बुधवार, 7 नवंबर 2012







सोमवार, 5 नवंबर 2012

प्रसंगवश   
मान्यताआें का मारा उल्लू बेचारा
    प्रकृति और पर्यावरण के साझा अस्तित्व में धरती पर मौजूद हर परिंदा खूबसूरत कविता के समान है । इस सच्चई के बावजूद मनुष्य की रूढ़िवादी सोच ने हजारों पक्षी प्रजातियों के अस्तित्व पर तलवार लटका दी है ।
    उल्लू के अस्तित्व पर मंडराते खतरे पर इटली और स्वीडन के पक्षी वैज्ञानिकों द्वारा हाल में की गई खोजों में साफ तौर से चेतावनी दी गई है कि यदि धरती से उल्लू जैसे बहुपयोगी परिंदे का अस्तित्व समाप्त् हो गया तो पूरी दुनिया में अंधाधुंध गति से बढ़ती चूहों की फौज खाघान्न संकट की नई समस्या पैदा कर देगी । चूहों की बढ़ती फौज न केवलअन्न संकट पैदा करेगी बल्कि प्लेग जैसी घातक बीमारी भी दोबारा अस्तित्व में आ सकती है । उल्लू की शक्ल देखने में कुछ भयानक तो अवश्य लगती है, मगर इस बेहद चतुर और अक्लमंद पक्षी को मूर्ख मानना तथ्यों से परे है । इसके शरीर की बनावट सुंदर नहीं होती मगर देखने और सुनने की क्षमता में यह इंसानों से कहीं आगे है । उल्लू फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों जैसे चूहो, चमगादड़ों, टिडि्डयों, सांप, छछूंदर व खरगोश आदि का सफाया करके फसलों को बचाता है । शुद्ध मांसाहारी जीव होनेके इससे फसलों के नुकसान की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है । वास्तव में उल्ले के घर में बैठने, उसे देखने, छूने या बोलने से जुड़ी अपशकुन की बातें बेबुनियाद है । उल्लू व अन्य परिंदों के खात्मे के दर्जनों कारण हैं ।
    हरियाणा के वन्य प्राणी विभाग के मुख्य संरक्षक डॉ. परवेज अहमद बताते है कि भारत सहित कुछ एशियाई देशों में उल्लू को लेकर प्रचलित अंधविश्वास, ओझाआें और तांत्रिकों के  अनगिनत मनगढ़त किस्से कहानियों में उल्लू का अशुभ और मनहूस कराए दिए जाने की वजह से उल्लुआें की संख्या तेजी से घट रही है । यही वजह है कि देश के उत्तरी राज्यों में उल्लू की घटती संख्या की वजह से चूहे हर साल इतना अनाज नष्ट कर डालते है जो पूरे उत्तरप्रदेश की सवा अठारह करोड़ की आबादी के लिए पर्याप्त् होगा ।
नरेन्द्र देवांगन
इंसानों का कुल वजन बढ़ रहा है
           ब्रिटिश मेडिकल कौंसिल पब्लिक हेल्थ के ताजा अंक में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया में इंसानों का कुल वजन बढ़ रहा है और यह स्वास्थ्य की नई समस्याआें को जन्म देने के साथ-साथ इकॉलॉजी को भी प्रभावित करेगा । यह तो जानी-मानी बात है कि अन्य प्रजातियों के समान, इंसानों की कुल भोजन संबंधी जरूरतें उनकी कुल संख्या और उनके वजन पर निर्भर करती हैं । ज्यादा मोटे तगड़े लोगों को ज्यादा भोजन व ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।
    राष्ट्र संघ का अनुमान है कि २५०० में हमारी आबादी ९ अरब हो जाएगी । इस बढ़ी हुई आबादी के लिए ज्यादा खाद्यान्न की जरूरत होगी । इसके अलावा यदि ये लोग ज्यादा वजनी हुए, तो भोजन की जरूरत और भी ज्यादा होगी ।
    सारा वालपोल और उनके साथियों ने राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट द्वारा संकलित आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि फिलहाल दुनिया की वयस्क आबादी का कुल वजन २८.७ करोड़ टन है हालांकि इसमें काफी क्षेत्रीय विविधता भी है । उक्त २८.७ करोड़ टन में से १.५ करोड़ टन तो सामान्य से ज्यादा वजन वाले लोगों (जिनका बॉडी मास इंडेक्स २५ से ज्यादा है) के कारण है । और इसमें से करीब एक-तिहाई तो उत्तरी अमरीका के मोटे लोगों की वजह से है जबकि यहां दुनिया की मात्र ६ प्रतिशत आबादी निवास करती है । बॉडी मास इंडेक्स शरीर के वजन और ऊंचाई के वर्ग का अनुपात होता है और इससे पता चलता है कि व्यक्ति अपनी ऊंचाई के मान से कितना अधिक मोटा है ।
    इसके विपरीत एशिया में दुनिया की ६१ प्रतिशत आबादी रहती है मगर दुनिया में मोटापे के कारण जो वजन है उसका मात्र १३ प्रतिशत एशिया के कारण है । शोधकर्ताआें ने पाया कि यूएस की ३६ प्रतिशत आबादी मोटापे की शिकार है । यदि पूरी दुनिया की आबादी इसी प्रवृत्ति का अनुसरण करे, तो इस अतिरिक्त वजन को सहारा देने के लिए ४८१ प्रतिशत ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होगी ।
    इसी बात को अलग ढंग से देखें, तो एक टन मानव जैव पदार्थ का मतलब होता है १२ उत्तरी अमरीकी व्यक्ति या १७ एशियाई व्यक्ति अर्थात भोजन के मामले में अमरीकी एशियावालों से आगे है ।
सामयिक
प्रकृति और पुरूष
शम्भु प्रसाद भट्ट स्नेहिल

    ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत पृथ्वी सौर परिवार का वह अत्यन्त महत्वपूर्ण सदस्य है, जो कि भौगोलिक ज्ञान के आधार पर सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने वाला ग्रह है । पृथ्वी का तीन-चौथाई भाग स्थलीय है, जिसमें कि विश्व के विभिन्न देश विद्यमान है ।
    धार्मिक दृष्टि से सम्पूर्ण व्योमण्डल के साथ ही इस भू-धरा को संचालित एवं नियंत्रित करने वाली कोई अदृश्य व अलौकिक शक्ति है, जिसे मात्र एहसास ही किया जा सकता है, क्योंकि वह स्वयं निराकार परब्रह्म परमेश्वर है । जबकि संसार के विभिन्न राष्ट्रों का संचालन व नियंत्रण जनता के मध्य निर्वाचित एवं नियुक्त जनप्रतिनिधियों व राजा-महाराजाआें द्वारा किया जाता है ।
    संसार-सिन्धु में प्रकृतिही वह आवरण एवं आकृति है, जो कि प्राकृतिक सुन्दरता, विकटता विभिन्नता एवं विषमता के रूप में सर्वत्र व्याप्त् रहती   है । प्रकृति के मनोरम व विभिन्नता से भरे-पूरे दृश्यों को ही प्राकृतिकता कहते है अर्थात् जो स्वत: व्याप्त् है और जिसमें कृत्रिमता का कोई समावेश नहीं है ।    भू-मण्डल में फैले मैदान, पठार, रेगिस्तान, चट्टान, हिमाच्छादित पर्वत, नदी-नाले, झील और जंगल आदि सभी प्रकृति ही तो है । प्रकृति शब्द को वृहत् अर्थ में लिया जाता है क्योंकि यत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगोचर होने वाली सभी कुछ प्रकृति के अन्दर ही समावेशित है । प्र उपसर्गात्मक है, जो कि कृ धातु से बने कृति संयुक्त है, प्र  = परमेश्वर और कृति = रचना । इस प्रकार प्र+कृति = प्रकृति शब्द का स्पष्ट अर्थ है, परमेश्वर की रचना अर्थात वह रचना जो कि परमेश्वर द्वारा परोपकार के लिए ही रची गयी      है । सांसारिक कृति के पीछे ईश्वर का परमोद्देश्य भी यही रहा है कि यह समस्त प्राणियों के जीवनानुकूल रहते हुए उनका मार्ग प्रशस्त करे ।
    मानव को उसके जीवन की आवश्कतानुसार ही प्रकृति के अन्तर्गत व्याप्त् अथाह भण्डार का दोहन कर उपभोग  करने का अधिकार है, जबकि प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन सम्बन्धी असीमित कर्तव्य है । एक बुद्धिजीवी प्राणी होने के कारण मानव का यह परम कर्तव्य है कि वह अधीनस्थ-असहाय व निरीह प्राणियोंकी सेवार्थ एवं कल्याणार्थ ही अधिक से अधिक समय व्यतीत    करे । प्रकृति के असीमित भण्डार का दोहन एवं उपभोग करना वह मानव की बुद्धि एवं योग्यता पर निर्भर है । उसके द्वारा प्रकृति का अनैतिक दोहन किया गया तो प्रकृति द्वारा चेतावनी के तौर पर समय-समय पर प्राकृतिक व दैवीय प्रकोप व घटनाआें के माध्यम से सचेत करने की चेष्ठा की जाती है ।
    पर्यावरण के विचलित होने से प्रदूषण का प्रभाव बढ़कर मानव ही नहीं अपितु सम्पूर्ण प्राणी-जगत के सम्मुख स्वस्थ जीवन जीने का प्रश्न खड़ा हो जाता है, वैसे तो प्रकृति आवश्यकतानुरूप उचित दोहन से मानव के लिये ईश्वरीय स्वयं सिद्ध वरदान स्वरूप है । जहाँ पुरूष उसकी कार्य क्षमता, शारीरिक बनावट एवं प्राणी प्रजनन शीलता के आधार पर पुल्ंलिग के अन्तर्गत एक नर है, वहीं प्रकृति उस सुन्दर आवरण, आकृति तथा उत्पादन क्षमता के आधार पर स्त्रीलिंग के अन्तर्गत रूत्री स्वरूपिणी नारी है । नर का नारी के साथ संसर्ग का परिणाम पुत्रोत्पत्ति है । इसी प्रकार मानव का प्रकृति में कार्य हेतु निरन्तर प्रगतिशील रहने पर विकास अवश्यम्भावी है ।
    धरती में उत्खनन कर कृषि कार्य करना, भवन निर्माण, यातायात हेतु सड़क निर्माण, विद्युत उत्पादन और प्रकृति प्रदत्त चीजों/वस्तुआें को वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा जीवनोपयोगी बनाना, यह सब मानव के सतत् संघर्ष एवं प्रयत्नशीलता का ही परिणाम है । यह कहा जा सकता है कि पुरूष रूपी साधन के माध्यम से विकास रूपी लक्ष्य की प्रािप्त् होती है । सृष्टि के प्रारम्भिक चरण में संसार संरचना के निमित्त परमेश्वर की माया से मनु नामक आदि पुरूष (नर) का श्रद्धा नाम्नी प्रकृति स्वरूपिणी  आदि स्त्री (नारी) से मेल हुआ । जिसका परिणाम मानव जाति का विकास है ।
    मनु की सन्तान होने से ही मानव नामक प्राणी को मनुष्य कहा जाता है । मानवीय भावना एवं व्यवहार के आधार पर मनुष्य के दो रूप देखने में आते है । प्रथमत: - इन्सान ओर द्वितीयत: - हैवान । इन्सान वही है, जो   ईश्वरीय शान एवं मान के अनुरूप न्यवहार एवं कार्य करे हैवान वह जो अपनी कठोरतम वाणी से दुसरों को हानि तथा ईश्वरीय मान-मर्यादा को अमान्य कर समाज को अपने न्यवहार से परेशानी एवं स्ंवय के सम्मानार्थ/लाभार्थ अन्यों के सम्मान को ठेस पहुँचायें । उसे दानव भी कहा जा सकता है ।
    प्रकृतिमें भावुकता तथा विभिन्न प्रकार की अत्याकर्षक वनस्पतियों सुन्दरता से युक्त स्थानों एवं प्राकृतिक वस्तुआें का भण्डार होने के कारण पूर्वकाल से ही यह पुरूष के लिए आकर्षक का केन्द्र बनी हुई है । सुन्दरता के प्रति आकर्षक होने के कारण महातपस्वी राजा पुरूरवा जैसे पुरूष भी उर्वसी नाम की अप्सरा के सम्मुख आत्मार्पित हो गये । आकर्षण इन्द्रास्त्र है, क्योंकि तपस्वियों के तपोबल को क्षीण करने के लिए देवराज इन्द्र बार-बार आकर्षणार्थ अप्सराआें की सुन्दरता रूपी अरूत्र का ही प्रयोग करत रहे है ।
    सुन्दरता एक ऐसा विशेषणात्मक शब्द एवं गुण है । जिससे आकर्षण जैसी क्रिया का होना स्वाभाविक हो जाता है । विपरीत लिंगी की सुन्दरता, आकर्षण अदायेंकठोर दिल मानव ही नहीं, दानव तक को भी मुलायम बनाकर पिघला देती है । आकर्षण शब्द आ उपसर्ग तथा कर्षण इन शब्दों के योग से बना है । आ का अर्थ निकटता से और कर्षण शब्द घर्षण से सम्बन्धित होने के कारण मिलकर कोई क्रिया करना है । इस प्रकार इसका स्पष्ट अर्थ है - किसी वस्तु प्राणी या स्थान के प्रति भावनात्मक लगाव व उसी में समायें रहने को चाह । प्रकृति सुन्दरता का आदि रूप है, इसलिए इसके प्रति लगाव व झुकाव तथा उसी समाये रहने की अभिलाषा का होना स्वाभाविक ही है ।
    आकर्षण शब्द क्रिया विशेषणात्मक है, जहां वह अपनी ओर आकृष्ट करने की क्रिया करता, वहींउसकी यह विशेषता एवं गुण भी है कि वह आकर्षित करने की क्षमता स्वयं रखता है । प्रकृति और पुरूष के मध्य आकर्षण ही ऐसा सेतु है, जो कि इन दोनों को परस्पर जोड़ने का कार्य करता है । जिस प्रकार मानव एक सामाजिक प्राणी है और समाज में न रहना उसकी मानवीय क्रिया पर प्रश्न चिन्ह है । उसी प्रकार इसके भावनात्मक जीव होने पर भी दूसरे को आकर्षित करने एवं आकर्षित होने की क्षमता का अभाव होना उसके सांसारिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन यापन में सन्देहास्पद स्थिति पैदा कर देता है ।
    प्रकृतिस्त्री स्वरूपिणी है, इसलिए पुरूष द्वारा संघर्ष या कार्य करना सार्थक है । यही विकास का द्योत्तक भी है । प्राय: देखा जाता है कि कृषि-कार्य अधिकतर महिला श्रम पर ही आधारित है । प्रकृति और स्वयं महिला दोनों समलिंगी मेल से विकास रूप परिणाम अर्थात् तृतीय वस्तु उत्पादन सम्भव नही है । इससे जमीनी उत्पादन क्षमता का स्तर पतन की ओर निरन्तर अग्रसर हो रहा है, यह वास्तविकता पुराधार्मिकता पर पूर्णत: आधारित है । यही स्थिति रही तो मानव के साथ अन्य प्राणियों के अस्तित्व के लिए खतरा मंडराने लगेगा, क्योंकि दो विपरीत लिंगी के मेल से ही प्राणी की विकास/वृद्धि सम्भव है ।
    अतीत के वर्षोमें मानवीय बौद्धिक स्तर चरणबद्ध रूप में विकसित होकर जो उच्चयु वर्ग में विद्यमान होता  था । वह वर्तमान विकास के साथ अल्पायु में ही विकसित होता चला जा रहा है, अन्तर मात्र बौद्धिक ज्ञान के सापेक्ष एवं निरपेक्ष क्रियान्वयन का है । आज निरपेक्षता का प्रतिशत बढ़ रहा है, यदि ज्ञान का शत-प्रतिशत उपयोग सकारात्मक कार्योंा में किया जाय तो विकास का क्रम निरन्तर प्रगति की ऊँचाईयों को छुयेगा । मानसिक विकास एवं वृहत् सोच प्रकृति के विभिन्न स्थानों की भौगोलिकता एवं आर्थिक-सामाजिक स्तर पर जन्मे पले-पोशे बच्च्े में अलग-अलग पाई जाती है ।
    नर-नारी के मध्य आकर्षण वेग रूप में प्रवाहित होकर प्रगाढ़ता बढ़ाते हुए परस्पर भावनाआें के आदान-प्रदान से एक दूसरे को बार-बार देखने की चाह, स्पर्श करने की इच्छा व आपस में खो जाने को अभिलाषाआें को जन्म देता है, जिससे जीवन से थका हतोत्साहित एवं नीरस मानव जीने की चाह लेकर आशा की किरण के सहारे जिन्दगी के क्षणों को व्यतीत करता है । जहाँ नर नारी के यौवन एवं सौन्दर्यता के साथ पहनावे व चाल-ढ़ाल से प्रथमदृष्टि ही आकर्षित हो जाता है । वहीं नारी नर के साहसिकता से भरे कार्योंा, सम्मानित पद, तन्दुरूस्त, गठीले सुन्दर शरीराकृति एवं व्यवहार की गम्भीरता से अध्ययन करने के बाद ही आकर्षित होती है । नारी की संवेदनशीलता एवं भावुकता ही उसे नर के दिखावा-खोखले वायदों के आगे त्वरित आत्मार्पित कर देती है ।
    प्रकृति के आंचल में अवस्थित हमारा यह महान राष्ट्र (भारतवर्ष) विभिन्न प्राकृतिक सुन्दरता से परिपूर्ण सामग्रियों से भरा-पूरा है । जिसे नारी (स्त्री) स्वरूपिणी मानते हुए माँ जैसे परम पूज्य व सम्मानित आत्मभाव के रूप में पूर्वकाल से ही भारत माता कहकर सम्बोधित करते आ रहे हैं ।
हमारा भूमण्डल
अलाव से जलते हाथ
मार्टिन खोर

    भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था में गिरावट की वजह अमेरिका और यूरोप में आई मंदी को बताया जा रहा है । १२० करोड़ की आबादी वाले देश की विदेशों पर इतनी निर्भरता खतरनाक सिद्ध हो सकती     है । जिस नई अर्थव्यवस्था की दुहाई देते उभरती अर्थव्यवस्थाएं नहीं थकती थीं, वे स्वयं उन्हीं के द्वारा बनाई आर्थिक नीतियों का शिकार हो गई है ।
    यूरोप और अमेरिका के आए आर्थिक संकट के फलस्वरूप विकासशील देशों पर अब विपरीत  प्रभाव पड़ने लगा है । यह उम्मीद थाी कि चीन, भारत एवं ब्राजील जैसे प्रमुख उभरती हुई अर्थव्यवस्थाआें की तेज विकास दर जारी रहेगी, वे स्वयं को पश्चिमी अर्थव्यवस्थाआें से पृथक रख पाएंगी एवं वैश्विक वृद्धि के विकल्प के रूप में उभरेंगी, लेकिन ये उम्मीद धराशायी हो गई है । हालिया आकड़े दर्शा रहे हैं कि वे स्वयं कमजोर होती जा रही है । वर्ष २००८ से २०१० तक चले वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से पश्चिम की मांग में आई कमी के परिणामस्वरूप   घटते निर्यात का प्रभाव विकासशील देशों पर भी पड़ा है । विकासशील देशों में पूंजी की आवक न केवल बाधित हुई है बल्कि पूंजी की वापसी जैसी नई स्थितियां भी पैदा हो गई है । बैंकिग उद्योग के सर्वेक्षण बताते हैं कि उभरती अर्थव्यवस्थाआें में बैंकों की ऋण संबंधी शर्तोंा में भी गिरावट आई है । हालिया रिपोर्टोंा ने भी मुख्य विकासशील अर्थव्यवस्थाआें  में गिरावट की बात को सुनिश्चित किया है ।
    चीन में इस वर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर घटकर ७.६ प्रतिशत पर आ गई      है । इसकी निरंतरता को वर्ष २०१० में १०.४ प्रतिशत, वर्ष २०११ में ८.१ प्रतिशत वृद्धि से समझा जा सकता है ।
    अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की इस वर्ष की अनुमानित वृद्धि दर ६.१ प्रतिशत बताई है । यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखे तो यह पिछले दो वर्षोंा में क्रमश: ६.५ एवं ८.४ प्रतिशत रही थी । वार्षिक दर के हिसाब से सिंगापुर की अर्थव्यवस्था दूसरी तिमाही सिकुड़कर १.१ प्रतिशत पर आ गई है । इसकी मुख्य वजह निर्माण क्षेत्र में आई ६ प्रतिशत गिरावट थी । इसी तरह मलेशिया आर्थिक शोध संस्थान ने इस वर्ष मलेशिया की अनुमानित वृद्धि दर ४.२ प्रतिशत बताई है । पिछले वर्ष यह ५.१ प्रतिशत थी एवं इस वर्ष की पहली तिमाही में यह ४.७ प्रतिशत ही थी ।
    इंडोनेशिया के केंद्रीय बैंक ने इस वर्ष की अनुमानित वृद्धि दर ६.२ प्रतिशत रहने की बात कही है । तुलनात्मक रूप से देखें तो यह पिछले वर्ष ६.५ प्रतिशत एवं इस वर्ष की पहली तिमाही में ६.३ प्रतिशत रही थी । दक्षिण अमेरिकी की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाआें में भी वृद्धि में कमी की संभावना जताई जा रही है । ब्राजील में सरकार ने इस वर्ष अपनी वृद्धि दर पुर्व अनुमानित ४.५ प्रतिशत से घटाकर ३ प्रतिशत आ जाने की बात कहीं है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नवीनतम अनुमान के आधार पर इसके २.५ प्रतिशत पर ही रहने की संभावना है । पिछले वर्ष वृद्धि दर २.७ प्रतिशत थी । लेकिन मई में समाप्त् हुए १२ महीनोंे के दौरान औद्योगिक उत्पादन में ४.३ प्रतिशत की कमी आई है ।
    अर्जेटीना विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाआें में से एक     था । वर्ष २०११ में इसकी वृद्धिदर ८.९ प्रतिशत थी और वर्ष २००३ से २०११ के मध्य यह औसतन ७.६ प्रतिशत बनी रही । परंतु मई में समाप्त् हुए १२ महीनों में औद्योगिक उत्पाद में ४.४ प्रतिशत की कमी जिसकी मुख्य वजह ऑटो-मोबाइल क्षेत्र में आई ३१ प्रतिशत की गिरावट रही है, के कारण यहां की अर्थव्यवस्था में ०.५ प्रतिशत की गिरावट आई है । दक्षिण अफ्रीका में पिछली तिमाही में वृद्धि दर २.७ प्रतिशत थी, जबकि वर्ष २०११ की चौथी तिमाही में यह ३.२ प्रतिशत थी ।  
    २० जुलाई को विश्व बैंक के नए अध्यक्ष जिम योंग किम ने चेतावनी देते हुए कहा था कि यूरोप का ऋण संकट विश्व के अधिकांश हिस्सों को प्रभावित करेगा । उन्होनें भविष्यवाणी की है कि यदि यूरोप में बड़ा आर्थिक संकट खड़ा हो गया तो विकासशील देशों की वृद्धि में ४ प्रतिशत या अधिक की कमी आ सकती हैं । यदि यूरोजोन के संकट को काबू में कर भी लिया जाता है तो भी दुनिया के अधिकांश हिस्सों में वृद्धि में करीब १.५ प्रतिशत की कमी आ सकती है । मुद्राकोष ने अपने नवीनतम आकलन में यूरोप एवं अमेरिका की आर्थिक स्थितियों की वजह से विकासशील देशों पर विपरीत असर पड़ने वाली तस्वीर पेश की गई है । विकासशील देशों में पूंजी वापसी की स्थिति अभी चिंताजनक स्थिति पर नहीं पहुंची है लेकिन यदि स्थितियां और बिगड़ती है तो समस्याएं पैदा हो सकती हैं । यदि विकासशील अर्थव्यवस्थाआें के वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखें तो साफ समझ में आता है कि एकाएक आए परिवर्तन के परिणामस्वरूप ये उभरती वैश्विक अर्थव्यवस्थाएं पश्चिम में आई मंदी की शिकार हो गई हैं ।
    दक्षिण केन्द्र (साउथ सेंटर) के मुख्य अर्थशास्त्री यिल्माज अक्यूझ द्वारा तैयार दस्तावेज मेंकहा गया है कि दक्षिण के आश्चर्यचकित कर देने वाले उदय वाले सिद्धांत ने बतला दिया है कि विकासशील देशों की बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई आर्थिक तरक्की को बेवजह विकसित देशों के दुर्भाग्य या आर्थिक लाभों से अलग करके दिखाया जा रहा था । पिछले दशक में विकासशील देशों की उच्च् वृद्धि दर पश्चिमी देशों द्वारा पैदा की गई अनुकूल बाहरी स्थितियों का ही परिणाम थी ।
    अमेरिका की उच्च् उपभोक्ता वृद्धि चीन एवं अन्य पूर्वी एशियाई देशों के उच्च् निर्यात की मुख्य वजह थी । ठीक इसी तरह अफ्रीका एवं दक्षिणी अमेरिका में वस्तुआें (कमाडिटी) के मूल्योंमें आई तेजी भी इसी का परिणाम थी । मुख्य विकासशील देशों के पूंजी प्रवाह मेंआई तेजी से भी उनकी वृद्धि में ईधन का काम किया और उनमें से अनेक के घाटे की पूर्ति में सहायता दी । लेकिन वर्ष २००८-०९ के वैश्विक संकट ने विकासशील देशों की निर्यात वृद्धि एवं पूंजी की वापसी को बढ़ावा दिया ।
    लेकिन विकसित देशों में मंदी के खिलाफ उठाए ठोस कदमों, वित्तीय प्रोत्साहन, कम ब्याज दरें एवं तरलता में वृद्धि के परिणामस्वरूप विकासशील देशों के निर्यात वृद्धि एवं पूंजी की वापसी को बढ़ावा दिया । लेकिन विकसित देशों में मंदी के खिलाफ उठाए ठोस कदमों, वित्तीय प्रोत्साहन, कम ब्याज दरें एवं तरलता में वृद्धि के परिणामस्वरूप विकासशील देशों के निर्यात वृद्धि एवं पूंजी को पुन: आना प्रारंभ हो गया है । इसके बावजूद विकसित देशों द्वारा मितव्यतता अपनाने एवं यूरोप में मंदी की स्थिति से एक बार पुन: विकासशील देशों पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा है ।
    दक्षिण या विकासशील देशों के अनुकूल स्थितियां अब कायम नहीं है बल्कि ये नकारात्मक होती जा रही हैं । इस वजह से विकासशील देशों की प्रगति धुंधली नजर आ रही है तथा विकास रणनीति में परिवर्तन आवश्यक हो गया है । इस बीच वांशिगटन पोस्ट ने लिखा है कि यूरो जोन संकट की वजह से हाल की महीनों में उभरती अर्थव्यवस्थाआें की ऋण की स्थितियों में गिरावट आई  है । अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में उभरते बाजार बैंकों में ऋण की स्थिति कठिन हो गई है वहीं दूसरी तिमाही में डूबत ऋणों की संख्या में भी वृद्धि हुई   है । इन परिणामों से यह निष्कर्ष निकलता है कि आगे आने वाले समय में उभरती अर्थव्यव-स्थाआें के सामने संकट गहराएगा क्योंकि एशिया और लेटिन अमेरिका में बैंकों ने गहरी चिंता दर्शाना प्रारंभ कर दिया है, जिसकी परिणिति कमजोर ऋण व्यवस्था को जन्म दे सकती है ।
विशेष लेख
 पर्यावरण संरक्षण का बीजमंत्र
डॉ. सुनीलकुमार अग्रवाल

    जो तुम्हें पाना है उसे बोना आरंभ कर दें, यही तो बीज मंत्र है पर्यावरण संरक्षण का । आज हम जिन पेड़ों के फल खा रहे है क्या हमने इन्हें लगाया था ? यह पेड़ हमारे पुरखों द्वारा बीजारोपित किये गए, उनके द्वारा ही अभिसिचिंत किए गए और संभाले    गए । हम तो उनके प्रयास को ही प्रसाद के रूप में पा रहे हैं ।
    हमें भी अपनी संततियों के लिए सोचना चाहिए और वन - वनस्पतियों एवं जड़ी - बूटियों को बोना चाहिए । यह पेड़-पौधे ही तो हमारे जीवन का आधार हैं । आज प्राकृतिक संसाधनों के नवसृजन की आवश्यकता होती है अन्यथा प्रयोग होते होते शनै:-शनै: बड़े भण्डार और आधार भी समाप्त् हो जाते है । हमारे पास तो संसाधनों के संरक्षण का बीज मंत्र  है । इस मंत्र को समझने की आवश्यकता है ।
    शरीर, बुद्धि और भावनाएं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के साथ हम सबमें ही नैसर्गिक रूप से पाई जाती है । धन तथा संसाधनों को हम अर्जित भी करते हैं । अर्थात वह स्वउपार्जित होता है तथा पूर्वजों के द्वारा पूर्व संचित धन-संसाधन भी हमें उत्तराधिकार में मिलते हैं । प्राकृतिक संसाधनों के मामले में आज हम स्वउपार्जन से विमुख हुए हैं । हम संसाधनों को उत्तराधिकार में अधिकता से पा रहे है किन्तु हम इनका मूल्य नहीं समझ पा रहे हैं । तभी तो अपने कर्तव्य से विमुख है और संसाधनों की बर्बादी कर रहे है । यदि हम पेड़ काटते रहे, वन विनाश करते रहे । किन्तु हमने नये पेड़ नहीं रोपे तो एक ऐसी रिक्तता आ जाएगी जिसकी भरपाई बहुत मुश्किल होगी । यही तो बीज मंत्र है पर्यावरण संरक्षण का कि हम संसाधनों का अंकेक्षण करें ।
    पर्यावरण के बीज मंत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमें पर्यावरण की गवेषणा करनी चाहिए । पर्यावरण की गवेषणा से आशय उन तत्वों की खोज है जो पर्यावरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है किन्तु हमने उनकी कीमत को भुला दिया है । हमने प्रकृतिके उपादानों का दमन किया है । पर्यावरण टूट रहा है ऋतुचक्र व्यतिक्रमित हुआ तथा मौसम रूठ रहा है । भौतिकता के दबाव में नित्य नई खोजें जारी हैं । सारे ही अन्वेषण एवं अनुसंधान हमें प्राकृतिक संसाधनों के प्रति और भी अधिक अनुदार बना रहे  है । हम प्रकृति के मूल तत्वोंतथा बीज मंत्र से और भी अधिक दूर जा रहे है ।
    पर्यावरण के संदर्भ में आज गंभीर चिंतन की आवश्यकता है । गवेषणात्मक संदर्शो पर दृष्टिपात जरूरी है । हमारे ऋषि मुनियों ने गंभीर चिंतन किया था । उन्होनें कठिन साधना की और समाधान दिया है । मनीषियों के अनुसार ऋषि वह होता है जो चिंतन को विस्तृत फलक दे और मुनि वह होता है जो चिंतन को गहराई देता है । हमने भौतिक तथा लौकिक दोनो ही क्षेत्रों में प्रगति की है किन्तु अपने दिव्य आर्ष ज्ञान को भुला दिया । अपनी प्राकृतिक क्षमताआें को गंवा दिया । जो कुछ हमारे पास था हमने उसे खो दिया । उसी खोये हुए की खोज गवेषणा है । बदलते समय के साथ बदलती मान्यताआें के साथ अब जो कुछ आवश्यक है उसे हम पाना चाहते है, वह अन्वेषणा है । हमें पदार्थवादी न होकर आध्यात्मवादी होकर चिंतन करना होगा तथा प्रकृति पर्यावरण को निरन्तर बनाये रखने के प्रयास करने होगे ।
    बदलते वक्त के साथ हमारी प्राथमिकताएं बदल गई है  । धन सम्पदा वैभव के मायने बदल गए हैं । पहले गो-पालन को अधिक महत्व दिया जाता    था । अश्व पालन को महत्व दिया जाता था । वन प्रांतरों की अधिकता थी । अतुलित बल वैभव था, भारत भूमि में हम गौरवान्वित होकर गाते थे - जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा वह भारत देश है मेरा । दूध दही की नदियाँ बहती थी । अब पानी भी अपेय होता जा रहा है । सम्पूर्ण ऐश्वर्य का साधन सुलभ होेने पर भी हमने तहे दिल से स्वीकारा - गो धन गजधन बाजिधन और रतन धन खान, जब आवे संतोष धन सब धन धूरि  समान । आज चहुँ और असंतोष व्याप्त् है । ऐषणाआें में जी रहे है हम सभी । अत: ऐषणा ऐसी हो जो गाहृय हो । हमें गर्हित को तुरन्त अस्वीकारना चाहिए ।
    हमारे पास जो कुछ भी है उसे जगत नियंता को सौंप दें अर्थात आत्मवत सर्व भूतेषु का संज्ञान लेते हुए अपने साथ सबकी चिंता करें । व्यष्टि से समष्टिगत रहते हुए समर्पण का विधायी भाव रखें । प्रकृतिएवं पर्यावरण का चिंतन करें । कर्मशील बनें । यदि हम कुआँनहीं खोदेगे तो पानी नहीं    मिलेगा । कुआँभी खोदे और भूजल के पुर्नभरण - पुर्नसंचय को भी करते     रहे । धरती में जो पानी हमारे पुरखों के प्रयत्नों से सहेजा गया उसे भी तो हमें सुरक्षित रखना है । बूँद-बूँद पानी बचायेगे तभी तो घड़ा भरेगा । यही बीजमंत्र है जल संरक्षण का ।
    खेत-खलिहानों में हम कीटों, परिंदो से खाघान्न की रक्षा के उपाय करते हैं । किन्तु क्या हमने यह विचार किया है कि यह जीव जन्तु भी पर्यावरण के परितंत्रो का हिस्सा है और इनकी जीवनी जुडी है । रब की चिड़ियाँ रब के खेत, ईश्वर ने यह संसार रचा है । पेट दिये है तो उसे भरने का इंतजाम भी भरपूर किया है । हर जीव जन्तु का प्रकृति के संरक्षण संवर्धन में योगदान है । अत: हमें चींटी से लेकर हाथी तक, और यहाँ तक कि नेत्रों से अदृश्य रहने वाले सूक्ष्म जीवों की भी चिंता करनी चाहिए ।     यही बीज मंत्र है जैव विविधता के संरक्षण का ।
    पर्यावरण पारायण होना अर्थात पर्यावरण के संरक्षण के प्रति सजग होना आज की महती आवश्यकता है । पर्यावरण का पारायण ही हमेंपर्यावरण के प्रति विधायी बना सकता है । पर्यावरण के प्रति चैतन्य रख सकता   है । चेतना से ही संस्कार आते है । हम पर्यावरण से जुड़े और उसके मर्म को समझे । किसी भी विषय वस्तु को पढ़ना, गुनना, गुजरना और अमल करना ही पारायणता हे । अमलता तभी आती है जब हम निर्मल- निरामय हो । दरअसल पारायण शब्द में दार्शनिक भाव है जिसमें अस्तित्व के गुंफन का संकेत है ।
    पारायण शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है पार और अयन । संस्कृत में पार: या पारम का अर्थ होता है दूसरा किनारा । अयन का अर्थ होता है रास्ता या मार्ग । यदि हम सही रास्ते पर चलते है तो मंजिल को पा लेते है । गंतव्य को पा लेते है, गंतव्य में ही मंतव्य है और उद्देश्य है । हमारा उद्देश्य हैं पर्यावरण को संरक्षित संवर्धित करना । पर्यावरण की समझ को इतना विस्तृत फलक देना, और विस्तार देना कि हम पर्यावरण के विनाश की आहट को सुन सके, और दूरगॉमी परिणाम को समझ सके । हमारी दृष्टि व्यापक हो तथा हमेंकार्यविधि का भी संज्ञान हो ।
    पर्यावरण परायण होने के लिए जरूरी है कि हम पर्यावरण विज्ञान और अध्यात्म के संतुलन को समझें । हमारा अतीत इस बात का साक्षी है कि आदिम से आधुनिक होते हुए हमने विराट प्रकृति के शाश्वत सौन्दर्य से तादात्य स्थापित किया है । अर्न्तज्ञान द्वारा ध्यान किया  है । पर्यावरण विमर्श द्वारा अब हमारे अन्त:करण में वैज्ञानिक दृष्टिबोध भी विकसित हो तथा हम अपनी संस्कृति एवं सभ्यता से भी जुड़े रहें । हमारी सोच तथ्यात्मक जो तार्किकता के साथ भावपूर्ण भी हो । हम प्रकृति के प्रति संवेदी हो और सत्य को समझें । यदि हम ऐसा भाव विकसित कर सके तो हम निश्चित रूप से पर्यावरण पारायणी हो सकेगे तथा विमर्श के बीज भी सुरक्षित रख सकेंगे । हमें अपने आसपास प्रतिदिन घटित स्थितियों पर पैनी दृष्टि रखनी होगी । उदाहरणार्थ हम जल की कमी से जूझ रहे है किन्तु पानी को सहेजने के प्रति गंभीर नहीं है ।
    हमारी जीवन शैली में दो बातें महत्वपूर्ण हैं । एक परम्परा जिसमें आस्था-विश्वास रहता है, दूसरी हमारी वैज्ञानिक सोच जिसमें विकास रहता     है । सभ्यताआें की भी अपनी वैज्ञानिक परम्परा भी होती है । अब तो हमारे पास वैधानिक वर्जनाएं भी हैं । जनसंचार माध्यमों का विकास हुआ है । किन्तु हम विकास एवं विनाश की सही विभाजक रेखा का निर्धारण नहीं कर पा रहे है और यही वर्तमान विद्रूप का कारण है । हमें वैज्ञानिक आधारगत प्रगतिपूर्ण सोच तथा आस्था विश्वास में सामंजस्य बनाना है । बौद्धिकता तथा नैतिकता से तालमेल साधना है । पर्यावरण के प्रति एक सकारात्मक सेाच विकसित करनी है । वैज्ञानिक आविष्कारों एवं उपलब्धियों का पर्यावरण संरक्षण में उपयोग करना है तथा विनाशक शक्तियों का विरोध करना है । यही बीज मंत्र है पर्यावरण विमर्श का ।
    पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रकृतिदत्त उपहारों की त्याग के साथ ग्रहण करने का बीज मंत्र सहेजना होगा । हमें यह बात दिल और दिमाग से स्वीकारनी होगी कि हम जो कुछ भी संसार को देते है वह हमें कभी न कभी अपने जीवन में प्रतिदान में अवश्य मिलता है । समर्पण, सेवा और त्याग से हमारे व्यक्तित्व में विराटता आती है और हम विस्तारमना तथा महामना होते हैं । संकुचनहमारे अंदर स्वार्थ लाता है । स्वार्थी व्यक्ति सहृदयी नहीं हो पाता है । वह समाज से असंयुक्त हो जाता है । तब वह अपनी परछाईयों से लड़ता हुआ ही हार जाता  है । और हमेशा काल्पनिक शत्रुआें से स्वयं को घिरा हुआ पाता है । अत: पर्यावरण संरक्षण के लिए आत्मानुशासन जरूरी है ।
    पर्यावरण की अर्थवत्ता अब व्यापक विस्तार पा चुकी है । ब्रह्मांड से देहांड तक पर्यावरणीय चिंतन एवं विमर्श से बहुत सी बातें सामने आ रही है । बहुत सी अबूझ पहेलियां खुल रही है । हम पर्यावरण संरक्षण के उन बीजों को खोजना है जिनको दरख्तों को हम सहेज न सके । तार्किकता, वैज्ञानिकता, आध्यामिकता की खाद पाकर बीजों का अंकुरण होगा, जिससे नव-सृजन का मुकुलन होगा ।

   
ऊर्जा जगत
जापान : परमाणु ऊर्जा से छुटकारा
अरनब प्रतिम दत्ता

    जापान परमाणु ऊर्जा से छुटकारा पाने का प्रयास कर तो रहा है लेकिन यह आसान नहीं है । एक ओर वैश्विक परमाणु लाबी का दबाव एवं परमाणु अपशिष्ट के निपटान मेंआ रही समस्याएं बाधा बन रही है तो दूसरी ओर वैकल्पिक ऊर्जा के निर्माण में होने वाले निवेश की व्यवस्था भी टेड़ी खीर   है ।
    भारत जिस तेजी से परमाणु ऊर्जा की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है, उस प्रक्रिया में उसे रूककर एक बार जापान की वर्तमान स्थिति पर विचार करना चाहिए । दुविधा में पड़े जापान से हम सबको सबक सीखने की आवश्यकता है । दुविधा का कारण यह है कि वह अपने ५० परमाणु संयंत्र को चलाए रखे या विशिष्ट समय सीमा में इनसे छुटकारा पाए ? फुकुशिमा विध्वंस के बाद इससे संबंधित मतों में तीव्र अंतर नजर आ रहा है । जापान की सरकार द्वारा परमाणु ऊर्जा पर देश की निर्भरता कम करने के नवीनतम प्रयासों से और अधिक भ्रम पैदा हो गया है । जापान वर्तमान में अपनी विद्युत का ३० प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से प्राप्त् करता है, ऐसे में इससे निजात पाना और अधिक कठिन हो जाता है ।
    पिछले दिनों जापान द्वारा जारी क्रांतिकारी ऊर्जा एवं पर्यावरण नीति में सन् २०४० तक परमाणु ऊर्जा से छुटकारा पाने की बात कही गई है । इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि नए परमाणु संयंत्रों का निर्माण नहीं किया जाएगा, ऊर्जा संयंत्रों की आयु को ४० वर्ष तक सीमित करना एवं इनके लायसेंस का किसी भी सूरत में नवीनीकरण न किया जाना और केवलउन्हीं को अनुमति देना, जो कि सुरक्षित प्रतीत हो रहे है, शामिल हैं । लेकिन पांच दिन बाद ही जापानी मंत्रीमण्डल ने इस नई नीति को स्वीकृतिदेने से इंकार कर दिया । लेकिन ठीक उसी दिन मंत्रीमण्डल के एक वरिष्ठ मंत्री ने अस्पष्ट सा वक्तव्य देते हुए कहा कि सरकार अभी भी इस नीति के आधार पर कार्य करेगी ।
    इससे यह प्रतीत हो रहा है कि सरकार दोहरी मानसिकता का शिकार हो गई है क्योंकि उसके ऊपर परमाणु ऊर्जा के समर्थक एवं विरोधी दोनोंपक्षों का दबाव पड़ रहा है । पूरी गर्मी प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर परमाणु विरोधी प्रदर्शन जारी रहे । २२ अगस्त को प्रदर्शनों के एक हफ्ते के बाद याशिहिको नोडा ने प्रदर्शनकारियोंके एक समूह से अपने कार्यालय में भेंट की, जिसे समूह ने अपनी विजय बताया । इसी बीच जापान की औद्योगिक फेडरेशन कीडारेन ने इस परमाणु कार्यक्रम को अवास्तविक एवं पहुंच से दूर बताया । लेकिन वर्तमान मेंनीतियों को लेकर चल रही ढोल पोल से कोई भी प्रसन्न नहीं है ।
    जापान के दो सर्वाधिक लोकप्रिय समाचार पत्रों में से एक आशी शिंबुन द्वारा किए गए सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि फुकुशिमा संयंत्र दुर्घटना के पश्चात् सरकार द्वारा उठाए गए सुरक्षा प्रयासों से दो तिहाई जनता संतुष्ट नहीं है । केवल एक प्रतिशत लोग ही अगस्त में उठाई गई पहल से संतुष्ट थे । रोचक तथ्य यह है कि उनमें से अधिकांश बजाए परमाणु ऊर्जा के पुन: नवीनीकृत ऊर्जा जैसे पवन एवं सौर ऊर्जा के प्रति अधिक उत्सुक थे ।
    लेकिन केवल सार्वजनिक मत ही सरकार को प्रभावित नहीं कर सकता । किसी भी निर्णय को लेने से पहले अनेक अन्य मसलों को सुलझाया जाना आवश्यक है । इसमें ऊर्जा के अन्य प्रकारों की ओर बढ़ना, विदेश नीति (अमेरिका जापान का निकटस्थ व्यापारिक साझेदार है) परमाणु अपशिष्ट का निपटान (यह अधिकांशत: फ्रांस एवं ब्रिटेन जैसे विदेशी देशों में ही होता है) कार्बन कम करने के लक्ष्य और ४५ हजार ऐसे व्यक्ति जो कि परमाणु उद्योग में रोजगार पाते हैं के भविष्य को भी इस प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाना आवश्यक है ।
    परमाणु उस बुरी लत की तरह है, जिससे छुटकारा पाना कठिन है । परमाणु संयंत्रों को बंद कर देने का अर्थ परमाणु शून्यता नहीं है । इस संबंध में जापान को उच्च् क्षमता वाले परमाणु अपशिष्ट से दो-चार होना पड़ेगा, जिसे कि भावी पीढ़ी के लिए असीमित संसाधन के रूप में देखा जा रहा था । मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जापान में ४५ टन से अधिक प्लूटोनियम का भंडार है, जिससे कि ५००० युद्धक परमाणु मिसाइलें बनाई जा सकती हैं । जापान में स्थित अधिकांश हल्के पानी रिएक्टर सह उत्पाद के रूप में इसे उत्पादित करते हैं । इसका बड़ा हिस्सा जापान एवं ब्रिटेन में रखा जाता है । लेकिन जापान द्वारा परमाणु ऊर्जा क्षेत्र से निकासी के निश्चय के पश्चात् इस बात मेंशंका है कि ये दोनों देश इस अत्यन्त जहरीले पदार्थ को अपने यहां रख पाएंगे ? मीडिया में ऐसे समाचार भी आए हैं कि शून्य परमाणु नीति की घोषणा के बाद जापान में ब्रिटेन के राजदूत सर डेविड वाटन ने मुख्य केबिनेट सचिव ओसामु फुजिमुरा से यह आश्वासन लेने के लिए मुलाकात की कि जापान उनकी धरती से परमाणु अपशिष्ट के कंटेनर वापस बुला लेगा । फ्रांस भी इसी तरह का अनुरोध करने का मन बना रहा है ।
    यदि इन्हें वापस कर दिया जाता है तो यह अपशिष्ट कहां जाएगा ? वर्तमान में जापान में ओमोरी प्रीफेक्चर के पास अस्थायी तौर पर परमाणु अपशिष्ट के भण्डारण की सुविधा मौजूद है । लेकिन ऐसा हमेशा के लिए संभव नहींहै । परमाणु के विरूद्ध बढ़ते प्रतिरोध के चलते जापान में इससे संबंधित और अधिक सुविधाआें के निर्माण की अनुमति भी संभव नजर नहीं आती ।
    जापान की दुविधा यही समाप्त् नहीं होती । सरकार का अनुमान है कि नवीनीकृत ऊर्जा एवं इसके आसपास ग्रिड के निर्माण हेतु ६२२ अरब अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता पड़ेगी और रातों रात इसकी व्यवस्था नहीं हो सकती । फुुकुशिमा परमाणु संयंत्र के बंद हो जाने के पश्चात् जापान की अमेरिका से आयात की गई गैस पर निर्भरता बहुत बढ़ गई है एवं उसके गैस आयात में २० प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है । जीवाश्म ईधन पर बढ़ती निर्भरता के चलते, भले यह अस्थायी क्यों न हो, जापान द्वारा सन् १९९२ के स्तर से कार्बन उत्सर्जन में २५ प्रतिशत की कमी कावायदा भी दूर की कौड़ी दिखाई देने लग गया है ।
    क्या जापान का परमाणु संकट कभी खत्म होगा ? परमाणु ऊर्जा के क्षय से क्या कोई सबक लिया जाएगा ? जापान की तो दोनों ही स्थिति में इस वक्त वह स्वयं को शैतान और गहरे समुद्र के बीच पाता है ।
प्रदेश चर्चा
उ.प्र.: गरीबी रेखा से बाहर होता गरीब
भारत डोगरा

    पिछले दिनों बुंदेलखंड के बांदा (उत्तरप्रदेश) में हुई जनसुनवाई में गरीबी रेखा (बीपीएल) के नीचे रहने वाले समुदाय की समस्याएं सामने आई है । बड़ी संख्या में वास्तविक गरीब बीपीएल सूची से बाहर हैं और सरकारी योजनाआें का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं । इसी के साथ बाहुबलियों और सरकारी कर्मचारियों के मध्य बना हुआ गठजोड़ भी सामने आया ।
    हाल के वर्षो में जन-सुनवाई की एक बेहद लोकतांत्रिक पद्धति विकसित हुई है, जिसमें विशेषकर उपेक्षित - वंचित समुदायों को अपनी समस्याआें को इस तरह से ऐसे परिवेश में बताने का अवसर मिलता है, जिसमें कि उनकी समाधान की संभावनाएं अपेक्षाकृत बढ़ जाती है । ऐसी जन-सुनवाईयों में प्रयास यह किया जाता है कि एक स्थान पर संबंधित अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों, क्षेत्र के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों व मीडिया की उपस्थिति में आम लोगों, विशेषकर निर्धन व उपेक्षित समुदायों के सदस्यों को अपनी समस्याआें व कठिनाईयों के बारे में बताने का उचित अवसर मिले । साथ ही इस बारे में संबंधित अधिकारियों को या जन-प्रतिनिधियों को क्या कहना है या क्या आश्वासन देना है, यह इस जन-सुनवाई के दौरान स्पष्ट हो जाता है ।
    जन-सुनवाइयों की इन लोकतांत्रिक संभावनाआें को ध्यान में रखते हुए बांदा जिले के नरैनी ब्लाक (उत्तरप्रदेश) में कार्यरत संस्था विघाधाम समिति ने ३० सितम्बर २०१२ को जिला परिषद सभागार में अपने कार्यक्षेत्र के ग्रामीणों की विविध गंभीर समस्याआें पर एक जन-सुनवाई का आयोजन किया । दूर-दूर के गांवों से बड़े समूह में पहुंचने की अनेक कठिनाईयों के बावजूद इस जन-सुनवाई के लिए बड़ी संख्या में लोग एकत्र हुए ।
    इस जन-सुनवाई का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा कि इसमें भूमि-वितरण के उन तथाकथित लाभार्थियों की अंतहीन समस्याआें की ओर ध्यान दिलाया गया, जिसके नाम पर भूमि का आवंटन कागजी कार्यवाही के तौर पर तो हो चुका है पर जो अनेक वर्षोके प्रयास से भी इस भूमि पर कब्जा प्राप्त् कर इसे जोत नहीं सके हैं । ऐसे ही दलित परिवारों एक समूह सियारपाखा गांव से इस जन-सुनवाई में पहुंचा ।
    इन निर्धन गांववासियों ने बताया कि सियारपाखा के एक दर्जन से अधिक दलित परिवारों की भूमि पर दबंगों के कब्जेहै । जन-सुनवाई में उपस्थित व्यक्ति उस समय स्तब्ध रह गए जब दलित समूह के इन वंचितों ने बताया कि लगभग ३० वर्ष पहले यह पट्टे दिए गए थे व तब से अब तक के अथक प्रयासों के बावजूद वे भूमि पर कब्जा कर खेती नहीं कर सके हैं । तहसीलदार कहते हैं कि लेखापाल से भूमि नपवालो व लेखापाल दूर से भूमि की ओर इशारा कर देते हैं पर जब दलित परिवार अपने खेत पर पहुंचते हैं तो उन्हें दबंग खदेड़ देते हैं । सियारपाखा (मजरा गुढा कला) के श्यामलदास जब अपने खेत पर गए तो दबंगों ने उन्हें लाठियों से मारा और कहा कि फिर यहां आए तो हाथ - पैर तोड़ देंगे ।
    जन-सुनवाई में सरकारी धन के दुरूपयोग और जरूरतमंद किसानों को सिंचाई से वंचित रखने का उदाहरण नौगांव गांव में प्रस्तुत हुआ । इस गांव के खेतों की सिंचाई के लिए नहर की लंबाई बढ़ाना बहुत जरूरी था और मनरेगा के तहत यह २ कि.मी. लंबी नहर का कार्य स्वीकृत भी हो गया, पर भ्रष्टाचार के कारण नहर के स्थान पर एक नालीनुमा निर्माण ही जल्दबाजी में किया गया व उसमें भी ढलान के स्थान पर ऊंचाई है । इस जल्दबाजी के अधूरे व अनुचित निर्माण के कारण किसानों को पानी तो एक बंूद नहीं मिला पर उनके ढेर सारी जमीन जरूर छिन गई । उनकी मांग है कि या तो नहर को शीघ्र ठीक किया जाय या उनकी जमीन क्षतिपूर्ति के मुआवजे सहित वापस की जाए ।
    जन-सुनवाई से एक बड़ा मुद्दा यह उभरा कि जो बीपीएल कार्ड, वृद्धावस्था पेंशन व विकलांग पेयजल आदि के वास्तविक हकदार जरूरतमंद हैं, उन तक इसका लाभ नहीं पहुंच रहा है । पप्पू यादव गुढ़ाकला गांव का ऐसा युवा है, जो बचपन से घोर गरीबी में ही पला है । प्रवासी मजदूर के रूप में कार्य करते हुए उसे टी.बी. हो गई । इलाज के लिए २६ हजार रूपए ५ प्रतिशत महीने की दर से कर्ज लेना पड़ा । अब उसका दो वर्षीय बेटा व पत्नी भी बीमार रहने लगे हैं । इतनी विकट परिस्थितियों में फंसेपरिवार के पास भी बीपीएल राशनकार्ड नहीं है ।
    मुन्नी बरकोला गांव में रहती है व पेट की गंभीर बीमारी से पीड़ित है । उसके पति परदेशी एक भूस्वामी के स्थाई मजदूर या हलवाहा है व उन्हीं से ४० हजार रूपए के कर्ज में फंसे हैं, जिसके कारण अपने परिवार के लिए कोई समय नहींनिकाल पाते है । निर्धनता के कारण बेटी की पढ़ाई हाल ही में छूट गई । इतनी गंभीर गरीबी, स्वास्थ्य समस्याएं व कर्ज झेल रहे परिवार को भी बीपीएल कार्ड नहीं   मिला ।
    सावित्री एक विधवा महिला है, जिसके तीनों बेटे निर्धनता के कारण प्रवासी मजदूरों के रूप में पलायन कर चुके हैं । अब सावित्री की यह स्थिति है कि कहीं से बचा-खुचा भोजन मिल जाए तो उसी पर जी रही है । इतनी निर्धन महिला को भी बीपीएल कार्ड नहीं मिला है ।
    बसराही गांव की ७० वर्षीय हिरिया के पति गंभीर रूप से बीमार हैं व उसकी अपनी परंपरागत आजीविका छिन चुकी है । पहले गांव में प्रसव करवाती थी पर आशा-बहुआें की नियुक्ति के बाद उसका यह कार्य समािप्त् के कगार पर   है । हिरिया को कई भार भूखे सोना पड़ता है पर उसे बीपीएल कार्ड नहीं मिला है ।
    मुकेरा गांव के निवासी श्रीपाल का हाथ आठ वर्ष पहले थ्रेशर से कट गया था । तब से इस कर्मठ किसान के लिए जीविकोपार्जन बहुत कठिन हो गया । इतना ही नहीं, उनके बेटे का हाथ भी दुर्घटना में टूट गया व पत्नी बीमार रहती है । इसके बावजूद उन्हें अभी तक विकलांग पेंशन का लाभ नहीं मिला है ।
    भांवरपुर निवासी पीरखान १० वर्षो से गंभीर बीमारी को झेल रहे हैं जबकि उनकी पत्नी विकलांग है । परिवार में पहले भी टीबी से मौंतें हो चुकी हैं । इस परिवार का जीविकोपार्जन व इलाज बहुत कठिन है फिर भी किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल रहा है ।
    इस तरह के अनेक उदाहरण इस जन-सुनवाई में सामने आए, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि बीपीएल कार्ड, विकलांग पेंशन व अन्य सरकारी योजनाआें का लाभ प्राय: सबसे जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच रहा है । इस संदर्भ में संसद सदस्य आर.के. पटेल ने जोर देकर कहा कि बीपीएल के अन्तर्गत उचित पात्रों का चयन होना बहुत जरूरी है क्योंकि एक बार उचित पात्रों का चुनाव नहीं होता है तो फिर उन तक विभिन्न योजनाआें का लाभ नहीं पहुंच पाता है । अत: आर्थिक सामाजिक गणना में उचित पात्रों का चयन हो सके इस ओर विशेष ध्यान देना जरूरी है । विद्याधाम समिति के समन्वयक राजा भैया ने इसका समर्थन करते हुए आगे यह भी बताया कि जब उन्होनें बीपीएल कार्डो का अध्ययन किया था तो पता चला कि सबसे जरूरतमंद अनेक परिवारों को बीपीएल की सूची में नहीं रखा गया है । जबकि कई खाते-पीते समृद्ध परिवारों को इस सूची में जगह मिल गई है ।
पर्यावरण परिक्रमा
गांधीजी को राष्ट्रपिता की उपाधि नहीं
    महात्मा गांधी को सरकार की तरफ से राष्ट्रपिता की उपाधि नहीं दी जा सकती, क्योंकि संविधान सेना व शिक्षा से जुड़ी उपाधि के अलावा कोई भी खिताब देने की इजाजत नहीं देता हैं । गृह मंत्रालय ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत पूछे गए एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी ।
    लखनऊ की सातवीं कक्षा की छात्रा ऐश्वर्या पाराशर द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में मंत्रालय ने बताया कि गांधीजी को राष्ट्रपिता घोषित करने के संबंध मेंउसकी अपील पर कोई कार्यवाही नहीं की गई है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद १८(१) इसकी इजाजत नहीं देता । इस अनुच्छेद के अनुसार शैक्षणिक व सैन्य उपाधि के अलावा अन्य कोई उपाधि नहीं दी जा सकती है । ऐश्वर्या ने महात्मा गांधी के संबंध में जानकारी के लिए कई आरटीआई याचिकाएं दाखिल की है । उसने गांधीजी को राष्ट्रपिता कहे जाने की वजह भी जानना चाही थी । इसके जवाब में बताया गया था कि गांधीजी को ऐसी कोई उपाधि नहीं दी गई है । इस पर ऐश्वर्या ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर गांधीजी को राष्ट्रपिता घोषित करने के संबंध में अधिसूचना जारी करने का आग्रह किया था । ऐश्वर्या ने यह जानने के लिए भी आरटीआई याचिका दाखिल की कि उसके आग्रह पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने क्या कार्यवाही की ? उसकी अर्जीगृह मंत्रालय के पास भेज दी गई । जवाब में मंत्रालय ने गांधीजी को राष्ट्रपिता का खिताब न दिए जाने की यह वजह बताई है ।
    इतिहास के अनुसार गांधीजी को राष्ट्रपिता की उपाधि सबसे पहले नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने ०६ जुलाई १९४४ को सिंगापुर रेडियो पर अपने संबोधन में दी थी । इसके बाद २८ अप्रैल १९७४ को सरोजिनी नायडू ने एक सम्मेलन में उन्हें यही उपाधि   दी थी ।
देश में ६८ फीसदी दूध मिलावटी
    केन्द्र सरकार ने देश में बिक रहे दूध में बड़े पैमाने पर मिलावट की पुष्टि की है । सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में कहा है कि देश भर में की गई दूध की जांच में ६८.४ फीसदी नमूने मिलावटी पाए गए है । दूध में पानी की मिलावट आम है, लेकिन कुछ मामलों में डिटजेंट की मिलावट के भी संकेत मिले हैं । फूड सेफ्टी एण्ड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया के सहायक निदेशक कमल कुमार की ओर से दाखिल हलफनामें में कहा गया है कि वह मिलावटी दूध के बारे में मीडिया में आई खबर से वाकिफ है ।
    इसीलिए अथॉरिटी ने दूध की गुणवत्ता तय करने के लिए गत वर्ष दूध की जांच का सर्वे किया था । इस सर्वे में ३३ राज्यों में शहरों और गांव से दूध के कुल १७९१ नमूने एकत्र किए गए । जांच में सिर्फ ५६५ (३१.५ फीसद) नमूने मानकों पर खरे उतरे, यानी सही पाए गए । जबकि १२२६ (६८.४ फीसद) नमूने फेल रहे, यानी मिलावटी पाए गए । मिलावटी दूध के कुल नमूनों में ३८१ (३१ फीसदी) ग्रामीण क्षेत्र के थे और ८४५ (६८.९ फीसद) शहर के थे ।  जांच मेंपता चला है कि दूध में पानी की मिलावट से न सिर्फ दूध की पोषक क्षमता घटती है बल्कि मिलावट के लिए दूषित पानी के इस्तेमाल से सेहत की भी खतरा होता है । इसका जिक्र नहीं था जबकि पैकेट पर इसका जिक्र जरूरी है क्योंकि इसके मानक अलग है । सरकार ने बताया है कि जांच मेंकुछ मामलों में डिटजेंट पाउडर की मिलावट के संकेत मिले हैं । डिटजेंट की मिलावट वाला दूध पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । उत्तरप्रदेश का ब्योरा देते हुए कहा गया है कि यहां से जांच के लिए कुल १३६ नमूने लिए गए थे जिनमें सिर्फ १७ नमूने मानकोंपर खरे उतरे बाकी के ८८ फीसदी नमूने मिलावटी पाए गए ?
    ज्यादातार मामलों में ग्लूकोज और मिल्क पाउडर की मिलावट थी । मानकों पर खरा न उतरने का मुख्य कारण दूध में पानी की मिलावट होना था । सरकार ने कहा है कि अध्ययन के नतीजे सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में खाद्य सुरक्षा आयुक्तों को भेज दिए गए हैं । उन्हें सलाह दी गई है कि वे दूध की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए  कदम उठाएं और कानून के मुताबिक कार्यवाही करें । केन्द्र सरकार ने मिलावटी दूध का मुद्दा उठाने वाली स्वामी अच्युतानंद तीर्थ की  याचिका खारिज करने की भी मांग की है ।

बेकार बोतलों से रौशन होगी झुग्गियां
    देशभर में नयी-नयी खोजों को बढ़ावा देने वाले विज्ञान भारती ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है, जिससे खाली और बेकार पड़ी प्लास्टिक की बोतलों में पानी भरकर बिना किसी खर्च के देश के विभिन्न महानगरों की चौड़ी-चौड़ी सड़कों के किनारे बनी करोड़ों अंधेरी झुग्गियों को रोशन करने में सहायता मिलेगी ।
    विज्ञान भारती ने राष्ट्रीय पर्यावरण एवं  ऊर्जा विकास अभियान (एनईईडीएम) की सहायता से सूरज और सड़कों के किनारे खड़े खंभो पर लगे हैलोजन के प्रकाश का इस्तेमाल कर झुग्गियोंको बिल्कुल मुफ्त में रौशन करने के इंडोनेशियाई फार्मूले को विकसित किया है । जालंधर के लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी तीसरे अखिल भारतीय विज्ञान सम्मेलन एवं प्रदर्शनी में इस पूरी प्रक्रिया को दिखाया गया   है । विश्वविद्यालय परिसर में अंधेरी झुग्गी की एक डमी बनायी गयी है । इसमें प्लास्टिक की खाली बोतलों में पानी भरकर उसे प्रकाशित किया गया है । प्रदर्शनी में आकर्षण का केन्द्र बनी इस झुग्गी को देखने के लिए पंजाब भर से लोग आ रहे हैं । इस तकनीक को विकसित करने वाले विज्ञान भारती के राष्ट्रीय समन्वयक अमित कुलकर्णी ने बताया कि आमतौर पर झुग्गियोंमें खिड़कियां नहीं होती । उसमंे रहने वाले लोगों के लिए रात और दिन में कोई फर्क नहीं होता है । हमने पानी भरी प्लास्टिक की बोतल को छत में छेद कर ऐसे लटकाया जिससे उसका आधा हिस्सा ऊपर की ओर और आधा हिस्सा अंदर की ओर हो ।
    श्री कुलकर्णी ने कहा  इस प्रक्रिया  मेंबोतल में भरा पानी सूरज के प्रकाश को रिफलेक्ट कर कमरे को पूरी तरह रौशन करता है । डमी झुग्गी के अंदर इस प्रक्रिया से इतनी रोशनी है कि आप किताब भी पढ़ सकते है । रात में सड़कों के किनारे खंभों में लगे हैलोजन के प्रकाश को भी यह प्रतिबिंबित करता है और घर में काम करने के लिए जितनी रोशनी चाहिए उतनी इससे मिलती है । यह पूछने पर कि बरसात के दिनों में या सूर्यास्त के बाद रोशनी कैसे आएगी, कुलकर्णी ने कहा, बरसात के दिनों में भी दिन के वक्त प्रकाश तो होता है यह उसे प्रतिबिंबित करेगा । रही बात शाम के वक्त तो झुग्गी जंगलों या सुनसान स्थानों पर तो होती नहीं ।
    सड़को के किनारे खंभो पर लगे हैलोजन के प्रकाश से भी यह कमरे को रौशन करेगा । उन्होनें कहा कि मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के हबीबगंज रेलवे स्टेशन से थोड़ा हटकर बनी झुग्गियोंमें इसका प्रयोग किया गया और यह सफल रहा । हम जल्दी ही इस तरीके से देश के अन्य हिस्सों में भी झुग्गियों को रौशन करने की कोशिश करेंगे । यह पूछे जाने पर कि बोतल के पानी को बार-बार बदलना होगा, उन्होने कहा, हां, बदला जा सकता है लेकिन इसमें अगर ब्लीचिंग पाउडर और नमक मिला दिया जाए तो पानी बदलने की जरूरत नहीं होगी । इससे रोशनी भी और तेज होगी । ब्लीचिंग पाउडर पानी में काई और फफंूद बनने से रोकेगा ।
धूम्रपान ले लेगा एक अरब लोगों की जान
    आधा खरब डॉलर का तंबाकू उद्योग किसी आतंकवादी संगठन से कम नहीं है जो इस सुदी में दुनियाभर में एक अरब लोगों की जान ले लेगा ।
    विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यदि दुनियाभर के विभिन्न देशों की सरकारों ने इस दिशा में प्रभावी कदम नहीं उठाए तो एक अरब लोग केवल धूम्रपान के कारण इस दुनिया को अलविदा कर देंगे । दुनिया के इतिहास मेंं धूम्रपान को सबसे बड़ी स्वास्थ्य आपदा बताया गया है क्योंकि धूम्रपान करने वालों में से ५० फीसदी की मौत कैंसर के कारण हो जाती है ।
    चेतावनी में कहा गया है कि दुनिया के कई देशों में इस समस्या को लेकर गंभीर और कारगर कदम उठाए जाने की जरूरत है । सरकारों को इस ओर तुरन्त ध्यान देना होगा ।
कृषि जगत
कृषि वानिकी : पद्धति एक, लाभ अनेक
आर.आर. पाटीदार
    देश की जनसंख्या विस्फोटक दर से बढ़ रही है जिसके कारण कृषि योग्य भूति का क्षेत्रफल कम होता जा रहा है । इसका प्रभाव वनों पर भी पड़ रहा है । फलस्वरूप मृदा की उपजाऊ शक्ति कम होने के साथ-साथ वायुमण्डलीय तापमान भी कम हो रहा है । वर्षा की मात्रा व वर्षा के दिन भी कम होते जा रहे है ।
    वर्तमान में देश को ३० करोड़ टन से अधिक जलाऊ लकड़ी, २५ करोड़ टन खाद्यान्न, २०० टन हरे सूखे चारे और ६ करोड़ घनमीटर इमारती लकड़ी की आवश्यकता आंकी गई है । इंर्धन की कमी और जलाऊ लकड़ी का मुल्य अधिक होने के  कारण प्रतिवर्ष ५०० करोड़ मीट्रिक टन गोबर को उपलों के रूप में जलाया जाता है । यदि इस गोबर को खाद के रूप में उपयोग किया जाए तो मिट्टी में उपयोगी जीवांश पदार्थ की वृद्धि हो जाएगी । भारत में कुल १२.१५ प्रतिशत भाग में वन है जबकि इस सम्बन्ध में हमारा लक्ष्य ३३.३ प्रतिशत है । विश्व में प्रति व्यक्ति औसतन १.६ हैक्टेयर वन क्षेत्र है । इसकी तुलना में भारत में यह प्रति व्यक्ति ०.०९ हैक्टेयर ही है । अत: देश में वनों का विस्तार नितांत आवश्यक है ।
    आज की बढ़ती हुई मानव एवं पशु संख्या  को इंर्धन, इमारती लकड़ी, चारा, खाद्यान्न, फल, दुध, सब्जी इत्यादि की आपूर्ति के लिये घोर संकट का सामानाकरना पड़ रहा है । ऐसी परिस्थितियों में कृषि वानिकी ही एक ऐसी पद्धति है, जो उपर्युक्त समस्याआें का समाधान करने में सक्षम है ।
    कृषि वानिकी क्या है ?
    कृषि वानिकी मृदा-प्रबन्धन की एक ऐसी पद्धति है जिसके अन्तर्गत एक ही भूखण्ड पर कृषि फसलें एवं बहुउद्देश्यीय वृक्षों/झाड़ियों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन व्यवसाय को लगातार या क्रमबद्ध विधि से संरक्षित किया जाता है और इससे भूमि की उपजाऊ शक्ति मेंवृद्धि की जा सकतीहै ।
    कृषि वानिकी पद्धति अपनाने के पीछे जो मुद्दे हैं उनमें प्रमुख      है :-
    (१) ईधन एवं इमारती लकड़ी की आपूर्ति करना । (२) कृषि उत्पादनों को सुनिश्चित करना एवं खाघान्न में  वृद्धि । (३) मृदा क्षरण पर नियंत्रण । (४) भूमि में सुधार । (५) बीहड़ भूमि का सुधार करना । (६) फलों एवं सब्जियों का उत्पादन बढ़ाना । (७) जलवायु, पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण सुरक्षा प्रदान करना । (८) कुटीर उद्योगों हेतु अधिक साधन एवं रोजगार प्रदान करना । (९) जलाऊ लकड़ी की आपूर्ति करके, गोबर का इंर्धन के रूप में उपयोग करने से रोकना और इसे खाद के रूप में उपयोग करना । (१०) कृषि यंत्रों हेतु लकड़ी उपलब्ध कराना ।
    कृषि वानिकी की प्रचलित पद्धतियां :-
    कृषि वानिकी में अनेक पद्धतियां प्रचलित हैं, जिनका उल्लेख यहां किया गया है :-
कृषि उद्यानिकी पद्धति:- आर्थिक दृष्टि एवं पर्यावरण दृष्टि से यह सबसे महत्वपूर्ण एवं लाभकारी पद्धति है । इस पद्धति के अन्तर्गत शुष्क भूमि मेंअनार, अमरूद, बेर, किन्नू, कागजी नींबू, मौसमी, शरीफा ६-६ मीटर की दूरी ओर आम, आंवला, जामुन, बेल को ८-१० मीटर की दूरी पर लगाकर उनके बीच में बैंगन, टमाटर, भिण्डी, फूलगोभी, तोरई, लौकी, सीताफल, करेला आदि सब्जियां और धनिया, मिर्च, अदरक, हल्दी, जीरा, सौंफ, अजवाइन आदि मसालों की फसलें सुगमता से ली जा सकती हैं । इससे कृषकों को फल के साथ-साथ अन्य फसलों से भी उत्पादन मिल जाता है, जिससे कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा । साथ ही फल वृक्षों की काट-छांट से जलाऊ लकड़ी और पत्तियों द्वारा चारा भी उपलब्ध हो जाता है ।
    कृषि-वन पद्धति:- इस पद्धति में बहुउद्देश्यीय वृक्ष जैसे शीशम, सागौन, नीम, देशी बबूल, यूकेलिप्टस के साथ-साथ रिक्त स्थान में खरीफ में संकर ज्वार, संकर बाजरा, अरहर, मूंग, उरद, लोबिया तथा रबी में गेहूूँ, चना, सरसों और अलसी की खेती की जा सकती    है । इस पद्धति के अपनाने से इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, खाद्यान्न, दालें व तिलहनों की प्रािप्त् होती है । पशुआें को चारा भी उपलब्ध होता है ।
    उद्यान-चारा पद्धति:- यह पद्धति उन स्थानों के लिये अत्यन्त उपयोगी है जहां सिंचाई के साधन उपलब्ध न हों और श्रमिकों की समस्या भी हो । इस पद्धति में भूमि में कठोर प्रवृत्ति के वृक्ष, जैसे-बेर, बेल, अमरूद, जामुन, शरीफा, आंवला इत्यादि उगाकर वृक्षोंके बीच में घांस जैसे-अंजन, हाथी घांस, मार्बल के साथ-साथ दलहनी चारे जैसे स्टाइलो, क्लाइटोरिया इत्यादि लगाते हैं । इस पद्धति से फल एवं घांस भी प्राप्त् होती है औश्र साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है । इसके अतिरिक्त भूमि एवं जल संरक्षण भी होता है । भूमि में कार्बनिक पदार्थोंा की वृद्धि भी होती है ।
    वन-चरागाह पद्धति:- इस पद्धति में बहुउद्देश्यीय वृक्ष जैस-अगस्ती, खेजड़ी, सिरस, अरू, नीम, बकाइन इत्यादि की पंक्तियों के बीच में घांस जैसे- अंजन घास, मार्बल और दलहनी चारा फसलें जैसे-स्टाइलो और क्लाइटोरिया को उगाते हें । इस पद्धति में पथरीली/बंजर व अनुपयोगी भूमि से इंर्धन, चारा, इमारती लकड़ी प्राप्त् होती है । इस पद्धति के अन्य लाभ है :- भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि, भूमि एवं जल संरक्षण, बंजर भूमि का सुधार तथा गर्मियों में पशुआें को हरा चारा उपलब्ध होता है जिससे दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है ।
    कृषि-वन-चरागाह:- यह पद्धति भी बंजर भूमि के लिये उपयुक्त   है । इनमें बहुउद्देश्यीय  वृक्ष जैसे सिरस, रामकाटी, केजुएरीना, बकाइन, शीशम, देसी बबूल इत्यादि के साथ खरीफ में तिल, मूंगफली, ज्वार, बाजरा, मूंग, उड़द, लोबिया और बीच-बीच में सूबबूल की झाड़ियां लगा देते है, जिनसे चारा प्राप्त् होता है और जब बहुउद्देश्यीय वृक्ष बड़े हो जाते हैं, तो फसलों के स्थान पर वृक्षों के बीच में घास एवं दलहनी चारे वाली फसलों का मिश्रण लगाते हैं । इस प्रकार इस पद्धति से चारा, इंर्धन/इमारती लकड़ी व खाद्यान्न की प्रािप्त् होती है ओर बंजर भूमि भी कृषि योग्य हो जाती है ।
    कृषि-उद्यानिकी-चरागाह:- इस पद्धति में आंवला, अमरूद, शरीफा, बेल, बेर के साथ-साथ घास एवं दलहनी फसलेंे जैसे-मूंगफली, मूंग, उड़द, लोबिया, ग्वार इत्यादि को उगाया जाता है । इस पद्धति से फल, चारा, दाल इत्यादि की प्रािप्त् होती है, साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति में भी वृद्धि हो जाती है ।
    कृषि-वन-उद्यानिकी पद्धति:-   यह एक उपयोगी पद्धति है, क्योंकि इसमें मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार के बहुउद्देश्यीय वृक्ष उगाते हैं और उनके बीच में उपलब्ध भूमि पर फल वृक्षों के साथ-साथ फसलें भी उगाते हैं । इस पद्धति से खाद्यान्न, चारा और फल भी प्राप्त् होते हैं ।
    मेड़ों पर वृक्षारोपण:- इस पद्धति ने खेतों के चारों ओर निर्मित मेड़ों पर करौंदा, फालसा, जामुन, नीम, सहजन, रामकाटी, करघई इत्यादि की अतिरिक्त उपज प्राप्त् की जा सकती है । साथ ही चारा, इंर्धन/इमारती लकड़ी   भी प्राप्त् होती हैं और भूमि सरंक्षण भी होता है ।
    कृषि वानिकी के लाभ:-
(१)    कृषि वानिकी को सुनिश्चित कर खाद्यान्न को बढ़ाया जा सकता है ।
(२)    बहुउद्देश्यीय वृक्षों से इंर्धन, चारा व फलियां, इमारती लकड़ी, रेशा, गोंद, खाद आदि प्राप्त् होते हैं ।
(३)    कृषि वानिकी के द्वारा भूमि कटाव की रोकथाम की जा सकती है और भू एवं जल संरक्षण कर मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि कर सकते हैं ।
(४)    कृषि एवं पशुपालन आधारित कुटीर एवं मध्यम उद्योगों को बढ़ावा मिलता है ।
(५)    इस पद्धति के द्वारा इंर्धन की पूर्ति करके ५०० करोड़ मीट्रिक टन गोबर का उपयोग जैविक खाद के रूप में किया जा सकता है ।
(६)    वर्षभर गांवों में कार्य उपलब्धता होने के कारण शहरों की ओर युवकों का पलायन रोका जा सकता है ।
(७)    पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में इस पद्धति का महत्वपूर्ण योगदान है ।
(८)    कृषि वानिकी में जोखिम कम है । सूखा पड़ने पर भी बहुउद्देशीय फलों से कुछ न कुछ उपज प्राप्त् हो जाती है ।
(९)    कृषि वानिकी पद्धति से मृदा-तापमान विशेषकर ग्रीष्म ऋतु में बढ़ने से रोका जा सकता है जिससे मृदा के अंदर पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुआें को नष्ट होने से बचाया जा सकता है, जो हमारी फसलों के उत्पादन बढ़ाने में सहायक होते है ।
(१०)    बेकार पड़ी बंजर, ऊसर, बीहड़ इत्यादि अनुपयोगी भूमि पर घास, बहुउद्देशीय वृक्ष लगाकर इन्हें उपयोग में लाया जा सकता है और उनका सुधार किया जा सकता है ।
(११)    कृषि वानिकी के अन्तर्गत वृक्ष हमारी ऐसी धरोहर है, जो कि सदैव किसी न किसी रूप में हमारे आर्थिक लाभ का साधन बने रहते हैं ।
(१२)    ग्रामीण जनता की आय, रहन-सहन और खान-पान में सुधार होता  है ।
    कृषि वानिकी समय की मांग      है । अत: कृषकों के लिये इसे अपनाना नितांत आवश्यक है । खेत के पास  पड़ी बंजर, ऊसर एवं बीहड़ भूमि में कृषि वानिकी को अपनाने से केवल उनका सदुपयोग होगा साथ ही खाद्यान्न, जल, सब्जियां, चारा, खाद, गोंद आदि अनेक वस्तुएं उपलब्ध होगी । साथ ही रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी और पर्यावरण में निश्चित रूप से सुधार होगा ।
   
दिपावली पर विशेष
प्रकाश और अंधेरा
मुरलीधर वैष्णव

    `तमसो मा ज्योतिर्गमय`, अंधकार से प्रकाश की ओर चलें इस शाश्वत उक्ति के  भावार्थ को कौन नहीं जानता कि  हमें तमोगुण प्रवृति को त्याग कर सन्मार्ग रूपी प्रकाश की ओर अग्रसर होना चाहिए ।
    लेकिन रात के  सुरमइ्रर् अन्धेरे और फिर प्रात: के  प्रकाश जैसे प्रकृति के  शाश्वत क्रम में आज यदि हम तम अर्थात् अंधेरे की बात पर गौर करें तो हम पाते हैं कि हमारा जितना गहरा सम्बन्ध प्रकाश से है उससे कम गहरा सम्बंध अंधेरे से भी नहीं है ।
    प्रकाश की तो उत्पति हुई । अंधकार तो पहले से था । प्रकाश की अनुपस्थिति ही तो अंधकार है । अर्थात् जिसे उपस्थित होना होता है उससे पहले उसे उत्पन्न होना आवश्यक  है । अंधकार को उत्पत्ति और उपस्थिति से क्या लेना देना । अन्धेरा सहज और आरामप्रद है । बच्चे हो चाहे युवा या फिर वृद्ध, सभी अन्धेरे की गोद में सोना चाहते हैं । यदि आंखों पर थोड़ा सा भी प्रकाश पड़ रहा हो तो हमारी नींद में खलल पड़ने लगती है । गर्भ में भ्रूण अन्धेरी तपस्थली में ही समाधिस्थ रहता है और फिर जन्म के बाद अन्धेरे में ही वह अपनी नन्हीं नन्हीं आंखें खोलने का प्रयास करता है ।
    आप अपने बैक कक्ष में किसी व्यक्ति के  साथ बैठे है और अचानक  कुछ देर के लिए बिजली गुल हो जाती है। अन्धेरा हो जाता है और आप आराम से अपने चेहरे और स्नायुतंत्र को शिथिल कर लेते है । चेहरे की मुद्रा भी ढीली सी कर सकते हैं । क्यों कि  आप आश्वस्त है कि अन्धेरा होने से कोई भी आपको देख नहीं पा रहा है । फिर जैसे ही बिजली आती है आप अपने चेहरे व स्वयं को  सावधान कर स्मार्ट दिखने का प्रयास करते हैं । कहने का तात्पर्य यह कि  आराम की स्थिति एवं प्राकृतिक  सहजता का आनंद अंधेरे में बेहतर लिया जा सकता है ।
    अंधेरा आपको अपने आपसे रूबरू  होने का सुनहरा अवसर प्रदान करता है । एकाग्रचित होने एवं अंर्तनिरीक्षण के  लिए यह प्रकाश से अधिक  उपयुक्त है । प्रकाश में कोई वस्तु या दृश्य दिखाई देने से ध्यान बंट जाता है । लेकिन अंधेरे और एकांत में आप अपने आपसे कि से वार्तालाप कर सकतेे है, अपने आपसे बेहतर सामना कर सकते हैं । अंधेरा तासीर में बड़ा होता है । प्रकाश है तो फिर थोड़ा ताप भी होगा। चाहे सूरज की उष्मा हो या विद्युत की गरमी हो । हां, चांदनी इसका अपवाद अवश्य है ।
    अधिकतर सृजन अंधेरे में ही होता है । कृष्ण जैसे पूर्णावतार का जन्म भी कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आधी रात में कंस की अंधेरी कालकोठारी में ही हुआ था । सूरदास एवं कीट्स जैसे महाकविगण के  जीवन में अंधेरा होते हुए भी उन्होंने जो अद्भुत एवं दिव्य काव्य सृजन विद्या वह हमारे सामने      हैं । यहां तक  कि  जो चक्षुवान कवि या साहित्यकार है उन्हें भी श्रेष्ठ सृजन के लिए आंखे बंद कर अन्धेरे से ही अपने विचार, कल्पना और भावनाओं की अभिव्यक्ति को आकार लेना होता है ।
    रात अमावस्या की बहन होती है तो शुक्लपक्ष या पूर्णिमा की रात चांद की सहेली (बकौल गुलजार) हो जाती  है । अमावस की रात सितारों की क्या मजाल कि  वे गुप्प, अंधेरे को  खत्म या कम कर दें । जैसे किसी चित्र की चमक और सौन्दर्य उसके अनुकूल पृष्ठभूमि के रंग के  कारण स्पष्ट रूप से उभर आता है कि  वैसे ही प्रकाश का महत्व गहन अंधेरे को चीरने पर ही प्रकट होता है । दीपावली जैसा दीपोत्सव अमावस्या की गहन रात्रि में अधिक  प्रकाशवान लगता है ।
    अंधेरे की रानी, अमावस्या का हमारे जीवन में धार्मिक  और सामाजिक महत्व है । लक्ष्मी पूजन और विशेष-लक्ष्मी-पूजन तो अमावस्या की आधी रात में ही होता है । लक्ष्मी की ही एक रूद्र रूप काली को तो अमावस्या की रात्रि के रूप में जाना जाता है । फिर दीपावली की अमावस्या रात्रि तो अनेक तांत्रिक उपासना और सिद्धियों के  अनुष्ठान के लिए सर्वाधिक  उपयुक्त बेला बतलाई गई है । सोमवती अमस्या दान पुण्य के लिए श्रेष्ठ दिन माना गया है। भारत में श्रमिक  एवं कामगार वर्ग अमावस को ही अवकाश रखते हैं ।
    कुछ लोग अंधेरे से काफी डरते हैं-विशेषत: बच्चे और स्त्रियां । वस्तुत: अन्धेरे से डर का कोई सम्बन्ध नहीं    है । हां जहां सावधानी या दुर्घटना टालने के  लिए प्रकाश आवश्यक है वहां बात और है । मद्धिम रोशनी में सड़क  पर पड़े रस्सी के  टुकड़े को यदि हम सांप समझ कर डर जाते हैं तब दोष अंधेरे का नहीं, हमारी दृष्टि विभ्रम का है । रात में किसी पेड़ के  पत्तों के बीच अटके पतंग की फड़फड़ाहट सुन उसे कोई भूत की आवाज समझ लें तो इसमें बिचारे अन्धेरे का क्या दोष ?
    यह सही है कि दुनिया में अधिकतर अपराध अंधेरे में ही किये  जाते है जिससे कि अपराधी अन्धेरे का लाभ उठाकर भाग जाये या पहचाना नहीं जा सके । लेकिन अपराध तो दिन दहाड़े  भी खूब होते हैं । करोड़ों की धोखाधड़ी और साइबर अपराध तो प्राय: दिन मेें ही होते हैं ।
    अन्धकार से हम नैराश्य का सम्बन्ध भी जोड़ लेते हैं । किसी को मधु मेह की अधिकता, स्पोंडलाइटिस या मस्तिष्क  के  स्नायू तंत्र की किसी कमजोरी वश अचानक  चक्कर आ जाता है तो वह कहता है कि आंखों के आगे अंधेरा छा गया । इसी प्रकार किसी निकट सम्बन्धी या मित्र की दुर्घटना में मृत्यु का समाचार आपको अचानक  मिले तो सदमे के  कारण कुछ देर के  लिए आपको कुछ भी दिखाई नहीं देता और वहीं चक्कर की स्थिति बन जाती    है । आंखों के आगे अन्धेरा सा लगता    है । लेकिन वास्तव में यह अन्धेरा बाहर नहीं होता । नैराश्य और सदमे के  कारण मन इतना दुखी व हताश हो जाता है कि आंखें क ो होते हुए भी प्रकाश को देख नहीं पाती है । अब इसमें बिचारे बाहरी अंधेरे का क्या दोष ।
    यदि हमारी जीवन शैली अकर्म (आसक्ति रहित) एवं सम्यक प्रवृति की है तब अवश्य ही हमारा मन इतना दृढ हो सकत्ता है कि  नैराश्य के पास फटकने ही न दे और रही बात सदमे की तो उसे तो वह वैसे ही जज्ब कर सकता है जैसे एक मजबूत शोकर्स वाली कार  झटकों को जज्ब करती है । एक  पौराणिक  प्रसंग के  अनुसार एक बार अंधकार के  नेतृत्व में राग (आसक्ति), मुग्धता, चंचलता, कुटिलता, कनिता, क्षीणता एवं मंदगति जैसे दोष एकत्रित होकर ब्रह्माजी के  पास गये और बोले कि  हमें लोग दुर्गुण मान कर पास नहीं फटकने देते । हे विधाता, हमें भी आपने ही बनाया है । हमारी भी तो कोई शरण स्थली होनी चाहिये । आखिर हम कहां जाए ?
    इस पर ब्रह्माजी ने अंधकार को  सलाह दी कि  तुम अपने इन साथियों के साथ श्री राधारानी की शरण में जाओ और उनसे प्रार्थना करो । श्री राधे ही तुम्हारा कल्याण कर तुम्हारी शरण स्थली की व्यवस्था कर सकती है । इस पर वे सभी श्री राधे के पास गये और उनसे अनुनय विनय की ।
    श्री राधे ने अन्धकार एवं उसके  साथियों की पुकार सुन कर सभी को  अपनी देह एवं व्यक्तित्व में इस प्रकार से शरण दी कि गहन अन्धकार के  काले पन को उन्होंने अपने सुंदर लम्बे केशों में धारण किया । अपनी भौंहों में कुटिलता, अधरों में राग, मुखार्विन्द में मुग्धता, सुनयनों में चंचलता, अपने कमर में क्षीणता तथा अपनी मंद मंद चाल में मंद गति को धारण कर बरसाने वाली ने सभी दोषों पर कृपा बरसाई । संस्कृत में इसका श्लोक  इस प्रकार    है :-  केशान् गाढ़तमो भ्रुवो: कुटिलता रागोधरं मुग्धता ।
    चास्यं चंचलता क्षिणि कनि तोरोजो कटिं क्षीणता ।
    पादो मंद गतित्व माश्रय दहो दोषास्त्व दंगाश्रया
    प्राप्तां सदृणतां गताश्च सुतरां श्री राधिके धन्यताम् ।
    हमारे जीवन में जितना भी दुर्गुण रूपी तमस है उसे मिटाकर हम सद्गुण रूपी प्रकाश की ओर निरंतर अग्रसर रहें, यही हमारा ध्येय होना चाहिए और यही दिपावली की वास्तविक सीख है । लेकिन फिर भी, यह जो अन्धेरा है, वह भी तो प्रकृति का ही एक महत्वपूर्ण अंग है । यह न होगा तो हमारे उल्लु और चमदागड़ जैसे सह-जीवों का क्या होगा ? और हां, इसी बहाने हम सहज, एकाग्रचित, सृजनशील, स्वपरिचित और सावधान तो रह   पायेंगे ।     क्या अब भी अंधेरे से डरने या उससे नफरत करने की आवश्यकता     है ? या क्या हम तम के इस उजले (सकारात्मक )पक्ष को स्वीकार करना चाहेंगे ?
ज्ञान विज्ञान
तिब्बती ग्लेशियर पिघल रहे हैं या नहीं ?

    ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार के एक ताजा अध्ययन के मुताबिक तिब्बत क्षेत्र के ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं। बेजिंग के तिब्बती शोध संस्थान के ग्लेशियर विशेषज्ञ याओ तांडोंग ने अपने शोध के निष्कर्ष हाल ही में नेचर क्लाइमेट चेंज शोध पत्रिका में प्रकाशित किए हैं । तिब्बत का पठार और उसके आसपास की पर्वत श्रृंखलाआें को मिलाकर करीब १ लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को तीसरा धु्रव भी कहा जाता है । इसमें कारकोरम, पामीर और किलियां भी शामिल हैं । यहां की बर्फ की एशिया के तकरीबन डेढ़ अरब लोगों को पानी मुहैया कराती है ।
 

    यहां के ग्लेशियर की हालत काफी विवाद का विषय रही है । २०१२ की शुरूआत में ग्रेविटी रिकवरी एण्ड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (ग्रेस) उपग्रह से प्राप्त् ७ वर्षो के आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया था कि ऊंचे पर्वतों पर स्थित एशियाई ग्लेशियर बहुत तेजी से नहीं पिघ रहे हैं । कहा गया था कि इनके पिघलने की गति पूर्व में अनुमानित गति से १० गुना कम है और तो और निष्कर्ष यह था कि तिब्बत के ग्लेशियर में तो वृद्धि हो रही है ।
         अब याओ और उनके साथियों ने ७१०० ग्लेशियर्स के क्षेत्रफल में हो रहे परिवर्तनों का विश्लेषण किया है । इसके अलावा उन्होनें १५ ग्लेशियर्स की संहति में हो रहे परिवर्तनों का भी अध्ययन किया । उनका कहना है कि पिछले ३० वर्षो में इस इलाके के अधिकांश ग्लेशियर्स सिकुड़ते रहे हैं और संकुचन की गति बढ़ रही है ।
    वैसे उनके मुताबिक काराकोरम और पामीर के ग्लेशियर्स की अपेक्षा हिमालय के ग्लेशियर्स ज्यादा तेजी से सिकुड रहे हैं । इससे लगता है कि इन ग्लेशियर्स पर जलवायु के अलग-अलग असर काम कर रहे हैं । याओ व साथियों ने पाया कि ग्लेशियर्स में बर्फ के आने जाने के बाद संतुलन का संबंध  काफी हद तक इस बात से है कि वह ग्लेशियर भारतीय मानसून के प्रभाव में है या यूरोप से आने वाली पछुआ हवाआें के प्रभाव में है ।
    पछुआ हवाआें के अभाव वाले क्षेत्र, जैसे काराकोरम और पामीर, में अधिकांश बर्फ जाड़े में गिरती है । यदि तापमान में थोड़ी वृद्धि हो भी रही है, तो भी जाड़ों का तापमान शून्य से कम ही रहता है । लिहाजा इन क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि का बहुत ज्यादा असर बर्फ की मात्रा पर नहीं पड़ता । दूसरी ओर हिमालय में बर्फबारी मुख्य रूप से ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान होती है । तापमान में थोड़ी सी वृद्धि बर्फबारी को प्रभावित करती है ।
    पिछले कुछ वर्षो में जहां भारतीय मानूसन कमजोर हुआ है वहीं पछुआ हवाएं बलवती हुई है । इसके आधार पर देखा जा सकता है कि क्यों काराकोरम और पामीर के ग्लेशियर या तो स्थिर बने हुए हैं या फैल रहे हैं ।

विस्फोटक दीमक और बस्ती की रक्षा

    शोधकर्ता जब फ्रेंच गुआना के जंगलों में दीमकों के अध्ययन के लिए वहां घूम रहे थे, तब ही एक जीव वैज्ञानिक ने देखा कि दीमक के एक घोंसले में कुछ दीमकों पर नीले धब्बे है। उत्सुकतावश उसने एक दीमक को चिमटी से उठाया तो वह बम की तरह फट पड़ी । वह ऐसी कुछ दीमकें अपनी प्रयोगशाला में ले आया । अध्ययन से पता चला कि यह नीला धब्बा बस्ती में सबसे उम्रदराज दीमकों की पीठ पर ही पाया जाता है । ये उम्रदराज दीमक आत्महत्या के जरिए अपने साथियों की मदद करते है । 

     नियोकेप्रीटर्मीस टेराकुआ प्रजाति के इन दीमकों का अध्ययन करने पर पता चला कि नीले धब्बे वाले दीमकों की मुठभेड़ जब दूसरी प्रजाति के दीमकों या बड़े शिकारी प्राणियों से होती है, तब वे एक विस्फोट करते हैं । शोधकर्ताआें ने यह रिपोर्ट साइंस ऑनलाइन में प्रकाशित की है । उन्होनें बताया कि जब दीमकों में लड़ाई होती है तब ये दीमक अपने शरीर से एक तरल पदार्थ निकालते हैं जिससे उनके प्रतिद्वंद्वी या तो मर जाते हैं या सुुन्न पड़ जाते है ।
    शोधकर्ताआें ने जब नीले धब्बे का क्रिस्टल उन दीमकों से निकाल दिया तब उनका यह पदार्थ जहरीला नहीं रह गया ।
    इसके बाद शोधकर्ता प्रयोगशाला पहुंचे । इस शोध के प्रमुख जैव रसायनिक रॉबर्ट हेनस ने बताया कि ये दीमक अपनी ही प्रजाति के दूसरे दीमकों से हमेशा छोटे होते हैं और उनका निचला जबड़ा घिसा हुआ होता है । इससे पता चलता है कि ये उम्रदराज हैं । शोधकर्ताआें ने दीमकों के नीले धब्बे को निकालकर उसका विश्लेषण किया । पाया गया कि उसमें एक असामान्य प्रोटीन है जो स्वयं जहरीला नहीं है बल्कि यह एक एंजाइम है जो किसी अन्य प्रोटीन को जहरीले पदार्थ में बदलने का काम करता है ।
    श्री हेनस बताते हैं कि इन दीमकों की पीठ पर स्थित नीली थैली में जो रसायन होता है वह जब उनकी लार ग्रंथि में बने एक पदार्थ से मिलता है, तो यह मिश्रण जहरीला होता है । उनका कहना है कि पहली बार दीमकों में बचाव की प्रक्रिया से संबंधित दो रसायन एक-दूसरे से क्रिया करते दिखाई दिए है ।
प्रयोगो में खरगोश की पीड़ा
     जंतुआें के साथ काम करने वाले शोधकर्ताआें के लिए वैज्ञानिक रूप से यह जानना बहुत मुश्किल होता है कि क्या उनके प्रायोगिक जंतु को दर्द हो रहा है । इसके लिए पारम्परिक रूप से कुछ तरीकों का इस्तेमाल होता आया  है । जैसा प्रयोग पूरा होने के बाद यह देखा जाता है कि क्या उस जन्तु का वजन कम हुआ है या क्या उसके भोजन  पानी की खपत में कमी आई है या क्या उसके चलने-फिरने में कोई अंतर नजर आ रहा है । 

     मगर ये सारे लक्षण परोक्ष रूप से ही बताते है कि क्या उस जन्तु को प्रयोग के दौरान दर्द हुआ था । इस समस्या से निपटने के लिए कनाड़ा के मेकगिल विश्वविद्यालय के जेफ्री मोगिल ने २०१० में एक पैमाना विकसित किया था जिसे माउस ग्रिमेस पैमाना कहते है। इसमें चूहे के चेहरे के पांच लक्षणों पर ध्यान दिया जाता है । जैसे आंखों का सिकुड़ना और गालों का फूलना । प्रत्येक लक्षण को शून्य (जब वैसा नहीं होता) और दो (जब स्पष्ट रूप से वह लक्षण नजर आता है) अंक दिए जाते है।
    उक्त पैमाने जंतु पर काम करने वाले वैज्ञानिकों के बीच जल्दी ही बहुत लोकप्रिय हो गया । अब इसी तरह का काम खरगोशों पर किया गया है । न्यूकासल विश्वविद्यालय के मैथ्यू जीच कई जन्तुआें के चेहरों के हाव-भाव पर काम करते रहे हैं । वे मानते है कि यदि आप जन्तुआें के दर्द  को कम करना चाहते है, तो पहले उसे पहचानना सीखिए । माउथ ग्रिमेस पैमान को आगे बढ़ते हुए उन्होनें एक रैबिट, ग्रिमेस पैमान विकसित किया     है ।
    इस पैमाने का विचार स्वीडन सरकार की ओर से आया था । सरकार यह परखना चाहती थी कि जब खरगोशों की पहचान के लिए उनके कान पर टेटू गोदा जाता है, तो क्या उन्हें दर्द होता है। कान पर टेटू गोदना जन्तुआें की पहचान का एक आम तरीका है ।
    खरगोश ग्रिमेस पैमान लगभग उन्हीं लक्षणों पर आधारित है जो चूहों के लिए उपयोग किए गए थे, मूंछों की हरकत, कान की पोजीशन, गालों का फूलना, नथुने फैलना, और आंख का सिकुड़ना । चूंकि कान पर टेटू गोदते समय कानों की पीजीशन देखना संभव नहीं था, इसलिए इस पैमाने पर अधिकतम स्कोर ८ हो सकता था ।
    बगैर निश्चेतक के टेटू गोदने पर खरगोशों का स्कोर औसतन ४ रहा । जब यही मापन उपचार से पहले उपचार का नाटक करते हुए और निश्चेतक का उपयोग करके किया गया तो औसत स्कोर २ से कम रहा । लीच के मुताबिक स्कोर में २ का यह अंतर महत्वपूर्ण है ।
कविता
जल ही जीवन
ए.बी. सिंह
पानी सदा बचाइये, अगर बचाना जीव ।
यह पानी संसार में, हर जीवों की नींव ।।
पानी बिना सभी तरह, धरती घटे बहार ।
जान बचाने के लिये, चढ़ता चले उधार ।।
ताल कुण्ड औ बावड़ी, गहरी कर हर साल ।
ज्यादा पानी तब रूके, मिट्टी अगर निकाल ।।
जल को अमृत मानिये, देता जीवन दान ।
जहां नहीं यह मिल सके, सब रहते हैरान ।।
बरसे पानी जब कभी, धरती लेती सोख ।
धरती की इस तरह से, हरी हो चले कोख ।।
छत का पानी रोक कर, भण्डारण कर डाल ।
वह पानी हर एक के, चलता पूरे साल ।।
बादल जाते उस जगह, हरियाली जिस ओर ।
करते हैं बरसात तब, सभी तरह घन घोर ।।
जल ही जीवन मानिये, इससे पैदावार ।
इसके बिना सभी तरह, मेहनत हो बेकार ।।
जल सोखे धरती अधिक, अगर लगाओ पेड ।
तब पानी रूक कर बहे, पेड़ अगर हर मेड़ ।।
मीठा पानी भूमि का, है बादल की देन ।
ऊपर नीचे जो मिले, सब को दे सुख चैन ।।
पेड़ जहां छाता बने, खड़े रहें तैयार ।
बूंदो की उस जगह पर, पड़े न सीधी मार ।।
जनजीवन  
पानी और पेड़ पौधे
साधना विवरेकर

    प्रकृति से हमारा संबंध सदा भावनात्मक रहा है । सदियों से हमने धरती को मां का दर्जा दिया है क्योंकि वह जीवनदायिनी है । उसने वह हर वस्तु उपलब्ध कराई है, जिससे जीवन संभव है ।
    हमारे धर्म में पृथ्वी, जलवायु, मेघ व नभ सभी का महत्व आदिकाल से समझा है, जिसे आधुनिक विज्ञान ने भी मान्यता दी  है । पेड़-पौधों में जीवन होने का प्रमाण वैज्ञानिकों ने दो ही सदियों पूर्व दिया है, पर हमारी सभ्यता में इनमें जीवन होने की आस्था युगों-युगों से स्थापित है । बरगद, पीपल, आंवला आदि को पूजने की परम्परा के पीछे आने वाली पीढ़ी को इनका महत्व समझाना, इनके प्रति संवेदना विकसित कर इन्हें सहेजने व इनकी देखभाल कर पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने का उद्देश्य ही छिपा था व इस तरह के संस्कार ही प्रकृति के प्रबंधन मेंमददगार थे । इन पेड़-पौधों की पूजा का संबंध सुहाग की लम्बी उम्र कामना से जोड़ आस्था की डोर का वैज्ञानिक आधार भी है । पेड़-पौधों की हरियाली होगी तो प्राणवायु ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ेगी, प्रदूषण कम होगा जो निश्चित ही बीमारियों पर नियंत्रण होगा व हर इंसान स्वस्थ व निरोगी होने से तनावरहित जीवन  गुजारेगा, तो लम्बी उम्र की ग्यारंटी हो जायेगी । 
    हर तीज-त्यौहार पर मौसमी फलों व सब्जियों तथा दालों के आदान-प्रदान से संबंधों का माधुर्य भी बढ़ता है और आंवला नवमी जैसे अवसरों परिवारजनों व बाल-बच्चें के साथ एकत्रित हो पौधों के नीचे भोजन करने से उन पौधों के औषधीय गुणों की जानकारी मिलती है, समझी जाती थी व नीम, पीपल, आम, जाम, जामुन हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण है । यह संस्कार अनायास ही मिलते है । हर आंगन में खिलती-बढ़ती तुलसी व उसे जल चढ़ाती दादी व मां को वह सौदर्य भरा सात्विक रूप कौन भूल सकता है । गर्मी में पिछवाड़े में लगे आमों का वृक्ष अनायास अपनी मिठास से ठंडक प्रदान करता है ।
    गुलमोहर के लाल फूल आग बरसाते हैं, तो अमलतास के पीले फूलों की बहार मंत्रमुग्ध करती है । भरी दुपहरी में नीम अपनी हरियाली के साथ घनी छाया देता है, तो चम्पा के सफेद फूल शांत रहने का संदेशा मोगरा अपनी खुशबू से सुबह को खुशनुमा बनाता है, तो छोटे-छोटे कोचिया के हरे पौधे सूरज की गर्मी का स्वाद हर सब्जी, दाल, चिवड़े को महकाता है तो हरी-हरी दूब अपनी तरफ से शीतलता प्रदान करने की पूर्ण प्रयास करते है ।
    बोगनविलिया के रंग-बिरंगे फूल कम से कम पानी में भी विजेता भाव से मुस्कुराता हुआ कहता है हम भी कुछ कम नहीं । एक्जोरा के कालघटक, गुलाबी-सफेद फूल गुच्छों में खिलकर अपनी छटा बिखेरते है, तो कन्हेर भी कहां पीछे रहने वाली सप्त्पर्ण हो या लहसुनिया, चंपा हो या चमेली अपनी हरियाली से वसुधा को ढंकने का प्रयास करते है ।
    एक नहीं हजारों प्रजातियां व लाखों पेड-पौधे इस वसुधा को एक हरित आवरण में ढंके रहते है । इसे सूरज के प्रकोप से बचाते है व अपनी जड़ों से वसुधा के गर्भ मेंसमाएं प्रचुर जल को थामे रहते हैं । इन हरियाली के बाशिदें से ही वाष्पीकृत हुआ जल मेघ बनि गगन में मेहमान बनता है व समय आने पर अमृत बूंदों के रूप में बरसकर ग्रीष्म में धरती को शीतल करने का जिम्मा उठाता है । यह धरती माँ अत्यन्त सहनशील, शांत व गंभीर होती है । वह अपने बच्चें के लिए सदियों से सब कुछ देती आई है। वह उदारमना अपनी भरपूर संपदा अपने गर्भ में छिपाए है जिसे वह उदारता से लुटाती आई है व हमें पालने-पोसने के साथ सम्पन्न भी बनाती है पर हमारे अतिस्वार्थ, अतिदोहन एवं औघोगिकीकरण ने व लापरवाही ने इसका अनुचित फायदा लेना अपना स्वभाव बना लिया ।
    वह हमारी सदियों की गलतियों को चुपचाप सहन करती रही, लेकिन हमने सारी हदें पार कर     दी । स्वार्थ में अंधे होकर हमने इसके आंचल हरियाली को नष्ट करना प्रारंभ कर दिया । कौन स्त्री, कौन मां अपनी आंचल को तार-तार होता देख   पाएगी ।  स्त्री व मां के लिए बच्च्े जान से प्यारे हो सकते हैं, इज्जत से प्यारे नहीं, इसलिए अपनी हरियाली औढ़नी में छेद होते देख, उसे तहस-तहस होते देख पहले तो वह दु:खी हुई पर उसके बच्चें को हमको उसके दर्द का अहसास नहीं हुआ । अब वह गुस्से से अत्यन्त गर्म हो रही है । अपनी इज्जत की, आवरण की हरियाली ओढ़नी की दुर्दशा से वह आग बबूला हो रही है, जिसके परिणाम हमें सूखा, बाढ़, तूफान या ज्वालामुखी के रूप में देखने को मिल रहे हैं । पानी की कमी, भीषण गर्मी, बढ़ता तापमान सब कुछ उसके नाराज होने के प्रमाण है ।
    धरती मां को पुन: शांत करना है, रूठी हुई मां को मनाना है तो अपने बरसों के पापों का प्रायश्चित करना है, तो उसका एकमात्र सरल सहज उपाय है उसकी लाज, इज्जत पुन: लौटाना हरियाली ओढ़नी के रूप में पेड़-पौधों को यथासंभव लगाकर, उनकी देखभाल करके, उन्हें सहेज हम रूठी मां को बड़ी आसानी से मना सकते हैं, उसे ठडक पहुंचा सकते है व उसके आहत मन पर मलहम लगा उसका दर्द कम कर सकते है । हमारे ये प्रयास कुछ ही वर्षो में इसकी हरियाली ओढ़नी को पूरी तरह से श्रृंगारित कर वसुधा को प्रसन्न कर ही लेंगे । वह उदाहरण से हमारे सारे गुनाह भुला हमें फिर लाड़ प्यार से अपनी ममता लुटाना प्रारंभ कर देगी ।
    पेड-पौधों व हरियाली को पुन: लौटाने के कई लाभ है -
    १. सुबह उठते ही जब आपकी नजर सुंदर फूलों, हरी घास पेड़ों पर बैठे पक्षियों पर पड़ती है, तो इस सुखद अहसास से मन में सकारात्मक ऊर्जा को भर आपकी कार्यक्षमता को बढ़ाता है ।
    २. पेड़-पौधों की हरियाली व पुष्पों के रंगोंकी विविधता, उनकी खुशबू उनसे होकर आप तक पहुंचने वाले हवा के झोंके मानसिक तनाव को समाप्त् कर आपके मन को प्रसन्नता से भर देते है ।
    ३. प्रकृति के करीब जाकर उसके सानिध्य से ईश्वर के प्रति आस्था बलवती होती है, श्रृद्धा से नतमस्तक होने से अहंभाव मिटता है व जीवन में सब कुछ सरल हो जाता है ।
    ४. पौधों पर खिलने वाले फूल नई जिंदगी का संदेश देते है है, उनकी मोहकता, सुन्दरता, आपकी सारी परेशानियां व चिंताए हर लेने में सक्षम होती है ।
    ५.  पेड़ पौधों के सानिध्य से शुद्ध हवा मिलती है, जिससे स्वस्थ व निरोगी रहने में मदद मिलती है ।
    ६. पेड-पौधों से लगाव अनायास ही प्रेम व विश्वास की भावनाएं विकसित करने में मदद करता है, जिससे मजबूत व गहरे होते है । सुखद रिश्तों की गरमाहट जीवन को सुख-शांति से भर देती है ।
    ७. पेड पौधों का मूक समर्पित भाव हमसे भी स्वार्थ, कपट, बैर जैसी भावनाआें को दमन करने में सक्षम होता है ।
    ८. पेड-पौधों को दिया गया जल पुन: वर्षा के रूप में लौटकर हमारी फसलों को सींचता है, जलस्तर को बढ़ाता है ।
    ९. हरी घास में बैठने का आनंद, भरी गर्मी में ठंडी हवा के झोंके, सर्दी में धूप सेंकने का आनंद ही जीवन के सच्च्े सुख की अनुभूति कराते हैं ।
    १०. पेड-पौधों को लगाकर हम प्रकृति के प्रबंधन में मदद कर पानी व पर्यावरण का सरंक्षण कर न सिर्फ हमारी बल्कि आने वाली कई पीढ़ियों को स्वस्थ हवा, पानी से भरपूर हरी-भरी धरती की सौगात दे जाएंगे, जो हमारा कर्तव्य है व इस वक्त का तकाजा भी है ।
    अत: आएं हम सब अपनी रूठी मां को मनाने, उसे हरियाली ओढ़नी का उपहार देने, उसके प्यार को पुन: पाने के प्रयास में जुट जाएं, यह भोली मां ज्यादा देर नाराज नहीं रह पाएगी ।
पर्यावरण समाचार
यूका कचरे के निपटान का नहीं निकला रास्ता

    भोपाल गैस त्रासदी के २८ साल बीतने के बाद भी यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे के निपटान का कोई रास्ता निकलता नजर नहीं आ रहा है । मध्यप्रदेश सरकार व केन्द्र सरकार कोई हल निकालने के बजाए एक दूसरे पर मामला टालने मेंलगे हुए हैं । मध्यप्रदेश सरकार की चिंता अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव हैं और तब तक कचरे का निपटान नहीं हो पाया तो यह चुनावी मुद्दा भी बन सकता है । यही वजह है कि मध्यप्रदेश के गैस त्रासदी राहत व पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर ने कोई हल निकलता न देख मामला टालने के लिए केन्द्र से उप समिति गठित करने की मांग की है ।
    भोपाल गैस त्रासदी पर गठित मंत्री समूह की केन्द्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम की अध्यक्षता में बैठक में भोपाल स्थित संंयंत्र में सालों से पड़े जहरीले कचरे के निपटान का कोई रास्ता नहीं निकल पाया है । जर्मन कंपनी के हाथ खड़े कर देने के बाद अब केन्द्र व राज्य सरकार को कचरे के निपटान के लिए कोई उपयुक्त जगह नजर नहीं आ रही    है । बैठक में हिस्सा लेते हुए बाबूलाल गौर ने केन्द्र सरकार से मांग की कि वह एक उप समिति गठित कर दें जो देश भर के भस्मीकरण केन्द्रोंके अपशिष्ट निपटारे लिए सबसे उपयुक्त केन्द्र को चुने । अभी गुडगांव की एसजीएएस प्रयोगशाला में कचरे के सैम्पल की जांच की जाएगी । दरअसल इस जहरीले कचरे के निपटने के लिए देश का कोई भी अपशिष्ट निपटान केन्द्र तैयार नहीं  है ।
    केन्द्र सरकार का कहना है कि जर्मन कंपनी के हट जाने के बाद मध्यप्रदेश सरकार अपने यहां पीथमपुर मेंही इस कचरे का निपटान करे । दूसरी तरफ मध्यप्रदेश सरकार का कहना है कि पीथमपुर प्रयोगशाला कचरे के निपटने के लिए तय मापदण्ड पर खरी नहींउतर रही है । जहरीले कचरे के निपटारे पर निर्णय लेते समय प्रदेश सरकार व मध्यप्रदेश के लोगों की भावनाआें का भी ध्यान रखा जाना चाहिए । इसकी सबसे बड़ी वजह पीथमपुर के लोगों का विरोध है । वहां जब इसका ट्रायल किया गया था, तभी विरोध सामने आ गया था । दूसरी तरफ भोपाल में कचरे के निपटान के कोरे वादों से लोगों में गुस्सा है ।