सोमवार, 11 फ़रवरी 2013



प्रसंगवश
कन्या छाया - प्रकृतिको बचाने की अभिनव योजना
 कन्या-छाया समाज में लड़कियों व वृक्ष वनों प्रकृतिदोनों को बचाने व बढ़ाने को प्रोत्साहित करने के लिए नगर परिषद्, परवाणु जिला सोलन (हि.प्र.) द्वारा शुरू की गई योजना है ।
    नगर परिषद के कार्यकारी अधिकारी पुरूषोत्तमसिंह चौधरी के अनुसार नगर मेंजन्म लेने वाली प्रत्येक लड़की जो जनवरी २०११ के बाद पैदा हुई है, उससे एक पौधा लगवाया जायेगा तथा कन्या को राशि ३१००/- रूपये की एफ.डी.आर. १८ वर्ष के लिए एक प्रमाण पत्र जिसमें पेड की किस्म, स्थान, दिनांक व लड़की के बारे में सारी जानकारी लिखी होगी, साथ ही पेड़ लगाते हुए फोटोग्राफ प्रदान किया जायेगा ।
    कन्या द्वारा लगाये गये पौधे का फोटो परिषद के रिकार्ड में दर्ज होगा और उसकी देखभाल भी परिषद करेगी । इसके लिए बजट का प्रावधान किया गया है । इसके साथ ही जो लड़कियॉ नगर में शादी के बाद बहुआें के रूप में आयेगी उनसे भी एक पेड़ लगवाया जायेगा उसका भी नगर परिषद  में रिकार्ड रखा जायेगा, उनको केवल विवाह पंजीकरण प्रमाण पत्र के साथ पौधारोपण का प्रमाण पत्र दिया जायेगा ।
    श्री चौधरी ने बताया कि इस निधि में कोई भी व्यक्ति चाहे तो राशि दे सकता है । स्थानीय निकायें व पंचायत अपनी निधि से थोड़ी सी राशि खर्च कर बहुत बड़ा काम समाज व प्रकृति को बचाने का कर सकती है और बिना किसी अतिरिक्त राशि दिये पंचायती संस्थाआें  व स्थानीय निकायों की जिम्मेदारी तय कर दे और इस कार्य का आडिट व निरन्तर मानीटरिंग शुरू हो जाये तो समाज में कन्याआें का मान भी बढ़ेगा व लाखों वृक्ष जो सरकारी बजट खर्च कर भी नहीं बचा पा रहे है, वह बचेगे तथा हर जगह कन्याआें के नाम पेड़ों के उपर नजर आयेंगे ।
संपादकीय
सेलफोन टॉवर के खतरों से सर्तकता जरूरी
     मानव इतिहास में पाषाण काल, पुनर्जागरण काल, अधंकार युग, औद्योगिक युग, अंतरिक्ष युग आदि कुछ प्रसिद्ध काल खंड हैं । लेकिन मानव इतिहास के बीते दस हजार वर्ष के काल में विद्युत-चुंबकीय युग जैसा कोई काल खंड सुनने में नहीं आया है । जबकि इसके बारे में हमें जानकारी होनी चाहिए क्योंकि हम इसी युग के मध्य में हैं और अपने पूर्वजों की तुलना में हम कदाचित दस करोड़ गुना ज्यादा विद्युत-चुंबकीय ऊर्जा को अवशोषित कर रहे हैं । विद्युत-चुंबकीय युग का अर्थ आधुनिक जीवनशैली से लगाया जा सकता है ।
    यदि आप टेलीविजन देखते हैं, टेलीफोन का उपयोग करते हैं, इंटरनेट विचरण करते हैं, मस्तिष्क की स्कैनिंग करवाते हैं या माइक्रोवेव का उपयोग करते हैं तो इसका मतलब है कि आप विद्युत-चुंबकीय तरंगों का उपयोग करते हैं । मनुष्य का शरीर अपने आप में एक विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र होता है, लेकिन सेलफोन एवं सेलफोन टॉवर से निकलने वाले विद्युत-चुंबकीय विकीरण की अनवरत बौछार से हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है । एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में सेलफोन टॉवर की विकीरण सीमा अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों द्वारा सुरक्षित मानी गई सीमा से ९०० गुना ज्यादा है ।
    विश्व के २९ स्वतंत्र वैज्ञानिकों के द्वारा जारी जैव पहल २०१२ का हवाला देते हुए  कहा कि इस विकीरण से सिर दर्द, बच्चें के व्यवहार में परिवर्तन, नींद में व्यवधान आदि जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं । विभिन्न देशों में किए गए कई अध्ययनों से यह संकेत मिलता है कि सेलफोन टॉवर को रहवासी भवनों से तीन सौ मीटर से पांच सौ मीटर की दूरी पर रखना चाहिए । लेकिन भारतीय शहरों में जहां सेलफोन के टॉवर सीधे रहवासी भवनों की छतों और दीवारों में ही लगा दिए जाते है तथा यहां लोग ऐसे टॉवरों के एंटीना से बमुश्किल दस मीटर पर ही रहते है । जो लोग सेलफोन टॉवर के पास रहते है उनमेंकैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है । जो लोग सेलफोन टॉवरों के ३५० मीटर के दायरे में रहते हैं उनमें सामान्य लोगों की तुलना में कैंसर होने की संभावना चार गुना ज्यादा होती है जबकि महिलाआें के मामले में यह संभावना दस गुना ज्यादा बढ़ जाती है ।
सामयिक
कुंभ के बहाने गंगा विमर्श
कुमार कृष्णन
    पिछले दिनों इलाहाबाद कुंभ के पहले शाही स्नान में तकरीबन एक करोड़ लोगों ने संगम मेंस्नान किया । प्रधानमंत्री को भी उद्योगों को चेतावनी देनी पड़ी कि वे कुंभ के दौरान गंगा को प्रदूषित करने से बाज आएं । लेकिन क्या कुंभ के बाद प्रदूषण पुराने स्तर पर लौट आएगा ?
    भारत में कुंभ का एक गौरवशाली इतिहास रहा है । छ: वर्ष में अर्धकुंभ, १२ वर्ष में कुंभ और १४४ वर्ष में महाकुंभ ! आखिर नदी के किनारे ही हमारे ज्यादातर मठ, मंदिर, तीर्थ और धर्माचार्योंा के ठिकाने क्यों बने ? दरअसल में भारत में कुंभ की गौरवशाली परंपरा का अभिप्राय प्रकृति संरक्षण ही था । अफसोस की बात है कि कुंभ के स्नानार्थी कुंभ का अभिप्राय ही भूल गये है । आज कुंभ की नदिया आचमन योग्य भी नहीं हैं । 
     कुंभ गंगा और यमुना के संगम इलाहाबाद में आयोजित हो रहा है । वास्तविकता यह है कि गंगा-जमुना जैसी नदियों पर प्रदूषण की मार लगातार बढ़ रही है । अध्ययन के अनुसार उत्तर भारत की कोई भी नदी स्नान योग्य नहीं रह गई है । उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर बंगाल में २७ दिनों में १८०० किलोमीटर की यात्रा के बाद ११ पर्यावरण कार्यकर्ताआें ने बताया कि यमुना सर्वाधिक प्रदूषित नदी है । अपने अनुभवों के आधार पर पर्यावरण प्रेमियों ने यह भी कहा कि गांगेय क्षेत्र की नदियां जगह-जगह नालों में तब्दील हो गई हैं जो इनके किनारे बसने और इन पर जीवनयापन के लिए आश्रित लोगोंकी जान के लिए सीधे-सीधे  खतरे का सबब भी बन गई हैं ।
    यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि नगरों-महानगरों की सारी गंदगी इन नदियों में लगातार छोड़ी जा रही है । नदियों के आसपास लगे हजारों कारखानों से निकलने वाला रसायन युक्त और जहरीला कचरा लाख मनाही के बाद भी बिना किसी रोक-टोक के इन नदियोंमें ही छोड़ा जाता है । करोड़ों रूपए खर्च कर लगाए गए जलशोधन संयंत्र रख-रखाव के अभाव में ठोस नतीजा नहीं दे पा रहे हैं । रही-सही कसर हमारी मान्यताआें और धार्मिक परंपराआें ने निकालकर रख दी है । हर साल दुर्गा पूजा पर लाखों की संख्या में मूर्तियों का विसर्जन इनमें किया जाता है ।
    अकेलेपटना में ही दुर्गा पूजा के अवसर पर हजारों लीटर पेंट परोक्ष रूप से  गंगा में बहा दिया जाता    है । इसी तरह छठ या अन्य पर्वोंा पर भी पूजा सामग्री नदी में प्रवाहित कर दी जाती है जो सीधे-सीधे नदी की सांसें रोकने का काम करती है । पूजा के कामआए फूल-पत्तियों  व अन्य सामग्री को नदी  के ही हवाले करने के दृश्य कभी भी देखे जा सकते हैं । सिर्फ यमुना की सफाई के नाम पर १२०० करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए किंतु इसकी एक बूंद भी साफ नहींहुई  । उल्टे यमुना और मैली होती चली गई ।
    यही हाल गंगा  का है । अब जबकि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है, इसे फिर से नया जीवन देने और प्रदूषण की मार से बचाने को लेकर सत्ता और प्रशासन के स्तर पर कुछ सुगबुगाहट जरूर है । स्वयं प्रधानमंत्री भी गंगा की बदहाली पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं । बहरहाल, अब यह बात साबित हो चुकी है कि मौखिक चितंन करने और बगैर किसी ठोस और कारगर योजना के करोड़ों रूपए बहाने से नदियों का कायाकल्प नहीं होने  वाला । नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोगाम के ताजा अध्ययन के बाद गंगा के प्रदूषण के बारे में तमाम लोगों और विशेषकर उन राज्यों की सरकारों की आखें खुल जानी चाहिए जिन राज्यों से होकर गंगा  गुजरती है  । इस अध्ययन के अनुसार गंगा किनारे रहने वाले लोग देश के अन्य इलाकों की अपेक्षा कैंसर रोग से ज्यादा ग्रसित हो सकते हैं ।
    इस औद्योगिक कचरे में आर्सेनिक, फ्लोराइड अन्य भारी धातुएं जैसे जहरीले तत्व भी शामिल हैं । इन्हीं के कारण नदी के किनारे रहने वाले लोगों में गॉल ब्लैडर (पित्ताशय) के कैंसर के मामले देखने मेंआए है ं जो कि पूरे विश्व में भारत को दूसरे स्थान पर खड़ा कर  देते  हैं । गंगा नदी में खतरनाक रसायनों और जहरीली धातुआें  की स्थिति बेहद अधिक है । भारत की लगभग ४० प्रतिशत आबादी गंगा के पानी पर निर्भर करती है । इसलिए अब समय आ गया है जब गंगा में बढ़ते प्रदूषण को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाए ।
    दूसरी ओर नदी में ऑक्सीजन का स्तर भी इतना कम है कि जलीय जीवन के लिए भी गंभीर खतरा है । गंगा के किनारे बसे लोगों में त्वचा का कैंसर भी पाया जा रहा है । इस बात की कल्पना ही की जा सकती है कि इन बातों से हिन्दू तीर्थयात्रियों के मन पर क्या गुजर रही होगी जो गंगा में डुबकी लगाकर पुण्य कमाने के लिए दूर-दूर से आते हैं। अनेक वनस्पतकि औषधियों को स्पर्श करता हुआ गंगा का निर्मल जल जब हरिद्वार, प्रयाग और काशी पहुंचता था तो लोग इसे अपने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए कैनो और शीशियों में भरकर अपने घर आते थे लेकिन आज यह जल इस योग्य नहीं रह गया है ।
    केन्द्र सरकार गंगा को बचाने के लिए अब तक लगभग ९००० करोड़ रूपए खर्च कर चुकी है मगर लगता है कि सारा का सारा पैसा जैसे गटर में बह गया हो । गंगा और हिमालय भारत की पहचान रहे है इसलिए भी गंगा को बचाया जाना चाहिए ।
    औघोगिक देशों में सभी उद्योग अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते हैं और नदियों में अपना प्रदूषित पानी भेजने से पहले उसे  इतना साफ करते है कि मछली और अन्य जलचर उसमें जिंदा रहे सकें । दूसरी ओर यहां कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को प्रदूषित करने में जैसे अन्य उद्योगों से होड़ ले रहा है । सभी राज्य सरकारों का यह फर्ज है कि वे एकजुट होकर गंगा के हर पल होते क्षय को रोकें । उनके सारे खर्च और प्रयासों को इस तरह से समन्वित किया जाए जिससे अधिकाधिक लाभ हो । उत्तप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेख यादव के इस सुझाव में दम है कि बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश की सरकारें आपस में मिल-बैठकर ऐसी रणनीति बनाएं जिससे कि इस काम को युद्ध स्तर पर कैसेपूरा किया जा सके।
हमारा भूमण्डल
जमीन से जुड़ा है जीना मरना
आइरिन
    जमीन के मालिकाना हक, पानी, ऊर्जा और भूखमरी के बीच आपसी संबंध है । पिछले दिनोंतीसरी दुनिया के देशों के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अध्ययनोंसे इस सहसंबंधों का खुलासा हुआ है । जिन देशों में लोगों के पास पर्याप्त् भू-अधिकारों, पानी एवं ऊर्जा की उपलब्धता नहीं है, वे ग्लोबल हंगर इंडेक्स में फिसड्डी देशों में से है ।
    इस वर्ष के ग्लोबल हंगर इंडेक्स अध्ययन की सहलेखक क्लॉडिया रिगलर ने बताया कि इन संसाधनों और खाद्य असुरक्षा के बीच एक स्पष्ट सहसंबंध है । यह अध्ययन इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट और एनजियोज कंसर्न वर्ल्डवाइड ने संयुक्त रूप से किया था । 
      ग्लोबल हंगर इंडेक्स अध्ययन में अलग-अलग देशों के लोगों की, खेती योग्य जमीन, साफ पानी और सस्ते ऊर्जा संसाधनों तक पहुंच संबंधी आंकड़ों की तुलना की गई है । इसके लिए तीन सूचकांक लिये गये - पोषण, बाल मृत्यु और बच्चें का वजन ।
    अध्ययन के अनुसार बीस देशों में भुखमरी का स्तर बहुत ही खतरनाक है । इनमें ज्यादातर देश उप सहारा अफ्रीकाया साउथ एशिया के देश है । इनमें तीन देश - बुरूण्डी, इरीट्रिया और हैती के ग्लोबल हंगर इंडेक्स आंकड़े बहुत ही बदतर हैं ।
    खाद्य सुरक्षा का, पानी, ऊर्जा और जमीन संबंधी विकास से गहरा नाता है । कई विशेषज्ञों ने अपने अध्ययनों से यह बताना शुरू कर दिया है । श्री रिंगलर ने बताया हम ऐसी कोई बात नहीं बता रहे हैं जो कि लोग पहले से नहीं जानते, बल्कि हम तो इस अध्ययन के माध्यम से लोगों का ध्यान फिर से इस तरफ खींच रहे हैं ।
    ज्यादातर देखा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों को जमीने दे दी जाती है ताकि उन पर बायो ईधन उत्पादन के मकसद से आयात की जाने वाली फसलें बोई जा सकें । अध्ययन में खाद्य सुरक्षा के मामले में इस तरह जमीनें हथियाए जाने की भूमिका को रेखांकित करता    है ।    
    ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट बताती है कि ऊर्जा साधनों की बढ़ती कीमतों से किसानों की ईधन और उर्वरक लागतें बढ़ रही हैं, खाद्य फसलों की बजाए बायो ईधन फसलों की मांग बढ़ रही है और पानी भी मंहगा होता जा रहा है ।
    अध्ययनकर्ताआें ने पाया कि जिन ३२ देशों में बड़े पैमाने पर जमीनें इस तरह से उद्योगों और कम्पनियों को दी गयी हैं वे काफी पिछड़े हुए या खराब स्थितियों में    हैं । इन देशों में अधिकांश आबादी खेती पर निर्भर है फिर भी लोगों के पास मुश्किल से ही अपनी जमीनों पर मालिकाना हक है । सात देशों - कम्बोडिया, इथोपिया, इण्डोनेशिया, लाओ पीडीआर, लाइबेरिया, फिलीपींस और सिएरा लिओन में कुल खेती के रकबे का १० प्रतिशत हिस्सा अंतर्राष्ट्रीय सौदों में फंसा हुआ है । इन सभी देशों में भुखमरी उच्च् स्तर पर है ।
    इथोपिया सरकार बड़े पैमाने पर जमीनें देने की अपनी नीतियों की आलोचना को ही खारिज करती आयी है । ये उसके पंचवर्षीय विकास एवं परिवर्तन योजना का हिस्सा हैं । उसका इस बात पर जोर है कि लाखों डॉलर का विदेशी निवेश होने से रोजगार पैदा होंगे, घरेलू कृषि विशेषज्ञता बढ़ेगी और इससे देश की गरीबी व गंभीर खाद्य असुरक्षा दोनों में ही कमी आयेगी ।
    इथोपिया सरकार ने कृषि मंत्री के सलाहाकार टेकालिन मैमो का कहना है जमीन देना दुतरफा नजरिये का हिस्सा थी । उन खेतिहरों के लिये खाली पड़ी कृषि योग्य जमीनें पेश करना जो बसना चाहते थे और चूंकि देश में काफी जमीन उपलब्ध है तो हम उन्हें भी जमीनें देते हैं जो इसमें निवेश करना चाहते हैं । इस तरह जमीनों से जो राशि प्राप्त् होती है वो सीधे संबंधित क्षेत्रीय सरकारों को उनके खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमोंमें खर्च करने के लिए भेज दी जाती है । टेकालिन ने यह भी कहा कि जिन कम्पनियों ने जमीनें लेने के बाद  उनमें पर्याप्त् निवेश नहीं किया उनके खिलाफ कदम उठाये जा रहे हैं । अब इन मामलों को सख्ती से देखा जा रहा है ।
    सिएरा लिओन और तंजानिया में किए गये खास अध्ययनों की रिपोर्ट बताती है कि किस तरह जमीन के ये सौदे खाद्य सुरक्षा को नुकसान पहुंचाते हैं । खासतौर पर छोटे किसानों की तो हालात ही खराब हुई है ।
    ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट बताती है कि सिएरा लिओन में उपलब्ध कृषि योग्य जमीन का कोई २० प्रतिशत हिस्सा विदेशी उद्यमियों ने हथिया रखा है । निवेशकर्ता वहां ताड़, गन्ना एवं चावल जैसी खाद्य फसलें उगाते हैं और ज्यादातर को निर्यात करते हैं । अध्ययन में एक ऐसा मामला प्रकाश में आया जिसमें सिएरा लिओन के दक्षिणी प्रान्त में २४ गांवों में फैलीजमीन, सॉकफिन एग्रीकल्चरल कम्पनी लिमिटेड को निर्यात के लिए तेल और रबर उगाने दे दी गई ।
    स्थानीय किसानों के विरोध के बावजूद, यह सौदा ५० सालों तक कायम रहा । किसानों को प्रति एक एकड़ नुकसान के लिए एक बार २२० डॉलर का भुगतान किया   गया । उन्हें शिक्षा और रोजगार का भी भरोसा दिलाया गया था । लेकिन असलियत यह रही कि बहुत ही थोड़े से लोगों को काम पर लिया गया और उन्हें स्थानीय लोगों की जरूरत भी नहीं थी । जिन्हें काम पर लिया भी गया उन्हें दिहाड़ी हिसाब से मजदूरी दी गयी । तीस पर खाद्य कीमतें भी मई २०११ से मई २०१२ के बीच  २७ प्रतिशत तक बढ़ गई, जो कि स्थानीय आबादी के एक बड़े हिस्से की हैसियत से बाहर थी ।
    अध्ययनकर्ता संस्था ने तंजानिया के दक्षिणी इलाके के इरिंगा जिले का एक अनुभव रेखांकित किया है । तंजानिया मेंे सिर्फ १० प्रतिशत लोगों के पास उनकी जमीनों का अधिकारिक तौर पर मालिकाना हक है । यहां १२ गांवों में काम करते हुए कसर्न संस्था ने कोई ६००० लोगों को उनकी जमीनों का हक दिलाने में मदद की । इससे उन्हें ऋण लेने की सुविधा मिली और अकाल संभावित क्षेत्र में संसाधनों संबंधी विवाद भी कम हुए ।
    यह अध्ययन बताता है कि इन दोनों ही देशों में छोटे भूधारकों को मजबूत बनाने संबंधी कानून मौजूद थे लेकिन इन नीतियों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और स्थानीय नेतृत्व जरूरी है । रिगलर ने कहा कि इन देशों में खाद्य सुरक्षा में निवेश करने एवं प्राकृतिक संसाधनों का जिम्मेदारीपूर्वक दोहन करने के लिए भी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है ।
    रिंगलर अपनी बातों में यह भी जोड़ती है कि जल विशेषज्ञ, ऊर्जा विशेषज्ञ से, शोधकर्ताआें से लेकर जमीनी कार्यकर्ताआें तक, किसान से लेकर नीति निर्माताआें तक विकास के सभी साझेदारों को आपस में एक दूसरे से संवाद करना चाहिए ।
विशेष लेख
भारत की बिजली समस्या : समाधान के रास्ते
के.जयलक्ष्मी
    कुछ समय पहले ही देश के पॉवर ग्रिड ताश के पत्तों के महल की तरह धराशाई हो गए । चौबीस घंटे के भीतर ही पांच में से तीन पॉवर ग्रिड-उत्तरी, पूर्वी और पूर्वोत्तर फेल हो गए । ये पॉवर ग्रिड करीब ५० हजार मेगावट बिजली का पारेषण कर रहे थे । इनके फेल होने से देश के लगभग ६० करोड़ लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया ।
    समस्या की शुरूआत आगरा स्थित पॉवर लाइन में एक अंदरूनी तकनीकी गड़बड़ी से हुई । इससे उत्तरी ग्रिड उसे मिल रही बिजली के एक बड़े हिस्से से वंचित हो गया । ऐसा होते ही सभी राज्यों को तत्काल ग्रिड से अपने लोड में कमी करने को कहा जाना चाहिए था । लेकिन जब तक आदेश जारी होता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी । अधिक लोड होने के कारण ग्रिड पर अधिकांश जनरेटर्स की फ्रिक्वेंसी भी कम हो गई थी । कोई भी क्षेत्र अपने लोड में कमी करने को तैयार नहीं था । परिणाम यह निकला कि पूरा ग्रिड ही ठप हो गया । 
     जून २०१२ तक भारत में कुल स्थापित बिजली क्षमता २,०५,३४० मेगावॉट थी । वित्तीय वर्ष २०११-१२ में देश में बिजली के उत्पादन में ८.१ फीसदी की बढ़ोतरी हुई, लेकिन इसके बावजूद अधिकतम मांग के समय में बिजली की १०.६ फीसदी की कमी रही । कमजोर मानसून की वजह से पनबिजली उत्पादन में कमी आई, और गर्मी अधिक होने के कारण बिजली की खपत बढ़ गई । पहले ही बिजली पूरी नहीं मिल पा रही थी और कमजोर मानसून के कारण स्थिति और भी बिगड़ गई ।
    दी नेशनल लोड डिस्पैच सेंटर ने केन्द्रीय विघुत नियामक आयोग (सीईआरसी) के समक्ष एक याचिका दायर कर कहा है कि कुछ उत्तरी राज्य ग्रिड अनुशासन का पालन नहीं कर रहे हैं । सीईआरसी की पहली सुनवाई में इन राज्यों ने दलील दी कि मांग और उन्हें आवंटित बिजली के कोटे में बहुत अधिक अंतर होने के कारण वे ग्रिड से अधिक बिजली लेने को मजबूर है ।
    ग्रिड्स का ठीक से मेन्टेनैंस न होना भी हालिया संकट का एक बड़ा कारण बताया गया । लेकिन देश में बिजली संकट की दास्तां इससे भी कही आगे है ।
    आबादी में वृद्धि के अनुपात में बिजली उत्पादन में वृद्धि नहीं  हुई । कुल बिजली उत्पादन और खपत के मामले मेंभारत दुनिया में छठवें स्थान पर है, लेकिन प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग के मामले में कहीं पीछे है । यहां यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति ५०० किलोवॉट सालाना है, जबकि चीन में २६०० किलोवॉट और अमरीका में १२,००० किलोवॉट है । वैसे भारत में बिजली की खपत का यह गणित इतना आसान भी नहीं है कि कुल बिजली  उत्पादन में जनसंख्या का सीधे-सीधे भाग देने से हासिल हो जाएगा । यहां अब भी ४० करोड़ लोग ऐसे हैं, जो अपने घरों में एक बल्ब के जगमगाने का इंतजार कर रहे हैं । इससे साफ है कि देश में बिजली की खपत में भारी असमानता है । भारत की झुग्गी बस्तियों और गांवों में करोड़ों लोग अंधेरे में रहने को मजबूर हैं, जबकि एक वर्ग इसका भारी उपभोग करता है ।
    भारत में कोयले के दहन के फलस्वरूप उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड ही ग्रीन हाउस प्रभाव में बढ़ोतरी के लिए ६० फीसदी तक जिम्मेदार है ।
    भारत में २०५ गीगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता में से आधे से अधिक भाग कोयला आधारित है । यहां के कोयला भंडार बहुत तेजी से खत्म हो रहे है । यहां पाया जाने वाला कोयला अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता का है जिसमें ३० से ४५ फीसदी तक राख होती है । निम्न गुणवत्ता का कोयला होने के कारण भारत के ताप बिजलीघर युरोप की तुलना में ५० से १२० प्रतिशत अधिक कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं ।
    भारत के अधिकांश कोयला आधारित संयंत्र बहुत पुराने हैं और उत्सर्जन नियंत्रण तकनीकें (जैसे सिलेक्टिव केटेलिटिक रिडक्शन) से लैंस नहीं हैं । हालांकि कोयला आधारित संयंत्रों की कार्यक्षमता में हाल के वर्षो में सुधार हुआ है, लेकिन फिर भी वह काफी कम है । भारत के सभी कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की औसत कार्यक्षमता केवल२९ फीसदी है । हालांकि ५०० मेगावॉट की बड़ी इकाइयों की कार्यक्षमता थोड़ी ज्यादा, करीब ३३ फीसदी है । देश की अधिकांश ताप बिजली इकाइयों का सामान्य कार्यकाल पूरा हो चुका है ।
    पारेषण के दौरान विघुत हानि आज भारत के ऊर्जा क्षेत्र की सबसे बड़ी चिंता बनी हुई है । तकनीकी वजहों से हानि के साथ बिजली की चोरी से समस्या और भी जटिल हो जाती है । पारेषण एवं वितरण हानि व बिजली की चोरी पर कैलिफोर्निया, मिशिगन आथ्र प्रिसंटन विश्वविघालय के शोधकर्ताआें ने उत्तरप्रदेश का एक अध्ययन किया था । यह अध्ययन वर्ल्डवॉच में प्रकाशित हुआ है ।
    भारत मेंअधिकतर पारेषण एवं वितरण व्यवस्था सरकारों के पास है । क्या इस व्यवस्था का निजीकरण करने से यह अधिक कार्यकुशल बन सकेगी ? आखिर बिजली की चोरी के खिलाफ सख्त कानूनी प्रावधान क्यों नहीं किए जाते ? सच तो यह है कि इसका समाधान केवलकानूनी प्रावधानों से नहीं किया जा सकता । इसके लिए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुआें को एक साथ जोड़कर देखना होगा, तभी कोई रास्ता निकल सकेगा ।
    भारत के केन्द्रीय विघुत अभिकरण ने माना है कि बिजली क्षेत्र की कुशलता में सुधार और लागत में कमी करने के लिए मौजूदा बिजली संयंत्रों का नवीनीकरण और आधुनिकीकरण किया जाना चाहिए ।
    मार्च २०१२ तक के आंकड़ों पर नजर डाले तो पता चलता है कि भारत की कुल २०० गीगावॉट उत्पादन क्षमता में से केवल २५ गीगावॉट बिजली ही गैर पारंपरिक ऊर्जा स्त्रोतों (नवीकरणीय ऊर्जा) से मिलती है । इसमें भी सौर ऊर्जा का हिस्सा तो बहुत ही कम है । भविष्य के जो लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, उनमें जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन के तहत तय लक्ष्य भी शामिल हैं । इसके अन्तर्गत वर्ष २०२२ तक देश में २० गीगावॉट सौर ऊर्जा क्षमता स्थापित की जानी है । भारत सरकार ने गैर पांरपरिक ऊर्जा स्त्रोतों से वर्ष २०१७ तक कुल मिलाकर ५५ गीगावॉट और २०२२ तक ७४ गीगावॉट क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है । जीवाश्म ईधन के तेजी से घटते संसाधनों और परमाणु ऊर्जा को लेकर लोगों के एक बड़े तबके के विरोध के चलते गैर पांरपरिक ऊर्जा स्त्रोतों से ही उम्मीद लगाई जा सकती है ।
    ग्रिड की स्थिरता के सम्बंध में केन्द्रीय विद्युत अभिकरण के अध्यक्ष ए.एस. बक्षी  के नेतृत्व में एक पैनल ने स्मार्ट ग्रिड्स ओर विशेष सुरक्षा योजनाआें (एसपीएस) के क्रियान्वयन की अनुशंसा की थी । एसपीएस ग्रिड ठप होने की स्थिति को रोकने में मदद करता है । इसे राज्यों के बिजली वितरण केन्द्रों पर ही क्रियान्वित करना होगा । यह सिस्टम गंभीर स्थिति में सर्किट सेअपने आप संपर्क खत्म कर देता है ।
    हालांकि केवल तकनीकोंसे ही काम नहीं बनने वाला । भारत की मौजूदा बाध्यताआें के बीच स्मार्ट ग्रिड से ग्रिड को कार्यकुशल बनाया जा सकता है, लेकिन ग्रिड्स की संख्या और लागत के मद्देनजर यह काम चरणबद्ध तरीके से ही संभव  है । कुल मिलाकर देखें तो ग्रिड स्थिरता के लिए मांग के अनुरूप बिजली की आपूर्ति और पारेषण नेटवर्क की मजबूती जरूरी होगी और इन्हें दीर्घकालीन उपायों के माध्यम से ही अंजाम दिया जा सकता है ।
    एक बहस यह भी है कि क्या सरकार को उत्पादन क्षमता में वृद्धि करनी चाहिए या पारेषण और वितरण के दौरान होने वाली क्षति को रोकना उसकी पहली प्राथमिकता होनी  चाहिए ? सरकार द्वारा अधिक बिजली उत्पादन के वादों के बावजूद देश में बिजली संकट बरकरार है । हाल ही में भारत के बिजली क्षेत्र में ४०० अरब डॉलर का निवेश हुआ है । इससे वर्ष २०१७ तक बिजली के उत्पादन में ८८ हजार मेगावॉट की वृद्धि की जा सकेगी । आजादी के बाद से देश में बिजली उत्पादन में करीब १८० गुना वृद्धि हो चुकी है, लेकिन इसके बावजूद आबादी के बड़े हिस्से तक बिजली नहीं पहुंच पाई है । वर्ष २०११ के आंकड़ों के अनुसार करीब ४० करोड़ लोग बिजली ग्रिड के दायरे से बाहर थे ।
    अब भारत की पारेषण और वितरण क्षति पर विचार करते हैं । यह क्षति वर्षो से जंग खा रहे उपकरणों, बिजली चोरी और अविश्वसनीय निगरानी के चलते होती है । एक अनुमान के अनुसार बिजली की चोरी ६६ हजार मेगावॉट तक पहुुंच गई है । सवाल यह है कि पहले इस चोरी पर नियंत्रण करना चाहिए या नए बिजली संयंत्र बनाने चाहिए ?
    एकीकृत ऊर्जा नीति (ईआईपी) के एक आकलन के अनुसार देश की बिजली उत्पादन क्षमता को पांच गुना तक बढ़ाना होगा (यानी वर्ष २००६ की १,६०,००० मेगावॉट से बढ़ाकर वर्ष २०३२ तक ८,००,००० मेगावॉट करना) । आलोचकों का कहना है कि ईआईपी ने यह आकलन करते समय संबंधित सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों को ध्यान में नहीं रखा ।
    सवाल यह है कि आखिर नए बिजली संयंत्रों के लिए जरूरी संसाधन कहां से आएंगे ? कोयला आवंटन में नो गो जोन को लेकर पहले ही खूब विवाद चल रहा है । पर्यावरणविदों के साथ संघर्ष के कारण आने वाले समय में कोयले का आयात बढ़ाना ही पड़ेगा । बिजली क्षेत्र पानी का भी खूब दोहन करता है, यहां तक कि कृषि क्षेत्र से ज्यादा । इसलिए देश बिजली संकट के समाधान के लिए जितने अधिक बिजली संयंत्र बनाएगा, पानी की उतनी ही अधिक कमी होती जाएगी ।
    ओवर विड्राल की मुख्य वजह बढ़ता तापमान भी था, जिसके कारण शहरों में एयर कंडीशनर लगातार चलते रहे । इसके अलावा गांवों में सूखी जमीनों से भूजल के दोहन के कारण भी बिजली का बहुत अधिक इस्तेमाल किया गया । अगर मानसून धोखा देते रहे तो जमीन की गहराई से इसी तरह पानी का दोहन जारी रहेगा और बिजली की मांग बढ़ती रहेगी । इस स्थिति से तब तक नहीं बचा जा सकता, जब तक कि सिंचाई की बेहतर योजनाएं अमल में नहीं जाती । आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि देश में अब भी १.१० करोड़ हेक्टर जमीन तक किसी भी सिंचाई परियोजना से पानी नहीं पहुंच पाया है ।
    कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि एक उचित विद्युत शुल्क नीति हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । अगर ऐसी ही कोई विद्युत शुल्क नीति और व्यावहारिक सब्सिडी सिस्टम अमल में लाई जाए तो बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच  की दरार को काफी हद तक पाटा जा सकता है । किसानों को मुफ्त बिजली और बिजली की दरों में वृद्धि को लेकर हिचक के चलते सरकारी बिजली कंपनियां घाटे में चल रही हैं । इससे वे अपने पॉवर सिस्टम को अपग्रेड नहीं कर पा रही हैं  ।
    ऊर्जा सुरक्षा के लिए ऐसे एकीकृत ऊर्जा संसाधन प्रबंधन नजरिए की जरूरत है, जिसमें केन्द्रीकृत और विकेन्द्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों को शामिल किया जा सके ।
    हाल ही में जो ब्लैक आउट की स्थिति पैदा हुई, वह इस बात का संकेत है कि किस तरह जटिल व्यवस्थाआें के ढहने की आशंका ज्यादा होती है, फिर चाहे वे पॉवर ग्रिड हो या परमाणु संंयंत्र । स्थानीय स्तर पर छोटी-छोटी इकाइयों का प्रबंधन करना कहीं बेहतर विकल्प है, खासकर दूर-दराज इलाकों में । विशेषज्ञों का मानना है कि केन्द्रीकृत विशालकाय बिजली संयंत्रों पर निर्भरता कम करनी चाहिए, साथ ही इंटरकनेक्टेड नेटवर्क को भी घटाना चाहिए । केवल भारी उद्योगों और रेलवे को ही केन्द्रीकृत नेटवर्क से बिजली की आपूर्ति करनी चाहिए । जिन उद्योगोंऔर संगठनों में बहुत अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं, उन्हें नवीकरणीय ऊर्जा पर आधारित केप्टिव पॉवर प्लांट्स लगाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ।
    बिजली क्षेत्र की अक्षमता के कारण देश को वर्ष २०११ में पहुंचा नुकसान एक लाख २५ हजार करोड़ रूपए को पार कर गया । उचित प्रबंधन उपायों से बिजली की ३५ से ४० फीसदी जरूरत को कम किया जा सकता है । इसलिए सबसे पहली प्राथमिकता तो इन उपायों को लागू करने की होनी चाहिए । कार्यक्षमता में वृद्धि, न्यूनतम बिजली क्षति, जिम्मेदारी के साथ इसका उपयोग और नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोंतो का अधिक से अधिक इस्तेमाल एकीकृत ऊर्जा संसाधन प्रबंधन के आधारभूत घटक होने चाहिए ।
    अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) ने वर्ष २०११ में चेताया था कि बिजली के लिए कोयले पर निर्भरता से अगले पांच सालों में दुनिया ऐसी राह पर पहुंच जाएगी जिससे वैश्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी को कोई नहीं टाल सकेगा । सदी के अंत तक तो इसमें और इजाफा हो जाएगा । विभिन्न संगठन तापमान में इस दो फीसदी बढ़ोतरी को बहुत ही भयावह मानते हैं । उनका कहना है कि इससे सूखा और बाढ़ जैसी घटनांए बढ़ जाएंगी, फसल का उत्पादन कम हो जाएगा और धरती पर जीव-जन्तुआें व वनस्पतियों की ३० फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी । ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि इस स्थिति को रोकने के लिए हमें भविष्य की अपनी ऊर्जा जरूरतों को इस तरह से पूरा करना होगा कि उससे कार्बन का उत्सर्जन शून्य हो ।
    दक्षिण कोरिया ने हरित विकास की दिशा में बहुत काम किया है । वर्ष २००९ में दक्षिण कोरियाई सरकार ने मंदी से निपटने के लिए जिस ३८.१० अरब डॉलर के पैकेज की घोषणा की थी, उसका ८० फीसदी हिस्सा ताजा जल जैसे संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल, ऊर्जा दक्ष भवनों के निर्माण, नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों, न्यूनतम कार्बन उत्सर्जित करने वाले वाहनों व रेल नेटवर्क के विकास पर खर्च किया जाएगा । इसके अलावा उसने हरित खरीदी कानून लागू किया है, ताकि पर्यावरण अनुकूल उत्पादों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन मिल   सके ।
जनजीवन
अपराध और पर्यावरण का अंर्तसंबंध
डॉ.ओ.पी. जोशी
    बढ़ते अपराधों की मानसिकता में पर्यावरण एवं प्रदूषण के योगदान पर गहन चिंतन प्रारंभ हो गया है । अपरोक्ष रूप से जिम्मेदार तत्व भी कई बार ऐसी परिस्थियां निर्मित करने में सहायक होते हैं । पर्यावरणविद आज बढ़ते अपराधों और प्रदूषण से बद्तर  होते पर्यावरण के मध्य संबंधों की पड़ताल से प्रारंभिक निष्कर्षोंा पर पहुंच गए हैं ।
    हाल ही में दिल्ली में घटित सामूहिक बलात्कार की घटना निश्चित रूप से सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों में आयी गिरावट का मिलाजुला परिणाम है । चिंतनीय बात यह है कि अपराध बढ़ने के साथ-साथ पाशविकता भी समानान्तर रूप से बढ़ती जा रही है । न केवल देश में अपितु वैश्विक स्तर पर बढ़ते अपराध एवं यौन अपराध मूल्यों में आई गिरावट के साथ-साथ बढ़ते प्रदूषण, भोज्य पदार्थो में कीटनाशकों की मात्रा, खाघान्न में पौष्टिकता की कमी, आर्थिक सपन्नता एवं ग्लेमरस जीवन शैली से भी से जुड़े हैं । 
     यह निश्चित है कि हमारा व्यवहार हमारे आसपास के परिवेश या पर्यावरण से निर्धारित होता है । यह भी सत्य है कि व्यवहार संबंधी जींस अनुवांशिक होते हैं, परन्तु बिगड़ा पर्यावरण इस अनुवांशिक पर हावी   है । केलिफोर्निया वि.वि. के मनोविशेषज्ञ प्रो. ई बुंसविक ने कई वर्षोतक अध्ययन कर बताया कि अनुवांशिकी कुछ भी हो परन्तु पर्यावरण के हालात मानव के व्यवहार को निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं । प्रदूषण गुस्से को बढ़ाने में ट्रिगर का कार्य करता है । लोग छोटी-छोटी बातों पर अपना आपा खो देते हैं, एवं छोटे मोटे अपराध के साथ-साथ यौन अपराध तक कर गुजरते हैं । लोगों की सहनशीलता में कमी, चिड़चिड़ापन, उदासी, कुंुठा, हिंसात्मक प्रकृति, आत्महत्या के प्रयास, बलात्कार तथा यौन अपराध जैसे बहुत से लक्षणों को दुनिया पर भर के पर्यावरणविद् अब बिगड़े पर्यावरण से जोड़ रहे हैं ।
    अपराध के संदर्भ में अमेरिका के कई कस्बों में सर्वेक्षण कर पाया गया कि वहां हर छ: मिनट में यौन अपराध, हर चालीस सेकेण्ड में हमला, हर तीस सेकेण्ड में आर्थिक गड़बड़ी एवं दस सेकेण्ड में डकैती व तस्करी होती है । मेनहटट्न् सहित अमेरिका में अनेक छोटे-छोटे कस्बे व क्षेत्र हैं जहां वायु एवं ध्वनि प्रदूषण उच्च् स्तर पर है । न्यू हेम्पशायर ने हेनोवर नगर में स्थित डार्ट माउंट कालेज के वैज्ञानिक प्रो. रोजर मास्टर्स ने अमेरिका के कई शहरों में पर्यावरण प्रदूषण एवं अपराध में सीधा संबंध पाया । जिन शहरों के पर्यावरण (वायु, मिट्टी व जल) में सीसा (लेड़) व मेंगनीज की मात्रा ज्यादा थी वहां अपराध राष्ट्रीय औसत से पांच गुना ज्यादा थे ।
    नार्थ केलिफोर्निया स्थित सरनाफ मेडवीक शोध संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार वायु प्रदूषण हार्मोन टेस्टोस्टेरान की मात्रा बढ़ जाती है । संभवत: यह बढ़ी मात्रा अत्याचार एवं कामोत्तेजना को भी बढ़ाती है । समाज वैज्ञानिक मानते हैं कि औद्योगिकरण का गहरा संबंध अपराध, नशाखोरी, वेश्यावृत्ति एवं बलात्कार से होता है । औद्योगिकरण से बढ़ता प्रदूषण एवं आर्थिक सम्पन्नता इसके कारण हो सकते हैं। नार्थ केरोलिन्स स्थित गैरी चिकित्सा महाविघालय के अध्ययन के अनुसार हार्मोन सिरोटोनिन का भी हिंसा से संबंध होता है । बंदरों पर किये गये प्रयोग यह दर्शाते है कि जिन बंदरों में सिरोटोनिन की कमी थी वे ज्यादा हिंसक थे । नशा भी मनुष्य में सिरोटोनिन की मात्रा कम करता है । दिल्ली सामूहिक बलात्कार के अपराधियों ने भी नशा कर रखा था ।
    बेल्जियम के लिंग वि.वि. के वैज्ञानिक प्रो. लिन प्रियरे के अध्ययन अनुसार कीटनाशी डी.डी.टी. के अवशेषों के कारण भारत एवं कोलम्बिया के बच्च्े यौवन अवस्था को जल्द प्राप्त् कर रहे हैं । अवशेषों के रसायन हार्मोन आस्ट्रोजील के समान प्रभाव पैदा करते हैं । लड़कों में टेस्टीस तथा लड़कियों में वक्ष (ब्रेस्ट) का विकास जल्द हो रहा है । ब्रिटेन में शोधरत एक महिला वैज्ञानिक डॉ. मरिल्यन गलेनविले के अनुसार कीटनाशी के अवशेष एवं प्लास्टिक मेंउपस्थित बिस-फिनाल ए से महिलाआें के शरीर में पाए जाने वाले एस्ट्रोजन हार्मोन की मात्रा सीधे ही बढ़ जाती है एवं इस कारण वक्ष बढ़ने लगता है ।
    रासायनिक खादों के उपयोग से उत्पादन तो बढ़ा परन्तु खाद्यान्नों की पौष्टिकता कम हुई । अमेरिका के कृषि विशेषज्ञ डॉ. विलियम अब्रेश ने २० वर्षो तक रासायनिक खादों का खाघान्न पदार्थो पर प्रभाव का अध्ययन कर बताया कि गेहूं में प्रोटीन का मात्रा १० प्रतिशत एवं दालों में २ प्रतिशत के लगभग घटी है । खादों में उपस्थित पोटाश के कारण कार्बोहाइड्रेटस बढ़ता है एवं प्रोटीन घट जाता है । अमेरिकी चिकित्सक प्रो. सोलेमन का कहना है प्रोटीन की कमी वाले भोजन से कामोत्तेजना बढ़ती है । यहां यह जानना भी प्रासंगिक होगा कि हमारे देश में शाकाहारियों के लिए दालें प्रोटीन का प्रमुख स्त्रोत मानी जाती थी परन्तु इनका उत्पादन घटने से उसकी उपलब्धता भी कम होती जा रही है । सन १९९० के आसपास प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दाल की उपलब्धता ४२ ग्राम थी जो २०१० तक घटकर २८ ग्राम ही रह गयी ।
    लगातार बढ़ता प्रदूषण, सिमटती हरियाली, कृत्रिम प्रकाश, पक्के मकान एवं सड़कों से बढ़ी गर्मी, वाहनों की भागदौड़ एवं खाघान्नों में कीटनाशी के अवशेषों की उपस्थिति एवं घटती पौष्टिकता आदि ऐसे कारण हैं जो यौन अपराध सहित अन्य अपराध बढ़ा रहे हैं । अपराधों की रोकथाम हेतु कड़े नियम कानूनों के साथ-साथ प्रदूषण नियंत्रण, हरियाली विस्तार एवं कीटनाशी व रासायनिक खादों का उपयोग घटाना होगा ।  
सामाजिक पर्यावरण
ताकि गुस्सा व्यर्थ न जाए
मस्तराम कपूर
    नागरिक समाज के अंसतोष और आक्रोश की अभिव्यक्ति पूरे देश ने पिछले दिनों दामिनी की मौत की घटना से देखी । कानूनों के रास्ते केवल समस्याआेंका समाधान संभव नहीं है । नागरिक समाज को इसके लिए आगे आना होगा ।    
    पिछले दिनों दामिनी की मौत ने सबको झकझोर दिया । इसने दिल्ली सरकार और केन्द्र की सरकार के मुंह पर कालिख भी पोत दी । इससे पहले भ्रष्टाचार और काले धन के विरोध मेंचले अन्ना हजारे, केजरीवाल और रामदेव के आंदोलनों ने समाज को झकझोर दिया था । इन दोनों मौकों पर चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों ने आग में भी डालने का काम किया । ऐसा लगा कि व्यवस्था में कोई बड़ा भूचाल आने वाला है । निश्चय ही इन घटनाआें से युवा वर्ग में जो ऊर्जा फुटी उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन की संभावनाएं थी और है । इस ऊर्जा को सही दिशा में लगाने की जरूरत है । 
     यह काम सरकारांे द्वारा नहीं किया जा सकता क्योंकि यह ऊर्जा-विस्फोट मूलत: सरकारों की अकुशलता और असफलता की प्रतिक्रिया है । सरकारें इनका दमन तो कर सकती है किन्तु इनको सर्जनात्मक दिशा नहीं दे सकती । यह नागरिक समाज के असंतोष और आक्रोश की अभिव्यक्ति है । नागरिक समाज नगरीय समाज के अर्थ में, जो ग्रामीण समाज से भिन्न है तथा उसकी तुलना में अधिक विकसित, शिक्षित तथा साधन-सम्पन्न है । किन्तु नागरिक समाज के आंदोलनों की समस्याआें के प्रति दृष्टि काफी लचर रही है ।
    भ्रष्टाचार की समस्या को हल करने के लिए उनकी तरफ से जो सुझाव आए उनका सार था कि सरकार सख्त से सख्त कानून बनाए और उन्हें सख्ती से लागू करें । अगर कानून बनाने से ही समस्या हल हो जाती तो इस देश को अब तक सभी समस्याआें से मुक्त हो जाना चाहिए था । कानून और दंड का रास्ता अपराधों पर रोक लगाने का एक रास्ता हो सकता है किन्तु वह समाज में व्याप्त् अपराध की प्रवृत्तियों का इलाज नहीं है । ये प्रवृत्तियां सामाजिक रोगों का लक्षण हैं । जब तक इन रोगों का ठीक से निदान नहीं हो जाता और इनके कारणों को दूर नहीं किया जाता, ये अपराध होते रहेंगे ।
    पुरूषों की यौन विकृतियों का कारण आधुनिक जीवन की परिस्थितियां भी हैं । औद्योगीकरण और शहरीकरण की अंधाधुंध गति ने कृषिभूमि को नष्ट कर खेती पर निर्भर जातियों को कृत्रिम समृद्धि और निठल्ले जीवन की जो लत लगाई है उसके चलते युवकों का नशे और अपराधों की दुनिया की ओर जाना स्वाभाविक है । रोजगार छीनने और नकद पैसा बांटने की सरकारी योजनाएं भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है ।
    कहने का मतलब यह कि समाज की रोग पैदा करने वाली स्थितियों को बदले बिना केवलसख्त कानून बना कर स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराधों पर रोक नहीं लगाई जा सकती । यह काम सरकारें भी कर सकती हैं बशर्ते कि सरकारें आम जनजीवन तथा संस्कृति के प्रति संवेदनशील हो । केवल जीडीपी की चिंता करने वाली और मुनाफे के लिए चलने वाली सरकारें यह काम नहीं कर सकती है । लेकिन यह शुरूआत टीवी कैमरों की चमक-दमक के बीच मोमबत्तियों का जुलूस निकालने या मुंह पर काली पट्टी बांधकर नारों की पटि्टयां गले से लटकाए पिकनिक की मुद्रा में प्रदर्शन करने से नहीं होगी । इस प्रकार के विरोध पर तब तो संदेह होने ही लगता है जब हम पाते हैं कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों को रंगीनी प्रदान करने वाली फिल्मों और सीरियलों के प्रशंसक भी इसी मध्य वर्ग के लोग होते हैं । अत: इस कुसंस्कृति के विरूद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए युवक-युवतियों को विशेष प्रशिक्षण प्राप्त् करना होगा तथा कठोर अनुशासन से गुजरना होगा । सबसे पहले तो हमें अपनी भीतर यह विश्वास जगाना होगा कि अन्याय और अत्याचार का विरोध करना मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है । बल्कि यह अधिकार ही नहीं, कर्तव्य भी है । इसके बिना मनुष्य मनुष्य होने का दावा भी नहीं कर सकता । इस विश्वास को प्राप्त् करना कठिन अनुशासन से ही संभव है ।
    इसके लिए दूसरी शर्त है सत्याग्रह । विरोध का आधार सत्य होना चाहिए न कि निजी स्वार्थ से उत्पन्न भावावेश । सत्याग्रह की कसौटी पर भी खरा उतरने के लिए हमें कठोर अनुशासन और प्रशिक्षण की जरूरत है । इस प्रकार अन्याय और अत्याचार का विरोध करने के अधिकार को कोई भी सत्ता छीन नहीं सकती । यह बात सिर्फ गांधीजी ने ही नहीं कहीं, साम्यवादी चिंतक मार्क्स, ट्राटस्की सिविल नाफरमानी हर युग में, हर समाज में आवश्यक है । लोहिया सतत सिविल नाफरमानी में प्रशिक्षित युवक-युवतियों के दल यूथ ब्रिगेड संगठित करना चाहते थे और उनके द्वारा ही हिंसा तथा अन्याय-अत्याचार रहित नये विश्व का निर्माण करना चाहते थे ।
    लोहिया ने अपनी सोशलिस्ट पार्टी में भी इसी तरह के यूथ ब्रिगेडों की कल्पना की जिनमें समाज के सभी तबकों के युवक-युवतियां    आएं । उन्हें अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार का विरोध करने की कला में, सतत सिविल नाफरमानी में, प्रशिक्षित किया जाए और साथ ही साथ स्त्री-पुरूष बराबरी तथा जातिगत पूर्वाग्रहों से मुक्ति के संस्कार भी दिए जाएं । उनका एक कार्यक्रम था एक घंटा देश के नाम । इसके अन्तर्गत वे चाहते थे कि समाज के विभिन्न तबकों से आए लड़के-लड़कियों के दल महीने में एक या दो दिन नहरे-तालाब खोदने, सड़के-नदियां साफ करने के सार्वजनिक काम करेंऔर फिर सहभोज आदि में भाग ले कर स्त्री-पुरूष समानता तथा जातिगत भेदभाव से उपर उठने का प्रशिक्षण प्राप्त् करें । इसके अलावा उनकी अपेक्षा थी कि ये युवजन-समूह भ्रष्टाचार, अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार करने के लिए अहिंसक सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी के तरीकों में प्रशिक्षित हो ।
    सदियों पुराने सामाजिक रोगों से मुक्ति एक कानून बना कर, अपराधियों को फांसी पर लटका कर या उत्सव के माहौल में किए गए प्रदर्शनों से नहीं मिलेगी । इसके लिए ऊपर बताए गए अनुसार लड़के-लड़कियों को प्रशिक्षित करना पड़ेगा । पिछली सदी में विश्व युद्ध से उत्पन्न समस्याआें से निपटने के लिए जैसे स्काउट और एनसीसी आदि संगठन बने थे  कुछ उसी तरह के संगठन हमेंबनाने होंगे । इसकी शुरूआत नागरिक संस्थाएं भी कर सकती हैं और युवा लोग खुद भी पहल कर सकते है ।
    युवा दलों के संगठन मोहल्ले या कुछ गांवो के स्तर पर भी बनाए जा सकते है । किन्तु इस तरह के संगठनों के लिए जरूरी होगा कि इनमें न सिर्फ लड़कियों की समान भागीदारी हो बल्कि समाज के अलग-अलग तबकों की भी समान भागीदारी हो । तभी तो हम जाति-लिंग के पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का प्रशिक्षण प्राप्त् कर सकते है । ये पूर्वाग्रह हममें पैदा ही इसलिए हुए कि एक तरफ लड़के-लड़कियों के बीच और दूसरी तरफ सवर्ण और असवर्ण जातियों के बीच अलगाव बनाए रखने का वातावरण हमें मिला ।
    शिक्षण संस्थाआें और दफ्तरों आदि में भी यह देखा गया कि जहां लड़के-लड़कियां साथ-साथ पढ़ते हैं या स्त्री-पुरूष साथ-साथ काम करते हैं वहां स्त्री-पुरूष संबंधों में सहजता आती है । इसी प्रकार जातिगत संबंधों की सहजता के लिए पड़ौस के स्कूल और कॉमन स्कूल जिनमें सभी तबकों के बच्च्े साथ-साथ पढ़े आवश्यक है । किन्तु हम तो उल्टी दिशा में चले जा रहे हैं ।
    इस समय देश में सैकड़ों ऐसे आंदोलन अलग-अलग मुद्दों को लेकर चल रहे है । उनमें न केवल सत्ता को बदलने की शक्ति है बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन की भी शक्ति है बशर्ते कि वे एक व्यापक एजेंडे पर एकजुट होकर राजनैतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करें । 
कृषि जगत
कीटनाशकों का नया जाल
राहुल मुखर्जी
    कीटनाशकों एवं अन्य रसायनों की वजह से अब मानव समाज भोजन संबंधी विकारों या एलर्जी का शिकार होने लगा है । साफ-सफाई में भी रसायनों का अत्यधिक इस्तेमाल हमारे लिए नित नए खतरे पैदा करता जा रहा है । लेकिन विज्ञापन की दुनिया हमें सपने दिखाकर हमारे जीवन में अंधियारा भर रही है ।
    नलों से प्रदान होने वाले पानी में मिली क्लोरीन और भोजन में कीटनाशकों की मौजूदगी से लोग खाने की एलर्जी के शिकार हो रहे हैं । अमेरिका के एक अध्ययन में पाया गया है कि क्लोरिन युक्त रसायन डिक्लोरोफेनाल से दूध से लेकर खीरे या ककड़ी तक के खाद्य पदार्थो में (भोजन से) एलर्जी के तत्व तीव्रता पा सकते हैं । दिसम्बर में प्रकाशित एनल्स ऑफ एलर्जी, अस्थामा एण्ड इम्यूनोलाजी (वार्षिक वृतांत) में इस बात की पहचान की गई है कि क्लोरीन युक्त पीने का पानी एवं कीटनाशक से उपचारित फल एवं सब्जियां इस रसायन का मुख्य स्त्रोत है । वैसे लोगों का इससे साबका फिनायल की गोलियों एवं पेशाबघरों की सफाई सामग्री के माध्यम से भी पड़ता है । 
     विश्वभर में कमोवेश ५० करोड़ व्यक्ति किसी न किसी खाद्य पदार्थ के प्रति सहिष्णु (एलर्जिक) है । ये एलर्जी तब होती है जबकि किसी व्यक्ति की प्रतिरोधक प्रणाली अत्यधिक सक्रिय होती है और  इसके परिणाम स्वरूप सामान्यतया अहानिकारक पदार्थ के प्रति भी विपरीत क्रिया दिखाई पड़ती है । इस रिपोर्ट की प्रमुख लेखक एवं न्यूयार्क स्थित अर्ल्बट आइंस्टीन कालेज आफ मेडिसिन की ईलिना जेर्शको का कहना है पूर्व के अध्ययनों ने दर्शाया था कि अमेरिका में भोजन से होने वाली एलर्जी एवं पर्यावरणीय प्रदूषण दोनों में ही वृद्धि हो रही है । हमारा अध्ययन बताता है कि यह प्रवृत्ति भी आपस में जुड़ी हो सकती है लेकिन इसी के साथ कीटनाशकों एवं अन्य रसायनों का बढ़ता प्रयोग भी बढ़ती भोजन एलर्जी से जुड़ा हो सकता है ।
    जेर्शको और उनके सहयोगियों ने अपने अध्ययन में सन् २००५-२००६ के अमेरिका राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं पोषण परीक्षण सर्वेक्षण में भागीदारी करने वाले २२११ व्यक्तियों को शामिल किया गया था । इनमें से ४११ विशिष्ट किस्म के भोजनो जैसे झींगा (मछली) या मूंगफली के प्रति और १०१६ पर्यावरणीय प्रदूषण जैसे बिल्ली या कुत्ते के बालों से एलर्जिक थे । भागीदारों को अध्ययन के पूर्व पिछले सात दिनों के दौरान कीटनाशकोंसे पाला पड़ने संबंधित प्रश्नावली दी गई थी एवं डिक्लोरोफेनाल हेतु उनके मूत्र का परीक्षण किया गया था ।
    शोधकर्ताआें ने पाया कि एलर्जी वाले भागीदारों के मूत्र मेंडिक्लोरोफेनाल आधारित रसायनों की मात्रा अमेरिका पर्यावरणीय सुरक्षा एजेंसी द्वारा निर्धारित मापदण्डों से बहुत अधिक थी । इन प्रतिभागियों के रक्त में इम्मयूनोग्लोबुलिन ई का स्तर भी बहुत अधिक पाया गया । ऐसे ये तत्व हैं जो कि स्तनधारियों में संक्रमण एवं एलर्जिया से निपटने हेतु पाए जाते हैं । ऐसे व्यक्ति जिनमें एलर्जी पाई गई उनमें इनकी मात्रा ०.३५ किलो इकाई प्रति लीटर या इससे भी ज्यादा थी । 
    पूर्व के अध्ययनों में व्यक्ति के व्यवसाय को कीटनाशकों एवं एलर्जी से जोड़ा गया था । वर्ष २००९ में अमेरिका के उत्तरी केरोलिना स्थित राष्ट्रीय पर्यावरणीय स्वास्थ्य विज्ञान संस्थान की जेनी होपिंस ने अपने लेख में बताया था कि ऐसे किसान जो अपने खेतों में कीटनाशकों का उपयोग करते हैं उनमें अस्थमा जिसमें कि एलर्जिक अस्थमा भी शामिल हैं से पीड़ित होने का जोखिम बहुत बढ़ जाता है । इसके भी बहुत पहले सन् १९९८ में विल्मन डोंग ने पाया था कि जब चूहों को कीटनाशक कार्बारिल के संपर्क में लाया गया तो लगातार एलर्जी के शिकार होने लगे ।
    जेर्शकों का अध्ययन बताता है कि केवलव्यावसायिक रूप से कीटनाशक के संपर्क में आने से ही एलर्जी नही होती बल्कि इस तरह के रसायन युक्त भोजन सामग्री के उपयोग से भी एलर्जी हो सकती  है । जेर्शको ने यह भी स्पष्ट किया है कि अध्ययन से पता चला है कि क्लोरिन युक्त नल का पानी डिक्लोरोफिनाल का प्राथमिक स्त्रोत है लेकिन कोई व्यक्ति पूर्णतया बोतलबंद पानी पर भी भरोसा नहीं कर सकता क्योंकि अनेक अध्ययनों से यह सामने आया है कि बोतलबंद पानी भी कीटनाशकों से पूर्णतया मुक्त नहीं है ।
    आंधप्रदेश के पटापनचेरू स्थित अन्तर्राष्ट्रीय अर्धऊसर क्षेत्र फसल शोध संस्थान (इंटरनेशनल क्राप रिसर्च इंस्टियूट आफ सेमी अरिड ट्रापिक्स) के प्रमुख वैज्ञानिक ओम रूपेला का कहना है मैं इस खोज से सहमत हॅू । मैं इस बात से भी अचंभित हॅू कि पानी के उपचार  हेतु कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है । टेमेक्रास जिसका उपयोग मच्छरों को अंडा देने से रोकने के लिए किया जाता है का मानव पर घातक प्रभाव पड़ता है । हालांकि यह अत्यधिक कम मात्रा में प्रयोग में लाया जाता है लेकिन इसके बावजूद इसके उपयोग को न्यायोचित नहीं ठहराया जा  सकता ।
    जेर्शको का कहना है हालांकि कीटनाशकों एवं एलर्जी के बीच निकट का संबंध मिलता है लेकिन भविष्य में होने वाले अध्ययनों में इसके आकस्मिक या अनियमित संबंधों पर भी विचार करना आवश्यक है । वही होपिन का कहना है कि भविष्य में होने वाले अध्ययनोंे को व्यक्तियों में कीटनाशकों के सपंर्क में आने के पूर्व एलर्जी की प्रवृत्ति विकसित होने पर केन्द्रित होना होगा ।   
पर्यावरण परिक्रमा
बांध से जीव और वनस्पति को खतरा
    हिमाचल क्षेत्र में भारत की बांध निर्माण गतिविधियों से मानव जीवन एवं जीविका के लिए गंभीर खतरा है और इससे कई वनस्पतियां तथा जीव विलुप्त् हो सकते हैं । एक अध्ययन रिपोर्ट में यह दावा किया गया है । सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों पर पनबिजली परियोजना के निर्माण और करीब ३०० बांधों के निर्माण को लेकर यह अध्ययन किया गया । नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर में प्रोफेसरमहाराज के पंडित के नेतृत्व और दिल्ली विश्वविद्यालय एवं कुनमिग इंस्टीट्यूट ऑफ बॉटनी ऑफ चाइनीज एकेडमी में उनकी टीम की ओर से यह अध्ययन किया गया । शोधकर्ताआें ने पाया कि बांधों के निर्माण से करीब ९० फीसदी हिमालय घाटी प्रभावित होगी और २७ फीसदी बांध घने जंगलों को भी बुरी तरह प्रभावित करेंगे ।
    शोध दल का अनुमान है कि बांध निर्माण संबंधी गतिविधियों से हिमालय क्षेत्र में १७०,००० हेक्टेयर का जंगल तबाह हो सकता है । शोधकर्ताआें के अनुसार हिमालय क्षेत्र में बांध का घनत्व मौजूदा वैश्विक आंकड़े से ६२ गुना अधिक हो सकता है । इससे क्षेत्र में २२ वनस्पतियों और सात जीव विलुप्त् हो सकते है । अध्ययन में कहा गया है कि जल प्रवाह ही नदियों में मत्स्य जीवों के अस्तित्व का सबसे बड़ा जरिया है और बांध निर्माण गतिविधियों में बड़े पैमाने पर पानी का उपयोग हो रहा है जिससे इन जीवों के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा हो गया है । इसके मुताबिक बांधों के निर्माण के कारण बड़ी संख्या में भारतीय नागरिकों को विस्थापित भी होना पड़ा है ।
पन्ना टाइगर रिजर्व में मिले ८६७ गिद्ध
    मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में गत १६ जनवरी से प्रारंभ गिद्ध गणना - २०१३ समाप्त् हो चुकी है । गणना के दौरान ८६७ गिद्ध पाये गए, जिनमें १६० प्रवासी गिद्ध और ४८ अचिन्हित शामिल   है । गिद्ध गणना-२०१३ की तकनीकी रिपोर्ट आने वाली है । इसके अलावा पार्क में स्थानीय गिद्धों के १०२ जीवित घोसलें भी पाए गए । अप्रैल-मई २०१३ में दोबारा इन घोसलों का मौके पर निरीक्षण कर गिद्धों की प्रजनन सफलता का आंकलन किया   जाएगा । पन्ना टाइगर रिजर्व में वर्ष २०१० से गिद्धों की गणना प्रतिवर्ष जनवरी माह में की जा रही है । गतवर्ष की तुलना में इस वर्ष गिद्धों की संख्या में कमी पाई गई, जिसका कारण संभवत: गणना के दौरान क्षेत्र के तापमान में अचानक हुई वृद्धि है । पार्क में भारतीय उप महाद्वीप में पाई जाने वाली ९ प्रजातियों में से ७ प्रजातियों के गिद्ध पाये गए ।
    क्षेत्र संचालक पन्ना टाइगर रिजर्व आर श्रीनिवास मूर्ति ने बताया कि गिद्ध गणना-२०१३ के दौरान ६५९ स्थानीय गिद्ध पाये गए । इनमें ४७६ भारतीय गिद्ध ८६ सफेद पृष्ठ गिद्ध, ५२ गोबर गिद्ध और ४५ रेड हेडेड गिद्ध शामिल है । इसी प्रकार पाये गए १६० प्रवासी गिद्धों में यूरेशियन ग्रिफान प्रजाति के ४१, हिमालयन ग्रिफान प्रजाति के ११५, सिनेरस प्रजाति के चार गिद्ध शामिल है । अगले वर्ष से पार्क में पेरेग्रिन प्रजाति के गिद्ध के भी गणना मेंशामिल किए जाने पर विचार किया जा रहा है । पन्ना टाईगर रिजर्व में वर्ष २०११ से गिद्ध गणना पीपीपी पद्धति से करवाई जा रही है, जिसमें पूरे भारत से पक्षियों के बारे में ज्ञान रखने वाले प्रतिभागी भाग लेते हैं ।
    दो चरण में सम्पन्न होने वाली इस गणना के लिए देश के दस राज्य के कुल ११२ पक्षी विशेषज्ञों ने आवेदन किया था । परीक्षण के बाद ९४ प्रतिभागियों का चयन किया गया । चयनित प्रतिभागियों में ७ राज्य - आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, हरियाणा, बिहार, महाराष्ट्र एवं नई दिल्ली के प्रतिभागी और इसके अलावा पार्क के १६ गाइड शामिल हैं । क्षेत्र संचालक और अन्य वन अधिकारियों के नेतृत्व में इस टीम ने गणना को अंजाम दिया ।
    उल्लेखनीय है कि फसलों में कीटनाशकों के प्रयोग से देश में गिद्धों की संख्या लगातार कम होती जा रही है । गिद्धों की कुछ प्रजातियों तो विलुप्त् हो चुकी हैं । पर्यावरण संतुलन में ये पक्षी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
बोतलबंद पानी कितना सेहतकारी ?
    अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने वाले मानते है कि बोतलबंद पानी उनकी सेहत के लिए फायदेमंद है लेकिन यह पूरा सच नही है । एक नए अध्ययन में कहा गया कि पानी भले ही बहुत ही स्वच्छ हो लेकिन उसकी बोतल के प्रदूषित  होने की संभावनाएं बहुत ज्यादा होती है और इस कारण उसमें रखा पानी भी प्रदूषित हो सकता है । बोतलबंद पानी की कीमत भी सादे पानी की तुलना में अधिक चुकानी पड़ती है लेकिन इसके संक्रमण का एक स्त्रोत बनने का खतरा भी मौजूद रहता     है ।
    बोतलबंद पानी की जांच बहुत चलताऊ तरीके से होती है । महीने मेंसिर्र्फ एक बार इसके स्त्रोत का निरीक्षण किया जाता है, रोज नहीं होता है । एक बार पानी बोतल में जाने और सील होने के बाद यह बिकने से पहले महीनों स्टोर रूम में पड़ा रह सकता है ।
    घर में बोतलबंद पानी पीने वाले एक चौथाई मानते हैं कि वे बोतलबंद पानी इसलिए पीते हैं क्योंकि यह सादे पानी से ज्यादा अच्छा होता है लेकिन वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि सादे पानी को भी कठोर निरीक्षण प्रणाली के तहत रोज ही चेक किया जाता है । सादे पानी में क्लोरीन की मात्रा भी होती है जो बैक्टीरियल इन्फेशंस  जैसे खतरे को रोकने के लिए कारगर होता है ।
    बोतलबंद पानी मेंक्लोरीन जैसे इन्फेक्शन हटाने वाले कोई तत्व मिले नहीं होते हैं । एक बार बोतल को खोलने के बाद इसके स्टरलाइल रहने का कोई तरीका नहीं होता है और बोतल खुलने के बाद इसे कुछ ही घंटों या दिन में पीना बहुत जरूरी हो जाता हैं ।     
    बोतलबंद पानी को वैसे ही स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक बताया जाता है । वहीं अमेरिका के एक शहर में इस तरह की बॉटल से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के चलते, इन बोतलों पर प्रतिबंध लगाने की पहल की है । प्लास्टिक की वजह से पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान होता है ।
    भारत में स्वच्छ पेयजल यूं भी एक बड़ी सम्स्या है । बारिश हो या गर्मी लोगों को स्वच्छ पानी बड़ी मुश्किल से नसीब होता है । यहां बोतलबंद पानी का बाजार भी तेजी से फल-फूल रहा है ।  एक अनुमान के अनुसार यह ५५ प्रश की सालाना दर से बढ़ रहा है और इसका बाजार १ हजार करोड़ रू. से अधिक का हो चुका है । देश में लगभग सभी अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय ब्रांड में बोतलबंद पानी बाजार में उपलब्ध हैं । एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत में बोतलबंद पानी के २०० से ज्यादा ब्रांड हैं । इनमें ८० प्रतिशत से ज्यादा स्थानीय हैं ।
संरक्षित क्षेत्रों में प्रतिबंधित हो खनन
    केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा गठित एक समिति ने राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव अभयारण्यों जैसे संरक्षित क्षेत्रों  के एक किमी के दायरे और बारहमासी नदियों के तट से २५० मीटर की दूरी तक के क्षेत्र को खनन के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित करने की सिफारिश की है । समिति ने रिहायशी इलाकों को जलापूर्ति करने वाले जल क्षेत्रों, पनबिजली सिंचाई वाले जलाशयों और महत्वपूर्ण आर्द्र क्षेत्रों को भी प्रतिबंधित क्षेत्र बनाए जाने का सुझाव दिया है ।
    खनन जैसी विकास की परियोजनाआें से पर्यावरण को हो रहे नुकसान के मद्देनजर  इन गतिविधियों के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र चिहि्वत करने का मापदंड तय करने के लिए गठित समिति ने प्रतिबंधित क्षेत्रों को चिहि्वत करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों का मूल्यांकन करने का तरीका अपनाया और कुछ मापदंड बनाए हैं । जिन मापदंडों को बनाए उनमें वनाच्छादित और घने वन क्षेत्र, वन्यजीव, जैव विविधता, जलसंसाधन और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर क्षेत्रों का संरक्षण प्रमुख हैं । यदि खनन क्षेत्र के अंदर बहुसंख्य ग्रिड प्रतिबंधित श्रेणी में आएंगे तो उस ब्लाक को खनन के लिए प्रतिबंधित माना जाएगा । देश में १७८ श्रेणी के वनों की पहचान की गई है । इसी तरह देश के वनों में रक्षित क्षेत्रों का नेटवर्क है, जिन्हें १९७२ के वन्यजीव संरक्षण कानून के तहत सुरक्षा हासिल है । मंत्रालय   के सचिव की अध्यक्षता में गठित इस समिति में राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण, भारतीय वन सर्वेक्षण, भारतीय वन्यजीव संस्थान आसैर राष्ट्रीय बाघा संरक्षण प्राधिकरण के प्रतिनिधियों के अलावा विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधि भी शामिल थे ।   
वातावरण
हवा में घुलता जहर
प्रमोद भार्गव
    पिछले लगातार कई दिनों से दिल्ली में छाई रहने वाली धंुध ने कई चिंताजनक सवाल छोड़े हैं । औघोगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोगक्तावादी संस्कृति आधुनिक विकास के ऐसे नमूने, मॉडलद्ध हैं, जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए समूचे जीव-जगत को संकटग्रस्त बना रहे  हैं । इससे भी दुखद व भयावह स्थिति यह है कि विश्व बैंक के आर्थिक सलाहकार विलियम समर्स का कहना है कि हमें विकासशील देशों का प्रदूषण, अपशिष्ठ, कूड़ा-कचराद्ध निर्यात करना चाहिए । क्योंकि ऐसा करने से एक तो विकासशील देशों का पर्यावरण शुद्ध रहेगा, दूसरे इससे वैश्विक स्तर पर प्रदूषण घातक स्तर के मानक को स्पर्श नहीं कर पाएगा, क्योंकि तीसरी दुनिया के इन गरीब देशों में मनुष्य की कीमत सस्ती हैं । पूंजीवाद के भौतिक दर्शन का यह क्रूर नवीनतम संस्करण है जिसके वबंडर ने दिल्ली को एक पखवाड़े अपनी गिरफ्त में रखा । आधुनिक व प्रौघोगिक विकास का दंभ भरने वाले सत्ता-संचालकों के पास ऐसा कोई उपाय नहीं था, जिसका इस्तेमाल करके वे दिल्ली को इस संकट से तत्काल छुटकारा दिला पाते ? अंतत: लाचार दिल्लीवासी कुदरत पर ही आश्रित रहे । 
     भारत में औघोगिकरण की रफ्तार भूमण्डलीकरण के बाद तेज हुई । एक तरफ प्राकृतिक संपदा का दोहन बढ़ा तो दूसरी तरफ औघोगिक कचरे में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई । लिहाजा दिल्ली में जब शीत ऋतु ने दस्तक दी तो वायुमण्डल में आर्द्रता छा गई । इस नमी ने धूल और धुएं के बारीक कणों को वायुमण्डल में विलय होने से रोक दिया और दिल्ली के उपर एकाएक कोहरा अच्छादित हो गया । वातावरण का यह निर्माण क्यों हुआ, मौसम विज्ञानियों के पास इसका कोई स्पष्ट तार्किक उत्तर नहीं है । वे इसकी वजह तमिलनाडू में गतिमान रहीं, नीलम चक्रवात की तूफानी हवाआें को मान रहे हैं । लेकिन ये हवाएं तमिलनाडू से चलकर दिल्ली पर ही क्यों केन्द्रित हुई, इसका न तर्कसंगत जवाब है और न ही व्यावहारिक हल ।
    इसका एक कारण बढ़ते वाहन और उनका सह उत्पाद प्रदूषित धुंआ भी बताया गया । लेकिन वाहन तो चैन्नई, मुम्बई, बैगलुरू, अहमदाबाद और कोलकाता में भी दिल्ली से कम नहीं हैं, लेकिन इन शहरों में धुंध का माहौल नहीं    बना ? हालांकि हवा में घुलता जहर महानगरों में ही नहीं छोटे नगरों में भी प्रदूषण का सबब बन रहा है, इसमें कोई शक-सुबहा नहीं है । कारों की बढ़ती संख्या के कारण दिल्ली ही नहीं लखनऊ, कानपुर, अमृतसर, इन्दौर और अहमदाबाद जैसे शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर की सीमा लांघने को तत्पर है । दिल्ली में वायु प्रदूषण मानक स्तर से पांच गुना ज्यादा   है । उद्योगों से धंुआ उगलने और खेतों में बड़े पैमाने पर औघोगिक व इलेक्टोनिक कचरा जलाने से दिल्ली की हवा में जहरीले तत्वों की सघनता बढ़ी है ।
    मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के लगभग सभी छोटे शहरों को प्रदूषण की गिरफ्त में ले लिया है । डीजल व घासलेट से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पंपों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है । केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड देश के १२१ शहरोंमें वायु प्रदूषण का आंकलन करता है । इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरूपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित होता जा रहा है । इस प्रदूषण की मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रांति है । विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और कैरोसीन से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्च्े सांस की बीमारी की गिरफ्त में है । २० फीसदी बच्च्े मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में हैं । इस खतरनाक हालात से रूबरू होेने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियां अपना रही हैं, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किए बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे । यही कारण है कि डीजल वाहनों का चलन लगातार बढ़ रहा  है ।
    जिस गुजरात को हम आधुनिक विकास का मॉडल मानकर चल रहे हैं, वहां भी प्रदूषण के हालात भयावह हैं । कुछ समय पहले टाइम पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के चार प्रमुख प्रदूषित शहरों में गुजरात का वापी शहर शामिल हैं । इस नगर में ४०० किलोमीटर लंबी औद्योगिक पट्टी है । इन उद्योगों में कामगर और वापी के रहवासी कथित औद्योगिक विकास की बड़ी कीमत चुका रहे हैं । वापी के भूगर्भीय जल में पारे की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों से ९६ प्रतिशत ज्यादा है । यहां की वायु में धातुआें का संक्रमण तारी है जो फसलों को नुकसान पहुंचा रहा है । कमोबेश ऐसे ही हालात अंकलेश्वर बंदरगाह के हैं । यहां दुनिया के अनुपयोगी जहाजों को तोड़कर नष्ट किया जाता है । इन जहाजों में विषाक्त कचरा भी भरा होता हैं, जो मुफ्त में भारत को निर्यात किया जाता है ।
    इनमें ज्यादातर सोड़ा की राख, एसिडयुक्त बैटरियां और तमाम किस्म के घातक रसायन होते हैं । इन घातक तत्वों ने गुजरात के बंदरगाहों को बाजार में तब्दील कर दिया है । लिहाजा प्रदूषित कारोबार पर शीर्ष न्यायालय के निर्देश भी अंकुश नहीं लगा पा रहे हैं । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में प्रदूषित कचरा भी आयात हो रहा है । इसके लिए बाकायदा विश्व व्यापार संगठन के मंत्रियों की बैठक में भारत पर दबाव बनाने के लिए एक परिपत्र जारी किया कि भारत विकसित देशों पर पुननिर्मित वस्तुआें और उनके अपशिष्टों के निर्यात की कानूनी सुविधा दे । पंूजीवादी अवधारणा का जहरीले कचरे को भारत में प्रवेश की छूट देने का यह कौन-सा मानवतावादी तर्क है ? अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी इस प्रदूषण को निर्यात करते रहने का बेजा दबाव बनाए हैं ।
    हमारी गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों का भी बुरा हाल है । बनारस जहां करोड़ों श्रृद्धालु अपना परलोक सुधारने के लिए गंगा में डुबकी लगाते हैं, इस गंगा के प्रति एक सौ मिलीमीटर पानी में फेसल कोलिफार्म नामक बैक्टीरिया की मात्रा ६० हजार है । इस लिहाज से जो पानी स्नान के लिए सुरक्षित माना जाता है, उससे यह पाने १२० गुना ज्यादा खतरनाक है । यमुना में इसी बैक्टीरिया की तादात १० हजार है । मसलन देश की दोनों पवित्र नदियों को जल प्रदूषण ने अपवित्र बना दिया है । इन सब हालातों से रूबरू होने के बावजूद प्रदूषण से निजात दिलाने की प्राथमिकता न केन्द्र सरकार के एजेंडे में शामिल है और न ही राज्य सरकारों ने एजेंडे में ?   
विज्ञान, हमारे आसपास
क्यों टूटते हैं तारे ?
डॉ. विजय कुमार उपाध्याय
    आपने कभी न कभी टूटता तारा अवश्य देखा होगा । अचानक हवा में एक जलती हुई लकीर नजर आती है और पलक झपकते ही खत्म होजाती है । वैज्ञानिक प्राचीन काल से ही टूटते तारों का अध्ययन करते आए हैं और कई सिद्धांत प्रस्तुत हुए हैं ।
    सौर मंडल में मंगल और बृहस्पति की कक्षाआें के बीच काफी बड़ा फासला हैं । सन् १८०१ में इस क्षेत्र में खगोल वैज्ञानिकों द्वारा एक छोटा पिंड खोजा गया था जो सूर्य की परिक्रमा कर रहा था । उस समय से अब तक तक इस प्रकार के डेढ़ हजार से अधिक पिंडों की खोज की जा चुकी है । इन पिण्डों को क्षुद्र ग्रह (ऐस्टेरॉयड) कहा जाता है । ये क्षुद्र ग्रह समय-समय पर एक दूसरे से टकराते हैं । टकराने के कारण ये सूक्ष्म टुकड़ों में टूटते रहते हैं ।
     ये सूक्ष्म टुकड़े उल्काणु (मीटियोराइट) कहे जाते हैं । ये उल्काणु विभिन्न दिशाआें में बिखर जाते हैं । इनमें से कुछ टुकड़े विभिन्न ग्रहों तथा अन्य ब्रह्माण्डीय पिंडों से टकरा सकते हैं । ऐसे टकराव के निशान चांद, पृथ्वी तथा मंगल की सतह पर पाए गए हैं । ये निशान विभिन्न प्रकार के गर्त (क्रेटर) के रूप में मौजूद हैं ।
    उपरोक्त सूक्ष्म टुकड़े या उल्काणु जब पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करते हैं तो वायुमंडल के अणुआें से घर्षण के कारण उनमें से अधिकांश उल्काणु तेज प्रकाश के साथ जल उठते हैं जिन्हें उल्का कहा जाता है । यह ज्वलन प्रकाश की एक लकीर के रूप में दिखाई पड़ता है । सामान्य बोलचाल में इसे टूटता तारा भी कहा जाता है । कुछ लोग इसे देखना शुभ/अशुभ मानते हैं ।
    अधिकांश उल्काआें का प्रकाश तो सिर्फ चंद सेकंड ही दिखाई पड़ता है हालांकि प्रकाश की यह लकीर अधिक से अधिक एक मिनट तक दिखाई पड़ सकती है । प्रकाश की यह रेखा उल्का द्वारा वायुमंडल के अणुआें को आयनीकृत करने के कारण दिखाई पड़ती है । अधिकांश उल्काएं भू-सतह से लगभग १०० किलोमीटर ऊपर दिखाई पड़ने लगती हैं तथा भू-सतह से ६०-६५ किलोमीटर की ऊंचाई तक पहुंचते-पहुंचते लुप्त् हो जाती हैं। अधिकांश उल्काआें का वेग लगभग ४० किलोमीटर प्रति सेकंड होता है ।
    ऐसे अधिकांश सूक्ष्म टुकड़े तो उल्का के रूप मेंवायुमंडल में ही जलकर भस्म हो जाते हैं, परन्तु कुछ बड़े आकार के टुकड़े धरती तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं । धरती पर गिरने वाले इन टुकड़ों को उल्का पत्थर कहा जाता है ।
    उल्काआें का अध्ययन मानव प्रागैतिहासिक काल से ही करता आ रहा है । भारत के प्राचीन वैज्ञानिक वराहमिहिर द्वारा लिखित ग्रंथ वृहत् संहिता के उल्का लक्षणाध्याय में इस विषय की चर्चा विस्तारपूर्वक की गई है । इस पुस्तक में उल्का के पांच भेद बताए गए हैं- धिष्णया, उल्का, अशनि, बिजली तथा तारा । धिष्णया पतली छोटी पूंछ वाली, प्रज्वलित अग्नि के समान तथा दो हाथ लम्बी होती  है । उल्का विशाल सिर वाली, साढ़े तीन हाथ लम्बी और नीचे की ओर गिरती हुई दिखाई देती हैं । अशनि चक्र की तरह घूमती हुई, जोर की आवाज करती हुई पृथ्वी पर गिरती  है । बिजली विशाल आकार की होती है जो तड़-तड़ आवाज करती हुई पृथ्वी पर गिरती हैं । तारा एक हाथ तम्बी तेज प्रकाश करती हुई आकाश में एक ओर से दूसरी ओर जाती दिखाई देती है ।
    उल्काआें तथा क्षुद्र ग्रहों की उत्पत्ति के सम्बंध में वैज्ञानिकों का विचार है कि अतीत में सौर मंडल का कोई ग्रह टूटकर बिखर गया था जिसके टुकड़े क्षुद्र ग्रह अथवा उल्काआें के रूप में परिवर्तित हो   गए । कुछ अन्य वैज्ञानिकोंकी धारणा है कि अतीत में सौर मंडल के कोई दो ग्रह आपस में टकरा गए जिसके कारण दोनों ग्रह नष्ट हो गए । इनके नष्ट होने से उत्पन्न टुकड़े आज हमें क्षुद्र ग्रहों तथा उल्काआें के रूप में दिखाई पड़ते हैं । परन्तु इस परिकल्पना को कुछ वैज्ञानिकोंने संतोषजनक नहीं माना है । उनके मतानुसार मंगल तथा बृहस्पति के बीच इतना बड़ा फासला है कि वहां दो ग्रहों के आपस में टकराने की संभावना नगण्य मालूम पड़ती है । कुछ वैज्ञानिकों ने एक तीसरी परिकल्पना प्रस्तुत की    है । इस परिकल्पना के अनुसार क्षुद्र ग्रहों तथा उल्काआें का निर्माण सौर मंडल के निर्माण के साथ ही हुआ । आजकल अधिकांश वैज्ञानिक इसी परिकल्पना के समर्थक हैं ।
    धरती की सतह पर पाए गए अनेक उल्का पत्थरों के विश्लेषण से पता चला है कि उनमें लोहा तथा निकल धातुएं एवं कई प्रकार के सिलिकेट खनिज पाए जाते हैं । ये सिलिकेट खनिज उसी प्रकार के है जिस प्रकार के सिलिकेट खनिज बेसाल्ट नामक ज्वालामुखीय (आग्नेय) चट्टान में पाए जाते हैं । कुछ उल्का पत्थर तो शुद्ध लोहे के बने होते हैं । ये उल्का पत्थर देखने में ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो पिघले लोहे को उच्च् दाब पर धीरे-धीरे ठंडा किया गया हो । इस तथ्य के आधार पर कुछ वैज्ञानिक पहले मानते थे कि उल्काआें का निर्माण ऐसे ग्रह के टूटकर बिखरने से हुआ है जिसके केन्द्रीय भाग में लोहा मौजूद था ।
    परन्तु हाल में ही कुछ वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि इस प्रकार का लोहा कम दाब तथा कम तापमान पर भी निर्मित हो सकता है । कुछ उल्का पत्थरों में मौजूद रेडियोधर्मी खनिजों के विश्लेषण से पता चला है कि इनका निर्माण लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व हुआ था ।
    अभी तक किए गए विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि पृथ्वी की ओर आने वाली अधिकांश उल्काएं तो पृथ्वी के वायुमंडल से गुजरते समय ही जलकर राख हो जाती हैं या वाष्पीभूत हो जाती हैं । हर २४ घंटे औसतन लगभग दो करोड़ उल्काएं पृथ्वी के वायुमंडल से गुजरते समय जल जाती हैं । कभी-कभी एक घंटे में लाखों की संख्या में उल्काएं पृथ्वीके वायुमंडल में जलकर भस्म होती हैं । इस घटना को उल्कापात कहा जाता हैं । ऐसी घटना हर साल लगभग एक ही समय पर घटती है ं
    उल्काएं कृत्रिम उपग्रहों के लिए काफी खतरनाक साबित हुई    हैं । संयोवश यदि उल्काएं दन उपग्रहों से टकरा जाएं तो उपग्रह नष्ट हो सकते हैं । कभी-कभी किसी उल्का का टकराना काफी प्रलयंकारी साबित होता है । ऐसी एक घटना ३० जून १९०८ को घटी थी । उस दिन रूस के साइबेरिया क्षेत्र में उल्कापात हुआ था । इस उल्कापात की आवाज उस स्थान से लगभग ६०० किलोमीटर दूर तक सुनी गई थी । साथ ही ७५ किलोमीटर के दायरे में स्थित भवनों के शीशे टूट गए थे । इसके अलावा लगभग ३० किलोमीटर के क्षेत्र में पेड़-पौधे उखड़ गए थे और असंख्य जीव-जन्तु मारे गए थे । साइबेरिया में ही सन् १९४७ में पहाड़ी क्षेत्र में दल्कापात हुआ था ।
    प्रत्येक उल्का अपने साथ बाह्य अन्तरिक्ष से पत्थरों एवं धूल कणों की कुछ न कुछ मात्रा पृथ्वी पर अवश्य लाती है । अनुमान है कि प्रतिदिन लगभग दस लाख किलोग्राम पदार्थ उल्काआें द्वारा बाह्य अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर लाया जाता है । यह पदार्थ धूल कणों के रूप में होता है । ऐसे धूल कण ऊपरी वायुमंडल तथा ध्रूवों पर पाए गए हैं । परन्तु पृथ्वी के द्रव्यमान की तुलना में उल्काआें द्वारा लाए गए पदार्थ का द्रव्यमान नगण्य है ।
ज्ञान विज्ञान
प्रदूषण की निगरानी मेंचिड़िया
    सामान्य चिड़ियाएं हमें पर्यावरण निगरानी का एक आसान रास्ता दिखाती हैं ।
    घोंसलों में रहने वाली ऐसी चिड़ियाएं जो झीलों या बहते पानी की तलछट में पैदा होने वाले कीड़े-मकोड़े खाती हैं पर्यावरण की अच्छी तरह निगरानी कर सकती हैं । विस्कॉन्सिन स्थित लॉ क्रॉस जियॉलॉजिकल सर्वे ऑफ अपर मिडवेस्ट एन्वायर्मेंाटल साइंस सेंटर के थॉमस कस्टर बताते हैं कि इसका कारण यह है कि तलछटों के प्रदूषित होने से इन कीड़े-मकोड़ों के जरिए प्रदूषक पदार्थ इन पक्षियों और उनके अंड़ों में पहुंचेंगे ।
     श्री कस्टर का कहना है कि एक कारखाने में पानी व मिट्टी के उपचार के सात वर्षोंा बाद तक पॉलीक्लोरिनेटेड बाईफिनॉल नामक जहरीले रसायन की काफी मात्रा  ट्री स्वॉलो (टेकीसिनेटा बायकलर) नामक पक्षी के अंडे और चूजों में पाई गई थी । इस अध्ययन के बाद वहां और उपचार कार्य किया गया ।
    कैलिफोर्निया की सोसायटी ऑफ एन्वायर्मेंाटल टॉक्सिकोलॉजी एंड केमेस्ट्री की सालाना मिटिंग में कस्टर और उनके साथियों ने बताया कि उन्होंने स्वालो चिड़िया का उपयोग अन्य प्रदूषकों को जांचने में किस तरह किया । २०१० में ओहायो में टॉलेडो के समीप स्थित ओटावा नदी से दूषित तलछट को हटाया गया    था । स्वालो की मदद से उस नदी के प्रदूषण की निगरानी की गई । हालांकि फिलहाल पूरे आंकड़े नहीं आए हैं मगर चिड़िया के दृष्टिकोण से देखा जाए तो वे स्वस्थ हैं ।
    इस काम में स्वालो चिड़िया का उपयोग इसलिए किया गया क्योंकि यह भोजन के लिए ज्यादा दूर नहीं जाती हैं, अपने घोंसले से ज्यादा से ज्यादा ५०० मीटर की दूरी तक । लिहाजा यह चिड़िया स्थानीय संदूषण का संकेत देती है । इसके अलावा इन्हें आसानी से आकर्षित किया जा सकता है । जैसे लकड़ी के डिब्बे लगा कर घोंसले बनाने की जगह देने पर ये वहां आ जाती है ।
    दूसरे शोधकर्ता मानते हैं कि इस काम के लिए स्वालो चिड़िया का उपयोग बहुत ही मददगार है । वैसे सदर्न इलिनॉय युनिवर्सिटी के रिचर्ड हालब्रुक का कहना है कि स्वालो चिड़िया के अलावा पालतू कबूतरोंका उपयोग भी इस काम के लिए किया जा सकता है । श्री हालब्रुक ने हवा की गुणवत्ता को परखने के लिए इन कबूतरोंका उपयोग किया है  । जैसा कि हम जानते हैं कि कबूतर संदेश लेकर जाने-आने का काम करते    थे । और वे हवा की गुणवत्ता का विस्तृत रिकार्ड रखने के लिए बढ़िया साबित हो सकते हैं ।
    श्री हालब्रुक ने अपने अध्ययन के लिए चीन, फिलिपाइंस और यू.एस. से कुछ कबूतर खरीदे और देखा कि उनकी सेहत मेंऐसे अंतर थे जो वहां की गुणवत्ता से सम्बंधित थे । उदाहरण के लिए बिजिंग और मनीला मेंपाए जाने वाले कबूतरों के फेफड़े काले थे और वृषण बढ़े हुए  थे । एक कबूतर के वृषण तो इतने ज्यादा बढ़े हुए थे कि इनका वजन पूरे कबूतर के वजन के २० प्रतिशत के बराबर था । इसके विपरीत कम प्रदूषण वाले क्षेत्रों में पाए जाने वाले कबूतरों के अंग ज्यादा स्वस्थ थे ।

पसीना ग्रंथियां घाव की मरम्मत में मददगार
    शरीर पर कोई घाव हो जाए, तो आम तौर पर उसकी मरम्मत हो जाती है । ऐसा माना जाता रहा है कि चमड़ी के घावों को भरने के लिए नई कोशिकाआें का निर्माण वालों की आधार कोशिकाएं करती हैं । बालों की जड़ों के आसपास एक आवरण होता है जिसे फॉलिकल कहते हैं । अन्य जानवरों में घावों को भरने के लिए नई कोशिकाएं या तो बालों के फॉलिकल से बनती हैं या घाव के किनारे पर स्थित त्वचा की कोशिकाआें से । लिहाजा यह मानना गलत नहीं था कि इंसानों में भी ऐसा ही होता होगा । 

  मगर अमेरिकन जनरल ऑफ पैथॉलॉजी में प्रकाशित ताजा शोध पत्र के मुताबिक इंसानों में घावों को भरने के लिए नई कोशिकाएं एक किस्म की पसीना ग्रंथियों - एक्राइन ग्रंथियों - से बनती   हैं ।  एक्राइन ग्रंथियां शरीर के तापमान के नियमन में मदद करती हैं । मिशिगन विश्वविद्यालय मेडिकल स्कूल की लौरे रिटी और उनके साथियोंने अपने उपरोक्त शोध पत्र में प्रयोगों के हवाले से यह जानकारी दी है ।
    घाव की मरम्मत के अध्ययन के लिए रिटी व उनके साथियों ने ३१ वालंटियर्स की त्वचा पर लेजर की मदद से छोटे-छोटे घाव बना   दिए । इसके एक सप्तह तक उन्होंने इन व्यक्तियों के ऊतक के नमूनों की जांच की । यह देखा गया कि घाव बनने से पहले एक्राइन ग्रंथियों में बहुत थोड़ी-सी नई कोशिकाएं थीं । मगर चार दिन बाद इन ग्रंथियों में नई कोशिकाआें की भरमार देखी गई ।
    इससे पता चलता है कि एक्राइन ग्रंथियों में वयस्क स्टेम कोशिकाआें का भंडार होता है जिनका उपयोग घाव की मरम्मत के लिए नई कोशिकाएं बनाने में किया जाता है । गौरतलब है कि मनुष्यों में एक्राइन ग्रंथियों संख्या हेयर फॉलिकल  के मुकाबले तीन गुना ज्यादा होती है । लिहाजा मनुष्यों में एक्राइन ग्रंथियों ही नई कोशिकाआें का प्रमुख स्त्रोत होती है ।
    अन्य वैज्ञानिकों का ख्याल है कि यह खोज निहायत अनपेक्षित है और परंपरागत सोच के विपरीत है । यह भी माना जा रहा है कि घाव की मरम्मत की दृष्टि से यह खोज कुछ सर्वथा नवीन उपचारों का मार्ग प्रशस्त करेगी ।

डॉल्फिनों ने निभाई दोस्ती
    पहली बार वैज्ञानिकों ने देखा है कि कुछ डॉल्फिन मिल कर पानी में एक दम तोड़ रहे डॉल्फिन  की मदद कर रहे थे । यहां तक की उसे सांस लेने में भी मदद कर रहे थे । दक्षिण कोरियाई वैज्ञानिकों ने उल्सान शहर के पास पूर्वी सागर तट के पास डॉल्फिनों को अपने साथी की मदद करते हुए पाया है । उन्होंने देखा कि पांच डॉल्फिनों ने मिल कर अपने शरीरों को एक नौका की तरह बना लिया और एक चोटिल डॉल्फिन को उस पर रख कर ले जाने लगे । 
 एक सर्वे के दौरान उन्होंने देखा कि चार सौ डॉल्फिन  के समूह  के पीछे पीछे लगभग पांच सौ समुद्री पक्षी उड़ रहे थे । इसी दौरान पता चला कि १२ डॉल्फिनों के तैरने की रफ्तार कम हो गई । उनमें से एक डॉल्फिन  घायल हो गया था, जिसके बाद कई डॉल्फिनोंने उसके आसपास घेरा बना लिया था और उसे संतुलन बनाने मेंमदद करने लगे । इसके बाद पांच डॉल्फिन क्षैतिज रूप से कतारबद्ध हो गए और एक नौका के समान खुद को बना लिया और घायल डॉल्फिन  को अपनी पीठ पर रख कर चलने लगे । एक डॉल्फिन  ने जहाँ घायल डॉल्फिन  ऊपर से थपथपाया, तो दूसरे डॉल्फिन  ने अपनी चोंच से उसका सिर ऊपर की तरफ रखने की कोशिश की ।
    मैरीन मैमल साइंस नाम की पत्रिका में डॉल्फिनों के इस व्यवहार पर एक रिपोर्ट छपी है । उल्सान के सेटासीन रिसर्च इंस्टीट्यूट के क्यूम जे पार्क का कहना है कि उन्होंने अपने साथियों के साथ देखा कि कैसे लंबी चोंच वाले डॉल्फिन  मिल कर एक व्यस्क डॉल्फिन की जान बचाने की कोशिश कर रहे थे । वैज्ञानिकों को सामान्य निगरानी के दौरान ये घटना देखने को मिली । पहले भी ऐसा देखने को मिला है कि डॉल्फिन  या व्हेल अपने किसी साथी को बचाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन सभी मामलों में एक या दो जीवों को ऐसा करते हुए पाया गया था ।      
 कविता
बूझता नहीं रास्ता
अशोक वाजपेयी

पसरती
    कारखाना संस्कृति के
मुहाने पर उगी दूब
    उसका मुह चिढ़ाती है ।
विज्ञापनी माहौल
    खड़ा कर देता है
        चौराहे पर ।
हंसती है प्रतिभाएँ
    लगाया था जिन्हें
बतौर निशानी
    रास्ता भूलजाने पर ।
समन्दर पार के कारिन्दे
    हड़पना चाहते हैं
हमारा नमक ।
    निकल पड़ते हैं
चिटियों के जूलूस
    अदायगी की खातिर ।
बचाने
    अपना समन्दर ।
इस भयावह में
    छीन लेते हैं
बच्चें की गेंद
    कफ्र्यू लगाने वाले हाथ ।
खोखले लगते हैं
    नारे बच्चें को
तब -
    फूल से नन्हें बालक
और -
    शाखाआें से पुष्ट होते किशोर 
छत पर जमा करने लगते हैं
पत्थरों के पहाड़ ।
    आदिम सतपुड़ा के दिल में
    पड़ती है दरार
निहत्थे आदिवासियों पर
सतान्धों के अंधाधुन्ध
आक्रमण से
    जिन्हें रास्ते मालूूम नहीं थे
मैदानों में बसे
    लान वाले शहरों के ।
बचाने जा आए थे
    हरियाली जड़ों की
उन्हें मालूम नहीं था
    जिन गेड़ियों पर वे नाचते हैं
वे ही उन पर बरस पड़गी
जिन पत्थरों से
    इजाद की थी आग
वे ही बुल्डोजर की शक्ल में
तबाह कर रहे थे
जंगल ।
जंगल जो
    रास्ता सदा से खोलते आए हैं मंगल का ।
(दिशा संवाद से साभार)
    
पर्यावरण समाचार
महाकुंभ को ग्रीन कुंभ का दर्जा दिलाने में लगे साधु-संत
    उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में चल रहे महाकुंभ में आस्था के साथ सामाजिक सरोकार की भी गंगा बह रह है जहां साधु-संत इसे ग्रीन कुंभ का दर्जा दिलाने में जुटे हैं ।
    ग्रीन कुंभ का दर्जा दिलाने में बड़ी संख्या में विदेशियों का भी सहयोग मिल रहा है । विदेशों से आने वाले श्रद्धालु तथा योग ध्यान की दीक्षा लेने वाले बड़ी संख्या में  ग्रीन कुंभ अभियान से जुड़े हैं । पर्यावरण संरक्षण के लिए संतोंने कमान संभाली है तो उनके विदेशी शिष्य भी कहां पीछे रहने वाले थे । वह भी इस अभियान का हिस्सा बन गए ।
    संगम तट पर पहुंचे महात्मा इन दिनों गंगा को बचाने और इस कुम्भ को ग्रीन कुम्भ का दर्जा दिलाने में लगे हुए  हैं । जल संरक्षण और अविरल निर्मल गंगा के प्रवाह के लिए सगंम किनारे विशेष आयोजन किया जारहा है ।
    देसी बाबा के विदेशी भक्तों ने पर्यावरण के प्रति लोगोंको जागरूक करने के लिए हरित समाधि भी ली । ग्रीन कुम्भ के संकल्प में शामिल होने के लिए कुछ दिन पूर्व उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी एल जोशी भी आए थे । प्रयाग के अरैल घाट पर स्थित स्वामी चिदानन्द के परमार्थ निकेतन शिविर मेंभारी संख्या में  विदेशी भक्त भी विशेष अंदाज में शामिल हो रहे हैं ।
    हरित कुम्भ का संकल्प लेने वाले बाबा के विदेशी भक्तों ने पर्यावरण प्रेम को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए अपने आप को एक हरे पेड़ के रूप में सजाया और फिर पूरे मेले क्षेत्र में घूम घूमकर लोगों को हरित कुम्भ के संकल्प को दोहराया । स्वामी चिदानंद की एक भक्त मडोना पेड़ बनी तो उनकी एक और भक्त सारिका ने खुद को तितली के  रूप में सजाया । इन रंग-बिरंगी विदेशी भक्तों को देखकर ऐसा लग रहा था मानो गंगा लोगों के मन में बस गई है ।
मध्यप्रदेश में ५०० रूपये में बिक रहा है डायनॉसॉर का अंडा
    मध्यप्रदेश के फॉसिल वाले इलाके धार में डायनॉसॉर  के कीमती अंडे मिट्टी के भाव बेचे जा रहे हैं । इंटरनेशनल मार्केट में डायनॉसॉर के एक अंडे की कीमत १ करोड़ रूपये है, मगर यहां पर गैरकानूनी तरीके से एक अंडा ५०० रूपये मेंबेचा जा रहा है ।
    मध्यप्रदेश के धार जिले में पाडल्या में ८९ हेक्टेयर इलाके को फॉसिल साइट नोटिफाई किया गया है । यहां पर डायनॉसॉर और उनके अंडों के फॉसिल बड़ी तादाद में पाए जाते हैं । मगर साल २००७ में यह एरिया सेफ नहीं है । फॉसिल स्टडी करने वाले साइटिस्ट्स के लिए यहां मिलने वाले डायनॉसॉर के अंडोंकी काफी डिमाण्ड है । ऐसे में उनकी स्टडी के लिए यहां से बड़े पैमाने पर फॉसिल्स की स्मगलिंग हो रही है । १४५ से ६६ लाख मिलियन साल पहले क्रिटेशस पीरियड के दौरान के फॉसिल्स को निकालकर खुलेआम बेचा जा रहा है, मगर रोकने वाला कोई नहीं ।
    सूत्रों के मुताबिक महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के आने वाले स्मगलर ट्राइबल इलाकोंमें आते है और लोगों को पैसों का लालच देकर आराम से स्मगलिंग को अंजाम देते हैं । मध्यप्रदेश सरकार अब आकर जागी है और फॉसिल प्रिजर्वेशन ऐक्ट लाने जा रही है, ताकि इस गोरखधंधे पर लगाम कसी जा सके । वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों ने बताया कि इस बारे में कानून का ड्राफ्ट लॉ डिपार्टमेंट के पास भेजा जा चुका है ।
    मध्यप्रदेश के वन मंत्री सरताज सिंह का कहना है कि अभी तक डायनॉसॉर के कितने अंडे निकाले जा चुके है, इसका कोई हिसाब नहीं है । इस गोरखधंधे को रोकने के लिए अभी तक कुछ नहीं किया गया है, ऐसे में एक सख्त कानून बनाना बेहद जरूरी है । उन्होनें कहा, सरकार इस तरफ ध्यान नहीं दे पाई और नाकाम रही । इस बात से स्मगलर्स के हौसले बहुत बढ़े हुए हैं । अगर ऐक्ट बन जाता है, तो फॉसिल्स को बचाया जा सकता है ।