गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009







३ आवरण कथा

जनाधिक्य पर प्रकृति का अकंुश
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
आज हम यह बात शिद्दत से समझ चुके है कि हमारी हर समस्या के मूल में बढ़ती हुई आबादी है । पर्यावरण तो इस जनाधिक्य से सीधे तौर पर प्रभावित है । हम यह भी जानते हैं कि प्रकृति अपनी परिवर्तनशील गत्यात्मकता से आत्म नियमन द्वारा हर विद्रूप स्थिति से स्वयं ही उबरती है । अब जबकि हम तमाम प्रयासों के बाद भी जनसंख्या को नियंत्रित नहीं कर सके और थक हार कर इस मुद्दे पर उदासीन भी हो गये है तब प्रकृति को ही अंकुश लगाना पड़ा । अकंुश बना है मानुषीकृत अतिशय प्रदूषण । पैर पसार रही है प्रदूषण जनित नपुंसकता जिससे घट रही है मानुषी प्रजनन क्षमता । यही है प्रकृति की शक्ति का जनाधिक्य पर अंकुश । अध्ययन के अनुसार पुरूषों तथा स्त्रियों में प्रजनन क्षमता की दर में होने वाला ह्रास हमारा ध्यान अपनी ओर खींचने लगा है । जब हम घर, पास पडौस और समाज पर दृष्टिपात करते है तो पाते है कि हर पाँचवा युगल गर्भ धारण सम्बन्धित समस्या से ग्रसित है और अपनी संतान प्रािप्त् हेतु तरस रहा है । अपनी संतान की चाहत होना प्रत्येक जीव का नैसर्गिक गुण है और संतान देकर पितृ ऋण से उऋण होने का विधान शास्त्र सम्मत है । किन्तु प्रकृति के प्रति हमारा अनुचित व्यवहार ही प्रकृति प्रतिशोध के रूप में हमारे सामने आ रहा है, जो हमें तरसा रहा है । प्रकृति की गत्यात्मकता में उसकी सकारात्मक तथा नकारात्मक शक्तियों का द्वैत ही सहायक होता है । घटती प्रजनन क्षमता में वहीं अपनी भूमिका निभा रहा है । जनाधिक्य जनित पर्यावरणीय प्रदूषण प्रकृति के इस कार्य को अंजाम तक पहँुचा रहा है। जब हम आदिम से आदमी हुए और आधुनिक सभ्यता के मापदंडो के अनुसार हमें मनुष्य कहलाने का अधिकार मिला तो हमने अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए प्रकृति को सहचरी के स्थान पर अनुचरी समझने की भूल की । हम विकास और विनाश के अंतर को ही भुल गये । उत्तरोत्तर विकास के पायदान चढ़ते हुए हम स्वयं ही प्रदूषण की चपेट में आकर विषमयता से घिर गये और कर रहें हैं अनचाहा विषपान बन रहे हैं जान कर अंजान । यही कारण है कि प्रदूषणकारी पूतना हमारे शिशुआें को जन्म ने से पूर्व ही भ्रूणावस्था में ही मार रहीहै । विचारणीय प्रश्न यह है कि किस प्रकार विष तत्व हमें नुकसान पहुँचा रहे हैं हम अपना पुंसत्व खोते जा रहे हैं ? क्यों हैं नवयुगल प्रजनन हेतु अक्षम ? संयुक्त राष्ट्र संघ की रपट के मुताबिक वर्तमान में कोई भी गर्भ पूर्ण सुरक्षित नहीं है । भ्रूण शिशु के लिए गर्भ वह कारा होती है, जिसमें वह माँ के माध्यम से संसार से संवाद रखता है । माँ का गर्भ ही शिशु के लिए छोटी सी दुनिया होती है । बाह्य वातावरण का प्रदूषण माँ के गर्भ में पल रहे शिशु को भी विचलित करता है । गर्भ धारण से लेकर भ्रूणीय विकास तथा सुरक्षित प्रसव तक सभी क्रियाएँ बड़ी ही संवेदनशील एवं जटिल होती है । भ्रूणीय शिशु और उसकी माँ के माध्यम रक्त में घुले हार्मोंास द्वारा ही मार्मिक संवाद होता है । किन्तु प्रदूषण ने माँ की ममता पर आघात किया है । विषाक्त पदार्थ वैज्ञानिक शब्दावली में ``टेरोटोजेन्स'' कहलाते है । इनके घातक प्रभाव से स्पान्टेनियस एर्बोसन (अचानक गर्भपात), स्टिल बर्थ (मृत शिशु का जन्म) अथवा नियोनटल डेथ (जन्म के तुरन्त बाद शिशु की मृत्यु) की घटनाएं नित्य सामने आ रही है । यदि जन्म के बाद बच्च जीवित रहता भी है तो व्याधिग्रस्त एवं कमजोर होता है । आज हमको पग पग पर प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है । चाहे कृषि की बात हो अथवा औद्योगिकीकरण की, हर ओर से प्रदूषणकारी तत्व हमारे पर्यावरण में समा रहे हैं जो जल वायु जमीन मिट्टी और यहाँ तक कि हमारे भोजन में भी विषाक्त तत्वों को भर रहेहैं । हम जहर को कितना आत्मसात कर रहे हैं यह हमें पता ही नहीं चलता । यह प्रदूषणकारी तत्वों का विष भ्रूण के विकास को ही प्रभावित नहीं करते वरन् माँ और भ्रूणशिशु के मध्य सेतु जाते हैं । गर्भनाल एक फिल्टर की तरह कार्य करता है किन्तु विष तत्व गर्भनाल के फिल्टर को भी धोखा देकर भ्रूण तक पहुँच जाते हैं यही कारण है कि गर्भस्थ शिशु बाह्य पर्यावरण से आहत हो रहा है । विशेषज्ञों के अनुसार प्रदूषकों का अणुभार एवं रासायनिक संरचना गर्भस्थ शिशु के आहार से मिलती जुलती है । इसी कारण से घातक तत्व भी गर्भ नाल के माध्यम से गर्भ तक पहुँच जाते हैं । यद्यपि पर्यावरण के प्रदूषक तत्वों के प्रति हर महिला की प्रभाविता हर वक्त रहतीहै तथापि विकृत जीवन शैली के कारण विषाक्त पदार्थ प्रसूता के शरीर मेंअधिक पहुँचते हैं । यह विष तत्व भ्रूण की संरचना को प्रभावित करते हैं । भ्रूण में आसमान्यताएं उत्पन्न कर सकते हैं । यहाँ तक कि यह तत्व प्रसूता एवं प्रसव की जीनी संरचना को भी बदल डालते हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बार-बार चेतावनी दी है । इसके बाद भी हम इस ज्वलंत मुद्दे पर मौन हैं । चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार तीव्र औद्योगिकीकरण आणविक एवं चुम्बकीय विकिरण, संक्रमित कचरा, इलैक्ट्रोनिक उपकरणोंसे निकलने वाला विकिरण, कृत्रिम प्रकाशजन्य एवं शोर प्रदूषण, जीवाणु एवं विषाणु युक्त वातावरण, विषाक्त असुरक्षा तथा बढ़ते रासायनिक प्रयोग ने जीवन की गुणवत्ता को कम किया है तथा प्रजनन संबंधी समस्याआें को उकसाया है । हमारा आहार-विहार, आचार-विचार विकृत हो गये है । हम प्रकृति के नियमों को भूल गये है । बालिकाएं समय से पूर्व ही यौवन की दहलीज को लाँघ रही हैं । विशेषज्ञों के अनुसार तरूणावस्था के लिए जिम्मेदार प्राकृतिक ओस्ट्रोजेन्स हार्मोन्स के साथ प्रदूषण जन्य अप्राकृतिक रासायनिक पदार्थ लड़कियों को समय से पहले ही जवान कर रहे हैं (तथ्यों के अनुसार जो इंजेक्शन दुधारू पशुआें को लगा कर उनसे जबरन दूध प्राप्त् किया जाता है वह सबसे अधिक नुकसान दायक हो जाताहै । तरूणियाँ जब मातृत्व बोझ संभालती हैं । तब यही रसायन माँ के दूध को भी जहरीला कर रहे हैं । इसलिए वर्तमान पीढ़ियाँ अशक्त एवं कंातिहीन होती जा रही हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारी धात्विक रसायनो में सीसा सर्वाधिक खतरनाक है । लेड पुरूषो की प्रजनन क्षमता को कम करता है । रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक जैसे रसायन परितंत्र की आहार श्रंखला के साथ हमारे शरीर में भी पहुँचकर वहाँ वसा में संग्रहित होकर जीवन के स्पंदन को अवरूद्ध कर रहे हैं । घातक गैसे भी वायुमण्डल में व्याप्त् हैं । अध्ययन के मुताबिक गर्भ-धारण करने वाली महिलाआें पर कार्बन मोनो ऑक्साइड गर्भस्थ शिशु की आक्सीजन आपूर्ति को रोकती है । यह गैस भ्रूण के रक्त संचार से जुड़ जाती है जिससे कार्बाक्सी हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ जाती है और आक्सीजन घट जाती है जिसके परिणाम स्वरूप भ्रुण के दिल एवं दिमाग में आक्सीजन कम हो जाती है और गर्भस्थ शिशु गर्भ में ही शौंच कर देता है । जिससे प्रसविता की देह में जहर फैल जाता है । चिकित्सा विज्ञानी इस अप्राकृतिक घटना को मीकोनियम कहते हैं । इससे माँ एवं शिशु दोनो के जीवन को खतरा होता है । हाल ही में प्रदूषण जनित नपुंसकता के अध्ययन और शोध के हवाले से खबर आई है कि मनुष्य जल्दी ही संतानोत्पति की क्षमता को खो सकताहै । इसका कारण है पुरूष वीर्य में शुक्राणुआें की संख्या में निरंतर ह्रास । प्रदूषण जनित नपुंसकता पर सबसे पहले सन् १९९२ में अमेरिका के वैज्ञानिक ई. कार्लमेन ने ध्यान आकृष्ट किया था । उन्होंने ५० वर्षोंा में पुरूष वीर्य में शुक्राणुआें की संख्या में ४० प्रतिशत की कमी दर्ज की। हमारे देश में मुम्बई स्थित प्रजनन अनुसंधान संस्थान में भी पुरूष वीर्य के १५०० नमूनो का अध्ययन किया गया और यही निष्कर्ष निकाला कि पुरूष वीर्य की गुणवत्ता काफी गिर गई है और इसमें लगातार गिरावट जारी भी है । इस बीच एक और चौंकाने वाला तथ्य समाने आया है कि आदमी को औरत बना सकता है प्रदूषण । अर्थात अब लिंग विभेंद मिट रहा है । एण्डोक्राइन डिस्रप्टर्स के कारण पुरूषों का स्त्रीकरण एवं स्त्रियों का पुरूषीकरण हो रहा है । इन एण्डोक्राइन डिस्रप्टर्स को जेण्डर बेर्न्डस के नाम से भी जाना जाता है । यह एजेंट हमारे हॉरमोनल सिस्टम (अन्त: स्रावी तंत्र) पर विपरीत प्रभाव डालते हैं । ऐसे एजेन्ट शरीर में पहुँचकर हार्मोन की तरह काम करने लगते हैं तथा शरीर के हारमोनल सिस्टम पर हावी हो जाते हैं । यदि यह इसी प्रकार प्रभावी होते रहे तो एक दिन यह हमारे सम्पूर्ण अन्त: स्रावी तंत्र की कार्य प्रणाली को परिवर्तित कर देंगे, जिससे हमारे शरीर की कार्यकी बुरी तरह प्रभावित होगी । हार्मोन्स ही लिंग निर्धारण में अहम् भूमिका निभाते हैं । यह चिंता थियो कोलर्बोन व अन्य के द्वारा रचित पुस्तक `आवर स्टोलेन फ्यूचर' में भी व्यक्त की गई है । पुस्तक में ऐसे ६१ कृत्रिम रसायनों की पहचान की गई है जो मानव सेक्स हार्मोन्स की नकल करते हैं तथा एस्ट्रोजन एवं एण्ड्रोजन जैसे चिर परिचित सेक्स हार्मोन्स की कार्यकी (फिजियोलॉजी) को बदल देते हैं । इसके अलावा ब्रिटेन के प्लेमाथ विश्वविद्यालय के प्लेमाथ एनवायरमेन्टल रिसर्च सेंटर में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर अवधेश एन.झा. ने भी अपने अध्ययन से यही निष्कर्ष निकाला है । शहरी वायु प्रदूषण में एक बड़ा हिस्सा पोलीसायक्लिक एरोमैटिक हायड्रोकार्बन (पी.ए.एच.) का है । इन पदार्थोंा में २ से ७ तक बेंजीन रिंग होती है । यह पदार्थ कैंसरकारी होने के साथ साथ प्रजनन तथा प्रतिरक्षा प्रणाली को भी प्रभावित कर रहे हैं । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इनकी बढ़ती मात्रा के प्रति आगाह भी किया है । अत: हमें समय रहते सचेत हो जाना चाहिए । भौतिकवाही सोच का परित्याग कर प्रकृतिपरक हो जाना चाहिए अन्यथा पर्यावरण प्रदूषण के खतरनाक परिणाम हमें ही नही वरन हमारी संततियों को भी तबाह कर देंगे । ईश्वर हमें सद्बुद्धि दे कि हम जनसंख्या का नियंत्रण परिवार नियोजन अपनाकर स्वयं करें । प्रकृति का इस कार्य में हस्तक्षेप न करना पड़े और अप्रिय स्थितियाँ ने बने । दूधों नहाओ पूतो फलों का आशीर्वाद विवेकपूर्णता से फलतारहे । ***
चांद की जमीन के बंटवारे पर मंथन करीब ४० साल पहले अमेरिका ने चंद्रमा पर अपना झंडा फहराया था । लेकिन अब चांद की बेशकीमती प्रॉपर्टी के लिए दुनिया भर के देशों में होड़ बची हुई है । भारत, जापान और चीन अपने यानों से चांद के चक्कर काट रहे हैं । ये यान अगले साल नासा के लूनर रिकॉनिसंस ऑर्बिटर में स्थापित हो जाएेंगें । प्रॉपर्टी की इस दौड़ को गूगल ने और तेज कर दिया है । गूगल चंद्रमा पर रोबोट भेजने और वहां ५०० मीटर तक चहलकदमी करने वाली टीम को तीन करोड़ डॉलर देगा । इसका मकसद चंद्रमा के विडियो, तस्वीरें और आंकड़ों को पृथ्वी तक लाना होगा । चंाद पर किसका कितना हिस्सा होगा, इसमें विशेषज्ञों का सुझाव है कि इस बारे में कानून बनाया जाना चाहिए । जो पहले कभी हो चुका होता है, ज्यादातर कानून उसी के आधार पर बनाए जाते हैं । विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह समुद्री सीमा की हिस्सेदारी होती है, वैसा ही कानून चांद के लिए भी हो सकता है ।

४ जनजीवन

प्लास्टिक और पर्यावरण

डॉ. एन.के.बोहरा
पर्यावरण शब्द दो शब्दों परि-आवरण से मिलकर बना है । जिसका अर्थ है परि-चारों ओर, को अपने हिस्सेदार की तरह समझकर अनुकूल रखा तो लाभ भी प्राप्त् किया । परन्तु आधुनिक युग में भौतिक सुखों की लालसा तथा अल्पावधि लाभ हेतु मानव ने पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ की तथा अदूरदर्शिता से प्राकृतिक सम्पदाआें का उपयोग कर उन्हे नष्ट किया है, जिसके घातक परिणामों की विभीषिका के बारे में मानव कल्पना भी नहीं कर सकता है । मानव ने बिना सोच-समझे अपनी सुविधा हेतु वनों की कटाई, मोटर-वाहनों के अधिकाधिक प्रयोग, औद्योगिकरण आदि कई ऐसे कदम उठाए हैं । आज प्लास्टिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रियाशील है इसका संचार क्षेत्र में, शल्य किया में, हेलमेट बनाने, खिलौने बनाने मे, खेलकूद की सामग्री बनाने में एवं कई अन्य प्रकार के कार्योंा में बहुतायत से उपयोग किया जा रहा है । प्लास्टिक का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका में हुआ था । प्लास्टिक सामान्यत: उच्च् अणुभार वाले कठोर असंतृप्त् हाइड्रोकार्बन के उच्च् बहुलक हैं, जो गर्म करने पर मुलायम हो जाते हैं तथा प्लास्टिक कहलाते हैं । प्लास्टिक हल्की होती है तथा इसे गर्म कर किसी भी आकार में बदला जा सकता है एवं अम्ल तथा क्षार का भी इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक का उपयोग दैनिक कार्योंा में होता है । सैल्यूलोज थर्मोप्लास्टिक का उपयोग कंघे, ब्रश, चश्में का फ्रेम, बर्तन बनाने में, फिल्म बनाने में टेलीफोन, हवाई जहाज की चादर, मोटरगाड़ी के भाग व खिलौने बनाने में किया जाता है । पोलीथीन, प्लास्टिक का उपयोग ढले हुए खिलौने, पाइप, न टूटने वाली बोतले, दवाईयां के रैपर, क्रीम, पेस्ट के ट्यूब आदि बनाने में किया जाता है । टेफलॉन प्लास्टिक का उपयोग गैसकेट, बल्ब आदि बनाने के अतिरिक्त तार इन्सूलेशन में भी होता है । इसी प्रकार पोली-प्रोपीलीन प्लास्टिक का उपयोग फिल्म एवं रस्सी बनाने में किया जाताहैं । पोलीस्टायरीन प्लास्टिक पर क्षार तथा हैलोजन अम्लों का प्रभाव नहीं होता है तथा वह बोतलों ढक्कन, रेफ्रिजरेटर के भाग, रेडियो को कैबिनेट खिलौने, ब्रुश, हेण्डिल, कंघे आदि बनाने में किया जाता है । इसी प्रकार पोलीएक्राइलाइड प्लास्टिक रंगहीन एवं पारदर्शक होने के कारण काँच के स्थान पर प्रयुक्त होता है । यह आसानी से नहीं टूटता है । इसी प्रकार पोलीविनाइल प्लास्टिक जिसे पी.वी.सी. या कोरोसील भी कहते हैं, का उपयोग फर्श के लिए चांदरें, सीट कवर, खिलौने, बरसाती, फोनोग्राफ रिकार्ड आदि मे होता है । पी.वी.सी. से ही बहुलीकरण द्वारा विनायलाइट तथा प्रोलीविनायलिडिन क्लोराइड आदि प्राप्त् किये जाते हैं जो रबड फैक्ट्री में प्रयुक्त होते है । थर्मोप्लास्टिक के समान ही थर्मोसेटिंग का उपयोग भी कई कार्योंा में किया जाता है । ये प्लास्टिक थर्मोप्लास्टिक की अपेक्षा उष्मा सहन कर सकते हैं एवं गर्म करने पर कठोर हो जाते हैं । एलकाइड थर्मोसेटिंग प्लास्टिक का उपयोग बेकेलाइट बनाने में, रेडियो, टेलीफोन टेलीवीजन आदि का ढांचा बनाने में, बिजली के स्विच एवं गीयर आदि बनाने में होताहै । एमीन-एल्डिहाइड प्लास्टिक को सजावटी वस्तुआें ओर फर्नीचर की सतह समतल बनाने में, इपोक्सी को ग्लास फाइबर बनाने में प्रयुक्त किया जाता है । पोली यूरेथेन्स थर्मोसेटिंग प्लास्टिक विद्युत अवरोधक है एवं इसको सांचो में ढाल सकते हैं । इस पर नमी, तेल, गैस आदि बनाने में प्रयुक्त किया जाता है । इसी प्रकार गटापारचा प्लास्टिक जो मलेशिया के रबड़ के पेड़ के लेटेक्स से प्राप्त् की जाती है, का उपयोग गोल्फ की गैंद, खिलौने, टेनिस गैंद के अतिरिक्त दन्तविधा में तथा समुद्र में बिछाने वाले तारों के इन्सुलेशन में होता है । इस प्रकार वर्तमान युग में प्लास्टिक घरों, आफिस, कारखानों तथा प्रयोगशालाआें आदि में किसी न किसी रूप में प्रयुक्त होता है तथा वर्तमान युग को प्लास्टिक युग भी कहा जा सकताहै । यह एक महत्वपूर्ण आविष्कार है । परन्तु प्लास्टिक अपशिष्ट का क्षय आसानी से नहीं होता तथा यह हजारों वर्षोंा में भी विघटित नहीं होता है । यही कारण है कि प्लास्टिक के ढेर पृथ्वी पर बड़ी मात्रा में इकट्ठे होते जा रहे हैं तथा इस प्रकार वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं । दिन-प्रतिदिन तेजी से बढ़ते उपयोगों एवं इसके अवघटित न होने की समस्या से भविष्य में पृथ्वी का एक बड़ा भूभाग केवलअनुपयुक्त प्लास्टिक होता है। यह एक मात्र पदार्थ है जिसका विलीनीकरण पुन: प्रकृति के तंत्र में नहीं हो पाता है तथा यही कारण है कि आज शहरों में प्लास्टिक के ढेर जमीन को नष्ट करने के साथ-साथ पर्यावरण को भी प्रदूषित कर रहे हैं । आइये प्रण लें- प्लास्टिक के तिरस्कार का । ***

५ मौसम

जलवायु परिवर्तन एक नयी चुनौती
जितेन्द्र द्विवेदी
अन्तराष्ट्रीय मंचों पर प्राय: विकसित और विकासशील देशों के बीच मूलत: वाद-विवाद का विषय बनकर रह गयी, जलवायु-परिवर्तन की चुनौती भले ही रोजमर्रा की आजीविका के संघर्ष एवं व्यस्त दिनचर्या मेंलीन लोगों के लिए महज खबर या अकादमिक विषय सामग्री मात्र ही हो, सच्चई तो यह है कि हवा, पानी, वाली इस समस्या से देर-सबेर, कम-ज्यादा हम सभी का जीवन प्रभावित होता है । भारत में मौसम बदलाव के एक प्रमुख प्रभाव के रूप में बाढ व सूखे को देखा जा सकता है । देश का बहुत बड़ा क्षैत्र बाढ की विभीषिका को झेलता आ रहा है । परन्तु विगत दो दशकों से बाढ के स्वरूप, प्रवृत्ति व आवृत्ति में व्यापक परिवर्तन देखा जा रहा है । ऐसे बदलाव के चलते कृषि, स्वास्थ्य जीवन यापन आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और जान-माल, उत्पादकता आदि की क्षति का क्रम बढ़ा है । ऐसा नहीं है कि देश के लिए बाढ़ कोई नई बात है परन्तु मौसम में हो रहे बदलाव के इस प्राकृतिक प्रक्रिया की तीव्रता व स्वरूप को बदल दिया है और बाढ़ की भयावहता आपदा के रूप में दिखाई दे रही हैं । इसमें विशेषकर तेज व त्वरित बाढ का आना, पानी का अधिक दिनों तक रूके रहना तथा लम्बे समय तक जल-जमाव की समस्या समाने आ रही है । मौसम बदलाव का दूसरा प्रमुख सूखे के रूप में देखा जा सकता है । तापमान वृद्धि एवं वाष्पीकरण की दर तीव्र होने के परिणाम स्वरूप सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है । मौसम बदलाव के चलते वर्षा समयानुसार नहीं हो रही है और उसकी मात्रा में भी कमी आई है । मिट्टी की जलग्रहण क्षमता का कम होना भी सूखा का एक प्रमुख कारण है । बहुत से क्षेत्र जो पहले उपजाऊ थे आज बंजर हो चले हैं वहाँ की उत्पादकता समाप्त् हो गई है । भारत के संदर्भ में ही हाल के समय में ग्रीन पीस इण्डिया की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि भारत में सर्वाधिक आमदनी वाले वर्ग के एक फीसदी लोग सबसे कम आमदनी वाले ३८ फीसदी लोगों के मुकाबले कार्बन डाई आक्साइड का साढ़े चार गुना ज्यादा उत्सर्जन करते हैं । हाल के बाली सम्मेलन में वनों के कटाव पर विशेष चिन्ता प्रकट की गयी थी । ऐसा अनुमान लगाया है कि ग्रीन हाउस गैसे उत्सर्जन के लिए २० से २५ प्रतिशत के लिए वनों के कटाव उत्तरदायी है । इसलिए वनों के संरक्षण पर विशेष बल दिया जाना चाहिए । हमारे एवं हमारी भावी पीढियों के जीवन को निर्णायक रूप से प्रभावित करने वाली जलवायु-परिवर्तन की समस्या हम सबके लिए चुनौती है । इसका सामना सार्थक एवं प्रभावशाली ढंग से करने के लिए हमें जागरूकता दिखाते हुए सरकारों, अन्तराष्ट्रीय मंचाों पर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करते हुए दबाव बनाना होगा । इस दिशा में हो रहे सरकारी, गैर सरकारी संघटनों के प्रयासों में सहयोग देना होगा । व्यक्तिगत जीवन में भी हम सादगी लाने और बिजली, पानी इंर्धन की बचत की दिशा में कदम उठा सकते हैं । लगातार बढ़ता शहरीकरण जलवायु-परिवर्तन को और बढावा देगा और बढ़ती शहरी जनसंख्या के कारण उपजाऊ भूमि इमारतों के निर्माण हेतु उपयोग हो रही है तथा पेड-पौधों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है । भारत में ही १९५५ से २००० के बीच करीब २-३ लाख हेक्टेअर खेती तथा वन भूमि आवासीय उपयोग में आ चुकी है । भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार मात्र एक डिग्री सेण्टीग्रेड तापमान में वृद्धि से भारत में ४० से ५० लाख टन गेहूँ की कम उपज का अनुमान है । इससे प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता कम होगी और खाद्य असुरक्षा तथा कुपोषण बढेगा । यदि जलवायु परिवर्तनों को समय रहते कम करने तथा खाद्यान्न उपलब्धता बढ़ाने हेतु प्रभावी कदम नही उठाये गये तो शहरी गरीबों पर इसका गभीर असर पड़ेगा और कुपोषित बच्चें की संख्या और भी अधिक बढ जाएगी । जलवायु-परिवर्तन के चलते सूखे एवं बाढ में वृद्धि से पानी की उपलब्धता प्रभावित होगी । भारत वातावरणीय परिवर्तनों से होन वाली स्थितियों पर नियंत्रण से संबंधित योजनाआें पर सकल घरेलू उत्पाद का करीब ढाई प्रतिशत खर्च करता है जो कि एक विकासशील देश के लिए काफी बड़ी राशि है । चूँकि जलवायु-परिवर्तन किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है इसलिए इनमें कमी लाने हेतु सभी स्तरों पर ठोस उपायों की जरूरत है । भारत में गैर परम्परागत स्रोतों जैसे सूर्य, जल एवं पवन ऊर्जा की काफी बड़ी संभावना है । पवन ऊर्जा पैदा करने की क्षमता में भारत विश्व में चौथे स्थान पर है । इन साधनों के प्रयोग हेतु प्रोत्साहन से भी वातावरण से कार्बन डाई आक्साइड को सोखने एवं जलवायु-परिवर्तन को कम करने में काफी सहायता है । चूँकि पुराने वृक्षों में कार्बन डाइ्र आक्साइड को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए जलवायु-परिवर्तनों के नियंत्रण हेतु प्रत्येक स्तर पर अधिकाधिक वृक्षारोपण को बढावा देने की आवश्यकता है । जलवायु परिवर्तन के कृषि पर तात्कालिक एवं दूरगामी पभावों के अध्ययन की जरूरत है । कृषि वैज्ञानिक भी यहाँ कमी नहीं हैं, लेकिन कृषि वैज्ञानिक भी अभी जलवायु-परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहे है । इसलिए इस दिश में कोई शोध शुरू नहीं हुआ जबकि हमें इस क्षेत्र में तत्काल दो काम करने चाहिए । एक यह कि जलवायु-परिवर्तन से कृषि चक्र पर क्या फर्क पड रहा है । दूसरा क्या इस परिवर्तन की भरपाई कुछ वैकल्पिक फसले लगाकर पूरी की जा सकती है । साथ ही हमें ऐसी किस्म की फसलें विकसित करनी चाहिए जो जलवायु-परिवर्तन के खतरों से निपटने में सक्षम हो-मसलन फसलों की ऐसी किस्मों का ईजाद, जो ज्यादा गरमी, कम या ज्यादा बारिश सहन करने में सक्षम हों । यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जलवायु-परिवर्तन न केवल कृषि के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानव सभ्यता के लिए एक खतरे के रूप में सामने आया है और इसलिए इसे सीमा में बांधना बेईमानी होगी । कोई भी देश इसकी ऑच से बच नहीं सकता । हम इस तथ्य से भी मुँह नहीं मोड सकते कि जलवायु-परिवर्तन के मुद्दे पर अब शिखर सम्मेलनों के आयोजन की अपेक्षा जमीनी स्तर पर विचार किया जाना चाहिये । हम यह भी उम्मीद करेंगे कि अगले दो सालों के भीतर दुनिया के समस्त देश इस गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए एकजुट होकर वर्ष २००९ की डेनमार्क में कोेपेन हेगन वार्ता में कोई ऐसा सर्व सम्मत एजेंडा विश्व के समक्ष रखने में समर्थ होंगे जो २०१२ में समाप्त् होने वाले क्योटो प्रोटोकाल का स्थान ले और उसमें विशेष रूप से कृषि पर पडने वाले जलवायु-परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की प्रभावी व्यवस्था भी शामिल हो। **

६ पर्यावरण-परिक्रमा

पोलिथिन से बनेगा पेट्रोल
म.प्र. में नये प्रयासों के अंतर्गत पेट्रोल-गैस और कोलतार अब पोलिथिन से बनेगा । मार्च - अप्रेल से जबलपुर में पेट्रोल बनना शुरू हो जाएगा बाद में इंदौर, भोपाल और ग्वालियर में भी बनाया जाएगा । मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बेकार पोलिथिन से पेट्रोल, गैस और कोलतार बनाने वाली योजना तैयार की है। इससे न केवल लोगों को रोजगार मिलेगा, बल्कि पोलिथिन से होने वाले प्रदूषण से प्रदेश मुक्ति पा जाएगा । इसके लिए प्रदेश के चार महानगरों में ट्रीटमेंट व पेट्रोल उत्पादन प्लांट भी लगाए जा रहे हैं । उपयोग के बाद कूड़े में फेंकी जाने वाली पोलिथिन का आसानी से नष्ट नहीं होना, पर्यावरण के लिए समस्या बना हुआ है । इस समस्या से निजात पाने के लिये म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने व्यापक कार्ययोजना तैयार की है । अगले दो से आठ माह में जबलपुर, भोपाल, ग्वालियर व इंदौर में यह योजना मूर्तरूप लेगी । प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. एस.पी. गौतम का कहना है कि इससे प्रदेश अगले कुछ सालों में पोलिथिन मुक्त प्रदेश बन जाएगा । डॉ. गौतम के अनुसार मोटे-पतले सभी तरह के बेकार पोलिथिन से पेट्रोल बनाया जाएगा । इस पेट्रोल की मुख्य विशेषता यह है कि इसके ऑक्टेन वेल्यू मौजूदा पेट्रोल से २० प्रतिशत बेहतर है । इसके लिए मुंबई की एक कंपनी एशियन से बातचीत हो चुकी है । इस कंपनी ने प्रदेश में अपना काम भी शुरू कर दिया है । जबलपुर यूनिट की खपत पाँच टन पॉलिथिन प्रतिदिन होगी । एक किलो पोलीथीन से ६०० एमएल पेट्रोल तैयार होगा । अब तक २० माइक्रोन से कम की पोलिथिन को नष्ट करना समस्या बना हुआ था ।पेट्रोल बनाने में उपयोग होने वाले बेकार पॉलिथिन से २० माइक्रोन से कम गेज की पोलिथिन भी उपयोगी साबित होगी । बड़े शहरों के आसपास से भी पोलिथिन इकट्ठा कर उसे कंपनी द्वारा खरीदा जाएगा ।पीने के पानी को मौलिक अधिकार बनाएंगे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि केंद्र में राजग की सरकार बनने पर पीने के पानी को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जाएगा । यही नहीं, प्रधानमंत्री के अधीन पानी एवं स्वच्छता मिशन की स्थापना होगी तथा पानी के संरक्षण का मौलिक कर्तव्य बनाया जाएगा । श्री आडवानी पिछले दिनों अपने आवास पर पानी के विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श कर रहे थे । श्री आडवाणी राजग की भावी सरकार की नीतियां तय करने की कड़ी में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों से बातचीत कर उनकी राय ले रहे हैं । इस कड़ी में उन्होेने अभी तक कृषि, उद्योग एवं सुरक्षा से जुड़े विशेषज्ञों के विचार जाने है । इसी में पीने का पानी से जुड़े विशेषज्ञों की बारी थी । बैठक को संबोधित करते हुए श्री आडवाणी ने कहा कि केंद में राजग की सरकार बनने पर पीने के पानी को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में शामिल किया जाएगा तथा प्रधानमंत्री के अधीन जल एवं स्वच्छता मिशन की स्थापना की जाएगी । इस बैठक में तय किया कि समाज एवं सरकार की मदद से पानी के संरक्षण को मौलिक कर्तव्यों की श्रेणी में शामिल किया जाए ताकि पानी बहाने की आदत पर रोक लगाई जा सके। कैंसर का बढ़ता कहर बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि गरीब देशों में एचआईवी, मलेरिया और टीबी को मिलाकर जितनी मौतें हुई हैं, उससे ज्यादा मौतें कैंसर से हुई हैं । ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह चेतावनी चिंता पैदा करने वाली है कि २०१० तक कैंसर की बीमारी से ग्रसित लोगों की संख्या हृदयरोगियों की संख्या से ज्यादा हो जाएगी । पिछले कुछ समय से एच आईवी व एड्स के डर और खतरे ने दुनिया को सांसत में डाल रखा था, फिर हृदय रोग को लेकर विश्वभर में दुष्चिंताएं पैदा हो रही थी । टीबी और मलेरिया तो अभी तक बड़े-बड़े दावों के बावजूद काबू में नहीं लाए जा सके हैं । ऐसे में कैंसर को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए । कैंसर हर साल एक प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है, खासतौर पर महिलाआें में गर्भाशय के कैंसर की दर तेजी से बढ़ रही है और इसका एक बड़ा कारण बदलती हुई जीवन-शैली और सेक्स संबंधी व्यवहार में बदलाव को माना जा रहा है। धूम्रपान भी कैंसर की बीमारी के एक सबसे बड़े कारण के रूप में सामने आया है । शुरूआती अवस्था में कैंसर का इलाज न होना भी कैंसर से होने वाली मौतों का एक बड़ा कारण है । सिर्फ भारत में, एक आकलन के अनुसार, प्रतिदिन ६ करोड़ सिगरेटें बिकती हैं, इनमें बीड़ी, हुक्का और धूम्रपान के अन्य साधनों का इस्तेमाल शामिल नहीं है । ऐसे में कैंसर के खतरे का सामना करने के लिए एक ओर जहाँ अनुसंधान और चिकित्सकीय स्तर पर चाक-चौबंद होने की जरूरत है, वहीं कैंसर पैदा करने वाले कारकों पर व्यापक जन-चेतना जरूरी है । दुर्भाग्य से, सरकार की ओर से धूम्रपान पर कोई ठोस कार्रवाई दिखाई नहीं दे रही है । सिगरेट या गुटकों के पैकेट्स पर मात्र चेतावनी लिख देने से बात नहीं बनेगी । सन् १९७१ में भारत में कैंसर की दारूणता पर पहली फिल्म बनी थी-आनंद-जिसमें राजेश खन्ना और अमिताभ बच्च्न ने असहाय बनाने वाला रोग बना हुआ है -इसकी जिम्मेदारी रिपोर्टोंा से बाहर आकर भी सरकार को लेनी चाहिए। भारत-चीन जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी निभाएें अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बुश प्रशासन की जलवायु परिवर्तन नीति को बदलना शुरू कर दिया है । ओबामा ने कहा कि अमेरिका इस चुनौती से निपटने के लिए एक सच्च्े वैश्विक गठबंधन का नेतृत्व करने को तैयार है, लेकिन भारत व चीन जैसे राष्ट्रों को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी । ओबामा ने कहा, जलवायु व अपनी सामूहिक सुरक्षा की हिफाजत के लिए हमें मिल कर एक सच्च्े वैश्विक गठबंधन का आह्वान करना चाहिए । मैंने स्पष्ट किया ह्ै कि हम इस दिशा में काम करेंगे, बल्कि हम कहेंगे कि दुनिया को भी ऐसा करना चाहिए । श्री ओबामा ने कहा, हमें इस पर भी सोचना है कि तानाशाहों को समर्थन व आतंकवादियों को डॉलर न उपलब्ध हो पाए । हमें यह भी सुनिश्चित करना है कि जिस तरह हम अपनी जिम्मेदारी निभाना चाहते हैं, चीन व भारत जैसे राष्ट्र भी अपनी जिम्मेदारियां निभाएं । नर्मदा अमरकंटक में ही मैली ! मध्य प्रदेश की जीवन रेखा कहलाने वाली नर्मदा अपने उद्गम स्थल से कुछ ही दूरी पर अमरकंटक में ही मैली हो गई हैं । यहाँ के रामघाट पर सबसे ज्यादा प्रदूषित जल पाया गया है । म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भोपाल की तीन सदस्यीय टीम द्वारा नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक में जल की शुद्घता जानने के लिए बिना रीढ़ के जीवों की खोज की गई । इस टीम को कुंड से कुछ दूर रामघाट पर काइरोनामस नाम के बिना रीढ़ के जीव अधिक संख्या में मिले। ये जीव मैले पानी में रहना पसंद करते हैं और इसी आधार पर टीम ने पाया है कि वहां पर नर्मदा जल सबसे ज्यादा प्रदूषित है । इसकी वजह आसपास के लोगों द्वारा नर्मदा घाट पर गंदगी फैलाना है । इस संबंध में मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के रिसर्च एसोसिएट डॉ. राकेश पाडेय के अनुसार अभी तक मंडला, डिण्डोरी, जबलपुर, नरसिंहपुर के आसपास के नर्मदा घाटों में जल की शुद्धता परखी गई है । नर्मदा जल की शुद्धता परख रही टीम को डिण्डोरी जिले के जोगी टिकरिया घाट पर अब तक का सबसे बड़ा करीब ढाई सेमी का बिना रीढ़ का जीव ट्राइकोपटेरा मिला है । इसकी खासियत यह है कि यह जल को फिल्टर करता है और बड़े - बड़े पत्थरों को आपस में जोड़कर उसके बीच रहता है । डॉ. पांडेय के मुताबिक ढाई सेमी लंबे ट्राइकोपटेरा जीव को दिल्ली स्थित प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की बायोमानिरटिंग सेल ने देश में पहली बार इतना बड़ा जीव मिलना बताया है । यह जीवन जितना बड़ा होता है, उतना ही वहां का पानी शुद्ध माना जाता है । बरहहाल , प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वैज्ञानिक डॉ. रीता कोरी नर्मदा घाटों पर मिले जीवों के आधार पर पानी की गुणवत्ता का विश्लेषण कर रही हैं । यह रिपोर्ट केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दिल्ली भेजी जाएगी । म.प्र. में अभी तक सभी नदियों में नर्मदा नदी कम प्रदूषित मानी जाती थी। इस नये अध्ययन से स्थिति साफ हो गयी है कि प्रदेश में कोई भी नदी अब प्रदूषण मुक्त नहीं रह गयी है जो कि चिंता का विषय है । ***

७ वानिकी जगत

भोजपत्र पत्ता है या छाल ?
डॉ. किशोर पंवार
भोजपत्र का ख्याल आते ही उन प्राचीन पांडुलिपियों का विचार आता है जिन्हें भोजपत्रों पर लिखा गया है । दरअसल कागज की खोज के पूर्व हमारे देश में लिखने का काम भेाजपत्र पर किया जाता था। गौरतलब है कि भोजपत्र पर लिखा हुआ सैकड़ों वर्षोंा तक वैसा ही रहता है । हमारे देश के कई पुरातत्व संग्रहालयों में भोजपत्र पर लिखी गई सैकड़ों पांडुलिपियां सुरक्षित रखी हैं । जैसे हरिद्वार के गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय का संग्रहालय । हाल ही मुझे भोजपत्र देखने का मौका मिला । कालिदास ने भी अपनी कृतियों में भोज-पत्रों का उल्लेख कई स्थानों पर किया है । उनकी कृति कुमारसंभवम् में तो भोजपत्र को वस्त्र के रूप में उपयोग करने का जिक्र भी है । भोजपत्र का उपयोग प्राचीन रूस में कागज़ की मुद्रा `बेरेस्ता' के रूप में भी किया जाता था । इसका उपयोग सजावटी वस्तुआें एवं चरण पादुकाआें -जिन्हें `लाप्ती' कहते थे -के निर्माण में भी किया जाता था । सुश्रुत एवं वराह मिहिर (५००-५५० ईसवी) में भी भोजपत्र का जिक्र किया है । भोजपत्र का उपयोग काश्मीर में पार्सल लपेटने में और हुक्कों के लचीले पाइप बनाने में भी किया जाता था । वर्तमान में भोजपत्रों पर कई यंत्र लिखे जाते हैं । दरअसल भोजपत्र भोज नाम के वृक्ष की छाल का नाम है, पत्ते का नहीं। इस वृक्ष की छाल ही सर्दियों में पतली - पतली परतों के रूप में निकलती है जिन्हें मुख्य रूप से कागज़ की तरह इस्तेमाल किया जाता था । भोज वृक्ष हिमालय में ४५०० मीटर तक की ऊँचाई पर पाया जाता है । यह एक ठंडे वातावरण में उगने वाला पतझड़ी वृक्ष है जो लगभग २० मीटर तक ऊँचा हो सकता है । दूसरा नाम (बहुवल्कल) ज़्यादा सार्थक है - बहुवल्कल यानी बहुत सारे वस्त्रों /छाल वाला वृक्ष । भोज को अंग्रेजी में हिमालयन सिल्वर बर्च और विज्ञान की भाषा में बेटूला युटिलिस कहा जाता है । यह वृक्ष बहुउपयोगी है । इसके पत्ते छोटे और किनारे दांतेदार होते हैं । वृक्ष पर शहतूत जैसी नर और मादा रचनााएं लगती हैं जिन्हें मंजरी कहा जाता है । छाल पतली, कागजनुमा होती है जिस पर आड़ी धारियों के रूप में तने पर मिलने वाला लेंटीसेल्स (वायुरन्ध्र) बहुत ही साफ गहरे रंग में नज़र आते हैं । यह लगभग खराब न होने वाली होती है क्योकि इसमें रेज़िनयुक्त तेल पाया जाता है । छाल के रंग से ही इसके विभिन्न नाम (लाल, सफेद, सिल्वर और पीला) बर्च पड़े हैं । भोज के पेड़ हल्की, अच्छी पानी की निकासी वाली अम्लीय मिट्टी में अच्छी तरह पनपते हैं । इकॉलॉजी के लिहाज से इन्हें शुरूआती (पायोनियर) माना जाता है । आग या अन्य दखलअंदाजी से ये बड़ी तेजी से फैलते हैं । भोज से कागज़ के अलावा इसके अच्छे दाने वाली, हल्के पीले रंग की साटिन चमक वाली लकड़ी भी मिलती है। इससे वेनीर और प्लायवुड भी बनाई जाती है । बेटूला वेरूकोसा (मैसूर बर्च)से उम्दा किस्म की लकड़ी प्राप्त् होती है । छोटे रेशों के कारण उसकी लुगदी से टिकाऊ कागज़ भी बनता है । बर्च की लकड़ी का उपयोग ड्रम, सितार, गिटार आदि बनाने में भी किया जाता है । बेलारूस, रूस, फिनलैंड, स्वीडन और डेनमार्क तथा उत्तरी चीन के कुछ हिस्सों में बर्च के रस का उपयोग उम्दा बीयर के रूप में होता है । इससे ज़ाइलिटाल नामक मीठा एल्कोहल भी मिलता है जिसका उपयोग मिठास के लिए होता है । बर्च के पराग कण एलर्जिक होते हैं । पित्त ज्वर से प्रभावित कुछ लोग इसके परागकणों के प्रति संवेदी पाए गए हैं । सफेद बर्च पर उगने वाले मशरूम कैंसर के उपचार में उपयोग में लाया जाता है । बर्च की छाल में बेटूलिन और बेटुलिनिक एसिड और अन्य रसायन मिले हैं । जो दवा उद्योग में उपयोगी पाए गए हैं । आचार्य भाव मिश्र (१५००-१६००) रचित भाव प्रकाश निघंटु के अनुसार इसकी छाल का उपयोग वातानुलोमक एवं प्रतिदूषक होता है ।इसे कामला, पित्त ज्वर में दिया जाता है । कर्णस्राव एवं विषाक्त व्रण प्रक्षालना में भी इसका उपायोग होता है । इसके पत्ते उत्तेजक एवं स्तम्भक माने जाते हैं । भारतीय वन अनुसंधान केंद्र देहरादून के वैज्ञानिक कहते हैं कि भोजपत्र का उपयोग दमा और मिर्गी जैसे रोगों के इलाज में किया जाता है । उसकी छाल बहूुत बढ़िया एस्ट्रिन्जेट (कसावट लाने वाली) मानी जाती है इस कारण बहते खून और घावों को साफ करने में इसका प्रयोग होता है । उत्तराखण्ड में गंगौत्री के रास्ते में १४ किमी पहले भोजवासा आता है । भोजपत्र के पेड़ों की अधिकता के कारण ही इस स्थान का नाम भोजवासा पड़ा था परंतु वर्तमान में इस जगह भोज वृक्ष गिनती के ही बचे हैं । यही हाल गंगोत्री केडनास दर्रेंा का भी है । सन् २००७ में डेक्कन हेराल्ड में छपी रिपोर्ट के अनुसार यह पेड़ विलुिप्त् की कगार पर है । इसे सबसे ज्यादा खतरा कांवरियों से है जो गंगोत्री का पानी लेने आते हैं और भोज वृक्ष को नुकसान पहुंचाते हैं । इस बहुउपयोगी वृक्ष के अति दोहन से उसके विलुप्त् होने का खतरा पैदा हो गया है । भोज वृक्ष के संरक्षण से जुड़ी हर्षवन्ती विष्ट का कहना है कि इंर्धन के लिए भोजवृक्ष की लकड़ी का दोहन इस खतरे को बढ़ा रहा है । उन्होंने उसे बचाने के लिए `सेव भोजपत्र' (भोजपत्र बचाओ) आंदोलन चलाया है । उत्तराखण्ड में भोजवासा में ५.५ हैक्टर क्षेत्र को कंटीले तारों की बागड़ लगाकर स्थानीय स्तर पर संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं । भोज हमारी प्राचीन संस्कृति का परिचायक वृक्ष है । यह हिमालयीन वनस्पतियों का एक प्रतिनिधि पेड़ है । अति महत्वपूर्ण्ण औषधि गुणों से भरपूर इस वृक्ष को बचाना जरूरी है । ***विलुप्त् प्रजाति के मेमने का क्लोन वैज्ञानिक ों के एक प्रयोग ने पशुआें को विलुप्त् प्रजातियों के फिर से प्रकट होने की संभावना पैदा कर दी है । संरक्षित उत्तक की क्लोनिंग से स्पेन के वैज्ञानिकों ने एक विलुप्त् प्रजाति की जंगली बकरी (पीरेनीन इबेक्स) को तैयार कर दिया है । इस प्रयोग में लगभग उसी तकनीक का प्रयोग किया गया जिससे पहली बार क्लोनिंग के जरिए भेड़ डॉली को तैयार किया गया था । पीरेनीन इबेक्स प्रजाति की अंतिम ज्ञात बकरी के वर्ष २००० में उत्तरी स्पेन में मौत के बाद उसे आधिकारिक तौर पर विलुप्त् घोषित कर दिया गया था, लेकिन सौभाग्य से वैज्ञानिकों ने उसकी मौत से पहले उसकी त्वचा का नमूना तरल नाइट्रोजन में संरक्षित कर लिया था जिससे डीएनए निकालकर घरेलू बकरियों के अंडाणुआें को जैविक तत्व की जगह डाल दिया । इस अंडाणु से बने भ्रूण को फिर बकरी के गर्भ में प्रत्यारोपित कर दिया गया इस तरह जिस मेेमने का जन्म हुआ,वह पीरेनीन इबेक्स प्रजाति की बकरी थी।

८ पक्षी जगत

पशु पक्षियों की स्मरण शक्ति
नरेन्द्र देवांगन
अमेरिका की एक मशहूर संस्था स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट में कौआें की याददाश्त जानने के लिए कई प्रयोग किए गए । पता लगा कि कौए सात तक गिनती गिन सकते हैं । ये अपने प्रेमी और दुश्मनों को याद रखते हैं और दुश्मन पर हमला करने की फिराक में भी रहते हैं । हमारे देश में प्रख्यात कार्टूनिस्ट आर.के.लक्ष्मण कौआें के अनन्य प्रेमी रहे हैं । उन्होंनें कौआें के हावभाव और व्यवहार का काफी अध्ययन किया है । उनके अनुसार घरेलू कौआें को घर में आने-जाने वालों की शक्ल याद रहती है। शायद कौए अपने दोस्त, नाते-रिश्तेदारों को भी पहचानते हैं, तभी तो शाम को उनके साथ बैठकर गपशप करते हैं । कहीं भोजन का ढेर मिलने पर उन्हें कांव- कांवर करके बुला भी लेते हैं । एक कहावत है कि हाथी कभी कुछ भूलता नहीं है । आधुनिक विज्ञान ने अब एक कदम और आगे बढ़कर ऐसे साक्ष्य ढूंढ निकाले हैं , जो यह बताते हैं कि न केवल विशालकाय हाथियों में , बल्कि अन्य प्राणियों में भी , यहां तक कि चहकने वाले पक्षियों में भी लंबे समय तक बनी रहने वाली याददाश्त होती है । अभी तक आमतौर पर माना जाता रहा है कि मनुष्य को छोड़कर शायद ही किसी अन्य जीव में लंबे समय तक बनी रहने वाली स्मरण शक्ति होती है । इस धारणा को मिथ्या सिद्ध करने वाले तथ्यों की खोज का श्रेय नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय के मैसन फार्म बायोलॉजिकल रिज़र्व के शोधकर्ताआें को जाता है । इसमें रैनी गोहार्ड चिकित्सा विज्ञान के छात्र हैं और आर.हेवेन विले जीव विज्ञान के प्रोफेसर हैं । इन दोनों वैज्ञानिकों ने सुरीले स्वर वाली चिड़िया के संगीत को अलग-अलग चिन्हित सीमा रेखा के अंदर टेप रिकार्ड किया । उनकी स्वर लहरियां विशेष रूप से अलग-अलग सीमा क्षेत्र की द्योतक थीं ।जब पक्षी अपने शीतकालीन प्रवास के बाद वन में लौटे, तो उन्हें उनके गानों का टेप बजाकर सुनाया गया । जब ३१ पक्षियों को उनके सीमा क्षेत्र के बाहर के पक्षियों के गाने व बोलियों के टेप पुन: सुनाइ गए तो वे उत्तेजित हो गए और अपना गाना गाने लगे । उन्होंने अपना संगीत एक बार नहीं, बार बार गाया । इतने पर भी उनका आक्रोश शांत नहीं हुआ । उन्होंने स्पीकर पर झपट्टा भी मारा। पक्षियों की यह प्रतिक्रिया स्पष्ट करती है कि उन्हें अपने आसपास के क्षेत्रों के पक्षियों की आवाजें कई महीनों तक याद रहती है।ं । तभी तो वे यह समझ लेते हैं कि यह आवाज उनकी नहीं, अपितु उनके आसपास के क्षेत्रों के पक्षियों की है । कलनादी पक्षियों की याद रखने की यह विलक्षण क्षमता बताती है कि विभिन्न प्रजातियांे में स्मृति उनके विशिष्ट उद्देश्यों के अनुरूप विकसित होती है । उनकी स्मृति उनके प्रजनन को भी सुविधाजनक बनाती है । प्रोफेसर विले का कहना है कि जो पक्षी अपने पड़ोसियों को पहचानते हैं , वे उन पक्षियों की अपेक्षा प्रजनन में अधिक सफल होते हैं, जिनके चारों ओर अजनबी पक्षी होते हैं । इसका कारण यह है कि अजनबी पक्षियों से घिरे पक्षी अपना काफी समय अपने क्षेत्रों को चिन्हित करने और उसकी सुरक्षा करने में बिता देते हैं । कबूतर को लेकर याददाश्त के काफी प्रयोग किए गए हैं । पता लगा है कि कबूतर रंगों या चित्र आदि के किसी खास क्रम को याद रख सकते हैं । वे पे़़डों, मानव आकृतियों या झील, सागर आदि को भीयाद रखते हैं । एक प्रयोग में डॉ. हरबर्ट टैरेस ने कबूतरों को लाल, नीले, पीले और हरे रंग की चकतियां एक खास क्रम में दिखाई, फिर चारों चकतियों का एक साथ रखकर उन्हें दाना दियागया । कबूतरों ने जल्दी ही उस खास क्रम को को याद कर लिया । चकतियों के हर संभव उलटफेर के बावजूद कबूतरों ने भूल नहीं की । इसी तरह हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राबर्ट हेर्नस्टीन ने कबूतरों को ढेर सारी रंगीन स्लाइडें दिखाई और पेड़ वाली स्लाइड दिखने पर चकती पर चोंच मारने के लिए प्रशिक्षित किया । सही बताने पर उन्हें दाना खिलाया जाता था । जल्दी ही कबूतर इस कला में माहिर हो गए । वे मानव आकृतियों और झील आदि भी पहचानने लगे । पक्षियों में ऐसी याददाश्त केवल कबूतरों में ही देखी गई है । टेक्सास विश्वविद्यालय के डॉ. एंथनी राइट ने भी कबूतरों पर कुछ ऐसेे ही प्रयोग किए हैं । उनके अनुसार क्रम वगैरह को याद रखने की भूल प्रक्रिया मानव, बंदरों और कबूतरों की एक-सी ही है । पडर््यू विश्वविद्यालय की डॉ. आइकीन पेपरबर्ग ने एक अफ्रीकी तोते पर याददाश्त के कई प्रयोग किए । वे इसे प्यार से एलेक्स पुकारती थीं । यह तोता घरेलू इस्तेमाल की चालीस चीजों को उनके नाम से पहचानता था । यही नहीं, आकृति या रंग के हिसाब से उनका सही वर्गीकरण भी कर लेता था। जब - जब उसे हरा त्रिकोण दिखाकर पूछा गया कौन-सी आकृति ? जो उसने ८० फीसदी बार सही जवाब दिया । सही नतीजे रंग को लेकर भी मिले, वह लकड़ी या चमड़े से बनी चीजों में भी फर्क कर लेता था । तोते की याददाश्त ने वैज्ञानिकों को अचरज में डाल दिया है । जीव वैज्ञानिक रूप से पक्षियों की तुलना में बेहद कम विकसित मध्ुामक्खी की अनोखी याददाश्त प्रदर्शित करती है । डॉ. जेम्स गोल्ड उसे प्रयोगों से सिद्ध कर चुके हैं । उनकी राय में मधुमक्खियों के दिमाग में फूलों की आकृति या रंग उसी तरह अंकित रहते हैं, जैसे हमारे दिमाग में इस धारणा की जांच करने के लिए उन्होंने अलग-अलग बक्सो पर अलग-अलग फू्रलों के फोटो चिपकाए, मगर मधुमक्खियों का पसंदीदा मीठा सुक्रोज़ एक खास बक्से में था । बाद में बक्सा बदल देने पर भी मधुमक्खियां उसी बक्से पर भिनभिनाती थीं, जिस पर पहले वाला फोटो था । मखुमक्ख्यिों की इस स्मृति के पूरे रहस्य अभी नहीं खुले हैं । व्यवहार वैज्ञानिकों ने प्राणियों की याददाश्त क्षमता जानने के लिए ढेर सारे जीवों पर अध्ययन किए हैं । सबसे अधिक सफलता वानर यानी प्राइमेट वर्ग में देखने को मिली है । उल्लेखनीय है कि मानव भी इसी वर्ग का है । इसी वर्ग में सबसे ज़्यादा कुशलता भी देखी गई है । ऐसे कई प्रयोग दुनिया भर में मशहूर भी हुए हैं। सत्तर के दशक में नेवादा विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक गार्डनर दंपत्ति के वाशु नामक चिम्पैंजी ने उनके साथ बातचीत करके अंतर्राष्ट्रीय ख्यातति प्राप्त् की थी । उसे अंग्रेजी के ६० शब्दों का ज्ञान था और वह उनहें जोड़कर आसान वाक्य भी बना लेता था । पर वह शब्द उच्चरित नहीं करता था। संकेतों से बताता था ठीक वैसे ही जैसे बधिर लोग बातचीत करते हैं । वाशु ने यह सफलता २२ महीनों के प्रशिक्षण के बाद अर्जित की । वह अपने इस्तेमाल की चीज़ों को पहचानता था और ज़रूरत पड़ने पर सांकेतिक भाषा में उनकी मांग करता था। एक दिन गार्डनर दंपत्ति वाशु को प्रयोगशाला से घर ले आए ।सुबह उसने वाश बेसिन के पास खड़े होकर टूथ ब्रश की मांग की । वह खाना, पानी खालो, मैं , मेरे और तुम शब्दों का खूब इस्तेमाल करता था । गार्डनर दम्पत्ति ने यह भी देखा कि उसके शब्दों को याद रखने की क्षमता उपयोग के साथ बढ़ती ही गई । यानी हर चिपैंज़ी में याददाश्त की काफी क्षमता होती है, पर वे उनका सोचने-समझने में ज़्यादा इस्तेमाल नहंी कर सकते । प्रयोगों ने सिद्घ किया है कि जीव जगत में भी याददाश्त अपने जीवन को सुचारू रूप से चलाने में उपयोगी है । अगर मधुमक्खियों को ज़्यादा पराग वाले फूलों की शक्ल याद न रहे तो कितनी दिक्कत होगी ? अगर फुदकी अपने पड़ौसियों को न पहचाने तो कलह के मारे उसका जीवन दूभर हो जाएगा । चिम्पैंज़ी- गौरिला का सामाजिक जीवन सुचारू रूप से चलाने में भाषा का भारी हाथ है , पर उन्हें गिनती क्यों आती है यह बात अभी तक समझ में नहीं आई है । कबूतरों की याददाश्त की भूमिका उनके दूर-दूर के ठिकाने से वापस लौटने में हैं । मानव प्राणियों की इस अनोखी याददाश्त का इस्तेमाल करने का प्रयास कर रहा है । पर हमें यह नहीं मालूम हैं कि प्राणियों के दिमाग में सूचनाएं कैसे दऱ्ज होती हैं और ज़रूरत पडने पर वे इसका इस्तेमाल कैसे करते हैं । खास तौर पर मधुमक्खी जैसे छोटे और अविकसित मस्तिष्क में तो यह बात किल्कुल ही समझ में नहीं आती । दरअसल हमें अपनी याददाश्त के बारे में ज़्यादा नहीं मालूम, हालांकि कोशिशें जारी हैं । जब यह गुत्थी सुलझेगी, तो प्राणियों की याददाश्त से भी पर्दा उठेगा । ***पक्षियों की आवाज वाली पीयू सीडी पक्षियों की चहचहाने की ध्वनियों से युक्त सीडी `पीयू' मध्यप्रदेश में खासी लोकप्रिय हो रही है । इस सीडी को अब तक ७०० प्रतियां लोगों के लिए उपलब्ध कराई जा चुकी है । इस सीडी को मध्यप्रदेश जैव विविधता बोर्ड ने भारतीय वन प्रबंधन संस्थान के सहयोग से कड़ी मेहनत के बाद तैयार किया है । इस सीडी में आमतौर पर पाए जाने वाले पक्षियों सहित दुर्लभ पक्षियों की चहचाहट संकलित है ।

९ ज्ञान विज्ञान

फल धारीदार क्यों होते हैं ?
आपने ध्यान दिया ही होगा कि कई फलों पर धारियां होती हैं, जहां फल थोड़ा अंदर धंसा होता है । जैसे कद्दू, पपीता, कुछ टमाटर, खरबूज वगैरह । अब वैज्ञानिकों ने इसका कारण ढूंढ निकाला है वैसे कारण बहुत महत्व तो नहीं रखता परंतु यह रोचक ज़रूर है । सवाल यह था कि ये फल वृद्धि के दौरान अच्छा सपाट गोलाकार रूप क्यों नहीं लेते, क्यों इन पर धारियां बन जाती हैं । ये धंसी इुई धारियां इन फलों पर आम तौर पर एकसिरे से दूसरे सिरे तक फैली होती है और इन्हें खंडों में बांट देती है । वैसे तो पेड़-पौधों पर तरह-तरह के पेटर्न पाए जाते हैं । इन पेटर्न में गणित की नियमितता और जटिलता का ऐसा नज़ारा होता है कि मशहूर प्रकृतिविद् चार्ल्स डारविन ने कहा था कि ये पेटर्न `` अच्छे भले इंसान को पागल कर सकते हैं ।'' मगर कई वैज्ञानिकों ने इन पैटर्न पर शोध करके स्पष्ट किया है कि ये अत्यंत सरल भौतिक सिद्धांतों के परिणाम होते हैं । जैसे फूलों की धारियों को ही लें । कोलंबिया विश्वविद्यालय के ज़ी चेन व उनके साथियों ने तरह-तरह के फलों की धारियों के पेटर्न का अध्ययन किया। उनका कहना है कि किसी गुब्बारे की आकृति गोल होती है क्योंकि जब उसे फुलाया जाता है, तो वह चारों ओर एक सा फैलता है । मगर फलों की खास बात यह है कि उनका अंदरूनी भाग मुलायम गूदे का बना है जबकि छिलका अपेक्षाकृत कठोर होता है । ऐसा होने पर अंदरूनी भाग और छिलके के गुणधर्मोंा में अंतर की वजह से फल ठीक उसी तरह से अंदर की ओर पिचकता है जैसे किसी लकड़ी पर पुते रंग में सिलवटें पड़ जाती हैं, खासकर यदि लकड़ी बार- बार फैलती - सिकुड़ती हो । चेन व उनके साथियों ने पाया कि गोलाकार या अंडाकार फलों के मामले में धारियों का विन्यास तीन बातों पर निर्भर है - छिलके की मोटाई और गोले की कुल चौड़ाई का अनुपात , छिलके व अंदरूनी भाग की कठोरता में अंतर, और गोले की आकृति (यानी वह एकदम गोलाकार है या लंबा- सा है) चेन व साथियों ने एक समीकरण बनाई और उसमें इन तीन चीजों के अलग-अग परिमाण रखकर गणनाएं की तो देखा कि इनके आधार पर ठीक प्राकृतिक आकृतियां उभर आती है । यहां तक कि धारियों की संख्या भी उतनी ही निकलीं । तो लगता है कि वनस्पतियों की आकृतियां कुछ आसान से यांत्रिक नियमों से संचलित होती हैं । इस क्षेत्र में पहले भी कई अध्ययन हो चुके हैं । जैसे पूर्व में टेक्सास विश्वविद्यालय के माइकल मार्डर ने गणनाआें के आधार पर अनुमान व्यक्त किया था कि पत्तियों के कंगूरेदार किनारे भी इसी तरह के कारणों से बनते हैं । वृद्धि के दौरान लगने वाले भौतिक बल ही आकृतियों का निर्धारण करते हैं यानी सजीव जगत में शरीर रचना की विविधता की व्याख्या सरल नियमों के आधार पर की जा सकती है । चीटियां जानती हैं भीड़भाड़ का समाधान चीटियों ने एक ऐसी बड़ी समस्या का हल निकाल लिया है जिससे मनुष्य अभी तक पार नहीं पा सके हैं । हमारी कारें जाम में फंस जाती हैं जबकि चीटियां कितनी भी संख्या में हों, एक-दूसरे की मदद से अपनी बस्ती के चारों ओर काफी कुशलता से चल पाती हैं, यह समझकर हम अपने उलझे रोड ट्रफिक का बेहतर समाधान ढूंढ सकते हैं । ड्रेसडेन यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलाजी के सामूहिक व्यवहार के विशेषज्ञ ड्रिक हेलबिंग और उनके सहयोगियों ने इस बात का अध्ययन किया है कि चिटियां अपनी बस्ती के चारों तरफ कैसे भ्रमण करती हैं । इसके लिए उन्होंने चीटियों की बस्ती से लेकर शक्कर के घोल तक चींटियों के हाइवे बनाए । दो मार्ग बनाए गए- एक अधिक चौड़ा और दूसरा कम चौड़ा । जैसा कि होना था, संकरा रास्ता जल्द ही भर गया और वहां भीड़ इकट्ठी हो गई , लेकिन एक चींटी जो उसी रास्ते से बस्ती की ओर लौट रही थी, दूसरे ओर से आ रही चींटी से टकराई, उन्होंने रास्ते से ही वापस आना शुरू कर दिया । वापस आती चीटिंया नई चींटियों को चौड़े रास्ते की ओर जाने के लिए धक्का दे रही थी । इस प्रकार वापस आती चींटी ने आराम से अपना रास्ता तय किया और फिर किसी चींटी से नहीं टकराई । शोधकर्त्ताआें ने अधिक लम्बाई और जटिलता भरे रास्तों के कई कम्प्यूटर मॉडल तैयार किये और उन्होंने पाया कि कई बार चीटिंयां जाने के लिए लम्बे रास्ते का चयन करती हैं लेकिन इसके बावजूद वे भोजन तक शीघ्र और कुशलता से पहुंच जाती हैं । इसी प्रकार यदि भीड़ वाले रास्तों पर लौटते लोग भी एक दूसरे को को जाम की जानकारी देते चलें तो जाम से बचा जा सकता है ।क्या कुत्ते हमारी भावनाएं ताड़ लेते हैं ? कुत्ते पालने वाले कहते ही हैं कि उनके कुत्ते उनकी भावनाएं जान जाते हैं मगर ताज़ा अनुसंधान से पता चलता है कि कुत्ते हमारी भावनाएं ताड़ने में उसी विधि का सहारा लेते हैं जिसका हम लेते हैं । आम तौर पर देखा गया है कि जब इन्सान किसी व्यक्ति को देखते हैं , तो बाइंर् ओर से देखते हैं । यानी हम सामने वाले व्यक्ति के चेहरे के दाएं भाग को ज़्यादा घूरते हैं और संभवत: ज़्यादा समय उसी तरफ लगाते हैं । इसे `बांई बाजू झुकाव' कहते हैं । इसका कारण कोई नहीं जानता । वैसे इस संदर्भ में एक परिकल्पना यह है कि इन्सान के चेहरे का दायां भाग उसकी भावनाआें का बेहतर आईना होता है । देखा यह भी गया है कि `बाइंर् बाजू झुकाव ' उसी समय प्रभावी होता है जब हम इन्सानी चेहरों को देखते हैं , बाकी चीज़ें देखते समय ऐसा कुछ नहीं होता । हालांकि इन्सानों में `बाइंर् बाजू झुकाव' का काफी अध्ययन किया गया है मगर अभी तक जानवरों में इसका प्रमाण नहीं मिला था । अब यू.के. के लिंकन विश्वविद्यालय के कुनगुओ और उनके साियाथें ने अपने अध्ययन के आध्र पर बताया है कि पालतू कुत्तों में ऐसा झुकाव होता है । गुओ के दल ने १७ कुत्तों और बंदरों की शक्लों की तस्वीरें दिखाई । इसके अलावा कुछ निर्जीव चीज़ों के चित्र भी दिखाए गए । ऐसा करते हुए उन्होंने कुत्तों की आंखों व सिर की गतियों की फिल्म उतार ली । इन फिल्मों से पता चला कि कुत्तों में भी सशक्त ` बांई बाजू झुकाव' हाता है । मगर यह झुकाव तभी देखा गया तब उन्हें मनुष्य के चेहरे दिखाए गए। अन्य कुत्तों की तस्वीरें दिखाने पर ऐसा झुकाव नहीं देखा गया । गुओ को लगता है कि इन्सानों से हज़ारों पीढ़ियों के जुड़ाव के चलते शायद कुत्तों ने `बांई बाजू झुकाव' विकसित कर लिया होगा ताकि इन्सान के भावों को समझ सके । हाल के कुछ अध्ययनों में पता चला है कि हमारे चेहरे का दायां हिस्सा भावनाआें को ज्यादा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करता है । इस मामले में इन्सानों और कुत्तों में एक महत्वपूर्ण फर्क भी पता चला है । जब कुत्तेां केा किसी इन्सान का चेहरा उल्टा (यानी सिर नीचे की ओर) दिखाया गया तब भी वे बांई ओर से ही देखते रहे। इसके विपरीत, ऐसी परिस्थिति में इन्सानों में यह झुकाव पूरी तरह नदारद हो जाता है। वैसे अन्य पालतू कुत्ता विशेषज्ञों को लगता है कि यह अध्ययन रोचक ज़रूर है मगर इससे कुछ निष्कर्ष निकालनाजल्दबाज़ी होगी । जैसे एक विशेषज्ञ का कहना है कि कुत्ते अपने मालिक का चेहरा जरूर पहचानते हैं मगर अभी तक इस बात का प्रमाण नहंी है कि वे चेहरे के भाव भी देखते हैं । बहरहाल , कुत्तों में `बांई बाजू झुकाव' तो एक हकीकत है । ***

१० खास खबर

लुप्त् चीता देश में फिर आएगा
हमारे विशेष संवाददाता द्वारा
देश में ५७ साल पहले विलुप्त् हो चुके एशियाई चीते को राजस्थान लाने की तैयारी चल रही है । सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो अगले छह महीने में एशियाई चीता ईरान से लाकर राजस्थान में छोड़ दिया जाएगा । एशियाई चीते को राजस्थान लाने के लिए वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने सहमति जता दी है । अब राज्य सरकार की इस संबंध में वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया देहरादून एवं अफ्रीका की एक कंपनी से बात चल रही है । साथ ही इस योजना का परीक्षण भी कराया जा रहा है । आजादी के कुछ वर्षोंा बाद तक पश्चिमी राजस्थन एवं गुजरात के कुछ क्षेत्रों में एशियाई चीते थे, लेकिन उस समय शिकार पर रोक नहीं होने के कारण प्रभावशाली लोगों एवं शिकारियों ने जमकर इनका शिकार किया । कुछ राजघरानों ने इन चीतों को पालतू भी बना रखा था । इसके जरिए वे काले हिरण एवं चिंकारा आदि वन्यजीवों का शिकार करते थे । इन चीतों को सजाया भी जाता था । जयपुर में रामगंज से चौपड़ के रास्ते पर आज भी चीते वालों का खुर्रा मौजूद है। भारत में १९५२ में इसे विलुप्त् प्रजाति घोषित कर दिया गया । ईरान में अभी मूल प्रजाति के एशियाई चीते हैं । वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रंजीत सिंह इस संबंध में राज्य का दौरा भी कर चुके हैं । उन्होंने जोधपुर एवं बीकानेर में एशियाई चीते के लिए जगह देखी । इनमें से बीकानेर के पास गजनेर में जगह को चिहि्न्त किया गया। यह जगह करीब तीन सौ हेक्टेयर है । गजनेर में ईरान से लाकर एशियाई चीता छोड़ा जाएगा । चीता सबसे फुर्तीला जानवर है । यह ढाई सेकेंड में ४५ मील की गति पकड़ लेता है तथा ७० मील प्रतिघंटा की गति से दौड़ सकता है । अपने शिकार को यह भागकर पकड़ता है । इसका वजन ८० से १२५ किग्रा तक होता है । लंबी टांगों और पतला आकार इस चीते की खासियत है । इसकी मूल पैदाईश अफ्रीका की है । ***

११ प्रदेश चर्चा

पंजाब : बिना कार के फाजिल्का शहर
अरनब प्रति दत्ता
फाजिल्का भारत- पाकिस्तान की सीमापर फिरोजपुर जिले स्थित १६२ वर्ष पुराना छोटा सा शहर है । इसकी संकरी कचरा छितराई सड़क जिनके कि आसपास छोटी-छोटी अनगिनत दुकानें स्थित हैं, में कहीं से कुछ समाान्य नहीं दिखता । परंतु ६८००० की आबादी और अपनी संकरीय गलियों में ४५००० वाहनों को समेटने वाले शहर ने भीड़-भाड़ के एक स्त्रोत से छुटकारा पा लिया है । यह स्त्रोत है `कार' । पिछले वर्ष २१ नवम्बर को यहां के मुख्य बाजार `घंटाघर' में कारों के प्रवेश पर सुबह १० बजे जब बाजार खुलता है से शाम ७ बजे तक जब दुकानदार घर लौटते हैं, के बीच प्रतिबंध लगा दिया गया है । शुरू-शुरू में दुकानदारोंं द्वारा इस भय को दृष्टिगत रखते हुए विरोध किया गया कि इससे उनकी ग्राहकी पर बुरा असर पड़ेगा । फाजिल्का की यह अनूठी कहानी का आरंभ २००६ मेें एक उत्सव के दौरान हुआ । उस वर्ष मार्च के अंतिम सप्तह में ग्रेजुएट वेल्फेयर एसोसिएशन नामक एक नागरिक समूह जिसके २५० सदस्य हैं ने फाजिल्का विरासत समारोह का आयोजन किया । इस हेतु साधु आश्रम मार्ग जो कि वर्तमान कार फ्री जोन से बहुत दूर नहंी है के ३०० मीटर के हिस्से को पैदल मार्ग में परिवर्तित कर दिया गया । भूपेन्द्रसिंह जो कि आई.आई.टी. रूड़की के अवकाश प्राप्त् प्राध्यापक हैं एवं इस समारोह के मुख्य आकल्पक थे, का कहना है कि यह उत्सव अत्यंत सफल रहा । कार के बिना यहां हर एक के लिए काफी जगह थी । वहां पर अनेक स्टॉल्स थे जो खाने पीने के पदार्थोंा से लेकर हस्तशिल्प तक सब कुछ बेच रहे थे और इसके बावजूद वहां इतनी जगह बची हुई थी जिसमें लोग सड़क पर कुचले जाने के डर के बिना नाच रहे थे । उत्सव अगले वर्ष भी हुआ । इस बार आयोजन स्थल में परिवर्तन कर इसे घंटाघर के पास ही स्थित सालेम शाह ईस्ट वेस्ट कारिडोर पर आयोजित किया गया था । इस बार कार फ्री जोन का विस्तार एक किलोमीटर तक कर दिया गया । उत्सव को इस बार भी जबरजस्त सफलता मिली चंढ़ीगढ़ में बसे पंजाब पथ एवं सेतु विकास बोर्ड के परियोजना अधिकारी नवदीप आसीजा जो कि २००६ से ही इस नगर की यातायात समस्या का अध्ययन कर रहे थे का मालना है कि तर्कसंगत बात तो यही है कि सबसे पहले शहर के सबसे भीड़-भाड़ वाले इलाके को वाहनों से मुक्ति दिलाई जाए । उनका कहना है कि फाजिल्का करीब १०.२९ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जिसकी दोनों ओर की लम्बाई ३ किलोमीटर से थोड़ी ज्यादा है । यह आसानी से एक पैदल चलने वाला शहर बन सकता है और वाहनों का प्रयोग मात्र माल की ढुलाई के लिए ही किया जाए । मात्र उत्सव से स्थायी `कार फ्री जोन' सुनिश्चित नहंी किया जा सकता था एसोसिएशन ने नगर पालिका को एक कार फ्री जोन बनाते हुए तैयार किया । हां एक ओर व्यापारी इस पहल से डरे हुए थे क्योंकि उन्हें इससे ग्राहकी में कमी दिखाई पड़ रही थी वहीं नगरपालिका को भी विरोध का डर सता रहा था । यह यथास्थिति तब टूटी जब अनिल सेठी ने नगर पालिका समिति के अध्यक्ष का पद संभाला । सेठी जो स्वयं व्यापारी हैं ने जब एसोसिएशन के क्रार फ्री जोन के विचार के बारे में सुना तो उनकी इसमें रूचि जागी और वे इसे क्रियान्वित करने में जुट गए । उनका मानना था कि यह योजना घंटाघर के दुकानदारों के लिए फायदेमेंद होगी और इसके इलाके की भीड़भाड में भी कमी आएगी । श्री सेठी का व्यापारियों से साहचर्य उन्हें इस हेतु तैयार करने में सहायक हुआ । श्री सेठी ने एसोसिएशन के सदस्योें एवं व्यापारियो के साथ काफी बैठकें की जिससे कि आपसी सहमति बन सके । सेठी का कहना है थोक व्यापारी मुख्यत: इस योजना के खिलाफ थे । उनका विचार था कि इससे उनके माल के आवागमन में रूकावट आएगी । पर हमने उन्हें तैयार कर लिया । घंटाघर बाजार में तीन मुख्य मार्ग है जो कि तीन भिन्न दिशाआें से आते हैं । घंटाघर को चौतरफा घेरने वाली २०० मीटर की गली अब वाहन मुक्त है क्योंकि तीनोंे सड़कों पर बेरीकेड्स लगा दिए गए है । उत्तर को होटल बाजार और दक्षिण को वुलन (ऊन) बाजार से जोड़ने वाली ८०० मीटर लम्बी सड़क पर भी बेरिकेट्स लगा दिए गए हैं । पूर्व में स्थित सालेम शाह मार्ग जो कि सरफान बाजार से प्रारंभ होता है, के ४०० मीटर के हिस्से पर भी रोक लगा दी गई है । चौथी सड़क पहले ही मंदिर के द्वारा बाधित है। घंटाघर बाजार के व्यापारी जो एक वक्त सशंकित थे, अब इस रोक से प्रसन्न हैं । वैसे फाजिल्का में प्रदूषण की कोई आधिकारिक गणना तो नहीं होती परंतु दुकानदारों का दावा है कि अब वातावरण पहले से स्वच्छ है । एक स्थानीय दुकानदार का कहना है कि वह अपने कर्मचारियों और ग्राहकों के लिए पानी का बदलना पड़ता था क्योंकि वह गंदा हो जाता है । परंतु अब दिन भर रखे रहने के बाद भी गंदा नहीं दिखता । इतना ही नहीं उनका कहना हैं कि रोक लगने के बाद उनकी बिक्री में २५ प्रतिशत की वृद्धि भी हुई है । पास ही में चाट का ठेला लगाने वाले भी इस बात का समर्थन करते हैं । उनका कहना है कि लोगों के पास अब अधिक समय है । वे आते हैं और बिना इस चिंता के खाने का मजा लेते हैं कि कहीं उनकी कार से सड़क पर जाम तो नहीं लग रहा ? एक अन्य दुकानदार का कहना है कि फाजिल्का एक छोटा सा शहर है और यहां व्यक्ति आसानी से एक सिरे से दुसरे सिरे तक पैदल घूम सकता है । इस कार फ्री जोन ने कई नए सपनों को जन्म दिया हैं । अब यह बात चल रही है कि घंटाघर बाजार को मात्र पैदल मॉल में बदल दिया जाए जहां जगमगाती दुकाने हों, जिनमेें सूती रूमाल से एलसीडी टेलीविजन तक सब कुछ मिलता हो । एक बाजार के एक हिस्से को फूड जोन में बदल दिया जाए । असीजा का कहना है कि अगले चरण में ८०० मीटर लंबी बैंक स्ट्रीट का नियमन किया जाएगा । सारे शहर की आकांक्षा है कि नगरपालिका अध्यक्ष श्री सेठी को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मेयर का पुरस्कार मिले क्योंकि उन्होंने शहर के एक भाग को सफलतापूर्वक पर्यावरण की दृष्टि से स्वास्थ्यप्रद क्षेत्र में बदल डाला है । ***पद्मविभूषण से अलंकृत पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा को बधाई केंद्र सरकार ने २६ जनवरी ०९ को गणतंत्र दिवस पर प्रसिद्ध पर्यावरणविद्, चिपको नेता सुंदरलाल बहुगुणा को `पद्मविभूषण' से अलंकृत करने की घोषणा की है । इस सम्मान पर श्री बहुगुणा को पर्यावरण डाइजेस्ट परिवार की ओर से हार्दिक बधाई । इस सम्मान के लिये उनके मित्रों एवं प्रशंसकों ने बधाई दी है । टिहरी स्थितं गंगा किनारे कुटी बनाकर रह रहे श्री बहुगुणा इन दिनों देहरादून में स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं । ज्ञातव्य है कि श्री बहुगुणा को `पद्मश्री' सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है ।

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

१२ महिला जगत

महिला वैज्ञानिकों की समस्यायें
विनीता बाला
कुछ वर्ष पहले की बात करें तो भारतीय महिला वैज्ञानिकों की कमी का ज़िक्र उनकी सालाना फोरम की बैठक में ही हुआ करता था । लेकिन कुछ वर्षोंा से चीजें बदल रही हैं, वह भी बेहतरी की दिशा में । वर्ष २००३ में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली ने भारत में विज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रही महिलाआें की स्थिति का पता लगाने के लिए एक समिति का गठन किया था । लगभग इसी समय इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस, बैंगलूर ने भी कुछ इसी तरह के व्यापक उद्देश्यों को लेकर विज्ञान में कार्यरत महिलाआें भौतिक शास्त्रियों ने १९९९ से ही अंतर्राष्ट्रीय नवाचारों में कंधे-से-कंधा मिलाकर अपनी हिस्सेदारी शुरू कर दी थी । इससे भी बहुत पहले सन् १९७३ में ही इंडियन वीमेन सांइटिस्ट एसोसिएशन (खथडअ) की स्थापना मुम्बई में हो चुकी थी । जिसकी सदस्य संख्या २०००से ज्यादा हैं । यह दु:खद है कि इतनी जल्दी शुरूआत हो चुकने और सदस्य संख्या के बाबजूद खथडअ ने महिलाआें को विज्ञान के क्षेत्र और में आगे लोने के लिए समक्ष दबाव समूह की तरह काम नहीं किया ।स्कूल छोड़ने की ऊंची दर, विज्ञान के क्षेत्र में कुशल महिलाआें की कमी, रोजगार के कम अवसरों और तरक्की की नवीन संभावनाआें को राष्ट्रीय स्तर तक एक चिंताजनक विषय के रूप में २१ वीं सदी में ही लिया गया । इस क्षेत्र में एक बड़ा कदम उठाते हुए विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी मंत्रालय ने दिसम्बर ०५ विज्ञान में महिलाआें पर एक टास्क फोर्स गठित किया । इसका प्रमुख कार्य ऐसी सलाह देना था जो लैंगिक समानता लाने,महिलाआें की क्षमताआें के हो रहे-नुकसान को बचाने और महिलाआें को विज्ञान एक कैरियर के रूप में अपनाने हेतु प्रोत्साहित करने में मददगार हो भारतीय महिला वैज्ञानिकों की स्थिति अन्य विकसित और विकासशील देशों की महिला वैज्ञानिकों से बहुत अलग नहीं है । बल्कि महिला वैज्ञानिकों को जिन समस्याआें का सामना करना पड़ रहा है लगभग वैसी ही परिस्थितियां अन्य भारतीय कामकाजी महिलाआें के साथ भी बनती हैं । भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाजों में महिलाआें की भूमिका पुरूष के सहयोगी या अधीनस्थ की रही है । परिवार में उसका मुख्य काम अन्य लोगों की देखभाल करना और सेवा करना है, न कि पैसे कमाना । हर परिवार बालिका के आगमन पर खुशी नहीं मनाता जैसा कि वर्ष २००१ की जनगणना से प्राप्त् लिंग अनुपात के आंकड़े बताते हैं । आंकड़ों के अनुसार शहरी भारत में ०-६ वर्ष के बीच १००० बालकों पर सिर्फ ९०६ बालिकाएं हैं । अलबत्ता, शहरी मध्यम वर्गीय परिवार अपनी लड़कियों को शिक्षा दिलाने के प्रति उत्साहित हैं । वर्ष २००१-०२ में भारतीय विश्वविद्यालयों में विज्ञान क्षेत्र में हुए कुल नामांकन का ३९.४ प्रतिशत हिस्सा लड़कियों का था। लेकिन विज्ञान में उच्च् शिक्षा प्राप्त् करने से सामाजिक सोच नहीं बदलता । विज्ञान में एक उच्च् शिक्षित मां अपने बच्च्े की शिक्षा के समय उसकी अच्छी मददगार जरूर साबित हो सकती है लेकिन उसे इतनी स्वतंत्रता नहीं है कि अपनी उन्हीं क्षमताआें का उपयोग बाहर एक नौकरी में कर सके ।ऐसे परिवारों में भी, जहां महिलाएं काम कर रही हैं और अपनी आय से परिवार की बेहतर जीवन शैली में भरपूर योगदान दे रही हैं, वहां भी उनकी आय को सिर्फ द्वितीयक आय के रूप में ही देखा जाता है । शहरी मध्यम वर्गीय भारत का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है और ये उन्ही परिवारों का समूह है जो विज्ञान और टेकनॉलॉजी को सबसे ज्यादा महिला कर्मी उपलब्ध करा रहा है । यदि सभी शिक्षित मध्यमवर्गीय कामकाजी महिलाआें की समस्याएं एक ही सामाजिक मानसिकता की उपज हैं तो ऐसे में महिला वैज्ञानिकों को अलग से विेशेष तरजीह देने की ज़रूरत बनती है क्या ? मुझे लगता है कि उनके विशेष कामकाज के चलते शायद यह ज़रूरत बनती है । विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधानकर्ता का काम एक ऐसा काम है जिसमें खोज के विषयक े बारेमें लगातार पढ़ते रहना पड़ता है, चिंतन करना पड़ता है, लगातार अपने ज्ञान को उन्नत करते हुए उसे सुदृढ़ करना पड़ता है । इस क्षेत्र में सम्मानजनक उत्पादकता हासिल करने के लिए अत्यधिक मानसिक दबाव होता है और समय की जरूरत पड़ती है । यदि विज्ञान से जुड़ी महिलाआें से ८ घण्टे के सामान्य कार्यालयीन समय की ही उम्मीद की जाए क्योंकि उसके ऊपर घर परिवार और बच्चें की जिम्मेदारियां भी हैं तो वह अपने कार्यक्षेत्र में अन्य लोगों से मिलने-जुलने व अन्य काम करने का समय नहंी निकाल पाएगी और बहुत हद तक संभावना है कि वह अपने पुरूष सहकर्मियों के बराबर सफल नहंी हो सकेगी । यदि नौकरी मिलने के बाद भी महिला वैज्ञानिक स्वयं को अपने नियोक्ता को कार्य संतुष्टि नहंी दे पाती तो इसमें नुकसान किसका है ? वास्तव में यह सिर्फ संस्था और कर्मचारी का नहंी बल्कि समाज का भी नुकसान है क्येांकि ये महिलाएं काफी खर्च करके तैयार किए गए कार्यकर्ता दल की सदस्य हैं । सामान्यतया उनका प्रशिक्षण या तो शासकीय या शासकीय सहायता प्राप्त् संस्थाआें में हुआ होता है । विज्ञान और टेक्नॉलॉजी में स्नातकोत्तर उपाधि हो या डॉक्टरेट, इसे करने वाले व्यक्ति द्वारा और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार द्वारा काफी धन खर्च किया जाता है ।और अब यदि यह महिलाकर्मी अनुत्पादक साबित हो या उसका पूरा और सही उपयोग न हो, तो यह राष्ट्रीय सम्पदा की भारी क्षति है । क्या किया जाए ? हाल ही में यह बात देखने में आई है कि विज्ञान स्नातक कोर्सेज़ में दाखिला लेने वाले लड़के और लड़कियों के अनुपात में शहरी मध्यमवर्गीय परिवारों में ज्यादा अंतर नहीं है । इनमें बहुत अधिक और दुखद अंतर सामाजिक रूप से पिछड़े लेगों में देखा जाता है जहां लड़कियों का स्कूलों में प्रवेश ही बहुत कम संख्या में हो पाता है । आगे बढ़ने पर यह संख्या तो और भी निम्न स्तर तक पहुंच जाती है । इसी तरह का एक बड़ा महिला श्रम शक्ति का नुकसान डॉक्टरेट व उसके बाद देखा जा सकता है । जीव विज्ञान की कुछ प्रतिष्ठित संस्थाआें से प्राप्त् आंकड़ों से जो तस्वीर बनती है उसके अनुसार पी.एच.डी. के लिए होने वाले कुल नामांकन में से ५० प्रतिशत महिलाएं हैं । इन संस्थाआें में फैकल्टी के रूप में लगभग २५ प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं । प्राकृतिक विज्ञान की अन्य शाखाआें में भी लगभग यही आंकड़े होंगें । विज्ञान के क्षेत्र में ऊँची से ऊँची डिग्रियां लेने में आगे रहने के बावजूद केवल कुछ महिलाएं ही क्षमता के अनुरूप व्यवसायिक अवसर प्राप्त् कर पाती हैं । स्थिति तब और बदतर हो जाती है जब इतना सब कुछ करने के बावजूद बच्चें के लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं के सिर थोप दी जाती है । इस प्रकार भारतीय विज्ञान संगठनों के समक्ष बड़ी चुनौती विज्ञान में उच्च् शिक्षित महिलाआें की उपलब्धता की नहीं है, बल्कि यह है कि उन्हें चुनकर काम में शामिल करें और नौकरी में बरकरार रखें यदि कोई शादीशुदा युगल इस क्षेत्र में नौकरी कर रहा है या नौकरी की तलाश कर रहा है तो हमारे पास कुछ ऐसी नीतियां होनी चाहिए कि उन्हें एक ही संस्थान या शहर में काम उपलब्ध कराया जा सके ।किसी व्यक्ति के संभावित नियोक्ता यह कदम उठा सकते हैंउसकी पत्नी/पति को भी वही रोजगार मिल जाए ताकि कार्यबल में महिलाआें का प्रवेश बढ़ाया जा सके । परिसर में ही रहने की व्यवस्था यकीनन उनके जीवनस्तर को सुधार सकती है ।परिसर में ही घर देते समय संस्थाएं महिलाआें को वरीयता दें । यदि अच्छे साफ सुथरे बालगृह और डे-केयर होम्स जैसी सुविधाएं घर या कार्यस्थल के नज़दीक उपलब्ध कराई जा सके तो यह एक और मददगार कदम होगा। बच्च्े जब तक कुछ बड़े न हो जाएं तब तक उन्हें शिशु पालन भत्ता उपलब्ध कराना एक अन्य सुविधा हो सकती है । महिलाआें के लिए स्वस्थ और अनुकूल वातावरण उन्हें काम के लिए प्रोत्साहित कर सकता है । इसके लिए संस्था मे ंसमय-समय पर जेंडर संवेदनशील कदम जरूरी है । किसी भी संस्था में काम का महिला - अनुकूल वातावरण और समुचित सुरक्षा उपलब्ध कराना संस्था प्रमुख की जिम्मेदारी होनी चाहिए ।विकल्प जरूरी कुछ महिलाएं पोस्ट - डॉक्टरल प्रशिक्षण के बाद विज्ञान से अपना नाता तोड़ लेती हैं क्योंकि एक अंतराल के बाद उन्हें फिर से काम नहीं मिल पाता । इस प्रकार से प्रशिक्षित महिला शक्ति की हानि को कम से कम किया जाना चाहिए । देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग तरह के रिफ्रेशर कोर्स चलाए जा सकते हैं, इस तरह से स्थानीय रोजगार की जरूरतों को भी पूरा किया जा सकता है । जहां विज्ञान में मिली शिक्षा का अधिक लाभ मिल सके । जैसे - विधि और पेटेन्ट नियम की जानकारी , विज्ञान पत्रकारिता आदि । कई ऐसे काम हैं जो पार्ट-टाईम आधार पर दो कर्मचारियों द्वारा आसानी से किए जा सकते हैं । ऐसे कार्योंा के लिए दो महिलाआें का चयन कर उन्हें यह ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती हैं । यह एक सकारात्मक कदम होगा । कुछ काम ऐसे भी होते हैं जिनके कार्य समय में शिथिलता दी जा सकती है । ऐसे कामों में महिलाआें को प्राथमिकता दी जानी चाहिए । पितृत्व अवकाश जो प्रत्येक बच्च्े के जन्म के बाद पिता को उपलब्ध कराया जाता है , भारत में बहुत कम लोग इसका लाभ उठाते हैं । इसमें कुछ सुधार करते हुए इन छुटि्टयों को चाइल्ड केयर के नाम से बढ़ाकर कुछ वर्षोंा का किया जा सकता है ताकि इसका वास्तव में सदुपयोग हो सके और महिलाआें को भी रोज़गार में अपनी पुरानी स्थिति को बरकरार रखने में मदद मिल सके । इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि कामकाजी महिलाआें को काम में बहुत से विकल्पों की ज़रूरत होती है । ऐसे में योजना बनाने और उन्हें लागू करने वालों की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि उन्हें विधि विकल्प उपलब्ध कराए ।फायदा किसे होगा महिलाओ को विज्ञान के क्षेत्र में बनाए रखने और उन्हें वापस लाने के लिए अपनाए जाने वाले उपायो और तरीकों की घोषणाएं बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हो सकती है । ऐसा होने पर उन सरकारी एवं शासकीय वित्त पोषित संस्थाआें का वास्तविक मतलब भी निकल सकेगा । पिछले एक दशक पर नज़र डालें तो विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे ज़्यादातर विकास निजि संसाधनों से हो रहे हैं । इनमें सूचना प्रौद्योगिकी, दवा कंपनियों,क्लीनिकल शोध संस्थाआें और बायोटेक संस्थानों और रोज़गार के अवसरों का सृजन हो रहा है । ये इसी प्रकार आगे भी प्रगति करते रहेंगें क्योंकि वर्तमान वैश्विक मंदी ज़्यादा दिनों नहीं टिकने वाली ऐसे परिवेश में प्रशिक्षित महिलाआें को कुछ अतिरिक्त सुविधाएं देकर कार्य में बरकार रखना निजी संस्थाआें के लिए भी लाभप्रद होगा । ऐसे उपायों की सिर्फ घोषणा कर देना ही काफी नहंी है बल्कि एक ऐसे निगरानी तंत्र की ज़रूरत भी होगी जो दक्षता संवर्धन के लिए उपलब्ध कराई जा रही सेवाआें को लागू करने के आंकड़े इकट्ठे कर प्रत्येक पांच वर्षोंा में इनका परीक्षण और प्रभाव का अध्ययन करे, आवश्यक होने पर इनमें बदलाव की सिफारिश करे । महिला शक्ति के बिखराव को रोककर उसका संचय कर विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही प्रशिक्षित महिलाआें के अनुपात को बढ़ाना सिर्फ महिलाआें के हित में ही नहीं बल्कि पूरे समाज के हित में है । इससे न सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था को फायदा होगा बल्कि सामाजिक विकास भी आएगा । जितनी अधिक महिलाएं आर्थिक स्तर पर स्वतंत्र, स्वायत्त और आत्मनिर्भर होगी, समाज में उतनी बेहतर लिंग समानता स्थापित हो पाएगी । ***पाठकों से पर्यावरण डाइजेस्ट की सदस्यता अवधि समाप्त् होने पर भी अभी तक जिन सदस्यों ने अपनी सदस्यता का नवीनीकरण नहीं कराया है, वे शीघ्र ही राशि भेजकर नवीनीकरण करवा लें ।- प्र. सम्पादक

१३ कविता

पॉलीडॉ. जगदीश लवानिया
डॉ. जगदीश लवानिया
खतरनाक हैं बहुत ही, पॉलीथिन उत्पाद ।गैस विषैली छोड़ते, जलने के भी बाद ।।पॉलीथिन गलता नहीं, दो जमीन में गाढ़ । बीजों की तो क्या चले, उग नहीं सकते झाड़ ।।थैले पॉलीथीन के , फैलाते बहुरोग ।फिर भी हम क्यों कर रहे, इनका अति उपयोग।।पॉलीथिन - अपशिष्ट से , नाली हों अवरूद्ध ।रूका हुआ जल बनाता, पर्यावरण अशुद्ध ।।पॉलीथिन के मत बनो, इतने आप गुलाम ।जिसके अधिक प्रयोग से लगेबिगड़ने काम ।।पॉलीथिन अपशिष्ट ने खतरा दिया बढ़ाय ।पर्यावरण विशुद्घ हो, ऐसा करो उपाय ।।प्रतिबन्धित हो जाएगी ,जिस दिन पॉलीथिन ।उस दिन दीखे देश की धरा ग्रीन ही ग्रीन ।।सब्जी लेने हेतु अब, थैला लीजे हाथ ।प्लास्टिक -पॉलीथिन का , छोड़ दीजिए साथ ।।प्लास्टिक कचरा बन गया, धरती का अभिशाप।सभी प्रदूषण से घिरे , हम हों या फिर आप ।।पॉलीथिन अपशिष्ट से , धरती पटती जाय ।उचित प्रबन्धन हो सके, ऐसा करो उपाय ।।
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१५ पर्यावरण समाचार

देश में हर वर्ष पाँच करोड़ टन कचरा
देश में छोटे-छोटे गली- मोहल्लों से लेकर देश की औद्याोगिक नगरियों तक कचरा एक बड़ी समस्या बन गया है । भले ही सबके लिए कचरा की मात्रा थोड़ी होती हो, लेकिन यदि इसे एकत्रित रूप में देखा जाए तो हमारे देश में प्रतिवर्ष करीब पाँच करोड़ टन कचरा निकलता है । दुनिया के १०५ देशों का कचरा हमारे समुद्र तटो ंपर कानूनी, गैर कानूनी ढंग से उतारा जा रहा है । यह कचरा इतनी तेजी से फैल रहा है कि भविष्य में जलसंकट के बाद यह दूसरी बड़ी समस्या पैदा हो जाएगी । भारत भवन की पत्रिका `पूर्वग्रह' के अनुसार भारत में १९९७ से २००५ के बीच कचरे के अनुपात में ६२ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । सामान्य मानदंडों के हिसाब से कचरे का ३८ प्रतिशत पुनर्उत्पादन के जरिए दोबारा इस्तेमाल होना चाहिए और करीब ४ प्रतिशत को जला दिया जाना चाहिए, जबकि शेष ५८ प्रतिशत कचरा जमीन के अंदर दबाया जा सकता है । इसके लिए कचरे के जैविक एवं सिंथेटिक, प्लास्टिक अंशों को अलग किया जाना पहले सबसे जरूरी है, लेकिन इनमें से किसी भी हिससे पर नियंत्रण की कोई व्यवस्था हमारे समाज में नहीं है । पत्रिका में कहा गया है कि प्लास्टिक उद्योग भी इस कचरे के लिए जिम्मेदार है । दरअसल देश का दमदार प्लास्टिक उद्योग जिसमें कई दिग्गज शामिल हैं, सत्ता के उच्च्तम गलियारों तक अपनी पहुंच रखता है । देश के कई राज्यों में प्लास्टिक खाने से प्रतिदिन कई गायें मरने लगी हैं । पत्रिका के अनुसार सिर्फ दिल्ली शहर में तीन लाख कचरा बीनने वाले हैं, जो हर रोज कूड़े के ढेरों से प्लास्टिक का कचरा बटोर कर इसे उत्पादकों या ठेकेदारों को लौटाते हैं । इनमें से आधे से अधिक बच्च्े हैं और शेष महिलाएं तथा बूढ़े हैं जिन्हें यह समाज किसी भी अन्य काम के काबिल नहीं समझता । कचरा बीनने का यह जरिया ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन है । जब तक भारत में कचरा फेंंकने वालों को सजा नहीं दी जाएगी, तब तक इस समस्या से निजात पाना आसान नहीं है । इसके लिए विदेशों से कई बातें सीखी जा सकती हैं , जैसे सिंगापुर की शहरी सीमाआें के भीतर कचरा या कागज का एक टुकड़ा अनाधिकृत रूप से फेंकने पर न्यूनतम दंड सौ डॉलर यानी पाँच हजार रूपए के करीब है । वहीं जर्मनी में जमीन पर तेल फेंकने के जुर्म में भारी दंड के अलावा जेल भी जा सकते हैं । इसी डर की हमारे देश में भी जरूरत है । ***