रविवार, 18 नवंबर 2018



प्रसंगवश
मीठा कागज पानी से बैक्टीरिया हटाएगा
डॉ. दीपक कोहली, 
कनाडा में भारतीय मूल के शोधकर्ताओं के एक दल ने चीनी युक्त कागज की एक विशेष पट्टी विकसित की है, जिसके जरिए पानी से हानिकारक बैक्टीरिया दूर किए जा सकते हैं । शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे भारत समेत दुनिया भर में, खासकर ग्रामीण इलाकों में प्रदूषित पानी से ई.कोली नामक हानिकारक बैक्टीरिया को खत्म किया जा सकेगा । इस विशेष पट्टी को  डिपट्रीट  नाम दिया गया है।
यॉर्क यूनिवर्सिटी की माइक्रो एंड नैनो स्केल ट्रांसपोर्ट लैब के शोधकर्ता सुशांत मित्रा ने कहा कि उनकी खोज डिपट्रीट दुनिया भर में स्वास्थ्य लाभों के साथ किफायती और पोर्टेबल उपकरणों  के विकास के  लिए अहम होगी ।
प्रदूषित पानी के नमूनों में डिपट्रीट को डुबोकर लगभग ९० प्रतिशत बैक्टीरिया को प्रभावी तरीके से समाप्त् करने में शोध टीम को सफलता मिल चुकी है। डिपट्रीट की मदद से पानी में ई.कोली बैक्टीरिया का पता लगाने, उसे पकड़ने और खत्म करने में दो घंटे से भी कम समय लगेगा। इस विशेष कागज़ी पट्टी के इस्तेमाल से वैश्विक स्वास्थ्य के परिदृश्य को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी । इससे कनाड़ा के सुदूर उत्तरी क्षेत्रों से लेकर भारत के पिछड़े ग्रामीण इलाकों तक, पानी को बैक्टीरिया केप्रदूषण से मुक्त करना आसान हो सकेगा।
कई शोधकर्ता पानी से बैक्टीरिया को हटाने के लिए कागज की छिद्रयुक्त पट्टी का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन डिपट्रीट में सहजन की फलियों के बीज में पाए जाने वाले बैक्टीरियारोधी तत्व का इस्तेमाल किया है, ताकि प्रदूषित पानी से बैक्टीरिया को न केवल छाना जा सके, बल्कि नष्ट भी किया जा सके । 
मौजूदा जलशोधन प्रणालियों में चांदी के सूक्ष्म कणों और मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है। इन चीजों के इस्तेमाल से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। लेकिन डिपट्रीट में कुदरती बैक्टीरियारोधी तत्व चीनी का इस्तेमाल किया गया है। इससे पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल  असर पड़ने की संभावना बिल्कुल नहीं है।
सम्पादकीय
प्रकृति को बचाना हमारी जिम्मेदारी है 
 विकास और प्रगति के नाम पर हमने ऐसा बहुत कुछ खो दिया है, जो हमारे जीवन को ज्यादा समृद्ध और मूल्यवान बनाता है । हमने वन सम्पदा को नष्ट किया है, खेतों को  उजाड़ दिया है और नदियों को प्रदूषित किया है । अंधाधुंध विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों को यानी पेड़ों, पहाड़ों और नदियों को बेतहाशा लूटा है । अब इसे समझने की जरूरत और सहेजने-संभालने की जरूरत है क्योंकि इनका संबंध हमारे अस्तित्व और हमारी संस्कृति से है । 
रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक कविता है देश की माटी देश का जल, हवा देश की देश के फल, सरस बनें प्रभु सरस बनें । देश के घर और देश के घाट, देश के वन और देश के बाट सरल बनेंप्रभु सरल बनें । देश के तन और देश के मन, देश के घर के भाई बहन, विमल बने प्रभु विमल बने । हमारी कला और संस्कृति ने देश की माटी और देश के जल का पुनर्वास किया है । हमारे यहां कितनी विविधता है ? यह वैविध्यपूर्ण पर्यावरण देश को समृद्ध बनाता है । इसलिए संस्कृति और प्रकृति के क्षेत्र में हमारा देश अलग और अनूठी पहचान रखता है । इस सुन्दरता को महसूस करना होगा और बचाना होगा । 
इस समय प्रकृति और संस्कृति दोनोंही खतरे में है । प्रसिद्ध कवि शिवमंगलसिंह सुमन अपनी कविता में कहते हैं - स्वातंत्रय सोचने का हक है, जैसे भी मन की धारा चले, स्वातंत्रय प्रेम की सत्ता है कि जिस ओर ह्दय का प्यार चले स्वातंत्रय बोलने का हक है जो कुछ  दिमाग में आता है । देश मेंविगत वर्षो में कहीं न कहीं असहमति में उठा हाथ इसलिए भी है क्योंकि जरूरत से ज्यादा व्यक्ति की व्यक्तिगत बातों पर निगरानी का माहौल बना है । व्यक्ति की निजता हर हाल में सुरक्षित होनी चाहिए उसे सार्वजनिक करना या न करना भी व्यक्ति का निजी अधिकार होना चाहिए । 
इसलिए एक सर्वसमावेशी दृष्टिकोण के साथ हमारी यह जिम्मेदारी है कि रचनात्मक स्तर पर कार्य किए जाए ताकि एक अधिक उदार और संवेनदशील समाज का निर्माण हो सके जो पर्यावरण और संस्कृति दोनों को बचाने में सहयोगी हो । 
सामयिक
पानी पैदा नही कर सकते
संध्या रायचौधरी 
साढ़े चार अरब साल पहले धरती पर पानी आया था। जब पृथ्वी का जन्म हुआ तब यह बहुत गर्म थी। कालांतर में यह ठंडी हुई और इस पर पानी ठहरा । वर्तमान में जल संकट बहुत गहरा है । आज पानी महत्वपूर्ण व मूल्यवान वस्तु बन चुका है। शुद्ध पानी जहां अमृत है, वहीं दूषित पानी विष और महामारी का आधार । जल संसाधन संरक्षण और संवर्धन आज की जरूरत है जिसमें जनता का सहयोग अपेक्षित है ।
धरती के गर्भ से पानी की आखरी बूंद भी खींचने की कवायद की जा रही है। विख्यात समुद्र शास्त्री जैक्वस कांसट्यू ने कहा था कि हमें नहीं भूलना चाहिए कि जल और जीवन चक्र्र में कोई अंतर नहीं है और यह बात सोलह आने खरी है। लेकिन इस बात को नजर अंदाज करके हम खुद ही बड़े संकट में घिरे हैं । बनारस की वरुणा नदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसका पानी कब कीचड़ बन गया पता ही नहीं चला। यह हालत मात्र वरुणा की ही नहीं, देश-दुनिया की सारी नदियों की हो गई है। दुनिया में पानी की किल्लत एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। भारत में पिछले वर्ष ३३ करोड़ लोगों ने जल संकट का सामना किया था, लेकिन हमने कोई सबक नहीं लिया ।
पृथ्वी पर कुल उपलब्ध जल लगभग १.३६ अरब घन कि.मी. है, परंतु उसमें से ९६.५ प्रतिशत जल समुद्री है जो खारा है । यह खारा जल समुद्री जीवों और वनस्पतियों को छोड़कर शेष जीवों के लिए अनुपयोगी है। शेष ३.५ प्रतिशत (लगभग ४.८ करोड़ घन कि.मी.) जल मीठा है, किन्तु इसका २४ लाख घन कि.मी. हिस्सा ६०० मीटर गहराई में भूमिगत जल के रूप में विद्यमान है तथा लगभग ५ लाख घन कि.मी. जल गंदा व प्रदूषित हो चुका है, इस प्रकार पृथ्वी पर उपस्थित कुल जल का मात्र  एक प्रतिशत हिस्सा ही उपयोगी है। इस एक फीसदी जल पर दुनिया के  छ: अरब मनुष्यों समेत सारे सजीव और वनस्पतियां निर्भर हैं ।
जिस तरह दुनिया से पानी गायब होना शुरू हो रहा है ऐसे में आने वाले समय में पानी झगड़ों का सबसे बड़ा कारक बनेगा । पानी की किल्लत व लड़ाई सिर्फ गली-कूचों तक नहीं रहने वाली, राज्यों व देशों के बीच नदियों का झगड़ा इसका उदाहरण है। हरियाणा, पंजाब और दिल्ली का झगड़ा हो या फिर कावेरी नदी के लिए कर्नाटक और तमिलनाडु की लड़ाई हो, मुद्दा पानी ही  है। दूसरी तरफ ब्रम्हपुत्र के लिए चीन, भारत व बांग्लादेश का टकराव इसका उदाहरण है। पिछले वर्ष महाराष्ट्र के कई जिलों में धारा १४४ इसलिए लगा दी गई थी क्योंकि पानी को लेकर झगड़े शुरू हो गए थे ।  
पिछले तीन दशकों में कुछ ऐसा हुआ है जिससे कि पानी की विभिन्न उपयोगिताएं तो बढ़ी ही हैं पर साथ में जनसंख्या की बढ़ोतरी ने भी दूसरी बड़ी मार की है। पहले पानी पीने और सीमित सिंचाई में काम आता था पर अब इसके कई अन्य उपयोग शुरू  हो गए हैं । उद्योगों पर होने वाली पानी की खपत एक बड़ा मुद्दा है। अब पानी स्वयं ही उद्योगी उत्पाद के  रूप में सामने है । जो पानी पोखरों, तालाबों या फिर नदियों में होना चाहिए था वह अब बोतलों में कैद है। हजारों करोड़ों में पहुंच चुका यह व्यापार अभी और फलने-फूलने वाला है। इसके अलावा आज देश भर में कई ऐसे उद्योग खड़े हैं जिनकी पानी की खपत अत्यधिक है। उदाहरण के लिये टेनरी, कपड़ा उद्योग, दवाई कारखाने आदि । 
बढ़ते उपयोगों के साथ पानी की गुणवत्ता में भी भारी कमी आई है। एक अध्ययन के अनुसार प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घटी है। पहले ये २००० लीटर थी और वर्तमान में घटकर ११०० लीटर के करीब रह गई है। वर्ल्ड ऐड की ताजा रपट के अनुसार चीन, पाकिस्तान व बांग्लादेश के साथ-साथ दुनिया के १० देशों में एक भारत भी है जहां स्थितियां इतनी बिगड़ चुकी हैं कि पीने को साफ पानी नहीं मिलता । ७.६ करोड़ भारतीय पीने के साफ पानी से वंचित हैं और यही कारण है कि यहां प्रति वर्ष लगभग १४ लाख बच्च्े दूषित पानी के कारण मृत्यु को प्राप्त् हो जाते हैं ।   अपने देश में पानी की कीमत अन्य देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है। इस रिपोर्ट के अनुसार विकसित देशों में पानी की कीमत लोगों की कमाई का मात्र एक प्रतिशत है जबकि भारत में यह १७ प्रतिशत तक है। 
रिपोर्ट इशारा करती है कि पानी की घटती गुणवत्ता आने वाले समय में लाखों लोगों को लील लेगी या फिर मीठे जहर की तरह एक बड़ी आपदा जैसे हालात पैदा कर देगी । जीवन के इस मूल तत्व के प्रति अभी भी हम बहुत गंभीर नहीं दिखाई देते । जिन्हें नीतियां तैयार करनी हैं वे या तो बोतलों के पानी पर पलते हैं या फिर वॉटर फ्यूरीफायरों ने उनकी जान बचा रखी है। सवाल उन करोड़ों लोगों का है जिनकी पहुंच  उपरोक्त  दोनों साधनों तक नहीं है।
पानी के संकट का बड़ा कारण इसका प्रबंधन का भी है। भूमिगत स्त्रोत लगभग ८५ प्रतिशत पानी की आपूर्ति करते हैं जिनमें ५६ प्रतिशत तक गिरावट आ चुकी है। देश का कोई भी ऐसा कोना नहीं बचा है जहां परंपरागत पानी के स्त्रोत सूखे न हों। पहाड़ों में वन विनाश या वर्षा की कमी के कारण जल धाराएं तेजी से गायब होती जा रही हैं। यही हालात देश के दूसरे जल स्त्रोतों के  भी  हैं। पोखर व तालाब तेजी से साथ छोड़ रहे हैं। ये या तो अन्य उपयोगों के लिए कब्जा लिए गए हैं या फिर उचित रख-रखाव के अभाव में नष्ट हो गए हैं । 
विडंबना ही है कि देश के ग्रामीण क्षेत्र ही पानी के बड़े संकट में फंसे हैं। शहरों में जल वितरण व्यवस्था चरमराती है तो तत्काल प्रभावी कदम उठा लिए जाते हैं । पर गांवों की पानी की किल्लत हर वर्ष और मुश्किल होती जाती है। पहाड़ों में महिलाओं को पानी के लिए औसतन २-३ कि.मी. और कभी-कभी ३-४ कि.मी. चलना पड़ता है। मैदानी गांवों में भी एक के बाद एक सूखते कुएं व नीचे खिसकते भूजल ने कहर बरपाना शुरू कर दिया है। दिल्ली में यमुना-गंगा के पानी से जब आपूर्ति नहीं हुई तो हिमाचल प्रदेश के रेणुका बांध का सहारा मिल गया । पर इन्हीं नदियों के जलागम क्षेत्रों में बसे गांवों में पानी के संकट का बड़ा शोर मचा है, लेकिन सुनवाई नहीं है। शहरों के पानी की व्यवस्था के कई विकल्प इसलिए खड़े हो जाते हैं क्योंकि वहां सरकार या नीतिकार बैठते हैं । 
        वास्तव में हम असली मुद्दों से कतरा रहे हैं। पहला है देश में सही जल प्रबंधन की कमी व दूसरी जल संरक्षण व संग्रहण की बड़ी योजनाओं का अभाव । पानी से जुड़ी एक बात और समझनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन या धरती के बढ़ते तापमान का सीधा असर इसी पर है। जल ही सभी क्रियाआें का केन्द्र है इसीलिए जलवायु परिवर्तन को जल केन्द्रित दृष्टि से देखना आवश्यक    होगा । अब जल को कई आयामों से जोड़कर देखने का समय आ चुका है।
हमारा भूमण्डल
सामुदायिक संसाधन और गांधी विचार
जयदीप हार्डीकर
आज  की  दुनिया में होने वाले संघर्षों की वजह सामुदायिक संसाधन ही हैं। सभी देश अपने-अपने हितों, खासकर पूंजीगत हितों की खातिर प्राकृतिक, सार्वजनिक और सामुदायिक संसाधनों को हथियाना चाहते हैंऔर न मिलने पर तरह-तरह के बहाने बनाकर युद्ध, नरसंहार तक छेड़ते रहते हैं। 
मध्यपूर्व और खाड़ी के देशों में छिडे हिंसक संघर्ष, इराक पर 'पहली दुनिया` का हमला और चीन की विस्तारवादी नीतियां आखिर सामुदायिक संसाधनों पर कब्जे की खातिर ही तो पैदा हुए थे। 
नोबल पुरस्कार प्राप्त् विद्वान डॉ. एलिनोर ओस्ट्रॉम का कहना है कि संसाधनों के समान, सामुदायिक बंटवारे को समझने के लिए महात्मा गाँधी अब भी जरुरी और प्रासंगिक हैं। डॉ. एलिनोर को दुनिया सामुदायिक संसाधनों के  प्रबंधन में बहु-केंद्रिक तरीका अपनाने की प्रबल पक्षधर के रूप में जानती है। उनका विचार है कि 'अगर हम ऐतिहासिक सन्दर्भों में संसाधनों केप्रबंधन के दर्शन को समझना चाहेंगे तो पाएंगे कि गाँधी अब भी जरुरी और प्रासंगिक हैं।' 
पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र की जानी-मानी प्रोफेसर डॉ. ओस्ट्रॉम कहती हैं कि उपभोग के लिए बाजारू अर्थव्य-वस्था संसाधनों के सहज प्रबंधन में एक बड़ी अड़चन साबित  हो  रही है। 
'इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर द स्टडीज ऑफ कॉमन्स` (आईएएससी) के १३ वें सम्मेलन के  दौरान ७७ वर्षीय प्रोफेसर ने इस पत्रकार से अपने विचार साझा किए। उनका कहना था कि हमें समुदायों का एक तंत्र विकसित करने की जरुरत है। हमें संसाधनों का प्रबंधन कर रहे सफल संस्थानों और कड़ी मेहनत में लगे आम लोगों से सीखना होगा। वे इस विचार को खारिज करती हैं कि केवल राष्ट्र-राज्य या निजी संस्थाएं ही संसाधनों के प्रबंधन का सर्वश्रेष्ठ जरिया है।  
अपनी बात के समर्थन में वे बताती हैं कि किस तरह जंगलों में रहने वाले समुदायों ने अपने संसाधनांे को बढ़ाने में सफलता  पाई । सुश्री ओस्ट्रॉम एक अमेरिकी राजनीतिक-विज्ञानी हैं। उन्हें २००९ का अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला था। यह सम्मान उन्होंने संस्थागत विकास और सामुदायिक कार्य पर अपनी महत्वपूर्ण  प्रस्थापनाओं के लिए हासिल किया था । अपने शोधकार्य में उन्होंने संसाधनों के उपभोग और प्रबंधन को लेकर प्रचलित दकियानूसी दृष्टिकोण को चुनौती दी थी। उनकी मान्यता है कि संसाधनों के प्रबंधन के लिए समाज की सहकारी व्यवस्था, प्रचलित सरकारी या निजी व्यवस्था से बेहतर है।
वे अपने इस सिद्धांत को चिकित्सा क्षेत्र की एक उपमा से समझाती हैं कि जटिल रोगों का कोई एक रामबाण इलाज नहीं हो सकता । चिकित्सा विज्ञान पिछले सौ बरसों से लगातार विकसित हो रहा है। यह वास्तव में जटिल विज्ञान का अध्ययन है। इसमें हम रोगों की पहचान के अनेक विकल्पों पर काम करते हैं, बजाय यह कहने के कि केवल एक तरीके का इलाज ही असरकारी  होगा । दरअसल इस प्रक्रिया में रोगों की पड़ताल को लेकर हम और भी सवाल उठाने की कोशिश करते हैं जो बेहतर और कारगर होता है।  
सुश्री ओस्ट्रॉम के मुताबिक एक-से संसाधनों को समझने के लिए अकादमिक क्षेत्र के विद्वान बीमारी की पहचान के विज्ञान के  और विकसित होने की आशा करते हैं। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि परिस्थितियों, चीजों से निपटने का यही तरीका सर्वश्रेष्ठ है। समुदायों को आपस में परस्पर मिलकर काम करने की जरूरत है। संसाधनों के प्रबंधन में वैश्विक जलवायु परिवर्तन एक बहुत महत्वपूर्ण कारक है जिसके चलते बहुत भारी संकट खड़ा हुआ है। प्रोफेसर ओस्ट्रॉम के  अनुसार मात्र इतना कह देना महत्वपूर्ण नहीं है कि सरकार को यह काम करना चाहिए, व्यक्ति  और उनके कार्य भी बदलाव ला सकते हैं । लोगों को पता होना चाहिए कि इससे होने वाले लाभों में वे भी साझीदार   हैं।  
प्रोफेसर ओस्ट्रॉम ने १७ ऐसी चीजों की पहचान की है जो कोई भी व्यक्ति  अपने घर में कुछ अलग तरीके से करके सामुदायिक संसाधनों के प्रबंधन पर सकारा-त्मक प्रभाव छोड़ सकता है। इनमें दो हैं - बिजली और यातायात के साधनों का उपयोग । ग्रीन गैस के उत्सर्जन में ये ही दो महत्वपूर्ण कारक हैं।  
प्रोफेसर ओस्ट्रॉम कहती हैं कि नीतियां अपने में साध्य नहीं बल्कि संस्थागत ढांचे को मजबूत करने की दिशा में एक सतत प्रक्रिया हैं। ''हमें नीतियों के प्रयोग को ठीक तरह सेे करना चाहिए और विभिन्न स्तरों पर उन्हें लगातार बेहतर करने की कोशिशें करते रहना चाहिए।`` 
विशेष लेख
प्राकृतिक संतुलन से पर्यावरण संरक्षण
डॉ. कैलाशचन्द सैनी
आधुनिक जीवनशैली और वैश्वीकरण ने पर्यावरण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। भौतिक सुखों की लालसा ने प्राकृतिक असंतुलन को बढ़ाया है। महानगरीय संस्कृति के विस्तार से प्राकृतिक जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं और क्राकीट जंगल इनकी जगह लेते जा रहे हैं। औद्योगिक विकास पर्यावरण के नैसर्गिक संतुलन को नष्ट कर रहा है। प्रदूषण से उत्पन्न विषम स्थिति से कथित विकसित देशों में शुद्ध हवा, निर्मल जल और सौंधी मिट्टी का मिलना ही दुर्लभ होता जा रहा है।
आधुनिक अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया है कि यदि समय रहते प्राकृतिक संतुलन के प्रति सजग होकर काम नहीं किया गया तो यह विकास ही मानव के विनाश का कारण बन जायेगा। इसलिए पर्यावरण के  विनाश की नींव पर विकास की इमारत बनाने की छूट नहीं दी जा सकती । भौगोलिक परिवर्तनों से भी यह प्रमाणित हो गया है कि किसी भी देश का एक तिहाई भू-भाग प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण होना आवश्यक है। इसके अभाव में मौसम पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल और बाढ़ जैसे प्राकृतिक प्रकोपों का  सामना करना पड़ता है ।
प्राकृतिक असंतुलन के कारण उत्पन्न प्रदूषण ने अनेक नये रोगों को जन्म दिया है। तनाव और अशान्ति बढ़ने का मूल कारण कोलाहलपूर्ण वातावरण भी है जो आधुनिक जीवनशैली का अभिन्न अंग बन गया है। भौतिक सुखोपभोग के आधुनिक साधनों के बावजूद भी आज मनुष्य का सुखी और संतुष्ट नहीं है क्योंकि जीवन-दर्शन के अभाव के  कारण निरन्तर मूल्योंऔर मान्यताओं का ह्रास होता जा रहा है, परिणामस्वरूप मानवतावादी समग्र दृष्टि लुप्त् हो गई है जिससे सभ्यता विघटन के कगार पर आ खड़ी हुई है।
प्रदूषण को रोकने के लिए हमें समद्ध प्राकृतिक सम्पदा के  अनियंत्रित उपभोग को रोकना होगा । जंगलों को नष्ट होने से बचाना होगा । वन्य जीवों को संरक्षित रखने के लिए भी उनके प्राकृतिक आवासों को अक्षुण्ण रखना होगा। मनुष्य में असीम जिजीविषा है तभी तो वह हिमालय की बर्फानी चोटी पर ही नहीं बल्कि थार के रेगिस्तान में भी रह सकता है। उसमें ऐसी अदम्य क्षमता है जिससे वह कुछ तो हिमालय की परिस्थिति के अनुरूप खुद को ढाल लेता है तथा कुछ वह हिमालय की चोटी को ही अपने अनुकूल बना लेता है। मनुष्य मन रूपी ऐसी क्षमता वाली मशीन का स्वामी है जिसके कारण वह परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना लेता है ।
सुख-समृद्धि से भरपूर जीवन के लिए जरूरी है कि प्राकृतिक वनस्पति जगत खूब फले-फूले । पशु-पक्षी सुरक्षित रहे। मानव, पशु-पक्षी और वनस्पति एक सामंजस्यपूर्ण समन्वय के साथ संगठित रूप से रहे। 'जीवेम शरद: शतम्' की अवधारणा प्रकृति के साथ माधुर्ययुक्त संवाद स्थापित करने से ही संभव है । प्रकृति ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है लेकिन मनुष्य ने प्रकृति को क्या दिया है, यह विचारणीय है । पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि से ही पर्यावरण का निर्माण होता है । वेदों में इन चारों तत्वों की विशद् व्याख्या की गई है। इनमें उल्लेख मिलता है कि वायु को शुद्ध करने वाले यज्ञों से ही सुख का विस्तार संभव है तथा प्रकृति के उत्कर्ष से ही सर्वत्र स्वस्थ जीवन का संचार होता है।
पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए वैदिक ऋषियों द्वारा बताया गया मार्ग आज भी महत्वपूर्ण है । विध्वंस के बाद प्रकृति स्वयं संतुलन स्थापित करें इससे बेहतर यह है कि हम स्वयं ही संयत होकर प्राकृतिक नियमों का पालन करें तथा प्रकृति को ध्वंस होने से बचाकर उसे सृजन की ओर उन्मुख करें । प्रदूषणयुक्त विषाक्त पर्यावरण को अमृतमय बनाने के लिए प्रकृति प्रेम को पोषित करने, यज्ञों का अनुष्ठान करने और अंहिसा को बढ़ावा देने की शिक्षा वेदों में वर्णित है । हमें स्वस्थ, शान्त और सुखी जीवन जीने के लिए प्रकृति के साथ भावात्मक तादात्म्य स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ।
जनचेतना और जागरूकता से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सार्थक प्रयास किया जा सकता है। सरकार ने भी विद्यालयों में पर्यावरण से सम्बन्धित पाठयक्रम शुरू करके पर्यावरण-संरक्षण को शिक्षण का आधार बनाया है जो स्तुत्य है। पर्यावरण की रक्षा के लिए शान्ति के मूल मंत्र को भी आस्था और श्रद्धा का आधार बनाना होगा । इस मंत्र के  अनुसार आकाश में शान्ति, पृथ्वी पर शान्ति, समुद्र में शान्ति और हमारे भीतर भी शान्ति होगी तो सर्वत्र शान्ति हो जायेगी । 
प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से हमारा देश काफी समृद्ध रहा है। प्रकृति के सहयोग से ही मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता रहा है लेकिन प्रकृति के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार तथा संसाधनों के अति दोहन ने पर्यावरण और परिस्थितिकी संतुलन को बिगाड़ दिया है। इसके अतिरिक्त शहरीकरण, औद्योगीकरण, मशीनीकरण और कृत्रिम उपग्रहों ने भी पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
आधुनिक युग में औद्योगिक क्रांति ने मानव के क्र्रियाकलापों पर अधिकार जमा लिया है। प्रकृति के प्रति मानव की उपेक्षापूर्ण नीति ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। बाढ़, सुनामी, भूकम्प और ऑधी-तूफान आदि प्राकृतिक प्रदूषकों की श्रेणी में आते हैं। वहीं विकिरण, ताप, रसायन अपशिष्ट, सीवरेज आदि मानव निर्मित प्रदूषक हैं । मनुष्य के क्रियाकलापों ने प्राकृतिक तंत्र को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर प्राकृतिक संरचना को असंतुलित कर दिया है। उसने अपने हित और  स्वार्थलिप्सा के कारण प्रकृति के वरदान को अभिशाप में बदल दिया है। विकास के नाम पर किये गये विनाशकारी कार्यों से मानव सहित समस्त प्राणियों के अस्तित्व पर भी संकट पैदा हो गया है। 
प्रकृति ज्यादा देर तक मानवीय उद्दण्डता और शोषण की प्रवृत्ति को सहन नहीं कर सकती । इससे पहले कि प्रकृति अपना विकराल रूप दिखाये मनुष्य को सजग होकर उसके संतुलन, संरक्षण और संवर्धन के लिए कार्य करना होगा । यह सही है कि मानव और प्रकृति का अटूट सम्बन्ध है और मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने का अधिकारी है। लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि हम प्रकृति से उतना ही ले जितना कि उसे वापस दे सकें ।   जीवन और जगत में घटित होने वाली प्रत्येक घटना हमारे हित और हमें विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए ही घटित होती है। विषम परिस्थितियाँ मनुष्य के साहस और पुरूषार्थ को रचनात्मक दिशा में प्रवृत करती हैं। 
मानवता की साधना प्रात:कालीन सूर्य के समान सौम्य, सुन्दर और सुखद है। मानव की सृजनशील सोच और उसका रचनात्मक चिन्तन जीवन को प्रगति और विकास की ओर ले जाने के लिए प्रेरित करते हैं। यह हमारी समृद्ध  संस्कृति की उत्कृष्टता का ही प्रमाण है कि यहाँ के विशाल हृदयी लोग वृक्षों के साथ मानवीय व्यवहार कर उन्हें अपना मित्र समझकर उनकी चेतनता और सुख:-दु:ख के अनुभव की शक्ति में विश्वास करते हैं। वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि वृक्षों को भी मनुष्य की तरह सुख, दु:ख, मृत्यु, शोक, हर्ष आदि की अनुभूति होती है।
वृक्ष प्रकृति के श्रेष्ठ प्रहरी और मानव मात्र के परम सेवक है। ये कदम-कदम पर मानव की सहायता करके उसके जीवन को ऊँचा उठाते हैं। वृक्ष मनुष्य को भोजन, छाया, लकड़ी, बहुमूल्य रासायनिक तत्व व प्रदान करने के साथ ही औषधि के रूप में अमूल्य सम्पदा उपलब्ध कराते है। प्राकृतिक सुषमा सम्पदा के कारण ही पृथ्वी इस सृष्टि का सबसे सुन्दर गृह है। अंतरिक्ष से देखने वाले वैज्ञानिकों ने भी इसे 'सारे जहाँ से अच्छा' बताया  है।
जल, जंगल और जमीन के संतुलन को बनाये रखने के लिए हमें वृक्षारोपण के प्रति समर्पण भाव से एकजुट होकर कार्य करना होगा । यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में १२ वृक्ष लगाये तो हम वन सम्पदा की अनिवार्य आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं। लेकिन मात्र पौधा लगाने मात्र से ही हमारे दायित्व की पूर्ति नहीं हो जायेगी बल्कि उसमें समुचित खाद-पानी देने और वृक्ष के रूप में स्वावलम्बी होने तक उसकी देख-रेख किया जाना जरूरी है। अगस्त-सितम्बर माह को पेड़ लगाने के लिए श्रेष्ठ माना जाता है, अत: मानवता की सेवा के  इस अवसर का लाभ उठायें तथा अधिक से अधिक पेड़ लगाये तथा दूसरों को भी इस परमार्थ के लिए प्रेरित करें । 
शास्त्रों में भी पेड़ लगाने को पुण्य का कार्य बताया गया है। यह पुनीत कार्य स्वर्गदाता परमार्थ के समतुल्य है। इससे नई चेतना और नये उत्साह का संचार होगा। वृक्षों के प्रति आदर भाव से भी प्रकृति संतुलित   होगी ।  कष्ट और कठिनाइयों से घिरे जीवन में खुशहाली लाने के लिए वृक्षारोपण कर हरियाली फैलायें जिससे भारत भूमि पुन: शस्य श्यामला बन मानव जीवन में समृद्धि को साकार करे ।                                        
दीपावली पर विशेष
दीपावली और प्रकाश प्रदूषण 
डॉ. ओ.पी. जोशी
हमारे दीपावली को प्रकाश पर्व कहा जाता है। अमावस की इस रात को हम ज्यादा-से-ज्यादा कृत्रिम रोशनी या प्रकाश फैलाकर अंधेरे के साम्राज्य को समाप्त या कम करने का प्रयास करते  हैं । 
उपभोक्तावादी इस समय में तो दीपावली के अलावा भी रोजाना बहुत अधिक कृत्रिम प्रकाश फैलाया जाता है। आवश्यकता से अधिक फैलाया गया यह कृत्रिम प्रकाश ही प्रकाश प्रदूषण की समस्या पैदा कर रहा है। कृत्रिम रोशनी या प्रकाश से आकाश की प्राकृतिक अवस्था में आया परिवर्तन प्रकाश-प्रदूषण कहलाता है। राष्ट्रीय व राज्य मार्गोतथा शहरों, गांवों की सड़कों पर लगी लाइट, जगमगाते बाजार, मॉल्स, खेल के मैदान, विज्ञापन बोर्ड, वाहनों की हैडलाइट तथा मकानों के परिसर में लगी लाइट्स आदि प्रमुख रूप से प्रकाश प्रदूषण हेतु जिम्मेदार बताये गये हैं । 
विभिन्न माध्यमों से फैल रहे कृत्रिम प्रकाश का अध्ययन सर्वप्रथम ईटली के वैज्ञानिक डॉ. पी. सिजनोमे ने वर्ष २००० के आसपास सेटेलाइट से प्राप्त चित्रों की मदद से किया था । इस अध्ययन के आधार पर बताया गया था कि धरती के ऊपर आकाश का लगभग २० से २२ प्रतिशत भाग प्रकाश प्रदूषण की चपेट में है। कनाडा व जापान का ९० प्रतिशत, योरोपीय संघ के देशों का ८५ प्रतिशत एवं अमेरिका का ६२ प्रतिशत आकाश प्रकाश प्रदूषण से प्रभावित है। लंदन के 'इंस्टीट््यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स के अनुसार धरती के ऊपर आकाश का २० प्रतिशत भाग वैश्विक स्तर पर प्रकाश प्रदूषण के घेरे में है।  वर्ष २०१६ में अमेरिका के 'नासा` (नेशनल एरोनाटिक स्पेस एडमिनिस्ट्रशन) के वैज्ञानिकों ने भी उपग्रहों से प्राप्त जानकारी के आधार पर  बताया था कि विश्व के कई हिस्सों में प्रकाश-प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है।
विभिन्न माध्यमों से निकले कृत्रिम प्रकाश की काफी मात्रा आकाश में पहुंचकर वहां उपस्थित कणों (धूल व अन्य) से टकराकर वापस आ जाती है, जिससे आकाश व तारे साफ दिखायी नहीं देते। नक्षत्र वैज्ञानकिों के अनुसार कृष्ण-पक्ष की साफ-सुथरी रात में बादल आदि नहीं होने की स्थिति में किसी स्थान से लगभग २५०० तारे देखे जा सकते हैं। जहां प्रकाश प्रदूषण नगण्य होता है वहां यह एक आदर्श स्थिति मानी गयी है। प्रदूषण बढ़ने से तारों के दिखने की संख्या घटती जाती है। हाल में किये गये कुछ अध्ययनों के  अनुसार अमेरिका में न्यूयार्क के आसपास २५० एवं मैनहटन में केवल १५-२० तारे ही आकाश में दिखायी देते हैं।
बढ़ता प्रकाश प्रदूषण मानव स्वास्थ्य, फीट पतंगों व पक्षियों, पेड़-पौधों तथा जलीय जीवों पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है। तनाव, सिरदर्द, देखने की क्षमता में कमी तथा हार्मोन संतुलन में गड़बड़ी आदि मानव स्वास्थ्य पर होने वाले सामान्य प्रभाव हैं । कृत्रिम प्रकाश में लम्बे समय तक कार्य करने से स्तन व कोलोरेक्टल कैंसर की सम्भावना बढ़ जाती है। कुछ वर्षांे पूर्व 'फर्टीलिटी एंड स्टेरिलिटी  जर्नल` में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार प्रकाश-प्रदूषण मेलाटोनिन हार्मोन की मात्रा कम कर स्त्रियों की  प्रजनन क्षमता तथा पुरूषों में शुक्राणआेंकी संख्या व गुणवत्ता को कम कर रहा है। कीट-पतंगों व पक्षियों की जैविक-घडी (बॉयलोजिकल क्लॉक) भी प्रकाश प्रदूषण के प्रभाव से गड़बड़ा रही है। चांद व धुंधले प्रकाश में अपना रास्ता तय करने वाले कई कीट-पतंगे तेज प्रकाश से रास्ता भूल जाते हैं। 
फिलाडेल्फिया(अमेरिका) के  कीट वैज्ञानिकों प्रो. केनेश फ्रेंक के अनुसार तेज प्रकाश में तितलियां सम्भोग नहीं कर पातीं एवं मार्ग भी भटक जाती हैं। टोरंटो की एक संस्था  के अध्ययन के अनुसार अमेरिका की जगमगाती गगनचुम्बी इमारतों से प्रतिवर्ष लगभग दस करोड़ पक्षी टकराकर घायल हो जाते हैं या मर   जाते हैं। इसका कारण यह है कि अंधेरा होने पर जब पक्षी वापस लौटते हैं तो तेज प्रकाश के कारण वे भ्रमित हो जाते हैं ।
जल वैज्ञानिक बताते हैं कि रात के समय जलाशयों में पानी के जीव सतह पर आकर छोटे-छोटे शैवाल (एल्गी) खाते हैं। जलाशयों के आसपास तेज कृत्रिम प्रकाश के कारण जल-जंतु भ्रमित होकर सतह पर नहीं आते एवं भूख से मर जाते हैं । फूल बनने हेतु कई पौधों में एक निश्चित समय की प्रकाश अवधि (फोटोपीरियड) जरूरी होती है। कृत्रिम प्रकाश इस अवधि में गड़बड़ पैदा करता है ।
प्रकाश प्रदूषण की समस्या से हमारा देश भी अछूता नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व नई दिल्ली स्थित 'नेहरू तारा मंडल` ने खगोल-शास्त्रीयों के साथ छ: माह तक अध्ययन कर बताया था कि प्रकाश प्रदूषण के संदर्भ में यूरोप, अमेरीका व जापान के बाद भारत का चौथा स्थान है। लगभग २८०० कि.मी. की ऊंचाई से उपग्रहों की मदद से लिये गये चित्रों के अनुसार दिल्ली गहरे प्रकाश प्रदूषण से प्रभावित था । अन्य शहरों में चंडीगढ़, अमृतसर, पुणे, मुम्बई, कोलकाता, लखनऊ, कानपुर व इन्दौर भी काफी प्रभावित बताये गये थे ।
पर्यावरण वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले समय में पर्यावरण को सबसे ज्यादा खतरा प्रकाश प्रदूषण से ही होगा । प्रकाश प्रदूषण से ऊर्जा की भी बर्बादी होती है। इतनी ऊर्जा को पैदा करने में लगभग १.२० करोड़ टन कार्बन-डाय-ऑॅक्साइड, जो कि एक ग्रीनहाउस गैस है, का उत्सर्जन होता है। 
इस समस्या के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए अमेरीका में 'इंटरनेशनल डार्क स्काय एसोसिएशन` की स्थापना की गयी है जिसमें ७० देश शामिल हैं । हमारे देश में भी 'नेहरू तारा मंडल` एवं 'साइंस पापुलेराइजेशन एसोसिएशन ऑफ कम्युनिकेटर्स एंड एजुकेटर्स` प्रयासरत हैं। इस पृष्ठभूमि में यह दीपावली इस प्रकार मना सकें कि  वायु एवं शोर के साथ प्रकाश प्रदूषण भी कम-से-कम हो तो बेहतर ।  
गांधी के १५०वें वर्ष पर विशेष
मानवता को रौंदता विकास
विवेकानंद माथने 
आधुनिक समय का सर्वाधिक विवादास्पद शब्द है-विकास । मौजूदा दौर में जिस तरह की अवधारणाएं विकास के नाम पर थोपी जा रही हैं वे निश्चित ही इंसानी नस्ल के अस्तित्व के लिए गंभीर संकट पैदा कर रही हैं। ऐसे में हमारे देश में गांधी हैं जिनकी समझ विकास के मौजूदा मॉडल के सर्वथा विपरीत है। 
'विकास` आधुनिक दुनिया का सबसे बडा नशा है। जो उसका मजा चख रहे हैं, जो मजा चखने की कतार में लगे हैं और जो दूसरों को नशा चखते देखकर मानते हैं कि भाग्य साथ देगा तो उन्हें भी उसका मजा मिलेगा, वे सब इस नशे में अंधे हो चुके हैं। आमतौर पर इस विकास का मतलब होता है-भौतिक विकास, घर-बाहर, सभी जगह शारीरिक और मानसिक स्तर पर भोगों को भोगने के लिये सारी भौतिक सुविधाओं की उपलब्धि। उन्हें पाने के लिये भौतिक साधनों का निर्माण, मशीनों का निर्माण, अधोसंरचना का निर्माण, युद्ध सामग्री का निर्माण अनिवार्य बन जाता है। 
इसके लिये जमीन, पानी, जंगल, खनिज, सीमेंट, लोहा, कोयला, गौण खनिज, गैस, खनिज तेल, पेट्रोलियम, लकडी, बिजली, स्पेक्ट्रम, वातावरण आदि की जरुरत पड़ती है और उसे प्राप्त करने के लिये खदानें, बिजली परियोजनाएं इस्पात परियोजनाएं, बड़े बांध और अन्य उद्योगों का निर्माण किया जाता है।
औद्योगिक उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादों का उपयोग दोनों में ऊर्जा के  उपयोग और कोयला, गैस, पेट्रोलियम आदि जीवाश्म ईंधन जलाने से जहरीली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। ये गैसें सूर्य की ऊर्जा का शोषण करके पृथ्वी की सतह को गर्म कर देती है। नतीजे में वैश्विक ताप में वृद्धि और मौसम की दशाओं यानि जलवायु में परिवर्तन होता है। वैज्ञाानिकों का कहना है कि यह व्यापक तौर पर अपरिवर्तनीय  है। 
इसके कारण पर्यावरण का संतुलन बिगड़ने से मौसम में बदलाव जैसे चक्रवाती तूफान, भारी वर्षा, बाढ़, हिमवर्षा, सूखा, तापमान वृद्धि, बर्फ  पिघलना, मरुस्थलीकरण, समुद्री जलस्तर में वृद्धि, जैव- विविधता का हास, कृषि उत्पादकता पर प्रभाव आदि हो रहा है। वातावरण में हर साल २ पीपीएम (पार्ट/ परमिलियन) की दर से कार्बन बढ़ रहा है। यह वर्ष २०१३ में ४०० पीपीएम से २०१७ तक ४०७ पीपीएम तक बढ़ा है। वैज्ञानिक ककहते हैं कि इसे नहीं रोका गया तो केवल मनुष्य, सजीव सृष्टि ही नहीं, कुद दशकों में समूची पृथ्वी ही नष्ट हो सकती  है।
मोटे-तौर पर एक यूनिट बिजली के लिये एक किलो कोयला, पांच लीटर पानी की आवश्यकता होती है। एक किलो  कोयला जलाने से ४०० ग्राम राख, २७०० किलो कैलरी ऊष्णता और एक किलो ऑक्सीजन खर्च होकर १.५ किलो कार्बन-डाय-ऑक्साईड वातावरण में पहुंचती है। भारत में कोल आधारित उद्योगों में हर साल लगभग ८० करोड़ टन कोयला जलाया जाता है । जितना कोयला उतनी ही ऑक्सीजन खर्च होकर १२० करोड़ टन कार्बनडाय-आक्साइड, ३२ करोड टन राख और २१६० खरब किलो कैलरी ऊष्णता वातावरण में पहुंचती है। इसे दूसरे उद्योगों से होने वाले प्रभावों से जोडा जाए तो यह कई गुना अधिक होगा । 
औद्योगीकरण के इतने भयंकर परिणाम दिखाई देने के बावजूद भारत भी उसी होड़ में शामिल हो गया है। भौतिक उपभोगों की  निजी वस्तुओं,वाहनों,अधोसंरचना और हिंसक हथियार आदि का उत्पादन घरेलू इस्तेमाल और निर्यात के लिये तेजी से बढाया जा रहा है। प्रति व्यक्ति  औसत बिजली खपत के आधार पर विकास मापने वाले देशों की नकल करके भारत में भी औसत बिजली खपत विकसित देशों के बराबर पहुंचाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
विकसित अमीर देशों ने दो, ढाई दशक पहले नीति बनाई थी कि प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को गरीब, विकासशील देशों में स्थानांतरित करना चाहिये। इससे विकसित देशों को उद्योगों के प्रदूषणकारी प्रभावों से तो मुक्ति  मिल सकती है, लेकिन राष्ट्र की सीमाएं ग्रीन-हाउस प्रभावों को रोक नहीं सकतीं। यह प्रभाव केवल उत्पादन प्रक्रिया से नहीं होता बल्कि उत्पादित वस्तुओं के उपयोग से भी प्रदूषण और तापमान में वृद्धि होती है। 
विज्ञान ने हमें बताया है कि ऊर्जा नष्ट नहीं होती, वह केवल रुपांतरित होती है। इसका अर्थ यह भी है कि हर भौतिक वस्तु के उपयोग की कीमत के रुप में हमें तापमान वृद्धि और प्रदूषण की कीमत चुकानी पड़ती है। प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से जो जितने यूनिट बिजली, ऊर्जा का उपयोग करता है वह उसी अनुपात में पर्यावरण को हानि पहुंचाता  है ।
मनुष्य की बुनियादी जरुरतों को पूरा करने के लिये एक हद तक विकास की जरुरत समझी जा सकती है,उसे नकारा नहीं जा सकता । बीमारियों से निजात पाने के लिये जैसे दवाइयों में अल्कोहल या स्वाद के लिये नमक की भूमिका है, उसी हद तक इसे स्वीकारा जा सकता है। मनुष्य के श्रम के बोझ को कम करने के लिये, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना होने वाला भौतिक विकास, जो सबके लिये सहज उपलब्ध हो, उसे उपयुक्त  माना जा सकता है। लेकिन ऐसी सुविधाऐं जो सबको कभी प्राप्त नहीं हो सकतीं, जो एक विशिष्ट वर्ग के लिये ही बनाई जाती हैं और जिसे दुनिया के अधिकांश लोगों  के जीवन के बुनियादी अधिकार छीनकर ही उपलब्ध करवाया जा सकता है, उसे अनुमति नहीं दी जा सकती ।
प्राकृतिक संसाधन और श्रम ही मूल सम्पत्ती हैं, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के भारी दोहन और श्रम के असहनीय शोषण के बावजूद ऐसा नहीं है कि औद्योगिक क्रांति के कारण दुनिया के सभी लोगों के जीवन में खुशहाली आई हो। औद्योगिक क्रांति का तीन सौ साल का इतिहास यह बताता है कि इस दौर में आर्थिक विषमता बढी है और चरम सीमा पर पहुंची है। 
दुनिया की लगभग ७५ प्रतिशत संपत्ती एक प्रतिशत धनी लोगों के पास इकट्ठा हुई है और १५-२० प्रतिशत उन लोगों को भी उसका लाभ मिला है जो जाने-अनजाने धनी लोगों की समाज को लूटने की प्रक्रिया में शामिल हैं । लेकिन जिन्होंने सबसे बड़ी कीमत चुकाई है, ऐसे ८० प्रतिशत लोगों को इसका कोई लाभ नहीं मिला है। उन्हें इसका लाभ मिल भी नहीं सकता क्योंकि उनके हित एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हैं । 
'विकास' के नशे ने पर्यावरण का नाश और पृथ्वी के अस्तित्व पर संकट पैदा किया है जिसे न रोकने से सबका विनाश होगा । औद्योगिक क्रांति इस मान्यता पर खडी है कि विकास केलिये लोगों के अधिकार छीनने ही पडेंगे। इसलिये हमें उसे पाने की होड़ में शामिल नहीं होना चाहिये। इस तरह की भौतिक सुविधायें सभी को देनी हों तो दुनिया की बडी आबादी को उसके लिये बलि चढाना होगा और प्रकृति के आज तक हुए विनाश से छह-सात गुना अधिक विनाश करना होगा ।  
महात्मा गांधी ने कहा था -'मुझे तो ऐसी आशंका है कि उद्योगवाद मानव जाति के लिये अभिशाप सिद्ध होने वाला है। एक राष्ट्र द्वारा दूसरे का शोषण सदा नहीं चल सकता । उद्योगवाद तो पूरी तरह आपकी शोषण की क्षमता, विदेशों में आपके लिये बाजार मिलने और प्रतिस्पर्धियों के अभाव पर ही निर्भर है। जिस दिन भारत दूसरे राष्ट्रों का शोषण करने लगेगा और अगर उसका औद्योगिकरण होता है तो वह शोषण करेगा ही, उस दिन वह दूसरे राष्ट्रों के लिये एक अभिशाप बन जायेगा । दुनिया के लिये एक विपत्ति बन जायेगा । 
फिर दूसरे राष्ट्रों के शोषण के लिये मुझे भारत के औद्योगिकरण की बात क्यों सोचनी चाहिये ? और अगर उद्योग का भविष्य पश्चिम के लिये अंधकारमय है तो क्या भारत के लिये वह और भी अंधकारमय नहीं होगा?  
पर्यावरण परिक्रमा
प्लास्टिक के कचरे से बनेगा डीजल
देहरादून से रोजाना करीब एक हजार किलो प्लास्टिक कचरा उठाने का न सिर्फ इंतजाम हो गया है, बल्कि इससे प्रतिदिन ८०० लीटर डीजल भी तैयार किया जाएगा । यह सब हो पाएगा भारतीय पेट्रोल संस्थान (आईआईपी) की तकनीक से । इसके लिए गैस अथॉरिटी ऑफ इण्डिया लि. (गेल) ने संस्थान को करीब १३ करोड़ रूपए की वित्तीय मदद भी की है । 
आईआईपी के निदेशक डॉ. अंजन रे के मुताबिक प्लास्टिक कचरे से ईधन बनाने की तकनीक करी ब पांच साल पहले ईजाद कर ली गई थी । । इस तकनीक से ने सिर्फ डीजल, बल्कि पेट्रोल व एलपीजी भी तैयार किया जा सकता है । इसके लिए संस्थान में प्रयोगशाला स्तर का प्लांट भी लगाया गया है । हालांकि बड़े स्तर पर करीब एक टन क्षमता के प्लांट से डीजल तैयार किया जाएगा । अगले साल जनवरी में प्लांट से उत्पादन भी शुरू कर दिया जाएगा । शुरूआत देहरादून के प्लास्टिक कचरे से की जाएगी । इसके बाद डिमांड बढ़ने पर केन्द्र सरकार के स्तर से तमाम शहरों में इस पहल को आगे बढ़ाया जाएगा । 
आईआईपी वैज्ञानिक डॉ. सनत कुमार के अनुसार एक टन के प्लांट में जो डीजल तैयार किया जाएगा, उसकी दर करीब ५० रूपए प्रति लीटर बैठेगी, जबकि अभी डीजल की दर प्रति लीटर ७३ रूपए से अधिक है । अगर प्लांट की क्षमता पांच टन तक बढ़ाई जाती है तो दर और भी कम करीब ३५ रूपए प्रति लीटर आ सकती है । 
प्लास्टिक कचरे को पहले सुखाया जाता है । इसके बाद इसे सीलबंद भट्टी में डालकर ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में तेज आंच में पकाया जाता है । जिससे प्लास्टिक भाप में परिवर्तित हो जाता है । इस भट्टी से एक पाइप जुड़ा होता है, जो एक वाटर टैंक में जाता है और भाप को इसमें स्टोर किया जाता है । इस टैंक की सतह में जमा पानी को छूते हुए भाप को एक अन्य टैंक में भेजा जाता है । इसे रिफाइन कर पेट्रोल या डीजल बनाया जा सकता है । हालांकि पूरी भप तरल अवस्था में नहीं आ पाती है और वाटर टैंक के ऊपरी हिस्से में जमा हो जाती है ।  
केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार देश के प्रमुख ६० शहरों में प्रतिदिन १५ हजार टन प्लास्टिक कचरा निकलता है । इसमें से छह हजार टन कचरा यूं ही पड़ा रहता है । हालांकि आईआईपी की तकनीक के सफल प्रयोग के बाद तमाम नगर निकाय अपने स्तर भी ईधन बनाने के प्लांट लगा सकते है । यदि ऐसा हो पाया तो यह प्लास्टिक कचरे के निस्तारण में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है ।  
अप्रैल २०२० से नहींबिकेंगे बीएस ४ वाहन 
अप्रैल २०२० से बीएस-४ (भारत स्टेज-४) उत्सर्जन मानक वाले वाहनों के रजिस्ट्रेशन और बिक्री पर रोक लग जाएगी । सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया । शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रदूषण का स्तर पहले ही चिंताजनक है, ऐसे में उत्सर्जन के नए मानकों को लागू करने में देरी से लोगों की सेहत पर ओर दुष्प्रभाव पड़ेगा । बीएस मानकों के तहत वाहनों के उत्सर्जन के नियम तय किए जाते है । योरपीय देशों में इसके लिए यूरो मानक का पालन किया जाता है । 
जस्टिस मदन बी लोकुर की अध्यक्षता वाली पीठ  ने कहा कि दुनिया के २० सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरोंमें से १५ भारत में है । पर्यावरण और सेहत पर प्रदूषण से पड़ने वाले दुष्प्रभावों की भरपाई कुछ कंपनियों से मनाफे से नहीं की जा सकती है । पीठ ने कहा जब भी सेहत और संपत्ति के बीच टकराव होगा, सेहत को ही प्राथमिकता पर रखा जाएगा । हम ऐसी स्थिति से जूझ रहे हैं, जहां अजन्मा बच्च भी प्रदूषण का शिकार है । कंपनियों को बीएस-६ वाहनों के निर्माण के लिए पर्याप्त् समय मिल चुका है । उनके पास पहले से टेक्नोलॉजी है । उन्हें इच्छाशक्ति दिखाते हुए अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए । पीठ में जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और दीपक गुप्त भी शामिल थे । अदालत ने केन्द्रीय मोटर वाहन अधिनियम, १९८९ में उपनियम जोड़ने के सरकार के फैसले पर भी सवाल उठाया । इस उपनियम के तहत बीएस-४ वाले चौपहिया वाहनों की बिक्री के लिए ३१ मार्च, २०२० के बाद तीन महीने का अतिरिक्त समय देने का प्रावधान किया गया है । वहीं,  भारी  ट्रांसपोर्ट वाहनों के लिए छह महीने का अतिरिक्त समय दिया गया है । कोर्ट ने कहा, नए मानक लागू करने की समय-सीमा में अनावश्यक विस्तार से लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, जो संविधान के अनुच्छेद २१ का  उल्लघंन है । अदालत ने स्पष्ट किया कि अब उपनियम को यह पढ़ा जाएगा  कि पहली अप्रैल २०२० से पूरे देश में बीएस-४ वाले वाहनों की बिक्री और रजिस्ट्रेशन प्रतिबंधित होगा । 
उल्लेखनीय है कि योरप में २००९ में यूरो - ४ और २०१५ में यूरो६ मानक लागू हो गया था । वहीं भारत में बीएस-४ मानक अप्रेल २०१७ में लागू हो पाया । अदालत ने कहा कि हम पहले ही कई साल पीछे चल रहे है । अब बीएस-६ लागू करने में एक दिन की भीदेरी अनावश्यक है । मानक लागू करने में हो रही देरी को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने २०१६ में एलान किया था कि बीएस-५ मानक को छोड़ते हुए २०२० में सीध े बीएस-६ मानक लागू किया जाएगा । 
बुरहानपुर में आज भी बह रहा है कुंडी भंडारा
कहा जाता है कि ६०० ई. पूर्व ताप्ती नदी के किनारे बसा ब्रम्हपुर ... आज का बुरहानपुर है । यहां १५०० वर्ष काल में ११ राज्य घरानों ने राज किया । जिनमें मौर्य, राष्ट्रकुल, चालुक्य, यादव, सातवाहन, फारूखी, मुगल और सिंधिया प्रमुख है । इन शासकों ने मिलकर बुरहानपुर से व्यापार और सत्ता दोनों के लिए दक्षिण का द्वार खोला था । नगरवासियों के लिए जलप्रबंधन   का नायाब नमूना है यहां का कुंडी भंडारा । 
जल संग्रहण कर लोगोंतक पीने का पानी पहुंचाने की इस तरह की मानव निर्मित संरचना विश्व में सिर्फ यही है, जो अब भी कार्यरत है । इसे विश्व धरोहर में शामिल करवाने की कोशिश है । इतिहासकारों के मुताबिक मुगल काल के सूबेदार अब्दुल रहीम खानखाना ने १६१५ ई. में कुंडी भंडार को बनाया था । इसमें सतपुड़ा पर्वत मालाआें से ताप्ती की ओर प्रवाहित जल स्त्रोंतों का पानी जमीन से ८० फीट नीचे इकट्ठा किया व भूमिगत नहरों से यह पानी बुरहानपुर नगर की ओर भेजा । यह स्थान शहर से ७ कि.मी. दूर है । पूरे रास्ते में १०८ कुंडियों का  निर्माण कराया जो ऊपर से खुली थी ताकि शुद्ध हवा आ जा सके । इस तरह की नहर ईरान-ईराक देशों में थी, जो अब बंद हो चुकी है । ४०० वर्ष पुरानी इस धरोहर को देखने के लिए पूरे विश्व से लोग यहां आते है । 
३१ अक्टूबर २०१७ को कर्नाटक में हुई इंटरनेशनल कांफ्रेस में यूनेस्को की टीम के सामने शहर के इतिहास के जानकार हाशंग हवलदार एवं आर्किटेक्ट सुधीर पारेख ने कुंडी भंडारे को लेकर प्रंजेटेशन दिया था । पावर पाइट प्रजेंटेशन में इसअनमोल धरोहर की विस्तृत जानकारी दी गई । हवलदार एवं पारेख ने बताया कि यूनेस्को की टीम ने इस प्रजेंटेशन को देखने के बाद विश्व विरासत धरोहरों में कुंड़ी भडारे को शामिल कराने का आश्वासन दिया था । 
कैंसर के इलाज के लिए पीड़ादायक प्रक्रिया से नहींगुजरना पड़ेगा 
अब वह दिन दूर नहीं जब कैंसर के इलाज के लिए कीमोथेरेपी जैसी पीड़ादायक प्रक्रिया से नहींगुजरना पड़ेगा । अमरीका की नॉथवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने मानव कोशिका में मौजूद एक ऐसे किल कोड की खोज की है, जो कीमोथेरेपी के बिना ही कैंसर की कोशिकाआें को खत्म कर देगा । 
शोधकर्ताआें का कहना है कि कीमोथेरेपी से उपचार के दौरान प्रोटीन युक्त राइबोन्यूक्लिक एसिड (आरएनए) के बड़े अणुआें का इस्तेमाल किया जाता है । हालांकि इस प्रक्रिया से गुजरने के दौरान मरीज को बालोंका झडना, रक्त सकं्रमण, थकान, नींद न आना, लगातार उल्टियां होना, दस्त, मुंह में घाव होना और महिलाआें में बांझपन जैसे प्रभावों को झेलना पड़ता है । 
वैज्ञानिकों के मुताबिक मानव की प्रत्येक कोशिका में ही मौजूद किल कोड छोटे आरएनके अणु से युक्त होते है जिन्हें माइक्रो आरएनए भी कहा जाता है । वैज्ञानिकों का अनुमान है कि करीब ८० करोड़ साल पहले शरीर को कैंसर से बचाने के लिए ये किल कोड विकसित हो गए थे । शोध नेचर पत्रिका मेंप्रकाशित हुआ । सन् २०१७ में प्रकाशित शोध में शोध के मुख्य लेखक मार्कस ई पीटर ने बताया था कि कुछ निश्चित आरएनए अणुआें के संपर्क में लाने के बाद कैंसर की कोशिकाएं नष्ट हो गई । माइक्रो आरएनए में मौजूद केवल छह न्यूक्लियोटाइड्स कैंसर की कोशिकाआें को खत्म करने में सहायक साबित हुए । ये डीएनए व आरएनए से मिलकर बने है । इसके बाद पीटर ने न्यूक्लियोटाइड बेस के ४०९६ विकल्पों का परीक्षण किया । पीटर ने कहा कि हम कृत्रिम माइक्रो आरएनए भी बना सकते है जो कैंसर कोशिकाआें को नष्ट करने में सक्षम होगे । उन्होने कहा कि वे कीमोथैरेपी के बजाय प्राकृतिक तंत्र का उपयोग करना चाहते थे । किल कोड को जीनोम मेंकई गड़बड़ किए बिना कैंसर की कोशिकाआें पर सीधे ट्रिगर किया जा ए तो कैंसर को खत्म किया जा सकता है । 
आवरण कथा
विकास की वेदी पर कितनी और बलियां ?
मेघा पाटकर/संदीप पाण्डेय
प्रोफेसर गुरूदास अग्रवाल जो अमरीका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से दो वर्षों में पीएचडी करने के बाद विख्यात 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान` (आईआईटी), कानपुर में सीधे लेक्चर से प्रोफेसर प्रोन्नत किए गए थे और 'केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड` (सीपीसीबी)के पहले सदस्य-सचिव के रूप में उन्होंने भारत में प्रदूषण नियंत्रण हेतु कई महत्वपूर्ण मानक तय किए, अंतत: अपनी ही सरकार को गंगा को पुनर्जीवित करने के अपने आग्रह को न समझा पाए । 
इसकी कीमत उन्हें अपनी जान गंवा कर देनी पड़ी । हरिद्वार में ११२ दिनों तक सिर्फ नींबू पानी और शहद पर आमरण अनशन करने के पश्चात, जिसमें से आखिरी के तीन दिन निराजल रहे, ११ अक्टूबर, २०१८, को ऋषिकेश के 'अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान` में हृदय-गति रूक जाने से उनका प्राणांत हो गया ।
यह अचरज का विषय है कि हिन्दुत्व के मुद्दे पर चुनाव जीत कर आई सरकार ने एक साधु (जो वे ७९ वर्ष की अवस्था में २०११ में बन गए थे) की बात गंगा जैसे पारिस्थिति-कीय व धार्मिक विषय पर, जो  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के वाराणसी चुनाव प्रचार के समय केन्द्र में था, क्यों नहीं सुनी ? प्रोफेसर अग्रवाल ने, जो अब स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के नाम से प्रसिद्ध थे, एक 'राष्ट्रीय नदी गंगा जी (संरक्षण एवं प्रबंधन) अधिनियम, २०१२` का मसौदा तैयार किया था। सरकार ने भी एक 'राष्ट्रीय नदी गंगा (संरक्षण, सुरक्षा एवं प्रबंधन) बिल-२०१७,` जिसे २०१८ में कुछ बदलाव के साथ पुन: लाया गया, तैयार किया था। स्वामी सानंद व सरकार के मसौदों में नजरिए का फर्क है । 
अपने ५ अगस्त, २०१८ के प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में स्वामी सानंद ने कहा है कि मनमोहन सिंह सरकार के समय 'राष्ट्रीय पर्यावरणीय अपील प्राधिकरण` ने उनके कहने पर लोहारी-नागपाला पन बिजली परियोजना, जिस पर कुछ काम हो चुका था, को रद्द किया था और भागीरथी नदी की गंगोत्री से लेकर उत्तरकांशी तक की सौ किलोमीटर से ज्यादा लम्बाई को पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया था । इसका अर्थ है कि अब वहां कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकता, लेकिन वर्तमान सरकार ने पिछले साढे चार सालों में कुछ भी नहीं किया है। उन्होंने अनशन शुरू  करने से पहले प्रधानमंत्री को जिन चार मांगों से अवगत कराया था, वे हैं 
(१) स्वामी सानंद, एडवोकेट एमसी मेहता व परितोष त्यागी द्वारा तैयार गंगा के संरक्षण हेतु बिल के  मसौदे को संसद में पारित करा कर कानून बनाया जाए, 
(२) अलकनंदा, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिण्डर व मंदाकिनी, छह में से वे पांच धाराएं जिन्हें मिलाकर गंगा बनती है, छठी भागीरथी पर पहले से ही रोक है, व गंगा एवं गंगा की सहायक नदियों पर निर्माणाधीन व प्रस्तावित सभी पनबिजली परियोजनाओं को निरस्त किया जाए, 
(३) गंगा क्षेत्र में वन कटान व किसी भी प्रकार के खनन पर पूर्णत: रोक लगाई जाए और 
(४) 'गंगा भक्त  परिषद` का ग न हो जो गंगा के हित में काम करेगी । इस पर प्रधानमंत्री की ओर से स्वामी सानंद की मृत्यु तक कोई जवाब नहीं आया, जबकि २०१३ में उनका पांचवां अनशन तब खत्म हुआ था जब 'भारतीय जनता पार्टी` के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हें पत्र लिखकर आश्वासन दिया था कि दिल्ली में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद गंगा संबंधित उनकी सारी मांगें मान ली जाएंगी ।
स्वामी सानंद गंगा को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में घोषित करवाना चाहते थे। गंगा के संरक्षण हेतु उनका मुख्य जोर इस बात पर था कि गंगा को उसके नैसर्गिक, विशुद्ध, अबाधित स्वरूप में बहने दिया जाए जिसे उन्होंने अविरल की परिभाषा दी थी व उसका पानी अप्रदूषित रहे जिसे उन्होंने निर्मल की परिभाषा दी । वे गंगा में शहरों का गंदा पानी या औद्योगिक कचरा, गंदा या सफा, किसी भी तरह से डालने के खिलाफ  थे। 
उन्होंने गंगा किनारे ठ ोस अपशिष्ठ को जलाने, कोई ऐसी इकाई लगाने जिससे प्रदूषण होता हो, वन कटान, अवैध पत्थर व बालू खनन, रिवर फ्रंट बनाने या कोई रासायनिक, जहरीले पदार्थ के प्रयोग पर प्रतिबंध की मांग की थी। असल में किसी भी नदी को बचाने के लिए ये आवश्यक मांगें हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की यह समझ उ.प्र. राज्य सिंचाई विभाग के लिए रिहंद बांध पर एक अभियंता के रूप में काम करते हुए बनी थी, जिसके बाद उन्होंने उ.प्र. सरकार की नौकरी छोड़ दी ।
एक वैज्ञानिक होने के नाते उन्होंने अविरल की ठीक-ठीक परिभाषा दी-नदी की लम्बाई में सभी स्थानों, यहां तक की कोई बांध है तो उसके बाद भी, और सभी समय न्यूनतम प्राकृतिक या पर्यावरणीय  या परिस्थितिकीय प्रवाह, जिसमें निरंतर वायुमण्डल व भूमि से तीनों तरफ, तली व दोनों तटों से सम्पर्क के साथ-साथ अबाध प्रवाह बना रहे । उनका मानना था कि गंगा के विशेष गुण-सड़न-मुक्त, प्रदूषण-नाशक, रोग-नाशक, स्वास्थ्य वर्धक तभी संरक्षित रहेंगे जब गंगा का अविरल प्रवाह बना रहेगा । इसी तरह निर्मल का मतलब सिर्फ 'प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड` द्वारा तय किए गए मानकों के अनुरूप अथवा आर.ओ. या यू.वी. का पानी नहीं है। 
गंगा में स्वयं को साफ करने की शक्ति  है जिसकी वजह उसके पानी में बैक्टीरिया मारने वाले जीवाणु, मानव शौच को पचाने वाले जीवाणु, नदी किनारे पेड़ों से प्राप्त पॉलीमर तत्व, भारी धातु एवं रेडियोधर्मी तत्व, अति सूक्ष्म गाद, आदि की मौजूदगी है। कुल मिलाकर गंगा के ऊपरी हिस्से की चट्टानें, साद, वनस्पति, जिसमें औषधीय पौधे भी शामिल हैं, यानी परिस्थितिकी के कारण गंगा में निर्मल होने का विशेष गुण है। स्वामी सानंद का इस बात पर पूरा भरोसा था कि गंगा का संरक्षण तभी हो सकता है जब गंगा को निर्मल व अविरल बनाए रखा जाए ।
जल संसाधन, नदी घाटी विकास व गंगा संरक्षण मंत्री नितिन गडकरी सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि उन्हें निर्मल की अवधारणा तो समझ में आती है लेकिन अविरल की नहीं। यदि वे या उनकी सरकार स्वामी सानंद की गंगा को अविरल बनाने की बात मान लेंगे तो नदी पर बांध कैसे बनवाएंगे ? एक दूसरी बात, शासक दल भजपा से सुनने को यह मिली है कि उन्हें न तो देश से मतलब है, न धर्म से और न ही लोगों से,उन्हें तो सिर्फ  विकास करना है। विकास यानी ऐसा जिसमें पैसा कमीशन के रूप में वापस आता हो ताकि अगले चुनाव का खर्च निकाला जा सके । 
स्वामी सानंद गंगा के व्यवसायिक दोहन के सख्त खिलाफ थे। इसलिए 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ` के  एक वरिष्ठ सज्जन, जो स्वामी सानंद के मामले में मध्यस्थता के लिए तैयार हुए थे, का कहना था कि सिद्धांतत: तो वे स्वामी सानंद की बातों को अक्षरश: मानते हैं किन्तु सरकार चलाने की अपनी मजबूरियां होती हैं । स्वामी सानंद के साथ-साथ गंगा का भी भविष्य उसी समय अंधकारमय हो गया था । देश की दूसरी नदी घाटियों, जिन पर लाखों-करोड़ों का जीवन व आजीविका निर्भर हैं, पर भी यह खतरा मंडरा रहा है।
स्वामी सानंद ने 'संयुक्त  प्रगतिशील गठबंधन`  (यूपीए) की सरकार के समय भी पांच बार अनशन किया था, किन्तु एक बार भी उनके जीवन के लिए संकट उत्पन्न नहीं  हुआ । 'राष्ट्रीय लोकतांत्रिक ग बंधन`(एनडीए) की सरकार में एक बार ही अनशन करना उनके लिए जानलेवा बन गया। इससे यह भी स्पष्ट है कि विकास की प्रचलित अवधारणा सामाजिक-सांस्कृतिक  विचारधारा, जिसमें धर्म शामिल है या पर्यावरणीय चिंतन, भले ही प्रधानमंत्री को 'संयुक्त राष्ट्र संघ` ने पुरस्कार दिया हो, के  प्रति संवेदनशील नहीं है और वर्तमान सरकार तो कॉर्पोरेट जगत के ज्यादा पक्ष में है और कम मानवीय है।
स्वामी सानंद के जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है उसे कैसे भरा जाएगा ? देश में कौन है,गंगा को बचाने की बात करने वाली दूसरी दमदार आवाज ? धार्मिक आस्था वाले कुछ लोगों के लिए स्वामी सानंद तो भागीरथ की तरह थे जिन्होंने अकेले अपने दम पर गंगा का मुद्दा उठाया । स्वामी सानंद के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उन सरकारों, जो ऐसी विकास की अवधारणा को मानती हैं जिसमें प्रकृति का विनाश अंतर्निहित है, उन कम्पनियों को, जो ऐसी सरकारों की भ्रमित करने वाली अवधारणा को जमीन पर उतारती हैं और उन ठेकेदारों को, जो प्राकृतिक संसाधनों को लूट रहे हैं, के खिलाफ मोर्चा खोल दें ।
गंगा को बचाने की लड़ाई का अभी अंत नहीं हुआ है। मातृ सदन, जिस आश्रम को स्वामी सानंद ने अपना अनशन स्थल चुना था, के प्रमुख स्वामी शिवानंद ने नरेन्द्र मोदी को चेतावनी देते हुए घोषणा की थी कि स्वामी सानंद के बाद वे व उनके शिष्य अनशन के सातत्य को कायम रखेंगे। 
स्वामी सानंद के २२ जून, २०१८ को अनशन शुरू  करने के  तुरंत बाद ही एक स्वामी गोपाल दास ने भी अनशन शुरू कर दिया था । २०११ में मातृ सदन के ही नवजवान साधु स्वामी निगमानंद का गंगा में अवैध खनन के खिलाफ अपने अनशन के ११५वें दिन प्रणांत हो गया था, जिसमें यह आरोप है कि तत्कालीन उत्तराखंड की भाजपा सरकार से मिले हुए एक खनन माफिया ने उनकी हत्या करवाई । विकास के वेदी पर अभी और न जाने कितनी बलियां चढेंगी ?          
ज्ञान विज्ञान
सौर मंडल का एक नया संसार खोजा गया
खगोल शास्त्रियों ने हाल ही में सौर मंडल के दूरस्थ छोर पर एक विशाल पिंड की खोज की है। दरअसल यह पिंड ब्राह्य सौर मंडल में स्थित है और इसे नाम दिया गया है २०१५ टी.जी. ३८७ । वैसे इसका लोकप्रिय नाम गोबलिन रखा गया है।
    वॉशिंगटन स्थित कार्नेजी इंस्टीयूशन फॉर साइन्स के  खगोल शास्त्री स्कॉट शेफर्ड की टीम ने इस पिंड की खोज जापान की ८.२ मीटर की सुबारु दूरबीन की मदद से की है। यह दूरबीन हवाई द्वीप पर मौना की नामक स्थान पर स्थापित है। 
२०१५ टीजी३८ नामक यह पिंड सूर्य से बहुत दूरी पर है। सूर्य की परिक्रमा करते हुए यह जब सूर्य के  सबसे नजदीक होता है, उस समय इसकी सूर्य से दूरी ६५ खगोलीय इकाई होती है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी को खगोलीय इकाई कहते हैं । और जब यह पिंड सूर्य से अधिकतम दूरी पर होता है तो २३०० खगोलीय इकाई दूर होता है। इतनी दूरी पर हम बहुत ही थोड़े से विशाल पिंडों से वाकिफ हैं। गोबलिन का परिक्रमा पथ सौर मंडल के प्रस्तावित नौवें ग्रह के अनुमानित परिक्रमा पथ से मेल खाता है किन्तु खगोल शास्त्रियों का कहना है कि इससे यह साबित नहीं होता कि नौवां ग्रह सचमुच अस्तित्व में है। 
आप कितने चेहरे याद रख सकते हैं ?
अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, सहपाठियों, सहकर्मियो की शक्लें हमें याद रहती हैं। इसके अलावा कुछ प्रसिद्ध हस्तियों, अजनबियों (जो रोजाना या कभी-कभी दिखते हैं) की भी शक्ल हमें याद रहती हैं। पर यदि आपको  इनकी सूची बनाने को कहा जाए तो आप कितनी लंबी फेहरिस्त बना पाएंगे? एक अध्ययन के मुताबिक एक सामान्य व्यक्ति लगभग ५००० चेहरे याद रख सकता  है।
शोधकर्ता जानना चाहते थे कि एक सामान्य व्यक्ति कितने चेहरे याद रख सकता है। इसके लिए उन्होंने २५ प्रतिभागियों को उन लोगों की सूची बनाने को कहा जिनके चेहरे उन्हें याद है। प्रतिभागियों को पहले एक घंटे में अपने व्यक्तिगत जीवन से जुड़े चेहरों की सूची बनानी थी और अन्य एक घंटे में प्रसिद्ध हस्तियों जैसे नेता, अभिनेता, गायक, संगीतकार वगैरह की। 
अध्ययन में प्रतिभागियों को यह भी छूट थी कि यदि उन्हें किसी व्यक्ति का नाम याद नहीं है लेकिन उसका चेहरा याद है या वे उसके चेहरे की कल्पना कर सकते हैं, तो वे उसका विवरण लिखें, जैसे हाईस्कूल का चौकीदार या फलां फिल्म की अभिनेत्री  वगैरह । 
अध्ययन में देखा गया कि प्रतिभागियों को शुरुआती एक मिनट में कई लोगों के चेहरे याद आए लेकिन एक घंटे का वक्त बीतने के  साथ-साथ  यह संख्या कम होती गई।
अगले अध्ययन में शोधक-र्ताओं ने देखा कि ऐसे कितने चेहरे हैं जो उक्त सूची में नहीं हैं लेकिन याद दिलाने पर याद आ जाते हैं । इसके लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों को बराक ओबामा और टॉम क्रूज सहित ३४४१ प्रसिद्ध हस्तियों की तस्वीरें दिखाई। प्रतिभागी किसी व्यक्ति को पहचानते हैं यह तभी माना गया जब वे एक ही व्यक्ति की दो अलग-अलग तस्वीरों को पहचान पाए।
इन दोनों अध्ययन के आंकड़ों के विश्लेषण से शोधकर्ताओं ने पाया कि एक सामान्य या औसत व्यक्ति ५००० चेहरे याद रख सकता है। विभिन्न प्रतिभागियों को १००० से लेकर १०००० की संख्या में चेहरे याद थे। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स  फ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुआ है। 
बृहस्पति के चांद युरोपा पर उतरने की मुश्किलें
बृहस्पति के कई चांदों में से एक युरोपा में वैज्ञानिकों की काफी रुचि रही है। युरोपा मुख्य रूप से सिलिकेट चट्टान से बना है जिस पर बर्फ की परत है। इस पर विशाल भूमिगत महासागर का होना जीवन की आशा जगाता है। हाल ही में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा नासा को प्रमुख वित्तीय मदद मिली ताकि युरोपा की सतह पर रोबोटिक लैंडर (क्लिपर) भेजकर उसके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त् की जा सके । 
लेकिन युरोपा पर यान को उतारना इतना आसान भी नहीं है। अध्ययनों से पता चला है कि बर्फ से ढंकी सतह दरारों और उभारों से भरी पड़ी है। नेचर जियोसाइन्सेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस बर्फीले चट्टानी क्षेत्र में प्रत्येक नुकीला उभार पांच मंजिला इमारत जितना ऊंचा है ।  
इस तरह के शिखर पृथ्वी पर एंडीज पर्वत पर देखने को मिलते हैं। इन्हें पेनिटेन्टस (यानी तपस्वी) कहा जाता है क्योंकि  ये ऐसे लगते हैं जैसे कोई सफेद चादर ओढ़े तपस्या कर रहा हो। इनका वर्णन सबसे पहले डार्विन ने किया था। पेनिटेन्ट्स बर्फीले क्षेत्रों में सूरज द्वारा मूर्तिकला का नमूना है। यहां बर्फ पिघलती नहीं है। बल्कि प्रकाश का निश्चित पैटर्न बर्फ को सीधे वाष्पित करता है जिसके  परिणाम स्वरूप सतह की भिन्नताओं के कारण छोटी नुकीली पहाड़ियां और छायादार घाटियां बनती हैं। ये अंधेरी घाटियां चारों ओर मौजूद रोशन चोटियों की तुलना मेंअधिक प्रकाश अवशोषित करती हैं, और एक फीडबैकलूप में वाष्पीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। 
इससे पहले पृथ्वी के अलावा प्लूटो पर पेनिटेन्ट्स देखे जा चुके हैं। युरोपा पर अन्य प्रक्रियाओं के आधार पर की गई गणना से पता चलता है कि बफ र् का वाष्पीकरण विषुवत रेखा में अधिक प्रभावी होगा, और ये शिखर १५ मीटर लंबे और ७-७ मीटर की दूरी पर होंगे। इस तरह की आकृतियों से ग्रह के रडार अवलोकन करने पर भूमध्य रेखा पर ऊर्जा में गिरावट का कारण समझा जा सकता है। लेकिन यूरोपा पर यान उतरना कितना कठिन है ये २०२० के मध्य में किल्पर को भेजने पर ही मालूम चलेगा ।  
खरपतवारनाशी - सुरक्षित या हानिकारक
ग्लायफोसेट, दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला खरपतवारनाशी यानी हर्बीसाइड है। ऐसा बताया गया था कि यह जंतुओं के लिए हानिकारक नहीं है। लेकिन शायद यह मधुमक्खियों के लिए घातक साबित हो रहा है। यह रसायन मधुमक्खियों के पाचन तंत्र में सूक्ष्मजीव संसार को तहस-नहस करता है, जिसके  चलते वे संक्रमण के प्रति अधिक संवेद-नशील हो जाती हैं। इस खोज के बाद दुनिया में मधुमक्खियोंकी संख्या मेंगिरावट की आशंका और भी प्रबल हो गई है।
ग्लायफोसेट कई महत्वपूर्ण एमिनो अम्लों को बनाने वाले एंजाइम की क्रिया को रोककर पौधों को मारता है। जंतु तो इस एंजाइम का उत्पादन नहीं करते हैं, लेकिन कुछ बैक्टीरिया द्वारा अवश्य किया जाता है।
टेक्सास विश्वविद्यालय की एक जीव विज्ञानी नैंसी मोरन ने अपने सहकर्मियों के साथ एक छत्ते से लगभग २००० मधुमक्खियां लीं । कुछ को चीनी का शरबत दिया और अन्य को चीनी के शरबत में मिलाकर ग्लायफोसेट की खुराक दी गई । ग्लायफोसेट की मात्रा उतनी ही थी जितनी उन्हें पर्यावरण से मिल रही होगी। तीन दिन बाद देखा गया कि ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली मधुमक्खियोंकी आंत में स्नोड-ग्रेसेला एल्वी नामक बैक्टीरिया की संख्या कम थी । लेकिन कुछ परिणाम भ्रामक थे। ग्लाय-फोसेट का कम सेवन करने वाली मक्खियों की तुलना में जिन मधुमक्खियों ने अधिक का सेवन किया था उनमें ३ दिन के बाद अधिक सामान्य दिखने वाले सूक्ष्मजीव संसार पाए गए। शोधकर्ताओं को लगता है कि शायद बहुत उच्च् खुराक वाली अधिकांश मधुमक्खियों की  मृत्यु हो गई होगी और केवल वही बची रहीं जिनके पास इस समस्या से निपटने के तरीके  मौजूद थे । मधुमक्खी में सूक्ष्मजीव संसार में परिवर्तन घातक संक्रमण से बचाव की उनकी प्रक्रिया को कमजोर बनाते हैं।
स्वास्थ्य
जलवायु परिवर्तन और कुपोषण
राजकुमार कुम्भज
कुपोषण से जूझते दक्षिण-एशिया के देशों के लिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय की हाल की रिपोर्ट खासी चिंता बढ़ाने वाली है जिसमें जलवायु परिवर्तन की वजह से खाद्य पदार्थों के घटते उत्पादन के अलावा भोजन के  पोषक तत्व भी बुरी तरह प्रभावित होने की चेतावनी दी गई है। 
दूसरी तरफ, विश्व बैंक का अध्ययन कहता है कि सस्ती और कम या पोषण-रहित प्रचलित भोजन सामग्री, पोषण तत्वों से भरपूर, लेकिन मंहगी भोजन सामग्री के मुकाबले बाजार से गायब हो रही है। कुपोषण की महामारी से निपटते हमारे देश के लिए यह एक नया संकट  है । 
ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन सहित बढ़ती महंगाई ने हमारे भोजन से पोषक- पदार्थ कम कर दिए हैं। वातावरण में कार्बन डाई-आक्साइड का स्तर बढ़ने से पर्यावरण संबंधित नुकसान तो हो ही रहे हैं, हमारे दिन-प्रतिदिन के भोज्य-पदार्थों में पोषक-तत्वों की भी कमी हो रही है। बढ़ती महंगाई ने फल, सब्जियों सहित मांस जैसे ज्यादा पोषक तत्वों को हमारी थाली से बाहर कर दिया है। 
यह देखना ज्यादा दिलचस्प हो सकता है कि इन भोज्य-पदार्थों की महंगाई कम पोषक-तत्वों वाले खाद्य-पदार्थों जैसे-तेल, चीनी आदि की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ी है। ऐसी स्थिति    में हम कम पोषक-तत्वों वाले हानिकारक खाद्य-पदार्थ अपना लेते हैं। खाद्य-पदार्थों में पोषक-पदार्थों की कमी का सवाल एक गंभीर लोकतांत्रिक सवाल है।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के 'टी.एच.चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ` की एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन ने हमारे भोजन से पोषक-तत्वों का अपहरण कर लिया है। इस तरह ग्लोबल वार्मिंग से हमारे सामने खाद्य-सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा पैदा हो गया है। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से खाद्य-सुरक्षा पहले से ही खतरे में है। कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इन खतरों की वजह से कृषि- उत्पादन घटने की संभावना व्यक्त  की गई है, लेकिन 'हार्वर्ड रिपोर्ट` जिस नए खतरे की तरफ संकेत कर रही है उसे गंभीरता से समझने की जरूरत है। 
यह रिपोर्ट कह रही है कि कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक-तत्वों की कमी हो रही है, इसकी वजह से गेहूं, चावल, सहित तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इस अध्ययन में पाया गया है कि जहां-जहां अधिक कार्बन डाई-ऑक्साइड की मौजूदगी में फसलें उगाई गईं, वहां-वहां फसलों में जिंक, आयरन और प्रोटीन की कमी पाई गई। वैज्ञानिकों ने प्रयोगों के माध्यम से इस तथ्य की पुष्टि भी की है। दरअसल हमारे खाद्य पदार्थों में ६८ फीसदी जिंक, ८१ फीसदी आयरन और ६३ फीसदी प्रोटीन की आपूर्ति पेड़-पौधों से ही  होती है ।
दुनियाभर में तकरीबन डेढ़ अरब लोग आयरन की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और भी गहरा हो सकता है। यही नहीं वर्ष २०५० तक दुनिया में तकरीबन १८ करोड़ लोग जिंक और १२-१३ करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे। जरूरी पोषक-तत्व उचित मात्रा में नहीं मिल पाने की वजह से शरीर कुपोषण का शिकार हो जाता है। नतीजे में कम उम्र में ही हडि्डयों से जुड़े रोग, आंखों की रोशनी कम हो जाना, रोग-प्रतिरोधक क्षमता घटना जैसी परेशानियां पैदा हो जाती हैं। 
चूंकि भारत में कुपोषण की दर पहले से ही ज्यादा है, इसलिए कार्बन उत्सर्जन की बढ़ोत्तरी हमारे यहां सर्वाधिक दुष्प्रभाव डाल सकती है । इसी तरह अन्य एशियाई देशों, अफ्रीका और मध्यपूर्व के देशों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा । रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि कार्बन डाई-आक्साइड से पौधों के विकास में मदद तो मिलती है, किन्तु इससे पौधों में पोषक तत्वों की मात्रा का स्तर घट जाता है।
उधर, विश्व बैंक ने अपने एक अध्ययन में दक्षिण-एशिया में पोषक खाद्य पदार्थों की लागत पर निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि महंगाई की मार से बचते हुए हम अक्सर कम पोषक और हानिकारक खाद्य-पदार्थ स्वीकार कर लेते हैं। भारत सहित सभी छ: दक्षिण एशियाई देशों पर किए गए उक्त अध्ययन में कहा गया है कि ज्यादातर पोषक खाद्य-पदार्थ मौसमी होते हैं और अधिक टिकाऊ भी नहीं होते । इनकी कीमतें भी स्थानीय स्तर के उत्पादन और स्थानीय स्तर के बाजार पर ही निर्भर करती हैं। 
अधिक पोषक खाद्य-पदार्थों की तुलना में कम पोषक खाद्य-पदार्थों, जैसे-गेहूं, चावल, चीनी और तेल आदि की कीमतें अपेक्षाकृत स्थिर रहती हैं। ऐसी स्थिति में पोषक-पदार्थों की कीमतों में आया उछाल अल्प आय-वर्ग के लोगों की खुराक में असंतुलन पैदा कर देता है। दक्षिण-एशिया में कु-पोषण की समस्या सबसे भयानक है। दुनिया के सबसे ज्यादा बच्च्े दक्षिण-एशिया में ही कुपोषित है । एक सर्वेक्षण के मुताबिक यहां ३६ फीसदी बच्च्े ि गनेपन के शिकार हैं,  तो १६ फीसदी बच्च्े मोटापे से जूझ रहे हैं । 
इस परिस्थिति से निपटने के लिए 'फूड, सेटी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया` की ओर से दिशा निर्देशों जारी किए गए हैं। इनके मुताबिक छ: तरह के खाद्य- पदार्थों में पोषक-तत्वों का मिलाया जाना अगली एक जनवरी से अनिवार्यत: लागू किया जाएगा ।  पूरे देश में लागू की जा रही इस व्यवस्था के तहत नमक, तेल, दूध, आटा, मैदा, और चावल को शामिल किया गया है। 'फूड, सेटी एंड स्टैंडर्ड (फोर्टिफिकेेशन इन फूड) रेग्यूलेशन-२०१६` के अंतर्गत नोटिफिकेशन जारी करते हुए कहा गया है कि नमक में आयोडीन और आयरन, तेल व दूध में विटामिन ए और डी तथा आटे, मैदा व चावल में आयरन, फोलिक एसिड, विटामिन बी-१२ अनिवार्यत: मिलाने ही होंगे। विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों के मद्देनजर भी भारत भविष्य में कुछ और खाद्य-पदार्थां में पोषक-पदार्थों को मिलाना अनिवार्य कर सकता है। आखिर कुपोषण का सवाल जीवन से जुड़ा  है ?     
विरासत
पेड़-पौधों का धार्मिक महत्व
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उनकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है । भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति है । 
वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानों में वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे । वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृतिक की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है । उस काल के अनेक लोक देवताआें में वृक्षों को भी देवता कहा गया है । मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई में मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्तिपूजा के साथ ही पेड़ पौधों और जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी थी । 
भारतीय संस्कृति में भी पौधारोपण को अति पुण्यदायी माना गया  है । शास्त्रो में लिखा गया है कि एक पेड़ लगाने से एक यज्ञ के बराबर पुण्य मिलता है । पद्य पुराण में लिखा है कि जलाशय (तालाब/बावड़ी) के निकट पीपल का पेड़ लगाने से व्यक्ति को सैकड़ों यज्ञों के बराबर पुण्य की प्रािप्त् होती है । केवल इतना ही नहीं भारतीय संस्कृति में एक पेड़ लगाना, सौ गायों का दान देने के समान पुण्यदायी माना गया है । 
पेड़ों में गुणों का समृद्ध भण्डार है । पेड़ों की जड़, तना, पत्ते, लकड़ी, फूल, फल, छाया, छाल आदि सब चीजें बेहद गुणकारी औषधि के साथ-साथ मानव जीवन का अभिन्न अंग है । पेड़ों द्वारा कार्बन- डाईऑक्साईड को सोखने और बदलें में ऑक्सीजन छोड़ने का गुण समस्त जीवों के जीवन के लिए वरदान है । पेड़ प्राकृतिक सन्तुलन के साथ-साथ आर्थिक योगदान में भी अग्रणी भूमिका निभाते है । 
पेड़ों पर पलने वाले अनेक जीव मानवीय जीवन को स्वस्थ व सुदृढ बनाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं । प्राचीन काल में मानव आवास, खाद्य, सुरक्षा एवं औषधि आदि अनेक रूपों में पेड़ों पर ही निर्भर रहता था । आदिकाल से आधुनिक काल तक पेड़ों की महत्ता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है । 
वास्तुशास्त्र में औषधीय पेड़-पौधों को सुख, शांति, समृद्धि एवं संतति प्रािप्त् का आधार स्तम्भ माना गया है । पेड़ लगाने से वास्तुदोष दूर हो जाते है और अनेक दिव्य पुण्यों और लाभों की प्रािप्त् होती है । औषधीय पौधे धार्मिकता के साथ-साथ वैज्ञानिक रूप में भी बेहद लाभदायक हैं । तुलसी, अनार, शमी, पीपल, कैला, हरसिंगार, गुडहल, श्वेत, आक, कमल, मनीप्लांट, अशोक, आंवला, अश्वगंधा, नारियल, नीम, शतावर, बिल्व, बरगद, गुलर, बहेड़ा, निम्बु आदि अनेक तरह के औषधीय पौधे जहां धार्मिक अनुष्ठानों में पुण्यदायी माने गए हैं वहीं अनेक रोगों के निवारण में भी रामबाण सिद्ध होते हैं । 
पेड़-पौधे धार्मिक कार्यक-लापों  के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं रोजगार के क्षेत्र में भी अहम भूमिका निभाते हैं । प्राकृतिक आपदाएं, प्रकृति के असन्तुलन से बढ़ी हैं । यदि इन पर अंकुश लगाना है तो पौधारोपण पर अधिक से अधिक जोर देना होगा । पौधारोपण करने के उपरांत उनकी सुरक्षा करना बेहद जरूरी हो जाता है । प्रतिवर्ष लाखों पेड़ लगाए जाते हैं । लेकिन सुरक्षा एवं देखभाल के अभाव में वे जल्द ही दम तोड़ देते है । हमें यह निश्चय करना होगा की जहां से एक पेड़ कटे, वहां कम से कम दो पेड़ लगाने चाहिए । यदि हम हर पर्व, जन्मदिन अथवा अन्य खुशी के पावन अवसरों पर पौधारोपण करने व पौधे उपहार स्वरूप देने की परम्परा शुरू करने का निश्चय करें तो नि:संदेह अल्प समय में ही धरा वृक्षों से हरीभरी हो जायेगी और चहुंओर सुख, समृद्धि एवं शांति की बयार बहती नजर  आयेगी । प्राकृतिक आपदाआें से मुक्ति तो मिलेगी ही, साथ ही मानसिक शांति भी प्रिप्त् होगी । 
भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । यहां शाल भंजिका का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा जिसमें प्राय: अशोक, चम्पा, पलाश और शाल वृक्ष के नीचे विशेष मुद्रा में वृक्ष की टहनी पकड़े हुए नारी का चित्रण रहता है । अंजता में गुफा चित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की आकृतियों में वृक्षपूजा के दृश्यों का आधिक्य है । जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष उल्लेख है । पालि साहित्य में अनेक विवरण है, जिनमें कहा गया है कि बोधिसत्व ने रूक्ख देवता बनकर जन्म लिया  था ।
हमारे प्राचीन ग्रंथ वेद में प्रकृति की परमात्मा स्वरूप में स्तुति  है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा के विविध विधानों का विस्तार से वर्णन मिलता है । नारद संहिता में २७ नक्षत्रों के नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है, हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कुल वृक्ष है यही उसके लिए कल्पवृक्ष भी है जिसकी आराधना करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है । पीपल, गूलर, पलाश, आम और वट वृक्षों के पत्ते पंच पल्लव कहलाते हैं, सभी धार्मिक आयोजनों और पूजा पाठ में इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । 
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र एवं अलौकिक वृक्षों का उल्लेख किया गया है, इनमें कल्पवृक्ष प्रमुख   है । कल्प वृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा गया है, इसे मनोवांछित फल देन ेवाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है । यह भी मान्यता है कि समुद्र मंथन में निकले १४ रत्नों में एक कल्पवृक्ष भी था । पुराणों में वर्णन है कि कल्पवृक्ष को श्रीकृष्ण देवराज इन्द्र से जीतकर लाए थे । पांडवों द्वारा अपने अज्ञात वास के दौरान किसी अन्य द्वीप से इसे लाने का भी उल्लेख आता है । महाभारत, रामायण, जातक ग्रंथों और जैन साहित्य में कल्पवृक्ष की चर्चा आयी है लेकिन वेदों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है । 
गोपाल सहस्त्रनाम तथा विष्णु स्त्रोत में कल्पवृक्ष भगवान के रूप में वर्णित है । इसे पूजा अर्चना योग्य एवं आस्था का केन्द्र माना जाता है । पदम पुराण में कहा गया है कि अमृत की बूंदे धरती पर गिरने से कल्पवृक्ष की उत्पत्ति हुई है । हरियाली, अमावस्या के दिन वृक्षों के नीचे पूजा अर्चना करने से, मनोवांछित फल मिलने का पौराणिक कथाआें में वर्णन है । 
वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार बाम्बोकेसी कुल के अडनसोनिया डिजिटेटा नामक पेड़ को भारत मे कल्पवृक्ष कहा जाता है इसको फ्रांसीसी प्रकृति प्रेमी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने सन् १७५४ में अफ्रीका के सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नामकरण अडनसोनिया डिजिटेटा हो गया । हमारे देश में कल्पवृक्ष का नाम गुरू गौरखनाथ से भी जुड़ा हुआ है । उज्जैन के निकट उन्होनें इसी वृक्ष के नीचे तपस्या की थी । बाद में उज्जैन के तत्कालीन राजा भृतहरि गुरू गोरखनाथ के शिष्य हो गए इसलिए इसका नाम गौरखइमली भी है । 
पादप जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है । यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सेकड़ों साल तक जिंदा रहता है, इसका बेहद मोटा तना धीरे-धीरे पतला होता जाता है । सर्दियों में जब इसकी पत्तियां झड़ जाती है, तब मोटा तना नीचे और पतली-पतली शाखाएं ऐसी लगती है, मानों धरती पर किसी पेड़ को उल्टा रख दिया गया हो । 
इन वृक्षों के आसपास का वातावरण सुगंधमय रहता है, इसके पत्र, पुष्प एवं छाल दुधारू पशुआेंको खिलाने से वे दूध अधिक देने लगते हैं इसकी लकड़ी से कलात्मक घड़े, लोटे, सुराही और गुलदस्ते बनाए जाते हैं, इसके गूदे को सूखा कर आटा बनाया जाता है, जो कागज बनाने के काम आता है । इसमें सुंगध विहिन सफेद मनोहारी पुष्प लगते हैं, इन अधोमुखी फूलोंमें एक ही पेड़ पर नर व मादा दोनों पुष्प होते हैं । इसकी गहरे रंग की पत्तियों में समानांतर रेखाएं होती हैं, ये पांच और सात के छत्रक में होती है । कल्पवृक्ष के पल्लव और पुष्प को शुभ मानकर विद्यार्थी अपनी पुस्तकों में, व्यापारी बही-खातों में, तथा पंडित लोग अपनी पूजा में रखते हैं ।
भारत में समुद्रतटीय प्रदेशों गुजरात, महाराष्ट्र और केरल में कल्पवृक्ष बहुतायत से मिलते हैं, जबकि अन्य प्रदेशों में इनकी उपलब्धता कम है । हमारे देश में कुछ चर्चित कल्पवृक्षों में हिमालय मेंजोशीमठ अजमेर के पास मांगलिया वास, टोंक जिले में बालुदा गांव और बांसवाड़ा के कल्पवृक्ष प्रमुख है । 
देश भर में आज कल्पवृक्षों को राजकीय संरक्षण और सामाजिक समर्थन की आवश्यकता है, जिससे नये पौधे लग सकें और पुरानों वृक्षों का संरक्षण हो सकें । सन् १९७७-७८ में देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान द्वारा कल्पवृक्ष को आरक्षित वृक्ष घोषित किया जा चुका है । 
कल्पवृक्ष के नये पौधे लगाने की  शुरूआत राजस्थान में १ नवम्बर १९८३ को श्रीमती इंदिरा गांधी ने माणिक लाल वर्मा स्मृति उद्यान भीलवाड़ा से की थी, राजस्थान में अब तक अजमेर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, झूझनू, जयपुर और सीकर में कल्पवृक्ष के नए पौधे लगाए गए हैं । म.प्र. में रतलाम में १९९८ में कल्पवृक्ष के नये पौधे बनाये गये जो राजघाट नई दिल्ली, उज्जैन एवं रतलाम में विभिन्न स्थानों पर रोपे गये थे जो आज विशाल वृक्ष बन गये है । कल्पवृक्षों की  गरिमा के अनुरूप सुरक्षा एवं संरक्षण उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता है जिससे कल्पवृक्षों के संरक्षण और विकास से देश में सुख और समृद्धि का नया युग आरंभ होगा । 
कृषि जगत
मिट्टी बचेगी तो देश बचेगा 
वसंत फुटाणे

आज के बाजारू समय में खेती और उसके उत्पादन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण मिट्टी आमतौर पर हमारी नजरों से ओझल हो जाती है। नतीजे में उसकी गुणवंत्ता, उत्पादकता और विस्तार में लगातार कमी होती जा रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक देशभर में मिट्टी की उत्पादकता करीब आधी यानि ५० फीसदी रह गई है। इसे कैसे वापस लाया जाए  ? 
`बंजर भूमि का देश अपनी आजादी कैसे बचा पायेगा?` यह सवाल महाराष्ट्र, यवतमाल के एक किसान सुभाष शर्मा पूछ रहे हैं। शर्माजी पुराने जैविक किसान हंै, कई वर्षों के अनुभव से उन्होंने मिट्टी का महत्व जाना-समझा है।
अन्न सुरक्षा तथा सुरक्षित अन्न के लिए मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनाये रखना देश का प्रथम कर्तव्य बनता है, किन्तु आधुनिक कृषि व्यवस्था रसायन पर ही जोर देती है, मिट्टी के स्वास्थ्य को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता, यह चिंता का विषय है। 'वैश्विकअन्न तथा कृषि संगठन` (एफएओ) भी इस विषय को लेकर चिंतित है। वर्ष २०१५ में 'अंतर्राष्ट्रीय मृदा वर्ष` मनाने का आवाह्न उन्होंने किया था। बाद में अपेक्षित कार्य नहीं होने के कारण इसे २०२४ तक बढ़ाकर 'अंतर्राष्ट्रीय मृदा दशक` घोषित किया गया । तीन साल बीत गए, भारत में केवल 'मृदा स्वास्थ्य कार्ड` छोड़कर अब भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है ।
अन्न सुरक्षा ही नहीं, जलसंवर्धन भी मिट्टी के साथ जुडा है। खेतों में कन्टूर बंडिंग द्वारा मृदा के साथ-साथ वर्षा जल संवर्धन भी अपने-आप सधेगा । हवा-पानी-मिट्टी जीवन के मूलाधार हैं, उनकी हिफाजत करना सभी का फर्ज है। किन्तु अति आधुनिक तकनीक के  इस जमाने में मूलभूत बातों को नजरअंदाज किया जाता है। आज हमारा देश मरुभूमि बनने जा रहा है। कुल ३२ करोड़ ८७ लाख हैक्टर भूमि में से ९ करोड़ ६४ लाख हैक्टर भूमि अत्यंत बुरी अवस्था में है। 
मिट्टी की उपजाऊ परत वर्षा जल के साथ बह जाना इस बदहाली का प्रमुख कारण है। भारत में हर साल ५३ करोड़ ३४ लाख टन मिट्टी इसी तरह बह जाती है। हरित आवरण (पेड़-पौधे) नष्ट होना, खेतों की गहरी जुताई, जमीन में जैविक पदार्थों की कमी, कृषि रसायनों का बेहिसाब इस्तेमाल आदि कारणों से भूक्षरण होता है।
खेतों में कवन्टूर बंडिंग से मिट्टी तथा बारिश का प्रभावी ढंग से संवर्धन किया जा सकता है। कन्टूर बोआई से भूमि में नमी बनी रहती है, जिससे फसल का विकास अच्छी तरह होता है।
कन्टूर बोआई से उपज में बढ़ोतरी होती है, यह विदर्भ के किसानों का यह प्रत्यक्ष अनुभव है। कन्टूर बोआई का तंत्र लोकप्रिय बनाने हेतु किसानों के खेतों पर ही प्रत्यक्ष आयोजन जरूरी है। किसान प्रत्यक्ष देखकर ही सीखेगा, भरोसा करेगा। इससे उसकी आय में पहले ही साल बढ़ोत्तरी तो होगी ही,साथ-साथ भूजल भी बढेगा ।
फसलों के जैविक अवशेष जमीन का भोजन हैं। उन्हें जलाना, खेत के बाहर कर देना एकदम गलत है। जैविक पदार्थों के बिना जमीन बंजर बनती है। मनुष्य के  शरीर में जो स्थान खून का है वही जमीन में जैविक पदार्थ का मानना होगा । जैविक पदार्थ मिट्टी के कणों को बांध कर रखते हंै जिस से भूक्षरण रुकता  है।
मिट्टी बनाने तथा बचाने में वृक्षों की भूमिका अहम् है। वृक्षों की पत्तियों द्वारा जमीन को विपुल मात्रा में जैविक पदार्थ प्राप्त होते हैं। वृक्षों के कारण बारिश की सीधी मार जमीन पर नहीं पड़ती । कुछ बारिश पत्तियों पर ही रूक जाती है, हवा के हलके झोंकों के साथ बूंद-बूंद नीचे आकर भूजल में परिवर्तित होती है। वृक्ष के  नीचे केचुएँ अधिक सक्रिय होते हैं। वे जमीन की सछिद्रता बढाते हैं। इस कारण वर्षा अधिक मात्र में भूजल में परिवर्तित  होती  है।
वृक्ष जमीन से जितना लेते हैं उससे कई गुना ज्यादा जमीन को जैविक पदार्थों के रूप में लौटाते है। वृक्ष की जड़ें जमीन में गहरी जाकर खनिज पदार्थ लेती हैं। यह पदार्थ अंत में पत्तियों के रूप में मिट्टी के उपरी स्तर को समृद्ध बनाते हैं। वृक्ष हमें भोजन, पानी, समृद्ध भूमि तथा सही पर्यावरण प्रदान करते हैं । 
खेतों में कन्टूर बंडिंग तथा बोआई का प्रशिक्षण, जैविक पदार्थों का व्यवस्थापन सिखाना जरूरी है। पढ़े-लिखे लोग भी जैविक पदार्थों के महत्व को नहीं समझते,उन्हें जला देते हैं। इससे दोहरी हानि होती है। जैविक पदार्थ तो नष्ट होते ही हैं, हवा में जहरीली कार्बनीक गैसों की बढ़ोतरी भी होती है। जैविक पदार्थों का सही व्यस्थापन अगर होता है तो कृषि क्षेत्र में पर्यावरण-हितैषी क्रांति हो सकती है। जैविक पदार्थ के लिए जन-जागरण आवश्यक है। जैविक सामग्री से बढीया खाद बनती है, ऐसी सामग्री आग के हवाले करना सिवा पागलपन के और कुछ नहीं । 
जैविक प्राकृतिक कृषि पद्धति पर्यावरण स्नेही है, मिट्टी की उर्वरा शक्ति बनाये रखना इसकी विशेषता है। अत: इस कृषि पद्धति का विस्तार तेजी से होना जरुरी है। इससे बढती गर्मी, वायु प्रदूषण तथा पर्यावरण की अन्य समस्याएँ सुलझाने में भी मदद होगी।
खाद्य फसलों के कारण कई बार जमीन का शोषण होता है, किन्तु पेड़ जमीन को वापस समृद्ध बनाते हैं। अत: वृक्षों से खाद्य प्राप्त करना उचित है। भले ही यह पूरी तरह संभव न हो सके, यथा-संभव इस दिशा में हमें प्रयास करने होंगे। महुआ, चिरौंजी, भिलावा, कौठ, सीताफल, रामफल, र्टेम्भरून, ताड, काजू,कटहल, चिकू, खिरणी, आंवला, आम, सहजन, अगस्ती, कचनार, इमली, लिसोडा, ताड, सिंदी आदि वृक्ष हमें भोजन प्रदान करते हैं। कंद उगाना आसान है। उन पर कीडे तथा बीमारियों का प्रकोप कम-से-कम होता है। वे जमीन को अधिक जैविक पदार्थ लौटाते हैं।
ऊसर, बंजर भूमि को सुजलाम-सुफलाम बनाने के प्रयास कई जगह सफल हुये हैं। महाराष्ट्र के रालेगन सिद्धि, हिवरे बाजार तो मशहूर हैं ही । विदर्भ के वर्धा जिले का काकडदरा गांव, एक समय जंगल काटकर लकड़ी बेचने वाला, महुआ से शराब बनाकर बेचने वाला, कर्ज  में डूबा गांव था जो आज पेड़ लगाकर जंगल हरा-भरा कर रहा है। अपनी पथरीली जमीन को उन्होंने कन्टूर बंडिंग द्वारा उपजाऊ बनाया है। उस जमीन से वे पर्याप्त दाना-पानी पाते हैं। एक जमाने में गांव में पेयजल की भारी किल्लत रहती थी। एक बार आग लगने पर पूरा गांव भस्म हो गया था । घास-फूस के मकान थे, आग बुझाने पानी कहां से लाते ? किन्तु आज सामूहिक श्रमकार्य द्वारा गांव की शक्ल बदल गयी । इस पराक्रम में महिलाओं का विशेष योगदान है।
मधुकर खडसे नामक इंजीनियर के मार्गदर्शन में १९८० के  दशक में मृदा तथा जल संवर्धन कार्य काकडदरा में शुरू हुआ था। ग्रामसभा में सर्वसम्मति से निर्णय लेने की उनकी पद्धति शुरू से ही रही थी, सम्पूर्ण क्षेत्र में कन्टूर बंडिंग तथा पत्थर के बांध बनाये गये । इससे भूजल बढा, खेती की उपज भी लक्षणीय बढ़ी । सामूहिक श्रम से  कुंआ खोदा गया, मिट्टी का तालाब भी गांव वालों ने अपने श्रम से बनाया । आज सीमित मात्रा में क्यों न हो, कुछ जमीन में सिंचाई भी हो रही है। यह गांव अपने श्रम के बल पर विकास कर रहा है। श्रमशक्ति के द्वारा ही उन्होंने 'पानी फाउंडेशन` के 'वाटर कप प्रतियोगिता-२०१७` का प्रथम  पुरस्कार पाया है। गांव के अनपढ़, श्रमजीवी अपनी समझ के अनुसार काम कर रहे हैं। कुछ कमी तो होगी ही, लेकिन धीरे-धीरे उनकी पूर्ति हो सकती है। उनकी एकता बनी रहना जरूरी है, बाहरी तत्व गाव में दखल न दे तो वह टिक सकती है।
काकडदरा कभी अकाल तथा अभावग्रस्त गांव था, आज वह इज्जत की रोटी खा रहा है। उनका समाज के प्रति सहयोग का भाव भी जागृत है। किल्लारी भूकंपग्रस्तों के लिए उन्होंने अपने श्रमदान के पैसे राहत कोष के लिए भेजे थे। आत्मनिर्भर काकडदरा गांव एक नमूना है, अन्य गांव उसी दिशा में चल पड़ें तो परावलंबी भारत की तस्वीर बदल  जायेगी ।