वरा क्षमता पर पड़ता है तथा साथ ही भूमि का पारितंत्र भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है।  
भूमि में कूड़ा करकट एवं गंदगी की अधिकता हो जाने से उनमें कीड़े-मकौड़े के पनपने की स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। परिणामस्वरूप मच्छर, मक्खी, चूहों, बिच्छुओं की संख्या बढ़ती है, जो पेचिश, हैजा, आंत्रशेध, टाइफा-इड, यकृत रोग, पीलिया आदि के कारण बनते हैं ।  
रूस, चीन और भारत दुनिया के ऐसे देशों में से हैं जहाँ जहरीली जमीन का प्रदूषण तेजी से फैल रहा है। यूक्रेन में चेरनोबिल को दुनिया सबसे बड़े परमाणु दुर्घटना के लिए याद किया जाता है। परमाणु ऊर्जा दुर्घटनाओं केबाद प्रदूषक भूमि में प्रवेश करते हैंं जिससे लाखों एकड़ कृषि भूमि क्षतिग्रस्त होती है। दक्षिण अफ्रीकी देश जाम्बिया में कबाई की जमीन, १९८७ में भारी धातुओं के प्रदूषण से बुरी तरह, प्रभावित हुई  थी। 
पेरू में ला ओराया स्थान पर सीसा, तांबा और जस्ता के अत्यधिक खनन से मिट्टी विरीत रूप से प्रभावित हुई थी। मिट्टी में आर्सेनिक जैसे विषाक्त रसायनों के अत्यधिक होने, कोयला खनन और अन्य प्रदूषकों के कारण चीन की लिनफेन सिटी की भूमि अत्यधिक प्रदूषित हो गई। भारत में गुजरात के वापी शहर में पेट्रोकेमि-कल्स, कीटनाशकों जैसे रसायनों के अत्यधिक उत्पादन के कारण वहाँ की जमीन विषाक्त हो गई है। 
भूमि प्रदूषण के कारणों में काँच, प्लास्टिक, पालीथीन बैग्स, टिन आदि भी आते हैं। एक ही स्थान पर एकत्रित होने के कारण सूक्ष्म जीवों द्वारा इनका पूर्ण विघटन संभव नहीं हो पाता है, फलस्वरूप भूमि प्रदूषित होती है। पॉलीथीन बैग्स पर यद्यपि सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है, फिर भी इनका इस्तेमाल हो रहा है। इन्हीं पॉलीथीन बैग्स के कारण कई जीवों जैसे गाय, भैंस, बकरी आदि की जान भी चली जाती है। 
वायु, जल एवं भूमि प्रदूषण की तरह ध्वनि प्रदूषण भी मानव, जीव-जंतुओं एवं पादपों के लिए हानिकारक होता है। पर्यावरणीय स्वास्थ्य मानक के अनुसार ध्वनि प्रदूषण या शोर एक ऐसी अवांछनीय ध्वनि है, जो कि व्यक्ति, समाज के लोगों एवं जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य और रहन-सहन पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। ध्वनि की तीव्रता मापने के लिए डेसीबिल इकाई निर्धारित की गयी है। सामान्य वार्तालाप में ध्वनि का स्तर ५५ से ६० डेसीबिल होता है। राकेट इंजन में ध्वनि का स्तर १८० से १९५ डेसीबिल तक पहुँच जाता है। 
विभिन्न वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह ज्ञात हुआ है कि जब ध्वनि की तीव्रता ९० डेसीबिल से अधिक हो जाती है तो लोगों की श्रवण क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। उच्च् शोर के कारण लोगों में उच्च् रक्तचाप, उत्तेजना, हृदय रोग, आँख की पुतलियों में खिंचाव, मांसपेशियों में खिंचाव, पांचन तंत्र में अव्यवस्था आदि हो जाते हैं। विस्फोटों तथा सोनिक बूम से अचानक आने वाली ध्वनि के कारण गर्भवती महिलाओं में गर्भपात भी हो सकता है। दीर्घ अवधि तक ध्वनि प्रदूषण के कारण लोगों में न्यूरोटिक मेंटल डिसआर्डर हो जाता है। स्नायुओं मेंं उत्तेजना हो जाती है। अन्य जीव-जंतुओं पर ध्वनि का असर मानव जाति से अधिक होता है। चूँकि इंसानों के पास अन्य विकसित इंद्रियां हैं, उसे केवल सुनने पर निर्भर नहीं रहना पड़ता, परंतु जानवर अपने जीवन-यापन के  लिए काफी हद तक अपनी सुनने की शक्ति पर ही निर्भर करते हैं। 
जंगलों में रहने वाले जंतु भी ध्वनि प्रदूषण से अछूते नहीं हैं। इन जानवरों की सुनने की शक्ति में कमी के कारण ये आसानी से शिकार बन जाते हैं। जो स्वाभाविक रूप से पूरे पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त जो वन्य जीव प्रजनन के आमंत्रण के लिए ध्वनि पर निर्भर करते हैं, उन्हें भी खासी दिक्कत आती है। क्योंकि मानव निर्मित ध्वनियों यानि शोर की वजह से उनकी ध्वनि दूसरा जीव सुन नहीं पाता। इस तरह ध्वनि प्रदूषण वन्य जीवों की जनसंख्या में गिरावट का कारण भी बनता है। 
ध्वनि प्रदूषण वाले क्षेत्र जैसे सड़कों के किनारे, औद्योगिक क्षेत्रों और राजमार्गों के आस-पास क्षेत्रों में ४-६ पंक्तियों में वृक्षारोपण कर ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता है। घने पेड़ ध्वनि को फिल्टर करते हैं और इसे लोगों तक पहुँचने से रोकते हैं। अशोक एवं नीम के पेड़ ध्वनि प्रदूषण को कम करने में सहायक होते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, अवैध खनन, विभिन्न स्वचालित वाहनों, कल-कारखानों, परमाणु परीक्षणों आदि के कारण आज पूरा पर्यावरण प्रदूषित हो गया है। इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ा है कि संपूर्ण विश्व बीमार है। 
पर्यावरण की सुरक्षा आज की बड़ी समस्या है। इसे सुलझाना हम सबकी जिम्मेदारी है। इसे हमें प्राथमिकता  प्रदान करनी चाहिए तथा प्रदूषण पर्यावरण की सुरक्षा में योगदान देना चाहिए । स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित पर्यावरण आज की आवश्यकता है। यदि पर्यावरण निरोग होगा तो हम मानव, जन्तु और पौधे भी निरोग रहेंगे।  
कविता
पेड़ होने का मतलब
शैलेन्द्र चौहान 

क्या समझते है लोग पेड़ से,
होने से,
उसके न होने से 

पेड का मतलब छाया,
हवा, लकड़ी,
हरियाली, आबादी

पेड जब सनसनाते 
तोड़ते सन्नाटे को,
तूफान से लड़कर
खुद टूट जाते,

लोग देखते
टूटे हुए पेड़,
आंधी में टूटे हुए 

कितने लाभदायक 
होते हैं पेड़
नहीं टूटते तब,
टूटने पर 
आते हैंअनगिनत काम

घर, द्वार, हल, मूंठ
बक्सा, संदूक, मेज - कुर्सी
नाव - घाट, मोटर रेल, बैलगाड़ी

जाने कहाँ कहाँ
जलती आग,
बहता पानी

क्या सोचते हैं हम कभी ?
पेड़ों के स्पंदन
उनके जीवन और मृत्यु की बात,
उनकी हरी-पीली पत्तिया,
शिराआें में
बहते जीवन रस के बारे,

आदमी के साथ 
पेड़ों का सम्बन्ध
क्या पूजा और उपयोग का ही है ?

क्या प्रतीक नहीं होते है पेड़
सतत जीवंतता,
उत्साह और प्रेम के 
दीपावली पर विशेष
शहरी विकास का मॉडल क्या हो ?
हरिनी नागेन्द्र / सीमा मुंडोली 
हम  बहुत मुश्किल में जी रहे हैं; इंटरगवरमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (खझउउ) की विशेष रिपोर्ट ने चेताया है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से वर्ष २०३० से २०५२ के बीच तापमान में १.५ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी, जो मानव और प्रकृति को खतरे में डाल सकती है। 
इंटरगवरमेंटल साइंस पॉलिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडाय-वर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विस (खझइएड) ने २०१९ की ग्लोबल असेसमेंट रिपोर्ट में बताया है कि इसकी वजह से करीब १० लाख जंतु और वनस्पति प्रजातियों पर विलुिप्त् का खतरा मंडरा रहा है। 
जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की क्षति का करीबी सम्बंध दुनिया में कई क्षेत्रों मे तेजी से हो रहे शहरीकरण से है। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में २०५० तक शहरों में ४१.६ करोड़ नए निवासी जुड़ जाएंगे और देश की शहरी आबादी कुल आबादी का ५० प्रतिशत तक हो जाएगी । सतत विकास लक्ष्यों में लक्ष्य क्रमांक ११ टिकाऊ शहरों और समुदायों के विकास पर केन्द्रित है। इस लक्ष्य को अमल में लाने पर हम जलवायु परिवर्तन और विलुप्ति के संकट में वृद्धि किए बिना ही, कुछ चुनौतियों को संबोधित करने और सतत विकास व आर्थिक वृद्धि को प्राप्त कर सकेंगे । लक्ष्य ११ के अंतर्गत पर्यावरण में शहरी पदचिन्हों को कम करना, हरियाली को सुलभ एवं समावेशी बनाना, और शहरों में प्राकृतिक धरोहरों की रक्षा करना शामिल है।
भारतीय शहर, जैसे मुम्बई, कोलकाता और चैन्नई जैव विविधता से रहित नहीं हैं। इंर्ट, डामर और कांक्रीट से बने इन शहरों का विकास उपजाऊ तटीय मैंग्रोव और कछारों में हुआ था जो जैव विविधता से समृद्ध थे। कई भारतीय शहर उनके निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक हरे-भरे हैं; ये पेड़ वहां राजाओं और आम लोगों द्वारा लगाए गए होंगे। इन शहरों में समृद्ध वानस्पतिक विविधता है, जिसमें स्थानीय व बाहरी दोनों तरह के पेड़ -पौधे हैं। इसके अलावा स्लेंडर लोरिस (मराठी में लाजवंती या तमिल में कुट्टी तेवांग), टोपीवाला बंदर या बोनेट मेकॉक, किस्म-किस्म के उभयचर, कीट, मकड़ियां और पक्षी भी पाए जाते हैं।
हम न केवल भारतीय शहरों की पारिस्थितिक विविधता से बल्कि इस बात से भी अनजान हैं कि शहरी क्षेत्रों की प्रकृति मानव स्वास्थ्य और खुशहाली के लिए कितनी महत्वपूर्ण है। शहरी योजनाकार, आर्किटेक्ट्स और बिल्डर्स इमारतों व अन्य निर्माण कार्यों को ही डिजाइन करने पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। दूसरी ओर, परिस्थितिकीविद शहरों की जैव विविधता को अनदेखा करके केवल वनों और संरक्षित क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
शहरी जैव विविधता हमें भोजन, ऊर्जा, और जड़ी-बूटियां उपलब्ध कराती है, जो गरीब लोगों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। हमारे शहरों का न सिर्फ विस्तार हो रहा है बल्कि वे गैर-बराबरी के स्थल भी बनते जा रहे हैं। शहर की झुग्गी बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्र के प्रवासियों को बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है और जीवन की बुनियादी जरूरतों के लिए जूझना पड़ता है। यह जोखिमग्रस्त आबादी इंर्धन, भोजन और दवाओं क लिए अक्सर पेड़ों पर निर्भर रहती है।
सहजन के पेड़ दक्षिण भारतीय झुग्गी बस्तियों में आम हैं। इनके फूल, पत्तियां और फलियां प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व मुफ्त प्रदान करते हैं। सड़क के किनारे लगे नीम और बरगद के पेड़ कई छोटी-मोटी बीमारियों से लड़ने में मदद करते है और दवाओं पर होने वाला खर्च बच जाता है।
ऐसे ही जामुन, आम, इमली और कटहल के पेड़ से भी हमें पोषक फल मिलते हैं, बच्च्े इन पर चढ़ते और खेलते हैं जिससे उनकी कसरत और मनोरंजन भी हो जाता है। वही करंज के वृक्ष (पौंगेमिया पिन्नाटा) से लोग इंर्धन के लिए लकड़ी प्राप्त् करते हैं और इसके बीज से तेल भी निकालते हैं।
हमारे जीवन में प्रकृति की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है जो इन भौतिक वस्तुओं से कहीं आगे जाती है। शहरों में रहने वाले बच्चे घर की  चारदीवारी के अंदर रहकर ही अपनी आभासी दुनिया में बड़े होते हैं, जिससे उनके व्यवहार और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर होता है। प्रकृति अतिसक्रियता और एकाग्रता की कमी के विकार से उभरने में बहुत मदद करती है, इससे बच्चेंऔर उनके पालकों, दोनों को राहत मिलती है। नेचर डेफिसिट डिसऑर्डर एक प्रकार का मानसिक विकार होता है जो प्रकृति से दूरी बनने से पैदा होता है।
पेड़, चाहे एक पेड़ हो, के करीब रहकर भी शहरी जीवन शैली की समस्या को कम कर सकते हैं। अध्ययन दर्शाते हैं कि प्रकृति की गोद में रहने से खुशहाली बढ़ती है, न सिर्फ बीमारियों से जल्दी उबरने में मदद मिलती है, बल्कि हम शांत, खुश, और तनावमुक्त रहते हैं। आजकल कई अस्पताल अपने आसपास हरियाली बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उनके मरीजों को जल्दी स्वस्थ होने में मदद मिले। 
शहरी लोग कुछ विशेष प्रकार के पेड़ों से आजीवन रिश्ता बनाकर रखते हैं। यह उनकी बचपन की यादों की वजह से हो सकता है या सांस्कृतिक महत्व की वजह से भी । किसी पार्क या प्राकृतिक स्थान के नजदीक रहने से जीवन शैली से जुड़ी समस्याएं, जैसे मोटापे, डायबिटीज और ब्लड प्रेशर को कम करनेमें मदद मिलती है। पेड़ सामुदायिक सम्मेलन के लिए भी जगह उपलब्ध कराते हैं। खासकर भारत में आम तौर पर यह देखा जाता है कि शहरों में जब बैठक का आयोजन करना हो तब नीम और पीपल जैसे वृक्ष की छाया में चबूतरे पर बैठकर लोग बातें करते हैं। 
सड़क पर फल विक्रेताआें, बच्चों के लिए क्रिकेट खेलने और महिलाओं के लिए पेड़ों की छाया बैठकर गप्पे मारने की जगह बन जाती है। साथ ही साथ लोग दोपहर कीे तेज धूप में इन पेड़ों की छाया में बैठकर शतरंज और ताश के पत्तों का खेल खेलते और आराम फरमाते हैं। बुजुर्ग लोग पेड़ों की छाया में दोपहर की झपकी भी ले लेते हैं। उन शहरों में, जहां लोग अपने पड़ोसियों से भी मेलजोल नही रखते, वहां एक पेड़ भी मेल-मिलाप और सामूहिक क्रियाकलाप का स्थान बन जाता है ।
वर्तमान में शहरों की बढ़ती हुई सुस्त जीवन शैली ऐसी है जो मोटापे, ब्लड प्रेशर और मानसिक तनाव जैसी कई समस्याओं को जन्म देती है। अध्ययनों से पता चलता है कि प्रकृति के पास रहकर मनुष्य कई परेशानियों से छुटकारा पा सकता है। कही-सुनी बातों के अलावा भारतीय परिप्रेक्ष्य में हमें   इस बात की बहुत कम जानकारी है कि प्रकृति के करीब रहने से तनाव को दूर करने तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य व खुशहाली में कितनी मदद मिलती है।
पेड़ शहरी वातावरण में लगातार बढ़ रहे वायु प्रदूषण के खतरे को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे हवा और सड़क पर बिछे डामर को ठंडा रखते हैं जो लू के दौरान बहुत महत्वपूर्ण होता है। दोपहर की तपती गर्मी मे जी-तोड़ मेहनत करने वाले मजदूर या गलियों मे घूमते फेरी वालों और घरेलू कामगारों के लिए इन पेड़ों का होना बहुत आवश्यक हो जाता है जो गर्मी के प्रभाव को कम करता है।
यह देखकर आश्चर्य होता है और नियोजन की कलई खुल जाती है कि दिल्ली और बैंगलुरु जैसे बड़े शहर एक तरफ तो बड़े राजमार्गों पर लगे हुए पेड़ों कि अंधाधुन्ध कटाई मे लगे हैं और दूसरी तरफ प्रदूषण को कम करने के लिए जगह-जगह स्मोक स्क्रबर टॉवर लगवा रहे हैं। हमें तत्काल इस बात को लेकर रिसर्च करने की आवश्यकता है कि कौन सी प्रजाति के पेड़ प्रदूषण प्रतिरोधी और ताप प्रतिरोधी हैं और भविष्य में शहरी योजनाओं के लिए आवश्यक है। इस एंथ्रोपोसीन युग में इस तरह का अनुसंधान जरूरी है क्योंकि इन तपते शहरी टापुओं और ग्लोबल वार्मिंग के मिले-जुले असर से पेड़ों की मृत्यु दर बढ़ने वाली है। 
दूसरा सबसे महत्वपूर्ण शोध पेड़ों के आपस में होने वाले संचार को लेकर हो रहा है। जिसमें हमें हाल के अध्ययनों से पता चला है कि पेड़ भी हवा में कुछ केमिकल छोड़कर और जमीन के नीचे फैले फफूंद मायसेलीया के नेटवर्क से जुड़कर आपस में संचार स्थापित करते हैं। वैज्ञानिकों ने इसे  वुड वाइड वेब का नाम दिया है। इस भूमिगत नेटवर्क के द्वारा समान और अलग-अलग प्रजाति के  पेड़ आपस में संचार स्थापित करके  एक दूसरे का सहयोग करते हैं। इससे वे कीटों के हमले से बचाव करते हैं, और भोजन का आदान-प्रदान भी करते हैं। शोध का विषय यह है कि जब ये पेड़ शहरों में एक ही पंक्ति में लगाए जाते हैं उस स्थिति में क्या इनका संचार तंत्र स्थापित हो पाता होगा, जहां जमीन पर डामर और कांक्रीट की परतें बिछी होती हैं ?
वुड वाइड वेब पर ताजा रिसर्च से यह भी पता चला है कि मातृ वृक्ष किसी जंगल या उपवन का सबसे पुराना पेड़ आसपास के पेड़ों के लिए महत्वपूर्ण होता है। किसी जंगल में पास-पास के ये पेड़ परस्पर आनुवंशिक रूप से जुड़े होते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं जबकि मातृ वृक्ष एक क्रिटिकल सेन्ट्रल नोड का काम करता है। भारतीय शहरों में हम मान सकते हैं कि मातृ वृक्ष सबसे बड़े और पुराने पेड़ होंगे। लिहाजा इन पर सबसे अधिक खतरा है क्योंकि शहरी योजनाकार उन्हें ये कहकर कटवा देते हैं कि ये अति प्रौढ़ और वयस्क हो चुके हैं और लोगों और उनकी सम्पत्ति के लिए नुकसानदायक हैं।
अगर शहरी परिवेश से इन मातृ वृक्षों को हटा दिया जाए तो क्या परिणाम होंगे, और परस्पर सम्बद्ध नेटवर्क पर क्या असर होंगे? हमारे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है क्योंकि आज  तक इस को लेकर कोई भी शोध या अध्ययन देश में नही हुआ है। हमें तो अंदाज भी नहीं है कि क्या भारतीय शहरों मे ऐसा कोेई वृक्ष-संचार है भी या नहीं, वह कैसे काम करता है और करता भी है या नहीं ।
उपरोक्त चर्चा दर्शाती है कि शहरी क्षेत्रों के पेड़ अनुसंधान के  आकर्षक क्षेत्र उपलब्ध कराते हैं और जिसके लिए बढ़िया परिस्थितिकी रिसर्च स्टेशन की जरूरत है। भारत में ऐसे अनुसंधान की भारी कमी है चाहे वह पेड़ों को लेकर हो या फिर शहरी स्थायित्व को लेकर । वर्तमान में शहरी स्थायित्व पर २००८ से २०१७ के बीच हुए १००० शोधपत्रों में से सिर्फ १० पेपर ही भारत से थे। 
यह दुखद है कि शहरी क्षेत्रों के प्रशासन सम्बंधी हमारा अधिकांश ज्ञान उन शोधो पर आधारित है जो यूएस, चीन और युरोप में किए गए हैं, जबे इन देशों की परिस्थितिकी, पर्यावरण, विकास और संस्कृति भारतीय शहरों से सर्वथा भिन्न है। शहरी विकास के इन मॉडलों को हम जस-का-तस अपना नहीं सकते क्योंकि  हमारे देश का राजनैतिक, आर्थिक, पारिस्थितिक, पर्यावरणीय और संस्थागत संदर्भ भिन्न है। लेकिन ये बात दुखद है कि हमारे अधिकतर शहरों     का विकास इन्हीं तरीकों से किया जा रहा है ।
शोध आवश्यक है लेकिन वह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। शहरी पारिस्थितिकी पर शोध कार्य को गति देने के साथ-साथ, भारतीय वैज्ञानिकों को चाहिए कि शहरी विकास के सम्बंध में वे शहर में रहने वाले लोगों के साथ संवाद करें । भारत में इसका एक रास्ता यह भी हो सकता है कि नागरिक विज्ञान में बढ़ती रुचि का इस्तेमाल किया जाए । सीजन वॉच एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम है जिसमें लोग किसी एक पेड़ को चुनते हैं और इसमें साल भर में होने वाले बदलावों, जैसे फूलों और फलों का आना आदि का अध्ययन करते हैं। 
इस तरह वे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारी का संकलन तो करते ही हैं, साथ-साथ इस प्रकिया के तहत वे बच्चों और बड़ों को प्रकृति से जोड़ने का काम भी करते हैं। बैंगलुरु का शहरी स्लेंडर लॉरिस प्रोजेक्ट नागरिकविज्ञान का एक बेहतरीन उदाहरण है जो एक जोखिमग्रस्त दुर्लभ प्रायमेट प्रजाति पर केन्द्रित है ।  
दुनिया भर में पेड़ों के बारे में लोकप्रिय किताबें लिखने का चलन फिर से उभरा है। जैसे डी. जे. हास्केल की दी सॉन्ग ऑफट्रीज : स्टोरीस फ्रॉॅम नेचर्स ग्रेट कनेक्टर्स (पेंग्वन वाइकिंग  २०१७); पी. वोहलेबेन, दी हिडन लाइफ ऑफट्रीज, व्हाट दे फील, हाऊ दे कम्युनिकेेट : डिस्कवरीज फ्रॉम अ सीक्रेट वर्ल्ड, ग्रे स्टोन बुक्स , २०१६) । हमें भी भारतीय जन, बच्चों और बड़ों के लिए संरक्षण, विलुिप्त् और जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय व पारिस्थितिकी सम्बंधी विभिन्न विविध मुद्दों पर पुस्तकों की आवश्यकता है। 
इससे व्यक्ति, स्कूल, कॉलेज और समुदाय भी नागरिक विज्ञान और जन विज्ञान में सम्मिलित हो सकेंगे ं ।  जैसे एच. नगेंद्र और एस मंदोली लिखित सिटीज एंड केनॉपीज ; ट्रीज इन इंडियन सिटीज पेंग्विन रैंडम हाउस   इंडिया, दिल्ली २०१९) । शहरी पारिस्थितिकी पर सहयोगी अनुसंधान की भी आवश्यकता है ताकि हम यह समझ पाएं कि लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए अपने शहरों की पारिस्थितिक दृष्टि से डिजाइन कैसे  करें ।
जनजीवन
बेढंगा विकास बनाम सुव्यवस्थित विनाश
पवन नागर
खूब झमाझम बाढ़ और उसी अनुपात का सूखा हमारे देश में आम बात है, लेकिन क्या इन दोनों संकटों से निजात पाई जा सकती है ? क्या ऐसा कोई तरीका हो सकता है जिससे पानी की इन दोनों अवस्थाओं से पार पाया जा सके  ?
ताजा खबर यह है कि गर्मी में जहाँ आधा देश पानी की समस्या से जूझ रहा था, वहीं अब देश के   अधिकतर राज्य बाढ़ की समस्या से दो-दो हाथ कर रहे हैं। इंसानों, फसलों, जानवरों, सड़कों, मकानों, पुल-पुलियों आदि के नुकसान की वास्तविक गणना करना नामुमकिन जैसा ही है, क्योंकि प्रशासन के पास जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले कुशल कार्यबल की संख्या बहुत ही कम है। हर साल अधिकतर राज्यों में बाढ़ आती है और हर बार काफी नुकसान करके चली जाती है। फिर भी हम विकास की अंधी दौड़ में बारिश जाने के बाद भूल जाते हैं और फिर तेजी से दौड़ने लगते हैं। इसी दौड़ के चलते हम अगले आठ महीनों में पर्यावरण को इतना नुकसान पहुँचा देते हैं कि वह खुद हमारे ऊपर संकट की तरह टूटने लगता है।
वैसे तो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने को लेकर कड़े नियम और कानून बने हुए हैं, परन्तु बड़े-बड़े उद्योगपति घराने पैसों की दम पर इन नियमों को धता बताते रहते हैं और मुआवजे और जुर्माना देकर मामले को रफा-दफा कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि बाढ़ पहली बार आई है। पिछले साल केरल में बाढ़ आई थी, पर उससे भी हमने कुछ नहीं सीखा। बिहार, असम, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में तो लगभग हर साल ही बाढ़ आती है। 
पिछले १५ साल के आंकड़े भी यही बयां कर रहे हैं कि लगभग हर दूसरे-तीसरे साल किसी-न-किसी राज्य या शहर में भारी बारिश और बाढ़ के कारण त्रासदी नित नए रिकॉर्ड बना-बनाकर खुद ही अगले साल अपना ही रिकार्ड तोड़ देती है। इसका ताजा उदाहरण भारत की व्याव-सायिक राजधानी मुंबई का है। जरा सोचिए, जब देश के सबसे अमीर और विकसित शहर में बारिश के पानी से निपटने की व्यवस्था नहीं है तो शेष भारत के गाँवों और शहरों की कल्पना करने की जरूरत ही नहीं । 
यह एक बहुत बड़ा प्रश्न तो है ही, साथ में आधुनिकता को ठेंगा दिखाने की प्रकृति की अपनी कला है जिसे हम समझकर भी अनजान बने हुए हैं। इसका समाधान क्या है? मुआवजा इस समस्या का हल नहीं है। मुआवजे से जीवन-यापन नहीं होगा और न ही जाने वाला वापस आएगा।
भारत में बाढ़ और पानी की कमी, दोनों समस्याओं को हल करने का सबसे आसान तरीका पुराने, परंपरागत तरीकों को अपनाकर ही मिलेगा । यदि हर खेत में तालाब होंगे तो बाढ़ का पानी या ज्यादा बारिश का पानी पहले इन तालाबों में संग्रहित होगा। हम तालाबों को ५० फीट गहरा भी बना सकते हैं। जितना गहरा तालाब होगा उतना ही ज्यादा पानी संचित होगा और यह पानी रबी की फसल में भी काम आएगा और भूजल स्तर भी बढ़ाएगा। यदि सरकार चाहे तो किसानों को साथ लेकर इस बात के लिए तैयार कर सकती है कि जिसके पास जितनी जमीन है उसके दसवें भाग में तालाब बनाना है । 
यदि किसी के पास ५ एकड़ जमीन है तो उसे सिर्फ ०.५ एकड़ में ऐसी जगह तालाब बनाना है जहां खेत का ढाल हो या जहाँ पानी एकत्रित हो सकता हो। इस प्रकार तालाब में बारिश और बाढ़  के पानी को संचित करके बाढ़ और पानी की कमी के कारण हो रही बहुत सारी समस्याओं से निजात पा सकते हैं।
जब ज्यादा बारिश होती है और ऊपर से बाँधों के दरवाजे भी खुल जाते हैं तब यह समस्या आती है कि अब इतना पानी जाए तो जाए कहाँ ? ऊपर से हमने जंगलों को मिटाकर कांक्रीट के नए जंगल बना दिए हैं जिसमें पानी के जमीन में जाने के सारे रास्ते बंद हैं। शहरों में अब जमीन बची ही नहीं और पानी बहकर मैदानी इलाकों में एकत्रित होता है और इसी प्रक्रिया में जितना भूजल स्तर बढ़ना होता है उतना ही बढ़ता है, बाकी पानी बर्बाद हो जाता है। इसका जीता-जागता उदाहरण चेन्नई शहर है जिसमें भूजल २००० फीट की गहराई पर भी उपलब्ध नहीं है। यदि हमें इससे सीख लेना है और भविष्य के खतरों से बचना है तो सरकार को तुरंत सीमेंट की सड़कों पर पाबन्दी लगानी होगी ।
मैदानी इलाकों और हर खेत में तालाब बना दिए जाएँ तो पहले फायदे के तौर पर बाढ़ की समस्या से तो निजात मिलेगी ही, साथ ही दूसरे फायदे के रूप में किसानों को रबी में फसल के लिए पानी मुफ्त में मिलेगा। तीसरा फायदा यह होगा कि भूजल के गिरते स्तर की समस्या से भी बेफिक्र   हो पाएँगे। चौथा फायदा यह होगा कि किसानों की बिजली पर निर्भरता कम होगी। पाँचवे फायदे के तौर पर गर्मी के मौसम में पानी के हाहाकार से मुक्ति मिलेगी ।
सरकार चाहे तो पायलेट प्रोजेक्ट के तौर पर पहले प्रयोग के  रूप में किसी भी अधिक बाढ़ प्रभावित जिले में यह प्रयोग कर सकती है। दूसरा प्रयोग अधिक सूखे से प्रभावित क्षेत्र में करना है। तीसरा प्रयोग अधिक-से-अधिक भूजल का दोहन करने वाले क्षेत्र में करना है जहाँ ट्यूबवेल से अधिक सिंचाई होती है। चौथा प्रयोग वहाँ करना है जहाँ नहर से सिंचाई होती है, क्योंकि बाँधों से अतिरिक्त पानी आने के कारण यहीं ज्यादा पानी बर्बाद होता है। पाँचवांं प्रयोग उस क्षेत्र में करना है जहाँ के किसान नदी से सिंचाई पर निर्भर हैं। 
छठवा और अंतिम प्रयोग उस क्षेत्र में करना है जहाँ धान की खेती की जाती है क्योंकि इस क्षेत्र में पहले से छोटे-छोटे गटे (छोटे-छोटे खेत) बनाकर पानी रोका जाता है और अधिक पानी गिरने पर किसानों द्वारा निकाला जाता है जो कि पूरा बर्बाद हो जाता है। इस क्षेत्र में पहले से पानी भरा होने के कारण जमीन में बैठता नहीं है और इसीलिए भूजल स्तर नीचे जा रहा है।
इस योजना के नियम आसान होना चाहिए । पहला नियम यह हो कि वह व्यक्ति जमीन का मालिक हो और दूसरा यह कि वह तालाब बनवाना चाहता हो । इसके आलावा और कोई जटिल नियम नहीं होने चाहिए जैसे कि बाकी योजनाओं में होते हैं। यह योजना पूरी तरह से डिजिटल होनी चाहिए। एक विशेष वेबसाइट बनाई जाए और उसमें 'लॉग इन` की सुविधा हर किसान को दी जाए। हर किसान की एक अलग आईडी बनाई जाए। 
इसी आईडी में योजना के क्रियान्वयन से संबंधित सभी जानकारी अपडेट होती रहेगी। इसमें सरकार की लैंड रिकॉर्ड की वेबसाइट काफी मदद कर सकती है। जो भी कार्य तालाब बनाने में किए जा रहे हैं उनकी वीडियो रिकॉर्डिंग हो और तुरंत साझा करके किसान की आईडी पर भी भेजे जाएँ । यह काम आप किसान से ही करा सकते हैं क्योंकि आज अधिकांश किसानों के पास स्मार्ट फोन है, बस जरूरत है तो इन आधुनिक उपकरणों का सदुपयोग करने की ।
तालाब से पानी के मामले में आत्मनिर्भरता का सबसे अच्छा उदाहरण मध्यप्रदेश के देवास जिले में टोंकखुर्द तहसील है जहाँ बलराम तालाब योजना के अंतर्गत सबसे ज्यादा तालाब बने हैं और जिसके चलते यहाँ के किसान व रहवासी अब पानी की समस्या पर विजय प्राप्त कर चुके हैं ।  
हर साल बाढ़ में असीमित पानी बर्बाद हो जाता है और फिर हम गर्मी के दिनों में इसी पानी के लिए तरसते हैं। समस्या का समाधान इसी बर्बाद हो रहे पानी में छुपा हुआ है। इसी पानी का हम सब को मिलकर सही प्रबंधन करना है। यह देश की सबसे बड़ी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग योजना साबित हो सकती है।  
पर्यावरण परिक्रमा
भारत में 1;74 करोड पयर्टक आए सालभर में 
दुनिया हर साल २७ सितबंर को वर्ल्ड टूरिज्म डे मनाती है । यूनाइटेड नेशंस की वर्ल्ड टूरिज्म ऑर्गनाइजेशन (यूएनडब्लयूटीओ) इसका नेतृत्व करती है । मकसद लोगों को पर्यटन का महत्व समझाना होता है । 
इस साल के वर्ल्ड टूरिज्म डे का फोकस - स्किल्स, एजुकेशन और जॉब्स पर है । २०१८ में दुनियाभर में १४०.१ करोड़ पर्यटकों ने विदेश यात्रा की, जिनमें सबसे ज्यादा टूरिस्ट फ्रांस की यात्रा करने वाले थे । इसके बादा स्पेश, अमेरिका और चीन का नंबर आता है । साल २०१८में तुर्की और वियतनाम ने पर्यटन क्रमश: २१.७%, १९.९ % की बढ़ोतरी दर्ज की । जबकि भारत ने १२.१%  की वृद्धि दर्ज की । 
हमारे देश में वर्ष २०१८ में १.७४ करोड़ पर्यटक आयें । २०१८ में टूरिज्म सेक्टर का भारत जीडीपी में ९.२% योगदान था कुल रोजगार का ८.१%  इसी सेक्टर से रहा । उम्र के हिसाब से समझने की कोशिश करें तो २५ से ३४ साल के आयु वर्ग के लोग सबसे ज्यादा ऑनलाइन ट्रैवलिंग मार्केट का इस्तेमाल कर रहे हैं । अभी सीनियर सिटीजन में ये ट्रेंड कम देखने को मिल रहा है । 
ट्रैवल एंड टूरिज्म ड्राइविंग वुमेन सक्सेस की रिपोर्ट के मुताबिक टूर एंड ट्रैवल सेक्टर में महिलाआें की हिस्सेदारी रूस में   रही । यहां की इकोनॉमी में महिलाआें की हिस्सेदारी ४५%  से ज्यादा रही , जबकि टूर एंड ट्रैवल सेफ्टी में महिलाआें की हिस्सेदारी ५५%  रही । वहीं, भारत में इस सेक्टर में मलिाआें की हिस्सेदारी १५% रही । 
तेन्दुआें की संख्या में बाजी मारेगा मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश में बाघ ही नहीं, तेंदुए भी तेजी से बढ़ रहे हैं । वर्ष २०१४ में जहां ३० जिलों में तेंदुआें की उपस्थिति दर्ज की गई थी, वहीं पिछले साल करवाई गई बाघों की गणना में प्रदेश के ४६ जिलों में तेंदुआें की उपस्थिति के प्रमाण मिले हैं । इस हिसाब से प्रदेश में पिछले चार साल में ४५० से ज्यादा तेंदुए बढ़ने की उम्मीद जताई जा रही है । यानी तेंदुआें की संख्या के मामले में इस बार भी मध्य प्रदेश पहले स्थान पर रहेगा । 
पांच साल पहले प्रदेश में देश में सबसे ज्यादा १८५४ तेंदुए थे, जबकि तेंदुआें की संख्या के मामले में कर्नाटक दूसरे नंबर पर था । वहां ११२९ तेंदुआें की गिनती हुई थी । 
भारतीय वन्यजीव संस्थान इेहरादून ने दिसंबर २०१७ से मार्च २०१८ तक देश भर में बाघों की गिनती कराई है । इस दौरान तेंदुए भी गिने गए हैं । केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इनमें से बाघों के आंकड़े घोषित कर चुका है और तेंदुआें का आंकड़ा अगले माह आने की उम्मीद जताई जा रही है । यह आंकड़ा भी प्रदेश्र को देश का सिरमौर बनाए रख सकता है । जानकार बताते है कि स्टेट फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसएफआर-आई) जबलपुर में आंकड़ो के अध्ययन के दौरान यह संकेत मिले हैं कि प्रदेश में तेंदुआें की संख्या में ४०० से ४५० की वृद्धि हो सकती है । इसका प्रमाण उन जिलों में भी तेंदुए दिखाई देना है, जहां अब तक नहीं दिखाई देते थे । 
तेंदुआें को लेकर दुखद पहलू यह है कि प्रदेश में जिस तेजी से तेंदुआें की संख्या बढ़ रही है, उससे भी ज्यादा तेजी से मौत हो रही है । शिकार, सड़क-रेल दुर्घटना और कुआेंमें गिरने के चलते हर साल ४५ से ज्यादा तेंदुआें की मौत हो जाती है । राजधानी के नजदीक स्थित रातापानी अभयारण्य में तेंदुआें की संख्या १०० से ज्यादा बताई जा रही है ं और यहां तेंदुआें की मौत का ग्राफ भी ज्यादा है । पिछले तीन साल में यहां आधा दर्जन से ज्यादा तेंदुआें की मौत हुई है । इनमें से करीब चार तेंदुए ट्रेन की चपेट में आकर मरे हैं । वहीं तेंदुआें की खाल बेचने के मामले सामने आ चुके हैं ।
देश में २५अमीरों के पास जीडीपी की १० प्रतिशत संपत्ति
हमारे देश के शीर्ष २५ अमीरों की कुल संपत्ति का मूल्य सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के १० प्रतिशत के बराबर है । रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी लगातार आठवेंसाल अमीर भारतीयों की सूची में शीर्ष पर रहे । उनकी कुल संपत्ति ३,८०,७०० करोड़ रूपए आंकी गई हैं । 
आईआईएफएल वेल्थ हुरून इंडिया की अमीरों की सूची के अनुसार लदंन स्थित एसपी हिंदूजा एवं उनका परिवार १,८६,५०० करोड़ रूपए की संपत्ति के साथ इस सूची में दूसरे स्थान पर हैं । विप्रो के अजीज प्रेमजी अमीर भारतीयों की सूची में तीसरे स्थान पर रहे हैं । उनकी कुल संपत्ति १,१७,१०० करोड़ रूपए रही हैं । इस बार की सूची में १,००० करोड़ रूपए से अधिक की संपत्ति वाले भारतीयों की संख्या बढ़कर ९५३ हो गई हैं । २०१८ में यह संख्या ८३१ थी । वहीं डॉलर मूल्य मेंअरबपतियों की संख्या १४१ से घटकर १३८ रह गई है । 
१,००० करोड़ रूपए से अधिक की संपत्ति रखने वाले ९५३ अमीरों की कुल संपत्तियां देश के जीडीपी के २७ प्रतिशत के बराबर हैं । भारतीय अमीरों की सूची में आर्सेलर मित्तल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी लक्ष्मी निवास मित्तल १,०७,३०० करोड़ रूपए की संपत्ति के साथ चौथे और ९४,५०० करोड़ रूपए की धन संपदा के साथ गौतम आडवाणी पांचवें स्थान पर रहे हैं । 
सूची में शामिल ३४४ अमीरों की संपत्ति इस साल घटी है । वहीं ११२ अमीर ऐसे रहे हैं जो १,००० करोड़ रूपए के स्तर से पीछे रहे हैं । रिपोर्ट के अनुसार २४६ यानी २६ प्रतिशत अमीर भारतीय मुंबई में रहते हैं । दिल्ली में १७५ अमीरों का निवास हैं जबकि बेंगलुरू में ७७ अमीर भारतीय रहते हैं । इस सूची में ८२ प्रवासी भारतीय (एनआरआई) भी शामिल हैं । इनमें से ७६ प्रतिशत ने अपने दम पर यह मुकाम हासिल किया हैं । एनआरआई के लिए पसंदीदा देश अमेरिका हैं । अमेरिका में ३१ अमीर भारतीयों का निवास है । उसके बाद संयुक्त अरब अमीरात और ब्रिटेन का नंबर आता है । 
एचसीएल टेक्नोलॉजी की ३७ वर्षीय रोशनी नाडर सबसे अमीर भारतीय महिला हैं । उनके बाद गोदरेज समूह की स्मिता वी. कृष्णा का नंबर आता है, जिनकी संपदा ३१,४०० करोड़ की हैं । १८,५०० करोड़ के साथ बायोकॉनकी किरण मजूमदार शॉ अपने बूते यह मुकाम हासिल करने वाली सबसे अमीर महिला हैं । 
राला मण्डल में ओपन वन्य प्राणी संग्रहालय बनेगा 
म.प्र. में इंदौर शहर के निकट रालामंडल वन क्षेत्र में कई बार पर्यटन बढ़ाने के उद्देश्य से जिला प्रशासन शहर के आसपास पर्यटन स्थलों के विकास को लेकर काम कर रहा है । इसी के चलते जहां पातालपानी शीतलामाता फाल जाम गेट बामणिया कुंड सहित अन्य स्थलोंपर पर्यटन बढ़ाने के उद्देश्य से काम किया जा रहा है । इसी के चलते शहर के सबसे करीब वन क्षेत्र राला मंडल मेंभी पर्यटन की संभावनाएं   हैं । 
प्रस्तावित योजना के अनुसार यहां ऐसे वन्यजीवों को रखा जाएगा जो मनुष्य को नुकसान नहीं पहुंचाते । फिलहाल यहां चीतल, हिरण, नीलगाय, खरगोश, मोर जैसे वन्य प्राणी तो हैं, इसलिए इनकी संख्या बढ़ाई जाएगी । नए वन्यजीव बत्तख, विदेशी चिड़िया, बटर फ्लाई पार्क, हाथी, सहित विदेशी वन्य प्राणी रखने की योजना है । एक से डेढ़ एकड़ में ब्राउंड्री वाल और जालियां लगा लगा कर प्राणियों को रखा जाएगा ताकि उन्हें जंगल में रहने का ही एहसास हो । इस योजना को लेकर शहर के बुद्धिजीवी नागरिकों से सुझाव भी मांगे गए हैं । शहर में लंबे समय से ओपन वन्य प्राणी संग्रहालय की आवश्यकता महसूस की जा रही थी । 
रालामंडल में इसके पूर्व बायोडायवर्सिटी पार्क बनाने के लिए वन विभाग द्वारा प्रयास किए गए थे । इसके बाद यहां रोप-वे बनाने की योजना भी तैयार की गई थी, जिसमेंदेवगुराड़िया की पहाड़ी से रालामंडल तक रोप-वे बनाने की योजना थी । इसके बाद कलेक्टर ने अब यहां ओपन वन्य प्राणी संग्रहालय बनाने की बात कही है । 
अब संरक्षित क्षेत्रों की जमीन बेच सकेगे किसान
म.प्र. में सरदारपुर, नौरादेही, घाटीगांव, करेरा और रातापानी सहित प्रदेश के अन्य अभयारण्यों में मौजूद निजी जमीन पर अब कोई बंदिश नहीं रही । वर्ष १९९१ में वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम में संशोधन के बाद किसानों को इस जमीन को बेचने के लिए न तो किसी से इजातत लेने की जरूरत है और न ही जमीन को डि-नोटिफाई करवाने की । ऐसा जिलों में कलेक्टरों की लापरवाही के कारण हुआ है । उन्हें किसी भी अभयारण्य का नोटिफिकेशन जारी होने के दो साल मेंसंरक्षित क्षेत्र के अंदर मौजूद करीब ८० हजार हेक्टेयर निजी जमीन का भू-अर्जन करना था, जो नहीं किया गया । इस कारण अधिनियम की धारा-१८ के तहत गठित अभयारण्य मेंअब रिजर्व फॉरेस्ट और जलाशय ही रह गए हैं । वन विभाग ने इस संशोधन को ढूंढ निकाला और निर्णय लेने के लिए प्रस्ताव राजस्व व विधि विभाग को भेज दिया । 
संरक्षित क्षेत्रों की निजी जमीन वहां के वन्यप्राणियों के लिए काफी नुकसानदासक साबित हो रही है । वर्ष १९९१ में निजी जमीन संरक्षित क्षेत्र की परिभाषा से बाहर जरूरत हो गई, लेकिन वन विभाग ने इसे अपने अधिकार से बाहर नहीं जाने दिया । 
ऊर्जा जगत
वातानुकूलन : गर्मीसे निपटने के उपाय
आदित्‍य चुनेकर / श्‍वेता कुलकर्णी 

भारत की जलवायु, अलग-अलग क्षेत्रों और अलग-अलग मौसमों में बहुत अलग-अलग होती है। अलबत्ता, अधिकांश देश गर्म ग्रीष्मकाल का अनुभव करता है जो और अधिक गर्म हो रहा है। 
भारत में हर साल लगभग ५० करोड़ पंखे, ८ करोड़ एयर-कूलर और ४५ लाख एयरकंडीशनर खरीदे जाते हैं। इनकी बिक्री पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ी है और आगे भी वृद्धि की उम्मीद है। फिर भी, भारत में एयर कंडीशनर और कूलर का घरेलू स्वामित्व अभी भी अपेक्षाकृत कम है। भारत उन चुनिंदा देशों में से है जहां कूलिंग एक्शन प्लान तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य है कि पर्यावरणीय और सामजिक-आर्थिक लाभ को सुरक्षित करते हुए सभी के लिए निर्वहनीय ठंडक एवं ऊष्मीय राहत प्रदान की जा सके । 
सर्वेक्षण में यह समझने की कोशिश की गई कि सर्वेक्षित परिवार किस तरह गर्मी से राहत पाने की कोशिश करते हैं और इसमें ठंडक के लिए ऊर्जा-मांग सम्बंधी कार्यक्रमों के लिए क्या समझ मिल सकती है ? 
आमतौर पर, महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश अधिक गर्म रहता है। २०१८ में, सर्वेक्षित जिलों में महाराष्ट्र  की तुलना में उत्तर प्रदेश में ४० डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले दिनों की संख्या ज्यादा रही। हालांकि, खास तौर से उत्तर प्रदेश में, सर्दियों का मौसम काफी ठंडा रहा, फिर भी बिजली से चलने वाले रूम हीटरों का स्वामित्व दोनों ही राज्यों में नगण्य है। इसलिए, हम केवल गर्मी से राहत पाने के लिए घरों में बिजली के उपयोग पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं । 
छत का पंखा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण है। उत्तर प्रदेश के लगभग ९४ प्रतिशत और महाराष्ट्र  के ९५ प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में छत के पंखे हैं। प्रति परिवार छत के  पंखों की संख्या उत्तर प्रदेश में २.४ और महाराष्ट्र में १.६ है। यह भी देखा गया है कि महाराष्ट्र (औसतन २.४ कमरे प्रति घर) की तुलना में उत्तर प्रदेश में घर बड़े (औसतन ३.८ कमरे प्रति घर) हैं । अगला लोकप्रिय उपकरण कूलर है - उत्तर प्रदेश में ४० प्रतिशत परिवारों और महाराष्ट्र में २३ प्रतिशत परिवारों के  पास कूलर है। हालांकि, उच्च् आय वाले परिवारों में इनका स्वामित्व अधिक है, लेकिन कुछ निम्न और मध्यम आय वाले परिवारों में भी कूलर थे । इससे स्थानीय स्तर पर निर्मित सस्ते कूलर की उपलब्धता का पता चलता है । 
दूसरी ओर एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम (३.५ प्रतिशत) है,जो अधिकतर उच्च आय वर्ग में होंगे । अधिकांश वातानुकूलन उपकरण (ए.सी.) स्प्लिट प्रकार के हैं; उत्तर प्रदेश में ८४ प्रतिशत और महाराष्ट्र में ७० प्रतिशत । प्रत्येक श्रेणी में सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण की औसत आयु उत्तर प्रदेश में छत के पंखे की ७ साल, कूलर की ४ साल और एयर कंडीशनर की २.५ साल है जबकि महाराष्ट्र में क्रमश: ७, ५और ३ साल थी। छत के पंखों के लिए ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) का मानक और  लेबलिंग (एसएंडएल) कार्यक्रम स्वैच्छिक है । 
भारत में उत्पादित ९५ प्रतिशत से अधिक छत के पंखे स्टार रेटेड नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश में लगभग ६ प्रतिशत और महाराष्ट्र में १८ प्रतिशत घरों में ही स्टार रेटेड छत के पंखे थे।  बीईई ने हाल ही में मानकों को संशोधित किया है जिसके बाद नए ५-स्टार रेटेड छत के पंखे गैर-स्टार रेटेड पंखों की तुलना में आधी बिजली खपत करते हैं। लिहाजा, व्यापक पैमाने पर स्टार रेटेड छत के पंखे अपनाए जाएं, इसके लिए जागरूकता और उपलब्धता बढ़ाने तथा कीमतें कम करने की आवश्यकता है । स्टार रेटेड पंखों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए बीईई राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चला सकता है । वह छत के पंखों के लिए एसएंडएल कार्यक्रम को भी अनिवार्य बना सकता है ताकि भारत में अक्षम और गैर-स्टार रेटेड पंखे न बेचे जा सकें । 
एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड (ईईएसएल) का उजाला कार्यक्रम ५-स्टार पंखे रियायती मूल्य पर बेचता है । ईईएसएल नए ५-स्टार पंखों को बेचने के लिए कार्यक्रम को अपग्रेड कर सकता है, जो पुराने ५-स्टार पंखों की तुलना में ३० प्रतिशत अधिक कार्यक्षम हैं। बीईई अपने खुद के अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) के  तहत उजाला कार्यक्रम का समर्थन कर सकता है, जिसके तहत निर्माताओं को सामान्य पंखों की बजाय अत्यंत कुशल (नए ५ स्टार पंखे) को बेचने की बढ़ती लागत की क्षतिपूर्ति करने के लिए समयबद्ध वित्त प्रदान किया जाता है। छत के पंखों और एयर कूलर के स्टार रेटिंग कार्यक्रम के समक्ष एक चुनौती स्थानीय निर्माताओं की उपस्थिति हो सकती है। हो सकता है उनमें से कुछ निर्माता सस्ते, गैर-मानक और अत्यधिक अक्षम मॉडल बेचें । तब बीईई के लिए इन उत्पादों में स्टार रेटिंग मानदंडों के अनुपालन की निगरानी करना मुश्किल हो सकता है। यह समस्या एयर कूलर में अधिक स्पष्ट है। दोनों राज्यों में सर्वेक्षित परिवारों में स्थानीय रूप से निर्मित एयर कूलर की हिस्सेदारी स्थानीय पंखों की तुलना में काफी अधिक है। एयर कूलर और पंखों के स्टार रेटिंग कार्यक्रम की सफलता के लिए इस मुद्दे को संबोधित करना जरूरी  होगा ।
सर्वेक्षित परिवारों में एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम है। हालांकि उनके उपयोग के बारे में कुछ टिप्पणियां की जा सकती हैं। बीईई के पास एयर कंडीशनर के लिए अनिवार्य एसएंडएल कार्यक्रम है। दोनों राज्यों में एयर कंडीशनर वाले ३४ प्रतिशत घरों में ऊर्जाक्षम ४ और ५ स्टार रेटेड मॉडल हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग ४९ प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग ३२ प्रतिशत परिवार या तो स्टार-लेबल के बारे में जानते नहीं हैं या किसी गैर-स्टार रेटेड मॉडल का उपयोग कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि एयर कंडीशनर तक के बारे में इस कार्यक्रम को लेकर जागरूकता कम है । 
उत्तर प्रदेश के परिवार २१ डिग्री सेल्सियस और महाराष्ट्र के परिवार २२ डिग्री सेल्सियस की औसत तापमान सेटिंग पर एसी का इस्तेमाल करते हैं। यह दर्शाता है कि बीईई द्वारा हाल में अनुशंसित २४ डिग्री की डिफॉल्ट सेटिंग उपभोक्ताओं को तापमान अधिक सेट करने और बिजली बचाने के लिए प्रेरित कर सकती है । दूसरी ओर, एयर कंडीशनर का उपयोग काफी कम है । सामान्य गर्मी के दिन में एयर कंडीशनर का प्रतिदिन औसत उपयोग उत्तर प्रदेश में ३.८ घंटे और महाराष्ट्र में ४.५ घंटे  है। इससे तो लगता है कि शायद लोग एयर कंडीशनर का तापमान कम सेट करते हैं और कमरा ठंडा होने के बाद इसे बंद कर देते हैं। इससे एक आशंका यह पैदा होती है कि उपभोक्ता अधिक ऊर्जा क्षम एसी होने पर उसका उपयोग लंबी अवधि के लिए करने लगेंगे और तब ज्यादा ऊर्जा खर्च होगी । इसकी और जांच करने की आवश्यकता है ।
हमने परिवारों से यह भी पूछा था कि क्या वे उनके पास उपलब्ध उपकरणों के उपयोग के बाद भी गर्मियों के मौसम में किसी तरह की असुविधा का सामना करते हैं। सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश के लगभग ५९ प्रतिशत और महाराष्ट्र के ३४ प्रतिशत परिवारों ने बताया कि वे गर्मी के कई या अधिकांश दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। 
हमने अनुकूलन उपकरणों के स्वामित्व के आधार पर परिवारों का समूहीकरण किया और उनके असुविधा के स्तर को दर्ज किया । इन आंकड़ों से लगता है परिवारों में कई श्रेणी के उपकरण हो सकते हैं। जिन घरों में एयर कंडीशनर है वहां एयर कूलर, छत का पंखा, टेबल फैन, आदि में से कोई एक या सभी उपस्थित हो सकते हैं। 
देखा गया कि उत्तर प्रदेश में टेबलफैन वाले परिवारों से एयर कंडीशनर वाले परिवारों की ओर बढ़ें, तो असुविधा भी कम होती जाती है। हालांकि, यह रुझान महाराष्ट्र में इतना स्पष्ट नहीं है। इसका एक संभावित कारण उत्तर प्रदेश में ग्रीष्मकाल की तीव्रता हो सकता है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों राज्यों में लगभग १० प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो एयर कंडीशनर का उपयोग करते हैं लेकिन फिर भी गर्मियों के अधिकतर दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। ऐसा एयर कंडीशनर के सीमित उपयोग की वजह से हो सकता है। इसका कारण उच्च बिजली बिल, पॉवर कट या दोनों ही हो सकते हैं। यह एयर कंडीशनर के अनुचित आकार के कारण भी हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप अपर्याप्त  शीतलन  होता है।
तापमान में वृद्धि के रुझान के साथ घरों में असुविधा का उच्च् स्तर सभी वातानुकूलन उपकरणों के लिए एक संभावित मांग का संकेत देता है। इसके मद्दे नजर ऐसे हस्तक्षेपों की आवश्यकता है जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि ये उपकरण ऊर्जा-क्षम हों ताकि वे एक निर्वहनीय और सस्ते तरीके से शीतलन की जरूरतों को पूरा कर सकें । मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) जैसी नीतियां और अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) द्वारा समर्थित उजाला जैसे कार्यक्रम इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे ।                    
ज्ञान विज्ञान
पहले की तुलना में धरती तेजी से गर्म हो रही है 
नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक हालिया शोध के अनुसार पिछले २००० वर्षों में पृथ्वी के गर्म होने की गति इतनी तेज कभी नहीं रही जितनी आज  है । यह अध्ययन युनिवर्सिटी ऑफ मेलबोर्न के डॉ. बेन्जमिल हेनले और युनिवर्सिटी ऑफ बर्न के डॉ. राफेल न्यूकोम ने संयुक्त  रूप से किया है ।
दरअसल, यह अध्ययन पहले माइकल मान, रेमंड ब्रोडले और मालकोम ह्जेस द्वारा १९९९ में किए गए अध्ययन को आगे बढ़ाता है जिसमें उन पुरा-जलवायु वेत्ताओं ने यह बताया था कि बीसवीं सदी में उत्तरी गोलार्ध में गर्मी जिस तेजी से बढ़ी है वैसी पिछले १००० वर्षों में नहीं देखी गई थी। हजारों साल पहले की जलवायु के बारे में अनुमान हम प्राय: प्रकृति में छूटे चिंहों की मदद से लगाते हैं क्योंकि उस जमाने में आधुनिक टेक्नॉलॉजी तो थी नहीं।
अतीत की जलवायु के बारे में सुराग देने के लिए पुरा-जलवायु वेत्ता कोरल (मूंगा चट्टानों), बर्फ के अंदरूनी हिस्से, पेड़ों में बनने वाली वार्षिक वलयों, झीलों और समुद्रों में जमी तलछट वगैरह का सहारा लेते हैं। इनसे प्राप्त परोक्ष आंकड़ों का उपयोग करके वैज्ञानिक अथक मेहनत करके अतीत की जलवायु की तस्वीर बनाने की कोशिश करते हैं। वर्तमान शोध पत्र की विशेषता यह है कि इसमें सात अलग-अलग तरह की विधियों से विश्लेषण करने पर एक समान नतीजे प्राप्त हुए। अत: इनके सच्चाई के करीब होने की ज्यादा संभावना है।
हेनले और न्यूकोम ने इस विश्ले-षण के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व तापमान में होने वाले उतार-चढ़ाव का मुख्य कारण ज्वालामुखी के विस्फोट से निकलने वाली धूल आदि थे । सूर्य से आने वाली गर्मी से इनका कोई सम्बंध नहीं था । अर्थात मानवीय गतिविधियों के जोर पकड़ने से पहले ज्वालामुखी ही जलवायु के प्रमुख नियंत्रक थे । वे यह भी अंदाजा लगा पाए कि पिछले २००० वर्षों में गर्मी और ठंड की रफ्तार क्या रही है । उनका निष्कर्ष है कि धरती के गर्म होने की रफ्तार पहले कभी आज जैसी नहीं रही । इसका सीधा-सा मतलब है कि वर्तमान तपन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण हो रही है। 
प्लास्टिक का प्रोटीन विकल्प
लगभग एक सदी पहले आविष्कृत प्लास्टिक अत्यंत उपयोगी पदार्थ साबित हुआ है। वजन में हल्का होने के बावजूद भी यह अत्यधिक लचीला और सख्त हो सकता है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि यह लगभग अनश्वर है । और यही अनश्वरता इसकी  समस्या बन गई है ।
हर वर्ष दुनिया में ३८ करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है । इसमें से अधिक से अधिक १० प्रतिशत का रीसाय-क्लिंग होता है । बाकी कचरे के रूप में जमा होता रहता है। एक अनुमान के मुताबिक हम ६.३ अरब टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न कर चुके हैं। आज के रुझान को देखते हुए लगता है कि वर्ष २०५० तक पर्यावरण में १२ अरब टन प्लास्टिक कचरा मौजूद होगा ।
एक ओर तो प्लास्टिक का उपयोग कम करने की कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर प्लास्टिक रीयाक्लिंग को बढ़ावा देने के प्रयास चल रहे हैं। इसी बीच नए किस्म का प्लास्टिक बनाने पर भी अनुसंधान चल रहा है जो लचीला व सख्त तो हो लेकिन प्रकृति में इसका विघटन हो सके ।
इस संदर्भ में मेलबोर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ग्रेग कियाओ का प्रयास है कि अमीनो अम्लों के पोलीमर बनाए जाएं जिनमें प्लास्टिक की खूबियां हों । जीव-जंतु, पेड़-पौधे अमीनो अम्लों को जोड़-जोड़कर पेप्टाइड और प्रोटीन तो बनाते ही हैं। और प्रकृति में ऐसे कई एंजाइम मौजूद हैं जो इन प्रोटीन अणुओं को तोड़ भी सकते हैं। कियाओ के मुताबिक प्रोटीन प्लास्टिक का सही विकल्प हो सकता  है।
उनकी प्रयोगशाला में ऐसे प्रोटीन बनाए जा चुके हैं जो काफी लचीले व सख्त हैं, जिनके  रेशे बनाए जा सकते हैं, चादरें बनाई जा सकती हैं। ये वाटरप्रूफ हैं और अम्ल वगैरह का सामना कर सकते हैं। 
जहां प्रकृति में प्रोटीन नुमा पोलीमर बनाने का काम एंजाइमों की उपस्थिति में होता है वहीं कियाओ की टीम इसी काम को रासायनिक विधि से करने में लगी हुई है। यदि वे सही किस्म के अमीनो अम्ल पोलीमर (यानी पेप्टाइड) बनाने में सफल रहे तो यह एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। मगर इसमें एक दिक्कत आएगी। प्लास्टिक उत्पादन के लिए कच्च माल तो पेट्रोलियम व अन्य जीवाश्म इंर्धनों से प्राप्त् हो जाता है। मगर प्रोटीन-प्लास्टिक का कच्च माल कहां से आएगा ? यह संभवत: पेड़-पौधों से प्राप्त होगा। पहले ही हम फसलों का इस्तेमाल जैव-इंर्धन बनाने में कर रहे हैं। यदि प्लास्टिक भी उन्हीं से बनना है तो खाद्यान्न की कीमतों पर भारी असर पड़ेगा। 
पक्षी एवरेस्ट की ऊंचाई पर उड़ सकते हैं 
वर्ष १९५३ में, एक पर्वतारोही ने माउंट एवरेस्ट के शिखर पर सिर पर पट्टों वाले हंस (करेयी हंस, एंसर इंडिकस) को उड़ान भरते देखा था । लगभग ९ किलोमीटर की ऊंचाई पर किसी पक्षी का उड़ना शारीरिक क्रियाओं की दृष्टि से असंभव प्रतीत होता है। यह किसी भी पक्षी के उड़ने की अधिकतम ज्ञात ऊंचाई से भी २ कि.मी. अधिक था। इसको समझने के लिए शोधकर्ताओं ने १९ हंसों को पाला ताकि इतनी ऊंचाई पर उनकी उड़ान के रहस्य का पता लगाया जा सके । 
शोधकर्ताओं की टीम ने एक बड़ी हवाई सुरंग बनाई और युवा करेयी हंसों को बैकपैक और मास्क के साथ उसमें उड़ने के लिए प्रशिक्षित किया । विभिन्न  प्रकार के  सेंसर की मदद से उन्होंने हंसों की ह्मदय गति, रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा, तापमान और चयापचय दर को दर्ज करके प्रति घंटे उनकी कैलोरी खपत का पता लगाया। शोधकर्ताओं ने मास्क में ऑक्सीजन की सांद्रता में बदलाव करके निम्न, मध्यम और अधिक ऊंचाई जैसी स्थितियां निर्मित की  । 
      यह तो पहले से पता था कि स्तन-धारियों की तुलना में पक्षियों के पास पहले से ही निरंतर शारीरिक गतिविधि के लिए बेहतर ह्मदय और फेफड़े हैं। गौरतलब है कि करेयी हंस में तो फेफड़े और भी बड़े व पतले होते हैं जो उन्हें अन्य पक्षियों की तुलना में अधिक गहरी सांस लेने में मदद करते हैं और उनके ह्मदय भी अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिसकी मदद से वे मांसपेशियों को अधिक ऑक्सीजन पहुंचा पाते हैं। 
हवाई सुरंग में किए गए प्रयोग से पता चला कि जब ऑक्सीजन की सांद्रता माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर ७ प्रतिशत के बराबर थी (जो समुद्र सतह पर २१ प्रतिशत होती है), तब हंस की चयापचय दर में गिरावट तो हुई लेकिन उसके बावजूद ह्मदय की धड़कन और पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति में कोई कमी नहीं आई । शोधकर्ताओं ने ई-लाइफ में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि किसी तरह यह पक्षी अपने खून को ठंडा करने में कामयाब रहे ताकि वे अधिक ऑक्सीजन ले सकें । गौरतलब है कि गैसों की घुलनशीलता तापमान कम होने पर बढ़ती है। खून की यह ठंडक बहुत विरल हवा की भरपाई करने में मदद करती है। 
हालांकि पक्षी अच्छी तरह से प्रशिक्षित थे, लेकिन बैकपैक्स का बोझा लादे कृत्रिम अधिक ऊंचाई की परिस्थितियों में कुछ ही मिनटों के लिए हवा में बने रहे । इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उपरोक्त अनुकूलन की बदौलत ही वे ८ घंटे की उड़ान भरकर माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने में सफल हो जाते हैं। या क्या यही अनुकूलन उन्हें मध्य और दक्षिण एशिया के बीच ४००० किलोमीटर के प्रवास को पूरा करने की क्षमता देते हैं। और ये करतब वे बिना किसी प्रशिक्षण के कर लेते हैं। लेकिन प्रयोग में बिताए गए कुछ मिनटों से इतना तो पता चलता ही है कि ये हंस वास्तव में माउंट एवरेस्ट की चोटी के ऊपर से उड़ सकते हैं। 
समुद्र में २०५० तक मछलियों से ज्यादा होगी प्लास्टिक
समुद्र में लगातार बढ़ रहे प्लास्टिक कचरे से समुद्रीय जलीय जीवन के साथ पर्यावरण पर भी खतरा बढ़ रहा है । 

आइआइटी बॉम्बे के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर रंजीत विष्णुराधन और विभाग प्रमुख टीआई एल्डो की रिसर्च ने चौंकाने वाले तथ्य उजागर किए हैं । शोध के मुताबिक यदि इसी स्तर प्लास्टिक का इस्तेमाल होता रहा तो २०५० तक समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक तैरता दिखाई देगा । प्रो. विष्णुराधन के अनुसार दूसरे विश्व युद्ध के बाद १९५० से दुनिया में प्लास्टिक का उपयोग तेजी से बढ़ा ।            
महिला जगत
महिला समस्याएं और गांधी विचार
वंदना मिश्र

  देश की आजादी के आंदोलन की अगुआई करने वाले महात्मा गांधी ने महिलाओं के तत्कालीन मुद्दों पर भी कड़ी नजर रखी थी। वे अपने अखबारों, भाषणों और आम बातचीत के जरिए महिलाओं की समस्याओं पर राय भर नहीं देते थे, बल्कि उन पर अमल भी सुनिश्चित करते थे। 
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में महिलाएं पहली बार सदियों की मानसिक दासता तोड़कर घर के बाहर आई और आजादी की लड़ाई में उन्होंने पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाया । उन्होंने अनुभव किया कि उनके जीवन का उद्देश्य पति को प्रसन्न रखने के अलावा भी कुछ है। पहले भी अनेक समाज सुधारकों ने स्त्री की दशा सुधारने के प्रयत्न किए थे, पर महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने स्त्रियों के साथ बराबरी के स्तर का संवाद किया, उन्हें उनकी शक्तियों और अधिकारों के प्रति सचेत कर संघर्ष करने की प्रेरणा दी । स्त्री को पुरूष की सहचरी मानते हुए उनका कहना था कि स्त्री की मानसिक शक्तियां पुरूष से किसी तरह कम नहीं है। 'बंबई भगिनी समाज` के वार्षिकोत्सव में महात्मा गांधी ने समाज में पुरूषों की प्रधानता पर आक्षेप करते हुए कहा था कि केवल बुरे रिवाज के जोर पर जाहिल- से-जाहिल और निकम्मे-से-निकम्मे पुरूष को स्त्री पर सरदारी मिली हुई  है जिसके वे अधिकारी नहीं हैं। उनका यह भी कहना था कि कानून की ओर से स्त्री के सामने ऐसी कोई रूकावट नहीं आनी चाहिए जो पुरूष के लिए नहीं है। स्त्री स्वतंत्रता की पात्र नहीं है, - मनुस्मृति की इस उक्ति को उन्होंने ब्रह्म वाक्य मानने से इंकार कर दिया था ।
उन्होंने हरिजन  में लिखा कि कोई पुरूष महिलाओं की समस्याओं का सही हल नहीं निकाल सकता, इसलिए स्त्री को ही तय करना होगा कि उसे क्या करना है। स्त्री की क्षमताओं में उनका अगाध विश्वास ऐसा था कि वे मानते थे कि कोई काम ऐसा नहीं है जो स्त्रियां नहीं कर सकतीं।  कुछ कामों के लिए तो वे स्त्रियों पर ही अधिक भरोसा करते थे, जैसे - युद्ध के विरूद्ध जनमत बनाना, छूआछूत मिटाने का काम, चरखा कातना, शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर पिकेंटिग करना आदि । महिलाओं के चरखा कातने पर उन्होंने खास जोर दिया क्योंकि चरखा उनके स्वदेशी आंदोलन का आधार था और इस तरह चरखा कातने से महिलाएं इस आंदोलन में अपनी सीधी भागीदारी महसूस कर सकती थीं। दूसरे, महिलाओं की बेहतरी का इससे अधिक बुनियादी और व्यापक साधन दूसरा नहीं था। इसके अलावा हर तबके, हर आर्थिक श्रेणी की और पढ़ी-लिखी से लेकर अनपढ़ तक सभी महिलाएं इस काम को एक-सी खूबी के साथ कर सकती थीं।
दो दिसंबर १९३९ के हरिजन में उन्होंने लिखा कि यह अच्छी बात है कि कार्य समिति ने कताई का जिम्मा पुरूषों से हटा कर स्त्रियों पर डाल दिया है। मुझे यह देखकर खुशी होगी कि मेरी भावी सेना में पुरूषों से स्त्रियों की संख्या बहुत अधिक हो। अगर लड़ाई का मौका आया तो पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों की प्रधानता होने पर मुझे लड़ाई लड़ने में अपने पर ज्यादा भरोसा रहेगा । मुझे पुरूषों की हिंसा से डर लगता है। स्त्रियां होंगी तो मुझे ऐसी किसी दुर्घटना की चिंता न होगी। १० अप्रैल १९३० के यंग इंडिया में उन्होंने लिखा कि बात तो तब है जब इस सारे आंदोलन का आरंभ और संचालन स्त्रियां ही करें ।
पर ऐसा भी नहीं है कि गांधी जी स्त्रियों की कमजोरियों की अनदेखी करते थे। भारतीय स्त्री के आभूषण प्रेम, पति को प्रसन्न रखने के लिए सजने-संवरने और घर-गृहस्थी के कामों में अपना जीवन खपा देने की आदत से उन्हें चिढ़ थी। भारतीय स्त्री के इन दुर्गुणों पर गांधी जी ने चोट की । वे मानते थे कि जो महिला सजती-संवरती है वह चेतन या अचेतन रूप में स्वयं को पुरूष के  भोग की चीज बना देती है। वे कहते थे कि अगर स्त्री पुरूष के बराबर की साझीदार बनना चाहती है तो उसे पुरूषों के लिए, यहां तक कि अपने पति के लिए भी, अपने को सजाने से इनकार कर देना चाहिए । 
घर के कामकाज में पूरा समय खपा देने की आदत से भी गांधी जी बहुत चिढ़ते थे। समाज सेवा के काम में वह नारी को नेता की भूमिका में देखना चाहते थे। जो महिलाएं देश और समाज सेवा के काम के लिए समय न मिल पाने की शिकायत करती थीं, उनसे वे साफ कहते थे कि स्त्री ज्यादातर समय घर के जरूरी कामकाज में नहीं बल्कि अपने पति के अहमवादी सुख और झूठे अभिमान को पूरा करने में खर्च करती है। स्त्रियों की घरेलू गुलामी हमारे जंगलीपन की निशानी है। अब हमारी स्त्रियों को इस जुए से मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहिए ।
समाज में फैली बुराईयां बाल विवाह, विधवा समस्या, दहेज, वेश्यावृत्ती, महिलाओं से जुड़ी कोई भी ऐसी समस्या न थी जिस पर उन्होंने अपने दो-टूक विचार व्यक्त न किए हों। इन बुराईयों के पक्ष में पुराने धर्मग्रंथों से दिए गए उद्धरणों को वे अपने अचूक तर्क से काट देते थे। लड़कियों का विवाह कम उम्र में निपटाने की प्रथा को वह अमानुषिक मानते थे और इसके पक्ष में कोई तर्क मानने को तैयार न थे। बाल विवाह को वे शरीरिक बुराई तो कहते ही थे, नैतिक बुराई भी मानते थे क्योंकि  यह सदाचार की जड़ें खोखली कर देती है और शरीर का सत्यानाश कर डालती है। बाल विवाह के खिलाफ उन्होंने यहां तक कहा कि जिन वचनों में बालविवाह की आज्ञा दी गई है वे प्रमाण-भूत सिद्ध हों तो भी हमें निश्चित अनुभव और विज्ञान की जानकारी के आधार पर उन्हें रद्द कर देना चाहिए ।
इसी तरह गांधी ने विधवा विवाह के पक्ष में जोरदार दलीलें दीं। उनका कहना था कि जो अपनी मरजी से विधवा रहना पसंद करें, उसकी बात अलग है, किंतु छोटी-छोटी बच्च्यिों को वैधव्य का जीवन बिताने के लिए बाध्य करना अपराध है। यदि कोई विधुर पुनर्विवाह कर सकता है तो स्त्री क्यों नहीं ? एक बार यंग इंडिया के एक पाठक ने विधवा विवाह के विरूद्ध तर्क दिया कि जो मां-बाप शपथ लेकर और धार्मिक क्रिया द्वारा अपनी लड़की का सारा अधिकार अपने दामाद को दे चुके हैं उनके लिए दामाद की मृत्यु होने पर उसी लड़की को फिर किसी से ब्याह देना असंभव है। इस पर गांधी जी ने बहुत बेबाकी के साथ पूछा: छोटे-छोटे बच्चें के संबंध में कन्यादान का क्या अर्थ है ? क्या बाप को अपने बच्चें पर जायदाद का-सा हक होता है ? बाप बच्च्े का रक्षक होता है, मालिक नहीं और जब वह अपने रक्षित की आजादी का सौदा करके अपने अधिकार का दुरूपयोग करता है तो वह उस अधिकार को खो देता है। 
बाल विवाह के प्रति इस गहरी संवेदना से पूर्ण गांधीजी ने एक बार विद्यार्थियों के बीच कहा था कि मैं तुमसे यह प्रतिज्ञा कराना चाहता हूं कि तुम शादी के  लिए किसी विधवा कन्या को ही खोज निकालोगे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि अगर लोकमत का डर न हो तो बहुत सी जवान विधवाएं निस्संकोच दुबारा विवाह कर लें।
समाज में वेश्याओं को गांधी शर्म की बात मानते थे। वे कहते थे कि हमारी वासना के लिए एक भी बहन को शर्म और बेइज्जती की जिंदगी बसर करनी पड़े, यह ठीक नहीं है। इस कलंक को मिटाने के लिए उन्होंने दो उपाय सुझाए: एक, पुरूष को अपनी प्रवृत्ति वासना-रहित बनानी चाहिए, दूसरे, स्त्रियों की आर्थिक पराधीनता दूर करने के लिए उनके लिए ऐसे व्यवसाय की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उन्हें देह-विक्रय की जरूरत ही न पड़े।
यंग इंडिया के एक पाठक द्वारा दहेज संबंधी खबर की कतरन भेजने पर उन्होंने अपने अखबार में लिखा कि जो युवक शादी के लिए दहेज की शर्त रखता है, वह अपनी तालीम को और अपने देश को बदनाम करता है। साथ ही स्त्री जाति का अपमान करता है। लड़कियों के मां-बाप से उन्होंने अनुरोध किया कि वे अंग्रेजी डिग्रियों का मोह छोड़ दें और अपनी लड़कियों के लिए सच्च्े और बहादुर नौजवान ढूंढने के लिए छोटी जातियों और प्रांतों से बाहर निकलने में संकोच न करें। फिर शादी की उम्र भी बढ़ानी पड़ेगी और योग्य वर के न मिलने पर लड़कियों को कुंवारी रहने का साहस करना पडेगा । जबरदस्ती विवाह को गांधी जी विवाह मानने से इंकार करते थे।
आजादी की लड़ाई के दौरान स्त्रियां अक्सर उनसे पूछती थीं कि क्या पत्नी अपने पति के विरोध के बावजूद देशसेवा कर सकती है? ऐसे प्रश्नों के जवाब में वह मीराबाई का उदाहरण देते और कहते कि पत्नी को अपने स्वतंत्र रास्ते पर जाने का पूरा हक है। जब वह जानती हो कि वह ठीक रास्ते पर है और उसका विरोध किसी ऊंचे उद्देश्य के लिए है तो नम्रता के साथ नतीजा बर्दाश्त कर ले ।