शनिवार, 16 सितंबर 2017


प्रसंगवश
नागरिकों की स्वतंत्रता का विस्तार
पिछले दिनों सर्वोच्च् न्यायालय ने नागरिकों के निजता के हक को उनका मौलिक अधिकार मानते हुए एक तर्कपूर्ण फैसला दिया है । इससे नागरिकों की स्वतंत्रता का विस्तार हुआ है । 
सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय नागरिकों को संविधान से मिली स्वतंत्रताआें का दायरा और बढ़ा दिया है । इस ताजा निर्णय से निजता नागरिकों का मौलिक अधिकार बन गई है । कोर्ट ने इसे संविधान के अनुच्छेद-२१ का हिस्सा बना दिया है । इस अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को कानून के तहत तय प्रक्रियाआें का पालन किए बिना उसके जीवन या निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता । 
निजता के अधिकार का सवाल सात दशकों में कई बार सर्वोच्च् न्यायालय के सामने आया । दो मौकों पर अदालत की संविधान पीठ ने उस पर विचार किया । सन् १९५४ में बहुचर्चित एमपी शर्मा केस में आठ सदस्यीय और १९६२ के खड़क सिह मामले में छह जजों की पीठ इन नतीजे पर पहुंची कि भारतीय संविधान में निजता के अधिकार की व्यवस्था नहीं है । लेकिन अब नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से कहा है कि निजता का अधिकार स्वाभाविक रूप से जीवन और स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है । 
हर्ष की बात है कि केन्द्र सरकार ने इस निर्णय का स्वागत किया है । इसके साथ ही कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने उन कदमों का उल्लेख किया, जो एनडीए सरकार ने नागरिकों की निजता की रक्षा के लिए उठाए हैं । उन्होंने आधार अधिनियम के सिलसिले में दिए गए वित्त मंत्री अरूण जेटली के बयान की याद दिलाई । तब जेटली ने कहा था कि ये कानून मानकर चलता है कि निजता का हक मौलिक अधिकार है । साथ ही सरकार ने डेटा संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए एक उच्च्स्तरीय समिति बनाई है । फिर यह   भी गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने निजता के हक को असीमित नहींमाना, बल्कि कहा कि हर अधिकार की तरह इस पर विवेकपूर्ण सीमाएं लागू रहेंगी । 
सम्पादकीय 
मूर्ति विजर्सन का इको फेंडली समाधान
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानी एनजीटी ने प्लास्टर ऑफ पेरिस प्रतिमाआें पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया है और देश के कई हिस्सों में इस पर प्रतिबंध भी है । हमें इससे निपटने के वैकल्पिक तरीकों का विकास करना होगा । 
नागपुर स्थित राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधन संस्थान (नीरी) ने पीओपी मूर्तियों के विसर्जन में अमोनियम बायकार्बोनेट नामक एक पदार्थ को उपयोगी पाया है । अमोनियम बायकार्बोनेट के उपयोग से प्लास्टर ऑफ पेरिस बहुत कम समय में विघटित हो जाता है । अमोनियम बायकार्बोनेट प्लास्टर ऑफ पेरिस के साथ अभिक्रिया करके कैल्शियम कार्बोनेट और अमोनियम सल्फेट में विघटित हो जाता  है । सबसे खास बात यह है कि विघटन के बाद बचे पदार्थोको दोबारा उपयोग किया जा सकता है । अमोनियम सल्फेट एक जाना-माना उर्वरक है जिसका उपयोग खेतों में किया जाता है । इस प्रकार प्लास्टर ऑफ पेरिस के विघटन से प्राप्त् अमोनियम सल्फेट का उपयोग खेतोंमें हो सकेगा । 
विघटन के बाद अमोनियम सल्फेट जल की उपरी पर्त में तैरने लगता है । इसका उपयोग मिट्टी की क्षारीयता को कम करने के लिए भी किया जाता है । प्लास्टर ऑफ पेरिस के विघटन से प्राप्त् दूसरा पदार्थ कैल्शियम कार्बोनेट नीचे तली में बैठ जाता है जिसका उपयोग सीमेंट उद्योग में दोबारा से किया जा सकता है । इस प्रकार इस तकनीक के उपयोग से जहां जल प्रदूषित होने से बचेगा, वहीं विभिन्न पदार्थो को दोबारा से उपयोग किया जा सकेगा । इस प्रकार यह तकनीक पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण साबित होगी । 
आजकल इको-फ्रेंडली तरीके से त्यौहार मनाने पर जोर दिया जा रहा है । ऐसे में हम सभी को पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से ऐसे ही तरीके अपनाने चाहिए जो प्रदूषण को कम करते हो । 
कृषि जगत
क्या किसानों को पेंशन का हक मिलेगा ?
कुलभूषण उपमन्यु

         देश के औद्योगिक विकास में किसान की अहम भूमिका है। लेकिन आजादी के बाद उसकी आय को अधिकाधिक बढ़ाने का लक्ष्य सरकारों ने कभी नहीं रखा। इसी का परिणाम है कि आखिर किसान ऋण ग्रस्त होने को मजबूर है। आखिर किसान को ऋणग्रस्त बनाने वाले हालात पैदा करने का जिम्मेदार कौन है? देश अनुत्पादक प्रशासनिक अमले का बोझ उठाने में सक्षम है। लेेकिन क्या उत्पादक किसान को उत्पादक अर्थव्यवस्था के नाते साठ वर्ष की आयु के बाद अनिवार्य पेंशन का हक मिल सकेगा ?
        एक समय था, जब कहावत हुआ करती थी, "उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निकृष्ट चाकरी, करे गंवार।" किन्तु आज स्थिति बदल चुकी है। गलत कृषि नीतियों के कारण ही किसान बदहाल हैं। हालांकि कृषि उपज बढ़ाने के लिए बेहतरीन वैज्ञानिक प्रगति हुई है। 
        देश अनाज आयात करने की मजबूरी से निकल कर निर्यात करने की स्थिति में आ गया है। किन्तु किसान की हालत नहीं सुधरी है। इसके पीछे कई कारण हैं जिन्हें समझना होगा। सबसे बड़ा कारण तो किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य न मिलना है। किसान की उपज के मूल्यों में १९४७ से अब तक १९ गुणा बढ़ोतरी हुई है। जबकि उसके निवेश की कीमतों में १०० गुणा से ज्यादा बढ़ोत्तरी हो गई है। इसके साथ ही नौकरी पेशाकर्मियों के वेतन में १५० से ३२० गुणा तक वृद्धि हो गई है। इस तरह मजदूरी के स्तर की नौकरी करने वाले की स्थिति भी किसान से बेहतर है। यह व्यापारी, औद्योगिक और शहरी समझ पर आधारित नीतियों का ही दुष्परिणाम है कि कृषि को अकुशल व्यवसाय की तरह देखा जाता है। एक फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर तो कुशल मजदूर है किन्तु किसान नहीं। 
          जबकि सदियों से संचित और आधुनिक ज्ञान पर आधारित उद्यमिता के बिना कृषि कार्य संभव ही नहीं। एक ओर किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिलता दूसरी ओर लागत में लगातार वृद्धि होती जा रही है मौसम पर निर्भरता में भी कोई खास कमी नहीं आई है। भंडारण की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण भी किसान अपनी फसल को औने पौने दम पर बेचने को विवश रहता है। महंगी कृषि पद्धति स्थिति को और बिगाड़ने में मददगार साबित हो रही है। इन परिस्थितियों में किसान ऋण जाल में फंसता जा रहा है। आखिर किसान भी उसी समाज का हिस्सा है, उसे भी बीमारी-हारी और सामाजिक रस्मों रिवाज के बोझ को भी ढोना पड़ता है। समाज में विद्यमान प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ता है। जब खेती के खर्च की ही भरपाई नहीं होगी तो बाकी सामाजिक खर्चों के साथ कैसे जूझे। इन हालात से तंग आकर किसान आज सड़कों पर उतरने को मजबूर है।  
          यह कहना अपनी जगह सही हो सकता है कि किसानों के आन्दोलन को हिंसक बनाने में कुछ राजनैतिक दलों का हाथ है। हालांकि आजादी के बाद ९० प्रतिशत समय तो कांग्रेस और उसकी सहायक पार्टियों का ही शासन रहा है। इसलिए किसान की बदहाली के लिए भी उनकी जिम्मेदारी ज्यादा बनती है। इस सबके बाबजूद इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है कि किसान की दशा वर्तमान शासन में भी सुधरी नहीं है। इसीलिए किसान अपनी आवाज बुलंद करने लगा है। किसानों द्वारा आत्महत्याओं का दौर पिछले दो दशकों से लगातार जारी है।
          जहाँ भी इस तरह के आन्दोलन चलते हैं वहाँ सब तरह के राजनैतिक निहित स्वार्थ घुसपैठ करके अपनी अपनी वोट की राजनीति चमकाने के लिए पहुँच ही जाते हैं। इसमें कुछ हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। किन्तु आन्दोलन को यह समझना जरूरी है कि आन्दोलन को दिया जाने वाला कोई भी हिंसक मोड़ आन्दोलन को कमजोर करने का ही काम करेगा। हिंसक आन्दोलन में मुख्य मुद्दे तो गुम हो जाते हैं और वोट बैंक की राजनीति आन्दोलन को हाई जैक कर लेती है। किसान आन्दोलन को इस खतरे को भांपते हुए सावधानी से आगे बढ़ना होगा। 
         प्रशासनिक अमले के कार्य, जिनकी आय को आजादी के बाद ३२० गुणा बढ़ाया गया अपनी जगह जरूरी हैं लेकिन अधिकांशत: प्रत्यक्ष रूप से उत्पादक नहीं। अर्थव्यवस्था में उनका योगदान अप्रत्यक्ष होता है, किन्तु किसान तो प्रत्यक्ष उत्पादन कार्य में लगा है। उसका महत्व प्रशासनिक अमले से कम नहीं हो सकता। वह जीवन यापन के लिए अन्न के साथ-साथ बहुत से उद्योगों के लिए कच्चे माल का भी उत्पादन करता है।
 इसलिए देश के औद्योगिक विकास में भी उसकी अहम भूमिका है। उसकी आय को भी आजादी के बाद कम से कम १०० गुणा तक बढ़ाने का लक्ष्य सरकारों और किसान आन्दोलन के सामने होना चाहिए। ऋण माफी तक ही किसान आन्दोलन सीमित नहीं हो सकता। असली प्रश्न तो यह है कि आखिर किसान ऋण ग्रस्त क्यों हुआ है। किसान को ऋण ग्रस्त बनाने वाले हालात पैदा करने का जिम्मेदार कौन है, इस बात का जवाब राजनैतिक दलों को देना चाहिए। ऋण माफी आपात स्थिति में तनिक राहत से ज्यादा कुछ नहीं है। राहत के रूप में इसका प्रयोग होना ही चाहिए।
           कृषि उत्पाद को लाभकारी मूल्य तो मिलना ही चाहिए किन्तु कृषि लागत को कम करना भी उतना ही जरूरी होता जा रहा है। अंधाधुंध मशीनीकरण और रासायनिक कृषि से किसान की कमाई कृषि मशीनें बनाने वाले उद्योगों और बैंक ब्याज के माध्यम से बैंकों की जेबों में जा रही है। कृषि पद्धति को वैज्ञानिक समझ से अनावश्यक मशीनीकरण से बचना होगा। छोटे किसान बैलों से खेती करें। बैलों से चलने वाले उन्नत उपकरण बनाए जाएँ जो किसान को ट्रैक्टर से खेती जैसी सुविधा दे सकें। बैल तो किसान ही पालेगा इससे बैल खरीदने बेचने पर पैसा तो किसान की ही जेब में जाएगा। रासायनिक कृषि पद्धति ने कृषि की लागत को बहुत बढ़ा दिया है।
             जैविक कृषि के माध्यम से किसान के खेतों के अपशिष्ट और गोबर एवं गोमूत्र से किसान की खाद और दवाई की अधिकांश जरूरतें पूरी हो सकती हैं। यह कार्य किसान स्वयं अपने श्रम से ही बिना ऋण लिए कर सकता है। इससे कृषि लागत में काफी कमी आ सकती है। रासायनिक कृषि को जरूरत से ज्यादा फैलाने का कार्य करने वाले कृषि विश्वविद्यालयों को ही "कम लागत वैज्ञानिक  कृषि" का वाहक बनाया जाना चाहिए। उत्पादक अर्थव्यवस्था का आधार होने के नाते किसान के लिए ६० वर्ष की आयु के बाद अनिवार्य पेंशन का हकदार माना जाना चाहिए। यदि अनुत्पादक प्रशासनिक अमले का बोझ देश उठा सकता है तो उत्पादक किसान का क्यों नहीं।
सामयिक
भारतीय प्रतिभा की चमक
मनीष श्रीवास्तव
हाल ही में विज्ञान के क्षेत्र में भारत को कई सम्मान मिले हैं । एक तरफ भारत को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दी जाने वाली कल्पना चावला स्कॉलरशिप प्राप्त् हुई है तो वही दूसरी ओर भारतीय मूल की छात्रा ने जूनियर नोबेल पुरस्कार जीत कर देश का मान बढ़ाया है । 
भारत में विज्ञान को लोकप्रिय करने के  लिए जाने-माने विज्ञान संचारक जयन्त नार्लीकर को हाल ही में सम्मानित किया गया है । देश की नई युवा शक्ति को विज्ञान के क्षेत्र में रूचि जगाने वाली यह बेहद महत्वपूर्ण खबरे हैं जिनसे युवा प्रेरित होकर भारत को विज्ञान क्षेत्र में सिरमौर बना सकते हैं । इन तीनों पुरस्कार विजेताआें के बारे में यहां चर्चा की जा रही है । 
१ महाराष्ट्र, अमरावती की रहने वाली २१ वर्षीय इंजीनियरिंग छात्रा सोनल बाबरवाल को हाल ही में वैश्विक स्तर पर दी जाने वाली कल्पना चावला छात्रवृत्ति इंटरनेशनल स्पेस युनिवर्सिटी, फ्रांस की ओर से दी जाती है । पहली बार किसी भारतीय को यह छात्रवृत्ति प्राप्त् हुई है । 
सोनल को प्रारंभ से ही रोबोटिक्स, स्पेस और पर्यावरणीय विषयों पर गहन अध्ययन करने में रूचि रही है । सोनल ने माउंट कार्मल हाईस्कूल, अमरावती  से  पढ़ाई करने के बाद इलेक्ट्रानिक्स एंड टेलीकम्यूनिकेशन में सिपना कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नॉलॉजी अमरावती से बी.टेक. पूरा किया । अंतरिक्ष क्षेत्र में रूचि के चलते सोनल ने अंतरिक्ष से संबंधित विषयों पर कई प्रेजेन्टेशन भी बनाए हैं । 
इंटरनेशनल स्पेस यूनिवर्सिटी की स्थापना १९८७ में हुई थी । इसके बाद से यहां अब तक १०० देशों के ४२०० छात्र स्नातक परीक्षा पास कर चुके हैं । इस संस्थान से दुनिया भर के अंतरिक्ष विशेषज्ञों की टीम जुड़ी हुई है जो छात्रों को मार्गदर्शन प्रदान करती है । इस स्कॉलरशिप के लिए छात्रों को कई स्तरों पर परीक्षा ली जाती है । सबसे बेहतर अंक लाने वाले तथा अच्छे अकादमिक रिकार्ड वाले छात्रों को ही यह स्कॉलरशिप मिल पाती है । 
इंटरनेशनल स्पेस यूनिवर्सिटी भारतीय अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला के सम्मान मेंयह छात्रवृत्ति प्रदान कर रही है । इसका उद्देश्य तकनीक और अंतरिक्ष क्षेत्र में महिलाआें को आगे लाना है । वे महिलाएं जिनकी पृष्ठभूमि विज्ञान, मेडिसिन और अंतरिक्ष से सम्बधित विषयों की रही है वे इस स्कॉलरशिप का लाभ ले सकती है और अंतरिक्ष के क्षेत्र में अपना नाम रोशन कर सकती हैं । अब सोनल बबरवाल दुनिया भर में स्पेस साइंस की पढ़ाई के लिए चर्चित कॉर्क इंस्टीटयृट ऑफ टेक्नॉलाजी, आयरलैण्ड से स्नातकोत्तर पढ़ाई पूरी करेगी । 
२. भारतीय अमेरिकी मूल की इन्द्राणी दास को साल २०१६ का जूनियर नोबेल पुरस्कार दिया गया  है । ये अभी सिर्फ १७ वर्ष की है । उन्हें मस्तिष्क संबंधी बीमारियों तथा उनके इलाज के संबंध में की गई महत्वपूर्ण रिसर्च के लिए यह पुरस्कार दिया गया है । 
अमेरिका की सोसायटी फॉर साइंस एंड पब्लिक संस्था द्वारा हाई स्कूल स्तर पर विज्ञान और गणित के क्षेत्र में प्रतिवर्ष व्यापक स्तर पर एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है । अमेरिका की सबसे पुरानी प्रतियोगिताआें में इसकी गिनती है । इसे ही जूनियर नोबेल पुरस्कार कहा जाता है । इन्द्राणी दास ने भी इसी प्रतियोगिता में जीत दर्ज की है । इसके लिए उन्हें जूनियर नोबेल पुरस्कार और १.६३ करोड़ रूपए की धनराशि दी गई है । इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि अब तक पिछली प्रतियोगिताआेंमें १२ ऐसे जूनियर नोबेल पुरस्कार विजेता हुए है जिन्होंने आगे चलकर अपनी खोजों के लिए नोबेल पुरस्कार भी जीता    है ।
३. जयन्त विष्णु नार्लीकर विज्ञान क्षेत्र का जाना-माना नाम    है । विज्ञान लोकप्रिकरण के लिए उन्होंने आजीवन कार्य किया है । उन्हें विज्ञान सेवा के लिए कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है । हाल ही में उन्हें विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाएं देने के लिए लक्ष्मीपत सिंधानिया - आईआईएम लखनऊ नेशनल लीडरशिप पुरस्कार २०१६ से सम्मानित किया गया है । श्री नार्लीकर की प्रारंभ से विज्ञान विषयों में गहरी रूचि रही है । उनका जन्म १९ जुलाई १९३८ को कोल्हापुर (महा.) में हुआ था । उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बनारस में पूरी करने के बाद उच्च् शिक्षा कैम्ब्रिज विश्वविघालय से प्राप्त् की । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के विषय में माना जाता है कि बिग बैंग के कारण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई थी लेकिन इसी संबंध में एक और धारणा प्रचलित रही है जिसे फे्रड हॉयल का स्टडी स्टेट सिद्धान्त कहा जाता है । 
इस सिद्धान्त पर नार्लीकर भी फ्रेड हॉयल के साथ काम कर चुके है । अब तक कई विज्ञान कथाआें तथा विज्ञान विषयों पर उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । उन्होंने विज्ञान के कई गूढ़ विषयों को सरल भाषा में लिखा है कि ताकि आम व्यक्ति भी विज्ञान को रूचि के साथ पढ़ सकें ।  
हमारा भूमण्डल
आत्म-निर्भरता से ही बचेंगे गाँव
भारत डोगरा

विश्व के अति गंभीर हो चले पर्यावरणीय संकट के समाधान के लिए ग्रामीण सभ्यता को बचाना आवश्यक है । यह पर्यावरणीय संकट ग्रामीण सभ्यता की रक्षा के बिना हल नहीं हो सकता है, और भारत जैसे अभी तक ग्राम-प्रधान बने हुए बड़े देश की इस प्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी कि एक ग्रामीण सभ्यता के माध्यम से पर्यावरण के गंभीर संकट का समाधान प्राप्त किया जाए ।

करोड़ों गाँववासियों की आजीविका की रक्षा एवं गाँववासियों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण संकट का समाधान करना जरूरी है । आज गाँवों का संकट लगभग पूरी दुनिया में मौजूद है, पर इसके रूप अलग-अलग हैं । 
संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे अन्य विकसित देशों में यह इस रूप में प्रकट हुआ है कि अपेक्षाकृत छोटे किसान और खेत लुप्त होते जा रहे हैंव बड़ी कंपनियोंके हाथों में अधिक भूमि केन्द्रित हो रही है । कनाडा में वर्ष १९४१ में जितने किसान थे,   ५५ वर्ष बाद १९९६ में उनमें से   मात्र एक चौथाई ही बचे हैं। आज भी किसानों की संख्या कम होती जा रही है ।
अमेरिका में वर्ष १९३५ में ६८ लाख किसान थे, जबकि आज मात्र १९ लाख किसान बचे हैं। रीगन के राष्ट्रपतिकाल में अनुमान लगाया गया था कि हर आठ  मिनट में एक किसान अपनी खेती-किसानी का पैतृक व्यवसाय छोड़ने को मजबूर हो रहा था । आज अमेरिका में ०.१ प्रतिशत जनसंख्या के हाथ में  लगभग ५० प्रतिशत कृषि भूमि है । इसमें से बहुत-सी भूमि विशालकाय कंपनियों के हाथ में है। दूसरे शब्दों में भूमि स्वामित्व का केन्द्रीकरण हो गया है व लाखों साधारण किसान परिवार अपनी आजीविका गवां बैठे हैं। 
यूरोप के छह देश सबसे पहले यूरोप की सामान्य आर्थिक नीति के अंतर्गत संगठित हुए थे । वर्ष १९५७ में यहाँ २२० लाख किसान थे जबकि वर्ष २००३ तक यहां किसानों की संख्या सिमटकर ७० लाख रह गई थी । ब्रिटेन में वर्ष १९५३ में ४५४००० किसान थे जबकि वर्ष १९८१ में उनकी संख्या २४२३०० रह गई ।
दूसरी ओर कई विकासशील देशों में, विशेषकर लेटिन अमेरिकी देशों में यह ग्रामीण संकट इस रूप में प्रकट हुआ है कि गाँंवों की आबादी बहुत सिमट गई है । ये देश मुख्य रूप से शहरी आबादी के देश बन गए हैं। इनमें से कुछ देशों में शहरी जनसंख्या का प्रतिशत कुछ विकसित/औद्योगिक देशों से भी आगे पहुँच गया है । यहाँ की लगभग ८० प्रतिशत तक जनसंख्या शहरी क्षेत्र में रहने के उदाहरण भी हैं। इस स्थिति में शहरी स्लम निवासियों की संख्या भी बहुत बढ़ गई है ।
तीसरी श्रेणी भारत जैसे विकासशील देशों की है जहाँ जनसंख्या का अधिक हिस्सा अभी गाँंवों में ही है (शहरों के कई परिवारों के भी अभी गाँंवों से काफी नजदीकी संबंध बने हुए हैं) पर ग्रामीण जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। इसमें मुख्य रूप से भूमिहीन मजदूर, दस्तकार व छोटे किसान सम्मिलित हैं । हालांकि कई बार मध्यम श्रेणी के किसान भी इससे प्रभावित होते हैं। 
इस संकट की एक मुख्य अभिव्यक्ति यह है कि अपनी ओर से भरपूर मेहनत करने के बावजूद भी अधिकांश लोग अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने में असमर्थ हैं। वे कर्जग्रस्त हो रहे हैं। बेहद अभावग्रस्त व तनावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर हैं। कभी कोई इससे तंग आकर आत्महत्या करता है तो थोड़ी-बहुत चर्चा होती है अन्यथा यह दर्द गाँंव में ही सिमटा-दबा रहता है ।
इनमंे से बढ़ती संख्या में अभावग्रस्त लोग नियमित तौर पर वर्ष में कई महीनों के लिए दूर-दूर के इलाकों में मजदूरी के लिए भटकते रहते हैं। कई गाँंवों में अधिकांश परिवारों का यही हाल है । इसका दूसरा पक्ष यह है कि गाँंव के अधिकांश मेहनतकशों के बाहर रहने के कारण गाँंव में स्थाई, टिकाऊ विकास के अवसर प्रतिवर्ष और   कम होते जा रहे हैं। अपने गाँंव की मिट्टी से रोटी प्राप्त करने की संभावना कम होती जा रही है    और कहा नहीं जा सकता कि कब गाँंव से नाता टूट जाएगा या तोड़ना पड़ेगा ।
अत: ग्रामीण आर्थिक संकट के संसाधन के लिए हमें ऐसी सोच चाहिए जो कमजोर वर्ग के परिवारों को अपने ही गाँंव में मेहनत कर बुनियादी जरूरतें पूरी करने में सक्षम बनाएं । यदि गाँंव में रहते हुए ही सब परिवार अपनी आर्थिक जरूरतें पूरी करने में सक्षम होते हैंतो इसके साथ यह संभावना भी जरूरी है कि गाँंव के मेहनतकश अपने गाँंव व आसपास के खेत, चरागाह, वन, जल-स्त्रोत सुधारकर गाँंव के दीर्घकालीन  विकास व गाँंव के पर्यावरण की रक्षा की संभावनाओं को निरंतर बढ़ा सकेंगे ।  
प्राय: यह देखा गया है कि यदि किसी गाँंव या गाँंवों के समूह के सब संसाधनों (कृषि भूमि, चरागाह, वन, लघु खनिज, जल-स्त्रोत आदि) का उपयोग गाँंव के सब लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए समतामूलक आधार पर किया जाए तो गाँंव के सब लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकती हैं। साथ ही जरूरी है जल-स्रोतों की, मिट्टी के उपजाऊपन की, चरागाह व वनों की रक्षा करना । मूल बात यह है कि प्राकृतिक संसाधनों कासमतामूलक उपयोग हो व उनकी रक्षा सब लोगों की भागीदारी से हो ।
इसके लिए जरूरी है कि प्रकृति का विनाश करने वाली तकनीकें  न अपनाई जाएं । ऐसी तकनीकें  न अपनाई जाएं जिनसे मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन नष्ट हो या जलस्रोतों में जहरीले रसायन पहंुचें । खाद्य चक्र को जहरीले पदार्थों से मुक्त रखना जरूरी है । जरूरत ऐसी तकनीक की है जो प्रकृति की प्रक्रियाओं को समझे व उसके अनुकूल खाद्य उत्पादन या अन्य उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करें ।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कृषि  के साथ अन्य रोजगार भी जुड़ने चाहिए । एक मूल सिद्धान्त यह अपनाना चाहिए कि लोगों की अपनी जरूरत को पूरा करने वाले जो उत्पाद लघु व कुटीर स्तर पर स्थानीय गाँंव कस्बे में बन सकते हैं,उन्हें स्थानीय स्तर पर ही बनाना चाहिए । कपास की खेती गाँंव में अवश्य होनी चाहिए व इसके आधार पर एक मूल आवश्यकता वस्त्र, विशेषकर खादी वस्त्र का स्थानीय उत्पादन हो सकता है। सब तरह के वस्त्रों के अतिरिक्त जूते, फर्नीचर, बेकरी उत्पाद, शीतल पेय, पत्ते गोबर की खाद, ऊर्जा के स्त्रोतोंआदि से भी गाँंव आत्म-निर्भरता की राह पर काफी आगे बढ़ सकते हैं । लघु वन-उपज व लघु खनिज आधारित कुटीर उद्योग भी गांव में विकसित होने चाहिए ।
गाँंवों में अच्छी शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएँ सबको समानता के आधार पर उपलब्ध होनी चाहिए । आपसी झगड़ों, शराब, अन्य मादक पदार्थ, जुए व दहेज जैसी सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिए गाँंववासियों को अपने संगठन बनाकर पंचायत के सहयोग से कार्य करने चाहिए । उसमें महिलाओं को अग्रणी भूमिका मिलनी चाहिए । 
लिंग, धर्म, जाति के  आधार पर किसी से भी कोई अन्याय या भेदभाव रोकने का कार्य भी इन्हीं संगठनों को करना चाहिए । गाँंववासियों के मजबूत संगठनों की (पंचायतों की सहायता से) गाँंव के संसाधनों पर बाहरी तत्वों के  नियंत्रण से बचाने व किसानों/गाँंववासियों के बुनियादी अधिकारों को बुलंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए । किसानों व ग्वालों को लघु वन उपज करने वालों को उचित मूल्य प्राप्त होना चाहिए व साथ ही उन्हें उपभोक्ताओं से सीधे सम्पर्क बनाने चाहिए ताकि उपभोक्ताओं को शुद्ध खाद्य मिलें व किसानों/गाँंववासियों को उचित दाम मिले । 
विस्थापन की समस्याओं को न्यूनतम करना चाहिए व जहां इसके बिना काम न चले वहां कुछ जमीन छोड़ते हुए, उसका मुआवजा लेते हुए भी ग्रामीण जीवन का अस्तित्व यथायंभव आसपास के क्षेत्र में ही बचाए रखने का प्रयास करना  चाहिए ।

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

विशेष लेख
शहरी युग में इकॉलॉजिकल सूझबूझ
डॉ. हरिनी नगेंद्र

इक्कीसवीं सदी को शहरी युग की संज्ञा दी जाती है । वर्ष २०५०  तक दो-तिहाई मानवता भीड़-    भाड़ वाले शहरी वातावरण में ठुंस जाएगी । 
सन् २०१४ मेंं राष्ट्र संघ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक इस शहरी वृद्धि का ९० प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा तो एशिया और अफ्रीका में होगा । और तो और ३७ प्रतिशत वृद्धि मात्र तीन देशों - भारत, चीन और नाइजीरिया में होगी । अनुमान बताते हैं कि २०५० तक भारत के फैलते शहरों और कस्बों में ४०.४ करोड़ और लोग शामिल हो जाएंगे । दुनिया के १० सबसे बड़े शहरों में से तीन भारत   में है - दिल्ली, मुम्बई और कोलकाता ।  दुनिया के १० सबसे तेजी से बढ़ते शहरों में से भी तीन भारत में हैं - गाजियाबाद, सूरत और फरीदाबाद । 
शहरों की यह अभूतपूर्व वृद्धि अपनी साथ कई पर्यावरणीय चुनौतियां भी लेकर आई है । शहरों में वायु प्रदूषण मृत्यु के एक प्रमुख कारण  के रूप मे उभरा है । मानसून के दौरान बस्तियों में पानी भर जाना भारतीय शहरों में आम बात है । हाल में यह समस्या बैंगलुरू, चेन्नई, गुडगांव और मुम्बई में कॉफी विकराल हो गई थी । शहरी कामकाज का सबसे स्पष्ट किन्तु उपेक्षित लक्षण यह है कि जिन शहरों में मानसून के दौरान पानी भर जाता है, गर्मियों में उन्हीं शहरों से सूखे के हालात बन जाते हैं । इन शहरों में पानी की आपूर्ति काफी महंगी होती है । 
अधिकांश शहरों में पानी किसी दूरस्थ स्त्रोत से आता है और प्राय: इसे लिफ्ट करना पड़ता   है । कई शहरों में पानी बोरवेलों से आता है । एक ओर तो शहर पानी, भोजन और ऊर्जा दूर-दूर से आयात करते हैं, वहीं अपना कचरा बाहर किसी भराव स्थल पर फेंकते है । इस तरह से वे ग्रामीण पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं । 
तेज शहरीकरण के कारण होने वाली पर्यावरणीय समस्याआें के साथ जुड़कर जलवायु परिवर्तन भारत के लिए ऐसी कठिन चुनौतियां प्रस्तुत कर रहा है जिन्हें संभालना अगले कुछ दशकों में मुश्किल हो जाएगा । इसके चेतावनी संकेत मिलने भी लगे हैं - तटवर्ती शहर बाढ़ तथा तूफान जैसी समस्याआें के जोखिम झेल रहे हैं । 
बारिश के विचित्र पैटर्न की वजह से देश के सूखाग्रस्त इलाकों से जलवायु शरणार्थियों का शहरों की ओर पलायन बढ़ता जा रहा है । भारत के कई सारे शहर पानी का संकट झेल रहे है । इस वर्ष की शुरूआत में दक्षिण एशिया में अभूतपूर्व ग्रीष्म लहर का प्रकोप रहा जिसे मानसून में हुए विलंब, सीमेंट कांक्रीट के गर्म टापुआें, शहरी जलराशियों के सूखने तथा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने और गंभीर बना दिया । 
शहरों में प्रकृति एक अहम भूमिका अदा करते हुए बाशिंदो को पर्यावरणीय क्षति के बदतरीन प्रभावों से बचाती है हालांकि इस भूमिका को पूरी तरह सराहा नहीं जाता है । 
शहरी पारिस्थितिक तंत्र महत्वपूर्ण पर्यावरणीय सेवाएं प्रदान करता है - नमभूमियां प्रदूषण की सफाई करती है और घट रहे भूजल का पुनर्भरण करती है और पेड़ वायु प्रदूषण कम करने में मददगार होते  हैं । पारिस्थितिक तंत्र फल, चारा, जड़ी-बूटियां और जलाऊ लकड़ी उपलब्ध कराते हैं जो अधिकांश शहरी गरीबों के लिए जीवन निर्वाह तथा आजीविका के प्रमुख स्त्रोत है । ये तनाव से राहत देने की महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक भूमिका भी निभाते   हैं । और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शहरी पारिस्थितिक तंत्र ऐसे सामाजिक स्थल उपलब्ध कराता है जहां लोग इकट्ठे होते है । इससे शहरी जीवन के सामाजिक विखंडन में कमी आती है और एक सुगठित समुदाय के निर्माण में मदद मिलती है । यहां सामाजिक बंधन मजबूत होते है और खुशहाली का भाव पैदा होता है । 
आम तौर पर पर्यावरणविदों ने शहरों की उपेक्षा की है, और अपना लगभग पूरा ध्यान ऐसे क्षेत्रों पर केन्द्रित किया है जहां मानव उपस्थिति इतनी हावी नहीं है । शहर के अध्ययनकर्ताआें ने भी प्रकृति की भूमिका पर बहुत कम ध्यान दिया   है । उनका ज्यादा ध्यान वित्त, इन्फ्रास्ट्रक्चर और गरीबी पर रहा   है । मगर तथ्य यह है कि इकॉलाजी पर ध्यान दिए बगैर शहर ठीक से चल नहीं सकते । और यदि हम शेष दुनिया पर शहरों के असर को अनदेखा करेंगे, तो वैश्विक जैव विविधता बच नहीं सकती । उदाहरण के लिए शहरों के विकास के साथ, संरक्षित क्षेत्रों के निकट (५० किलोमीटर से कम दूरी पर) शहरी भूमि की मात्रा में काफी वृद्धि हुई   है । 
यह आश्चर्य की बात है कि शहर संबंधी नीतियों में शहरी पारिस्थितिक तंत्र और पर्यावरण पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है । इसमें भी चर्चा मात्र नदियों की सफाई, सबके लिए शौचालय या पेड़ लगाने तक सीमित रहती है । यदि राजनैतिक इच्छाशक्ति और नीतिगत ध्यान पर्याप्त् हो, जो फिलहाल नहीं हैं, तो भी हमारा ज्ञान अपर्याप्त् है । मसलन, हम इस बारे में बहुत कम जानते है कि शहरों में लगाने के लिए प्रजातियों का चुनाव करने में पेड़ों के कौन से गुण महत्वपूर्ण हैं, जहां विविध पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए वृक्षों की कई भूमिकाआें की दरकार है । 
शहरी जल विज्ञान एक और क्षेत्र है जहां हमें ज्ञान विकसित करने की जरूरत है क्योंकि जो शहरी जलराशियां पहले वर्षा-पोषित मौसमी जलराशियां हुआ करती थी, और भौगोलिक रूप से बदलती रहती थीं, वे अब बाहरमासी, मल-जल से पोषित जलराशियां बन गई है जो भौगोलिक रूप से एक ही जगह स्थिर रहती है । ये तो मात्र दो उदाहरण    है ।
वास्तव में शहरी इकॉलॉजिकल शोध अधिकांशत: उत्तरी अमेरिका और युरोप के शहरों पर केन्द्रित रहा है और दक्षिण से सारे शहर ज्ञान की सीमाआें से ग्रस्त हैं । भारत इसका अपवाद नहीं है । ऐसे अनुसंधान की दिशाएं क्या होनी चाहिए ? शहरी तंत्र जटिल, गतिशील और स्वभाव से बहु-आयामी होते    हैं । दुनिया भर के शहरी इकॉलॉजीविदों के एक छोटे से मगर बढ़ते हुए समुदाय के शोध कार्य ने शहरी इकॉलॉजी और पर्यावरणीय शोध के कुछ अनिवार्य तत्व चिन्हित किए है । 
पहला तत्व है बहु विषयिता का । शहर जटिल इकाई होते हैं जहां इन्फ्रास्ट्रक्चर और टेक्नॉलॉजी का टकराव इतिहास और रूढ़ियों से होता है, आदर्श अधुनातन नीतियों को ऐसी सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्थाआें में क्रियान्वयन की चुनौती का सामना करना पड़ता है जो अक्सर परिवर्तन का प्रतिरोध करती हैं । शहरी पर्यावरणीय अनुसंधान के लिए इकॉलॉजीविदों और अन्य विषयों - जैसे राजनीति विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, रसायन, जलविज्ञान, इतिहास और समाज विज्ञान के साथियों के बीच सहयोग की जरूरत होती है । ऐसा होने पर ही शहरी पर्यावरण के मुद्दों की समग्र समझ हासिल हो पाएगी । 
दूसरा तत्व है अंतर-विषयिता का । शहर जटिल सामाजिक-पारिस्थितिक तंत्र होते हैं, जहां मानव, प्रकृतिऔर मानव निर्मित व्यवस्थाआें के बीच सीमाएं पहचानना प्राय: मुश्किल होता है । उदाहरण के लिए, किसी शहर के जलविज्ञान को समझने के लिए यह समझना जरूरी होगा कि भवन निर्माण और खुदाई के कारण शहर के धरात की बनावट किस तरह बदली है, बारिश के पैटर्न में बदलाव के कारण पानी का बहाव किस ढंग से बदला है और शहरी जल विज्ञान में मलजल का क्या योगदान है, और यह भी आकलन करना होगा कि घुसपैठी प्रजातियों के फैलाव तथा पेड़-पौधों की देशी प्रजातियों व मछलियों के गुम होने का जलराशियों के स्वयं को स्वच्छ करने की क्षमता पर क्या असर हुआ है । 
इसी प्रकार से शहरों में बार-बार फैलने वाली महामारियों (जैसे डेंगू) पर अनुसंधान के लिए कचरा निपटान की व्यवस्था, मच्छरों के जीवन चक्र, शहरी पशुधन, मनुष्यों के रोग से संपर्क मेंआने संबंधी व्यवहारगत पहलुआें पोषण संबंधी असमानताआें, वर्षाजल दोहन व भंडारण के तरीकों, आवास के पैटर्न और हरित स्थानों व नमभूमियों के वितरण की जानकारी आवश्यक  है । तभी हम इन महामारियों के नियंत्रण व प्रबंधन की लंबे समय की समुचित रणनीति बना पाएंगे । 
बहु-विषयिता शहरी अध्ययनों में अंतर-विषयिता की एक पूर्व शर्त है । बहु-विषयी अनुसंधान के लिए पहले अनुसंधान के छोटे-छोटे खंड बनाए जा सकते है और उन्हें विशिष्ट समूहों को सौंपा जा सकता  है । बाद में इन्हें मिलाकर निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । अंतरविषयी अनुसंधान के लिए जरूरी है कि विभिन्न पृष्ठभूमियों के वैज्ञानिक आपस में सहयोग करें ताकि विश्लेषण व व्याख्या के मिले-जुले तरीके और ढांचे बनाए जा सके । बदकिस्मती से, अंतर विषयी अनुसंधान के लिए वित्तपोषण बहुत सीमित है, हालांकि पिछले कुछ वर्षो में कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाआें ने इस दिशा में कदम आगे बढ़ाए हैं । भारत में, जहां सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों के बीच सहयोग वैसे ही बहुत सीमित है, वहां विभिन्न वित्तपोषी संस्थाआें की रूचियों में स्पष्ट विभाजन चुनौती को ओर भी कठिन बना देता है ।
तीसरा तत्व शायद सबसे चुनौतीपूर्ण है - विषयपारी अनुसंधान की जरूरत । यह समझना निश्चित रूप से गहरी वैज्ञानिक रूचि का विषय भी है जहां अनुप्रयोग की जरूरत स्पष्ट है और अनुकूलनकारी हस्तक्षेप तथा सीखने के मौके बेशुमार है । 
इसके लिए शहर नियोजकों, सामुदायिक संगठनों, सामाजिक रूप से सक्रिय समूहों, सिविल सोसायटी व हस्तक्षेप करने वाले अन्य समूहों, शोधकर्ताआें और अध्येताआें के बीच सहयोग की जरूरत है जो ज्ञान को कार्रवाई में परिणित करें । इसके अलावा कार्रवाई को प्रेरित करने तथा प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिए कवियों, लेखकों, कलाकारों और अन्य सृजनशील लोगों का सहयोग भी जरूरी होगा । 
इसका एक अच्छा उदाहरण दी नेचर ऑफ सिटीज नामक आभासी मंच है जो दुनिया भर में ज्ञान को साझा करने का मंच है । यह लगभग ५०० पेशेवरों, वैज्ञानिकों, कलाकारों, इंजीनियरों, इकॉलॉजीविदों, समाज वैज्ञानिकों, वास्तुकारों, डिजायनरों, लैण्डस्केप वास्तुकारों, सामाजिक कार्यकर्ताआें, शहरियों, उद्यमियों, सरकारी अधिकारियों का एक समुदाय है जो इकॉलॉजी की दृष्टि से निर्वाह-योग्य शहरों के बारे में विचार साझा करने के लिए आभासी गोलमेज सम्मेलन, ब्लॉग्स, फोटो-प्रदर्शनियों का आयोजन करते है । 
इसी तरह का एक उदाहरण बैंगलुरू में झीलों के नवीनीकरण का है । इसमें स्थानीय सामुदायिक समूहों ने नगर निगम, इंजीनियर्स, वास्तुकारों, जलवैज्ञानिकों, प्रकृतिविदों और इकॉलॉजीविदों के साथ काम करके शहरी संदर्भ में झीलों के पुनरूद्धार के विज्ञान और तौर-तरीकोंको लेकर नया विषयपारी ज्ञान विकसित किया । चुनौती इनके टिकाऊपन और इन्हेंबड़े पैमाने पर लागू करने की है । विषयपारी प्रयास विविध समूहों के बीच परस्पर विश्वास और एक साझा भाषा के विकास पर टिका होता है । इसके लिए लगातार समय, ऊर्जा और धन का निवेश करना होता है, जो मुश्किल होता है । 
नया शहरी युग जलवायु परिवर्तन का भी युग है । आने वाले दशकों में भारत में अनुकूलन व लचीलेपन पर शहरों का काफी असर होगा । इन दशकों में प्रकृतिजीवन के सर्वाधिक अनुकूलनकारी, सामाजिक रूप से समावेशी और इकॉलॉजी की दृष्टि अकलमंद तरीके प्रदान कर सकती है, बशर्ते कि हम ध्यान दें । 
हमारी शहरी पर्यावरणीय व पारिस्थितिक चुनौतियों को संभालने के लिए देश की शोध क्षमताआें का विकास न सिर्फ मौजूदा शहरों को ज्यादा स्वस्थ व जीने योग्य बनाने के लिए बल्कि विकास के वैकल्पिक मॉडल की तलाश के लिए भी जरूरी है । यह एक विशाल काम है जिसके लिए विविध विषयों के शोधकर्ताआेंकी एक बड़ी टीम की जरूरत होगी । 
हमारा आसपास 
भेड़ियों ने सुधार दिया पर्यावरण
डॉ. अरविन्द गुप्त्े

पिछले दिनों एक शोधकार्य के बारे में समाचार प्रकाशित हुआ था जिसके अनुसार दो बाघों को बचाने से ५२० करोड़ रूपए का फायदा होता है । सह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यह फायदा किस प्रकार होता     है ? क्या सरकारी खजाने में यह राशि जमा हो जाती है ?
बात यह है कि हर पर्यावरणीय परिस्थिति में, चाहे वह जंगल हो या नदी या तालाब या रेगिस्तान, जीवों का एक संतुलन बना रहता है । किसी भी भोजन श्रृंखला की शुरूआत पेड़-पौधों से होती है । पेड़-पौधों को छोटे-बड़े जंतु खाते हैं जिन्हें शाकाहारी कहते हैं । इन शाकाहारी जंतुआें को छोटे-बड़े मांसाहारी जंतु खाते हैं और श्रृंखला में सबसे ऊपर बाघ, तेंदुए, भेड़िए आदि शिकारी जंतु होते है जो अन्य सब जंतुआें को खाते हैं । 
यदि इस भोजन श्रृंखला के किसी एक घटक को भी हटा दिया जाए तो इसका असर पूरी श्रृंखला पर पड़ता है । इसके फलस्वरूप उस स्थान का पूरा पर्यावरण बिगड़ जाता है । अत: जंगल में बाघों का रहना उतना ही जरूरी होता है जितना पेड़-पौधों    का । बाघों के रहने से पर्यावरण को जो फायदा होता है उसकी गणना रूपयों में की गई थी जिसके फलस्वरूप ऊपर दिए गए आंकड़े प्राप्त् हुए । 
शिकारी जंतुआें के महत्व को एक सच्ची घटना से समझा जा सकता है, किंतु घटना का विवरण देने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि यह घटना कहां घटी । संयुक्त राज्य अमेरिका के तीन उत्तर-पश्चिमी राज्यों व्योमिंग, मोन्टाना और आयडाहो के नौ हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में एक विशाल जंगल फैला हुआ है । अन्य सभी जंगलों के समान किसी समय इस क्षेत्र की जैव विविधता बहुत समृद्ध  थी । इसमें केवल अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियन कबीले रहते थे और वे, अन्य सभी आदिवासियों के समान, प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन बनाए रखते थे । किंतु जैसे-जैसे इसके आसपास गोरे लोगों की बसाहट बढ़ने लगी, जंगल का विनाश शुरू हो गया । अंधाधुंध तरीके से पेड़ों की कटाई और जानवरों का शिकार किया जाने लगा । 
इस क्षेत्र की विशेषता यह है कि यह एक जीवित ज्वालामुखी के ऊपर स्थित है और यहां प्रति दिन सैकड़ों छोटे-छोटे भूकम्प आते रहते हैं । जमीन के नीचे खदबदाने वाले ज्वालामुखी की गर्मी के कारण यहां  के लगभग तेरह सौ स्त्रोतों से समय-समय पर उबलते पानी और भाप के फव्वारे निकलते रहते हैं । यहां की कई झीलों का पानी बहुत अधिक गर्म रहता है, वहीं ठंडे और साफ पानी की झीलें भी है । जंगल के उत्तर में स्थित पहाड़ बर्फ से ढंके रहते है । इस क्षेत्र की अनोखी सुन्दरता को देखने प्रति वर्ष हजारों की संख्या में पर्यटक यहां पहुंचते है । 
सन १८७२ में अमेरिकी सरकार ने इस जंगल को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया था और इसका नाम यलोस्टोन नेशनल पार्क रखा गया था । यहां के मूल आदिवासी निवासियों को निकाल कर बाहर कर दिया गया किन्तु यहां अन्य लोगों को शिकार करने की छूट दी गई । परिणाम यह हुआ कि भालू और भेड़िए आदि शिकारी जन्तु बड़ी संख्या में मारे गए और एल्क नामक बड़े हिरनों की संख्या बढ़ती गई । इन और अन्य शाकाहारी जन्तुआें ने पेड़ पौधों को खाना शुरू कर दिया और जंगल पर विपरीत असर होने लगा । 
चूंकि इस भोजन श्रृंखला में भेडिए सबसे ऊपर थे, यह निर्णय लिया गया कि हिरनों को बचाने के लिए क्षेत्र के सभी भेड़ियों को मार दिया जाए और १९२६ में आखरी भेडिए को मार दिया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि हिरनों की संख्या में बेइंतहा बढ़ोतरी हो गई । इन हिरनों ने न केवलछोटे पौधों को अपितु बढ़ते हुए बड़े पौधों को भी खा  कर जंगल को भारी क्षति पहुंचाई । इससे मिट्टी का कटाव होने लगा और  नदियों के किनारे कटने के कारण नदियों के बहाव की दिशाएं बदलने लगी । जंगल का विनाश होने के कारण छोटे जन्तु और पक्षी वहां से गायब हो गए । 
सन १९९५ और १९९६ में ३१ भेड़ियों को बाहर से लाकर यलोस्टोन में छोड़ा गया । भेड़ियों ने आते ही हिरनों का शिकार करना शुरू कर दिया । तब हिरन उस क्षेत्र से दूर चले गए जहां भेड़ियों के झंुड रहते थे । हिरन मुक्त इलाकों में पेड़-पौधे बढ़ने लगे । इन पर लगने वाले फूलों और फलों के कारण पक्षी और कीट आने लगे । फूलों के पराग और कीटों को खाने वाले पक्षियों की संख्या भी बढ़ी । भेडियों द्वारा मारे गए हिरनों के मांस के अवशेष खाने के लिए कौए और गरूड़ आने लगे । भेड़ियों ने कोयोटी (एक प्रकार का छोटा भेड़िया) की संख्या को भी नियंत्रित किया । 
नतीजा यह हुआ कि जलीय ऊदबिलाव (ऑटर) और बीवर जैसे उन छोटे स्तनधारियों को पनपने का मौका मिला जिनका शिकार कोयोटी करते थे । पर्यावरण में बीवर की विशेष भूमिका होती है । खरगोश के आकार के ये स्तनधारी छोटे तालाबों में रहते हैं जिनका निर्माण वे स्वयं करते है । अपने तेज दांतों से किसी बड़े पेड़ के तने को काट कर बीवर उसे छोटी नदी या नाले पर गिरा देते हैं, फिर छोटी टहनियों, पत्थरों और जलीय पौधों की सहायता से वे गिरे हुए पेड़ पर एक मजबूत बांध बना कर तालाब का निर्माण करते हैं और उसमें रहने लगते हैं । 
ये जन्तु पूरी तरह शाकाहारी होते है और पेड़ों की टहनियां और पत्तियां खाते है । बीवरों की संख्या बढ़ने के कारण यलोस्टोन में जगह-जगह छोटे-छोटे तालाब बन गए । इनके कारण जमीन में पानी रिसने लगा और भूजल का भंडार बढ़ने लगा । इस प्रकार भेडियों के कारण यलोस्टोन के न केवल पर्यावरण   में सुधार हुआ, नदियों के स्थिर होने से क्षेत्र के भूगोल पर भी असर  पड़ा । 
वानिकी जगत
पौधें करते है सूखे से बचने के उपाय
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पौधों के पास कम से कम पांच तरीके है जिससे वे आवश्यक गुण विकसित कर सूखे से बच सकते हैं । जीव विज्ञानियों के लिए यह अध्ययन का प्रमुख क्षेत्र है । 
साल दर साल हम देख रहे है कि भारत के कई क्षेत्र सूखे से प्रभावित हो रहे हैंजिसकी वजह से खाघान्न उत्पादन प्रभावित हो रहा है और किसान परेशानियों से घिर रहे  हैं । हाल के दशकों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को प्रभावित किया है । पौधे कैसे इस सूखे के तनाव से निपटते हैं ? यह बहुत ही दिलचस्प और सक्रिय शोध का क्षेत्र है और हम इसके कुछ पहलुआें को समझ पाए हैं । 
हर स्कूली बच्च जानता है कि पौधे सूरज की रोशनी से ऊर्जा प्राप्त् करते है, वातावरण से कार्बन डाईऑक्साईड लेते हैं, मिट्टी से पानी लेते हैं और इन सबका इस्तेमाल हमारे लिए भोजन बनाने में करते    हैं । यह सरल सी रासायनिक क्रिया, जिसे प्रकाश संश्लेषण कहते हैं, केवल कार्बोहाइड्रेट्स ही नहीं बनाती बल्कि ऑक्सीजन भी उपत्न्न करती है जिसे ऑक्सीजन का इस्तेमाल हम श्वसन में करते है और यह हमारी शारीरिक क्रियाआें में मदद करती है और इससे हमें ऊर्जा प्राप्त् होती है । इस प्रकार पौधों को बहुत साधारण चीजों की जरूरत होती है - धूप, हवा से कार्बन डाईऑक्साइड और जमीन से पानी । इन तीनों में से किसी एक की भी कमी होती है तो पौधों का उत्पादन घटता है । 
संयोगवश दिन के समय धूप तो नियमित और भरपूर मात्रा में मिलती रहती है । कार्बन डाईऑक्साइड भी भरपूर मात्रा में उपलब्ध है । वास्तव में यह अधिकता में है और कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईधनों के दहन की वजह से साल दर साल इसमें वृद्धि हो रही है । लेकिन पानी की कमी दुनिया के कई हिस्सों में अकाल की स्थिति तक पहुंच गई    है । इस अकाल की स्थिति में पौधे कैसे प्रतिक्रिया देते हैं । क्या उनके अंदर पानी के अभाव से पैदा होने वाले तनाव से निपटने के लिए कोई तंत्र है और कैसे वे सूखे का सामना करते हैं ? यह वनस्पति वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है ।   हाल ही में प्रकाशित दो पर्चो ने इन पहलुआें पर प्रकाश डाला है कि सूखे के तनाव से पौधे कैसे निपटते हैं । पहला पर्चा यूएस स्थित अर्कान्सास विश्वविद्यालय के डॉ. एंडी परेरा का है । इन्होंने अपने अध्ययन के लिए धान का इस्तेमाल किया । वासु, रामगौड़ा, कुमार और परेरा का यह शोध पत्र इंटरनेट पर उपलब्ध    है ।
इस पर्चे में बताया है कि पौधे अनुकूलन के लिए विभिन्न रणनीतियां अपनाते हैं । एक रणनीति है सूखा प्रतिरोध जो पौधों को सूखे के प्रति सुरक्षा, बचाव और तनाव सहने के योग्य बनाता है । सूखे से पलायन की रणनीति मेंपौधे सूखे से पहले ही अपना जीवन चक्र पूरा करने की कोशिश करते हैं । इसमें पौधे सूखे की स्थिति शुरू होने से पहले ही किसी संकेत से उसे भांपकर समय पर अपने आपको तैयार कर लेते हैं । सूखे को टालने की रणनीति में पौधों की यह क्षमता काम आती है कि मिट्टी में पानी के अभाव के बावजूद वह अपने ऊतकों में पानी की उच्च् मात्रा बनाए रखता है । सूखा सहनशीलता की रणनीति में पौधे विभिन्न अनुकूलीय लक्षणों के जरिए अपने ऊतकों में पानी की कम मात्रा को झेल जाते हैं । 
पौधे सूखे की स्थिति में इन सभी लक्षणों को कैसे प्रदर्शित करते हैं ? इसके बारे में अपने पर्चे में लेखकों ने कहा है कि पौधे कम से कम विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करते हैं । 
सबसे पहला है पत्तियों का क्षेत्रफल घटाकर (जैसे पत्तियां बंद कर लेना) प्रकाश संश्लेषण के स्तर को कम करना और प्रकाश संश्लेषण की दर को धीमा करना । 
दूसरा, पौधों में हार्मोन्स, विशेष रूप से एब्सिसिक एसिड की क्रिया का नियमन करके । सूखे के तनाव के दौरान एब्सिसिक एसिड जड़ों से पत्तियो की तरफ बहता है और स्टोमेटा को बंद करने में मदद करता है । स्टेमेटा पत्तियों पर सूक्ष्म छिद्र होते है जिनके जरिए कार्बन डाईऑक्साईड, ऑक्सीजन, जलवाष्प की आवाजाही होती है और स्टोमैटा बंद रहें तो पौधों की वृद्धि कम होती है । इसमें एक अन्य संदेशवाहक अणु सायटोकिनिन की भी भूमिका होती  है । 
तीसरा है, वाष्पोत्सर्जन को काबू करके । स्टोमेटा को बंद करने स पानी का ह्ास कम हो जाता है और साथ ही कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषण भी कम हो जाता है । चौथा तरीका है जड़ों से निकलने वाली शाखाआें की वृद्धि, लम्बाई, आकार में परिवर्तन करके । पांचवा है, परासरण समायोजन । इसमें कोशिका के आकार को दृढ़ बनाए रखने के लिए कोशिका की दीवार या झिल्ली पर पर्याप्त् दबाव बनाया जाता है ताकि वह पिचके नहीं । 
साफ तौर पर ये पांचों प्रक्रियाएं जीन्स द्वारा नियंत्रित होनी चाहिए जो ऐसे प्रोटीन और अन्य अणुआें का उत्पादन करते हैं जो तनाव के विरूद्ध प्रतिक्रिया को अंजाम देते हैं । इस प्रक्रिया के नियमन का अध्ययन यूएसए के आयोवा स्टेट विश्वविघालय के डॉ. यानहाई यिन और उनके समूह      ने किया है । हाल ही में प्रकाशित शोध पत्र में उन्होंने बीईएस२ और आरडी२६ नामक दो अणुआें की भूमिका के बारे में बताया है, जो सूखे की स्थिति में पौधें की वृद्धि के नियमन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । ये दोनों सम्बन्धित प्रोटीन   बनाने वाले जीन्स का नियमन करते हैं । 
ये दोनों अणु विपरित मकसद से काम करते दिखते हैं, लेकिन   इन दोनों का काम परस्पर जुड़ा हुआ है ।
 पर्यावरण परिक्रमा
डॉक्टर मरीजों को देते है पौधे 
वह पेशे से डॉक्टर है, लेकिन उन्हें पर्यावरण की सेहत की भी फिक्र है । वे अस्पताल पहुंचने वाले मरीजों को दवा के साथ-साथ पौधरोपण का भी नुस्खा देते हैं । उनकी मुहिम रंग ला रही है । डॉ. दिनेश बंसल के प्रयास अब उत्तराखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर तक पहुंचने लगे है । 
उ.प्र. में बागपत के बडौत मेंअस्पताल चलाने वाले वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. दिनेश बंसल अस्पताल में आने वाले मरीजों के सामने एक शर्त रखते हैं कि मरीज के तीमारदार अपने आंगन या कहीं ओर एक पौधा अवश्य लगाएं, जिसे वह स्वयं उपलब्ध कराते हैं । फलदार छायादार पौधों को नि:शुल्क उपलब्ध कराते हैं और प्रतिदिन ६० से १०० पौधे मरीजों को देते हैं । अभी तक वह ५६ हजार से अधिक पौधे वितरत कर चुके हैं जिनमें से करीब ९० फीसदी पौधे वर्तमान में हरे-भरे है ।
डॉ. बंसल बताते है उन्होंने करीब दो साल पहले यह अभियान शुरू किया था । कुछ समय बाद उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एक ट्रस्ट बनाया, जिसके सदस्य अब दूसरे राज्यों में भी जाकर पौधारोपण करते हैं । अभियान में उन्होंने पश्चिमी उत्तरप्रदेश के कई जाने-माने चिकित्सक भी जोड़े हैं । उनके संगठन की शर्त यही है कि अपनी सेहत के साथ प्रकृति की सेहत भी सुधारनी होगी । 
चांद की सतह पर है, पानी का विशाल भंडार
अमरीका की ब्राउन यूनिवर्सिटी में शोधार्थियों ने अपोलो १५ और अपोलो १७ मिशन के दौरान चन्द्रमा से जमा किए गए मिनरल्स में से शीशे के टुकड़ों का दोबारा अध्ययन किया । १९७० के दौर में चन्द्रमा पर भेजे गए अपोलो १५ व १७ अभियानों में इस सैपल को धरती पर लाया गया था । इसका दोबारा जांच में वैज्ञानिकों ने इसके अंदर भी उतना ही पानी पाया, जितना कि धरती पर पाई जाने वाली आग्नेय चट्टानों में होता है । शोध के नतीजे नेचर जियो साइंस में प्रकाशित किए गए हैं । वैज्ञानिकों का मानना है कि इस खोज से भविष्य में चांद पर जाने वाले अंतरिक्ष यात्री धरती से पानी ले जाने की जगह वहीं चन्द्रमा पर पानी निकाल सकेगे । 
शोध के प्रमुख वैज्ञानिक डॉक्टर शुहाइ ली ने बताया कि कई अन्य शोध बताते हैं कि चन्द्रमा के धु्रवीय क्षेत्रों में बर्फ के रूप में पानी मौजूद है । लेकिन हमें जिन खनिजों में पानी के अवशेष मिल हैं, उन्हें देखकर कहा जा सकता है कि वहां पानी निकालने की संभावनाएं पहले से कहीं ज्यादा आसान दिख रही हैं । 
इस शोध के साथ भारत का भी अहम कनेक्शन है । चन्द्रमा पर कौन-कौन से खनिज मौजूद है, इसका पता लगाने के लिए इन वैज्ञानिकों ने भारत की ओर से भेजे गए चन्द्रयान-१ से ली गई तस्वीरों और उसके उपकरणों को भी इस्तेमाल किया । उम्मीद की जा रही है कि इस नई खोज से चांद पर बस्ती बसाने के अभियान में तेजी आएगी । 
दीमक चट कर गई पूरा का पूरा गांव
क्या दीमक पूरा गांव चट कर सकती है । सुनने में अजीब है पर है हकीकत । वाकया उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के लाम्बड़ी गांव का है, जहां ४५ साल में दीमकों ने पूरे गांव को चाट डाला है । यहीं नहीं दीमकों का लोगों में इतना खौफ है कि ज्यादातर लोग गांव छोड़कर दूसरी जगहों पर बसने के लिए चले गए हैं । 
वहीं गांव में जो लोग यहां बचे हैं, वे फर्नीचर की मरम्मत कराने या नए फर्नीचर को खरीदने के लिए पैसे खर्च करने पर मजबूर  है । 
यह समस्या इस गांव में ४५ साल पहले शुरू हुई थी और अब चीजें हाथ से बाहर निकल चुकी है । इस गांव के घरों की छतों पर भी दीमक ने सब बर्बाद कर डाला है । यहां कोई भी नया फर्नीचर नहीं खरीदता, क्योंकि दीमक उसे जल्दी बर्बाद कर डालती है । पूरा गांव दीमक की चपेट में हो, ऐसा यह पहला ही उदाहरण   है ।
जैविक कीटनाशक से फसलों को बचाएंगे 
फल, सब्जी और अनाज में लगने वाले कीटों को मारने के साथ फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रासायनिक कीटनाशक की जगह अब जैविक कीटनाशक लेगे । 
उ.प्र. में कानपुर के दयानंद गर्ल्स डिग्री कालेज की जीव विज्ञान की प्रोफेसर डॉ. सुनीता आर्य ने दूब घास, तंबाकू, कंडे की राख और मैदा की मदद से ऐसे जैविक कीटनाशक  तैयार किए है जो केवल हानिकारक कीटोंको मारेंगे । इस पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक परीक्षण के बाद प्रकृति भारती शिक्षण एवं शोध संस्थान में प्रमाणित किया गया है । 
इस कीटनाशक के प्रयोग से फल व सब्जी की फसलों को सफेद मक्खी, नियली बग, कैटर पिलर, एफिड जैसे कीट चट नहीं कर सकेगे । लेडी ब्रिटिल, ग्राउंट ब्रिटिल, एथेमिन बग, होवर फ्लाई लार्वे, लेस्विंग लार्वे जैसे लाभदायक कीटों को कोई नुकसान नहीं होगा । ये वे कीट होते है जो माहू, स्केल इनसेट व एफिड जैसे फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक कीटों को खाकर फसलों को बचाते है । प्रो. सुनीता ने कानपुर देहात के गांवों में टमाटर, बैंगन व लौकी में प्रयोग करके यह फार्मूला इजाद किया है ।
प्रो. सुनीता आर्य ने बताया कि प्रयोगशाला में शोध कार्य के बाद इन जैविक कीटनाशकों का प्रयोग खेतों में किया गया । लखनऊ के मोहनलालगंज स्थित प्रकृति भारती के फार्म हाउस पर बोई गई टमाटर, बैगन, मटर व गोभी की सब्जियों पर प्रयोग सफल रहा । शोध का पेपर इंटरनेशनल जनरल आफ इनोवेटिव साइंस इजीनियरिंग एड टेक्नोलाजी में प्रकाशित हो चुका है । 
टूब घास व तंबाकू को सुखाकर पहले उसका पाउडर बनाया जाता है । फिर उसे मिट्टी के बर्तन में पानी के साथ दो से तीन दिनोंतक सड़ाया जाता है । सूखे हुए ५०० ग्राम पावडर को २५ लीटर पानी में डालकर सड़ाते है । यह एक ऐसी क्रियाहोती है जो एक निश्चित तापमान व छाव मे की जाती है । इसके बाद मिक्चर को छान लेते   हैं और कीटनाशक तैयार हो जाता   है । इसके अलावा गौमूत्र, कड़े की राख व मैदा को मिलाकर भी कीटनाशक बनाया गया जिसका प्रयोग भी सफल रहा है । 
टाइगर स्टेट बन सकता है मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश के १० टाइगर रिजर्व व नेशनल पार्क और २५ अभयारण्यों में वर्ष २०१४ की तुलना में ४० युवा बाघ बढ़ गए है । दिसम्बर २०१७ तक दो साल की उम्र पूरी कर रहे शावकों को जोड़ें तो बाघों की संख्या ७५ से ऊपर जाती है । इन आंकड़ों से उत्साहित वन अफसर २०१८ में प्रदेश में सवा चार सौ से ज्यादा बाघों की मौजूदगी की उम्मीद लगाए है । ऐसा हुआ तो प्रदेश फिर से टाइगर स्टेट का तमगा पा    लेगा । वर्ष २०१४ की गणना में प्रदेश में बाघों की संख्या ३०८ थी । देश में सबसे ज्यादा ४०६ बाघ कर्नाटक में है । एसएफआरआई जबलपुर ने जनवरी २०१७ में सभी टाइगर रिजर्व, नेशनल पार्क और अभयारण्यों में बाघों की गिनती कराई है । 
मानव अपशिष्ट से तैयार होगी बिजली 
भारतीय प्रौघोगिकी संस्थान (आईआईटी) खड़गपुर में मानव अपशिष्ट से बिजली बनाने को लेकर एक प्रोजेक्ट पर काम किया जा रहा है । इस बायो इलेक्ट्रिक शौचालय की एक नहीं कई खूबिया है । यह मानव अपशिष्ट से बिजली बनाने में तो सक्षम होगा ही, बल्कि अपशिष्ट को जैविक खाद में भी तब्दील कर देगा । इसमें फ्लश के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पानी को रिसाइकल किया जा सकेगा । प्रोजेक्ट को केन्द्र सरकार के डिपार्टमेन्ट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से आर्थिक सहयोग मिल रहा है । 
इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे प्रो. एमएम घांघरेकर ने बताया कि इस टॉयलेट से जो भी अपशिष्ट टैंक में पहुंचेगा, उसमें मौजूद मिथोजेनिक बैक्टीरिया को यह सिस्टम इलेक्ट्रोजेनिक बैक्टीरिया में बदल लेगा । इसका सेप्टिक टैंक एक बड़े सेल की तरह काम करेगा । इसमें विचार यह है कि टॉयलेट बिजली भी बनाता रहे और अपशिष्ट का भी प्रबंधन करता रहे । यह पानी की बचत करने में भी सक्षम हो । पानी को फ्लशिंग के लिए रिसाइकिल   कर सकता है । इसमें फ्लशिंग के लिए सामान्य ८ से १० लीटर की जगह महज एक-दो लीटर पानी ही लगेगा । 
प्रो. घांघरेकर के मुताबिक प्रतिदिन पांच व्यक्तियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने पर यह टॉयलेट करीब ६० वॉट प्रति घंटा की औसत से बिजली तैयार करेगा । 
प्रो. घांघरेकर  कहते है कि बायो टॉयलेट में केवलअपशिष्ट का निस्तारण अथवा अपशिष्ट से विद्युत ऊर्जा तैयार की जाती रही है । उससे एक कदम आगे बढ़ते हुए हमने मानव अपशिष्ट के निस्तारण के साथ ही जल शोधन व विद्युत ऊर्जा तैयार करने की दिशा में काम किया है । 
सामाजिक पर्यावरण 
मीडिया, बच्च्े और असहिष्णुता 
डॉ. कश्मीर उप्पल

विकास संवाद द्वारा प्रतिवर्ष एक राष्ट्रीय मीडिया संवाद आयोजित किया जाता है । यह सभी संवाद देश के प्राकृतिक और ऐतिहासिक महत्व के क्षेत्र मंे होते हैं । 
गत वर्ष मण्डला जिले के कान्हा-किसली मंे तो इस वर्ष हमारे इतिहास के सबसे आध्यात्मिक और धार्मिक नगर ओरछा (मध्यप्रदेश) में यह संवाद लगातार १८ से २० अगस्त तक चला । विकास संवाद देश में समान सोच वाले पत्रकारों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहा है । इसके तहत मीडिया फैलोशिप प्रोग्राम, मीडिया फोरम्स, शोध एवं जमीनी स्थितियों का विश्लेषण, स्त्रोत केन्द्र और मैदानी सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़ाव के लिए काम चल रहा है । विकास संवाद का यह प्रयोग मीडिया के माध्यम से जनसरोकार के मुद्दों को उठाने और उन्हें परिणाम तक पहुँचाने की कोशिश के रूप में था । यह कोशिश पिछले १५ सालों से लगातार जारी   है ।
देश के चोटी के पत्रकारांे से लेकर देश के अर्न्तिम पत्रकार इस संवाद मंे अपने होने या न होने को सार्थकता देते हैं । लगभग १०० पत्रकारों का जमावड़ा, जब पत्रकारिता के अपने-अपने पृष्ठ पलटता है तो लगता है कि पूरी पृथ्वी एक गोले की शक्ल में एक हाथ से दूसरे हाथ गढ़ी जा रही हो ।
भारतीय पत्रकारिता ही नहीं अमेरिका, ब्रिटेन, ईराक, सीरिया और अफगानिस्तान के जमीनी हालात उभारने वाले संवाद दर्ज कराते हैं कि दुनिया में देशों की अर्थव्यवस्था का ही नहीं वरन् मीडिया का भी भू-मंडलीकरण हो गया है ।
देश के राष्ट्रीय स्तर के लगभग ३० पत्रकार तीन दिनों तक देश के व्यापक संदर्भों को उजागर करते रहे । इन तीन दिनों के ३० घंटों मंे मानांे भारत और इंडिया दोनों की पत्रकारिता अपनी कैफियत देती रही, लेती रही ।
अरुण त्रिपाठी सही कहते हैंकि हम इस नये युग की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाए पूरे समाज को भक्तिकाल में ले जा रहे हैं। असहिष्णुता की तलाश कठिन है । इस सूत्र को आगे बढ़ाते सिद्धार्थ वरदराजन दर्ज करते हैं कि हर जगह के लोग देश जिस दिशा मंे जा रहा है, उसमंे मीडिया की भूमिका का  लेकर चिंतित हैं । इस समकालीन असहिष्णुता के महत्वपूर्ण संदर्भ राजनीति से जुड़े हैं ।  
इस संदर्भ का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि भय से साम्प्रदायिककरण बढ़ाया जा रहा    है । इस माहौल मंे राजनीति मीडिया का और मीडिया राजनीति का इस्तेमाल कर रहा है । मीडिया के पास जब कोई न्यूज नहीं होती तो मीडिया साम्प्रदायिकता पर चर्चा करता है । गोरखपुर मंे जिस दिन बच्च्े ऑक्सीजन न मिलने से मरे थे उन दिनांे चैनल वंदेमातरम पर बहस करा रहे थे ।
'द वायर` के संपादक वरदराजन ने यह भी स्पष्ट रेखांकित किया कि आम शहरी असहिष्णु नहीं हुआ है । इस भय का बढ़ने का कारण है सरकार द्वारा कोई कार्यवाही नहीं करना । उन्होंने कहा कि शिक्षण संस्थाओं मंे सवाल पूछने वालों पर आक्रमण कर दिया जाता है । सवाल पूछने के अधिकार को खत्म किया जा रहा है ।
अपने सम्पूर्ण अनुभव के आधार पर वरदराजन ने कहा कि इस तरह के माहौल में पत्रकार के अपने जमीर पर टिके रहने से ही फर्क पड़ता दिखता है। हमारे देश के आगामी चुनाव आने के आसपास मीडिया पर दवाब बढ़ता जायेगा । ऐसे समय मंे सोशल-मीडिया पर अच्छी बातें वायरल करना होगा । ओम थानवी यही कह रहे हैं । 
हिन्दुस्तान टाइम्स के राजनीतिक विश्लेषक विनोद शर्मा ने बात को आगे ले जाते हुए कहा कि हमारा संविधान हमें किसी भी धर्म को अपनाने की छूट देता है । भारत का संविधान भारत को साफ्ट स्टेट बनाता है। हमें अल्पसंख्यकों की मानसिकता को समझना चाहिए । मेरा सच दूसरे के सच से बड़ा और अच्छा है मानना भय पैदा करता है । हमें रोज क्यों कहना पड़ता है-भारत माता की जय । जबकि हम अपने घर मंे अपनी माँ से रोज नहीं कहते-माँ, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ ।
विनोद शर्मा ने कहा कि हम यहां संवाद कर रहे हैंपर देश मंे लोकसंवाद नहीं हो रहा है । मीडिया समूह के औद्योगिक घरानों को २५ रुपये मंे तैयार होने वाला अखबार बाजार में ५ रुपये मंे बेचना होता   है । इसलिए मीडिया-घराने सरकार से डरते हैंकि उन्हें विज्ञापन मिलते    रहें । बड़े अखबार पर अधिक दवाब पर छोटे अखबार अधिक स्वतंत्र हैं । दक्षिण भारत में बड़े अखबार २० से २५ रुपये में मिलते हैं । पत्रकार अपने व्यक्तिगत सच को न छोड़ें और दूसरों के सच पर सवाल खड़े करें ।
चिन्मय मिश्र ने महात्मा गांधी की पत्रकारिता का उल्लेख करते हुए कहा कि आज की पत्रकारिता की भाषा में रुखापन है। उसमें ममत्व की भाषा नहीं है। बिस्मिल्ला खान के द्वारा बच्चें को शहनाई सिखाने के प्रयास के बारे में वे कहते थे, मैं बच्चें को शहनाई इसीलिए सिखाता हूं क्योंकि बच्च्े ही माँ-बाप को सुसंस्कृत कर सकते    हैं । शिवनारायण गौर ने अपनी संस्था एकलव्य की पुस्तक प्रकाशन व्यवस्था के सम्बन्ध मंे कहा कि हमें बच्चें के लिए जितनी पुस्तकें प्रकाशित होने के लिए मिलती हैं, उनमें ९० प्रतिशत नैतिक शिक्षा के उपदेशों से भरी हुई होती हैं ।  
राकेश दीवान संवाद के मध्य बिन्दुओं पर अपनी रोचक और गंभीर टिप्पणियाँ कर रहे थे । उन्होंने यह भी बताया कि छत्तीसगढ़ मंे बच्चें की मितान-वदना एक ऐसी परम्परा है जहाँ बच्चें को एक दूसरे का भाई-बहन बनाया जाता है । आपने रेखांकित किया कि किस प्रकार शिक्षा के निजीकरण को बढ़ाने के लिए सरकारी स्कूलों की निगेटिव रिपोर्टिंग हो रही है ।
संवाद में हस्तक्षेप करते हुए विनोद शर्मा ने कहा कि हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इस समय हमारे देश में मध्यकाल, आधुनिक-इंडिया और उत्तर-आधुनिक (पोस्ट-माडर्न) इंडिया एक साथ अस्तित्व में है ।
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन के अनुसार गांधी सबसे बड़े पत्रकार हैं। गांधी ने ब्रिटिश सरकार के कम्युनिकेशन-सिस्टम को ध्वस्त कर दिया था । आजकल हवा बनाने और हवा-बिगाड़ने का काम मीडिया कर रहा है । २४ घंटे के मीडिया चैनलों के पास २-३ घंटे से अधिक के समाचार नहीं होते हैं। इसीलिए समाचारों का दोहरीकरण और उत्तेजक बहसों को जगह दी जाती   है । टेलिविजन चैनल हर सुबह नीति तय करते हैं कि आज दिन भर किसको उठाना है और किसको गिराना है । हम सब वही देखने-सुनने को बाध्य हैं ।
अरविंद मोहन के अनुसार अब यह माना जाने लगा है कि मीडिया की तरह चुनावों को भी मैनेज किया जा सकता है। अखबार के प्रबंधक व्यंग्य, कहानी, कविता, ऊँचे आदर्शों की बात आदि देने के लिए कहते हैं । सवाल यह है कि प्रबंधक किसके कहने पर ऐसा करते हैं ?
डॉ. कश्मीर उप्पल ने कहा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि बैर ईर्ष्या का अचार है  ठीक इसी तरह असहिष्णुता घृणा का अचार है । पंजाब में रासायनिक खेती से थका हुआ किसान अस्सी के दशक में कट्टरता की ओर मुड़ गया था । इस तरह समाज की मुख्य  धारा मंे जगह पाने के लिए कुछ   लोग अपनी असहिष्णुता दिखाकर अपने-अपने परिवेश के लीडर बन रहे हैं ।  
अरुण त्रिपाठी ने भूमंडलीकरण की नीतियों के फलस्वरुप बढ़ रही असमानता का उल्लेख करते हुए बताया कि इस समय सभी सरकारें व्यवस्था के सजावटी काम करने में लगी हुई   हैं । हमारे देश में आर्थिक राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रुप मंे देश मंे फैलाया जा रहा है ।
इन दिवसों में प्रश्न-उत्तर के कई-कई अध्याय भी सम्मिलित हैं । असहमत होने के लिए प्रतिबद्ध लोगों से विमर्श का धरातल कई बार डोला परन्तु असहिष्णुता पर विजय पाने आतुर स्वर अधिक संगठित रुप से उभरे ।
ज्ञान-विज्ञान
अमेजन के पेड़ बारिश कराते हैं
अमेजन के वर्षावनों की एक पहेली यह है कि यहां समुद्री नम हवाआें के आगमन से २-३ माह पूर्व ही बरसात शुरू हो जाती है । अब लगता है कि शोधकर्ताआें ने इस गुत्थी को सुलझा लिया है कि समुद्री नम हवाआें के आगमन से पहले ही यहां बरसात कैसे होने लगती है । 
 वैसे सिद्धांतिक स्तर पर वैज्ञानिकों को जवाब का अंदेशा पहले से था किन्तु कैलिफोर्निया विश्वविघालय के मौसम वैज्ञानिक रॉन्ग फू द्वारा किए गए अध्ययन ने सशक्त प्रायोगिक प्रमाण उपलब्ध कराए है । पहले किए गए अनुसंधान से पता चला था कि अमेजन के जंगलों के ऊपर वायुमण्डल में नमी की मात्रा काफी जल्दी बढ़ने लगती है । मगर यह पता नहीं चल पाया था कि यह नमी आती कहां से है । उपग्रह से प्राप्त् आंकड़े बताते हैं कि नमी में यह वृद्धि और जंगल में हरियाली की वृद्धि साथ-साथ होते है । इसके आधार पर शोधकर्ताआें का अनुमान था कि यह नमी प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के दौरान पैदा हुई जल वाष्प की वजह से है । 
    फू का विचार था कि यह संभव है कि पेड़ों द्वारा मुक्त जल वाष्प ही अमेजन में कम ऊंचाई वाले बादलों का निर्माण करती हो । वे इस विचार के लिए प्रमाण की खोज में थे । और इस खोज में उनको मदद मिली हाइड्रोजन के एक समस्थानिक से । दरअसल पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का यौगिक है । प्रकृति में अधिकांश हाइड्रोजन का परमाणु   भार १ होता है किन्तु थोडी कम मात्रा में हाइड्रोजन का एक समस्थानिक पाया जाता है जिसका परमाणु भार २ होता है । पानी का अणु भार वैसे तो १८ होता है किन्तु यदि पानी के किसी अणु में भारी वाला हाइड्रोजन हो, तो उसका अणु भार ज्यादा होता है । इसे भारी पानी कहते है । प्राकृतिक रूप से पानी में ये दोनों तरह के अणु पाए जाते है । 
जब समुद्र से पानी भाप बनकर उड़ता है तो कम अणु भार वाला पानी थोड़ा ज्यादा वाष्पशील होता है और इसलिए समुद्र के पानी से बनी भाप में भारी पानी का अनुपात कम होता है । दूसरी ओर जब प्रकाश संश्लेषण की क्रिया मेंपानी मुक्त होता है तो उसमें हल्का व भारी पानी अपने प्राकृतिक अनुपात में ही पाए जाते है । इसका मतलब है कि समुद्र के पानी से पैदा हुई भाप तथा प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से पेड़ों से पैदा हुई भाप में हल्के-भारी का अनुपात अलग-अलग होना चाहिए । 
नासा के औरा उपग्रह से प्राप्त् आंकड़े बताते है कि अमेजन के वातावरण में जो नमी शुरूआत में आती है, उसमें भारी पानी की मात्रा अधिक होती है । इससे तो निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह नमी समुद्री हवाआें के साथ नहीं बल्कि वहीं के पेड़ों में से निकलकर वातावरण में संचित हुई है । यानी अमेजन के पेड़ स्वयं बारिश करवाते है और मौसम के नियमन मेंसक्रिय भूमिका अदा करते है । 

कम खाओ, याददाश्त बढ़ाओ 
कम कैलोरी वाला भोजन मिले तो कृमियों की याददाश्त में सुधार आता है । वैसे तो कैलोरी में कटौती करने के फायदे पहले भी उजागर हो चुके है । जैसे भोजन में कैलोरी कम हो तो मक्खियों, चूहों और बंदरों की आयु में वृद्धि होती    है । अब कैलिफोर्निया विश्वविघालय के कावेह अशरफी ने प्रयोगों के आधार पर बताया है कि हम कैलोरी का सेवन करने पर एक गोल कृमि की याददाश्त में इजाफा होता      है ।अशरफी के निष्कर्षो से भी अधिक दिलचस्प उनका प्रयोग है । 
अशरफी की टीम ने एक गोल कृमि को प्रशिक्षित किया कि वह ब्यूटानोन नामक एक रसायन की गंध का संबंध भोजन के पारितोषिक से जोड़ लें । कृमि जीव वैज्ञानिक प्रयोगों का एक महत्वपूर्ण मॉडल जंतु है । जब ये कृमि ब्यूटानोन और भोजन का संबंध सीख गए तो इन्हें एक वृत्त के केन्द्र मेंरखा गया । वृत्त के एक ओर ब्यूटानोन की गंध थी जबकि दूसरी ओर अल्कोहल की गंध थी । केन्द्र मेंरखे जाने वाले पर कृमियों में से जो ब्यूटानोन की ओर जाते थे, उनके बारे मे माना जाता था कि वे सबक सीख गए है । 
अब कृमियों को तीन समूहों में बांटा गया ।  एक समूह को मनमर्जी से खाने दिया गया, दूसरे समूह को कम कैलोरी खाने को मिली और तीसरे समूह को उपवास 
करवाया गया । तीनों समूहों को ब्यूटानोन की गंध के लाभ के बारे में भी सिखाया गया । अब एक-एक करके तीनों समूह के कृमियों को उस वृत्त के केन्द्र में रखा गया । 
जिन कृमियों को कम कैलोरी वाली खुराक पर रखा गया था उनमेंसे ज्यादा प्रतिशत (लगभग दुगने) कृमि ब्यूटानोन वाले छोर की ओर गए, बनिस्बत भरपेट खाने वाले कृमियों के । उपवास करने वाले कृमि भी ब्यूटानोन वाले छोर पर ज्यादा अनुपात में गए । इससे पता चलता है कि उपवास करने या कम कैलोरी मिलने पर कृमि कोई सबक ज्यादा जल्दी सीखते है । 
प्लॉस बायोलॉजी मेंप्रकाशित इस शोध पत्र का निष्कर्ष है कि हम कैलोरी के सेवन से मस्तिष्क मेंएक रसायन कायनुरेनिक एसिड की कमी हो जाती है । इस कमी की वजह से वे तंत्रिकाएं सक्रिय हो जाती है जो सीखने में भूमिका निभाती है । इस बात की जांच करने के लिए अशरफी की टीम ने कृमियों के मस्तिष्क में कायनुरेनिक एसिड की कमी पैदा करके देखा । कायनुरेनिक एसिड की कमी करने पर भी सीखने की प्रक्रिया में वैसा ही सुधार देखा जैसा कम कैलोरी के असर से हुआ । 
रोबोट दवा को सही जगह पहुंचाएंगे । 
वह दिन दूर नहीं जब दवाइयों को शरीर में सही जगह और सही ढंग से पहुंचाने के लिए    सूक्ष्म रोबोटों का इस्तेमाल किया जाएगा ।  ये रोबोट सूक्ष्म मोटरे है जिसकी साइज हमारे बाल की मोटाई से ज्यादा नहीं है । इस अनुसंधान का मार्गदर्शन कर रहे कैलिफोर्निया विश्वविघालय के जोसेफ वांग का कहना है कि एक अवधारणा को साबित करने के लिए किया गया यह पहला प्रयोग है । 
    शोधकर्ताआें ने पांच दिनों तक चूहों को एंटीबायोटिक दवाइयों की नियमित खुराक देने के लिए इन सूक्ष्म मोटर्स का इस्तेमाल  किया । ये चूहे अमाशय के संक्रमण से पीड़ित थे । पांच दिन के बाद देखा गया कि इन चूहों की स्थिति में सामान्य ढंग से औषधि देने की अपेक्षा ज्यादा सुधार हुआ   था । 
दरअसल ये सूक्ष्म मोटर्स और कुछ नहीं, मैग्नीशियम से बने महीने गोले हैं । इनके ऊपर कई परतं चढ़ाई गई है ताकि ये सुरक्षित रहें । इसके अलावा इन पर एंटीबायोटिक का लेप किया गया है । जब इन्हें निगला जाता है तो अमाशय में मौजूद अम्ल मैग्नीशियम से क्रिया करता है और हाइड्रोजन बनती है । हाइड्रोजन के छोटे-छोटे बुलबुले निकलते हैं जो इन नन्हें गोलों को इधर-उधर धकेलते हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी गुब्बारे में से निकलती हवा उसे आगे की ओर धकेलती है । इन गेंदों पर जो एंटीबायोटिक औषधि की परत होती है वह अम्लीयता के प्रति संवेदी होती है जब मैग्नीशियम आमाशय में अम्ल से क्रिया करता है तो वहां की अम्लीयता थोड़ी कम हो जाती है । 
शिक्षा जगत
उच्च् शिक्षा संस्थान और विज्ञान शिक्षा
के. सुब्रमण्यम

शिक्षा नीति संबंधी दस्तावेजों में बार-बार जोर दिया गया है कि भारत में स्कूली शिक्षा के समक्ष जो चुनौती है वह गुणवत्ता की है । दुनिया भर का अनुभव बताता है कि शिक्षा की गुणवत्ता निर्णायक रूप से सुप्रशिक्षित व उत्साही शिक्षकों पर निर्भर करती है । 
यह भी माना जाता है कि स्कूली शिक्षा में विश्वविघालयों की भूमिका स्कूली शिक्षकों को तैयार करने की है । अलबत्ता, भारत में शिक्षकों को तैयार करने में विश्वविघालयों और शोध संस्थानों ने गौण भूमिका ही निभाई है । हमारे यहां शिक्षकों की अधिकांश तैयारी विश्वविद्यालयों के बाहर ही होती है । भारत में इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा के समान अध्यापक शिक्षा को भी विश्वविद्यालयों  की मुख्य धारा से अलग-थलग करके व्यावसायिक धारा में डाल दिया गया है ।
स्कूलों में दर्ज संख्या में जबर्दस्त वृद्धि के चलते पिछले कुछ दशकों में अध्यापक शिक्षा में भी जबर्दस्त वृद्धि हुई है । इसमें से अधिकांश वृद्धि निजी क्षेत्र में हुई है - ९० प्रतिशत से ज्यादा द्वितीयक अध्यापक शिक्षा कॉलेज निजी स्वामित्व में है । हाल ही में अध्यापक शिक्षा संबंधी न्यायमूर्ति वर्मा आयोग ने अध्यापक शिक्षा संस्थाआें को विश्वविद्यालय परिसरों से बाहर बंद दायरों की संज्ञा दी है और कहा है कि यह अलगाव एक प्रमुख समस्या है । वास्तव में अध्यापक शिक्षा के विश्वविद्यालय की मुख्यधारा से अलगाव की जड़े काफी गहरी हो गई हैं और यह स्थिति पूरे शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त् है । 
विश्वविद्यालयों से अलग-थलग शिक्षा की व्यावसायिक धारा के विकास के साथ व्यापारीकरण के खतरे तो जुड़े ही हैं । इसके साथ गुणवत्ता और ईमानदारी का ह्ास तो अवश्यभावी है । दूसरा, अन्य व्यावसायिक धाराआें के समान अध्यापक शिक्षा में नवाचार लागू करने के लिए भी विश्वविद्यालय आधारित विषयों के साथ जीवंत जुडाव अनिवार्य है । एक तीसरा कारण और है जिसके चलते विश्वविद्यालयों से अलगांव अध्यापक शिक्षा के लिए नुकसानदेह है । 
चिकित्सा व इंजीनियरिंग जैसी व्यावसियक धाराएं निर्णायक रूप से विज्ञान व गणित की विभिन्न शाखाआें पर आधारित होती है, किन्तु फिर भी इनके पास ज्ञान का अपना ठोस भंडार है जो व्यवसायिक कामकाज को सहारा देता है । हालांकि शिक्षा को इन धाराआें के समान व्यावसायिक दर्जा हासिल नहीं है किन्तु वह एक स्वतंत्र पहचान की चाहत तो रखती है । शिक्षा क्षेत्र को अपना ज्ञान का भंडार है जिसके अन्तर्गत शिक्षा के उद्देश्य संबंधी दार्शनिक चिंतन और व्यक्ति के विकास और सामाजिक परिवर्तन में शिक्षा की भूमिका संबंधी प्रायोगिक व सैद्धांतिक अध्ययन से लेकर शिक्षा पद्धति के सिद्धांत तक शामिल हैं । 
किन्तु चिकित्सा और इंजीनियरिंग के विपरीत, विश्वविद्यालयी विषय ज्ञान शिक्षा कारोबार के केन्द्र में है । स्कूली शिक्षा सिर्फ बच्च्े या मनुष्य की शिक्षा नहीं है बल्कि यह विषयों - भाषा और साहित्य, कला, विज्ञान, गणित और सामाजिक विज्ञान की भी शिक्षा है । यही कारण है कि शिक्षा संस्थाआें को विश्वविद्यालयी ज्ञान के विषयों से अलग-थलग रखना उन्हें पंगु बना सकता है । 
स्कूलों (और कॉलेजों) के अधिकांश शिक्षक विषय होते हैं । वे विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान या भाषा में से कोई एक विषय पढ़ाते है । चूंकि शिक्षा एक स्वतंत्र विषय के रूप में विकसित हुई है, इसलिए शिक्षक प्रशिक्षण के पाठ्यक्रमों में यह धारणा व्याप्त् हो गई है कि एक सामान्य शिक्षा पद्धति है जिसे किसी भी विषय के शिक्षण पर लागू किया जा सकता है । शिक्षक प्रशिक्षण में यह धारण बन गई है कि शिक्षा पद्धति तकनीकों का एक पिटारा है जिसे किसी भी विषय के शिक्षण में प्रयुक्त किया जा सकता है । किन्तु शिक्षा पद्धति को विषयवस्तु से जुदा करने की वजह से विज्ञान व गणित जैसे विषयों को प्रभावी ढंग से पढ़ाने की शिक्षक की क्षमता कमजोर पड़ती है । अध्यापक शिक्षा को विश्वविद्यालय से अलग करने के परिणामस्वरूप शिक्षा पद्धति और विषयवस्तु का पृथक्ककरण और भी गहरा हुआ है । 
१९८० के दशक मेंएक अमरीकी शिक्षाविद ली शुलमैन ने शिक्षा पद्धति को विषयवस्तु से जुदा करने पर सवाल उठाते हुए एक असरदार लेख लिखा था । उन्होंने स्पष्ट किया था कि किसी विषय के प्रभावी अध्यापन के लिए जरूरी है कि शिक्षक विषय को गहराई से समझे । शुलमैन ने शिक्षाशास्त्रीय विषयगत ज्ञान शब्द प्रस्तुत किया  था । इस शब्द से उनका आशय था विषयवस्तु और शिक्षा पद्धति का एक विशिष्ट सम्मिश्रण जो खास तौर से शिक्षकों का परिसर है, जो उनकी विशेष प्रकार की समझ है । 
शिक्षाशास्त्रीय विषयगत ज्ञान (पेडेगॉजिकल कंटेंट नॉलेज या पीसीके) आजकल भारत सहित दुनिया भर में अध्यापक शिक्षा के कई पाठ्यक्रमों का महत्वपूर्ण हिस्सा है । शुलमैन का शोध कार्य शैक्षिक अनुसंधान में एक मील का पत्थर है और इसकी बदौलत इस बात की ज्यादा सटीक समझ बनी है कि प्रभावी शिक्षण के लिए शिक्षकों को क्या पता होना चाहिए । गणित शिक्षा अनुसंधान में पीसीके की धारणा को कई शोधकर्ताआें ने अधिक विस्तार दिया है । इन शोधकर्ताआें ने वास्तविक कक्षा के कामकाज का अध्ययन करके इस बाबत निष्कर्ष निकालें है कि एक शिक्षक के लिए किस तरह के ज्ञान की जरूरत होती है । 
जो लोग गणित पढ़ाते है उन्हें गणितीय विषयवस्तु को उन लोगों की अपेक्षा अलग ढंग्र से जानना होता है जो गणित का उपयोग करते है (जैसे वैज्ञानिक और इंजीनियर) उदाहरण के लिए शिक्षकों के लिए यह समझना जरूरी है कि भिन्नों को किसी आयात के छायादार हिस्सों के रूप में दर्शाने से अशुद्ध भिन्न को समझने में दिक्कत आ सकती है । शिक्षकों को आंशिक भागफलों का उपयोग्र करके भाग देने की वैकल्पिक विधियों की उपयुक्ता का आकंलन करना होता   है । ऐसी विधि एनसोईआरटी की नवीनतम पुस्तकों में दी गई है । ऐसे कार्यो में जिस तरह के ज्ञान से मदद मिलती है उसमें कई तत्व शामिल होते है जैसे कोई सूत्रविधि काम क्यों करती है, गणितीय अवधारण के विविध प्रस्तुतीकरण का ज्ञान और यह जानना कि किसी अवधारणा के प्रस्तुतीकरण विशेष की सामर्थ्य और सीमाएं क्या हैं । 
शिक्षकों को यह जानना चाहिए कि अंकगणित से परिचय बीजगणित सीखने में बाधक बनता है और यह भी समझना चाहिए कि अंकगणित व बीजगणित को कैसे जोड़े । उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि किस तरह से स्कूली विज्ञान व गणित की अवधाराणाएं उच्च् शिक्षा में ज्यादा उन्नत अवधारणाआें उच्च् शिक्षा में ज्यादा उन्नत अवधाराणाआें के लिए बुनियाद प्रदान करती हैं । आगे नजरिए से स्कूल में पढ़ाई जाने वाली अवधाराणाआें पर विचार करने से वे बढ़े विचार उजागर होते है जिन पर शिक्षण के दौरान ध्यान दिया जाना चाहिए । 
जहां विज्ञान व गणित शिक्षा में अनुसंधान इस बात पर प्रकाश डाल रहा है कि कारगर ढंग से पढ़ाने के लिए शिक्षक को क्या पता होना चाहिए वहींअध्यापक शिक्षा संस्थानों में इन विचारों को अपनाकर अपने पाठ्यक्रम की पुनर्रचना करने की सीमाएं है । इन संस्थानों में पाठ्यक्रम और फैकल्टी का निर्माण यह मानकर हुआ है कि भावी शिक्षक अपनी पूर्व शिक्षा के दम पर विषय का ज्ञान तो पहले से ही रखते है । बी.एड. के छात्र पाठ योजना बनाने का या वास्तविक कक्षाआें में शिक्षा पद्धति की तकनीकों के उपयोग्र करने का अभ्यास करते है किन्तु वे उस विषयवस्तु पर गहराई से चिंतन नहीं करते जो वे पढ़ा रहे है । 
अध्यापक शिक्षा पाठ्यक्रमों में हाल के संशोधनों में विषयवस्तु और विषय के बुनियादी पहलुआें पर गहराई से विचार विमर्श को स्थान दिया गया है । अलबत्ता, इस बात में बहुत संदेह है कि अध्यापक शिक्षा संस्थाएं ऐसे विचार-विमर्श के लिए जरूरी बौद्धिक संसाधन जुटा    पाएंगी ।   यह स्थिति कुछ हद तक स्वयं विश्वविघालयीन शिक्षा की संरचना का परिणाम है । उच्च् शिक्षा संस्थाआें के पाठ्यक्रम स्कूली शिक्षा को ध्यान में रखकर नहीं, उद्योग अथवा शोध में कैरियर को ध्यान में रखकर बनाए गए है । 
दरअसल, विश्वविद्यालय के विभाग इस सुझाव पर हैरत में पड़ जाएंगे कि उन्हें स्कूल शिक्षा की जरूरतों को ध्यान में रखना चाहिए । वे कहेंगे कि स्कूली विषयों की विषयवस्तु बहुत प्रारंभिक होती है और वैसे भी छात्र विश्वविद्यालय में आने से पहले उन पर तो महारत हासिल कर ही चुके होते हैं । उनका मत होगा कि विश्वविद्यालय का काम ज्ञान के अग्रणी मोर्चे से सरोकार रखना है न कि उसके बीते हुए कल से । यह मत विश्वविद्यालय और स्कूली शिक्षा के बीच एक गहरी खाई का द्योतक है ।
इस तरह के विश्वासों के चलते भावी शिक्षकों को अग्रणी विषयगत ज्ञान की दृष्टि से अपने विषयों को दोहराने का कोई अवसर नहीं मिलता - न तो विश्वविद्यालयों में और न ही अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में । इसे तभी दुरूस्त किया जा सकता है जब विश्वविद्यालय और उनके समान संस्थाएं, जो शिक्षा के पिरामिड के शिखर पर हैं, स्कूली शिक्षा समेत शिक्षा के हर स्तर की जिम्मेदार लें। प्रारंभिक शिक्षा की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की वजह से स्कूली शिक्षा कमजोर पढ़ती है, जिसके परिणामस्वरूप अंतत: स्वयं विश्वविद्यालय कमजोर होते हैं । 
भारत में कमजोर पड़ चुकी विश्वविद्यालय व्यवस्था को सहारा देने के लिए समय-समय पर विश्वविद्यालय व्यवस्था के बाहर उच्च् शिक्षा व अनुसंधान के आभिजात्य संस्थान स्थापित किए जाते रहे हैं, जैसे आइसर और आईआईटी । स्कूली शिक्षाकी उपेक्षा संबंधी मेरी टिप्पणियां इन संस्थाआें पर भी लागू होती है । 
अपना पाठ्यक्रम बनाते समय आइसर और आईआईटी जैसे संस्थाएं अनुसंधान व उद्योग की जरूरतों को प्राथमिकता देती है किन्तु उस ज्ञान की उपेक्षा करती हैं जो शिक्षण के लिए जरूरी है । दरअसल, इन संस्थाआें में प्रवेश लेने वाले छात्र शायद ही कभी उम्मीद करते हो कि वे शिक्षण को अपना कैरियर बनाएंगे । कुछ हद तक इसका कारण यह है कि ये संस्थाएं शिक्षण को एक विकल्प के रूप में पेश करने मेंअसफल रहती है । 
हालांकि शिक्षण व्यवसाय मौद्रिक दृष्टि से बहुत आकर्षक नहीं है किन्तु यह बौद्धिक व भावानात्मक रूप से काफी संतोषदायक है । युवा और बढ़ते छात्रों के साथ मेलजोल और उनके विकास में कुछ भूमिका अदा करना बहुत आनंददायक हो सकता है । जिस कक्षा मेंछात्र खुलकर अपनी बात कहते हो, वह बौद्धिक रूप से काफी चुनौतीपूर्ण हो सकती है और न सिर्फ आपको अपनी पंसद के विषय के नजदीक बने रहने में मदद करती है बल्कि नए-नए विचारों और कड़ियों की खोजबीन करने का अवसर भी देती है । 
उच्च् शिक्षा संस्थाआें को चुनौती और उत्साह की यही भावना उन छात्रों में संचारित करनी चाहिए जो शिक्षण के प्रति रूझान रखते    हो । यह संभव होगा जब ये संस्थाएं और इनकी फैकल्टी स्कूली शिक्षा मेंरूचि दर्शाएं । लिहाजा, यदि उच्च् शिक्षा की संस्थाएं स्कूली शिक्षा में गहरी रूचि रखें तो स्कूल स्तर पर गणित व विज्ञान की शिक्षा में बहुत फायदा हो सकता है । 
अंतरविषयी केन्द्रों की स्थापना करके विषय आधारित शिक्षा में अनुसंधान व आउटरीच कार्यक्रम शुरू किए जा सकते हैं । समय के साथ इनका असर स्कूली शिक्षा पर अवश्य होगा - न सिर्फ अनुसंधान के परिणामों और तैयार की गई सामग्री की जरिए बल्कि ऐसे नेतृत्व के विकास के माध्यम से भी जिसकी पास शिक्षा और गणित व विज्ञान की विषयवस्तु दोनों का गहरा ज्ञान  होगा । 
कविता
बूंदे टपकी नभ से 
भवानीप्रसाद मिश्र

बूंद टपकी नभ से
किसी ने झुक कर झरोखे से 
कि जैसे हंस दिया हो
हंस रही सी आंख ने जैसे 
किसी को कस दिया हो
ठगा सा कोई किसी की
आंख देखे रह गया हो
उस बहुत से रूप को
रोमांच रोके सह गया हो । 

बूंद टपकी एक नभ से
और जैसे पथिक छू
मुस्कान चौंके और घूमे 
आंख उसकी जिस तरह 
हंसती हुयी सी आंख चूमे
उस तरह मैने उठाई आंख
बादल फट गया था
चन्द्र पर आता हुआ सा
अभ्र थोड़ा हट गया था । 

बंूद टपकी एक नभ से
ये कि जैसे आंख मिलते ही 
झरोखा बन्द हो ले
और नूपुर ध्वनि झमक कर
जिस तरह द्रुत छन्द हो ले 
उस तरह 
बादल सिमट कर
और पानी की हजारों बूंद
तब आएं अचानक । 
पर्यावरण समाचार
 देश में हर दिन निकलता है १५३४२ टन प्लास्टिक कचरा
मध्यप्रदेश सहित देश के अन्य राज्यों की सरकारें म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट के कलेक्शन, सेग्रेगेशन, ट्रांसपोर्टेशन और डिस्पोजल के लिए हर साल ५००० करोड़ रूपए की बड़ी राशि खर्च करती है । प्रदेश सहित देश के ६० शहरों में प्रतिदिन कुल १५३४२ टन प्लास्टिक वेस्ट निकलता है । इस वेस्ट में ९० प्रतिशत म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट खाद्य पदार्थो की पैकजिंग में उपयोग किया जाने वाला मटेरियल होता है । 
इस खुलासे के बाद प्लास्टिक वेस्ट के उत्पादकों की भी जिम्मेदारी तय करने की बात उठ गई है । भोपाल के अश्विन रस्तोगी ने पिछले दिनों एक याचिका नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में दायर की है जिसमें सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स २०१६ के तहत उन कंपनियों और इंडस्ट्रीज की भी जिम्मेदारी तय करने की मांग की गई है, जो पैकेजिंग मटेरियल बनाती है जिसमें पॉलीबैग, मिनरल वॉटर, बॉटल, जूस, बॉटल, थर्मोकोल पैकजिंग मटेरियल आदि शामिल है ।  यह सारे प्लास्टिक मटेरियल एक तरह से प्रदूषकों की ही कैटेगरी में आते है । एनजीटी ने भारत सरकार और मध्यप्रदेश सरकार के साथ ही पेप्सी, पतंजलि, पारले व ब्रिटेनिया जैसी बड़ी कंपनियों को नोटिस जारी कर दिये है । 
इस मामले में शुरूआत में कुल २०८ लोगों को पार्टी बनाया गया है जिसमें मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ १७० कंपनियां व इण्डस्ट्रीज, ३८ नगर निगम व नगर पालिका शामिल है । वहीं पीसीबी को निर्देश जारी कर   सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स २०१६ के प्रति सभी स्टेक होल्डर्स को जागरूक करने के लिए वर्कशॉप और सेमीनार आयोजित करने के लिये कहा है । 
याचिका में सीपीसीबी द्वारा कराए गए सर्वे के हवाले से बताया गया है देश के ६० शहरों में कुल १५३४२ टन प्लास्टिक वेस्ट प्रतिदिन निकलता है जिसमें से ६००० टन तो एकत्र ही नहीं हो पाता । वहीं एक गैर सरकारी संगठन के एक अध्ययन के अनुसार मध्यप्रदेश सहित देश की ४३७८ नगरीय निकाय म्युनिसिपल बजट का ५० से ६० प्रतिशत केवल सॉलिड वेस्ट मैनजमेंट में ही खर्च करती है । 
याचिका में कहा गया है कि भारतीय प्लास्टिक वेस्ट ७०० से १००० किलो कैलोरी का होता है जो इंसीनरेशन, पॉयरोलिसिस और वेस्ट टू एनर्जी जैसी थर्मल तकनीक के लिए पूरी तरह अनुपयुक्त है । इस पैकेजिंग मटेरियल के निपटारे के लिए नगर निगम और नगर पालिका को बड़ा बजट लगता है । इसीलिए पैकेजिंग मटेरियल का उत्पादन करने वाली कंपनियों व इण्डस्ट्रीज की जिम्मेदारी तय करने की जरूरत है । भारत सरकार द्वारा एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी नीति लाई गई है जिसमें ऐसे उत्पादों के उत्पादकों की भी जिम्मेदारी तय की गई है जो उपयोग के बाद प्रदूषण के लिए जिम्मेदार होते है । याचिकाकर्ता के वकील अपूर्व पांडे के अनुसार एमएसडब्ल्यू के निपटान मेंनगरीय निकायों द्वारा किए जाने वाले खर्च में कंपनियों और इण्डस्ट्रीज को भी आर्थिक सहयोग करने के लिए निर्देश जारी करने की मांग की गई है । इस मामले में कुछ और लोगों को भी पार्टी बनाया गया है । 

जलवायु परिवर्तन के कारण घटता खाघान्न उत्पादन 
हाल ही में मुम्बई में भारी बारिश, पिछले वर्षो में केदारनाथ त्रासदी, तटों पर आ रहे भंयकर तूफान, चैन्नई में बाढ़, दिल्ली जैसे महानगरों में बढ़ता प्रदूषण कहीं न कहीं पारिस्थितिकी के असंतुलन की ओर संकेत करते हैं। इससे लगातार धरती पर जीवन कठिन होता जा रहा है । 
महान वैज्ञानिक आइस्टीन ने कहा था कि दो वस्तुएं असीमित है - पहला ब्रह्माड और दूसरा मानव द्वारा की जाने वाली मूर्खताएं । ग्लोबल वार्मिग भी मानव की भौतिकवादी मूर्खता का ही परिणाम है । 
अमेरिका के भूगर्भीय सर्वेक्षणों के अनुसार, मोंटाना ग्लेशियर हुआ करते थे लेकिन अब सिर्फ २५ ही बचे है । जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारे कृषि उत्पादन पर भी पड़ रहा है । 
दालों के उत्पादन में तो हम भूटान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार तथा चीन से बहुत पीछे रह गए है । इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के अनुसार मौसम परिवर्तन के परिणामस्वरूप २०२० तक गेंहू में ६ प्रतिशत और धान के उत्पादन में ४ प्रतिशत की कमी आ सकती है ।