रविवार, 18 नवंबर 2018

विरासत
पेड़-पौधों का धार्मिक महत्व
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

हमारे देश में वृक्षों में देवत्व की अवधारणा और उनकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है । भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति है । 
वैदिक काल में प्रकृति के आराधक भारतीय मनीषी अपने अनुष्ठानों में वनस्पतियों को विशेष महत्व देते थे । वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृतिक की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है । उस काल के अनेक लोक देवताआें में वृक्षों को भी देवता कहा गया है । मोहन जोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई में मिले अवशेषों से पता चलता है कि उस समय समाज में मूर्तिपूजा के साथ ही पेड़ पौधों और जीव जन्तुआें की पूजा की परम्परा भी थी । 
भारतीय संस्कृति में भी पौधारोपण को अति पुण्यदायी माना गया  है । शास्त्रो में लिखा गया है कि एक पेड़ लगाने से एक यज्ञ के बराबर पुण्य मिलता है । पद्य पुराण में लिखा है कि जलाशय (तालाब/बावड़ी) के निकट पीपल का पेड़ लगाने से व्यक्ति को सैकड़ों यज्ञों के बराबर पुण्य की प्रािप्त् होती है । केवल इतना ही नहीं भारतीय संस्कृति में एक पेड़ लगाना, सौ गायों का दान देने के समान पुण्यदायी माना गया है । 
पेड़ों में गुणों का समृद्ध भण्डार है । पेड़ों की जड़, तना, पत्ते, लकड़ी, फूल, फल, छाया, छाल आदि सब चीजें बेहद गुणकारी औषधि के साथ-साथ मानव जीवन का अभिन्न अंग है । पेड़ों द्वारा कार्बन- डाईऑक्साईड को सोखने और बदलें में ऑक्सीजन छोड़ने का गुण समस्त जीवों के जीवन के लिए वरदान है । पेड़ प्राकृतिक सन्तुलन के साथ-साथ आर्थिक योगदान में भी अग्रणी भूमिका निभाते है । 
पेड़ों पर पलने वाले अनेक जीव मानवीय जीवन को स्वस्थ व सुदृढ बनाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं । प्राचीन काल में मानव आवास, खाद्य, सुरक्षा एवं औषधि आदि अनेक रूपों में पेड़ों पर ही निर्भर रहता था । आदिकाल से आधुनिक काल तक पेड़ों की महत्ता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है । 
वास्तुशास्त्र में औषधीय पेड़-पौधों को सुख, शांति, समृद्धि एवं संतति प्रािप्त् का आधार स्तम्भ माना गया है । पेड़ लगाने से वास्तुदोष दूर हो जाते है और अनेक दिव्य पुण्यों और लाभों की प्रािप्त् होती है । औषधीय पौधे धार्मिकता के साथ-साथ वैज्ञानिक रूप में भी बेहद लाभदायक हैं । तुलसी, अनार, शमी, पीपल, कैला, हरसिंगार, गुडहल, श्वेत, आक, कमल, मनीप्लांट, अशोक, आंवला, अश्वगंधा, नारियल, नीम, शतावर, बिल्व, बरगद, गुलर, बहेड़ा, निम्बु आदि अनेक तरह के औषधीय पौधे जहां धार्मिक अनुष्ठानों में पुण्यदायी माने गए हैं वहीं अनेक रोगों के निवारण में भी रामबाण सिद्ध होते हैं । 
पेड़-पौधे धार्मिक कार्यक-लापों  के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं रोजगार के क्षेत्र में भी अहम भूमिका निभाते हैं । प्राकृतिक आपदाएं, प्रकृति के असन्तुलन से बढ़ी हैं । यदि इन पर अंकुश लगाना है तो पौधारोपण पर अधिक से अधिक जोर देना होगा । पौधारोपण करने के उपरांत उनकी सुरक्षा करना बेहद जरूरी हो जाता है । प्रतिवर्ष लाखों पेड़ लगाए जाते हैं । लेकिन सुरक्षा एवं देखभाल के अभाव में वे जल्द ही दम तोड़ देते है । हमें यह निश्चय करना होगा की जहां से एक पेड़ कटे, वहां कम से कम दो पेड़ लगाने चाहिए । यदि हम हर पर्व, जन्मदिन अथवा अन्य खुशी के पावन अवसरों पर पौधारोपण करने व पौधे उपहार स्वरूप देने की परम्परा शुरू करने का निश्चय करें तो नि:संदेह अल्प समय में ही धरा वृक्षों से हरीभरी हो जायेगी और चहुंओर सुख, समृद्धि एवं शांति की बयार बहती नजर  आयेगी । प्राकृतिक आपदाआें से मुक्ति तो मिलेगी ही, साथ ही मानसिक शांति भी प्रिप्त् होगी । 
भारतीय साहित्य, चित्रकला और वास्तुकला में वृक्ष पूजा के अनेक प्रसंग मिलते है । यहां शाल भंजिका का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा जिसमें प्राय: अशोक, चम्पा, पलाश और शाल वृक्ष के नीचे विशेष मुद्रा में वृक्ष की टहनी पकड़े हुए नारी का चित्रण रहता है । अंजता में गुफा चित्रों और सांची के तोरण स्तंभों की आकृतियों में वृक्षपूजा के दृश्यों का आधिक्य है । जैन और बौद्ध साहित्य में वृक्ष पूजा का विशेष उल्लेख है । पालि साहित्य में अनेक विवरण है, जिनमें कहा गया है कि बोधिसत्व ने रूक्ख देवता बनकर जन्म लिया  था ।
हमारे प्राचीन ग्रंथ वेद में प्रकृति की परमात्मा स्वरूप में स्तुति  है । इसके साथ ही वाल्मिकी रामायण, महाभारत और मनुस्मृति में वृक्ष पूजा के विविध विधानों का विस्तार से वर्णन मिलता है । नारद संहिता में २७ नक्षत्रों के नक्षत्र वनस्पति की जानकारी दी गयी है, हर व्यक्ति के जन्म नक्षत्र का वृक्ष उसका कुल वृक्ष है यही उसके लिए कल्पवृक्ष भी है जिसकी आराधना करने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है । पीपल, गूलर, पलाश, आम और वट वृक्षों के पत्ते पंच पल्लव कहलाते हैं, सभी धार्मिक आयोजनों और पूजा पाठ में इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । 
हमारे प्राचीन साहित्य में जिन पवित्र एवं अलौकिक वृक्षों का उल्लेख किया गया है, इनमें कल्पवृक्ष प्रमुख   है । कल्प वृक्ष को देवताआें का वृक्ष कहा गया है, इसे मनोवांछित फल देन ेवाला नंदन वृक्ष भी माना जाता है । यह भी मान्यता है कि समुद्र मंथन में निकले १४ रत्नों में एक कल्पवृक्ष भी था । पुराणों में वर्णन है कि कल्पवृक्ष को श्रीकृष्ण देवराज इन्द्र से जीतकर लाए थे । पांडवों द्वारा अपने अज्ञात वास के दौरान किसी अन्य द्वीप से इसे लाने का भी उल्लेख आता है । महाभारत, रामायण, जातक ग्रंथों और जैन साहित्य में कल्पवृक्ष की चर्चा आयी है लेकिन वेदों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है । 
गोपाल सहस्त्रनाम तथा विष्णु स्त्रोत में कल्पवृक्ष भगवान के रूप में वर्णित है । इसे पूजा अर्चना योग्य एवं आस्था का केन्द्र माना जाता है । पदम पुराण में कहा गया है कि अमृत की बूंदे धरती पर गिरने से कल्पवृक्ष की उत्पत्ति हुई है । हरियाली, अमावस्या के दिन वृक्षों के नीचे पूजा अर्चना करने से, मनोवांछित फल मिलने का पौराणिक कथाआें में वर्णन है । 
वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार बाम्बोकेसी कुल के अडनसोनिया डिजिटेटा नामक पेड़ को भारत मे कल्पवृक्ष कहा जाता है इसको फ्रांसीसी प्रकृति प्रेमी वैज्ञानिक माइकल अडनसन ने सन् १७५४ में अफ्रीका के सेनेगल में सर्वप्रथम देखा था, इसी आधार पर इसका नामकरण अडनसोनिया डिजिटेटा हो गया । हमारे देश में कल्पवृक्ष का नाम गुरू गौरखनाथ से भी जुड़ा हुआ है । उज्जैन के निकट उन्होनें इसी वृक्ष के नीचे तपस्या की थी । बाद में उज्जैन के तत्कालीन राजा भृतहरि गुरू गोरखनाथ के शिष्य हो गए इसलिए इसका नाम गौरखइमली भी है । 
पादप जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता और आराध्यता में बराबरी नहीं कर सकता है । यह धीरे-धीरे बढ़ता है और सेकड़ों साल तक जिंदा रहता है, इसका बेहद मोटा तना धीरे-धीरे पतला होता जाता है । सर्दियों में जब इसकी पत्तियां झड़ जाती है, तब मोटा तना नीचे और पतली-पतली शाखाएं ऐसी लगती है, मानों धरती पर किसी पेड़ को उल्टा रख दिया गया हो । 
इन वृक्षों के आसपास का वातावरण सुगंधमय रहता है, इसके पत्र, पुष्प एवं छाल दुधारू पशुआेंको खिलाने से वे दूध अधिक देने लगते हैं इसकी लकड़ी से कलात्मक घड़े, लोटे, सुराही और गुलदस्ते बनाए जाते हैं, इसके गूदे को सूखा कर आटा बनाया जाता है, जो कागज बनाने के काम आता है । इसमें सुंगध विहिन सफेद मनोहारी पुष्प लगते हैं, इन अधोमुखी फूलोंमें एक ही पेड़ पर नर व मादा दोनों पुष्प होते हैं । इसकी गहरे रंग की पत्तियों में समानांतर रेखाएं होती हैं, ये पांच और सात के छत्रक में होती है । कल्पवृक्ष के पल्लव और पुष्प को शुभ मानकर विद्यार्थी अपनी पुस्तकों में, व्यापारी बही-खातों में, तथा पंडित लोग अपनी पूजा में रखते हैं ।
भारत में समुद्रतटीय प्रदेशों गुजरात, महाराष्ट्र और केरल में कल्पवृक्ष बहुतायत से मिलते हैं, जबकि अन्य प्रदेशों में इनकी उपलब्धता कम है । हमारे देश में कुछ चर्चित कल्पवृक्षों में हिमालय मेंजोशीमठ अजमेर के पास मांगलिया वास, टोंक जिले में बालुदा गांव और बांसवाड़ा के कल्पवृक्ष प्रमुख है । 
देश भर में आज कल्पवृक्षों को राजकीय संरक्षण और सामाजिक समर्थन की आवश्यकता है, जिससे नये पौधे लग सकें और पुरानों वृक्षों का संरक्षण हो सकें । सन् १९७७-७८ में देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान द्वारा कल्पवृक्ष को आरक्षित वृक्ष घोषित किया जा चुका है । 
कल्पवृक्ष के नये पौधे लगाने की  शुरूआत राजस्थान में १ नवम्बर १९८३ को श्रीमती इंदिरा गांधी ने माणिक लाल वर्मा स्मृति उद्यान भीलवाड़ा से की थी, राजस्थान में अब तक अजमेर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, झूझनू, जयपुर और सीकर में कल्पवृक्ष के नए पौधे लगाए गए हैं । म.प्र. में रतलाम में १९९८ में कल्पवृक्ष के नये पौधे बनाये गये जो राजघाट नई दिल्ली, उज्जैन एवं रतलाम में विभिन्न स्थानों पर रोपे गये थे जो आज विशाल वृक्ष बन गये है । कल्पवृक्षों की  गरिमा के अनुरूप सुरक्षा एवं संरक्षण उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता है जिससे कल्पवृक्षों के संरक्षण और विकास से देश में सुख और समृद्धि का नया युग आरंभ होगा । 

कोई टिप्पणी नहीं: