बुधवार, 18 नवंबर 2015
प्रसंगवश
भोजन में भावना का प्रभाव
भोजन में भावना का प्रभाव
डॉ. चंचलमल चौरड़िया, जोधपुर (राज.)
आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के अनुसार स्वास्थ्य के लिये पौष्टिक भाोजन की अत्याधिक आवश्यकता पर विशेष जोर दिया जाता है । आहार गोष्ठियों में भोजन के अवयवों (प्रोटीन, वसा, विटामिन आदि) पर विस्तृत चर्चा कर मार्गदर्शन दिया जाता है, परन्तु भोजन के लिये उससे भी आवश्यक बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है । जैसे भोजन कब खाना चाहिये और कब नहीं खाना चाहिये ? भोजन कैसे बनाया जाये ? भोजन कैसे खिलाया जाये आदि । हमारा भोजन हमेंही खाना पड़ता है और हमें ही पचाना पड़ता है ।
भोजन में आज पौष्टिकता पर तो बहुत जोर दिया जाता है, परन्तु बनने और खिलाने वाले तथा खाने वाले के भावों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता । चिकित्सक भी आहार का परामर्श देते समय उनके महत्त्व से परिचित नहीं कराते हैं । घर में स्नेही स्वजन द्वारा बनाये गये भोजन में धन उपार्जन हेतु बिना प्रेम से बनाये गये होटलों में मिलने वाले भोजन की अपेक्षा ज्यादा ताकत होती है । इसी कारण घर में रूखी-सूखी खाने वाला मजदूर, नौकरों द्वारा बनाये गये पौष्टिक तत्वों से युक्त आहार लेने वाले अमीरों से ज्यादा ताकतवर होता है । आज घर में खाना पसन्द नहीं अथवा बनाते हमें आलस्य आता है । फलत: बाहर खाने को सभ्यता का सूचक समझने की भूल हो रही है । बाहर बने भोज्य पदार्थोंा को खाने का प्रचलन दिनों दिन बढ़ रहा है । बाहर होटलों में बने भोजन में कितनी शुद्धता, पवित्रता और स्वच्छता का ख्याल रखा जाता है, उसको तो जहाँ भोजन (खाद्य पदार्थ) बनता है, वहाँ जाकर देखने से सही अन्दाज लगाया जा सकता है । उस भोजन बनाने वाले के भाव कैसे होते हैं, हम नहीं जानते । इसी कारण आज होम (घर) से होटल और होटल से हॉस्पिटल का सीधा मार्ग बन गया है । यदि आपको कोई अपने घर बुलाये, अच्छे से अच्छा पौष्टिक पदार्थ से आपको भोजन कराये परन्तु यदि आपकी उपेक्षा करे, आप पर व्यंग्य कसे अथवा भोजन कराने के पश्चात् आपसे कहे - आज तक आपको जिन्दगी में कभी किसी ने इतना अच्छा भोजन नहीं कराया होगा, आपके मन में क्या प्रतिक्रिया होगी ? और कितनी ताकत देगा, ऐसा भोजन ? अत: भोजन में भावों की तरंगों का बहुत महत्त्व होता है, परन्तु शायद ही कोई चिकित्सक इन तथ्यों पर जोर देता है । स्पष्ट है कि भोजन में पदार्थ का महत्त्व परन्तु उसकी अपेक्षा भावों का अधिक महत्त्व होता है । इसी प्रकार रात्रि भोजन और तामसिक भोजन स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है ।
आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के अनुसार स्वास्थ्य के लिये पौष्टिक भाोजन की अत्याधिक आवश्यकता पर विशेष जोर दिया जाता है । आहार गोष्ठियों में भोजन के अवयवों (प्रोटीन, वसा, विटामिन आदि) पर विस्तृत चर्चा कर मार्गदर्शन दिया जाता है, परन्तु भोजन के लिये उससे भी आवश्यक बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है । जैसे भोजन कब खाना चाहिये और कब नहीं खाना चाहिये ? भोजन कैसे बनाया जाये ? भोजन कैसे खिलाया जाये आदि । हमारा भोजन हमेंही खाना पड़ता है और हमें ही पचाना पड़ता है ।
भोजन में आज पौष्टिकता पर तो बहुत जोर दिया जाता है, परन्तु बनने और खिलाने वाले तथा खाने वाले के भावों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता । चिकित्सक भी आहार का परामर्श देते समय उनके महत्त्व से परिचित नहीं कराते हैं । घर में स्नेही स्वजन द्वारा बनाये गये भोजन में धन उपार्जन हेतु बिना प्रेम से बनाये गये होटलों में मिलने वाले भोजन की अपेक्षा ज्यादा ताकत होती है । इसी कारण घर में रूखी-सूखी खाने वाला मजदूर, नौकरों द्वारा बनाये गये पौष्टिक तत्वों से युक्त आहार लेने वाले अमीरों से ज्यादा ताकतवर होता है । आज घर में खाना पसन्द नहीं अथवा बनाते हमें आलस्य आता है । फलत: बाहर खाने को सभ्यता का सूचक समझने की भूल हो रही है । बाहर बने भोज्य पदार्थोंा को खाने का प्रचलन दिनों दिन बढ़ रहा है । बाहर होटलों में बने भोजन में कितनी शुद्धता, पवित्रता और स्वच्छता का ख्याल रखा जाता है, उसको तो जहाँ भोजन (खाद्य पदार्थ) बनता है, वहाँ जाकर देखने से सही अन्दाज लगाया जा सकता है । उस भोजन बनाने वाले के भाव कैसे होते हैं, हम नहीं जानते । इसी कारण आज होम (घर) से होटल और होटल से हॉस्पिटल का सीधा मार्ग बन गया है । यदि आपको कोई अपने घर बुलाये, अच्छे से अच्छा पौष्टिक पदार्थ से आपको भोजन कराये परन्तु यदि आपकी उपेक्षा करे, आप पर व्यंग्य कसे अथवा भोजन कराने के पश्चात् आपसे कहे - आज तक आपको जिन्दगी में कभी किसी ने इतना अच्छा भोजन नहीं कराया होगा, आपके मन में क्या प्रतिक्रिया होगी ? और कितनी ताकत देगा, ऐसा भोजन ? अत: भोजन में भावों की तरंगों का बहुत महत्त्व होता है, परन्तु शायद ही कोई चिकित्सक इन तथ्यों पर जोर देता है । स्पष्ट है कि भोजन में पदार्थ का महत्त्व परन्तु उसकी अपेक्षा भावों का अधिक महत्त्व होता है । इसी प्रकार रात्रि भोजन और तामसिक भोजन स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है ।
सम्पादकीय
विकास का हिमालयी मॉडल
हिमालय बचाओ ! देश बचाओ ! सिर्फ नारा नहीं है, बल्कि यह हिमालय क्षेत्र में भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी रास्ता है । चिपको आंदोलन के दौरान पहाड़ की महिलाआें ने नारा दिया कि मिट्टी, पानी और बयार । जिंदा रहने के आधार ! और ऊंचाई पर पेड़ रहेंगे । नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे ।
जब समझने का वक्त आ गया है कि हिमालयी समाज, संस्कृति और यहां के पर्यावरण के साथ-साथ देश की सुरक्षा के लिए तत्पर हिमालय को मैदानोंके विकासीय दृष्टिकोण से कैसे मापा जा सकता है ?
हॉल ही में तैयार हिमालय लोक नीति के दस्तावेज में दो बाते हैं, जिसमें आंकड़ों के जरिये बताया गया है कि हिमालय नीति की आवश्यकता क्यों है ? दूसरा, हिमालय नीति के बिन्दु क्या हैं, जिसके आधार पर एक समग्र केन्द्रीय हिमालय नीति की मांग की गई है । अगर समय रहते सरकारों ने हिमालय की चिंता नहीं की, तो बढ़ रहे जलवायु परिवर्तन का संकट ओर बढ़ेगा । साथ ही सुरंग, बांधों के श्रृखंलाबद्ध निर्माण से हिमालयी नदियां सुख जायेगी । नतीजतन हिमालयी राज्यों में पलायन की समस्या बढ़ेगी । इसकी एक वजह यह भी है कि अधिकांश हिमालयी राज्यों के निवासी जल, जमीन और सघन वनों के बीच रहकर भी इन पर अपना अधिकार खो चुके है । प्रत्येक वर्ष लगभग १२ लाख मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी हिमालय की नदियों से बहता है, जो पूरे देश में ४० प्रतिशत जलापूर्ति करता है । अत: नदियों के उद्गम वाले हिमालयी राज्यों में नदियों का प्रवाह निरन्तर एवं अविरल बनाये रखना अनिवार्य है । हिमालय का वन क्षेत्र स्वस्थ पर्यावरण के मानकों से भी अधिक है, इसे बचाये रखने के लिए हिमालयी जैव विविधता का सरंक्षण व संवर्धन स्थानीय लोगों के साथ करने की जरूरत है । प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब दोहन के चलते हिमालय के पारितंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, इस कारण बाढ़, भूकम्प, सूखा, वनाग्नि जैसी घटनाआें की पिछले ३० वर्षोंा से लगातार पुनरावृत्ति हो रही है ।
हिमालय बचाओ ! देश बचाओ ! सिर्फ नारा नहीं है, बल्कि यह हिमालय क्षेत्र में भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी रास्ता है । चिपको आंदोलन के दौरान पहाड़ की महिलाआें ने नारा दिया कि मिट्टी, पानी और बयार । जिंदा रहने के आधार ! और ऊंचाई पर पेड़ रहेंगे । नदी ग्लेशियर टिके रहेंगे ।
जब समझने का वक्त आ गया है कि हिमालयी समाज, संस्कृति और यहां के पर्यावरण के साथ-साथ देश की सुरक्षा के लिए तत्पर हिमालय को मैदानोंके विकासीय दृष्टिकोण से कैसे मापा जा सकता है ?
हॉल ही में तैयार हिमालय लोक नीति के दस्तावेज में दो बाते हैं, जिसमें आंकड़ों के जरिये बताया गया है कि हिमालय नीति की आवश्यकता क्यों है ? दूसरा, हिमालय नीति के बिन्दु क्या हैं, जिसके आधार पर एक समग्र केन्द्रीय हिमालय नीति की मांग की गई है । अगर समय रहते सरकारों ने हिमालय की चिंता नहीं की, तो बढ़ रहे जलवायु परिवर्तन का संकट ओर बढ़ेगा । साथ ही सुरंग, बांधों के श्रृखंलाबद्ध निर्माण से हिमालयी नदियां सुख जायेगी । नतीजतन हिमालयी राज्यों में पलायन की समस्या बढ़ेगी । इसकी एक वजह यह भी है कि अधिकांश हिमालयी राज्यों के निवासी जल, जमीन और सघन वनों के बीच रहकर भी इन पर अपना अधिकार खो चुके है । प्रत्येक वर्ष लगभग १२ लाख मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी हिमालय की नदियों से बहता है, जो पूरे देश में ४० प्रतिशत जलापूर्ति करता है । अत: नदियों के उद्गम वाले हिमालयी राज्यों में नदियों का प्रवाह निरन्तर एवं अविरल बनाये रखना अनिवार्य है । हिमालय का वन क्षेत्र स्वस्थ पर्यावरण के मानकों से भी अधिक है, इसे बचाये रखने के लिए हिमालयी जैव विविधता का सरंक्षण व संवर्धन स्थानीय लोगों के साथ करने की जरूरत है । प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब दोहन के चलते हिमालय के पारितंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, इस कारण बाढ़, भूकम्प, सूखा, वनाग्नि जैसी घटनाआें की पिछले ३० वर्षोंा से लगातार पुनरावृत्ति हो रही है ।
सामयिक
हाथों से फिसलता पानी
प्रो. कृष्णकुमार द्विवेदी
पानी समग्र मानवीय/जैव जगत की आज और आने वाले कल की सर्वप्रमुखीय प्राथमिक आवश्यकता है । सर्वमान्य वैज्ञानिक मत है कि कम से कम पीने का पानी, इस सदा जीवनदायिनी धरा पर रंग, गंध, प्रकृति व स्वाद की दृष्टि से अच्छा, विकृति रहित तथा विशुद्ध होना चाहिए ।
यहाँयह उल्लेखनीय है कि एक दम विशुद्ध आसुत जल पीने के योग्य नहीं होता है, तथा प्रकृति से कठोर, अति कैल्सियम अथवा मैग्नीशियम वाला जल भी पीने के लिए अयोग्य ही माना जाता है । एक साधारण अवधारण है कि पीने का पानी स्वच्छ हो, वस्तुत: प्यास बुझाने वाला हो, मन-मस्तिष्क को प्रफुल्लित व प्रसन्न रखे, तभी वह वास्तविकता में वह शुद्ध पेय जल कहलाता है ।
हाथों से फिसलता पानी
प्रो. कृष्णकुमार द्विवेदी
पानी समग्र मानवीय/जैव जगत की आज और आने वाले कल की सर्वप्रमुखीय प्राथमिक आवश्यकता है । सर्वमान्य वैज्ञानिक मत है कि कम से कम पीने का पानी, इस सदा जीवनदायिनी धरा पर रंग, गंध, प्रकृति व स्वाद की दृष्टि से अच्छा, विकृति रहित तथा विशुद्ध होना चाहिए ।
यहाँयह उल्लेखनीय है कि एक दम विशुद्ध आसुत जल पीने के योग्य नहीं होता है, तथा प्रकृति से कठोर, अति कैल्सियम अथवा मैग्नीशियम वाला जल भी पीने के लिए अयोग्य ही माना जाता है । एक साधारण अवधारण है कि पीने का पानी स्वच्छ हो, वस्तुत: प्यास बुझाने वाला हो, मन-मस्तिष्क को प्रफुल्लित व प्रसन्न रखे, तभी वह वास्तविकता में वह शुद्ध पेय जल कहलाता है ।
मानवीय शरीर में लगभग ७० प्रतिशत जल ही होता है तथा मानव शरीर को प्रतिदिवस १०-२० गिलास पाने के पानी की आवश्यकता पड़ती है । वैसे मनुष्य को इस पीने के पानी की दैनिक आवश्यकता का एक बड़ा हिस्सा शरीर को, नित भोजन के रूप में खाये जाने वाले खाद्य पदार्थो से प्राप्त् होता है और शेष प्रत्यक्ष रूप से पानी पीकर ही पूर्ण होता है ।
ऋत्विक व्यवस्था क्रम में यह आवश्यकता विशेषकर ग्रीष्म ऋतु में और अधिक बढ़ जाती है तथा शीत ऋतु में औसत से कम हो जाती है। नित्य दैनिक चर्या में पानी शरीर की आवश्यकता क्रियाआें - भोजन पचाने, रक्त संचरण, सहज उत्सर्जन एवं समस्त जैविक क्रियाआेंके सहज संचालन के परिप्रेक्ष्य में नितांत आवश्यक तत्व माना जाता है । प्यास लगना ही इस बात का संकेत होता है कि शरीर को पानी की त्वरित आवश्यकता है। सामान्य रूप से मनुष्य में पानी की थोड़ी सी घट-बढ़ शरीर को रूग्ण बना देती है । वस्तुत: शुद्ध जल आवश्यकता के अनुरूप पीने से ही शरीर चुस्त-दुरूस्त रहता है ।
पीने के पानी से ही खाद्य पदार्थो के पौषकीय - पौष्टिक तत्व रक्त में समाहित होते हैं तथा शरीर के रक्तीय नियमित आवश्यक बहाव को भी यथावत बनाये रखता है । पर्याप्त् शुद्ध जल के नियमित सेवन से ही मानव शरीर से कई विकृत तथ्य पसीने और मल-मूत्र के साथ बाहर निकल जाते हैं तथा शरीर की नियमित उत्सर्जन की आवश्यक प्रक्रिया भी सहजता से होती रहती है एवं शरीर का सामान्य ताप भी संतुलित रहता है, प्रात:काल एवं रात्रि में सोने से पहले स्वच्छ शीतल जल का नियमित सेवन शरीर के लिए विशेष लाभकारी होता है तथा शरीर को अनेकों संघात्मक बीमारियों से मुक्त रखने वाला होता है ।
वर्तमान में अधिकांश विकासशील एवं पिछड़े राष्ट्रों में तथा हमारे देश में भी सामान्य तौर पर पानी की स्वच्छता एवं शुद्धता को लेकर जनमानस गंभीर तक नहीं हुआ है, पानी में घुली तरह - तरह की गंदगी की तरफ अधिकांश लोगों का ध्यान भी नहीं जा पाता है, पानी में जो रूग्ण जीवाणु होते हैं वे नग्न आंखों से दिखायी भी नहीं पड़ते हैं, और इसी गंदले पानी के सेवन से लोग अनायास दस्त, पेचिस, हैजा, टाइफाइड, पीलिया, नारू और आंत संबंधी रोगों से ग्रसित होकर बीमार हो जाते हैं, मूलत: पानी की प्राकृतिक स्वच्छता को लेकर आमजन बहुत ही लापरवाही होते हैं ।
हमारे यहां ही अधिकांश लोग आज भी पीने का पानी पोखर, तालाब या कच्च्े कुंए से लाते हैं जहां कपड़े-बर्तन धोए जाते हैं, वहीं लोग स्वयं नहाते हैं और अपने जानवरों को भी नहलाते हैं और तो और शोच के बाद सफाई हेतु प्रत्यक्ष: इन्हीं जल स्त्रोतों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे सारी गंदगी एवं जीवाणु इन्हीं जलीय स्त्रोतों के अंदर जाकर घुल-मिल जाते हैं, इसीलिए सामान्य रूप से पर्याप्त् नदियों एवं ताजे जल की झीलों के होते हुए भी मानव उपयोग हेतु स्वच्छ जल की कमी हो जाती हैंं, हमारे देश में उपलब्ध कुल जल का लगभग ७० प्रतिशत भाग प्रदूषित है जिससे देश के लगभग ७३ लाख क्रियाशील लोग जल संबंधी रोगों से ग्रसित होकर अशक्त व बेकार हो जाते हैं, यह महज आश्चर्यजनक नहीं वरन प्रमाणक तथ्य है कि दूषित जल पीने के कारण विश्व में प्रतिदिन लगभग २५००० व्यक्ति काल कवलित हो जाते हैं ।
प्रदूषित पेय जल मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य प्राणियों को भी प्रभावित करता है, इसी के कारण प्राणियों एवं वनस्पतियों की चपापचयशीलता में बाधा पड़ती है अथवा वे निष्ट तक हो जाते हैं । वर्तमान सदी में आसन्न जल संकट के सामाजिक पहलुआें में सबसे महत्वपूर्ण एवं सबसे गंभीर संकट पेजयल का ही है, पृथ्वी पर चर्तुदिक जल ही जल होेने के बावजूद यह कठोर सत्य है कि स्वच्छ पेयजल की समस्या एक सर्वाधिक बड़ी समस्या है जिसका सुनिश्चित हल मनुष्य मात्र को ही खोजना ही होगा ।
पानी और जिन्दगी के लिये - आसमान से बरसता, नदियों से बहता हाथों से फिसलता पानी, यानी जिन्दगी से दूर होता पानी ।
आज भारत में ही -
बीस करोड़ लोग दूर हैं, साफ पानी से प्रत्येक वर्ष ५ साल से कम उम्र के १५ लाख बच्चें की मौत होती है, इन रोगों से जो मरते हैं उसका कारण है खराब पानी ।
भूजल स्तर के नीचे जाने से, पानी में बढा है फ्लोराइड और आर्सेनिक का प्रदूषण ।
औद्योगिकरण की बढ़ती रफ्तार ने गुणवत्ता खराब की है पानी की ।
पानी का व्यक्तिगत औसत उपयोग ६८० क्यूबिक मीटर हुआ है जो २०५० तक दुगुना होगा, ये हुआ - क्योंकि हम सवा अरब हैं, साठ वर्ष में दुगुने हो गए हैं हम और अगले तकरीबन तीस सालों में हम २ अरब होंगे, फिर कहां होगी पानी की रवानी ?
कैसे होगी बिना पानी के जिन्दगी की कहानी ?
स्वच्छ पीने के पानी के स्त्रोत -
हैण्ड पंप से क्योंकि हैण्डपंप धरती के नीचे बंद साफ पानी को खींचकर सीधे बाहर लाता है, इसलिए उसमें गंदगी से बीमारी फैलाने वाले कीटाणु नहीं मिल पाते हैं ।
पक्का ढका हुआ कुंआ जिसमें आसपास चबूतरा बना हो और गंदगी न जमा होती हो ।
पाइप द्वारा आने वाला नल का पानी ।
पानी शुद्ध रखने के कुछ सामान्य उपाय -
पीने के पानी में दवा (क्लोरीन) डालें, कुंआें में भी नियमित रूप से दवा डलवायें ।
पीने के पानीे के लगभग २ से ५ मिनट तक उबालना चाहिए और फिर छानकर, ढक्कनदार बर्तन मेंरखना चाहिए ।
ब्राह्य स्त्रोत से प्राप्त् पानी को दोहरे कपड़े से छानकर ही पीने के लिए इस्तेमाल में लेना चाहिए ।
पानी के घड़े में सहजन के एक मुट्ठी बीज डालना चाहिए, जिससे पानी स्वच्छ हो जाता है ।
जीवाणु युक्त पानी को साफ बोतल में भरकर कड़ी धूप में रखने से, बीमारियों के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं ।
सफाई का विशेष ध्यान -
खाना बनाने, खिलाने, खाने से पहले और शौच जाने, झूठे बर्तन धुलवाने या उठाने के बाद हमें हाथ जरूर साबुन या राख से धो लेने चाहिए ।
शौच जाने के लिए अपने घर में ही शौचालय अवश्य हो और यदि नहीं है तो कम से कम बस्ती में एक दो सार्वजनिक शौचालय अवश्य हो जिनका नियमित स्वच्छता व्यवस्थापन हो ।
मक्खियों से अपना खाना और पीने का पानी बचाये रखने के लिए अपना खाना और पीने का पानी हमेशा ढक कर रखना चाहिए । जल ही जीवन है इसलिए जीवन को सुदीर्घ बनाने के लिए जल पर ध्यान दिया जाना जरूरी है । ऐसे स्वच्छता उपाय अपना कर ही हम स्वस्थ रह सकते है ।
ऋत्विक व्यवस्था क्रम में यह आवश्यकता विशेषकर ग्रीष्म ऋतु में और अधिक बढ़ जाती है तथा शीत ऋतु में औसत से कम हो जाती है। नित्य दैनिक चर्या में पानी शरीर की आवश्यकता क्रियाआें - भोजन पचाने, रक्त संचरण, सहज उत्सर्जन एवं समस्त जैविक क्रियाआेंके सहज संचालन के परिप्रेक्ष्य में नितांत आवश्यक तत्व माना जाता है । प्यास लगना ही इस बात का संकेत होता है कि शरीर को पानी की त्वरित आवश्यकता है। सामान्य रूप से मनुष्य में पानी की थोड़ी सी घट-बढ़ शरीर को रूग्ण बना देती है । वस्तुत: शुद्ध जल आवश्यकता के अनुरूप पीने से ही शरीर चुस्त-दुरूस्त रहता है ।
पीने के पानी से ही खाद्य पदार्थो के पौषकीय - पौष्टिक तत्व रक्त में समाहित होते हैं तथा शरीर के रक्तीय नियमित आवश्यक बहाव को भी यथावत बनाये रखता है । पर्याप्त् शुद्ध जल के नियमित सेवन से ही मानव शरीर से कई विकृत तथ्य पसीने और मल-मूत्र के साथ बाहर निकल जाते हैं तथा शरीर की नियमित उत्सर्जन की आवश्यक प्रक्रिया भी सहजता से होती रहती है एवं शरीर का सामान्य ताप भी संतुलित रहता है, प्रात:काल एवं रात्रि में सोने से पहले स्वच्छ शीतल जल का नियमित सेवन शरीर के लिए विशेष लाभकारी होता है तथा शरीर को अनेकों संघात्मक बीमारियों से मुक्त रखने वाला होता है ।
वर्तमान में अधिकांश विकासशील एवं पिछड़े राष्ट्रों में तथा हमारे देश में भी सामान्य तौर पर पानी की स्वच्छता एवं शुद्धता को लेकर जनमानस गंभीर तक नहीं हुआ है, पानी में घुली तरह - तरह की गंदगी की तरफ अधिकांश लोगों का ध्यान भी नहीं जा पाता है, पानी में जो रूग्ण जीवाणु होते हैं वे नग्न आंखों से दिखायी भी नहीं पड़ते हैं, और इसी गंदले पानी के सेवन से लोग अनायास दस्त, पेचिस, हैजा, टाइफाइड, पीलिया, नारू और आंत संबंधी रोगों से ग्रसित होकर बीमार हो जाते हैं, मूलत: पानी की प्राकृतिक स्वच्छता को लेकर आमजन बहुत ही लापरवाही होते हैं ।
हमारे यहां ही अधिकांश लोग आज भी पीने का पानी पोखर, तालाब या कच्च्े कुंए से लाते हैं जहां कपड़े-बर्तन धोए जाते हैं, वहीं लोग स्वयं नहाते हैं और अपने जानवरों को भी नहलाते हैं और तो और शोच के बाद सफाई हेतु प्रत्यक्ष: इन्हीं जल स्त्रोतों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे सारी गंदगी एवं जीवाणु इन्हीं जलीय स्त्रोतों के अंदर जाकर घुल-मिल जाते हैं, इसीलिए सामान्य रूप से पर्याप्त् नदियों एवं ताजे जल की झीलों के होते हुए भी मानव उपयोग हेतु स्वच्छ जल की कमी हो जाती हैंं, हमारे देश में उपलब्ध कुल जल का लगभग ७० प्रतिशत भाग प्रदूषित है जिससे देश के लगभग ७३ लाख क्रियाशील लोग जल संबंधी रोगों से ग्रसित होकर अशक्त व बेकार हो जाते हैं, यह महज आश्चर्यजनक नहीं वरन प्रमाणक तथ्य है कि दूषित जल पीने के कारण विश्व में प्रतिदिन लगभग २५००० व्यक्ति काल कवलित हो जाते हैं ।
प्रदूषित पेय जल मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य प्राणियों को भी प्रभावित करता है, इसी के कारण प्राणियों एवं वनस्पतियों की चपापचयशीलता में बाधा पड़ती है अथवा वे निष्ट तक हो जाते हैं । वर्तमान सदी में आसन्न जल संकट के सामाजिक पहलुआें में सबसे महत्वपूर्ण एवं सबसे गंभीर संकट पेजयल का ही है, पृथ्वी पर चर्तुदिक जल ही जल होेने के बावजूद यह कठोर सत्य है कि स्वच्छ पेयजल की समस्या एक सर्वाधिक बड़ी समस्या है जिसका सुनिश्चित हल मनुष्य मात्र को ही खोजना ही होगा ।
पानी और जिन्दगी के लिये - आसमान से बरसता, नदियों से बहता हाथों से फिसलता पानी, यानी जिन्दगी से दूर होता पानी ।
आज भारत में ही -
बीस करोड़ लोग दूर हैं, साफ पानी से प्रत्येक वर्ष ५ साल से कम उम्र के १५ लाख बच्चें की मौत होती है, इन रोगों से जो मरते हैं उसका कारण है खराब पानी ।
भूजल स्तर के नीचे जाने से, पानी में बढा है फ्लोराइड और आर्सेनिक का प्रदूषण ।
औद्योगिकरण की बढ़ती रफ्तार ने गुणवत्ता खराब की है पानी की ।
पानी का व्यक्तिगत औसत उपयोग ६८० क्यूबिक मीटर हुआ है जो २०५० तक दुगुना होगा, ये हुआ - क्योंकि हम सवा अरब हैं, साठ वर्ष में दुगुने हो गए हैं हम और अगले तकरीबन तीस सालों में हम २ अरब होंगे, फिर कहां होगी पानी की रवानी ?
कैसे होगी बिना पानी के जिन्दगी की कहानी ?
स्वच्छ पीने के पानी के स्त्रोत -
हैण्ड पंप से क्योंकि हैण्डपंप धरती के नीचे बंद साफ पानी को खींचकर सीधे बाहर लाता है, इसलिए उसमें गंदगी से बीमारी फैलाने वाले कीटाणु नहीं मिल पाते हैं ।
पक्का ढका हुआ कुंआ जिसमें आसपास चबूतरा बना हो और गंदगी न जमा होती हो ।
पाइप द्वारा आने वाला नल का पानी ।
पानी शुद्ध रखने के कुछ सामान्य उपाय -
पीने के पानी में दवा (क्लोरीन) डालें, कुंआें में भी नियमित रूप से दवा डलवायें ।
पीने के पानीे के लगभग २ से ५ मिनट तक उबालना चाहिए और फिर छानकर, ढक्कनदार बर्तन मेंरखना चाहिए ।
ब्राह्य स्त्रोत से प्राप्त् पानी को दोहरे कपड़े से छानकर ही पीने के लिए इस्तेमाल में लेना चाहिए ।
पानी के घड़े में सहजन के एक मुट्ठी बीज डालना चाहिए, जिससे पानी स्वच्छ हो जाता है ।
जीवाणु युक्त पानी को साफ बोतल में भरकर कड़ी धूप में रखने से, बीमारियों के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं ।
सफाई का विशेष ध्यान -
खाना बनाने, खिलाने, खाने से पहले और शौच जाने, झूठे बर्तन धुलवाने या उठाने के बाद हमें हाथ जरूर साबुन या राख से धो लेने चाहिए ।
शौच जाने के लिए अपने घर में ही शौचालय अवश्य हो और यदि नहीं है तो कम से कम बस्ती में एक दो सार्वजनिक शौचालय अवश्य हो जिनका नियमित स्वच्छता व्यवस्थापन हो ।
मक्खियों से अपना खाना और पीने का पानी बचाये रखने के लिए अपना खाना और पीने का पानी हमेशा ढक कर रखना चाहिए । जल ही जीवन है इसलिए जीवन को सुदीर्घ बनाने के लिए जल पर ध्यान दिया जाना जरूरी है । ऐसे स्वच्छता उपाय अपना कर ही हम स्वस्थ रह सकते है ।
हमारा भूमण्डल
कार्बन उत्सर्जन घटाने की जिम्मेदारी
प्रमोद भार्गव
अब तक भारत सहित सारे विकासशील देशों का तर्क रहा है कि कार्बन गैसों के उत्सर्जन में विकसित देशों की भूमिका अधिक है, इसलिए इन पर रोक की जिम्मेदारी उनकी ही है, साथ ही उन्हें उत्सर्जन कम करने की तकनीक में भी निवेश करना चाहिए ।
भारत और चीन जैसे देशों की सामान्य मान्यता यही है कि अगर वे विकसित देशों का नजरिया स्वीकार करें तो इसका उनके आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर होगा । खासकर इस तय को जानते हुए कि भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याएं उनके पाले मेंअधिक हैं ।
कार्बन उत्सर्जन घटाने की जिम्मेदारी
प्रमोद भार्गव
अब तक भारत सहित सारे विकासशील देशों का तर्क रहा है कि कार्बन गैसों के उत्सर्जन में विकसित देशों की भूमिका अधिक है, इसलिए इन पर रोक की जिम्मेदारी उनकी ही है, साथ ही उन्हें उत्सर्जन कम करने की तकनीक में भी निवेश करना चाहिए ।
भारत और चीन जैसे देशों की सामान्य मान्यता यही है कि अगर वे विकसित देशों का नजरिया स्वीकार करें तो इसका उनके आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर होगा । खासकर इस तय को जानते हुए कि भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याएं उनके पाले मेंअधिक हैं ।
अपनी महत्वाकांक्षी योजना पेश करते हुए यह साफ कर दिया है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में वह अपनी जिम्मेदारियों ये पीछे नहीं हटने वाला । सरकार ने जो योजना विश्व के सामने रखी है उसके मुताबिक २०३० तक देश के ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में ३३ से ३५ प्रतिशत तक की कटौती की जाएगी । यह कटौती २००५ में ग्रीनहाउस उत्सर्जन की तुलना में होगी । भारत ने एक और महत्वपूर्ण घोषणा करते हुए यह भी कहा है कि २०३० तक कुल बिजली उत्पादन का ४० प्रतिशत नवीनीकृत ऊर्जा स्त्रोतोंसे प्राप्त् होगा । कार्बन प्रदूषण कम करने की दिशा में भारत ने यह भी तय किया है कि जंगलों का क्षेत्र बढ़ाया जाएगा । भारत के ये रोडमैप, जिसे आईएनडीसी कहते हैं, संयुक्त राष्ट्र के उस प्रोटोकॉल का हिस्सा है जिसमें सभी देशों को पेरिस सम्मेलन से पहले कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्यों की घोषणा करनी थी । पेरिस में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ३० नवम्बर से होना है । इसका मकसद २०२० से अमल में आने वाली जलवायु परिर्वतन संधि को अंतिम रूप देना है ।
गौर करनेवाली बात है कि भारत ने अपनी घोषणा का दिन दो अक्टूबर को चुना, जो गांधीजी की जयंती है । देश के सबसे बड़े आइकॉन की जयंती पर घोषणा कर भारत ने सकारात्मक संकेत दिया है । भारत आज सकल रूप से अमेरिका और चीन के बाद कार्बन का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है । हालांकि यह सच्चई भी कायम है कि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अब भी बहुत कम है । इस बिंदु पर भारत पहले कई बार विकसित देशोंसे उलझता रहा है, लेकिन अब ज्यादा उलझाव पैदा करने की जरूरत नहीं ।
हम पेचीदगियों में न पड़ें, यह अच्छी बात है । आखिर हम जो लक्ष्य तय कर रहे है उससे पूरी मानव जाति का भला है । हालांकि अभी यह समझना जल्दबाजी होगी कि भारत की इस घोषणा से नई संधि का रास्ता खुल गया है । कुछ मुद्दे हैं, जिन पर अब भी विकासशील और विकसित देशों में टकराव की गुंजाइश है । गौर करने वाली बात है कि इनमें भारत का रोल काफी अहम है । सबसे बड़ा सवाल तकनीक और धन का होगा । जब क्योटो प्रोटोकॉल की वार्ताएं चल रही थीं, उस समय विकसित देशों ने पिछड़े और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने के उपाय करने के लिए धन और तकनीक देने का वादा किया था । यह वादा पूरी तरह से अभी पूरा नहीं हुआ है ।
विकासशील देश इस सिद्धांत को मानते है चूंकि ऐतिहासिक रूप से विकसित देशों ने अधिक प्रदूषण फैलाया है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी भी अधिक बनती है । विवाद का एक और बड़ा मसला विभिन्न देशों की ओर से तय योजना के अमल पर निगरानी और समीक्षा से जुड़ा हुआ है । भारत जैसे विकासशील देशों को अपेक्षा है कि इसमें उन्हें कुछ रियारत जरूर हासिल होगी । अगर विकासशील देशों की चिंताआें पर विकसित देश ध्यान नहीं देते तो न तो वार्ता का प्रतिफल कुछ निकलेगा और न ही पर्यावरण की दशा सुधरेगी । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में वार्ता पर वार्ता हो रही है लेकिन इसके परिणाम आशानुरूप नहीं दिख रहे । ज्यादातर वार्ताआें की सफलता विकसित देशों के रवैये पर निर्भर करती है । दरअसल विकसित देशों द्वारा क्योटो प्रोटोकाल को खारिज करने की कोशिश की जा रही है ।
विकसित देश अपने और विकासशील देशों के बीच के मूलभूत अंतर को नजरअंदाज कर आगे बढ़ने की नीति पर चल रहे हैं । उम्मीद की जाती है कि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन की ठोस योजना पेश करें लेकिन वे कार्बन उत्सर्जनसे जुड़े आंकड़े सामने लाने को लेकर गंभीरता नहीं दिखा रहे । उनकी पूरी कोशिश है कि क्योटो प्रोटोकाल की जगह एक नई व्यवस्था बनाई जाए । यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ग्लोबल वार्मिंग का कारण ग्रीनहाउस गैसें हैं और इसे हर हाल में कम किया जाना चाहिए । विकसित और विकासशील देशों के बीच जो गतिरोध है उन्हें खत्म करने के लिए जरूरी है कि दोनों पक्षों की भूमिका सकारात्मक हो ।
विकसित देश, जिनकी अगुवाई अमेरका कर रहा है, चाहते हैं कि भारत और चीन जैसे देश लक्ष्य बनाकर क्लोराफ्लेरोकार्बनगैसों का उत्सर्जन कम करें । अब तक भारत सहित सारे विकासशील देशों का तर्क रहा है कि कार्बन गैसों के उत्सर्जन में विकसित देशों की भूमिका अधिक है और इसलिए इन पर रोक की जिम्मेदारी उनकी ही है, साथ ही उन्हें उत्सर्जन कम करने की तकनीक में भी निवेश करना चाहिए । भारत और चीन देशों की सामान्य मान्यता यही है कि अगर वे विकसित देशों का नजरिया स्वीकार करें तो इसका उनके आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर होगा । खासकर इस तथ्य को जानते हुए कि भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याएं उनके पाले मेंअधिक हैं ।
विकसित देश बार-बार इस आंकड़े को सामने रख रहे हैं कि इस समय कार्बन उत्सर्जन की ८० फीसद वृद्धि भारत और चीन में हो रही है । लेकिन भारत और चीन के तर्क हैं कि यह दर एक तो उसकी अर्थव्यवस्था कके विकास के लिए अपरिहार्य है, दूसरा यदि यही दर एक-दो दशक तक भी जारी रही तो भी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अमेरिका जैसे देशों की तुलना में कम होगा । गौर करने वाली बात है कि क्योटो प्रोटोकाल के तहत जो बाते हुई, वे विकासशील देशों के नजरिये के पक्ष मेंजाती हैं । विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती तो करें ही, इसमें आने वाली लागत का भार भी खुद वहन करें । यह बात विकासशील देशों को मंजूर नहीं । लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि भारत और चीन दोनों को यह पता है कि उनकी नियंत्रण भूमिका में इधर काफी विस्तार हुआ है और इसलिए अन्य देशों को उनसे उम्मीदें भी अधिक हैं ।
ये दोनों देश इस चीज से बचना चाहते हैं कि उन्हें जलवायु परिवर्तन की समस्या को लेकर अगंभीर व जिम्मेदारहीन न मान लिया जाए । खासकर जबसे अमेरिका ने १९९० के मुकाबले २०५० तक ग्रीनहाउस गैसोंके उत्सर्जन में ८० फीसद और जापान ने २५ फीसद कटौती की बात की है । वैसे अमेरिका में एक बड़ा गतिरोध रिपब्लिकन पार्टी की ओर से आ रहा है । यह पार्टी मानती है कि गैस उत्सर्जन में कमी होने से विकास बाधित होगा । रिपब्लिकनों के विरोध के कारण वहां कटौती का प्रस्ताव पास करवा पाना मुश्किल साबित हो रहा है । पर्यावरण बचाने की मुहिम पांच-छह साल पहले कुछ हद तक पटरी पर आती दिख रही थी, लेकिन इस बीच आई आर्थिक मंदी ने इस मुहिम को नुकसान पहुंचाया । क्योंकि मंदी के बाद तमाम देशों का ध्यान अपने आर्थिक विकास को किसी तरह तेज करने पर गया, लेकिन शायद ही कहीं गंभीरता से यह प्रयास हुआ कि ऐसा पर्यावरण विनाश की शर्त पर कतई न हो ।
विकसित देश तो इस चालाकी में लगे हुए हैं कि कैसेअपने नुकसानदायक उद्योग धंधे को विकासशील और पिछड़े देशों में शिफ्ट कर दिया जाए । लेकिन अब समय चालाकी बरतने का नहीं है । उम्मीद की जानी चाहिए कि पेरिस में जब दुनियाभर के देश इस मुद्दे पर जमा होंगे, कोई ऐसा रास्ता निकलेगा जो पूरी दुनिया के हित में होगा । सभी देशों को इस मसले पर साहस दिखाने की जरूरत है ।
गौर करनेवाली बात है कि भारत ने अपनी घोषणा का दिन दो अक्टूबर को चुना, जो गांधीजी की जयंती है । देश के सबसे बड़े आइकॉन की जयंती पर घोषणा कर भारत ने सकारात्मक संकेत दिया है । भारत आज सकल रूप से अमेरिका और चीन के बाद कार्बन का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है । हालांकि यह सच्चई भी कायम है कि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अब भी बहुत कम है । इस बिंदु पर भारत पहले कई बार विकसित देशोंसे उलझता रहा है, लेकिन अब ज्यादा उलझाव पैदा करने की जरूरत नहीं ।
हम पेचीदगियों में न पड़ें, यह अच्छी बात है । आखिर हम जो लक्ष्य तय कर रहे है उससे पूरी मानव जाति का भला है । हालांकि अभी यह समझना जल्दबाजी होगी कि भारत की इस घोषणा से नई संधि का रास्ता खुल गया है । कुछ मुद्दे हैं, जिन पर अब भी विकासशील और विकसित देशों में टकराव की गुंजाइश है । गौर करने वाली बात है कि इनमें भारत का रोल काफी अहम है । सबसे बड़ा सवाल तकनीक और धन का होगा । जब क्योटो प्रोटोकॉल की वार्ताएं चल रही थीं, उस समय विकसित देशों ने पिछड़े और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने के उपाय करने के लिए धन और तकनीक देने का वादा किया था । यह वादा पूरी तरह से अभी पूरा नहीं हुआ है ।
विकासशील देश इस सिद्धांत को मानते है चूंकि ऐतिहासिक रूप से विकसित देशों ने अधिक प्रदूषण फैलाया है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी भी अधिक बनती है । विवाद का एक और बड़ा मसला विभिन्न देशों की ओर से तय योजना के अमल पर निगरानी और समीक्षा से जुड़ा हुआ है । भारत जैसे विकासशील देशों को अपेक्षा है कि इसमें उन्हें कुछ रियारत जरूर हासिल होगी । अगर विकासशील देशों की चिंताआें पर विकसित देश ध्यान नहीं देते तो न तो वार्ता का प्रतिफल कुछ निकलेगा और न ही पर्यावरण की दशा सुधरेगी । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में वार्ता पर वार्ता हो रही है लेकिन इसके परिणाम आशानुरूप नहीं दिख रहे । ज्यादातर वार्ताआें की सफलता विकसित देशों के रवैये पर निर्भर करती है । दरअसल विकसित देशों द्वारा क्योटो प्रोटोकाल को खारिज करने की कोशिश की जा रही है ।
विकसित देश अपने और विकासशील देशों के बीच के मूलभूत अंतर को नजरअंदाज कर आगे बढ़ने की नीति पर चल रहे हैं । उम्मीद की जाती है कि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन की ठोस योजना पेश करें लेकिन वे कार्बन उत्सर्जनसे जुड़े आंकड़े सामने लाने को लेकर गंभीरता नहीं दिखा रहे । उनकी पूरी कोशिश है कि क्योटो प्रोटोकाल की जगह एक नई व्यवस्था बनाई जाए । यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ग्लोबल वार्मिंग का कारण ग्रीनहाउस गैसें हैं और इसे हर हाल में कम किया जाना चाहिए । विकसित और विकासशील देशों के बीच जो गतिरोध है उन्हें खत्म करने के लिए जरूरी है कि दोनों पक्षों की भूमिका सकारात्मक हो ।
विकसित देश, जिनकी अगुवाई अमेरका कर रहा है, चाहते हैं कि भारत और चीन जैसे देश लक्ष्य बनाकर क्लोराफ्लेरोकार्बनगैसों का उत्सर्जन कम करें । अब तक भारत सहित सारे विकासशील देशों का तर्क रहा है कि कार्बन गैसों के उत्सर्जन में विकसित देशों की भूमिका अधिक है और इसलिए इन पर रोक की जिम्मेदारी उनकी ही है, साथ ही उन्हें उत्सर्जन कम करने की तकनीक में भी निवेश करना चाहिए । भारत और चीन देशों की सामान्य मान्यता यही है कि अगर वे विकसित देशों का नजरिया स्वीकार करें तो इसका उनके आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर होगा । खासकर इस तथ्य को जानते हुए कि भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याएं उनके पाले मेंअधिक हैं ।
विकसित देश बार-बार इस आंकड़े को सामने रख रहे हैं कि इस समय कार्बन उत्सर्जन की ८० फीसद वृद्धि भारत और चीन में हो रही है । लेकिन भारत और चीन के तर्क हैं कि यह दर एक तो उसकी अर्थव्यवस्था कके विकास के लिए अपरिहार्य है, दूसरा यदि यही दर एक-दो दशक तक भी जारी रही तो भी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अमेरिका जैसे देशों की तुलना में कम होगा । गौर करने वाली बात है कि क्योटो प्रोटोकाल के तहत जो बाते हुई, वे विकासशील देशों के नजरिये के पक्ष मेंजाती हैं । विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती तो करें ही, इसमें आने वाली लागत का भार भी खुद वहन करें । यह बात विकासशील देशों को मंजूर नहीं । लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि भारत और चीन दोनों को यह पता है कि उनकी नियंत्रण भूमिका में इधर काफी विस्तार हुआ है और इसलिए अन्य देशों को उनसे उम्मीदें भी अधिक हैं ।
ये दोनों देश इस चीज से बचना चाहते हैं कि उन्हें जलवायु परिवर्तन की समस्या को लेकर अगंभीर व जिम्मेदारहीन न मान लिया जाए । खासकर जबसे अमेरिका ने १९९० के मुकाबले २०५० तक ग्रीनहाउस गैसोंके उत्सर्जन में ८० फीसद और जापान ने २५ फीसद कटौती की बात की है । वैसे अमेरिका में एक बड़ा गतिरोध रिपब्लिकन पार्टी की ओर से आ रहा है । यह पार्टी मानती है कि गैस उत्सर्जन में कमी होने से विकास बाधित होगा । रिपब्लिकनों के विरोध के कारण वहां कटौती का प्रस्ताव पास करवा पाना मुश्किल साबित हो रहा है । पर्यावरण बचाने की मुहिम पांच-छह साल पहले कुछ हद तक पटरी पर आती दिख रही थी, लेकिन इस बीच आई आर्थिक मंदी ने इस मुहिम को नुकसान पहुंचाया । क्योंकि मंदी के बाद तमाम देशों का ध्यान अपने आर्थिक विकास को किसी तरह तेज करने पर गया, लेकिन शायद ही कहीं गंभीरता से यह प्रयास हुआ कि ऐसा पर्यावरण विनाश की शर्त पर कतई न हो ।
विकसित देश तो इस चालाकी में लगे हुए हैं कि कैसेअपने नुकसानदायक उद्योग धंधे को विकासशील और पिछड़े देशों में शिफ्ट कर दिया जाए । लेकिन अब समय चालाकी बरतने का नहीं है । उम्मीद की जानी चाहिए कि पेरिस में जब दुनियाभर के देश इस मुद्दे पर जमा होंगे, कोई ऐसा रास्ता निकलेगा जो पूरी दुनिया के हित में होगा । सभी देशों को इस मसले पर साहस दिखाने की जरूरत है ।
दीपावली पर विशेष
पर्यावरण, स्वास्थ्य व आर्थिक मंदी
डॉ. ओ.पी. जोशी
आर्थिक मंदी की वजह से घटता उत्पादन जहां एक ओर पर्यावरण को फायदा पहुंचाता है वहीं दूसरी ओर इसकी वजह से बढ़ती परेशानियों के मद्देनजर तमाम लोग पर्यावरण की चिंता करना ही छोड़ देते हैं ।
पृथ्वी पर जिस प्रकार भूकम्प, ज्वालामुखी, बाढ़, सूखा चक्रवात एवं सुनामी नामक प्राकृतिक आपदाएं आती रहती हैं ठीक उसी प्रकार मनुष्य द्वारा स्थापित वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी मंदी के झटके आते रहते हैं । सबसे पहले सन् १९३० के आसपास दुनिया के बाजारों में भयानक मंदी आयी थी । वर्ष २००७ एवं २००८ में अमेरिका मंदी के दौर से गुजरा । ग्रीस में यह संकट अभी भी जारी है । दुनिया भर में दबी जुबान से मंदी का खतरा बताया जा रहा है ।
पर्यावरण, स्वास्थ्य व आर्थिक मंदी
डॉ. ओ.पी. जोशी
आर्थिक मंदी की वजह से घटता उत्पादन जहां एक ओर पर्यावरण को फायदा पहुंचाता है वहीं दूसरी ओर इसकी वजह से बढ़ती परेशानियों के मद्देनजर तमाम लोग पर्यावरण की चिंता करना ही छोड़ देते हैं ।
पृथ्वी पर जिस प्रकार भूकम्प, ज्वालामुखी, बाढ़, सूखा चक्रवात एवं सुनामी नामक प्राकृतिक आपदाएं आती रहती हैं ठीक उसी प्रकार मनुष्य द्वारा स्थापित वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी मंदी के झटके आते रहते हैं । सबसे पहले सन् १९३० के आसपास दुनिया के बाजारों में भयानक मंदी आयी थी । वर्ष २००७ एवं २००८ में अमेरिका मंदी के दौर से गुजरा । ग्रीस में यह संकट अभी भी जारी है । दुनिया भर में दबी जुबान से मंदी का खतरा बताया जा रहा है ।
विश्व बैंक ने भी अपने एक वक्तव्य में कहा है कि वर्ष २०१५ में वैश्विक वृद्धि दर (ग्लोबल ग्रोथ रेट) कम ही रही है। आर्थिक व्यवस्था मनुष्य जीवन के कई आयामों से जुड़ी रहती है। अत: आर्थिक तेजी या मंदी मनुष्य को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित करती है । मंदी के दौरान शिशु जन्म, मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों के संदर्भ में वैज्ञानिकोंने कुछ प्रारम्भिक अध्ययन किये हैं।
कोपनहेगन बिजनेस स्कूल में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर सुश्री अर्जा वर्डा डोटीर ने अध्ययन कर बताया कि मंदी में पैदा शिशुओं के वजन में औसतन १२० ग्राम कमी देखी गयी । आइसलैंड में वर्ष २००८ में आई अचानक मंदी के बाद राष्ट्रीय जन्म रजिस्टर में दर्ज रिकार्ड के आधार पर यह अध्ययन कर जर्मनी के मानहेम में यूरोपीय इकॉनामिक एसोसिएशन के सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया । शिशुओं के वजन में आई कमी का कोई स्पष्ट एवं ठोस कारण तो नहीं बताया गया परन्तु यह सम्भावना है कि मंदी के कारण महिलाओं को गर्भावस्था के समय उचित पोषकआहार न मिला हो । अमेरिका में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार मंदी लोगांे में मोटापा भी बढ़ाती है । मंदी के समय लोग ज्यादा चिंतित एवं थोड़े निराश रहते हैं ।
अपनी चिंता एवं निराशा को कम करने हेतु वे फास्ट-फूड एवं स्नेक्स आदि का ज्यादा सेवन करने लगते हैं । यही मोटापे का कारण बनता है। कार्यालयों में कार्यरत ४३ प्रतिशत से ज्यादा कर्मचारियों ने माना कि चिंता में ज्यादा खाने से उनका वजन बढ़ा है । पुरुषों की तुलना में महिलाओं का वजन ज्यादा बढ़ा । उनका औसतन वजन ८ से १० पौंड तक बढ़ा । ब्रिटेन वि.वि. के पोषण आहार विशेषज्ञों(डायटीशियंस) तथा जीव वैज्ञानिकों (बायलॉजिस्ट) ने सन् १८८० से १९९० (११० वर्ष) के बीच यूरोप के १५ देशों के लोगों पर आहार आधारित अध्ययन किया ।
अध्ययन के परिणाम में बताया कि ब्रिटेन, नीदरलैंड, आयरलैंड, आस्ट्रिया, बेल्जियम तथा स्कैंडेनिविया में दोनों विश्वयुद्ध तथा मंदी के दौरान पुरुषों की ऊंचाई में लगभग ग्यारह से.मी. का इजाफा हुआ । इसे इस प्रकार समझाया गया कि मंदी के वर्णन समय में परिवार का आकार छोटा रखने पर ध्यान दिया गया। इससे कम बच्च्े पैदा हुए एवं इसका प्रभाव उनकी ऊँचाई पर हुआ । यह अध्ययन रिपोर्ट तैयार करने वाले प्रो. टी. हेमटन के अनुसार पूर्व में भी कुछ वैज्ञानिक प्रजनन में कमी को ऊँचाई बढ़ने से जोड़कर अध्ययन कर चुके हैं । पर्यावरण के संदर्भ में वर्ष २००७-०८ की मंदी से कार्बन डायऑक्साइड का उर्त्सजन घट गया ।
नीदरलैंड स्थित एनवायर-मंेटल एसेसमेंट एजेंसी ने अपने अध्ययन में पाया कि वर्ष २००० से २००५ के मध्य वैश्विक स्तर पर कार्बन डायऑक्साइड की वृद्धि दर १८ प्रतिशत के लगभग रही । वर्ष २००० के बाद वृद्धि ४ प्रतिशत से बढ़ी लेकिन सन् २००८ में घटकर १.७ से २ प्रतिशत के मध्य रह गयी । घटने का कारण यह बताया गया कि मंदी के कारण यातायात, कारखानों में उत्पादन तथा कई अन्य गतिविधियों में कमी आयी जिसके फलस्वरूप उत्सर्जन घट गया । हड़तालों के समय कम गतिविधियों से प्रदूषण में कमी का आंकलन भी किया गया है ।
मुंबई में वर्ष २००० में परिवहन हड़ताल के कारण १८ स्थानों पर प्रदूषण के स्तर में ४० से ६० प्रतिशत तक की कमी आई थी । एक अध्ययन यह भी दर्शाता है कि मंदी में पर्यावरण के प्रति चिंताए घट जाती हैं ।
वर्ष २०१२ में ग्लोेबल स्केन राडार नामक संस्था ने २२ देशों के २३ हजार लोगों पर एक सर्वेक्षण किया । परिणाम में बताया गया कि वर्ष २००७-०८ की मंदी के बाद वर्ष २०१०-११ में पर्यावरण के प्रति लोगांे की चिंताए काफी कम हो गयी । नब्बे के दशक में लोेग प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग, जैवविविधता संरक्षण, शुद्धपेय जल प्राप्ति व जलवायु परिवर्तन आदि समस्याओं पर गहन चिंता रखते थे । परंतु अब इनके प्रति ज्यादा सरोकार नहीं रखते । मंदी के कारण पर्यावरण पर पहले औद्योगिक देशों ने कम ध्यान दिया परंतु बाद मंे चीन व ब्राजील जैसे देश भी पर्यावरण की चिंता छोड़ते नजर आये । मई २०१४ में हमारे देश में बनी केन्द्र की नई सरकार भी विकास दर तेज करने हेतु पर्यावरण की अनदेखी कर रही है भविष्य में इसके गम्भीर व भयानक परिणाम सामने आएंगेे ।
कोपनहेगन बिजनेस स्कूल में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर सुश्री अर्जा वर्डा डोटीर ने अध्ययन कर बताया कि मंदी में पैदा शिशुओं के वजन में औसतन १२० ग्राम कमी देखी गयी । आइसलैंड में वर्ष २००८ में आई अचानक मंदी के बाद राष्ट्रीय जन्म रजिस्टर में दर्ज रिकार्ड के आधार पर यह अध्ययन कर जर्मनी के मानहेम में यूरोपीय इकॉनामिक एसोसिएशन के सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया । शिशुओं के वजन में आई कमी का कोई स्पष्ट एवं ठोस कारण तो नहीं बताया गया परन्तु यह सम्भावना है कि मंदी के कारण महिलाओं को गर्भावस्था के समय उचित पोषकआहार न मिला हो । अमेरिका में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार मंदी लोगांे में मोटापा भी बढ़ाती है । मंदी के समय लोग ज्यादा चिंतित एवं थोड़े निराश रहते हैं ।
अपनी चिंता एवं निराशा को कम करने हेतु वे फास्ट-फूड एवं स्नेक्स आदि का ज्यादा सेवन करने लगते हैं । यही मोटापे का कारण बनता है। कार्यालयों में कार्यरत ४३ प्रतिशत से ज्यादा कर्मचारियों ने माना कि चिंता में ज्यादा खाने से उनका वजन बढ़ा है । पुरुषों की तुलना में महिलाओं का वजन ज्यादा बढ़ा । उनका औसतन वजन ८ से १० पौंड तक बढ़ा । ब्रिटेन वि.वि. के पोषण आहार विशेषज्ञों(डायटीशियंस) तथा जीव वैज्ञानिकों (बायलॉजिस्ट) ने सन् १८८० से १९९० (११० वर्ष) के बीच यूरोप के १५ देशों के लोगों पर आहार आधारित अध्ययन किया ।
अध्ययन के परिणाम में बताया कि ब्रिटेन, नीदरलैंड, आयरलैंड, आस्ट्रिया, बेल्जियम तथा स्कैंडेनिविया में दोनों विश्वयुद्ध तथा मंदी के दौरान पुरुषों की ऊंचाई में लगभग ग्यारह से.मी. का इजाफा हुआ । इसे इस प्रकार समझाया गया कि मंदी के वर्णन समय में परिवार का आकार छोटा रखने पर ध्यान दिया गया। इससे कम बच्च्े पैदा हुए एवं इसका प्रभाव उनकी ऊँचाई पर हुआ । यह अध्ययन रिपोर्ट तैयार करने वाले प्रो. टी. हेमटन के अनुसार पूर्व में भी कुछ वैज्ञानिक प्रजनन में कमी को ऊँचाई बढ़ने से जोड़कर अध्ययन कर चुके हैं । पर्यावरण के संदर्भ में वर्ष २००७-०८ की मंदी से कार्बन डायऑक्साइड का उर्त्सजन घट गया ।
नीदरलैंड स्थित एनवायर-मंेटल एसेसमेंट एजेंसी ने अपने अध्ययन में पाया कि वर्ष २००० से २००५ के मध्य वैश्विक स्तर पर कार्बन डायऑक्साइड की वृद्धि दर १८ प्रतिशत के लगभग रही । वर्ष २००० के बाद वृद्धि ४ प्रतिशत से बढ़ी लेकिन सन् २००८ में घटकर १.७ से २ प्रतिशत के मध्य रह गयी । घटने का कारण यह बताया गया कि मंदी के कारण यातायात, कारखानों में उत्पादन तथा कई अन्य गतिविधियों में कमी आयी जिसके फलस्वरूप उत्सर्जन घट गया । हड़तालों के समय कम गतिविधियों से प्रदूषण में कमी का आंकलन भी किया गया है ।
मुंबई में वर्ष २००० में परिवहन हड़ताल के कारण १८ स्थानों पर प्रदूषण के स्तर में ४० से ६० प्रतिशत तक की कमी आई थी । एक अध्ययन यह भी दर्शाता है कि मंदी में पर्यावरण के प्रति चिंताए घट जाती हैं ।
वर्ष २०१२ में ग्लोेबल स्केन राडार नामक संस्था ने २२ देशों के २३ हजार लोगों पर एक सर्वेक्षण किया । परिणाम में बताया गया कि वर्ष २००७-०८ की मंदी के बाद वर्ष २०१०-११ में पर्यावरण के प्रति लोगांे की चिंताए काफी कम हो गयी । नब्बे के दशक में लोेग प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग, जैवविविधता संरक्षण, शुद्धपेय जल प्राप्ति व जलवायु परिवर्तन आदि समस्याओं पर गहन चिंता रखते थे । परंतु अब इनके प्रति ज्यादा सरोकार नहीं रखते । मंदी के कारण पर्यावरण पर पहले औद्योगिक देशों ने कम ध्यान दिया परंतु बाद मंे चीन व ब्राजील जैसे देश भी पर्यावरण की चिंता छोड़ते नजर आये । मई २०१४ में हमारे देश में बनी केन्द्र की नई सरकार भी विकास दर तेज करने हेतु पर्यावरण की अनदेखी कर रही है भविष्य में इसके गम्भीर व भयानक परिणाम सामने आएंगेे ।
विरासत
न पहाड़ समझ में आते हैं, न आपदा
सुरेश भाई
पिछले २५ वर्षों में पहाड़ी व समुद्रतटीय राज्यों मंे बाढ़ से २० हजार से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है । मैदानी व अन्य इलाकों की बाढ़ को इसमें शामिल कर लें तो यह आंकड़ एक लाख से ऊपर ही बैठेगा । परंतु हमारे विकास महारथी अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं ।
न पहाड़ समझ में आते हैं, न आपदा
सुरेश भाई
पिछले २५ वर्षों में पहाड़ी व समुद्रतटीय राज्यों मंे बाढ़ से २० हजार से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है । मैदानी व अन्य इलाकों की बाढ़ को इसमें शामिल कर लें तो यह आंकड़ एक लाख से ऊपर ही बैठेगा । परंतु हमारे विकास महारथी अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं हैं ।
वर्षा का मौसम जानलेवा हो गया है। जलवायु परिवर्तन की कई रिर्पोटों ने खुलासा भी कर दिया है कि सन् २०३० तक यदि तापमान २ डिग्री तक बढ़ेगा तो बारिश में १३ फीसदी तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है । इसका सबसे अधिक प्रभाव हिमालयी, पश्चिमोत्तर, दक्षिण पूर्व और तटीय क्षेत्रों पर पड़ने वाला है। यह भी आशंका है कि उत्तराखंड और जम्मू कश्मीर में जलप्रलय की घटनाएं ५० फीसद् तक बढ़ सकती हैं । वर्ष २०१५ की आपदाओं ने पिछली सभी आपदाओं के आँकड़ें और भी भयावह कर दिये हैं । अब ऐसा लगता है कि प्राकृतिक आपदा के मानचित्र का पुर्ननिरीक्षण करके नये सिरे से बाढ़ व भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों को प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। मणिपुर, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, गुजरात, जम्मू कश्मीर व हिमाचलप्रदेश में लगभग ४० लाख लोगों का जीवन बाढ़ के बीच झूल रहा है । पश्चिम बंगाल में बाँधों के जलाशयों से लगातार पानी छोड़ने के कारण यहाँ के दक्षिणी जिलों को इस बार बाढ़ ने अधिक तबाही मचाई है ।
वैज्ञानिक मानते हैं कि मानसून की रफ्तार बदलने और ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से सन् २१०० तक समुद्र का स्तर दो मीटर तक ऊपर जायेगा । यदि ऐसा हुआ तो दुनिया की ४० प्रतिशत आबादी पर सीधे संकट खड़ा हो जायेगा । वे या तो विस्थापित होंगे या उनका नामोनिशान मिट जायेगा । इस विषय पर विश्व की अग्रणी प्रवासी संस्था आई.ओ.एम. ने कहा है कि सन् २०५० तक आपदाओं की चपेट में आए एक अरब लोगों को अपने स्थान से हटना पड़ सकता है ।
यह संकट पिछले २०-२५ वर्षों से अधिक बढ़ता चला जा रहा है। आपदाओं के कारण भारत में लगभग चालीस करोड़, लोग प्रतिवर्ष प्रभावित हो रहे हैं । ऐसी अधिकांश आबादी, पर्वतों, नदियों के किनारों पर अथवा समुद्र के तटीय क्षेत्रों में निवास करती है । ध्यान रखना जरूरी है कि हिमालयी नदियों का कहर मैदानी क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। यहाँ से आ रही गंगा, ब्रह्मपुत्र, झेलम, तवी, व्यास आदि नदियों ने पर्वतीय व मैदानी इलाकों में रह रहे लोगों की जिन्दगी भी तबाह करके रख दी है । पिछले २५ वर्षों में देखें तो जुलाई १९९१ में असम, जून १९९३ में मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, नागालैण्ड, मई १९९५ में मिजोरम, जम्मू, हिमाचल प्रदेश, अगस्त १९९८ में उत्तराखण्ड़, मई २००५ में अरुणाचल प्रदेश, अगस्त २००७ में हिमाचल, उत्तराखण्ड, अगस्त २०१२-१३ में उत्तराखण्ड और अगस्त-सितम्बर २०१४ में जम्मू कश्मीर और पुणे तथा कोसी की लगातार बाढ़ से मरने वालों की संख्या २० हजार से अधिक है ।
उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड़, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, गुजरात व महाराष्ट्र के इलाकों में जहाँ पहले बाढ़ आने का मतलब होता था कि कृषि भूमि में नमी बढ़ जायेगी और इससे उपजाऊ मिट्टी बहकर खेतों में पहुँचेगी । वहाँ अब विपरीत स्थिति यह है कि उनके खेत खलिहान तो तबाह हो ही गये, साथ ही उनके निवास भी रहने लायक नहीं रह पा रहे हैं । राज्य सरकारों के सामने स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि अब वे करें तो क्या करें ? वे अपने किये धरे पर वर्षात की बाढ़ में पछतावा जरूर करते हैं ।
जलवायु परिवर्तन को कोई नकार नहीं रहा है, लेकिन यह भी सच है कि पिछले छ: सात दशकों में ऐसा क्या हुआ कि वर्षाती मौसम ज्यादा ही जानलेवा हो गया है । इसमें कहीं न कहीं विकास के वर्तमान मॉडल को कई स्तरों पर चुनौती दी जा रही है । उत्तराखण्ड में १६-१७ जून, २०१३ को आई केदारनाथ आपदा के बाद उच्च्तम न्यायालय ने आपदा की सच्चईयों को जानने के लिये विशेषज्ञ समिति का गठन किया था । रिपोर्ट पर केन्द्र की मोदी सरकार को भी हामी भरनी पड़ी । इसके लिये २४ जलविद्युत परियोजनाओं को दोषी माना गया । इसी तरह सितम्बर २०१४ में जम्मू कश्मीर में भीषण बाढ़ की तबाही का कारण नदियों के तटों को बर्बाद करनी वाली परियोजनाओं को बताया गया था । पहले इन क्षेत्रों में जहाँ पर २०-२५ घर, जो एक या दो मंजिलें होते थे, के स्थान पर अब वहाँ पर बहुमंजिली इमारतों की श्रंृखला खड़ी कर दी गई है । उत्तराखंड की चारधाम यात्रा में जहाँ तीर्थस्थलों पर सौ दो सौ लोग ही कुछ समय के लिये एकत्रित हो सकते थे, वहाँ रातों रात ८० हजार तक की संख्या में लोग पहुँच जाते हैं । एक तो बारिश के मौसम में पहाड़ियाँ बार-बार भूगर्भिक हलचलों से जर्जर हो रखी हैं, दूसरा इनके ऊपर बनाये गये बेतरतीब भवनों, आश्रमों, होटलों के अनियन्त्रित बोझ से हिमालय के तीर्थस्थल अब पर्यटकों की सुखद यात्रा में बाधक बन रहे हैं । इसी तरह पुणे का मलिण गाँव जो पर्वतीय आकार में ही बसा हुआ है को वहाँ पर विकास के नाम पर वृक्षों का कटान, खनन आदि के कारण उपजी आपदा ने बर्बाद कर दिया और सन् २०१४ में वहां १६० से अधिक लोग जिन्दा दफन हो गए थे ।
पर्वतीय इलाकों में सड़कों के चौड़ीकरण से, नदियों में सीधे डम्पिंग करने, पंचतारा संस्कृति का विकास करने, सुरंग बाँधों का निर्माण करने और पर्यटकों की अनियंत्रित स्थिति से न निपट पाने, वनों में बार-बार आग लगना, भूमि अधिग्रहण, वनों का कटान, भूस्खलन क्षेत्रों को उचित तकनीक से न रोक पाने आदि कई कारणों से आपदा आ रही हैं । दूसरी ओर मैदानी क्षेत्रों में घनी आबादी, नालियों का अनियोजित निर्माण, नदियों को कूड़ा डम्पिंग के रूप में इस्तेमाल करने, बाँध व बैराजों का निर्माण, जैसी कई योजनायें हैं जो जल की निकासी को अवरुद्व कर रही हैं । हरित क्षेत्र और कृषि क्षेत्र का कम होना भी जलप्रलय के कारण बन रहे हैं ।
इस प्रकार मैदानी और पहाड़ी आपदाओं से प्रभावित लोगों के जख्म को भरने के लिये कई संस्थाएं, सरकार व कार्पोरेट मदद करने अवश्य पहुँचते हैं । ऐसे मौके पर उन्हें उस क्षेत्र में विकास के पैमाने को समझने का मौका भी मिलता है । वे बाढ़ और भूस्खलन के कारणों को तह तक जाने का प्रयास करते हैं लेकिन जैसी ही बाढ़ राहत का काम पूरा होता है फिर उस क्षेत्र में विकास के वही पुराने मानक चलने प्रारम्भ हो जाते हैं। यही स्थिति आपदा प्रभावित मैदानी इलाकों की भी हो रही है। पहाड़ों में विकास के मानक मैदानी नहीं हो सकते हैं, लेकिन अपने यहाँ तो जो विकास लखनऊ और दिल्ली का होना है वही मानक उत्तराखण्ड, मणिपुर, मेघालय जैसे पहाड़ी और पश्चिम बंगाल के समुद्रतटीय क्षेत्रों के लिये बन जाते हैं। इस पर नीति आयोग द्वारा नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।
जब देश आजाद हुआ था तभी से योजना आयोग और संसद में हिमालय के लिये अलग नीति की माँग होती रही हैं। ये मांगंे हैंमैदानी क्षेत्रों में सुनियोजित आवासीय क्षेत्रों में पर्याप्त स्थान की उपलब्धता, खेती योग्य जमीन, पानी, जंगल का गाँवों में संतुलित बँटवारा हो, नदियों का प्रवाह बाधित न किया जाय, सहायक नदियों के जल क्षेत्रों में सघन रूप से वृक्षारोपण व जैविक खेती हो,पॉलिथीन प्रतिबन्धित हो । ऐसे विचारों पर गम्भीरतापूर्वक सोचा जाना चाहिए ।
यह ध्यान रखना जरूरी है कि हमारे पास हिमालय पर्वत है जिसके १७ प्रतिशत क्षेत्र में बर्फ मौजूद है, लेकिन पूरे देश में जंगल अब केवल २३ प्रतिशत क्षेत्र मंे ही है, जिसके कारण बार-बार धरती की सेहत आपदा से बिगड़ रही है। सरकारों को यह समझ कब आयेगा कि जंगल को ३३ प्रतिशत कर दें, खेती को बचाकर रखें, पारम्परिक जल संरक्षण की तकनीक को बढ़ावा मिलें, ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोत ढूंढ़े जायें । पानी का व्यापार नहीं, प्राकृतिक देन के रूप में रहें तथा आपदा प्रबन्धन के तरीके गाँव में हो ।
वैज्ञानिक मानते हैं कि मानसून की रफ्तार बदलने और ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से सन् २१०० तक समुद्र का स्तर दो मीटर तक ऊपर जायेगा । यदि ऐसा हुआ तो दुनिया की ४० प्रतिशत आबादी पर सीधे संकट खड़ा हो जायेगा । वे या तो विस्थापित होंगे या उनका नामोनिशान मिट जायेगा । इस विषय पर विश्व की अग्रणी प्रवासी संस्था आई.ओ.एम. ने कहा है कि सन् २०५० तक आपदाओं की चपेट में आए एक अरब लोगों को अपने स्थान से हटना पड़ सकता है ।
यह संकट पिछले २०-२५ वर्षों से अधिक बढ़ता चला जा रहा है। आपदाओं के कारण भारत में लगभग चालीस करोड़, लोग प्रतिवर्ष प्रभावित हो रहे हैं । ऐसी अधिकांश आबादी, पर्वतों, नदियों के किनारों पर अथवा समुद्र के तटीय क्षेत्रों में निवास करती है । ध्यान रखना जरूरी है कि हिमालयी नदियों का कहर मैदानी क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। यहाँ से आ रही गंगा, ब्रह्मपुत्र, झेलम, तवी, व्यास आदि नदियों ने पर्वतीय व मैदानी इलाकों में रह रहे लोगों की जिन्दगी भी तबाह करके रख दी है । पिछले २५ वर्षों में देखें तो जुलाई १९९१ में असम, जून १९९३ में मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, नागालैण्ड, मई १९९५ में मिजोरम, जम्मू, हिमाचल प्रदेश, अगस्त १९९८ में उत्तराखण्ड़, मई २००५ में अरुणाचल प्रदेश, अगस्त २००७ में हिमाचल, उत्तराखण्ड, अगस्त २०१२-१३ में उत्तराखण्ड और अगस्त-सितम्बर २०१४ में जम्मू कश्मीर और पुणे तथा कोसी की लगातार बाढ़ से मरने वालों की संख्या २० हजार से अधिक है ।
उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड़, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, गुजरात व महाराष्ट्र के इलाकों में जहाँ पहले बाढ़ आने का मतलब होता था कि कृषि भूमि में नमी बढ़ जायेगी और इससे उपजाऊ मिट्टी बहकर खेतों में पहुँचेगी । वहाँ अब विपरीत स्थिति यह है कि उनके खेत खलिहान तो तबाह हो ही गये, साथ ही उनके निवास भी रहने लायक नहीं रह पा रहे हैं । राज्य सरकारों के सामने स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि अब वे करें तो क्या करें ? वे अपने किये धरे पर वर्षात की बाढ़ में पछतावा जरूर करते हैं ।
जलवायु परिवर्तन को कोई नकार नहीं रहा है, लेकिन यह भी सच है कि पिछले छ: सात दशकों में ऐसा क्या हुआ कि वर्षाती मौसम ज्यादा ही जानलेवा हो गया है । इसमें कहीं न कहीं विकास के वर्तमान मॉडल को कई स्तरों पर चुनौती दी जा रही है । उत्तराखण्ड में १६-१७ जून, २०१३ को आई केदारनाथ आपदा के बाद उच्च्तम न्यायालय ने आपदा की सच्चईयों को जानने के लिये विशेषज्ञ समिति का गठन किया था । रिपोर्ट पर केन्द्र की मोदी सरकार को भी हामी भरनी पड़ी । इसके लिये २४ जलविद्युत परियोजनाओं को दोषी माना गया । इसी तरह सितम्बर २०१४ में जम्मू कश्मीर में भीषण बाढ़ की तबाही का कारण नदियों के तटों को बर्बाद करनी वाली परियोजनाओं को बताया गया था । पहले इन क्षेत्रों में जहाँ पर २०-२५ घर, जो एक या दो मंजिलें होते थे, के स्थान पर अब वहाँ पर बहुमंजिली इमारतों की श्रंृखला खड़ी कर दी गई है । उत्तराखंड की चारधाम यात्रा में जहाँ तीर्थस्थलों पर सौ दो सौ लोग ही कुछ समय के लिये एकत्रित हो सकते थे, वहाँ रातों रात ८० हजार तक की संख्या में लोग पहुँच जाते हैं । एक तो बारिश के मौसम में पहाड़ियाँ बार-बार भूगर्भिक हलचलों से जर्जर हो रखी हैं, दूसरा इनके ऊपर बनाये गये बेतरतीब भवनों, आश्रमों, होटलों के अनियन्त्रित बोझ से हिमालय के तीर्थस्थल अब पर्यटकों की सुखद यात्रा में बाधक बन रहे हैं । इसी तरह पुणे का मलिण गाँव जो पर्वतीय आकार में ही बसा हुआ है को वहाँ पर विकास के नाम पर वृक्षों का कटान, खनन आदि के कारण उपजी आपदा ने बर्बाद कर दिया और सन् २०१४ में वहां १६० से अधिक लोग जिन्दा दफन हो गए थे ।
पर्वतीय इलाकों में सड़कों के चौड़ीकरण से, नदियों में सीधे डम्पिंग करने, पंचतारा संस्कृति का विकास करने, सुरंग बाँधों का निर्माण करने और पर्यटकों की अनियंत्रित स्थिति से न निपट पाने, वनों में बार-बार आग लगना, भूमि अधिग्रहण, वनों का कटान, भूस्खलन क्षेत्रों को उचित तकनीक से न रोक पाने आदि कई कारणों से आपदा आ रही हैं । दूसरी ओर मैदानी क्षेत्रों में घनी आबादी, नालियों का अनियोजित निर्माण, नदियों को कूड़ा डम्पिंग के रूप में इस्तेमाल करने, बाँध व बैराजों का निर्माण, जैसी कई योजनायें हैं जो जल की निकासी को अवरुद्व कर रही हैं । हरित क्षेत्र और कृषि क्षेत्र का कम होना भी जलप्रलय के कारण बन रहे हैं ।
इस प्रकार मैदानी और पहाड़ी आपदाओं से प्रभावित लोगों के जख्म को भरने के लिये कई संस्थाएं, सरकार व कार्पोरेट मदद करने अवश्य पहुँचते हैं । ऐसे मौके पर उन्हें उस क्षेत्र में विकास के पैमाने को समझने का मौका भी मिलता है । वे बाढ़ और भूस्खलन के कारणों को तह तक जाने का प्रयास करते हैं लेकिन जैसी ही बाढ़ राहत का काम पूरा होता है फिर उस क्षेत्र में विकास के वही पुराने मानक चलने प्रारम्भ हो जाते हैं। यही स्थिति आपदा प्रभावित मैदानी इलाकों की भी हो रही है। पहाड़ों में विकास के मानक मैदानी नहीं हो सकते हैं, लेकिन अपने यहाँ तो जो विकास लखनऊ और दिल्ली का होना है वही मानक उत्तराखण्ड, मणिपुर, मेघालय जैसे पहाड़ी और पश्चिम बंगाल के समुद्रतटीय क्षेत्रों के लिये बन जाते हैं। इस पर नीति आयोग द्वारा नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।
जब देश आजाद हुआ था तभी से योजना आयोग और संसद में हिमालय के लिये अलग नीति की माँग होती रही हैं। ये मांगंे हैंमैदानी क्षेत्रों में सुनियोजित आवासीय क्षेत्रों में पर्याप्त स्थान की उपलब्धता, खेती योग्य जमीन, पानी, जंगल का गाँवों में संतुलित बँटवारा हो, नदियों का प्रवाह बाधित न किया जाय, सहायक नदियों के जल क्षेत्रों में सघन रूप से वृक्षारोपण व जैविक खेती हो,पॉलिथीन प्रतिबन्धित हो । ऐसे विचारों पर गम्भीरतापूर्वक सोचा जाना चाहिए ।
यह ध्यान रखना जरूरी है कि हमारे पास हिमालय पर्वत है जिसके १७ प्रतिशत क्षेत्र में बर्फ मौजूद है, लेकिन पूरे देश में जंगल अब केवल २३ प्रतिशत क्षेत्र मंे ही है, जिसके कारण बार-बार धरती की सेहत आपदा से बिगड़ रही है। सरकारों को यह समझ कब आयेगा कि जंगल को ३३ प्रतिशत कर दें, खेती को बचाकर रखें, पारम्परिक जल संरक्षण की तकनीक को बढ़ावा मिलें, ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोत ढूंढ़े जायें । पानी का व्यापार नहीं, प्राकृतिक देन के रूप में रहें तथा आपदा प्रबन्धन के तरीके गाँव में हो ।
सामाजिक पर्यावरण
मृत्यु के अनेक मनोभाव
अनिल त्रिवेदी
भारतीय सभ्यता में मृत्यु की अनेक प्रकार की व्याख्याएं हमारे सामने आती हैं । नचिकेता प्रसंग से आलोकित क ोपनिषद से लेकर गांधी, जे. कृष्णमूर्ति व आचार्य रजनीश मृत्यु संबंधित अपने अपने मनोभावों को सार्वजनिककर चुके हैं ।
इस जगत में जन्म और मृत्यु एक सनातन प्राकृतिक क्रम है । जो जन्मा है वह जायेगा ही । परंतु मृत्यु के रूप रंग और तरीके को लेकर दुनिया भर में तरह तरह के सवाल जवाब चलते ही रहते हैं । मृत्यु से विदाई या चिर बिछोह का भाव ही मन में उपजता है। लम्बे समय से हमारे साथ थे या जिसे हम जानते, पहचानते या मानते थे हमारे बीच उनका जीवित रूप हमारे बीच में कभी नहींं होगा ।
मृत्यु के अनेक मनोभाव
अनिल त्रिवेदी
भारतीय सभ्यता में मृत्यु की अनेक प्रकार की व्याख्याएं हमारे सामने आती हैं । नचिकेता प्रसंग से आलोकित क ोपनिषद से लेकर गांधी, जे. कृष्णमूर्ति व आचार्य रजनीश मृत्यु संबंधित अपने अपने मनोभावों को सार्वजनिककर चुके हैं ।
इस जगत में जन्म और मृत्यु एक सनातन प्राकृतिक क्रम है । जो जन्मा है वह जायेगा ही । परंतु मृत्यु के रूप रंग और तरीके को लेकर दुनिया भर में तरह तरह के सवाल जवाब चलते ही रहते हैं । मृत्यु से विदाई या चिर बिछोह का भाव ही मन में उपजता है। लम्बे समय से हमारे साथ थे या जिसे हम जानते, पहचानते या मानते थे हमारे बीच उनका जीवित रूप हमारे बीच में कभी नहींं होगा ।
इससे मन में दुख या शोक उत्पन्न होता है। फिर भी हमारी दुनिया कभी किसी की मौत से दबे छुपे खुश होती है तो कभी कभी खुले आम जश्न का भाव भी उत्पन्न करती है। एक ही व्यक्ति की मौत से अलग-अलग भाव उत्पन्न होते हैं । मृृत्यु का तरीका कोई भी हो उसकी निष्पति जीवन के अंत से ही होती है। इसे हम साकार से निराकार होने का एक प्राकृतिक क्रम भी मान सकते हैं जैसे जीवन के कई रूप रंग और शैलियाँ है वैसा ही मृत्यु के साथ भी है ।
हमारे राज्य और समाज ने जीवन और मृत्यु की मर्यादाओं को लेकर कुछ अवधारणाएं बनायी है। जीवन जीने का हक संविधान के अनुसार मूल अधिकार है । इसी कारण विधि विधान के शासन में जीवन को खत्म करने को लेकर वैसी सहज अनुकूलताएं नागरिक को उपलब्ध नहीं हैं जैसी जीवन जीने के अधिकार को संवैधानिक रूप से उपलब्ध है। दुनिया के किसी भी संविधान, विधान या विधि में मृत्यु को शायद नागरिक का मूलभूत अधिकार न तो माना गया है न ही समाज के किसी तबके या व्यक्ति ने मृत्यु को मनुष्य का मूलभूत अधिकार माना है ।
यही कारण है कि कहीं भी किसी भी रूप में कोई सामूहिक या व्यक्तिगत मृत्यु होती है तो मन में सहज ही एक क्षण के लिये ही चाहे उपजे, पर विषाद का भाव ही उपजता है। समूची मनुष्यता में मृत्यु के बजाय जीवन को जीने की चाहना ही प्राकृतिक रूप से होती है। पूर्ण आयु के जीवन का अंत होने पर मृत्यु को लेकर प्राय: संतोष का ही भाव होता है । पर अकाल मृत्यु से घर परिवार में मृत्यु को लेकर उपजे असंतोष को संभालना संभव नहीं होता । ईश्वर से लेकर मृत्यु की क्रूरता तक की भरपूर आलोचना या व्याख्या होती है । ईश्वर के न्याय पर भी हल्ला होता है। इसका विपरीत दृश्य भी होता है ।
कोई गंभीर अपराध होने पर फांसी की सजा देने की खुले आम मांग होती है । फांसी पर दुनिया की सोच बटी हुई है । एक मत है कि कानून जन्म नहीं दे सकता तो उसे किसी को मृत्यु देने का हक भी नहीं है । कानून जीवन बचाने के लिये जन्मा है जीवन खत्म करने के लिये नहीं । दूसरा मत इसके विपरीत है कि मृत्यु के भय से ही राज्य समाज में शांति और व्यवस्था बनाये रख सकता है । फांसी का डर या भय नृशंस घटनाक्रम को रोकने में समर्थ हो सकता है।
एक सैनिक की गोली से हुई मृत्यु से मनुष्य जब मरता है तो उसकी व्याख्या देश, काल और परिस्थिति अनुसार होती है । आतंकी की गोली से सैनिक की मौत को शहादत का दर्जा मिलता है और सैनिक की गोली से आतंकी की मौत से उपलब्धि का भाव उत्पन्न होता है । यह मानव मन की सहज एवं सामान्य सोच है । परंतु मौत का रूप रंग क्या है ? उस रूपरंग में देशकाल परिस्थिति अनुसार अलग-अलग व्याख्याएं मनुष्य समाज में होती रहती हैं ।
प्राचीन समय में युद्ध काल में हमलावर के हाथ आने के बजाय या आपातकाल में अपने को आततायी के अत्याचारों से बचाने हेतु आत्मघात करने का विचार भी उपजा और उसे कुछ काल तक सामाजिक स्वीकृति भी मिली । जौहर उसका ज्वलन्त उदाहरण है । पति की मौत के बाद स्त्री की सुरक्षा का एक रूप सती प्रथा के रूप में भी भारतीय समाज में एक जमाने में जड़ जमाने में सफल हुआ था । अपने जीवन को देश, विचार, व्यक्ति या समाज के लिये कुर्बान करने के भाव ने मृत्यु के वरण के भाव को जन्म दिया ।
गुलामी के दौर में या आजादी की लड़ाई के दौर में कई क्रान्तिकारी जीवन के अर्पण को अपना ध्येय निरुपित कर हँसते हँसते फांसी के फन्दे को चूम कर इस जगत से भौतिक रूप से विदा हो गये । परंतु देश काल की परिस्थिति में उनकी चिरबिदाई देश और क्रान्ति विचार के लिये तेजस्विता का प्रेरणा पुंज बन गयी और उन्हें अजर अमर बना दिया । इस तरह मृत्यु मारक भी है और प्रेरक भी ।
दण्डस्वरूप और प्रेरणास्पद मृत्यु के अलावा एक रूप व्यवस्थागत या व्यक्तिगत लापरवाही के फलस्वरूप हमें देखने को मिलता है। गतिशीलता के युग में वायुयान रेल या मोटर वाहन आदि दुर्घटनाओं से होने वाली अंतहीन मौतें । इनके प्रति व्यवस्था और व्यक्ति के मन में एक अलग ही भाव होता है । व्यवस्था के लिये ऐसी दुर्घटनाएं मुआवजा घोषणा और जाँच घोषणा की प्रशासकीय औपचारिकता होती है और व्यक्ति या समाज के मन में केवल इतनी ही उत्सुकता पैदा होती है कि कहीं इसमें कोई अपना परिजन या परिचित तो शामिल नहीं है ।
तेज गति या लापरवाही से वाहन चालन या आवागमन के दौरान होने वाली मौतों की संख्या स्वाभाविक मृत्यु के बाद देश दुनिया में सर्वाधिक हैं ? फिर भी देश समाज का मानस ऐसी मौतों को विकास या गति का स्वाभाविक परिणाम मान कभी तथा कथित विकास और गति के चक्र को रोकने का विचार मन में नहीं लाता । जैसे जल के प्रवाह में लोग अचानक बह जाते हंै वैसे ही आवागमन के प्रवाह में लोग दुर्घटनाग्रस्त हो दुनिया से बिदा हो जाते हैं। परंतु दुनिया अपनी गति से चलती रहती है।
जापान में कई लोग संकल्प पूरा न होने पर अपने आप को खत्म कर लेते हैं । इसे हाराकिरी की संज्ञा दी गयी है । इसे आत्महत्या नहीं माना जाता पर हाराकिरी करने वाले के प्रति वीरोचित भाव होता है । आत्महत्या को कभी भी अच्छा नहीं माना जाता । आत्महत्या करने वाले के मन में आत्मग्लानि और निराशा का भाव होता है । वैसे हाराकिरी और आत्महत्या का स्वरूप एक समान है पर भाव एकदम भिन्न है । हाराकिरी करने वाले के मन में पश्चाताप नहीं होता ।
आमरण अनशन भी किसी मांग के समर्थन में जीवन का अंत करने की घोषणा है। परंतु इसमें जीवन खत्म होने की परिस्थिति कभी कभार ही होती है । फिर भी हमारे देश में ऐसे कई लोग हुए है जिन्होंने अपने मुद्दों को मनवाने के लिये अपनी जान दी है । धार्मिक दर्शन या विचारवश भी जीवन को समाप्त कर मुक्ति या मोक्ष की राह चुनने के दृष्टान्त आज भी अस्तित्व में है। जैन दर्शन में संलेखना और संथारे की परम्परा को जीवन के अंत के बजाय जीवन की साधना या तपस्या की पराकाष्ठा के रूप में माना जाता है । जीवन के लिये आवश्यक अन्न जल की प्राकृतिक ऊर्जा को त्याग कर जीवन मुक्त होना, जन्म के बंधन से मुक्त होना या समाधिस्थ होना माना जाता है। राजस्थान उच्च् न्यायालय के एक न्याय निर्णय से वर्तमान में न्याय के क्षेत्राधिकार और धार्मिक मान्यता के बीच एक बहस जन्मी है जो जीवन रक्षा और मोक्ष - तपस्या या समाधि की पराकाष्ठा से उपजे सवालों से जूझ रही है ।
मृत्यु का एक रूप नई सभ्यता और नई तकनीक से भी उजागर हुआ है । जन्म से पहले ही लिंग जांच कर मृत्यु याने भ्रूण हत्या । इसे लेकर आज की भीड़ भरी दुनिया में एक तटस्थ भाव बन गया है । इससे जीवन और मृत्यु की प्रक्रिया में मनुष्य के हस्तक्षेप का एक नया आयाम हमारे सामने प्रगट हुआ है। सामाजिक आर्थिक कारणों से प्रेरित जन्म से पूर्व ही मृत्यु से साक्षात्कार ने जन्म के अधिकार और मृत्यु की गरिमा को समूल रूप से नष्ट कर दिया है । आधुनिकविज्ञान की तकनीक और मानव मन की सुविधाजीविता ने जीवन को साकार होने से पहले ही निराकार में विलीन कर दिया है । जीवन और मृत्यु का अनन्त चक्र केवल मनुष्य ही नहीं समूचे प्राणी एवं वनस्पति जगत में एकरुपता से निरन्तर श्वास प्रश्वास की तरह चलता है ।
मनुष्य के जीवन और मृत्यु के रंग और तौर तरीके से जन्मे मनोभाव इतने अलग अलग हैं कि मानव मन में इसको लेकर इतने अधिक मत मतान्तर हो गये हैंजिससे इसका प्राकृतिक स्वरूप ही पूरी तरह से मनुष्य मन के अंतहीन हस्तक्षेप से ग्रस्त हो गया है । परिणामस्वरूप जन्म और मृत्यु प्रकृति का सामान्य क्रम न होकर हमारे मन के राग द्वेष और हित अहित के आधार पर व्यक्ति समाज और देश के मानस पर असर डालने वाले घटनाक्रम बनते जा रहे हैं ।
हमारे राज्य और समाज ने जीवन और मृत्यु की मर्यादाओं को लेकर कुछ अवधारणाएं बनायी है। जीवन जीने का हक संविधान के अनुसार मूल अधिकार है । इसी कारण विधि विधान के शासन में जीवन को खत्म करने को लेकर वैसी सहज अनुकूलताएं नागरिक को उपलब्ध नहीं हैं जैसी जीवन जीने के अधिकार को संवैधानिक रूप से उपलब्ध है। दुनिया के किसी भी संविधान, विधान या विधि में मृत्यु को शायद नागरिक का मूलभूत अधिकार न तो माना गया है न ही समाज के किसी तबके या व्यक्ति ने मृत्यु को मनुष्य का मूलभूत अधिकार माना है ।
यही कारण है कि कहीं भी किसी भी रूप में कोई सामूहिक या व्यक्तिगत मृत्यु होती है तो मन में सहज ही एक क्षण के लिये ही चाहे उपजे, पर विषाद का भाव ही उपजता है। समूची मनुष्यता में मृत्यु के बजाय जीवन को जीने की चाहना ही प्राकृतिक रूप से होती है। पूर्ण आयु के जीवन का अंत होने पर मृत्यु को लेकर प्राय: संतोष का ही भाव होता है । पर अकाल मृत्यु से घर परिवार में मृत्यु को लेकर उपजे असंतोष को संभालना संभव नहीं होता । ईश्वर से लेकर मृत्यु की क्रूरता तक की भरपूर आलोचना या व्याख्या होती है । ईश्वर के न्याय पर भी हल्ला होता है। इसका विपरीत दृश्य भी होता है ।
कोई गंभीर अपराध होने पर फांसी की सजा देने की खुले आम मांग होती है । फांसी पर दुनिया की सोच बटी हुई है । एक मत है कि कानून जन्म नहीं दे सकता तो उसे किसी को मृत्यु देने का हक भी नहीं है । कानून जीवन बचाने के लिये जन्मा है जीवन खत्म करने के लिये नहीं । दूसरा मत इसके विपरीत है कि मृत्यु के भय से ही राज्य समाज में शांति और व्यवस्था बनाये रख सकता है । फांसी का डर या भय नृशंस घटनाक्रम को रोकने में समर्थ हो सकता है।
एक सैनिक की गोली से हुई मृत्यु से मनुष्य जब मरता है तो उसकी व्याख्या देश, काल और परिस्थिति अनुसार होती है । आतंकी की गोली से सैनिक की मौत को शहादत का दर्जा मिलता है और सैनिक की गोली से आतंकी की मौत से उपलब्धि का भाव उत्पन्न होता है । यह मानव मन की सहज एवं सामान्य सोच है । परंतु मौत का रूप रंग क्या है ? उस रूपरंग में देशकाल परिस्थिति अनुसार अलग-अलग व्याख्याएं मनुष्य समाज में होती रहती हैं ।
प्राचीन समय में युद्ध काल में हमलावर के हाथ आने के बजाय या आपातकाल में अपने को आततायी के अत्याचारों से बचाने हेतु आत्मघात करने का विचार भी उपजा और उसे कुछ काल तक सामाजिक स्वीकृति भी मिली । जौहर उसका ज्वलन्त उदाहरण है । पति की मौत के बाद स्त्री की सुरक्षा का एक रूप सती प्रथा के रूप में भी भारतीय समाज में एक जमाने में जड़ जमाने में सफल हुआ था । अपने जीवन को देश, विचार, व्यक्ति या समाज के लिये कुर्बान करने के भाव ने मृत्यु के वरण के भाव को जन्म दिया ।
गुलामी के दौर में या आजादी की लड़ाई के दौर में कई क्रान्तिकारी जीवन के अर्पण को अपना ध्येय निरुपित कर हँसते हँसते फांसी के फन्दे को चूम कर इस जगत से भौतिक रूप से विदा हो गये । परंतु देश काल की परिस्थिति में उनकी चिरबिदाई देश और क्रान्ति विचार के लिये तेजस्विता का प्रेरणा पुंज बन गयी और उन्हें अजर अमर बना दिया । इस तरह मृत्यु मारक भी है और प्रेरक भी ।
दण्डस्वरूप और प्रेरणास्पद मृत्यु के अलावा एक रूप व्यवस्थागत या व्यक्तिगत लापरवाही के फलस्वरूप हमें देखने को मिलता है। गतिशीलता के युग में वायुयान रेल या मोटर वाहन आदि दुर्घटनाओं से होने वाली अंतहीन मौतें । इनके प्रति व्यवस्था और व्यक्ति के मन में एक अलग ही भाव होता है । व्यवस्था के लिये ऐसी दुर्घटनाएं मुआवजा घोषणा और जाँच घोषणा की प्रशासकीय औपचारिकता होती है और व्यक्ति या समाज के मन में केवल इतनी ही उत्सुकता पैदा होती है कि कहीं इसमें कोई अपना परिजन या परिचित तो शामिल नहीं है ।
तेज गति या लापरवाही से वाहन चालन या आवागमन के दौरान होने वाली मौतों की संख्या स्वाभाविक मृत्यु के बाद देश दुनिया में सर्वाधिक हैं ? फिर भी देश समाज का मानस ऐसी मौतों को विकास या गति का स्वाभाविक परिणाम मान कभी तथा कथित विकास और गति के चक्र को रोकने का विचार मन में नहीं लाता । जैसे जल के प्रवाह में लोग अचानक बह जाते हंै वैसे ही आवागमन के प्रवाह में लोग दुर्घटनाग्रस्त हो दुनिया से बिदा हो जाते हैं। परंतु दुनिया अपनी गति से चलती रहती है।
जापान में कई लोग संकल्प पूरा न होने पर अपने आप को खत्म कर लेते हैं । इसे हाराकिरी की संज्ञा दी गयी है । इसे आत्महत्या नहीं माना जाता पर हाराकिरी करने वाले के प्रति वीरोचित भाव होता है । आत्महत्या को कभी भी अच्छा नहीं माना जाता । आत्महत्या करने वाले के मन में आत्मग्लानि और निराशा का भाव होता है । वैसे हाराकिरी और आत्महत्या का स्वरूप एक समान है पर भाव एकदम भिन्न है । हाराकिरी करने वाले के मन में पश्चाताप नहीं होता ।
आमरण अनशन भी किसी मांग के समर्थन में जीवन का अंत करने की घोषणा है। परंतु इसमें जीवन खत्म होने की परिस्थिति कभी कभार ही होती है । फिर भी हमारे देश में ऐसे कई लोग हुए है जिन्होंने अपने मुद्दों को मनवाने के लिये अपनी जान दी है । धार्मिक दर्शन या विचारवश भी जीवन को समाप्त कर मुक्ति या मोक्ष की राह चुनने के दृष्टान्त आज भी अस्तित्व में है। जैन दर्शन में संलेखना और संथारे की परम्परा को जीवन के अंत के बजाय जीवन की साधना या तपस्या की पराकाष्ठा के रूप में माना जाता है । जीवन के लिये आवश्यक अन्न जल की प्राकृतिक ऊर्जा को त्याग कर जीवन मुक्त होना, जन्म के बंधन से मुक्त होना या समाधिस्थ होना माना जाता है। राजस्थान उच्च् न्यायालय के एक न्याय निर्णय से वर्तमान में न्याय के क्षेत्राधिकार और धार्मिक मान्यता के बीच एक बहस जन्मी है जो जीवन रक्षा और मोक्ष - तपस्या या समाधि की पराकाष्ठा से उपजे सवालों से जूझ रही है ।
मृत्यु का एक रूप नई सभ्यता और नई तकनीक से भी उजागर हुआ है । जन्म से पहले ही लिंग जांच कर मृत्यु याने भ्रूण हत्या । इसे लेकर आज की भीड़ भरी दुनिया में एक तटस्थ भाव बन गया है । इससे जीवन और मृत्यु की प्रक्रिया में मनुष्य के हस्तक्षेप का एक नया आयाम हमारे सामने प्रगट हुआ है। सामाजिक आर्थिक कारणों से प्रेरित जन्म से पूर्व ही मृत्यु से साक्षात्कार ने जन्म के अधिकार और मृत्यु की गरिमा को समूल रूप से नष्ट कर दिया है । आधुनिकविज्ञान की तकनीक और मानव मन की सुविधाजीविता ने जीवन को साकार होने से पहले ही निराकार में विलीन कर दिया है । जीवन और मृत्यु का अनन्त चक्र केवल मनुष्य ही नहीं समूचे प्राणी एवं वनस्पति जगत में एकरुपता से निरन्तर श्वास प्रश्वास की तरह चलता है ।
मनुष्य के जीवन और मृत्यु के रंग और तौर तरीके से जन्मे मनोभाव इतने अलग अलग हैं कि मानव मन में इसको लेकर इतने अधिक मत मतान्तर हो गये हैंजिससे इसका प्राकृतिक स्वरूप ही पूरी तरह से मनुष्य मन के अंतहीन हस्तक्षेप से ग्रस्त हो गया है । परिणामस्वरूप जन्म और मृत्यु प्रकृति का सामान्य क्रम न होकर हमारे मन के राग द्वेष और हित अहित के आधार पर व्यक्ति समाज और देश के मानस पर असर डालने वाले घटनाक्रम बनते जा रहे हैं ।
स्वास्थ्य
इलनेस उद्योग बनाम वैलनेस उद्योग
डॉ. सुगन बरंठ
स्वास्थ्य को उद्योग बनाने वालोें ने पहले बीमारियों का भरपूर लाभ उठाया और यह भारत का सबसे तेजी से बढ़ता उद्योग बन गया । परंतु इसके कर्त्ताधत्ताआें को समझ में आया कि अभी भी लाभ का कुछ अंश कहीं और जा रहा है तो उन्होंने बीमारी के बजाए इसकी रोकथाम या वैलनेस को भी उद्योग में परिवर्तित कर उस पर भी कब्जा कर लिया ।
आज हम स्वास्थ्य के बारे में जागरूक हैं लेकिन अब स्वास्थ्य एक ``उद्योग' बन चुका है । इस ''बीमारी उद्योग'` में डॉक्टर सेवा करने वाला नीतिमान व्यावसायिक नहीं, बल्कि वह सेवा देने वाला (सर्विस प्रोवाईडर) और रुग्ण ग्राहक (कस्टमर) बन चुका है । यह वैश्विक बाजारीकरण की भाषा है । सलाह दी जाती है कि यह खाओ, न खाओ, दवा खाओ और तमाम जांच भी कराते रहो ।
इलनेस उद्योग बनाम वैलनेस उद्योग
डॉ. सुगन बरंठ
स्वास्थ्य को उद्योग बनाने वालोें ने पहले बीमारियों का भरपूर लाभ उठाया और यह भारत का सबसे तेजी से बढ़ता उद्योग बन गया । परंतु इसके कर्त्ताधत्ताआें को समझ में आया कि अभी भी लाभ का कुछ अंश कहीं और जा रहा है तो उन्होंने बीमारी के बजाए इसकी रोकथाम या वैलनेस को भी उद्योग में परिवर्तित कर उस पर भी कब्जा कर लिया ।
आज हम स्वास्थ्य के बारे में जागरूक हैं लेकिन अब स्वास्थ्य एक ``उद्योग' बन चुका है । इस ''बीमारी उद्योग'` में डॉक्टर सेवा करने वाला नीतिमान व्यावसायिक नहीं, बल्कि वह सेवा देने वाला (सर्विस प्रोवाईडर) और रुग्ण ग्राहक (कस्टमर) बन चुका है । यह वैश्विक बाजारीकरण की भाषा है । सलाह दी जाती है कि यह खाओ, न खाओ, दवा खाओ और तमाम जांच भी कराते रहो ।
कस्बे से लगाकर शहर तक बढ़ते सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल, जांच की दुकानें और कंपनियां, फेमिली डॉक्टरों से ज्यादा विशेषज्ञ डॉक्टरों की बढ़ती संख्या और इस सारे बाजार में हमारा होता पोपट । इनसे आप भली भांति वाकिफ हैं । इस पूर्व निर्धारित प्रक्रिया को 'बीमारी उद्योग' (इलनेस इंडस्ट्री) कहते हैं ।
गत २५ साल में हर तहसील या प्रखण्ड के कस्बे या छोटे से शहर में 'जिम' नामक आधुनिक व्यायामशालाएँ खुली हैं । इसी काल में सारे अभिनेता उत्तम शरीर यष्टी, बंधे हुए एवं मजबूत दिखने लगे हैं । गली कूचों के युवाओं का भी अब यही सपना बना दिया गया है। अब इस धंधे से जुड़े व्यवसाय/उद्योग जोरों पर हैं । वैश्वीकरण से समाज के एक वर्ग के पास बहुत पैसा बढ़ा है । ये लोग एकदम से आरोग्य के प्रति संवदेनशील बन गए । क्या खायंे, क्या ना खायंे इसकी चर्चाएं व्हाट्स अप, फेसबुक, ट्वीटर आदि माध्यमों में जोरों पर हैं। सलाह दी जाती है जैविक-विषमुक्त अन्न, फल, सब्जियाँ ही खाएं, देशज गाय का दूध, घी खाएं । ऐसे संदेश देती अनेक दुकानें भी खुल गई हैं ।
तेल तो कब का ब्रांडेड हो गया है । छोटे छोटे कस्बोंे की तेल मिलों को तो काल निगल गया । नमक और दाल तक टाटा के हो गए हैं । तेल, साबुन, शेम्पू में तो कितने ही हर्बल (आयुर्वेदिक या वनस्पतिजन्य) उत्पादन बाजार में आ गए हैं । घृतकुमारी या ग्वारपाठा रस अर्थात् एलोवेरा, जामुन के सत के साथ करेला, नीम, आंवला सहित अनेक तैयार उत्पादन हम खरीद रहे हैं। असंतुलित व तनावपूर्ण जीवनशैली से, असुरक्षित जीवनवेग का जन्म हुआ है । यदि इसका लाभ ना उठाए तो वह पूंजीवाद किस काम का ? इसीलिए अब उन्होंने शुरु की 'वेलनेस इंडस्ट्री'। इस उद्योग के आज के वैश्विक आंकड़े चौंकाने वाले हैं । दुनियाभर में आज यह उद्योग सालाना १८०० लाख करोड़ तक पहुंच चुका है । अर्थात् दवा के बाजार से भी तीन चार गुना ।
इसमें आरोग्यपूर्ण एवं जैविक -विषमुक्त खेती उद्योग ३०० लाख करोड़ रु., आधुनिक व्यायामशाला २०० लाख करोड़ रु., सौन्दर्य बढ़ाकर उम्र छुपाने वाले उत्पादन ६०० लाख करोड़ रु, वैयक्तिक स्वास्थ्य सेवा २०० लाख करोड़ रु., वैकल्पिक औषधियाँ (आयुर्वेद, यूनानी, चीनी, नेपाली, सिद्ध आदि) ६ लाख करोड़ और बाकी जीवनशैली विषयक उत्पादन, प्रशिक्षण तथा निरोगी रहने की सेवाएँ आदि । इसके अलावा स्वास्थ्य पर्यटन (हेल्थ टूरिज्म) का व्यवसाय ३०० लाख करोड़ तक पहुंच गया है और इसमें हर वर्ष १२.५ प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हो रही है ।
ब्यूटी पार्लर देहातों में पंहुच गए हैंऔर 'स्पा' नामक आविष्कार तो अब आपको शिर्डी जैसे तीर्थ स्थानों पर भी देखने को मिलेगा । प्रत्येक पर्यटन केंद्र और आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास ये सुविधाएं उपलब्ध हैं । यह व्यवसाय अब ३.५ लाख करोड़ तक पहुुँच गया है। केरलीयन मसाज भी आपको कमोवेश जिला स्तर पर मिलेगा । भोजन की तमाम जैविक वस्तुएँ अब सभी बड़े शहरों में आप जैविक किसानों से ऑनलाइन खरीद सकते हैं । मुंबई, पुणे में तो यह व्यापार शुरु हुए १० साल हो गए हैं । आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में कोकाकोला कंपनी ही नींबूरस, गन्ना, रस, आम का पना बाजार में लाए ।
आज तक तो उन्होंने ही हमें जहर पिला कर कैंसर जैसे रोग बढ़ाएं और अपनी दवाइयां खूब बेची । जब इलनेस इंडस्ट्री की सीमा आ गयी तो अब वे वेलनेस इंडस्ट्री के उत्पादन भी हमें ही तो बेचेंगे । अभी भी रामदेव, हल्दीराम तथा ऐसी अनेक छोटी कंपनियाँ रोज हमारे घर में बनने वाले चीजें जैसे कोकम शरबत, आंवला शरबत, जेम, 'जीरो' प्रतिशत फेट के बिस्कुट, व्हीट ब्रेड, साबुन, पेस्ट तक नैसर्गिक उत्पादन के नाम पर बाजार में ले आई हैं । कोई बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी इन्हें भी खरीद लें तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए । गत २५ साल में बने नवलक्ष्मीदास, स्वास्थ्य के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील हो गए हैं ।
वैकिल्पक औषधि एवं आयुर्वेदिक उत्पादनों की बिक्री में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। १९९६ में जब हमने गोमूत्र आधारित पहली छ: औषधियाँ बनाई, तब हम महाराष्ट्र में इसके एकमेव उत्पादक थे तथा इन्हें बिक्री के लिए नहीं बनाते थे। हमारे फार्मूले से जिसने उत्पादन शुरु किया वह सेवाभावी आदमी था, पर उसके बाद आने वाले ने कंपनियां बना डालीं । सन् २००४ में देश में इसकी ४२ कंपनियां थी जो सालाना ७२ करोड़ का व्यापार करती थी । आज ऐसी दवाएं, जैविक कीटनाशक, गोबर-गोमूत्र से बने साबुन, शैम्पू आदि बनाने वाली छोटी छोटी कंपनियों का व्यवसाय १००० करोड़ रु. से ज्यादा है । अब वह 'काऊ थेरपी' बन गया है। अब तो गोबर की गणेश मूर्तियाँ भी बाजार में आ गयी हैं ।
सन् २०१४ के वर्ष मंे भारत में कुल स्वास्थ्य उद्योग १६२०० करोड़ रु. का था । केवल भारत में इस आरोग्य विषयक बाजार की क्षमता का ४० प्रतिशत हिस्सा खान-पान का है। हमारे देश में आरोग्य विषयक सेवाओं की जननी कही जाने वाले आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, योग (सॉरी, अब योगा कहना उचित होगा) और निसर्गोपचार के लिए गत दशक में 'आयुष' मंत्रालय की स्थापना क्या दर्शाती है ? वे रुग्ण सेवा नहीं बल्किआप बीमार ना हो इसके लिए आरोग्य उद्योग बढ़ाने में लगे हैं ।
भारत में हजारों औषधि वनस्पतियां हैं । औषधियाँ और आरोग्यप्रद खाद्य पदार्थ बनाने में ९००० लघु एवं मध्यम उद्योग कार्यरत हैं । वे प्रति वर्ष १२००० करोड़ के स्वास्थ्य उत्पाद बनाते हैं । छोटे उद्योगों को भारतीय बड़ी कंपनियां और भारतीय बड़ी कंपनियां को बहुराष्ट्रीय कंपनियां लील गईं ।
इसी तर्ज पर योग का भी बाजार करने पर मेरा एक चालीस साल का मित्र बोला 'मुझे यह नुकसान वाला मुद्दा समझ में नही आया ।' मैंने कहा 'देखो । फलां फलां व्यक्ति बहुत कमाता है ।' पर परिवारिक कारणों से ह्दय रोग हो गया, दूसरे को व्यावसायिक तनावों से डायबिटीज हो गई, तीसरे को बैठे काम से मोटापे ने जकड़ लिया और चौथे को मानसिक असंतुलन हो गया । ये लोग अगर स्वास्थ्य सेवाएँ लेंगे अर्थात जिम जाएंगे, जैविक भोजन लेंगे, योगा करेंगे तो निरोगी रहकर अधिक एकाग्रता से काम करते हुआ नए नए हुनर, तंत्र कौशल सीखेंगे । तब उन्हें और कंपनी की आय में वृद्धि होेेगी । अर्थात देश की जी. डी. पी. में वृद्धि होगी । यदि ये लोग इस उद्योग की सेवाएं ना खरीदंे तो देश का नुकसान होगा की नहीं ? वही है ९ लाख करोड़ का नुकसान । समझे ?
हमंे इस पर विमर्श करना चाहिए कि स्वास्थ्य को उद्योग बनाने की चाल किसकी है ? यह ना होता तो जो रोजगार इससे पैदा हुआ है उन्हें हम क्या विकल्प देते ? बढ़ती जनसंख्या को रोजगार कैसे मिलेगा ? स्वास्थ्य उद्योग का अगला कदम और भविष्य कैसा होगा ? इससे कौन लाभान्वित होंगे और कौन बर्बादी की कगार पर धकेले जाएंगे ? विकसित देशों में इसका क्या हाल है और विकासशील देशोें के गरीबों का क्या होगा ?
गत २५ साल में हर तहसील या प्रखण्ड के कस्बे या छोटे से शहर में 'जिम' नामक आधुनिक व्यायामशालाएँ खुली हैं । इसी काल में सारे अभिनेता उत्तम शरीर यष्टी, बंधे हुए एवं मजबूत दिखने लगे हैं । गली कूचों के युवाओं का भी अब यही सपना बना दिया गया है। अब इस धंधे से जुड़े व्यवसाय/उद्योग जोरों पर हैं । वैश्वीकरण से समाज के एक वर्ग के पास बहुत पैसा बढ़ा है । ये लोग एकदम से आरोग्य के प्रति संवदेनशील बन गए । क्या खायंे, क्या ना खायंे इसकी चर्चाएं व्हाट्स अप, फेसबुक, ट्वीटर आदि माध्यमों में जोरों पर हैं। सलाह दी जाती है जैविक-विषमुक्त अन्न, फल, सब्जियाँ ही खाएं, देशज गाय का दूध, घी खाएं । ऐसे संदेश देती अनेक दुकानें भी खुल गई हैं ।
तेल तो कब का ब्रांडेड हो गया है । छोटे छोटे कस्बोंे की तेल मिलों को तो काल निगल गया । नमक और दाल तक टाटा के हो गए हैं । तेल, साबुन, शेम्पू में तो कितने ही हर्बल (आयुर्वेदिक या वनस्पतिजन्य) उत्पादन बाजार में आ गए हैं । घृतकुमारी या ग्वारपाठा रस अर्थात् एलोवेरा, जामुन के सत के साथ करेला, नीम, आंवला सहित अनेक तैयार उत्पादन हम खरीद रहे हैं। असंतुलित व तनावपूर्ण जीवनशैली से, असुरक्षित जीवनवेग का जन्म हुआ है । यदि इसका लाभ ना उठाए तो वह पूंजीवाद किस काम का ? इसीलिए अब उन्होंने शुरु की 'वेलनेस इंडस्ट्री'। इस उद्योग के आज के वैश्विक आंकड़े चौंकाने वाले हैं । दुनियाभर में आज यह उद्योग सालाना १८०० लाख करोड़ तक पहुंच चुका है । अर्थात् दवा के बाजार से भी तीन चार गुना ।
इसमें आरोग्यपूर्ण एवं जैविक -विषमुक्त खेती उद्योग ३०० लाख करोड़ रु., आधुनिक व्यायामशाला २०० लाख करोड़ रु., सौन्दर्य बढ़ाकर उम्र छुपाने वाले उत्पादन ६०० लाख करोड़ रु, वैयक्तिक स्वास्थ्य सेवा २०० लाख करोड़ रु., वैकल्पिक औषधियाँ (आयुर्वेद, यूनानी, चीनी, नेपाली, सिद्ध आदि) ६ लाख करोड़ और बाकी जीवनशैली विषयक उत्पादन, प्रशिक्षण तथा निरोगी रहने की सेवाएँ आदि । इसके अलावा स्वास्थ्य पर्यटन (हेल्थ टूरिज्म) का व्यवसाय ३०० लाख करोड़ तक पहुंच गया है और इसमें हर वर्ष १२.५ प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हो रही है ।
ब्यूटी पार्लर देहातों में पंहुच गए हैंऔर 'स्पा' नामक आविष्कार तो अब आपको शिर्डी जैसे तीर्थ स्थानों पर भी देखने को मिलेगा । प्रत्येक पर्यटन केंद्र और आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास ये सुविधाएं उपलब्ध हैं । यह व्यवसाय अब ३.५ लाख करोड़ तक पहुुँच गया है। केरलीयन मसाज भी आपको कमोवेश जिला स्तर पर मिलेगा । भोजन की तमाम जैविक वस्तुएँ अब सभी बड़े शहरों में आप जैविक किसानों से ऑनलाइन खरीद सकते हैं । मुंबई, पुणे में तो यह व्यापार शुरु हुए १० साल हो गए हैं । आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में कोकाकोला कंपनी ही नींबूरस, गन्ना, रस, आम का पना बाजार में लाए ।
आज तक तो उन्होंने ही हमें जहर पिला कर कैंसर जैसे रोग बढ़ाएं और अपनी दवाइयां खूब बेची । जब इलनेस इंडस्ट्री की सीमा आ गयी तो अब वे वेलनेस इंडस्ट्री के उत्पादन भी हमें ही तो बेचेंगे । अभी भी रामदेव, हल्दीराम तथा ऐसी अनेक छोटी कंपनियाँ रोज हमारे घर में बनने वाले चीजें जैसे कोकम शरबत, आंवला शरबत, जेम, 'जीरो' प्रतिशत फेट के बिस्कुट, व्हीट ब्रेड, साबुन, पेस्ट तक नैसर्गिक उत्पादन के नाम पर बाजार में ले आई हैं । कोई बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी इन्हें भी खरीद लें तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए । गत २५ साल में बने नवलक्ष्मीदास, स्वास्थ्य के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील हो गए हैं ।
वैकिल्पक औषधि एवं आयुर्वेदिक उत्पादनों की बिक्री में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। १९९६ में जब हमने गोमूत्र आधारित पहली छ: औषधियाँ बनाई, तब हम महाराष्ट्र में इसके एकमेव उत्पादक थे तथा इन्हें बिक्री के लिए नहीं बनाते थे। हमारे फार्मूले से जिसने उत्पादन शुरु किया वह सेवाभावी आदमी था, पर उसके बाद आने वाले ने कंपनियां बना डालीं । सन् २००४ में देश में इसकी ४२ कंपनियां थी जो सालाना ७२ करोड़ का व्यापार करती थी । आज ऐसी दवाएं, जैविक कीटनाशक, गोबर-गोमूत्र से बने साबुन, शैम्पू आदि बनाने वाली छोटी छोटी कंपनियों का व्यवसाय १००० करोड़ रु. से ज्यादा है । अब वह 'काऊ थेरपी' बन गया है। अब तो गोबर की गणेश मूर्तियाँ भी बाजार में आ गयी हैं ।
सन् २०१४ के वर्ष मंे भारत में कुल स्वास्थ्य उद्योग १६२०० करोड़ रु. का था । केवल भारत में इस आरोग्य विषयक बाजार की क्षमता का ४० प्रतिशत हिस्सा खान-पान का है। हमारे देश में आरोग्य विषयक सेवाओं की जननी कही जाने वाले आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, योग (सॉरी, अब योगा कहना उचित होगा) और निसर्गोपचार के लिए गत दशक में 'आयुष' मंत्रालय की स्थापना क्या दर्शाती है ? वे रुग्ण सेवा नहीं बल्किआप बीमार ना हो इसके लिए आरोग्य उद्योग बढ़ाने में लगे हैं ।
भारत में हजारों औषधि वनस्पतियां हैं । औषधियाँ और आरोग्यप्रद खाद्य पदार्थ बनाने में ९००० लघु एवं मध्यम उद्योग कार्यरत हैं । वे प्रति वर्ष १२००० करोड़ के स्वास्थ्य उत्पाद बनाते हैं । छोटे उद्योगों को भारतीय बड़ी कंपनियां और भारतीय बड़ी कंपनियां को बहुराष्ट्रीय कंपनियां लील गईं ।
इसी तर्ज पर योग का भी बाजार करने पर मेरा एक चालीस साल का मित्र बोला 'मुझे यह नुकसान वाला मुद्दा समझ में नही आया ।' मैंने कहा 'देखो । फलां फलां व्यक्ति बहुत कमाता है ।' पर परिवारिक कारणों से ह्दय रोग हो गया, दूसरे को व्यावसायिक तनावों से डायबिटीज हो गई, तीसरे को बैठे काम से मोटापे ने जकड़ लिया और चौथे को मानसिक असंतुलन हो गया । ये लोग अगर स्वास्थ्य सेवाएँ लेंगे अर्थात जिम जाएंगे, जैविक भोजन लेंगे, योगा करेंगे तो निरोगी रहकर अधिक एकाग्रता से काम करते हुआ नए नए हुनर, तंत्र कौशल सीखेंगे । तब उन्हें और कंपनी की आय में वृद्धि होेेगी । अर्थात देश की जी. डी. पी. में वृद्धि होगी । यदि ये लोग इस उद्योग की सेवाएं ना खरीदंे तो देश का नुकसान होगा की नहीं ? वही है ९ लाख करोड़ का नुकसान । समझे ?
हमंे इस पर विमर्श करना चाहिए कि स्वास्थ्य को उद्योग बनाने की चाल किसकी है ? यह ना होता तो जो रोजगार इससे पैदा हुआ है उन्हें हम क्या विकल्प देते ? बढ़ती जनसंख्या को रोजगार कैसे मिलेगा ? स्वास्थ्य उद्योग का अगला कदम और भविष्य कैसा होगा ? इससे कौन लाभान्वित होंगे और कौन बर्बादी की कगार पर धकेले जाएंगे ? विकसित देशों में इसका क्या हाल है और विकासशील देशोें के गरीबों का क्या होगा ?
पर्यावरण परिक्रमा
फलदार पेड़ों पर भी कुल्हाड़ी चलाने की छूट
म.प्र. में पौराणिक आस्था से जुड़े बरगद, पीपल जैसे वृक्ष तथा आम, अमरूद जैसे फलदार पेड़ भी अब वैधानिक रूप से काटे और बेचे जा सकेंगे । वन विभाग ने वानिकी को बढ़ावा देने के निर्णय के तहत ५३ प्रजातियों के पेड़ों को परिवहन अनुज्ञा (टीपी) से मुक्त कर दिया है । अब लोग अपने बगीचे, आंगन, प्लॉट आदि से ये पेड़ कटवा सकेंगे ।
विभाग ने इन पेड़ों को टीपी से मुक्त करने का मसौदा विधि विभाग को भेजा था, मंजूरी के बाद अधिसूचना जारी की गई है । जानकारों का मानना है कि इससे कॉलोनियों, मोहल्लों में लोगों के घर-आंगन मेें लगे पेड़ खतरे में होंगे । ग्रामीण इलाकों में किसानों के खेत व जमीन पर लगे पेड़ भी ठेकेदारों के हवाले किए जाने की आशंका रहेगी । अधिसूचना में पीपल, बरगद, के वृक्षों को भी टीपी मुक्त किया है । बरगद को देश में राष्ट्रीय पेड़ का दर्जा है । महकमे का तर्क है कि निर्णय से लोग नए पेड़ लगाने के लिए प्रेरित होंगे । इस निर्णय में लकड़ी माफिया की दिलचस्पी थी । आलम यह था कि जुलाई में इस प्रस्ताव का मसौदा खंडवा, इंदौर, बैतूल, देवास आदि जिलों में पहुंच गया था और अधांधुध कटाई शुरू हो गई थी, वन विभाग के पीसीसीएफ से लेकर सचिव तक कहते रहे कि विधि विभाग को प्रस्ताव भेजने के साथ ही फील्ड अफसरोंसे भी सुझाव के लिए यह मसौदा भेजा गया था, जिसे आदेश समझा गया । ताजे फैसले से उन अफसरों को बचाया जा सकेगा जिनके इलाकों में अधिसूचना से पहले ही कटाई शुरू हो गई थी ।
इन पेड़ो को किया टीपी मुक्त
यूकेलिप्टस, केजुरिना, पोपलर, सुबबूल, इजरायली बबूल, विलायती बबूल, आस्टे्रलियन बबूल, बबूल, खमेर, कटंग बांस, महारूख, कदम, कैसिला सिमोआ, गुलमोहर, जेकरंडा, सिल्वर ऑक, पाम, बेर, शहतूत, कटहल, अमरूद,्न् नींबू-संतरा-मौसंबी, मुनगा, मोलश्री, अशोक, पुत्रजीवा, इमली, जामुन, आम, सप्त्पर्नी, केथा, जंगली जलेबी, पेल्टाफोरम, नीम, बेकेन, सिसू, करंज, पलाश, सफेद सिरस, पीपल बरगद, गुलर, रबर, सेमल, कपोक, चिरोल, ग्लेरिसीडिया, रिन्झा, मीठी नीम, गुड़हल, शंकुधारी प्रजातियां (चीड़, कैल, देवदार व पाइन प्रजातियां) आयातित-विलायती काठ व बांस ।
स्कूलों में नहीं मिलेगा जंक फूड
देश का शीर्षस्थ खाद्य नियामक स्कूलों में जंक फूड के उपभोग और उपलब्धता पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी में है । भारती खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने स्कूलों में बच्चें में जंक फूड के उपभोग पर नियंत्रण के लिए प्रारूप दिशा-निर्देश जारी किया है । प्रारूप दिशा-निर्देश में कहा गया है कि स्कूलों में ऐसे स्वास्थ्य शिक्षा के कार्यक्रम चलाए जाएं, जिससे अभिभावकों और छात्र जंक फूड के दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक हो सकें । प्रारूप में कहा गया है कि जो भी खाद्य साम्रगी जंक फूड की परिभाषा में आती हों, उन्हें स्कूल की कैन्टीनोंमें प्रतिबंधित कर दिया जाए । दिशा-निर्देशों में यह भी कहा गया है कि संतुलित, ताजे और परम्परागत खाद्य पदार्थ का स्थानापन्न नहीं किया जा सकता । स्कूलों को ऐसे खाद्य पदार्थोंा को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, जिससे मोटापा बढ़े और चीनी व नमक के चलते मनोवैज्ञानिक समस्याएं बढ़ें ।
भारतीय खाद्य और सुरक्षा मानक प्राधिकरण ने यह कदम जुलाई अन्त में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिए उस आदेश की अनुपालना में उठाया है, जिसमें स्कूलों में जंक फूड का मॉनीटर करने के लिए तीन माह का समय दिया गया था । उल्लेखनीय है कि स्कूली बच्चें में जंक फूड की खपत और उसकी उपलब्धता संबंधी समिति ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को सौंपी रिपोर्ट में भी स्कूलोंऔर इनके आस पास के क्षेत्रों में जंक फूड की बिक्री रोक देने की सिफारिश की है ।
प्रदूषण को कम करने का खोजा समाधान
स्वच्छ गंगा अभियान के रास्ते में एक बड़ा रोड़ा मानी जा रही उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर की चमड़ा फैक्ट्रियोंसे होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए आईआईटी रूड़की ने एक समाधान खोज निकाला है ।
संस्थान की इस खोज से गंगा किनारे बसे कानपुर शहर की ७०० से ज्यादा चमड़ा फैक्ट्रियों के भविष्य पर मंडरा रहे अनिश्चितता के बादल छंट सकते हैं । पायलट प्रोजेक्ट के तहत आईआईटी रूड़की ने एक ऐसा उत्प्रेरक कैटालिस्ट विकसित किया हैं, जिसका प्रयोग चमड़ा फैक्ट्रियों के रिडिजाइंड चैंबर्स में किया जाता हैं । इस उत्प्रेरक के प्रयोग से फैक्ट्रियों के टीडीएस: टोटल डिजाल्वड सॉलिड का स्तर १८०००-२५००० पीपीएम: पार्ट पर मिलियन से घटकर केवल १०००-१५०० पीपीएम तक रह जाएगा जो निर्धारित मानकों के अन्दर होगा ।
आईआईटी रूड़की के रसायनिक इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर शिशिर सिन्हा ने बताया कि आईआईटी रूड़की को यह पायलट प्रोजेक्ट कानपुर की पांच शीर्ष चमड़ा इकाइयों के एक समूह ने दिया है जिसमें एशिया की सबसे बड़ी चमड़ा फैक्ट्री मिर्जा इंटरनेशनल भी शामिल है । प्रोफेसर सिन्हा ने कहा हमने उत्प्रेरक विकसित कर चमड़ा फैक्ट्रियों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए पायलट प्रोजेक्ट सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है जिससे टीडीएस के स्तर को कम किया जा सकता है ।
आईआईटी रूड़की इसके अलावा चमड़ा उद्योगों से निकलने वाले कचरे में बड़ी मात्रा में मौजूद खतरनाक क्रोम के स्तर को कम करने के लिए भी समाधान खोजने का काम कर रहा है । प्रोफेसर सिन्हा ने दावा किया हम क्रोम समस्या का हल ढूंढने के भी बहुत निकट पहुंच चुके है । राष्ट्रीय हरित अधिकरण: एनजीटी ने हाल ही में कानपुर की ७०० से ज्यादा चमड़ा फैक्ट्रियों को गंगा नदी में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार सबसे बड़े कारकों में से एक बताते हुए उन्हें पूरी तरह से बंद करने की चेतावनी दी थी । यह भी कहा था कि अगर प्रदूषण रोकने के प्रभावी उपाय न किए गए तो इन चमड़ा उद्योगों को बंद कर दिया जाएगा ।
इसी सप्तह देहरादून में गंगा के लिए वानिकी प्रयासों की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने हेतु बैठक में शिरकत करने आए केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भी चेतावनी देते हुए कहा था कि गंगा नदी में प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर केंद्र कड़ी कारवाई करेगा । जावड़ेकर ने कहा कि गंगा नदी में प्रदूषण फैला रहे उसके किनारे स्थित चमड़ा इकाइयों से प्रदूषण रोकने के लिए एक कार्ययोजना बनाई जा रही है जो अगले एक साल मेंपूरी हो जाएगी । मंत्री ने कहा कि इसके अलावा गंगा किनारे के बाकी उद्योगों में भी सेंसर डिवाइस लगाए जाएंगे जो चौबीसों घंटे उनसे निकलने वाले अपशिष्ट से हवा और पानी में होने वाले प्रदूषण को रिकॉर्ड करेंगे ।
हर ११ वां बच्च कर रहा है बाल मजदूरी
देश में पांच से १८ वर्ष की उम्र का हर ११वां बच्च बाल मजदूरी कर रहा है । बाल श्रम निर्मूलन के क्षेत्र के गैर सरकार चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) ने सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह दाख किया है । क्राई ने जनगणना आंकड़े के विश्लेषण मेंखुलासा किया है कि पिछले दशक के दौरान बाल श्रम में हर साल महज २.२ फीसदी की धीमी गति से गिरावट आई हैं । संगठन का दावा है कि इस गति से कामकाजी बच्चें को बाल मजदूरी से मुक्त कराने में एक सदी से भी ज्यादा का समय लग जाएगा । मौजूदा समय में एक करोड़ से अधिक बच्च्े कार्य स्थलों का हिस्सा बने हुए हैं ।
विश्लेषण में कहा गया है कि ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाकों में पलायन के कारण बाल श्रतिकों की संख्या में २००१-२०११ के दौरान ५३ प्रतिशत तक वृद्धि हुई है । कामकाजी बच्चें की बड़ी तादाद ८० प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में है इनमें प्रत्येक ४ में से ३ बच्च्े कृषि या घरेलू उद्योगों में लगे हूए हैं । विश्लेषण में कहा गया है कि वर्ष २००१-२०११ में १०-१४ वर्ष के आयु वर्ग में कामकाजी बच्चें में कमी दर्ज की गई । इसके विपरीत ५-९ साल के बीच के कामकाजी बच्चें की संख्या में ३७ प्रतिशत तक का इजाफा भी दर्ज किया गया । हालांकि ५-९ साल के बीच कामकाजी बच्चें की संख्या में वृद्धि शहरी इलाकों में दर्ज की गई जहां कामकाजी लड़कों की संख्या १५४ प्रतिशत तक बढ़ी जबकि कामकाजी लड़कियों की संख्या में २४० प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है । भारत में ५० प्रतिशत से अधिक कामकाजी बच्च्े पांच राज्यों - बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में है । इन राज्यों का योगदान ५५ लाख बाल श्रमिकों का है । इन पांच राज्यों में केवलउत्तर प्रदेश ने बाल मजदूरी में १३ प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की है ।
फलदार पेड़ों पर भी कुल्हाड़ी चलाने की छूट
म.प्र. में पौराणिक आस्था से जुड़े बरगद, पीपल जैसे वृक्ष तथा आम, अमरूद जैसे फलदार पेड़ भी अब वैधानिक रूप से काटे और बेचे जा सकेंगे । वन विभाग ने वानिकी को बढ़ावा देने के निर्णय के तहत ५३ प्रजातियों के पेड़ों को परिवहन अनुज्ञा (टीपी) से मुक्त कर दिया है । अब लोग अपने बगीचे, आंगन, प्लॉट आदि से ये पेड़ कटवा सकेंगे ।
विभाग ने इन पेड़ों को टीपी से मुक्त करने का मसौदा विधि विभाग को भेजा था, मंजूरी के बाद अधिसूचना जारी की गई है । जानकारों का मानना है कि इससे कॉलोनियों, मोहल्लों में लोगों के घर-आंगन मेें लगे पेड़ खतरे में होंगे । ग्रामीण इलाकों में किसानों के खेत व जमीन पर लगे पेड़ भी ठेकेदारों के हवाले किए जाने की आशंका रहेगी । अधिसूचना में पीपल, बरगद, के वृक्षों को भी टीपी मुक्त किया है । बरगद को देश में राष्ट्रीय पेड़ का दर्जा है । महकमे का तर्क है कि निर्णय से लोग नए पेड़ लगाने के लिए प्रेरित होंगे । इस निर्णय में लकड़ी माफिया की दिलचस्पी थी । आलम यह था कि जुलाई में इस प्रस्ताव का मसौदा खंडवा, इंदौर, बैतूल, देवास आदि जिलों में पहुंच गया था और अधांधुध कटाई शुरू हो गई थी, वन विभाग के पीसीसीएफ से लेकर सचिव तक कहते रहे कि विधि विभाग को प्रस्ताव भेजने के साथ ही फील्ड अफसरोंसे भी सुझाव के लिए यह मसौदा भेजा गया था, जिसे आदेश समझा गया । ताजे फैसले से उन अफसरों को बचाया जा सकेगा जिनके इलाकों में अधिसूचना से पहले ही कटाई शुरू हो गई थी ।
इन पेड़ो को किया टीपी मुक्त
यूकेलिप्टस, केजुरिना, पोपलर, सुबबूल, इजरायली बबूल, विलायती बबूल, आस्टे्रलियन बबूल, बबूल, खमेर, कटंग बांस, महारूख, कदम, कैसिला सिमोआ, गुलमोहर, जेकरंडा, सिल्वर ऑक, पाम, बेर, शहतूत, कटहल, अमरूद,्न् नींबू-संतरा-मौसंबी, मुनगा, मोलश्री, अशोक, पुत्रजीवा, इमली, जामुन, आम, सप्त्पर्नी, केथा, जंगली जलेबी, पेल्टाफोरम, नीम, बेकेन, सिसू, करंज, पलाश, सफेद सिरस, पीपल बरगद, गुलर, रबर, सेमल, कपोक, चिरोल, ग्लेरिसीडिया, रिन्झा, मीठी नीम, गुड़हल, शंकुधारी प्रजातियां (चीड़, कैल, देवदार व पाइन प्रजातियां) आयातित-विलायती काठ व बांस ।
स्कूलों में नहीं मिलेगा जंक फूड
देश का शीर्षस्थ खाद्य नियामक स्कूलों में जंक फूड के उपभोग और उपलब्धता पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी में है । भारती खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने स्कूलों में बच्चें में जंक फूड के उपभोग पर नियंत्रण के लिए प्रारूप दिशा-निर्देश जारी किया है । प्रारूप दिशा-निर्देश में कहा गया है कि स्कूलों में ऐसे स्वास्थ्य शिक्षा के कार्यक्रम चलाए जाएं, जिससे अभिभावकों और छात्र जंक फूड के दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक हो सकें । प्रारूप में कहा गया है कि जो भी खाद्य साम्रगी जंक फूड की परिभाषा में आती हों, उन्हें स्कूल की कैन्टीनोंमें प्रतिबंधित कर दिया जाए । दिशा-निर्देशों में यह भी कहा गया है कि संतुलित, ताजे और परम्परागत खाद्य पदार्थ का स्थानापन्न नहीं किया जा सकता । स्कूलों को ऐसे खाद्य पदार्थोंा को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, जिससे मोटापा बढ़े और चीनी व नमक के चलते मनोवैज्ञानिक समस्याएं बढ़ें ।
भारतीय खाद्य और सुरक्षा मानक प्राधिकरण ने यह कदम जुलाई अन्त में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिए उस आदेश की अनुपालना में उठाया है, जिसमें स्कूलों में जंक फूड का मॉनीटर करने के लिए तीन माह का समय दिया गया था । उल्लेखनीय है कि स्कूली बच्चें में जंक फूड की खपत और उसकी उपलब्धता संबंधी समिति ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को सौंपी रिपोर्ट में भी स्कूलोंऔर इनके आस पास के क्षेत्रों में जंक फूड की बिक्री रोक देने की सिफारिश की है ।
प्रदूषण को कम करने का खोजा समाधान
स्वच्छ गंगा अभियान के रास्ते में एक बड़ा रोड़ा मानी जा रही उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर की चमड़ा फैक्ट्रियोंसे होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए आईआईटी रूड़की ने एक समाधान खोज निकाला है ।
संस्थान की इस खोज से गंगा किनारे बसे कानपुर शहर की ७०० से ज्यादा चमड़ा फैक्ट्रियों के भविष्य पर मंडरा रहे अनिश्चितता के बादल छंट सकते हैं । पायलट प्रोजेक्ट के तहत आईआईटी रूड़की ने एक ऐसा उत्प्रेरक कैटालिस्ट विकसित किया हैं, जिसका प्रयोग चमड़ा फैक्ट्रियों के रिडिजाइंड चैंबर्स में किया जाता हैं । इस उत्प्रेरक के प्रयोग से फैक्ट्रियों के टीडीएस: टोटल डिजाल्वड सॉलिड का स्तर १८०००-२५००० पीपीएम: पार्ट पर मिलियन से घटकर केवल १०००-१५०० पीपीएम तक रह जाएगा जो निर्धारित मानकों के अन्दर होगा ।
आईआईटी रूड़की के रसायनिक इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर शिशिर सिन्हा ने बताया कि आईआईटी रूड़की को यह पायलट प्रोजेक्ट कानपुर की पांच शीर्ष चमड़ा इकाइयों के एक समूह ने दिया है जिसमें एशिया की सबसे बड़ी चमड़ा फैक्ट्री मिर्जा इंटरनेशनल भी शामिल है । प्रोफेसर सिन्हा ने कहा हमने उत्प्रेरक विकसित कर चमड़ा फैक्ट्रियों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए पायलट प्रोजेक्ट सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है जिससे टीडीएस के स्तर को कम किया जा सकता है ।
आईआईटी रूड़की इसके अलावा चमड़ा उद्योगों से निकलने वाले कचरे में बड़ी मात्रा में मौजूद खतरनाक क्रोम के स्तर को कम करने के लिए भी समाधान खोजने का काम कर रहा है । प्रोफेसर सिन्हा ने दावा किया हम क्रोम समस्या का हल ढूंढने के भी बहुत निकट पहुंच चुके है । राष्ट्रीय हरित अधिकरण: एनजीटी ने हाल ही में कानपुर की ७०० से ज्यादा चमड़ा फैक्ट्रियों को गंगा नदी में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार सबसे बड़े कारकों में से एक बताते हुए उन्हें पूरी तरह से बंद करने की चेतावनी दी थी । यह भी कहा था कि अगर प्रदूषण रोकने के प्रभावी उपाय न किए गए तो इन चमड़ा उद्योगों को बंद कर दिया जाएगा ।
इसी सप्तह देहरादून में गंगा के लिए वानिकी प्रयासों की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने हेतु बैठक में शिरकत करने आए केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भी चेतावनी देते हुए कहा था कि गंगा नदी में प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर केंद्र कड़ी कारवाई करेगा । जावड़ेकर ने कहा कि गंगा नदी में प्रदूषण फैला रहे उसके किनारे स्थित चमड़ा इकाइयों से प्रदूषण रोकने के लिए एक कार्ययोजना बनाई जा रही है जो अगले एक साल मेंपूरी हो जाएगी । मंत्री ने कहा कि इसके अलावा गंगा किनारे के बाकी उद्योगों में भी सेंसर डिवाइस लगाए जाएंगे जो चौबीसों घंटे उनसे निकलने वाले अपशिष्ट से हवा और पानी में होने वाले प्रदूषण को रिकॉर्ड करेंगे ।
हर ११ वां बच्च कर रहा है बाल मजदूरी
देश में पांच से १८ वर्ष की उम्र का हर ११वां बच्च बाल मजदूरी कर रहा है । बाल श्रम निर्मूलन के क्षेत्र के गैर सरकार चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) ने सरकारी आंकड़ों के आधार पर यह दाख किया है । क्राई ने जनगणना आंकड़े के विश्लेषण मेंखुलासा किया है कि पिछले दशक के दौरान बाल श्रम में हर साल महज २.२ फीसदी की धीमी गति से गिरावट आई हैं । संगठन का दावा है कि इस गति से कामकाजी बच्चें को बाल मजदूरी से मुक्त कराने में एक सदी से भी ज्यादा का समय लग जाएगा । मौजूदा समय में एक करोड़ से अधिक बच्च्े कार्य स्थलों का हिस्सा बने हुए हैं ।
विश्लेषण में कहा गया है कि ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाकों में पलायन के कारण बाल श्रतिकों की संख्या में २००१-२०११ के दौरान ५३ प्रतिशत तक वृद्धि हुई है । कामकाजी बच्चें की बड़ी तादाद ८० प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में है इनमें प्रत्येक ४ में से ३ बच्च्े कृषि या घरेलू उद्योगों में लगे हूए हैं । विश्लेषण में कहा गया है कि वर्ष २००१-२०११ में १०-१४ वर्ष के आयु वर्ग में कामकाजी बच्चें में कमी दर्ज की गई । इसके विपरीत ५-९ साल के बीच के कामकाजी बच्चें की संख्या में ३७ प्रतिशत तक का इजाफा भी दर्ज किया गया । हालांकि ५-९ साल के बीच कामकाजी बच्चें की संख्या में वृद्धि शहरी इलाकों में दर्ज की गई जहां कामकाजी लड़कों की संख्या १५४ प्रतिशत तक बढ़ी जबकि कामकाजी लड़कियों की संख्या में २४० प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है । भारत में ५० प्रतिशत से अधिक कामकाजी बच्च्े पांच राज्यों - बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में है । इन राज्यों का योगदान ५५ लाख बाल श्रमिकों का है । इन पांच राज्यों में केवलउत्तर प्रदेश ने बाल मजदूरी में १३ प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की है ।
वानिकी जगत
खराब विचारों के जंगल में खो न जाएं
नेहा सिन्हा
क्षतिपूर्ति वनीकरण कोष के तहत काफी धनराशि एकत्र हो चुकी है । इसका इस्तेमाल वृक्षारोपण के जरिए कृत्रिम जंगलों का विकास रने की बजाय मौजूदा वनों को बहाल करने में किया जाना चाहिए ।
संसद की लकड़ी की डेस्कों पर एक विधेयक दस्तक दे रहा है । यह विधेयक है क्षतिपूरक वनीकरण विधेयक जिसमें ऐसी व्यवस्था बनाने का प्रावधान किया जाएगा कि भारत भर में जंगलों का विकास किया जाए, उन्हें काटा जाए और दुबारा से उन्हें पुनर्जीवित किया जाए । यह इस बात की निगरानी करेगा कि जंगलों के विनाश से जो ३८,००० करोड़ रूपए की राशि इकट्ठी की गई है, उसका इस्तेमाल कैसे किया जाए ।
खराब विचारों के जंगल में खो न जाएं
नेहा सिन्हा
क्षतिपूर्ति वनीकरण कोष के तहत काफी धनराशि एकत्र हो चुकी है । इसका इस्तेमाल वृक्षारोपण के जरिए कृत्रिम जंगलों का विकास रने की बजाय मौजूदा वनों को बहाल करने में किया जाना चाहिए ।
संसद की लकड़ी की डेस्कों पर एक विधेयक दस्तक दे रहा है । यह विधेयक है क्षतिपूरक वनीकरण विधेयक जिसमें ऐसी व्यवस्था बनाने का प्रावधान किया जाएगा कि भारत भर में जंगलों का विकास किया जाए, उन्हें काटा जाए और दुबारा से उन्हें पुनर्जीवित किया जाए । यह इस बात की निगरानी करेगा कि जंगलों के विनाश से जो ३८,००० करोड़ रूपए की राशि इकट्ठी की गई है, उसका इस्तेमाल कैसे किया जाए ।
शुरूआत मेंमात्र क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए निर्धारित इस कोष में इतनी भारी-भरकम राशि के मद्देनजर उच्च्तम न्यायालय भी ऐसी योजना बनाने को तत्पर हुइा जिससे इसका न्यायसंगत और उचित इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा सके । प्रस्तावित विधेयक जिस पर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वन सम्बंधी संसदीय समिति विचार कर रही है, का मुख्य जोर कृत्रिम प्लांटेशन के विकास के लिए राशि का इस्तेमाल सुनिश्चित करना है । साथ ही एक अन्य प्रावधान मेंइस राशि का इस्तेमाल बुनियादी ढांचे के विकास पर करने की बात कही गई है । ये प्रावधान अपने आप में अप्रासंगिक नहीं है, लेकिन इसके बावजूद इस राशि का इस्तेमाल कृत्रिम उपायों, चाहे प्लांटेशन हों या इमारतें, के लिए खोलने से पहले इस व्यवस्था को पारिस्थितिकी मानदंडों पर कसा जाना जरूरी है ।
यहां सबसे पहले तो दो चुनौतियां हैं । क्षतिपूर्ति वनीकरण राशि को अनेक लोग खून से सना पैसा मानते हैं, क्योंकि इसका सृजन मूल जंगलों को नष्ट करने से जुड़ा हैं । ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इस धनराशि में विस्तार किया जाना चाहिए और क्या वनों के डायवर्शन (अन्य कार्योंा में उपयोग) पर विराम नहीं लगना चाहिए ? वैचारिक बातों से अलग एक सीधा-सा सवाल यही है कि क्या नए जंगलों के विकास के लिए हमारे पास जमीन है भी ?
मात्र प्राकृतिक संसाधन नहीं
क्षतिपूर्ति के पीछे मान्यता अदला-बदली की है कि विकास परियोजनाआें के लिए पर्यावरण सम्बंधी सरोकारोंकी कुर्बानी देनी होगी । क्षतिपूर्ति वनीकरण भी इसी धारणा पर टिका है, लेकिन साथ ही इसमेंयह भी मान लिया गया है कि नए जंगल आसानी से लगाए जा सकते हैं । यह उस अति प्राचीन धारणा का परिणाम है जिसमें जंगल को जैन विविधता का एक पूरा तंत्र नहीं बल्कि केवललकड़ी, बांस और ऐसी ही चीजों का स्त्रोत माना जाता है ।
अगर जंगलों को केवलप्राकृतिक संसाधनोंके स्त्रोत, और वह भी प्राकृतिक कम और संसाधन ज्यादा, के रूप मेंदेखा जाता है, तब तो क्षतिपूर्ति वनीकरण के विचार मेंकोई दिक्कत नहीं है । केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडेकर के शब्दों में कहें तो फॉरेस्ट डाइवर्शन को पुनर्वनीकरण कहा जाना चाहिए । शायद इसीलिए विधेयक में कृत्रिम प्लांटेशन बनाने पर जोर दिया गया है ।
अलबत्ता, जैव विविधता का विज्ञान इस विचार को खारिज कर देता है कि मिश्रित वन प्रणाली को आसानी से पुननिर्मित किया जा सकता है । इसमेंपारिस्थतिक पुनरूद्धार अहम भूमिका निभाता हैै, वैसे ही जैसे कि समय निभाता है । कई राज्य कह चूके हेंकि नए जंगल लगाने के लिए उनके पास जमीन ही नही है । इसी वजह से अतीत मेंक्षतिपूर्ति वनीकरण कोश प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैम्पा) की राशि का एक बड़ा हिस्सा वन विभाग के लिए वाहनोंकी खरीदी या फिर भवनों की मरम्मत पर खर्च किया गया । अगर क्षतिपूर्ति वनीकरण कहीं किया भी गया तो रेलवे लाइनों व राजमार्गोंा के दोनों ओर या ऐसी ही अन्य जगहों पर किया गया । यहां पौधे लगाए गए, लेकिन उनकी जीवित रहने की दर काफी खराब रही । यकीनन, वे जैव-विविधता वाले जंगल तो कदापि नहीं बन पाए ।
नए और कृत्रिम जंगलों का विकास करने से बेहतर है कि वन विभाग कैम्पा में एकत्र धनराशि का इस्तेमाल मौजूदा वन भूमि को बहाल करने और खरीदने में करें । निश्चित रूप से यह भी विवादास्पद है । ये निर्णय राजनीति के बजाय पारिस्थितिक आधार पर और सुरक्षा के कई उपायों के साथ लेने होंगे । इस तरह के सुदृढ़ीकरण में वन कॉरिडोर (दो टाइगर रिजर्व के बीच बहुत ही संकीर्ण संपर्क मार्ग) और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशाील क्षेत्रों (जैसे नदीतट या सागर-संगम) को शामिल किया जा सकता है ।
यह बिल सुझाता है, प्राप्त् धनराशि का इस्तेमाल कृत्रिम पुनरूत्पादन (वृक्षारोपण), प्राकृतिक पुनरूत्पादन मेंसहयोग करने, वन प्रबंधन, वन संरक्षण, ढांचागत सुविधाआें के विकास, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबंधन, काष्ठ व अन्य वनोपज-बचत के उपायों में निर्धारित तरीकों से किया जाना चाहिए । इस तरह की गतिविधियो के कई मायने हो सकते हैं ।
ढांचागत सुविधाआें का विकास और काष्ठ की आपूर्ति जैसे प्रावधान बड़े ही भ्रामक हैं । विकास के समान ढांचागत सुविधाआें का अर्थ पुन:स्थापना भी हो सकता है और विध्वंस भी । उदाहरण के लिए श्री जावडेकर ने विकास के लिए जंगलोंको निजी कंपनियोंके हवाले करने का सुझाव दिया है जो वहां लकड़ी के लिए पेड़ों की कटाई का काम करेंगी और साथ ही जंगलों के नवीनीकरण का आव्हान भी किया है । यह पहली बार है कि जंगलों को निजी हाथों में सौंपने की बात कही जा रही है, जिन्हें अब तक पारंपरिक रूप से सरकार ही नियंत्रित करते आई है । इसी तरह, ढांचागत सुविधाआें का मतलब वाचटॉवर्स और वन रक्षकों के लिए जल शुद्धिकरण संयंत्र लगाने से भी हो सकता है और प्रशासनिक और गैर-बजट कार्योंा में पैसे की बर्बादी से भी ।
भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण जैसे उपयोगकर्ता एजेंसियों का सुझाव है कि कैम्पा फंड की राशि का इस्तेमाल जंगलोंसे गुजरने वाले रास्तों पर जंगली जानवरों के लिए अंडरपास और बायपास बनाने में किया जाए ताकि वाहनोें की चपेट में आने से होने वाली उनकी मौतों को कम किया जा सके ।अन्य एजेंसियां भी इसी तरह की मांग कर सकती है । यहीं पर कैम्पा फंड के मूल मकसद को याद रखा जाना चाहिए । उन्हीं ढांचागत सुविधाआें के विकास में इस पैसे का इस्तेमाल किया जाना उचित रहेगा जो जंगलों और वन्यजीवों के लिए हालात बदतर न बनाएं । किस तरह की ढांचागत सुविधाआें पर कैम्पा राशि का पैसा खर्च किया जाना चाहिए, इसके लिए वनयजीव प्रभाव आकलन का प्रावधान जरूर किया जाना चाहिए ।
केवल वन ही नहीं
जंगलों के अलावा भी ऐसे कई महत्वपूर्ण इकोसिस्टम हैं जिन पर ध्यान देने और धनराशि की जरूरत है । इनमें समुद्र क्षेत्र, पक्षियों के प्राकृतवास, नदी व समुद्र तटीय क्षेत्र और ऊंचाई पर स्थित घांस के मैदान शामिल हैं । कैम्पा फंड मेंजितनी धनराशि एकत्र की गई है, वह हमें प्रकृतिके संरक्षण के लिए हस्तक्षेप-मुक्त-क्षेत्रोंके बारे मेंफिर से सोचने और उन्हें निर्मित करने का एक गंभीर अवसर मुहैया करवाती है ।
कैम्पा फंड की इस राशि से हस्त्क्षेप-मुक्त-क्षेत्रों का विकास राज्यों की सीमाआें के आर-पार जाकर भी किया जा सकता है । यहां पश्चिमी घाट का उदाहरण लिया जा सकता है जिसका प्रशासन अलग-अलग राज्यों द्वारा किया जाता है । कैम्पा फंड की राशि का इस्तेमाल वन्यजीव, नमभूमि और वनोंके सरक्षंण की योजनाआें के साथ-साथ जनसमुदाय को क्षतिपूर्ति और प्रोत्साहन योजनाआेंपर करके संपूर्ण पश्चिमी घाट क्षेत्र को एक इकाई के रूप मेंविकसित किया जा सकता है ।
सिंहों को लेकर उच्च्तम न्यायालय के प्रसिद्ध फैसले (सेंटर फॉर एन्वायमेंटल लॉस-डब्लू. डब्लू.एफ. बनाम भारतीय संघ व अनय) में कहा गया है कि महत्वपूर्ण क्षेत्रों और प्रजातियों का संरक्षण एक सुसंगठित कार्ययोजना के जरिए किया जाना चाहिए । कैम्पा राशि का इस्तेमाल जोखिमग्रस्त वन्यजीव प्रजातियोंजैसे स्याहगोस (कैरकैल) या फिर उपेक्षित प्रजातियोंजैसे सारस (स्टॉर्क) आर डूगोंग के संरक्षण मेंकिया जाना चाहिए ।
निश्चित रूप से जंगलों को काटने से रोकने के बारे में तो सोचा भी नहीं जा रहा है । लेकिन अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य तो कट चूके जंगलोंको फिर से खड़ा करना है जिसके लिए लैंडस्केप लेवल पर पर्यावरणीय इनपुट की जरूरत पड़ेगी । भवन निर्माण और विफल नर्सरियों जैसे व्यर्थ के समाधानों की बजाय पर्यावरणीय समाधानों को महत्व देने का वक्त आ चूका है ।
मौजूदा प्राकृतिक क्षेत्रों का संरक्षण, वनों का एक-दूसरे से संलग्नीकरण, संवेदनशील प्राकृत-वासोंका संरक्षण और स्थानीय हित-धारियों के लिए समुचित क्षतिपूर्ति योजनाएं ऐसे तरीके हैंजिन पर आगे बढ़ा जाना चाहिए । अन्यथा हम केवल बड़ी-बड़ी बातें ही करते रह जाएंगे और समस्या बढ़ती चली जाएगी ।
यहां सबसे पहले तो दो चुनौतियां हैं । क्षतिपूर्ति वनीकरण राशि को अनेक लोग खून से सना पैसा मानते हैं, क्योंकि इसका सृजन मूल जंगलों को नष्ट करने से जुड़ा हैं । ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इस धनराशि में विस्तार किया जाना चाहिए और क्या वनों के डायवर्शन (अन्य कार्योंा में उपयोग) पर विराम नहीं लगना चाहिए ? वैचारिक बातों से अलग एक सीधा-सा सवाल यही है कि क्या नए जंगलों के विकास के लिए हमारे पास जमीन है भी ?
मात्र प्राकृतिक संसाधन नहीं
क्षतिपूर्ति के पीछे मान्यता अदला-बदली की है कि विकास परियोजनाआें के लिए पर्यावरण सम्बंधी सरोकारोंकी कुर्बानी देनी होगी । क्षतिपूर्ति वनीकरण भी इसी धारणा पर टिका है, लेकिन साथ ही इसमेंयह भी मान लिया गया है कि नए जंगल आसानी से लगाए जा सकते हैं । यह उस अति प्राचीन धारणा का परिणाम है जिसमें जंगल को जैन विविधता का एक पूरा तंत्र नहीं बल्कि केवललकड़ी, बांस और ऐसी ही चीजों का स्त्रोत माना जाता है ।
अगर जंगलों को केवलप्राकृतिक संसाधनोंके स्त्रोत, और वह भी प्राकृतिक कम और संसाधन ज्यादा, के रूप मेंदेखा जाता है, तब तो क्षतिपूर्ति वनीकरण के विचार मेंकोई दिक्कत नहीं है । केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडेकर के शब्दों में कहें तो फॉरेस्ट डाइवर्शन को पुनर्वनीकरण कहा जाना चाहिए । शायद इसीलिए विधेयक में कृत्रिम प्लांटेशन बनाने पर जोर दिया गया है ।
अलबत्ता, जैव विविधता का विज्ञान इस विचार को खारिज कर देता है कि मिश्रित वन प्रणाली को आसानी से पुननिर्मित किया जा सकता है । इसमेंपारिस्थतिक पुनरूद्धार अहम भूमिका निभाता हैै, वैसे ही जैसे कि समय निभाता है । कई राज्य कह चूके हेंकि नए जंगल लगाने के लिए उनके पास जमीन ही नही है । इसी वजह से अतीत मेंक्षतिपूर्ति वनीकरण कोश प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैम्पा) की राशि का एक बड़ा हिस्सा वन विभाग के लिए वाहनोंकी खरीदी या फिर भवनों की मरम्मत पर खर्च किया गया । अगर क्षतिपूर्ति वनीकरण कहीं किया भी गया तो रेलवे लाइनों व राजमार्गोंा के दोनों ओर या ऐसी ही अन्य जगहों पर किया गया । यहां पौधे लगाए गए, लेकिन उनकी जीवित रहने की दर काफी खराब रही । यकीनन, वे जैव-विविधता वाले जंगल तो कदापि नहीं बन पाए ।
नए और कृत्रिम जंगलों का विकास करने से बेहतर है कि वन विभाग कैम्पा में एकत्र धनराशि का इस्तेमाल मौजूदा वन भूमि को बहाल करने और खरीदने में करें । निश्चित रूप से यह भी विवादास्पद है । ये निर्णय राजनीति के बजाय पारिस्थितिक आधार पर और सुरक्षा के कई उपायों के साथ लेने होंगे । इस तरह के सुदृढ़ीकरण में वन कॉरिडोर (दो टाइगर रिजर्व के बीच बहुत ही संकीर्ण संपर्क मार्ग) और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशाील क्षेत्रों (जैसे नदीतट या सागर-संगम) को शामिल किया जा सकता है ।
यह बिल सुझाता है, प्राप्त् धनराशि का इस्तेमाल कृत्रिम पुनरूत्पादन (वृक्षारोपण), प्राकृतिक पुनरूत्पादन मेंसहयोग करने, वन प्रबंधन, वन संरक्षण, ढांचागत सुविधाआें के विकास, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबंधन, काष्ठ व अन्य वनोपज-बचत के उपायों में निर्धारित तरीकों से किया जाना चाहिए । इस तरह की गतिविधियो के कई मायने हो सकते हैं ।
ढांचागत सुविधाआें का विकास और काष्ठ की आपूर्ति जैसे प्रावधान बड़े ही भ्रामक हैं । विकास के समान ढांचागत सुविधाआें का अर्थ पुन:स्थापना भी हो सकता है और विध्वंस भी । उदाहरण के लिए श्री जावडेकर ने विकास के लिए जंगलोंको निजी कंपनियोंके हवाले करने का सुझाव दिया है जो वहां लकड़ी के लिए पेड़ों की कटाई का काम करेंगी और साथ ही जंगलों के नवीनीकरण का आव्हान भी किया है । यह पहली बार है कि जंगलों को निजी हाथों में सौंपने की बात कही जा रही है, जिन्हें अब तक पारंपरिक रूप से सरकार ही नियंत्रित करते आई है । इसी तरह, ढांचागत सुविधाआें का मतलब वाचटॉवर्स और वन रक्षकों के लिए जल शुद्धिकरण संयंत्र लगाने से भी हो सकता है और प्रशासनिक और गैर-बजट कार्योंा में पैसे की बर्बादी से भी ।
भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण जैसे उपयोगकर्ता एजेंसियों का सुझाव है कि कैम्पा फंड की राशि का इस्तेमाल जंगलोंसे गुजरने वाले रास्तों पर जंगली जानवरों के लिए अंडरपास और बायपास बनाने में किया जाए ताकि वाहनोें की चपेट में आने से होने वाली उनकी मौतों को कम किया जा सके ।अन्य एजेंसियां भी इसी तरह की मांग कर सकती है । यहीं पर कैम्पा फंड के मूल मकसद को याद रखा जाना चाहिए । उन्हीं ढांचागत सुविधाआें के विकास में इस पैसे का इस्तेमाल किया जाना उचित रहेगा जो जंगलों और वन्यजीवों के लिए हालात बदतर न बनाएं । किस तरह की ढांचागत सुविधाआें पर कैम्पा राशि का पैसा खर्च किया जाना चाहिए, इसके लिए वनयजीव प्रभाव आकलन का प्रावधान जरूर किया जाना चाहिए ।
केवल वन ही नहीं
जंगलों के अलावा भी ऐसे कई महत्वपूर्ण इकोसिस्टम हैं जिन पर ध्यान देने और धनराशि की जरूरत है । इनमें समुद्र क्षेत्र, पक्षियों के प्राकृतवास, नदी व समुद्र तटीय क्षेत्र और ऊंचाई पर स्थित घांस के मैदान शामिल हैं । कैम्पा फंड मेंजितनी धनराशि एकत्र की गई है, वह हमें प्रकृतिके संरक्षण के लिए हस्तक्षेप-मुक्त-क्षेत्रोंके बारे मेंफिर से सोचने और उन्हें निर्मित करने का एक गंभीर अवसर मुहैया करवाती है ।
कैम्पा फंड की इस राशि से हस्त्क्षेप-मुक्त-क्षेत्रों का विकास राज्यों की सीमाआें के आर-पार जाकर भी किया जा सकता है । यहां पश्चिमी घाट का उदाहरण लिया जा सकता है जिसका प्रशासन अलग-अलग राज्यों द्वारा किया जाता है । कैम्पा फंड की राशि का इस्तेमाल वन्यजीव, नमभूमि और वनोंके सरक्षंण की योजनाआें के साथ-साथ जनसमुदाय को क्षतिपूर्ति और प्रोत्साहन योजनाआेंपर करके संपूर्ण पश्चिमी घाट क्षेत्र को एक इकाई के रूप मेंविकसित किया जा सकता है ।
सिंहों को लेकर उच्च्तम न्यायालय के प्रसिद्ध फैसले (सेंटर फॉर एन्वायमेंटल लॉस-डब्लू. डब्लू.एफ. बनाम भारतीय संघ व अनय) में कहा गया है कि महत्वपूर्ण क्षेत्रों और प्रजातियों का संरक्षण एक सुसंगठित कार्ययोजना के जरिए किया जाना चाहिए । कैम्पा राशि का इस्तेमाल जोखिमग्रस्त वन्यजीव प्रजातियोंजैसे स्याहगोस (कैरकैल) या फिर उपेक्षित प्रजातियोंजैसे सारस (स्टॉर्क) आर डूगोंग के संरक्षण मेंकिया जाना चाहिए ।
निश्चित रूप से जंगलों को काटने से रोकने के बारे में तो सोचा भी नहीं जा रहा है । लेकिन अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य तो कट चूके जंगलोंको फिर से खड़ा करना है जिसके लिए लैंडस्केप लेवल पर पर्यावरणीय इनपुट की जरूरत पड़ेगी । भवन निर्माण और विफल नर्सरियों जैसे व्यर्थ के समाधानों की बजाय पर्यावरणीय समाधानों को महत्व देने का वक्त आ चूका है ।
मौजूदा प्राकृतिक क्षेत्रों का संरक्षण, वनों का एक-दूसरे से संलग्नीकरण, संवेदनशील प्राकृत-वासोंका संरक्षण और स्थानीय हित-धारियों के लिए समुचित क्षतिपूर्ति योजनाएं ऐसे तरीके हैंजिन पर आगे बढ़ा जाना चाहिए । अन्यथा हम केवल बड़ी-बड़ी बातें ही करते रह जाएंगे और समस्या बढ़ती चली जाएगी ।
ज्ञान-विज्ञान
सूक्ष्मजीव बताते है घर का पता
आपके घर के कोनों में जो धूल इकट्ठा होती रहती है वह अवश्य एलर्जी वगैरह का कारण बनती होगी मगर सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों ने पाया है कि इस धूल से न सिर्फ यह बताया जा सकता है कि आपका घर किस बस्ती में है बल्कि घर के सदस्यों के बारे में भी काफी कुछ सुराग मिल सकते हैं । इस रोचक अनुसंधान की रिपोर्ट हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुई है ।
सूक्ष्मजीव बताते है घर का पता
आपके घर के कोनों में जो धूल इकट्ठा होती रहती है वह अवश्य एलर्जी वगैरह का कारण बनती होगी मगर सूक्ष्मजीव वैज्ञानिकों ने पाया है कि इस धूल से न सिर्फ यह बताया जा सकता है कि आपका घर किस बस्ती में है बल्कि घर के सदस्यों के बारे में भी काफी कुछ सुराग मिल सकते हैं । इस रोचक अनुसंधान की रिपोर्ट हाल ही में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुई है ।
शोधकर्ता अल्बर्ट बार्बेआिन और उनके साथियों ने कुछ वालंटियर्स को यूएस के करीब १२०० घरों से और घरों के आसपास से धूल के नमूने लाने को कहा । जब इन नमूनों की जांच हुई तो पता चला कि किसी भी घर में औसतन ५००० किस्म के बैक्टीरिया और २००० किस्म की फफूंदें निवास करती हैं ।
फफूंद की किस्मों के विश्लेषण से घर की स्थिति के बारे मेंकाफी कुछ बताया जा सका । आम तौर पर किसी भी इलाके की फफूंद आबादी काफी विशिष्ट होती है । यही फफंूद घर के बाशिंदों के साथ या खिड़कियों-दरवाजों से घरों के अंदर भी आ जाती है । तो इसके आधार पर बताया जा सकता है कि जिस घर की धूल है वह किस इलाके में है । जैसे शोधकर्ताआें ने पाया कि ग्रेट लेक और एरिजोना के इलाकों के घरों की फफूंद का संघटन काफी अलग-अलग था ।
और बैक्टीरिया तो घर के लोगोंके बारे मेंबहुत कुछ चुगली कर देते हैं । आम तौर पर किसी घर में पाए जाने वाले बैक्टीरिया उस घर के बाशिंदों के शरीर से झड़ते हैं । तो इनके आधार पर शोधकर्ता किसी घर का लिंग अनुपात बता पाने में सफल रहे । यहां तक कि वे यह भी बता पाए कि किसी घर में कोई पालतू जानवर है या नहीं क्योंकि कुत्ते-बिल्लियां सूक्ष्मजीव के इस संसार मेंअपना विशिष्ट योगदान देते हैं ।
शोध रोचक तो है मगर इसका व्यावहारिक उपयोग क्या है ? शोधकर्ताआें का ख्याल है कि इस तरह की जानकारी अपराध वैज्ञानिकों के कामआ सकती है । इसके अलावा एलर्जीवगैरह के अध्ययन में घरों की धूल का सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक विश्लेषण सहायक हो सकता है ।
मानव जीनोम में फेरबदल की बहस जारी
लंदन में कुछ वैज्ञानिकोंने अनुमति चाही है कि मानव भ्रुण में जेनेटिक फेरबदल करके देखना चाहते हैं कि इसका भ्रुण के विकास पर क्या असर होता है । यह पहली बार है कि शोधकर्ताआें ने किसी नियामक संस्था से ऐसी अनुमति मांगी है । यू.के. मेंचिकित्सा उद्देश्य से मानव भ्रुण के जीनोम मेंकांट-छांट करना गैर-कानूनी है ।
फफूंद की किस्मों के विश्लेषण से घर की स्थिति के बारे मेंकाफी कुछ बताया जा सका । आम तौर पर किसी भी इलाके की फफूंद आबादी काफी विशिष्ट होती है । यही फफंूद घर के बाशिंदों के साथ या खिड़कियों-दरवाजों से घरों के अंदर भी आ जाती है । तो इसके आधार पर बताया जा सकता है कि जिस घर की धूल है वह किस इलाके में है । जैसे शोधकर्ताआें ने पाया कि ग्रेट लेक और एरिजोना के इलाकों के घरों की फफूंद का संघटन काफी अलग-अलग था ।
और बैक्टीरिया तो घर के लोगोंके बारे मेंबहुत कुछ चुगली कर देते हैं । आम तौर पर किसी घर में पाए जाने वाले बैक्टीरिया उस घर के बाशिंदों के शरीर से झड़ते हैं । तो इनके आधार पर शोधकर्ता किसी घर का लिंग अनुपात बता पाने में सफल रहे । यहां तक कि वे यह भी बता पाए कि किसी घर में कोई पालतू जानवर है या नहीं क्योंकि कुत्ते-बिल्लियां सूक्ष्मजीव के इस संसार मेंअपना विशिष्ट योगदान देते हैं ।
शोध रोचक तो है मगर इसका व्यावहारिक उपयोग क्या है ? शोधकर्ताआें का ख्याल है कि इस तरह की जानकारी अपराध वैज्ञानिकों के कामआ सकती है । इसके अलावा एलर्जीवगैरह के अध्ययन में घरों की धूल का सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक विश्लेषण सहायक हो सकता है ।
मानव जीनोम में फेरबदल की बहस जारी
लंदन में कुछ वैज्ञानिकोंने अनुमति चाही है कि मानव भ्रुण में जेनेटिक फेरबदल करके देखना चाहते हैं कि इसका भ्रुण के विकास पर क्या असर होता है । यह पहली बार है कि शोधकर्ताआें ने किसी नियामक संस्था से ऐसी अनुमति मांगी है । यू.के. मेंचिकित्सा उद्देश्य से मानव भ्रुण के जीनोम मेंकांट-छांट करना गैर-कानूनी है ।
वैसे इससे पहले चीन के एक दल द्वारा इस तरह मानव भ्रुण जीनोम मेंसंपादन किया जा चुका है । यह फेरबदल एक नई तकनीक की बदौलत संपन्न हुआ था । इस तकनीक का नाम है उठखडझठ/उरी९ और यह जेनेटिक संरचना में बहुत सटीक फेरबदल की गुंजाइश प्रदान करती है । यह काम सन यातसेन विश्वविद्यालय के जीन विशेषज्ञ जुन्जिऊ हुआंग के नेतृत्व में किया गया था और इसका मकसद यह था कि बीटा-थेलेसीमिया के जीन को परिवर्तित कर दिया जाए ।
थेलेसीमिया रक्त सम्बंधी एक रोग है जो शरीर को मिलने वाली ऑक्सीजन की सप्लाई को प्रभावित करता है । हालांकि यह शोध कार्य एसे भ्रुणों पर किया गया था जो आगे चलकर शिशु में विकसित नहीं हो सकते थे, मगर इसने दुनिया भर में काफी विवाद को जन्म दिया था । तभी से इस बात पर बहस जारी है कि मानव जीनोम के साथ इस तरह की छेड़छाड़ की सीमाएं क्या हों ?
अब ब्रिटेन मं फ्रांसिस क्रिक संस्थान की कैथी निआकान ने ह्यूमन फर्टीलाइजेशन एंड एम्ब्रियोलॉजी अथॉरिटी से मानव जीनोम परिवर्तन की अनुमति मांगी है । निआकान का कहना है कि वह यह शोध चिकित्सा में उपयोग के उद्देश्य से नहीं करना चाहती हैं । अथॉरिटी का मत है कि उसे इस प्रस्ताव पर कई दृष्टियों से विचार करना होगा ।
चीन और ब्रिटेन के बीच इस तरह के शोध को लेकर प्रमुख अंतर यह है कि जहां चीन मेंइस सम्बंध में कुछ दिशानिर्देश विकसित किए गए हैं वहीं ब्रिटेन में इसके लिए कानून है । चीन में इस तरह के अनुसंधान के लिए मात्र स्थानीय नैतिकता समिति की स्वीकृति पर्याप्त् हाती हैं । इसलिए दुनियाभर के जीव वैज्ञाानिकों को ब्रिटेन की अथॉरिटी के फैसले का इन्तजार है क्योंकि इससे मानव जीनोम सम्बंधी भावी अनुसंधान की दिशा तय होगी ।
इस बीच कई वैज्ञानिक संस्थाआें ने इस बात पर आंतरिक व सार्वजनिक बहस शुरू कर दी है कि मानव जर्मलाइन (यानी अंडाणु, शुक्राणु तथा भ्रुण) पर जीनोम बदलाव सम्बंधी शोध पर क्या रूख अपनाया जाना चाहिए और इसकी सीमाएं क्या होनी चाहिए ।
एंटीबायोटिक उपयोग और प्रतिरोध में नाटकीय वृद्धि
दुनिया भर में एंटीबायोटिक दवाइयों का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है । सेंटर फॉर डिसीज डाएनामिक्स, इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिसी नामक संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक इनकी मांग मेंसर्वाधिक वृद्धि निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में देखी जा रही है । संस्था ने हाल ही में विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों के अलावा पर यह रिपोर्ट जारी की है ।
थेलेसीमिया रक्त सम्बंधी एक रोग है जो शरीर को मिलने वाली ऑक्सीजन की सप्लाई को प्रभावित करता है । हालांकि यह शोध कार्य एसे भ्रुणों पर किया गया था जो आगे चलकर शिशु में विकसित नहीं हो सकते थे, मगर इसने दुनिया भर में काफी विवाद को जन्म दिया था । तभी से इस बात पर बहस जारी है कि मानव जीनोम के साथ इस तरह की छेड़छाड़ की सीमाएं क्या हों ?
अब ब्रिटेन मं फ्रांसिस क्रिक संस्थान की कैथी निआकान ने ह्यूमन फर्टीलाइजेशन एंड एम्ब्रियोलॉजी अथॉरिटी से मानव जीनोम परिवर्तन की अनुमति मांगी है । निआकान का कहना है कि वह यह शोध चिकित्सा में उपयोग के उद्देश्य से नहीं करना चाहती हैं । अथॉरिटी का मत है कि उसे इस प्रस्ताव पर कई दृष्टियों से विचार करना होगा ।
चीन और ब्रिटेन के बीच इस तरह के शोध को लेकर प्रमुख अंतर यह है कि जहां चीन मेंइस सम्बंध में कुछ दिशानिर्देश विकसित किए गए हैं वहीं ब्रिटेन में इसके लिए कानून है । चीन में इस तरह के अनुसंधान के लिए मात्र स्थानीय नैतिकता समिति की स्वीकृति पर्याप्त् हाती हैं । इसलिए दुनियाभर के जीव वैज्ञाानिकों को ब्रिटेन की अथॉरिटी के फैसले का इन्तजार है क्योंकि इससे मानव जीनोम सम्बंधी भावी अनुसंधान की दिशा तय होगी ।
इस बीच कई वैज्ञानिक संस्थाआें ने इस बात पर आंतरिक व सार्वजनिक बहस शुरू कर दी है कि मानव जर्मलाइन (यानी अंडाणु, शुक्राणु तथा भ्रुण) पर जीनोम बदलाव सम्बंधी शोध पर क्या रूख अपनाया जाना चाहिए और इसकी सीमाएं क्या होनी चाहिए ।
एंटीबायोटिक उपयोग और प्रतिरोध में नाटकीय वृद्धि
दुनिया भर में एंटीबायोटिक दवाइयों का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है । सेंटर फॉर डिसीज डाएनामिक्स, इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिसी नामक संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक इनकी मांग मेंसर्वाधिक वृद्धि निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में देखी जा रही है । संस्था ने हाल ही में विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों के अलावा पर यह रिपोर्ट जारी की है ।
सेंटर ने पिछले १० वर्षोंा में ६९ देशों एंटीबायोटिक्स के उपयोग के रूझानों और ३९ देशों में १२ किस्म के एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध की गणना की है ।
रिपोर्ट के अनुसार २००० से २०१० के बीच एंटीबायोटिक का वैश्विक उपयोग ३० प्रतिशत बढ़ा । इसमें से अधिकांश वृद्धि दक्षिण अफ्रीका और भारत जैसे देशों में देखी गई । इन देशों में दुकान से एंटीबायोटिक दवाइयां खरीदना बहुत आसान है ।
उदाहरण के लिए भारत में क्लेबसिएला न्यूमोनिए के प्रतिरोधी संक्रमणोंकी तादाद २००८ में २९ प्रतिशत थी और २०१४ में बढ़कर ५७ प्रतिशत है जो शक्तिशाली एंटीबायोटिक कार्बेपेनीम के प्रतिरोधी साबित हुए हैं ।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि दुनिया भर में पशुआें पर एंटीबायोटिक्स का उपयोग तेजी से बढ़ा है । समस्या खास तौर से चीन में गंभीर रूप ले चुकी है जहां २०१० में पशुआें के लिए १५,००० टन एंटीबायोटिक्स का उपयोग किया गया ।
दूसरी ओर, उच्च् आमदनी वाले देशों में एंटीबायोटिक्स के उपयोग के नियमन की कोशिशेंकी जा रही है । रिपोर्ट के मुताबिक यू.के. जैसे देशोंमें मेथिसिलिन के प्रतिरोधी स्टेफिलोकॉकस ऑरियस संक्रमणों की संख्या पिछले आठ वर्षोंा में तेजी से कम हुई है ।
रिपोर्ट के बारे में कई चिकित्सा शोधकर्ताआें का मत है कि यह रिपोर्ट आंखे खोल देने वाली है और मांग करती है कि निगरानी के प्रयास सघन किए जाएं, खास कर विकासशील देशों में, जहां फिलहाल आंकड़ों का अभाव है ।
रिपोर्ट में एंटीबायोटिक प्रतिरोध से निपटने के लिए ६ उपायों का सुझाव दिया गया है । इनमें से कुछ उपाय तो जाने-माने हैं । जैसे स्वच्छता तथा शौच व्यवस्था में सुधार करना । मगर कृषि और अस्पतालोंमें एंटीबायोटिक के उपयोग को सीमित करने जैसे कदम इतने आसान नहीं हैं । ये काफी विवादास्पद भी साबित हो सकते हैं । इस संदर्भ में एंटीबायोटिक उपयोग की निगरानी के लिए किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के विकास की बात भी सामने आ रही है । स्वास्थ्य के प्रति जनमानस में लोकचेतना के प्रयासों में यह महत्वपूर्ण होगा ।
रिपोर्ट के अनुसार २००० से २०१० के बीच एंटीबायोटिक का वैश्विक उपयोग ३० प्रतिशत बढ़ा । इसमें से अधिकांश वृद्धि दक्षिण अफ्रीका और भारत जैसे देशों में देखी गई । इन देशों में दुकान से एंटीबायोटिक दवाइयां खरीदना बहुत आसान है ।
उदाहरण के लिए भारत में क्लेबसिएला न्यूमोनिए के प्रतिरोधी संक्रमणोंकी तादाद २००८ में २९ प्रतिशत थी और २०१४ में बढ़कर ५७ प्रतिशत है जो शक्तिशाली एंटीबायोटिक कार्बेपेनीम के प्रतिरोधी साबित हुए हैं ।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि दुनिया भर में पशुआें पर एंटीबायोटिक्स का उपयोग तेजी से बढ़ा है । समस्या खास तौर से चीन में गंभीर रूप ले चुकी है जहां २०१० में पशुआें के लिए १५,००० टन एंटीबायोटिक्स का उपयोग किया गया ।
दूसरी ओर, उच्च् आमदनी वाले देशों में एंटीबायोटिक्स के उपयोग के नियमन की कोशिशेंकी जा रही है । रिपोर्ट के मुताबिक यू.के. जैसे देशोंमें मेथिसिलिन के प्रतिरोधी स्टेफिलोकॉकस ऑरियस संक्रमणों की संख्या पिछले आठ वर्षोंा में तेजी से कम हुई है ।
रिपोर्ट के बारे में कई चिकित्सा शोधकर्ताआें का मत है कि यह रिपोर्ट आंखे खोल देने वाली है और मांग करती है कि निगरानी के प्रयास सघन किए जाएं, खास कर विकासशील देशों में, जहां फिलहाल आंकड़ों का अभाव है ।
रिपोर्ट में एंटीबायोटिक प्रतिरोध से निपटने के लिए ६ उपायों का सुझाव दिया गया है । इनमें से कुछ उपाय तो जाने-माने हैं । जैसे स्वच्छता तथा शौच व्यवस्था में सुधार करना । मगर कृषि और अस्पतालोंमें एंटीबायोटिक के उपयोग को सीमित करने जैसे कदम इतने आसान नहीं हैं । ये काफी विवादास्पद भी साबित हो सकते हैं । इस संदर्भ में एंटीबायोटिक उपयोग की निगरानी के लिए किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के विकास की बात भी सामने आ रही है । स्वास्थ्य के प्रति जनमानस में लोकचेतना के प्रयासों में यह महत्वपूर्ण होगा ।
जनजीवन
क्या गंगा कभी स्वच्छ होगी ?
अनुज सिन्हा
टेम्स इंग्लैंड की सबसे लंबी नदी है । वर्ष १८७८ में लंदन के बार्किंग के पास नदी में एक भयंकर हादसा हो गया था । इसमें करीब ६०० लोगों की डूबने से मौत हो गई थी । अधिकांश लोगों की मौत नदी में फैले भयानक प्रदूषण के कारण हुई थी । उस समय नदी का पानी सड़े हुए अंडे की तरह बदबू मारता था और आक्सीजन का स्तर इतना कम था कि कोई भी जलीय जीव जीवित नहीं रह पाता था ।
इस नदी प्रणाली में ३८ सहायक नदियां और करीब ८० टापू आते हैं जो इंगलैंड के लिए बेहद अहम हैं । इसके जलग्रहण क्षेत्र (केचमेंट) में दक्षिण पूर्वी और पश्चिमी इंग्लैंड का कुछ क्षेत्र शामिल है । सदियों से इस नदी का इस्तेमाल परिवहन, मछली पालन, खेल गतिविधियों और लंदन की पेयजल आपूर्ति के लिए होता आया है । औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण इसके पानी की गुणवत्ता लगातार गिरती गई और अतंत: वर्ष १९५७ में वैज्ञानिकों ने इसे जैविक दृष्टि से मृतनदी घोषित कर दिया ।
क्या गंगा कभी स्वच्छ होगी ?
अनुज सिन्हा
टेम्स इंग्लैंड की सबसे लंबी नदी है । वर्ष १८७८ में लंदन के बार्किंग के पास नदी में एक भयंकर हादसा हो गया था । इसमें करीब ६०० लोगों की डूबने से मौत हो गई थी । अधिकांश लोगों की मौत नदी में फैले भयानक प्रदूषण के कारण हुई थी । उस समय नदी का पानी सड़े हुए अंडे की तरह बदबू मारता था और आक्सीजन का स्तर इतना कम था कि कोई भी जलीय जीव जीवित नहीं रह पाता था ।
इस नदी प्रणाली में ३८ सहायक नदियां और करीब ८० टापू आते हैं जो इंगलैंड के लिए बेहद अहम हैं । इसके जलग्रहण क्षेत्र (केचमेंट) में दक्षिण पूर्वी और पश्चिमी इंग्लैंड का कुछ क्षेत्र शामिल है । सदियों से इस नदी का इस्तेमाल परिवहन, मछली पालन, खेल गतिविधियों और लंदन की पेयजल आपूर्ति के लिए होता आया है । औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण इसके पानी की गुणवत्ता लगातार गिरती गई और अतंत: वर्ष १९५७ में वैज्ञानिकों ने इसे जैविक दृष्टि से मृतनदी घोषित कर दिया ।
टेम्स में अपशिष्ट पदार्थोंा और सीवेज को डंप करने से रोकने के लिए कानून बनाया गया । इसी दौरान आज से करीब २५ साल पहले सप्ताहांत मेंहमने समुद्र के दक्षिण छोर के उस क्षेत्र का दौरा किया जहां टेम्स नदी सागर से मिलती थी । लेकिन इस यात्रा के अगले ही सप्तह हमारे शरीर मेंखुजली होने लगी थी और हमें इसका अफसोस होता रहा कि हम वहां क्यों गए। यानी नदी के पुनरूद्धार के नतीजे अब भी साफ नजर नहींआ रहे थे ।
नदी को नियंत्रित करने के लिए वहां कांक्रीट के तटबंध और खंबे बनाए गए थे । पूरे नदी के मार्ग पर जमीनी परिवहन को आसान करने के लिए निर्मित पुल और पुलियाआेंकी भरमार थी । ड्रैगन फ्लाई, मेंढकों, मछलियों, पक्षियों, घोंघों इत्यादि के आवास अब भी खतरे में थे ।
पिछले दो दशकों के दौरान जलीय इको सिस्टम को बढ़ावा देने के लिए वहां मिट्टी के तटबंध बनाए गए हैं । ऑक्सफोर्ड के निकट पक्षी प्रेक्षकोंने कई प्रकार के पक्षियोंके देखे जाने की जानकारी दी है । उत्साही प्रेक्षकों को डेस, बारबेल, पिक और अनय कई प्रजातियों की मछलियां देखने को मिली हैं । उत्तरी समुद्र में ज्वार-भाटे के दौरान सील और अन्य स्तनपायी जंतु देखने को मिल रहे हैं ।
हमने हाल ही में ऑक्सफोर्ड के पास नदी के तट पर एक शानदार दिन बिताया । यह क्षेत्र वनस्पति उद्यान के काफी करीब था । पिछले पांच दशकोंके दौरान टेम्स नदी के पुनरूद्धार के प्रयासों के कारण आज इस नदी मेंरोविंग, क्याकिंग, सेलिंग और स्विमिंग जैसी गतिविधियां फिर से शुरू हो चुकी हैं ।
नदी को साफ करने के लिए कार्यकर्ता बहुत ही उत्साह के साथ अपना नाम दर्ज करवाते हैं । गैती और फावड़ों से लैस ये कार्यकर्ता नदी के तटों को साफ करते हैं और कचरा एक जगह एकत्र कर देते हैं ताकि स्थानीय नगरीय निकाय के लोग उन्हें आसानी से ले जा सकें । कार्यकर्ताआें को प्रोत्साहित करने के लिए सफाई करते हुए इनकी तस्वीरें सोशल नेटवर्क पर डाली जाती हैं और कई व्यापारिक प्रतिष्ठानों द्वारा लकी ड्रॉ भी निकाले जाते हैं ।
टेम्स को वर्ष २०१० में प्रतिष्ठित थीस रिवर प्राइज हासिल हुआ । इस वर्ष के अन्य नामांकनों में येलोरिवर (चीन), हटा झील (ऑस्ट्रेलिया) और स्मिरनिख नदी (जापान) शामिल थे । क्या कभी गंगा नदी भी यह पुरस्कार जीत पाएगी ? गंगा भारत की सबसे बड़ी और सबसे पवित्र नदी है । यह देश के ११ राज्यों की ४० फीसदी आबादी की पानी की जरूरत को पूरा करती है । करीब ५० करोड़ लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस नदी पर निर्भर हैं । लेकिन इस पर प्राकृतिक और मानव निर्मित दोानों ही खतरे मंडरा रह हैं ।
एक लाख से अधिक आबादी वाले २९ शहर और ५० हजार से एक लाख की आबादी वाले २३ शहर इस विशालकाय नदी के किनारों पर बसे हैं । इन शहरों और अन्य अनेक गांवों व बस्तियों के लोग इसी नदी में नहाते-धोते हैं और मल-मूत्र विसर्जित करते हैं । इस वजह से यह नदी एक विशालकाय नाले में तबदील हो गई हैं । चमड़ा बनाने के कारखाने, रसायन संयंत्र, कपड़ा मिलें, शराब की फैक्ट्रियां, कसाईखाने अपने अपशिष्ट पदार्थोंा को बगैर शोधित किए ही गंगा में डाल देते हैं । इन जगहों से गंगा में कितने अपशिष्ट पदार्थ डालते होंगे, इसका केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है । लेकिन इससे गंगा नदी इस कदर प्रदूषित हो रही है कि उसे वापस अपने मूल स्वरूप में लौटाना काफी मुश्किल होगा ।
१८५४ में बना हरिद्वार बांध और इसके एक सदी बाद निर्मित फरक्का बराज के मिले-जुले फायदे नुकसान रहे हैं। इस नदी प्रणाली में करीब ३०० छोटे-बड़े बाधों के निर्माण की योजना है । इस योजना को लेकर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है । गंगोत्री ग्लेशियर हर साल बड़ी तेजी से कम होता जा रहा है और जलवायु परिवर्तन को इसकी वजह बताया जाता है ।
गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के मकसद से वर्ष १९८६ मेंराजीव गांधी सरकार ने गंगा कार्ययोजना की शुरूआत की थी । लेकिन यह नदी के प्रदूषण को कम करने मेंसफल नहीं रही और अंतत: वर्ष २००० में इसे आधिकारिक रूप से बंद कर दिया गया । हमें उन कारणों की पड़ताल करनी चाहिए कि आखिर इस योजना पर इतनी भारी-भरकम राशि खर्च करने के बावजूद यह सफल क्यों नहीं हो पाई ।
पिछले कुछ सालों के दौरान गंगा को स्वच्छ बनाने के मकसद से अनेक सामाजिक और धार्मिक आंदोलन भी हुए । इनमेंसे कुछ समूहोंका दावा है कि उनके प्रभाव के कारण सरकारोंऔर प्रशासन को कई निर्णय लेने पड़ जिनकी वजह से नदी के पानी की गुणवत्ता मेंसुधार हुआ ।
मोदी सरकार ने गंगा नदी को स्वच्छ बनाने को लेकर प्रतिबद्धता दशाई है । सरकार की ओर से जल संसाधन मंत्रालय को इस नदी प्रणाली में सुधार के लिए स्पष्ट निर्देश मिले हुए हैं । गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के क्या तरीक और रास्ते हो सकते हैं, यह बहुत ही स्पष्ट है । इनमें ऊपरी मैदानी स्थलों पर निर्माण कार्य को नियंत्रित करने, सभी उद्योगों पर नियम लागू करने, सीवेज के पानी को परिशोधित करने और लोगों में जागरूकता पैदा करना शामिल है । इस मिशन की प्रगति की लगातार निगरानी और इसमें समय-समय पर बदलाव जरूरी है ।
यमुना नदी की स्थिति तो और भी बदतर है । वह गंगा से भी ज्यादा प्रदूषित है । हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार तमिलनाडु की नदी वसिस्ता सबसे ज्यादा प्रदूषित पाई गई है । केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार देश मेंप्रदूषित नदियों की कुल लंबाई १२ हजार कि.मी. से ज्यादा है जो गंगा नदी की कुल लंबाई की करीब पांच गुना है । इसलिए जरूरत तो इन सभी प्रदूषित नदियोंके किनारोंपर स्थित ६५० शहरों व कस्बों पर ध्यान देने की है, न कि केवलगंगा किनारे स्थित ५० शहरों पर । अगर सरकार वाकई गंभीर है तो इस सम्बंध में युद्ध स्तर पर प्रयास करने होंगे ।
नदी को नियंत्रित करने के लिए वहां कांक्रीट के तटबंध और खंबे बनाए गए थे । पूरे नदी के मार्ग पर जमीनी परिवहन को आसान करने के लिए निर्मित पुल और पुलियाआेंकी भरमार थी । ड्रैगन फ्लाई, मेंढकों, मछलियों, पक्षियों, घोंघों इत्यादि के आवास अब भी खतरे में थे ।
पिछले दो दशकों के दौरान जलीय इको सिस्टम को बढ़ावा देने के लिए वहां मिट्टी के तटबंध बनाए गए हैं । ऑक्सफोर्ड के निकट पक्षी प्रेक्षकोंने कई प्रकार के पक्षियोंके देखे जाने की जानकारी दी है । उत्साही प्रेक्षकों को डेस, बारबेल, पिक और अनय कई प्रजातियों की मछलियां देखने को मिली हैं । उत्तरी समुद्र में ज्वार-भाटे के दौरान सील और अन्य स्तनपायी जंतु देखने को मिल रहे हैं ।
हमने हाल ही में ऑक्सफोर्ड के पास नदी के तट पर एक शानदार दिन बिताया । यह क्षेत्र वनस्पति उद्यान के काफी करीब था । पिछले पांच दशकोंके दौरान टेम्स नदी के पुनरूद्धार के प्रयासों के कारण आज इस नदी मेंरोविंग, क्याकिंग, सेलिंग और स्विमिंग जैसी गतिविधियां फिर से शुरू हो चुकी हैं ।
नदी को साफ करने के लिए कार्यकर्ता बहुत ही उत्साह के साथ अपना नाम दर्ज करवाते हैं । गैती और फावड़ों से लैस ये कार्यकर्ता नदी के तटों को साफ करते हैं और कचरा एक जगह एकत्र कर देते हैं ताकि स्थानीय नगरीय निकाय के लोग उन्हें आसानी से ले जा सकें । कार्यकर्ताआें को प्रोत्साहित करने के लिए सफाई करते हुए इनकी तस्वीरें सोशल नेटवर्क पर डाली जाती हैं और कई व्यापारिक प्रतिष्ठानों द्वारा लकी ड्रॉ भी निकाले जाते हैं ।
टेम्स को वर्ष २०१० में प्रतिष्ठित थीस रिवर प्राइज हासिल हुआ । इस वर्ष के अन्य नामांकनों में येलोरिवर (चीन), हटा झील (ऑस्ट्रेलिया) और स्मिरनिख नदी (जापान) शामिल थे । क्या कभी गंगा नदी भी यह पुरस्कार जीत पाएगी ? गंगा भारत की सबसे बड़ी और सबसे पवित्र नदी है । यह देश के ११ राज्यों की ४० फीसदी आबादी की पानी की जरूरत को पूरा करती है । करीब ५० करोड़ लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस नदी पर निर्भर हैं । लेकिन इस पर प्राकृतिक और मानव निर्मित दोानों ही खतरे मंडरा रह हैं ।
एक लाख से अधिक आबादी वाले २९ शहर और ५० हजार से एक लाख की आबादी वाले २३ शहर इस विशालकाय नदी के किनारों पर बसे हैं । इन शहरों और अन्य अनेक गांवों व बस्तियों के लोग इसी नदी में नहाते-धोते हैं और मल-मूत्र विसर्जित करते हैं । इस वजह से यह नदी एक विशालकाय नाले में तबदील हो गई हैं । चमड़ा बनाने के कारखाने, रसायन संयंत्र, कपड़ा मिलें, शराब की फैक्ट्रियां, कसाईखाने अपने अपशिष्ट पदार्थोंा को बगैर शोधित किए ही गंगा में डाल देते हैं । इन जगहों से गंगा में कितने अपशिष्ट पदार्थ डालते होंगे, इसका केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है । लेकिन इससे गंगा नदी इस कदर प्रदूषित हो रही है कि उसे वापस अपने मूल स्वरूप में लौटाना काफी मुश्किल होगा ।
१८५४ में बना हरिद्वार बांध और इसके एक सदी बाद निर्मित फरक्का बराज के मिले-जुले फायदे नुकसान रहे हैं। इस नदी प्रणाली में करीब ३०० छोटे-बड़े बाधों के निर्माण की योजना है । इस योजना को लेकर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है । गंगोत्री ग्लेशियर हर साल बड़ी तेजी से कम होता जा रहा है और जलवायु परिवर्तन को इसकी वजह बताया जाता है ।
गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के मकसद से वर्ष १९८६ मेंराजीव गांधी सरकार ने गंगा कार्ययोजना की शुरूआत की थी । लेकिन यह नदी के प्रदूषण को कम करने मेंसफल नहीं रही और अंतत: वर्ष २००० में इसे आधिकारिक रूप से बंद कर दिया गया । हमें उन कारणों की पड़ताल करनी चाहिए कि आखिर इस योजना पर इतनी भारी-भरकम राशि खर्च करने के बावजूद यह सफल क्यों नहीं हो पाई ।
पिछले कुछ सालों के दौरान गंगा को स्वच्छ बनाने के मकसद से अनेक सामाजिक और धार्मिक आंदोलन भी हुए । इनमेंसे कुछ समूहोंका दावा है कि उनके प्रभाव के कारण सरकारोंऔर प्रशासन को कई निर्णय लेने पड़ जिनकी वजह से नदी के पानी की गुणवत्ता मेंसुधार हुआ ।
मोदी सरकार ने गंगा नदी को स्वच्छ बनाने को लेकर प्रतिबद्धता दशाई है । सरकार की ओर से जल संसाधन मंत्रालय को इस नदी प्रणाली में सुधार के लिए स्पष्ट निर्देश मिले हुए हैं । गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के क्या तरीक और रास्ते हो सकते हैं, यह बहुत ही स्पष्ट है । इनमें ऊपरी मैदानी स्थलों पर निर्माण कार्य को नियंत्रित करने, सभी उद्योगों पर नियम लागू करने, सीवेज के पानी को परिशोधित करने और लोगों में जागरूकता पैदा करना शामिल है । इस मिशन की प्रगति की लगातार निगरानी और इसमें समय-समय पर बदलाव जरूरी है ।
यमुना नदी की स्थिति तो और भी बदतर है । वह गंगा से भी ज्यादा प्रदूषित है । हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार तमिलनाडु की नदी वसिस्ता सबसे ज्यादा प्रदूषित पाई गई है । केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार देश मेंप्रदूषित नदियों की कुल लंबाई १२ हजार कि.मी. से ज्यादा है जो गंगा नदी की कुल लंबाई की करीब पांच गुना है । इसलिए जरूरत तो इन सभी प्रदूषित नदियोंके किनारोंपर स्थित ६५० शहरों व कस्बों पर ध्यान देने की है, न कि केवलगंगा किनारे स्थित ५० शहरों पर । अगर सरकार वाकई गंभीर है तो इस सम्बंध में युद्ध स्तर पर प्रयास करने होंगे ।
कविता
दूर करें प्रदूषण सारा
हरिशंकर सक्सेना
आओ मिलकर दूर करें प्रदूषण सारा ।।
वायु-प्रदूषण श्वाँस-श्वाँस
पर संकट लाया
पौधारोपण हरियाली
की शीतल छाया
धूल-धुआँ से बचने का है सुन्दर नारा ।
जल हो दूषित तो भी
जीवन दुर्लभ होता
नदियों का जल, गन्दे
नालों को क्यों ढोता
स्वच्छ जलाशय सबके मन को लगता न्यारा ।
ऊँची ध्वनि भी
प्रदूषण को बहुत बढ़ाती
बच्चें को भी
बधिर बनाकर बहुत सताती
धीमा स्वर संगीत सरीखा लगता प्यारा ।
आओ मिलकर दूर करें प्रदूषण सारा ।।
दूर करें प्रदूषण सारा
हरिशंकर सक्सेना
आओ मिलकर दूर करें प्रदूषण सारा ।।
वायु-प्रदूषण श्वाँस-श्वाँस
पर संकट लाया
पौधारोपण हरियाली
की शीतल छाया
धूल-धुआँ से बचने का है सुन्दर नारा ।
जल हो दूषित तो भी
जीवन दुर्लभ होता
नदियों का जल, गन्दे
नालों को क्यों ढोता
स्वच्छ जलाशय सबके मन को लगता न्यारा ।
ऊँची ध्वनि भी
प्रदूषण को बहुत बढ़ाती
बच्चें को भी
बधिर बनाकर बहुत सताती
धीमा स्वर संगीत सरीखा लगता प्यारा ।
आओ मिलकर दूर करें प्रदूषण सारा ।।
पर्यावरण समाचार
कीटाणुरोधक साबुन बहुत कारगर नहीं है
हाथ धोने के लिए इस्तेमाल होने वाले कीटाणुरोधी साबुन में कीटाणु-मारक घटक ट्राइक्लोसैन होता है ।
ट्राइक्लोसैन को उसके कीटाणुरोधी गुण के कारण जाना जाता है । १९७० के दशक में सबसे पहले अस्पताल में हाथ धोने के साबुन के रूप में इसे शामिल किया गया था । फिलहाल ज्यादातर देशों में उपभोक्ता साबुनों में ट्राइक्लोसैन की अधिकतम मात्रा ०.३ प्रतिशत ही इस्तेमाल करने की अनुमति है । प्रयोगशाला में किए गए कई अध्ययनों में पाया गया था कि इतनी मात्रा वाले साबुन कीटाणुआें को मारने में साधारण साबुन जैसे ही होते हैं । अर्थात इतनी मात्रा कीटाणुआें को मारने में प्रभावी नहीं है ।
इसके अलावा, ट्राइक्लोसैन एलर्जी और कैंसरकारी अशुद्धियों जैसे विभिन्न प्रतिकूल प्रभावों की रिपोर्टो के चलते विवादस्पद बना हुआ है ।
कोरिया युनिवर्सिटी के मिन-सुकरी और उनके साथियोंने बताया कि उन्हें पक्का सबूत मिला है कि ट्राइक्लोसैन युक्त साबुन साधारण साबुन से बेहतर नहीं है । वे मानते हैं कि उनका अध्ययन पिछले हुए अध्ययनों से ज्यादा सटीक है क्योंकि उन्होनें केवल एक ही चीज ०.३ प्रतिशत ट्राइक्लोसैन की उपस्थिति और अनुपस्थिति को बदला, शेष अन्य कारकों को वैसे ही रखा ताकि स्पष्ट परिणाम प्राप्त् हो सके ।
इस टीम ने २० बैक्टीरिया स्ट्रेन को हटाने के लिए साधारण साबुन और ट्राइक्लोसैन युक्त साबुन आजमाने की कोशिश की जिसमें २० सेकण्ड के लिए कमरे के तापमान पर रखा और बाद में धीर-धीरे तापमान को बढ़ाया । ये वही परिस्थितियां जो घर पर हाथ धोते समय होती है । इसके अलावा, उन्होंने वालंटियर्स के हाथों को सेरेशिया मार्सेसेन्स नाम बैक्टीरिया से भी संक्रमित किया और यह जांच की कि प्रत्येक साबुन कितनी अच्छी तरह से बैक्टीरिया हटाने में सक्षम हैं ।
परिणामों से पता चला कि दोनों ही साबुनों की कीटाणुनाशक गतिविधि दोनों तापमानों पर लगभग एक सी रही । हालांकि ट्राइक्लोसैन युक्त साबुन का इस्तेमाल ९ घंटे तक जारी रखने पर उसका कीटाणुनाशक प्रभाव काफी अधिक दिखाई दिया ।
मीन सुकरी का कहना है कि ईमानदारी से हम इस परिणाम की उम्मीद ही कर रहे थे । ट्राइक्लोसैन का कीटाणुरोधक प्रभाव उसकी सांद्रता और समय पर निर्भर करता है । बाजार में बिकने वाले कीटाणुरोधक साबुनों में ०.३ प्रतिशत से ही कम ट्राइक्लोसैन मिला होता है और हाथ धोने में कुछ सेकंड का समय ही तो लगता है ।
यूएस स्थित नार्थ केरोलिना युनिवर्सिटी के एलिसन ऐलियो का कहना है कि यथार्थ में इस्तेमाल होने वाले ट्राइक्लोसैन उत्पाद ज्यादा फायदेमंद नहीं होते । उन्होनें ट्राइक्लोसैन के और भी कई उत्पादों पर भी शोध किया है ।
दूसरे शोधकर्ताआें का मानना है कि विज्ञान के परिप्रेक्ष्य से काफी रोचक और अच्छा अध्ययन किया गया है । मगर साबुन का आकलन करने के लिए इतना पर्याप्त् नहीं होगा ।
नया आइडिया ३० करोड़ दिलायेगा
नीति आयोग के एक पैनल ने सरकार को सुझाव दिया है कि एक आइडिया पेश करने वाले उद्यमियों को ३० करोड़ रूपय का नकद पुरस्कार दिया जाए । इस पैनल का गठन नीति आयोग ने किया था । इसका नेतृत्व प्रसिद्ध शिक्षाविद तरूण खन्ना कर रहे है ।
इस पैनल का काम इनोवेशन को बढ़ावा देने के लिए सुझाव देना और नौकरी के अवसर बढ़ाने के लिए आत्रप्रेन्योर फ्रेडली इकोसिस्टम बनाने में मदद करता है।
पैनल अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देकर इसे शीघ्र पेश करेगा । इस रिपोर्ट में इनोवेशन और आत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ाने, अटल इनोवेशन मिशन और सेल्फ इम्प्लायॅमेंट एंड टैलेंट यूटिलाइजेशन को बढ़ावा देने के सुझाव शामिल होगे । पैनल में एआईएम और सेतु के ढांचे पर अपना विस्तृत सुझाव दे दिया है । पैनल ने एआईएम के तहत इनोवेटिव आइडियाज के लिए पुरस्कार योजना चलाने के लिए विज्ञान और तकनीक मंत्रालय समेत अन्य संबंधित मंत्रालयोंसे सुझाव मंगाये है । पैनल ने कहा है कि एक निश्चित समय सीमा के अंदर किसी खास चैलेंज को पूरा करने के लिए १०-३० करोड़ रूपये पुरस्कार की योजना है ।
कीटाणुरोधक साबुन बहुत कारगर नहीं है
हाथ धोने के लिए इस्तेमाल होने वाले कीटाणुरोधी साबुन में कीटाणु-मारक घटक ट्राइक्लोसैन होता है ।
ट्राइक्लोसैन को उसके कीटाणुरोधी गुण के कारण जाना जाता है । १९७० के दशक में सबसे पहले अस्पताल में हाथ धोने के साबुन के रूप में इसे शामिल किया गया था । फिलहाल ज्यादातर देशों में उपभोक्ता साबुनों में ट्राइक्लोसैन की अधिकतम मात्रा ०.३ प्रतिशत ही इस्तेमाल करने की अनुमति है । प्रयोगशाला में किए गए कई अध्ययनों में पाया गया था कि इतनी मात्रा वाले साबुन कीटाणुआें को मारने में साधारण साबुन जैसे ही होते हैं । अर्थात इतनी मात्रा कीटाणुआें को मारने में प्रभावी नहीं है ।
इसके अलावा, ट्राइक्लोसैन एलर्जी और कैंसरकारी अशुद्धियों जैसे विभिन्न प्रतिकूल प्रभावों की रिपोर्टो के चलते विवादस्पद बना हुआ है ।
कोरिया युनिवर्सिटी के मिन-सुकरी और उनके साथियोंने बताया कि उन्हें पक्का सबूत मिला है कि ट्राइक्लोसैन युक्त साबुन साधारण साबुन से बेहतर नहीं है । वे मानते हैं कि उनका अध्ययन पिछले हुए अध्ययनों से ज्यादा सटीक है क्योंकि उन्होनें केवल एक ही चीज ०.३ प्रतिशत ट्राइक्लोसैन की उपस्थिति और अनुपस्थिति को बदला, शेष अन्य कारकों को वैसे ही रखा ताकि स्पष्ट परिणाम प्राप्त् हो सके ।
इस टीम ने २० बैक्टीरिया स्ट्रेन को हटाने के लिए साधारण साबुन और ट्राइक्लोसैन युक्त साबुन आजमाने की कोशिश की जिसमें २० सेकण्ड के लिए कमरे के तापमान पर रखा और बाद में धीर-धीरे तापमान को बढ़ाया । ये वही परिस्थितियां जो घर पर हाथ धोते समय होती है । इसके अलावा, उन्होंने वालंटियर्स के हाथों को सेरेशिया मार्सेसेन्स नाम बैक्टीरिया से भी संक्रमित किया और यह जांच की कि प्रत्येक साबुन कितनी अच्छी तरह से बैक्टीरिया हटाने में सक्षम हैं ।
परिणामों से पता चला कि दोनों ही साबुनों की कीटाणुनाशक गतिविधि दोनों तापमानों पर लगभग एक सी रही । हालांकि ट्राइक्लोसैन युक्त साबुन का इस्तेमाल ९ घंटे तक जारी रखने पर उसका कीटाणुनाशक प्रभाव काफी अधिक दिखाई दिया ।
मीन सुकरी का कहना है कि ईमानदारी से हम इस परिणाम की उम्मीद ही कर रहे थे । ट्राइक्लोसैन का कीटाणुरोधक प्रभाव उसकी सांद्रता और समय पर निर्भर करता है । बाजार में बिकने वाले कीटाणुरोधक साबुनों में ०.३ प्रतिशत से ही कम ट्राइक्लोसैन मिला होता है और हाथ धोने में कुछ सेकंड का समय ही तो लगता है ।
यूएस स्थित नार्थ केरोलिना युनिवर्सिटी के एलिसन ऐलियो का कहना है कि यथार्थ में इस्तेमाल होने वाले ट्राइक्लोसैन उत्पाद ज्यादा फायदेमंद नहीं होते । उन्होनें ट्राइक्लोसैन के और भी कई उत्पादों पर भी शोध किया है ।
दूसरे शोधकर्ताआें का मानना है कि विज्ञान के परिप्रेक्ष्य से काफी रोचक और अच्छा अध्ययन किया गया है । मगर साबुन का आकलन करने के लिए इतना पर्याप्त् नहीं होगा ।
नया आइडिया ३० करोड़ दिलायेगा
नीति आयोग के एक पैनल ने सरकार को सुझाव दिया है कि एक आइडिया पेश करने वाले उद्यमियों को ३० करोड़ रूपय का नकद पुरस्कार दिया जाए । इस पैनल का गठन नीति आयोग ने किया था । इसका नेतृत्व प्रसिद्ध शिक्षाविद तरूण खन्ना कर रहे है ।
इस पैनल का काम इनोवेशन को बढ़ावा देने के लिए सुझाव देना और नौकरी के अवसर बढ़ाने के लिए आत्रप्रेन्योर फ्रेडली इकोसिस्टम बनाने में मदद करता है।
पैनल अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देकर इसे शीघ्र पेश करेगा । इस रिपोर्ट में इनोवेशन और आत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ाने, अटल इनोवेशन मिशन और सेल्फ इम्प्लायॅमेंट एंड टैलेंट यूटिलाइजेशन को बढ़ावा देने के सुझाव शामिल होगे । पैनल में एआईएम और सेतु के ढांचे पर अपना विस्तृत सुझाव दे दिया है । पैनल ने एआईएम के तहत इनोवेटिव आइडियाज के लिए पुरस्कार योजना चलाने के लिए विज्ञान और तकनीक मंत्रालय समेत अन्य संबंधित मंत्रालयोंसे सुझाव मंगाये है । पैनल ने कहा है कि एक निश्चित समय सीमा के अंदर किसी खास चैलेंज को पूरा करने के लिए १०-३० करोड़ रूपये पुरस्कार की योजना है ।
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