गुरुवार, 8 नवंबर 2007

कैसे मनाएं दीपावली

दीपावली सादगी से मनाएँ
`घर-घर दीप जले आया दीपावली का त्योहार/संग लाया ये अपने खुशियों की सौगात/कहीं रंगोली, कहीं पुताई तो कहीं रोशनी की है भरमार ।' दीपावली का नाम सुनते ही हमारे अंदर उत्साह आ जाता है, परंतु आज बदलते परिवेश में यह त्योहार अपना स्वरूप खो रहा है । हमें दीपावली को सादगी से मनाना चाहिए । इस दिन मिट्टी के दीये से रोेशनी करना चाहिए, क्योंकि इनका दीपावली में धार्मिक महत्व है । आज इन दीपों की जगह मोमबत्ती, मोम के दीये, विद्युत रोशनी ने ले ली है। इससे विद्युत का अपव्यय ज्यादा होता है । इसी के साथ दीपावली पर फोड़े जाने वाले पटाखे सबसे ज्यादा प्रदूषण करते हैं । आजकल बहुत शोर और प्रदूषण करने वाले पटाखे ज्यादा उपयोग में आते हैं। हमें उनका उपयोग खत्म कर उन पटाखों को अपनाना चाहिए जिनसे ध्वनि व वायु प्रदूषण नहीं होता है । इस तरह इस पावन पर्व को बिना शोर और प्रदूषण से हम सादगी से मना सकते है । लक्ष्मी पूजन के साथ अन्य बातों का ध्यान रखकर हम इस त्योहार का अधिक आनंद ले सकते है ।`दीपावली है दीपों का त्योहार/ इस दिन सभी एक-दूसरे को दें एक प्यार-सा उपहार ।
'प्रियंका ठक्कर, इन्दौर (म.प्र.)
इको फ्रेंडली दीपावली
इको फ्रेंडली दीपावली के लिए निम्न प्रयास किए जाएँ :-
१. पटाखों के अत्यधिक उपयोग से दीपावली अब प्रकाश पर्व न रहकर धूल-धुएँ एवं धमाकों का महापर्व बन गई है । अत: पटाखों का उपयोग न्यूनतम करें । बाजार में आजकल कम धुआँ एवं आवाज करने वाले पटाखे उपलब्ध हैं । यदि आवश्यक हो तो उनका उपयोग किया जाए । रात्रि ११ से दूसरे दिन सुबह ६ बजे तक पटाखों का उपयोग हर्गिज न करें । २. पटाखों से पैदा शोर से वृद्धों, गर्भवती महिलाआें एवं बच्चें को बचाने का यथासंभव प्रयास करें । ३. विद्युत से सजावट कम से कम करें, क्योंकि कोयला जलाकर विद्युत उत्पादन में भारी मात्रा में कार्बनडाय ऑक्साइड पैदा होती है, जो एक प्रमुख ग्रीन हाउस गैस है एवं ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार है । ४. अभिनंदन पत्रों का उपयोग भी न्यूनतम करें, क्योंकि इनके निर्माण में हमारे देश के ही लगभग एक लाख वृक्ष काटे जाते हैं । ५. सजावट के लिए प्लास्टिक की सामग्री का उपयोग कम हो । प्राकृतिक वस्तुआे को सजावट में महत्व दिया जाए । ६. घरों को दीये एवं रंगोली से सजाएँ । ७. घरों की सफाई से निकला कचरा यथा स्थान डालें ।
ओपी जोशी, जय श्री सिक्का, इन्दौर (म.प्र.)
पटाखों से तौबा जरूरी
दीपावली आपसी प्रेम व भाईचारे का त्योहार है । यह त्योहार पाँच दिनों तक मनाया जाता है जिसमें हर दिन का अपना अलग महत्व है । सभी लोगों को पारंपरिक ढंग से यह पर्व शालीनता व मर्यादा में रहकर मनाना चाहिए । यह पर्व आपसी प्रेम व भाईचारे को बढ़ाने वाला है किंतु कई लोग शराब पीकर व जुआ खेलकर इस पावन पर्व की गरिमा को घृणित कर अपने परिवार की खुशियों को गम में बदल देते हैं । हमें शराब व जुए से बचना होगा । आज हमारे समाज में पटाखों का प्रचलन बढ़ता ही चला जा रहा है । चाहे शादी-ब्याह हो, कोई नेता की अगवानी हो, किसी व्यक्ति की अंतिम यात्रा हो या दीपावली पर्व पटाखों का कानफोडू शोर व आतिशबाजी प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है । पटाखों से ध्वनि प्रदूषण व वायु प्रदूषण हो रहा है जिससे कई प्रकार की बीमारियों से लोग ग्रस्त हो रहे हैं । पटाखे जलाने से कई लोग जल जाते हैं एवं कई जगह आग लगने से घर-मकान या फसलें जलकर राख हो जाती हैं । पटाखे फायदेमेंद तो नही हैं अपितु बहुत नुकसानदायक हैं । आज समय आ गया है कि हम दीपावली का सार्थक स्वरूप समझें ।
सुरेश सोलंकी, ठीकरी (बड़वानी) म.प्र.
दूर रखें धमाकों से बच्चें के कान
रोशनी का पर्व दीपावली दीपों का त्योहार है । अंधकार पर उजाले की जीत के रूप में भी हम इसे मनाते हैं । हमारे पुराणों में अग्नि को उजाले का स्वरूप भी कहा गया है । यदि किसी कारण उजाले का अभाव हो तो आवाज को भी खुशियाँ मनाने का तरीका माना गया है । दीपावली पर दीपक एवं पटाखे जीवन में उसी रोशनी और आवाज को प्रदर्शित करते हैं एवं ये दोनों ही खुशी मनाने के स्वरूप में स्वीकार किए गए हैं । बच्चें को इनसे दूर रखना चाहिए ।
मनमोहन राजावत, शाजापुर

आवरण



संपादकीय

ग्लोबल फेस्टिवल दीपावली
आजकल दीपावली ग्लोबल फेस्टिवल है । दीपावली रोम से लेकर यूनान और लंदन से लेकर न्यूयार्क तक में मनायी जा रही है । इसकी वजह यह है कि धन दुनिया के हर इंसान को प्रिय होता है फिर चाहे वह जिस धर्म या समाज से रिश्ता रखता हो । दीपावली मेंधन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है जो इंसान की स्वाभाविक चेतना का हिस्सा है, इसलिए यह लक्ष्मी सिर्फ हमारी ही देवी या आराध्या नहीं है बल्कि अलग-अलग नामों से धन की देवी की आराधना सभी धर्मो और समाजों में होती है । यही कारण है कि भारत की ही तरह रोम में भी दीपज्योति जलाकर देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है । हालांकि दोनों में फर्क भी हैं, हम भारत में जिसे लक्ष्मी कहते हैं रोम में उसे ज्योति की देवी वेस्ता कहते हैं । रोम की ही तरह यूनान भी प्राचीन सभ्यता व संस्कृति का केन्द्र है । यहां भी लक्ष्मी की पूजा होती है । यहां लक्ष्मी को कृषि एवं सामाजिक संपन्नता की देवी री के रूप में जाना जाता है । री देवी की पूजा धूमधाम से की जाती है तथा इस रात यहां भी चारों और दीपावली के समान ही दीपों को जलाया जाता है । भारत की लक्ष्मी और एथेंस की देवी एथेना में तो इतनी साम्यता है कि लगता है जैसे लक्ष्मी का ही व्यापक संस्करण एथेना है । एथेना प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित है । भारत की लक्ष्मी की ही तरह एथेना का वाहन भी उल्लू है । यहां की महिलाएं महालक्ष्मी एथेना की उपासना करती हैं । वे मंदिरों में जाकर दीप जलाती है तथा लिली के पीले फूल चढ़ाती है । कंबोडिया में अंकोरवाट के विशालकाय विष्णु मंदिर में लोग दीपावली की तरह जीवन ज्योति देवी की पूजा दीप जलाकर करते हैं । मान्यता है कि जीवन ज्योति की पूजा करने वाला अभवग्रस्त नही रहता । इसके अलावा इंडोनेशिया के बाली द्वीप में लक्ष्मी की पूजा धान पैदा करने वाली देवी के रूप में की जाती है । भारत के पड़ोसी श्रीलंका में वहां के लोग देवी लंकिनी की पूजा करते हैं । देवी लंकिनी को भी वैभव एवं ऐश्वर्य की देवी मानकर पूजा की जाती है । सूडान यूं तो इस्लामी देश है लेकिन वहां भी दीपावली में देवी मूर्तिजा की पूजा की परंपरा है । इसके अलावा नेपाल, थाइलैंड, जावा, सुमात्रा, मारीशस, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका और जापान आदि देशों में भी अनेक रूपों में लक्ष्मी की पूजा की जाती हैं ।

४ खास खबर

पचौरी पेनल को नोबेल शांति पुरस्कार
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
भारतीय लोगों के लिए यह गर्व का विषय है कि विख्यात पर्यावरणविद आरके पचौरी के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन पेनल (इंटर-गवर्मेन्टल पेनल ऑन क्लाइमेट चेंज) को अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर के साथ २००७ के प्रतिष्ठित नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। नोबेल समिति की तरफ से जारी बयान के अनुसार जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति दुनिया भर में लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने लिए उक्त दोनों को इस पुरस्कार के लिए चुना गया है । जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुए अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए । इन खतरों की अब ज्यादा समय तक अनदेखी नहीं की जा सकती है । आईपीसीसी संयुक्त राष्ट्र की वह समिति है जिसमें ३००० वायुमंडलीय, समुद्री और बर्फ पर शोध करने वाले वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री एवं अन्य विशेषज्ञ शामिल है । यह पेनल विश्व की सर्वोच्च् वैज्ञानिक प्राधिकार वाली समिति है जो दुनिया को `ग्लोबल वार्मिंग' के खतरों से आगाह करती रहती है । समिति के ६७ वर्षीय अध्यक्ष आरके पचौरी नई दिल्ली स्थित पर्यावरण संस्थान टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूूट (टैरी) के महानिदेशक भी हैं । इस अवसर पर श्री पचौरी ने नार्वे के टीवी-२ से बातचीत में कहा `इस पुरस्कार के लिए श्री अल गोर के साथ चुने जाने पर मैं बहुत खुश हँू । हमने अपने कार्यो के लिए किसी पुरस्कार की अपेक्षा नहीं रखी थी । उन्होंने पुरस्कार को संस्था का बताते हुए कहा कि मैं सिर्फ सांकेतिक रूप से ही इसे ग्रहण करूँगा । उल्लेखनीय है कि श्री पचौरी वर्ष २००२ में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय पेनल के अध्यक्ष बने थे । इस साल उनकी अध्यक्षता में पेनल ने जलवायु परिवर्तन के खतरों को इंगित करने वाली बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट जारी की थी। पूर्व अमेरिकी उप राष्ट्रपति और आईपीसीसी को पुरस्कारस्वरूप १५ लाख डालर की धनराशि प्रदान की जाएगी । शांति समिति का यह मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग मानवता के लिए इतनी खतरनाक समस्या बन चुकी है कि ग्रीन हाउस गैसेस की वजह से धरती इतनी गरम होती जाएगी जिसकी भविष्यवाणी करना गठित है । इसके अलावा ग्लेशियर्स तीव्र गति से पिघल रहे हैं । यहाँ तक कि गंगा का स्त्रोत गोमुख और उसके आसपास का इलाका इतने तीव्र रूप से पिघल रहा है कि गोमुख जैसी आकृति अब समाप्त् हो चुकी है । गोमुख अपने मूल स्थान से सौ मीटर से ज्यादा पीछे खिसक चुका है । इससे समिति का अधिकृत रूप से यह मानना है कि विश्व स्तर पर समुद्र में जो ३-४ फुट ऊपर टापू हैं, उनका नामोनिशान मिटने की पूरी संभावना है । जलवायु में घट-बढ़ होगी, अकाल की स्थितियाँ निर्मित हो गई हैं । पहले बाढ़ और बाद में सूखे की जो स्थितियाँ निर्मित होंगी, मानव साधन उसके सामने बौने सिद्ध होंगे संयुक्त राष्ट्र के १९९५ के बर्लिन शिखर में गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए सहमति बनी थी । १२० राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने बर्लिन शिखर में भाग लिया था । परंतु उसका नतीजा आशावर्धक नहीं रहा । शंाति नोबेल घोषित कर पुन: संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है । इसके बाद जापान में भी १९९७ में जलवायु सुधार हेतु और ५ प्रतिशत गैस रिसाव कम करने पर सहमति बनी थी । ग्लोबल वार्मिंग ने अब सुरसा का रूप धारण कर लिया है और यह हमारी सभ्यता के लिए भीषण खतरा बन गया है। हिमायल तो प्रदूषित हो चुका है और संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि अंतरिक्ष भी प्रदूषित हो जाए अल गोर भी पर्यावरण के लिए संवेदनशील हैं और समिति में उनकी उपस्थिति से निश्चित ही पर्यावरण चेतना को वैश्विक रूप देने से सहायता मिलेगी ।

५ बहस

जल का निजीकरण या जल डकैती
न्यायमूर्ति एस. राजेन्द्र बाबू
जल मनुष्य के जीवन का एक अनिवार्य तत्व और मूलभूत आवश्यकता है । अतएव यह सभी प्राकृतिक संसाधनों में सबसे मूल्यवान भी है । राष्ट्र के आर्थिक विकास में निर्णायात्मक भूमिका निभाने वाला `जल' अंतत: इसके निवासियों के सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित करता है । असंतुलन औद्योगिकीकरण, अवैज्ञानिक सिंचाई प्रणालियों, विशाल बांधों के निर्माण जहरीले पदार्थो की डम्पिंग एवं जंगलों व आर्द्र भूमि के मनमाने विनाश ने पृथ्वी की सतह पर उपलब्ध जल को इतना भयानक नुकसान पहुंचाया है कि प्रकृति उसकी भरपाई भी नहीं कर सकती है । वर्तमान वैश्विक शुद्ध जल संकट इस ग्रह पर जीवन के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है । शुद्ध जल एक लुप्त् होता संसाधन है और राज्यों को अपने नागरिकों को इसकी यथोचित्त आपूर्ति बनाये रखने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है । जल जो कि एक अनिवार्यता है अब विलासिता की वस्तु बनता जा रहा है । इन दिनों संस्थाआे के स्तर पर एक नए विचार `परोक्ष जल' ने अपनी पैठ जमाई है । इसका अर्थ है किसी वस्तु के उत्पादन में परोक्ष रूप से या छिपी हुई जल की मात्रा । उदाहरणार्थ जब एक किलो खाद्यान्न का उपयोग किया जाता है तो माना जाता है कि व्यक्ति ने इसके उत्पादन हेतु एक हजार लीटर जल का उपभोग किया है । वहींउपभोग हेतु एक किलो मांसाहार उत्पादन करने के लिए १३००० लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है । जल संसाधन प्रबंधन आज का सबसे महत्वपूर्ण मसला बन चुका है । यह सभी प्राकृतिक संसाधनों में सबसे अधिक ध्यान आकर्षित कर रहा है । आज सभी पूर्व प्रचलित प्रणालियों जिसमें `निजी भागीदारी' भी शामिल है को उसके गुण दोष के आधार पर देखने की अनिवार्यता बताई जा रही है, जिससे कि इस संसाधन का न्यायोचित प्रबंधन हो सके । शुद्ध पेयजल, मनुष्य के जीवित रहने की मूलभूत आवश्यकता है, अतएव यह स्वमेव मानव जाति एक मूलभूत मानव या प्राकृतिक अधिकार भी है । जल के अधिकार को मानव अधिकार मानने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में पानी के बढ़ते संकट, खासकर विकासशील देशों के संदर्भ में जागरूकता में वृद्धि होगी । वैसे किसी भी देश की सरकार के लिए पानी की आपूर्ति उसके प्राथमिक कर्तव्यों में से एक है, परंतु कई सरकारें अपनी संकुचित सोच व अर्कमण्यता की वजह से ऐसा नही कर पाती हैं । पानी की समस्या के वैश्विक प्रभावों पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् १९७२ से लेकर अभी तक अनेकों सम्मेलनों का आयोजन कर इसे मानव अधिकार के रूप में स्वीकारा है । इसके बावजूद जल विषयक मानव अधिकारों का सर्वाधिक हनन हो रहा है । ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष २०२५ तक विश्व की दो तिहाई आबादी पानी की जबरदस्त कमी का सामना करने को बाध्य होगी । भारत के संदर्भ में उपलब्धता का अत्यधिक महत्व है । क्योंकि जहां एक ओर गरीबों को प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्र पंद्रह लीटर जल ही उपलब्ध हो पाता हैं वहीं संपन्न वर्ग को ३०० लीटर तक उपलब्ध है । भारत में पानी की कमी गरीब व्यक्ति को सर्वाधिक प्रभावित करती है । इस संबंध में यहां अन्य अनेकों भेदभाव भी अनंत काल से विद्यमाल हैं। जैसे महिलाआे और लड़कियों को घंटों पैदल चलकर पानी लाना व शहरी गरीब (गंदी) बस्तियों में भी पानी की न्यूनतम उपलब्धता। भुगतान का सामर्थ्य भी जल की उपलब्धता का ही महत्वपूर्ण अनुषंग है । इसकी लागत इतनी नही होना चाहिए कि यह गरीब व्यक्ति की पहुंच से बाहर हो जाए । अगर गरीबों को जल की उच्च् लागत के कारण मूलभूत आवश्यकताआे जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाआे या खाद्यान्न पर समझौता करना पड़े अथवा दूषित जल पीना पड़े तो यह उनके मानव अधिकार का हनन होगा । पानी से होने वाली बीमारियों को रोकने से व्यक्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि होगी । जल की सामाजिक आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन में निर्णायक भूमिका है । जल का वैश्विक उपभोग प्रत्येक बीस वर्ष में दुगुना हो जाता है । यह जनसंख्या वृद्धि की दर से दुगुना है । इस बढ़ती मांग और भविष्य में होने वाली कमी के मद्देनजर बहुराष्ट्रीय जल निगमों ने इस बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन पर कब्जे हेतु अपने पैर फैलाने प्रारंभ कर दिए हैं । जल तेजी से भूमण्डलीय कारपोरेट उद्योग बनता जा रहा है । एक तरह से यह निजी निवेशकों द्वारा अधिसंरचना पर किया गया अंतिम निवेश भी होगा । अंतर्राष्ट्रीय जल कंपनियों अनेक देशों में मात्र लाभ कमाने के लिए शहरी जल आपूर्ति अपने हाथ में ले रहीं है । उनके इस उद्यम में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक के अलावा अंसख्य आंचलिक बैंक जैसे यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक, इंटर अमेरिकन डेवलपमेंट बैंक, एशिया विकास बैंक और अफ्रीका विकास बैंक विशाल पैमाने पर पाईप लाईन का निर्माण करवा कर दूरस्थ स्थानों पर शुद्ध पेय जल के विक्रय में सहायता कर रहे हैं। इतना ही नहीं ये कंपनियां तो अब समुद्र पार तक जल का परिवहन बड़े पैमाने पर कर रही हैं । इस मामले में विश्व बैंक का नजरिया है कि `शीघ्र ही जल भी विश्व में तेल की तरह ही संचालित होगा।' वैसे भी बोतल बंद पानी का व्यापार निजी निगमों के लिए सोने की खान बन गया है। इतना ही नहीं जल कंपनियां पुराने पड़ चुके कानूनों का फायदा उठाकर बड़े-बड़े भूखण्ड खरीद कर बड़ी मात्रा में भूजल का दोहन कर रहीं है । साथ ही साथ वे स्थानीय समुदायों द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले कुआें और अन्य स्थानीय पारंपरिक जल स्त्रोतों को भी योजनाबद्ध तरीके से नष्ट कर रहीं हैं । कुल मिलाकर भारत के शहरों में जल समस्या विस्फोटक स्थिति तक पहुंच चुकी है । जल पूर्ति के सभी स्त्रोत देखरेख के अभाव में बर्बाद होते जा रहे हैं। पानी पर सब्सिडी पद्धति का उद्देश्य शहरी गरीबों को कम मूल्य पर जल उपलब्ध करवाना था पंरतु वास्तव में इससे शहरी अमीरों को ही लाभ पंहुच रहा है। अगर हम अपने नेताआें और नौकरशाहों पर विश्वास करें तो उनके अनुसार जल का निजीकरण ही एकमात्र हल बच रहा है । उनके हिसाब से जल के बढ़े मूल्य ही शहरी लोगों को जल की बचत की ओर प्रेरित करेंगे । निजीकरण के ऐसे प्रयोग इंग्लैंड, फिलीपीन्स, अफ्रीकी देशों, बोलिविया व अन्य कई देशों में किए गए हैं । परंतु इनकी कार्यप्रणाली देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रयोग भारत में शायद ही सफल हो । वैसे कुछ चरम पंथियोंने जल आपूर्ति के निजीकरण के विचार को मूर्त रूप देते हुए देश भर के तीस शहरों में नगर निगमों द्वारा की जाने वाली जल आपूर्ति को निजी उद्यमियों को सौंपने का निश्चय कर लिया है । अगर हमें इन निगमों द्वारा दी जाने वाली `जल डकैतियों' को रोकना है तो इस हेतु तुरंत प्रभावकारी कदम उठाने होंगे । पानी जैसे मानव अधिकार का निजीकरण कई महत्वपूर्ण प्रश्न भी खड़े करता है । क्योंकि इसके निजीकरण का पैमाना टेलीकाम, बिजली आदि के निजीकरण से एकदम भिन्न है । निजीकरण की निविदा ही इस दिशा में पहला कदम है । जल की सार्वजनिक मिल्कियत कायम रखी जानी चाहिए । कार्पोरेट के लिए जल के निजीकरण की पहली परिकल्पना ही यह होती है कि जल एक आर्थिक उत्पाद भर हैं । यह उस भारतीय मानसिकता से कोसों दूर हैं जिसके लिए `नि:शुल्क जल' जीवन जीने का ही एक तरीका है । इन दोनों विरोधाभासों में सामंजस्य बिठाने के पूर्व प्रतयेक ऐसा राज्य जो निजीकरण की ओर अग्रसर हो रहा हो, में एक मजबूत नियामक का गठन होना अनिवार्य है । इस नियामक प्राधिकारी की अध्यक्षता उच्च् न्यायालय के वर्तमान या पूर्व न्यायाधीश द्वारा की जानी चाहिए । इतना ही नहीं इसकी कार्यप्रणाली से जनता की भलाई सुस्पष्ट रूप से परिलिक्षित भी होनी चाहिए । जल के मूल्य का निर्धारण भी इसी प्राधिकारी द्वारा किया जाना चाहिए एवं ऐसा करते समय निजी उद्यमी को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देशित किया जाना चाहिए कि वह इस मानव अधिकार को संतुष्ट करने के लिए मूलभूत आवश्यकताआे हेतु जल की आपूर्ति बिना किसी शुल्क के उपलब्ध करवाए । इस न्यूनतम अनिवार्य मात्रा की आपूर्ति के पश्चात ही इस नियामक इकाई द्वारा जल दरों का निर्धारण किया जाना चाहिए । साथ ही दरों में यह भी प्रावधान किया जाना चाहिए कि गरीबों को कम दर पर जल मिले और लागत की भरपाई समृद्ध ग्राहकों एवं सरकारों द्वारा मात्र `यथोचित लाभ' हेतु ही की जाए । जल आपूर्ति के लिये नदियों और झीलों को निजी उद्यमियों को सौंपने के पूर्व राज्य को इस पर अपने सार्वभौम अधिकार और समुदाय के हितों को भी ध्यान में रखना चाहिए । स्थानीय स्वशासन संस्थाआे द्वारा जल आपूर्ति सेवा के धराशायी होने देने से राज्य इस बात पर मजबूर होते जा रहे हैं कि जल संकट से निपटने हेतु यह कार्य विशाल बहुराष्ट्रीय निगमों को मात्र लाभ कमाने हेतु हस्तांतरित कर दिया जाए । दूसरी ओर हमारे सभी नेता बजाए सार्वजनिक क्षेत्र में इन सुविधाआे को बेहतर तरीके से उपलब्ध कराये जाने का प्रयास करने के इनके निजीकरण का अंध समर्थन कर रहे हैं । इस व्यवस्था में किए गए किसी भी परिवर्तन के दूरगामी सामाजिक परिणाम निकलेंगे । इस संदर्भ में आदर्श स्थिति भी यही है कि जल आपूर्ति `कल्याणकारी राज्य' के अधिकार क्षेत्र में ही हो ।

६ विशेष लेख

म.प्र. : बायोस्फियर रिजर्व एवम् प्रकृति संरक्षण
डॉ.आर.पी.सिंह/डॉ. यशपाल सिंह
सभी पृथ्वीवासी इस तथ्य से भली भांति परिचित हैं कि संवेदनशील पर्यावरण संतुलन ही पृथ्वी पर जीवन के संचालन को बनाए हुए हैं । यद्यपि आधुनिकता व औद्योगिक विकास के नाम पर मनुष्य में प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दोहन कर, पृथ्वी के पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ दिया है। जिसके फलस्वरूप वर्तमान में अनेको पर्यावरणीय विपदाआे (पृथ्वी का बढ़ता तापमान, अम्लीय वर्षा, ओजोन छिद्र जैव विविधता ह्रास: इत्यादि) की समस्या उत्पन्न हो गयी हैं । यदि भविष्य में भी हम इसी गति से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते रहे और इन संसाधनों के संरक्षण व सतत् प्रबंधन हेतु विभिन्न स्तरों पर ठोस प्रयास नही किए तो वह दिन दूर नहीं जब हम अपने अस्तित्व पर ही एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देंगे । अत: वर्तमान में यह आवश्यक हो गया है कि हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण रीति से उपयोग एवं वैज्ञानिक विधि से संरक्षण व प्रबंधन करे, ताकि पारिस्थितीय तंत्र के विभिन्न घटको (पादपों, जंतुआे व पर्यावरण) के मध्य एक परस्पर सामन्जस्य स्थापित किया जा सके । इसी परिपेक्ष्य में विभिन्न स्तरों (अर्न्तराज्यीय, राज्यीय व स्थानीय) पर निरन्तर प्रयास किए जा रहे हैं, जिससे इन संवेदनशील पारिस्थतिक तंत्रों में समाहित जैवविविधता का संरक्षण एवं उनमें रहने वाले लोगों के सामाजिक व आर्थिक जीवन स्तर को भी ऊपर किया जा सकें । जैवविविधता : देश व मध्य प्रदेश परिपेक्ष्य :- भारत, अपने विस्तृत अंक्षाशीय फैलाव, तापमान, ऊंचाई व जलवायु की भिन्नता के कारण विश्व के १२ महाजैव विविधता वाले देशों (ब्राजील, कोलंबिया, इक्वाडोर, मेक्सिको, पेरू, भारत, मेडागास्कर, जायरे, चीन, इण्डोनेशिया, मलेशिया, आस्ट्रेलिया) की श्रेणी में आता है इन्हीं देशों के विश्व जन संख्या की जैवविधिता का लगभग ६०-७० प्रतिशत अंश विद्यमान है । इन देशों में आस्ट्रेलिया के अलावा अन्य सभी देश विकासशील है । जहाँ पर बढ़ती जनसंख्या, आर्थिक व औद्योगिक विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव है जिसके फलस्वरूप पर्यावरणीय व पारिस्थतिकीय प्राथमिकताएं तुलनात्मक रूप से पिछड़ जाती है । भारत विश्व का केवल २.४ प्रतिशत क्षेत्रफल का वरण करते हुए भी विश्व जैव विविधता का ८-११ प्रतिशत अंश को समाहित करता है । भारत विश्व की जनसंख्या का १७ प्रतिशत व पालतु पशुआे की १६ प्रतिशत जनसंख्या का वरण करता है । मेयर (२०००) ने स्थानीय स्तर पर प्रजातियों के अपवादात्मक संकेन्द्रण की प्रमुखता के आधार पर विश्वभर में २५ जैवविविधता हाटस्पाट को चिन्हित किया है, तथा इनमें से २ हाटस्पाट पूर्वी हिमालय व पश्चिमी घाट भारत में स्थित है । देश के विभिन्न भागें में समाहित जैवविविधता के इस उच्च् स्तर को संरक्षित करने के लिए २ आधारभूत इन सीटू एवं एक्स सीटू योजनाआे के अन्तर्गत विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए गये है जिसमें राष्ट्रीय उद्यान (९६) अभ्यारण (५०८) अनेको चिड़ियाघ्ज्ञर, बाटेनिकल गार्डन व कृत्रिम संरक्षण हेतु जीन बैंक, व पादप एवं जन्तुआे के जीवदृव्य संरक्षण व संबंध हेतु राष्ट्रीय ब्यूरो शामिल है । इन्हीं संरक्षण इकाईयों की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए पारिस्थितिक तंत्रों के संरक्षण के पहलु के साथ जैवविधिता संरक्षण हेतु बायोस्फियर रिजर्व कार्यक्रम के अन्तर्गत अनकों पारम्परिक व गैरपारम्परिक (वैज्ञानिक) प्रबंधन योजनाएं क्रियान्वित की जा रही हैं । जिसके फलस्वरूप इन क्षेत्रों में न केवल स्थानीय व दुर्लभ जीव जन्तुआे की प्रजातियां बढ़ी हैं बल्कि इन क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों का सामाजिक व आर्थिक विकास भी हुआ हैं । बायोस्फियर रिजर्व नामांकन मापदण्ड, सामान्यत: ऐसे क्षेत्रों को बायोस्फियर रिजर्व किए जाते हैं, जहाँ प्रभावशाली ढंग से संरक्षित और अत्यंत कम बाधित, प्राकृतिक, संरक्षण के मूल्य वाला क्षेत्र हो । जिसमें शोध एवं प्रबंधन के स्वपोषी तरीके के प्रदर्शन और अनुसंधान किये जा सकें । इसके अतिरिक्त यहां पर स्थानीय, दुलर्भ एवं संकटापन्न प्रजातियों की उपस्थिति थीं । बायोस्फियर रिजर्व क्षेत्रीकरण :- जैव विविधता धनी इन क्षेत्रों के सतत प्रबंधन एव विकास हेतु बायोस्फियर रिजर्व को ३ से ५ निम्नलिखित क्षेत्रों में बाँटा गया है - केन्द्रीय (प्राकृतिक क्षेत्र; परिचालन या मध्यवर्ती क्षेत्र परिवर्तन या पुन: स्थापन क्षेत्र और सांस्कृतिक क्षेत्र । सामान्यत: केन्द्रीय क्षेत्र बायोस्फियर रिजर्व का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र होता हैं । जिसे न्यूनतम वाधा क्षेत्र के रूप में संरक्षित किया जाता है । मध्यवर्ती क्षेत्र अधिकांश: केन्द्रीय क्षेत्र से जुड़ा होता हैं या चारो तरफ होता हैं, जिसमें उपयोग व अन्य गतिविधियाँ इस प्रकार संचालित की जाती हैं, जिससे केन्द्रीय क्षेत्र की सुरक्षा के साथ-साथ, इस पर पड़ने वाले जैविक दबावो को भी न्यूनतम किया जा सकें । परिवर्तनीय क्षेत्र बायोस्फियर रिजर्व का सबसे बाहरी हिस्सा होता है । जिसे सहयोगी क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया जाता हैं जिसमें संरक्षण ज्ञान, प्रबंधन कौशल एक साथ उपयोग में लाए जाते हैं । सरंक्षण उद्देश्य :- देशभर में यद्यपि जैव विविधता एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों के सरंक्षण हेतु विभिन्न संरक्षित इकाईयों जैसे राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य आदि की स्थापना काफी अरसे की जाती रही हैं । फिर भी बायोस्फियर रिजर्वो के संरक्षण प्रयासों में महत्वपूर्ण स्थान हैं क्योंकि बायोस्फियर रिजर्व के कार्यक्षेत्र की परिधि, राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभ्यारण्यों की तरह कुछ विशिष्ट जातियों तक ही सीमित न होकर, समस्त जैवविविधता के वृहत्तर रूप में संरक्षण एवं प्रबंधन को अपने में समाहित करती हैं । इस तरह इस कार्यक्रम में मनुष्य द्वारा प्रयोग की जाने वाली वस्तुआे, जन्तुआे एवं पादपों में पाई जाने वाली आनुवांशिक विभिन्नताआे का भविष्य के लिए संरक्षण भी कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य हैं । राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभ्यारण्यों की अपेक्षाकृत बायोस्फियर रिजर्व की परिकल्पना में प्रकृति संरक्षण हेतु स्थानीय निवासियों की भागीदारी को भी अधिक महत्व दिया गया हैं । इस परिकल्पना के अन्तर्गत मुख्य रूप से इस बात पर बल दिया जाता हैं, कि पारिस्थितिक एवं पर्यावरणीय शोध कार्यो के साथ-साथ शिक्षण एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम के माध्यम से प्रकृति संरक्षण हेतु जनजागृति उत्पन्न की जा सकें । मध्यप्रदेश में अभी तक घोषित २ बायोस्फियर रिजर्वो का संक्षिप्त् विवरण निम्न प्रकार हैं :-१) पंचमढ़ी बायोस्फियर रिजर्व १.१ स्थिति :- पंचमढ़ी व आसपास के ४९८१.७२ वर्ग कि.मी. क्षेत्र को पंचमढ़ी बायोस्फियर रिजर्व के पर्यावरण व वन मंत्रालय भारत सरकार द्वारा सन् १९९९ के रूप में घोषित किया गया । देश का बारहवाँ एवं प्रदेश का पहला बायोस्फियर रिजर्व राज्य के तीन जिलो होशंगाबाद, बैतूल व छिंदवाड़ा में फैला हुआ है । इसमें तीन वन्यजीव संरक्षण इकाईयाँ - बोरी अभ्यारण्य सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान और पंचमढ़ी अभ्यारण्य समाहित है । तीनों इकाईयों के कुल क्षेत्र को वर्ष २००० में बाघ परियोजना (प्रोजेक्ट टाइगर) के अन्तर्गत सतपुड़ा टाईगर रिजर्व के रूप में घोषित किया गया है ।१.२ क्षेत्र वर्गीकरण :- बायोस्फियर रिजर्व के मूलत: सतपुड़ा टाईगर रिजर्व के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्र १५५५.२३ वर्ग कि.मी. क्षेत्र को कन्द्रीय क्षेत्र के रूप में घोषित किया गया हैं केन्द्रीय क्षेत्र के चारों तरफ के १७८५.८२ वर्ग कि.मी. क्षेत्र को मध्यवर्ती क्षेत्र घोषित किया गया हैं ताकि केन्द्रीय क्षेत्र पर पड़ने वाले जैविक दबावों को न्यूनतम किया जा सके । मध्यवर्ती क्षेत्र के चारों तरफ के सबसे बाहरी १६४९.९१ वर्ग कि.मी. क्षेत्र को परिवर्तनीय क्षेत्र घोषित किया हैं ।१.३ संरक्षण इतिहास :- पंचमढ़ी जैवमण्डल आरक्षित क्षेत्र का पुराना संरक्षण इतिहास है । भारतीय वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन वर्ष १८६२ में प्रारम्भ के साथ-साथ गर्मियों में आग लगने से रोकथाम के लिए फायर लाइन बनाने का इतिहास भी यही से शुरू हुआ । यहीं से भारत वर्ष में वन विभाग की स्थापना की शुरूआत हुई ।१.४ पादप विशेषताएं :- यह क्षेत्र वस्तुत: राज्य में प्रतिनिधि वनों के प्रकारों का संगम है । सम्पूर्ण वन को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित किया गया हैं । आर्द्र पर्णपाती, शुष्क पर्णपाती और मध्य भारतीय उपोष्ण कटिबंधीय पर्वतीय वन । जैवमण्डल आरक्षित क्षेत्र जीन पूल और पादप विविधता की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । इस क्षेत्र की जैवविवधिता सम्पन्नता यहां पर पाये जाने वाली ऐपीफिटिक मास के ३७ आकिर्ड की ३५ ब्रायोफाइट्स की ५७ टेरिडोफाइटस की १५८ जिम्नोस्पर्म की ७ व एनजियोस्पर्म (पुष्पीय) पौधो की ११९० प्रजातियों में साफ इंगित होती है । पंचमढ़ी बायोस्फियर रिजर्व के सागौन आच्छादित वन में रेलिम्ट रूप में साल का पाया जाना एक अदभुत पारिस्थितिकीय विशिष्टता हैं । सतपुड़ा की रानी पंचमढ़ी का पठार वनस्पति शास्त्रियों के लिए स्वर्ग समान है । यहां पर गहरी घाटियों, झरनों व भिन्न उॅचाई वाली पहाड़ियों के कारण अनेको स्थानिक दुलर्भ व संकटापन्न पादप प्रजातियां जाती हैं ।१.५ जंतु विशेषताएं :- क्षेत्र की विविधत भौतिक संरचना, पादप भिन्नता एवं विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक रहवास की प्रचुरता के कारण यहाँ ५० से ज्यादा स्तनधारी, २५४ पक्षियों, की ३० सरीसृप की, ५६ तितलियों की प्रजातियां पायी जाती है । इस क्षेत्र में खड़ी चट्टानों के कगार बहुत से मधुमक्खियों के छत्तों एवं काले गरूड़ के निवास स्थान है । इन जंगलों में भूरे एवं लाल जंगली मुर्गे दोनों ही एक साथ पाये जाते हैं । जबकि ये क्रमश: उत्तरी भारत व दक्षिणी भारत में अलग अलग पाये जाते है । लघुपूंछ बंदर, विशालकाय गिलहरी व उड़न गिलहरी इस क्षेत्र की स्थानिक प्रजातियां है । यहाँ पाये जाने वाला कलगीदार सर्प गरूड़ भी एक दुर्लभ प्रजाति हैं ।१.६ सांस्कृतिक विशेषताएं :- पंचमढ़ी पठार के आसपास पुरातात्विक महत्व की आश्रय गुफाएँ बड़ी मात्रा में हैं, जिनमें अत्यंत प्राचीन काल की जनजातियों द्वारा बनाएँ गए अनेक शैलचित्र मिले हैं । इनमें से कुछ लगभग १०० वर्ष प्राचीन है। जबकि ज्यादातर गुफाएँ १२०० से १५००० वर्ष पुरानी हैं । इनमें से महादेव, कटाकम्ब, जटाशंकर, पाँडव गुफा एवं मंडियादेव पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है । इन शैलचित्रों में तलवार और ढाल के साथ साथ योद्धा, धनुष बाण और हाथी, शेर, तेंदुआ, चीतल, मोर, घोड़ा आदि चित्रित है । यह क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत संपन्न है ।१.७ पर्यटन विशेषताएं :- सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला की चोटियाँ और ढलान हरियाली से भरपूर हैं जबकि पठार की समतल भूमि पर घांस क्षेत्र (मीडो) के खुल एवं विशाल मैदान हैं, इस क्षेत्र में मध्य भारत की सबसे ऊंची चोटी धूपगढ़ (समुद्रतल से १३५२ मीटर) स्थित हैं, और चौरागढड़ व महादेव चोटिया भी यहीं है । चौरागढ़ एक दर्शनीय चोटी हैं, जिसकी उपरी सतह समतल हैं । छिंदवाड़ा जिले में तामिया सुंदर दृश्यों से भरपूर स्थल है, जिसके निकट ही पातालकोट नामक आदिवासीयों का छोटा सा गांव समूह हैं। यह क्षेत्र स्थनीय सभ्यता की रोशनी से अछूता होने के कारण यह क्षेत्र मानव शास्त्रियों के शोध हेतु स्वर्ग है ।१.८ सामाजिक-आर्थिक विशेषताएं :- पंचमढ़ी बायोस्फियर रिजर्व के अंतर्गत लगभग ५८१ ग्राम आते हैं । २००१ की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या ४.७५ लाख हैं । जिसका मुख्य आय स्त्रोत कृषि है । कुल जनसंख्या का १३.९७ प्रतिशत अनुसूचित जातियाँ एवं ३३.२८ प्रतिशत अनुसूचित जन जातियां हैं । क्षेत्र की साक्षरता दर ५३.३१ प्रतिशत हैं ।२) अचानकमार -अमरकंटक बायोस्फियर रिजर्व २.१ स्थिति :- अमरकंटक पठार एवं अचानकमार अभ्यारण के आसपास के ३८३५.५१ वर्ग कि.मी. क्षेत्र को मार्च, २००५ में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा अन्तराज्यीय बायोस्फियर रिजर्व के रूप में घोषित किया हैं । राज्यस्तर पर इस बायोस्फियर रिजर्व का १२२४.९८ वर्ग कि.मी. क्षेत्र मध्यप्रदेश राज्य के दो जिलो अनुपपूर(१६.२) एवं डिंडोरी (१५.७) एवं शेष (६८.१) छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले में आच्छादित हैं ।२.२ क्षेत्र वर्गीकरण :- केन्द्रीय क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल ५५१.१५ वर्ग किमी है इसका सम्पूर्ण भाग छत्तीसगढ़ राज्य के अचानकमार अभ्यारण्य मे समाहित हैं तथा ३२८३.९६ वर्ग किमी मध्यवर्ती क्षेत्र के अन्तर्गत आता है ।२.३ पादप विशेषताएं :- अचानकमार अमरकंटक बायोस्फियर रिजर्व में सामान्यत: उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन हैं यह क्षेत्र वानस्पतिक विविधताआे से परिपूर्ण है बायोस्फियर क्षेत्र में ब्रायोफाइटस एवं टेरिडोफाइट्स की ९५, जिन्मोस्पर्म की १५, ऐनजियोस्पर्म की ६५६ प्रजातियंा पायी जाती हैं, इसमें से बहुत सी स्थानीय व दुलर्भ पादप प्रजातियंा शामिल हैं । अमरकंटक पठार पर ड्रासेरा नामक कीटपक्षी पौधा पाया जाता हैं । जंगलों में पाए जाने वाली औषधीय पौधें व लघुवनोपज यहां के आदिवासियों की जीवनदायी आय का प्रमुख स्त्रोत हैं ।२.४ जंतु विशेषताएँ :- इस क्षेत्र की भौतिक संरचना एवं वनस्पतियों की विविधता के कारण विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक रहवासों में बाघ, हिरन, जंगली सूअर, जंगली भैसा आदि जंतु पाये जाते हैं । विशाल व उड़न गिलहरियां एवं लाल जंगली मुर्गे भी इस क्षेत्र में बहुतायत रूप में पाये जाते हैं । यहां पक्षियों की १७० प्रजातियां भी पायी जाती हैं सरीसृप वर्ग में अजगर, नाग, करैत, धामिन, मगर, कछुआ इत्यादि मुख्य रूप से पाये जाते हैं । मेंंढक की भी विभिन्न प्रजातियां इस क्षेत्र में पायी जाती हैं ।२.५ सांस्कृतिक विशेषताएं :- अचानकमार बायोस्फियर रिजर्व में आदिवासी जनजातियों की प्रचुरता है जिनमें गोण्ड, मारिया, मुण्डिया, गुरवा, भगरिया एवं राजगोण्ड मुख्य रूप से शामिल हैं ।२.६ सामाजिक-आर्थिक विशेषताएं :- बायोस्फियर रिजर्व के अंतर्गत लगभग ४१६ ग्राम एवं २ शहरी क्षेत्र आते हैं । २००१ की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या ३.५७ लाख हैं। जिसकी आय का मुख्य आधार कृषि हैं। इसमें से ७.७ प्रतिशत अनुसूचित जातियां एवं ५९.२ प्रतिशत अनुसूचित जन जातियां हैं । क्षेत्र की साक्षरता दर ५४.३ प्रतिशत हैं । राज्य के बायोस्फियर रिजर्व क्षेत्रों में होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के लिए जंगलों में मवेशियों की अवैध चराई, जलाऊ लकड़ी की अवैध कटाई, अनियंत्रित पर्यटन एवं ठोस अपशिष्ट का अकुशल प्रबंधन जैसे कई अन्य कारक जिम्मेदार हैं । राज्य स्तर पर म.प्र. शासन के आवास एवं पर्यावरण विभाग के पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय संगठन (एप्को) को पंचमढ़ी बायोस्फियर रिजर्व की प्रबंधन कार्य योजना के क्रियान्यवयन के लिए नोडल संस्था घोषित किया गया है ।

७ पर्यावरण परिक्रमा

एक और पृथ्वी ले रही है आकार
नासा के स्पीटजर अंतरिक्ष टेलिस्कोप ने पिछले दिनों रहस्योद्घाटन किया है कि ४२४ प्रकाश वर्ष दूर सितारों के बीच पृथ्वी जैसा एक ग्रह आकर ले रहा है । वैज्ञानिकों ने इसका नामकरण एचडी- ११३७६६ किया गया है । एजेंसी के अंतरिक्ष यात्रियों ने एक बड़े क्षेत्र में गर्म धूल की खोज की हैं । इससे मंगल के बराबर या इससे बड़ा ग्रह आकार ले सकता है, जो हमारे सूर्य से थोड़ा बड़ा होगा । वैज्ञानिकों का अनुमान है कि एक करोड़ वर्ष में किसी स्टार की आयु चट्टानी ग्रह में बदलने लायक हो जाती है । इस सिस्टम में पृथ्वी के आकार लेने की संभावना अच्छी है । अगर यह सिस्टम अधिक पुराना नहीं होता तो ग्रह का आकार लेने वाली डिस्क गेसों से भरी होती । ऐसी हालत में बृहस्पति जैसा गैसों वाला ग्रह बनने की प्रबल संभावना होती है । अपनी इस खोज पर वैज्ञानिकों ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि हमने प्रार्थिव ग्रह के निर्माण की प्रक्रिया को पकड़ने में अद्भूत सफलता हासिल की है ।
दुनिया के दस प्रदूषित कस्बों में दो भारतीय
दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित दस कस्बों में दो भारतीय कस्बे भी शामिल हैं । ये हैं उड़ीसा का सुकिंदा और गुजरात का वापी । पिछले दिनों अमेरिका के एक स्वतंत्र पर्यावरण संगठन द्वारा प्रकाशित की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के इन दो औद्योगिक कस्बों में ३० लाख लोग भयंकर प्रदूषण से घिरे हुए हैं । रिपोर्ट में बताया गया है कि सुकिंदा में १२ ऐसी औद्योगिक इकाइयाँ है, जिनमें प्रदूषण से निपटने के कोई उपाय नहीं किए गए हैं । ये कारखाने सीधे हवा और पानी में जहरीले रसायन छोड़ रहे हैं। इस कारण इन कस्बों में रह रहे लोग एक तरह से मौत के मुहाने पर खड़े हैं । ब्लैकस्मिथ इंस्टीट्यूट की टॉप १० कस्बों और शहरों की सूची में पूर्व सोवियत संघ, रूस, चीन, भारत, पुरू और जाम्बिया के स्थान शामिल हैं ।
इसमें कहा गया है कि इन सभी शहरों में एक करोड़ २० लाख लोग गंभीर प्रदूषण से घिरे हैं । इनके भयंकर खतरों के प्रति आगाह करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि केमिकल, मेटल और माइनिंग उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण से फेफड़ों और हृदय संबंधी बीमारियाँ बढ़ रही है और समय पूर्व मृत्यु के मामलों में वृद्धि हुई है। ब्लेकस्मिथ इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर रिचर्ड फ्यूलर कहते हैं कि प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर बच्चें पर पड़ रहा है । प्रदूषित शहरों में बाल मृत्यु दर भी अन्य जगहरों की अपेक्षा ज्यादा है।
कचरे से बिजली बनाने की परियोजना
भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और पृथ्वी विज्ञान, शहरी विकास, पर्यावरण एव वन और नवीन एवं अक्षय ऊर्जा स्त्रोत मंत्रालय जल्दी ही गठबंधन बनाकर ठोस कचरे से बिजली बनाने हेतु एक पायलट परियोजना शुरू करेंगे । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और पृथ्वी विज्ञान मंत्री कपिल सिब्बल ने `पर्यावरण सम्मेलन-२००७' में यह जानकारी दी । श्री सिब्बल ने कहा कि देश के प्रथम श्रेणी के ४२३ शहरों में हर साल करीब ४.२ करोड़ टन ठोस कचरा निकलता है जिसमें से बहुत कम का इस्तेमाल पुनर्चक्रण के जरिए बिजली बनाने में हो पाता है । श्री सिब्बल ने बताया कि हैदराबाद में एक परियोजना के तहत ठोस कचरे को ठोस ऊर्जा में बदलकर ६.२ मेगावाट बिजली बनाई जा रही है । इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए जल्दी ही ये चारों मंत्रालय साथ मिलकर एक पायलट परियोजना किसी बड़े शहर में शुरू करेंगे । इसकी सफलता के बाद इसे उनके मंत्रालय की आर्थिक सहायता से देश के अन्य बड़े शहरों में लागू किया जाएगा ताकि बड़े पैमाने पर निकलने वाले ठोस कचरे का इस्तेमाल बिजली बनाने में हो । इससे पर्यावरण क्षरण रोकने में भी मदद मिलेगी । श्री सिब्बल ने कहा कि बड़े शहरों में इस समय प्रति दिन एक लाख १५ हजार टन ठोस कचरा निकलता है जिसमें से ८३ हजार ३०० टन केवल प्रथम श्रेणी के ४२३ शहरों में होता है । बड़े पैमाने पर उत्पन्न होने वाले इस ठोस कचरे का सही से निपटारा होना जरूरी है। श्री सिब्बल ने कहा कि आगे चलकर इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग किया जाना चाहिए । उन्होंने कहा कि विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन को ९९ प्रतिशत से घटाकर पाँच प्रतिशत करने संबंधी क्योटो संधि की शर्तो का पालन नहीं किया । अब उनमें से अधिकांश देश दावा कर रहे हैं कि वे उत्सर्जन को साल २०३० से २०५० के बीच पाँच प्रतिशत के स्तर पर लाएँगे ।
ग्लोबल वार्मिंग से निपटने हेतु समुद्र मंथन
लाख उपायों के बावजूद ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ रहा है । इसे कम करने के लिए वैज्ञानिकों के पास एक नया और अनोखा प्रस्ताव आया है । प्रस्ताव में कहा गया है कि समुंद्र की गहराई में छिपे खनिजों को एक मशीन के जरिए पानी में मिला देने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा घटाई जा सकती है । इस मिक्सिंग के लिए समुद्र में शक्तिशाली पंप लगाए जाएँगे । वैज्ञानिक इसे समुद्र मंथन की प्रक्रिया कह रहे हैं । साइंस पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक पत्र में जेम्स लवलॉक और क्रिस रेप्ली ने पेशकश की है कि ग्लोबल वार्मिंग से आकस्मिक रूप से निपटने के लिए समुद्र में बड़े आकार के खड़े पाइप लगाए जा सकते हैं । इनके जरिए सैकड़ों मीटर की गहराई वाले खनिज युक्त पानी को सतह के पानी में मिलाया जा सकता है। इससे शैवाल जैसी समुद्री वनस्पतियाँ ऊपर आ जाएँगी और प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के जरिए कार्बन डाइ ऑक्साइड को कम करेंगी । इससे वातावरण में इस गैस के स्तर में काफी कमी आएगी । वैज्ञानिक इसे उम्मीद के तौर पर देख रहे हैं । उनका मानना है कि इस तकनीक से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा कम करने में मदद मिल सकती है । साथ ही समुद्र में मौजूद अथाह खनिज पदार्थोंा का भी सही दिशा में उपयोग किया जा सकेगा।
ट्यूबवेलों से उलीचा जा रहा है भूजल
देश के ५७२३ आकलित क्षेत्रों में से विभिन्न राज्यों के ८३९ क्षेत्रों को अत्यधिक भूजल दोहन वाले क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत किया गया है । इन क्षेत्रों में भूजल का वार्षिक दोहन इनके प्रतिपूर्ति स्त्रोतों से ज्यादा है । जल संसाधन मंत्रालय के प्रवक्ता ने उक्त जानकारी दी । उन्होंने बताया कि देश में कृषि कार्यो, पेयजल और अन्य कार्यो में भूजल के इस्तेमाल की लंबी परंपरा रही है, लेकिन नलकूपों के जरिए सिंचाई करने की वजह से भूजल के स्तर में तेजी से गिरावट आई है । अत्यधिक दोहन वाले ८३९ क्षेत्रों में भूजल स्तर में मानसून के पूर्व या मानसून के बाद अथवा दोनों अवधियों में उल्लेखनीय गिरावट पाई गई है । प्रवक्ता ने अनुसार इसके अलावा २२६ क्षेत्रों को गंभीर श्रेणी में रखा गया है और इन क्षेत्रों में भूजल की प्रतिपूर्ति वार्षिक प्रतिपूर्ति स्त्रोतों की क्षमता पर ९०-१०० प्रतिशत के बीच है । इन क्षेत्रों में भी मानसून पूर्व और उसके बाद की अवधि में भूजल की दीर्घकालिक गिरावट का रहना पाया गया है । यह जानकारी केन्द्रीय भूजल बोर्ड और राज्यों द्वारा भूजल संसाधनों द्वारा मिलकर कराए गए आकलन मंे उभरकर सामने आई है । कृषि अर्थशास्त्र तथा नीतिगत अनुसंधान केन्द्र द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार १९८० के मध्य से लेकर १९९० के मध्य तक डार्क अथवा क्रिटिकल ब्लॉकों की संख्या में प्रतिवर्ष ५.५ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई । यदि वृद्धि की यही दर बनी रहती है तो भी दो दशकों के अंदर देश के एक-तिहाई ब्लॉक डार्क ब्लॉक की श्रेणी में शामिल हो जाएँगे । सन् १९६० से सघन खेती की वजह से भूजल का इतना ज्यादा दोहन हुआ है कि गुजरात के मेहसाणा जैसे क्षेत्रों तथा हरियाणा और पंजाब के कुछ भागों में किसानों द्वारा ५०० मीटर तक की गहराई के ट्यूबवेल लगाना एक आम बात हो गई है ।

९ स्वास्थ्य

गरीबों के स्वास्थ्य पर अमीरों का लाभ
निखिल एम.
विजय भारत में कठिनतम शल्य क्रिया में माहिर व अनुभवी चिकित्सक, प्रशिक्षित नर्से और तकनीकी स्टाफ उन्नत प्रौद्योगिकी, आरामदेह अस्पताल सबकुछ मौजूद है, परंतु यह सब इस देश के गरीब लोगों के लिए नहीं है बल्कि यह है भारत के कुलीन वर्ग और विदेशी मरीजों के लिए । विदेशियों के लिए तो इस हेतु वीजा के नियम भी शिथिल कर दिए गए हैं । आर्थिक उन्नति के नाम पर भारत का पर्यटन उद्योग चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा दे रहा है । देश में पांच सितारा अस्पतालों की बाढ़-सी आ गई है एवं बड़े औद्योगिक घराने अब और बड़े निवेश की आशा लगाकर बैठे हैं । स्वास्थ्य सेवाआे के निजीकरण और निगमीकरण ने इस नई अवधारणा चिकित्सा पर्यटन की स्थापना की है । इसके अंतर्गत धनी देशों से लोग तीसरी दुनिया के देशों में इलाज पर्यटन और अन्य संसाधनों के उपयोग के उद्देश्य से आते हैं । विदेशी मुद्रा कमाने के लिए समुद्रपारीय मरीजों के रूप में तीसरी दुनिया के देशों के हाथ यह जादुई चिराग लग गया है । भारतीय औद्योगिक महासंघ (सी.आय.आय.) और मेककिन्सले द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार चिकित्सा पर्यटन से सन् २०१२ तक भारत के अस्पतालों को लगभग २.२ खरब अमेरिकी डॉलर की आय होगी। भारत राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना २००२ के अंतर्गत भी चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए कटिबद्ध है । ये नीति कहती है, `भारत में सस्ती चिकित्सा सेवा की उपलब्धता का लाभ उठाकर यह नीति विदेशी मूल के व्यक्तियों द्वारा भुगतान पर इन सेवाआें की प्रािप्त् की योजनाआें को प्रोत्साहित करेगी । विदेशी मुद्रा में भुगतान होने पर इस तरह के सेवाएं निर्यात समकक्ष मानी जाकर निर्यात को दिए जाने वाले समस्त वित्तीय प्रोत्साहनों की अधिकारी भी होंगी । इन नियमों पर कारपोरेट क्षेत्र का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । क्योंकि `स्वास्थ्य क्षेत्र मेे सुधारों हेतु यह नीतिगत ढांचा' प्रधानमंत्री की व्यापार व उद्योग संबंधी उस समिति द्वारा बनाया गया है जिसकी अध्यक्षता मुकेश अंबानी और कुमारमंगलम बिड़ला जैसे बड़े उद्योगपति कर रहे हैं । तीसरी दुनिया के मूल्य पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ये स्वास्थ्य सुविधाएं भारत के इन कारपोरेट अस्पतालों में अमेरिका और इंग्लैंड की बनिस्बत एक बटा आठ से लेकर एक बटा पांच कीमत पर उपलब्ध हैं यही वजह है कि इलाज किफायती और श्रेष्ठ होने के कारण कई विदेशी यहां खिचे चले आते हैं । जैसी की रीत है कि पुण्यों को बढ़ा चढ़ा कर बताया जाता है और पापों के बारे में मुंह तक नहीं खुलता । इन पांच सितारा अस्पतालों को कई तरह की रियासतें मिलती हैं, उदाहरण के लिए करों में छूट, मुफ्त अथवा नाममात्र के शुल्क पर जमीन, आयात शुल्क में छूट, सरकारी क्षेत्र की बैंकों से कम ब्याज दर पर ऋण आदि-आदि । ज्यादातर निजी अस्पतालों का पंजीयन सार्वजनिक न्यास कानून के अंतर्गत करवाया जाता है । उन्हें अपनी कुल क्षमता के बीस प्रतिशत तक मुफ्त सेवाएं देने वाले नियम के परिणाम स्वरूप आयकर की छूट भी प्राप्त् होती है । इसका दुरूपयोग किस तरह होता है यह भी देखिए (१) नई दिल्ली का इन्द्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल जो चिकित्सा पर्यटन के क्षेत्र में प्रमुख केन्द्र है, के यहां समझौते की शर्तोकी खुलेआम अवहेलना हुई है। अस्पताल को १९९६ में १०० करोड़ रूपये की बेशकीमती १५ एकड़ जमीन दिल्ली सरकार द्वारा महज एक रूपया प्रतिवर्ष की लीज दर पर दी गई थी । इसी पर अस्पताल का निर्माण हुआ । निर्माण के लिए भी दिल्ली सरकार ने करीब १५ करोड़ का निवेश किया । यही नहीं अंश पूंजी के लिए भी २४ करोड़ रूपये योगदान किया गया । इसके बदले समझौते की शर्त थी कि कुल क्षमता का एक तिहाई गरीब लोगों को मुफ्त इलाज के लिए उपलब्ध कराया जाएगा । परंतु वास्तविकता में भर्ती मरीजों में से १९९९-२००० में मात्र दो प्रतिशत का इलाज मुफ्त किया गया और ये भी वे लोग थे जो या तो कर्मचारियों के नौकरशाहों अथवा राजनीतिज्ञो के सगे संंबंधी थे । जानकारी होने के बावजूद सरकार ने इस मामले की अनदेखी की । अगर इस तरह के अस्पतालों की आय पुन: लौटकर जनता के बीच ही न पहुंचे तो इनके माध्यम से आम जनता की आय में बढ़ोत्तरी की अपेक्षा करना भी व्यर्थ होगा । स्थानीय जनता की अच्छे इलाज तक पहुंच - चिकित्सा पर्यटन में बढ़ोत्तरी के परिणाम स्वरूप निजी अस्पताल अपना विस्तार करते हैं एवं उनकी मानव संसाधन की आवश्यकता में वृद्धि होती है । इसका सीधा असर सरकारी क्षेत्र, छोटे शहरों एवं छोटे अस्पतालों के अनुभवी चिकित्साकर्मियों के इन बड़े अस्पतालों की ओर आकृष्ट होने की वजह से होता है । अभी भी यहीं हो रहा है । निजी क्षेत्र के अधिकांश प्रमुख चिकित्साकर्मी सरकारी क्षेत्र की अपनी नौकरियों को छोड़कर इनमें आए हैं, अत: वे सिर्फ विदेशी मरीजों अथवा भारत के उच्च्वर्ग के मरीजों की ही सेवा करेंगे । (२) भारत की ग्रामीण आबादी के ७० प्रतिशत को उचित चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि उनके पास निजी क्षेत्र में जाकर इलाज करवा सकने लायक धन ही नहीं है और दूसरी तर इसी सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्तरीय सेवा की गांरटी देने के लिए अस्पतालों को प्रमाणित कर रहा है व कीमत निर्धारण के लिए भी सिफारिशें कर रहा है । चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा देने का प्रमुख उद्देश्य है औ़द्योगिक घरानों के स्वामित्व वाले इन बड़े विशिष्टतम् अस्पतालों के लिए सीमित घरेलू बाजार से भी आगे के अवसरों को मुहैया कराना। चिकित्सा पर्यटन के बढ़ने का एक और बुरा असर यह होगा कि हमारे निजी क्षैत्र के अस्पतालों में इलाज और महंगा हो जाएगा । चिकित्सा पर्यटन में बढ़ोतरी से पहले से ही भारत में इलाज दिनोंदिन महंगा होता जा रहा था ।सन् १९८७ में केरल में औसतन प्रति व्यक्ति इलाज का खर्च या १६ रूपए ६० पैसे था जो कि २००४ में बढ़कर ८३० रू.७० पैसे तक जा पहुंचा है । (३) चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा दिये जाने की मानसिकता के चलते भारत की आम जनता के लिए तो स्तरीय स्वास्थ्य सेवाआे की उपलब्धता बूते से बाहर हो जाएगी । भारतीय चिकित्साकर्मियों का विदेशों में पलायन आम बात है । चिकित्सा पर्यटन के चलते अब यह हो सकता है कि बड़े भारतीय संस्थान भी आकर्षक वेतन का लालच देकर इन लोगों का रूख पुन: भारत की ओर मोड़ दें , यानि कि घर वापसी की स्थितियां निर्मित हों, लेकिन चिकित्सा पर्यटन के रूप में यह नया झुकाव वस्तुत: ब्रेन ड्रेन का एक नया व परिष्कृत देशी स्वरूप ही साबित होगा । इस प्रक्रिया के माध्यम से एक कुशल व्यक्ति रहेगा तो इसी देश में, इतना ही नहीं वह अत्यधिक धन भी यहीं की अधोसंरचना और संसाधनों का प्रयोग कर अर्जित करेगा , परंतु सेवा विदेशियों की करेगा । उस पर तुर्रा यह कि इन्हें प्रशिक्षित करने के लिए पैसा भी भारत के गरीब करदाता ही वहन करेंगें क्योंकि इनमें से अधिकांश का प्रशिक्षण सरकारी संस्थानों में होगा यानि इससे विकसित विदेशी अर्थव्यवस्था को ही अतिरिक्त लाभ प्राप्त् होगा ।भारत एक कचराघर - इन औद्योगिक अस्पतालों से निकलने वाला कचरा एक अन्य गंभीर समस्या है । यह चिकित्सकीय अपशिष्ट उन इलाकों में फेंक दिया जाता है जहां के लोग इसके खतरे से वाकिफ नहींहैं । भारत के अस्पतालों में औसतन प्रति बिस्तर प्रतिदिन एक किलोग्राम कचरा निकलता है, जिसमें से १० से १५ प्रतिशत संक्रामक, ५ प्रतिशत खतरनाक और शेष सामान्य किस्म का होता है । एक बड़े शहरी कार्पोरेट अस्पताल से प्रतिवर्ष लाखों किलो कचरा निकलता है । (४) आमतौर पर विकासशील राष्ट्रों में इस कचरे की छंटाई नहीं की जाती है । कचरा चाहे अस्पताल के सत्कार कक्ष का हो अथवा शल्यक्रिया विभाग का , सब एक साथ या तो इंसीनिरेटर (भस्मक) में जला दिया जाता है या किसी नदी अथवा समुद्र में बहा दिया जाता है । इस अपशिष्ट निपटान का अतिरिक्त खर्च कुल खर्चोंा में शामिल नहीं किए जाते । फलत: यहां चिकित्सा व्यवसाय बहुत ही किफायत से चल रहा है। किराए पर कोख भी भारत में बहुत ही कम मूल्य में उपलब्ध हो जाती है । विकसित देशांे में बांझपन का इलाज भी यहां की बनिस्बत काफी महंगा है । इस मुद्दे पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं गया है, परंतु ब्रिटेन के समाचार पत्र `ट्रिब्यून' ने इस पर ध्यान आकृष्ट किया है । वहां कुछ लोगों ने इस बारे में नैतिक सवाल भी उठपाए हैं । (५) मानव अंगों का व्यापार भी एक बड़ी समस्या है । एक अध्ययन के अनुसार अंग (ज्यादातर मामलों में गुर्दे) बेचने वालों में से ९६ प्रतिशत ने इन्हें औसतन महज १०७० अमेरिकी डॉलर (५०००० रू.) की दर से बेचा है और वह भी अपने कर्जोंा को चुकाने के लिए । (६) यद्यपि भारत में भी अंगों का प्रत्यारोपण चाहने वालों की सूची बहुत लंबी है, परंतु इसके बावजूद इनमें से ज्यादातर अंगों की खपत बाहरी देशों में हुई है । (७) यह सब कुछ तब हुआ है जबकि हमारे देश में मानव अंगों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा हुआ है । (८) कानून पालन में कोताही, भ्रष्टाचार और विदेशी बाजार में प्रचलित दर अधिक होने के चलते भारत में मानव अंग तस्करी आम बात है । चिकित्सा पर्यटन के विकास से स्थितियों के और भी बिगड़ने की आशंका है । पश्चिमी देश, विकासशील देशों में अपने नागरिकों को प्राप्त् होने वाली स्वास्थ्य सेवाआे की गुणवत्ता और निपुणता को लेकर काफी चिंतित रहे हैं। वहां की सरकारें विकासशील देशों के अस्पतालों के लिए गुणवतता के नए अंतर्राष्ट्रीय प्रतिमान निर्धारित करने की प्रक्रिया में हैं। ऐसा होने पर भारत में इलाज और महंगा हो जाएगा । चिकित्सा पर्यटन प्राप्त् होने वाली ऊंची आय और विदेशी मुद्रा प्रािप्त् के तर्क के आधार पर और ज्यादा छूट एवं प्रोत्साहन की अपेक्षा रख रहा है । किंतु इन बड़े खिलाड़ियों को इस तरह की कटौतियां देने का मतलब होगा गरीबों के लिए न्यूनतम उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाआे में और कटौती होना । भारत जैसे देश में जहां नागरिकों को आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाएँ ही ठीक से नहीं मिल पा रही हैं, इस तरह के स्वास्थ्य पर्यटन को बढ़ावा देना कहां तक उचित है ? भारत का गरीब करदाता विदेशियों के इलाज का खर्च क्यों वहन करे ? समय की मांग है कि भारत अपने नागरिकों को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के अधिकार पर ध्यान केंद्रित करे ।

१० ज्ञान विज्ञान

अंतरिक्ष से धरती पर आएगी बिजली
ऊर्जा के सबसे बड़े स्त्रोत सूर्य से धरती के लिए बिजली पैदा करने की योजना पर वैज्ञानिकों ने काम शुरू कर दिया है। इसके लिए बकायदा एक अध्ययन कर लिया गया है, जिसमें बताया गया है कि सैटेलाइट सिस्टम के माध्यम से सौर ऊर्जा से बिजली बनाकर सीधे धरती पर भेजी जा सकेगी । अरबों डॉलर की इस महत्वाकांक्षी योजना से बिजली की कमी से निपटा जा सकेगा ।
वैज्ञानिकों द्वारा इस संबंध में किए गए अध्ययन में कहा गया है कि अमेरिकी सेना जब अन्य देशों में जाकर युद्ध लड़ेगी तब वहाँ आने वाली बिजली की पेरशानी से निपटने में सेना का इस इस माध्यम से मदद मिलेगी । इस ७५ पेज की रिपोर्ट में सौर ऊर्जा से बिजली पैदा करने वाली योजना को आर्थिक विकास में मददगार बताया गया है । वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि आर्बिट में इस तकनीक का प्रयोग वर्ष २०१२ तक किया जा सकेगा । वैज्ञानिक रिपोर्ट के मुताबिक इस तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए अंतरिक्ष में पेंटागन आकार के सोलर पैनल लगाना होंगे, जो सैटेलाइट के माध्यम से सूर्य की किरणों को सीधे बिजली बनाकर धरती पर लगे रिसीवर में भेज सकेंगे । इस तकनीक पर काम कर रहे वैज्ञानिक को आशा है कि यदि तकनीक सफल रही तो नतीजे उम्मीद से बढ़कर मिलेंगे । इससे धरती पर काफी मात्रा में बिजली की आपूर्ति की जा सकेगी । साथ ही सैटैलाइटों को चलायमान रखने के लिए बिजली की जरूरत भी पूरी हो सकेगी ।
ई-कचरा बढ़ा रहा है शरीर के लिए खतरा
वैश्वीकरण के रास्ते पर अग्रसर भारत में जहां एक तरफ कम्प्यूटर और मोबाइल फोन जैसे तकनीकी उपकरणों के उपयोग में इजाफा हो रहा है, वहीं दूसरी ओर इलेक्ट्रानिक कचरे (ई-कचरा) में भी बढ़ोतरी हो रही है । इसमें मौजूद रासायनिक पदार्थो से मानव शरीर के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है । विशेषज्ञों के अनुसार इलेक्ट्रानिक कचरे में मौजूद कैडमियम, क्रोमियम, लेड और पारा जैसे रयायनिक पदार्थोसे मनुष्य के प्रजनन तंत्र से लेकर एंडोक्राइन प्रणाली तक प्रभावित हो रहे हैं । इससे कैंसर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ गया है । ग्रीनपीस के टाक्सिक कंपेनर रमापति कुमार ने कहा कि इलेक्ट्रानिक सामन में कई तरह के छोटे-छोटै उपकरणों का इस्तेमाल होता है । इनमें लेड, कैडमियम, पारा, क्रोमियम, बेरीलियम, ब्रोमिनेटेड फ्लेम रिटाडेंट्स (बीएफआर), पोलीविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) जैसे खतरनाक रासायनिक तत्वों का इस्तेमला किया जाता है ।
ये रासायनिक पदार्थ स्वास्थ्य और पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाते है । इनके सपंर्क में लंबे समय तक रहने से तंत्रिका तंत्र, किडनी, हडि्डयों व प्रजनन तंत्र पर बुरा असर पड़ता है । गौरतलब है कि केडमियम का इस्तेमाल रिचार्जेबल कम्प्यूटर बैटरी में किया जाता है इसका सही तरीके से निपटान नहीं किए जाने से किडनी और हडि्डयों को नुकसान पहुंच सकता है । मर्करी का इस्तेमाल फ्लैट स्क्रीन डिस्प्ले के लिए लाइटिंग उपकरणों में किया जाता है । इससे दिमाग और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर असर पड़ता है । बीएफआर से याददाश्त और सीखने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है । कुमार ने कहा कि ई कचरा तमाम तरह के अपशिष्टों में सबसे तेजी से बढ़ रहा है । लोग जिस तेरी से कम्प्यूटर, टीवी और मोबाइल फोन बदल रहे हैं उससे यह खतरा और बढ़ गया है । एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में हर साल २ करोड़ से ५.९ करोड़ टन ई कचरा पैदा हो रहा है । भारत में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक हर साल १.४६ लाख टन कचरा पैदा हो रहा है । इन आंकड़ों में अवैध तरीके से रिसाइक्लिंग के लिए आयातित कम्प्यूटर शामिल नहीं है । भारत हर साल विकसित देशों से उतना ही इलेक्ट्रानिक कचरा आयात करता है जितना कि घरेलू स्तर पर उत्पन्न करता है ।
साबुन में पानी कम लगेगा !
साबुन कम लगने की गारंटी देने वाले विज्ञापनों के दिन लदने वाले हैं । वैज्ञानिक ने ऐसा साबुन तैयार कर लिया है, जो कम पानी में कपड़े धो सकता है। दुनिया में जल संकट तेजी से बढ़ते जा रहा है और आने वाले समय में पीने का पानी मुश्किल से मिलेगा तो कपड़े धोने की तो बात दूर है । इसी के मद्देनजर ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने ऐसा साबुन तैयार किया है, जिससे कपड़े धोने में कम पानी की जरूरत पड़ती है ।
आमतौर पर डिटरजेंट में सर्फेक्टेंट मॉलीक्यूल्स होते हैं, जो एक और गंदगी सोखते है और पानी के संपर्क में आते ही ये गंदगी छोड़ देते हैं । इसके अलावा ये बुलबुले भी बनाता है, जिसे निकालने के लिए अतिरिक्त पानी लगता है । आस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन में शोधकर्ताआे ने ऐसा सर्फेक्टेंट बना लिया है, जो केवल बुलबुले बनाता है । यह जैविक डिटरजैंट की तरह रहेगा और इसका नाम दिया गया है पेपफेक्टेंट । यह नाम देने के पीछे औचित्य यह है कि यह पेस्टीसाइड्स से बनाया गया है । एनेटे डेक्सटर और उएन्टन मिडलबर्ग ने इसे ईजाद किया । उनका कहनाहै कि इस पेपफेक्टेंट की खासियत ये है कि इसे पानी की मात्रा के लिहाज से काम में लिया जा सकता है । उदाहरण के लिए लॉन्ड्री में प्रयुक्त होने वाले डिटरजेंट पीएच (पानी में क्षार और अम्ल की मात्रा का मापक) में बदलता है और जो धोते समय या कपड़े निचोड़ते समय प्रतीत होता है । जरूरत पड़ने पर डिटरजेंट में पेपफेक्टेंट मिलाकर निचोड़ने के समय लगने वाले पानी की मात्रा को कम किया जा सकता है ।
लंबे समय तक भूखे रह सकते हैं सांप
यह देखा गया है कि कुछ सांप दो-दो साल तक भूखे रह सकते हैं और इस अवस्था में भी पूरी तरह चौकन्ने रहते हैं । ताज़ा अनुसंधान से इसकी क्रियाविधि का खुलासा हुआ है । जीव वैज्ञानिक ऐसे कई जंतुआें को जानते हैं जो लंबे समय तक भूखे रह सकते हैं । इसके लिए वे दो किस्म की रणनीतियां अपनाते हैं ।
एक तरीको तो यह होता है कि शरीर के केन्द्रीय भाग का तापमाप काफी कम लिया जाता है ताकि कैलोरी की खपत कम से कम हो। पेंग्विन्स यही तरीका अपनाते हैं । दूसरी ओर, हेजहॉग्स जैसे कुछ अन्य जंतु ऐसी स्थिति आने से पहले खूब खाकर भोजन जमा कर लेते हैं और भुखमरी के दौरान अपनी गतिविधियां न्यूनतम कर लेते हैं । ध्रुवीय भालू जैसे कुछ प्राणी दोनों तरीके अपनाते हैं । मगर ऐसा लगता है कि सांप एक तीसरा ही तरीका अपनाते हैं । वे न तो अपने शरीर का तापमान कम करते हैं और न ही अपनी गतिविधियों को सीमित करते हैं । यानी भूखे रहकर भी वे सक्रिय और चौकन्ने बने रहते हैं । कुछ रैटस्नेक्स, धामन और अजगर लिए और उन्हें पिंजड़े में रखा गया इन पिंजड़ों में वे अपनी गतिविधि का स्तर नहीं बदल सकते थे; उन्हें निष्क्रिय रहने को मजबूर कर दिया गया था । वे अपने शरीर के तापमान को भी कम नहीं कर सकते थे क्योंकि पिंजड़ों का तापमान ठीक २७ डिग्री सेल्सियस रखा गया था । ऐसी `बेबसी' के हालात में इन सांपो को १६८ दिन तक भूखा रखा गया । मैकक्यू ने इन सांपों की ऑक्सीजन खपत नापी तो पता चला कि इनकी विश्राम अवस्था की शारीरिक क्रियाआें की दर ७२ प्रतिशत तक कम हो गई थी । यह अचरज की बात थी कि किसी जंतु की विश्राम अवस्था की चयापचय दर में इतनी कमी आ जाए क्योंकि यह दर तो पहले ही न्यूनतम मानी जाती है । अब सवाल यह था कि सांपों में यह क्षमता कैसे आई कि तापमान कम किए बगैर वे अपनी चयापचय दर कम लें। मैकक्यू को लगता है कि सांप सबसे सक्रिय अंगों की कोशिकाआें में ऊर्जा पैदा करने वाले माइटोकॉण्ड्रिया का घनत्व कम कर लेते हैं । इसके अलावा सांप एक और तरीका अपनाते हैं । आम तौर पर जब कोई जंतु भूख रहता है तो वह अपने आंतरिक संंग्रहित संसाधनों का उपयोग करता है । खास तौर से वसा का उपयोग किया जाता है । मगर वसा के कई अन्य कार्य भी हैं । इसलिए थोड़ी वसा का उपयोग होने के बाद जंतु शरीर में मौजूद प्रोटीन (यानी मांसपेशियों) को पचाने लगता है । यह ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता । आम तौर पर यदि वसा का वज़न शरीर के कुल वजन के १० प्रतिशत से कम रह जाए, तो खतरे का संकेत होता है । मगर सांप इसे ५ प्रतिशत तक कम कर लेते हैं और फिर भी जीवित रहते हैं। यानी वे प्रोटीन देर से पचाना शुरू करते हैं। यही वजह है कि वे देर तक भूखे रह सकते हैं । और जब प्रोटीन का नंबर आता है, तब भी चयापचय की दर बहुत कम होने के कारण सांप की तंदुरूस्ती पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता । शरीर की वसा का उपयोग करके प्रोटीन को बचाना जीवित रहने की एक रणनीति हो सकती है । मगर वैज्ञानिकों को लग रहा है कि ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह समझने की है कि सांप अपनी चयापचय दर को इतना कम कैसे कर लेते हैं । शायद हमें मानक चयापचय दर के बारे में पुनर्विचार करना पड़े ।

११ कविता

जल है एक उपहार
राधेलाल `नवचक्र'
जल है तो जीवन सखा, वरना मृत्यु समान,
कितने दिन टिक सकोगे, बिन इसके श्रीमान ।
मंडरा रहा है भूपर, जल संकट सुबह शाम,
ऐसी नौबत क्यों आई, कुछ तो कह गुलफाम ।
क्या नहीं मालूम तुझे, जल है एक उपहार,
दिया है प्रकृति ने हमें, किया बड़ा उपकार ।
कभी सचेत नहीं रहे, हरदम लापरवाह,
इसीलिए आया संकट, अब क्यों करते आह,
की प्रकृति से छेड़-छाड़, होना था गुमराह ।
संकट और घिरा जल का, नहीं सूझती राह,
जल संरक्षण हेतु हमने, तनिक न दिया ध्यान ।
ना अचरज कुछ भी जरा, जल बिन निकले प्राण,
गलती अपनी मानकर, करें उसका सुधार ।
बिगड़ी बात बन सकती, बचा यही आधार,
हम अपने दायित्व को, कभी न भूलें यार ।
जल की महत्ता को समझ, कर उससे भी प्यार,
जा देख नई टिहरी, कैसेलड़ते लोग ।
पानी के बाल्टियां, झगड़ा करते लोग,
ऐसा भी था समय कभी, टिहरी के ही लोग,
सुबह भागीरथी में नहा, रहते मुक्त हो रोग ।
कैसा दुर्दिन आएगा, सब मिल करो विचार,
निज कंपनी के हाथों, चली जाए जल धार ।
लगा बिकने पानी अब, बन कंपनी कसाई,
कैसा समय आया है, सोचो सब मिल भाई ।
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१२ पर्यावरण समाचार

कृषि एवं ग्रामीण विकास पर राष्ट्रीय संगोष्ठी

मंच पर है बायें से सर्वश्री अपूर्व जोशी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी,
राकेश गुप्त, राहुल देव एवं पवन कुमार ।


नई दिल्ली स्थित समाजसेवी संस्था ओपन फोरम द्वारा पर्यावरण डाइजेस्ट की मीडिया साझेदारी व सहगल फाउंडेशन, ओरियंटल इंश्योरेंस तथा बैंक ऑफ महाराष्ट्र के सहयोग से ६ अक्टूबर को नई दिल्ली में कृषि व ग्रामीण विकास विषय पर राष्ट्रीय परामर्श संगोष्टी आयोजित की गयी । कार्यक्रम के संयोजक संतोष भारद्वाज ने भारतीय कृषि के समक्ष उपस्थित चुनौतियों की चर्चा करते हुए इसके स्थायी हल खोजने पर जोर दिया । संगोष्ठी के प्रमुख वक्ताआे में पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी, समाजवादी नेता सांसद अमरसिंह, द संडे पोस्ट के प्रधान संपादक अपूर्व जोशी, हरियाली चैनल के प्रबंध निदेशक राकेश गुप्त एवं वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव शामिल थे । संगोष्टी का संचालन ओपन फोरम के अध्यक्ष विश्वेन्द्र एन. ठाकुर ने किया । इस अवसर पर ओपन फोरम की पत्रिका `अंतत:' के कृषि व किसानों पर आधारित विशेषांक की पहली प्रति डॉ. मुरली मनोहर जोशी एवं सांसद अमरसिंह को भेंट की गयी । धन्यवाद ज्ञापित करते हुए विश्वेन्द्र ठाकुर ने बताया कि संगोष्टी के निष्कर्षो पर आधारित रिपोर्ट संबंधित सरकारी विभागों, मंत्रालयों, स्वयंसेवी संस्थाआे एवं मीडिया को शीघ्र उपलब्ध करायी जायेगी ।