गांधी १५० पर विशेष
गांधीजी क्या चाहते थे ?
विनोबा भावे
गांधीजी के सचिव प्यारेलाल की अद्भुत पुस्तक लास्ट फेज में, जो उन्होंने १९५८ में प्रकाशित की थी, यह चर्चा देखने को मिलती है- ``उन दिनों स्वराज्य मिल गया था, किंतु उसमें गांधी जी की आशाएं उतनी सफल नहीं हुई थीं-न खादी -ग्रामोद्योग के बारे में और न शांति-स्थापना और अहिंसा के विचार के बारे में। यानी उनके जीवन के जो दो बड़े पहलू थे, उन दोनों में उनको असंतोष रहा ।
गांधीजी चाहते थे कि उनके साथी कहलाने वाले सभी एकत्र हों, अलग-अलग चलने वाली सारी सेवाएं एकत्र कर भारत में अहिंसक-शक्ति निर्माण करें और आजाद भारत को गलत रास्ते पर न जाने दें । इसलिए उन्होंने सेवाग्राम में एक सम्मेलन करने को सोचा था, पर वह कार्यान्वित होने से पूर्व ही वे चल बसे ।
उनकी अनुपस्थिति में उनके बहुत सारे निकटवर्ती साथी और सेवक सेवाग्राम में एकत्र हुए । उस समय मुझे बोलने को कहा गया। मैंने कहा- ``मैं यहां बहुत ज्यादा बोलना नहीं चाहता क्योंकि हम एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं हैं। हम सब मिले हैं तो आगे क्या करें, यही यहां सोचें । मैं भी सोचूंगा । आज तो अपना यह प्रथम परिचय ही रहा है। यहां जितने लोग एकत्र हुए हैं, उन सबसे मैं अपरिचित हँू। कारण, जब तक गांधी जी थे, तब तक तो मैं एकान्त-साधना में ही रहता था । लगातार तीस वर्ष तक अध्ययन, अध्यापन, ग्रामीणों और आश्रमवासियों की सेवा, ध्यान-धारण और भक्ति योग की साधना, ज्ञान-चिन्तन आदि का ही मेरा कार्यक्रम चलता रहा। इसीलिए बहुत-से लोगों से मैं अपरिचित हूं। अतएव आज मैं बोलना नहीं, सुनना ज्यादा चाहता हँू ।``
गांधी जी की मौजूदगी में सिर्फ चन्द भाई वर्धा आते थे। कभी मुझसे मिलने चले आते थे, कभी बापू भी उन्हें मेरे पास भेज देते थे। उन्हीं से मैं परिचित था, बाकी बहुतों से अपरिचित ही था। ऐसी हालत में भी वहां मांग हुई कि ``हम शरणार्थियों की समस्या में मदद करें ।`` किसी तरह से मान्य करके जाजूजी और जानकी देवी बजाज को साथ लेकर मैं निकल पड़ा। इधर-उधर हिन्दुस्तान में घूमकर देखा, तो दीख पड़ा कि रचनात्मक कार्यकर्ताओं में हद दर्जे की मायूसी छायी हुई है जिसे ``समग्र निराशा`` कह सकते हैं। सब समझते थे कि अब तो अपना विचार समाप्त ही है, कुछ चलने-चलाने वाला नहीं है। एक युग समाप्त हुआ, दूसरा शुरू हुआ है। इस नए युग में अहिंसा का विचार कुछ खास नहीं चलेगा, पनप नहीं पाएगा ।
मैं वापस पवनार लौटा। लौटने पर ``कांचन-मुक्ति`` (स्वर्ण या धन से मुक्त वस्तु- विनिमय) का प्रयोग शुरू कर दिया । निश्चय किया कि इसे पूरा कर भारत की सेवा के लिए पैदल निकल पडूंगा । पर कब ? कह नहीं सका । एक-डेढ़ साल तो यह प्रयोग मेरे और नए युग के लिए जरूरी था। 'कांचन-मुक्ति` के प्रयोग के बिना नए युग का आरंभ नहीं हो सकता । बीच में सर्वोदय सम्मेलन में जाना पड़ा, पर जब निकला तो पैदल ही निकला । लोगों के मन में इसका कोई ख्याल नहीं था। बहुतों के दिल को यह कुछ विचित्र-सा लगा, लेकिन निकट के लोगों ने सोचा कि शायद इसी में से कुछ मतलब की चीज निकल पड़े ।
तब से लगातार यह यात्रा जारी है। अन्तरात्मा साक्षी है कि जिस संकल्प से निकला हूं, उस संकल्प की पूर्ति के सिवा दूसरा कोई विचार नहीं आता । जितना भी काम किया जा रहा है, उतना कुल-का-कुल उसी संकल्पपूर्ति के लिए किया जा रहा है । इस समस्त कार्यक्रम में मैं बापू को निरंतर अपने साथ पाता हूं ।
गांधी जी आये और गये, पर हमारे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक चिन्तन का स्तर सभी क्षेत्रों में वही पुराना रहा । आज भी सारा दारोमदार यदि सेना, पुलिस, राजतंत्र और सरकार पर ही माना जाय तो गांधी जी के आने से लाभ ही क्या हुआ ? यह नहीं कि सरकार की जिम्मेवारी हम न उठाएं । वह तो उठानी ही चाहिए और हमने उठ ा ली, यह ठीक ही किया, किन्तु उतने से अहिंसा नहीं आएगी ।
आज विज्ञान के युग में बहुत बड़ी मांग यह है कि करूणा का स्त्रोत फूट निकले और अहिंसा एक दासी नहीं, सम्राज्ञी बने । दण्डशक्ति के राज्य में अहिंसा रहे, यह तो आज तक चला ही । राज्य दण्डशक्ति का ही रहा है, भले ही उसके रूप अलग-अलग हों। अभी ``लोकतंत्र`` का रूप आया है, लेकिन फिर भी राज्य दण्डशक्ति का ही है। अहिंसा पहले भी थी और आज भी है, लेकिन है वह दासी ही । मैं बहुत बार कहता रहता हूं कि युद्ध में सेना की सेवा करने के लिए जाने वालों में करूणा और दया दोनों हैं, किन्तु वह करूणा युद्ध को समाप्त नहीं कर सकती । वह करूणा तो पहले भी थी और आज तक है। यदि वह भी न होती तो हम जानवर ही होते ।
गांधीजी क्या चाहते थे ? गांधीजी जो करूणा चाहते थे, वह यह नहीं है। वे ऐसी करूणा चाहते थे, जो सम्राज्ञी हो, उसी के आधार पर मानव-मानव बने । वह बन सकता है और हम बना सकते हैं, ऐसा विश्वास मानव को ही । धीरे-धीरे दण्डशक्ति क्षीण हो जाय और आखिर उसका परिवर्तन दूसरे रूप में हो-करूणामूलक, साम्य पर आश्रित स्वतंत्र लोकशक्ति के रूप में वह बढ़े । आगे एक जमाना आयेगा, जब करूणा सम्राज्ञी बनेगी । वह जल्दी आना ही चाहता है । यदि हम शीघ्र उसके योग्य नहीं बनते, तो आज ही नष्ट हो जाने की नौबत है।
विज्ञान ने जो साधन पैदा किए हैं, उनके साथ अहिंसा जुट जाए तो स्वर्ग उतर आएगा । इसके विपरीत उनके साथ हिंसा जुट जाय तो मानव-जाति का विनाश हो जाएगा । हम ऐसी गलत-फहमी में न रहें कि हम विज्ञान को नहीं चाहते । मेरा दावा है कि विज्ञान को अधिक-से-अधिकचाहने का मुझे हक है। दूसरे जो विज्ञान को चाहते हैं, नाहक चाहते हैं। सर्वोदय-सेवक का ही विज्ञाान पर सच्च हक है । विज्ञान पर अहिंसा का ही अधिकार है ।
हम पैदल यात्रा करते थे तो कुछ लोग शुरू-शुरू में कहा करते कि यह दकियानूसी विचार हैं, लेकिन समझने की चीज है कि इस युग में पदयात्रा ही टिकने वाली है । या फिर हवाई जहाज टिकेंगे । बीच के सारे साधन धीरे-धीरे समाप्त हो जायंगे । एक बाजू ग्राम-रचना होगी तो दूसरी बाजू विश्व-व्यवस्था । बीच के राष्ट्र, प्रान्त आदि नास्तिवत् हो जायंगे । एक ``विश्व-संस्था`` होगी तो दूसरी ``ग्राम-संस्था``। दोनों को जोड़ने वाले प्रान्त, जिले एक-एक करके कम होंगे, नाममात्र रहेंगे ।
वेद ने कहा है: 'शिव पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातरम` - इस ग्राम में स्वस्थ और परिपुष्ट विश्व का दर्शन हो । ग्राम का दर्शन हो, ऐसा नहीं कहा । भारत का दर्शन हो, ऐसा भी नहीं कहा । दुख-रहित, रोग-रहित, समग्र विश्व का दर्शन इस गांव में हो, यही प्रार्थना इस वेदमंत्र में की गयी है । गांव विश्व-रूप हो, विश्व का प्रतिनिधि हो इसलिए हम इधर ``जय ग्रामदान`` कहते हैं, तो उधर ``जय-जगत ।`` करूणामूलक साम्य की ऐसी समाज-रचना करने के लिए विज्ञान बहुत उपयोगी होगा । पदयात्रा भी इसमें एक वैज्ञानिक साधन समझी जाएगी, जो हमने शुरू की है ।
करूणा की सत्ता चले । विज्ञान के दूसरे भी साधन हैं, आण्विक साधन । उनका उपयोग हम अहिंसा में करेंगे । यह आज के जमाने की आवश्यकता है । आज के जमाने की मांग ही है, अहिंसा और विज्ञान जुड़ जायंे, समाज पर अहिंसा और करूणा की सत्ता चले । उस बीच दण्ड की आवश्यकता रहेगी, किन्तु सम्राज्ञी करूणा ही होगी । आज हालत यह है कि राज्य दण्डशक्ति का है और उसमें करूणा और अहिंसा दासी के तौर पर हैं ।
शायद वे खत्म भी हो सकती है और उनके साथ-साथ मानव भी । इससे भिन्न करूणा का राज हो और उसमें दण्ड-शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जाय और करूणा ही करूणा दुनिया में रहे ऐसा एक स्वप्न मैं देख रहा है। मैं मानता हूं कि किसी विचार को किसी मनुष्य का नाम देना गलत है । फिर भी, यदि इस विचार को नाम देना ही है तो मैं इसे ``गांधी-विचार`` कहूंगा। मैं नाम देना नहीं चाहता, किन्तु आज उनकी स्मृति में बोल रहा हूं, इसलिए यह कहता हँू ।
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