बुधवार, 18 नवंबर 2015

वानिकी जगत
खराब विचारों के जंगल में खो न जाएं
नेहा सिन्हा

    क्षतिपूर्ति वनीकरण कोष के तहत काफी धनराशि एकत्र हो चुकी है । इसका इस्तेमाल वृक्षारोपण के जरिए कृत्रिम जंगलों का विकास रने की बजाय मौजूदा वनों को बहाल करने में किया जाना चाहिए ।
    संसद की लकड़ी की डेस्कों पर एक विधेयक दस्तक दे रहा है । यह विधेयक है क्षतिपूरक वनीकरण विधेयक जिसमें ऐसी व्यवस्था बनाने का प्रावधान किया जाएगा कि भारत भर में जंगलों का विकास किया जाए, उन्हें काटा जाए और दुबारा से उन्हें पुनर्जीवित किया जाए । यह इस बात की निगरानी करेगा कि जंगलों के विनाश से जो ३८,००० करोड़ रूपए की राशि इकट्ठी की गई है, उसका इस्तेमाल कैसे किया जाए । 
     शुरूआत मेंमात्र क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए निर्धारित इस कोष में इतनी भारी-भरकम राशि के मद्देनजर उच्च्तम न्यायालय भी ऐसी योजना बनाने को तत्पर हुइा जिससे इसका न्यायसंगत और उचित इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा सके । प्रस्तावित विधेयक जिस पर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वन सम्बंधी संसदीय समिति विचार कर रही है, का मुख्य जोर कृत्रिम प्लांटेशन के विकास के लिए राशि का इस्तेमाल सुनिश्चित करना है । साथ ही एक अन्य प्रावधान मेंइस राशि का इस्तेमाल बुनियादी ढांचे के विकास पर करने की बात कही गई है । ये प्रावधान अपने आप में अप्रासंगिक नहीं है, लेकिन इसके बावजूद इस राशि का इस्तेमाल कृत्रिम उपायों, चाहे प्लांटेशन हों या इमारतें, के लिए खोलने से पहले इस व्यवस्था को पारिस्थितिकी मानदंडों पर कसा जाना जरूरी है ।
    यहां सबसे पहले तो दो चुनौतियां हैं । क्षतिपूर्ति वनीकरण राशि को अनेक लोग खून से सना पैसा मानते हैं, क्योंकि इसका सृजन मूल जंगलों को नष्ट करने से जुड़ा हैं । ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इस धनराशि में विस्तार किया जाना चाहिए और क्या वनों के डायवर्शन (अन्य कार्योंा में उपयोग) पर विराम नहीं लगना चाहिए ? वैचारिक बातों से अलग एक सीधा-सा सवाल यही है कि क्या नए जंगलों के विकास के लिए हमारे पास जमीन है भी ?
    मात्र प्राकृतिक संसाधन नहीं
    क्षतिपूर्ति के पीछे मान्यता अदला-बदली की है कि विकास परियोजनाआें के लिए पर्यावरण सम्बंधी सरोकारोंकी कुर्बानी देनी होगी । क्षतिपूर्ति वनीकरण भी इसी धारणा पर टिका है, लेकिन साथ ही इसमेंयह भी मान लिया गया है कि नए जंगल आसानी से लगाए जा सकते हैं । यह उस अति प्राचीन धारणा का परिणाम है जिसमें जंगल को जैन विविधता का एक पूरा तंत्र नहीं बल्कि केवललकड़ी, बांस और ऐसी ही चीजों का स्त्रोत माना जाता है ।
    अगर जंगलों को केवलप्राकृतिक संसाधनोंके स्त्रोत, और वह भी प्राकृतिक कम और संसाधन ज्यादा, के रूप मेंदेखा जाता है, तब तो क्षतिपूर्ति वनीकरण के विचार मेंकोई दिक्कत नहीं है । केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडेकर के शब्दों में कहें तो फॉरेस्ट डाइवर्शन को पुनर्वनीकरण कहा जाना    चाहिए । शायद इसीलिए विधेयक में कृत्रिम प्लांटेशन बनाने पर जोर दिया गया है ।
    अलबत्ता, जैव विविधता का विज्ञान इस विचार को खारिज कर देता है कि मिश्रित वन प्रणाली को आसानी से पुननिर्मित किया जा सकता है । इसमेंपारिस्थतिक पुनरूद्धार अहम भूमिका निभाता हैै, वैसे ही जैसे कि समय निभाता है । कई राज्य कह चूके हेंकि नए जंगल लगाने के लिए उनके पास जमीन ही नही है । इसी वजह से अतीत मेंक्षतिपूर्ति वनीकरण कोश प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैम्पा) की राशि का एक बड़ा हिस्सा वन विभाग के लिए वाहनोंकी खरीदी या फिर भवनों की मरम्मत पर खर्च किया गया । अगर क्षतिपूर्ति वनीकरण कहीं किया भी गया तो रेलवे लाइनों व राजमार्गोंा के दोनों ओर या ऐसी ही अन्य जगहों पर किया गया । यहां पौधे लगाए गए, लेकिन उनकी जीवित रहने की दर काफी खराब रही । यकीनन, वे जैव-विविधता वाले जंगल तो कदापि नहीं बन पाए ।
    नए और कृत्रिम जंगलों का विकास करने से बेहतर है कि वन विभाग कैम्पा में एकत्र धनराशि का इस्तेमाल मौजूदा वन भूमि को बहाल करने और खरीदने में करें । निश्चित रूप से यह भी विवादास्पद है । ये निर्णय राजनीति के बजाय पारिस्थितिक आधार पर और सुरक्षा के कई उपायों के साथ लेने होंगे । इस तरह के सुदृढ़ीकरण में वन कॉरिडोर (दो टाइगर रिजर्व के बीच बहुत ही संकीर्ण संपर्क मार्ग) और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशाील क्षेत्रों (जैसे नदीतट या सागर-संगम) को शामिल किया जा सकता है ।
    यह बिल सुझाता है, प्राप्त् धनराशि का इस्तेमाल कृत्रिम पुनरूत्पादन (वृक्षारोपण), प्राकृतिक पुनरूत्पादन मेंसहयोग करने, वन प्रबंधन, वन संरक्षण, ढांचागत सुविधाआें के विकास, वन्यजीवों के संरक्षण और प्रबंधन, काष्ठ व अन्य वनोपज-बचत के उपायों में निर्धारित तरीकों से किया जाना चाहिए । इस तरह की गतिविधियो के कई मायने हो सकते हैं ।
    ढांचागत सुविधाआें का विकास और काष्ठ की आपूर्ति जैसे प्रावधान बड़े ही भ्रामक हैं । विकास के समान ढांचागत सुविधाआें का अर्थ पुन:स्थापना भी हो सकता है और विध्वंस भी । उदाहरण के लिए श्री जावडेकर ने विकास के लिए जंगलोंको निजी कंपनियोंके हवाले करने का सुझाव दिया है जो वहां लकड़ी के लिए पेड़ों की कटाई का काम करेंगी और साथ ही जंगलों के नवीनीकरण का आव्हान भी किया है । यह पहली बार है कि जंगलों को निजी हाथों में सौंपने की बात कही जा रही है, जिन्हें अब तक पारंपरिक रूप से सरकार ही नियंत्रित करते आई   है । इसी तरह, ढांचागत सुविधाआें का मतलब वाचटॉवर्स और वन रक्षकों के लिए जल शुद्धिकरण संयंत्र लगाने से भी हो सकता है और प्रशासनिक और गैर-बजट कार्योंा में पैसे की बर्बादी से भी ।
    भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण जैसे उपयोगकर्ता एजेंसियों का सुझाव है कि कैम्पा फंड की राशि का इस्तेमाल जंगलोंसे गुजरने वाले रास्तों पर जंगली जानवरों के लिए अंडरपास और बायपास बनाने में किया जाए ताकि वाहनोें की चपेट में आने से होने वाली उनकी मौतों को कम किया जा सके ।अन्य एजेंसियां भी इसी तरह की मांग कर सकती   है । यहीं पर कैम्पा फंड के मूल मकसद को याद रखा जाना चाहिए । उन्हीं ढांचागत सुविधाआें के विकास में इस पैसे का इस्तेमाल किया जाना उचित रहेगा जो जंगलों और वन्यजीवों के लिए हालात बदतर न बनाएं । किस तरह की ढांचागत सुविधाआें पर कैम्पा राशि का पैसा खर्च किया जाना चाहिए, इसके लिए वनयजीव प्रभाव आकलन का प्रावधान जरूर किया जाना चाहिए ।
केवल वन ही नहीं
    जंगलों के अलावा भी ऐसे कई महत्वपूर्ण इकोसिस्टम हैं जिन पर ध्यान देने और धनराशि की जरूरत है । इनमें समुद्र क्षेत्र, पक्षियों के प्राकृतवास, नदी व समुद्र तटीय क्षेत्र और ऊंचाई पर स्थित घांस के मैदान शामिल हैं । कैम्पा फंड मेंजितनी धनराशि एकत्र की गई है, वह हमें प्रकृतिके संरक्षण के लिए हस्तक्षेप-मुक्त-क्षेत्रोंके बारे मेंफिर से सोचने और उन्हें निर्मित करने का एक गंभीर अवसर मुहैया करवाती है ।
    कैम्पा फंड की इस राशि से हस्त्क्षेप-मुक्त-क्षेत्रों का विकास राज्यों की सीमाआें के आर-पार जाकर भी किया जा सकता है । यहां पश्चिमी घाट का उदाहरण लिया जा सकता है जिसका प्रशासन अलग-अलग राज्यों द्वारा किया जाता है । कैम्पा फंड की राशि का इस्तेमाल वन्यजीव, नमभूमि और वनोंके सरक्षंण की योजनाआें के साथ-साथ जनसमुदाय को क्षतिपूर्ति और प्रोत्साहन योजनाआेंपर करके संपूर्ण पश्चिमी घाट क्षेत्र को एक इकाई के रूप मेंविकसित किया जा सकता है ।
    सिंहों को लेकर उच्च्तम न्यायालय के प्रसिद्ध फैसले (सेंटर फॉर एन्वायमेंटल लॉस-डब्लू. डब्लू.एफ. बनाम भारतीय संघ व अनय) में कहा गया है कि महत्वपूर्ण क्षेत्रों और प्रजातियों का संरक्षण एक सुसंगठित कार्ययोजना के जरिए किया जाना चाहिए । कैम्पा राशि का इस्तेमाल जोखिमग्रस्त वन्यजीव प्रजातियोंजैसे स्याहगोस (कैरकैल) या फिर उपेक्षित प्रजातियोंजैसे सारस (स्टॉर्क) आर डूगोंग के संरक्षण मेंकिया जाना चाहिए ।
    निश्चित रूप से जंगलों को काटने से रोकने के बारे में तो सोचा भी नहीं जा रहा है । लेकिन अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य तो कट चूके जंगलोंको फिर से खड़ा करना है जिसके लिए लैंडस्केप लेवल पर पर्यावरणीय इनपुट की जरूरत  पड़ेगी । भवन निर्माण और विफल नर्सरियों जैसे व्यर्थ के समाधानों की बजाय पर्यावरणीय समाधानों को महत्व देने का वक्त आ चूका है ।
    मौजूदा प्राकृतिक क्षेत्रों का संरक्षण, वनों का एक-दूसरे से संलग्नीकरण, संवेदनशील प्राकृत-वासोंका संरक्षण और स्थानीय हित-धारियों के लिए समुचित क्षतिपूर्ति योजनाएं ऐसे तरीके हैंजिन पर आगे बढ़ा जाना चाहिए । अन्यथा हम केवल बड़ी-बड़ी बातें ही करते रह जाएंगे और समस्या बढ़ती चली जाएगी ।

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