सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

महिला जगत
महिला समस्याएं और गांधी विचार
वंदना मिश्र

  देश की आजादी के आंदोलन की अगुआई करने वाले महात्मा गांधी ने महिलाओं के तत्कालीन मुद्दों पर भी कड़ी नजर रखी थी। वे अपने अखबारों, भाषणों और आम बातचीत के जरिए महिलाओं की समस्याओं पर राय भर नहीं देते थे, बल्कि उन पर अमल भी सुनिश्चित करते थे। 
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में महिलाएं पहली बार सदियों की मानसिक दासता तोड़कर घर के बाहर आई और आजादी की लड़ाई में उन्होंने पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाया । उन्होंने अनुभव किया कि उनके जीवन का उद्देश्य पति को प्रसन्न रखने के अलावा भी कुछ है। पहले भी अनेक समाज सुधारकों ने स्त्री की दशा सुधारने के प्रयत्न किए थे, पर महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने स्त्रियों के साथ बराबरी के स्तर का संवाद किया, उन्हें उनकी शक्तियों और अधिकारों के प्रति सचेत कर संघर्ष करने की प्रेरणा दी । स्त्री को पुरूष की सहचरी मानते हुए उनका कहना था कि स्त्री की मानसिक शक्तियां पुरूष से किसी तरह कम नहीं है। 'बंबई भगिनी समाज` के वार्षिकोत्सव में महात्मा गांधी ने समाज में पुरूषों की प्रधानता पर आक्षेप करते हुए कहा था कि केवल बुरे रिवाज के जोर पर जाहिल- से-जाहिल और निकम्मे-से-निकम्मे पुरूष को स्त्री पर सरदारी मिली हुई  है जिसके वे अधिकारी नहीं हैं। उनका यह भी कहना था कि कानून की ओर से स्त्री के सामने ऐसी कोई रूकावट नहीं आनी चाहिए जो पुरूष के लिए नहीं है। स्त्री स्वतंत्रता की पात्र नहीं है, - मनुस्मृति की इस उक्ति को उन्होंने ब्रह्म वाक्य मानने से इंकार कर दिया था ।
उन्होंने हरिजन  में लिखा कि कोई पुरूष महिलाओं की समस्याओं का सही हल नहीं निकाल सकता, इसलिए स्त्री को ही तय करना होगा कि उसे क्या करना है। स्त्री की क्षमताओं में उनका अगाध विश्वास ऐसा था कि वे मानते थे कि कोई काम ऐसा नहीं है जो स्त्रियां नहीं कर सकतीं।  कुछ कामों के लिए तो वे स्त्रियों पर ही अधिक भरोसा करते थे, जैसे - युद्ध के विरूद्ध जनमत बनाना, छूआछूत मिटाने का काम, चरखा कातना, शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर पिकेंटिग करना आदि । महिलाओं के चरखा कातने पर उन्होंने खास जोर दिया क्योंकि चरखा उनके स्वदेशी आंदोलन का आधार था और इस तरह चरखा कातने से महिलाएं इस आंदोलन में अपनी सीधी भागीदारी महसूस कर सकती थीं। दूसरे, महिलाओं की बेहतरी का इससे अधिक बुनियादी और व्यापक साधन दूसरा नहीं था। इसके अलावा हर तबके, हर आर्थिक श्रेणी की और पढ़ी-लिखी से लेकर अनपढ़ तक सभी महिलाएं इस काम को एक-सी खूबी के साथ कर सकती थीं।
दो दिसंबर १९३९ के हरिजन में उन्होंने लिखा कि यह अच्छी बात है कि कार्य समिति ने कताई का जिम्मा पुरूषों से हटा कर स्त्रियों पर डाल दिया है। मुझे यह देखकर खुशी होगी कि मेरी भावी सेना में पुरूषों से स्त्रियों की संख्या बहुत अधिक हो। अगर लड़ाई का मौका आया तो पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों की प्रधानता होने पर मुझे लड़ाई लड़ने में अपने पर ज्यादा भरोसा रहेगा । मुझे पुरूषों की हिंसा से डर लगता है। स्त्रियां होंगी तो मुझे ऐसी किसी दुर्घटना की चिंता न होगी। १० अप्रैल १९३० के यंग इंडिया में उन्होंने लिखा कि बात तो तब है जब इस सारे आंदोलन का आरंभ और संचालन स्त्रियां ही करें ।
पर ऐसा भी नहीं है कि गांधी जी स्त्रियों की कमजोरियों की अनदेखी करते थे। भारतीय स्त्री के आभूषण प्रेम, पति को प्रसन्न रखने के लिए सजने-संवरने और घर-गृहस्थी के कामों में अपना जीवन खपा देने की आदत से उन्हें चिढ़ थी। भारतीय स्त्री के इन दुर्गुणों पर गांधी जी ने चोट की । वे मानते थे कि जो महिला सजती-संवरती है वह चेतन या अचेतन रूप में स्वयं को पुरूष के  भोग की चीज बना देती है। वे कहते थे कि अगर स्त्री पुरूष के बराबर की साझीदार बनना चाहती है तो उसे पुरूषों के लिए, यहां तक कि अपने पति के लिए भी, अपने को सजाने से इनकार कर देना चाहिए । 
घर के कामकाज में पूरा समय खपा देने की आदत से भी गांधी जी बहुत चिढ़ते थे। समाज सेवा के काम में वह नारी को नेता की भूमिका में देखना चाहते थे। जो महिलाएं देश और समाज सेवा के काम के लिए समय न मिल पाने की शिकायत करती थीं, उनसे वे साफ कहते थे कि स्त्री ज्यादातर समय घर के जरूरी कामकाज में नहीं बल्कि अपने पति के अहमवादी सुख और झूठे अभिमान को पूरा करने में खर्च करती है। स्त्रियों की घरेलू गुलामी हमारे जंगलीपन की निशानी है। अब हमारी स्त्रियों को इस जुए से मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहिए ।
समाज में फैली बुराईयां बाल विवाह, विधवा समस्या, दहेज, वेश्यावृत्ती, महिलाओं से जुड़ी कोई भी ऐसी समस्या न थी जिस पर उन्होंने अपने दो-टूक विचार व्यक्त न किए हों। इन बुराईयों के पक्ष में पुराने धर्मग्रंथों से दिए गए उद्धरणों को वे अपने अचूक तर्क से काट देते थे। लड़कियों का विवाह कम उम्र में निपटाने की प्रथा को वह अमानुषिक मानते थे और इसके पक्ष में कोई तर्क मानने को तैयार न थे। बाल विवाह को वे शरीरिक बुराई तो कहते ही थे, नैतिक बुराई भी मानते थे क्योंकि  यह सदाचार की जड़ें खोखली कर देती है और शरीर का सत्यानाश कर डालती है। बाल विवाह के खिलाफ उन्होंने यहां तक कहा कि जिन वचनों में बालविवाह की आज्ञा दी गई है वे प्रमाण-भूत सिद्ध हों तो भी हमें निश्चित अनुभव और विज्ञान की जानकारी के आधार पर उन्हें रद्द कर देना चाहिए ।
इसी तरह गांधी ने विधवा विवाह के पक्ष में जोरदार दलीलें दीं। उनका कहना था कि जो अपनी मरजी से विधवा रहना पसंद करें, उसकी बात अलग है, किंतु छोटी-छोटी बच्च्यिों को वैधव्य का जीवन बिताने के लिए बाध्य करना अपराध है। यदि कोई विधुर पुनर्विवाह कर सकता है तो स्त्री क्यों नहीं ? एक बार यंग इंडिया के एक पाठक ने विधवा विवाह के विरूद्ध तर्क दिया कि जो मां-बाप शपथ लेकर और धार्मिक क्रिया द्वारा अपनी लड़की का सारा अधिकार अपने दामाद को दे चुके हैं उनके लिए दामाद की मृत्यु होने पर उसी लड़की को फिर किसी से ब्याह देना असंभव है। इस पर गांधी जी ने बहुत बेबाकी के साथ पूछा: छोटे-छोटे बच्चें के संबंध में कन्यादान का क्या अर्थ है ? क्या बाप को अपने बच्चें पर जायदाद का-सा हक होता है ? बाप बच्च्े का रक्षक होता है, मालिक नहीं और जब वह अपने रक्षित की आजादी का सौदा करके अपने अधिकार का दुरूपयोग करता है तो वह उस अधिकार को खो देता है। 
बाल विवाह के प्रति इस गहरी संवेदना से पूर्ण गांधीजी ने एक बार विद्यार्थियों के बीच कहा था कि मैं तुमसे यह प्रतिज्ञा कराना चाहता हूं कि तुम शादी के  लिए किसी विधवा कन्या को ही खोज निकालोगे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि अगर लोकमत का डर न हो तो बहुत सी जवान विधवाएं निस्संकोच दुबारा विवाह कर लें।
समाज में वेश्याओं को गांधी शर्म की बात मानते थे। वे कहते थे कि हमारी वासना के लिए एक भी बहन को शर्म और बेइज्जती की जिंदगी बसर करनी पड़े, यह ठीक नहीं है। इस कलंक को मिटाने के लिए उन्होंने दो उपाय सुझाए: एक, पुरूष को अपनी प्रवृत्ति वासना-रहित बनानी चाहिए, दूसरे, स्त्रियों की आर्थिक पराधीनता दूर करने के लिए उनके लिए ऐसे व्यवसाय की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उन्हें देह-विक्रय की जरूरत ही न पड़े।
यंग इंडिया के एक पाठक द्वारा दहेज संबंधी खबर की कतरन भेजने पर उन्होंने अपने अखबार में लिखा कि जो युवक शादी के लिए दहेज की शर्त रखता है, वह अपनी तालीम को और अपने देश को बदनाम करता है। साथ ही स्त्री जाति का अपमान करता है। लड़कियों के मां-बाप से उन्होंने अनुरोध किया कि वे अंग्रेजी डिग्रियों का मोह छोड़ दें और अपनी लड़कियों के लिए सच्च्े और बहादुर नौजवान ढूंढने के लिए छोटी जातियों और प्रांतों से बाहर निकलने में संकोच न करें। फिर शादी की उम्र भी बढ़ानी पड़ेगी और योग्य वर के न मिलने पर लड़कियों को कुंवारी रहने का साहस करना पडेगा । जबरदस्ती विवाह को गांधी जी विवाह मानने से इंकार करते थे।
आजादी की लड़ाई के दौरान स्त्रियां अक्सर उनसे पूछती थीं कि क्या पत्नी अपने पति के विरोध के बावजूद देशसेवा कर सकती है? ऐसे प्रश्नों के जवाब में वह मीराबाई का उदाहरण देते और कहते कि पत्नी को अपने स्वतंत्र रास्ते पर जाने का पूरा हक है। जब वह जानती हो कि वह ठीक रास्ते पर है और उसका विरोध किसी ऊंचे उद्देश्य के लिए है तो नम्रता के साथ नतीजा बर्दाश्त कर ले । 

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