शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

आवरण






सामयिक

जैव विविधता हानि का गणना कैसे हो ?
लता जिशनु

पिछले दिनों सीएजी द्वारा उद्घाटित २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की राशि का तो आकलन धन में किया जा सकता है । परंतु भारतीय जैव विविधता को बिना किसी संरक्षण के विदेशी और देशी कंपनियोंके हाथों बेच देने से देश को हो रही हानि की गणना कर पाना कमोवेश असंभव है । दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के पश्चात राष्ट्रीय जैव विविधता नियामक प्राधिकरण का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार स्पष्ट तौर पर दर्शा रहा है कि खुलेपन की आड़ में नियामकों की सत्ता के परिणाम देश के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकते हैं।
घोटालों के इस मौसम में २-जी स्पेक्ट्रम ने अन्य सभी घोटालों की चमक फीकी कर दी है इस घोटाले से यह तो सामने आ गया है कि किस तरह व्यापारी और राजनीतिज्ञ लोकतंत्र के प्रत्येक स्तंभ को कमजोर कर रहे हैं । ऐसे में स्वाभाविक ही है कि इससे किसी भी प्रकार के घोटाले की तुलना कमतर ही जान पड़ेगी । परंतु घोटालों के पिटारे मेंअभी और भी बहुत कुछ छुपा हुआ पड़ा है । ऐसे ही अन्य घोटाले पर पिछले ही महीने नजर पड़ी है । यह घोटाला राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) से संबंधित हे और देश के सर्वश्रेष्ठ अंकेक्षकों के लिए भी इसे उजागर कर पाना कठिन होगा ।
स्पेक्ट्रम के मामले में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) का कहना है कि इस मामले में शासकीय खजाने को करीब १,७६,३७९ करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है । परंतु क्या वह भारत के जैविक संसाधनों को होने वाली हानि का आकलन कर सकता है ? इससे देश ने जो कुछ खोया है उसकी क्षतिपूर्ति हो ही नहींसकती । जैव विविधता संरक्षण के संबंध में सीएजी की खोज पर्यावरणविदों को हताशा में डाल सकती है । इस संदर्भ में सीएजी ने पाया है कि एन.बी.ए. ने लापरवाही पूर्वक बिना व्यवस्थित निगरानी के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को जैव विविधता के उपयोग की अनुमति प्रदान कर दी । जबकि सन् २००३ में इस प्राधिकरण का गठन विशेष रूप से भारतीय जैव विविधता के नियमन संरक्षण और सुस्थिर इस्तेमाल के लिए किया गया था । इसके अलावा इसके गठन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण यह था कि इस संसाधनों से होन वाले लाभों का न्यायपूर्ण बंटवारा सुनिश्चित किया जा
सके ।
सीएजी का कहना है कि अपने गठन के ६ वर्ष पश्चात भी एनबीए जैव विविधता तक पहुंच एवं शोध के नतीजों के हस्तांतरण और बौधिक संपदा संबंधी महत्वपूर्ण नियमों को अधिसूचित नहीं कर पाया । इसकी गंभीरतम चूक यह है कि वह पहले से ही संकट में औषधीय वनस्पति की न तो सूची जारी कर पाया और न ही इनके संरक्षण के तौर तरीके ही तय कर पाया । इसके अलावा वह अब तक २८ राज्योंमें से केवल ७ राज्यों की संकट में पड़ी स्थानीय वनस्पतियां की ही पहचान कर पाया है ।
साथ ही वह जैविक संसाधनों के आंकड़ों का नागरिक जैव विविधता रजिस्टर भी तैयार नहीं कर पाया है जो कि जैविक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण दोनों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । सबसे ज्यादा चोट पहुँचाने वाली बात यह है कि उसके पास न तो भारत से बाहर इसके जैव संसाधनोंको लेकर बौद्धिक सम्पदा अधिकार के अंतर्गत पेटेंट को लेकर कोई जानकारी है और न ही भारत से बाहर ले जाए गए इन जैविक संसाधनों को लेकर ही कोई जानकारी है ।
सीएजी ने सिर्फ उतना ही सुनिश्चित किया है जितना कि वे स्वयं जानते हैं । एनबीए पर नजर रखने वाले पर्यावरण समुह लगातार चेताते रहे हैंकि प्राधिकरण की प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं है और उन्होंने बिना विधिसम्मत प्रक्रिया के कंपनियोंको भारतीय जैविक संसाधनों के इस्तेमाल की अनुमति देने पर भी प्रश्न खड़े किए हैं । कल्पवृक्ष पर्यावरण समूह की ओर से कांची कोहली एवं मशक्यूरा फ्रीडी एवं अंतराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन ग्रेन की ओर से शालिनी भूटानी द्वारा तैयार रिपोर्ट भारत में जैव विविधता अधिनियम के ६ वर्ष जिसे २००९की शुरूआत में जारी किया गया था, में एनबीए की कार्यप्रणाली में व्याप्त् गंभीर त्रुटियों की ओर इंगित किया गया
था । इस बात की शुरूआत तभी से हो गई थी जबकि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक की अध्यक्षता में गठित एनबीए ने शोधकर्ताआें को प्रक्रियागत दस्तावेजों तक पहुंच प्रदान करने से इंकार कर दिया था ।
सन् २००७ में कोहली द्वारा सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत आवेदन करने के पश्चात ही शोधकर्ताआें की आंकड़ों तक पहुंच हो पाई । इस हेतु न केवल उन्हें आठ महीनों तक इंतजार करना पड़ा बल्कि इसके बावजूद उन्हें अंतत: आधी अधूरी जानकारी ही प्राप्त् हो पाई थी । इसके बाद उन्होंने केन्द्रीय सूचना आयोग में अर्जी लगाई जिन्होंने एनबीए को आदेश दिया कि वे शोधकर्ताआें द्वारा चाहे गए दस्तावेज उपलब्ध कराए । शोधकर्ताआें ने पाया कि प्राधिकरण की गतिविधियाँ इसलिए भी आश्चर्यजनक है क्योंकि विभिन्न स्तरों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया के अंतर्गत नागरिक समितियों का गठन अनिवार्य है ।
सितम्बर २००८ तक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार जैव संसाधनोंतक पहुंच के कुल के कुल ३१५ मामलोंको स्वीकृति प्रदान की गई थी जिसमें से १६१मामलों को केवल एक ही बैठक में स्वीकृति प्रदान कर दी गई थी । इनमें से २४६ को बौद्धिक सम्पदा अधिकार के अंतर्गत भी स्वीकृति प्राप्त् हो गई है । इस सबको एक ओर भी रख दें तो भी चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से एक भी मामले में लाभ की हिस्सेदारी की बात सामने नहीं आई है तथा लाभ की पात्रता रखने वाले एक भी व्यक्ति की पहचान तक नहीं की गई है । जबकि कानून के अंतर्गत साफ तौर पर उल्लेखित है कि जैविक संसाधन समुदायों के हैं जो कि अनादिकाल से इन्हें सहेजते आए हैं । एनबीए ने न केवलइस पक्ष की अवहेलना ही की बल्कि उसने लाभ में हिस्सेदारी को लेकर कोई आचार संहिता तक नहीं बनाई ।
सीएजी की रिपोर्ट अत्यन्त सारगर्भित है । ओर उसने विदेशी व्यावसायिक उपक्रमोंके हाथों जैव विविधता को पहुंच रहे नुकसान के प्रति चिंता भी दर्शाई है । रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि जैव विविधता अधिनियम (२००२) एनबीए को अधिकृत करता है कि वह भारत से लिए गए जैव संसाधनोंया इन संसाधनों से संबंधित ज्ञान व जानकारी के संबंध में विदेशों में बौद्धिक सम्पदा अधिकार दिए जाने का विरोध करे ।
एनबीए ने नवम्बर २००५ में कानूनी विशेषज्ञ की नियुक्ति तो कर दी है लेकिन विवादास्पद बौद्धिक संपदा अधिकार प्रदान किए जाने के विरूद्ध कोई कारगर कदम नहीं उठाया । फरवरी २००६ में संसद को आवश्वासन दिए जाने के बावजूद प्राधिकरण ने भारत से बाहर आबंटित किए जा रहे बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में निगरानी सेल का भी अभी तक गठन नहीं किया है ।
यहां यह उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा कि हाल ही में श्री गौतम ने एनबीए का कार्यभार छोड़कर पौध विविधता एवं किसान अधिकार प्राधिकरण के अध्यक्ष का पदभार ग्रहण कर लिया है ।
***

हमारा भूमण्डल

असंतुलित होता चीन का पर्यावरण
मार्टिन खोर

चीन भले ही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया हो लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि वह आर्थिक वृद्धि, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समानता के क्षेत्र में संतुलन बैठाए । गौरतलब है कि अत्यधिक निर्माण कार्य से प्राकृतिक निर्माण कार्य से प्राकृतिक असंतुलन बढ़ने की आशंका है जो पहले से ही जलवायु परिवर्तन से प्रभावित विश्व को संकट में डाले हुए हैं । अत्यधिक उपभोग की प्रवृत्ति से तो विश्व विनाश की ही ओर बढ़ेगा ।
चीन की वृद्धि को आधुनिक विश्व का आर्थिक चमत्कार माना जा रहा है । पिछले तीन दशकों से चीन का सकल घरेलु उत्पाद करीब १० प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रहा है । इसे विश्व इतिहास की एक दंतकथा की तरह देखा जा रहा है । वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में इसकी वृद्धि दर में थोड़ी कमी जरूर आई लेकिन जल्द ही वह सुधार पर भी आ गई । परन्तु इस वर्ष वृद्धि के पहली तिमाही में ११.९ प्रतिशत से घटकर दूसरी तिमाही में १०.३ प्रतिशत व बाकी के वर्ष में ९ से १० प्रतिशत के मध्य रहने की वजह से चिंता की लकीरें पड़ रही है । इसके बावजूद यह बाकी के विश्व के लिए ईर्ष्या का विषय है ।
दहाई वाली इस वृद्धि दर के पीछे चीन का भविष्य के परिवर्तन के पीछे का असमंजस भी साफ दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि आगामी वृद्धि के लिए भौतिक एवं पर्यावरणीय सीमाआें को भी तोड़ना आवश्यक होगा । ये असमंजस और विरोधाभास पिछले कुछ हफ्तों में साफ तौर पर दिखाई भी दे रहे हैं । इस दौरान चीन पिछले एक दशक की सबसे भयानक बाढ़ का भी शिकार हुआ है ।अत्यधिक वर्षा और नदियों के उफान के कारण उत्तरपूर्वी प्रांत गोंसू के झोक्यू जिले का बड़ा भाग व्यापक भूस्खलन और समतलीकरण से प्रभावित हुआ जिसके परिणामस्वरूप एक हजार से अधिक व्यक्ति मारे गए और सैकड़ों व्यक्ति अभी लापता है ।
जलवायु परिवर्तन संबंधी वायदों के अंतर्गत चीन को अपनी सकल घरेलु उत्पाद ऊर्जा घनत्व में इस वर्ष के अंत तक वर्ष २००५ के अंत से २०प्रतिशत की कमी करना है । जबकि इस वर्ष की पहली तिमाही मेंऊर्जा कार्यक्षमता में कमी आई है । अतएव सरकार वर्ष के अंत तक इस लक्ष्य की प्रािप्त् के लिए अभियान चला रही है । बैंकों से कहा गया है कि वे ज्यादा ऊर्जा खपत वाली फर्मोंा
को ऋण देने में कटौती करें, इनके करोंमें छुट भी कम की गई है तथा स्टील, सीमेंट और अन्य ऊर्जा की अधिक खपत करने वाले २००० पुराने कारखानों को सितंबर के अंत तक बंद करने का आदेश दे दिया गया था । पिछले वर्ष अगस्त में चाइना डेली ने अपने पहले पृष्ठ पर यह रहस्योद्घाटन किया था कि चीन के वर्तमान में विद्यमान आधे से अधिक रहवासी घरों को नष्ट कर अगले २० वर्षोंा में पुन: बनाया जाएगा । इस प्रक्रियामें १९९९ के पूर्व सभी घरों को तोड़ दिया जाएगा ।
चीनी गृह मंत्रालय के शोध निदेशक के अनुसार सन् १९४९ से पूर्व बने भवनों का निर्धारित ५० वर्षोंा का जीवन समाप्त् हो चुका है । १९४९ से १९७९ के मुश्किल समय में बने घर लम्बी अवधि के लिए नहीं बनाए गए थे तथा सन् १९७९ से १९९५ के मध्य बने घर आधुनिक जीवनशैली के अनुकूल नहीं हैं । इस रिपोर्ट से वर्तमान में विद्यमान मकानों की गुणवत्ता और पुननिर्माण की वजह से पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों पर विमर्श प्रारंभ हो गया है ।
चीन प्रतिवर्ष दुनिया के स्टील एवं सीमेंट उत्पादन का ४० प्रतिशत का उपभोग करता है जो कि निर्माण के प्रमुख अवयव
है । इसके अलावा तटों से कितनी रेती उठाई जाएगी और कितने पहाड़ इस प्रक्रिया में विलुप्त् हो जाएंगे यह भी विचारणीय है ।
पिछले दिनों बीजिंग में साउथ सेंटर सम्मेलन के दौरान भी भविष्य की वृद्धि के पैमानों पर भी चर्चा हुई थी । चीनी सामाजिक विज्ञान अकादमी के प्रो.योंग डिंग का कहना है कि वर्ष २००२-२००७ के मध्य चीन की उच्च् वृद्धि दर के कारण स्थायी सम्पतियों (खासकर भवन निर्माण विकास) और निर्यात में निवेश में बढ़ोत्तरी हुई है ।
वैश्विक वित्तीय संकट ने २००८ की दूसरी छ:माही में चीन को भी अपने चपेट में लिया था । इसके परिणामस्वरूप २००९ की सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर में निर्यात में कमी की वजह से इसमें गिरावट आई थी । इसका सामना स्थायी संपत्ति के निवेश में ३१ प्रतिशत की वृद्धि करके किया गया जो कि सकल घरेलु उत्पाद में ८ प्रतिशत का योगदान करती है । इस बदलाव हेतु करीब ६२३ अरब अमेरिकी डॉलर का प्रोत्साहन पैकेज दिया गया था । इसमें से अधिकांश निवेश बजाए उत्पादन के अधोसंरचना पर किया गया था । इस तहर चीन ने गिरावट के बाद अंग्रेजी के वी (त) की तरह की आर्थिक प्रगति की । अपनी सृदृढ़ वित्तीय स्थिति के कारण वह बजट-सकल घरेलु उत्पाद अंतर को भी ३ प्रतिशत पर रखने में सफलता प्राप्त् कर पाया इसमें उसकी स्वस्थ बैंकिंग प्रणाली ने भी सहयोग दिया था ।
प्रो.यू.इसके दुष्प्रभाव बताते हुए कहते हैंकि इस अतिरिक्त तरलता के कारण भविष्य में बैंकों पर अतिरिक्त दबाव भी पड़ सकता है और मुद्रास्फीति में भी उछाल आ सकता है । इसके परिणामस्वरूप सरकार को अपनी फैलाव वाली नीतियों में भी परिवर्तन करना पड़ रहा है । इसी वजह से चीन की वृद्धि दर पर प्रतिकुल प्रभाव दिखाई देने लगा है । लेकिन प्रो. यू. आशावादी हैं और मानते हैं कि चीन अच्छी वृद्धि दर बनाए रखेगा । क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति विश्व में सबसे सुदृढ़ है ।
लेकिन साऊथ सेंटर के मुख्य अर्थशास्त्री यिलमाज अकीयूज का कहना है कि चीन वर्तमान वृद्धि मुख्यतया निर्यात पर निर्भर है । अतएव अमेरिका और यूरोपीय संघ की कमजोर वृद्धि से इस पर विपरित प्रभाव पड़ सकता है उन्होंने सुझाव दिया है कि वृद्धि की नई रणनीति के अंतर्गत वेतन में वृद्धि कर परिवारों की आय बढ़ाकर और सरकारी हस्तांतरण एवं सामाजिक कार्योंा पर अधिक खर्च कर उपभोग को बढ़ाया
जाए । इस हेतु उद्योगों को भी नए सिरे से तैयार करना होगा । निर्यात किए जाने वाले अनेक उत्पाद सिर्फ विदेशों को ध्यान में रखकर ही बनाए जाते हैं । अत: निर्यात क्षेत्र में अतिरिक्त क्षमता पैदा हो गई है जिसका घरेलु क्षेत्र में उपयोग नहीं किया जा सकता ।
इस बीच गरीबी उन्मूलन और विकास विभाग ने न्यायसंगत और संतुलित विकास के सामने प्रस्तुत चुनौतियों की ओर भी इशारा किया है । हालांकि चीन ने गरीबी समाप्त् करने के क्षेत्र में काफी तरक्की की है लेकिन कुछ असंतुलन अभी भी बाकी है । पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसे क्षेत्र जहां अल्पसंख्यक रहते हैं और जहां महामारियां होती हैं वहां अभी भी काफी बड़ी सामाजिक दरार बनी हुई है । यही वे क्षेत्र हैं जहां पर सामाजिक विकास का प्राथमिक कार्य होना है । विभाग ने इस विषय पर इंगित करते हुए कई चुनौतियों की बात की है । इसमें प्रमुख हैं पर्यावरणीय समस्याएं और प्राकृतिक विध्वंस तथा नई महामारियां और बाजार की असफलता का जोखिम जिससे कि गरीब अधिक प्रभावित होते हैं ।
इसी के साथ पलायन की प्रवृत्ति पर भी प्रकाश डाला गया है । साथ ही बढ़ते शहरीकरण की दिक्कतें जिसमें प्रवासियांे बीमा या किसी भी किस्म की सामाजिक सुरक्षा न मिल पाना शामिल है । ग्रामीण और शहरी लोगों के मध्य आमदनी का अंतर भी बढ़ता जा रहा है ।
निष्कर्ष यह है कि चीन अभी बहुत नाजुक दौर में है और आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण और प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए एक बेहतर जीवन की ओर अग्रसर हुआ जाए । अत्यधिक जनसंख्या वाले किसी भी देश में इस तरह का संतुलन बनाना बहुत कठिन होता है । सारा विश्व देख रहा है कि चीन में भविष्य में क्या होगा क्योंकि वह उन्हें भी उसी तरह प्रभावित करेगा । ***

विशेष लेख

पर्यावरण और अर्न्तराष्ट्रीय संकल्प
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

आज हमारा पर्यावरण अंर्तराष्ट्रीय संकल्पहीनता से आहत है । सभी राष्ट्र अपने अपने हित साधन और स्वार्थ में जुटे हैं । जिसका खामियाजा भुगत रही है। हमारी प्रकृति और पर्यावरण । प्रकृति ने सरहदें नहीं बनाई है किसी एक सीमा पर हवा ठिठक नही जाती है। । नदियां एक देश से दूसरे देश निर्बाध जाती हैं वह सरहदों को नहीं जानती । वह केवल बहना जानती है । सूर्य भी सारी पृथ्वी को ऊर्जा देता है । अत: प्रकृति और पर्यावरण के रखरखाव की भी साझा जिम्मेदारी सभी राष्ट्रों की है । किन्तु क्या सभी राष्ट्रों द्वारा निभाई जा रही है यह जिम्मेदारी । यही विचारणीय प्रश्न है ।
पर्यावरण विध्वंसक होने लगा
है । अपना जीवनाधार खोने लगा है । पर्यावरण की चिंता करते समय हमें वैश्विक चिंतन करना होगा । अर्न्तराष्ट्रीय संकल्पों के प्रकल्प अभी जिंदा हैं । अत: हमारे पड़ौसी मुल्क में आई प्राकृतिक आपदा हमें भी विचलित अवश्य करेगी । क्या हम पाकिस्तान में आई अप्रत्याशित बाढ़ से विचलित नहीं हुए ? क्या हमने सहायता की पेशकश नहीं की ? क्या नई सदी के प्रथम दशक में सुनामी का सामना हमने अन्य राष्ट्रों के साथ नहीं किया ? क्या हमें सबकी सहानुभूति नहीं मिली ? पर्यावरणीय संकटों का मुकाबला हम सहयोग एवं समन्वय से ही कर सकते हैं ।
अपने देश के अंदर ही राज्योंके बीच नदियों के जल बंटवारे पर परिवाद होते हैंतो विभिन्न देश भी इन विवादों से अछुते नहीं हैं । पाकिस्तान से सिंधु नदी व बांगलादेश से गंगा नदी जल विवाद होता है । अब चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने जा रहा है यह नया विवादित विषय है । अत: पर्यावरणीय मुद्दों पर विशेष सौहार्द की जरूरत है । हम सरहदों से ऊपर उठकर मानवीय होकर सोच विचार करें ।
वर्ष २०१० विगत दशक का सर्वाधिक गर्म वर्ष साबित हुआ है । ग्लोबल वॉमिंग का असर सारी दुनिया को अपनी जद में लेने जा रहा है । चीन ने पाँच दशक के सबसे बड़े सूखे का सामना किया तो भारत में कमजोर मानसून के चलते खाद्यान्न उत्पादन में भारी गिरावट दर्ज हुई । कमोबेश हर राष्ट्र आपदाआें से प्रभावित रहा । कहीं तूफान, कहीं ज्वालामुखी, कहीं चक्रवात सन् २०११ से २०१९ के मध्य भीषण गर्मी का सामना करना पड़ेगा । अमेरिकी अंतरिक्ष एजेन्सी नासा के अनुसार सन् १८९० के बाद से दुनिया भर के पाँच सबसे गर्म वर्ष हैं १९९८, २००२, २००३, २००४ और २००५ । अत: हमें पर्यावरण के विश्व व्यापी संकट के सच का सामना करना ही होगा ।
विगत कुछ दशकों में नये-नये संकल्पों के साथ अर्न्तराष्ट्रीय प्रयास हुए हैं किन्तु विविध राष्ट्रों ने अपना उत्तरदायित्व कितना निभाया ? हर किसी को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए । यह बात व्यक्तिगत स्तर, सामाजिक स्तर, राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ अर्न्तराष्ट्रीय पर भी लागु होती है ।
पर्यावरण के प्रयासों को परदेशी भी सराहते हैं । भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ.रॉवर्ट सी रिचर्ड्सन एक कार्यक्रम के सिलसिले में कुछ माह पूर्व इलाहाबाद आए थे । जब पत्रकार के द्वारा कोपेनहेगन की सफलता एवं असफलता के विषय में उनसे सवाल किया गया तो उन्होंने बेबाक कहा विकास के मौजुदा दौर में औरों से आगे दिख रहे अमेरिका समेत कुछ विकसित देश भले ही दुनिया को किसी विलेन जैसे दिख रहें हों, लेकिन सच्चाई यही है कि अति के बाद हर किसी को अपनी गलतियों की ओर देखना ही होता है । अमेरिका भी इससे अलग नहीं है ।
एक ओर जब कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने को लेकर कुछ ताकतवर देश अलग गुट के तौर पर दिख रहे हैं, वहीं भारत ने खुद आगे बढ़कर अपनी जो भूमिका तय की है, उससे विकासशील देशों को ही नहीं बल्कि विकसित देशों को भी सबक लेना चाहिए । दूसरों पर ऊँगली उठाने का समय बीत चुका है । अब हर किसी को अपनी अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी ।
यह सच है कि विकसित राष्ट्रों ने पर्यावरण के मुद्दे पर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है किन्तु पर्यावरण चिंतक चार आधार भूत राष्ट्र ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत एवं चीन इस जिम्मेदारी को बढ़ाने का बीड़ा उठाने को तैयार है बशर्तेविकसित राष्ट्र क्योटो प्रोटोकॉल के महत्वपूर्ण बिन्दुआें पर अनुबंध का पालन करें तथा पर्यावरण के सच का गम्भीरता से सामना करें । सच से दूर न भागे, अब भी वक्त है जागें । विकसित राष्ट्रों ने यह वायदा किया है कि वह २०१० से २०१२ के मध्य की अवधि में ३० बिलियन अमेरिकी डालर की सहायता प्रदान करेंगे । किन्तु इन राष्ट्रों ने सहायता करने का प्रारूप अभी तक नहीं दिया है । विकसित राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों के साथ कदमताल करें तभी कारगर समाधान संभव होगा ।
आधार भूत राष्ट्र अमेरिका के साथ मिलकर दुनिया भर में कोपेनहेगन के प्रस्तावों को क्रियान्वित करवाने के लिए शिद्दत से प्रयास करेंगे । यह बात सभी राष्ट्र अनुभव करते हैं कि जलवायु परिवर्तन वर्तमान समय की सबसे बड़ी चुनौती है । पृथ्वी खतरे में है और कार्बन उत्सर्जन में व्यापक कटौती की जरूरत है । यद्यपि सहयोग की अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पा रही है क्यांेकि अधिसंख्य राष्ट्र इस मुद्दे पर उपेक्षापूर्ण आचरण कर रहे हैं । कुछ तो सार्थक करना ही होगा ।
विकसित राष्ट्र एवं विकासशील राष्ट्र दोनों समूहांे को ही मिलकर पर्यावरण बचाना है अपनी आधारभूत पृथ्वी को बचाना है । क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधान भी महत्वपूर्ण है । यदि राष्ट्रों में आम सहमति बने तो सुखद होगा । जरूरी है कि क्योटो प्रोटोकॉल के महत्वपूर्ण बिन्दुआें को नवीन अनुबंधांे में पूर्णवत रखा जाये तथा सारे प्रकरण पर गम्भीर हुआ जाये ।
दरअसल सारे काम आपसी सहयोग से ही हो सकेंगे । आधारभूत राष्ट्रों को उन राष्ट्रों को भी साथ लेकर चलना होगा जो विकास के मामले में पिछड़े हुए हैं तथा गरीब है । कोई भी राष्ट्र स्वयं को उपेक्षित अनुभव न करें । अफ्रीका के अत्यल्प विकसित एवं द्वीपीय राष्ट्र भी भागीदारी
करें । सम्पूर्ण विश्व को साथ में लेकर चलना होगा । इसीलिए उच्च स्तरीय पेनल के गठन की जरूरत होगी जो इस बात पर दृष्टि रखेगी कि धन का स्रोत क्या है ? उनका प्रबंधन क्या है ? तथा धन का दुरूपयोग तो नहीं हो रहा है । किन्तु क्या यह बड़ा वैश्विक काम आसानी से हो पायेगा इसमें संदेह है क्योंकि आम सहमति बनना मुश्किल होता है । प्रकृति के सहयोग को समझते हुए हमेंअपनी जिम्मेदारी निभानी ही होगी । समय की पुकार है कि सरहदों के पार के कल्याण की भी सोचें।
हमारा देश वसुवैध कुटुम्बकम का दर्शन रखता है । हमारे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने विकसित एवं विकासशील देशों की पर्यावरण एवं विकास संबंधी तथ्य को १९ अक्टूबर २०१० को हैदराबाद में अकादमी फोर सांइसेज फोर द डेवलपिंग वर्ल्ड की २१वीं आम बैठक के उद्घाटन अवसर पर उजागर किया । उन्होंने औद्योगिक देशों द्वारा अपनाए गए विकास मॉडल को विकासशील देशों के अस्तित्व के लिए खतरनाक बतलाया तथा चेतावनी देते हुए कहा कि विकास के लिए प्रगति के स्थाई मार्ग को खोजने की जरूरत है । व्यवसायिक उपयोग के लिए समूह शोध में बौद्धिक संपदा अधिकार की साझेदारी बहुत बड़ी बाधा है ।
प्रधानमंत्री ने कहा कि विकासशील देश बीमारियों से लड़ने, परम्परागत कृषि में बदलाव और प्राकृतिक आपदाआें से निपटने जैसी साझा चुनौतियों का सामना कर रहे हैं ।हम किसी तरह विकसित देशों द्वारा अपनाए गए विकास के रास्ते हमारे अस्तित्व एवं जिन्दगी के लिए खतरनाक है ं अगर हम ऐसा कोई मार्ग खोज निकालते है जो बेवजह हमारी क्षमताआें पर दबाव नहीं डालता और विकास की मूलभूत चुनौतियों से निपटने में सक्षम होता है तो हम उसका अपने हित में उपयोग करेंगे ।
भौतिक समृद्धि को मानवीय संवेदना के आइने में देखें तो प्रधानमंत्री के कथन में वही चिंता दिखलाई देती है जिस चिंता को रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी अपने व्याख्यान में व्यक्त किया था और कहा था - अथाह भौतिक साधनों के अपार समृद्धि के बावजूद पश्चिम के देशोंमें मुझे आत्मिक संतोष व सच्चे सुख की अनुभूति नहीं हो
पाई । सच्ची सुख शांति के लिए पूरब के आध्यात्मिक संस्कारोंकी ओर टकटकी लगाए हुए हैं । ........ पश्चिम में विज्ञान का बोलबाला अवश्य है किन्तु मानवीय संवेदना लुप्त् होती दिखाई दे रही है । विज्ञान की ओर असंतुलित दौड़ एक दिन विनाशकारी सिद्ध होगी ।
अत: एक नये संकल्प के साथ पर्यावरण की वैश्विक परिकल्पना को साकार करने की महती आवश्यकता है जहाँ न कोई कुत्सा हो न कोई गुस्सा हो और प्रेम की बयार बहती रहे सरहदोंे के पार भी ।
***








जनजीवन


फूटपाथोंपर बीतती जिंदगी
प्रशान्त कुमार दुबे/रोली शिवहरे

खून जमा देने वाली ठंड में सड़क पर रात बिताने की त्रासदी भुक्तभोगी ही जान सकता है । सवोच्च् न्यायालय के आदेश के बावजूद लाखों लोगों का सड़कों पर जीवन बिताना क्या संविधान की मूल भावना का उल्लंघन नहीं है जो कि एक भारतीय नागरिक जीवन की ग्यारंटी देती है ।
मशहूर शायर कैफी आजमीने कहा है - आज की रात फूटपाथ पर नींद ना आयेगी, आज की रात बहुत सर्द हवा चलती है । जमा देने वाली इस सर्दी में भी देश के लाखों लोग सड़कों पर रह रहे हैं । आर्थिक उदारीकरण के बाद से तो यह संख्या उत्तरोत्तर बढ़ी ही है और विगत पांच वर्षोंा में इस संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई
है । अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों को माने तो विकासशील देशों की २ प्रतिशत जनसंख्या सड़कों पर रहती हैं यानी हमारे देश में लगभग ५७ लाख लोग बेघरबार हैं और इनमें से अधिकांश शहरों की ओर पलायन कर गए हैं । इसके पीछे कई कारण हैं उनमें से एक तो यही कि विगत पांच वर्षोंा से सूखा पड़ रहा है ? रोजगार गारंटी होने ेके बावजूद सरकारें रोजगार देने में असफल रही हैं ।
ये लोग शहर में सबसे वंचित तबके के रूप में जीवनयापन कर रहे हैं । न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी में काम करना, ना स्वच्छ पेयजल और ना ही स्वास्थ्य की अन्य सुविधाएं, प्रतिदिन पुलिस की पिटाई तथा प्रताड़ना और इससे भी हटकर सरकारी आश्रयगृहों की अनुपलब्धता के चलते सड़कों पर खुले आसमान तले रहना और सोना इनकी नियति बन गई है । यह उनके जीवन के अधिकार के अंतर्गत आश्रय के अधिकार, स्वास्थ्य के अधिकार और शोषण के विरूद्ध उनके अधिकारों का हनन है ।
शहरों में असंगठित क्षेत्र में मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भी तय नहीं है जिसके चलते ना तो वे आश्रय के संबंध में ही अपनी जरूरतें पूरी कर पाते हैं और ना ही उन्हें पर्याप्त् और बेहतर आहार ही मिल पाता है । इनके लिये की जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाएं भी ताक पर रख दी जाती हैं । पिछले माह में मध्यप्रदेश में १२ शहरी बेघरबार लोगों की ठंड लगने से मौत हो गई, जिनमें छतरपुर जिले के चार बच्चे भी शामिल हैं ।
भोजन का अधिकार अभियान इसे केवलबेघरबारी का मुद्दा नहीं मानता बल्कि उसका तर्क है कि सर्दियों के दिनों में तापमान में कमी होने से लोगों की खाद्य जरूरतें बढ़ जाती हैं । इस बात को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तकनीकी रूप से
स्थापित करते हुए कहा है कि शीतकाल में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत तब और बढ़ जाती है जबकि उसके पास अपर्याप्त् आश्रय स्थल और कम गर्म कपड़े हों । उनका कहना है कि प्रति ५ डिग्री तापमान कम होने पर प्रति व्यक्ति १०० कैलोरी की अतिरिक्त आवश्यकता होती है ।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी अभियान की इस दलील को स्वीकारते हुए १० फरवरी २०१० को यह आदेश दिया था कि सरकारें तत्काल प्रभाव से ६ माह के भीतर समस्त शहरी क्षेत्रों में आश्रयहीन लोगों की अनिवार्य रूप से पहचान करें । इसके साथ न्यायालय ने अपने दूसरे आदेश में कहा है कि जेएनएनयूआरएम के तहत चिन्हित शहरों में प्रति १ लाख की जनसंख्या पर १०० लोगों के लिये वर्ष भर २४ घंटे के सुविधायुक्त आश्रयगृहों की व्यवस्था सरकार करें । इन आश्रयगृहों में से भी ३० प्रतिशत आश्रयगृह विशेष आश्रयगृह होगे जो कि महिलाआें वृद्धों और अशक्त व्यक्तियों की देखभाल हेतु होंगे ।
इस आदेश के प्रत्युत्तर में मई २०१० में मध्यप्रदेश सरकार ने माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अपने शपथपत्र में कहा कि समस्त शहरी क्षेत्रों में शपथपत्र दाखिल करने के ६ माह के भीतर सर्वेक्षण कर लिया जायेगा । इस हलनामे में सरकार ने यह भी कहा कि वह महिला और पुरूषांे के लिये पृथक-पृथक आश्रयगृहों की व्यवस्था करने को तैयार है तथा चिन्हित शहरों में जनसंख्या अनुसार व्यवस्था करते हुए ५७ नवीन आश्रयगृहों का निर्माण
करेगी । परंतु सरकार का कहना है कि अभी तक ४६ आश्रयगृह बने ही नहीं हैं । ये आश्रयगृह राशि स्वीकृत होने के एक वर्ष के भीतर बनाए जा सकेंगे । लेकिन तब तक ये लोग कहां रहेंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं हैं ? वैसे मध्यप्रदेश में बड़े शहरों की संख्या ६० है ।
भोजन के अधिकार अभियान की टीम द्वारा भोपाल शहर में की गई जमीनी पड़ताल में सामने आया कि यहां केवल४ आश्रयगृह संचालित हैं और उनकी अधिकतम क्षमता २०० व्यक्तियों के आसपास ही है । भोपाल में संचालित आश्रयगृहों में से एक भी वर्तमान में महिलाआें, वृद्धों और अपंग व्यक्तियों की देखभाल के लिये नहीं है तथा ये आश्रय गृह रात ११ बजे बंद कर दिये जाते हैं ।
एक विशेष और चिंताजनक बात यह है कि जिस भी व्यक्ति के पास अपना पहचान पत्र होगा वही इन आश्रयगृहों में प्रवेश पायेगा अन्यथा उसे पुलिस थाने में अपनी पहचान बतानी होगी । यदि पुलिस संतुष्ट होगी तो ही उन्हें प्रवेश मिलेगा । इस तरह की व्यवस्थाआें से दिक्कत यह है कि
अधिकांश लोग अपनी पहचान बता पाने में अक्षम होते हैं और वे बाहर सोने को मजबूर होते हैं । इस बात का खुलासा तब हुआ जबकि टीम ने प्रत्येक रैनबसेरे के सामने लोगोें को सोते हुये पाया जबकि रैनबसेरे में जगह खाली थी । बेघरबारों का कहना है कि सरकार ने गावों में काम तो दिया नहीं तो हम शहर आए और अब शहर में पहचान नहीं तो चैन की नींद सो नहीं सकते । लोग सड़कों पर एक समूह में नहीं सोते हैं क्योंकि ऐसा करने पर पुलिस द्वारा उन्हें प्रताड़ित करने का खतरा रहता है ।
जो लोग बाहर सो रहे थे उनको लेकर नगर निगम के कर्मचारियों का कहना था कि ये लोग तो व्यवसायी हैं, केवल कम्बल पाने के लिये बाहर सोते हैं और रात्रि में किसी संस्था द्वारा कंबलवितरित किये जाने पर यह लोग सुबह बेच देते हैं जबकि लोगों का कहना था कि भुगतान नहीं कर सकते हैं जिसके चलते हम अंदर नहीं सो पा रहे हैं और हमें पता ही नहीं कि रैनबसेरा जैसी भी कोई चीज है ।
उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि यह व्यवस्था अस्थाई है लेकिन सरकारें सस्ती दरों पर स्थायी आवास मुहैया कराने में विफल रही हैं । अब यह समस्या विकराल रूप ले रही हैं और साथ ही साथ यह स्थाई सा रूप लेती जा रही है । सरकार की ११वीं पंचवर्षीय योजना की रिपोर्ट को मानें तो
सस्ती दरों पर आवास उपलब्ध कराने की योजना ९८ प्रतिशत से पिछड़ी हैं । जबकि अभी नवीन निर्माण में ९५ प्रतिशत निर्माण एमआईजी और एचआईजी के लिये हो रहा है । सरकार का कहना है कि नवीन निर्माण इसलिये ठप्प पड़ा है क्योंकि जमीनें उपलब्ध नहीं हैं । जबकि सरकार बिल्डरों और भूमाफियाआें को जमीनें दे रही है ।
शहरों में विकास के अनुपात में गरीबी भी बढ़ी है । १९७१में जहां गरीबी १७.७ प्रतिशत थी वह २००५ में बढ़कर २६.२ प्रतिशत हो गई । यदि शहरी विकास पर बजट की बातें करें तो भी वर्ष २००८-०९ में सरकार के पास ८५९ करोड़ रूपयों का बजट था जिसमें से कि ६७७ करोड़ रूपये ही खर्च हुआ । ०९-१०में यह बजट घटकर ८५८ करोड़ हुआ तो खर्च करने की दर और घट गई और इस वर्ष केवल५८३ करोड़ रूपया ही खर्च हुआ । १९५०-५१ में शहरी क्षेत्रों का जीडीपी में योगदान २९ प्रतिशत था जो कि अब बढ़कर ६२ प्रतिशत हो गया है और २०२१ में इसके ७५ प्रतिशत तक जाने का अनुमान है ।
जो आश्रयगृह हैं कि उनमें से किसी में भी किसी भी तरह के परामर्शदाता की कोई भी व्यवस्था नहीं है जबकि यह अनिवार्य रूप से होना चाहिये । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेशों के बाद भी देश भर में शहरी बेघरबार लोग सड़कों पर खुले में सोने को मजबूर हैं ।
***

प्रदेश चर्चा

अरूणाचल : विकास और आदिम संस्कृति
सुपर्णोलाहिड़ी

अरूणाचल में सैकड़ों की संख्या में प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाएं इस प्रदेश की आदिम संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था के नष्ट कर देंगी । इतना ही नहीं ये परियोजनाएं अंतत: विश्व के सर्वाधिक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक अरूणांचल को अपूरणीय पर्यावरणीय हानि भी पहुंचाएंगी ।
भारत के उत्तरपूर्वी भाग में स्थित अरूणांचल प्रदेश का इडु मिशमि समुदाय पवित्र नदी तलोह द्वारा सींची गई डिबांग घाटी और निचली डिबांग घाटी के अपने पेतृक गांवों में निवास करता है । प्रशासनिक दृष्टि से घाटी को दो जिलों में बाटा गया है जो कि पूर्वी हिमालय में ३०० मीटर ऊँची पहाडियों से लेकर ५००० मीटर की ऊँचाई तक फैली हुई हैं। बर्फीले पहाड़, स्वतंत्र प्रवाहित नदियां एवं झरने घने वन दुरूह तथा ऊबड-खाबड़ भू-भाग और नदियों के पठार इसकी सीमा और रूपरेखा को परिभाषित करते हैं ।
अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्यक बने इडु आज भारत का सर्वाधिक खतरे में पड़ा समुदाय है जिसकी कुल जनसंख्या करीब १२००० है । अरूणांचाल प्रदेश एक आदिवासी बहुल राज्य है जो कि भूटान, चीन और म्यांमार के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं साझा करता है । राज्य के कुल क्षेत्रफल (६७३५३ वर्ग कि.मी.) का ९१ प्रतिशत वनाच्छादित है । और इसमें डिबांग घाटी में राज्य का सर्वाधिक वन क्षेत्र है। जो कि ९३१७ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है । इन वनों में से अधिकांश वन आदिवासी समुदायों के प्रभावशाली नियंत्रण में हैं और इन्हें आधिकारिक तौर पर अवर्गीकृत वनों के रूप में चिन्हित किया गया है । घाटी की बहुत की समृद्ध और विविधतापूर्ण परिस्थितिकी है, जिसमें उष्ण कटिबंधीय वन से लेकर उप पर्वत श्रंखला और पर्वतीय घास के मैदान भी शामिल हैं। इस क्षेत्र का ५० प्रतिशत से अधिक इलाका सघन वनों से आच्छादित है। दिबांग नदी के केचमेण्ट क्षेत्र में आई भूमि का ९८.८० प्रतिशत क्षेत्र वनों का ही है ।
इसी तरह डिबांग घाटी अपने में अदभुत जैव विविधता को समेटे हुए है । यहां पर प्राकृतिक पेड़-पौधों की दृष्टि से उष्ण कटिबंधीय वनस्पति से लेकर उत्तरध्रुवीय पहाड़ी वनस्पतियों की श्रंखला पाई जाती है, जैसे उष्ण कटिबंधीय चौड़े पत्ते वाले वृक्ष उप उष्ण कटिबंधीय चीड़, शीतोष्ण चौड़ी पत्तियों वाली वनस्पती, शीतोष्ण कोनिफर या शंकुवृक्ष, उप पर्वत श्रंखला की लकड़ी वाली
झाडियां, घांस के पहाड़ी मैदान(उत्तर धु्रवीय पहाड़ी) बांस की झाडियां एवं घास के
मैदान । यहां पर पाए जाने वाले १५०० प्रकार के फूलों के पौधे सिद्ध करते हैंयहां कितनी जबरदस्त वानस्पतिक प्रजातियों का उद्भव हुआ है ।
यहां के कुछ पौधे आदिम प्रजातियों के रूप में भी सूचीबद्ध हैं । यहां के पारम्परिक चिकित्सकों के पास अपने पर्यावरण का जबरदस्त ज्ञान हैं और इसीलिए नृजातीय जैविक समृद्धि का यहां सामाजिक आर्थिक महत्व भी हैं । अरूणांचल के किसी भी अन्य आदिवासी समुदाय की तरह ही डिबांग घाटी के इडु मिशमि को भी पारम्परिक स्वामित्व के एवं पहाड़ों, नदियों, झरनों और इनके वनों के प्रबंधन के अधिकार प्राप्त् हैं । वन विभाग का केवल डिबांग एवं मेहाओ वन्यजीव अभ्यारण्यों, देवपानी के सुरक्षित वनोंऔर निचली डिबांग घाटी के छोटे-छोटे हिस्सों पर ही पूर्ण अधिकार प्राप्त् हैं ।
उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों में समुदाय /वंशों द्वारा अपने पारम्परिक कानूनों एवं रीति रिवाजों के माध्यम से वनों एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनोें पर नियंत्रण की असाधारणता संपत्ति एवं अधिकारों तक निश्चयात्मक पहुंच की सामाजिक अव्यवस्था की ओर भी इंगित करती है । संपत्ति के अधिकार की सामाजिक व्यवस्था अरूणांचल प्रदेश में इडु मिशमियों जैसे अन्य आदिवासी समुदायों के पारम्परिक आर्थिक एवं जीविका संबंधी अधिकारों की भी पुष्टि करती है ।
निचली डिबांग घाटी के पंचायत सदस्य जिणि पुलु बताते हैंहमारे पूर्वज तिब्बत से सियांग नदी के साथ-साथ आए एवं धीरे-धीरे डिबांग घाटी मेंबस गए और मेण्डा और पुलु वंश अन्य लिंग्गी मेकोला व मिठी वंशों के साथ आपसी सहमति से सामूहिक संपत्तियों को बांटते हुए उसकी सीमाआें को नदियों, पहाड़ों और वनों से चिन्हित करते हुए तलोह (इसे डिबांग भी कहा जाता है) के समतल मैदानों में बस
गए । इपराह मकोला का कहना है प्रत्येक वंश जिसमें उनका ग्रामीण समुदाय भी शामिल है, ने स्पष्ट तौर पर अपनी साझा संपत्तियों के क्षेत्र की स्पष्ट पहचान जिसमें झूम खेती की भूमि शिकार एवं मछली मारने के मैदान शामिल हैं, कर रखी है ।
इडु सांस्कृतिक एवं साहित्य सोसाइटी के सचिव डॉ.मिटी लिंग्गी ने जानकारी देते हुए कहा कि हमारे इडु गांव आत्मनिर्भर ग्राम राज्य की तरह होते हैं और हमारा ग्राम प्रमुख एक राजा की मानिंद होता
है । हम चावल, मोटे अनाज (मिलेट), कपास, मक्का और मिठे आलू उपजाते हैं और अपने वनों से इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, केन, फल, मेवे और औषणीय पौधे प्राप्त् करते हैं । हमारे पास अपने मिथुनों के चरने के लिए घास के मैदान हैं। एक इडू जब भी किसी जानवर को मारता है या वनों से लकड़ी या पौधे प्राप्त् करता है तो वह ईश्वर की प्रार्थना करता है और उसे भोजन व जीविका उपलब्ध करवाने हेतु धन्यवाद भी देता है । हम हमारी संस्कृति, हमारे वनों, नदियों और भूमि से केवल उतना ही लेते हैं जितना कि हमें जिन्दा रहने के लिए आवश्यक होता है । वहीं इपराह जोर देते हुए कहते हैं, बड़ी संख्या में जानवरों को मारना और आवश्यकता से अधिक संसाधनों का इस्तेमाल इडुआेंमें निषिद्ध है । हमने हमारे पर्यावरण और पारिस्थितिकी को सुचारू बनाए रखने के लिए न केवल स्पष्ट नियम बना रखे हैं बल्कि इन्हें नियंत्रित रखने हेतु कठोर दंड के प्रावधान भी कर रखें हैं ।
डिबाग घाटी में प्रस्तावित बड़े बांधों के निर्माण के संदर्भ में जिबि पूछते हैं, हमारे वनों को विकसित होने में हजारों हजार वर्ष लगे हैं । हमारे पूर्वजों ने हमारी धरती के वनों, जानवरों और इस समृद्ध जैव विविधता को सहेजा है । हम इन तथाकथित विकास योजनाआें जिनका जीवन महज से २० से ५० वर्ष का ही है, के लिए अपनी भूमि व वनों को नष्ट करने की अनुमति कैसे दे सकते हैं ?
इरपाह याद दिलाते हुए कहते हैं कि वन विभाग एक ओर तो हमें वन्यजीव, वन एवं जानवरों को संरक्षित रखने के लिए प्रवचन देता है वहीं दूसरी ओर वह हमें कृषि व्यवसाय के नाम पर हमारी ही भूमि पर पौधारोपण और फलोंके बाग लगाने को प्रोत्साहित कर रहा है । हमारे लोग ऐसी कृत्रिम खाद और कीटनाशकोंका प्रयोग करना सीख रहे हैं जिनके परिणामों एवं प्रभावों के बारे में वे जागरूक ही नहीं हैं । मैं इन व्यावसायिक खादों के इस्तेमाल क्के एकदम खिलाफ हूं क्योंकि ये हमारी भूमि को नष्ट कर देंगे । हम जो भी उगाते हैं वह जैविक होता है और हमें वन विभाग को इन्कार करने का पूरा अधिकार है क्योंकि यह भूमि हमारी है । साथ यह केवल हम ही तय करेंगे कि हम हमारी जमीन से क्या उपजाएं और हम हमारे वनों और नदियों का क्या इस्तेमाल करें । एक आदरणीय इडु बुजुर्ग इंगोरी चिंतातुर होते हुए बताते हैं कि ये बड़ी विकास परियोजनाएं और पौधारोपण की योजनाएं हमसे हमारी जमीने ले लेंगी ओर हमारे वनों को नष्ट कर देंगी । हम इडु पूर्णतया स्वतंत्र हैं और हम हमारी पूरी शक्ति से बाहरी व्यक्तियों के प्रभाव, वन विभाग के मशीनीकरण और हमारे संसाधनोंके व्यावसायिकरण का विरोध करेंगे । अन्यथा हमारी भावी पीढ़ियां जिंदा ही नहीं रह
सकती । वनविभाग के कर्मचारी, बाहरी कंपनियां और व्यापारी हमारी भूमि को नष्ट कर देंगे और हमारे लोगों को दरिद्र बनाकर अपना फायदा कमाएंगे ।
***

कविता

प्रकृति स्वच्छता चाहती
कृष्ण बिहारीलाल राही

प्रकृति स्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शांति सुख रम्यता चाहती सर्वदा
तन हृदय जल रहा, जिन्दगी जल रही,
चू-चू करते करोड़ों चिता जल रही ।
चिमनिय उगलती धुंआ रात दिन,
वायु मण्डल में फैली नमी जल रही ।
ब्रह्मवेला अमृत सूखता जा रहा, तत्व जीवन का जिसमें भरा था सदा
प्रकृतिस्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शांति सुख रम्यता चाही सर्वदा
हम तो दुर्गन्ध में सांस है ले रहे,
आज बहुतो को इसका नहंी ज्ञान है ।
दूषित जल पी रहे डुबकिया ले रहे,
दुख का कारण जगत में यह अज्ञान है ।
डींग हम हांकते सभ्य कहलाने को प्रदूषण से जग का यह मानव लदा ।
प्रकृति स्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शाँति सुख रम्यता चाहती सर्वदा
पावन सरिताये अपनी विषैली हुई,
मानव इनमें अर्हिनिशं जहर घोलता ।
जीवन चर्या से लेकर रहन व सहन,
अपने मनमानी ढ़ग से इन्हें पोषता ।
मन के भावों-विचारों में बदबू भरी, मानव है भूलता अब नियम कायदा
प्रकृतिस्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शांति सुख रम्यता चाहती सर्वदा
अपना विज्ञान चेतावनी दे रहा
संभलो धरती के मानव है खतरा तुम्हें।
मुक्त होना प्रदूषण से आवश्यक है,
ध्वंस होने का मिटने का खतरा तुम्हें ।
वृक्ष साथी मिटाते प्रदूषण को भी, इनको रोपे व पनपावे हो फायदा ।
प्रकृतिस्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शांति सुख रम्यता चाहती सर्वदा

महिला जगत

महिलाएं और मनरेगा
रिचर्ड महापात्र

जिन राज्यों में गरीबी अधिक है वहां उम्मीद की जा रही थी कि मनरेगा के अंतर्गत महिलाआें की भागीदारी में बढ़ोत्तरी होगी । लेकिन वास्तविकता यह है कि जिन राज्यों में अत्यधिक गरीबी है वहां पर महिलाएं मनरेगा में कम भागीदारी कर रहीं हैं । वहीं दूसरी ओर जिन राज्यों में वर्तमान में कुल श्रमशक्ति में महिलाआें की संख्या कम है वहां पर महिलाआें का प्रतिनिधित्व आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा है ।
ग्रामीण समुदाय को रोजगार देने वाले राष्ट्रीय कार्यक्रम में पुरूषों की बजाए महिलाएं ज्यादा तादाद में कार्य कर रही हैं । चालू वित्तीय वर्ष में अक्टूबर तक महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून में महिलाआें ने ५० प्रतिशत से अधिक रोजगार प्राप्त् किया । इस कानून के २००६ से लागू होने के बाद से इसमें महिलाआें की भागीदारी लगातार बढी है । यह इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि सन् २००४-०५ में हुए अंतिम राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में काम करने वालों में महिलाआें की कुल भागीदारी मात्र २८.७ प्रतिशत ही है ।
पूर्व में भी सार्वजनिक मजदूरी कार्यक्रमों में महिलाआें की भागीदारी उम्मीद से अधिक थी । सन् १९७० से २००५ के मध्य भारत के मध्य भारत में रोजगार या स्वरोजगार के १७ बड़े कार्यक्रम लागू किए गए थे । सन् २००० तक लागू किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण राजगार कार्यक्रम, भूमिहीन ग्रामीण राजगार गारंटी कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना और रोजगार आश्वासन योजना के अंतर्गत निर्मित कुल रोजगारों में से एक-चौथाई पर महिलाएं काबिज हुई थीं । वही आई आरडीपी (समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम) और ग्रामीण युवाआें को रोजगार हेतु प्रशिक्षण देने के उपक्रम में
सन् २००० तक महिलाआें की भागीदारी ४५ प्रतिशत तक पहुंच चुकी थी ।
मनरेगा में महिलाआें की भागीदारी कई बार अनूठे और अक्सर विरोधाभासी पक्षों की ओर इशारा करती है । पहला यह कि ऐसे राज्य जहां कि श्रमशक्ति में महिलाआेंे की भागीदारी कमोवेश कम दिखाई देती है वहां पर महिलाएं अधिक तादाद में इस कार्यक्रम में भागीदारी कर रही हैं । केरल का ही उदाहरण लें, यहां पर महिलाएं कुल श्रमशक्ति का मात्र १५ प्रतिशत ही हैं । परंतु इस कानून के अंतर्गत निर्मित कार्योंा में से ७९ प्रतिशत महिलाआें ने ही ले लिए ।
तमिलनाडु और राजस्थान दो अन्य प्रदेश है। जहां कुल श्रमशक्ति में महिलाआें की हिस्सेदारी कम है लेकिन मनरेगा के अंतर्गत निर्मित कार्योंा में इनकी भागीदारी क्रमश: ८२ एवं ६९ प्रतिशत है । दूसरी ओर ओडिशा, उत्तरप्रदेश एवं बिहार जैसे गरीब राज्यों में जहां पर छुट्टी मजदूरी की अधिक संभावनाएं हैं वहां पर महिलाआें की भागीदारी बहुत कम अर्थात मात्र २२ से २३ प्रतिशत ही है । यह प्रवृत्ति उस धारणा की विरोधाभासी हैं कि गरीबी महिलाआें को छुट्टी या आकस्मिक मजदूरी के लिए बाध्य करती है । तीसरा यह कि ऐसा विश्वास है कि जहां धान की खेती जैसी मानव श्रम आधारित खेती होती है वहां पर महिलाएं श्रमिकोंकी संख्या अधिक होती है । परंतु मनरेगा के आंकडे ओडिशा ओर पश्चिम बंगाल में ठीक इसके उलट स्थिति प्रस्तुत करते हैं ।
वैसे इस कानून के कुछ विशिष्ट पक्ष भी इस विरोधाभासी प्रवृत्ति में योगदान करते हैं । जैसे इस कानून के अनुसार एक परिवार को एक वर्ष में १०० दिन के रोजगार की गारंटी है । सभी वयस्क सदस्य इस गारंटी में हिस्सेदारी कर सकते हैं और महिलाआेंें और पुरूषों के लिए मजदूरी दर एक सी है । इससे परिवार के स्तर पर मजदूरी का बजट बनाया जाने लगा । अब पुरूष नगरोंऔर शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं और महिलाएं मनरेगा के अंतर्गत कार्य करने हेतु गांव मेंअपने घरों में रह जाती है । कानून के फलस्वरूप परिवारों की आय में वृद्धि भी हुई क्योंकि पहले तो महिलाआें को पुरूषों के मुकाबले कम मजदूरी मिलती थी। महिलाआें ने इसे आर्थिक आजादी की तरह से लिया है ।
कानून में मजदूरी में समानता से भी अधिक ध्यान जल संरक्षण को दिया है । इससे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के सदस्यों क ो अपने ही खेतों में काम करने को मिला बल्कि उसके बदले में उन्होंने भुगतान भी प्राप्त् किया । महिलाआेंें की भागीदारी से उनके अपने अनुपजाऊ खेतोंे का पानी एवं अन्य कार्योंा के माध्यम से पुनरूद्धार भी संभव हो
पाया । तमिलनाडु में हुए अनेक अध्ययनों ने इस प्रवृत्ति की पुष्टि की है । उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के अकाल पीड़ित बुंदेलखंड के कई जिलोंमें भी अनेक परिवारों ने इसी रणनीति को अपनाया गया है ।
देश में९० प्रतिशत महिला श्रमिक या तो खेतिहर मजदूर हैं या कृषक हैं। उनके द्वारा किए गए कार्य में से अधिकांश का भुगतान भी नहीं होता क्योंकि वे अपने ही खेतों में कार्य करती हैं । मनरेगा ने इस स्थिति को बदला है । अब महिलाआें को भुगतान न किए जाने वाले कार्य जैसे भूमि का समतलीकरण और अपने ही खेतों में तालाब खोदने के लिए भी भुगतान किया जाता है । आध्रप्रदेश के वारअंगल और महाराष्ट्र के अहमदनगर जैसे अकाल प्रभावित क्षेत्रोंके समुदायों के सदस्योंका कहना है कि इससे महिलाएं इस कार्यक्रम की ओर आकर्षित हुई है ।
केरल, तमिलनाडु और राजस्थान में महिलाआें को इन योजनाआें हेतु एकत्रीकरण एवं अभियानों के इतिहास ने मनरेगा में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की है । राजस्थान में सोशल आडिट अभियान, जिसमें महिलाआें ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, ने मनरेगा के अंतर्गत उनकी जागरूकता और भागीदारी बढ़ाने में योगदान किया है । राज्य में कार्यस्थलों पर महिलाआें और बच्चों के लिए अच्छी व्यवस्थाएं हैं । केरल में कार्यस्थलों और अन्य आवश्यकताआें के प्रबंधन की जिम्मेदारी गरीबी निवारण मिशन कुडुम्बश्री के अंतर्गत महिला स्वयं सहायता समूह के हाथों में दे दी गई है ।
मनरेगा में महिलाआें की बढ़ती भागीदारी को इसके मुख्य उद्देश्य स्थानीय पारिस्थितिकी के पुुनुरूद्धार की प्रािप्त् के लिए उपयोग में लाया जा सकता है । अब पंचायत में भी महिलाआें की ५० प्रतिशत भागीदारी अनिवार्य कर दी गई है जो कि इन कार्यक्रमोंके कियान्वयन, जिससे विकास योजना बनाना भी शामिल है कि लिए एकअधिकृत संस्था है । अतएव पंचायतोंकी निरीक्षक की भूमिका और श्रमिकों में समानता का भाव से उपस्थिति होगी तो यह गांव और कार्यक्रम दोनों के लिए ही बेहतर होगा । ***

पर्यावरण परिक्रमा

आदर्श सोसायटी को गिराने का आदेश

पिछले दिनों पर्यावरण मंत्रालय ने मुंबई स्थित विवादास्पद आदर्श आवासीय सोसायटी को ३१ मंजिला इमारत को अनाधिकृत करार देते हुए उसे तीन महिने के भीतर गिरा देने की सिफारिश की है । हालांकि, इस पर सोसायटी ने कहा कि वह इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती देगी । वहीं, महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि वह मंत्रालय की सिफारिश पर जल्द ही फैसला करेगी ।
रक्षा प्रतिष्ठानों और कई अन्य अहम संगठनों की मौजूदगी के चलते संवेदनशील माने जाने वाले कोलाबा इलाके में इस इमारत के लिए मूल रूप से छह मंजिलों का निर्माण होना था और इसमें कारगिल युद्ध के शहीदों के परिजनों को आवास दिए जाने थे । लेकिन ३१मंजिलों का निर्माण होने और इसके फ्लैट नेताआें, शीर्ष रक्षा अधिकारियों और नौकरशाहों को भी आवंटित हो जाने के बाद इमारत विवादों में आ गई थी । पर्यावरण मंत्रालय ने अपने अंतिम आदेश में सख्ती से कहा कि इमारत के अनाधिकृत ढांचे को गिरा दिया जाए और उस क्षेत्र को तीन महीने के भीतर उसकी मूल स्थिति में ला दिया जाए । मंत्रालय ने सोासयटी को ही ढ़ांचा हटाने के निर्देश देते हुए कहा कि इमारत को नहीं गिराए जाने की स्थिति में वह अपने निर्देशों को कानूनन लागू कराने के लिए कदम उठाने को मजबूर हो जाएगा ।
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के दस्तखत वाले इस आदेश में कहा गया कि पूरे ढांचे को हटा दिया जाए क्योंकि यह अनाधिकृत है और इसके निर्माण के लिए तटीय नियमन क्षेत्र (सीआरजेड) अधिसूचना १९९९ के तहत कोई मंजूरी हासिल नहीं की गई थी । मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि आदर्श आवासीय सोसायटी ने सीआरजेड अधिसूचना १९९९ की मूल भावना का उल्लंघन किया है । सोसायटी ने इस अधिसूचना के तहत मंजिलों के निर्माण के लिए मंजूरी लेने की जरूरत को भी नहीं पहचाना । इस तरह की जरूरत होने के बारे में सोसायटी अवगत थी या नहीं थी, यह मायने नहीं रखता क्योंकि कानून का नजरअंदाज हो जाना उसका अनुपालन नहंी करने का कोई बहाना नहीं हो सकता । पर्यावरण मंत्रालय ने आदर्श सोसायटी को उसकी ३१ मंजिला इमारत के निर्माण के बारे में पिछले वर्ष १२ नवंबर को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए कहा था कि क्यों न उसकी अवैध मंजिलों को गिरा
दिया जाए । बहरहाल, श्री रमेश ने पर्यावरण मंत्रालय के अंतिम आदेश मेंकहा गया कि इमारत क ो गिरा देने के अलावा दो अन्य विकल्पोंपर भी विचार किया गया । एक विकल्प यह था कि अगर उपयुक्त प्राधिकार से जरूरी मंजूरी ली गई होगी तो इमारत की अतिरिक्त मंजिलों को हटाने को कहा जा सकता था । मंत्री ने कहा कि कुछ मंजिलों
को गिराने के विकल्प को इसलिए खारिज करार दिया गया । क्योंकि ऐसा करने का सुझाव देना सीआरजेड अधिसूचना १९९९ के बेहद गंभीर उल्लंघन का नियमितीकरण करने या उसे माफ कर देने जेसा होता ।

पॉस्को प्रोजेक्ट को शर्तों के साथ मंजूरी

केन्द्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने दक्षिण कोरियाई इस्पात कंपनी पॉस्को की उड़ीसा परियोजना को ५० शर्तोंा के साथ मंजूरी दे दी है ।
कंपनी जगतसिंहपुर जिले में करीब ६०० अरब रूपये के निवेश से सालाना १२ करोड़ टन इस्पात उत्पादन क्षमता का एक समन्वित कारखाना और उसके साथ अपने काम के लिए एक बिजलीघर और बंदरगाह विकसित करना चाहती है । केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने अपने आदश में कहा कि पोस्को की इस परियोजना के लिए भू-प्रयोग परिवर्तन पर पक्का निर्णय उड़ीसा सरकार से वन अधिकार कानून के अनुपालन के संबंध में आश्वासन मिलने के बाद किया जाएगा । पर्यावरण और वन कानूनों के चलते परियोजना अटकी हुई थी ।
पर्यावरण मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि पोस्को के इस्पात और कैप्टिव बिजलीघर की परियोजना को २८ अतिरिक्त शर्तोंा और पोस्को बंदरगाह को ३२ अतिरिक्त शर्तोंा के साथ मंजूरी दी जाती है । बयान मेंकहा गया है कि इस इस्पात कारखाने और उसके लिए कैप्टिव बिजलीघर के १९ जुलाई २००७के आदेश और पोस्को बंदरगाह के १५ मई २००७ के पहले के आदेश में शामिल शर्तोंा के अतिरिक्त नई शर्तोंा के साथ मंजूरी दी जा रही है । बेशक पॉस्को जैसेी परियोजनाआें का देश के लिए आर्थिक तकनीकी और सामरिक महत्व है । लेकिन इसी के साथ पर्यावरण का गंभीरता से पालन करना भी जरूरी है ।

वर्ष २०१० था सबसे गर्म साल

भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों ने पिछले साल पारे की सबसे ज्यादा उछाल देखी । विश्व मौसम विज्ञान संगठन के मुताबिक दुनिया के लिए वर्ष २०१० रिकार्ड गर्मी वाला रहा । पिछले साल के आंकड़ों ने पृथ्वी के गर्म होने की ओर भी इशारा किया । विभाग के महासचिव माइकल जेरॉड ने बताया पिछले साल ज्यादातर अफ्र ीका, दक्षिण और पश्चिम एशिया, ग्रीनलैंड और आर्कटिक इलाकों में अब तक का सबसे अधिक तापमान दर्ज किया गया । इस वर्ष आर्कटिक पर जमने वाली बर्फ का दायरा भी सबसे कम
रहा । सिर्फ १.३५ लाख वर्ग किमी बर्फ ही जमी रही । यह दिसंबर माह में १९७९-२००० के दौरान औसत से कम है ।
सन् १९६१-९० के दौरान औसत तापमान मे पिछले साल ०.५३ डिग्री का उछाल दर्ज किया गया । यह सबसे ज्यादा गर्म रहे दो वर्षोंा १९९८ और २००५ से भी अधिक था । दुनिया में १९६१-९० के औसत तापमान के मुकाबले २००१-१० के औसत तापमान में .४६ डिग्री की वृद्धि हुई
है ।

जैविक खेती की फसलों में नहीं लगा पाला

म.प्र.में कृषि विभाग के पूर्व संचालक डॉ.जीएस कौशल का कहना है कि खेती की बढ़ती लागत और कर्ज चुकाने की हैसियत न रहने की वजह से किसान टूट गया है । यहि हाल रहा तो आत्महत्याएँ और बढ़ेंगी इसकी रोकथाम के लिए सरकार को जैविक और परंपरागत खेती को बढ़ावा देना चाहिए । मौजूदा समय में जिन किसानों ने जैविक खेती को अपनाया है उनके खेतों में पाला नहीं लगा । इसके एक नहीं कई उदाहरण हैं ।
पूर्व कृषि संचालक ने बताया कि छतरपुर के गाँधी प्रतिष्ठान के १५० एकड़ में गेहूँ, चना, तुअर और आलू की फसल लगाई है । लेकिन इनमें पाला नहीं लगा इसी तरह औबेदुल्ल्लागंज स्थित एमपी काउंसिल ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (मेमकॉस्ट) के फार्म में दो एकड़ में चना, इन्दौर के आनंद सिंह ठाकुर के दस एकड़ खेत में आलू, सब्जी, गेहूँ, चना और सेमलिया चाउ के रवि ठाकुर के खेत में छ: प्रकार के परंपरागत किस्मों का गेहूँ, चना और मक्का बोया गया है ।
इनमें से किसी फसल पर पाले का कोई प्रभाव नहीं है । इसकी वजह जैविक खेती की वजह से फसल में रहने वाली नमी और भूमि को मिलने वाले सूक्ष्म जीवाणु मिलते हैं । पत्तियों और तने में नमी होने की वजह से पाला असर नहीं डाल पाता है । इसलिए सरकार को चाहिए कि एक साल से ठंडे बस्ते में पड़ी जैविक खेती नीति को शीघ्र लागू करे । इससे भूमि की सेहत तो सुधरेगी ही, किसानों की माली हालत भी बेहतर
होगी ।

भाग्यशाली साबित हुए जंगली गिद्ध

जंगलों में रहने वाले गिद्ध कम से कम एक मामले में भाग्यशाली हैं । उन्हें अपना पेट भरने के लिए पालतु पशुआेंें के शवांे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता । यही वजह है कि जहां उनके शहरी भाई-बंधु डॉयक्लोफेनेक (दर्द निवारक दवा) के कहर की वजह से अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत हैं, वहीं ये जंगली गिद्ध खूब फल-फूल रहे हैं । पिछले दिनों पन्ना टाइगर रिजर्व एवं राष्ट्रीय उद्यान में गिद्धों की गणना में इसी तथ्य की पुष्टि हुई है ।
इस गणना के नतीजों से पता चलता है कि गिद्धों की संख्या और उनके प्रजनन स्थलों में इजाफा हुआ है । उल्लेखनीय है कि डॉयक्लोफेनेक को ही गिद्धों के खत्म होने का प्रमुख कारण माना जाता है । २१ से २३ जनवरी तक पार्क प्रबंधन द्वारा वहां छात्रोंतथा वन्यजीव विशेषज्ञों की मदद से गिद्धों की गणना करवाई गई थी । इसमें पता चला कि अकेले पन्ना टाइगर रिजर्व में ही १०७९ गिद्ध हैं । यह पिछली गणना की तुलना में करीब ४५० ज्यादा है । यह इसलिए संभव हो पाया है कि जंगलों में गिद्ध मरे हुए वन्यजीव खाते हैं जो डॉयक्लोफेनेक के इंफेक्शन से मुक्त होते हैं।
पन्ना टाइगर रिजर्व में २०१० में की गई गणना में ६३० गिद्ध रिकार्ड किए गए थे । इस बार की गणना में लेकिन सिलेंडर बिल्ड वल्चर दिखाई नहीं दिया । गिद्धों की आठ में से सात प्रजाति सिनेरियस वल्चर, हिमालयन, ग्रिफोन, यूरेशियन ग्रिफोन, किंग (रेड हैडेड) वल्चर, लांग बिल्ड, वाइट बैक्ड और इजीपशियन वल्चर ही यहां देखने को मिला । इनमें से लांग बिल्ड वल्चर सबसे अधिक यानी ७७५ पाए गए, जबकि सिरेनियस वल्चर सबसे कम सिर्फ छह दिखे ।
गिद्ध को प्राकृतिक सफाईकर्मी माना जाता है । गिद्धों का एक बड़ा झुंड किसी मरी हुई भैंस को एक घंटे के अंदर खाकर खत्म कर सकता है । इससे ना सिर्फ वातावरण की सफाई होती है । बल्कि लाश से फैलने वाली बीमारियां भी नियंत्रित होती हैं । एक गिद्ध की औसत आयु ५०-६० वर्ष तक होती है जो किसी भी पक्षी के मुकाबले कहींज्यादा है ।
डॉयक्लोफेनेक दवा पालतु मवेशियों को दर्द निवारक के तौर पर दी जाती है । मृतक मवेशियोंके माध्यम से यह दवा गिद्धोंके शरीर में पहुंचकर उनकी किडनी को प्रभावित करती है और वो डिहाइड्रेशन का शिकार होकर मारे जाते हैं । इसी की वजह से गिद्धों की संख्या देश में ९७ प्रतिशत कम हो गई है । ***

वृक्ष हमारे मित्र

सहजन : चमत्कारी पेड़
डॉ.किशोर पंवार

प्रकृति का चमत्कार ही है उसने सहजन या सुरजना की फली के वृक्ष को इतनी विशेषताएं प्रदान की है । आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी प्राकृतिक जैव विविधता को पहचाने और उसके संवर्द्धन की दिशा मेंउचित प्रयास करें ।
पिछले कुछ अर्से से पर्यावरणवादी टिकाऊ विकास की बातें कर रहे हैं । टिकाऊ विकास यानि ऐसा विकास जो लम्बे समय तक हमार साथ दे हमारे प्राकृतिक संसाधनों को बिना नुकसान पहुंचाए उन्हें देर तक उपलब्ध बनाएं रखें, हमारी आर्थिक वृद्धि भी बाधित न हो और पर्यावरण भी शुद्ध बना रहे और प्राकृतिक विनाश नहीं हो । कुल मिलाकर यही है स्थायी विकास का टिकाऊ विकास ।
दरअसल, यह अवधारणा १९८७ में ब्रुटलेण्ड की चर्चित पुस्तक अवर कॉमन फ्यूचर से निकली है । जिसमें यह स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि हमारे प्राकृतिक संसाधन अनुकूल और अमिट नहीं है । हमारे जंगल, कोयला, पेट्रोल और पीने लायक साफ पानी सभी बड़ी तेजी से घट रहे हैं । अत: अब आगे विकास ऐसा होना चाहिए जिसमें धरती की सेहत का भी ख्याल रखा जाए । वस्तुत: विकास के नाम पर पूरी दुनिया में जिस तेजी से मानवजन्य कारणों से जैव विविधता का क्षरण, भूमि उपयोग का बदलता परिदृश्य रेगिस्तानी करण और जलवायु परिवर्तन हो रहा है ये सब वैश्विक चिन्ता के विषय है तथाकथित विकास दर प्रारूप प्रकृति के विनाश का कारण बन रही है । उदाहरण के तौर पर वर्तमान मेंसड़कों का जो चौड़ीकरण और सीमेंटीकरण हो रहा है क्या इस हेतु पारिस्थितिक प्रभावों का अध्ययन किया गया है ? इन्वायरमेंटल इम्पेक्ट असेसमेंट (ई.पी.ए.)केवल उद्योगों के लिए ही क्यों अनिवार्य हो ? क्या नगरीय निकायों जैसे सार्वजनिक उपक्रमोंपर ये लागू नहीं होना चाहिए ?
हमारी हवा, पानी, मिट्टी अब आगे और खराब न हों, खेतों की मिट्टी अधिक समय तक उपजाऊ बनी रहे यह आज की एक गम्भीर समस्या है । मिट्टी को उर्वर बनाए रखने के लिए रासायनिक खाद व कीटनाशकोंऔर खरपतवारनाशकों का कम उपयोग करना होगा । आर्गेनिक फार्मिंग पर ज्यादा जोर देना होगा । कोशिश करना होगी कि खेती पर उर्जा की निर्भरता कम हो । किसानों को भी अच्छी गुणवत्ता
वाला स्वास्थ्यरक्षक इंर्धन उपलब्ध हो । पशुआें को बढ़िया पौष्टिक चारा मिले और किसानों की आर्थिक आजादी हो, परन्तु ये सब होगा कैसे ? वर्तमान अंधकारमय परिदृश्य में आशा की एक किरण नजर आती है । यह सब संभव है । केवल एक पेड़ के समूचित प्रबन्ध से इसका नाम है सहजन जिसे हम सुरजने के नाम से जानते हैं। मुनगा भी यही हैं और मोरिंगा भी । हम सब इसके फलोंको पहचानते हैं । इसकी लम्बी ड्रमस्टिक के नाम से जानी जाने वाली फलियों को सब्जी के रूप में सदियों से उपयोग में ला रहे हैं । परन्तु इसके अन्य अद्भुत गुणों से अनजान हैं । यह पूरा पेड़ बड़ा चमत्कारी है । इससे देश के किसान विशेषकर छोटे किसानों की किस्मत का ताला खुल सकता है ।
सुरजने की पत्तियां और टहनियों पशुआें के लिए पौष्टिक चारा है । बीज बोने के पूर्व यदि सुरजने कि पत्तियों को खेत में मिलाएं तो उससे जड़ों में लगने वाले सड़न और गलन रोग से मुक्ति मिलती है ।
इसकी पत्तियों का रस फसलों के लिए बेहतर टॉनिक का काम करता है । इसकी पत्तियों के रस के छिड़काव से फसलों का उत्पादन ३० प्रतिशत तक बढ़ता है । इसके पौधों को खेत में हरी खाद के साथ में मिलाया जा सकता है । यह प्राकृतिक खाद का काम करता है । सुरजने की पत्तियों से प्रदूषण रहित स्वच्छ बायो गैस बनाई जा
सकती है । इसका उपयोग मिश्रित खेती में भी किया जा सकता है क्योंकि इस पेड़ से छाया नहीं होती और उच्च् गुणवत्ता का प्रोटीन युक्त जीवांश मिलता है । इसके बीजों के चूर्ण को शहद साफ करने में काम लाया जाता
है । गन्ने के रस को साफ करने में भी इसका उपयोग किया जाता है ।
इस पर फूलों की बड़ी बहार आती है,जिसमें मकरन्द अधिक मात्रा में होता है । अत: इसका उपयोग शहद उत्पादन में भी होता है । बीजों से खाद्य तेल निकलता है, जो गुणवत्ता में ओलिव ऑयल (अलसी का तेल) के समान है । बीजों में ४० प्रतिशत तक तेल पाया गया है । बीजों के चूर्ण का उपयोग गन्दे पानी को शुद्ध करने मेंभी किया जाता है । यह फिटकरी के मुकाबले पानी को ज्यादा साफ करता है । साथ ही बैक्टीरिया को हटाता है । मलावी और अफ्रीका में इसके बीजोंसे बड़े पैमाने पर पानी साफ किया जा रहा है । यहीं नहीं इसके बीजों से पानी का ठोसपन भी कम होता है ।
इनके अलावा इसका गूदा अखबारी कागज बनाने के काम भी लाया जा सकता है । छाल से रस्सियां बनाने के लिए उम्दा किस्म का रेशा प्राप्त् होता है । फलियां बेचकर आर्थिक आय तो प्राप्त् की ही जा सकती है । इसकी पत्तियां, फल, फूल, बीज और तो और छाल सभी कुछ उपयोगी हैं। इसके इन्हीं गुणों को ध्यान में रख कर इसे मूरे में अरजन टिगा कहा जाता है । जिसका अर्थ है स्वर्ग का पेड़ । ***

खास खबर

चमगादड़ बचाने का संकल्प
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

दुनियाभर में चमगादड़ों की संख्या लगातार घट रही है । यही कारण है कि संयुक्तराष्ट्र ने २०११ वर्ष को चमगादड़ों को समर्पित किया है । चमगादड़ों से बहुत से लोग डरते हैं । इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि रात में उड़ने वाले इन जीवों के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी होती है ।
दिलचस्प बात यह है कि ये इकलौते उड़ने वाले स्तनपायी जीव हैं । चमगादड़ों की १२०० प्रजातियाँ हैं और वे जैव पारिस्थितिकी यानी इकोसिस्टम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । पिछले कुछ दशकों में दुनियाभर में उनकी संख्या तेजी से घटी है । इनकी बहुत सी प्रजातियाँ तो विलुप्त् होने के कगार पर हैं । इसलिए संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष २०११ को चमगादड़ों को समर्पित कर पूरी दुनिया में उन्हें बचाने के लिए कदम उठाने के लिए विशेष अभियानों के जरिए लोगोंको प्रशिक्षण दिया जाएगा ।
किसी गुफा में एक अजीब तरह की चूँ-चँू, तेज दुर्गंध वाले और अंधेरे में जीने वाले चमगादड़ों को बहुत से लोग डरावनी फिल्मों या कहानियों के साथ जोड़ते हैं । लेकिन इन जीवों के बारे में यह धारणा गलत है । यह मानना है योरपीय चमगादड़ों को बचाने के लिए बनाई गई विशेष संस्था के अध्यक्ष आंद्रेआस श्ट्राईट का । वे कहते हैं कि जो भी बातें चमगादड़ों के बारे में कहीं जाती हैं, सब पूर्वाग्रहों से प्रेरित हैं । इसलिए इस मुहिम का मकसद है कि लोगों को बताया जाए कि ये सब बातें गलत हैं ।
चमगादड़ बहुत ही आकर्षक जीव है । उनके अंदर बहुत सारे गुण और क्षमताएँहैं, जिनके बारे में आम आदमी को जानकारी ही नहीं है। योरपीय चमगादड़ों को बचाने के लिए हुई संधि को २०११ में २० साल पूरे हो रहे हैं । योरप में बहुत सारे प्रयासों की वजह से चमगादड़ों की संख्या स्थिर बनी हुई है । लेकिन दुनिया के दूसरे इलाकोंमें ऐसा नहीं है । इसलिए संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें गोरिल्ला और डॉल्फिन की तरह ही पूरा साल समर्पित किया है ।
आंद्रेआस श्ट्राईट बताते हैं कि चमगादड़ों की इकोसिस्टम में बहुत बड़ी भूमिका है । वे कहते हैं कि देखा जाए तो ज्यादातर पक्षी रात में ही सोते हैं । जो जानवर रात में शिकार पर जाते हैं, वे अधिकतर बड़े जीवों को खाते हैं । उदाहरण के लिए उल्लु, चूहे खाता है । लेकिन दूसरी तरफ बहुत सारे ऐसे कीड़े-मकौड़े हैं जो रात में सक्रिय होते हैं । इनमें ऐसी मक्खियाँ भी हैं जो फसल को नुकसान पहुँचाती हैं । प्राकृतिक रूप से इन कीड़े-मकोड़ों पर सिर्फ चमगादड़ों के जरिए ही नियंत्रण रखा जा सकता है । एक चमगादड़ ५ से ६ हजार मक्खियों को खा सकता है ।
आर्थिक नजरिए से भी चमगादड़ों को बचाना बहुत ही जरूरी है, खासकर किसानों को उनकी रक्षा करना चाहिए । आंद्रेआस श्ट्राईट बताते हैं कि उष्ण कटिबंधीय इलाकों में बहुत से फल खाने वाले चमगादड़ मिलते हैं । पराग कणों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है और उनके जरिए ही बीज फैलाए जाते हैं। कुछ ऐसे पौधे भी होते हैंजो अपने रंग और सुगंध में सिर्फ चमगादड़ों को आकर्षित करते हैं । यह सिर्फ वनों के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि खेतों में पैदा होने वाली फसलों के लिए भी यह बात सही है ।
कई अफ्रीकी और एशियाई देशोंमें चमगादड़ों को खाया भी जाता है । इनकी घटती संख्या के बावजूद उनका शिकार जारी है । कई जगह इन्हें यह कह कर भी मारा जाता है कि इनके कारण रैबीस जैसी बीमारियाँ फैलती हैं । अगर उनसे कोई बीमारी होती भी है तो यह बात समझनी चाहिए कि आम तौर पर मनुष्य से उनका संपर्क नहीं होता है । वैसे भी संक्रमित चमगादड़ मनुष्य पर हमला नहीं करते । २०११ में दुनियाभर में चमगादड़ों की रक्षा के लिए चिड़ियाघरों और स्कूलोंमें लोगों को जानकारी दी जाएगी । कई इलाकों में गुफाआें में जानकर भी उनके बारे में शोध किया जाएगा ।
बहुत सारे ऐसे फल हैं जिनके फलने-फूलने के लिए चमगादड़ों का होना बहुत जरूरी है । जैसे आम, जंजीर, थाईलैंड और फिलीपिंस में खाए जाने वाला दुरियान या अवोकाडो । चमगादड़ों की इतनी उपयोगिता के बावजूद वे दुनिया के कई इलाकों में विलुप्त् होने की कगार पर हैं । इसके बारे में आंद्रेआस श्ट्राईट बताते हैं कि दुनिया के क ई हिस्सोंमें चमगादड़ों की घटती संख्या की वजह उनके माहौल में इंसानी हस्तक्षेप है । वन भी नष्ट होते जा रहे हैं। साथ ही फसल को बचाने के लिए कीटनाशक दवाइयों का इस्तेमाल किया जाता है । इससे चमगादड़ों को खाना नहीं मिलता है । यह जहरीले कीटनाशक उन्हें मार भी सकते हैं । ***

ज्ञान विज्ञान


हिमालय भारत का मुकुट

पृथ्वी पर कुछ स्थान ऐसे मनोरम, रोमांचक ओर विस्मयकारी हैं जो हमेशा से विश्व जगत के लिए आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। उन्हीं में एक है भारत का मुकुट कहा जाने वाला हिमालय पर्वत । इस पर्वत की सुंदर श्रृंखला में एवरेस्ट की महान चोटी है, तो कई ऐसे दुर्लभ पशु पक्षी भी हैं जो दुनिया में कहीं नहीं मिलते हैं । दुनिया इस विराट पर्वत को माउंट एवरेस्ट के नाम से जानती हैं । यह नाम इसे ब्रिटिश इंडिया कंपनी के सर्वेक्षण विभाग ने उस समय के अध्यक्ष सर जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर दिया गया था । इसको पृथ्वी की सबसे ऊंचे पर्वत के रूप में पुष्टि की गई थी । नेपाल और तिब्बत की सीमाआें पर स्थित इस पर्वत की धरती से चोटी तक ऊँचाई १८५० में २६,००२ फूट यानी ८,८४० मीटर मापी गई थी । अलबत्ता १९८१ में एक सेटेलाइट ट्रांजिट सर्वे ने साथ ही के माऊंट गॉडविन आस्टेन जिसे के२ के नाम से भी जाना जाता है, पर गए एक अमेरिकी अभियान के साथ मिलकर यह निष्कर्ष निकाला कि के२ चोटी जिसे काफी लंबे समय से विश्व की दूसरी सबसे ऊंची चोटी के रूप में जाना ताजा है । दरअसल २६,२२८ फूट यानी ८,९९० मीटर ऊंची है।, जिससे यह एवरेस्ट से भी ऊंची चोटी बन जाती है । १९८१ में किया गया अध्ययन उस समय संभवत: अधिक सटीक अध्ययन हो । जिनमें लेजर रेंज फाइडर्स और पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे उपग्रहों का प्रयोग किया गया था । लेकिन ज्यादातर इस नई खोज से सहमत नहीं थे और एवरेस्ट को ही विश्व की सबसे ऊंची पर्वत चोटी मानते हैं । अधिकतर स्रोतों ने जिनमें १९९४ की ऑक्सफोर्ड एनसाईक्लोपेडिक वर्ल्ड एटलस भी शामिल है, मे एवरेस्ट की ऊंचाई २९,०२९ फुट यानी ८,८४८ मीटर बताई और के२ की २८,२५१ फुट यानी, ८,६११ मीटर । इस दौरान १९९४ की गिनीज बुक ऑफ रिकार्डस ने रिसर्च कांउसिल ऑफ रोम की १९८७ की व्यवस्था के हवाले से एवरेस्ट की ऊंचाई २९,०७८ फुट यानी ८,८६३ मीटर और के२ की २८,२३८ फुट यानी ८,६०७ मीटर बताई । काफी लंबे समय तक यह समझा जाता रहा था कि इस चोटी पर चढ़ना असंभव है। इस पर चढ़ने की इच्छा रखने वाले कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी । इससे इस पर्वत पर चढ़ने की संभावना लोगों को सचमुच असंभव लगने लगी । लेकिन अंतत: इस पर चढ़ाई का पहला सफल प्रयास काफी कठिनाईयों के बाद सफल हुआ । पहली बार २९ मई १९५३ की न्यूजीलैंड के एडमंड हिलेरी और उनके शेरपा सहयोगी तेनजिंग नोर्गेइस पर विजय प्राप्त् करने में सफल
रहे । तब से एवरेस्ट की चोटी नापने में कुछ लोग दुनिया के इस अद्भुत शिखर पर अपनी कामयाबी का झंडा फहराने मेंकामयाब रहे । आंग रिता नामक शेरपा
ने बिना आक्सीजन साथ लिए १९८३ से १९९२ के दौरान सात बार एवेरेस्ट पर विजय प्राप्त् करने का रिकार्ड उनके नाम किया
है । इस चोटी पर पहुंचने वाली प्रथम महिला जापान की जुन्को ताबे थीं। यह १९७५ में इस पर चढ़ीं । सारा सफर अकेले तय कर इस पर चढ़ने वाले पहले पर्वतारोही थे इटली के रेनहोल्ड मेसनर, जो १९८० में इस चोटी पर पहुंचे । वैज्ञानिकांे के मुताबिक लगभग ७ करोड़ वर्ष पहले यह विशाल पर्वत समुद्र के नीचे था । परन्तु पृथ्वी की पपड़ी की प्लेट्स ने इसे एक पर्वत श्रंृखला बनाने के लिए ऊपर उठा दिया जो अब भी बढ़ रही है । एवरेस्ट की नवीनतम अधिकारिक ऊंचाई २९,०३५ फुट यानी ८,८५० मीटर है ।

ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही कास्मिक किरणें

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो के पूर्व प्रमुख एवं प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी डॉ.यूआर राव ने जलवायु परिवर्तन के लिए कार्बन उत्सर्जन से ज्यादा ब्रह्मांड से आने वाली अंतरिक्ष की किरणोंकी तीव्रता की कमी को जिम्मेदार बताकर जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल आईपीसीसी की रिपोर्ट को चुनौती दे दी है ।
डॉ.राय के पत्र के अनुसार पिछले डैढ़ सौ वर्षोंा में सौर गतिविधियों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, जिससे अंतरिक्ष की किरणों की तीव्रता में नो प्रतिशत की कमी आई है । इस कमी के कारण धरती के ऊपर आच्छादित बादलोंकी गहनता भी कम हो गई , जिससे उष्मा अंतरिक्ष में वापस जाने की बजाय धरती पर ही अवशोषित ही रही
है ।
इस प्रक्रिया के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है, जिससे जलवायु में परिवर्तन हो रहा है । यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसके लिए मनुष्य कही से भी जिम्मेदार नहींहै । जलवायु परिवर्तन पर अंतरिक्ष की किरणों के असर का पहले भी अध्ययन किया जा चुका है । लेकिन प्रोफेसर राव के पत्र मेंइसके प्रभाव का प्रतिशत पहले से ज्यादा बताया गया है ।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में कार्बन उत्सर्जन समेत सभी मानव गतिविधियों का ग्लोबल वार्मिंग पर असर में योगदान जहां दशमलव ६ वाट प्रति वर्गमीटर तथा सूर्य की
किरणों तथा अन्य कारकों का कुल योगदान
१.१२ वाट प्रति वर्गमीटर बताया गया है, वहीं डॉ.राव के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग पर अंतरिक्ष की किरणों के प्रभाव का योगदान १.१ वाट प्रति वर्ग मीटर है, जिससे गैरमानवीय गतिविधियों के कारकों का योगदान १.१२२ है ।
डॉ.राव के पत्र के अनुसार वातावरण में सीओटू का उत्सर्जन बढ़ने से ग्लोबल वार्मिंग पर उतना अधिक असर नहीं पड़ेगा, जितना कि आईपीसीसी ने दावा किया था । ग्लोबल वार्मिंग के कारण ०.७५ डिग्री सैल्सियस तापमान में सीओटू की वृद्धि का योगदान मात्र ०.४२ डिग्री होगा । शेष तापमान में बढ़ोतरी का कारण अंतरिक्ष की किरणों में तीव्रता में कमी होगी ।

भारतीय वैज्ञानिक खोजेंगे डी.एन.ए. का रहस्य

भारतीय वैज्ञानिकों की वैश्विक स्तर पर धाक, पहचान और पूछताछ बढ़ती जा रही है । यही कारण है कि योरपीय अनुसंधान परिषद (ईआरसी) ने भारतीय वैज्ञानिक डॉ.रमेश पिल्लई को एक अनुसंधान परियोजना के लिए ६करोड़ रूपये का अवार्ड दिया है ।
न्यूज चैनल सीएनएन-आईबीएन के अनुसार थिरूवनंतपुरंम में महात्मा गाँधी कॉलेज और आईआईटी रूड़की के छात्रडॉ.पिल्लई फ्रांस की एक लैब मेंअगले पाँच सालों तक मानव डीएनए के रहस्यों पर अनुसंधान करेंगे । साधारण शब्दों में डीएनए सूचनाआें का वह भंडार होता है , जो हमें अपने माता-पिता से हस्तांतरित होता हे । इनमें कोशिकाएँ होती है जो डीएनए से सूचनाआें के प्रवाह को नियंत्रित करती हैं ।
डॉ.पिल्लई ने कहा कि हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि कोशिकाएँ किस तरह डीएनए के भीतर जेनेटिक सूचनाआें के प्रवाह को नियंत्रित करती हैं । डॉ.पिल्लई के अनुसार इससे हमें शायद कृत्रिम अणु बनाने में मदद मिले ।
अभी तक सिर्फ चार भारतीयों को
ही योरपीय अनुसंधान परिषद से अनुसंधान का इस तरह अवार्ड मिला है । हालाँकि परिषद पूरी दुनिया में १६०० अनुसंधानकर्ताआें को धन मुहैया कराती हैं । डॉ. पिल्लई का परिवार बहुत खुश है । उनके लिए यह जैकपॉट है । डॉ.पिल्लई को पीएचडी के बाद १२ साल की मेहनत का फल अब जाकर मिला है । डॉ.पिल्लई ने स्वीकार किया कि अमेरिका वैज्ञानिकों और अनुसंधान छात्रों का एक बड़ा केन्द्र है ।

अफ्रीकी गेंडों को शिकारियों से खतरा

हाथियों और बाघ के अवैध शिकार के कारण बदनाम हो चुके चीन का नाम अब अफ्रीकी महाद्वीप में गेंडे के शिकार में भी आ रहा है । यहां कई और निर्माण स्थलों पर चीनी मौजूदगी के बाद यह खतरा और बढ़ जाता है ।
आशंका है कि गेंडे के संरक्षण के लिए पिछले तीन दशक में जो मेहनत की गई है, हेलिकॉप्टरों, नाइट गॉगल और साइलेंसर वाली राइफलों के सहारे चीनी शिकारी उस पर पानी फेर देंगे । वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के आंकड़ों के मुताबिक अफ्रीकी महाद्वीप में गेंड़ों का
अवैध शिकार पिछलेे डेढ़ दशक में सबसे गंभीर स्तर पर पहुंच चुका है । दक्षिण अफ्रीका में सफेद गेंडों का कुछ संख्या मेंशिकार मान्यता प्राप्त् है, लेकिन पिछले साल यहां ३३३ गेंडे मारे गए, जिनमें १० तो विलुप्त्प्राय काले गेंडे थे । वर्ष २००९ में यहां १२२ गेंडे मारे गए थे और ताजा आंकड़े इस संख्या मेंतकरीबन तीन गुना इजाफे को जाहिर कर रहे हैं। पिछले एक साल में दक्षिण अफ्रीका में गेंडों के मारे जाने की घटनाआें में १७३ फीसदी का इजाफा देखा गया है ।
***

सामाजिक पर्यावरण


अच्छा भोजन अमीरों की बपौती नहीं
डॉ.वंदना शिवा

भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम अनेक विरोधाभासों से ग्रसित है । आम व्यक्ति के भोजन को बहुराष्ट्रीय या देशी कंपनियोंको सौंपने से स्थितियां और भी बिगड़ेगी और देश के समक्ष ऐसा संकट खड़ा हो सकता है जिससे कि हमारी सार्वभौमिकता को ही चोट पहुंच सकती है ।
भारत के भूख की राजधानी के रूप में उभरने को इस तथ्य से सत्यापित किया जा सकता है कि यहां प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग जो सन् १९९१ में १७८ किलो या वह २००३ में घटकर १५५ किलो रह गया है । इतना ही नहीं पिछले १७ वर्षोंा में सबसे निचले स्तर पर रहने वाली २५ प्रतिशत आबादी के दैनिक उपभोग में भी कमी आई है । अतएव खाद्य असुरक्षा को समाप्त् करने की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम राष्ट्रीय आपदा को टालने की दिशा में उठाया गया कदम साबित होगा ।
हमारे यहां घरों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक खाद्य सुरक्षा को लेकर सर्वाधिक शोचनीय तथ्य है खाद्य उत्पादन और खाद्य उत्पादक की अनदेखी । आप व्यक्तियों को तब तक खाद्यान्न उपलब्ध नहीं करवा सकते जब तक कि आपे सर्वप्रथम यह सुनिश्चित नहीं कर लिया हो कि हम पर्याप्त् मात्रा में खाद्यान्न उत्पादकों (किसानों) की जीविका सुरक्षित हो । इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि किसानों द्वारा खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार ही खाद्य सुरक्षा का आधार है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह विचार खाद्यान्न सार्वभौमिकता के अधिकार के रूप में उभरा है ।
खाद्यान्न सार्वभौमिकता का विचार सामाजिक आर्थिक मानवाधिकार से लिया गया है जिसमें भोजन का अधिकार और ग्रामीण समुदाय के लिए भोजन के उत्पादन का अधिकार भी शामिल है । पीटर रोजर ने इस संबंध में मंथली रिव्यु के अपने लेख में लिखा है खाद्य सार्वभौमिकता का तर्क है कि राष्ट्र के नागरिकों को भोजन उपलब्ध करवाना राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है । अगर किसी देश की जनसंख्या अपने अगले समय के भोजन के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था की सनक या भावोंमें उतार-चढ़ाव या लम्बे समुद्री मार्ग से आने की अनिश्चितता और अत्यधिक लागत पर निर्भर है तो वह देश न तो राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से और न ही खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से सुरक्षित है ।
इस तरह से खाद्य सार्वभौमिकता का विचार खाद्य सुरक्षा के विचार से काफी अलग हैं क्योंकि खाद्य सुरक्षा इस बारे में मौन है कि भोजन कहा से आता है या उसका उत्पादन किस प्रकार किया जाता है । वास्तविक सार्वभौमिकता पाने के लिए आवश्यक है कि ग्रामीणों की पहुंच उपजाऊ भूमि तक हो और उन्हें उनकी फसल का इतना दाम मिले की वे राष्ट्र के लोगों की क्षुधापूर्ति करते हुए स्वयं भी बेहतर जीवन जी सकें । भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर की जा रही वर्तमान पहले में भी खाद्य सुरक्षा के निम्न दो पहलुआें तो कमोवेश लुप्त् हो गए
हैं । पहला पहलु है खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार और दूसरा है राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा । ये दोनों की पहलू खाद्यान्न सार्वभौमिकता से संबंधित है ।
कोई भी देश जो खाद्यान्न उत्पादन की अनदेखी करता है वह अपनी वास्तविक खाद्य सुरक्षा को भी खतरे में डालता है । भारत में यह खतरा और भी बढ़ जाता है क्योंेकि हमारी दो तिहाई आबादी कृषि और खाद्यान्न उत्पादन में लगी हुई है । १२० करोड़ की जनसंख्या वाले हमारे देश को छोटे किसान पारम्परिक रूप से खाद्य सुरक्षा उपलब्ध करवाते रहे हैं । इसके बावजूद आज वे स्वयं संकट में हैं । कृषि संकट का सामना कर रहे देश का सबसे त्रासदायी पक्ष यह है कि पिछले एक दशक में २ लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अगर हमारे खाद्यान्न उत्पादक ही जिंदा नहीं बचेंगे तो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा ही कहां बचेगी ?
यह भी एक वैश्विक तथ्य है कि विश्व के भूखे लोगों में आधे वे हैं जो स्वयं खाद्यान्न के उत्पादक हैं । इस स्थिति को सीधे- सीधे पूंजी और रसायन प्रणाली जिसे हरित क्रांति ने प्रारंभ किया था, से जोड़ा जा सकता है । अत्यधिक लागत की वजह से किसान का कर्जे में पड़ना अनिवार्य हो जाता है और कर्जे के बोझ से दबे किसान को ऋण अदायगी के लिए अपने उत्पादन को हर हाल में बेचना ही पड़ता है । इसी से किसानों में व्याप्त् वरोधाभास और बेचारगी सामने आती है । किसानों की आत्महत्या भी अत्यधिक लागत के कारण होने वाली ऋणग्रस्तता का परिणाम ही है ।
किसाना समुदाय की भूख समाप्त् करने का तरीका यह है कि कृषि की ओर पुन: मुडा जाए । साथ ही हमें इस भ्रामक विचार से बाहर भी आना होगा कि छोटे किसानों द्वारा और टिकाऊ (सुस्थिर) प्रणाली से पर्याप्त् उत्पादन नहीं होता । भारत और विश्व के अन्य हिस्सों के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी कृषि जोतों (फार्म्स) के बजाए छोटे किसान अधिक उत्पादन करते हैं और रासायनिक एकल फसल के मुकाबले जैव विविधता वाले जैविक खेतों में अधिक खाद्यान्न पैदा होता है ।
ग्रामीणों की खाद्य सार्वभौमिकता से ही ग्रामीण समुदायों और जिन्हें वे भोजन उपलब्ध करवाते हैं, उनकी भूख नष्ट हो सकती है । भूख और कुपोषण का सामना कर रहे देश के लिए कारपोरेट खेती का ठेका खेती कमोवेश झूठे सामाधान हैं । वैसे भी कारपोरेट जगत खाद्य प्रसंस्करण का कार्य पहले ही हथिया चुका है और अब यह मध्यान्ह भोजन जैसे खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमोंें का अधिग्रहण भी कर लेना चाहता है । इन व्यापक कमियों के अलावा भी प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रह से ग्रस्त है । उदाहरण के लिए यदि सरकारी नीतियों को देखें तो हमें साफ नजर आता है कि उनका झुकाव कारपोरेट की ओर ही है । इसी झुकाव के तहत ही वर्तमान प्रणाली के स्थान पर खाद्य टिकट/वाउचर प्रक्रिया प्रस्तावित की जा रही है । ऐसा इस कल्पित आधार पर किया जा रहा है कि ये नियम खाद्य आपूर्ति को नियंत्रित करेंगे और सरकार गरीबों को इन नियमों से खाद्य टिकट और वाउचर के आधार पर खाद्यान्न खरीदने में सहायता करेगी । अगर ऐसा हो जाता है तो गरीबों के हिस्से में न्यूनतम पोषण वाला एवं अस्वास्थ्य भोजन आएगा जैसा कि अमेरिका जैसे देशों में पहले से ही हो रहा है ।
एक ऐसी खाद्य सुरक्षा प्रणाली जिसमेंें न तो खाद्य सार्वभौमिकता और न ही सार्वजनिक खाद्य प्रणाली बनाने का प्रयास किया गया हो, वह गरीब व्यक्तियोंें को ऐसा ही भोजन उपलब्ध कराएगी जो कि मनुष्यों के खाने के लिए अनुपयुक्त हो । ऐसा दो वर्ष पूर्व हो चुका है जब भारत ने कीटनाशकों से प्रदूषित गेहूँ का आयात किया था । चेन्नई बंदरगाह प्राधिकरण एवं महाराष्ट्र सरकार दोनों ने ही इसे मानव के उपभोग के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया था । वर्तमान प्रतिमान भी इसी आधार पर दिया गया था । वर्तमान प्रतिमान भी इसी आधार पर बनाए गए है कि गरीब खराब भोजन खा सकते हैं और अच्छा भोजन तो सिर्फ अमीरों के लिए है ।
जबकि खाद्य सुरक्षा में सुरक्षित, स्वास्थ्यकर, सांस्कृतिक रूप से उचित एवं आर्थिक रूप से सक्षम खाद्यान्न के अधिकार को सम्मिलित किया गया है लेकिन खाद्य टिकट इसकी ग्यारंटी नही ंदे सकते । इतना ही नहीं वर्तमान में प्रचलित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) भी कोई एक तरफा प्रणाली नहीं है । इसके अंतर्गत खाद्यान्नों का सरकारी खरीदी और खाद्यान्न वितरण प्रणाली दोनों ही आते हैं । इसे खाद्य वाउचर से बदलने से किसानों की खाद्य सार्वभौमिकता नष्ट होगी और ये बाजार की सनक के शिकार हो जाएगें जिससे कि अंतत: उनकी जीविका ही नष्ट हो जाएगी ।
इससे ६५ करोड़ ग्रामीणों के सामने विस्थापन का संकट खड़ा हो जाएगा और इन भूखे व्यक्तियोंें से भूख की ऐसी समस्या उठ खड़ी होगी जिसका समाधान कोई भी सरकार या बाजार नहीं कर
सकता । इसीलिए यदि हमें अपनी खाद्य सुरक्षा को मजबूत व सुरक्षित बनाना है तो हमें हर हाल में अपनी खाद्य सार्वभौमिकता और सार्वजनिक प्रणाली को मजबूत बनाना होगा । प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम इस मायने में भारत के संविधान के विरोध दिखाई देता है क्योंकि इसका कहना है एक केंद्रीय इकाई गरीबों की पहचान करेगी । अच्छे और प्रत्येक खेतों में प्रचुर मा भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम अनेक विरोधाभासों से ग्रसित है । आम व्यक्ति के भोजन को बहुराष्ट्रीय या देशी कंपनियोंको सौंपने से स्थितियां और भी बिगड़ेगी और देश के समक्ष ऐसा संकट खड़ा हो सकता है जिससे कि हमारी सार्वभौमिकता को ही चोट पहुंच सकती है ।
भारत के भूख की राजधानी के रूप में उभरने को इस तथ्य से सत्यापित किया जा सकता है कि यहां प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग जो सन् १९९१ में १७८ किलो या वह २००३ में घटकर १५५ किलो रह गया है । इतना ही नहीं पिछले १७ वर्षोंा में सबसे निचले स्तर पर रहने वाली २५ प्रतिशत आबादी के दैनिक उपभोग में भी कमी आई है । अतएव खाद्य असुरक्षा को समाप्त् करने की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम राष्ट्रीय आपदा को टालने की दिशा में उठाया गया कदम साबित होगा ।
हमारे यहां घरों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक खाद्य सुरक्षा को लेकर सर्वाधिक शोचनीय तथ्य है खाद्य उत्पादन और खाद्य उत्पादक की अनदेखी । आप व्यक्तियों को तब तक खाद्यान्न उपलब्ध नहीं करवा सकते जब तक कि आपे सर्वप्रथम यह सुनिश्चित नहीं कर लिया हो कि हम पर्याप्त् मात्रा में खाद्यान्न उत्पादकों (किसानों) की जीविका सुरक्षित हो । इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि किसानों द्वारा खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार ही खाद्य सुरक्षा का आधार है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह विचार खाद्यान्न सार्वभौमिकता के अधिकार के रूप में उभरा है ।
खाद्यान्न सार्वभौमिकता का विचार सामाजिक आर्थिक मानवाधिकार से लिया गया है जिसमें भोजन का अधिकार और ग्रामीण समुदाय के लिए भोजन के उत्पादन का अधिकार भी शामिल है । पीटर रोजर ने इस संबंध में मंथली रिव्यु के अपने लेख में लिखा है खाद्य सार्वभौमिकता का तर्क है कि राष्ट्र के नागरिकों को भोजन उपलब्ध करवाना राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है । अगर किसी देश की जनसंख्या अपने अगले समय के भोजन के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था की सनक या भावोंमें उतार-चढ़ाव या लम्बे समुद्री मार्ग से आने की अनिश्चितता और अत्यधिक लागत पर निर्भर है तो वह देश न तो राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से और न ही खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से सुरक्षित है ।
इस तरह से खाद्य सार्वभौमिकता का विचार खाद्य सुरक्षा के विचार से काफी अलग हैं क्योंकि खाद्य सुरक्षा इस बारे में मौन है कि भोजन कहा से आता है या उसका उत्पादन किस प्रकार किया जाता है । वास्तविक सार्वभौमिकता पाने के लिए आवश्यक है कि ग्रामीणों की पहुंच उपजाऊ भूमि तक हो और उन्हें उनकी फसल का इतना दाम मिले की वे राष्ट्र के लोगों की क्षुधापूर्ति करते हुए स्वयं भी बेहतर जीवन जी सकें । भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर की जा रही वर्तमान पहले में भी खाद्य सुरक्षा के निम्न दो पहलुआें तो कमोवेश लुप्त् हो गए
हैं । पहला पहलु है खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार और दूसरा है राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा । ये दोनों की पहलू खाद्यान्न सार्वभौमिकता से संबंधित है ।
कोई भी देश जो खाद्यान्न उत्पादन की अनदेखी करता है वह अपनी वास्तविक खाद्य सुरक्षा को भी खतरे में डालता है । भारत में यह खतरा और भी बढ़ जाता है क्योंेकि हमारी दो तिहाई आबादी कृषि और खाद्यान्न उत्पादन में लगी हुई है । १२० करोड़ की जनसंख्या वाले हमारे देश को छोटे किसान पारम्परिक रूप से खाद्य सुरक्षा उपलब्ध करवाते रहे हैं । इसके बावजूद आज वे स्वयं संकट में हैं । कृषि संकट का सामना कर रहे देश का सबसे त्रासदायी पक्ष यह है कि पिछले एक दशक में २ लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अगर हमारे खाद्यान्न उत्पादक ही जिंदा नहीं बचेंगे तो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा ही कहां बचेगी ?
यह भी एक वैश्विक तथ्य है कि विश्व के भूखे लोगों में आधे वे हैं जो स्वयं खाद्यान्न के उत्पादक हैं । इस स्थिति को सीधे- सीधे पूंजी और रसायन प्रणाली जिसे हरित क्रांति ने प्रारंभ किया था, से जोड़ा जा सकता है । अत्यधिक लागत की वजह से किसान का कर्जे में पड़ना अनिवार्य हो जाता है और कर्जे के बोझ से दबे किसान को ऋण अदायगी के लिए अपने उत्पादन को हर हाल में बेचना ही पड़ता है । इसी से किसानों में व्याप्त् वरोधाभास और बेचारगी सामने आती है । किसानों की आत्महत्या भी अत्यधिक लागत के कारण होने वाली ऋणग्रस्तता का परिणाम ही है ।
किसाना समुदाय की भूख समाप्त् करने का तरीका यह है कि कृषि की ओर पुन: मुडा जाए । साथ ही हमें इस भ्रामक विचार से बाहर भी आना होगा कि छोटे किसानों द्वारा और टिकाऊ (सुस्थिर) प्रणाली से पर्याप्त् उत्पादन नहीं होता । भारत और विश्व के अन्य हिस्सों के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी कृषि जोतों (फार्म्स) के बजाए छोटे किसान अधिक उत्पादन करते हैं और रासायनिक एकल फसल के मुकाबले जैव विविधता वाले जैविक खेतों में अधिक खाद्यान्न पैदा होता है ।
ग्रामीणों की खाद्य सार्वभौमिकता से ही ग्रामीण समुदायों और जिन्हें वे भोजन उपलब्ध करवाते हैं, उनकी भूख नष्ट हो सकती है । भूख और कुपोषण का सामना कर रहे देश के लिए कारपोरेट खेती का ठेका खेती कमोवेश झूठे सामाधान हैं । वैसे भी कारपोरेट जगत खाद्य प्रसंस्करण का कार्य पहले ही हथिया चुका है और अब यह मध्यान्ह भोजन जैसे खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमोंें का अधिग्रहण भी कर लेना चाहता है । इन व्यापक कमियों के अलावा भी प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रह से ग्रस्त है । उदाहरण के लिए यदि सरकारी नीतियों को देखें तो हमें साफ नजर आता है कि उनका झुकाव कारपोरेट की ओर ही है । इसी झुकाव के तहत ही वर्तमान प्रणाली के स्थान पर खाद्य टिकट/वाउचर प्रक्रिया प्रस्तावित की जा रही है । ऐसा इस कल्पित आधार पर किया जा रहा है कि ये नियम खाद्य आपूर्ति को नियंत्रित करेंगे और सरकार गरीबों को इन नियमों से खाद्य टिकट और वाउचर के आधार पर खाद्यान्न खरीदने में सहायता करेगी । अगर ऐसा हो जाता है तो गरीबों के हिस्से में न्यूनतम पोषण वाला एवं अस्वास्थ्य भोजन आएगा जैसा कि अमेरिका जैसे देशों में पहले से ही हो रहा है ।
एक ऐसी खाद्य सुरक्षा प्रणाली जिसमेंें न तो खाद्य सार्वभौमिकता और न ही सार्वजनिक खाद्य प्रणाली बनाने का प्रयास किया गया हो, वह गरीब व्यक्तियोंें को ऐसा ही भोजन उपलब्ध कराएगी जो कि मनुष्यों के खाने के लिए अनुपयुक्त हो । ऐसा दो वर्ष पूर्व हो चुका है जब भारत ने कीटनाशकों से प्रदूषित गेहूँ का आयात किया था । चेन्नई बंदरगाह प्राधिकरण एवं महाराष्ट्र सरकार दोनों ने ही इसे मानव के उपभोग के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया था । वर्तमान प्रतिमान भी इसी आधार पर दिया गया था । वर्तमान प्रतिमान भी इसी आधार पर बनाए गए है कि गरीब खराब भोजन खा सकते हैं और अच्छा भोजन तो सिर्फ अमीरों के लिए है ।
जबकि खाद्य सुरक्षा में सुरक्षित, स्वास्थ्यकर, सांस्कृतिक रूप से उचित एवं आर्थिक रूप से सक्षम खाद्यान्न के अधिकार को सम्मिलित किया गया है लेकिन खाद्य टिकट इसकी ग्यारंटी नही ंदे सकते । इतना ही नहीं वर्तमान में प्रचलित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) भी कोई एक तरफा प्रणाली नहीं है । इसके अंतर्गत खाद्यान्नों का सरकारी खरीदी और खाद्यान्न वितरण प्रणाली दोनों ही आते हैं । इसे खाद्य वाउचर से बदलने से किसानों की खाद्य सार्वभौमिकता नष्ट होगी और ये बाजार की सनक के शिकार हो जाएगें जिससे कि अंतत: उनकी जीविका ही नष्ट हो जाएगी ।
इससे ६५ करोड़ ग्रामीणों के सामने विस्थापन का संकट खड़ा हो जाएगा और इन भूखे व्यक्तियोंें से भूख की ऐसी समस्या उठ खड़ी होगी जिसका समाधान कोई भी सरकार या बाजार नहीं कर
सकता । इसीलिए यदि हमें अपनी खाद्य सुरक्षा को मजबूत व सुरक्षित बनाना है तो हमें हर हाल में अपनी खाद्य सार्वभौमिकता और सार्वजनिक प्रणाली को मजबूत बनाना होगा । प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम इस मायने में भारत के संविधान के विरोध दिखाई देता है क्योंकि इसका कहना है एक केंद्रीय इकाई गरीबों की पहचान करेगी । अच्छे और प्रत्येक खेतों में प्रचुर मात्रा में उत्पादन और उसकी प्रत्येक रसोई तक पहंुचने की सुनिश्चितता की कुंजी विकेंद्रीकरण में निहित हैं । केंद्रीकरण और कारपोरेट द्वारा खाद्यान्नों का अपहरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । वहीं विकेंद्रीकरण और खाद्य सार्वभौमिकता भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
***उत्पादन और उसकी प्रत्येक रसोई तक पहंुचने की सुनिश्चितता की कुंजी विकेंद्रीकरण में निहित हैं । केंद्रीकरण और कारपोरेट द्वारा खाद्यान्नों का अपहरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । वहीं विकेंद्रीकरण और खाद्य सार्वभौमिकता भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
***

कृषि जगत

जलवायु परिवर्तन और भारतीय कृषि
डॉ.रामनिवास यादव

वर्तमान विश्व में बढ़ते औद्योगिकरण एवं बढ़ते वाहनों की संख्या से ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में इजाफा हुआ है । बढ़ती ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाआें ने समस्त विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है । विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार वर्ष २००९ इतिहास का पांचवा सबसे गर्म वर्ष रहा । गर्माति धरती का सबसे ज्यादा प्रभाव कृषि क्षेत्र पर पड़ रहा है ।
भारत के संदर्भ में यह चेतावनी इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला कृषि है । डेनमार्क की राजधानी कोपेहेगन मेंदिसम्बर २००९ में आयोजित सम्मेलन में ग्लोबल क्लामेट रिस्क इन्डेक्स २०१० द्वारा जारी सूची में भारत उन प्रथम १० देशों में है जो जलवायु परितर्वन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे ।
एक अध्ययन के अनुसार सन् २०५० तक शीतकाल का तापमान लगभग ३से ४ डिग्री तक बढ़ सकता है । इससे मानसूनी वर्षा में १० से २० प्रतिशत तक की कमी होने का अनुमान है । वर्षा की मात्रा के परिवर्तन होने से फसलों की उत्पादकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । जलवायु में होने वाला परिवर्तन हमारी राष्ट्रीय आय को प्रभावित कर रहा है । राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा पिछले तीन सालों मे १.५ प्रतिशत तक कम हुआ है । २००९ का वर्ष हमारे लिए एक चेतावनी भरा वर्ष रहा है । इस वर्ष २३ से २५ प्रतिशत तक वर्षा कम हुई जिससे देश के बहुत से भागों में खड़ी फसलें सूख गई जिससे न केवलखाद्यान्नों का उत्पादन कम हुआ बल्कि उनकी कीमतों में भी तेजी से वृद्धि हुई । एक अनुमान के अनुसार २००९ में सूखे की वजह से २०००० करोड़ रूपये के खाद्यान्नों का नुकसान हुआ है ।
कोपेनहेगन में आयोजित सम्मेलन में कृषि वैज्ञानिक डॉ.एम.एस. स्वामीनाथन ने भारतीय कृषि पर जलवायु परितर्वन के पड़ने वाले प्रभावों के बारे में कहा कि इससे लगभग ६४ प्रतिशत लोगों पर प्रभाव पड़ेगा जिनके जीवनयापन का साधन कृषि है और सबसे बड़ा डर खाद्य सुरक्षा को लेकर है । कृषि एवं जलवायु परिवर्तन सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव सर्वहारा वर्ग पर पड़ रहा है जिनकी कुल आय का ५० प्रशित से भी ज्यादा हिस्सा अन्न, जल एवं स्वास्थ्य सम्बन्धित मदोंपर खर्च होता है । ऐसा अनुमान है कि सूखे के कारण खरीफ की मुख्य फसलोंचावल व दलहन तथा तिलहन में २० प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। देश में खाद्य उत्पादन में ५ प्रतिशत कमी की संभावना जी.डी.पी. को एक प्रतिशत तक प्रभावित करेगी । वर्ष २००९ में मानसून के समय में बदलाव की वजह से ५१प्रतिशत तक कृषि भूमि प्रभावित हुई है । तापमान के बढ़ने से रबी की फसलों के पकने का समय आया है तापमान मेंतीव्र वृद्धि से फसलों में एकदम बालियां आ गई जिससे गेहूँ व चने की फसलों के दाने बहुत पतले हो गए व उत्पादकता घट गई । प्रो.स्वामीनाथन ने कहा है कि तापमान में १० सैल्सियस की वृद्धि से भारत में ७० लाख टन गेहूँ के उत्पादन मे कमी आएगी ।
एक अध्ययन अनुसार यदि तापमान में १ से ४ डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो खाद्य पदार्थोंा के उत्पादन में २५ से ३० प्रतिशत तक की कमी आ सकती है । भारत में चावल के उत्पादन में तापमान बढ़ने से २०२० तक ६ से ७ प्रतिशत की कमी होगी जबकि गेहूँ के उत्पादन में २०२० तक ५ से ६ प्रतिशत, आलु के उत्पादन में २०२० तक तीन प्रतिशत तथा सोयाबीन के उत्पादन में ३ से ४ प्रतिशत की कमी होने का अनुमान है । जबकि भारत देश की जनसंख्या बढ़ने से सभी खाद्य पदार्थोंा की मांग में वृद्धि होगी परिणाम स्वरूप खाद्य संकट हमारे सामने एक भयंकर समस्या होगी । जलवायु परिवर्तन से न केवल फसलों की उत्पादकता प्रभावित होगी बल्कि उनकी पोष्टिकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । फल एवं सब्जियों वाली फसलों में फूल तो खिलेंगे लेकिन उनसे फल या तो बहुत कम बनेंगे या उनकी पोष्टिकता प्रभावित होगी । भारत देश का विश्व प्रसिद्ध चावल बासमती भी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बच नहीं पाएगा तापमान वृद्धि से इसकी खुशबू प्रभावित होगी ।
तापमान वृद्धि से समुद्रों का जलस्तर बढ़ जाएगा जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोगों की आजीविका प्रभावित होगी । जल स्तर बढ़ने से लोगों के खेतों व घरों को समुद्र निगल जाएगा, भूमि क्षारीय हो जाएगी व कृषि योग्य नहीं रहेगी । तापमान बढ़ने से हिमालय के हिमनद प्रतिवर्ष ३० मीटर की दर से घटने लगेगी जिससे उत्तर भारत के राज्यों में खेती के लिए पानी का अप्रत्यक्ष प्रभाव कृषि उत्पादन पर पड़ रहा है तो दूसरी और अप्रत्यक्ष रूप से आय की हानि और अनाजों की बढ़ती कीमतों के रूप में समस्याएं हमारे समक्ष मूँह बाएं खड़ी हैं ।
जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि के विभिन्न पहलू निम्न प्रकार से प्रभावित हो सकते हैं -
१. जलवायु परिवर्तन का फसलों पर प्रभाव:- अध्ययनों के आधार पर कृषि वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रत्येक १० सैल्सियस तापमान बढ़ने पर गेहूँ का उत्पादन ४-५ कराड़ टन कम होता जाएगा । इसी प्रकार २० सैल्सियस तापमान बढ़ने से धान का उत्पादन ०.७५ टन प्रति हैक्टेयर कम हो जाएगा । कृषि विभाग के अनुसार गेहूँ की पैदावार का अनुमान ८२ मिलियन टन था जो अधिक तापमान की वजह से घटकर ८१ टन मिलियन टन रह जायेगा । जलवायु परिवर्तन से फसलों की उत्पादकता ही प्रभावित नहीं होगी वरन् उनकी गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा । अनाज में पोषक तत्वों और प्रोटिन की कमी पाई जाएगी जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर भी मनुष्यों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ।
२. जलवायु परिवर्तन का मृदा पर प्रभाव:- भारत जैसे कृषि प्रदान देश के लिए मिट्टी की संरचना व उसकी उत्पादकता अहम स्थान रखती है। तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी और कार्यक्षमता प्रभावित होगी । मिट्टी में लवणता बढ़ेगी और जैव विविधता घटती जाएगी । बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाआें से जहाँ एक और मिट्टी का क्षरण अधिक होगा वहीं दूसरी ओर सूखे की वजह से बंजरता बढ़ जाएगी ।
३. जलवायु परिवर्तन का कीट व रोगों पर प्रभाव :- जलवायु परिवर्तन से कीट व रोगों की मात्रा बढ़ेगी । गर्म जलवायु कीट पतंगों की प्रजनन क्षमता की वृद्धि में सहायक है । कीटों में वृद्धि के साथ ही उनके नियंत्रण हेतु अतधिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाएगा जो जानवरो व मनुष्यों में अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म देगा ।
४.जलवायु परिवर्तन का जल संसाधनों पर प्रभाव :- जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव जल संसाधनों पर पड़ेगा । जल आपूर्ति की भंयकर समस्या उत्पन्न होगी तथा सूखे व बाढ़ की बारम्बारता में इजाफा होगा । अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में शुष्क मौसम अधिक लम्बा होगा जिससे फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । वर्षा की अनिश्चितता भी फसलों के उत्पादन को प्रभावित करेगी तथा जल स्रोतों के अधिक दोहन से जल स्रोतों पर संकट के बादल मंडराने लगेंगे । अधिक तापमान व वर्षा की कमी से सिंचाई हेतु भू-जल संसाधनों का अधिक दोहन किया जाएगा । जिससे धीरे-धीरे भू-जल इतना ज्यादा नीचे चला जाएगा कि उसका दोहन करना आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी सिद्ध होगा जैसा पंजाब, हरियाणा व प.उत्तरप्रदेश के बहुत से विकास खण्डोंमें हो रहा है ।
भारतीय कृषि पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावोंको कम करने के अनेक उपाय हैं जिनको अपनाकर हम कु छ हद तक जलवायु परितर्वन के प्रभावों से अपनी कृषि को बचा सकते हैं। प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं -
१. खेतों में जल प्रबंधन :- तापमान वृद्धि के साथ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है । ऐसे में जमीन में नमी का संरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना एक उपयोगी एवं सहयोगी कदम हो सकता है । वाटरशैड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा के पानी को संचित कर सिंचाई के रूप में प्रयोग कर सकते हैं ।इस से जहाँ एक ओर हमें सिंचाई की सुविधा मिलेगी वहीं दूसरी ओर भूजल पूनर्भरण में भी मदद मिलेगी ।
२. जैविक एवं समग्रित खेती :-खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहाँ एक ओर मृदा की उत्पादकता घटती है वहीं दूसरी और इनकी मात्रा भोजन श्रंृखला के माध्यम से मानव के शरीर मेंपहूँच जाती है । जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं । रासायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन मेंें भी हिजाफा होता है । अत: हमें जैविक खेती करने की तकनिकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए । एकल कृषि की बजाय हमें समग्रित कृषि करनी चाहिए । एकल कृषि में जहाँ जोखिम अधिक होता है वहीं समग्रित कृषि में जोखिम कम होता है । समग्रित खेती में अनेकों फसलों का उत्पादन किया जाता है जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त् हो जाए तो दूसरी फसल से किसान की रोजी रोटी चल सकती है ।
३. फसल उत्पादन में नई तकनिकों का विकास :- जलवायु परिवर्तन के गम्भीर दूरगामी प्रभावों को मध्यनजर रखते हुए ऐसे बीजों की किस्मों का विकास करना पड़ेगा जो नये मौसम के अनुकूल हों । हमें ऐसी किस्मांे का विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखे व बाढ़ की विभिषिकाआें को सहन करने में सक्षम हों । हमें लवणता एवं क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों को भी ईजाद करना होगा ।
४. फसली संयोजन में परिवर्तन :- जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमें फसलों के प्रारूप एवं उनके बोने के समय में भी परिवर्तन करना पड़ेगा । मिश्रित खेती व इंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता है । कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परितर्वन के खतरों से निजात पा सकते हैं ।
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भारतीय कृषि को बचाने के लिए हमें अपने संसाधनों का न्यायसंगत इस्तेमाल करना होगा व भारतीय जीवन दर्शन को अपनाकर हमें अपने पारम्परिक ज्ञान को अमल में लाना पड़ेगा । अब इस बात की सख्त जरूरत है कि हमें खेती में ऐसे पर्यावरण मित्र तरीकों को अहमियत देनी होगी जिनसे हम अपनी मृदा की उत्पादकता को बरकरार रख सकें व अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचा सकें।
***

पर्यावरण समाचार

पर्यावरण मंत्रालय ने पाउच पर प्रतिबंध लगाया

पर्यावरण और वन मंत्रालय ने गुटका, तंबाकू और पान मसाला बेचने के लिए प्लास्टिक पाउच के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया । साथ ही मंत्रालय ने खाद्य पदार्थोंा की पैकेजिंग के लिए भी रीसायकल प्लास्टिक के उपयोग पर रोक लगाई है ।
हाई कोर्ट ने दिसंबर में कहा था कि मार्च २०११में गुटका, पान मसाला तथा अन्य तंबाकू उत्पादों की प्लास्टिक के पाउचों में बिक्री पुरी तरह से रोक दी
जाए । इसके बाद दो फरवरी को सुप्रीम कोर्ट कानून को अमल में लाने के लिए केन्द्र को और समय देने से इंकार कर दिया था । शीर्ष अदालत ने केन्द्र से कहा कि वह नए नियमोंको दो दिन के भीतर अधिसूचित करें। इसके मद्देनजर पर्यावरण और वन मंत्रालय ने रीसाइकल प्लास्टिक निर्माण और उपयोग नियम १९९९ को निष्प्रभावी करते हुए प्लास्टिक कचरा नियम २०११ को अधिसूचित कर दिया ।
नई अधिसूचना के तहत गुटका, तंबाकू और पान मसाला की पाउच में भरने, पेक करने तथा बेचने के लिए प्लास्टिक के इस्तेमाल को प्रतिबंधित किया गया है ।अब खाद्य पदार्थोंा की पैकेजिंग के लिए भी एक बार इस्तेमाल हो चुके प्लास्टिक या कम्पोस्टेबल प्लास्टिक के दोबारा उपयोग की इजाजत नहींदी जाएगी।
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वीकार किया है कि प्लास्टिक पर पूरी तरह से प्रतिबंध फिलहाल संभव नहीं है । नए नियम कहते हैं कि सामान भरने के लिए थैलियों के इस्तेमाल को भारतीय मानक ब्यूरो के मानदंडों के अनुरूप ही इजाजत दी जाएगी । वास्तविक चुनौती शहरोंमें ठोस अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली में सुधार की है ।
पर्यावरण मंत्रालय ने साफ तौर पर कहा है कि उपभोक्ताआें को कोई भी थैली नि:शुल्क मुहैया नहीं कराई जाए और इनके लिए नगरीय निकाय न्यूनतम राशि तय करें ।
मंत्रालय ने कहा है कि प्लास्टिक की थैलियाँ सफेद या सिर्फ उन्हीं रंगों वाली होगी जो भारतीय मानक ब्यूरो के मानकों में तय है । १९९९ की अधिसूचना के तहत प्लास्टिक की थैलियों की मोटाई कम से कम २० माइक्रोन होना जरूरी था । नई अधिसूचना में इसे ४० माइक्रोन किया है ।

पाठ्यक्रम में शामिल होगा गैस कांड

दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना में से एक २-३ की भोपाल गैस त्रासदी का दर्द अब स्कूलोंमें पढ़ाया
जाएगा । राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने आठवीं कक्षा के सामाजिक विज्ञान विषय की पुस्तक में भोपाल गैस त्रासदी को शामिल किया है । पुस्तक को नए शैक्षणिक सत्र में लागू होने की उम्मीद है ।
एनसीईआरटी के एक अधिकारी ने बताया कि भोपाल गैस त्रासदी के अध्याय वाली सामाजिक विज्ञान की इस पुस्तक को कुछ दिन पहले जारी किया गया है । पाठ्यपुस्तक मेंकानून एवं सामाजिक न्याय पाठ की पृष्ठभूमि काले रंग से है, जिसपर लाल रंग से लिखा गया है । पाठ में एक स्थान पर लिखा है, डाउ अब और कितनी मौत ? इस गेस त्रासदी के विषय में पाठ की शुरूआत में लिखा गया है, दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना में शामिल यह त्रासदी भोपाल में २४ वर्ष पहले हुई थी । शहर में अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी थी जिससे दो दिसम्बर को जहरीली मिथाइल आइसो साइनाइड (एमआईसी) गैस का रिसाव हुआ था ।
पुस्तक में उल्लेख है कि जहरीली गैस के रिवास से प्रभावित होने वाले लोगों में अधिकतर समाज के कमजोर और कामकाजी वर्ग के लोग थे । इस अध्याय में गैस से प्रभावित एक बच्ची का चित्र भी है । इस पाठ में गैस त्रासदी के २४ वर्ष बाद स्वच्छ पेयजल, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाआें के संबंध में न्याय मांग के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के अभियान का भी उल्लेख किया गया है । अध्याय मेंभोपाल में यूका की ओर से अपनाए गए सुरक्षा उपायों की अमेरिका के विभिन्न संयंत्रों में अपनाए जाने वाले मापदंडों की तुलना की गई है । इसमें पश्चिमी वर्जिनिया में स्थापित कम्यू
टरीकृत चेतावनी एवं निगरानी प्रणाली का उल्लेख किया गया है जबकि भोपाल में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं किए जाने की बात कही गई है ।

अमेरीकी रेस्त्रां परोसेगा शेर का मांस

अमेरिका में एक रेस्त्रां ऐसा भी है जहां अजगर, मरमच्छ, सांप, कंगारू और कछुए से बने व्यंजन परोसे जाते हैं । अब ये रेस्त्रां अपने मीनू में अफ्रीकी शेर से बने व्यंजन शामिल करने जा रहा है । इस रेस्त्रां का नाम है बोका टेकोस वाई टेक्विला । रेस्त्रां के प्रबंधक ब्रायन मेजन ने बताया कि यहां १६ फरवरी से शेर का मांस भी परोसा जाएगा । उन्होंेने कहा कि कुछ उत्सुक ग्राहक शेर के मांस के व्यंजन के लिए आर्डर दे चुके हैं ।
मेजन ने कहा हमने छह महीने पहले ही अपने मीनू में अजगर और सांप वगैरह के व्यंजन शामिल किए थे । हमारे यहां हर बुधवार को यह व्यंजन परोसे जाते हैं ।
स्थानीय फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन विभाग का कहना है कि इन सभी जानवरोंके मांस तब तक बेचे जा सकते हैं, जब तक ये सभी विलुप्त् जानवरों की श्रेणी में नहीं आ जाते हैं ।
***