सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

ज्ञान विज्ञान
प्रदूषण की निगरानी मेंचिड़िया
    सामान्य चिड़ियाएं हमें पर्यावरण निगरानी का एक आसान रास्ता दिखाती हैं ।
    घोंसलों में रहने वाली ऐसी चिड़ियाएं जो झीलों या बहते पानी की तलछट में पैदा होने वाले कीड़े-मकोड़े खाती हैं पर्यावरण की अच्छी तरह निगरानी कर सकती हैं । विस्कॉन्सिन स्थित लॉ क्रॉस जियॉलॉजिकल सर्वे ऑफ अपर मिडवेस्ट एन्वायर्मेंाटल साइंस सेंटर के थॉमस कस्टर बताते हैं कि इसका कारण यह है कि तलछटों के प्रदूषित होने से इन कीड़े-मकोड़ों के जरिए प्रदूषक पदार्थ इन पक्षियों और उनके अंड़ों में पहुंचेंगे ।
     श्री कस्टर का कहना है कि एक कारखाने में पानी व मिट्टी के उपचार के सात वर्षोंा बाद तक पॉलीक्लोरिनेटेड बाईफिनॉल नामक जहरीले रसायन की काफी मात्रा  ट्री स्वॉलो (टेकीसिनेटा बायकलर) नामक पक्षी के अंडे और चूजों में पाई गई थी । इस अध्ययन के बाद वहां और उपचार कार्य किया गया ।
    कैलिफोर्निया की सोसायटी ऑफ एन्वायर्मेंाटल टॉक्सिकोलॉजी एंड केमेस्ट्री की सालाना मिटिंग में कस्टर और उनके साथियों ने बताया कि उन्होंने स्वालो चिड़िया का उपयोग अन्य प्रदूषकों को जांचने में किस तरह किया । २०१० में ओहायो में टॉलेडो के समीप स्थित ओटावा नदी से दूषित तलछट को हटाया गया    था । स्वालो की मदद से उस नदी के प्रदूषण की निगरानी की गई । हालांकि फिलहाल पूरे आंकड़े नहीं आए हैं मगर चिड़िया के दृष्टिकोण से देखा जाए तो वे स्वस्थ हैं ।
    इस काम में स्वालो चिड़िया का उपयोग इसलिए किया गया क्योंकि यह भोजन के लिए ज्यादा दूर नहीं जाती हैं, अपने घोंसले से ज्यादा से ज्यादा ५०० मीटर की दूरी तक । लिहाजा यह चिड़िया स्थानीय संदूषण का संकेत देती है । इसके अलावा इन्हें आसानी से आकर्षित किया जा सकता है । जैसे लकड़ी के डिब्बे लगा कर घोंसले बनाने की जगह देने पर ये वहां आ जाती है ।
    दूसरे शोधकर्ता मानते हैं कि इस काम के लिए स्वालो चिड़िया का उपयोग बहुत ही मददगार है । वैसे सदर्न इलिनॉय युनिवर्सिटी के रिचर्ड हालब्रुक का कहना है कि स्वालो चिड़िया के अलावा पालतू कबूतरोंका उपयोग भी इस काम के लिए किया जा सकता है । श्री हालब्रुक ने हवा की गुणवत्ता को परखने के लिए इन कबूतरोंका उपयोग किया है  । जैसा कि हम जानते हैं कि कबूतर संदेश लेकर जाने-आने का काम करते    थे । और वे हवा की गुणवत्ता का विस्तृत रिकार्ड रखने के लिए बढ़िया साबित हो सकते हैं ।
    श्री हालब्रुक ने अपने अध्ययन के लिए चीन, फिलिपाइंस और यू.एस. से कुछ कबूतर खरीदे और देखा कि उनकी सेहत मेंऐसे अंतर थे जो वहां की गुणवत्ता से सम्बंधित थे । उदाहरण के लिए बिजिंग और मनीला मेंपाए जाने वाले कबूतरों के फेफड़े काले थे और वृषण बढ़े हुए  थे । एक कबूतर के वृषण तो इतने ज्यादा बढ़े हुए थे कि इनका वजन पूरे कबूतर के वजन के २० प्रतिशत के बराबर था । इसके विपरीत कम प्रदूषण वाले क्षेत्रों में पाए जाने वाले कबूतरों के अंग ज्यादा स्वस्थ थे ।

पसीना ग्रंथियां घाव की मरम्मत में मददगार
    शरीर पर कोई घाव हो जाए, तो आम तौर पर उसकी मरम्मत हो जाती है । ऐसा माना जाता रहा है कि चमड़ी के घावों को भरने के लिए नई कोशिकाआें का निर्माण वालों की आधार कोशिकाएं करती हैं । बालों की जड़ों के आसपास एक आवरण होता है जिसे फॉलिकल कहते हैं । अन्य जानवरों में घावों को भरने के लिए नई कोशिकाएं या तो बालों के फॉलिकल से बनती हैं या घाव के किनारे पर स्थित त्वचा की कोशिकाआें से । लिहाजा यह मानना गलत नहीं था कि इंसानों में भी ऐसा ही होता होगा । 

  मगर अमेरिकन जनरल ऑफ पैथॉलॉजी में प्रकाशित ताजा शोध पत्र के मुताबिक इंसानों में घावों को भरने के लिए नई कोशिकाएं एक किस्म की पसीना ग्रंथियों - एक्राइन ग्रंथियों - से बनती   हैं ।  एक्राइन ग्रंथियां शरीर के तापमान के नियमन में मदद करती हैं । मिशिगन विश्वविद्यालय मेडिकल स्कूल की लौरे रिटी और उनके साथियोंने अपने उपरोक्त शोध पत्र में प्रयोगों के हवाले से यह जानकारी दी है ।
    घाव की मरम्मत के अध्ययन के लिए रिटी व उनके साथियों ने ३१ वालंटियर्स की त्वचा पर लेजर की मदद से छोटे-छोटे घाव बना   दिए । इसके एक सप्तह तक उन्होंने इन व्यक्तियों के ऊतक के नमूनों की जांच की । यह देखा गया कि घाव बनने से पहले एक्राइन ग्रंथियों में बहुत थोड़ी-सी नई कोशिकाएं थीं । मगर चार दिन बाद इन ग्रंथियों में नई कोशिकाआें की भरमार देखी गई ।
    इससे पता चलता है कि एक्राइन ग्रंथियों में वयस्क स्टेम कोशिकाआें का भंडार होता है जिनका उपयोग घाव की मरम्मत के लिए नई कोशिकाएं बनाने में किया जाता है । गौरतलब है कि मनुष्यों में एक्राइन ग्रंथियों संख्या हेयर फॉलिकल  के मुकाबले तीन गुना ज्यादा होती है । लिहाजा मनुष्यों में एक्राइन ग्रंथियों ही नई कोशिकाआें का प्रमुख स्त्रोत होती है ।
    अन्य वैज्ञानिकों का ख्याल है कि यह खोज निहायत अनपेक्षित है और परंपरागत सोच के विपरीत है । यह भी माना जा रहा है कि घाव की मरम्मत की दृष्टि से यह खोज कुछ सर्वथा नवीन उपचारों का मार्ग प्रशस्त करेगी ।

डॉल्फिनों ने निभाई दोस्ती
    पहली बार वैज्ञानिकों ने देखा है कि कुछ डॉल्फिन मिल कर पानी में एक दम तोड़ रहे डॉल्फिन  की मदद कर रहे थे । यहां तक की उसे सांस लेने में भी मदद कर रहे थे । दक्षिण कोरियाई वैज्ञानिकों ने उल्सान शहर के पास पूर्वी सागर तट के पास डॉल्फिनों को अपने साथी की मदद करते हुए पाया है । उन्होंने देखा कि पांच डॉल्फिनों ने मिल कर अपने शरीरों को एक नौका की तरह बना लिया और एक चोटिल डॉल्फिन को उस पर रख कर ले जाने लगे । 
 एक सर्वे के दौरान उन्होंने देखा कि चार सौ डॉल्फिन  के समूह  के पीछे पीछे लगभग पांच सौ समुद्री पक्षी उड़ रहे थे । इसी दौरान पता चला कि १२ डॉल्फिनों के तैरने की रफ्तार कम हो गई । उनमें से एक डॉल्फिन  घायल हो गया था, जिसके बाद कई डॉल्फिनोंने उसके आसपास घेरा बना लिया था और उसे संतुलन बनाने मेंमदद करने लगे । इसके बाद पांच डॉल्फिन क्षैतिज रूप से कतारबद्ध हो गए और एक नौका के समान खुद को बना लिया और घायल डॉल्फिन  को अपनी पीठ पर रख कर चलने लगे । एक डॉल्फिन  ने जहाँ घायल डॉल्फिन  ऊपर से थपथपाया, तो दूसरे डॉल्फिन  ने अपनी चोंच से उसका सिर ऊपर की तरफ रखने की कोशिश की ।
    मैरीन मैमल साइंस नाम की पत्रिका में डॉल्फिनों के इस व्यवहार पर एक रिपोर्ट छपी है । उल्सान के सेटासीन रिसर्च इंस्टीट्यूट के क्यूम जे पार्क का कहना है कि उन्होंने अपने साथियों के साथ देखा कि कैसे लंबी चोंच वाले डॉल्फिन  मिल कर एक व्यस्क डॉल्फिन की जान बचाने की कोशिश कर रहे थे । वैज्ञानिकों को सामान्य निगरानी के दौरान ये घटना देखने को मिली । पहले भी ऐसा देखने को मिला है कि डॉल्फिन  या व्हेल अपने किसी साथी को बचाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन सभी मामलों में एक या दो जीवों को ऐसा करते हुए पाया गया था ।      

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