सोमवार, 5 नवंबर 2012

ज्ञान विज्ञान
तिब्बती ग्लेशियर पिघल रहे हैं या नहीं ?

    ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार के एक ताजा अध्ययन के मुताबिक तिब्बत क्षेत्र के ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं। बेजिंग के तिब्बती शोध संस्थान के ग्लेशियर विशेषज्ञ याओ तांडोंग ने अपने शोध के निष्कर्ष हाल ही में नेचर क्लाइमेट चेंज शोध पत्रिका में प्रकाशित किए हैं । तिब्बत का पठार और उसके आसपास की पर्वत श्रृंखलाआें को मिलाकर करीब १ लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को तीसरा धु्रव भी कहा जाता है । इसमें कारकोरम, पामीर और किलियां भी शामिल हैं । यहां की बर्फ की एशिया के तकरीबन डेढ़ अरब लोगों को पानी मुहैया कराती है ।
 

    यहां के ग्लेशियर की हालत काफी विवाद का विषय रही है । २०१२ की शुरूआत में ग्रेविटी रिकवरी एण्ड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (ग्रेस) उपग्रह से प्राप्त् ७ वर्षो के आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया था कि ऊंचे पर्वतों पर स्थित एशियाई ग्लेशियर बहुत तेजी से नहीं पिघ रहे हैं । कहा गया था कि इनके पिघलने की गति पूर्व में अनुमानित गति से १० गुना कम है और तो और निष्कर्ष यह था कि तिब्बत के ग्लेशियर में तो वृद्धि हो रही है ।
         अब याओ और उनके साथियों ने ७१०० ग्लेशियर्स के क्षेत्रफल में हो रहे परिवर्तनों का विश्लेषण किया है । इसके अलावा उन्होनें १५ ग्लेशियर्स की संहति में हो रहे परिवर्तनों का भी अध्ययन किया । उनका कहना है कि पिछले ३० वर्षो में इस इलाके के अधिकांश ग्लेशियर्स सिकुड़ते रहे हैं और संकुचन की गति बढ़ रही है ।
    वैसे उनके मुताबिक काराकोरम और पामीर के ग्लेशियर्स की अपेक्षा हिमालय के ग्लेशियर्स ज्यादा तेजी से सिकुड रहे हैं । इससे लगता है कि इन ग्लेशियर्स पर जलवायु के अलग-अलग असर काम कर रहे हैं । याओ व साथियों ने पाया कि ग्लेशियर्स में बर्फ के आने जाने के बाद संतुलन का संबंध  काफी हद तक इस बात से है कि वह ग्लेशियर भारतीय मानसून के प्रभाव में है या यूरोप से आने वाली पछुआ हवाआें के प्रभाव में है ।
    पछुआ हवाआें के अभाव वाले क्षेत्र, जैसे काराकोरम और पामीर, में अधिकांश बर्फ जाड़े में गिरती है । यदि तापमान में थोड़ी वृद्धि हो भी रही है, तो भी जाड़ों का तापमान शून्य से कम ही रहता है । लिहाजा इन क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि का बहुत ज्यादा असर बर्फ की मात्रा पर नहीं पड़ता । दूसरी ओर हिमालय में बर्फबारी मुख्य रूप से ग्रीष्मकालीन मानसून के दौरान होती है । तापमान में थोड़ी सी वृद्धि बर्फबारी को प्रभावित करती है ।
    पिछले कुछ वर्षो में जहां भारतीय मानूसन कमजोर हुआ है वहीं पछुआ हवाएं बलवती हुई है । इसके आधार पर देखा जा सकता है कि क्यों काराकोरम और पामीर के ग्लेशियर या तो स्थिर बने हुए हैं या फैल रहे हैं ।

विस्फोटक दीमक और बस्ती की रक्षा

    शोधकर्ता जब फ्रेंच गुआना के जंगलों में दीमकों के अध्ययन के लिए वहां घूम रहे थे, तब ही एक जीव वैज्ञानिक ने देखा कि दीमक के एक घोंसले में कुछ दीमकों पर नीले धब्बे है। उत्सुकतावश उसने एक दीमक को चिमटी से उठाया तो वह बम की तरह फट पड़ी । वह ऐसी कुछ दीमकें अपनी प्रयोगशाला में ले आया । अध्ययन से पता चला कि यह नीला धब्बा बस्ती में सबसे उम्रदराज दीमकों की पीठ पर ही पाया जाता है । ये उम्रदराज दीमक आत्महत्या के जरिए अपने साथियों की मदद करते है । 

     नियोकेप्रीटर्मीस टेराकुआ प्रजाति के इन दीमकों का अध्ययन करने पर पता चला कि नीले धब्बे वाले दीमकों की मुठभेड़ जब दूसरी प्रजाति के दीमकों या बड़े शिकारी प्राणियों से होती है, तब वे एक विस्फोट करते हैं । शोधकर्ताआें ने यह रिपोर्ट साइंस ऑनलाइन में प्रकाशित की है । उन्होनें बताया कि जब दीमकों में लड़ाई होती है तब ये दीमक अपने शरीर से एक तरल पदार्थ निकालते हैं जिससे उनके प्रतिद्वंद्वी या तो मर जाते हैं या सुुन्न पड़ जाते है ।
    शोधकर्ताआें ने जब नीले धब्बे का क्रिस्टल उन दीमकों से निकाल दिया तब उनका यह पदार्थ जहरीला नहीं रह गया ।
    इसके बाद शोधकर्ता प्रयोगशाला पहुंचे । इस शोध के प्रमुख जैव रसायनिक रॉबर्ट हेनस ने बताया कि ये दीमक अपनी ही प्रजाति के दूसरे दीमकों से हमेशा छोटे होते हैं और उनका निचला जबड़ा घिसा हुआ होता है । इससे पता चलता है कि ये उम्रदराज हैं । शोधकर्ताआें ने दीमकों के नीले धब्बे को निकालकर उसका विश्लेषण किया । पाया गया कि उसमें एक असामान्य प्रोटीन है जो स्वयं जहरीला नहीं है बल्कि यह एक एंजाइम है जो किसी अन्य प्रोटीन को जहरीले पदार्थ में बदलने का काम करता है ।
    श्री हेनस बताते हैं कि इन दीमकों की पीठ पर स्थित नीली थैली में जो रसायन होता है वह जब उनकी लार ग्रंथि में बने एक पदार्थ से मिलता है, तो यह मिश्रण जहरीला होता है । उनका कहना है कि पहली बार दीमकों में बचाव की प्रक्रिया से संबंधित दो रसायन एक-दूसरे से क्रिया करते दिखाई दिए है ।
प्रयोगो में खरगोश की पीड़ा
     जंतुआें के साथ काम करने वाले शोधकर्ताआें के लिए वैज्ञानिक रूप से यह जानना बहुत मुश्किल होता है कि क्या उनके प्रायोगिक जंतु को दर्द हो रहा है । इसके लिए पारम्परिक रूप से कुछ तरीकों का इस्तेमाल होता आया  है । जैसा प्रयोग पूरा होने के बाद यह देखा जाता है कि क्या उस जन्तु का वजन कम हुआ है या क्या उसके भोजन  पानी की खपत में कमी आई है या क्या उसके चलने-फिरने में कोई अंतर नजर आ रहा है । 

     मगर ये सारे लक्षण परोक्ष रूप से ही बताते है कि क्या उस जन्तु को प्रयोग के दौरान दर्द हुआ था । इस समस्या से निपटने के लिए कनाड़ा के मेकगिल विश्वविद्यालय के जेफ्री मोगिल ने २०१० में एक पैमाना विकसित किया था जिसे माउस ग्रिमेस पैमाना कहते है। इसमें चूहे के चेहरे के पांच लक्षणों पर ध्यान दिया जाता है । जैसे आंखों का सिकुड़ना और गालों का फूलना । प्रत्येक लक्षण को शून्य (जब वैसा नहीं होता) और दो (जब स्पष्ट रूप से वह लक्षण नजर आता है) अंक दिए जाते है।
    उक्त पैमाने जंतु पर काम करने वाले वैज्ञानिकों के बीच जल्दी ही बहुत लोकप्रिय हो गया । अब इसी तरह का काम खरगोशों पर किया गया है । न्यूकासल विश्वविद्यालय के मैथ्यू जीच कई जन्तुआें के चेहरों के हाव-भाव पर काम करते रहे हैं । वे मानते है कि यदि आप जन्तुआें के दर्द  को कम करना चाहते है, तो पहले उसे पहचानना सीखिए । माउथ ग्रिमेस पैमान को आगे बढ़ते हुए उन्होनें एक रैबिट, ग्रिमेस पैमान विकसित किया     है ।
    इस पैमाने का विचार स्वीडन सरकार की ओर से आया था । सरकार यह परखना चाहती थी कि जब खरगोशों की पहचान के लिए उनके कान पर टेटू गोदा जाता है, तो क्या उन्हें दर्द होता है। कान पर टेटू गोदना जन्तुआें की पहचान का एक आम तरीका है ।
    खरगोश ग्रिमेस पैमान लगभग उन्हीं लक्षणों पर आधारित है जो चूहों के लिए उपयोग किए गए थे, मूंछों की हरकत, कान की पोजीशन, गालों का फूलना, नथुने फैलना, और आंख का सिकुड़ना । चूंकि कान पर टेटू गोदते समय कानों की पीजीशन देखना संभव नहीं था, इसलिए इस पैमाने पर अधिकतम स्कोर ८ हो सकता था ।
    बगैर निश्चेतक के टेटू गोदने पर खरगोशों का स्कोर औसतन ४ रहा । जब यही मापन उपचार से पहले उपचार का नाटक करते हुए और निश्चेतक का उपयोग करके किया गया तो औसत स्कोर २ से कम रहा । लीच के मुताबिक स्कोर में २ का यह अंतर महत्वपूर्ण है ।

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