गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

कविता
जाग तुझको दूर जाना 
महादेवी वर्मा

चिर सजग आँखे उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना ! 
जाग तुझको दूर जाना ! 
अचल हिमगिरी के ह्दय में आज चाहे कंप हो ले !
या प्रलय के आँसुआें में मौन अलसित व्योम रो ले, 
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाआें में निठुर तूफान बोले !
पर तुझे है नाश पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना !
जाग तूझको दूर जाना !
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले ?
पथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले ?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डूबो देंगे तुझे यह फूल दे अल ओस गीले ?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना !
जाग तूझको दूर जाना !
वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सूधा दो घूँट मदिरा मॉग लाया ।
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या ?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया ?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उस में बसाना ?
जाग तुझको दूर जाना !
कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी,
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी !
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना !
जाग तुझको दूर जाना !

कोई टिप्पणी नहीं: