रविवार, 16 अप्रैल 2017

विज्ञान जगत
मस्तिष्क के विकास का असली कारण क्या है ?
डॉ. अरविन्द गुप्त्े
    पूरे जन्तु जगत मेंमनुष्य के मस्तिष्क के समान अनोखा अंग शायद ही कोई हो । इस अंग की बदौलत आज मनुष्य ने पूरे संसार मेंअपना वर्चस्व जमा लिया है ।
    मनुष्य के विकास के संदर्भ मेंयह एक अहम सवाल है कि आखिर वे कौन से कारक थे जिनके कारण मनुष्य के मस्तिष्क का ऐसा असाधारण विकास हुआ ? इसका सर्वमान्य जवाब यही है कि मनुष्य के द्वारा शाकाहार छोड़कर मांसाहार अपनाना ही वह कारक था ।
     मांसाहारी भोजन की कम मात्रा से मनुष्य को अतिरिक्त पोषण मिलने लगा और परिणामस्वरूप उसके मस्तिष्क का तेजी से विकास हुआ । शिकार किए हुए जानवरों की हडि्डयों पर औजारों के निशान नहीं पाए जाने के कारण यह माना जा सकता है कि मनुष्य के ऑस्ट्रेलोपिथेकस नामक पूर्वज शाकाहारी ही रहे होंगे । इसके विपरीत, पहला आदिमानव, होमो इरेक्टस, शाकाहारी होने के साथ मांसाहारी भी था ।
    अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविघालय में कार्यरत ब्रिटिश मूल के प्रोफेसर रिचर्ड रैंगहैम ने इस विषय पर एक अलग तर्क प्रस्तुत किया है । उन्होंने अफ्रीका के जंगलों में लम्बे समय तक रह कर चिम्पैजियों का अध्ययन किया और उनका तर्क इन्हीं अध्ययनों पर आधारित है ।
    प्रोफेसर रैंगहैम का कहना है कि मनुष्य के मस्तिष्क के विकास का कारण केवल मांसाहार न होकर आग में पकाए गए भोजन का सेवन भी है । उनका कहना है कि आग पर सेंकने से भोजन में उपस्थित स्टार्च और प्रोटीन के अणुआें का पाचनप आसान हो जाता है और उससे इतना पोषण मिलता है कि वह शरीर और मस्तिष्क दोनों को शक्ति प्रदान करता है । इस सिद्धांत के अनुसार पूर्वजों की तुलना में आधुनिक मनुष्य के दांत छोटे और जबड़े कमजोर होना भी इस बता का प्रमाण है कि पकाने से भोजन नरम हो जाता है और उसे चबाने में कम जोर लगाना पड़ता    है ।
    कच्च्े भोजन की तुलना में पके हुए भोजन की कम मात्रा से अधिक पोषण प्राप्त् किया जा सकता है ओर इस कारण पकाने की शुरूआत होने पर मनुष्य के पूर्वजों को भोजन खोजने, चबाने और पचाने में कम समय लगने लगा । इस कारण मनुष्य की आहारनाल छोटी हो गई और अतिरिक्त पोषण से उसके मस्तिष्क का तेजी से विकास हुआ ।
    प्रोफेसर रैंगहैम यह भी मानते है कि आग पर नियंत्रण पा लेने से मनुष्य के लिए ठंड से बचाव करने और हिसंक पशुआें से अपनी सुरक्षा करना आसान हो गया । इस कारण उसके लिए पेड़ों पर रहने की बजाय जमीन पर रहना संभव हो पाया ।
    प्रोफेसर रैंगहैम के तर्क के विरोधी भी हैं । उनका कहना है मनुष्य के मस्तिष्क का विकास तो आग के आविष्कार से पहले शुरू हो गया था जब मनुष्य ने शाकाहार छोड़कर मृत जानवरों के शरीरों को खाना शुरू कर दिया था ।
    किन्तु प्रोफेसर रैंगहैम का कहना है कि पहली बात यह है कि इससे फर्क नहीं पडत्रता कि आग का पयोग मानव ने कब से करना शुरू किया । दूसरे, उनका यह भी कहना है कि केवल पकाने से ही भोजन की गुणवत्ता मेंबढ़ोतरी नहीं होती । मनुष्य ने भोजन को पकाने के साथ ही उसे औजारों की सहायता से काटना, कूटना और छीलना शुरू किया । इससे भोजन को पचाना और भी आसान हो गया ।
    इसे ले कर प्रोफेसर रैंगहैम के दो सहयोगियों कैथरीन जिंक और डेनियल लीबरमन ने एक रोचक प्रयोग किया जिसका विवरण उन्होंने नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया है । उन्होंने होमो इरेक्टस द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले पाषणकालीन औजारों के नमूने बनाए और उस प्रकार का भोजन चुना जो वह आदिमानव खाता रहा होगा । यानी कंदमूल (चुकंदर, गाजर आदि) और बकरे का मांस । इसके बाद वनस्पतियों को चार विधियों से बनाया गया - (१) बिलकुल कच्च्े रूप में बिना किसी उपचार के, (२) कच्च और पत्थर के हथोड़े से छह बार कूट कर, (३) कच्च और छोटे छोटे टुकड़ों में काट कर और (४) १५ मिनिट तक भुनकर । बकरे के मांस पर भी चार विधियों से उपचार किया गया - (१) बिलकुल कच्च बिना किसी उपचार के (२) कच्च और हथौड़े से पचास बार कुटा हुआ (३) कच्च और छोेटे-छोटे टुकड़ों में काटा हुआ, और (४) २५ मिनिट तक चूल्हे पर सिका हुआ ।
    खाने के सभी प्रकार वालंटियर्स के एक-एक समूह को खाने के लिए दिए गए और यह देखा गया कि चबाने के लिए कौन सा भोजन सबसे आसान है । इसके लिए वालंटियर्स के जबड़ों की त्वचा पर इलेक्ट्रोड लगाए गए थे जो यह नापते थे कि चबाने के लिए उस व्यक्ति को कितना जोर लगाना पड़ता है । वालंटियर्स से कहा गया कि वे दिए गए भोजन को तब तक चबाते रहे जब तक उन्हें यह महसूस न हो कि वह अब निगलने योग्य हो गया है । कभी-कभी चबाए गए भोजन को निगलने की अनुमति दी जाती थी और कभी-कभी उन्हें ये कहा जाता था कि वे भोजन को थूक दें ताकि चबाए हुए भोजन का विश्लेषण किया जा सके । कच्च्े मांस को हमेशा थूकने के लिए कहा जाता था ताकि किसी प्रकार का संक्रमण न हो ।
    डॉ. जिंक और डॉ. लीबरमन ने पाया कि उनके अवलोकन प्रोफेसर रैंगहैम के तर्क के अनुसार ही थे । कच्ची सब्जियों को चबाने की तुलना में पकाई हुई सब्जियों को उतनी ही मात्रा को चबाने के लिए एक-तिहाई कम बल लगाना पड़ता था । सब्जियों के टुकड़ें करने से कोई लाभ नहीं होता था किन्तु उन्हें कूटने पर लगभग ९ प्रतिशत कम बल लगाना पड़ता था । मांस को कुटने से कोई फर्क नहींपड़ता था किन्तु उसे काट कर टुकड़े करने से पड़ता था । पकाई हुई सब्जियों के समान ही उसमें एक-तिहाई कम बल लगाना पड़ता था ।
    एक आश्चर्यजनक अवलोकन यह रहा कि मांस को सेंकने पर उसे चबाने के लिए अधिक बल लगाना पड़ा । जब दोनों शोधकर्ताआें ने वालंटियर्स द्वारा निगलने के लिए तैयार, उगले हुए भोजन का निरीक्षण किया तो पाया कि बिना कोई प्रक्रिया किया हुआ और कूटा हुआ भोजन एक ऐसे बड़ें कौर के रूप मेंथा जिसे पचाना आहार नाल के लिए मुश्किल होता । इसके विपरीत, जब भोजन को काट कर उसके टुकड़े कर दिए जाते थे या उसे पकाया जाता था, वालंटियर्स उसे चबा कर छोटे-छोटे पाचन योग्य टुकड़ों के रूप मेंबदल सकते थे ।
    इन सब परिणामों को जोड़कर देखने पर डॉ. जिंक और डॉ. लीबरमन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक-तिहाई मांस के टुकड़े और दो-तिहाई कूटी हुई सब्जियां बिना पकाए चबाने के लिए (जो संभावतया होमो इरेक्टस खाया करते होंगे) केवल बिना कुटी हुई सब्जियां खाने की तुलना में २७ प्रतिशत कम बल लगाना पड़ता है ।
    इसका मतलब यह हुआ कि भोजन को केवल पकाने से ही नहीं बल्कि उसे काटने, छीलने और कूटने से पचाना आसान हो गया और उससे मस्तिष्क के विकास के लिए आवश्यक अतिरिक्त पोषण आदिमानव को मिलने लगा । इसका एक परिणाम यह सामने आया कि होमो इरेक्टस के जबड़े और दांत उसके पूर्वजों की तुलना में छोटे हो गए ।

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