सोमवार, 5 नवंबर 2012

दिपावली पर विशेष
प्रकाश और अंधेरा
मुरलीधर वैष्णव

    `तमसो मा ज्योतिर्गमय`, अंधकार से प्रकाश की ओर चलें इस शाश्वत उक्ति के  भावार्थ को कौन नहीं जानता कि  हमें तमोगुण प्रवृति को त्याग कर सन्मार्ग रूपी प्रकाश की ओर अग्रसर होना चाहिए ।
    लेकिन रात के  सुरमइ्रर् अन्धेरे और फिर प्रात: के  प्रकाश जैसे प्रकृति के  शाश्वत क्रम में आज यदि हम तम अर्थात् अंधेरे की बात पर गौर करें तो हम पाते हैं कि हमारा जितना गहरा सम्बन्ध प्रकाश से है उससे कम गहरा सम्बंध अंधेरे से भी नहीं है ।
    प्रकाश की तो उत्पति हुई । अंधकार तो पहले से था । प्रकाश की अनुपस्थिति ही तो अंधकार है । अर्थात् जिसे उपस्थित होना होता है उससे पहले उसे उत्पन्न होना आवश्यक  है । अंधकार को उत्पत्ति और उपस्थिति से क्या लेना देना । अन्धेरा सहज और आरामप्रद है । बच्चे हो चाहे युवा या फिर वृद्ध, सभी अन्धेरे की गोद में सोना चाहते हैं । यदि आंखों पर थोड़ा सा भी प्रकाश पड़ रहा हो तो हमारी नींद में खलल पड़ने लगती है । गर्भ में भ्रूण अन्धेरी तपस्थली में ही समाधिस्थ रहता है और फिर जन्म के बाद अन्धेरे में ही वह अपनी नन्हीं नन्हीं आंखें खोलने का प्रयास करता है ।
    आप अपने बैक कक्ष में किसी व्यक्ति के  साथ बैठे है और अचानक  कुछ देर के लिए बिजली गुल हो जाती है। अन्धेरा हो जाता है और आप आराम से अपने चेहरे और स्नायुतंत्र को शिथिल कर लेते है । चेहरे की मुद्रा भी ढीली सी कर सकते हैं । क्यों कि  आप आश्वस्त है कि अन्धेरा होने से कोई भी आपको देख नहीं पा रहा है । फिर जैसे ही बिजली आती है आप अपने चेहरे व स्वयं को  सावधान कर स्मार्ट दिखने का प्रयास करते हैं । कहने का तात्पर्य यह कि  आराम की स्थिति एवं प्राकृतिक  सहजता का आनंद अंधेरे में बेहतर लिया जा सकता है ।
    अंधेरा आपको अपने आपसे रूबरू  होने का सुनहरा अवसर प्रदान करता है । एकाग्रचित होने एवं अंर्तनिरीक्षण के  लिए यह प्रकाश से अधिक  उपयुक्त है । प्रकाश में कोई वस्तु या दृश्य दिखाई देने से ध्यान बंट जाता है । लेकिन अंधेरे और एकांत में आप अपने आपसे कि से वार्तालाप कर सकतेे है, अपने आपसे बेहतर सामना कर सकते हैं । अंधेरा तासीर में बड़ा होता है । प्रकाश है तो फिर थोड़ा ताप भी होगा। चाहे सूरज की उष्मा हो या विद्युत की गरमी हो । हां, चांदनी इसका अपवाद अवश्य है ।
    अधिकतर सृजन अंधेरे में ही होता है । कृष्ण जैसे पूर्णावतार का जन्म भी कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आधी रात में कंस की अंधेरी कालकोठारी में ही हुआ था । सूरदास एवं कीट्स जैसे महाकविगण के  जीवन में अंधेरा होते हुए भी उन्होंने जो अद्भुत एवं दिव्य काव्य सृजन विद्या वह हमारे सामने      हैं । यहां तक  कि  जो चक्षुवान कवि या साहित्यकार है उन्हें भी श्रेष्ठ सृजन के लिए आंखे बंद कर अन्धेरे से ही अपने विचार, कल्पना और भावनाओं की अभिव्यक्ति को आकार लेना होता है ।
    रात अमावस्या की बहन होती है तो शुक्लपक्ष या पूर्णिमा की रात चांद की सहेली (बकौल गुलजार) हो जाती  है । अमावस की रात सितारों की क्या मजाल कि  वे गुप्प, अंधेरे को  खत्म या कम कर दें । जैसे किसी चित्र की चमक और सौन्दर्य उसके अनुकूल पृष्ठभूमि के रंग के  कारण स्पष्ट रूप से उभर आता है कि  वैसे ही प्रकाश का महत्व गहन अंधेरे को चीरने पर ही प्रकट होता है । दीपावली जैसा दीपोत्सव अमावस्या की गहन रात्रि में अधिक  प्रकाशवान लगता है ।
    अंधेरे की रानी, अमावस्या का हमारे जीवन में धार्मिक  और सामाजिक महत्व है । लक्ष्मी पूजन और विशेष-लक्ष्मी-पूजन तो अमावस्या की आधी रात में ही होता है । लक्ष्मी की ही एक रूद्र रूप काली को तो अमावस्या की रात्रि के रूप में जाना जाता है । फिर दीपावली की अमावस्या रात्रि तो अनेक तांत्रिक उपासना और सिद्धियों के  अनुष्ठान के लिए सर्वाधिक  उपयुक्त बेला बतलाई गई है । सोमवती अमस्या दान पुण्य के लिए श्रेष्ठ दिन माना गया है। भारत में श्रमिक  एवं कामगार वर्ग अमावस को ही अवकाश रखते हैं ।
    कुछ लोग अंधेरे से काफी डरते हैं-विशेषत: बच्चे और स्त्रियां । वस्तुत: अन्धेरे से डर का कोई सम्बन्ध नहीं    है । हां जहां सावधानी या दुर्घटना टालने के  लिए प्रकाश आवश्यक है वहां बात और है । मद्धिम रोशनी में सड़क  पर पड़े रस्सी के  टुकड़े को यदि हम सांप समझ कर डर जाते हैं तब दोष अंधेरे का नहीं, हमारी दृष्टि विभ्रम का है । रात में किसी पेड़ के  पत्तों के बीच अटके पतंग की फड़फड़ाहट सुन उसे कोई भूत की आवाज समझ लें तो इसमें बिचारे अन्धेरे का क्या दोष ?
    यह सही है कि दुनिया में अधिकतर अपराध अंधेरे में ही किये  जाते है जिससे कि अपराधी अन्धेरे का लाभ उठाकर भाग जाये या पहचाना नहीं जा सके । लेकिन अपराध तो दिन दहाड़े  भी खूब होते हैं । करोड़ों की धोखाधड़ी और साइबर अपराध तो प्राय: दिन मेें ही होते हैं ।
    अन्धकार से हम नैराश्य का सम्बन्ध भी जोड़ लेते हैं । किसी को मधु मेह की अधिकता, स्पोंडलाइटिस या मस्तिष्क  के  स्नायू तंत्र की किसी कमजोरी वश अचानक  चक्कर आ जाता है तो वह कहता है कि आंखों के आगे अंधेरा छा गया । इसी प्रकार किसी निकट सम्बन्धी या मित्र की दुर्घटना में मृत्यु का समाचार आपको अचानक  मिले तो सदमे के  कारण कुछ देर के  लिए आपको कुछ भी दिखाई नहीं देता और वहीं चक्कर की स्थिति बन जाती    है । आंखों के आगे अन्धेरा सा लगता    है । लेकिन वास्तव में यह अन्धेरा बाहर नहीं होता । नैराश्य और सदमे के  कारण मन इतना दुखी व हताश हो जाता है कि आंखें क ो होते हुए भी प्रकाश को देख नहीं पाती है । अब इसमें बिचारे बाहरी अंधेरे का क्या दोष ।
    यदि हमारी जीवन शैली अकर्म (आसक्ति रहित) एवं सम्यक प्रवृति की है तब अवश्य ही हमारा मन इतना दृढ हो सकत्ता है कि  नैराश्य के पास फटकने ही न दे और रही बात सदमे की तो उसे तो वह वैसे ही जज्ब कर सकता है जैसे एक मजबूत शोकर्स वाली कार  झटकों को जज्ब करती है । एक  पौराणिक  प्रसंग के  अनुसार एक बार अंधकार के  नेतृत्व में राग (आसक्ति), मुग्धता, चंचलता, कुटिलता, कनिता, क्षीणता एवं मंदगति जैसे दोष एकत्रित होकर ब्रह्माजी के  पास गये और बोले कि  हमें लोग दुर्गुण मान कर पास नहीं फटकने देते । हे विधाता, हमें भी आपने ही बनाया है । हमारी भी तो कोई शरण स्थली होनी चाहिये । आखिर हम कहां जाए ?
    इस पर ब्रह्माजी ने अंधकार को  सलाह दी कि  तुम अपने इन साथियों के साथ श्री राधारानी की शरण में जाओ और उनसे प्रार्थना करो । श्री राधे ही तुम्हारा कल्याण कर तुम्हारी शरण स्थली की व्यवस्था कर सकती है । इस पर वे सभी श्री राधे के पास गये और उनसे अनुनय विनय की ।
    श्री राधे ने अन्धकार एवं उसके  साथियों की पुकार सुन कर सभी को  अपनी देह एवं व्यक्तित्व में इस प्रकार से शरण दी कि गहन अन्धकार के  काले पन को उन्होंने अपने सुंदर लम्बे केशों में धारण किया । अपनी भौंहों में कुटिलता, अधरों में राग, मुखार्विन्द में मुग्धता, सुनयनों में चंचलता, अपने कमर में क्षीणता तथा अपनी मंद मंद चाल में मंद गति को धारण कर बरसाने वाली ने सभी दोषों पर कृपा बरसाई । संस्कृत में इसका श्लोक  इस प्रकार    है :-  केशान् गाढ़तमो भ्रुवो: कुटिलता रागोधरं मुग्धता ।
    चास्यं चंचलता क्षिणि कनि तोरोजो कटिं क्षीणता ।
    पादो मंद गतित्व माश्रय दहो दोषास्त्व दंगाश्रया
    प्राप्तां सदृणतां गताश्च सुतरां श्री राधिके धन्यताम् ।
    हमारे जीवन में जितना भी दुर्गुण रूपी तमस है उसे मिटाकर हम सद्गुण रूपी प्रकाश की ओर निरंतर अग्रसर रहें, यही हमारा ध्येय होना चाहिए और यही दिपावली की वास्तविक सीख है । लेकिन फिर भी, यह जो अन्धेरा है, वह भी तो प्रकृति का ही एक महत्वपूर्ण अंग है । यह न होगा तो हमारे उल्लु और चमदागड़ जैसे सह-जीवों का क्या होगा ? और हां, इसी बहाने हम सहज, एकाग्रचित, सृजनशील, स्वपरिचित और सावधान तो रह   पायेंगे ।     क्या अब भी अंधेरे से डरने या उससे नफरत करने की आवश्यकता     है ? या क्या हम तम के इस उजले (सकारात्मक )पक्ष को स्वीकार करना चाहेंगे ?

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