शुक्रवार, 19 अगस्त 2016


गुरुवार, 18 अगस्त 2016

गंगा नदी में अनेक स्थानों पर जीवों के अस्तित्व पर संकट
गंगा की निर्मलता और अविरलता सुनिश्चित करने को मोदी सरकार की सर्वोच्च् प्राथमिकता बताते हुए केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा कि इस कार्य को साल २०२० तक पूरा कर लिया जायेगा और जब आए हैं तो कुछ करके जायेंगे । या गंगा निर्मल होगी या फिर मरके जायेंगे । पिछले दिनों लोकसभा में जल संसाधन एवं नदी विकास मंत्री उमा भारती ने कहा कि गंगा नदी में स्वर्ण मछली, महाशिरा, डाल्फिन जैसे जल जन्तु ही साबित करेंगे कि गंगा निर्मल हुई, क्योंकि अभी गंगा नदी में अनेक स्थानों पर इन जीवों के अस्तित्व पर संकट छाया हुआ है । कई स्थानों पर प्रदूषण के कारण डाल्फिन अंधी हो गई है । हम देख सकने वाली डाल्फिन छोड़ेगे और अगर वे अंधी नहीं हुई तो नदी की निर्मलता साबित हो जाएगी । उन्होनें कहा कि हमने नमामि गंगे योजना के माध्यम से गंगा की निर्मलता और अविरलता को सुनिश्चित करने की पहल की है । और गंगा में इन जल जन्तुआें का फिर से बहाल होना ही यह साबित करेगा कि गंगा निर्मल हो गई है । केन्द्रीय मंत्री ने कहा कि अक्टूबर २०१६ में पहला चरण पूरा हो जाएगा । 
जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने कहा कि गंगा के पानी की निर्मलता की जांच वह किसी प्रयोगशाला में नहीं कराएंगी बल्कि प्रदूषण के कारण गंगा से लुप्त् हो चुके जलचरों के फिर से इसमेंलौट आने को वह प्रदूषणमुक्त गंगा का पैमाना मानेगी । सुश्री भारती ने कहा कि गंगा अत्यधिक प्रदूषित है । औघोगिक कचरे तथा गंदे नाले के कारण यह सर्वाधिक प्रदूषित हुई है, लेकिन नमामि गंगे परियोजना के तहत गंगा की सफाई के लिए जो काम किया जा रहा है । 
उन्होनें कहा कि गंगा नदी दुनिया की दस अत्यधिक प्रदूषित नदियों में से एक है । भारी प्रदूषण के कारण गंगा नदी की डाल्फिन मछलियां अंधी हो चुकी है और वह शरीर के अन्य संवेदी अंगो का इस्तेमाल आंख के रूप में कर रही है । इसी तरह से हिल्सा जैसी कई प्रजाति की मछलियों का इससे नाता टूट चुका है लेकिन नमामि गंगे योजना के तहत इन सब मछलियोंको फिर से इसमें छोड़ा जाएगा । 
सम्पादकीय 
२६ जनवरी १९३० को मना पहला स्वतंत्रता दिवस
भारत को ब्रिटिश शासन से आजादी १५ अगस्त १९४७ को मिली और तबसे हम हर साल १५ अगस्त को आजादी का पर्व मनाते हैं । लेकिन अधिकांश भारतीयों की जानकारी में ये नहीं है कि हमारा पहला स्वतंत्रता दिवस २६ जनवरी १९३० को मनाया गया था । 
दिसम्बर १९२९ में लाहौर में रावी के तट पर हुए कांग्रेस अधिवेशन मेंमहात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू सहित अन्य नेताआें ने महत्वपूर्ण निर्णय किया कि हर साल जनवरी के आखिरी रविवार को आजादी का दिन मनाया जाएगा । गांधीजी ने सलाह दी कि ये संदेश देश के हर शहर, हर गांव तक पहुंचाया जाए । तय हुआ कि २६ जनवरी को पूरे देश में समारोह की शुरूआत राष्ट्रीय झण्डा फहराकर की जाए । दिन में बाकी समय रचनात्मक कार्यो में बिताया जाए । लोग अपने-अपने वार्डो एवं गांवों में सफाई करें, चरखा चलाएं, अछूत समझे जाने वाले लोगों की सेवा कर उन्हें भी भारत का सम्मानित नागरिक होने का सम्मान दें । 
ये संदेश देश में तेजी से फैला। २६ जनवरी१९३० को लोग अपने गांव, शहर, कस्बों में घरों से निकलकर एक जगह इकट्ठा हुए । देशवासियों की छटपटाहट और उत्साह देख अगं्रेज चौंक गए । हर जगह लोगों की अपार भीड़ बिना शोर, हिंसा या हुडदंग के शांतिपूर्वक एकत्र हुई । गांवों, शहरों में आजादी के प्रति अपना उत्साह प्रदर्शित करने की होड़ लग गई । १९३० के बाद आजादी मिलने तक हर साल २६ जनवरी को लोग स्वतंत्रता दिवस मनाते रहे । हमारे देश में १० मई १८५७ से लेकर १४ अगस्त १९४७ तक चले स्वतंत्रता संग्राम में अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान एवं राजनेताआें के अथक प्रयत्नों से देश के नागरिकों को स्वतंत्रता के सूर्य को देखने का अवसर मिला । इसलिए १९४७ से १५ अगस्त का दिन हमारा स्वतंत्रता दिवस हो गया ।
सामयिक
शहर बाढ़ग्रस्त क्यों हो रहे हैं ?
भारत डोगरा

हाल के वर्षो में देश के अनेक प्रमुख शहरों, विशेषकर राज्यों के राजधानी  शहरों के बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होने के समाचार मिलते रह हैं । 
इसके उदाहरण है - चैत्रई, मुम्बई व श्रीनगर । प्राय: बाढ़ प्रबंधन में इस तरह के बड़े शहरों व उनकी घनी व समृद्ध आबादियों की रक्षा को प्राथमिकता दी जाती है । तटबंधों का निर्माण इस तरह किया जाता है जिससे महानगरों व विशेषकर राजधानियों के बाढ़ग्रस्त होने की संभावना न्यूनतम की जा सके । 
यदि इसके बावजूद अनेक बड़े शहर बाढ़ से इतनी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं तो इसकी एक मुख्य वजह यह है कि इन शहरों में निर्माण कार्य बहुत अनियंत्रित ढंग से किया गया है । आवासीय व व्यावसायिक स्थलों की कीमतें तेजी से धन कमाने का सबसे प्रचलित तरीका हो गया है व बिल्डरों, अधिकारियों व राजनेताआें की मिलीभगत से ऐसे तमाम स्थानों पर बड़े-बड़े निर्माण कार्य हो गए हैं जहां निर्माण होने से जल की निकासी बुरी तरह बाधित होती है । 
इतना ही नहीं ये बिल्डर आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में भी पहुंच गए है और वहां के जल निकासी के स्थानों व जल स्त्रोतों पर भी कब्जा करने लगे हैं जिससे आसपास के क्षेत्र में भी मुख्य शहर की जल-निकासी में रूकावट आने लगी है । इस तहर जहां एक ओर बहुत से नए क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित हुए वहीं दूसरी ओर अनेक किसानों, पशुपालकों व मछुआरों की पहले से संकटग्रस्त आजीविका भी उजडने लगी । यदि ये रोजगार बने रहते तो शहरों को ताजे व स्वस्थ खाद्य पदार्थो की आपूर्ति में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती थी । 
अब आगे सवाल यह है कि क्या इन गलतियों से भविष्य के लिए कुछ सबक मिल सकते हैं? यह सवाल विशेषकर कोलकाता के संदर्भ में इस समय बहुत महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि अब संभावना बन रही है कि पहले वाली गलतियों को यहां और भी बड़े पैमाने पर दोहराया जा सकता है । 
पूर्वी कोलकाता वैटलैंड (नमभूमि) क्षेत्र लगभग १२५०० हेक्टर क्षेत्र में फैला है जिसमें से लगभग ४००० हेक्टर क्षेत्र में भेरी कहलाए जाने वाले मछली फार्म है । शहर का सीवेज इस क्षेत्र के जल मार्गो व तालाबों में बहता है व कुछ हद तक प्राकृतिक प्रक्रियाआें से साफ भी होता है । एक बड़ा प्रदूषक बनने के स्थान पर इसकी कृषि भूमि व मछली पालन में उर्वरक की भूमिका बनी हुई है । 
अनुमान है कि इस क्षेत्र से शहर को प्रति वर्ष ५५,००० टन सब्जियां व १०५०० टन मछली प्राप्त् हो रही है । इन कार्यो में लगभग २०,००० लोगों को प्रत्यक्ष रूप से व लगभग ५०,००० लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला हुआ है । वर्षो के समय मुख्य शहर की जल-निकासी भी इन स्त्रोतों व जल मार्गो की ओर ही होती है । 
अब इस नमभूमि पर निर्माण कार्य करने व इसके लिए कानूनी स्वीकृति प्राप्त् करने के लिए कानूनी स्वीकृति प्राप्त् करने के लिए दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके लिए बहुत शक्तिशाली व्यक्तियों का समर्थन भी बढ़ता जा रहा है । पर इस नमभूमि के एक बड़े क्षेत्र पर निर्माण कार्य हुआ तो शहर के वर्षा के जल की निकासी भी बुरी तरह अवरूद्ध हो सकती है व इससे बाढ़ की समस्या बहुत विकट हो जाएगी । सीवेज व कूड़े को ठिकाने लगाने की समस्या बहुत विकट हो जाएगी व हजारों लोगों की ऐसी रोजी रोटी खतरे में पड़ जाएगी जिससे महानगर के बांशिदो को ताजे व सस्ते खाद्य पदार्थ मिलते हैं । 
इससे पहले कि बिल्डर लॉबी व जमीन की खरीद-फरोख्त में लगे व्यावसासियों का दबाव शहर के नजदीकी क्षेत्र की प्राकृतिक व्यवस्था को ध्वस्त कर बाढ़ व अन्य समस्याआें को बढ़ाने में सफल हो जाए, यह जरूरी है कि महानगर व आसपास के क्षेत्र के दीर्घकालीन हितों की रक्षा के लिए लोग एकजुट होंऔर इस विषय पर सही निर्णय के लिए, जनमत तैयार करें तथा सरकार पर भी दबाव बनाएं । 
जलवायु बदलाव के इस दौर में वैसे भी समुद्र तटवर्ती शहरों में तो बाढ़ का खतरा बहुत तेजी से बढ़ सकता है । अत: ऐसे कोई भी निर्णय नहीं लेने चाहिए जिससे प्रकृति में पहले से मौजूद बाढ़ से बचाव वाली रक्षा प्रणाली क्षतिग्रस्त होने की आंशक हो । 
विभिन्न शहरों की बाढ़ से रक्षा केवल तटबंध बनाकर नहीं हो सकती है । इसके लिए जरूरी होगा कि शहरी विकास और निर्माण का समग्र रूप से नजर रखी जाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह जल निकासी में बाधक न बने । 
हमारा भूमण्डल
कृषि पर बेढ़ंगी चाल
मार्टिन खोर

विकसित देशों का पूरा रवैया आत्मकेन्द्रित और अत्यन्त स्वार्थपरक है । कृषि नीतियों में दोमंुही व्यवस्था बनाकर वे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। इससे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था तो चौपट हो ही रही है वहां की कृषि और कृषक दोनों पर खतरा मंडरा रहा है ।
विकसित देश सामान्यता मुक्त व्यापार के गुणगान करते और संरक्षणवाद के पाप गिनाते रहते    हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि अनेक विकसित देश दोहरे मापदंड अपना रहे हैं। जिन क्षेत्रों में वे मजबूत हैंवहां पर मुक्त व्यापार पर जोर देते हैंऔर जहां कमजोर हैंवहां संरक्षणवादी रवैया अपनाते हैं।   सबसे बद्तर स्थिति यह है कि वह एक ही क्षेत्र में इस तरह से नियम बनाते हैंजिसकी बदौलत विकासशील देशों पर उदारवाद थोप दिया जाता   है । परंतु स्वयं उन्हें अत्यधिक संरक्षण की अनुमति प्राप्त हो जाती है ।
इसका एक असाधारण उदाहरण ``कृषि`` है जिसमें अमीर देश प्रतिस्पर्धात्मक नहीं हैं । यदि इस क्षेत्र में ``मुक्त व्यापार`` को प्रचलन में लाया जाए तो वैश्विक कृषि व्यापार का बड़ा हिस्सा अधिक कार्यकुशल विकासशील देशों के प्रभुत्व में    होता । परंतु आज तक कृषि व्यापार पर महत्वपूर्ण विकसित देशों का प्रभुत्व बना हुआ है ।
अनेक दशकों से उन्हें कृषि हेतु व्यापार उदारीकरण नियमों से छूट मिलती रही । सन् १९९५ में विश्व व्यापार संगठन (डब्लू टी ओ) के गठन के साथ ही यह छूट समाप्त हो जानी चाहिए थी । इसके अलावा यह उम्मीद की जा रही थी कि अमीर देश अपनी कृषि को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए खोल देंगे। परंतु वास्तविकता यह है कि डब्लू टी ओ कृषि समझौते के अन्तर्गत उन्हें अत्यधिकसीमाशुल्क लगाने और उच्च् सब्सिडी दोनों की अनुमति मिली हुई है । इन सब्सिडी के माध्यम से वहां के किसान अपने उत्पाद कम कीमत में बेचने में सक्षम हो जाते हैं । यह मूल्य अक्सर लागत से भी कम होता है । इसके बावजूद उन्हें पर्याप्त मात्रा में राजस्व (जिसमें सब्सिडी भी शामिल है) प्राप्त हो जाता हैं और वे कृषि व्यापार में बने रहते हैं ।
विकासशील देशों पर इसके चार नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। पहला, ऐसे देश जो कि कृषि के संदर्भ में प्रतिस्पर्धी होते हैं, वह भी अमीर देशों के बाजार में पैठ  नहीं बना   पाते । दूसरा, विकासशील देशों को विश्व के अन्य बाजारों से भी हाथ धोना पड़ता है । क्योंकि वे वही कृषि उत्पादन कृत्रिम सस्ते मूल्यों पर निर्यात करते हैं । तीसरा, उत्पाद के सस्ता निर्यात करने की वजह से विकसित देश प्रतिस्पर्धी स्थानापन्न उत्पाद की मांग भी कम कर देते   हैं । जैसे अमेरिका द्वारा सोयाबीन पर सब्सिडी देने से सोयाबीन का तेल सस्ता हो जाता है । यदि ऐसा नहीं हो तो मलेशिया और इण्डोनेशिया के  पाम तेल को ज्यादा बड़ा बाजार उपलब्ध हो सकता है। चौथा, इन सस्ते उत्पादों (जैसे अमेरिका और यूरोप से चिकन) ने तमाम विकासशील देशों में प्रवेश पा लिया है जिसके परिणामस्वरूप वहां के स्थानीय किसानों की आजीविका संकट में पड़ गई है ।
सन् २००१ में डब्लू टी ओ ने दोहा विकास एजेंडा जारी किया जिसका मुख्य लक्ष्य था विकसित देशों के कृषि क्षेत्र को मुक्त   करवाना । अनेक वर्षों तक ऊर्जा लगाकर ऐसी प्रणाली विकासित की गई जिसके माध्यम से कृषि व्यापार को मुक्त बनाया जा सकें । इतना ही नहीं इस पर व्यापक सहमति भी बन गई थी । परंतु यूरोप की शह पर अमेरिका ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि दोहा राउंड (दौर) को किसी निष्कर्ष पर ले जाने में उसकी कोई रुचि नहीं है । भविष्य में डब्लू टी ओ के समझौते नए आधार पर होगे और वह वर्तमान दस्तावेजो पर आधारित नहीं होंगे । क्रिस हॉर्समेन ने अपने एक लेख में विश्लेषण किया है कि क्यों अमेरिका वर्तमान दस्तावेजों को स्वीकार नहीं कर रहा है । एक तरह की सब्सिडी की अधिकतम सीमा घटाने से अमेरिका को बिना अनुमति वाली सब्सिडी में ५८ प्रतिशत तक का वृद्धि करना होगी । 
इसके पता चल जाता है कि अमेरिका वर्तमान कर तालिका से क्यों बचना चाहता है और क्यों नए तरह से समझौते पर पहुंचना चाहता है। अमेरिका की शक्तिशाली कृषि लॉबी की वजह से वह दोहा दौर में जो घरेलू सब्सिडी की नई सीमा तय की गई थी। उससे संबंधित अपनी घरेलू नीति (जो कि सन् २०१४ के कृषि कानून में निहित है) में परिवर्तन नहीं कर सकता । इसी लेख में बताया गया कि किस तरह यूरोपियन यूनियन ने डब्लू टी ओ नियमों के बेहत्तर अनुपालन हेतु उपलब्ध कराई जा रही सब्सिडी के प्रकार में परिवर्तन किया है । इसमें यूरोपियन यूनियन देशों को सन् २००४ से २०१३ के मध्य अपनी घरेलू सब्सिडी को ८० अरब यूरो (९१ अरब डॉलर) तक सीमित करने की बात कही गई है ।
डब्लू टी ओ के गठन के दो दशक पश्चात भी अमीर देशों ने कृषि संरक्षण का उच्च्स्तर कायम कर रखा है । इस बात की बहुत ही कम संभावना है कि वे अपनी व्यापार प्रणाली में व्यापक फेरबदल लाएं । क्योंकि बड़े स्तर पर सब्सिडी में कमी से उनकी कृषि व्यवहार्य नहीं रह पाएगी । दूसरी ओर गरीब देशो के पास इतना धन नहीं है कि वह अमीर देशों द्वारा दी जा रही सब्सिडी का मुकाबला कर सकें । यदि वे अपने देश के किसानों और खाद्यसुरक्षा को बचाना चाहते हैं तो उन्हें अपने यहां सीमा शुल्क को उस स्तर तक ले जाना होगा जिससे कि सब्सिडी वाले सस्ते उत्पाद देश में प्रविष्ठ ही न हो सकें । परंतु जिन विकासशील देशों ने अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के साथ मुक्त व्यापार समझौते कर लिए हैं उन्हें अपने यहां सीमा शुल्क या तो शून्य पर लाना होगा या अत्यन्त कम दर पर लगाना होगा । 
विकासशील देशों के आग्रह पर कृषि सब्सिडी को मुक्त व्यापार समझौतों की कार्यसूची से बाहर रखा गया है । 
इसके अलावा अमेरिका और यूरोपीय संघ कई अन्य क्षेत्रों में भी विकासशील देशों के विरुद्ध संरक्षणवादी कदम उठा रहे हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका ने सफलतापूर्वक  डब्लू टी ओ में भारत के खिलाफ मामला दायर कर दिया हैं । भारत का राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन में घरेलू उत्पाद जैसे सोलर सेल एवं मॉडुल्स की अनिवार्यता के माध्यम से स्थानीय फर्मांे की मदद कर रहा है । इस तरह की आपत्तियों से भारत एवं अन्य विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटना कठिन हो जाएगा । 
हाल ही में यूरोपीय संसद ने चीन को डब्लू टी ओ में एक बाजार अर्थव्यवस्था का दर्जा देने से इंकार कर दिया । हालांकि डब्लू टी ओ चीन द्वारा सन् २००१ सदस्यता ले लेने के १५ वर्ष पश्चात उसे बाजार अर्थव्यवस्था के रूप में मान्यता दे चुका है । चीन को यह दर्जा देने से इंकार करने के बाद अन्य देशों के लिए यह आसान हो जाएगा कि वह चीन के खिलाफ एंटीडंपिंग के मामले उठा सकेंगे । और चीन के निर्यात पर अधिक सीमाशुल्क ठोंक सकेंगे । हालांकि चीन और भारत इसके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं ।  भारत ने मई में घोषणा कर दी है कि वह अमेरिका के खिलाफ १६ मामले लगाएगा जिसमें उसने डब्लू टी ओ के  नियमों की अवहेलना करते हुए अपने नवीकरण ऊर्जा कार्यक्रम के  अन्तर्गत सब्सिडी उपलब्ध करवाई    है । 
वैसे चीन अमेरिका के खिलाफ डब्लू टी ओ में एक मामला जीत भी चुका है जिसमें अमेरिका ने गलत तरीके से १५ चीनी उत्पादों जिसमंे सौर पैनल, स्टील सिंक एवं थर्मल पेपर शामिल थे, पर बराबरी का शुल्क लगाया था । परंतु अमेरिका ने निर्णय का पालन नहीं किया । अब चीन डब्लू टी ओ मेें कार्यवाही कर रहा है जिससे कि अमेरिका निर्णय का पालन करने को बाध्य हो ।
यह असंभव प्रतीत हो रहा है कि अमीर देश अपनी कृषि पर अत्यन्त संरक्षणवादी रुख में कमी करंेगे । साथ ही यह भी प्रतीत हो रहा है कि वे विकासशील देशों के उत्पाद अथवा नीतियों के खिलाफ संरक्षणवादी रुख अपनाए रखेंगे । यह वास्ताविकता है कि मुक्त व्यापार को व्यवहार में लाने और बड़बोलेपन में बहुत बड़ी खाई है ।
ग्रामीण जगत  
चलें गांव की ओर
वीरेन्द्र पैन्यूली 

भारत की आत्मा गांवों में बसती हैं इस बात पर प्रधानमंत्री से लेकर पटवारी तक सभी सहमत हैं। परंतु इस आत्मा को कौन कितना कष्ट दे सकता है यह प्रतिस्पर्धा भी हमारे देश में पूरी शिद्दत से जारी   है । हम सबको मिलकर गांव का रुख करना होगा तभी गांव और भारत दोनों बच पाएंगे । वैसे भी भारत और गांव कमोवेश पर्यायवाची ही हैं। 
प्रधानमंत्री ने १४ अक्टूबर २०१४ को सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरूआत की थी ।  लगभग १८ माह बाद उन्हंे अपने दल के ही सांसदों से पूछना पड़ा कि क्या वे कभी गांव जाते हैं। अर्थात सरकार के उच्च्तम स्तर पर भी यह संशय बना हुआ है कि सांसद कभी गांव जाते भी हैंकि नहीं । 
राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी अपने-अपने प्रशासनिक अधिकारियों से यह जानना चाहिए कि क्या वे गांवों में जाते हैं। राज्यों की प्रशासकीय कार्य नियमावली में विभिन्न स्तर के अधिकारियों के लिए निश्चित अवधि के लिए ग्राम प्रवास करने के निर्देश भी हैं। परन्तु यह सब कागजों में ही रह गया है । गांव में जिन कर्मचारियों को रहना भी होता है, उन्हंे भी आकस्मिकता के समय गांव में ढूंढ पाना मुश्किल होता है । इतना ही नहीं ग्राम सरपंचों को पंचायत सचिवों को ढूंढना पड़ता है। विद्यालयों-महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं व अन्य अध्ययनकर्ताओं का ग्रामीणजन से यह सवाल अवश्य रहता हैं कि क्या कभी आपके गांव में अधिकारी, विधायक या सासंद आते हैं। जबाब ज्यादातर ना कभी-कभी ना का ही होता है ।
ग्राम पंचायतों के कुछ चुने गये प्रधान व सदस्य भी गांवों में नहीं रहते हैं। गावों से ऐसा उपेक्षापूर्ण बर्ताव होता ही रहा है । जब पंचायतों के चुनाव होते हैं, तो गाड़ी भर भर आ कर वोट देकर वापस लोग शहरों को सालों सालों के लिए लौट जाते  हैं। गांवों में खुले अस्पतालों में डाक्टर तक नहीं आते हैं और स्कूलों में पढ़ाने वाले नहीं आते हैं । इसी तरह चुनाव के बाद जनप्रतिनिधि वहां नहीं आते हैं। ऐसे व्यवहारों से तो ग्रामोदय से भारत उदय नहीं होगा । और तो और आम ग्रामीण का जो अपना और अपने गांव के विकास की राह देख रहा है, उसका भी स्थाई सवाल यही रहता है कि गांव में कोई योजना आई क्या ? क्या बिजली आई ? पानी आया या राशन आया जैसे शाश्वत सवाल तो बने ही रहते हैं ।  
     गांव का छोड़ना ही गांव में आगे बढ़ने कीे राह रह गई है । गांवों को मार कर उन्हे भाहर बनाकर ही गांव के विकास की सोच को ही यदि जारी रखना है तो ग्रामोदय से भारत उदय के नारे का क्या अर्थ है ? गांव में जो खेती के लिए रह भी रहा है, उसे भी परिवार को जिन्दा रखने का रास्ता केवल आत्महत्या में ही दिख रहा    है । भले ही एनजीओ को कितना ही कोसा जाये, किन्तु उनके कारण ही परियोजनाओं को चलाने के नाम से ही सही गांवों में कुछ लोगों का जाना व काम होता दिखाई रहा है । 
अन्यथा पलायन से स्थितियां तो ऐसी हो गई हैं कि सामुदायिकता अथवा श्रमदान से सरकारी व गैरसरकारी परियोजनाओं में जो काम होना है उसे भी कागजी कार्यवाही करके बाहर के लोगों से करवाना पड़ता है । अन्यथा गांववासियों के माध्यम से जो विकास कार्य होने हैं, वो तो कई गांवों में हो ही ना । मनरेगा में भी काम हो इसके लिए भी कोई गांवों में बाहर के लोगों को ही काम में लगाना पड़ रहा है । यह हकीकत कई राज्यों की है। गांवों में खेती के काम के लिए मजदूर नहीं है । 
आशाजनक यह है कि कई गांव के प्रवासी ऐसी मुहिम भी चला रहें हैंजिससे गांवों में लोगों का जाना बढ़े । करोड़ों करोड़ लोग गांव आते जाते रहेंगे, तो ऐसे सवाल कमजोर पड़ जायेंगे कि हमारे अकेले के जाने से क्या होगा । हमारा संवेदनशील होना ही गांवों को अस्त होने से बचा सकेगा । गांवों का बचना जैवविविधता व हरितमा बचाने व जलवायु बदलाव से लड़ने के लिए बहुत जरूरी है । पारम्परिक व लोक  ज्ञान की निरन्तरता के लिए भी उनका अस्तित्व जरूरी है । परन्तु गांव में लोग तभी रह सकेंगे । जब वहां के और उनके आसपास के प्राकृतिक संसाधन व साझा सम्पदा के प्रबंधन में गांव वालों प्रमुखता हो । 
जनसुनवाइयो व ई गवर्नंेस को गांव सुराज का अंग माना    जाये । आप हम गांव की राह पकड़ेंगे तो गांव भी मजबूती की राह     पकड़ेंगे । विडम्बना यह है कि जहां आम ग्रामीण गांवों को छोड़ रहा है वहीं कार्पोरेट घराने रूपी माफिया गांवों में इतनी तेजी से व सरकारी सांठ गांठ से घुसकर खेती की जमीन को ही नहीं बल्कि ग्राम समाज की जमीन, जलस्त्रोतों, चारागाहों पर कब्जा कर रहे हैं । ऐसे तत्वों से भी निपटने के लिए जगह जगह आन्दोलन व गांव बचाओ जैसे अभियान चल रहे हैं। सरकारी मदद के बजाय आन्दोलनकारी मुकदमे झेल रहे हैं। क्या ऐसे ही ग्रामोदय होगा ?
विशेष लेख
सबसे छोटे जीनोम का मतलब क्या है ?
अश्विन शेषशायी

एक व्यक्ति है कै्रग वेंटर । वे जिस किस्म का जीव वैज्ञानिक अनुसंधान करते हैं यह प्राय: चौंकाने वाला होता है और कम से कम पहली नजर में अक्सर क्रांतिकारी दिखाई पड़ता है । 
ये सबसे पहले एक समानांतर, निजी पैसे से संचालित मानव जीनोम प्रोजेक्ट की पोषणा के लिए मशहूर हुए थे । कल्पना यह थी कि विभिन्न बीमारियों से संबंधित जीन्स का क्षार अनुक्रम पता किया जाएगा । सौभाग्वश, अनुक्रम की यह जानकारी पेटेंट के पर्दे में दबी नहीं रही । अपने इस असाधारण विज्ञान के तहत १९९५ में उन्होनें एक बैक्टीरिया के जीनोम का सर्वप्रथम अनुक्रमण किया था । इस खोज ने सार्वजनिक मानव जीनोम प्रोजेक्ट में महती योगदान दिया और इसे समय पर पूरा करने में मदद   की । 
वेंटर प्राय: खबरों में रहते   है । २०१० में शुरू से शुरू करके उन्होनें एक बैक्टीरिया की ११ लाख क्षार लंबी आनुवंशिक सामग्री (डीएनए) का संश्लेषण किया था । यह बैक्टीरिया मायकोप्लाज्मा समूह का था । इसका संश्लेषण करने के बाद इसे उन्होनें एक संबंधित प्रजाति की बैक्टीरिया कोशिका में आरोपित कर दिया और फिर इस नई कोशिका को कुछ इस तरह पुनर्जीवित किया कि उसका पूरा नियंत्रण इस बाहर से डाले गए डीएनए द्वारा होने लगा । यह एक बड़ी तकनीकी उपलब्धि थी और इसने जीन-चिकित्सा तथा जीनोम इंजीनियरिंग के भावी काम को प्रभावित किया । मगर इस बात में संदेह है कि इस अनुसंधान में जीवन के जेनेटिक आधार की हमारी समझ में कोई खास इजाफा किया हो । 
पिछले हफ्तों में वेंटर एक बार फिर सुर्खियो में रहे । उनके समूह ने न्यूनतम जरूरी बैक्टीरिया जीनोम का संश्लेषण किया और उसे एक ग्राही कोशिका में डालकर उस कोशिका को जीवित किया । इसके लिए सबसे पहला काम तो यह परिभाषित करने का था कि न्यूनतम जीनोम किसे कहेंगे । इसके बाद काफी तकनीकी दक्षता की आवश्यकता थी, जो यह समूह २०१० में हासिल कर चुका था । मीडिया में माना गया कि वेंटर के समूह ने एक कृत्रिम बैक्टीरिया की सृष्टि की है जिसमें एक भी फालतू जीन नहीं    है । 
इस तरह की प्रतिक्रिया के मद्देनजर न्यूनतम जीनोम की अवधारणा की थोड़ी खोजबीन जरूरी हो जाती है । क्या ऐसा न्यूनतम जीनोम एक ही है या ऐसे कई न्यूनतम जीनोम हो सकते है ? यह अवधारणा वैध भी है नहीं ? चलिए, पहले चर्चा करते है कि बैक्टीरिया के जीनोम का निर्धारण कैसे होता है और न्यूनतम जीनोम के अध्ययन के हाल के इतिहास पर एक नजर डालते     हैं । इसके बाद पाठक स्वयं यह फैसला कर पाएंगे कि वेटर के काम को लेकर मीडिया में मचा हो-हल्ला कितना उपयुक्त है । 
बैक्टीरिया और उसका पर्यावरण 
बैक्टीरिया एक कोशिकीय जीव होते हैं और शेष समस्त सूक्ष्मजीवों से अधिक संख्या में पाए जाते हैं । उनमें बहुत विविधता होती है । कुछ बैक्टीरिया है जो गर्म झरनों में फलते-फूलते हैं, तो कुछ बैक्टीरिया ठंडे मरूस्थलों में । कुछ हैं जो पौधों की जड़ों पर रहकर हमारा जीवन संभव बनाते हैं, तो कुछ मनुष्यों, जंतुआें और पौधों का जीवन तबाह कर देते हैं । इस विविधता के साथ जेनेटिक सामग्री की विविधता जुड़ी है । बैक्टीरिया जीनोम की साइज १५० जीन्स से लेकर १२००० जीन्स तक हो सकती है । बहुत छोटे जीनोम वाले बैक्टीरिया सहजीवी होते है जिनके लिए अन्य बैक्टीरिया और/या किसी बड़े मेजबान का सहारा अनिवार्य होता है । दूसरी ओर, बड़े जीनोम वाले बैक्टीरिया सर्वव्यापी होते है और अपेक्षाकृत जटिल जीवन शैली अपनाते हैं । वेटंर के न्यूनतम बैक्टीरिया जीनोम में लगभग ४७३ जीन्स है, जिसके चलते यह सबसे छोटे जीनोम में से एक अवश्य है मगर सबसे छोटा नहीं है । 
बैक्टीरिया के जीनोम की साइज कैसे निर्धारित होती है ? जीनोम में होता क्या है? किसी भी बैक्टीरिया के जीनोम का ९० प्रतिशत तो जीन्स होते हैं, जो प्रोटीन बनाने का फॉमूला प्रदान करते हैं । इनमें से कई प्रोटीन्स सामान्य शरीर क्रियाआें में लिप्त् होते हैं - अर्थात पोषक पदार्थो का उपयोग करके ऊर्जापैदा करना, छोटे-छोटे अणु बनाना जो कोशिका की रचना में जुड़ते है और जो डीएनए व प्रोटीन जैसे पदार्थो के अंग बनते हैं । 
ये जीन्स हैं जो वास्तव में इन छोटे-छोटे अणुआें को विशाल कोशिका रचनाआें में जोड़ने में मदद करते है, डीएनए की प्रतिलिपियां बनाने में मदद करते हैं और कोशिका को विभाजित होकर नई कोशिकाएं बनाने में मदद करते हैं । कुछ अणु प्रोटीन व आरएनए बनाने में मदद करते हैं जो फिर अन्य प्रोटीन बनाने में भूमिका अदा करते हैं । कुछ प्रोटीन्स ऐसे होते हैं जो इन प्रक्रियाआें का नियमन करते हैं और कुछ प्रोटीन्स ऐसे है जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते और ये जीवन के लिए आवश्यक हो सकते हैं । वेंटर के अनुसंधान ने इस बात को रेखांकित किया है । 
कोशिका की सतह का निर्माण, आरएनए व प्रोटीन का संश्लेषण, डीएनए की प्रतिलिपि बनाना और उसके जरिए कोशिका का प्रजनन - ये ऐसे कार्य है जिनके बारे में कोई समझौता नहीं हो सकता । प्रत्येक कोशिका ये कार्य करती है और इस हिसाब से एक न्यूनतम कोशिका को भी करना चाहिए । और ऐसा करने के लिए कोशिका को पोषक पदार्थो का उपयोग करके ऊर्जापैदा करना पड़ेगा । यानी चयापचय को लेकर भी कोई समझौता नहीं हो सकता । हां, यह जरूर पसंद और परिस्थति का मामला है कि कौन से पोषक पदार्थो का उपयोग किया जाए । 
आजकल गाएं हमारे कचरे के ढेर में से काफी सारा सेल्यूलोज खाती है और उससे ऊर्जा पैदा कर लेती हैं । मनुष्यों में सेल्यूलोज को पचाने की क्षमता काफी सीमित होती है । कोई बैक्टीरिया आजीवन एक ही किस्म के पोषक पदार्थ पर जिन्दा रह सकता है । ऐसे बैक्टीरिया को तो मात्र इतना करना होगा कि वह इस इकलौते पोषक पदार्थ को ऊर्जा व अन्य सह उत्पादों में परिवर्तित करता रहे । एक अन्य बैक्टीरिया ऐसा हो सकता है जो दुनिया की सैर करता है, उसका सामना हजारों किस्म के पोषक पदार्थो से होगा और जरूरी होगा कि इन विविध पोषक पदार्थो का उपयोग करने के लिए उसके पास सैकड़ों तरह-तरह के प्रोटीन हो । 
अर्थात् न्यूनतम कोशिका के चायपचयी घटक इस बात पर निर्भर करेंगे कि वह किस तरह के पर्यावरण मेंजीता है । ये पर्यावरण जैविक हो सकते हैं या अजैविक हो सकते हैं, अन्य बैक्टीरिया या अन्य सजीवों के साथ सहजीवन के हो सकते हैं । गौर कीजिए कि पृथ्वी पर प्राकृतवासों की बेशुमार विविधता को देखते हुए न्यूनतम जीनोम को परिभाषित करना मुश्किल होने लगा है । अर्थात कोई एक न्यूनतम बैक्टीरिया जीनोम संभव नहीं है बल्कि ऐसे कई न्यूनतम होंगे, और प्रत्येक किसी विशिष्ट परिस्थिति के लिए अनुकूलित होगा । दरअसल स्वयं वेंटर ने दी वर्ज में स्वीकार किया था कि प्रत्येक जीनोम संदर्भ विशिष्ट होता है और पर्यावरण में उपलब्ध रसायनों पर निर्भर करता    है । सचमुच न्यूनतम जीनोम जैसी कोई चीज नहीं होती है ।
न्यूनतम जीनोम को परिभाषित करने की इन जाहिर समस्याआें के बावजूद यह सवाल वैज्ञानिकों और आम लोंगों को लुभाता रहा है । पिछले बीस सालों में न्यूनतम बैक्टीरिया जीनोम को परिभाषित करने के कईप्रयास हुए   है । 
एक तरीका वह रहा है जिसे तुलनात्मक जीनोमिक्स कहते है । हम कई बैक्टीरिया का पूरा जीनोम जानते है । यह संभव है कि हम इनकी तुलना करके यह पता लगा सके कि इन सबमें सामान्य चीजें क्या है । जीन्स का यह समूह न्यूनतम बैक्टीरिया जीनोम का द्योतक होगा । यदि हम और महत्वाकांक्षी हुए तो यह जानने की कोशिश कर सकते है कि समस्त जीवन का न्यूनतम जीनोम क्या होगा । 
सबसे पहले जिन दो बैक्टीरिया के जीनोम का अनुक्रमण किया गया था वे काफी सरल थे । इनमें से एक मायकोप्लाज्मा       था । जिसका जीनोम ज्ञात बैक्टीरिया जीनोम में सबसे छोटा है । 
यही न्यूनतम होना चाहिए, नहीं ? इन दो जीनोम की तुलना से पता चलता था कि छोटे से मायकोप्लाज्मा जीनोम में पाए जाने वाले कम से कम आधे जीन्स दूसरे बैक्टीरिया के जीनोम में नहीं पाए जाते । आश्चर्य होना स्वभाविक था । जब और भी नए-नए जीनोम्स का अनुक्रमण किया गया तो न्यूनतम जीनोम छोटे से छोटा होता गया । मुझे कोई आश्चर्य न होगा यदि यह पता चले कि सारे बैक्टीरिया में चंद दहाई जीन्स ही एक जैसे होते हैं । इन चंद जीन्स से लैस बैक्टीरिया के लिए जीना आसान नहीं होगा । तो, न्यूनतम बैक्टीरिया जीनोम छोटा-छोटा होते-होते हास्यापद बन गया । 
तुलनात्मक जीनोमिक्स के जरिए हमें पता चला कि न्यूनतम जीनोम का निर्धारण करने में एक और कारक की भूमिका होती है । यह सही है कि आरएनए और प्रोटीन के संश्लेषण जैसी प्रक्रियाएं समस्त जीवन के लिए अनिवार्य है, मगर इन प्रक्रियाआें में शामिल जीन्स एक जैसे नहीं होते, सिर्फ बैक्टीरिया को देखें तो भी ये जीन्स एक जैसे  नहीं     होते । मशहूर जैव विकास विशेषज्ञ और जीनोम वैज्ञानिक यूजीन कूनिन ने १९९० और २००० के दशक में कहा था कि न्यूनतम जीनोम को परिभाषित करने का काम नॉन-आर्थोलोगस रिप्लेसमेंट की वजह से और भी पेचीदा हो जाता है । इसका अर्थ होता है कि एक समान प्रक्रियाआें को इतने अलग-अलग क्रम वाले प्रोटीन्स के द्वारा सम्पादित किया जाता है कि उन्हें किसी मायने में एक समान नहीं माना जा   सकता । अर्थात् जिन प्रक्रियाआें को समस्त जीवन के लिए अनिवार्य माना जाता है, उनके लिहाज से भी एक सार्वभौमिक जेनेटिक आधार परिभाषित करना समस्यामूलक हो जाता है । 
अब हमारा लक्ष्य ज्यादा सीमित हो गया है । कई बैक्टीरिया जीनोम में जीवन के लिए अनिवार्य जीन्स होते हैं मगर काफी सारी कचरा भी होता है, जो पेचीदा जैव विकास प्रक्रिया की विरासत है । तो क्या किसी एक बैक्टीरिया के लिए हम यह पता कर सकते हैं कि उसके अपने जीवन के लिए अनिवार्य जीन्स का समूह क्या है ? जीनोम इंजीनियरिंग की आधुनिक तकनीक हमें ऐसा करने की गुंजाइश देती    है । 
हम पहले ही देख चुके है कि तुलनात्मक जीनोमिक्स क्या है । और इस नई तकनीक को निकट संबंधी जीवों पर लागू किया जाए, तो हम काफी ठीक-ठाक ढंग से यह पता कर सकते हैं कि जीवन वृक्ष की इस शाखा के लिए कौन से जीन्स अनिवार्य है । और तो और, हम प्रायोगिक रूप से गुणसूत्रों के हिस्सों को काटकर हटा सकते है ताकि यह पता कर सके कि यह छंटाई उस जीव के जिंदा रहने पर असर डालती है या नहीं । 
इस तरह का काफी सारा अनुसंधान ई-कोली नामक बैक्टीरिया पर किया गया है । हम जानते हैं कि इसके कुल लगभग ४-५ हजार जीन्स में से ३०० से ज्यादा जीन्स इसके जिंदा रहने के लिए अनिवार्य है (आम तौर पर प्रयोगशाला में उसे पनपाने के लिए प्रयुक्त पोषण-समृद्ध पर्यावरण में)एक बार में एक जीन को हटाया जाता है और आज तक किसी ने भी ऐसा कोई शोध प्रकाशित नहीं किया है जिसमें ३०० जीन वाले ऐसे न्यूनतम ई. कोली को बनाने का प्रयास किया गया है, जो प्रयोगशाला में जीवित रह सके । और ४००० गैर अनिवार्य जीन्स को एक साथ हटाना भी कोई आसान काम नहीं है । न्यूनतम ई.कोली जीनोम को संभवत: वेंटर और उनके साथियों द्वारा विकसित विधि द्वारा शुरू से शुरू करके बनाया जा सकता है । मगर यह विवादास्पद है कि क्या ऐसा करने का कोई महत्व है । 
ई.कोली के १५-२० प्रतिशत जीनोम को छांटकर अलग करने के प्रयास किए गए हैं, और न्यूनतम ई.कोली की ओर यह रास्ता प्रयोगशाला में काफी सफल रहा है । इसका अर्थ यह नही है कि यह फेरबदलशुदा ई.कोली ऐसी अन्य परिस्थितियों में भी ठीक-ठाक प्रदर्शन करेगा जिनमें वह कुदरती तौर पर जीता है । उदाहरण के लिए एक कोशिकीय खमीर पर इसी तरह के प्रयोग तरह-तरह की परिस्थितियों में किए गए थे । इनसे पता चला कि कम से कम एक परिस्थिति में जीने के लिए उनके सारे जीन्स जरूरी है । अब क्या कहेंगे ?
वेंटर के प्रयास इसी को विस्तार देते हैं - उन्होनें शुरूआत ही एक मायकोप्लाज्मा  के एक छोटे जीनोम से की । उन्होनें कई तकनीकों का उपयोग करके पता किया कि इसमें से कितना अनिवार्य है और कितना नहीं । इसके बाद उन्होंने मात्र अनिवार्य जीन्स वाला जीनोम  बनाया । हालांकि यह एक उम्दा शोध का परिचायक है मगर इसे न्यूनतम बैक्टीरिया जीनोम कहना या जीवन के लिए जरूरी जीन्स को परिभाषित करने की दिशा में निर्णायक कदम कहना अतिश्योक्ति होगी । 
संक्षेप में यह सवाल जेनेटिक्स वैज्ञानिकों के लिए दिलचस्पी का विषय है, उतना ही दार्शनिक भी है कि क्या न्यूनतम जीनोम जैसी कोई चीज होती भी है या नहीं और यदि होती है तो उसे कैसे परिभाषित किया जाए । जो भी जवाब मिले उसे बैक्टीरिया के पर्यावरण की व्यापक विविधता के संदर्भ में ही परखा जाना चाहिए । इसमें यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जैव विकास की प्रक्रियाएं एक ही जैव रासायनिक समस्या के लिए कई अलग-अलग जेनेटिक समाधान खोज लेती है । 
विज्ञान, हमारे आसपास
क्यों होता है ज्वालामुखी विस्फोट ?
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

भूसतह मे पड़े उस छेद या दरार को ज्वालामुखी कहा जाता है जिसमें से विस्फोट के साथ प्रज्वलित गैसें, तरल लावा तथा तप्त् शैल खण्ड निकालते है । 
ज्वालामुखियों से विस्फोट इतना भंयकर होता है कि उसकी आवाज हजारों किलोमीटर तक सुनाई पड़ती है । जैसे २६ अगस्त १८८३ को क्रैकेटोआ (इंडोनेशिया) नामक स्थान पर हुए ज्वालामुखी विस्फोट की आवाज वहां से लगभग ४८०० किलोमीटर दूर स्थित ऑस्ट्रेलिया तक सुनी गई थी । 
जिन ज्वालामुखियों से गैस की अपेक्षा लावा अधिक निकलता है, वे शांत किस्म के होते हैं । उदाहरणार्थ हवाई द्वीप का मोनालोआ ज्वालामुखी इसी प्रकार का है । ऐसे ज्वालामुखियों से काफी मात्रा में लावा निकलता   है जो काफी दूर-दूर तक फैल जाता है । सन् १९७९ में इटली के पौम्पेई नामक नगर के पास होने वाला विसुवियस ज्वालामुखी विस्फोट इसी प्रकार का था । इस ज्वालामुखी से निकले लावा ने पूरे पौम्पेई नगर को ढंक लिया था । बाद में की गई खुदाई से इस प्राचीन नगर के अवशेष मिले हैं । इन अवशेषों में उस नगर के लोगों के लावा से आवृत अस्थि पंजर तथा उनके द्वारा उपयोग में आने वाले सामान मिले हैं । 
कोई भी ज्वालामुखी स्थायी रूप से या सदैव सक्रिय नहीं रहता । इसी कारण ज्वालामुखियों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है जिनमें शामिल हैं जागृत, सुप्त् तथा मृत । जागृत ज्वालामुखी वे हैं जिनसे लावा, धुंआ इत्यादि का निकलना जारी है । कोई भी ज्वालामुखी बहुत लम्बे समय तक सक्रिय नहीं रहता है, बल्कि कुछ समय के लिए विश्राम लेता है । विश्राम की अवधि कुछ दिनों से लेकर लाखों वर्षो तक हो सकती है । इसे सुप्त् अवस्था कहा जाता है । यदि यह अवस्था बहुत अधिक समय तक हो तो इसे मृत मान लिया जाता है । मध्य भारत में स्थित दक्कन का पठार तथा झारखंड में राजमहल ट्रेप मृत ज्वालामुखी के उदाहरण है । 
ज्वालामुखी विस्फोट होते क्यों है ? भूवैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि भूसतह के नीचे अलग-अलग गहराइयों पर कुछ रेडीयोधर्मी खनिज मौजूद है जिनके विखंडन से गर्मीउत्पन्न होती है । इसके फलस्वरूप भूपटल के निचले स्तरों में तापमान चट्टानों के गलनांक से ऊपर पहुंच जाता है । परन्तु गहराई के साथ दाब भी बढता जाता है । अत: इन गहराइयों पर ताप और दाब के बीच द्वंद्व चलता रहता है । हालांकि तापमान चट्टानों के गलनांक (१००० डिग्री सेल्सियस) से ऊपर हो जाता है परन्तु अत्यधिक दाब के कारण चट्टानें द्रवित नहीं हो पाती लेकिन कभी-कभी ताप तथा दाब के बीच असंतुलन पैदा हो जाता है । यह असंतुलन दो प्रकार से पैदा हो सकता है :- 
१. दाब के सापेक्ष ताप से अत्यधिक वृद्धि, 
२. ताप के सापेक्ष दाब मेंकमी हो जाए । 
इन दोनों ही अवस्थाआें में भूसतह के नीचे स्थित चट्टानें तत्काल द्रव्य अवस्था में परिवर्तित हो जाती है तथा मैगमा का निर्माण होता है । कुछ ऐसा ही परिणाम दाब में अपेक्षाकृत कमी के कारण भी होता है । भूसंचलन विक्षोभों के कारण भूपटल के स्तरों में पर्याप्त् हलचल होती है जिसके फलस्वरूप बड़ी-बड़ी दरारों का निर्माण होता है । ये दरारे काफी गहराई तक जाती है । जिन स्तरों तक दरारों की पहुंच होती है, वहां दाब में कमी आ जाती है । इसकी वजह से ताप तथा दाब के बीच असंतुलन पैदा हो जाता है । इस परिस्थिति में यदि तापमान चट्टानों के गलनांक से ऊपर हो जाए तो अविलम्ब स्थानीय रूप से मैगमा का निर्माण होता है । 
जैसे ही मैगमा का निर्माण होता है यह अविलम्ब अधिक दाब वाले क्षेत्र से कम दाब वाले क्षेत्र की ओर बढ़ता है । इसी क्रम में यह दरारों से होकर ऊपर भूसतह की ओर बढ़ता है । दरारों से होकर ऊपर बढ़ने के क्रम मे कभी तो मैगमा भूसतह पर पहुंचने में सफल हो जाता है, परन्तु कभी रास्ते में ही जम कर ठोस हो जाता है । भूसतह तक पहुंचने वाली मैगमा को लावा कहते हैं तथा इसी के कारण ज्वालामुखी विस्फोट होता है । भूसतह के नीचे ठोस हो जाने वाले मैगमा को अंतर्वेधी तथा भूसतह तक पहुंचने वाले मैगमा को बहिर्वेधी कहा जाता है । अंतर्वेधी मैगमा से बड़े-बड़े क्रिस्टल से निर्मित चट्टानों (जैसे ग्रेनाइट, गैब्रो इत्यादि) की उत्पत्ति होती है जबकि बहिर्वेधी मैगमा (अर्थात लावा) से छोटे क्रिस्टल से निर्मित चट्टानों (जैसे बेसाल्ट, रायोलाइट इत्यादि) की उत्पत्ति होती है । 
ज्वालामुखी एक ओर तो भयंकर विनाश लीला प्रस्तुत करता है मगर दूसरी ओर खनिजों, चट्टानों तथा वायुमण्डल के विभिन्न घटकों के सृजन और विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है । ज्वालामुखी से निकले लावा से लावा पठारो तथा पर्वतों का निर्माण हुआ है । ज्वालामुखी से निकली गैसें वायुमण्डल का अंग बन पाई । वायुमण्डल में मौजूद जलवाष्प तथा सल्फर डाईऑक्साइड मुख्य रूप से ज्वालामुखियों की ही देन है । वैज्ञानिकों का विचार है कि पृथ्वी का वर्तमान वायुमण्डल इसका आदि वायुमण्डल नहीं है, बल्कि पृथ्वी से निकली गैसों के कारण धीरे-धीरे अस्तित्व में आया है । अनुमान है कि आदि वायुमण्डल ऑक्सीजन विहीन था । उस काल में पृथ्वी के वायुमण्डल में हाइड्रोजन तथा अनेक प्रकार के हाइड्रोकार्बन की प्रधानता थी । ज्वालामुखी विस्फोटों से निकली गैसों से मिलने से वायुमण्डल में समय-समय पर कई परिवर्तन होते रहे हैं । 
ज्वालामुखी विस्फोटों से निकले लावा ने भूपटल की चट्टानों से प्रतिक्रिया कर उनके रासायनिक एवं खनिज संघटन मेंपरिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । इन परिवर्तनों के कारण अनेक प्रकार के नई चट्टानों एवं खनिजों की उत्पत्ति हुई है । ज्वालामुखी विस्फोटो तथा उनसे निकले लावा तथा अन्य पदार्थो ने भूसतह पर विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों को जन्म दिया है । इन स्थलाकृतियों में प्रमुख हैं लावा पठार, लावा सोपान (लावा कैस्केड), लावा सुरंग तथा लावा स्तूप (लावा टुमुलस) इत्यादि । 
ज्वालामुखी विस्फोट सिर्फ स्थलीय क्षेत्रों में नहीं, अपितु समुद्रों की गहराईयों में भी होते हैं । समुद्री ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण छोटे-छोटे टापुआें का निर्माण हो जाता है । इन टापुआें में जो बहुत छोटे होते हैं, वे समुद्री लहरों द्वारा नष्ट हो जाते हैं । परन्तु बड़े द्वीप बच जाते हैं तथा वे निरन्तर आकार में बढ़ते रहते हैं । प्रशांत महासागर में ज्वालामुखी लावा से निर्मित अनेक द्वीप मौजूद है । अटलांटिक तथा हिन्द महासागर में भी इस प्रकार के द्वीप पाए जाते हैं । 
भारत में अतीत में सात बार ज्वालामुखी विस्फोट हुए है जिनसे निकला लावा काफी बड़े क्षेत्र में फैलाहै । पहला ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग तीन अरब वर्ष हुआ था जिसे दालमा विस्फोट कहा जाता है । इसके अवशेष झारखंड राज्य के सिंहभूम क्षेत्र में दालमा ट्रेप के रूप में आज भी पाए जाते हैं । भारत में दूसरा ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग ढाई अरब वर्ष पूर्व हुआ था जिसे कडप्पा ज्वालामुखी (आंध्रप्रदेश) कहा जाता है । तीसरा ज्वालामुखी विस्फोट विन्ध्य समूह की चट्टानों के निर्माण के बाद हुआ था जिसे मलानी विस्फोट कहा जाता है । चौथा विस्फोट आज से लगभग ३२.५ करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था जिसे पीट पंजाल ट्रैप कहा जाता है । पांचवा ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग १३.५ करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था जिसे राजमहल ट्रैप कहा जाता है । यह विस्फोट झारखंड राजमहल क्षेत्र में हुआ था । 
भारत में छठा ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग ४.५ करोड़ वर्ष पूर्व डेक्कन नामक स्थान पर हुआ था । इसे डेक्कन ट्रैप कहा जाता है । इस विस्फोट से निकले लावा ने मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा आंध्रप्रदेश के काफी बड़े क्षेत्र को ढंक लिया । सातवां और अन्तिम बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग १५ लाख वर्ष पूर्व बैरेन द्वीप पर हुआ था । इस स्थान पर समय-समय पर लावा तथा धुंआ निकलता रहता है । सन १७८९, १७९५ तथा १८०३ में भी लावा तथा धुंआ निकलता देखा   गया । अन्तिम बार १९९१ में लावा तथा धुंआ निकलता देखा गया । 
पर्यावरण परिक्रमा
सबसे गर्म साल साबित हो रहा है २०१६ 
संयुक्त राष्ट्र की मौसम एजेंसी ने कहा है कि इस साल के शुरूआती छह महीनों के वैश्विक तापमान ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं । इस कारण यह अब तक का सबसे गर्म साल साबित हो रहा है । विश्व मौसमविज्ञानी संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने कहा कि आर्कटिक सागर की बर्फ का जल्दी और तेजी से पिघल जाना उस जलवायु परिवर्तन और कार्बन डाई ऑक्साइड के स्तरों का एक अन्य संकेत हैं, जिनके कारण ग्लोबल वॉर्मिग होती है । 
डब्ल्यूएमओ के महासचिव पेट्री तालस ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के दशकों से चले आ रहे रिकॉर्ड नए स्तरों पर पहुंच रहे हैं । इनमें २०१५-१६ के भीषण अल नीनो की एक अहम भूमिका है । उन्होनें कहा कि अन नीनो की घटना, जिसने पृथ्वी के तापमान को पलट दिया, अब यह जा चुकी है लेकिन ग्रीनहाउस गैसों के कारण हुए जलवायु परिवर्तन में बदलाव नहीं होगा । 
नासा के अनुसार वर्ष २०१६ के शुरूआती छह माह मेंऔसत तापमान १९ वीं सदी के अंत के पूर्व औघोगिक काल की तुलना में १.३ डिग्री सेल्सियस ज्यादा था । डब्ल्यूएमओ अपनी वार्षिक जलवायु रिपोर्ट के लिए वैश्विक तापमान आंकड़ों के आंकलन के लिए विश्व की कई मौसम एजेंसियों के आंकड़ों का इस्तेमाल करता है । जनवरी जून के लिए वैश्विक थल एवं महासागरीय औसत तापमान २०वीं सदी के औसत से १.०५ डिग्री सेल्सियस ज्यादा    था । इसने वर्ष २०१५ के रिकॉर्ड को तोड़ दिया । 
रिपोर्ट में कहा गया कि कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा ने ४०० पार्ट पर मिलियन की सांकेतिक सीमा को पार कर लिया है ।      इस गैस का स्तर मौसम के हिसाब से बदलता तो रहता है लेकिन इसमेंवृद्धि ही होती दिख रही  है । तालस ने कहा कि यह जलवायु परिवर्तन से जुड़े पेरिस समझौते    को मंजूरी देने और लागू किए जाने और कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्थाआें एवं नवीनकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ने में तेजी लाने की पहले से भी अधिक अनिवार्यता को रेखांकित करता है । 

देश में ४० प्रतिशत नकली कीटनाशकों का उपयोग 
किसानों में अशिक्षा और जागरूकता का अभाव, व्यापारियों के पास पर्याप्त् तकनीकी विशेषज्ञता का नहीं होना तथा दोषपूर्ण बाजार व्यवस्था के कारण देश में लगभग ४० प्रतिशत नकली कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है जिससे न केवलफसलों पर इसका दुष्प्रभाव  होता है बल्कि पर्यावरण भी बुरी तरह प्रभावित होता है । 
उद्योग जगत के अनुमान के अनुसार वित्त वर्ष २०१४ में बिकने वाले कुल कीटनाशकों का ४० प्रतिशत नकली था । ये उत्पाद घटिया गुणवत्ता के होते हैंऔर कीटों को मारने में सक्षमनहीं होते । इनसे पैदा होने वाले सह उत्पाद जमीन और वातावरण को काफी नुकसान पहुंचाते है । किसानों में शिक्षा और जागरूकता की कमी, क्षेत्रीय भाषाआें और बोलियों में भिन्नता के कारण एग्रोकेमिकल कंपनियों के लिए किसानों तक पहुंचने और उन्हें इसके फायदों के बारे में शिक्षित करने का काम कठिन होता है । किसानों और निर्माताआें के बीच की मुख्य कड़ी खुदरा व्यापारी है जिनके पास पर्याप्त् तकनीकी विशेषज्ञता नहीं है और वे किसानों को उचित उत्पाद की जानकारी प्रदान कराने में असमर्थ   है । किसानों में नए तरीकों को अपनाने की अनिच्छा भी जागरूकता में कमी के कारण है । फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज और टाटा स्ट्रेटजिक मैनेजमेंट ग्रुप (टीएसएमजी) ने मिलकर नकली कीटनाशकों को लेकर एक अध्ययन किया है जिसमें कहा गया है कि १५ से २५ प्रतिशत संभावित फसल कीटों, खरपतवारों और बीमारियों के कारण बर्बाद हो जाती है । 
इस क्षेत्र के सामने कई चुनौतियां है और समाधान के लिए भारत गुणवत्ता वाले फसल सुरक्षा केमिकल्स के उत्पादन का संभावित अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र भी बन सकता    है । अमेरिका, जापान और चीन के बाद भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा एग्रोकेमिकल्स (कृषि रसायन) उत्पादक है । वित्त वर्ष २०१५ में इस क्षेत्र से ४.४ अरब अमेरिकी डॉलर के उत्पाद पैदा हुए और ७.५ प्रतिशत की दर से विकास करते हुए वित्त वर्ष २०२० तक इसके ६.३ अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है । करीब ५० प्रतिशत मांग घरेलू उपभोक्ताआें की तरफ से आती है और शेष निर्यात होता है । इसी दौरान घरेलू मांग के ६.५ प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से और निर्यात प्रतिवर्ष ९ प्रतिशत की दर से बढ़ने की उम्मीद है । 

अब रोबोट बनाएंगे आपका घर 
अब ३डी प्रिटिंग तकनीकी के जरिए बिना इंसानी हाथ लगे घर बनकर तैयार हो जाएगा । घर भी ऐसा जिसे आप आसानी से ट्रक के पीछे लादकर कहीं भी ले जा सकेगे। अभी जो घर बन रहे हैंउनसे कई गुना सस्ती कीमत में इस तकनीक के जरिए घर बनकर तैयार हो  जाएगा । 
घर बनाने में जो महीनों का वक्त लगता है वो भी बचेगा । घर बनाने की इस निर्माण विधि को कंटूर क्राफ्िटंग के नाम से भी जाना जाता है । इस निर्माण तकनीकी के जरिए घर बनाने में निर्माण कोस्ट में ३० फीसदी तक की कमी  आएगी । ३डी प्रिटिंग निर्माण विधि की शुरूआत बेहरोख खोशनेविस ने १९९६ में ही कर दी थी । चीनी कंपनी विंसन ऐसी तकनीकी के जरिए घर और अपार्टमेंट बना चुकी है । इसमें घर के अलग-अलग भागों को पहले कहीं और बनाया गया और बाद में निर्माण की जगह पर एक साथ जोड़ दिया गया । 
बेहरोख के मुताबिक अमरीकी बिल्डिंग कोड ने ऐसे घरों के लिए लंबी अवधि बनाई है ताकि उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके । दुबई में २०३० तक २५ फीसदी ३डी घर बनकर तैयार होगें । 
३डी प्रिंटिग निर्माण विधि से घर बनाने के लिए कम्प्यूटर के जरिए रोबोट गैन्ट्री को निर्देश दिया    जाएगा । मशीन की नोक घर को आकार देगी । एक ही लैप में घर की पूरी रूपरेखा तैयार हो जाएगी । उसके बाद दूसरी लेयर में फिनिशिंग की जाएगी । घर की छत को क्रेन से उठाकर रखा जाएगा । इस तकनीकी के जरिए घर बनाने के लिए इंसानी हाथोंको ईट लगाने की जरूरत नहीं होगी । दो साल बाद ऐसे घर बनने लगेगे । 
नासा और खोशनिवास ३डी प्रिटिंग के जरिए चांद पर संरचनाआें का निर्माण करने के लिए एक साथ काम कर रहे हैं । इसके लिए चांद पर ही मौजूद सामग्री का इस्तेमाल किया जा रहा है । 

एस्बेस्टस की भयावहता से अनजान है हम 
पूरी दुनिया कैंसर के डर से जिस खतरनाक ऐस्बेस्टस के इस्तेमाल पर रोक लगा रही है, भारत उसके खतरों से अनजान है । भारत में ज्यादा से ज्यादा ऑटो पार्ट्स को बनाने में जानलेवा ऐस्बेस्टस का इस्तेमाल किया जा रहा है । इसे अभ्रक भी कहा जाता है । इसके खतरों को देखते हुए दुनियाभर के बहुत से देशों में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया है । 
ऑटोमोबाइल के पार्र्ट्स में इस्तेमाल होने वाले इस पदार्थ से लाखों ऑटो टेक्निशियन पर कैंसर का खतरा है । आश्चर्य की बात यह है कि भारत का पर्यावरण मंत्रालय इस खतरे से पूरी तरह से अनजान नजर आ रहा है । पर्यावरण मंत्रालय का कहना है कि इस मामले में अभी तक कोई स्टडी सामने नहीं आई    है ।
पर्यावरण मंत्रालय के ज्वाइंट सेक्रेटरी विश्वनाथ सिन्हा ने बताया कि मंत्रालय को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि ब्रेक, क्लच और हीट सील जैसे ऑटो पार्ट्स बनाने में अभ्रक का इस्तेमाल हो रहा है । 
श्री सिन्हा से पूछा गया कि जब विदेशों में इसे बैन कर दिया गया तो भारत में अभ्रक का इस्तेमाल क्यों हो रहा है ? उनका जवाब था कि अभी तक भारत में किसी भी विभाग की तरफ से सरकार को अध्ययन की ऐसी रिपोर्ट नहीं उपलब्ध कराई गई जिससे कोई बड़ा एक्शन लिया जा सके । पूर्व में हुए कई अध्ययनों मे सामने आया था कि अभ्रक के इस्तेमाल से मेसोथेलियोमा जैसा खतरनाक कैंसर हो सकता है । उसी के बाद विदशोंमें इसे बैन कर दिया गया । 
हालांकि पर्यावरण मंत्रालय के पास २०१० में जारी की गई गाइडलाइन में ऐस्बेस्टस आधारित इण्डस्ट्रीज के पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभाव के बारे में लिखा गया है । इन सभी गाइड लाइन्स में ऐस्बेस्टस की इमिशन लिमिट और इसके डिस्पोजल के तरीके भी बताए गए    है । अधिकांश ऑटो कंपनियां अपने निर्यात वाले ऑटो पाट्र्स के लिए इनका पालन कर रही है । भारत में खासतौर से ब्रेक, क्लच और ब्रेक लाइन इस खतरनाक अभ्रक से ही बनाए जा रहे हैं । 
 प्रदेश चर्चा
म.प्र. : बर्बादी की राह पर तालाब
अमिताभ पाण्डेय 

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को तालाबों का शहर कहा जा सकता हैं। ११ वीं शताब्दी में राजा भोज ने यहां एक विशाल तालाब बनवाया था । आज यह अपने मूल आकार से एक चौथाई भी नहीं रह गया है। इसके बावजूद इस पर लगातार खतरा मंडरा रहा है। आवश्यकता है कि समाज जागरूक होकर अपने तालाबों को बचाए । यदि तालाब बचेंगे तो ही हम भी बचेंगे ।
मध्यप्रदेश में प्रशासन की उदासीनता, अफसरों-कर्मचारियों की मिलीभगत और भू माफिया की बुरी नियत के चलते यहां तालाबों के अस्तित्व पर संकट बढ गया है। इन्दौर के पीपल्याहाना तालाब से लेकर भोपाल के बड़े तालाब तक को खत्म करने की कोशिश पूरी शिद्दत से जारी है । 
हद तो यह है कि सरकार व प्रशासन के जिन अफसरों पर जलस्त्रातों को बचाने की जिम्मेदारी है, वे खुद ही तालाबों को खत्म करने के प्रयासों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित कर रहे हैं। तालाबों के आसपास अतिक्रमण करने वालों की पहुंच तालाब के  दायरे और उसकी सीमाओं को लगातार कम कर रही हैं। सरकार के जो प्रतिनिधि पानी बचाने की बात करते हैं वे खुद ही तालाबों का पानी कम कर देना चाहते हैं। इसके लिए तालाबों के पूरा भर जाने के पहले ही पानी बहाया जा रहा है । 
इस संदर्भ में राजधानी भोपाल के बड़े तालाब का जिक्र करना जरूरी होगा । हाल ही में हुइ्र् बारिश के बाद पूरा भर जाने के  पहले ही इसे थोड़ा खाली करवा दिया गया । भोपाल शहर की पहचान का प्रतिरूप बड़े तालाब का पानी उच्च्तम स्तर १६६६.८० फीट तक पहुंचने केे पहले ही इस वर्ष उसे थोडा खाली करा दिया गया । पूरा भरने के पहले ही भदभदा के गेट इसके पहले शायद कभी नहीं खोले गये थे । सवाल उठता हैंकि इस बार जब पानी का स्तर १६६५ फीट तक पहुंचा तभी भदभदा के गेट खोलने की जरूरत क्यों पड़ गई ? 
इस मामले में कहा जा रहा है कि जिन लोगों ने बड़े तालाब के कैचमेंट एरिया में अतिक्रमण कर पक्के निर्माण कर लिये हैं अत्यधिक वर्षा से बड़े तालाब का पानी वहां तक जा पहुंचा था । कैचमेंट एरिया में पक्के निर्माण करने वाले ज्यादातर लोग राजनीतिक व प्रशासनिक प्रभाव वाले हैं और उन्होंने पानी को पक्के निर्माण के आसपास ज्यादा फैलने से रोकने के लिए भदभदा के तीन गेट खुलवा दिये और उनकी तरफ आ रहे पानी को बाहर करवा दिया । 
उल्लेखनीय है कि १२ जुलाई को बड़े तालाब का पानी भदभदा बांध के तीन गेट खोलकर बाहर कर दिया गया था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ,महापौर आलोक शर्मा की मौजूदगी में बांध के तीन गेट खोले गये थे । इसके बाद तालाब में पानी का स्तर कुछ कम तो हो गया लेकिन भदभदा के रास्ते बहनेवाला पानी अपने पीछे कई अनुत्तरित सवाल छोड़ गया है । ये सवाल बेवक्त  और बेवजह पानी छोड़ने के पीछे के दबाव-प्रभाव की ओर संकेत करते हैं । यह दबाव निश्चित रूप से उन लोगों का हो सकता है जिनके द्वारा तालाब के कैचमेंट एरिया में अवैध निर्माण कर लिया गया है । 
हाल ही में एक पखवाड़े तक हुई जोरदार बारिश के बाद बड़े तालाब का पानी कैचमेंट एरिया में तो फैला ही साथ ही यह पानी नगर निगम द्वारा बनाई गई रिटेनिंग वाल को भी पार कर गया। बढ़ते पानी से कैचमंेट एरिया मेंे बने एक विशाल निजी अस्पताल को भी खतरा पैदा हो गया था । यदि पानी तुरंत खाली नहीं करवाया जाता तो इस निजी अस्पताल के आसपास ज्यादा पानी भर जाने की आशंका  थी । शायद इसीलिए निजी अस्पताल के मालिकों ने अपने राजनीतिक सम्पर्क का इस्तेमाल कर भदभदा बांध के तीन गेट खुलवा दिये । यहां साढ़े १४ घंटे तक खुले रहे तथा  इनसे ३०४.५ क्यूबिक मीटर पानी बहा दिया   गया । पानी बह जाने के बाद नगर निगम द्वारा बनवाई गई रिटेनिंग वाल पुन: नजर आने लगी ओैर निजी अस्पताल के आसपास भरा पानी भी कम हो गया ।   
इस बारे में भोपाल के पर्यावरणविद डा. सुभाषचन्द्र पाण्डेय का कहना है कि किसी भी जलाशय को उसके सर्वोच्च् स्तर तक पहुंचने के पहले खोला ही नहीं जाना   चाहिये । उन्होंने कहा कि बड़े तालाब को पूरा भरने से पहले ही उसका पानी बहा देना एक तरह का गलत कदम है और पेयजल की कीमत पर कुछ लोगों के निजी हितों की रक्षा की जा रही है । इस बारे में सूत्रों का कहना है कि बड़े तालाब के कैचमंेट एरिया में एक विशाल निजी अस्पताल से लेकर आधा दर्जन से अधिक वरिष्ठ प्रशासनिक अफसरों के फार्म हाउस हैं।  
उच्च् न्यायालय के अधिवक्ता सिध्दार्थ गुप्ता का कहना है कि भोपाल में बड़े तालाब के केचमेंट एरिया से लेकर छोटे छोटे नालों तक पर लोगों ने कब्जा कर लिया है। उन्होंने कहा कि नगर निगम, राजस्व सहित अन्य विभागों के अधिकारियों की मिलीभगत के बिना कैचमंेट एरिया व नालों पर अतिक्रमण किया ही नहीं जा सकता है । जो भी अतिक्रमण हुआ है उसके लिए अधिकारी भी जिम्मेदार हैं। श्री गुप्ता ने कहा कि यदि बड़े तालाब के कैचमंेट एरिया के आसपास इसी तरह अतिक्रमण बढ़ते रहे तो आनेवाले कुछ वर्षों में यह एक छोटी सी तलैया में बदल जायेगा । 
अपने स्वार्थ की खातिर इस विशाल तालाब के मूल स्वरूप को नुकसान पहुंचाने वालों की पहचान कर उन पर कड़ी कार्यवाही की जाना चाहिये अन्यथा आनेवाले समय में इसके किनारों पर आलीशान होटल, फार्म हाउस, निजी अस्पताल आदि की संख्या बढ़ती चली जायेगी और इसका जलभराव क्षेत्र लगातार सिमटता जायेगा । 
गौरतलब है भोपाल में एक जमाने मंे लगभग दो दर्जन विशाल तालाब हुआ करते थे जिनकी पहचान अब खत्म सी हो गई है । अदालती दांव-पंेच और तारीख पर तारीख लगने से तालाबों पर कब्जा करने वालों के हौसले बुलंद हुए जिसका परिणाम यह है कि ताल तलैयों का शहर कहलाने वाले इस शहर में तालाबों के सामने खुद को बचाये रखने की चुनौती बढ़ती जा रही है । 
गौरतलब है कि भोपाल ही नहीं प्रदेश के अन्य महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक के जलस्त्रोत अतिक्रमण करने वालों के कारण अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं । इस सन्दर्भ में मध्यप्रदेश के सबसे बड़े इन्दौर शहर का जिक्र करना जरूरी होगा जहां होल्कर राज्य के समय बने पीपल्याहाना तालाब पर मिट्टी डालकर न्यायालय परिसर बनाने की तैयारी की जा रही थी । जब जनप्रतिनिधि और समाजसेवी इसके विरोध मंे एकजुट हुए तो निर्णय में बदलाव का आश्वासन मिला ।  दलगत राजनीति को भुलाकर भोपाल के नेता और समाजसेवी भी यदि आम जनता के साथ ऐसी एकजुटता दिखाये तो बड़े तालाब के अच्छे दिन फिर लौट सकते हैं, वरना अतिक्रमण करने वालों की बुरी नजर तो इसे लग ही गई है ।
ज्ञान-विज्ञान
पौधों की बातें सुनने की कोशिश
वैज्ञानिक निजेल वॉलब्रिज ने एक कंपनी बनाई है वाइवेंट और इस कंपनी ने एक यंत्र बनाया है फायटिलसाइन । वॉलब्रिज का दावा है कि पौधे विद्युत संकेतों के रूप में अपनी बात कह सकते हैं, जरूरत है तो उसे सुनने-समझने की । 
पीस लिली नामक एक पौधे पर यह यंत्र लगाया गया है । इस यंत्र में दो इलेक्ट्रोड हैं । एक इलेक्ट्रोड को गमले की मिट्टी में लगा दिय गया है और दूसरा इलेक्ट्रोड लिली के पौधों की पत्ती या तने पर लगाया जाता है । इस तरह बने परिपथ में एक स्पीकर भी लगा है । कभी-कभी इस स्पीकर में से आवाज निकलती है । आवाज निकलने का मतलब है कि इलेक्ट्रोड के बीच वोल्टेज बदल रहा है । जितनी तेज आवाज निकलती है, वोल्टेज परिवर्तन उतना ही तेज हा रहा है । 
यानी फायटिलसाइन ने लिली के पौधे को एक आवाज दे दही है । मगर अभी यह कोई नहीं जानता कि इस आवाज (यानी वोल्टेज परिवर्तन) का अर्थ क्या है ।
वनस्पति वैज्ञानिकों को बिल्कुल भी अंदाजा नही है कि जब इस तरह का वोल्टेज परिवर्तन होता है तो पौधे के अंदर क्या चलता है । अलबत्ता इतना तय है कि समय-समय पर वोल्टेज परिवर्तन होता है । वैज्ञानिक मानकर चल रहे हैं कि यह किसी प्रकार के संवाद का संकेत है । जैव-भौतिक शास्त्री जेरहार्ड ओबरमेयर का मानना है कि इस यंत्र ने बताया है कि समय-समय पर पौधे के अंदर कुछ परिवर्तन होते हैंऔर हमें इन्हें समझने की जरूरत है । 
स्विटजरलैण्ड के पादप वैज्ञानिक एडवर्ड फार्मर ने यह पुष्टि करने का प्रयास किया है कि ये संकेत वास्तव में पौधे से ही निकल रहे हैं । उन्होनें यह रिकॉर्ड करने की कोशिश की कि जब पौधे पर कोई घाव बनता है तो किस तरह के विद्युत संकेत उत्पन्न होते है । उन्होंने देखा कि ऐसा होने पर पौधे में से विद्युतीय संकेत पैदा होते है और फायटिलसाइन में पकड़े गए संकेत इनसे मेल खाते हैं । 
मगर अभी कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता । जैसे यह देखा गया है कि पौधे पर पानी का छिड़काव किया जाए, तो तत्काल वोल्टेज में परिवर्तन होता है । ये परिवर्तन बहुत त्वरित होते हैं और पौधे के द्वारा उत्पन्न नहीं किए जाते । तो एक मत यह बना है कि समय-समय पर होने वाले ये वोल्टेज परिवर्तन पौधो के पर्यावरण में या स्वयं पौधे में चल रहे रासायनिक परिवर्तनों के द्योतक है - यानी ये पौधे द्वारा किसी संप्रेषण के सूचक नहीं  है । 
अब वॉलब्रिज और उनकी कंपनी की कोशिश है कि कई सारे लोग इस यंत्र का उपयोग करें ताकि किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके । 
ओजोन का सुराख सिकुड़ने लगा है 
सन् १९८५ में यह पता चला था कि अंटार्कटिक के ऊपर वायुमण्डल में ओजोन का आवरण बहुत झीन पड़ गया है और इसकी वजह से सूरज से आने वाली पराबैंगनी यानी अल्ट्रावायलेट किरणें  ज्यादा मात्रा में पृथ्वी पर पहुंच रही हैं । ओजोन आवरण (जिसे ओजोन की छतरी भी कहा जाता है) का इस तरह पतला होना इस बात का प्रमाण था मनुष्यों ने अपने क्रियाकलाप से वायुमण्डल को कितना नुकसान पहुंचाया है । मगर अब अच्छी खबर है कि ओजोन आवरण वापिस दुरूस्त हो रहा है । 
दरअसल, कई सारे उपकरण में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) के उपयोग का परिणाम था कि यह पदार्थ वायुमण्डल के ऊपरी हिस्से में पहुंचने लगा था । सीएफसी ओजोन के विनाश का एक प्रमुख कारण था । शोधकर्ताआें ने बड़ी मुश्किल से इस बात के प्रमाण एकत्रित किए थे कि वास्तव में सीएफसी ही ओजोन आवरण के विनाश का जिम्मेदार है क्योंकि उद्योग जगत तो इस बात को मानने को कदापि तैयार नहीं था । काफी प्रमाण एकत्रित हो जाने पर वैज्ञानिकों की कोशिशों के फलस्वरूप मॉन्ट्रियल समझौता हुआ था । इसी मॉन्ट्रियल समझौते की बदौलत सीएफसी का उपयोग धीरे-धीरे कम होता गया । 
सीएफसी और ओजोन की क्रिया काफी पेचीदा होती है । जाड़े के मौसम मेंनाइट्रिक अम्ल और पानी संघनित होकर बादल का रूप ले लेते है । इन बादलों की सतह पर क्रिया के चलते सीएफसी का विघटन होता है और क्लोरीन बनती है । यह क्लोरीन ओजोन से क्रिया करके उसे नष्ट करती है । मगर यह क्रिया सिर्फ प्रकाश की उपस्थिति में होती है । जाड़े के दिनों में तो अंटार्कटिका पर प्रकाश नहीं पहुंचता । मगर जैसे ही वसंत के आगमन के साथ वहां धूप आने लगती है तो ओजोन का नाश तेजी से होने लगता है । इसी वजह से अक्टूबर के महीने में सर्वाधिक नुकसान होता है और वैज्ञानिक ओजोन आवरण का अध्ययन इसी दौरान करते हैं । 
एम.आई.टी. की मौसम वैज्ञानिक सुसन सोलोमन ने साइन्स में प्रकाशित अपने शोध पत्र में बताया है कि उन्होनें ओजोन के अध्ययन के लिए उपग्रह से प्राप्त् आंकड़ों, धरती पर किए गए मापन और मौसम संबंधी गुब्बारों से मिली जानकारी का उपयोग किया है । उन्होनें पाया कि २००० के बाद से ओजोन छिद्र में ४० लाख वर्ग किलोमीटर की कमी आई है, जो भारत के क्षेत्रफल से बड़ा है । 
अपने अध्ययन में उन्होनें यह भी पाया कि कमी वास्तव में रसायनों के घटे हुए उपयोग का ही परिणाम   है । इसके लिए उन्होनें वायुमण्डल का एक त्रि-आयामी मॉडल विकसित किया ताकि ओजोन छतरी को नुकसान पहुंचाने वाले अलग-अलग कारकों को अलग-अलग करके देख सके । इसके आधार पर उनका निष्कर्ष है कि ओजोन आवरण में सुधार रसायनों का उपयोग घटने की वजह से ही हो रहा है । इससे पहले २०११ में किए गए अध्ययन में भी ओजोन आवरण की स्थिति में सुधार के संकेत मिले थे मगर तब यह तय नहींहो पाया था सुुधार की वजह क्या है । 
हालांकि अभी इस अध्ययन के निष्कर्षो पर वैज्ञानिकों के बीच विचार-विमर्श जारी है मगर इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर लिए गए राजनैतिक निर्णय कारगर हो सकते है । 

अनार मांसपेशियों को बेहतर बनाता है 
जब हम अनार, स्ट्राबेरी या अखरोट खाते हैं तो हमारा शरीर एक रसायन बनाता है जिसका नाम युरोथिलिन-ए है । शोधकर्ताआें का मत है कि युरोथिलिन-ए मांसपेशियों को ज्यादा काम करने में सक्षम बनाने का काम करता है । स्विट्जरलैण्ड के ईकोल पोलीटेक्निक के जोहान ऑवर्क्स और उनकी साथी यह परखना चाहते थे कि क्या ये खाद्य पदार्थ उतने ही लाभदायक हैं, जितना कि दावा किया जाता है । उन्होंने अपने प्रयोगों के परिणाम नेचर मेडिसिन में प्रकाशित किए है । 
जब उन्होनें युरोथिलिन-ए की खुराक एक कृमि सेनोरेब्डाइटिस एलेगेंस को दी तो ये कृमिऔसतन ४५ प्रतिशत अधिक उम्र तक जीवित रहे । और जब यही रसायन बुजुर्ग चूहों को पिलाया गया तो वे ४२ प्रतिशत अधिक दौड़ पाए । और सबसे बड़ी बात यह देखी गई कि इन चूहों में अतिरिक्त दौड़ पाने की यह क्षमता अधिक मांसपेशियां बनने की वजह से पैदा नहीं हुई थी । इसका मतलब है कि युरोथिलिन-ए मांसपेशियों की मात्रा को नहीं बढ़ाता बल्कि उनकी गुणवत्ता को बढ़ाता है । तो आखिर कैसे ?
   जांच पड़ताल से पता चला कि युरोथिलिन-ए  मांसपेशियों में से क्षतिग्रस्त माइटो-कॉण्ड्रिया नामक उपांगों को निकाल बाहर करता है । गौरतलब है कि माइटेकॉण्ड्रिया हमारी कोशिकाआें के पॉवरहाउस होते हैं - इन्हीं में ग्लूकोज का ऑक्सीकरण होता है और ऊर्जा मुक्त होती है । जब क्षतिग्रस्त माइटोकॉण्ड्रिया को हटा दिया जाता है तो शेष बचे तंदुरूस्त माइटोकॉण्ड्रिया  विभाजित होकर संख्या वृद्धि करते  है । 
पर्यटन 
चार साल में चांद की सैर
शर्मिला पाल

अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में लगातार हो रही प्रगति बताती है कि साल २०२० अंतरिक्ष में मानव की आवजाही का प्रस्थान बिन्दु होगा और २०५०-५५ तक मानव की अंतरिक्ष में आमदरफ्त आम हो जाएगी । अगले चार दशक के भीतर ही अंतरिक्ष की सैर अमीरों के लिए नया शगल होगा । इसके लिए देशी-विदेशी और निज सुविधाआें की भरमार  होगी । 
एक दशक यानी २०३० तक मंगल पर जाने, बसने का सपना सच होने में किंचित संदेह हो सकता है पर पृथ्वी की निचली कक्षाआें तक घूम आना, अंतरिक्ष को छूकर लौटना, किसी क्षुद्रग्रह पर जाकर कुछ घंटे ठहरना, टहलना, चांद की सैर की योजना बनाना, चांद पर उतरकर मून वॉक कर धरती पर लौटनी का रोमांचक शौक पूरा करना तो लोग शुरू कर ही देंगे । 

यह शुरूआती सफर अगले दो तीन दशकों में आम हो जाएगा । अमरीकी अंतरिक्ष संगठन नासा ही नहीं, चीन और युरोपीय संगठन सीरखे दर्जन भर दूसरे देश भी इस दिशा में सक्रिय हैं । भारत भी मानव सहित अंतरिक्ष यान भेजने की तैयारी में है । 
देशों के अलावा कई निजी कंपनियां भी अंतरिक्ष पर्यटन के क्षेत्र में नयापन और अकूत मुनाफे की संभावना देख इस क्षेत्र में कूद पड़ी है । यहां तक कि वे अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन तक रसद इत्यादि पहुंचाने की सेवा भी देने लगी है और अपने सुविधायुक्त यानों का गुणगान भी करने लगी है । मानव सहित सुविधाजनक अंतरिक्ष यान विकसित होने, अंतरिक्ष में लंबे समय तक रहने, अंतरिक्ष में सब्जी उगाने, जीवाणु विकसित करने तथा अंतरिक्ष पर्यटन के कार्यक्रमों और इससे संबंधित दूसरे प्रयासों मे आई तेजी तथा शोध और निरन्तर तीव्र विकास को देखकर यह कहा जा सकता है कि इस पीढ़ी के बच्च्े बड़े होकर अंतरिक्ष यात्रा के रोमांच का आनंद लेने को तैयार होंगे । 
अंतरिक्ष यात्रा के लिए यान की तकनीक लगभग तैयार है । पर इससे पहले जरूरत है एक अंतरिक्ष स्टेशन के निर्माण की जहां यान रूके, यात्री ठहरें, स्पेसवॉक कर  सकें । नासा के साथ मिलकर काम कर रही निजी कंपनी बैग्लो एयरोस्पेस का दावा है कि २०२० तक वह बी-३३० नाम प्राइवेट स्पेश स्टेशन स्थापित कर लेगी । यह अंतरिक्ष स्टेशन मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन से छोटा पर अधिक तकनीक सक्षम और सस्ता होगा । ३३० घन मीटर के इस स्पेस स्टेशन पर ६ अंतरिक्ष पर्यटक आसानी से रह सकेंगे । 
यदि यह सफल रहता है तो यह साबित हो जाएगा कि इसी तरह के स्पेश स्टेशन सस्ते में बनाए जा सकेगे । यह परियोजना जारी है । देर हुई तब भी वह २०२५ तक अपना उद्देश्य अवश्य पा लेगी । रूस इस जुगाड़ में है कि जब २०२० में अंतर्राष्ट्रीय स्पेश स्टेशन का कार्यकाल खत्म हो जाएगा तो वह अपनी हिस्सेदारी अलग कर वहां ऑर्बाइटल पायलेट एसेंबली एंड एक्सपेरीमेंट कॉमप्लेक्स खोलेगा । यहां मानव सहित अंतरिक्ष यान आएंगे । और फिर यहां से आगे मंगल, शनि इत्यादि ग्रहों तक मानव सहित यान की यात्रा के मंसूबे बांधे जाएंगे । चीन भी अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन या मीर की तरह अपना मल्टी मॉड्यूल अंतरिक्ष स्टेशन विकसित कर रहा   है । संभवत: २०२२ में वह अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित कर लेगा । 
तमाम अंतरिक्ष स्टेशन बन जाने के बाद उनमें होड़ शुरू होगी जिसमें पर्यटकों को वहां ले जाने और धन कमाने की प्रतिस्पर्धा खास  होगी । 
चांद अंतरिक्ष पर्यटकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण होगा । इसे देखते हुए रूस, चीन, अमेरिका जैसे देशों के अलावा यूरोपीय स्पेस एजेंसी भी इस प्रयास में लगी है कि अगले पांच सालों में चांद की यात्रा सुगम बनाई जा सके । भारत भी भले ही वह अंतरिक्ष स्टेशन बनाकर अंतरिक्ष में अपना अड्डा बनाने की जुगत में न हो पर मानव सहित अंतरिक्ष यान चांद पर भेजने को तैयार है । नासा का चांद पर लंबे समय तक रहने और फिर वापस आने वाला नए तरीके का यान तकरीबन तैयार कर चुका है । वह २० से ४० टन तक वजन लेकर बेहद कम समय में चांद पर पहुंचने वाले इस यान का परीक्षण करने ही वाला है । 
चांद की अलावा क्षुद्रग्रह भी अंतरिक्ष पर्यटन के लिए बहुत पसंदीदा स्थल होने लगा है । बहुत से क्षुद्रग्रह ऐसे पर्यटन स्थल मे शुमार होंगे जिनके बारे में कम जानकारी होगी और उनके तमाम हिस्से बेहद रोमाचांक, सामान्य ग्रहों से अलग विशेषता रखने वाले और अछूते   होंगे । नासा अंतरिक्ष उपकरणों की मदद से कुछ क्षुद्रग्रहों को ठेल कर जबरिया चांद की स्थिर कक्षा में स्थापित करने की सोच रहा है । ये भी दर्शनीय अंतरिक्ष पर्यटन स्थल होंगे । एक दो दशक बीतते - बीतते पर्यटन के लिए उपयुक्त कुछ और अनूठे क्षुद्रग्रहों की खोज होना नितांत संभव है जिसके चलते अंतरिक्ष पर्यटकों की रूचि बढ़ेगी और इस धंधे मे लगी कंपनियां औश्र एडवेचर पसंद लोग उधर रूख करेगें । 
उधर मगल पर मानव को पहुंचाने के लिए कई देशों और कंपनियों ने कमर कस रखी है । नासा का दावा है कि वह २०३० तक मानव को मंगल की सैर करा    देगा । इसके लिए वह मंगल की खाक छान रहे मौजूदा रोवर के आंकड़ों की पड़ताल तो कर ही रहा है, मंगल की सतह पर मनुष्य को उतारने की संभावनाआें को समझने के लिए २०२० में एक और रोवर भेजेगा । यह रोवर बताएगा कि मंगल पर मानव के पैर रखने और टिकने के लिए किन तकनीकी विशेषताआें की आवश्यकता है । मंगल का सफर लंबा है इसलिए अलग तरीके से विचार करना होगा 
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष  
मानव विकास मापदंडों पर पिछड़ता भारत
डॉ. रामप्रताप गुप्त 

सामान्य तौर पर विकास के मापदण्ड के रूप में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में वृद्धि की दर को ही प्रयुक्त किया जाता है और राष्ट्र इसी में वृद्धि को अधिकतम बनाने के लक्ष्य को लेकर अपनी आर्थिक नीतियां बनाते हैं । 
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन के अनुसार मात्र प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि से यह तय नहीं होता कि इससे व्यक्तियों की कार्यक्षमता में समुचित वृद्धि हो पा रही है । प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ-साथ लेगों की शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में वृद्धि की दर भी समुचित हो तभी जाकर व्यक्ति की विभिन्न लक्ष्यों में से समुचित लक्ष्य का चुनाव कर उसे प्राप्त् करने की क्षमता में वृद्धि हो सकेगी । 
इन्हीं तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए और प्रो. अमर्त्य सेन के विचारों से प्रभावित होकर पाकिस्तानी अर्थशास्त्री प्रो. महबूब उल हक ने विकास के बेहतर मापदण्ड के रूप में सन १९९० में मानव विकास सूचकांक की अवधारणा प्रस्तुत की । मानव विकास सूचकांक की गणना में प्रति व्यक्ति आय के साथ-साथ शैक्षणिक और स्वास्थ्य स्तर में बेहतरी को भी शामिल किया जाता है और इन तीनों को समान महत्व प्रदान किया जाता है । इस सूचकांक का अधिकतम मूल्य १ हो सकता    है । 
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम सन १९९० से ही प्रतिवर्ष विभिन्न मानव विकास सूचकांको की रिपोर्ट प्रकाशित करता आ रहा है और सन २०१५ की रिपोर्ट सन २०१४ के आंकड़ों पर आधारित है । यह इसकी २५वीं रिपोर्ट है । 
इस रिपोर्ट में प्रदत्त भारत संबंधी आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन वर्षो में विश्व व्यापी मंदी की पृष्ठभूमि में भी अपनी राष्ट्रीय आय की ऊंची दर को बनाए रखने में सफल भारत अपनी त्रुटिपूर्ण विकास नीतियों के कारण एक ओर तो वह आय के वितरण में बढ़ती विषमता को रोकने में विफल रहा   है । दूसरी ओर उसकी आय वृद्धि सामाजिक विकास और शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाआें के बेहतर स्तर के रूप में परिणित नहीं हो सकी है । अक्टूबर सन् २०१५ में प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में क्रेडिट सुइस (भारत में कार्यरत एक वित्तीय सेवा कंपनी ) ने बताया था कि भारत की ७६ प्रतिशत संपत्तियों पर चोटी के १० प्रतिशत व्यक्तियों का कब्जा है और समय के साथ-साथ इस वर्चस्व में वृद्धि की प्रकृतिदिख रही है । आय पर कुछ लोगों के इस बढ़ते वर्चस्व के कारण सामान्य व्यक्ति की आय मेंमात्र सीमान्त वृद्धि ही हो सकी    है ।
सामान्य व्यक्ति की आय में इन वर्षो में मात्र सीमान्त वृद्धि हो रही थी, अत: उसकी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाआें तक पहुंच को बनाए रखने के लिए इन क्षेत्रों में सार्वजनिक सेवाआें का तेजी से विस्तार होना   था । भारत इस दृष्टि से भी नितांत असफल रहा है । शिक्षा पर बिठाए गए कोठारी आयोग (१९६६) की रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि भारत को शिक्षा पर अपनी राष्ट्रीय आय का कम से कम ६ प्रतिशत हिस्सा खर्च करना चाहिए । इसी तरह स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि देश को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें पर कम से कम २.५ से ३ प्रतिशत आय खर्च करना चाहिए । 
लेकिन आज भी भारत सार्वजनिक शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का मात्र ४ प्रतिशत और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें पर मात्र १.०० प्रतिशत ही खर्च रहा है । शिक्षा औश्र स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय के निम्न स्तर के कारण आम लोगों की इन तक समुचित पहुंच नहीं बन सकी है और यही कारण है कि देश में आय वृद्धि की ऊंची दर के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर मेंसमुचित वृद्धि नहीं हो सकी है । 
मानव विकास सूचकांको की गणना में प्रति व्यक्ति आय, शिक्षा और स्वास्थ्य स्तर को समान महत्व दिया जाता है, अत: राष्ट्रीय आय में वृद्धि के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य के मापदण्डोंमें तदनुरूप वृद्धि नहीं होने से भारत के मानव विकास सूचकांको की वृद्धि की दर भी धीमी पड़ गई है । सन् १९९०-२००० के बीच मानव विकास सूचकांको में १.४४ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई थी जो सन् २०००-१० की अवधि में बढ़कर १.६७ प्रतिशत हो गई थी । परन्तु सन् २०१०-१४ अवधि में यह गिरकर ०.९७ प्रतिशत प्रति वर्ष ही रह गई    है । इस समय भारत का मानव विकास सूचकांक ०.६०९ है जो हमसे कम आय वाले कुछ राष्ट्रों के मानव विकास सूचकांको से भी कम है । 
शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्वजनिक सेवाआें का समुचित विस्तार न होने से देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को बहुआयामी गरीबी की जकड़न से भी मुक्ति नहीं दिलाई जा सकी है । लैंगिक समता और महिलाआें के सशक्तिकरण की दृष्टि से भारत अपने पड़ोसी देशों (जैसे बंगलादेश और पाकिस्तान) की तुलना में भी पिछड़ रहा है । हमारे नेता भले ही इण्डिया शाइनिंग या आने वाले वर्षो में भारत को विश्व की अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाने वाला राष्ट्र कहते रहें, यह मानव सूचकांको की दृष्टि से तो पिछड़ता जा रहा है । 
सन २०१४ में मानव विकास सूचकांको के क्रम में विश्व के राष्ट्रों में भारत का १३०वां है । जो उसकी प्रति व्यक्ति आय के क्रम से ४ अंक नीचे है । कुछ वर्षो पूर्व भारत का क्रम १२४वां था । मध्यम आय वर्ग के राष्ट्रों की सूची में, मानव विकास सूचकांक के मामले में भारत का स्थान नींच से दूसरा है । 
मानव विकास सूचकों में समुचित गति से सुधार की आने वाले वर्षो में भी कोई संभावना नहीं है । नई एन.डी.ए. सरकार के प्रथम दो वर्षो के बजटों मे शिक्षा और स्वास्थ्य के बजटों में २० प्रतिशत की कमी आई है । परिणाम यह होगा कि आने वाले वर्षो में भारत में मानव विकास सूचकांको की दृष्टि से वृद्धि दर और कम हो जाएगी, शायद रूक ही   जाए । 
इस पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि अगर भारत आने वाले वर्षो में अपने क्रम को  और नीचे लान से रोकना चाहता है या उसमें सुधार लाना चाहता है तो शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाआें में सार्वजनिक निवेश में भारी वृद्धि करना होगी । ऐसा नहीं किया जाता है तो हम कुवैत जैसे राष्ट्र का अनुसरण कर रहे होगे । विश्व के राष्ट्रों में आय की दृष्टि से कुवैत का स्थान उसके स्वास्थ्य एवं शिक्षा की दृष्टि से स्थान की तुलना में ४० स्थान ऊपर है । दूसरी और, क्यूबा की स्थिति बिल्कुल विपरीत है । क्यूबा का स्वास्थ्य एवं शिक्षा की दृष्टि से जो स्थान है वह उसकी आय की दृष्टि से स्थान की तुलना में ४७ पायदान ऊपर है । 
भारत को चाहिए था कि वह क्यूबा मॉडल को अपनाकर मानव विकास सूचकांको की दृष्टि से बेहतर प्रदर्शन करें । परन्तु पिछले दो वर्षो के केन्द्र सरकार के बजटों में शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बजटों में जो २० प्रतिशत कमी की गई है, उसका अर्थ यह हुआ कि अब आम आदमी के लिए सार्वजनिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाआें तक पहुंच कठिन हो जाएगी । इस पृष्ठभूमि में संभव है कि प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से शायद इस क्रम में ऊपर उठते जाएंगे मगर स्वास्थ्य एवं शिक्षा की दृष्टि से नीचे फिसलते जाएंगे । हमें समय रहते मानव विकास सूचकांक के क्रम के निम्न स्तर की स्थिति से उबरना ही होगा तभी जाकर आने वाले वर्षो में हम अपनी प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की दर को भी कायम रख सकेगे ।
मौसम
जलवायु परिवर्तन : कारण एवं प्रभाव 
प्रो. कृष्ण कुमार द्विवेदी 

सामान्यत: किसी भी स्थान की दीर्घकालीन मौसमी दशाएं जलवायु कहलाती है । जलवायु स्थिर रहती है वर्तमान समय में कुछ प्राकृतिक एवं अधिक मानव जनित कारणों से जलवायु स्थिर नहीं रह पा रही है । फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन की समस्या आज प्रमुखता से विश्व में छाई हुई है । 
जलवायु परिवर्तन से आशय जलवायु में प्रत्यक्ष रूप से दिखने वाले बदलावों से है । यह बदलाव एक दो महीने या वर्ष में नही है वरन इसे होने में कई दशक या हजारों लाखों वर्षोंा का समय लगता है । जलवायु परिवर्तन की काली छाया मात्र हमारे प्रदेश-देश पर ही नहीं वरन् संपूर्ण विश्व पटल पर मंडरा रही है । वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या बन चुकी है । आज अधिकांश वैश्विक सम्मेलकों में जलवायु परिवर्तन का ही मुख्य मुद्दा छाया हुआ है । 
ग्लेशियरों का पिघलना, भूमण्डलीय तापन, अतिवृष्टि सूखा, सुनामी जैसी समस्याएं जलवायु में हो रहे परिवर्तन का ही परिणाम परिलक्षित करती है । जलवायु में हो रहे परिवर्तन के मूल जो कारण उनमें कुछ कारण प्राकृतिक अवश्य है किंतु अत्याधिक कारण मानव जनित ही है । प्राकृतिक कारणोंमें मुख्य रूप से ज्वालामुखी उदभेदन आते हैं जिनमें अंदर द्रवित चट्टान, लावा, भस्म तथा गैसे निकलती है । गैसों में मुख्य रूप से सल्फर डाई आक्साइड, सल्फर ट्राइआक्साइड , क्लोरीन, वाष्प, कार्बन डाई आक्साईड, हाइड्रोजन सल्फाइड तथा कार्बन मोनो आक्साइड आदि होती है । 
ज्वालामुखी विस्फोट के कारण धूल एवं राख के कण भी गैसोंके साथ बहुत ऊपर तक चले जाते है और वायुमंडल में वर्षोंा तक विद्यमान रहकर जलवायु को प्रभावित करते है । प्राकृतिक कारणों में महासागरीय धाराएंं आती है । पृथ्वी के ७० प्रतिशत से अधिक हिस्से में स्थित सागर, महासागरों तथा जलवायु के निर्धाण में सबसे अधिक योगदान होता है । समय-समय पर समुद्र अपना ताप वायुमंडल में छोड़ता है जिससे जलवायु प्रभावित होती है । अत्याधिक ताप जलवायु के रूप में पृथ्वी पर ग्रीन हाऊस गैस के प्रभाव बढ़ाता है ।  
यहाँ उल्लेखित है कि जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक मानवजनित कारण ही आते है उनमें सर्वप्रथम आता है कार्बन डाइआक्साईड उत्सर्जन में लगातार होती वृद्धि । बढ़ते नगरीकरण एवं औद्योगिकीकरण के कारण वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साईड की मात्रा बढ़ रही है साथ ही वनों की अत्याधिक कटाई और दोहन के कारण पेड़ पौधों द्वारा कार्बन डाइआक्साईड की मात्रा बढ़ रही है साथ ही वनों की अत्याधिक कटाई और दोहन के कारण पेड़ पौधो द्वारा कार्बन डाइआक्साईड के साथ-साथ अन्य घातक गैसे जिसमें मीथेन, नाइट्रोजन आक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि सभी मिलकर ग्रीन हाउस प्रभाव वायुमंडल में उत्पन्न करते है जो जलवायु परिवर्तन के लिए प्रमुख कारण बन जाता है । 
वायुमण्डल में स्थित ये गैसे काँच की तरह व्यवहार करती है इसमें सूर्य का ताप आ तो जाता है पर वापस नहीं जा पाता है जिससे ताप बढ़ता है और जलवायु प्रभावित होती है । जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी दूसरा प्रमुख कारण है कि आधुनिक कृषि, जिसमें रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग एवं कीटनाशकों के अत्यधिक छिड़काव के कारण एक साथ जल, मिट्टी वायु में प्रदूषण बढ़ता है । 
कविता
धरती की लाज बचाये 
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन 












मैं शिप्रा सा ही 
सरल सरल बहता हूं । 
मैं कालीदास की
शेष कथा कहता हूँ ।।
मुझको न मौत भी
भय दिखला सकती है । 
मैं महाकाल की
नगरी में रहता हूँ ।। 
हिमगिरी के उर का
दाह दूर करता है । 
मुझको सर, सरिता
नद, निर्झर भरना है ।। 
मैं बैठूं कब तक 
केवल कलम सम्हाले ।
मुझको इस युग का 
नमक अदा करना है ।।
मेरी श्वासों में 
मलय-पवन लहराये । 
धमनी-धमनी में 
गंगा-जमुना लहराये ।। 
जिन उपकरणों से 
मेरी देह बनी है । 
उनका अणु-अणु 
धरती की लाज बचाये ।।