रविवार, 16 अप्रैल 2017


प्रसंगवश   
प्रदूषण पर सरकार को सख्त होना होगा
    पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने बीएस३ वाहनों की ब्रिकी व पंजीयन पर रोक लगाने के आदेश दिए है । देश में इससे वाहनजन्य प्रदूषण में कमी जरूर आएगी । वैश्विक व राष्ट्रीय स्तर के अध्ययन दर्शाते है कि औसत वायु प्रदूषण में ५० प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी वाहनों की होती है । शहरों में वायु की गुणवत्ता भी ३० प्रतिशत से ज्यादा वाहन प्रदूषण से प्रभावित होती है । वायु प्रदूषण के संदर्भ में म.प्र. व छग की स्थिति अच्छी नहीं है । दो-तीन वर्ष पूर्व विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक अध्ययन में बताया था कि दुनिया के दस सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में मध्यप्रदेश का ग्वालियर व छग का  रायपुर भी शामिल है, जबकि खतरनाक माने जाने वाले पीएम-१० कणों की वार्षिक औसत भोपाल, इन्दौर एवं ग्वालियर में ज्यादा थी । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मण्डल की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष २०१६ में ग्वालियर में २२७ दिन वायु जहरीली बनी रही ।
    वर्ष २०१६ के अंत में मध्यप्रदेश सरकार ने १५ वर्ष पुराने व्यावसायिक वाहनों पर जो प्रतिबंध लगाया था, उसे सख्ती से लागू करें । दोनों प्रदेश अपने ज्यादातर शहरों में बीएस-४ डीजल एवं पेट्रोल की उपलब्धता बढाएं, ताकि वाहन प्रदूषण कम हो । प्रदूषण नियंत्रण मण्डल के भोपाल मुख्यालय ने भी वर्ष २०१५ में पेट्रोलियम मंत्रालय को बीएस-४ ईधन उपलब्ध कराने हेतु लिखा था । फिलहाल देश के केवल १७ शहरों में बीएस-४ ईधन का वितरण हो रहा है । इनमें म.प्र.-छग का एक भी शहर नहीं है ।
    निजी वाहनों के सीमित प्रयोग व सस्टेनेबल पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम  की व्यवस्था बढ़ाई जानी चाहिए । पेट्रोल की तुलना में डीजल वाहन सात गुना अधिक प्रदूषण फैलाते है, अत: उनकी संख्या घटाना बहुत जरूरी है ।  सीएनजी, विघुत चलित वाहनों के उपयोग को भी प्रोत्साहन मिले । प्रदूषण के प्रति जनप्रतिनिधि भी जागरूक हो व समय-समय पर प्रदूषण नियंत्रण के प्रयासों की जानकारी शासन-प्रशासन से लेते रहें । सरकारी विभाग प्रदूषण नियंत्रण की जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाऐगे तभी तस्वीर बदल सकेगी ।
                              

जयंती के अवसर पर सभी प्रदेशवासियों को हार्दिक बधाई । आज हनुवंतिया में माँ नर्मदा की पूजा-अर्चना एवं आरती करने के बाद कैबिनेट की बैठक में मध्यप्रदेश के विकास की योजनाआें के संबंध में निर्णय लेकर आध्यात्मिक शांति की अनुभूति हुई है ।
    विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताएँ नदियों के तट पर ही विकसति हुई  है । नर्मदा घाटी भी इसका अपवाद नहीं है । नर्मदा घाटी का सांस्कृतिक इतिहास  गौरवशाली रहा है । माँ नर्मदा का आसपास की धरती को समृद्ध बनाने में बहुत योगदान रहा है । नर्मदा नदी को मध्यप्रदेश की जीवन-रेखा कहा जाता है । माँ नर्मदा को भारतीय संस्कृृति में मोक्षदायिनी, पापमोचिनी, मुक्तिदात्री, पितृतारिणी और भक्तों की कामनआें की पूर्ति वाले महातीर्थ का भी गौरव प्राप्त् है ।
    मुझे इस बात प्रसन्नता है कि आज नमामि देवि नर्मदे-नर्मदा सेवा यात्रा अभियान एक जन आंदोलन बन गया है । सभी लोग बड़े उत्साह और उमंग के साथ दुनिया के सबसे बड़े नदी संरक्षण अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं ।
    माँ नर्मदा भविष्य में प्रदूषित न हो इसलिये हमने फैसला लिया है कि १५ शहरों के दूषित जल को नर्मदा मेंनहीं मिलने देंगे । इसके लिये हम १५०० करोड़ रूपये की राशि से सीवरेज ट्रीटमेंट प्लान्ट लगा रहे हैं । नर्मदा नदी के तट के सभी गाँवों और शहरों को खुले में शोच से मुक्त किया जायेगा । नर्मदा नदी के दोनों और बहने वाले ७६६ नालों के पानी को नर्मदा में जाने से रोकने से सुनियोजित प्रयास किये जायेगे । नदी के दोनों ओर हम सघन वृक्षारोपण करेंगे ताकि नर्मदा में जल की मात्रा बढ़ सके । नर्मदा के तट पर स्थित गाँवों और शहरों में ५ कि.मी. की दूरी तक शराब की दुकानें नहीं होगी । सभी घाटों पर शवदाह गृह, स्नानागार और पूजा सामग्री विसर्जन कुण्ड बनाये जायेगे ताकि माँ नर्मदा को पूर्णत: प्रदूषण रहित रखा जा सके । मेरे विचार से हमें नदियों के महत्व को समझते हुए पूरी दूनिया में नदियों को बचाने के लिये लोगों को जागरूक करना चाहिये ।
सम्पादकीय
नर्मदा को भी मिले जीवित इंसान का दर्जा
     गंगा और यमुना नदी को जीवित व्यक्ति का दर्जा दे चुकी उत्तराखंड हाईकोर्ट ने पिछले दिनों एक और ऐतिहासिक फैसला सुनाया । उसने गंगोत्री-यमुनोत्री व अन्य ग्लेशियरों, नदी-नालों, बरसाती नाले, तालाब, वायु, जंगल, घास के मैदान और झरनों को भी जीवित व्यक्ति का दर्जा प्रदान करते हुए मौलिक अधिकार दे दिया । हाइकोर्ट ने कहा कि जो कोई भी इन्हें नुकसान पहुंचाता है, उनके खिलाफ कार्रवाई की जाए ।
    मध्यप्रदेश की जीवन रेखा मानी जाने वाली और मां का दर्जा प्राप्त् नर्मदा नदी के संरक्षण के लिए भी ऐसे ही पहल की मांग उठने लगी है । संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद नदी में कूड़ा फेंकने या उसमें अतिक्रमण होने पर होने पर उसके घोषित कानूनी अभिभावक नदी की ओर से न्यायालय में मुकदमा कर सकते है । यदि नदी के पानी से किसी का खेत बह गया तो वह व्यक्ति नदी के खिलाफ भी मुकदमा दर्जा करा सकेगा ।
    मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी का देवी के रूप में पूजते है । नर्मदा नदी अनुपपूर जिले के अमरकंटक की पहाड़ियों से निकलकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर करीब १३१२ किलोमीटर का सफर तय करते हुए भरूच के आगे खंभात की खाड़ी में विलीन हो जाती है । मध्यप्रदेश में नर्मदा का प्रवाह क्षेत्र १०७७ किमी है, जो इसकी कुल लंबाई का ८२.२४ प्रतिशत है ।
    प्रदेश के १५ जिलों से होकर बहने वाली नर्मदा अपनी सहायक नदियों सहित प्रदेश के बहुत बड़े क्षेत्र के लिए सिंचाई एवं पेयजल का बारहमासी स्त्रोत है । नर्मदा नदी का कृषि, पर्यटन तथा उघोगों के विकास मेंमहत्वपूर्ण योगदान है । नर्मदा के तट पर ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है, जो प्रदेश की आय का महत्वपूर्ण स्त्रोत है । इस प्रकार म्रध्यप्रदेश के जनजीवन में नर्मदा का सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है ।
सामयिक
नदियों को नागरिक के अधिकार
प्रमोद भार्गव
    हाल ही में उत्तराखंड उच्च् न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में न्यूजीलैंड सरकार के फैसले को आधार मानकर भारत में गंगा और युमना नदियों को भी `जीवित व्यक्ति` का दर्जा दिया है । इससे अब देश की इन दोनों नदियों को एक नागरिक की तरह अधिकार मिल गए हैं ।
    दुनिया में पहली बार न्यूजीलैंड की एक नदी वांगानुई को जीवित मनुष्य के अधिकार दिए गए  हैं । वहां की संसद में इसके लिए बाकायदा एक बिल भी पास किया गया । न्यूजीलैंड की संसद द्वारा वांगानुई नदी को इंसानी अधिकार देने के फैसले से प्रेरित होकर उत्तराखंड उच्च् न्यायालय ने भी गंगा और यमुना नदियों को जीवित व्यक्तियों जैसे अधिकार देने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है । इन अधिकारों को सुरक्षित बनाए रखने के लिए गंगा प्रबंधन बोर्ड बनाया जाएगा । इससे नदियों के जलग्रहण क्षेत्र से अतिक्रमण हटाने व गंदगी बहाने वालों को प्रतिबंधित करना आसान होगा । 
     फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि इस फैसले का असर कितना होगा । क्योंकि इसक पहले हमारी नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाए रखने की दृष्टि से सर्वोच्च् व उच्च् न्यायालय कई निर्णय सुना व निर्देश दे चुके हैं, लेकिन ज्यादातर निर्देश व निर्णय निष्प्रभावी रहे। गंगा का कल्याण राष्ट्रीय नदी घोषित कर देने के पश्चात भी संभव नहीं हुआ । राष्ट्रीय हरित अधिकरण के सचेत बने रहने के बावजूद नदियों में कूड़ा-कचरा बहाए जाने का सिलसिला निरंतर बना हुआ है ।
    सबसे पहले किसी नदी को मानवीय अधिकार देने की कानूनी पहल होनी तो हमारे देश में चाहिए थी, लेकिन हुई न्यूजीलैंड में है। औद्योगीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के चलते दुनियाभर की नदियां ही नहीं, वे सब प्राकृतिक संपदाएं जबरदस्त दोहन का शिकार हैं, जिनके गर्भ में मनुष्य के लिए सुख व वैभव के संसाधन समाए हैं। किन्तु अब यह पहली मर्तबा हुआ है कि किसी प्राकृतिक संसाधन को जीवंत इंसानी सरंचना मानते हुए नागरिक  अधिकार प्रदान किए गए हैं । न्यूजीलैंड में वांगानुई नदी को इंसानी दर्जा मिला है। इस नदी के तटवर्ती ग्रामों में माओरी जनजाति के लोग रहते हैं । उनकी आस्था के अनुसार नदी, पहाड़, समुद्र और पेड़ सब में जीवन है । लेकिन इस अजीब आस्था को मूर्त रूप में बदलने के लिए इन लोगों ने १४७ साल लंबी लड़ाई लड़ी । तब कहीं जाकर न्यूजीलैंड संसद विधेयक पारित करके नदी को नागरिक अधिकार व दायित्व सौंपने को मजबूर हुआ ।
    भूमंडलीकरण व आर्थिक उदारवाद के बाद दुनियाभर में नदियों को समुद्र में गिरने से बहुत पहले ही निचोड़ लेने की व्यवसायिक मानसिकता तेजी से पनपी है । हमारी न केवल लोक परंपरा में, बल्कि धर्म ग्रंथों में भी गंगा समेत ज्यादातर नदियों को मानवीय रिश्तों से जोड़ते हुए माँ का दर्जा दिया गया है। इसीलिए लिखा भी गया है, 'मानो तो मैं गंगा माँ हूं, न मानो तो बहता पानी ।' यही नदियां हैं, जो जीवनदायी अमृत रूपी जल पिला रही हैं । लेकिन हमारी नदियां गंदगी और प्रदूषण की किस लाचारी से गुजर रही है, किसी से छिपा नहीं है । वांगानुई नदी के  तटों पर जिस तरह से मोआरी समुदाय का जन-जीवन व सभ्यता पनपे और विकसित हुए, उसी तरह समूची दुनिया की महान और ज्ञात व अज्ञात सभ्यताएं नदियों के किनारों पर ही पनपी हैं । हमारा तो पूरा प्राचीन संस्कृत साहित्य वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत और पुराण, सभी नदियों की बहती संगीतमयी स्वरलहरियों की गूंज में ऋषि-मुनियों ने रचे । आज हमारी सामाजिक परम्पराआें को बचाने के जितने भी उपाय हैं, उनके संस्कार हमने इन्हीं ग्रंथों से लिए हैं । इनके  प्रति समाज का जो भी सम्मान भाव है, वह इसी विरासत की देन है। इसीलिए हरेक संस्कारवान भारतीय के मानस में नदी का स्वरूप माता के तुल्य है। इसी इंसानी रिश्ते में माँ से स्नेह पाने और देने का तरल भाव अंतर्निहित है ।
    वांगानुई न्यूजीलैंड की तीसरी बड़ी नदी है । यह देश के उत्तरी द्वीप में बहती है। धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व भी है। यहां का माओरी समुदाय इस नदी के अलावा पहाड़, समुद्र और पेड़ों की वैसे ही पूजा-अर्चना करता है, जैसे हम गंगा व अन्य नदियों के साथ पर्वत, पेड़ और समुद्र की पूजा करते हैं । पर्वतराज हिमालय को तो हम पिता की श्रेणी में रखते हैं। १८७० से ही माओरी समुदाय के लोगों के अलग-अलग समूह नदी और मनुष्य के संबंधों को संवैधानिक रूप देने की मांग करते रहे हैं। उनकी यह लड़ाई अब जाकर फलीभूत हुई है । न्यूजीलैंड की संसद में वांगानुई नदी से जुड़ा जो विधेयक बहुमत से पारित हुआ है, उसके चलते इस नदी को अब एक व्यक्ति के तौर पर अपना प्रतिनिधित्व करने का नागरिक अधिकार दे दिया है । इसके दो प्रतिनिधि होंगे। पहला माओरी समुदाय से नियुक्त किया जाएगा, जबकि दूसरा सरकार तय करेगी । साफ है, वांगानुई की अब कानूनी पहचान निर्धारित हो गई है। इस संवैधानिक अधिकार को पाने के लिए माओरी जनजाति के जागरूक नागरिक क्रिस फिनालिसन ने निर्णायक भूमिका निभाई है ।
    विधेयक में नदी को प्रदूषण मुक्त करने व प्रभावितों को मुआवजा देने के लिए ८ करोड़ डॉलर का प्रावधान भी किया गया है। नदी को इंसानी दर्जा मिलने के बाद से भविष्य में वह अपने अधिकारों को सरंक्षित कर सकती है। यदि कोई व्यक्ति नदी को प्रदूषित करता है, उसके तटवर्ती क्षेत्र में अतिक्रमण करता है या अन्य किसी प्रकार से नुकसान पहुंचाता है तो माओरी जनजाति का नियुक्त प्रतिनिधि हानि पहुंचाने वाले व्यक्ति पर अदालत में मुकदमा दर्ज कर सकता है ।
    कहने को तो भारत नदियों का देश है, लेकिन विडंबना यह है कि ७० प्रतिशत नदियां जानलेवा स्तर तक प्रदूषित हैं। कई नदियों का अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा    है । हम गंगा समेत सभी नदियों में पाप धोने जाते हैं । इन नदियों में इतने पाप धो चुके हैं, कि अब इनकी पाप-शोधन की क्षमता लगभग खत्म हो गई है, क्योंकि ये स्वयं हमारे पाप ढोते-ढोते गंदगी, कचरा और मल-मूत्र के नालों में तब्दील हो गई हैं । वैसे तो हमारे यहां सभी नदियां पुण्य-सलिलाएं हैं, लेकिन  गंगा और यमुना को सबसे ज्यादा पवित्र माना जाता है।
    गंगा अपने उद्गम स्त्रोत गंगोत्री (गोमुख) से २५२५ किमी की यात्रा करती हुई गंगासागर में समाती है । इस बीच इसमें छोटी-बड़ी करीब १००० नदियां विलय होती हैं ं किन्तु गंगा है कि औद्योगिक व शहरी कचरा बहाए जाने के कारण कन्नौज से वाराणसी के बीच ही दम तोड़ देती है । गंगा को मैली करने के लिए २० फीसदी उद्योग और ८० फीसदी सीवेज लाइनें दोषी हैं।
    पिछले तीन दशक में करीब डेढ़ हजार करोड़ रुपय सफाई अभियानों में खर्च कर दिए जाने के बावजूद गंगा एक इंच भी साफ नहीं की जा सकी है । टिहरी बांध तो इस नदी की कोख में बन ही चुका है, उत्तराखण्ड में गंगा की अनेक जलधाराओं पर १.३० हजार  करोड़ की जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। स्वाभाविक है, ये परियोजनाएं गंगा की जलधाराओं को बाधित कर रही हैं। जबकि किसी भी नदी की अविरल  धारा उसकी निर्मलता व स्वच्छता बनाए रखने की पहली शर्त है।
    करीब १३७६ किमी लंबी यमुना नदी के लिए राजधानी दिल्ली अभिशाप बनी हुई है । इस महानगर में प्रवेश करने के बाद जब यमुना २२ किमी की यात्रा के बाद दिल्ली की सीमा से बाहर आती है तो एक गंदे नाले में बदल जाती है । दिल्ली के कचरे का नदी में विसर्जन होने से ८० प्रतिशत यमुना इस क्षेत्र में ही प्रदूषित होती है। पिछले दो दशकों में यमुना पर करीब छह हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन यमुना है कि दिल्ली से लेकर मथुरा तक पैर धोने के लायक भी नहीं रह गई है । नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाए रखने के लिए जरूरी है कि उनकी धारा का प्रवाह निरंतर बना  रहे । इस लिहाज से जरूरी है कि हम नदियों को एक जीवंत पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखना शुरू करें ।
हमारा भूमण्डल
जैव विविधता पर संकट
ऐलिस कैथरीन हयूज
    वैश्विक स्तर पर जैव विविधता का संरक्षण एक चुनौती के रूप में सामने है। दुनियाभर में प्राकृतिक आवासों की क्षति, वन विनाश, खनिज कार्य, कृषि विकास, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, औद्योगिक महत्व की फसलों का उत्पादन, शिकार तथा वन्य जीवों से जुड़े व्यापार आदि कारणों से जैवविविधता में कमी आ रही है । इस वजह से भी कई प्रजातियां खतरे में हैं । 
     दक्षिण-पूर्व एशिया में जैव विविधता पर संकट के बादल ज्यादा हैं । यहां के देश आर्थिक रूप से भले ही पिछड़े हो परंतु ये जैव विविधता में सम्पन्न है । वर्तमान में उपभोक्तावाद तथा विकास की अंधी दौड़ मेंे यहां के देश भी शामिल होकर प्राकृतिक संसाधनों का अति-दोहन कर रहे हैंजिससे जैव विविधता घट रही हैं । सम्पूर्ण विश्व में जैव विविधता के जो २५ मुख्य स्थल (हाट-स्पाट) पहचाने गये हैं, उनमें से ०६ दक्षिण-पूर्वी एशिया में है। यहां पर फैली जैव विविधता में नई-नई प्रजातियों के मिलने की संभावना काफी अधिक  है । १९९७ से २०१४ के मध्य यहां २२१६ नई प्रजातियों की खोज की गयी । पौधा तथा कशेरुकी (वर्टिबेट्स) की २० प्रतिशत स्थानिक (एंडेमिक) प्रजातियां यहां रिकार्ड की गई है । इसी के साथ-साथ दुनिया का तीसरा बड़ा उष्णकटिबंधीय वर्षा वन (ट्रापिकल रेन-फॉरेस्ट) का क्षेत्र भी यहां है। यहां के मेकांग क्षेत्र में प्रजातियों की विविधता अधिक है एवं जीवों की लगभग १०० नई प्रजातियां यहां प्रतिवर्ष खोजी जाती हैं । 
    यहां की जैव विविधता पर सबसे बड़ा खतरा वनों के विनाश से है। यहां किये गये कुछ अध्ययनों से प्राप्त जानकारी के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में तो वन विनाश कम हुआ (लगभग १४.५ प्रतिशत) परंतु आगामी ९-१० वर्षोंा में कई क्षेत्रों में शेष बचे ९० प्रतिशत वन समाप्त हो जाएंगे । सेटेलाइट से प्राप्त चित्रों के अनुसार फिलीपाइंस में लगभग ९० प्रतिशत वन समाप्त हो चुके हैं । इस वन विनाश से स्तनपायी जीव (मेमल्स) सर्वाधिक प्रभावित हो रहे  हैं । कागज, रबर तथा पॉम आईल उद्योग द्वारा यहां सर्वाधिक वन साफ किये जा रहे हैं ।
    दुनिया की जरुरत का ८६ प्रतिशत पॉम-आईल तथा ८७ प्रतिशत रबर यहीं से आता है। पॉम आईल के खाद्य तेल व बायो डीजल के सस्ते विकल्प के रूप में आने से यहां अधिक से अधिक पॉम के पेड़ जंगल काटकर लगाये जा रहे हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार यहां के वनों में पॉम वृक्षों को उगाने हेतु सर्वाधिक अनुकूल परिस्थितियां पाई जाती है। वर्ष २०२४ तक पॉम आईल उत्पादन का क्षेत्र ४.३ से ८.५ मिलियन हेक्टर तक होने की संभावना है ।
    पॉम-रोपण व उत्पादन से जुड़ी कई कृषि व्यापार की कम्पनियां लेटिन अमेरिका में २३ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले वर्षा वनों में पॉम-रोपण का कार्य कर रही है। कुछ वर्षों पूर्व यहां के आकाश में जो काले बादल फैल गये थे । उसका कारण वनों को जलाने से निकला धुआं    था ।
    ब्राजील भी अब सोयाबीन तथा गन्ने की खेती छोड़कर पॉम-आईल उद्योग की ओर बढ़ रहा है, क्योंकि यह ज्यादा मुनाफा देता है । यहां की सरकार ने अमेजन के वर्षा वनों के क्षेत्र में पॉम-आईल उत्पादन योजना को मंजूरी प्रदान कर दी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां के वर्षा वन पृथ्वी पर जीवों के लिए आवश्यक प्राणवायु (ऑक्सीजन) का ४० प्रतिशत हिस्सा पैदा करते हैं ।         वन विनाश से बिगड़ते पर्यावरण को देखते हुए सरकारों ने पॉम-आइल तथा रबर उत्पादन को पर्यावरण हितैषी बनाने हेतु कई नियम कानून व शर्तें उद्योगों पर लगायी परंतु उनका खुले आम उल्लंघन हो रहा   है ।
    बांधों के जलाशयों में पानी रुकने से प्रवासी मछलियों की संख्या ७० प्रतिशत तक घटने की संभावना बताई जा रही है । इस क्षेत्र में ६५ मिलियन लोग मछली पालन के धंधे से जुड़े हैं । 
    पर्यावरण वैज्ञानिकों ने नम भूमियों (वेट लैण्ड्स) में सर्वाधिक जैव विविधता का आकलन किया है, परंतु इस क्षेत्र की नम भूमियों भी वन विनाश, कृषि विस्तार एवं कुछ अन्य कारणों से ८० प्रतिशत समाप्त हो रही है । इनकी समाप्ति या कमी से लगभग ८० प्रतिशत प्रवासी पक्षियों पर संकट पैदा हो गया है ।
    खनन से जुड़े कई कार्य भी जैव विविधता पर असर डाल उसे कम कर रहे हैं । आठ  लाख वर्ग किलो मीटर के क्षेत्र में चूने पत्थर की खदानंे यहां फैली है, जिसका उत्खनन सीमेंट निर्माण हेतु बेधड़क किया जा रहा है । वैज्ञानिकों ने बताया है कि चूने की अधिकता को सहन कर जीवित रहने वाली कई पादप प्रजातियां यहां हो सकती है जिनके संबंध में अभी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
    अवैधानिक शिकार एवं वन्य जीवों से प्राप्त कई प्रकार की वस्तुओं का अवैध व्यापार या तस्करी भी जैव विविधता को कम कर कई प्रजातियों को विलुप्ति की ओर बढ़ा रही है। वन्य जीव एवं उनसे प्राप्त वस्तुओं का व्यापार चौथा बड़ा व्यापार माना गया है । औषधि निर्माण, सजावटी कार्य तथा प्राणी संग्रहालय एवं मछली-घरों में रखने के लिए जीवों का अति दोहन एवं तस्करी इस हद तक की जा रही है कि विलुप्ति का खतरा पैदा हो गया है। कुछ वर्षों पूर्व अफ्रीका के देश केमरुन में २०० हाथियों को इसलिए मार दिया गया था कि हाथी-दांत बेचकर वहां की सरकार को हथियार खरीदना थे ।
    कई कारणों से हो रहा वन विनाश, बांधों की बढ़ती संख्या, नम-भूमियों में कमी, अनियंत्रित खनिज कार्य एवं वन्य जीवों तथा उनसे प्राप्त सामान की तस्कारी आदि ऐसे कारण हैं जो यहां की जैव विविधता पर इतना संकट पैदा कर रहे हैं कि कई जीवों की भविष्य में विलुप्ति निश्चित है । दुनिया के विकसित देशों को पेट्रोल के बाद अब जैव विविधता हरे-सोने (ग्रीन गोल्ड) के रूप में दिखायी दे रही है ।
 कविता
फूल कभी नहींमरता
डॉ. अजीत रायजादा

    गिरा था
    खून जहां उसका
    वह मिट्टी लाल नहीं
    स्वर्णिम हो गई है
    उग आया है उस जगह
    सरसों का एक फूल
    जिसका चोला बसन्ती है !
    धरती का चीर कर सीना
    ऐसे लाखों फूल और निकलने वाले हैं
    क्योंकि फूल कभी नहीं मरता
    उसके बीज से फिर से पैदा होता है फूल
    और चलता रहता है
    अनन्त काल तक यह सिलसिला
    बीज-फूल, फूल-बीज, बीज-फूल...........
    तुम्हारी बन्दूक में
    और कितनी गोलियां है ?
    तुम्हारी खुद की साँसें कितनी हैं ?
    आखिर तुम चाहते क्या हो ?
    तुम्हारे जुनून से
    बदलने वाली नहीं है
    अब इस देश की भाग्य रेखा
    नहीं होने वाले हैं इसके और टुकड़े
    क्योंकि
    भारत मां के रक्त बीज से
    यहाँसदा खिलते ही रहेंगे
    बसन्ती चोले वाले
    सरसों के फूल !
विशेष लेख
विज्ञान, सत्य की निरन्तर खोज है
अश्विन शेषशायी
    विज्ञान हमारे जीवन का अमिट हिस्सा है । कहना न होगा कि दैनिक जीवन में हम जिन कई चीजों का उपयोग करते हैं, वे आधुनिक विज्ञान और उसके टेक्नॉलॉजी रूपी अवतार की उत्पाद हैं ।
    कई लोग मानते हैं कि विज्ञान और वैज्ञानिक सोच ही हमारे जीवन को बेहतर बनाने का एकमात्र तरीका है । हो सकता है कि यह अतिशयोक्ति हो किंतु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि विज्ञान ने विकास को संभव बनाया है, जिसे हम मानकर चलने लगे हैं और कुछ हद तक इसने टिकाऊ विकास को भी संभव बनाया है । इसके चलते वैज्ञानिक उद्यम से सम्बंध रखना, उसके दर्शन व कामकाज को समझना और इस बात पर नजर रखना हम सबकी जिम्मेदारी है कि चाहे ठोस आर्थिक दृष्टि से या जिज्ञासा को शांत करने दृष्टि से उसका उपयोग कैसे होता    है । यह बात प्रजातंत्र मेंऔर भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, जहां हर व्यक्ति को नीतियों पर प्रभाव डालने का अधिकार है, चाहे कितने ही छोटे पैमाने पर हो । 
     विज्ञान क्या है ? चलिए, हम विज्ञान को ज्ञान प्राप्त् करने के रूप मेंपरिभाषित करते हैं । तो ज्ञान क्या है ? सदियों से क्या, सहस्त्राब्दियों से कई दार्शनिक इस सवाल पर बहस करते रहे हैं । इस प्रश्न ने आज खास महत्व अख्तियार कर लिया है, जब हममें से कई लोगों को इंटरनेट पर भारी मात्रा में सामग्री पढ़ने, सुनने और देखने का मौका मिल रहा है । यह सारी सामग्री हमें कुछ-ना-कुछ सिखाने की कोशिश करती है । ज्ञान को लेकर अपनी समझ को हम संक्षेप में व्यक्त कर सकते हैं । एेंद्रिक अनुभवों और उपयुक्त आधारों पर सैद्धांतिकरण करके आसपास की दुनिया के बारे मेंहम जो कुछ सीखते हैं ।
गुणवत्ता और समृद्धता
    विज्ञान में हम एेंद्रिक अनुभव को प्रयोग के रूप में परिभाषित करेंगे और यह शर्त रखेंगे कि जिस बुनियाद पर सिंद्धात टिका है वह स्वयं प्रयोगों से या पूर्व में स्थापित सिद्धांतों से हासिल हुई है । प्रयोगों और सिद्धांतों में अक्सर मान्यताएं निहित होती हैं और यह एक अच्छी वैज्ञानिक प्रथा है कि इन मान्यताआें की स्पष्ट  घोषणा की जाए और जहां     संभव हो इनका औचित्य भी बताया जाए । यह दलील दी जा सकती है कि सारा ज्ञान संदर्भ-आश्रित और संभाविता आधारित होता है । संदर्भ-आश्रित इस मायने में कि कोई भी वैज्ञानिक कथन तभी सत्य होता है जब कतिपय अन्य शर्ते पूरी हो ।
    संभाविता आधारित इस अर्थ में कि यदि हम सत्य तक कभी नहीं पहुंच सकते, तो किसी सिद्धांत के पक्ष में अधिकाधिक प्रमाण एकत्रित होने पर हम सत्य के मात्र और करीब आते हैं । दूसरे शब्दों में, किसी सिद्धांत के विरूद्ध एक अकेले सशक्त प्रमाण, जो सिद्धांत को झुठलाता हो, को कदापि नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है । कार्ल पॉपर के मतानुसार खंडन-योग्यता ही विज्ञान को परिभाषित करती है और उसे गैर-विज्ञान से अलग करती   है ।
    अर्थात विज्ञान, सारे विषय क्षेत्रोंमें, सत्य की तलाश है । वैज्ञानिक तमाम तकनीकों में हाथ पैर मारते हैं - जैसा कि विद्रोही दार्शनिक पौल फेयरअबेंड ने कहा था - और विधियों व व्याख्याआें के चयन में अक्सर अराजक होते है । अराजकता कोई बुरी चीज नहीं है और जब इसे इस रूप में परिभाषित किया जाए कि कुछ भी चलता है या इस रूप में परिभाषित किया जाए कि यह वैज्ञानिक पद्धति की लकीर के विरूद्ध है, तो इससे सृजनात्मक किन्तु कठोर खोजबीन की इजाजत मिलती है । इस तरह की खोजबीन यदा-कदा परिवर्तनकारी विज्ञान का सबब बनती है । वैज्ञानिक इंसान ही होते हैं और अपनी प्रजाति के गुण-दोषों से मुक्त नहीं होते । इनमें ख्याति और समर्थन पाने की ललक शामिल है । यह चीज फेयरअबेंड के विज्ञानकी अराजकता के मूल में   है ।
    सत्य की तलाश का अर्थ होता है किसी कथन के पक्ष या विरोध में वैज्ञानिक प्रमाण   जुटाना । विज्ञान स्वयं के लिए जो आधार रेखा निधा्ररित करता है, वह उसके द्वारा प्रमाण जुटाने के लिए प्रयुक्त प्रायोगिक व सैद्धांतिक तकनीकों की गुणवत्ता और कठोरता है । वह सदैव सुधार के प्रति खुला रहता है और माना जाता है कि उसमेंआत्म-सुधार निहित   है । विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में गुणवत्ता के अपने मापदण्ड हैं और हो सकता है कि किसी क्षेत्र की समद्धता इसी बात से तय होती है कि यह ये आधार रेखाएं कहां निर्धारित करता है ।
    गुणवत्ता और समृद्धता इस बात से परिभाषित होती है कि वैज्ञानिकों द्वारा प्रयुक्त तकनीकें कितनी प्रासंगिक है और उन तकनीकों की विभेदन क्षमता कितनी है । जेनेटिक्स का इतिहास (राफेल फाक, जेनेटिक एनालिसिस, २००९) खुबसूरती से इस बात की बानगी पेश करता है कि कैसे यह क्षेत्र, आनुवंशिकता (जेनेटिक रूप से गुणों के पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरण) के व्यापक सवाल के संदर्भ में ज्यादा प्रासंगिकता की ओर न सही, बेहतर विभेदन की ओर विकसित हुआ ।
    जेनेटिक विरासत के मुद्दे को सबसे पहले युरोपीय मठवासी ग्रेगर मेंडल ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में संबोधित किया था । दरअसल, उनका शोध काय्र आज से १५० साल पहले १८६६ में प्रकाशित हुआ था । उन्होंने मटर के पौधों पर प्रजनन संबंधी प्रयोग किए थे । इन प्रयोगों में उन्होंने कुछ प्रेक्षणीय गुणों वाले मटर के पौधों जैसे पीले रंग के मटर वाले पौधों का संकरण किसी अन्य गुण वाले पौधों जैसे हरे रंग के मटर वाले पौधों से करवाया था । फिर उन्होंने इनकी संतानों का कुछ पीढ़ियों तक अध्ययन किया ।
    पौधा की जटिल जेनेटिक व जैव रासायनिक मशीनरी के इन बाहरी लक्षणों के आधार पर मण्डल ने आनुवंशिकता का एक प्रभावशाली सिद्धांत विकसित किया था । आनुवंशिकता को लेकर पूर्ववर्ती विचारों में जाना जाता था कि संतान में उसके माता-पिता के गुणों का मिश्रण हो जाएगा । इसको माने तो भविष्यवाणी यह होगी कि पीले मटर और हरे मटर के दानोंवाले पौधों के संकरण से उत्पन्न संतानों में दानों का रंग हरे और पील के बीच कहीं   होगा ।
    मेंडल के व्यवस्थित प्रयोगों ने दर्शाया कि आनुवंशिकता कणीय होती है । अर्थात संतानों में मटर के दाने या तो पीले होते हैं या हरे ओर ये दो तरह के पौधे हमेशा एक निश्चित अनुपात में होते है । लगभग उसी समय चार्ल्स डारविन के कामसे जैव विकास का गहन सिद्धांत विकसित हुआ जो मुख्य रूप से पक्षियों और जन्तुआें के ब्राह्य लक्षणों के अवलोकनों पर आधारित था ।
    ये शुरूआती शोध कार्य, जिसमें डारविन की पुस्तक ओरिजिन ऑफ स्पीशीज शामिल है, आज आम पत्र-पत्रिकाआें तक पहुंच चुके हैं । इन्हें कोई सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी समझ सकता है । ये शोध कार्य के ऐसे मील के पत्थर थे जिन्होंने आनुवंशिकता की हमारी समझ को बदल कर रख दिया था । मगर ये कम विभेदन वाले शोध कार्य भी थे । इनमें आनुवंशिकता का निर्धारण करने वाले पदार्थ के बारे में या इस बारे में कुछ नहीं कहा गया था कि उसमें अंकित सूचनाएं किस तरह से प्रकट लक्षणों में प्रतिबिंबित होती   है ।
    फॉस्ट फॉरवर्ड करके वर्तमान में आते हुए जल्दी से इस बात की झलकियां देखते हैं कि हमने आनुवंशिकता के जैव रसायन को समझने मेंकैसे बड़े-बड़े कदम उठाए हैं - इनमें आनुवंशिकता के लिए जिम्मेदार पदार्थ क रूप में डीएनए की पहचना, उसकी आिवाण्क संरचना का खुलासा, तमाम जीव-जंतुआें के जीनोम्स में क्षारों का अनुक्रमण, हर किस्म के प्रोटीन्स और अनय कोशिकीय रसायनों के बारीक कार्योंा को अलग कर पाने की हमारी क्षमताएं शामिल हैं ।
    हम देखते हैं कि आनुवंशिकता का विज्ञान आज काफी उच्च् विभेदन पर काम करता है । इसने आनुवंशिकता और और जैव विकास को क्रियाविधि के गहरे स्तर पर समझने में मदद की है । किंतु यह तेजी से वैज्ञानिक रूप से साक्षर लोगों की समझ से परे होता जा रहा है ।
विज्ञान का एक प्रकट चेहरा
    जीव विज्ञानों में वैज्ञानिक प्रकाशन क्रांति के दौर मेंहै । खुली पहंुंच (ओपन एक्सेस) आज आम बात होने लगी है । इसके चलते वैज्ञानिक शोध पत्र हर उस व्यक्ति की पहंुच में हैं जो इंटरनेट तक पहंुच सके । यह विशाल इंटरनेट का एक छोटा-सा हिस्सा है मगर वह हिस्सा है जिसके बारे मेंजाना जाता है कि वह विचारधारा-आधारित नहीं बल्कि प्रमाण-आधारित सूचना को प्रसारितकरता है । अलबत्ता, बदकिस्मती से इस सूचना तक पहंुच का मतलब यह नहीं है कि इसे आत्मसात भी किया जाएगा ।
    एक तो वैज्ञानिक शोध में बढ़ते विभेदन के साथ बढ़ती विशेषज्ञता आती है । दूसरा आजकल वैज्ञानिकों पर बहुत दबाव होता है कि वे अपने शोध कार्य को अपने विषय की शब्दावली की सटीकता के साथ छोटे-से वैज्ञानिक समुदाय के लिए प्रस्तुत  करें । इन दो बातों का मतलब यह हो जाता है कि सबके लिए खुली पहुंच की संभावना का एक बड़ा अंश साकार ही नहीं हो पाता ।
    पढ़े-लिखे आम पाठक के लिए विज्ञान का सर्वाधिक दृश्य चेहरा हर साल घोषित किए जाने वाले नोबेल पुरस्कारों के रूप मेंसामने आता है । मेरे अंदर बैठे वैज्ञानिक के लिए यह बढ़ती विशेषज्ञता की एक और झलक है । हालांकि कोई भी यह नहीं कहेगा कि पचास पर्ष पहले जिस चिकित्सा शोध कार्य को नोबेल से सम्मानित किया गया था, वह महत्वपूर्ण नहीं  था । किंतुआज कई पेशेवर जीव वैज्ञानिक भी नोबेल से सम्मानित कार्य से मोटे-मोटे तौर पर ही परिचित होंगे ।
    ऐसा इसलिए नहीं कि वह कार्य पथ-प्रदर्शक नहीं होता बल्कि इसलिए कि जीव विज्ञान में इतना अधिक विशेषीकरण है और प्रत्येक विशिष्ट शाखा अपने ही छोटे-से तालाब में जीवित रहती है और उसके पास अपने आसपास के तालाबोंकी बहुत सीमित समझ होती है । और इसलिए ऐसे विशाल संयुक्त शोध कार्योंा की बाढ़-सी आई हुई है जिसमें विभिन्न तालाबों के विविध वैज्ञानिक साथ मिलकर काम करते  हैं । सारे नजरिए एक ही तालाब में आ जाते हैं । इससे शायद नोबेल पुरस्कार न मिले किंतुआने वाले दिनों में यही आम तरीका होने वाला है ।
    आम लोगों के लिए विज्ञान के बारे मेंसूचनाआें का एक और स्त्रोत अखबार और पत्रिकाएं हैं । दुर्भाग्य से भारत में ऐसे अधिकांश मंचों पर कवरेज अत्यंत सनसनीखेज होता है और खोज की प्रक्रिया को कोई महत्व नहीं    देता । यहां यह बात बिल्कुल भी नहीं होती कि कैसे पता चला कि अमुक चीज कैंसर का कारण है या फलां चीज पारकिंसन रोग का इलाज हैै । इस मामले मेंभी कुछ घटनाएं उम्मीद पैदा करती हैं ।
    डाउन टू अर्थ पत्रिका बरसों से विज्ञान को हमारी प्रेस के औसत स्तर से कहीं बेहतर ढंग से कवर करती रही है । दी वायर ने आम लोगों के लिए विज्ञान का एक संतुलित प्रस्तुतीकरण किया है । इसी प्रकार से चैन्ने से प्रकाशित पत्रिका फाउंटेन इंक ने भी विज्ञान व चिकित्सा सम्बंधी विस्तृत व सुंदर आलेख प्रकाशित किए हैं ।
    जब हम महत्वपूर्ण मसलों में अपनी बात ज्यादा सुने जाने के लिए हल्ला कर रहे हैं, और यह समझ रहे हैं कि एक जानकारी-आधारित मत एक जज्बाती मत से बेहतर है, तब यह जरूरी है कि हम विज्ञान की प्रक्रिया व उसके उत्पादों तथा वैज्ञानिक सोच को समझने की पहले करें । पेशेवर वैज्ञानिक  साहित्य में बढ़ते विशेषीकरण के चलते जन संचार माध्यमों में उच्च् स्तर के वैज्ञानिक संप्रेषण की बहुत जरूरत है ।
वातावरण
जहरीली होती हवा और अस्वीकारोक्ति के स्वर
कुमार सिद्धार्थ
    वैश्ेविकस्तर पर वायु प्रदूषण जानलेवा सिद्ध हो रहा है । इसी वजह से दिल और साँस संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ने से मृत्युदर पर असर पड़ रहा है । बढ़ते वायु प्रदूषण से देश के शहर एक बड़े गैस चेंबर के रूप में तब्दील हो रहे हैं, जिससे लोग काल के मुंह में समा रहे हैं । 
    पिछले दिनों 'स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर २०१७` नामक रिपोर्ट अखबारों की सुर्खियों में नहीं आ  पाई । विश्व पटल पर प्रस्तुत की गई इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट से भारत में प्रदूषण से आम जनता की सेहत पर पड़ने वाले प्रभावों और होने वाली मौतों की भयावहता की तस्वीर सामने आई है। इस रिपोर्ट को हेल्थ अफेक्ट इंस्टीट्यूट और युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन स्थित इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवेल्यूशन ने संयुक्त तौर पर तैयार किया है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों पर आधारित इस रिपोर्ट में १९५ देशों के १९९० से २०१५ तक के विस्तृत आंकड़े हैं । इनके आधार पर वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या को निकाला जाता है।
    रिपोर्ट बताती है कि वर्ष २०१५ में पूरी दुनिया में ४२ लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हुई। इनमें से ५२ फीसदी मौतें भारत और चीन में हुई । भारत में हर वर्ष करीब १० लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण से होती है । चीन ने इस दिशा में जो कारगर कदम उठाए हैं, उनकी वजह से इन मौतों की संख्या स्थिर हो गई है, जबकि भारत में अभी वायु प्रदूषण से मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है ।
    रिपोर्ट में जिन छह देशों की वायु गुणवत्ता अध्ययन किया गया है, उनमें इसकी वजह से मृत्यु में सबसे खराब स्थिति भारत की पाई गई । वर्ष १९९० में प्रति एक लाख जनसंख्या पर वायु प्रदूषण से मरने वालों की संख्या १६५ थी । जबकि वर्ष २०१० में यह संख्या घटकर १३५ हो गई । लेकिन वर्ष २०१० से वर्र्ष २०१५ तक यह दरें लगभग समान रही । उल्लेखनीय है कि नाइट्रोजन, सल्फर ऑक्साइड और कार्बन खासकर पीएम २.५ जैसे वायु प्रदूषक तत्वों को विश्व में मौत का पांचवां सबसे बड़ा कारण माना जाता है ।
    लेकिन मजेदार बात यह है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे इस रिपोर्ट को एक सिरे से खारिज करते हैं । वे इस बात को जरूर मानते हैं कि वायु प्रदूषण की समस्या देश में तो है, पर वे रिपोर्ट के इन आंकडों को नहीं मानते । लेकिन इन आंकड़ों को न मानने के पीछे पर्यावरण मंत्रीजी ने कोई ठोस वैज्ञानिक और तथ्यपरक आधार भी नहीं रखे हैं । देश में ऐसी रिपोर्टस् को बिना वैज्ञानिक आधार के सीधे नकारने की परंपरा रही है । पर्यावरण मंत्री का बयान है कि हम भारतीय लोग बाहर की चीजों से बहुत प्रभावित होते हैं । हमें अपने विशेषज्ञों पर भरोसा करना चाहिए, उसी तरह जिस तरह हम अपनी सेना पर भरोसा करते हैं । 
    वे यह भी कहते हैं कि उनकी योजनाएं देश के संस्थानों के आंकड़ों पर आधारित होती हैं और यह रिपोर्ट विदेशी है । लेकिन स्थिति यह भी रही है कि देशी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर जारी की गई रिपोर्टों को भी सरकारें हमेशा नकारती रही हैं । पिछले वर्ष ही सबसे प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान `इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रापिकल मेटेरियालॉजी`, पुणे ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि दिल्ली में लोगों की छह वर्ष उम्र केवल वायु प्रदूषण के कारण कम हो गई है। इस देशी रिपोर्ट को भी तत्कालीन पर्यावरण मंत्री ने गलत करार दिया था। वहीं आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिकों ने रिपोर्ट दी थी कि दिल्ली में लगभग बाईस हजार व्यक्ति  वायु प्रदूषण के कारण प्रतिवर्ष मरते हैं । इस रिपोर्ट को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अस्वीकार किया था । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपनी एक रिपोर्ट में वाराणसी शहर को सबसे अधिक प्रदूषित तीन शहरों में रखा था । लेकिन सरकार ने ऐसी कितनी रिपोर्टों को तवज्जो    दी जिससे प्रदूषण नियंत्रण के लिए कोई सार्थक प्रयास देश के सामने आ सके । 
    इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली मौतों की जो संख्या इस रिपोर्ट में दी गई है, उसको लेकर मतभेद हो सकते हैं । लेकिन इस सच्चई से मुंह नहीं मोड़ जा सकता कि वायु प्रदूषण एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या है और इससे लोगों को जान गंवानी पड़ती है । दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि तमाम सरकारों ने वायु प्रदूषण की समस्या को कभी गंभीरता से नहीं लिया। वायु प्रदूषण कम करने की कोशिशें केवल दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े महानगरोंं तक केन्द्रित रहीं । छोटे शहरों को नजरअंदाज किया जाता रहा है । जबकि सन् २०१६ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के २० सबसे प्रदूषित शहरों की सूची जारी की थी, उनमें भारत के १० शहर शामिल थे ।
    समूची दुनिया में वायु प्रदूषण का स्तर जानलेवा होता जा रहा है, जो सभी के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। इसी वजह से दिल संबंधी और साँस संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ने से रोगग्रस्तता और मृत्युदर पर असर पड़ रहा है । प्रदूषण की वजह से दुनिया में हर बरस तकरीबन एक करोड़ छब्बीस लाख लोग मर रहे हैं। वायु प्रदूषण की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज देश के हर शहर एक बड़े गैस चेंबर के रूप में परिवर्तित हो रहे हैं, जिसमें बड़ी संख्या में लोग वायु प्रदूषण की वजह से काल के मुंह में समा रहे हैं। वाहनों से निकलने वाली खतरनाक जहरीली हवा पर्यावरण के लिए एक बेहद खतरनाक संकेत है । सवाल है कि क्या वक्त रहते सावधान हो जाना जरूरी नहीं हो जाता है ?
    अचरज की बात है कि अगर हम अपने शहरों में वायु प्रदूषण का अंदाजा नहीं लगा पा रहे हैं,तो इनकी वजह से आम जनता की सेहत पर पड़ने वाले कुप्रभावों का अंदाज हम कैसे लगा पाएंगे ? इसके लिए जरूरी बुनियादी ढांचे के अभाव की स्थिति में वैश्विक स्तर पर किये जा रहे इन विदेशी अध्ययनों के अलावा हमारे पास और क्या विकल्प बचता है। अगर हम वास्तव में अपने शहरों और गाँवों केे प्रदूषणों के आंकड़े संग्रहित करें तो सच्चई इस विदेशी रिपोर्ट से भी कहीं अधिक भयावह होगी । ऐसे में पर्यावरण मंत्रालय के लिए इस तरह की रिपोर्ट के निष्कर्ष आधार के तौर पर लिए जा सकते   हैं । इससे आने वाले समय में वायु प्रदूषण को नियंत्रित किये जाने की दिशा में कारगर कदम उठाने में मदद मिल सकेगी ।
विज्ञान जगत
मस्तिष्क के विकास का असली कारण क्या है ?
डॉ. अरविन्द गुप्त्े
    पूरे जन्तु जगत मेंमनुष्य के मस्तिष्क के समान अनोखा अंग शायद ही कोई हो । इस अंग की बदौलत आज मनुष्य ने पूरे संसार मेंअपना वर्चस्व जमा लिया है ।
    मनुष्य के विकास के संदर्भ मेंयह एक अहम सवाल है कि आखिर वे कौन से कारक थे जिनके कारण मनुष्य के मस्तिष्क का ऐसा असाधारण विकास हुआ ? इसका सर्वमान्य जवाब यही है कि मनुष्य के द्वारा शाकाहार छोड़कर मांसाहार अपनाना ही वह कारक था ।
     मांसाहारी भोजन की कम मात्रा से मनुष्य को अतिरिक्त पोषण मिलने लगा और परिणामस्वरूप उसके मस्तिष्क का तेजी से विकास हुआ । शिकार किए हुए जानवरों की हडि्डयों पर औजारों के निशान नहीं पाए जाने के कारण यह माना जा सकता है कि मनुष्य के ऑस्ट्रेलोपिथेकस नामक पूर्वज शाकाहारी ही रहे होंगे । इसके विपरीत, पहला आदिमानव, होमो इरेक्टस, शाकाहारी होने के साथ मांसाहारी भी था ।
    अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविघालय में कार्यरत ब्रिटिश मूल के प्रोफेसर रिचर्ड रैंगहैम ने इस विषय पर एक अलग तर्क प्रस्तुत किया है । उन्होंने अफ्रीका के जंगलों में लम्बे समय तक रह कर चिम्पैजियों का अध्ययन किया और उनका तर्क इन्हीं अध्ययनों पर आधारित है ।
    प्रोफेसर रैंगहैम का कहना है कि मनुष्य के मस्तिष्क के विकास का कारण केवल मांसाहार न होकर आग में पकाए गए भोजन का सेवन भी है । उनका कहना है कि आग पर सेंकने से भोजन में उपस्थित स्टार्च और प्रोटीन के अणुआें का पाचनप आसान हो जाता है और उससे इतना पोषण मिलता है कि वह शरीर और मस्तिष्क दोनों को शक्ति प्रदान करता है । इस सिद्धांत के अनुसार पूर्वजों की तुलना में आधुनिक मनुष्य के दांत छोटे और जबड़े कमजोर होना भी इस बता का प्रमाण है कि पकाने से भोजन नरम हो जाता है और उसे चबाने में कम जोर लगाना पड़ता    है ।
    कच्च्े भोजन की तुलना में पके हुए भोजन की कम मात्रा से अधिक पोषण प्राप्त् किया जा सकता है ओर इस कारण पकाने की शुरूआत होने पर मनुष्य के पूर्वजों को भोजन खोजने, चबाने और पचाने में कम समय लगने लगा । इस कारण मनुष्य की आहारनाल छोटी हो गई और अतिरिक्त पोषण से उसके मस्तिष्क का तेजी से विकास हुआ ।
    प्रोफेसर रैंगहैम यह भी मानते है कि आग पर नियंत्रण पा लेने से मनुष्य के लिए ठंड से बचाव करने और हिसंक पशुआें से अपनी सुरक्षा करना आसान हो गया । इस कारण उसके लिए पेड़ों पर रहने की बजाय जमीन पर रहना संभव हो पाया ।
    प्रोफेसर रैंगहैम के तर्क के विरोधी भी हैं । उनका कहना है मनुष्य के मस्तिष्क का विकास तो आग के आविष्कार से पहले शुरू हो गया था जब मनुष्य ने शाकाहार छोड़कर मृत जानवरों के शरीरों को खाना शुरू कर दिया था ।
    किन्तु प्रोफेसर रैंगहैम का कहना है कि पहली बात यह है कि इससे फर्क नहीं पडत्रता कि आग का पयोग मानव ने कब से करना शुरू किया । दूसरे, उनका यह भी कहना है कि केवल पकाने से ही भोजन की गुणवत्ता मेंबढ़ोतरी नहीं होती । मनुष्य ने भोजन को पकाने के साथ ही उसे औजारों की सहायता से काटना, कूटना और छीलना शुरू किया । इससे भोजन को पचाना और भी आसान हो गया ।
    इसे ले कर प्रोफेसर रैंगहैम के दो सहयोगियों कैथरीन जिंक और डेनियल लीबरमन ने एक रोचक प्रयोग किया जिसका विवरण उन्होंने नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया है । उन्होंने होमो इरेक्टस द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले पाषणकालीन औजारों के नमूने बनाए और उस प्रकार का भोजन चुना जो वह आदिमानव खाता रहा होगा । यानी कंदमूल (चुकंदर, गाजर आदि) और बकरे का मांस । इसके बाद वनस्पतियों को चार विधियों से बनाया गया - (१) बिलकुल कच्च्े रूप में बिना किसी उपचार के, (२) कच्च और पत्थर के हथोड़े से छह बार कूट कर, (३) कच्च और छोटे छोटे टुकड़ों में काट कर और (४) १५ मिनिट तक भुनकर । बकरे के मांस पर भी चार विधियों से उपचार किया गया - (१) बिलकुल कच्च बिना किसी उपचार के (२) कच्च और हथौड़े से पचास बार कुटा हुआ (३) कच्च और छोेटे-छोटे टुकड़ों में काटा हुआ, और (४) २५ मिनिट तक चूल्हे पर सिका हुआ ।
    खाने के सभी प्रकार वालंटियर्स के एक-एक समूह को खाने के लिए दिए गए और यह देखा गया कि चबाने के लिए कौन सा भोजन सबसे आसान है । इसके लिए वालंटियर्स के जबड़ों की त्वचा पर इलेक्ट्रोड लगाए गए थे जो यह नापते थे कि चबाने के लिए उस व्यक्ति को कितना जोर लगाना पड़ता है । वालंटियर्स से कहा गया कि वे दिए गए भोजन को तब तक चबाते रहे जब तक उन्हें यह महसूस न हो कि वह अब निगलने योग्य हो गया है । कभी-कभी चबाए गए भोजन को निगलने की अनुमति दी जाती थी और कभी-कभी उन्हें ये कहा जाता था कि वे भोजन को थूक दें ताकि चबाए हुए भोजन का विश्लेषण किया जा सके । कच्च्े मांस को हमेशा थूकने के लिए कहा जाता था ताकि किसी प्रकार का संक्रमण न हो ।
    डॉ. जिंक और डॉ. लीबरमन ने पाया कि उनके अवलोकन प्रोफेसर रैंगहैम के तर्क के अनुसार ही थे । कच्ची सब्जियों को चबाने की तुलना में पकाई हुई सब्जियों को उतनी ही मात्रा को चबाने के लिए एक-तिहाई कम बल लगाना पड़ता था । सब्जियों के टुकड़ें करने से कोई लाभ नहीं होता था किन्तु उन्हें कूटने पर लगभग ९ प्रतिशत कम बल लगाना पड़ता था । मांस को कुटने से कोई फर्क नहींपड़ता था किन्तु उसे काट कर टुकड़े करने से पड़ता था । पकाई हुई सब्जियों के समान ही उसमें एक-तिहाई कम बल लगाना पड़ता था ।
    एक आश्चर्यजनक अवलोकन यह रहा कि मांस को सेंकने पर उसे चबाने के लिए अधिक बल लगाना पड़ा । जब दोनों शोधकर्ताआें ने वालंटियर्स द्वारा निगलने के लिए तैयार, उगले हुए भोजन का निरीक्षण किया तो पाया कि बिना कोई प्रक्रिया किया हुआ और कूटा हुआ भोजन एक ऐसे बड़ें कौर के रूप मेंथा जिसे पचाना आहार नाल के लिए मुश्किल होता । इसके विपरीत, जब भोजन को काट कर उसके टुकड़े कर दिए जाते थे या उसे पकाया जाता था, वालंटियर्स उसे चबा कर छोटे-छोटे पाचन योग्य टुकड़ों के रूप मेंबदल सकते थे ।
    इन सब परिणामों को जोड़कर देखने पर डॉ. जिंक और डॉ. लीबरमन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक-तिहाई मांस के टुकड़े और दो-तिहाई कूटी हुई सब्जियां बिना पकाए चबाने के लिए (जो संभावतया होमो इरेक्टस खाया करते होंगे) केवल बिना कुटी हुई सब्जियां खाने की तुलना में २७ प्रतिशत कम बल लगाना पड़ता है ।
    इसका मतलब यह हुआ कि भोजन को केवल पकाने से ही नहीं बल्कि उसे काटने, छीलने और कूटने से पचाना आसान हो गया और उससे मस्तिष्क के विकास के लिए आवश्यक अतिरिक्त पोषण आदिमानव को मिलने लगा । इसका एक परिणाम यह सामने आया कि होमो इरेक्टस के जबड़े और दांत उसके पूर्वजों की तुलना में छोटे हो गए ।
पर्यावरण परिक्रमा
गंगा और यमुना को मिले इंसानों के अधिकार
    पिछले दिनों उच्च् न्यायालय ने गंगा और यमुना नदी को जीवित मानते हुए केन्द्र सरकार को इन्हें इंसानों की तरह अधिकार देने के निर्देश दिए है । अदालत ने पवित्र गंगा नदी को देश की जीवित इकाई के रूप में पहचान दी है ।
    कोर्ट ने केन्द्र से जल्द गंगा प्रबंधन बोर्ड बनाने के आदेश दिए   है । वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजीव शर्मा व न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खण्डपीठ में हरिद्वार निवासी मो. सलीम की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान यह आदेश दिया ।
    गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले ही न्यूजीलैंड ने उत्तरी द्वीप में बहने वाली वांगानुई नदी को एक जीवित संस्था के रूप में मान्यता देने वाले बिल पारित किया है । इसके बाद इस नदी को जीवित इकाई के रूप में मान्यता प्राप्त् हो गई है और उसे इंसानों के समान अधिकार मिल गए है ।
    शहरीकरण और बढ़ती आबादी के चलते पिछले दिनों दुनियाभर की नदियों के अस्तित्व पर खतरों को देखते हुए न्यूजीलैड ने अभूतपूर्व पहल की है । दुनिया में पहली बार इस देश ने अपनी एक नदी वांगानुई को इंसान का दर्जा दिया है। इसके तहत उसके पास इंसानी जैसे अधिकार होगें ।
    नदी को इंसान का दर्जा मिलने से भविष्य में वह अपने अधिकारों को संरक्षित कर सकती है। यदि कोई उसे प्रदूषित करता, उसके बेसिन पर अतिक्रमण करता, किसी अन्य प्रकार से नुकसान पहुंचाता    है तो वह उसे कोर्ट में घसीट सकती है । माओरो जनजाति द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि उसकी ओर से मुकदमा लड़ेगे ।
भारत में कम हुई खुशहाली, चार पायदान नीचे पहुंचा
    दुनिया का सबसे खुशहाल देश नॉर्वे है, जबकि १५५ देशों में भारत १२२ वें स्थान पर है । इस रैकिंग के बाद हमारा देश खुशहाली के मामले में चीन, पाकिस्तान और नेपाल से भी पिछड़ गया है । पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय खुशहाली दिवस पर जारी यह रिपोर्ट २०१२ के बाद से यह पांचवी रिपोर्ट है । वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट २०१७ में सबसे निचले पायदान पर सीरिया और यमन है । यानी इन देशों में सबसे कम खुशहाली है । अमेरिका की रैकिंग में गिरावट आई है । वह इस सूची में १४वें स्थान पर रहा । इसकी वजह असमानता व भ्रष्टाचार का माना जा रहा है ।
    वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट २०१७ तैयार करने वाले सस्टेनलेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क (एसडीएसएन) के डायरेक्टर जैफरी एस.के. मुताबिक, खुशहाल देश वह है जहां खुशहाली, समाज में आपसी भरोसा, लोगों के बीच बराबरी और सरकार पर भरोसा ज्यादा है और इन सभी के बीच अच्छा संतुलना है । इस सालाना रिपोर्ट का मकसद सरकारों और सिविल सोसायटी को खुशहाली के बेहतर तरीके बताना है ।
    इन छह पैमानों पर नापी जाती है खुशहाली - प्रतिव्यक्ति जीडीपी, सामाजिक प्रोत्साहन, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा, जीवन चुनने की आजादी, उदारता और भ्रष्टाचार ।
कमजोर हो सकता है इस वर्ष मानसून
    स्काइमेट के मुताबिक २०१७ में एक बार दक्षिण पश्चिम मानसून कमजोर रहने वाला है । मौसम एजेंसी के मुताबिक २०१७ में भारत के लिए यह खास मानसून लंबी अवधि के औसत का ९५ फीसदी रह सकता है । मौसम विभाग के मुताबिक कमजोर मानसून एक बार फिर देश में खरीफ बुआई के लिए बुरी खबर बन कर आ सकता है । देश में जून से सितम्बर तक होने वाली बारिश खरीफ फसल के लिए अहम है । देश में ६० फीसदी से अधिक लोग कृषि पर निर्भर है और देश के अधिकांश भाग मेंखरीफ फसल पूरी तरह से दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है ।
    मौसम एजेंसी के मुताबिक कमजोर मानसून के लिए इस बार अल नीनो जिम्मेदार है । एक बार फिर से अल-नीनो डराने लगा है । प्रशांत महासागर से मिल रहे संकेत को देखते हुए लग रहा है कि एक बार अल नीनो का खतरा बढ़ रहा   है । ऑस्ट्रेलिया मौसम विभाग के मुताबिक अल-नीनो बढ़ने से एशिया में सूखा और दक्षिण अमेरिका में भारी बारिश की संभावना बन रही   है । एजेंसी के मुताबिक कम से कम ६० फीसदी अल-नीनो की संभावना है । अल-नीनो का असर जुलाई से देखनो को मिल सकता है । लिहाजा मौसम एजेंसी की मानें तो २०१६ में अच्छे मानसून से मजबूत खरीफ फसल के बाद एक बार फिर २०१७ में खराब मानसून की आशंका है ।
    स्काइमेट के मानसून पूर्वानुमान में कहा गया है कि जून में औसत के मुकाबले १०२ प्रतिशत बारिश हो सकती है । ७० प्रतिशत संभावना सामान्य बारिश की है । २० प्रतिशत संभावना सामान्य से अधिक बारिश की है । १० प्रतिशत संभावना सामान्य से कम बारिश की है । जुलाई में औसत के मुकाबले ९४ प्रतिशत बारिश हो सकती है । ६० प्रतिशत संभावना सामान्य बारिश की है । १० प्रतिशत संभावना सामान्य से अधिक बारिश की है । ३० प्रतिशत संभावना सामान्य से कम बारिश की है ।
    अगस्त में औसत के मुकाबले ९३ प्रतिशत बारिश हो सकती है । ६० प्रतिशत संभावना सामान्य बारिश की है । ३० प्रतिशत संभावना सामान्य से कम बारिश की है ।
    स्कायमेट के मुताबिक मध्य भारत मेंे मानसून जून के दूसरे हफ्ते   तक पहुंचता है । वहीं २१-२४ जून तक उत्तर भारत में मानसून पहूंचने की संभावना रहती है । मौसम विशेषज्ञ के मुताबिक इस बार मानसून ५६ फीसदी तक कम रह सकता है ऐसे में खरीफ फसलों की कीमतों में तेजी आ सकती है ।
सबसे कम पढ़ी-लिखी महिलाआें वाले राज्य
    मध्यप्रदेश को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर एक ओर खराब तस्वीर सामने आई है जो महिला साक्षरता को लेकर है । यहां ४० फीसदी से ज्यादा महिलाएं अभी भी अनपढ़ है । यानी सिर्फ ५९.२४ फीसदी महिलाएं ही शिक्षित है । यह स्थिति तब है जब महिला साक्षरता का राष्ट्रीय औसत करीब ६५ फीसदी है । यानी राष्ट्रीय औसत से भी मध्यप्रदेश करीब छह फीसदी नीचे है ।
    महिला साक्षरता को लेकर यह खुलासा मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा संसदीय समिति को उपलब्ध कराई गई रिपोर्ट में सामने आया है। इसमें मध्यप्रदेश सहित देश के दस राज्यों की महिला साक्षरता दर को काफी खराब माना गया है । इनमें मध्यप्रदेश आठवे स्थान पर है, जहां यह दर करीब ५१ फीसदी है । यानी ४९ फीसदी महिलाएं अभी भी अनपढ़ है । रिपोर्ट में दूसरे स्थान पर राजस्थान है, जहां करीब ४८ फीसदी महिलाएं अशिक्षित है । तीसरे स्थान पर झारखंड है, जहां करीब ४५ फीसदी महिलाएं अनपढ़ है । मालूम हो, महिला साक्षरता पर यह रिपोर्ट वर्ष २०११ की जनगणना के आधार पर तैयार की गई है ।
नरवाई जलाने से खत्म होती हैंभूमि की उर्वरा क्षमता
प्रतिवर्ष रबी कटाई के बाद किसान खेतों में नरवाई जला देते   हैं । इससे होने वाले नुकसान में मिट्टी में मौजूद पोषक तत्व एवं मिट्टी की उर्वरा क्षमता को खत्म हो जाना है । साथ ही इससे जमीन बंजर हो रही   है । नरवाई जलाने से आसपास के वातावरण का ताप बढ़ने लगता है । इससे विभिन्न प्रकार की गैसे निकलती है जो कि ग्लोबल वार्मिग के लिए उत्तरदायी है । इसका परिणाम वर्तमान मेंहम जलवायु परिवर्तन के रूप में देख रहे है । साथ ही पशुआें को प्राप्त् होने वाला भूसा भी नहीं बचता है ।
    नरवाई जलाने से मिट्टी में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने वाले कार्बनिक पदार्थ में कमी आ जाती है । ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि फसल कटाई के उपरांत जो फसल अवशेष रह जाते हैं, उनका उचित तरीके से प्रबंधन किया जाना  चाहिए ।
    म.प्र. में ऐसे क्षेत्रों में विशेष जागरूकता अभियाना चलाया  जाएगा । फसल कटाई कार्य प्रारंभ करने के पूर्व नरवाई जलाने वाले क्षेत्रों को चिन्हित क्षेत्र के किसानों को नरवाई जलाने से होने वाले नुकसान से अवगत कराया जाएगा । साथ ही फसल अवशेषों के प्रबंधन से होने वाली संभावित आय के बारे   में व्यापक रूप से प्रचार - प्रसार    कर जागरूकता अभियान चलाया जाएगा ।
    क्षेत्रों में कंबाईन हार्वेस्टर से फसल कटाई की जाती है, वहां हार्वेस्टर के साथ स्ट्राटीपर एवं रीपरकम बाइंडर के उपयोग की सलाह दी है । जिससे फसल को काफी नीचे से काटा जा सकता है । ऐसे में नरवाई जलाने की आवश्यकता नहीं होती है । उन्होंने बताया कि खेती की गहरी जुताई रिवर्सिबल प्लाऊ तथा हेप्पीसीडर, जीरो टीलेज सीडड्रिल से बोवनी एवं रोटावेटर चलाकर फसल अवशेष मिट्टी में मिलाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है । इन यंत्रों के उपयोग से फसल अवशेषों को मिट्टी में ही मिलाया जा सकेगा, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति में बढ़ोत्तरी होगी और उत्पादन में भी वृद्धि होगी ।
ग्रामीण जगत
हम और हमारा पर्यावरण
अरूण तिवारी
    प्रकृति का एक नियम है कि हम उसे जो देंगे, वह हमें किसी न किसी रूप में उसे लौटा देगी । सभी जानते हैंकि हमारे उपयोग की वस्तुएं जितनी कुदरती होंगी, हमारा पर्यावरण उतनी ही कुदरती बना रहेगा या बावजूद इसके दिखावट, सजावट और स्वाद के चक्कर में हम अपने खपत सामग्रियों में कृत्रिम रसायनों की उपस्थिति बढ़ाते जा रहे हैं।
    गौैर कीजिए कि कुदरती हवा को हम सिर्फ धुआं उठाकर अथवा शरीर से बदबूदार हवा छोड़कर खराब नहीं करते । ऐसी हजारों चीजें और प्रक्रियाएं हैं, जिनके जरिये हम कुदरती हवा में मिलावट करते हैं ।  होठों पर लिपस्टिक, गालों में क्रीम-पाउडर, बालों में मिनरल ऑयल युक्त तेल-शैंपू-रंग, शरीर पर रासायनिक इत्र अपनी रोजमर्रा की जिंदगी मंे कृत्रिम रसायन की ऐसी चीजों की सूची बनाइये । फिर सोचिए कि धुएं के अलावा हम कितनी चीजों के जरिये भी हवा में मिलावट करते हैं । 
     भोजन पर निगाह डालिए । नाश्ते-लंच के हमारे मीनू में तसल्ली से बने घर के भोजन से ज्यादा रेडी, टु ईट शामिल हो गया है। घर में बनाए तो भी गारंटी नहीं । सब्जी है, तो रंगी हुई, दवा छिड़कर कीड़ों से बचाई हुई । दाल है तो पॉलिश की हुई, आम है तो कार्बेट से पकाया हुआ, तेल है तो रसायन डालकर रिफाइंड किया हुआ । दूध-घी तो छोड़िए, जानवरों का चारा तक प्राकृतिक नहीं रहा । अंग्रेजी दवा पद्धति ने बाजार के साथ मिलकर देशी-कुदरती भारतीय दवा पद्धतियों से हमें दूर कर दिया है । नैचुरल और हर्बल टेग के साथ आ रहे बाजारू सामान ही नहीं, खुद अपने खेतों के बोई फसल को अब आप पूरी तरह प्राकृतिक नहीं कह सकते । हरित क्रांति ने भारत के गोदाम भरे, लेकिन उपज के प्राकृतिक होने की गारंटी छीन ली । हमने मिट्टी तो मिट्टी, जल वायु तक में मिलावट की है ।
    नदियों, तालाबों और धरती की शिराओं में जल के कुदरती होने की गारंटी तो हम कब की छिन   चुके । इस छीन ली गई गारंटी का नतीजा यह है कि अब हम इस बात की गारंटी कतई नहीं दे सकते कि ताकत और पौष्टिकता के नाम पर खाया-खिलाया गया पदार्थ हमें सेहतमंद ही बनायेगा । फलों-मेवों में छिपकर बैठे कृत्रिम रसायन हमारे शरीर में घुसकर हमारे शरीर का खेल बिगाड़ देंगे, यह आशंका अब हरदम है। खुली हवा में सांस लेना अब स्वस्थ बनाने से ज्यादा, बीमार बनाने का नुस्खा हो गया है ।
    सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम चाहकर भी अपने खान-पान, सांस-हवा को कुदरती नहीं बना पा  रहे । ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है क्योंकि हम न इलाज पर ठीक से ध्यान दे रहे हैं और न रोकथाम   पर । मीडिया मंे कहा गया कि सबसे बड़ा खतरा तो फसलों के अवशेष जलाने से है। फसल कटने के बाद अवशेष को जलाने पर रोक भी लगा दी गई । किसान कहते हैं कि हाथ से कटाई महंगी, मुश्किल और अधिक समय खाने वाली होती जा रही है। डिजाईन करने वालों ने कटाई मशीनें ऐसी डिजाईन की हैं, जिनसे भूसा-पुआल कम मिलता है और धान-गेहूं की ज्यादा डंठल खेत मंे ज्यादा छूट जाती है । उसे सड़ाने के लिए पर्याप्त पानी भी चाहिए और समय भी । यदि धान की फसल देर से तैयार हो और उसी खेत में अगली फसल बोने का समय निकला जा रहा हो, तो बचे हुए को खेत में सड़ाना संभव नहीं होता। इसलिए फसलों के बचे हुए को जलाने की मजबूरी है।
    दूसरी मजबूरी समझिए । खेतों में नये-नये तरह के खरपतवार ज्यादा पैदा हो रहे हैं । किसान या तो उन्हंे जलाये या फिर रसायन छिड़क कर नष्ट कर दे । दोनांे ही तरीके कुदरती नहीं हैं । तीसरी मजबूरी यह है कि अलाव जलाये बगैर गांव में  ठंड काटना मुश्किल है। चूल्हे के   लिए सबसे सहज, सुलभ और स्वावलंबी ईंधन अभी भी लकड़ी-उपला ही हैं। इसे अचानक रोका नहीं जा सकता ।
    यह सही है कि ये सब हवा में मिलावट के काम हैं । कुदरती होना ही गांवों का गुण है और शक्ति भी । गांव की इस शक्ति का क्षरण होना शुरु हो चुका है। इसे नकार नहीं सकते । किन्तु यहां यह भी सही है कि गांववासी हवा में जितनी मिलावट करते हैं, उससे कहीं ज्यादा उसकी कुदरती तत्व अपनी हरी-हरी फसलों और बगीचों के जरिये हवा को लौटा देते है । अत: जरूरी है कि गांव क्या कर सकता है, उसे बतायें, लेकिन इस उपदेश की आड़ में एयरकंडीशनर, फ्रिज, गर्म धुआं छोड़ते वाहनों, उद्योगों, नदियों-झीलों में मिलावट के जरिये हवा में मिलावट करने वाली बजबजाती नालियों,  ठोस कचरायुक्त नालों और बांधों के जलाश्यों जैसे बड़े मिलावट खोरों को भूल न जायें । इन ज्यादा खतरनाक मिलावटखोरों पर रोक का दिखावा ज्यादा है, संजीदा कोशिश कम । यही वजह है कि हवा को हम कुदरती बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रहे । 
    जब से रासायनिक उर्वरकों का उपयोग होने लगा, देसी घी में सुगंध नहीं रही, दाल-सब्जियों का अपना स्वाद नहीं रहा, अनाज में मिठास नहीं रही, गांव के नये पट्ठों में भी उतना दम नहीं रहा, अत: अब साठा सो पाठा की कहावत भी सटीक नहीं रही । ऐसी चर्चा हमारी बतकही में आम हैं । 
    किसान यह भी अनुभव कर रहा है कि पिछली बार की तुलना में अगली बार अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरक न डाला जाये, तो उपज कम होती जाती है । जैविक खाद की तुलना में रासायनिक उर्वरक का उपयोग करने रहने पर सिंचाई में पानी ज्यादा लगता है। पहले चना, मटर, सरसों बिना सिंचाई के हो जाती थी । इनकी फसल के दौरान आसमान से उतरी एक- आध फूहार ही इनके लिए काफी होती थी । किंतु अब ये फसलें भी कम से कम एक सिंचाई चाहती हैं । रासायनिक उर्वरकों के कारण मिट्टी के बंधे ढेलों के टूट जाते हैं । लिहाजा ऊपरी मिट्टी में पानी सोखकर रखने की क्षमता कम हो जाती है । परिणाम स्वरूप, ऊपरी परत में नमी बहुत जल्दी गायब हो जाती है। किसानों को इन सीधे नुकसानों का आभास है । उन्हांेने जैविक खेती की चर्चा भी सुनी है, किंतु वह जैविक खेती अपनाने के लिए तेजी से आगे नहीं आ रहा । क्यों? मैंने जानने की कोशिश की ।
    किसानों से बातचीत के दौरान स्पष्ट हुआ कि वे केचुंआ खाद, कचरा कम्पोस्ट आदि से परिचित नहीं है। गोबर गैस प्लांट उनकी पकड़ में नहीं है । हरी खाद पैदा करने के लिए हर साल जो अतिरिक्त खेत चाहिए, उनके पास उतनी जमीन नहीं है। जिला कृषि कार्यालय के अधिकारी-कर्मचारी गांव में आते-जाते नहीं । सच यही है कि जैविक खेती के सफल प्रयोगों की भनक देश के ज्यादातर किसानों को अभी भी नहीं है । जैविक प्रमाणपत्र और प्रमाणित करने की प्रक्रिया से तो वे बिल्कुल ही वे वाकिफ नहीं हैं । 
    भारत के ज्यादातर किसान जैविक खेती की व्यावहारिकता को लेेकर इसी स्थिति में हैं । जरूरी है कि उन्हंे जैविक खेती के सफल प्रयोग, तकनीक और अनुभवों से उनका सीधे साक्षात्कार कराया जाये । यदि हम चाहते हों कि हमारी खेती कुदरती हो जाये, तो हमारी कृषि वैज्ञानिक, अधिकारी और सरकारें उर्वरक तथा बाजारू बीज कंपनियों की एजेंट बनने का भूमिका त्यागें । किस प्राकृतिक खाद-पदार्थ में कौन सा रसायन है ? किस प्राकृतिक पदार्थ को सीधे अथवा सिंचाई के माध्यम से खेत की मिट्टी में मिलाने से मिट्टी की जरूरत के हिसाब से किस रसायन की पूर्ति की जा सकती है ?  
    हमारे बाजार, हमारी जीवनशैली, हमारी तात्कालिक जरूरतें, हमारी सरकारें, हम खुद..... निस्संदेह, चुनौतियां बहुत हैं। खेती, माटी, जल, हवा को फिर से १०० फीसदी कुदरती बनाना इतना आसान नहीं है। किंतु किसी एक पहलू से व्यापक शुरुआत तो की जा सकती है। किसानों को भी चाहिए कि वे सरकार की ओर ताकने की बजाय,अपना बीज,अपनी खाद, अपनी दवाई, अपना चारागाह, अपना तालाब, बचाने के काम खुद शुरु करे। पंचायतों को इसके सामूहिक प्रयास शुरु करने चाहिए।
ज्ञान-विज्ञान
मौसम की विकरालता शिखर को छू रही है
    वैश्विक मौसम विज्ञान संगठन का मत है कि जलवायु व मौसम की अति परिस्थितियां २०१७ में भी जारी है । वर्ष २०१६ में विश्व का औसत तापमान औघोगिकरण से पूर्व के समय की अपेक्षा १.१ डिग्री सेल्सियस अधिक रहा था और इसने २०१५ के रिकॉर्ड को तोड़ दिया  था । 
     पिछले वर्ष समुद्र असामान्य रूप से गर्म रहे थे । इसके कारण बर्फ पिघलने की गति में तेजी देखी गई ।  आर्कटिक सागर में बर्फ लगभग पूरे साल औसत से कम रहा । इसके साथ ही दक्षिणी व पूर्वी अफ्रीका तथा मध्य अमेरिका में भीषण सूखे की स्थिति बनी रही । ऐसी ही इन्तहाई परिस्थितियां २०१७ में जारी हैं आर्कटिक क्षेत्र में जाड़े के दिनों में वहां के लिहाज से तीन बार ग्रीष्म लहर चली है । आर्कटिक में हुए परिवर्तनों का असर अन्य स्थानों के मौसम पर भी हुआ है । कनाडा व यूएस में मौसम गर्म रहा जबकि अरब प्रायद्वीप और उत्तरी अफ्रीका में असामान्य रूप से ठंड के हालात बने रहे । इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों में जनवरी व फरवरी में ग्रीष्म लहर चलती   रही ।
    और तो और २०१६ के एल नीनो का असर समाप्त् होने तथा २०१७ में एल नीनो की अनुपस्थिति के बावजूद मौसम में अजीबोगरीब परिवर्तन देखे जा रहे हैं । एल नीनो प्रशांत महासागर की एक स्थिति है जिसकी वजह से विश्व का तापमान बढ़ता है । २०१६ में एल नीनो की वजह से तापमान में वृद्धि ०.१ से ०.२ डिग्री सेल्सियस के बीच हुई थी । विश्व मौसम विज्ञान संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक २०१६ अब तक के रिकॉर्ड आंकड़ों के हिसाब से सबसे गर्म वर्ष रहा था - यह वर्ष औघोगिकरण से पूर्व की तुलना में पूरे १.१ डिग्री सेल्सियस गर्म रहा ।
    धरती के वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साईड की मात्रा में वृद्धि जारी है और यह औसत तापमान की वृद्धि में योगदान दे रही है । इससे यह भी स्पष्ट है कि वर्तमान मौसम परिवर्तन के रूझानों के पीछे मुख्य रूप से मनुष्य के क्रियाकलापों की भूमिका है ।
    विश्व स्तर पर देंखे तो समुद्री बर्फ की मात्रा नवम्बर २०१६ में औसत से लगभग ४० लाख वर्ग किलोमीटर कम थी । जाड़ों के अंत में आर्कटिक सागर पर बर्फ १९७९ के बाद से सबसे कम स्तर पर रहा । नवम्बर २०१४ के मुकाबले फरवरी २०१६ में समुद्र तल १५ मिली मीटर ऊपर रहा । यह पिछले वर्षो में देखी गई औसत वृद्धि (३ से ३.५ मि.मी.) से बहुत ज्यादा है । समुद्रों का पानी गर्म बना हुआ है जिसकी वजह से मूंगा सहित विभिन्न समुद्री जीव प्रभावित हो रहे हैं ।
    जहां एक ओर दक्षिण अफ्रीका में ओर अमेजन कछार तथा ब्राजील में सूखे की स्थिति रहीं वहीं चींन की यांगत्से नदी घाटी में भयानक बाढ़ का नजारा बना रहा ।
    कुल मिलाकर २०१७ में भी हमें इन्तहाई मौसम की घटनाएं देखने को मिल सकती है । विशेषज्ञों के मुताबिक अब हम एक ऐसे धरातल पर पहुंच गए है जिसके भूगोल का हमें तनिक भी अंदाज नहीं है ।
मक्का की उपज अधिक धूप के कारण बढ़ी है
    आम तौर पर मानकर चला जाता है कि पिछले तीन दशकोंमें संयुक्त राज्य अमेरिका में मक्का की उपज में जो वृद्धि हुई है वह नई कृषि तकनीकोंके कारण हुई है । इनमें बेहतर बीज तथा रासायनिक उर्वरक प्रमुख घटक रहे हैं । मगर ताजा अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि मक्का की उपज में वृद्धि का एक बड़ा कारण वहां धरती पर पड़ने वाली धूप की मात्रा में वृद्धि भी है ।
     गौरतलब है कि पौधे सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का उपयोग कार्बन डाईऑक्साइड और पानी से कार्बोहाइड्रेट बनाने में करते हैं । इस प्रक्रियाको प्रकाश संश्लेषण कहते    हैं । इस प्रक्रियाकी कार्य क्षमता कई कारकों के अलावा प्रकाश की मात्रा पर भी निर्भर होती है ।
    नेचर क्लाइमेट चेंज नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक १९८४ से २०१३ के बीच यूएस के मक्का उत्पादक क्षेत्र मेंउपज में वृद्धि का कम से कम २७ प्रतिशत हिस्सा प्रकाश कि मात्रा में वृद्धि के फलस्वरूप हुआ है । यह बात कई शोधकर्ता कहते आए हैं कि पश्चिमी देशों में कृषि उपज में वृद्धि का एक कारण यह रहा है कि वहां धरती तक पहंुचने वाली धूप में वृद्धि हुई है । धूप में वृद्धि का कारण यह बताते हैं कि १९८० के दशक से इन देशों में स्वच्छ हवा सम्बंधी कानून लागू किए गए थे जिसकी वजह से यहां की हवा में निलंबित कणों(एयरोसॉल) की मात्रा में कमी आई है । ऐसे निलंबित काण सूर्य के प्रकाश को सोखते हैं या छितरा देते हैं जिसकी वजह से जमीन पर पर्याप्त् प्रकाश नहीं पहुंच पाता ।
    इस उपज वृद्धि में एक समस्या भी छिपी है । जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुमान लगाते समय यह माना जाता है कि जब तापमान बढ़ेगा तो कृषि उपज बढ़ेगी किंतु वह तो पहले ही बढ़ चुकी है । इसलिए शायद जलवायु परिवर्तन के विभिन्न मॉडल्स द्वारा उपज में जितनी वृद्धि के अनुमान लगाए जा रहे हैं वह वास्तव में नहीं होगी ।
मकड़ियां मनुष्यों से दुगना खाती हैं
    संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन का अनुमान है कि हम सारे मनुष्य मिलकर एक साल में ४० करोड़ टन मांस-मछली खाते  हैं । इसकी तुलना में दुनिया भर की मकड़ियां मिलकर एक साल में ८० करोड़ टन तक शिकार को मार डालती हैं । यह निष्कर्ष स्विटजरलैण्ड और स्वीडन के शोधकर्ताआें ने बेसल विश्वविद्यालय के मार्टिन नायफलर के नेतृत्व में निकाला है । 
     दुनिया भर में मकड़ियों की करीब ४५ हजार प्रजातियां हैं जिनका कुल वजन २.५ करोड़ टन के आसपास है । इन मकड़ियों की कुल खुराक दुनिया की सारी व्हेलोंकी कुल खुराक से भी ज्यादा है, जो प्रति वर्ष करीब ५० करोड़ टन खाद्य साम्रगी  का भक्षण करती है । मकड़ियों का मुख्य भोजन तो कीट (कीड़े-मकोड़े) हैं किंतु कभी-कभार ये मेंढ़कों, छिपकलियों, मछलियों और अन्य छोटे जंतुआें का शिकार करने से भी नहीं चूकतीं है । इनकी भोजन करने की क्षमता को देखते हुए शोधकर्ताआें का कहना है कि पृथ्वी पर कीटों का सफाया करने में इनकी भूमिका सर्वोपरि हैं । चीटियों और पक्षियों के साथ मिलकर ये धरती पर कीट आबादी को  सीमित रखने का महत्वपूर्ण काम करती है ।
    शोधकर्ताआें ने यह भी दर्शाया है कि मकड़ियां यह काम खेतों की बजाय जंगलों और घास के मैदानों में ज्यादा कुशलता से करती हैं क्योंकि हमारे खेतों का इतना सघन प्रबंधन होता है कि वहां का वातावरण मकड़ियों के लिए उपयुक्त नहीं रह जाता ।
    शोधकर्ताआें को उम्मीद है कि उनका यह अध्ययन और इसके निष्कर्ष थलीय खाद्य श्रृखंला में मकड़ियों की महत्वपूर्ण भूमिका के प्रति जागरूकता बढ़ाने में सफलता प्राप्त् करेगा ।
विरासत
आदिवासी-संस्कृति और पर्यावरण
गोवर्धन यादव

    भारत में करीब तीन हजार की संख्या में विभिन्न जातियों और उप-जातियों निवास करती है, सभी का रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं परम्पराएं अपना विशिष्ट विशेषताआें को दर्शाती है ।
    कई जातियाँ मसलन - गौड़, भील, बैगा, भारिया, आदि जंगलों में आनादिकाल से निवास करती आ रही है । सभी की आवश्यकताआें की पूर्ति जंगलों से होती है । इन जातियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक एवं कुटुम्ब व्यवस्था की अपनी अलग पहचान रही है ।
    इन लोगों में वन-संरक्षण करने की प्रबल वृत्ति है, अत: वन एवं वन्य जीवों से उतना ही प्राप्त् करते हैं जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके और आने वाली पीढ़ी को भी वन-स्थल धरोहर के रूप में सौंप सके । इन लोगों में वन संवर्धन, वन्य जीवों एवं पालूत पशुआें का संरक्षण करने की प्रवृत्ति परम्परागत है । इस कौशल दक्षता एवं प्रखरता के फलस्वरूप आदिवासियों ने पहाड़ों, घाटियों एवं प्राकृतिक वातावरण को संतुलित बनाए रखा । 
     स्वतंत्रता से पूर्व समाज के विशिष्ट वर्ग एवं राजा-महाराजा भी इन आदिवासी क्षेत्र से छेड़-छाड़ नहीं करते थे लेकिन अंग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों की परम्परागत व्यवस्था को तहस-नहस कर डाला, क्योंकि यूरोपीय देशों में स्थापित उद्योगों के लिए वन एवं वन्य-जीवों पर कहर ढा दिया, जब तक आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक वातावरण मेंभी कम कहर नहीं ढाया । इनकी उपस्थिति से उनके परम्परागत जीवन मूल्यों एवं सांस्कृतिक स्थिति में गिरावट आयी है । साफ-सुथरी हवा में विचरने वाले, जंगल में मंगल मनाने वाले इन भोले-भाले आदिवासियों के जीवन में जहर सा घुल गया है ।
    आज इन आदिवासियों को पिछड़ेपन, अशिक्षा, गरीबी, बेकारी एवं वन-विनाशक के प्रतीक के रूप मेंदेखा जाने लगा है । उनकी आदिम संस्कृति एवं अस्मिता को चालाक और लालची उद्योगपति खुले आम लूट रहे हैं । जंगल का राजा अथवा राजकुमार कहलाने वाला यह आदिवासी जन आज दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करता दिखलायी देता हैं । चंद सिक्को में इनके श्रम-मूल्य की खरीद-फरोख्त की जाती है और इन्हीं से जंगल के पेड़ो और जंगली पशु-पक्षियों को मारने के लिए अगुवा बनाया जाता है । उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी कि पीढ़ी से वे जिन जंगलों में रह रहे है थे, उनके सारे अधिकरों को ग्रहण लग   जाएगा । विलायती हुकूमतने सबसे पहले उनके अधिकारोंपर प्रहार किया और नियम प्रतिपादित किया कि वनों की सारी जिम्मेदारी और कब्जा सरकार का रहेगा और यह परम्परा आज भी बाकायदा चली आ रही है ।
    वे अब भी झूम खेती करते है । पेड़ो को जलाते नहीं है, जिसके फलों की उपयोगिता है । महुआ का पेड इनके लिए किसी कल्पवृक्ष से कम नहीं है । जब इन पर फल पकते है तो वे इनका संग्रह करते हैं और पूरे साला इनसे बनी रोटी खाते है । इन्हीं फलों को सडाकर वे उनकी शराब भी बनाते है । शराब की एक घूंट इनमें जंगल में रहने का हौसला बढ़ाती है ।
    देश की स्वतत्रंता के उपरान्त पंचवर्षीय योजनाआें की स्थापनाएं, बुनियादी उद्योगों की स्थापनाएं एवं हरित क्रांति जैसे घटकों के आधार पर विकास की नींव रखने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों ने हड़बड़ाहट में एकानामी एवं एकालाजी के सह-संबंधों को भूल जाने की प्रवृति के चलते, हमारे सम्मुख पारिस्थितिकी की विकट समस्या पैदा कर दी है । यह समझ से परे है कि विकास के नाम पर आदिवासियोंको विस्थापित कर उन्हें घुम्मकड़ श्रेणी में ला खड़ा कर दिया है और द्रुतगति से वनों की कटाई करते हुए बड़े-बड़े बांधों का निर्माण करवा दिया है ।  यह भी सच है कि हमें विश्व संस्कृति के स्तर देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाते हुए समानान्तर स्तर पर लाना है, लेकिन अरण्य संस्कृति को विध्वंश करके किये जाने की परिकल्पना कालान्तर मेंलाभदायी सिद्ध होगी, ऐसा सोचना कदापि उचित नहीं माना जाना चाहिए ।
    हमें अपने परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक परम्पराआें का विनाश न करते हुए आदिवासियों की वन एवं एवं वन्य-जीव संस्कृति को बगैर छेड़-छाड़ किए संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए । एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापन, न तो आदिवासियों को भाता है और न ही वन्य जीव-जन्तुआें को, लेकिन ऐसा बड़े पैमाने पर हो रहा है, इस पर अंकुश लगाए जाने की जरूरत है । अगर ऐसा नहीं किया गया तो निश्चित जानिए कि वनों का विनाश तो होगा ही, साथ ही पारिस्थितिकी असंतुलन में भी वृद्धि होगी । अगर एक बार संतुलन बिगड़ा तो सुधारे सुधरने वाला नहीं हैं ।
    संविधान में आदिवासियों को यह वचन दिया गया है कि वे अपनी विशिष्ट पहचान को बनाए रखते हुए राष्ट्र की विकासधारा से जुड़ सकते   हैं । अत: कडा निर्णय लेते हुए सरकार को आगे आना होगा, जिससे उनकी प्राकृतिक संस्कृति पर कोई प्रतिकूल असर न पडे ।
    हम सब जानते है कि उनकी भूमि अत्याधिक उपजाऊ नहीं है और न ही खेती के योग्य है । फिर भी वे वनोंमें रहते हुए वनों के रहस्य को जानते हैं और झूम पद्धति से उतना पैदा कर ही लेते हैं, जितनी कि उन्हें आवश्यकता होती हैं । यदि इससे जरूरतें पूरी नहीं हो सकती तो वे महुआ को भोजन के रूप में ले लेते हैं या फिर आम की गुठलियों को पीसकर रोटी बनाकर अपना उदर-पोषण कर लेते हैं, लेकिन प्रकृतिसे खिलवाड़ नहीं करते । रि वे हर पौधे-पेड़ों से परिचित भी होते हैं, कि कौनसा पौधा किस बीमारी में काम करती है, को भी संरक्षित करते चलते हैं ।
    विंध्याचल-हिमालय व अन्य पर्वत शिखर हमारी संस्कृतिके पावन प्रतीक हैं, इन्हें भी वृक्षविहीन बनाया जा रहा है, क्योंकि वनवासियों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा सके । इन पहाड़ियों पर पायी जाने वाली जड़ी बूटियां, इंर्धन, चारा एवं आवश्यकतानुसार इमारती लकड़ी प्रचूर मात्रा में प्राप्त् होती रहे । आदिवासियों को जंगल धरोहर के रूपमें प्राप्त् हुए थे, वे ही ठेकेदारों के इशारे पर जंगल काटने को मजबूर हो रहे हैं । यद्यपि पर्वतीय क्षेत्रों में अनेकों विकास कार्यक्रम लागू किए जा रहे हैं लेकिन उनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूप से उन्हें फायदा होने वाला नहीं है ।
    आदिवासियों को संरक्षण प्राप्त् नहीं होने से केवल वन संस्कृति एवं वन्य-जीव सुरक्षा का ही हास नहींहो रहा है बल्कि देश की अखण्डता को खंडित करने वाले तत्व अलग-अलग राज्यों की मांग करने को मजबूर हो रहे हैं । इन सबके पीछे आर्थिक असंतुलन एवं पर्यावरण असंतुलन जैसे प्रमुख कारण ही जड़ में मिलेंगे ।
    हमारे देश की अरण्य संस्कृति अपनी विशेषता लिए हुए थी, जो शनै:-शनै: अपनी हरीतिमा खोती जा रही हैै । जहाँ-कहीं के आदिवासियोंने अपना स्थान छोड़ दिया है, वहाँ के वन्य-जीवों पर प्रहार हो रहे हैं, बल्कि यह कहा जाए कि वे लगभग समािप्त् की ओर हैं, उसके प्रतिफल में सूखा पड़ने या कहें अकाल पड़ने जैसी स्थिति की निर्मित बन गई हैं । फिर सरकार को करोड़ो रूपया राहत के नाम पर खर्च करने होते हैं । लाखों की संख्या में बेशकीमती पौधे रोपने के लिए दिए जाते हैं, लेकिन उसके आधे भी लग नहीं पाते । यदि लग भी गए तो पर्याप्त् पानी और खाद के अभाव में मर जाते है । जब शहरों के वृक्ष सुरक्षित नहीं है तो फिर कोसो दूर जंगल में उनकी परवरिश करने वाला कौन है ? हम अपने पडौस के देशों में जाकर देखें, उन्होंने प्रभावी ढंग से सफलतापूर्वक अनुकरणीय कार्य किया है और पेड़ों की रक्षा करते हुए हरियाली को बचाए रखा है ।
    जब आदिवासियों से वन-सम्पदा का मालिकाना हक छीनकर केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के हाथों में चले जाएंगे तो केवलविकास के नाम पर बड़े-बड़े बांध बांधे जाएंगे और बदले में उन्हें मिलेगा बांधो से निकलने वाली नहरें, नहरों के आसपास मचा दलदल और भूमि की उर्वरा शक्ति को कम करने वाली परिस्थिति और विस्थापित होने की व्याकुलता और जिन्दगी भर की टीस, जो उसे पल-पल मौत के मुंह में ढकेलने के लिए पर्याप्त् होगी ।
    आदिवासी क्षेत्रों में होने वाले विध्वंस से जलवायु एवं मौसम में परिवर्तन द्रुत गति से हो रहा है । कभी भारत में ७०% भूमि वनों से आच्छादित थी, आज घटकर २०-२२ प्रतिशत रह गई है । वनों के लिए यह चिंता का विषय है । वनों की रक्षा एवं विकास के नाम पर पूरे देया में अफसरों और कर्मचारियों की संख्या में बेतरतीब बढ़ौतरी हुई हैं, उतने ही अनुपात में वन सिकुड रहे हैं । सुरक्षा के नाम पर गश्ती दल बनाए गए हैं, फिर भी वनों की अंधाधुंध कटाई निर्बाधगति से चल रही है ।
    कारण पूछे जाने पर एक नहीं, वरन अनेेकों कारण गिना दिए जाते हैं, उनमे प्रमुखता से एक कारण सुनने में आता है कि जब तक ये आदिवासी जंगल में रहेंगे, तब तक वन सुरक्षित नहीं हो सकते । कितना बड़ा दोषारोपण है इन भोले-भाले आदिवासियों पर, जो सदा से धरती को अपनी मां का दर्जा देते आए हैं । वे रूखा-सूखा खा लते हैं, मुफलिसी में जी लेते हैं, लेकिन धरती पर हल नहीं चलाते, उनका अपना मानना है कि हल चलाकर वे धरती का सीना चीरना नहीं चाहते ।
    भारत का हद्य कहलाने वाले मध्यप्रदेश के छिन्दवाड़ा जिले से ६२ कि.मी. तथा तामिया विकास खंड से महज २३ कि.मी. की दूरी पर, समुद्र सतह से ३२५० फीट ऊँचाई पर तथा भूतल से १२०० से १५०० फीट गहराई में कोट यानि पातालकोट स्थित है । जिसमें आज भी आदिवासियों के बारह गाँव सांस लेते हुए देखे जा सकते हैं । यहाँ के आदिवासियों को धरती-तल पर बसाने के लिए कई प्रयत्न किए गए, लेकिन वे इसके लिए कतई तैयार नहींहोते ।
    अत: दोषारोपण मढ़ना कि आदिवासियों की वजह से वन सुरक्षित नहीं है, वास्तविकता से आंखे मूंदना है, अत: सच्चई का दामन पकड़ना होगा । यदि आदिम लोगों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखते हुए तथा उनकी सक्रीय भागीदारी सुनिश्चित करते हुये उन्हें विकास की योजनाआें के साथ जोड़ दिया जाए तो निश्चित ही कहा जा सकता है कि आदिम क्षेत्र में पर्यावरण के साथ अन्य भागों को भी सुरक्षित रखा जा सकता है, स्वस्थ पर्यावरण पर सारे राष्ट्र का अस्तित्व एवं भविष्य सुरक्षित रह सकता है, और वह प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता है । 
उद्योग जगत
विकास से उपजता जहरीला ई कचरा
पंकज चतुर्वेदी
    लगभग तीन दशकपहले हमारे देश में शुरू हुई मौजूदा विकास की प्रक्रिया के नतीजे अब उजागर होने लगे हंै। इनमें से एक है-इलेक्ट्रानिक कचरे का निपटान । रोजमर्रा की खरीद-फरोख्त में `केशलेस पेमेंट` की मार्फत पहुंच चुके आम लोग इसमें उपयोग होने वाले इलेक्ट्रानिक यंत्रों के खतरे नहीं समझ पा रहे है । क्या विकास का यह दौर इसी तरह के आत्मघाती भस्मासुरों का दौर नहीं कहा   जाएगा ।
    हमारी सुविधाएं, विकास के प्रतिमान और आधुनिकता के आईने जल्दी ही हमारे लिए गले का फंदा बनने वाला है। देश के सबसे बड़े व्यापारिक संगठन एसोचेम ने चेतावनी दी है कि आगामी २०१८ तक भारत में हर साल ३० लाख मेट्रीक टन ई-कचरा उत्पादित होने लगेगा और यदि इसके सुरक्षित निबटारे के लिए अभी से काम नहीं किया गया तो देश की धरती, हवा और पानी में इतना जहर घुल जाएगा कि उसका निदान होना मुश्किल  होगा । 
     कहते हैं ना कि हर सुविधा या विकास की माकूल कीमत चुकानी ही होती है, लेकिन इस बात का नहीं पता था कि इतनी बड़ी कीमत चुकानी होगी । सनद रहे आज देश में लगभग १८.५ लाख टन ई-कचरा हर साल निकल रहा है। इसमें मुंबई से सबसे ज्यादा एक लाख बीस हजार मेट्रीक टन, दिल्ली से ९८ हजार मेट्रीक टन और बंगलुरु से ९२ मेट्रीक टन कचरा है। दुर्भाग्य है कि इसमें से महज ढाई फीसदी कचरे का ही सही तरीके से निबटारा हो रहा    है । बाकी कचरा अवैध तरीके से निबटने के लिए छोड़ दिया जाता है । इस कचरे से बहुमूल्य धातु निकालने के काम में दस से १५ साल की आयु के कोई पांच लाख बच्च्े जुड़े हुए हैंऔर ऐसे बच्चें की सांस व शरीर में हर दिन इतना विष जुड़ रहा है कि वे शायद ही अपनी जवानी देख पाएं ।
    लगभग १५ साल पुरानी वह घटना शायद ही किसी को याद हो, जब दिल्ली स्थित एशिया के सबसे बड़े कबाड़ी बाजार मायापुरी में कोबाल्ट का विकिरण फैल गया था, जिसमें एक मौत हुई व अन्य पांच जीवन भर के लिए बीमार हो गए थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के रसायन विभाग ने एक बेकार पड़े उपकरण को कबाड़े में बेच दिया व कबाड़ी ने उससे धातु निकालने के लिए उसे जलाना चाहा था । उन दिनों वह हादसा उच्च् न्यायालय तक गया था ।
    आज तो देश के हर छोटे-बड़े शहर में हर दिन ऐसे हजारों उपकरण तोड़े-जलाए जा रहे हैं जिनसे निकलने वाले अपशिष्ट का मानव जीवन तथा प्रकृति पर दुष्प्रभाव विकिरण से कई गुणा ज्यादा है । यह भी तथ्य है कि हर दिन ऐसे उपकरणों में से कई हजार खराब होते हैं या पुराने होने के कारण कबाड़े में डाल दिए जाते हैं। ऐसे सभी इलेक्ट्रानिक्स उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैंजो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है । यही ई-कचरा कहलाता है और अब यह वैश्विक समस्या बन गया है ।
    इस कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसमें ३८ अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं जिनसे काफी नुकसान भी हो सकता है । जैसे टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोंड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है । इस कचरे में लेड, मरक्यूरी, केडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं । दरअसल ई-कचरे का निपटान आसान काम नहीं है क्योंकि इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं । सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कम्प्यूटरों और मोबाईल का है । इसमें पारा, कोबाल्ट और ना जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं । कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएं और धूल के कारण फेफड़े व किड़नी दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है। एक कंप्यूटर का वजन लगभग ३.१५ किलो ग्राम होता है। इसमें १.९० किलोग्राम सीसा और ०.६९३ ग्राम पारा और ०.०४९३६ ग्राम आर्सेनिक होता है । जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं।
    ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाईलों से भी उपज रहा है । सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वाइरनमेंट (सीएसई) ने कुुछ साल पहले जब सर्किट बोर्ड जलाने वाले इलाके के आसपास शोध कराया तो पूरे इलाके में बड़ी तादाद में जहरीले तत्व मिले थे, जिनसे वहां काम करने वाले लोगों को कैंसर होने की आशंका जताई गई, जबकि आसपास के लोग भी फसलों के जरिए इससे प्रभावित हो रहे थे ।
    भारत में यह समस्या लगभग २५ साल पुरानी है, लेकिन सूचना प्रोद्यौगिकी के चढ़ते सूरज के सामने इसे पहले गौण समझा गया, जब इस पर कानून आए तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी । घरों और यहां तक कि बड़ी कंपनियों से निकलने वाला ई-वेस्ट ज्यादातर कबाड़ी उठाते हैं । वे इसे या तो किसी लैंडफिल में डाल देते हैं या फिर कीमती मेटल निकालने के लिए इसे जला देते हैं, जो कि और भी नुकसानदेह है ।
    वैसे तो केन्द्र सरकार ने सन् २०१२ में ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन नियम) २०११ लागू किया है, लेकिन इसमें दिए गए दिशा-निर्देश का पालन होता कहीं दिखता नहीं है। म.प्र. में भी खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन,हैंडलिंग एवं सीमापार संचलन) अधिनियम-२००८ में ही इलेक्ट्रॉनिक व इलेक्टिक वस्तुओं से निकलने वाले कचरे के प्रबंधन की व्यवस्था कई साल पहले से ही लागू कर दी गई थी, लेकिन म.प्र. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा लगातार इसकी अनदेखी की जा रही है । असल में ई-कचरे के आतंक के समाधान का मंत्र है-जागरूकता व बचाव ही असली निदान है ।
पर्यावरण समाचार
 
बदनावर के समीप प्रस्तावित वंडर सीमेन्ट कारखाने का विरोध
    मध्यप्रदेश के धार जिले के बदनावर कस्बे के समीप खेरवास गांव में प्रस्तावित वंडर सीमेन्ट कारखाने का क्षेत्र में भारी विरोध हो रहा है ।
    पिछले दिनों उद्योग स्थल पर आयोजित जनसुनवाई के दौरान जिले के अतिरिक्त कलेक्टर डी.के. नागेन्द्र एवं मध्यप्रदेश प्रदूषण निंयत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय प्रबंधक ए.के. बिसेन की उपस्थिति में सैकड़ों ग्रामवासियों ने उद्योग से होने वाले पर्यावरण प्रदूषण और उपजाऊ कृषि भूमि के बंजर होने के खतरे को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज कराई ।
    आक्रोशित ग्रामीणों का नेतृत्व पर्यावरण बचाओ समिति प्रमुख जीपी सिंह ने किया । इस मौके पर आसपास के ग्राम खेरवास, धमाना, कल्याणपुरा, बेंगदा, पालीबडौदा, खेडा व बदनावर समेत अन्य दूरदराज गांवों के लोग भी मौजूद थे । लोगों ने अधिकारियों को उद्योग से होने वाले नुकसान से अवगत कराया तथा इससे भविष्य में आसापास के क्षेत्र को होने वाले गंभीर पर्यावरणीय नुकसान के बारे मेंबताया । जनसुनवाई में अधिकारियों ने ग्रामीणों से उद्योग के संबंध में उनकी राय जानी जिसमें सभी लोगों ने एकमत होकर उद्योग का स्थान बदलने की मांग रखी ।
    इस अवसर पर श्री सिंह ने बताया कि प्रारंभिक अनुमति के लिए वंडर सीमेंट कंपनी ने कई असत्य जानकारी संबंधित विभागों में प्रस्तुत की जिससे कंपनी के अधिकारियों ने बताया कि निर्माणाधीन स्थल से ३.७५ किमी पर रेलवे स्टेशन बदनावर बताया, जबकि बदनावर में रेलवे लाईन ही नहीं है । प्रमुख फसलों में ज्वार, मक्का, बजारा बताया    गया । जबकि यह फसले मालवा की इस उपजाऊ भूमि में नहीं होती है । साथ ही बताया गया कि उक्त स्थान से १० किमी तक कोई भी पुरातत्व अधीन मन्दिर नहीं है । जबकि वैजनाथ महादेव एवं नागेश्वर महादेव मन्दिर ३ से ४ कि.मी. सीमा में स्थित है । उद्योग की स्थापना की प्रस्तावित भूमि काली मिट्टी व पर्याप्त् भूजल वाले स्थान पर है । इस प्रकार गलत तथ्यों के आधार पर अनुमति लेने के प्रयासोंकी उपस्थित जनसमूह द्वारा कड़ी निंदा की गयी ।
    इस मौके पर पूर्व विधायक राजवर्धनसिंह दत्तीगांव ने प्रस्तावित उद्योग के स्थान से हटाए गए गरीब वर्ग के लोगों के आवास की तुरन्त व्यवस्था करने व इस उद्योग के लिए बदनावर के आदिवासी बहुल पश्चिम क्षेत्र में पथरीली व अनुपयोगी काफी शासकीय भूमि स्थित है वहां उद्योग स्थानान्तरित करने का सुझाव    दिया ।
    वंडर सीमेंट उद्योग के संचालक  बी पाटीदार, सीएस शर्मा व नवीनसिंह ने उद्योग के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए व संभावित दुष्परिणामों को स्वीकार किया । इस अवसर पर नगर परिषद अध्यक्ष अभिषेक मोदी, हेमन्त मोदी, भाजपा नेता धर्मेन्द्र शर्मा, डॉ. अभिषेक सिंह राठौर, उपसरपंच कांजी पटेल, मोहन मुकाती, ओमप्रकाश जाट, धमाना के सोहनसिंह, गोविन्द गुर्जर, काछीबड़ोदा के पूर्व सरपंच जितेन्द्रसिंह राठौर समेत कई लोगों ने सम्बोधित किया । इस मौके पर ग्रामीणों ने उद्योग के खिलाफ जमकर नारेबाजी की तथा पोस्टर लहराए । करीब २ घंटे तक लोगों ने उद्योग के विरोध मेंअपनी बात    रखी । बाद में अपर कलेक्टर एवं एसडीएम श्रीमती एकता जायसवाल ने कहा कि वे ग्रामीणों की शिकायतों एवं उनकी भावनाआें को वरिष्ठ अधिकारियों एवं संबंधित विभाग में पहुंचाएंगे । सरकार द्वारा जनभावनाआें का सम्मान करते हुए निर्णय लिया जावेगा ।
नोटबंदी के बाद ५४०० करोड़ रूपये की काली कमाई उजागर
    देश में गतवर्ष नोटबंदी के बाद से १० जनवरी तक विभिन्न जांच एजेंसियों ने ५४०० करोड़ रूपये की काली कमाई का पता लगाया है । सरकार ने यह जानकारी सुप्रीम कोर्ट को एक हलफनामे में दी ।
    सरकार ने कोर्ट को कालाधन छिपाने के लिए अपनाए गए विभिन्न अनुचित तरीकोंके बारे में भी बताया । इनमें बंद हो चुके नोटों से सोने की खरीदी शामिल है । नोटबंदी की ९ नवम्बर से ३० दिसम्बर २०१६ की अवधि बीतने के बाद विभिन्न एजेंसियों द्वारा देशभर में मारे गए छापों के बारे में भी जानकारी दी   गई । आयकर ने ३१ जनवरी को आपरेशन क्लीन मनी शुरू किया । इसमें नोटबंदी के दौरान बैंक खातों में जमा कराए गए धन का तकनीकी की मदद से विश्लेषण किया गया । वित्त मंत्रालय ने शपथ पत्र देकर बताया है कि ९ नवम्बर २०१६ से १० जनवरी २०१७ तक  विभाग ने विभिन्न लोगों के यहां ११०० से ज्यादा छापे मारे । बड़े पैमाने पर संदिग्ध नकदी जमा कराने वाले ५१०० लोगों को नोटिस दिए गए ।