शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

विशेष लेख

पर्यावरण और अर्न्तराष्ट्रीय संकल्प
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

आज हमारा पर्यावरण अंर्तराष्ट्रीय संकल्पहीनता से आहत है । सभी राष्ट्र अपने अपने हित साधन और स्वार्थ में जुटे हैं । जिसका खामियाजा भुगत रही है। हमारी प्रकृति और पर्यावरण । प्रकृति ने सरहदें नहीं बनाई है किसी एक सीमा पर हवा ठिठक नही जाती है। । नदियां एक देश से दूसरे देश निर्बाध जाती हैं वह सरहदों को नहीं जानती । वह केवल बहना जानती है । सूर्य भी सारी पृथ्वी को ऊर्जा देता है । अत: प्रकृति और पर्यावरण के रखरखाव की भी साझा जिम्मेदारी सभी राष्ट्रों की है । किन्तु क्या सभी राष्ट्रों द्वारा निभाई जा रही है यह जिम्मेदारी । यही विचारणीय प्रश्न है ।
पर्यावरण विध्वंसक होने लगा
है । अपना जीवनाधार खोने लगा है । पर्यावरण की चिंता करते समय हमें वैश्विक चिंतन करना होगा । अर्न्तराष्ट्रीय संकल्पों के प्रकल्प अभी जिंदा हैं । अत: हमारे पड़ौसी मुल्क में आई प्राकृतिक आपदा हमें भी विचलित अवश्य करेगी । क्या हम पाकिस्तान में आई अप्रत्याशित बाढ़ से विचलित नहीं हुए ? क्या हमने सहायता की पेशकश नहीं की ? क्या नई सदी के प्रथम दशक में सुनामी का सामना हमने अन्य राष्ट्रों के साथ नहीं किया ? क्या हमें सबकी सहानुभूति नहीं मिली ? पर्यावरणीय संकटों का मुकाबला हम सहयोग एवं समन्वय से ही कर सकते हैं ।
अपने देश के अंदर ही राज्योंके बीच नदियों के जल बंटवारे पर परिवाद होते हैंतो विभिन्न देश भी इन विवादों से अछुते नहीं हैं । पाकिस्तान से सिंधु नदी व बांगलादेश से गंगा नदी जल विवाद होता है । अब चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने जा रहा है यह नया विवादित विषय है । अत: पर्यावरणीय मुद्दों पर विशेष सौहार्द की जरूरत है । हम सरहदों से ऊपर उठकर मानवीय होकर सोच विचार करें ।
वर्ष २०१० विगत दशक का सर्वाधिक गर्म वर्ष साबित हुआ है । ग्लोबल वॉमिंग का असर सारी दुनिया को अपनी जद में लेने जा रहा है । चीन ने पाँच दशक के सबसे बड़े सूखे का सामना किया तो भारत में कमजोर मानसून के चलते खाद्यान्न उत्पादन में भारी गिरावट दर्ज हुई । कमोबेश हर राष्ट्र आपदाआें से प्रभावित रहा । कहीं तूफान, कहीं ज्वालामुखी, कहीं चक्रवात सन् २०११ से २०१९ के मध्य भीषण गर्मी का सामना करना पड़ेगा । अमेरिकी अंतरिक्ष एजेन्सी नासा के अनुसार सन् १८९० के बाद से दुनिया भर के पाँच सबसे गर्म वर्ष हैं १९९८, २००२, २००३, २००४ और २००५ । अत: हमें पर्यावरण के विश्व व्यापी संकट के सच का सामना करना ही होगा ।
विगत कुछ दशकों में नये-नये संकल्पों के साथ अर्न्तराष्ट्रीय प्रयास हुए हैं किन्तु विविध राष्ट्रों ने अपना उत्तरदायित्व कितना निभाया ? हर किसी को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए । यह बात व्यक्तिगत स्तर, सामाजिक स्तर, राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ अर्न्तराष्ट्रीय पर भी लागु होती है ।
पर्यावरण के प्रयासों को परदेशी भी सराहते हैं । भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ.रॉवर्ट सी रिचर्ड्सन एक कार्यक्रम के सिलसिले में कुछ माह पूर्व इलाहाबाद आए थे । जब पत्रकार के द्वारा कोपेनहेगन की सफलता एवं असफलता के विषय में उनसे सवाल किया गया तो उन्होंने बेबाक कहा विकास के मौजुदा दौर में औरों से आगे दिख रहे अमेरिका समेत कुछ विकसित देश भले ही दुनिया को किसी विलेन जैसे दिख रहें हों, लेकिन सच्चाई यही है कि अति के बाद हर किसी को अपनी गलतियों की ओर देखना ही होता है । अमेरिका भी इससे अलग नहीं है ।
एक ओर जब कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने को लेकर कुछ ताकतवर देश अलग गुट के तौर पर दिख रहे हैं, वहीं भारत ने खुद आगे बढ़कर अपनी जो भूमिका तय की है, उससे विकासशील देशों को ही नहीं बल्कि विकसित देशों को भी सबक लेना चाहिए । दूसरों पर ऊँगली उठाने का समय बीत चुका है । अब हर किसी को अपनी अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी ।
यह सच है कि विकसित राष्ट्रों ने पर्यावरण के मुद्दे पर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है किन्तु पर्यावरण चिंतक चार आधार भूत राष्ट्र ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत एवं चीन इस जिम्मेदारी को बढ़ाने का बीड़ा उठाने को तैयार है बशर्तेविकसित राष्ट्र क्योटो प्रोटोकॉल के महत्वपूर्ण बिन्दुआें पर अनुबंध का पालन करें तथा पर्यावरण के सच का गम्भीरता से सामना करें । सच से दूर न भागे, अब भी वक्त है जागें । विकसित राष्ट्रों ने यह वायदा किया है कि वह २०१० से २०१२ के मध्य की अवधि में ३० बिलियन अमेरिकी डालर की सहायता प्रदान करेंगे । किन्तु इन राष्ट्रों ने सहायता करने का प्रारूप अभी तक नहीं दिया है । विकसित राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों के साथ कदमताल करें तभी कारगर समाधान संभव होगा ।
आधार भूत राष्ट्र अमेरिका के साथ मिलकर दुनिया भर में कोपेनहेगन के प्रस्तावों को क्रियान्वित करवाने के लिए शिद्दत से प्रयास करेंगे । यह बात सभी राष्ट्र अनुभव करते हैं कि जलवायु परिवर्तन वर्तमान समय की सबसे बड़ी चुनौती है । पृथ्वी खतरे में है और कार्बन उत्सर्जन में व्यापक कटौती की जरूरत है । यद्यपि सहयोग की अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पा रही है क्यांेकि अधिसंख्य राष्ट्र इस मुद्दे पर उपेक्षापूर्ण आचरण कर रहे हैं । कुछ तो सार्थक करना ही होगा ।
विकसित राष्ट्र एवं विकासशील राष्ट्र दोनों समूहांे को ही मिलकर पर्यावरण बचाना है अपनी आधारभूत पृथ्वी को बचाना है । क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधान भी महत्वपूर्ण है । यदि राष्ट्रों में आम सहमति बने तो सुखद होगा । जरूरी है कि क्योटो प्रोटोकॉल के महत्वपूर्ण बिन्दुआें को नवीन अनुबंधांे में पूर्णवत रखा जाये तथा सारे प्रकरण पर गम्भीर हुआ जाये ।
दरअसल सारे काम आपसी सहयोग से ही हो सकेंगे । आधारभूत राष्ट्रों को उन राष्ट्रों को भी साथ लेकर चलना होगा जो विकास के मामले में पिछड़े हुए हैं तथा गरीब है । कोई भी राष्ट्र स्वयं को उपेक्षित अनुभव न करें । अफ्रीका के अत्यल्प विकसित एवं द्वीपीय राष्ट्र भी भागीदारी
करें । सम्पूर्ण विश्व को साथ में लेकर चलना होगा । इसीलिए उच्च स्तरीय पेनल के गठन की जरूरत होगी जो इस बात पर दृष्टि रखेगी कि धन का स्रोत क्या है ? उनका प्रबंधन क्या है ? तथा धन का दुरूपयोग तो नहीं हो रहा है । किन्तु क्या यह बड़ा वैश्विक काम आसानी से हो पायेगा इसमें संदेह है क्योंकि आम सहमति बनना मुश्किल होता है । प्रकृति के सहयोग को समझते हुए हमेंअपनी जिम्मेदारी निभानी ही होगी । समय की पुकार है कि सरहदों के पार के कल्याण की भी सोचें।
हमारा देश वसुवैध कुटुम्बकम का दर्शन रखता है । हमारे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने विकसित एवं विकासशील देशों की पर्यावरण एवं विकास संबंधी तथ्य को १९ अक्टूबर २०१० को हैदराबाद में अकादमी फोर सांइसेज फोर द डेवलपिंग वर्ल्ड की २१वीं आम बैठक के उद्घाटन अवसर पर उजागर किया । उन्होंने औद्योगिक देशों द्वारा अपनाए गए विकास मॉडल को विकासशील देशों के अस्तित्व के लिए खतरनाक बतलाया तथा चेतावनी देते हुए कहा कि विकास के लिए प्रगति के स्थाई मार्ग को खोजने की जरूरत है । व्यवसायिक उपयोग के लिए समूह शोध में बौद्धिक संपदा अधिकार की साझेदारी बहुत बड़ी बाधा है ।
प्रधानमंत्री ने कहा कि विकासशील देश बीमारियों से लड़ने, परम्परागत कृषि में बदलाव और प्राकृतिक आपदाआें से निपटने जैसी साझा चुनौतियों का सामना कर रहे हैं ।हम किसी तरह विकसित देशों द्वारा अपनाए गए विकास के रास्ते हमारे अस्तित्व एवं जिन्दगी के लिए खतरनाक है ं अगर हम ऐसा कोई मार्ग खोज निकालते है जो बेवजह हमारी क्षमताआें पर दबाव नहीं डालता और विकास की मूलभूत चुनौतियों से निपटने में सक्षम होता है तो हम उसका अपने हित में उपयोग करेंगे ।
भौतिक समृद्धि को मानवीय संवेदना के आइने में देखें तो प्रधानमंत्री के कथन में वही चिंता दिखलाई देती है जिस चिंता को रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी अपने व्याख्यान में व्यक्त किया था और कहा था - अथाह भौतिक साधनों के अपार समृद्धि के बावजूद पश्चिम के देशोंमें मुझे आत्मिक संतोष व सच्चे सुख की अनुभूति नहीं हो
पाई । सच्ची सुख शांति के लिए पूरब के आध्यात्मिक संस्कारोंकी ओर टकटकी लगाए हुए हैं । ........ पश्चिम में विज्ञान का बोलबाला अवश्य है किन्तु मानवीय संवेदना लुप्त् होती दिखाई दे रही है । विज्ञान की ओर असंतुलित दौड़ एक दिन विनाशकारी सिद्ध होगी ।
अत: एक नये संकल्प के साथ पर्यावरण की वैश्विक परिकल्पना को साकार करने की महती आवश्यकता है जहाँ न कोई कुत्सा हो न कोई गुस्सा हो और प्रेम की बयार बहती रहे सरहदोंे के पार भी ।
***








कोई टिप्पणी नहीं: