गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018



प्रसंगवश
गिर के जंगलोंसे आया दुखद समाचार
निर्मल कुमार शर्मा 
भारत के एक मात्र सिंहो (बब्बर शेरों) के प्रश्रय स्थल गिर के जंगलों से पिछले कुछ दिनों से बहुत ही दुखी कर देने वाले समाचार आ रहे हैं । गिर के जंगलों के एक भाग में रहने वाले २६ सिंहों के एक परिवार में पालतू पशुओं और कुत्तों में होने वाली एक प्राणान्तक बिमारी के  वाइरस के संक्रमण से कुछ ही दिनों में उन २६ सिंहों में से २३ कालकवलित हो गये उनमें से केवल अब केवल ३ सिंह बचे हैं ,लेकिन अगर समय रहते उन्हें भी कहीं अन्यत्र स्थानांतरित नहीं किया गया तो उनके भी बचने की सम्भावना कम ही है । 
मनुष्यजनित कृत्यों,  बढ़ती आबादी ,गरीबी , मनुष्य के हवश और लालच से वनों के अत्यधिक दोहन की वजह से वनों का क्षेत्रफल लगातार सिकुड़ता जा रहा है ।  वन्य जन्तुओं के विचरण क्षेत्र, भोजन और पानी की समस्या बढ़ती ही जा रही है ,जिससे वन्य प्राणी सघन वन क्षेत्रों से मानव बस्तियों की तरफ आने को बाध्य होते हैं ,जहाँ मनुष्यों द्वारा उनकी जान का खतरा तो रहता ही है ,पालतू पशुओं जैसे कुत्तों ,सूअरों, गाय,बैलों ,भैंसों आदि से भी उनके रोग संक्रमित होने का खतरा बना रहता है । पशु वैज्ञानिकों के अनुसार गिर के उक्त दुखद घटना में भी सिंहों को वही पालतू पशुओं से रोग संक्रमित होने की संभावना है ,जिसमें कुछ ही दिनों में २६ में से २३ सिंहोंकी अकाल मृत्यु हुई है । उस दुनिया की कल्पना करें, जिसमें सिर्फ मनुष्य अकेला ही जीवित रह कर विचरण करता हो ,उसमें बहुविविध चिड़ियों के झुंड आदि वन्य जीव और पेड़-पौधे धीरे -धीरे मनुष्य जनित क्रियाकलापों के दुष्प्रभाव से विलुप्त् हो जायें तो इस स्थिति की वीरान पृथ्वी की कल्पना करना भी डरावना लगता है ।
           इसलिए मानव जाति को, जो इस पृथ्वी का सबसे विकसित प्राणी है , को इस पृथ्वी से इन वन्य जीवों के बसेरों यथा पेड़ों ,वनों ,पहाड़ों ,झीलों, झरनों, नदियों ,सपाट मैदानों, समुद्रों आदि के संरक्षण के लिए अपने स्तर पर गंभीर और ईमानदार कोशिश करनी ही चाहिए । अन्यथा प्रकृति, पर्यावरण के तेजी से क्षरण के साथ वन्य जीवों का भी विलुप्त्किरण बहुत ही तेजी से हो रहा है , भारत के गिर के  जंगलों में बचे हुए सिंहों का एकमुश्त मृत्यु होना इसी की एक कड़ी है, ज्ञातव्य है कि ये सिंह कभी समस्त भारत भर में विचरण करते थे 
सम्पादकीय 
हर साल पांच लाख लोगों को लील रहा जहरीला धुआं
देश में वायु प्रदूषण से होने वाली सबसे ज्यादा मौत का कारण घर के चूल्हे व  ट्रेफिक जाम के दौरान वाहनोंसे निकलने वाले धूल व धुएं के छोटे कण हैं । वातवरण में महज २७ फीसदी मौजूदगी के बावजूद  ये छोटे कण प्रदूषण से होने वाली ७० फीसदी मौतों का कारण है । हर साल करीब पंाच लाख लोग इन छोटे धूल कणों के चलते हो रही बीमारियों से मर रहे हैं । चौंकाने वाली यह जानकारी कानपुर आईआईटी के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के पीएचडी छात्रों के शोध में सामने आई है । 
देश में वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है । ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (जीबीडी) ने देशभर में वायु प्रदूषण से पांच लाख लोगों की मौत होने का आंकड़ा दिया था । आईआईटी के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रो. तरूण कुमार गुप्त के निर्देशन में डॉ. प्रशांत राजपूत व सैफी इजहार ने २०१५-१६ में शोध शुरू किया । कानपुर को केन्द्र में रखकर दिल्ली, लखनऊ, नोएडा, पटना, जयपुर समेत अन्य कई शहरों से आंकड़े जुटाए । 
शोध में सामने आया कि वायु प्रदूषण में ७३ प्रतिशत धूल के कारण पीएम २.५ से ऊपर हैं, जो सिर्फ शरीर के ऊपरी हिस्सों के लिए खतरनाक हैं, लेकिन छोटे करण महज २७ फीसदी मौजूदगी के बावजूद लोगों का सब क्रानिक ऑब्सट्रक्टिव, फ्ल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी), टीबीएल कैंसर, अस्थमा और काली खांसी जानलेवा बीमारियां दे रहे हैं । छात्रों का यह शोध अंतरर्राष्ट्रीय जर्नल में भी प्रकाशित हुआ है । 
शोधार्थियों ने वायु प्रदूषण के डाटा को लंग्स मॉडलिंग से देखा । यह कम्प्यूटरीकृत मॉडल है । इसमेंसामने आया कि पीएम२.५ माइक्रोग्राम से अधिक आकार के कण गले से नीचे नहींजाते । २.५ से छोटे कण सीधे फेफड़े व और धमनियों में जम जाते हैं । शोध में सामने आया कि देश के उत्तरी क्षेत्र में वायु प्रदूषण ज्यादा है । गंगा के तटीय क्षेत्रों में मध्यम और दक्षिण के राज्यों में प्रदूषण का स्तर अपेक्षाकृत कम है । 
सामयिक
आपदाआें की क्षति कम करने की नीतियां
भारत डोगरा
किसी भी आपदा के आने पर उसके नियंत्रण के उपाय उच्च्  प्राथमिकता के आधार पर किए जाते हैं । पर यदि नीतिगत स्तर पर कुछ सावधानियों व समाधानों पर निरंतरता से कार्य हो तो आपदाओं की संभावना भी कम होगी तथा किसी आपदा से होने वाली क्षति भी कम होगी ।
जल संरक्षण व हरियाली बढ़ाने के छोटे-छोटे लाखों कार्यों में सरकार को निवेश बड़ी मात्रा में बढ़ाना चाहिए । साथ ही यह कार्य जन भागीदारी से करने की व्यवस्था करनी चाहिए । जल संरक्षण के साथ नमी संरक्षण की सोच को महत्व मिलना चाहिए । हरियाली स्थानीय वनस्पतियों से बढ़नी चाहिए । वृक्षारोपण में जल व मिट्टी संरक्षण के साथ पौष्टिक खाद्य उपलब्धि को भी महत्व देना चाहिए । जिन गांवों में जल संरक्षण व हरियाली की उत्तम व्यवस्था है, वे विभिन्न आपदाओं के  प्रकोप को झेलने में अन्य ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक सक्षम हैं । कुछ अलग तरह से यह प्राथमिकता शहरी व अर्धशहरी क्षेत्रों में भी अपनानी चाहिए  ।
विभिन्न संदर्भोंा में पर्यावरण रक्षा की नीतियों को मजबूत करने से आपदाओं में होने वाली क्षति को कम करने में सहायता मिलेगी । चाहे खनन नीति हो या वन नीति या कृषि नीति, यदि इनमें पर्यावरण की रक्षा पर समुचित ध्यान दिया जाता है तो इससे आपदाओं की संभावना व क्षति को कम करने में भी मदद मिलेगी ।
विभिन्न क्षेत्रों की संभावित आपदा की दृष्टि से मैपिंग करने, पहचान करने व आपदा का सामना करने की तैयारी पर पहले से समुचित ध्यान देना जरूरी है । जलवायु बदलाव के इस दौर में केवलसामान्य नहीं अपितु असामान्य स्थितियों की संभावना को भी ध्यान में रखने की जरूरत है । इसके लिए बजट बढ़ाने के साथ-साथ अनुभवी स्थानीय लोगों के परामर्श को महत्व देना आवश्यक है । अधिक जोखिमग्रस्त स्थानों में रहने वाले लोगों से परामर्श के बाद नए स्थान पर पुनर्वास जरूरी समझा जाए तो उसकी व्यवस्था भी करनी चाहिए ।
मौसम के पूर्वानुमान की बेहतर व्यवस्था, इसके समुचित प्रसार को सुनिश्चित करना भी आवश्यक है ।   
देश के ढांचागत या इन्फ्रास्-ट्रक्चर विकास में आपदा पक्ष को भी स्थान मिलना चाहिए । दूसरे शब्दों में , विभिन्न ढांचागत विकास की परियोजनाओं (सड़क, हाईवे, नहर, बांध, बिजलीघर आदि) के नियोजन का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी होना चाहिए कि उनसे किसी आपदा की संभावना या उससे होने वाली क्षति न बढ़े । उदाहरण के लिए सड़कों में निकासी की उचित व्यवस्था न होने से बाढ़ व जल-जमाव की समस्या बहुत बढ़ सकती है । विभिन्न ढांचागत परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर पेड़ काटने या डायनामाइट दागने से भूस्खलन की समस्या बहुत बढ़ सकती है । इस बारे में पहले से सावधानी बरती जाए तो अनेक महंगी गलतियों से बचा जा सकता है । इस तरह की सावधानियां विशेषकर उन क्षेत्रों में अपनाना जरूरी है जहां बहुत बड़े पैमाने पर ढांचागत विकास होने वाला है । यह स्थिति इस समय देश के अनेक क्षेत्रों की है, जो पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील माने गए हैं । जैसे हिमालय व पश्चिमी घाट क्षेत्र ।
बांध प्रबंधन में सुधार की जरूरत काफी समय से महसूस की जा रही है । इस बारे में उच्च् अधिकारियों व विशेषज्ञों ने वर्तमान समय में कहा है कि बांध प्रबंधन में बाढ़ से रक्षा को अधिक महत्व देना व इसके अनुकूल तैयारी करना महत्वपूर्ण है ।
आपदाओं की स्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसी तैयारी घर-परिवार व स्कूल-कॉलेजों में पहले से रखनी चाहिए, इसके लिए समय-समय पर प्रशिक्षण दिए जाएं व इसकी ड्रिल की जाए तो यह कठिन वक्त में सहायक सिद्ध होंगे ।
शौच व्यवस्था या स्वच्छता के  क्षेत्र में प्रगति से भी आपदाओं के  नियंत्रण में मदद मिलेगी । विशेषकर प्लास्टिक व पोलीथीन के कचरे पर नियंत्रण से बाढ़ व जल जमाव की समस्या को कम करने में सहायता मिलेगी । बाढ़ व जल जमाव से अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में यदि परिस्थितियों के अनुकूल स्वच्छ शौच व्यवस्था हो जाए तो इससे यहां के लोगों को राहत मिलेगी । 
दूसरी ओर जल्दबाजी में की गई व जरूरी  सावधानियों की अवहेलना करने वाली व्यवस्थाएं यहां के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं । ऐसे क्षेत्रों में भूजल स्तर ऊपर होता है । अत: शौचालय बनाते समय यह ध्यान में रखना जरूरी होता है कि कहीं इनका डिजाइन ऐसा न हो कि उससे भूजल के प्रदूषित होने की संभावना हो ।
यदि उचित नीतियां अपनाकर उनके क्रियांवयन में निरंतरता रखते हुए सावधानियों व समाधानों पर ध्यान दिया जाए तो आपदाओं की संभावना व उनसे होने वाली क्षति को काफी कम किया जा सकता है ।           
हमारा भूमण्डल
पेड़ : आध्यात्मिक और धर्म निरपेक्ष
डॉ. डी बालसुब्रमण्यन 

जापान के कामाकुरा तीर्थ का ८०० साल पुराना पूजनीय गिंको वृक्ष इस वर्ष मार्च में बर्फीली आंधी में गिर गया। तीर्थ के पुजारियों और साध्वियों ने वृक्ष पर पवित्र शराब और नमक डालकर इसका शुद्धिकरण किया । 
यह गिंको वृक्ष १२ फरवरी १२१९ को तानाशाह सानेतोमो की हत्या का साक्षी था । उस दिन वह प्रधान पद के  लिए अपने नामांकन का जश्न मनाकर मंदिर से वापस आ रहा था, तभी उसके भतीजे मिनामोतो ने उस पर हमला करके उसे मौत के घाट उतार दिया । इस कृत्य के लिए कुछ ही घंटों बाद उसका भी सिर कलम कर दिया गया । इसके साथ ही साइवा गेंजी शोगुन राजवंश का अंत हो गया ।
पेड़ न केवल इतिहास बताते हैंबल्कि लोगों में विस्मय और आध्यात्मिकता भी जगाते हैं । इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण गौतम बुद्ध हैं जिन्होंने बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त् किया था । इसी कारण बुद्ध का एक नाम बोधिसत्व भी है । २८६ ईसा पूर्व में बोधि वृक्ष की एक शाखा को श्रीलंका के अनुराधापुर में लगाया गया था। इस तरह से यह वृक्ष मानव द्वारा लगाया गया सबसे प्राचीन वृक्ष है। 
भगवान बुद्ध ने ही कहा था,  पेड़ अद्भूत जीव हैं जो अन्य जीवों को भोजन, आश्रय, ऊष्मा और संरक्षण देते हैं । ये उन लोगों को भी छाया देते हैं जो इन्हें काटने के लिए कुल्हाड़ी उठाते हैं ।  
कर्नाटक के  रामनगरम जिले के हुलिकल की रहने वाली ८१ वर्षीय सालमारदा तिमक्का बौद्ध विचारों से प्रेरित हैं  । जब उन्हें और उनके पति को समझ में आया कि उन्हें बच्च नहीं हो सकता तो उन्होंने पेड़ लगाने और हर पेड़ की परवरिश अपने बच्च्े की तरह करने का निर्णय लिया । इसके बारे में और अधिक गूगल पर पढ़, सुन एवं देख सकते हैं  ।  
पेड़ अत्यंत प्राचीन भी हो सकते हैं । बोधि वृक्ष यदि २,३०० साल पुराना है, तो वहीं कैलिफोर्निया के विशाल सिक्वॉइ पेड़ भी लगभग उतने ही प्राचीन हैं । ये विशाल पेड़ २७५ फीट लंबे, ६००० टन भारी हैं और इनका आयतन करीब १५०० घन मीटर है । समुद्र तल से ३३०० मीटर की ऊंचाई पर खड़ा ब्रिास्टलकोन पाइन वृक्ष तो इससे भी पुराना है। तकरीबन ४८५० साल प्राचीन इस वृक्ष को मेथुसेला नाम दिया है । 
लेकिन दुनिया का सबसे प्राचीन वृक्ष तो नॉर्वे-स्वीडन की सीमा पर दलामा के एक पेड़ को माना जाता है। यह सदाबहार शंकुधारी फर पेड़ है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इसका तना ६०० साल तक जीवित रहता है। इतने वर्षों में इसने अपना क्लोन बना लिया है । 
पेड़ों की क्लोनिंग करने की यह क्षमता ही इन्हें जानवरों और हमसे अलग करती है। इसी खासियत के परिणामस्वरूप हमें अनुराधापुर में फलता-फूलता क्लोन महाबोधि वृक्ष नजर आता है, और इसी खासियत के चलते कामकुरा गिंको के उत्तरा-धिकारी वृक्ष बन जाएंगे, और दलामा का फर वृक्ष आज भी मौजूद है । और डॉ. जयंत नार्लीकर द्वारा पुणे में लगाया गया सेब का पेड़ भी इसी खासियत का परिणाम है । यह पेड़ इंग्लैण्ड स्थित उस सेब के पेड़ की कलम से लगाया गया था जिसके नीचे कथित रूप से न्यूटन को गुरुत्वाकर्षण का विचार कौंधा था ।
इंसानों या जानवरों का जीवनकाल सीमित क्यों होता है ? वे मरते क्यों हैं  ? क्यों जानवर या इंसान पेड़-पौधों की तरह अपना क्लोन बनाकर अमर नहीं हो जाते। और तो और, ४० विभाजन के बाद हमारी कोशिकाएं और विभाजित नहीं हो पाती । गुणसूत्र की आनुवंशिक प्रतिलिपि बनाने की प्रक्रिया को समझ कर इस रुकावट के कारण को समझा जा सकता है। 
जब गुणसूत्र विभाजित होकर अपनी प्रतिलिपि बनाता है तो हर बार उसका अंतिम छोर, जिसे टेलोमेयर कहते हैं,थोड़ा छोटा हो जाता है। निश्चित संख्या में प्रतिलिपयां बनाने के बाद टेलोमेयर खत्म हो जाता है। टेलोमेयर के जीव विज्ञान की समझ और क्यों कैंसर कोशिकाएं मरती नहीं (टेलोमरेज़ एंजाइम की बदौलत) इसका कारण समझने में कई लोगों का योगदान है, जिसकी परिणति डॉ. एलिजाबेथ ब्लैकबर्न और कैरोल ग्राइडर के शोध कार्य में हुई थी जिसके लिए वर्ष २००९ में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था ।
यह बात काफी पहले ही स्प्ष्ट हो गई थी कि पौधों में उम्र बढ़ने का तरीका जंतुआें से अलग है। डॉ. बारबरा मैकिंलटॉक ने इसे गुणसूत्र मरम्मत का नाम दिया था। डॉ. मैकलिंटॉक को यह समझाने के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था कि `जीन कैसे फुदकते या स्थानांतरित होते हैं । 
अब हम बेहतर ढंग से जानते हैं कि उम्र बढ़ना और टेलोमेयर का व्यवहार पेड़-पौधों और जंतुआें में अलग-अलग तरह से होता है। जब हम किसी जंतु के जीवनकाल की बात करते हैं, तो हम उसके पूरे शरीर के  जीवित रहने के बारे में बात करते हैं। किन्तु पौधों में तुलनात्मक रूप से एक प्राथमिक शरीर योजना होती है। पौधे अलग-अलग हिस्सों-जड़, तना, शाखा, पत्ती, फूल जैसे मॉड्यूल्स में वृद्धि करते है । 
यदि पत्तियां मर या झड़ भी जाती हैं तो बाकी का पेड़ या पौधा नहीं मरता । इसके अलावा पेड़-पौधे वृद्धि में वर्धी विभाजी ऊतक (वेजिटेटिव मेरिस्टेम) का उपयोग करते हैं यानी ऐसी अविभाजित कोशिकाएं जो विभाजन करके पूरा पौधा बना सकती हैं। इसी वजह से किसी पेड़ या पौधे की एक शाखा या टहनी से नया पौधा उगाया जा सकता है या उसकी कलम किसी अन्य के साथ लगाकर अतिरिक्त गुणों वाला पौधा तैयार किया जा सकता है।
पेड़-पौधों में कोशिका की मृत्यु पूरे पौधे की मृत्यु नहीं होती । इस विषय पर विएना के डॉ. जे. मेथ्यू वॉटसन और डॉ. केरल रिहा द्वारा प्रकाशित पठनीय समीक्षा टेलोमेयर - बुढ़ाना और पौधे - खरपतवार से मेथुसेला तक, एक लघु समीक्षा आप इंटरनेट पर मुफ्त में पढ़ सकते हैं ।          
गांधी के १५० वें वर्ष पर विशेष
बापू एक आदर्श पत्रकार
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित 
अहिंसा के पथ-प्रदर्शक राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से की थी। 
गाँधी ने पत्रकारिता में स्वतंत्र लेखन के  माध्यम से प्रवेश किया था । बाद में साप्ताहिक पत्रोंका संपादन किया । बीसवीं सदी के आरम्भ से लेकर स्वराजपूर्व तक के गाँधी युग को भारतीय भाषायी पत्रकारिता के विकास का काल माना जाता है । इस युग की पत्रकारिता पर गाँधीजी की विशेष छाप रही । गाँधी के रचनात्मक कार्यक्रम और असहयोग आन्दोलन के प्रचार के लिए स्वतंत्रता संग्राम के नायको ने अपने अपने क्षेत्रो में कई भाषाओ में पत्रों का प्रकाशन शुरू किया था ।  
महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता को मिशन के रूप में अपनाया था । स्वयं गाँधी के शब्दोंमें ``मैंने पत्रकारिता को केवल पत्रकारिता के प्रयोग के लिए नहीं बल्कि उसे जीवन में अपना जो मिशन बनाया है उसके साधन के रूप में अपनाया है । सन १८८८ में कानून की पढ़ाई के लिए जब गाँधी लंदन पहुँचे उस वक्त उनकी आयु मात्र १९ वर्ष थी, उस समय उन्होंने टेलिग्राफ और डेली न्यूज जैसे अखबारों में लिखना शुरू किया । 
दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के  दौरान उन्होंने भारतीयों के साथ होने वाले अत्याचारों के बारे में भारतीय समाचार पत्रों, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू, अमृत बाजार पत्रिका, स्टेट्समैन आदि में अनेक लेख लिखे । 
गाँधी में जनता की नब्ज पहचानने की अद्भभूत क्षमता थी । दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों ने और सत्याग्रह के उनके प्रयोगों ने उन्हें इंडियन ओपिनियन नामक पत्र के  प्रकाशन की प्रेरणा दी । ४ जून १९०३ को चार भाषाओं में इसका प्रकाशन शुरू किया गया, जिसके एक ही अंक में हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती और तमिल भाषा में छह कॉलम प्रकाशित होते थे । अफ्रीका तथा अन्य देशों में बसे प्रवासी भारतीयों को अपने अधिकारों के  प्रति सजग करने तथा सामाजिक-राजनैतिक चेतना जागृत करने में इस पत्र की भूमिका महत्वपूर्ण साबित हुई । महात्मा गाँधी दस वर्षों तक इससे जुड़े रहे । यह गाँधी की सत्यनिष्ठ और निर्भीक  पत्रकारिता का असर था कि अफ्रीका जैसे देश में रंगभेद जैसी विषम परिस्थितियों के बावजूद चार अलग-अलग भारतीय भाषाओं में इस पत्र का नियमित प्रकाशन होता रहा ।
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई में सफलता प्राप्त् करने के बाद जब वे भारत लौटे तो भारत आने के बाद यहाँ भी पत्र-प्रकाशन की योजना बनाई ।  गाँधीजी के समक्ष अनेक पत्रों के  संपादक बनाये जाने के प्रस्ताव आए, किन्तु उन्होंने सभी प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया । गाँधीजी ने ७ अप्रैल १९१९ को बम्बई से सत्याग्रही नाम से एक पृष्ठ का बुलेटिन निकालना शुरू किया जो मुख्यत: अंग्रेजी और हिंदी में निकलता था । इसके पहले ही अंक में उन्होंने रोलेट एक्ट का तीव्र विरोध किया और इसे तब तक प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया जब तक कि  रोलेट ऐक्ट वापस नहीं ले लिया जाता । गाँधी के यंग इंडिया, हरिजन और हरिजन सेवक में प्रकाशित होने वाले लेखों ने स्वतंत्रता संघर्ष में जन जागरण का महत्वपूर्ण कार्य किया । 
गाँधी ने पत्रकारिता के माध्यम से लोकशिक्षण का कार्य करते हुए जनचेतना को प्रभावित करने का बड़ा काम किया । गाँधी द्वारा सम्पादित पत्रोंमें सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध पत्र था हरिजन । इसका प्रथम अंक ११ फरवरी १९३३ को प्रकाशित हुआ था  । गाँधी उस समय  पूना जेल में थे, वहीं से पत्र का संचालन करते थे । महात्मा गाँधी की लगभग ५० वर्षों की पत्रकारिता में उन्होंने इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया, नवजीवन और हरिजन पत्र निकाले जिनमे वे राजनैतिकचेतना के साथ ही सामाजिक बुराइयोंपर निरंतर प्रहार करते थे । गाँधी-युग को पत्रकारिता का स्वर्ण युग कहा जा सकता है । 
व्यवसायिक पत्रकारिता से दूर रहते हुए गाँधी ने सदा जनहित एवं मिशनरी भावना से कार्य किया । महात्मा गाँधी की सत्यनिष्ठा और उसके लिए संघर्ष का ज्यादातर साधन पत्रकारिता रहा है। चाहे दक्षिण अफ्रीका में नस्ल भेद के खिलाफ संघर्ष करते वक्त इंडियन ओपेनियन का प्रकाशन हो, चाहे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वाधीनता-आंदोलन में सक्रियता के दौरान यंग इंडिया का या छुआछूत के  खिलाफ हरिजन का प्रकाशन हो । गाँधी पत्रकारिता के जरिए समाज के  चेतना-निर्माण का कार्य किया । 
गाँधी ने अपने किसी भी समाचार पत्र में कभी भी विज्ञापन प्रकाशित नहीं किये । गाँधी की पत्रकारिता में उनके संघर्ष का बड़ा व्याहारिक दृष्टिकोण नजर आता है । जिस आमजन, हरिजन एवं सामाजिक समानता के प्रति गाँधी का रुझान उनके जीवन संघर्ष में दिखता है, बिल्कुल वैसा ही रुझान उनकी पत्रकारिता में भी देखा जा सकता है। गाँधी के शब्द और कर्म, चेतना और चिंतन के केन्द्र में हमेशा ही अंतिम जन रहता था। वे पत्रकारों को अंतिम जन की आंख से समाज और देश-दुनिया को देखने के लिये सदा प्रेरित करते थे ।
गांधीजी का व्यक्तित्व बहुआ-यामी था । राष्ट्रीय जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिस पर गांधी ने अपनी छाप न छोड़ी हो। अध्यात्म हो, राजनीति हो या समाजसेवा हो हर क्षेत्र में उन्होंने अपना मौलिक योगदान दिया है । पत्रकारिता के उदेश्यों की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा था पत्रकारिता का पहला काम जनभावनाओ को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना हैं इतना ही नहीं इसका उदेश्य लोक चेतना की भावनाओ को जाग्रत कर निर्भीकता के साथ समाज में व्याप्त् बुराइयों को उजागर करना भी हैं ें वे मानते थे कि अखबार का काम केवल सूचना भर देना नहीं है बल्कि जन शिक्षण और जनमत निर्माण में भी अखबार की भूमिका महत्वपूर्ण का निर्वहन करना चाहिये ।  
गाँधी की पत्रकारिता का मिशन था समाज में नैतिक मूल्योंकी स्थापना, सत्य और अहिंसा पर अडिग रहकर साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष करना और इस प्रकार भारतीय समाज को राजनैतिक स्वतंत्रता के मार्ग की ओर अग्रसर करना । इस प्रकार तत्कालीन पत्रकारिता पर गाँधी विचारो का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता हैं । देश के  इतिहास में १९२० से १९४७ के कालखंड को गांधी युग माना जाता हैं ।  
आज  जब हम पत्रकारिता पर विचार करते है तो पाते है कि आज की पत्रकारिता में मिशन पीछे छूटता जा रहा है और दूसरी और नैतिक मूल्यों से रिश्ता विरल होता जा रहा है आज की समाचार पत्रो के प्रबंधन पर पूंजीवाद और विज्ञापनों का दबाव बढता जा रहा है यह सब बढ़ते बाजारवाद के  प्रभाव में है, जो समाज के हर क्षेत्र में दृष्टिगोचर हो रहा है । 
पत्रकारिता आज संक्रमण के दौर से गुजर रही है । आज यह सवाल महत्वपूर्ण होता जा रहा है कि क्या पत्रकारिता नैतिक मूल्योंके साथ जनसामान्य की आशा आकांक्षाओ के संघर्ष में उसके साथ खड़ी हो सकेगी ? आज गाँधी जी के जन्म के १५० वे वर्ष का समय है जो हमे इस दिशा में चिंतन और कर्म के लिए नया अवसर प्रदान कर रहा है । ऐसे समय में गाँधी विचार की स्पष्ट झलक आज की पत्रकारिता में दिखलाई देगी तभी हम कह सकेंगे हम गाँधी जी की पत्रकारिता की विरासत के सही उतराधिकारी हैं ।  
विज्ञान जगत
न्यूटन ने एक अलग दुनिया बनायी 
नरेन्द्र देवांगन
हमारे जीवन में वैज्ञानिक व्यवहार अपनाने के लिए दो तत्व आवश्यक हैं - विचार एवं तथ्य । विज्ञान की दृष्टि से तथ्य अपने आप में संपूर्ण नहीं होते और न ही मात्र विचार करना अपने आप में पूर्ण है । मानव सभ्यता के विकास के  साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अधिक से अधिक जुड़ाव आनुभविक तथ्यों और तार्किक विचारों के सुन्दर समन्वय से ही संभव हो पाया है । 
विज्ञान के इतिहास पर एक सरसरी निगाह डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपयुक्त प्रयोग एवं सिद्धांत, फिर उनके आधार पर प्रयोग और फिर दोबारा सिद्धांतों की विवेचना वैज्ञानिक पद्धति है । यह क्रम  लगातार चलता रहता है । 
गैलीलियो पहले वैज्ञानिक-विचारक थे, जिन्होंने अनुभव एवं तर्क के बीच समन्वय के महत्व को समझा । आनुभविक तथ्य एवं तार्किक विचारों का ऐतिहासिक संगम पीसा की तिरछी मीनार पर हुआ था, जब गैलीलियो ने मीनार के ऊपर से एक बड़े और एक बहुत छोटे पिंड को एक साथ गिराया था और वे दोनों एक साथ जमीन पर पहुंचे थे । 
तथ्य एवं विचारों के इस प्रभावशाली समन्वय ने उस समय तक प्रचलित अरस्तू की इस मान्यता को ध्वस्त कर दिया था कि भारी वस्तु ज्यादा तेज गति से गिरती है । पर अधिकतर ऐतिहासिक मोड़ इतने सरल और निश्चित रूप से निर्धारित नहीं हो पाते ।  
यहां सत्रहवीं शताब्दी के दो महान विचारकों का उल्लेख प्रासंगिक होगा । पहले देकार्ते जिन्होंने तर्क और विवेक की राह अपनाई और दूसरे फ्रांसिस बेकन जिन्होंने प्रयोग या आविष्कार को अधिक महत्व दिया। दो महान वैज्ञानिकों का यह व्यक्ति वैशिष्ट उस समय प्रचलित फ्रांसीसी और ब्रिटिश व्यवहारों या मान्यताओं का प्रतीक था । देकार्ते ने अपना अधिकतर वैज्ञानिक कार्य पलंग पर लेटे-लेटे किया और बेकन के बारे में कहा जाता है कि ६५ साल की उम्र में एक प्रयोग में मुर्गी के अंदर बर्फ भरते हुए उन्हें ठंड लग गई और इसके कुछ दिन बाद वे संसार से विदा हो गए । 
न्यूटन के लिए देकार्ते और बेकन दोनों के ही उदाहरण आवश्यक एवं महत्वपूर्ण थे । न्यूटन को देकार्ते से प्रेरणा मिली कि प्रकृति सदा और हर जगह समान है और उसमें एकरूपता छिपी रहती है । सामान्य लोगों के लिए जीवन के तथ्य और सच्चइयां विस्मयकारी होती हैं  पर उनके पीछे छिपे सिद्धांतों की गूढ़ता के प्रति वे उदासीन रहते हैं । न्यूटन और सेब की कहानी तो सर्वविदित है । पर उनके द्वारा दिए गए गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के पीछे गहन तार्किक विचारशीलता एवं गैलीलियो द्वारा किए गए प्रयोगों को आत्मसात कर एक सार्वभौमिक सच्चई सच्चई को अति अनुशासित व विलक्षण रूप से प्रकाशित कर पाने की उनकी क्षमता बिरली है । 
न्यूटन द्वारा प्रेरित वैचारिक क्रांति के आधार में थी उनकी यह मान्यता कि जो नियम सामान्य आकार की वस्तुआें पर लागू होते हैं, वे वस्तुत: सार्वभौमिक हैंऔर हर छोटे-बड़े किसी भी आकार या शक्ल के  पदार्थ या पिंडों पर लागू होते हैं । इस विचार को आत्मसात करने के साथ ही न्यूटन ने अपनी ही एक नई दुनिया का निर्माण शुरू   किया  ।  
न्यूटन की इस दुनिया की तुलना युक्लिड के ज्यामितीय संसार से की जा सकती है । युक्लिड ने बिन्दु, रेखा एवं तल (प्लेन) को परिभाषित करने के बाद कुछ स्वयंसिद्ध सिद्धांत प्रतिपादित किए, जिनका पालन बिन्दुआें, रेखाओं और तलों के आपसी सम्बंधों के लिए अनिवार्य है। और यदि युक्लिड आज भी अपनी ज्यामितीय देन की वजह से माने जाते हैं तो इसलिए नहीं कि उनके नियम वास्तविक दुनिया से ग्रहण किए गए थे, वरन इसलिए कि युक्लिडीय संसार के  तार्किक परिणाम हमारी वास्तविक दुनिया के ताले में चाबी की तरह फिट होते हैं ।  
न्यूटन ने अपनी वैचारिक दुनिया के  नियमों को भौतिक संसार पर लागू किया । उन्होंने पदार्थों के न्यूनतम अंशों को, बिना परिभाषित किए, भौतिक दुनिया का आधार बनाया । न्यूटन का लेखन निर्मल जल की तरह स्पष्ट था पर वे तर्क को इलास्टिक की तरह खींचने के पक्ष में नहीं थे । वे अपने विरोधियों की कठिनाई को समझ सकते थे। पर जो वैज्ञानिक अपनी समस्या का हल अपने आप नहीं निकाल सकते थे, उनकी मदद करने में वे स्वयं को असमर्थ पाते थे । 
न्यूटन की अपनी दुनिया जो अपरिचित अल्पतम कणों से बनी थी और जिसके द्वारा सब कुछ निर्मित हो सकता था चाहे वह सेब हो या चंद्रमा, अन्य ग्रह या सूर्य । न्यूटन के अनुसार इन सभी संगठनों के गति व्यवहार की मर्यादा एक ही है। न्यूटन ने इस बात को और आगे बढ़ाया और उनकेअनुसार इन सब संगठनों के अंतर में बसे प्रत्येक अल्पतम अंश भी उनके द्वारा प्रतिपादित समन्वित नियमों का पालन करते थे। न्यूटन के अनुसार अगर वे वेगहीन हैंतो वेगहीन ही बने रहेंगे और यदि वे गतिशील हैंतो उनकी गतिशीलता वैसी ही बनी रहेगी, जब तक कि उनके ऊपर बाहरी बलों का प्रभाव न पड़े और इन सब बाहरी बलों में न्यूटन के अनुसार प्रमुखतम है वह बल, जिसके द्वारा प्रत्येक अल्पतम कण हर अन्य कण को अपनी ओर आकर्षित करता है । इस बल की शक्ति कणों के बीच की दूरी के वर्ग पर ही आधारित होती है और इस प्रकार नियमित होती है कि उनके बीच की दूरी दुगनी हो जाने पर उनके बीच का बल घटकर अपनी प्रारंभिक बल का चतुर्थांश रह जाएगा । 
न्यूटन एक सशक्त गणितज्ञ थे और उनका एक मूलभूत निष्कर्ष था कि एक ठोस गोलक का व्यवहार अपने केन्द्र पर अवस्थित एक वजनी बिन्दु की तरह होता है । न्यूटन ने इस बात को आगे बढ़ाते हुए यह दिखा दिया कि ग्रहों के मार्गों का निश्चित निर्धारण किया जा सकता है और साथ ही यह भी कि ग्रह अपने निश्चित मार्ग पर घूमते हुए एक ब्राह्मंडीय घड़ी का काम करते हैं । उन्होंने गणितीय कुशाग्रता एवं परम धैर्य का परिचय देते हुए ज्वार-भाटों की, धूमकेतुआें की कक्षाओं की एवं अन्य ब्राह्मंडीय पिंडों के  गतिचक्र की विषद गणना की । 
इस प्रकार न्यूटन ने एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया जिसको एक नाविक से लेकर खगोल शास्त्री और समुद्र भ्रमण का शौकीन, सब पहचान सकते थे। और इस प्रकार न्यूटन की सैद्धांतिक दुनिया और वास्तविक दुनिया के बीच एक विलक्षण साम्य स्थापित होता चला गया ।
कृषि जगत
कार्पोरेट खेती से कृषि में संकट
विवेकानंद माथने 
खेती को उद्योग में तब्दील करने की बातें कई सालों से होती रही हैं, लेकिन अब कॉर्पोरेट हितों के चलते इसे अमली जामा पहनाने की तैयारियां जोर-शोर से दिखाई देने लगी हैं । 
सरकार एवं विश्व व्यापार संगठन` सरीखे देशी-विदेशी संस्थान अव्वल तो किसानी को किसानों के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं और दूसरे सीमित होती कृषि भूमि में बाजारों के लिए भरपूर उत्पादन के मार्फत मुनाफा कूटना चाहती हैं ।  
लगता है, अब भारत किसानों का देश नहीं कहलाएगा । यहां खेती तो की जायेगी, लेकिन किसानों के द्वारा नहीं, खेती करने वाले विशालकाय कार्पोरेट्स होंगे। आज के अन्नदाता किसानों की हैसियत उन बंधुआ मजदूरों या गुलामों की होगी, जो अपनी भूख मिटाने के लिये कार्पोरेट्स के आदेश पर अपनी ही जमीनों पर चाकरी करेंगे । इस समय देश में खेती और किसानों के लिये जो नीतियां और योजनाएं लागू की जा रही हैं उसके पीछे यही सोच दिखाई देती है । कार्पोरेट हितों ने पहले तो षड्यंत्रपूर्वक देश की ग्रामीण उद्योग व्यवस्था तोड़ दी और गांवों के सारे उद्योग धंधे बंद कर दिए, स्थानीय उत्पादकों को ग्राहकों के विरुद्ध खड़ा किया गया । विज्ञापनों के जरिये स्थानीय उद्योगों में बनी वस्तुओं को घटिया व महंगा और कंपनी उत्पादन को सस्ता व गुणवत्तापूर्ण बताकर प्रचारित किया गया और यहां की दुकानों को कम्पनी के उत्पादनों से भर दिया गया । इस गोरखधंधे में स्थानीय व्यापारियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी । उन्होंने अपने व्यापार और देशी उद्योगों के पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारकर उसे कार्पोरेट के हवाले कर दिया । अब उद्योग, व्यापार और खेती पर कार्पोरेट्स एक-के-बाद-एक कब्जा करते जा रहे हैं ।
प्राकृतिक संसाधन, उद्योग और व्यापार पर तो उन्होंने पहले ही कब्जा कर लिया था। अब वे खेती पर कब्जा जमाना चाहते हैं ताकि कार्पोरेट उद्योगों के लिये कच्च माल और दुनिया में व्यापार के लिये जरुरी उत्पादन कर सकें । कार्पोरेट खेती के हित में छोटे किसानों के पास पूंजी की कमी, छोटी जोतों में खेती का अ-लाभप्रद होना, यांत्रिक और तकनीकी खेती कर पाने में अक्षमता आदि के तर्क गढ़े गए । कहा गया कि पारिवारिक खेती करने वाले किसान उत्पादन बढ़ाने में सक्षम नहीं हैं । इस तर्क की आड में कॉर्पोरेट्स ने प्रत्यक्ष स्वामित्व या पट्टा या लंबी लीज पर जमीन लेकर खेती करने या किसान समूह से अनुबंध करके किसानों को बीज, कर्र्ज, उर्वरक, मशीनरी और तकनीक आदि उपलब्ध कराकर खेती करने का जुगाड़ कर लिया । 
खेती की जमीन, कृषि उत्पादन, कृषि उत्पादों की खरीद, भंडारण, प्रसंस्करण, विपणन, आयात-निर्यात आदि सभी पर कार्पोरेट्स अपना नियंत्रण करना चाहते हैं । दुनिया के विशिष्ट वर्ग की भौतिक जरुरतों को पूरा करने के  लिये जैव इंर्धन, फलों, फूलों या खाद्यान्न की खेती भी वैश्विक बाजार को ध्यान में रखकर करना चाहते हैं । वे फसलें, जिनसे उन्हें अधिकतम लाभ मिलेगा, पैदा की जाएंगी और अपनी शर्तोंा व कीमतों पर बेची जाएंगी । अनुबंध खेती और कार्पोरेट खेती के अनुरूप नीतिगत सुधार के लिये उत्पादन प्रणालियों को पुनर्गठित करने और सुविधाएं देने के लिये नीतियां और कानून बनाये जा रहे हैं । 
दूसरी हरित क्रांति के द्वारा कृषि में आधुनिक तकनीक, पूंजी-निवेश, कृषि यंत्रीकरण, जैव तकनीक और जीएम फसलों, ई-नाम आदि के माध्यम से अनुबंध खेती, कार्पोरेट खेती के लिये सरकार एक व्यवस्था बना रही है ।
डब्ल्यूटीओ का समझौता, कार्पोरेट खेती के प्रायोगिक प्रकल्प, अनुबंध खेती कानून, कृषि और फसल बीमा योजना में विदेशी निवेश, किसानों के संरक्षक सीलिंग कानून को हटाने का प्रयास, आधुनिक खेती के  लिये इजरायल से समझौता, खेती का यांत्रिकीकरण, जैव तकनीक व जीएम फसलों को प्रवेश, कृषि मंडियों का वैश्विक विस्तारीकरण, कर्ज राशि में बढ़ौतरी, कर्ज ना चुका पाने में अक्षमता पर खेती की गैरकानूनी जब्ती, कृषि उत्पादों की बिक्री की श्रृंखला, सुपरबाजार, जैविक इंर्धन, जेट्रोफा, इथेनॉल के लिये गन्ना और फलों, फूलों की खेती आदि को बढ़ावा देने की सिफारिशें, निर्यातोन्मुखी कार्पोरेटी खेती और विश्व व्यापार संगठन के कृषि समझौते के तहत वैश्विक बाजार में खाद्यान्न की आपूर्ति की बाध्यता आदि सभी को एकसाथ जोड़कर देखने से कार्पोरेट खेती की तस्वीर स्पष्ट होती है।
इस समय देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां रॉथशिल्ड, रिलायंस, पेप्सी, कारगिल, ग्लोबल ग्रीन, रॅलीज, आयटीसी, गोदरेज, मेरी को आदि के व्दारा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, छत्तीसगंढ़ आदि प्रदेशों में आम, काजू, चीकू, सेब, लीची, आलू, टमाटर, मशरुम, मक्का आदि की खेती की जा रही है। उच्च् शिक्षित युवा जो आधुनिक खेती करने, छोटी दुकानों में सब्जी बेचने, प्रसंस्करण करने आदि के काम कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश कार्पोरेटी व्यवस्था स्थापित करने के प्रायोगिक प्रकल्पोंपर काम कर रहे  हैं ।
भारत में किसी भी व्यक्ति या कंपनी को एक सीमा से अधिक खेती खरीदने, रखने के लिये सीलिंग कानून प्रतिबंधित करता है । इसके चलते कार्पोरेट घरानों को खेती पर सीधा कब्जा करना संभव नहीं है। इसलिये सीलिंग कानून बदलने के प्रयास किए जा रहे हैं । कुछ राज्यों में अनुसंधान और विकास, निर्यातो-न्मुखी खेती के लिये कृषि व्यवसाय फर्मों को खेती खरीदने की अनुमति दी गई है, कहीं पर कंपनियोंके निदेशकों या कर्मचारियों के नाम पर खेती खरीदी की गई है, तो कहीं राज्य सरकारों ने नाममात्र राशि लेकर पट्टे पर जमीन दी है । बंजर भूमि खरीदने या किराए पर लेने की अनुमति दी जा रही है।
कृषि में किसानों की आय दोगुनी करने के  लिये नीति आयोग का सुझाव यह है कि किसानों को कृषि से गैर कृषि व्यवसायों में लगाकर आज के किसानों की संख्या आधी की जाये, तो बचे हुए किसानों की आमदनी अपने आप दोगुनी हो जायेगी । आयोग कहता है कि 'कृषि कार्यबल को कृषि से इतर कार्यों में लगाकर किसानों की आय में काफी वृद्धि की जा सकती है। अगर जोतदारों की संख्या घटती रही तो उपलब्ध कृषि आय कम किसानों में वितरित होगी ।` वे आगे कहते है कि 'वस्तुत: कुछ किसानों ने कृषि क्षेत्र को छोड़ना शुरु भी कर दिया है और कई अन्य कृषि को छोडने के लिये उपयुक्त अवसरों की तलाश कर रहे   हैं । किसानों की संख्या १४.६२ करोड़ से घटाकर २०२२ तक ११.९५ करोड़ करना होगा । जिसके लिये प्रतिवर्ष २.४ प्रतिशत किसानों को गैर-कृषि रोजगार से जोड़ना  होगा । 
एक रिपोर्ट के अनुसार आज देश में लगभग ४० प्रतिशत किसान अपनी खेती बेचने के लिये तैयार बैठे  है । केन्द्रीय वित्त मंत्री ने संसद में कहा था कि सरकार किसानों की संख्या २० प्रतिशत तक ही सीमित करना चाहती है। अर्थात् यह २० प्रतिशत किसान वही होंगे, जो देश के गरीब किसानों से खेती खरीद सकेंगे और जो पूंजी, आधुनिक तकनीक और यांत्रिक खेती का इस्तेमाल करने में सक्षम होंगे। यह संभावना उन किसानों के लिये नहीं है जो खेती में लुटने के कारण परिवार का पेट नहीं भर पा रहा है। इसका अर्थ यह है कि आज के शत प्रतिशत किसानों की खेती पूंजीपतियोंके पास हस्तांतरित होगी और वे किसान कार्पोरेट  होंगे ।
किसानों की संख्या २० प्रतिशत करने के लिये ऐसी परिस्थि-तियां पैदा की जा रही हैं कि किसान स्वेच्छा से या मजबूर होकर खेती छोड़ दे या फिर ऐसे तरीके अपनाए जिसके द्वारा किसानों को झांसा देकर फंसाया जा सके । किसान को मेहनत का मूल्य न देकर सरकार खेती को घाटे का सौदा इसीलिये बनाए रखना चाहती है ताकि कर्ज का बोझ बढ़ाकर उसे खेती छोड़ने के लिये मजबूर किया जा सके। 
जो किसान खेती नहीं छोड़ेंगे उनके लिये अनुबंध खेती के द्वारा कार्पोरेट खेती के लिये रास्ता बनाया जा रहा है। देश में बांधों, उद्योगों और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिये पहले ही करोड़ों हेक्टर जमीन किसानों के हाथ से निकल चुकी है। अब बची हुई जमीन धीरे-धीरे उन कार्पोरेट्स के पास चली जायेगी जो दुनिया में खेती पर कब्जा करने के अभियान पर निकले है। लूट की व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाकर उसे स्थाई और अधिकृत बनाना कार्पोरेट  की नीति  रही  है।                   
पर्यावरण परिक्रमा
समुद्र में ऊंची दीवार बनाने से नहीं पिघलेंगे ग्लेशियर 
ग्लेशियरों को पिघलने से बचाने के लिए वैज्ञानिकों ने नई तरकीब निकाली  है । इसके तहत समुद्र में ९८० फीट ऊंची धातु की दीवार बनानी होगी । जो पहाड़ के नीचे मौजूद गर्म पानी ग्लेशियर तक नहींपहुंचने देगी । ऐसे में हिमखंड टूटकर समुद्र में नहीं गिरेंगे । इससे समुद्र का जलस्तर बढ़ने में भी कमी आएगी । साथ ही तटीय शहरों के डूबने का खतरा भी कम होगा । 
वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि इस दीवार में ०.१ क्यूबिक कि.मी. से १.५  क्यूबिक किमी तक धातु  लगेगी । इसमें अरबों रूपये खर्च होने का अनुमान है । इससे पहले इस तकनीक से दुबई का पास जुमैरा पास और हांगकांग इंटरनेशनल एयरपोर्ट बनाया गया था । दुबई के पाम जुमैरा के लिए ०.१ क्यूबिक किमी धातु से दीवार बनाई गई थी, जिस पर ८६ करोड़ रूपए खर्च हुए थे । २०१६ में नासा की जेट प्रपुल्शन लेबोरेटरी ने बताया था कि पश्चिमी अंटार्कटिका की बर्फ काफी तेजी से पिघल रही है । एक रिपोर्ट में कहा गया था कि पहाड़ के नीचे मौजूद गर्म पानी बर्फ पिघलने का कारण हो सकता  है । इसके बाद बीजिंग यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक जॉन मूरे और वोलोविक दुनिया के सबसे बड़े ग्लेशियर में से एक थ्वाइट्स पर अध्ययन किया । 
सामाजिक बदलाव के लिए ज्यादा पैसे खर्च कर रहे हैं
भारत में परोपकारी गतिवि-धियों में इजाफा हो रहा है । दानदाता देश की सबसे बड़ी सामाजिक चुनौतियों को सुलझाने के लिए अपने संसाधनों का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं । वे परोपकर पर ज्यादा रकम खर्च कर रहे हैं । 
ब्रिजस्पैन ग्रुप की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि परोपकारी टीबी को खत्म करने और ग्रामीण किसानों को गरीबी के चंगुल से निकालने जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे हैं । वे सीखने की क्षमता को बेहतर बनाने, बढ़ती शहरी आबादी के साथ देश की नगरीय सेवाआें में भी मदद कर रहे हैं । इस रिपोर्ट मेंसामाजिक बदलाव से जुड़ी आठ पहल पर विस्तार से चर्चा की गई है । इस रिपोर्ट की लाचिंग पर कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय के सचिव  केपी कृष्णन ने कहा, भारत मेंसरकारी खर्च देश की जीडीपी के एक चौथाई हिस्से के बराबर है । यह महज संयोग नहींहै कि १९९० के दशक में देश में ज्यादा धन के साथ दान करने की प्रवृत्ति फिर से बढ़ी है । रिपोर्ट में जिन आठ पहल का जिक्र किया गया है, उनमें गूगल और टाटा ट्रस्ट की इंटरनेट साथी भी है । इसके तहत १.५ करोड़ ग्रामीण महिलाआें को डिजिटल साक्षर बनाने के लिए स्थानीय महिलाआें से ही ट्रेनिंग दिलाई जाती है । बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन टीबी की रोकथाम के लिए काम कर रहा है । विलियम एंड फ्लोरो हेवलेट फाउंडेशन गांवों के ६ लाख बच्चें को मूलभूत शिक्षा के उपायों पर हर साल की रिपोर्ट तैयार करता है । बेन एंड कंपनी की २०१७ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत मेंवर्ष २०१०-११ में परोपकार पर १.५ लाख करोड़ रूपये खर्च किए गए थे । वर्ष २०१५-१६ तक यह राशि सालाना ९ प्रतिशत की दर से बढ़कर २.२० लाख करोड़ रूपए पर पहुंच चुकी है । ब्रिजस्पैन ग्रुप वैश्विक गैर-लाभकारी संगठन है । यह परोपकारी कामों के बारे में सलाह देता है । 
निजी दानदाताआें द्वारा परोपकार के लिए दी जाने वाली राशि में भी हाल के वर्षो में छह गुना इजाफा हुआ है । २०१६ में इनके द्वारा परोपकार के लिए दी गई राशि ३६००० करोड़ रूपये पर पहुंच गई । यह २०११ में ६००० करोड़ रूपए थी । 
उपग्रह प्रक्षेपण के लिए तलाशा जा रहा लॉन्च पैड
भारतीय अंतरिक्ष अनु-संधान संगठन की बढ़ती  जरूरतों तथा आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित मौजूदा प्रक्षेपण केन्द्र पर ज्यादा दबाव को देखते हुए देश के पश्चिमी तट पर एक नया प्रक्षेपण केन्द्र बनाने की योजना है । 
इसरो के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि श्री हरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र में अभी दो लॉन्च पैड है । वहां तीसरे लॉन्च पेड़ का काम तेजी से चल रहा है । इसके अलावा पश्चिमी तट पर एक नये प्रक्षेपण केन्द्र के लिए हमने कुछ स्थानों पर विचार किया है । नये प्रक्षेपण केन्द्र के लिए स्थान तय करने का काम अंतिम चरण में है तथा जल्द इसके बारे मेंघोषणा की जायेगी । हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि नये प्रक्षेपण केन्द्र के लिए अंतिम फैसला  कब तक हो जायेगा । 
अधिकारी ने कहा कि इसरो द्वारा विकसित किये जा रहे छोटे उपग्रह प्रक्षेपण यान (एसएसएलवी) के पहले दो मिशन की लॉन्चिग श्रीहरिकोटा  से ही की जायेगी और उसके बाद एसएसएलवी मिशन का प्रक्षेपण नये केन्द्र से किया जायेगा । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि नया प्रक्षेपण केन्द्र वर्ष २०२० तक तैयार हो जायेगा क्योंकि इसरो पहले ही कह चुका है कि छोटे प्रक्षेपण यान अगले साल मध्य तक विकसित कर लिये जायेंगे । उल्लेखनीय है कि पूर्वी तट पर स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से फिलहाल इसरो के सभी मिशनों को अंजमा दिया जाता है । इसरो का प्रक्षेपण अन्य एजेंसियों की तुलना में बेहद सस्ता होने के कारण अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियां भी अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए यहां आनेलगी है, लेकिन सीमित क्षमता के कारण इसरो अपने मिशनों की संख्या अपेक्षित रूप से नहीं बढ़ा पा रहाह ै । 
हाल ही में घोषित मानव मिशन गगनयान के लिए श्रीहरिकोटा में ही तीसरा लॉन्च पैड बनाया जा रहा है । इसरो ने दिसम्बर २०२१ तक अंतरिक्ष मेंपहला मानव मिशन भेजने की घोषणा की है । इसमें तीन अंतरिक्ष यात्री शामिल होंगे । इसमें रिकवरी सिस्टम, रिकवरी लॉजिस्टिक, डीप स्पेस नेटवर्क,  लॉन्च पैड पर अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षा आदि की तकनीक विकसित हो चुकी है । ऑर्बिटल मॉड्यूल और क्रू इस्केप सिस्टम पर काम चल रहा है । हालांकि, अभी अंतरिक्ष यात्रियों का चयन और उनके प्रशिक्षण का काम बाकी है । 
अधिकारी ने बताया कि पूर्वी तट पर दूसरा केन्द्र स्थापित करने का विकल्प नहीं है क्योंकि यदि हम दक्षिण की ओर जाते हैं तो श्रीलंका ५०० किलोमीटर के दायरे में आ जायेगा । इससे धु्रवीय प्रक्षेपण के समय हमें प्रक्षेपण यान को सीधे भेजने की बजाय बीच में उसका मार्ग थोड़ा मोड़ना होगा जिससे प्रक्षेपण यान की भार वहन क्षमता कम हो जायेगी । इसलिए पश्चिमी तट पर विकल्प तलाशे जा रहे है 
खून की जांच से नींद का पता चलेगा 
ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ सरे के स्लीप रिसर्च सेंटर के वैज्ञा-निकोंने एक ऐसा ब्लड टेस्ट विकसित किया है जिससे यह पता चल सकता है कि किसी व्यक्ति की नींद पूरी हुई है या नहीं और वह कितना थका है । इस जांच से सुस्ती में गाड़ी चलाने के कारण होने वाली दुर्घटनाआें को रोकने में मदद मिल सकती है । इस जांच के लिए  केवल ३ मिनट लगेंगेऔर मामूली से खर्च में इसका पता आसानी से लगाया जा सकेगा । 
स्लीप रिसर्च सेंटर के प्रमुख डर्क जेन डी के नेतृत्व में की गई स्टडी के लिए ३६ लोगों ने एक रात की नींद नहीं ली । इस दौरान उनके खून के नमूने लिए गए और हजारों जीन के व्यावहारिक स्तर मेंहुए बदलावों को मापा गया । शोधकर्ताआें ने कहा कि इस खोज से हमें यह पता लगा पाने में कामयाबी मिली कि उनकी नींद पूरी हुई है या नहीं । हमारा कम्प्यूटर प्रोग्राम जीन्स की पहचान करने में सूक्ष्म था, जो करीब ९२ फीसदी एक्यूरेसी के साथ नतीजे देता है । इस तकनीक को     हम साल के अंत तक बाजार में ले आएंगे । 
यूनिवर्सिटी के सीनियर लेक्चर एम्मा लायंग ने कहा, अभी स्वतंत्र रूप से यह आकलन नहीं हो पाता है कि किसी व्यक्ति ने कितनी नींद ली है और कितना थका है । लोगों को भी यह जानने में काफी मुश्किल आती है कि कोई व्यक्ति गाड़ी चलाने के लिए फिट है या नहीं । अब इस तरह के बायोमार्कर की पहचान हो जाने से हमें अब आगे और जांच विकसित करने में मदद मिलेगी । 
यूके की शेफील्ड यूनिव-र्सिटी के शोधकर्ताआें ने एक नई किस्म की खून जांच की तकनीक विकसित की है, जो यह बता सकती है कि कुछ रोगियों को दिल का दौरा पड़ने के बाद जान पर ज्यादा खतरा क्यों बना रहता है । शोधकर्ताआें प्रोफेसर रॉब स्टोरे ने तीव्र कोरोनीर सिंड्रोम के साथ ४३०० से ज्यादा अस्पताल से निकले मरीजो के रक्त प्लाज्मा नमूनों का विश्लेषण किया । उन्होंने थक्के के अधिकतम घनत्व को मापा और बताया कि थक्का बनने में लगे, वाले समय को क्लॉट लेसिस टाइम क्यों कहा जाता है । अध्ययन में पाया गया कि सबसे लम्बे समय तक थक्का रोगियों को ह्दय रोग के कारण मायोकार्डियल इंफेक्शन या मृत्यु का ४० प्रतिशत ज्यादा जोखिम होता है । यह शोध उन जोखिमों को कम करने के लिए लक्ष्य की पहचान करता है और अधिक प्रभावी इलाज भी कर सकता है । 
वनस्पति जगत
चोर के घर चोरी की मिसाल 
डॉ. किशोर पंवार
कुछ ततैया पौधों पर परजीवी होती हैं। उनमें से एक है बेलोनानीमा ट्रीटी जो उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी फलोरिडा में पाई जाती है। 
यह  एक ओक वृक्ष पर अंडे देती है जिनसे इल्लियां निकलती हैं । ये इल्लियां कुछ वृद्धि हारमोन छोड़ती हैं जिनकी वजह से पौधों पर गठानें बन जाती हैं । ये गठानें युवा ततैया को रहने के लिए सुरक्षित स्थान प्रदान करती हैं । इन छोटी-छोटी गठानों को वैज्ञानिक ``गाल'' कहते हैं। ये गठानें ततैया की इल्लियों को लगातार पोषक पदार्थ भी उपलब्ध कराती हैं । इन ततैया के लिए तो ये गठानें वरदान हैंपर पौधे के लिए अभिशाप क्योंकि उनका पोषण ततैया के बच्च्े चुरा लेते  हैं । 
पोषक पदार्थों से लबरेज ये लड्डू जैसे गाल अन्य परजीवियों की निगाहों से ओझल रह जाएं ऐसा कैसे हो सकता है। हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि पोषक पदार्थों से भरे ये गाल लव वाइन नामक एक परजीवी लता के निशाने पर हैं।  
एक सर्वे से पता चला कि यह लव वाइन (प्रेमलता) ऐसे गाल के आसपास लिपटी रहती है । ध्यान से देखा गया तो पता चला कि इस प्रेमलता ने वास्तव में गाल की दीवार को भेद रखा है जिसमें परजीवी ततैया वृद्धि कर रही थी। यह लता वहां से पोषक पदार्थ भी चूसती है । मजेेदार बात है कि यह पोषक पदार्थ वह सीधे वृक्ष से नहीं बल्कि ततैया के  शरीर से प्राप्त् करती है। अंतत: वहां ततैया की लाश ही शेष बचती है। बेल के तो मजे हैंपर ततैया की शामत । इसी को कहते हैंचोर के घर चोरी । 
इस खोज के बाद वैज्ञानिकों ने परजीवी पर परजीवी सम्बंध की और जांच-पड़ताल की। उन्होंने पाया कि ५१ मामलों में प्रेमलता ततैया के  बनाए गाल पर चिपकी थी, और उनमें से आधे से ज्यादा में ततैया मृत मिली । करंट बायोलॉजी के एक ताजा अंक में यह रपट प्रकाशित हुई है । १०१ गाल पर प्रेमलता नहीं लिपटी थी और उनमें से केवल २ में ही ततैया मृत मिली । पेड़ के लिए इसका क्या अर्थ है इस बारे में अभी कुछ स्पष्ट पता नहीं है।
प्रेमलता यानी लव वाइन एक पूर्ण परजीवी बेल है । यह अमेरिका, इन्डोमलाया, ऑस्ट्रेलेशिया, पोलीने-शिया और कटिबंधीय अफ्रीका की मूल निवासी है। इसका वानस्पतिक नाम कैसिथा फिलीफॉर्मिस है। वैसे कैरेेबियन क्षेत्र में कई बेलों को लव वाइन कहा जाता है। यह उनमें से एक है। लव वाइन अर्थात प्रेमलता नामकरण के पीछे यह मान्यता है कि इसमें कामोत्तेजक गुण होते हैं । वैसे ऑस्ट्रेलिया में इसे डोडर-लॉरेल भी कहते हैं और डेविल्स गट्स भी । दक्षिण भारत में छांछ को स्वादिष्ट बनाने के लिए इसका उपयोग किया जाता है । इसका औषधीय महत्व भी  है । 
भारत में ऐसी ही एक परजीवी बेल बहुतायत से मिलती है जिसका नाम है अमरबेल (कस्कुटा)। इसकी करीब १००-१७० प्रजातियां खोजी जा चुकी हैं । इनका तना नारंगी, लाल या हल्का पीला होता है। इस पूर्ण परजीवी बेल का बीज अंकुरित होकर पौधों के आसपास सर्पिल क्रम में वृद्धि करता है जब तक कि यह किसी सही पोषक पौधे के सम्पर्क में न आ जाए । इसकी पत्तियां शल्क पत्र के रूप में होती हैं, वे भी मात्र १ मि.मी. लंबी । पत्तियां सूक्ष्म हैं और तना भी हरा नहीं होता। यानी पूरी बेल क्लोरोफिल विहीन होती है। ऐसे में इस बेल के पास दूसरों से भोजन चुराने के अलावा कोई और चारा नहीं है । 
गंगा सहाय पांडेय तथा कृष्ण चन्द्र चुनेकर द्वारा सम्पादित भाव प्रकाश निघण्टु में अमरबेल नाम कस्कुटा रिफ्लेक्सा के लिए और आकाशबेल कैसिथा फिलीफॉर्मिस के लिए प्रयुक्त किया गया है। दोनों ही भारत में मिलती है। अमरबेल लगभग सभी जगह और आकाश बेल समुद्र तट के पेड़ों और झाड़ियों पर । वासुदेवन नायर अपनी किताब कॉॅन्ट्रोेवर्सियल ड्रग प्लांट्स में कहते हैं कि इसके बारे में भ्रम है कि आकाश वल्ली आखिर कौन है - कस्कुटा रिफ्लेक्सा या कैसिथा फिलीफार्मिस ।
पौधो पर विभिन्न कीटों द्वारा बनाए जाने वाले ये गाल्स इन जीवों के लिए सुरक्षित वास स्थान और भोजन का स्त्रोत दोनों का कार्य करते हैं । इन गठानों के अंदर ये कीट परजीवियों और शिकारियों से आंशिक रूप से सुरक्षित रहते हैं ।  
गाल की आंतरिक भित्ती नम होती है जिसका द्रव सामान्यत: प्रोटीन और शर्करा से भरा होता है। जबकि पौधों के सामान्य ऊतकों में इन पोषक पदार्थों की मात्रा कम होती है । पोषक पदार्थों की सहज उपलब्धता के कारण कई कीट इन गठानों में सहयोगी के  रूप में रहते हैं । इन्हें जीव वैज्ञानिक पर-निलय वासी (इनक्विलाइन) कहते हैं । यानी दूसरे के घर में रहने वाले । उदाहरण के तौर पर एक वैज्ञानिक ने एक गाल में ऐसे ३१ रहवासियों की सूची बनाई है । जिनमें १० पर-निलय वासी, १६ परजीवी और ५ यदा-कदा आने वाली प्रजातियां शामिल  थी ।  
ये गाल्स बैक्टीरिया, कवक, कृमि, माहू, मिजेस, ततैया और घुन  बनाते हैं । यदि प्रभावित भागों पर अंडे या कीट दिखाई दें तो यह पता लगाया जा सकता है कि ये गाल कीट ने बनाए हैं या नहीं। ओक के पौधों पर गाल्स बहुतायत से देखे जाते हैं । ओक ५०० से ज्यादा ततैया, ३ एफिड (माहू), घुन और मिजेस का पोषक पौधा है जो इसकी पत्तियों और टहनियों पर गाल्स  बनाते है ।  
सामान्यत: कीट और पिस्सू गाल बनाने वाले सबसे आम जीव हैं । कुछ लोग इन्हें बागवान भी कहते हैं क्योंकि ये पौधों पर नई रचनाएं बनाते हैं । पौधों मे दो तरह के गाल्स देखे जाते हैं- खुले और बंद । खुले गाल एफिड, काकसिड और माइट्स जैसे जीव बनाते हैं । जबकि बंद प्रकार के गाल कीटों की इल्लियों द्वारा बनाए जाते हैं ।  
पत्तियों और तनों पर बने ये गाल्ज ज्यादा जाने-पहचाने हैं बजाय उन कीटों के जो इन्हें बनाते हैं । ये कीट बहुत छोटे होते हैं और इन्हें पहचानना भी मुश्किल होता हैं । गाल बनाने वाले कीट अपने अंडे पोषक पौधे के ऊपर या अंदर देते हैं । अंडों से निकली इल्ली जहां पौधे के संपर्क में आती है, वहीं से गठान बनने की शुरूआत होती है ।
ये गठानें असामान्य वृद्धि का नतीजा होती हैं और पत्तियों, शाखाओं, जड़ों और फूलों पर भी बनती हैं । ये गठानें इल्लियों द्वारा इन भागों को कुतरने के फलस्वरूप उत्पन्न उद्दीपन के कारण बनना शुरू होती हैं । ये गेंद, घुंडी, मस्सों आदि के रूप में होती है । इस तरह की गठानें आप करंज, सप्तपर्णी और गूलर, पाकड़ की पत्तियों पर देख सकते हैं । एक समय में ऐसा माना जाता था कि इनमें औषधीय गुण होते हैं । वर्तमान में इनका इस हेतु उपयोग नहीं किया जाता ।
जहां तक इनके आर्थिक महत्व का सवाल है, इनमें टैनिक अम्ल बहुत अधिक मात्रा में होता है। युरोपियन सिनिपिड द्वारा बनाए गए गाल से लगभग ६५ प्रतिशत टैनिक अम्ल जबकि अमेरिकन सुमेक गाल से ५० प्रतिशत टैनिक अम्ल प्राप्त होता है। इन गाल से रंग भी मिलते हैं । टर्की रेड रंग मैड एप्पल गाल से निकाला जाता है । पूर्वी अफ्रीका में इन गठानों का उपयोग टेटू बनाने में रंग के लिए किया जाता था। सिनिप्स गैली टिंक्टोरी नामक कीट से उत्पन्न गाल से स्याही बनायी जाती है। एक समय कुछ देशों में कानूनी दस्तावेज इसी स्याही से लिखे जाते थे । यहां तक कि यूएस ट्रेजरी, बैंकआफ इंग्लैंड, जर्मन चांसलरी और डेनमार्क सरकार के पास एलेप्पो गाल से स्याही बनाने के विशेष फार्मूले हैं । अधिकांश गाल्स का स्वाद उनके पोषक पौधे जैसा होता है ।
तो इस गाल में हैं शामिल हैं  एक स्वपोषी पौधा (ओक), एक शाकाहारी परपोषी जन्तु (बेलोना-नीमा ट्रीटी ) और साथ में एक परजीवी प्रेमलता (कैसिथा फिलीफॉॅर्मिस)। ऐसा तिहरा सम्बंध जीवजगत में काफी पाया जाता है और जीवन की रणनीति का एक हिस्सा है।      
जनजीवन
बढ़ती आबादी के बढ़ते दबाव
राजकुमार कुम्भज
कहा जाता है कि धरती की भी धारण करने की अपनी सीमा होती है । इस सीमा को पार करने के नतीजे जल, जंगल और जमीन की बौखलाहट के रूप में हम भुगत रहे हैं । हमारी लगातार बढ़ती आबादी साथ उसकी जरूरतों की आपूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है और नतीजे में हम बार-बार प्रकृति के प्रकोप का सामना करने को अभिशप्त हो गए  हैं । 
संयुक्त  राष्ट्र की ओर से जारी किए गए एकबयान में कहा गया है कि वर्ष १९६८ में आयोजित 'तेहरान अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन` ने अभिभावकों को बच्चें की संख्या तय करने का अधिकार दे दिया था । पचास साल पहले हुई इस 'तेहरान घोषणा` ने मानव इतिहास में एक बड़ा बदलाव किया था । इसी घोषणा के  माध्यम से दुनिया भर की महिलाओं को यह अधिकार मिल गया था कि वे बच्च्े को जन्म देने और अनचाहे बच्च्े को दुनिया में लाने से रोक सकती हैं 
वर्ष १९८९ में यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) की गवर्निंग काउंसिल ने सिफारिश की थी कि इस संदर्भ में प्रतिवर्ष ग्यारह जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाना चाहिए । इस पहल के अंतर्गत पहले वर्ष में दुनिया के तकरीबन नब्बे देशों ने अपनी सक्रिय हिस्सेदारी दर्ज करवाई थी । दिलचस्प है कि परिवार कल्याण कार्यक्रमों में वर्ष १९५२ से भारत अग्रणी भूमिका में रहा है, लेकिन वर्ष २०१८ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत विश्व का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या (लगभग १३५ करोड़) वाला देश बन गया है । किन्तु वर्ष २०२५ में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा ।  वर्ष २०५० तक चीन अपनी एक बच्च नीति के कारण भारत की आबादी का सिर्फ  ६५ फीसदी  ही  रह  जाएग ा।
भारत सहित दुनिया के १७८ देशों ने वर्ष १९९४ में काहिरा इंटरनेशनल कान्फ्रेंस ऑन पॉपुलेशन के माध्यम से इस बात पर जोर दिया था कि स्वैच्छिक परिवार नियोजन प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है । गौर किया जा सकता है कि भारत सहित अन्य विकासशील देशों में तकरीबन साढे इक्कीस करोड़ महिलाएं ऐसी हैं,जो बच्च्े को जन्म देने में थोड़ा विलंब करने की इच्छुक हैं, किन्तु आधुनिक गर्भनिरोधकों की जानकारी के  अभाव में अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने से वंचित रह जाती हैं । इससे उनकी सेहत ही नहीं बल्कि प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होती है। विश्व बैंक ने अभी-अभी बताया है कि लड़कियों को शिक्षित नहीं करने की वजह से दुनिया पर तीन सौ खरब डॉलर का भार पड़ रहा है।
वर्ष १९८९ में जब ग्यारह जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाने का फैसला किया गया था, तब दुनिया भी आबादी पांच अरब थी, जबकि वर्ष २०१८ में इसी तारीख पर दुनिया की आबादी सात अरब अस्सी करोड़ आंकी गई है। इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या दिवस का आधार विषय 'परिवार नियोजन मानवाधिकार दिवस` रखा गया था । आबादी का बढ़ता आकार भारत सहित दुनिया के अधिकतर देशों के लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा है । बढ़ती आबादी के कारण सीमित संसाधनों पर बोझ बढ़ता जा रहा है । भारत सरकार की ओर से वर्ष २००० में जनसंख्या आयोग का गठन करते हुए वर्ष २०१७ में परिवार विकास भी प्रस्तुत किया गया लेकिन परिवार नियंत्रण और परिवार कल्याण के लिए शुरु किए गए इन दोनों ही उपक्रमों का कोई खास लाभ दिखाई नहीं दिया ।
भारत में जनसंख्या वृद्धि दर का ऊँचा होना कोई उत्साहजनक स्थिति नहीं है। देश के ग्रामीण इलाकों में आज भी बच्चें को आजीविका अर्जित करने में सहायक उपादान माना जाता है । गरीबी अथवा गंदी व तंग बस्तियों में रहने वालों के हालात तो बेहद दयनीय और चिंताजनक ही कहे जाएंगे । इन इलाकों में सामाजिक, पारिवारिक तथा आर्थिक स्थितियों के खराब रहने के कारण बच्चें को पैसा कमाने के लिए बचपन से ही लगा दिया जाता है । किशोरवय की लड़कियों को सामाजिक विसं-गतियों के चलते कई तरह की परेशानियों से जूझना पड़ता है। कम उम्र में शादी कर दिए जाने से लड़कियों को सेहत संबंधी परेशानियां भी उठानी पड़ती है ।  
लड़कियों के मामले में घरेलू हिंसा, यौनाचार मातृ-मृत्यु तथा शिशु-मृत्यु आदि की आशंकाएं सदा ही बनी रहती हैं । उन्हें बदहाली से उबारने के लिए किशोरवस्था से ही महिला सशक्तिकरण जरूरी है, शिक्षा तथा कौशल विकास जैसे क्षेत्रों में भी लड़कियों के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है । दक्षिण कोरिया, जापान, सिंगापुर और मलेशिया जैसे देशों ने युवा वर्ग की संख्या का अधिकतम लाभ लेने के लिए इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। अपनी दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति  से भारत भी ऐसे ही प्रयास कर सकता है और विकास के वांछित लक्ष्य हासिल कर सकता है । इस तरह भारत अपनी पैंतीस-छत्तीस करोड़ युवा आबादी की उपेक्षा से उपजे सामाजिक-असंतोष के खतरे को भी कम कर सकेगा ।
प्राचीन लेखक तेर्तुल्लियन ने दूसरी सदी में लिखा था कि पृथ्वी की क्षमता के मुताबिक ही आबादी होना चाहिए । ऐसा माना जाता है कि इस पृथ्वी पर चार अरब लोग ही बेहतर जीवन जी सकते हैंऔर पृथ्वी अधिकतम सोलह अरब से अधिक आबादी का भार वहन नहीं कर   सकती । थामस माल्थोस जैसे विद्वान ने भी कहा था कि पृथ्वी के संसाधन सीमित हैं किन्तु इसकी चिंता किए बगैर सीमित संसाधनों की तुलना में मानवजाति की आबादी कई गुना बढ़ जाएगी, अर्थात जनसंख्या वृद्धि दर की विस्फोटक स्थिति के कारण पृथ्वी की अंतिम भारधारक क्षमता कभी भी ध्वस्त हो सकती है ।
माना जा रहा है किवर्ष २०५० तक दुनिया की आबादी आठ  अरब से बढ़कर साढ़े दस अरब तक पहुंच जाएगी, क्योंकि प्रतिवर्ष साढ़े सात करोड़ की दर से पृथ्वी पर आबादी का विस्तार हो रहा है। वर्ष २०५० तक दुनिया में सात देश ऐसे होंगे जिनके पास दुनिया की आधी आबादी होगी । जाहिर है, अगर सक्षम कार्रवाई नहीं की गई तो उन सात देशों में पहले क्रम  पर भारत ही होगा । बढ़ती आबादी के  बढ़ते दबाव की वजह से एकओर जहां जल, जमीन, जंगल और आजीविका के लिए संघर्ष बढ़ेंगे वहीं दूसरी ओर आवास, शिक्षा, चिकित्सा, भोजन, नगर-नियोजन तथा अन्य दैनिक जीवन में उपयोगी चीजों की उपलब्धता और मांग का भी विस्तार होगा । आबादी बढ़ने और संसाधन न बढ़ने से दुनिया के कई देश निरंतर बिगड़ते पर्यावरण, खाद्य-आपूर्ति, ऊर्जा एवं जलसंकट, यातायात के संसाधन, भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध सहित आत्महत्या और आतंकवाद जैसी कई गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं।
वैश्विक स्तर पर आक्रामक उपभोग के चलते ऊर्जा की खपत में अनाप-शनाप वृद्धि हुई है जिसके चलते दुनिया के अनेक नगर और महानगर जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण प्रदूषण के शिकार होते जा रहे हैं, इन्हें 'हीट आइलैंड` तक भी कहा जाने लगा है। पिछले दशक में फ्रांस की राजधानी पेरिस ने भीषण लू का भीषण प्रकोप झेला है । अमेरिका के ह्यूस्टन और बैंकाक के थाइलैंड  ने बाढ़ की तबाही भुगती है और न्यूयार्क ने बर्फीली बारिश । इतना ही नहीं छ: सात बरस पहले न्यू ऑरलियन्स में आए कैटरीना तूफान के कहर को कैसे भुलाया जा सकता है? अतीत की आतंकित कर देने वाली कोई भी प्राकृतिक आपदा क्या सहज ही विस्तृत की जा सकती है? वैश्विक-स्तर पर बढ़ती जा रही आबादी के कारण ही पर्यावरण के इन खतरों को देखा गया है। आज दुनिया में एक करोड़ से अधिक आबादी वाले तकरीबन तीस से अधिक महानगर हो गए हैं, जिनमें टोक्यो, जकार्ता, शंघाई, ओसाका, कराची, ढाका और बीजिंग आदि शामिल हैं । भारत के दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहर भी उसी श्रेणी में शुमार होते हैं ।  भारतीय संदर्भ में बढ़ती आबादी का बढ़ता दबाव एक बड़ी चुनौती हैं क्योंकि भारत में वर्ष २००१ से २०११ के बीच आबादी के ग्राफ में सीधे-सीधे पैंतीस फीसदी से अधिक की वृद्धि  देखी गई है। 
हमारे देश में नब्बे फीसदी से अधिक लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं । जिनकी सामाजिक -सुरक्षा का कोई ठौर-ठिकाना नहीं हैं। वृद्धावस्था में भी सामाजिक असुरक्षा बनी हुई है । देश में २४ बरस से नीचे की युवा आबादी ४४ फीसदी है किन्तु इस आबादी का निर्भरता अनुपात ५२ फीसदी है मतलब बेरोजगारी । जाहिर है कि बढ़ती आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से संसाधनों के वितरण में असंतुलन पैदा हो जाता है, तब प्रतिस्पर्धा ही नहीं, संपूर्ण-संघर्ष भी बढ़ते है ।
ज्ञान विज्ञान
अमेरिका में अगले चुनाव मत पत्रों से करवाने का सुझाव
अमेरिका में साल २०२० में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं । वहां की विज्ञान अकादमियों का आग्रह है कि ये चुनाव मत पत्रों (बैलट पेपर) से किए जाएं ।
      दरअसल साल २०१६ में हुए राष्ट्र-पति चुनाव में गड़ब-ड़ियों की आशंका जताई जा रही थी । वहां की खुफिया एजेंसियों ने खुलासा किया था कि एक देश की सरकार ने चुनाव में धांधली करवाने की कोशिश की थी ।
अमेरिका में ईवीएम मशीन और इंटरनेट के जरिए वोट डाले जाते हैं । राष्ट्रीय विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा अकादमी की रिपोर्ट के अनुसार मत पत्र, जिनकी गणना इंसानों द्वारा की जाती है, चुनाव के लिए सबसे सुरक्षित तरीका है। उन्होंने पाया है कि चुनाव के लिए इंटरनेट टेक्नॉलॉजी सुरक्षित और भरोसेमंद नहीं है। इसलिए रिपोर्ट में उनका सुझाव है कि २०२० में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को मत पत्रोंसे किया जाए । 
जब तक इंटरनेट सुरक्षा और सत्यापन की गांरटी नहीं देता तब तक के लिए इसे छोड़ देना बेहतर होगा । मत पत्र से मतगणना के लिए ऑप्टिकल स्कैनर का उपयोग अवश्य किया जा सकता है। 
मगर, इसके  बाद पुनर्गणना और ऑडिट इंसानों द्वारा ही किया जाना चाहिए । अकादमी की रिपोर्ट में उन मशीनों को भी तुरंत हटाने का भी सुझाव दिया गया है जिनमें इंसानों द्वारा गणना नहीं की जा सकती । 
कमेटी के सह-अध्यक्ष, कोलंबिया युनिवर्सिटी की ली बोलिंगर और इंडियाना युनिवर्सिटी के अध्यक्ष माइकल मैकरॉबी का कहना है कि मतदान के दौरान तनाव को संभालने की जरूरत है । जब मतदाताओंकी संख्या और जटिलता बढ़ रही है और हम उन्हें मताधिकार के प्रति जागरूक करना चाहते हैं तो चुनावी प्रक्रिया को भ्रष्ट होने से बचाना जरूरी है । 
खेल-खेल में जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई
जब कोई जिद्दी बच्च होमवर्क करने से इंकार करता है तो कुछ रचनात्मक माता-पिता समाधान के  रूप में इसे एक खेल में बदल देते हैं। इसी तकनीक का उपयोग वैज्ञानिक जलवायु  परिवर्तन जैसी कठिन चुनौती से निपटने के लिए कर रहे हैं। 
वर्ष २१०० तक औसत वैश्विक तापमान २ डिग्री सेल्सियस बढ़ने की भविष्यवाणी के साथ, वैज्ञानिक आम जनता को इस मामले में लोगों को कार्रवाई में शामिल करने का सबसे प्रभावी तरीका खोजने का प्रयास कर रहे हैं । अभी तक सार्वजनिक सूचनाओं, अभियानों, बड़े पैमाने पर प्रयासों और चेतावनी के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के खतरों के बारे में बताकर लोगों को इसमें शामिल करने की कोशिश की जाती रही है। लेकिन वैज्ञानिकों को को लगता है कि अनुभव और प्रयोग के माध्यम से लोगों को सीखने में सक्षम बनाने से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं ।  
इसलिए, उन्होंने दुनिया भर के हजारों लोगों को वर्ल्ड क्लाइमेट नामक खेल में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया । यह खेल सहभागियों को संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के  प्रतिनिधि के रूप में जलवायु  परिवर्तन से दुनिया को बचाने पर विचार करने को प्रेरित करता है। इस खेल में प्रतिनिधियों को उनके सुझवों/निर्णयों पर तुरंत प्रतिक्रिया मिलती है। उनके निर्णय सी-रोड्स नामक एक जलवायु  नीति  कम्प्यूटर मॉडल में दर्ज किए जाते हैं । यह मॉडल बता देता है कि स्वास्थ्य, आर्थिक समृद्धि और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा पर उनके निर्णय के प्रभाव क्या हो सकते हैं ।  
शोधकर्ताओं ने खेल के  पहले और बाद में २०४२ खिलाड़ियों का सर्वेक्षण किया और पाया कि प्रतिभागियों में जलवायु परिवर्तन के कारणों और प्रभावों की समझ में काफी वृद्धि हुई और उनमें इसके हल के लिए तत्परता भी देखने को मिली । प्लॉस वन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इनमे से ८१ प्रतिशत ने जलवायु परिवर्तन के बारे में सीखने और अधिक कार्य करने की इच्छा भी व्यक्त की । यह प्रवृत्ति उत्तरी और दक्षिण अमेरिका, युरोप और अफ्रीका में आयोजित ३९ खेल सत्रों में एक जैसी थी ।
इन परिणामों से यह संकेत भी मिला है कि यह खेल खास तौर पर अमरीकियों तक भी पहुंचने का अच्छा माध्यम हो सकता है जो जलवायु कार्रवाई के समर्थक नहीं हैं और मुक्त बाजार पर सरकारी नियंत्रण का खुलकर विरोध करते हैं । 
लेकिन क्या यह सदी के अंत से पहले ग्रह को २ डिग्री सेल्सियस से गर्म होने को रोकने के लिए पर्याप्त हो सकता है? वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके लिए अधिक खिलाड़ियों को जोड़ना होगा, और खेल के प्रति इस उत्साह को वास्तविक दुनिया में स्थानांतरित करना होगा । 
औद्योगिक कृषि से वन विनाश
विश्व स्तर पर जंगली क्षेत्र में हो रही लगातार कमी का मुख्य कारण औद्योगिक कृषि को बताया जा रहा है। प्रति वर्ष ५० लाख हैक्टर क्षेत्र औद्योगिक कृषि के लिए परिवर्तित हो रहा है। बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा वनों की कटाई ना करने की प्रतिज्ञा के बावजूद, ताड़ एवं  अन्य फसलें उगाई जा रही हैं जिसके चलते पिछले १५ वर्षों में जंगली क्षेत्र का सफाया होने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आई  है ।
इस विश्लेषण से यह तो साफ है कि केवल कॉर्पोरेट वचन से जंगलों को नहीं बचाया जा सकता है । २०१३ में, मैरीलैंड विश्वविद्यालय, कॉलेज पार्क में रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ मैथ्यू हैन्सन और उनके समूह ने उपग्रह तस्वीरों से २००० और २०१२ के बीच वन परिवर्तन के मानचित्र प्रकाशित किए थे । लेकिन इन नक्शों से वनों की कटाई और स्थायी हानि की कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाई थी । 
एक नए प्रकार के  विश्लेषण के लिए सस्टेनेबिलिटी कंसॉर्शियम के साथ काम कर रहे भू-स्थानिक विश्लेषक फिलिप कर्टिस ने उपग्रह तस्वीरों की मदद से जंगलों को नुकसान पहुंचाने वाले पांच कारणों को पहचानने के लिए एक कम्प्यूटर प्रोग्राम तैयार किया है । ये कारण हैं-जंगलों की आग (दावा- नल), प्लांटेशन की कटाई, बड़े पैमाने पर खेती, छोटे पैमाने पर खेती और शहरीकरण । सॉफ्टवेयर को इनके बीच भेद करना सिखाने के लिए कर्टिस ने ज्ञात कारणों से जंगलों की कटाई वाली हजारोंतस्वीरों का अध्ययन किया  । 
यह प्रोग्राम तस्वीर के  गणितीय गुणों के आधार पर छोटे-छोटे क्षेत्रों में अनियमित खेती और विशाल औद्योगिक कृषि के बीच भेद करता है। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार २००१ से लेकर २०१५ के बीच कुल क्षति का लगभग २७ प्रतिशत बड़े पैमाने पर खेती और पशुपालन के कारण था । इस तरह की खेती में ताड़ की खेती शामिल है जिसका तेल अधिकतर जैव इंर्धन एवं भोजन, सौंदर्य प्रसाधन, और अन्य उत्पादों में एक प्रमुख घटक के तौर पर उपयोग किया जाता है। 
इन प्लांटेशन्स के लिए जंगली क्षेत्र हमेशा के लिए साफ हो गए जबकि छोटे पैमाने पर खेती के लिए साफ किए गए क्षेत्रों में जंगल वापस बहाल हो गए ।
कमोडिटी संचालित खेती से वनों की कटाई २००१ से २०१५ के बीच स्थिर रही । लेकिन हर क्षेत्र में भिन्न रुझान देखने को मिले । ब्राजील में २००४ से २००९ के बीच वनों की कटाई की दर आधी हो गई । मुख्य रूप से इसके कारण पर्यावरण कानूनों को लागू किया जाना और सोयाबीन के  खरीदारों का दबाव   रहे । 
लेकिन मलेशिया और दक्षिण  पूर्व एशिया में, वनों की कटाई के खिलाफ कानूनों की कमी या लागू करने में कोताही के कारण ताड़ बागानों के लिए अधिक से अधिक जंगल काटा जाता रहा । इसी कारण निर्वनीकरण ब्राजील में तो कम हुआ लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया में काफी बढ़ोतरी देखी गई । 
कई कंपनियों ने हाल ही में वचन दिया है कि वे निर्वनीकरण के जरिए पैदा किया गया ताड़ का तेल व अन्य वस्तुएं नहीं खरीदेंगे । लेकिन अब तक ली गई ४७३ प्रतिज्ञाओं में से केवल १५५ ने वास्तव में २०२० तक अपनी आपूर्ति के लिए वनों की शून्य कटाई के लक्ष्य निर्धारित किए हैं । इसमें भी केवल ४९ कम्पनियोंने अच्छी  प्रगति की सूचना दी है ।
विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय, मैडिसन की भूगोलविद लिसा रॉश के के अनुसार कम्पनियों के लिए शून्य-कटाई वाले सप्लायर्स को ढूंढना भी एक चुनौती हो सकती है। 
विज्ञान, हमारे आसपास
जीव विज्ञान मेंअमूर्त का महत्व
डॉ. अश्विन साई नारायण शेषशायी
`अमूर्तिकरण' एक बहुअर्थी शब्द है । एक मायने में इसका मतलब होता है कि वास्तविक घटनाओं और वस्तुआें की बजाय उनका प्रतिनिधित्व करने वाले विचारों का प्रस्तुतीकरण । ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश अमूति-करण की परिभाषा कुछ इस तरह देता है:  किसी चीज पर उसके अंतर्सम्बंधों या गुणधर्मों से स्वतंत्र विचार करना ।  एक दूसरे अर्थ में, इसका आशय चंद उदाहरणों के आधार पर किसी अवधारणा का सामान्यीकरण भी होता है। इसका एक अर्थ यह भी होता है कि कतिपय रचनाओं का आसान सारतत्व निकालना ।
प्रचलित संस्कृति मेंअमूर्ति-करण का सम्बंध  प्राय: आधुनिक कला के साथ जोड़ा जाता है । यह कला रंगों और रेखाओं की एक दृश्य भाषा में व्यक्त होती है, जो वास्तविक दुनिया को छूती भी है और नहीं भी छूती है। शुद्ध या अमूर्त गणित अवधारणाओं के साथ खेलता है जो प्राय: अजीबोगरीब लगती हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि उनका हमारे आसपास की दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं है। 
यह अलहदा बात है कि ये अवधारणाएं कभी-कभी उच्च् टेक्नॉलॉजी का सूत्रपात करती हैं । अर्थ शास्त्र में इंसानों के लोभ और कमजोरियों तथा समय व स्थान के साथ इनमें होने वाले परिवर्तनों की वजह से उत्पन्न उथल-पुथल को अक्सर अमूर्त गणितीय समीकरणों का रूप दिया जाता है । ये समीकरण बाजारों को चलाते हैं, गिराते और उठाते हैं । 
जीव विज्ञान का सम्बंध वास्तविकता से है और यह जीवन के अचरजों के साथ सख्त वैज्ञानिक ढंग से काम करता है। क्या अमूर्तिकरण का जीव विज्ञान से कुछ भी लेना-देना हो सकता है? मैं नहीं जानता कि लोग जानकारी के लिए कितनी बार कोरा जैसे ढुलमुल स्त्रोतों का सहारा लेते हैं । बहरहाल जीव विज्ञान में अमूर्तिकरण को गूगल सर्च करें तो वह आपको एक कोरा पेज पर पहुंचा देता है, जहां यह कहा गया है कि जीव विज्ञान में कोई अमूर्तिकरण नहीं होता क्योंकि सब सब कुछ ठोस वास्तविकता है । अब यदि जीव विज्ञान से आशय जीवन के  अध्ययन से है, और अमूर्तिकरण में यह भी शामिल है कि किसी पेचीदा समष्टि के हिस्सों को अलग-अलग करना और उन्हें आसान तरीके से निरूपित करना जो जीवन की बहु-स्तरीय वास्तविकता का प्रतिनिधित्व कर सकें और नहीं भी कर सकें,तो अमूर्तिकरण जीव विज्ञान का मुख्य हिस्सा हो जाता है ।
जैविक तंत्र निहित रूप से पेचीदा होते हैं । प्रत्येक कोशिका हजारों किस्म के रसायनों की खिचड़ी होती है जो परस्पर टकराते हैं और क्रिया करते हैं । और यह सब एक सघन आणविक दीवार के अंदर भरे अत्यंत गाढ़े घोल में चलता है । जीव विज्ञान इस सवाल का जवाब देने का प्रयास करता है कि अणुओं के इस सुसंयोजित थैले में कैसे जीवन पैदा होता है और कैसे उसके कुछ रूपों में चेतना का संचार होता है । यदि हम इसमें यह और जोड़ दें कि आणविक विलयनों की एक विशाल विविधता है जिसे कुछ सामान्य सूत्र आपस में जोड़े रखते हैं, जिसका उपयोग हमारे आसपास मौजूद विविध जीव जीवन की रचना के लिए करते हैं, तो सवाल की विशालता स्वत: स्पष्ट हो जाती है । 
इस जटिलता को देखते हुए, यदि किसी को लगता है कि जीवन की व्याख्या उसकी समस्त बारीकियों के साथ करने के लिए एक वैज्ञानिक रूप से मान्य एकीकारक सिद्धांत प्रतिपादित किया जा सकता है, तो वह थोड़ी ज्यादा ही मांग कर रहा है । एक मात्र सिद्धांत जो इसके नजदीक आता है वह है जैव विकास का ढांचा किन्तु यह कैसे काम करता है, इसकी बारीकियों का खुलासा अभी होना है और हम समाधान के निकट भी नहीं पहुंचे हैं । 
यह स्पष्ट है कि जीवन के अध्ययन का एकमात्र तरीका अमूर्तिकरण का है। जीव विज्ञान के विभिन्न उप-विषय जीवन को विभिन्न बिंबों में प्रस्तुत करते हैं। जेनेटिक विज्ञानी के लिए, जीवन के अध्ययन का मुख्य औजार यह समझ है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सूचनाओं का संचार कैसे होता है और इस सूचना की विषयवस्तु में उत्परिवर्तनों का व्यवहारगत परिणाम क्या होता है । स्वयं जेनेटिक सामग्री को कई हजार अक्षरों के खंडों में अमूर्त रूप दिया जा सकता है जिनमें से प्रत्येक खंड एक जीन का प्रतिनिधित्व करता है । या इस सामग्री को और भी छोटे खंडों के रूप में देखा जा सकता है जो कुछेक अक्षरों से मिलकर बने हों ।
दूसरी ओर, जरूरी नहीं कि सूचनाओं के संचार में रुचि रखने वाली किसी जैव-रसायनविद की रूचि सजीव के व्यवहार और जीन्स से उसके सम्बंधों में हो । हो सकता है कि उसे लगे कि वर्णमाला के अक्षरों के  रूप में जेनेटिक पदार्थ का निरूपण बहुत सरलीकरण है । इसकी बजाय वह शायद यह अध्ययन करने का आग्रह करे कि डीएनए को बनाने वाले अलग-अलग परमाणु कोशिका के अन्य रसायनों के साथ कैसे अंतर्क्रिया करते हैं ।  
जीव विज्ञान में रुचि रखने वाले वैज्ञानिकों का एक समूह सिद्धांतविद है । उनके हिसाब से कोशिका के अंतर चल रहे आणविक नृत्य को या शायद शिकारियों और उनके शिकार के बीच चल रही इकॉलॉजिकल अंतर्क्रियाआेंको भी चंद गणितीय समीकरणों में बांधा जा सकता है। इन समीकरणों का उपयोग नई-नई जीव वैज्ञानिक परिकल्पनाएं विकसित करने में किया जा सकता है और फिर उन परिकल्पनाओं की प्रायोगिक जांच की जा सकती है ।
पिछले एकाध दशक में जीव वैज्ञानिकों का एक नया वर्ग उभरा है जिन्हें सिस्टम्स बायोलॉजिस्ट या तंत्रगत जीव वैज्ञानिक कहते हैं । इन जीव वैज्ञानिकों में भी एक उपसमूह ऐसा है जो कोशिका में आणविक नेटवर्क्स को सामाजिक नेटवर्क्स के समान देखता है । दो अणु ठीक उसी तरह अंतर्क्रिया करते हैं जैसे (उदाहरण के लिए) फेसबुक पर दो मित्र करते   हैं । प्रत्येक अणु नेटवर्क में एक नोड बन जाता है और दो नोड्स के बीच अंतर्क्रिया एक किनोर बन जाती है । 
इन नेटवर्क्स में अंत-र्क्रियाआेंमें काफी विविधता हो सकती है। जैसे यह हो सकता है कि हजारों कोशिकीय रसायनों के बड़े पैमाने के नेटवर्क में सारी अंतर्कि्रयाएं बराबरी की हों या यह भी हो सकता है कि कुछ बड़े पैमाने की अंतर्क्रियाआें के अलग-अलग महत्व हों । यह भी संभव है कि किसी नेटवर्क में दस-बीस अणु  ही शामिल हों। इन नेटवर्क का विश्लेषण सांख्यिकीय विधियों से किया जा सकता है और इनकी व्याख्या जीव वैज्ञानिक  नजरिए  से की जा सकती  है।
इनमें से कोई भी रास्ता संपूर्ण नहीं है । एक मायने में यह उस परिस्थिति के  समान है जहां चार अंधे व्यक्ति एक हाथी के बारे में अलग-अलग राय बनाते हैं । चतुर जीव वैज्ञानिक वह है जो इन विभिन्न रास्तों का एकीकरण कर सके और यह समझाने के लिए परिकल्पना विकसित कर सके कि जीवन का कोई छोटा हिस्सा कैसे काम करता है । इसी वजह से अंतर्विषयी अनुसंधान को बढ़ावा देने की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है। इसके लिए एक ही सवाल के विभिन्न नजरियों को समझने की क्षमता जरूरी है बल्कि  यह  भी जरूरी है कि आप विविध रवैयों के प्रति खुला दिमाग रखें ।
जीवन की विस्तृत विविधता जीव वैज्ञानिक के लिए एक चुनौती है । हम नहीं जानते कि इनमें से अधिकांश जीवों का अध्ययन प्रयोगशाला में कैसे करे ं। किसी भी जीव के जीव विज्ञान की वैज्ञानिक खोजबीन के  लिए प्राय: उसके साथ जेनेटिक छेड़छाड़ करनी पड़ती है । अक्सर हमें पता नहीं होता कि यह कैसे करें । जाहिर है, हम मनुष्यों के  जीव विज्ञान का अध्ययन तो करना चाहते हैं किन्तु किसी मनुष्य में जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग करना संभव नहीं है । तकनीकी कारण तो हैंही, साथ में नैतिकता से जु़़डे कारण भी है । 
इसलिए ढेर सारे जीव वैज्ञानिक अनुसंधान में हमने बड़ी संख्या में जीव-रूपों का अमूर्तिकरण करके कुछ काम करने योग्य `मॉडल' जीवों का निर्माण किया है। इसके पीछे मान्यता यह है कि जीवन के अधिकांश रूपों में कुछ साझा सूत्र हैं और एक तरह के जीवों के अध्ययन से अन्य जीवों की आणविक प्रक्रियाओं को समझा जा सकता है ; एकदम बारीकियों में नहीं, तो भी मोटे तौर पर तो समझा ही जा सकता है ।
`मॉडल' जीवों का चयन उनके साथ काम करने तथा उनमें फेरबदल करने की सरलता पर निर्भर है । आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सर्वप्रथम `मॉडल' जीव एक किस्म के वायरस थे जिन्हें बैक्टीरिया-भक्षी वायरस (बैक्टीरियोफेज) कहते हैं । ये झुंड में और काफी रफ्तार से संख्या वृद्धि करते हैं । इसलिए इनके साथ काम करना सुविधाजनक है । अंतत: बैक्टीरियाभक्षी वायरस भी प्रजनन करते हैं और मनुष्य भी । यह सही है कि प्रजनन की प्रक्रिया की बारीकियों में अंतर होते हैं किन्तु जीवन के सबसे `निचले' से लेकर सबसे `ऊपरी' स्तर तक सिद्धांत वही रहता है। बैक्टीरिया-भक्षियों ने हमें यह खोज करने में मदद दी कि आनुवंशिक पदार्थ प्रोटीन नहीं बल्कि डीएनए है ।
अलबत्ता, वायरस स्वतंत्र  जीव नहीं होते और उन्हें अपना कामकाज चलाने के लिए किसी अधिक विकसित जीव के सहारे की जरूरत होती है । इसलिए मशहूर एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया जीवन का बेहतर मॉडल बन गया । इस बैक्टीरिया ने न सिर्फ प्रजनन के मूल रूप को समझने में मदद की बल्कि यह समझने में भी मदद की कि आम तौर पर शरीर की बुनियादी क्रियाएं यानी चयापचय कैसे चलती हैं और कोशिका नामक कारखाना कैसे जीवनदायी रसायनों के उपभोग व उत्पादन का नियमन करता है ।
मानव कोशिकाएं संरचना के लिहाज से ई. कोली व अन्य बैक्टीरिया से बहुत भिन्न होती हैं, इसलिए खमीर कोशिकाओं जैसी ज्यादा पेचीदा कोशिकाएं मनुष्य की कोशिकीय प्रक्रियाआें को समझने का बेहतर मॉडल बनकर उभरीं । खमीर यानी यीस्ट एक-कोशिकीय जीव होते हैं जबकि मनुष्य बहु-कोशिकीय हैं ।  लिहाजा, बहु-कोशिकीय मगर काम करने में आसान फू्रट फ्लाई (फल-मक्खी) और अन्य कृमि मनुष्य के  जीव विज्ञान के अध्ययन के बेहतर मॉडल बन गए । इनके साथ फेरबदल करना और अध्ययन करना अपेक्षाकृत आसान है । 
इसके बाद आती है बीमारियों को समझने और उनका उपचार करने की जरूरत । इसके लिए हमें चूहों, खरगोशों और बंदरों का उपयोग करना होता है । कई बार हमें इनके जेनेटिक रूप से परिवर्तित रूपों का भी उपयोग करना पड़ता है । इन अध्ययनों के चलते न सिर्फ  कई महत्वपूर्ण खोजें हुई बल्कि इन्होंने जन्तु अधिकार सम्बंधी कई विवादों को भी जन्म  दिया ।
ऐसे भी मौके आते हैं जब हमें मनुष्य की कोशिकाआें की जरूरत पड़ती है, और किसी चीज से काम नहीं चलता । विज्ञान के अनुसंधान और नैतिकता के क्षेत्र यह समझने के  प्रयास में जुटे हैं कि यह काम प्रभावी ढंग से कैसे किया जा सकता है । 
अलबत्ता, यह सब  कहने का मतलब यह नहीं है कि मॉडल जन्तु मात्र ऐसे औजार हैं जिनका उपयोग यह समझने में किया जाता है कि मनुष्य के  शरीर कैसे काम करते हैंतथ्य तो यह है कि मनुष्य इस धरती पर जीवन का एक अत्यंत छोटा-सा अंश हैं और मॉडल तंत्रों का अध्ययन प्राय: उन जंतुआें को समझने के लिए ही किया जाता है ताकि जीवन को पूरे विस्तार में समझा जा सके । 
विशेष लेख
ऊर्जा और हम
डॉ. विनीत तिवारी 
निकोला टेस्ला एक वैज्ञानिक हुए है उनका मानना था, यदि सृष्टि के सत्य को जानना चाहते हैं, तो सृष्टि को ऊर्जा की दृष्टि से देखना होगा । 
सृष्टि कब कहाँ कैसे शुरू  हुई, क्या होगा इसकी यात्रा का अंतिम पडाव, इन प्रश्नों में बदलाव की जरूरत हमेशा से रही है, हम जो आज तक महसूस करते आए हैं,वह हमारी सृष्टि की यात्रा है, एक परिवर्तन जो हमेशा से चला आ रहा है । 
जो कुछ सृष्टि से लिया दिया वह तो ऊर्जाओं के रूप में था, इस दिए लिए और हमारे किये ने ही हमे वो बनाया है जो हम आज नजर आते हैं। यह ऊर्जाएं हैं, हमारे अहसास ऊर्जा हैं, हमारी हर बात हर अभिव्यक्ति ऊर्जा है, ऊष्माप्रवेगिकी यानी थर्मोडी-नमिक्स का प्रथम सिद्धांत ऊर्जा के विषय में भी तो यही कहता है कि ऊर्जा कभी उत्पन्न नहीं होती, कभी विलीन नहीं होती, यह केवल बदलती हैं परिवर्तन करती हैं । हमारी अहसासों की डायनामिक्स कुछ और नहीं हैं, कुछ ऐसे कहा जाना चाहिए की एहसासों का आपस में बदलते रहना, न जन्मना और न ही मरना । 
कोई यदि उस पर से हमें देख रहा हो, तो वो यह कह सकता है कि जीवन ऊर्जा के बदलते रहने का दृष्टान्त है । प्रेम, झिझक, परेशानी, आलस्य, भय, शांति अहंकार, आत्मविश्वास, तनाव, काम इत्यादि ऐसे भाव हैं, जिनके अहसास को हम समझते हैं, परन्तु यह अहसास वस्तुत: क्या हैं, ये हम कभी नहीं सोचते हैं, क्योंकि यह अहसास हमें दिखाई नहीं देते हम इनका स्पर्श नहीं कर पाते,  इस पर इनका प्रभाव तो है ही इसलिए इन अहसासों का सत्य यह है कि ये ऊर्जा है । 
सहज बोध यानि इंटुइशन और कुछ तंरगे जिनके प्रभाव तो कभी कभी हम महसूस करते हैं, परन्तु इस प्रकार के अहसास के अस्तित्व के  विषय में शंका और भी भयानक है । हमें हर चीज एक परिभाषित आकार और गुण के भीतर ही समझ आती है । बात तो बहुत सरल हैं, जिसका कुछ प्रभाव है वह ऊर्जाहै, क्योंकि ऊर्जा है तभी तो प्रभाव प्रकट हो रहे हैं । विज्ञान का वर्क-एनर्जी सिद्धांत भी तो यहीं कहता है, यदि कुछ घटित होता है, तो ऊर्जा द्वारा ही होता है, अहसास घटना है, भाव ऊर्जा है । अब जैसे मन, एक ऐसा अहसास जिसका बहुत बार प्रयोग होता है, मन नहीं है, मन करेगा तो करूंगा, मन के हारे हार, मन के माने जीते जीत आदि आदि । परन्तु मन है क्या, जैसा इसका प्रभाव है उसके अनुसार, तो स्वयं की ऊर्जा के बहाव के अतिरिक्त यह कुछ और हो ही नहीं सकता । 

ऊर्जा की दृष्टि से देखने पर, ऐसा लगता है कि, जैसे सृष्टि दो तरह की है, एक तो वह जो दृष्टिगोचर है, जिसका स्पर्श किया जा सकता है, और दूसरी वह जो अदृश्य है, जिसका केवल  प्रभाव समझ में आता है । 
एक देह-स्पर्श-स्वाद-गंध-ध्वनि है और दूसरी ऊर्जा, हाँ यह सत्य है कि, सृष्टि के यह दो प्रकार, दो प्रतीत होते ही हैं, परन्तु इस प्रतीत होती भिन्नता के थोड़ा आगे, समग्र सत्य यह है कि इनमें गहरा अर्न्तसमबन्ध हैं, इतना अधिक गहरा कि इनमें से किसी के भी एकल अस्तित्व की संभावना नहीं है, कल्पना भी नहीं की जा सकती है । संरचना और ऊर्जा का एकल अस्तित्व है ही नहीं, एक का बदलना दूसरे का परिणाम भी है और कारण भी, यह तो द्विस्थितियां हैं जैसा क्वांटम भौतिकी में कहते हैं, वेव-पार्टिकल डुअलिटी है, ड्यूल नेचर है । यानि कि प्रत्येक तत्व ऊर्जा भी है और कण भी है, वह भी एक ही समय में । 
हम अपने आसपास तरह तरह के लोगों को देखते है, कोई शांत है, कोई संकोची और डरा हुआ है, तो कोई मिलनसार और प्रेमी है, हम सब इतने अलग-अलग इतने भिन्न कैसे हैं, यह स्वभाव की भिन्नता आयी कहाँ से, क्या हमारी संरचना में अंतर है, किसी सूक्ष्म स्तर पर है यह अंतर या हमारी ऊर्जाओं में भिन्नता है, क्योंकि हम ऊर्जा और संरचना ही तो है, वह भी इस तरह से की हमारा ऊर्जा और संरचना को अलग-अलग देखना असत्य होगा  । 
कुछ जवाब तक पहुँचने के लिए कुछ घटनाओं के अनोखेपन को खंगालना  होगा । 
बहुत लोग यह जानते है, कुछ ने देखा भी होगा कुछ ने सुना होगा, जिन्होंने न देखा है और न ही सुना है, वह यह जान लें, कि ''गिरगिट कि तरह रंग बदलना`` केवल मुहावरा नहीं है, यह एक सच्ची घटना है, गिरगिट अपने भाव के अनुसार अपनी त्वचा के सूक्ष्म स्तर पर, संरचनात्मक परिवर्तन करने में सक्षम होते हैं । इससे उसके प्रकाश सम्बन्धी गुणों, अर्थात ऑप्टिकल रिलेशन्स में परिवर्तन आता है, और वह सूर्य के श्वेत प्रकाश से, अपने भावानुसार, भिन्न-भिन्न रंगो या फ्रीक्वेंसीज को अवशोषित और परावर्तित करता है । यहीं है गिरगिट के रंग बदलने का कारण, संरचना परिवर्तन द्वारा गुण परिवर्तन का गिरगि केवल अकेला उद्धरण नहीं हैं । 
रेडियो के विषय में लगभग हम सभी जानते हैं, इसे ट्रांजिस्टर भी कहा जाता है । रेडियो को साफ ढंग से सुनने के लिए हम क्या करते है, ट्यूनिंग करते हैं, ट्रांसमीटर और रेडियो सेट की फ्रीक्वेंसीज, यानि ऊर्जा तरंगो कि स्थितियों का आपस में मिलान कराते हैं, यह मिलान ट्यूनर द्वारा रेडियो में लगे सर्किट में किये गए संरचनात्मक बदलाव के द्वारा ही संभव हो पाता है । ऊर्जा कि दृष्टि से देखना और सोचना शुरू करेंगे तो संरचना और ऊर्जा के बीच के ऐसे असंख्य सम्बन्ध  हमें दिखेंगे, समझ आएगें । 
एक कहावत है कि कच्च्े घड़े में बदलाव किये जा सकते हैं,पर घड़ा यदि पक जाये, फिर उसे बदलना, असंभव हैं । एक बालक में अच्छी आदतों को पिरोने की संभावनाएं भी असीम होती है, बड़े होने पर संरचना काफी बदल जाती है, और कोई परिवर्तन करना थोड़ा कठिन जरूर जाता है, परन्तु असंभव नहीं है । 
सोचिए, की स्वभाव में परिवर्तन कैसे लाया जा सकता है, क्या उसी मार्ग से जिस मार्ग से वह स्वभाव बना हैं ? हमारा स्वभाव हमारी ऊर्जाओं के प्रतिबिम्ब के समान होता है, जैसी ऊर्जा या भावों के संपर्क में हम रहते हैं,वैसा ही हमारा स्वभाव बनता है । तो हमारे भीतर परिवर्तन इसी रास्ते सेे आएगा । जैसे आनंद और शांति को अपने स्वभाव में उतारना है, तो ऐसी प्रक्रियाओं में बने रहना होगा, जो आनंद और शांति का अहसास कराती हो, जैसे स्वयं से प्रेम करने वाला व्यक्ति, अपने काम के प्रति, और अन्य लोगों के प्रति, स्वयं ही प्रेमी स्वभाव का होता है, और जैसे कई बार लोगों की नकारात्मक बातें, अपनी नकारात्मक और हीन हो जाते हैं । सीधे-सीधे कहा जाए तो जैसी ऊर्जा वैसी संरचना और वैसी ही ऊर्जा, या वैसी ही अहसास और वैसा ही स्वभाव । 
मैटेरियल साइंस अर्थात पदार्थ विज्ञान का एक स्ट्रक्चर प्रॉपर्टी रिलेशनशिप है, यानि संरचना और गुण अन्तर्सम्बन्ध सिद्धांत, यह सिद्धांत कहता है कि, ''कोई भी पदार्थ अपनी संरचना के अनुरूप ही ऊर्जाओं को धारण करता है, इन ऊर्जाएं से उस पदार्थ का गुण या स्वभाव बनता है, और यह दोनों प्रक्रियाएं, बिना किसी समयांतर के एक साथ घटित होती हैं । 
जैसे कोयला और हीरा, दोनों शुद्ध रूप से, कार्बन ही हैं, परन्तु क्योंकि इनमें कार्बन एक दूसरे से भिन्न रूप से जुड़े हैं, अर्थात कार्बन के जोढ़ समूहों में अतंर है, इसलिए इनके गुणों में भारी भिन्नता होती है । 
तो सरंचना गुणों की कुंजी   हैं । सोचिये, यदि कार्बन किसी अन्य संरचना जोड़ को प्राप्त करें, जैसे पदार्थ वैज्ञानिक कराते हैं, संरचना परिवर्तन द्वारा अनुकूल गुणों को प्रकट करते हैं, इसी तरीके से तो ग्रेफाइट और ग्रेफीन बने हैं, यह दोनों भी कोयले और हीरे की तरह कार्बन से ही बने हुए हैं, पर इनके गुण एकदम भिन्न हैं, इन गुणों की कल्पना कोयले और हीरे से नहीं की जा सकती है । इसी कड़ी में वैज्ञानिकों ने विलक्षण गुणों वाले के पदार्थो का निर्माण किया है । 
परिस्थितियां जिनका सानिध्य हमसे बना रहता है, यह सानिध्य हमें बहुत प्रभावित करता है, हमारे भीतर परिवर्तन लेकर आता है, अब जैसे, धरती के भीतर ताप और दाब में अंतर के कारण ही, तो कुछ कार्बन कोयला बनते हैं, कुछ हीरा । ठीक ऐसे ही परिस्थितियों के प्रभाव से प्रकृति के अंग भी भिन्ना को प्राप्त होते हैं । 
हमारा सम्पूर्ण जीवन एक कहानी जैसा है, एक कहानी वस्तुत: एक लाइन में कहें तो परिस्थितियों का अहसास करके, उनमें परिवर्तन लाकर, गुणों को दिशा देने की यात्रा है । 
जीवन के इस सत्य में कितना सुख है, कितनी खुशी कितनी निर्भीकता है कि, हम अकेले नहीं हैं, ऊर्जाएं हमारे साथ हैं, और हम उन्हें दिशा भी दे सकते हैं । जितनी बेहतर और सकारात्मक ऊर्जाओं के साथ हम जियेगें उतना ही अच्छा हमारा जीवन होगा । यह सच है कि जीवन जीने के  साधन, उनकी प्राप्यता, हमें अहसासों के स्तर पर भी प्रभावित करती हैं, परन्तु यह भी सत्य है कि, हम यह जान लें, कि वोे कौन सी ऊर्जा है, वो कौन सा अहसास है, वो किसका सानिध्य है जो हमें हमसे मिलाता है, हमें पूरा बनाता है, सुख देता है ।