शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

कविता

प्रकृति स्वच्छता चाहती
कृष्ण बिहारीलाल राही

प्रकृति स्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शांति सुख रम्यता चाहती सर्वदा
तन हृदय जल रहा, जिन्दगी जल रही,
चू-चू करते करोड़ों चिता जल रही ।
चिमनिय उगलती धुंआ रात दिन,
वायु मण्डल में फैली नमी जल रही ।
ब्रह्मवेला अमृत सूखता जा रहा, तत्व जीवन का जिसमें भरा था सदा
प्रकृतिस्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शांति सुख रम्यता चाही सर्वदा
हम तो दुर्गन्ध में सांस है ले रहे,
आज बहुतो को इसका नहंी ज्ञान है ।
दूषित जल पी रहे डुबकिया ले रहे,
दुख का कारण जगत में यह अज्ञान है ।
डींग हम हांकते सभ्य कहलाने को प्रदूषण से जग का यह मानव लदा ।
प्रकृति स्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शाँति सुख रम्यता चाहती सर्वदा
पावन सरिताये अपनी विषैली हुई,
मानव इनमें अर्हिनिशं जहर घोलता ।
जीवन चर्या से लेकर रहन व सहन,
अपने मनमानी ढ़ग से इन्हें पोषता ।
मन के भावों-विचारों में बदबू भरी, मानव है भूलता अब नियम कायदा
प्रकृतिस्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शांति सुख रम्यता चाहती सर्वदा
अपना विज्ञान चेतावनी दे रहा
संभलो धरती के मानव है खतरा तुम्हें।
मुक्त होना प्रदूषण से आवश्यक है,
ध्वंस होने का मिटने का खतरा तुम्हें ।
वृक्ष साथी मिटाते प्रदूषण को भी, इनको रोपे व पनपावे हो फायदा ।
प्रकृतिस्वच्छ है स्वच्छता चाहती, शांति सुख रम्यता चाहती सर्वदा

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