सोमवार, 19 अगस्त 2019



प्रसंगवश
ग्रीन बिल्डिंग कर्मचारियों की उत्पादकता में होती है वृद्धि
ऑफिस के हवा की गुणवत्ता भी कर्मचारियों के कामऔर रचनात्मक को प्रभावित करती है । अगर ऑफिस का एयर वेटिलेशन और हवा की गुणवत्ता अच्छी है तो कर्मचारियों की उत्पादकता बढ़ जाती है । साथ ही उन्हें सिरदर्द, त्वचा की जलन एवं थकान जैसी बीमारियों की शिकायत भी कम होती है । 
एक नए रिसर्च में यह बात सामने आई है कि ग्रीन बिल्डिग ऑफिस कर्मचारियों के लिए ज्यादा फायदेमंद है । सिंगापुर में ग्रीन बिल्डिंग और नॉन ग्रीन बिल्डिंग के बीच एक विशेष रूप से डिजाइन रिसर्च किया गया है । रिसर्च में यह बात प्रमुखता से सामने आई कि ग्रीन बिल्डिंग में पार्टिकुलेट्स, बैक्टीरिया और फंगस कम थे । साथ ही तापमान और आर्द्रता के स्तर का अनुपात भी बहुत बेहतर था । रिसर्च में ३०० कर्मचारियों का साक्षात्मकार भी लिया गया । ग्रीन बिल्डिंग में काम करने वाले कर्मचारियों को ऑफिस में सिरदर्द, त्वचा की जलन और थकान जैसी समस्याएं काफी कम थी । 
हार्वर्ड के पब्लिक हेल्थ के प्रोफेसर जोसेफ एलेन बताते है कि इनडोर वायु गुणवत्ता को लेकर जागरूकता आई है लेकिन आज भी यह स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी समस्या है । 
अमेरिका के लॉरेंस बर्कल नेशनल लेबोरेटरी के मैकेनिकल इंजीनियर विलियम फिस्क का कहना है कि जब वेटिलेशन में सुधार होता है तो इसका कर्मचारियों के स्वास्थ्य और प्रदर्शन पर व्यापक सकारात्मक प्रभाव होता है । वायु गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए निवेश करने के बहुत महत्वपूर्ण लाभ हो सकते है । अगर हम कर्मचारियों के प्रदर्शन को केवल कुछ प्रतिशत बढ़ा सकते है तो यह बहुत सारा पैसा है । हमें इस आर्थिक लाभ को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए । 
अमेरिका में ग्रीन बिल्डिंग और अच्छी वेंटिलेशन वाली बिल्डिंगों की संख्या में २००६ से २०१८ के बीच २०० गुना की वृद्धि हुई है । यूएस ग्रीन बिल्डिंग काउंसिल ने एक एलईईडी प्रणाली विकसित की है । इसके माध्यम से इनडोर वायु में  सुधार के लिए नई रणनीतियों और बेहतर प्रयासों को पुरस्कार दिया जाता है, जैसे फॉर्मलाडेहाइड का उत्सर्जन करने वाले फर्नीचर का उपयोग नहीं करना । हार्वर्ड के प्रोफेसर सैमुएलसन बताते है कि सस्ते लकड़ी  के फर्नीचर से फॉर्मलाडेहाइड निकलता है, जो बेहद हानिकारक होता है ।
सम्पादकीय 
आठ साल बाद म.प्र. फिर `टाइगर स्टेट'
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली में `राष्ट्रीय बाघ आकलन रिपोर्ट २०१८'जारी करते हुए बताया कि भारत विश्व में बाघों को सबसे बड़ा व सबसे सुरक्षित आश्रय गृह बनकर उभरा हैं । देश में बाघों की संख्या पांच साल में ३३ फीसदी बढ़कर २०१४ के २२२६ के मुकाबले २०१८ में २९६७ हो गई है । पांच साल में देश में बाघ ७४१ बढ़े हैं । इसमें म.प्र. के लिए बड़ी व गौरव की बात यह है कि प्रदेश आठ साल पहले खोया `टायगर स्टेट' का दर्जा फिर पाने में कामयाब रहा । पिछले चार सालों में मध्यप्रदेश में २१८ बाघ बढ़े और ये अब ५२६ हो गए हैं । प्रदेश से २०१० में टाइगर स्टेट का तमगा छिन गया था । 
बाघ आंकलन रिपोर्ट - २०१८ के अनुसार देश में २००६ में कुल १४११ बाघ थे जो १३ साल में बढ़कर २९६७ हो गए है । २०११ की बाघ आकलन रिपोर्ट में कर्नाटक अव्वल रहा था, लेकिन इस बार ५२४ बाघों के साथ वह दूसरे नम्बर पर रहा । उत्तराखंड तीसने नम्बर पर रहा, वहां ४४२ बाघ पाए गए । जबकि छत्तीसगढ़ व आंध्रप्रदेश में इनकी संख्या घटी है । 
प्रधानमंत्री ने रिपोर्ट जारी करते हुए बॉलीवुड की फिल्म `एक था टाइगर' और टाइगर जिंदा है, का जिक्र किया और कहा कि बाघ संरक्षण की कहानी यही खत्म नहीं होना चाहिए । इनका दायर बढ़ना चाहिए और रफ्तार भी बढ़ना चाहिए । उन्होंने बताया कि २०१४ में संरक्षित क्षेत्रों की संख्या ६९२ थी जो अब बढ़कर ८६० हो गई है । इसी तरह २०१४ में बाघ रिजर्व ४३ थे जो २०१९ में बढ़कर १०० से ज्यादा हो गए है । 
वन अफसर को बाघों की संख्या बढ़ने का भरोसा था, लेकिन संख्या इनते ज्यादा बढ़ेगी इसका अदाजा नहीं था । प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली में जैसे ही आंकड़े घोषित किए, प्रदेश के वन अफसर अंचभित रह गए । वे बाघोंकी संख्या अधिकतम ४३० होने का अनुमान लगाए हुए थे । आंकड़े सामने आने के बाद अफसरों ने श्रेय लेना शुरू कर दिया । वन बल प्रमुख जेके मोहंती ने कहा कि इस बार बारीकी से गणना कराई गई है । हर पहलू को ध्यान में रखा गया है इसलिए संख्या मेंअप्रत्याशित वृद्धि  सामने आई है । 
सामयिक
देश बन रहा है डंपिग ग्राउंड
संध्या राय चौधरी 

इंटरनेशनल टेलीकम्युनि-केशंस यूनियन (आईटीयू) के आंकड़ों  के अनुसार भारत चीन और कुछ अन्य देशों में मोबाइल फोन की संख्या इंसानी आबादी को पीछे छोड़ चुकी है । इससे इलेक्ट्रानिक क्रांति में खतरे ही खतरे उत्पन्न हो जाएंगे जो इस धरती की हर चीज को नुकसान पहुंचाएंगे ।
फिलहाल भारत में एक अरब से ज्यादा मोबाइल ग्राहक है । मोबाइल सेवाएं शुरू होने के २० साल बाद भारत ने यह आंकड़ा इसी साल जनवरी में पार किया है । फिलहाल चीन और भारत में एक-एक अरब से ज्यादा लोग मोबाइल फोन से जुडे हैं । देश में मोबाइल फोन इंडस्ट्री को अपने पहले १० लाख ग्राहक जुटाने में करीब ५ साल लग गए थे, पर अब भारत-चीन जैसे आबादी बहुल देशों की बदौलत पूरी दुनिया में मोबाइल के  आंकड़े ८ अरब को भी पीछे छोड़ चुकी    है । 

ये आंकड़े बताते हैं कि अब गरीब देशों के नागरिक भी जिदंगी में बेहद जरूरी बन गई संचार सेवाओं का लाभ उठाने की स्थिति में हैं, वहीं यह इलेक्ट्रानिक क्रांति दुनिया को एक ऐसे खतरे की तरफ ले जा रही है जिस पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह खतरा है इलेक्ट्रानिक कचरे यानी ई-कचरे का ।
आईटीयू के मुताबिक , भारत, रूस, ब्राजील समेत करीब १० देश ऐसे हैं जहां मानव आबादी के मुकाबले मोबाइल फोनों की संख्या ज्यादा है । रूस में २५ करोड़ से ज्यादा मोबाइल हैं जो वहां की आबादी का १.८ गुना है। ब्राजील में २४ करोड़ मोबाइल हैं, जो आबादी से १.२ गुना हैं। इसी तरह मोबाइल फोनधारकों के मामले में अमेरिका और रूस को पीछे छोड़ चुके भारत में भी स्थिति यह बन गई है कि यहां करीब आधी आबादी के पास मोबाइल फोन है । भारत की विशाल आबादी और फिर बाजार में सस्ते से सस्ते मोबाइल हैंडसेट उपलब्ध होने की सूचनाओं के आधार पर इस दावे में कोई संदेह भी नहीं लगता । पर यह तरक्की हमें इतिहास के एक ऐसे विचित्र मोड़ पर ले आई है, जहां हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि आगे कितना खतरा है ? 
हालांकि इस बारे में थोड़े-बहुत आकलन-अनुमान अवश्य हैं जिनसे समस्या का आभास होता है । जैसे वर्ष २०१५ में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजूकेशन एंड रिसर्च (आईटीईआर) द्वारा मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग ऑफ-ई वेस्ट विषय पर आयोजित सेमिनार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के  विज्ञानियों ने एक आकलन करके बताया था कि भारत हर साल ८ लाख टन इलेक्ट्रानिक कचरा पैदा कर रहा है। इस कचरे में देश के ६५ शहरों का योगदान है पर सबसे ज्यादा ई-वेस्ट देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में पैदा हो रहा है। 
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन दुनिया का सबसे बड़ा ई-वेस्ट डंपिंग ग्राउंड है। उल्लेखनीय यह है कि जो टीवी, फ्रिज, एयर कंडीशनर, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर आदि चीन में बनाकर पूरी दुनिया में सप्लाई किए जाते हैं, कुछ वर्षों बाद चलन से बाहर हो जाने और कबाड़ में तब्दील हो जाने के बाद वे सारे उपकरण चीन या भारत लौट आते हैं। निसंदेह अभी पूरी दुनिया का ध्यान विकास की ओर है । टेक्नालॉजी की तरक्की ने हमें जो साधन और सुविधाएं मुहैया कराई हैं, उनसे हमारा जीवन पहले के मुकाबले आसान भी हुआ है । 
हम फैक्स मशीन, फोटो कॉपियर, डिजिटल कैमरों, लैपटॉप, प्रिंटर, इलेक्ट्रानिक खिलौने व गैजेट, एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव, कुकर, थर्मामीटर आदि चीजों से घिर चुके है । दुविधा यह है कि आधुनिक विज्ञान पर सवार हमारा समाज जब इन उपकरणों के पुराना पड़ने पर उनसे पीछा छुडाएगा, तो ई-कचरे की विकराल समस्या से कैसे निपट पाएगा । 
यह चिंता भारत-चीन जैसे तीसरी दुनिया के देशों के लिए ज्यादा बड़ी है क्योंकि यह कचरा ब्रिटेन-अमेरिका जैसे विकसित देशों की सेहत पर कोई असर नहीं डाल रहा है। इसकी एक वजह यह है कि तकरीबन सभी विकसित देशों ने ई-कचरे से निपटने के  प्रबंध पहले ही कर लिए हैं, और दूसरे, वे ऐसा कबाड़ हमारे जैसे गरीब मुल्कों की तरफ ठेल रहे हैं । हमारे लिए चुनौती दोहरी है । पहले तो हमें देश के भीतर पैदा होने वाली समस्या से जूझना है और फिर विदेशी ई-कचरे से निपटना है। हमारी चिंताओं को असल में इससे मिलने वाली पूंजी ने ढांप रखा है। विकसित देशों से मिलने वाले चंद डॉलरों के बदले हम यह मुसीबत खुद ही अपने यहां बुला रहे हैं। 
ई-कचरा पर्यावरण और मानव सेहत की बलि भी ले सकता है। मोबाइल फोन की ही बात करें, तो कबाड़ में फेंके गए इन फोनों में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक और विकिरण पैदा करने वाले कलपुर्जे सैकड़ों साल तक जमीन में स्वाभाविक रूप से घुलकर नष्ट नहीं होते। सिर्फ एक मोबाईल फोन की बैटरी ६ लाख लीटर पानी दूषित कर सकती है। इसके  अलावा एक पर्सनल कम्प्यूटर में ३.८ पौंड घातक सीसा तथा फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसे तत्व होते हैं, जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं और विषैले प्रभाव उत्पन्न करते हैं । कम्प्यूटरों के स्क्रीन के  रूप में इस्तेमाल होने वाली कैथोड रे पिक्चर ट्यूब जिस मात्रा में सीसा (लेड) पर्यावरण में छोड़ती है, वह भी काफी नुकसानदेह होता है। 
समस्या इस वजह से भी ज्यादा विनाशकारी है क्योंकि हम सिर्फ अपने ही देश के ई-कबाड़ से काम की चीजे निकालने की आत्मघाती कोशिश नहीं करते, बल्कि विदेशों से भी ऐसा खतरनाक कचरा अपने स्वार्थ के लिए आयात करते हैं। पर्यावरण स्वयंसेवी संस्था ग्रीनपीस ने अपनी रिपोर्ट  टॉक्सिक टेक : रीसाइक्ल्ग इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट्स इन चाइना एंड इंडिया  में साफ किया है कि जिस ई-कचरे की रिसाहक्लिंग पर युरोप में २० डॉलर का खर्च आता है, वही काम भारत-चीन जैसे देशेां में महज चार डॉलर में हो जाता है। वैसे तो हमारे देश में ई-कचरे पर रोक लगाने वाले कानून हैं। 
खतरनाक कचरा प्रबंधन और निगरानी नियम १९८९ की धारा ११(१) के तहत ऐसे कबाड़ की खुले में रिसायथ्कलग और आयात पर रोक है, लेकिन कायदों को अमल में नहीं लाने की लापरवाही ही वह वजह है, जिसके कारण अकेले दिल्ली की सीलमपुर, जाफराबाद, मायापुरी, बुराड़ी आदि बस्तियों में संपूर्ण देश से आने वाले ई-कचरे का ४० फीसदी हिस्सा रिसायकिल किया जाता है। 
हमारी तरक्की ही हमारे खिलाफ न हो जाए और हमारा देश दुनिया के ई-कचरे के डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होकर नहीं रह जाए ; इस बाबत सरकार और जनता, दोनों स्तरों पर जागृति की जरूरत है ।                              
हमारा भूमण्डल
विश्व की जिम्मेदारी है, पर्यावरण संरक्षण 
कुलभूषण उपमन्यु 

इक्कीसवीं सदी आते- आते पर्यावरण की बदहाली ने हमें लगातार उसी याद रखने की मजबूरी के हवाले कर दिया है । 
महात्मा गांधी ने उस समय यह कहा था जब पर्यावरण विज्ञान का इतना विकास नहीं हुआ था कि `प्रकृति के पास सबकी जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त साधन हैं, किन्तु कुछ लोगों के लालच और अय्याशी के लिए कुछ भी नहीं है।` पर्यावरण विज्ञान की समझ को कम-से-कम शब्दों में कहने के लिए इससे अच्छा कथन मिलना कठिन है। गांधी के पास यह समझ किसी वैज्ञानिक अध्ययन के कारण नहीं आई थी, बल्कि इस समझ का आधार खांटी भारतीय परंपरा, सनातन परंपरा की बारीक समझ में था।
भारतीय सनातन परंपरा में इस समझ का विकास हजारों वर्षों के अनुभव से पैदा हुआ था। अनुभव के विश्लेष्ण से उपजा ज्ञान ही विज्ञान का भी आधार होता है इसलिए यह ज्ञान आज के वैज्ञानिक सन्दर्भों में भी सही साबित हो रहा है। इसी परंपरा ने हमें सिखाया है कि प्रकृति जड नहीं है, बल्किजीवंत है, इसके कण-कण में आत्मा का निवास है। 'ईशावास्यं इदं सर्वं` अर्थात यहां प्रकृति में जो भी है, उसक कण-कण में ईश्वर यानि परमात्मा का निवास है इसलिए इसका आदर होना चाहिए । 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा:` अर्थात प्रकृति का त्याग-पूर्वक उपभोग करें, यानि यह मेरी मिल्कियत नहीं है, बल्कि ईश्वर की धरोहर है, अत: धरोहर की रक्षा करते हुए उपभोग करें ।  
जब से मनुष्य के हाथ में उर्जा और मशीन की शक्ति आ गई है तब से वह प्रकृति के संसाधनों का अनंत उपभोग करने की सामर्थ्य वाला बन गया है। अनंत उपभोग से अनंत संपत्ति पैदा करना बडप्पन की निशानी हो गई है। इस कारण प्रकृति की स्वाभाविक विकास और पुन: अपनी क्षति पूर्ती करते हुए सतत बने रहने की ताकत कम होती जा रही है। बढ़ती आबादी और बढ़ती अनावश्यक भूख ने हालात बिगाड़ दिए हैं। सबसे जरूरी जीवन-साधन प्राणवायु का प्रकृति जितना संशोधन कर सकती है, उससे ज्यादा धुआं हम आकाश में विभिन्न गतिविधियों से छोड़ रहे हैं, फिर एक - दूसरे पर दोषारोपण करके अपने आप को बचाने की झूठी तसल्ली देते रहते हैं। 
प्राणवायु तो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं  जानती । हवा है, कहीं भी निकल लेती है। भारतीय हिमालय का पानी पाकिस्तान पंहुच जाता है और नेपाल, तिब्बत का पानी भारत आ जाता है। भूजल भंडारों का पानी प्रदेशों की सीमायें लाँघ कर हिमाचल से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान चला जाता है। मिटटी बनती तो हिमालय के जंगलों में है, किन्तु गंगा और सिंधु के मैदानों में बिछ  जाती है।
हवा, पानी और भोजन-जीवन के लिए सबसे जरूरी ये तीन घटक हैं। इनके केन्द्र में वनस्पति है जिससे सृष्टि की शुरुआत हुई है। इसी से वायु शुद्धिकरण, जल-संरक्षण और मिटटी निर्माण हुआ है। आज इसी वनस्पति संपदा पर खतरा मंडरा रहा है। हजारों हेक्टेयर जमीन और जंगल खनन, बड़े बांधों, लंबी सडकों आदि की भेंट चढ़ रहे हैं। हालांकि कुछ मजबूरियां भी हैं,किन्तु फिर भी आखिर कोई सीमा तो बांधनी ही होगी, वरना हवा, पानी, और भोजन के बिना जीवन ही असंभव हो   जाएगा । 
जलवायु परिवर्तन का खतरा दिनों-दिन प्रकट होता जा   रहा है जिसका मुख्य कारण वायु प्रदूषण है । इसे सब जानते हैं, पर नींद के बिना 'सोने` का नाटक कर रहे हैं। आज की मौज-मस्ती के लिए भविष्य की पीढ़ियों के जीवन को खतरे में डाल रहे हैं । भावी संतानों के लिए मोटा बैंक-बैलेंस तो छोड़ कर जाना चाहते हैं, किन्तु सांस लेने योग्य शुद्ध वायु कैसे बचे यह चिंता नहीं है। आखिर ऐसा बैंक-बैलेंस किसके काम आएगा, यह सोचने की जरूरत है। जितना बड़ा विकसित देश और आदमी होगा वह उतना ही ज्यादा प्रकृति विध्वंसक भी होगा। यह जो विरोधाभास हमारे जीवन में रूढ हो गए हैं, इनसे बाहर तो निकलना ही पड़ेगा ।  
विकास विरोधी कहे जाने का खतरा उठा कर भी यह सच तो किसी को कहना ही पड़ेगा। असल में यह विकास विरोध है भी नहीं, बल्कि विकास और प्रकृति संरक्षण के बीच उचित संतुलन साधने की बात है। इस बात को सभी को समझना चाहिए । सादगी तो जरूरी जीवन मूल्य रहेगा ही, ताकि कम-से-कम संसाधनों की जरूरत रहे, किन्तु आज की सादगी सौ वर्ष पहले जैसी नहीं हो सकती। आज हमें विज्ञान के बल पर विकल्पों की खोज पर विशेष ध्यान देना होगा। आज सबसे ज्यादा समस्या उर्जा उत्पादन, पैकेजिंग, खनन, बड़े उद्योग पैदा कर रहे हैं। 
इनके बिना गुजरा भी नहीं है और इनके साथ जीवन चलाना भी संभव नहीं है। तो रास्ता यही है कि ऐसे विकल्प खोजे जाएं जो प्रकृति को न्यूनतम हानि पंहुचाएं । जैसे ताप-विद्युत की जगह सौर-उर्जा, निजी वाहनों की भीड़ घटाने के लिए बेहतर सार्वजनिक परिवहन, नदियों और भूजल में कोई भी प्रदूषक तत्व न जाएं इस बात का ध्यान रखना, वन रोपण पर जोर देना और फल, चारा, ईंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाले पेड़ लगाना जो बिना काटे हर साल फसल के रूप मेंआमदनी देते रहें। जिससे पेड़ खड़ा रहकर हवा, पानी, मिटटी के संरक्षण का कार्य करता रहे और समुदायों को आय के साधन भी देता रहे।
वन संरक्षण से आम आदमी को जोड़ने का यह सही तरीका हो सकता है। वन क्षेत्र की निम्नतम सीमा ३३ प्रतिशत मानी गई है, उसका कडाई से पालन होना चाहिए, किन्तु बड़ी परियोजनाओं के लिए तो वन-भूमि का आबंटन आसानी से हो जाता है, लेकिन भूमि-हीन आदिवासी या अन्य परंपरागत वनवासियों के लिए वन-भूमि की कमी का बहाना बनाया जाता है। वन विभाग वनों के मालिक जैसा व्यवहार करता है और लोगों को जोड़ने की दिशा में कोई प्रयास नहीं करता । इससे वनों के संरक्षण में लोगों की भागीदारी कम होती जा रही है। 
शहरी आबादी, उद्योग और कृषि में जल-संसाधनों पर कब्जे की होड़ हो रही है जिससे पेयजल संकट गभीर होता जा रहा है। उद्योग पानी की मांग के  साथ शेष बचे शुद्ध जल को प्रदूषित करने का भी का काम करते हैं और पानी को दोहरा नुकसान पंहुचाते हैं। उद्योग भले ही विकास का इंजन हो, किन्तु पानी को नष्ट करने का हकदार कदापि नहीं हो सकता, खासकर जब पानी के  अकाल जैसी स्थिति सब ओर बनती जा रही हो। बड़ी जल परियोजनाओं के अनुभव के बाद हमें स्थानीय स्तर के विकेन्द्रित समाधानों की ओर ध्यान देना होगा।
नदियों में बहने वाला ठोस कचरा जल प्रदूषण का बड़ा कारण बन गया है। इस कचरे को निपटाने के प्रयास स्वच्छता अभियान में जोर पकड़ रहे हैं, किन्तु समस्या है कि कचरे को इकट्ठा करके निपटाया कैसे जाए ? यहाँ-वहां डंपिंग स्थलों में कचरा डाल देने के बाद उसमें आग लगने से वायु प्रदूषण, जमीन में रिसाव से भूजल और मिटटी प्रदूषण का खतरा बनता है। इस कचरे से बिजली बनाने के उन्नत तरीके, जिनमें वायु प्रदूषण का खतरा नहीं रहता, को अपनाया जाना चाहिए । 
ऐसे विकल्पों की खोज सतत जारी रहनी चाहिए जो वर्तमान स्तर से प्रदूषण के खतरे को प्रभावी रूप से कम करने में समर्थ हों। उससे बेहतर समाधान मिल जाए तो उस नई तकनीक को अपनाया जाना चाहिए । हमारे 'विश्व पर्यावरण दिवस,` 'जैव विविधता दिवस` आदि मनाने की रस्म-अदायगी से आगे बढने से ही मंजिल हासिल होगी। यह एक गलत बहाना है कि विकास के लिए पर्यावरण का नुकसान तो झेलना ही पड़ेगा। 
हमें पर्यावरण मित्र विकास के मॉडल की गंभीरता से खोज करनी होगी और हिमालय जैसे संवेदनशील प्राकृतिक स्थलों के लिए तो विशेष सावधानी प्रयोग करनी होगी। सरकार ने हिमालय में विकास के  लिए एक प्राधिकरण का गठन किया है, उसको पर्वतीय विकास की सावधानियों को लागू करने, खोजने में अग्रसर होना चाहिए । हिमालय भारत के पारिस्थितिकी संरक्षण की रीढ़ है, यह बात जितनी जल्दी समझें उतना ही अच्छा।  
स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
प्रदूषण से पस्त होते मौलिक अधिकार
डॉ. ओ.पी. जोशी

प्रकृति को 'प्रसाद` मानने और उसी लिहाज से उसके 'फलों` का उपभोग करने की नैतिक, आध्य-त्मिक निष्ठा के अलावा बीसवीं सदी में रचा गया हमारा संविधान भी पर्यावरण को लेकर खासा सचेत है। 
इसके कई हिस्से जल, जंगल, जमीन, वायु और जीव-जन्तुओं आदि के संरक्षण, संवर्धन का नियमन करते हैं, लेकिन मौसम परिवर्तन से लेकर बढ़ती भीषण गर्मी तक सभी अनुभव चीख-चीख कर खुलासा कर रहे हैं कि नागरिक की हैसियत से हम न तो आध्यात्मिक, नैतिक साबित हुए हैं और न ही कानून मानने वाले आम जिम्मेदार इंसान । 
देश के शासन-प्रशासन का संचालन संविधान में बताए गए नियम-कानूनों के अनुसार चलता   है । हमारा संविधान महज एक किताब न होकर एकजीवंत दस्तावेज है जो समय के साथ-साथ संशोधित होकर विकसित होता रहता है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर संविधान में किए गए प्रावधान इसकी विकासशील प्रकृति को दर्शाते हैं। 
नागरिकों के जीने के बेहतर मानक और प्रदूषण रहित स्वच्छ वातावरण संविधान में निहित हैं। 'पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-१९८६` के मुताबिक पर्यावरण में हवा, पानी एवं जमीन के साथ पेड़-पौधे व जीव-जंतु भी समाहित हैं। संविधान के अनुच्छेद-२१ के अनुसार व्यक्ति को जीवन जीने एवं व्यक्तिगत आजादी का अधिकार है। किसी कानूनी कार्यवाही को छोड़कर इसी अनुच्छेद की समय-समय पर अच्छी तरह से व्याख्या की गयी है एवं बताया गया है कि यह जीवन जीने का मौलिक अधिकार भी प्रदान करता है। 
स्वच्छ वातावरण में जीवन जीने के  अधिकार को पहली बार उस समय मान्यता मिली जब १९७८ में देहरादून में चूने की खदानों के  खनन से पैदा प्रदूषण के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में प्रकरण दर्ज हुआ । वर्तमान समय में देश में चारों ओर फैल रहे वायु, जल, ध्वनि एवं मिट्टी के प्रदूषण ने स्वच्छ वातावरण में जीवन जीने का मौलिक अधिकार ही छीन लिया है। साफ पर्यावरण में जीने के लिए शुद्ध हवा, पानी, शांति एवं विष-रहित खाद्य व पेय पदार्थ जरूरी हैं । 
एक औसत व्यक्ति को प्रतिदिन लगभग १४ किलो हवा, ५-६ लीटर पेयजल एवं १.५ से २.० किलोग्राम भोजन लगता है। शुद्ध रूप में इनके मिलने से उसका स्वास्थ्य ठीक  रहता है एवं वह स्वयं, उसका परिवार देश के विकास में योगदान देता है। वर्तमान समय में व्यक्ति को ये चीजें निर्धारित मात्रा में तो लगभग मिल रही हैं, परंतु वे प्रदूषित हैं।
कई कारणों से वायु प्रदूषण अब महानगरों, नगरों से होकर छोटे शहरों एवं गांवों में भी फैल गया है। यह दुखद संयोग है कि देश की राजधानी दिल्ली के निवासी शुद्ध वायु पाने के मौलिक अधिकार से सबसे ज्यादा वंचित है। इसका कारण यह है कि दुनिया के प्रदूषित शहरों में दिल्ली हमेशा उच्च् स्थानों पर रही है। वर्ष २०१५ के गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा जब दिल्ली आए तो वे वहां के खुले वातावरण में बाहर ही नहीं निकले थे । उनकी सुरक्षा में लगी अमरीकी ऐजेंसी ने उनके लिए सैकड़ों एअर प्युरीफायर लगवाये थे ताकि वे दिल्ली के प्रदूषण से प्रभावित न हों। दिल्ली का हरेक आम नागरिक तो बराक ओबामा नहीं है, उसे तो उसी प्रदूषित वातावरण में सांस लेकर जीवन व्यापन करना है। 
प्रदूषित वायु के कारण दिल्ली के ज्यादातर लोगों के फेफड़े काले या भूरे हो गये हैं। खतरनाक प्रदूषक पी.एम. २.५ ने तो रक्त में पहुंच कर उसे भी प्रदूषित कर दिया है। वायु प्रदूषण से श्वसन व अन्य रोग तो बढ़े ही हैं, परंतु अब यह लोगों की जिंदगी की अवधि घटाकर मौत का कारण भी बनता जा रहा है। शिकागो, हार्वर्ड एवं येल विश्वविद्यालयों के अध्ययन के अनुसार प्रदूषित वायु से भारतीयों की मृत्यु चार वर्ष पूर्व हो रही है। यदि वायु प्रदूषण के संदर्भ में 'विश्व स्वास्थ्य संगठन` (डब्ल्यूएचओ) के मानकों को अपनाया जावे तो औसत आयु ६९ से ७३ वर्ष तक बढ़ सकती है। वर्ष २०१५ तथा २०१७ में क्रमश: ०३ एवं १२ लाख लोगों की मौत का कारण वायु प्रदूषण बताया गया है। 'केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल` के एक अध्ययन के अनुसार देश के १० लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है।
जीने के मौलिक अधिकार को लागू करने की दूसरी जरूरी वस्तु, यानि पानी भी अब शुद्ध नहीं रहा है। सतही जल के ज्यादातर स्त्रोतों के साथ भूजल भी प्रदूषण की गिरत में है। 'नीति आयोग` की पिछले वर्ष की एक रिपोर्ट के अनुसार देश का ७० प्रतिशत से ज्यादा पानी पीने योग्य नहीं है। सम्भवत: इसी का परिणाम है कि 'जल गुणवत्ता सूचकांक` (वाटर क्वालिटी इंडेक्स) की १२२ देशों की सूची में हमारा स्थान १२० वां है। 
पेयजल के प्रदूषण एवं कमी ने बोतल बंद पानी के एक नए व्यापार को जन्म देकर व्यापक रूप से फैला  दिया है। देश का हर नागरिक इतना धनवान नहीं है कि वह रोजाना अपने परिवार के लिए बोतलबंद पेयजल खरीद सके । वर्ष २०११-१२ की अपनी रिपोर्ट में `केग` ने बताया था कि देश में घेरलू उपयोग का पानी प्रदूषित तथा रोगजन्य है एवं देश की ५०० में से ३०० नदियों का पानी आचमन योग्य भी नहीं रहा है।
संविधान का अनुच्छेद १९(१) २ शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है, परंतु लगातार बढ़ रहे शोर-शराबे (ध्वनि प्रदूषण) से यह अधिकार भी संकटग्रस्त है। वायु प्रदूषण की तरह ध्वनि प्रदूषण भी छोटे-छोटे शहरों तक फैल गया है। देश के कई शहरों में दवाखाने, न्यायालय, स्कूल, कालेज एवं प्राणी संग्रहालयों जैसे स्थानीय प्रशासन द्वारा घोषित शांत-क्षेत्रों (साइलेंट जोन) में भी शोर की तीव्रता निर्धारित स्तर से २-३ गुना ज्यादा आंकी गयी है।
'खाद्य एवं कृषि संगठन` की मई २०१८ में रोम से जारी रिपोर्ट  के अनुसार कृषि में अंधाधुंध रसायनों के उपयोग से कीटनाशक न केवल विभिन्न कृषि उत्पादों, अपितु मां के दूध तक में पहुंच गये हैं। भारत में कई स्थानों पर अब मां का दूध भी शुद्ध नहीं रहा है। इस स्थिति ने शाकाहारी खाद्य पदार्थों के मिलने के अधिकार को समाप्त कर दिया है। केन्द्र सरकार ने १९८६ में अलग से पर्यावरण विभाग के गठन के भी पहले प्रदूषण नियंत्रण तथा कचरा प्रबंधन के ढेर सारे नियम-कानून बनाकर लागू किये, परंतु न तो प्रदूषण रूक पाया और न ही कचरे के ढेर कम हुए । इससे यह मतलब निकाला जा सकता है कि या तो नियम कानून कमजोर हैं या उन्हें सख्ती से लागू नहीं किया गया ।
संविधान में एक ओर जहां नागरिकों के अधिकार बताये गये हैं वहीं दूसरी ओर कर्तव्यों की बात भी की गई है। अनुच्छेद ५१ ``अ``(ग) के अनुसार प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वे प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके तहत वन, झील, नदियां तथा वन्य-जीव शामिल हैं, रक्षा करें, उनका संवर्धन करें व प्राणी मात्र के लिए दयाभाव रखें। अनुभव बताते हैं कि कुछ अपवादों को छोड़कर नागरिक भी अपने कर्तव्यों से ज्यादा अधिकारों पर जोर देने में लगे हैं। शासन-प्रशासन एवं समाज के मध्य आपसी सहयोग का रिश्ता काफी कमजोर हो गया है। इस समय विश्व में महात्मा गांधी का १५० वां शताब्दी वर्ष जारी है। ऐसे में सरकार शुद्ध हवा, पानी एवं शांत वातावरण के  नागरिकों के मौलिक अधिकार उपलब्ध कराने के प्रयास करे एवं नागरिक भी गांधी समान अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से करें तो ही हम अपना भविष्य बचा सकते है  
जीव जगत
प्रलय टालने के लिए जरूरी कदम
डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन
सूर्य से आने वाले विकिरण के कारण पृथ्वी और उसके चारों ओर मौजूद वायुमंडल गर्म हो जाता है। होता यह है कि पृथ्वी की सतह से वापिस निकलने वाली ऊष्मा को वायुमंडल में मौजूद कुछ गैसें, जैसे कार्बन डाईऑक्साइड, सोख लेती हैं और इसे वापस पृथ्वी पर भेज देती हैं। इस तरह समुद्र और भूमि सहित पूरी पृथ्वी पर मनुष्योंऔर अन्य जीवों के रहने के लिए आरामदायक या अनुकूल तापमान बना रहता है। तो हम एक विशाल  ग्रीनहाउस  में रहते हैं।
लेकिन तब क्या होगा जब ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में एक निश्चित सीमा से अधिक हो जाएंगी? ऐसा होने पर तापमान में वृद्धि होगी। और यह वृद्धि मूलत: कार्बन उत्सर्जन करने वाले इंर्धन जैसे कोयला, लकड़ी, पेट्रोलियम आदि जलाने के फलस्वरूप बनने वाली कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य गैसों के वायुमंडल में बढ़ते स्तर के कारण होती है। 
सिर्फ पिछले सौ वर्षों में वैश्विक तापमान में लगभग २ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। और यदि हमने इन इंर्धनों का उपयोग बंद या कम करके, ऊर्जा के अन्य विकल्पों (जैसे सौर, पवन वगैरह) को नहीं अपनाया तो वैश्विक तापमान इसी तरह बढ़ता जाएगा ।
पिछले कुछ समय में हम बढ़ते तापमान के परिणाम हिमच्छदों (आइस कैप्स) और ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में देख चुके हैं, जिसके फलस्वरूप समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। समुद्रों के बढ़ते जलस्तर के चलते मालदीव और मॉरीशस जैसे द्वीप-राष्ट्र  जलमग्न हो सकते हैं। बढ़ते तापमान से वैश्विक जलवायु में परिवर्तन आया है जिससे अनिश्चित मानसून, चक्रवात, सुनामी, एल-नीनो प्रभावित हुए। इसके अलावा भूमि और समुद्र दोनों ही जगह पर जीवन (मछलियां, शैवाल, मूंगा चट्टानें) भी प्रभावित हुआ है ।  
बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से सिर्फ कुछ देश नहीं बल्कि पूरी धरती ही प्रभावित हो रही है। इस धरती पर मानव, जंतु, पेड़ पौधे, मछलियां, सूक्ष्मजीव सहित विभिन्न प्रजातियां रहती हैं। यदि बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो पृथ्वी पर मौजूद समस्त जीवन पर संकट गहराता जाएगा। जलवायु परिवर्तन के साथ निरंतर औद्योगिक खेती और मत्स्याखेट के चलते कुछ ही दशकों में पृथ्वी से लगभग दस लाख प्रजातियां विलुप्त् हो जाएंगी।
इस तबाही को रोकने के  लिए राष्ट्र संघ ने विश्व के देशों को एकजुट किया और २०१५ में पेरिस समझौता पारित किया, जिसके  तहत सभी देशों को मिलकर प्रयास करना था कि वैश्विक तापमान में १.५ डिग्री से अधिक की वृद्धि न हो। पेरिस समझौते पर दुनिया के लगभग १९५ देशों ने हस्ताक्षर किए थे और इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जरूरी कदम उठाने का वादा किया था, लेकिन कुछ तेल निर्माता या निर्यात करने वाले देश जैसे टर्की, सीरिया, ईरान और अमेरिका इससे पीछे हट गए । अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प का तो कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग या जलवायु परिवर्तन कोरी कल्पना है ।
इस बारे में हमें २ कदम तत्काल उठाने की जरूरत है। पहले तो कार्बन उत्सर्जन करने वाले इंर्धन के उपयोग को समाप्त् नहीं तो कम करके इनकी जगह अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतोंका उपयोग करना होगा, जो ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन नहीं करते (जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा )। 
दूसरा, कार्बन डाईऑक्-साइड को प्राकृतिक रूप से सोखने के तरीकों को बढ़ावा देना होगा । और यह काम जंगल और पेड़-पौधे बहुत अच्छे से करते हैं। पानी में शैवाल, तटीय इलाके के मैंग्रोव, जमीन पर उगने वाली फसलें और वन सभी तरह के पौधे प्रकाश संश्लेषण करते हैं। ये वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं । ऊष्ण कटिबंधीय वन यह काम बेहतर करते हैं। 
इसलिए अमेजन, अफ्रीका और भारत में हो रही वनों की अंधाधुंध कटाई को बंद किया जाना चाहिए । इन क्षेत्रोंमें वनस्पतियों, जानवरों और कवकों की २० करोड़ से अधिक प्रजातियां रहती हैं। इसलिए इन्हें प्रमुख जैव विविधता क्षेत्र (घशू इळविर्ळींशीीळींू आीशरी) कहा जाता है। इसी तरह समुद्री संरक्षण क्षेत्र (चरीळशि झीिशींलींळिि आीशरी) भी हैं। ये जैव विविधता को बहाल करते हैं और उसकी रक्षा करते हैं, पैदावार बढ़ाते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र के बचाव और सुरक्षा को सुदृढ़ करते हैं । केवल ये क्षेत्र २०२० तक लगभग १७ प्रतिशत भूमि और १० प्रतिशत जलीय क्षेत्र का संरक्षण करेंगे और लाखों प्रजातियों को विलुप्त् होने से बचाएंगे। लेकिन आने वाले सालों में हमें इससेअधिक करने की जरूरत  है।
इन्ही सब बातों को ध्यान में रखते हुए विश्व के वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के समूह ने पेरिस समझौते का एक सह-समझौता प्रस्तावित  किया है जिसे उन्होंने नाम दिया है: प्रकृति के लिए वैश्विक  समझौता: मार्गदर्शक सिद्धांत, पड़ाव और लक्ष्य । यह नीति दस्तावेज  साइंस एडवांसेस पत्रिका के १९ अप्रैल २०१९ के अंक में प्रकाशित हुआ है। 
पर्यावरण और पर्यावरणीय मुद्दों से सरोकार रखने वाले प्रत्येक नागरिक और सरकार को यह नीति दस्तावेज अवश्य पढ़ना चाहिए । प्रकृति के लिए समझौते के पांच मूलभूत लक्ष्य हैं: 
(१)  स्थानीय पारिस्थितिक तंत्रों की सभी किस्मों और अवस्थाओं तथा उनमें प्राकृतिक विविधता का निरूपण; (२)  प्रजातियों को बचाना  अर्थात स्थानीय प्रजातियों की आबादियों को उनके प्राकृतिक बाहुल्य और वितरण के मुताबिक बनाए रखना; (३) पारिस्थितिक कार्यों और सेवाओं को बनाए रखना; (४) प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषण को बढ़ावा देना; और (५) जलवायु परिवर्तन को संबोधित करना ताकि वैकासिक प्रक्रियाओं को बनाए रखा जा सके और जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बनाया जा सके ।
इन पांच लक्ष्यों की तीन मुख्य थीम हैं। पहली थीम है जैव विविधता को बचाना । इसके तहत विश्व के ८४६ पारिस्थितिकी क्षेत्रों को चुना गया है और बताया गया है कि साल २०३० तक इन क्षेत्रों को कम से कम ३० प्रतिशत तक कैसे बचाया जाए । 
दूसरी थीम है जलवायु परिवर्तन को रोकना । इसके अंतर्गत कार्बन संग्रहण क्षेत्र और संरक्षण के अन्य क्षेत्र-आधारित उपायों की मदद से जलवायु परिवर्तन को कम करना शामिल है। इसके तहत विश्व के मौजूदा क्षेत्रों (जैसे टंुड्रा, वर्षावन) के लगभग १८ प्रतिशत क्षेत्र को जलवायु स्थिरीकरण क्षेत्र की तरह संरक्षित करना और लगभग ३७ प्रतिशत क्षेत्र (जैसे अमेजन कछार, कॉन्गो कछार, उत्तर-पूर्वी एशिया वगैरह में देशज लोगों की जमीनों) को क्षेत्र-आधारित उपायों की तरह संरक्षित करना। तीसरी थीम है, पारिस्थितिकी के खतरों को कम करना और इसका मुख्य सरोकार प्रमुख खतरों जैसे अत्यधिक मत्स्याखेट, वन्यजीवों का व्यापार, नई सड़कों के लिए जंगल कटाई, बड़े बांध बनाने जैसे जोखिमों को कम करने से है।
इन उदेश्यों को पूरा करने में सालाना तकरीबन सौ करोड़ डॉलर का खर्च आएगा । और यह खर्चा दुनिया के २०० देशों (साथ ही प्रायवेट सेक्टर) को मिलकर करना है। यदि हम इस धरती को आने वाली पीढ़ी, जीवों और वनस्पतियों (जो पिछले ५५ करोड़ वर्ष से पृथ्वी को समृद्ध बनाए हुए हैं) के लिए रहने लायक छोड़कर जाना चाहते हैं तो यह राशि बहुत अधिक नहीं है। 
यदि कोई इस कार्य में लगाई गई लागत का लाभ जानना चाहता है तो उपरोक्त पेपर में बताया गया है कि जैव-विविधता संरक्षण से समुद्री खाद्य उद्योग का सालाना लाभ ५० अरब डॉलर तक हो सकता है और बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई से बीमा उद्योग सालाना ५२ अरब डॉलर की बचत कर सकता है।              
वातावरण
प्रदूषण को काबू करेगे, बिजली के वाहन 
कुमार सिद्धार्थ 

  दुनिया भर में वायु प्रदूषण के लिए वाहनों की बढ़ती संख्या भी जिम्मेदार है। फैलते बाजार और उसकी मार्फत कमाए जाते राजस्व ने सरकारों को इसे अनदेखा करने को उकसाया भी है, लेकिन बढ़ते तापक्रम और नतीजे में जलवायु परिवर्तन की मार के चलते अब परिवहन के विकल्पों पर भी बातें होने लगी हैं। 
देश के महानगरों और शहरों में जिस तेजी से वायु-प्रदूषण बढ़ रहा है, उसमें सबसे ज्यादा योगदान वाहनों से होने वाले प्रदूषण का है। यह ऐसा मुद्दा है जिस पर वर्षों से चिंता जताई जा रही है, लेकिन इस दिशा में कुछ खास परिणाम देखने में नहीं आ रहे।  देश में दो पहिया और चार पहिया वाहनों की संख्या बढ़ती जा रही है और रोजाना लाखों नए वाहन पंजीकृत हो रहे हैं। फिलहाल देश भर में करोड़ों वाहन ऐसे हैं, जो पेट्रोल और डीजल से चल रहे हैं और इनसे निकलने वाला काला धुआं कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है। 'विश्व स्वास्थ्य संगठन` की २०१८ की रिपोर्ट बताती है कि भारत के लगभग ११ प्रतिशत वाहन कार्बन उत्सर्जक हैं, जो वायु प्रदूषण का प्रमुख स्त्रोत   है ।  
पेरिस में हुए 'जलवायु परिवर्तन समझौते` के प्रति प्रतिबद्धता के चलते अब बिजली से चलने वाले वाहनों के विस्तार को लेकर गंभीरता से काम शुरू हुआ है । इस दिशा में भारत सरकार ने साल २०३० तक बिजली से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देने के लिए एक वृहद योजना तैयार की है। ये वाहन बैटरी से चलेंगे और बैटरी बिजली से चार्ज होगी । माना जाता है कि बिजली से चलने वाले वाहनों की देखभाल व मरम्मत का खर्च भी कम आता है । 
सरकार की इस पहल से अब इलेक्ट्रिक वाहनों को लेकर निर्माता कम्पनियां भी गंभीर हो चुकी हैं। उम्मीद की जा रही है कि पूूरे देश में इलेक्ट्रिक वाहनों का उपयोग बढ़ने से बिजली क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा और जहरीली गैसों के उत्सर्जन में ४० से ५० प्रतिशत की कमी आएगी । इससे देश में कार्बन उत्सर्जन के  लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी ।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए केन्द्रीय कैबिनेट ने 'नीति आयोग` की अगुवाई में विद्युत गतिशीलता के मिशन को मंजूरी दी  है । ध्यान रहे कि इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को सार्वजनिक परिवहन से जोड़ने के लिए केन्द्र सरकार की हाइब्रिड (बिजली और जैविक दोनों) और इलेक्ट्रिक वाहनों को तेजी से अपनाने और उनके निर्माण की नीति 'फास्टर एडॉप्शन एण्ड मैन्यु-फैक्चरिंग इलेक्ट्रोनिक व्हीकल्स` (एफएएमई) जिसे २०१५ में लॉन्च किया गया था, का पुनरीक्षण किया जा  रहा है। इसके तहत 'नीति आयोग` ने बिजली से चलने वाले वाहनों की जरूरत, उनके निर्माण और इससे संबंधित जरूरी नीतियां बनाने की शुरूआत की है।
दरअसल, ऑटोमोबाइल के लिए भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। भारत में इस वक्त लगभग ०.४ मिलियन इलेक्ट्रिक दो-पहिया वाहन और ०.१ मिलियन ई-रिक्शा हैं। कारें तो केवल हजारों की संख्या में ही सड़कों पर दौड़ रही हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक 'सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चर्स ऑफ इलेक्ट्रिक व्हिकल` (एसएमईवी) के अनुसार, भारत ने २०१७ में बेचे जाने वाले 'आंतरिक दहन` (आईसी) इंजन वाले वाहनों में से एक लाख से भी कम बिजली से चलने वाले वाहनों को बेचा । इनमें से ९३ प्रतिशत से अधिक इलेक्ट्रिक तीन-पहिया वाहन और ६ प्रतिशत दोपहिया वाहन थे। इलेक्ट्रिक गाड़ियों में दो पहिया वाहन ही अग्रणी है ।
भारत भले ही इलेक्ट्रिक कारों में दूसरे देशों से पीछे हो, लेकिन बैटरी से चलने वाली ई-रिक्शा की बदौलत उसने चीन को पीछे छोड दिया है। रिपोर्ट्स के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में करीब १५ लाख ई-रिक्शा चल रहे हैं, जो चीन में साल २०११ से अब तक बेची गईं इलेक्ट्रिक कारों की संख्या से ज्यादा हैं। एटी कर्नी नाम की एक कंसल्टिंग फर्म की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर महीने भारत में करीब ११,००० नए ई-रिक्शा सड़कों पर उतारे जा रहे हैं। भारत में अभी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को चार्ज करने के लिए कुल ४२५ पॉइंट  बनाए गए हैं। सरकार २०२२ तक इन प्वाइंट्स को २,८०० करने वाली है ।
कुछ दिनों पहले भारत सरकार ने देश में इलेक्ट्रिक वाहनों के विनिर्माण और उनके तेजी से इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिये 'फेम इंडिया` योजना के दूसरे चरण को मंजूरी दी है। कुल १० हजार करोड़ रुपए लागत वाली यह योजना १ अप्रैल, २०१९ से तीन वर्षों के लिये शुरू की गई जो मौजूदा योजना 'फेम इंडिया वन` का विस्तारित संस्करण है। 
इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश में इलेक्ट्रिक और हाईब्रिड वाहनों के तेजी से इस्तेमाल को बढ़ावा देना है। इसके लिये लोगों को इलेक्ट्रिक वाहनों की खरीद में शुरुआती स्तर पर सब्सिडी देने तथा ऐसे वाहनों की चार्जिंग के लिये पर्याप्त आधारभूत संरचना विकसित करना है। यह योजना पर्यावरण प्रदूषण और इंर्धन सुरक्षा जैसी समस्याओं का समाधान करेगी । 
गौरतलब है कि देश में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग भी बढ़ रही है। नॉर्वे और चीन जैसे देशों ने बड़े पैमाने पर बिजली से चलने वाले वाहनों का निर्माण शुरू किया है। जनवरी २०११ से दिसंबर २०१७ के बीच चीन में बिजली से चलने वाले  १७ लाख २८ हजार ४४७ वाहन सड़कों पर उतारे गए । उद्योग मंडल 'एसोचौम` और 'अन्सर्ट्स एंड यंग` (ईएण्डवाई) के संयुक्त  अध्ययन में कहा गया है कि साल २०३० तक इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग ६९.६ अरब यूनिट पहुंचने का अनुमान है।
आलोचकों का तर्क है कि भारत में ९० प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयले से होता है। ऐसे में इलेक्ट्रिक कारों से प्रदूषण कम करने की बात बेईमानी लगती है। नॉर्वे के विज्ञान और प्रौघोगिकी विश्वविद्यालय की ओर से कराए गए एक शोध के मुताबिक बिजली से चलने वाले वाहन पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों से कहीं ज्यादा प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि यदि बिजली उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल होता है तो इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसें डीजल और पेट्रोल वाहनों की तुलना में कहीं ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। 
यही नहीं, जिन फैक्ट्रियों में बिजली से चलने वाली कारें बनती हैं वहां भी तुलनात्मक रूप में ज्यादा विषैली गैसें निकलती हैं। हालांकि शोध-कर्ताओं का कहना है कि इन खामियों के बावजूद कई मायनों में ये कारें फिर भी बेहतर हैं। रिपोर्ट में ये कहा गया है कि ये कारें उन देशों के लिए फायदेमंद हैं जहां बिजली का उत्पादन अन्य स्त्रोतों से होता है ।
अपने देश में ऊर्जा अभाव के  चलते इलेक्ट्रिक वाहनों का सपना चुनौतीपूर्ण ही लगता है। इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल सके, अभी इस पर काम किया जाना है। वहीं उसके लिए बुनियादी सुविधाओं, संसाधनों और बजट का प्रावधान किया जाना है। वाहन निर्माता कंपनियों का कहना है कि अगर सरकार बैटरी निर्माण और चार्जिंग स्टेशनों की समस्या का समाधान कर दे तो बड़ी तादाद में बिजली-चलित वाहन बाजार में उतारे जा सकते हैं । 
जाहिर है बुनियादी सुविधाओं का इंतजाम सरकार को करना है और इसके लिए ठोस दीर्घावधि नीति की जरूरत है। देखना होगा कि आने वाले समय में बिजली आधारित वाहनों के उपयोग और उससे उत्सर्जन में कमी लाने के प्रयासों की पहल कितनी कारगर साबित होगी  ?
पर्यावरण परिक्रमा
चन्द्रयान-२ का प्रक्षेपण स्पेस मेंनया मुकाम
प्राचीन काल से ही मानव को मोहित करने वाले चंद्रमा पर २० जुलाई १९६९ को पहली बार मानव के कदम पड़े । उस घटना को भले ही पचास साल पूरे हो गए है । 
आज तक अमेरिका, रूस, जापान, यूरोप व चीन के साथ भारत ने भी चंद्र अभियान सफलता से पूरा किया है । चंद्रमा अस्तित्व में कैसे आया वह चाहे अब भी पक्के तौर पर कहना संभव न हो पाया हो पर वहां पहुंचने वाले मानवरहित यानोंसे नए व महत्वपूर्ण तथ्य उजागर हुए हैं । 
चंद्रयान-१ ने चंद्रमा की सतह पर पानी की मौजूदगी के सबूत सबसे पहले दुनिया के सामने प्रस्तुत किए और साथ ही यह भी बताया कि चंद्रमा पर आज भी भूकंप जैसे झटके आते हैं । क्लेमेंटाइन के कारण चांद के दक्षिण ध्रुव के स्वरूप का पता चला और वहां पानी होने की संभावना प्रबल हुई । 
प्रॉस्पेक्टर ने चंद्रमा की सतह के समीप स्थित चुंबकीय क्षेत्र का मानचित्र बनाया । चीनका चांग ई ४ चांद के पृथ्वी से नजर न आने वाले हिस्से पर उतरा । कुल-मिलाकर इन सारे अभियानों से चांद के कई पहलुआें के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त् होने के साथ नया विज्ञान व नई टेक्नोलॉजी विकसित हुई । 
चंद्रयान-२ के जरिये भारत पहली बार चांद की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग का प्रयास करेगा और ऐसा करने वाला वह दुनिया का चौथा देश होगा । दुनिया को चंद्रयान-२में उतनी ही दिलचस्पी हैं, जितनी कभी अपोलो ११ को लेकर रही होगी, क्योंकि नई टेक्नोलॉजी की मदद से नई जानकारी सामने आने की उम्मीद है । अगर हम विभिन्न देशों के मून मिशन्स पर निगाह डाले तो लगता है कि इसमें स्पर्धा फिर जोर पकड़ रही है । 
चीन २०३५ तक चांद पर मानव भेजने की तैयारी में लगा है तो अमेरिका फिर से चांद पर किसी अमेरिकी के कदमों की छाप छोड़ना चाहता है । अपोलो की बहन आर्टेमिस का नाम शायद इस मिशनको दिया जाए और २०२८ तक चंद्रमा पर फिर किसी अमेरिकी के कदम पड़ेंगे । भारत ने आज तक स्पेस रिसर्च की सत्ता-स्पर्धा से दूर रहकर प्रगति का आदर्श सामने रखा है । हो सकता है आगामी दशक में भारत को अपना यह आदर्श छोड़ना पड़े । तब तक स्पेस टेक्नोलॉजी में हमारी तरक्की अबाधित जारी रहे, चंद्रयान-२ मिशन उसी दिशा में नया मुकाम हैं । 
एनजीटी का आदेश प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियोंको बंद करें
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) पिछले दिनों केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल (सीपीसीबी) को निर्देश दिया है कि देश में गंभीर रूप से प्रदूषण फैलाने वाले तमाम उद्योगों को तीन महीने के भीतर बंद करवाया जाए । 
एनजीटी ने यह फैसला देते हुए कहा कि लोगों के स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर आर्थिक विकास नहीं किया जा सकता । इस फैसले से सफेद और हरी यानी गैर प्रदूषण-कारी इंडस्ट्रीज के संचालन पर कोई असर नहीं पड़ेगा । एनजीटी ने अपने फैसले में कहा है कि क्रिटीकली पॉल्यूटेड एरिया और सीवियरली पॉल्यूटेड एरिया में मौजूद प्रदूषण फैलाने वाली इंडस्ट्रीज को बंद किया जाना चाहिए । 
एनजीटी के अध्यक्ष जस्टिस आदर्श कुमार गोयल ने सीपीसीबी को निर्देश दिया है कि वह राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण मंडलों के साथ मिलकर आकलन करे कि इन क्षेत्रों में प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों ने पिछले पांच साल में कितना प्रदूषण फैलाया है ? और उसके लिए इनसे कितना मुआवजा लिया जाना   चाहिए । मुआवजे मेंप्रदूषण मुक्त बनानेमें लगने वाली राशि और सेहत व पर्यावरण को हुए नुकसान को शामिल किया जाएगा । 
गौरतलब है कि २००९-१० में सीपीसीबी और एसपीसीबी ने मिलकर एक अध्ययन किया था, जिसमें देशभर के औघोगिक क्ल्स्टर्स को इस आधार पर अलग-अलग कैटेगरी में रखा गया था कि वे कितने प्रदूषित है । अध्ययन में तेजी तीन कैटेगरी तय की गई थी - क्रिटिकली पॉल्यूटेड एरिया (नाजुक रूप से प्रदूषित), सीवियरली पॉल्यूटेड एरिया (गंभीर रूप से प्रदूषित) और अन्य प्रदूषित क्षेत्र । 
ट्रिब्यूनल ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को निर्देश दिया कि पर्यावरण को सुधारने के लिए एक्शन प्लान पर काम करना शुरू करें। ट्रिब्यूनल ने सीपीसीबी से तीन महीने के अंदर आदेश के पालन की रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है । मामले की जांच सुनवाई के लिए ५ नवम्बर तारीख तय की है । एनजीटी बेंच ने यह भी आदेश दिया कि इस लाल और नारंगी कैटेगरी वाली इकाइयों को तब तक विस्तार नहीं दिया जाएगा, जब तक इनसे प्रभावित क्षेत्रों का प्रदूषण स्तर कम करके एक सीमा के अंदर नहीं लाया जाता है या फिर उस क्षेत्र की सहन करने की क्षमता का आकलन नहीं कर लिया जाता है । 
एनजीटी ने सभी डीएम को निर्देश दिया है कि वे महीने में दो बार बॉयो-मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट नियमों की निगरानी करें । एनजीटी ने जिला कमेटी की निगरानी में जिला पर्यावरण योजना होनी चाहिए ओर इसमें पंचायत, स्थानीय संस्थाआें, क्षेत्रीय अधिकारियों, एसपीसीबी और प्रशासन से प्रतिनिधि होने चाहिए । यह टीम डीएम के अधीन होगी । 
एनजीटी ने सभी राज्यों और केन्द्र शासित राज्यों को निर्देश दिया है कि वे दो महीने के भीतर स्वास्थ्य सेवाआें और बॉयोमेडिकल वेस्ट जनरेशन के बारे में जानकारी दे । 
म.प्र. के सरदार सरोवर में २०० गांव डूबेगे 
सरदार सरोवर बांध इस साल जब पूरा भर जाएगा तो म.प्र. के चार जिलोंके १९४ गांव डूब की जद में आ जाएंगे । धार जिले के चिखल्दा और निसरपुर भी इन गांवोंमें है, जहां बारह अगस्त के बाद डूब का खतरा शुरू हो जाएगा । पन्द्रह अक्टूबर तक ये गांव डूब जाएंगे । 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सितम्बर २०१७ में बांध का उद्घाटन किया था, तब बांध का खतरे का निशान १३१.१८ मीटर था । दो साल से यही हाल हैं । अभी १२० मीटर पानी है, जिसके १३८.६८ मीटर तक पहुंचने के आसार है । यही सीमा सुप्रीम कोर्ट ने भी तय कर रखी है । इस इलाके मेंहो रही अच्छी बारिश के कारण नर्मदा कन्ट्रोल अथॉरिटी ने बांध में पानी बढ़ाने का कार्यक्रम तैयार कर लिया है । १२ अगस्त तक यह १३१.१८ मीटर तक पहुंच  जाएगा । इतने पानी में चिखल्दा और निसरपुर गांव डूब मे आ जाएंगे । 
इस वर्ष ३१ अगस्त तक बांध में १३४.१८ मीटर पानी भरना तय किया गया है । इसमें मनावर जिले के कई गांव डूब में आ जाएंगे । तीस सितम्बर तक बांध में १३७.७२ मीटर पानी आने की उम्मीद है । इस कारण धार और बड़वानी जिले के कई गांवों के अलावा खलघाट के आसपास का हिस्सा भी डूब में आएगा । १५ अक्टूबर तक बांध में १३८.६८ मीटर तक पानी भर जाएगा, तब १९४ गांव डूब जाएंगे । 
अलीराजपुर और खरगौन जिले के भी कई गांव पर डूब का खतरा है । धार जिले में बीस हजार से ज्यादा परिवारों पर असर पड़ेगा । चिखल्दा के डूब में आने बाद नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने यहां भूख हड़ताल की थी । 
पिछले दिनोंनर्मदा बचाओ आंदोलन के रोहित सिंह ने कहा कि जब तक तीस हजार परिवारों को दूसरी जगह नहीं भेजा जाता, हमारा विरोध जारी  रहेगा । यदि तब तक भरपूर बारिश नहीं हुई, तो नर्मदा कन्ट्रोल अथॉरिटी वाले दूसरी जगहों से पानी छोड़कर इस भरने की कोशिश  करेंगे ।  जब तक लोगों को हक नहीं मिल जाता, तब तक हम यहां से नहीं हटेगे। 
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इन्दौर कमिश्नर आकाश त्रिपाठी ने कहा कि केन्द्र सरकार, नर्मदा कन्ट्रोल अथॉरिटी की रिपोर्ट पर काम करेगी । 
हवा की नमी से पेयजल बनाने वाली मशीन हुई तैयार
हवा की नमी अब लोगोंकी प्यास बुझाएगी । आइआइटी मद्रास के छात्रों-प्रोेफेसर की एक टीम का यह नया शोध हवा मेंमौजूद नमी से जल उत्पादन पर आधारित है । शोधार्थियों ने ऐसी मशीन बनाई है जो हवा में मौजूद नमी को पेयजल बनाएगी । इसका नाम एटमॉस्फेर वाटर जेनरेटर (एडब्ल्यूजी) रखा गया है । 
इस प्रोजेक्ट को इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड ने सहयोग दिया है । आइआइटी छात्र रमेश कुमार, अंकित  नागर और अन्य ने वायुजल टेक्नोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड नामक स्टार्टअप कंपनी बनाई है । जो इस प्रोजेक्ट पर काम करेगी । 
एडब्ल्यूजी बिजली और सोलर सिस्टम से भी चलेगा । इससे एक लीटर पानी बनाने में ०.३६ से ०.५५ यूनिट बिजली की खपत होती है । इसका पानी बोतलबंद से भी सस्ता होगा और गुणवत्ता समान रहेगी । 
एडब्ल्यूजी  के डिजायन इंजीनियर सुदीप पटेल ने कहा कि अब हमें कम कीमत व बिजली खपत वाली मशीन पर काम कर रहे है । यह मशीन वायु में नमी की मात्रा पर निर्भर होगी । तटीय इलाकों में अधिक नमी की वजह से बिजली की खपत कम होगी । पानी को पीने युक्त बनाने के लिए इसमें मिनरल मिलाए जाते है । 
सह संस्थापक अंकित नागर ने बताया कि पहले हवा मशीन के अग्रभाग वाले फिल्टर के माध्यम से तकनीकी सतह मेंप्रवेश करती है, जहां उसे शुद्ध किया जाता है ।
जनमानस
पर्यावरण में बढ़ता प्रदूषण
रूपनारायण काबरा

पर्यावरण प्रदूषण इस समय एक विश्वव्यापी समस्या है, एक चुनौती है और है एक चेतावनी । इस प्रदूषण ने हमारे जन-जीवन को, हमारे स्वास्थ्य को, हमारे मौसम और प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति को एवं हमारे मन-मस्तिष्क को, सभी को बुरी तरह प्रभावित ही नहीं आक्रान्त कर रखा है । 
समझदार बड़े चिन्तित है, भयावह भविष्य को स्वयं समझते हैं तथा लोगों को समझाते हैं पर नासमझ अधिकांश उसी ढर्रे पर चले जा रहे हैं, बेखबर से, और जिस डाल पर बैठे हैं उसी पर अपनी स्वार्थपरता की कुल्हाड़ी से प्रहार किये जा रहे हैं । आज हमने तथाकथित विकास की महत्वाकांक्षा में हमारी धरती, वायु, वनस्पति, जीव-जन्तु एवं जल इत्यादि पूरे पर्यावरण को प्रदूषित कर डाला है । कालजयी पतितपावनी गंगा तक भी मैली हो गई है । शहरों में ध्वनि प्रदूषण भी एक चिन्तनीय समस्या है । अत्याधिक शोर बहरापन एवं विक्षिप्त्ता पैदा करता है । 
मानव प्रकृति पर अपनी विजय की महत्वाकांक्षा के चक्कर में प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन कर रहा है, शोषण कर रहा है । हमारी संस्कृति के मूल में प्रकृति के प्रति जो आस्था भाव था, जो मैत्री भाव था वह आज लुप्त् होता जा रहा है । पेड़, पौधों की पूजा करने वाले इस देश का वन-भाग औसत से भी बहुत कम है । धर्मो रक्षति रक्षित: की भावना का अर्थ तो यही है कि पर्यावरण की रक्षा करो, यह तुम्हारी रक्षा करेगा, पर हम इस अर्थ को भूल गये है । 
प्रकृति उसे कभी निराश नहीं करती जो उसे प्यार करता है । प्रकृति माता है, माफ करती है औैर करती रही है पर प्रकृति के प्रति हमारे स्वार्थजनित अपराध इतने बढ़ गये हैं कि प्रकृति माता भी रूष्ट होने लगी है, वह बर्दाश्त नहीं कर पा रही है अपनी वन-संपदा का विनाश, वन्य जीवों का संहार, अपने जल, वायु, एवं मृदा का प्रदूषण और यदि हमने अपने आपको सुधारा नहीं तो हमें प्रकृतिके क्रोध का सामना करना पड़ेगा । 
विश्व की सम्पूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि भी प्रकृति की हल्की सी चपत के सामने, उसकी जरा सी कुंचित भृकुटि के सामने नगण्य है, नतमस्तक है और विवश है । विज्ञान न तूफान रोक सकता है, न बारिश और भूकम्प पर तो उसके वश का प्रश्न ही नहीं उठता । विज्ञान अपने स्वयं के दुष्परिणामों यथा ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन की परत का पतला होना, रेडियोधर्मिता एवं वायु-प्रदूषण व जल-प्रदूषण को नहीं रोक पा रहा है । हमें प्रकृति को पहले की ही भांति स्वच्छ एवं सम्पन्न रखना है । प्रकृति से लेने के साथ देने का भी भाव रखा जाय । सघन वृक्षारोपण द्वारा हम प्रकृति के प्रति अपने ऋण को काफी हद तक उतार सकते है और बढ़ती आवश्यकताआें को नियन्त्रित करने का तो एक ही साधन है, जनसंख्या वृद्धि पर रोक । 
भोपाल त्रासदी और चेरनो-बिल परमाणु-संयत्र- विस्फोट एवं सुनामी लहर हमें चेतावनी दे चुके हैं पर हम नहीं सुनते ही नहीं । यदि हमने वृक्षों को काटना कम करते सघन वृक्षावली विकसित नहीं की, यदि परमाणु बम परीक्षणों को, कारखानों की गैसों को, शहरों की भीड़ को, बढ़ते शोर को, बढ़ती जनसंख्या को, वाहनों के धुयें को, रासायनिक खादों के प्रयोग एवं कीटनाशकों के छिड़काव तथा अत्याधिक यन्त्री-करण को नियन्त्रित नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब कयामत रूवयं हमारी बुलाई हुई आयेगी । हमें बढ़ते जा रहे कार्बन उत्सर्जन पर नियन्त्रण करना ही है । 
पर्यावरण संरक्षण अभियान हेतु और कुछ नहीं तो हम यह तो कर ही सकते हैं कि - 
१. लोगों में प्रकृति और वातावरण के प्रति रूचि पैदा करने के लिए इस विषय को शिक्षा एवं जन-संसार कार्यक्रमों का एक प्रमुख अंग बना दिया जाये । धार्मिक कथावाचक भी इसे अपनी कथा में समाहित कर लें तो अच्छा हो । 
२. पर्यावरण जागृति को एक रचनात्मक आन्दोलन का स्वरूप प्रदान किया जाये । प्राकृतिक संसाधनों की सीमितता के प्रति जागरूक किया जाय े । जल संरक्षण किया जाये व जल प्रदूषण को रोका जाये । 
३. उद्योग लगाने से पहले प्रदूषण को रोकने के उपाय आवश्यक हो । प्रभावी सफाई संयंत्र की व्यवस्था अनिवार्य हो । 
४. पर्यावरण को असन्तुलित करना एक अपराध माना जाये । 
५. पारिस्थितिक सम्बन्धों को जन मानस के हद्य में अंकित किया जावे कि समस्त पर्यावरण वनस्पति और प्राणीजगत की सहजीविता पर ही टिका है । 
मानव एवं पर्यावरण का अनन्य सम्बन्ध है । वे एक-दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संदिग्ध है । कोई भी जीवधारी अकेला नहीं रह   सकता । सभी जीवधारी चाहे वह मनुष्य हो, जीव जन्तु हो अथवा वनस्पति सभी एक पर्यावरण में रहते है, सब पारिस्थितिकी से बंधे हैं । 
खूब पेड़ लगाकर ही हम प्रकृति के प्रति अपना प्रेम एवं श्रद्धा प्रकट कर सकते है और तब प्रकृति देगी हमें अपना आशीर्वाद एवं वरदान । हमारी धरती लहलहा उठेगी, पक्षियों के संगीत से गूंज उठेगी । मौसम सुहाने होंगे, न होगी बाढ़, न होगी अनावृष्टि और जलवायु परिवर्तन नियमित होंगे । हमारी फसलें भरपूर होंगी । 
हम और हमारे पक्षी एवं पशु सुखी स्वस्थ होंगे और तब पग-पग पर पसरा प्रकृति का सौन्दर्य भौतिकवाद से ग्रस्त मानव को अनुपम शांति देगा ।
प्रदेश चर्चा
म.प्र. : गिद्धों की कमी से खतरे की घंटी  
मनीष वैद्य

  मध्यप्रदेश के आबादी क्षेत्रों में गिद्धों की तादाद में बड़ी कमी दर्ज की गई है। पूरे प्रदेश में एक ही दिन १२ जनवरी २०१९ को एक ही समय पर की गई गिद्धों की गणना में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए  हैं।
इन आंकड़ों पर गौर करें तो ऊपर से देखने पर मध्यप्रदेश में गिद्धों की संख्या बढ़ी हुई नजर आती है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और बयान करती है। पूरे प्रदेश में दो साल पहले हुई गणना के मुकाबले ताजा गणना में आंकड़े यकीनन बढ़े हैं। लेकिन इनमें सबसे ज्यादा गिद्ध सुरक्षित अभयारण्यों में पाए गए हैं। दूसरी तरफ गांवों, कस्बों और शहरों के आबादी क्षेत्र में गिद्ध तेजी से कम हुए हैं। गिद्धों के कम होने से पारिस्थितिकी तंत्र पर संकट के साथ किसानों के मृत मवेशियों की देह के निपटान और संक्रमण की भी बड़ी चुनौती सामने आ रही है।
इस बार १२७५ स्थानों पर किए गए सर्वेक्षण में प्रदेश में ७९०६ गिद्धों की गिनती हुई है। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इसमें १२ प्रजातियों के गिद्ध मिले हैं। इससे पहले जनवरी २०१६ में ६९९९ तथा मई २०१६ में ७०५७ गिद्ध  पाए गए   थे । ऐसे देखें तो गिद्धों की तादाद १२ फीसदी की दर से बढ़ी है । पर इसमें बड़ी विसंगति यह है कि इसमें से ४५ फीसदी गिद्ध प्रदेश के संरक्षित वन क्षेत्रों में मिले हैं जबकि पूरे प्रदेश के आबादी क्षेत्र में गिद्धों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से कम हुई है । 
जैसे, मंदसौर जिले में गांधी सागर अभयारण्य में गिद्धों को साधन सम्पन्न प्राकृतिक परिवेश हासिल होने से इनकी संख्या बढ़ी है। बड़ी बात यह भी है कि एशिया में तेजी से विलुप्त् हो रहे ग्रिफोन वल्चर की संख्या यहां बढ़ी है। ताजा गणना में यहां ६५० गिद्ध मिले हैं। दूसरी ओर, श्योपुर के कूनो अभयारण्य में २४२ गिद्धों की गणना हुई है जो दो साल पहले के आंकड़े ३६१ से ११९ कम है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में भी २०१६ के आंकड़े ८११ के मुकाबले मात्र ५६७ गिद्ध मिले हैं। सर्वाधिक गिद्ध रायसेन जिले में ६५० रिकॉर्ड किए गए  हैं । 
यदि गिद्धों की कुल संख्या में से मंदसौर अभयारण्य और रायसेन के आंकड़ों को हटा दें तो शेष पूरे प्रदेश में गिद्ध कम ही हुए हैं। नगरीय या ग्रामीण क्षेत्र में, जहां गिद्धों की सबसे ज्यादा जरूरत है, वहां इन कुछ सालों में गिद्ध कम ही नहीं हुए, खत्म हो चुके हैं ।  दरअसल वन विभाग ने जंगल और आबादी क्षेत्र के गिद्धों के आंकड़ों को मिला दिया है। इस वजह से यह विसंगति हो रही है।
दरअसल बीते दो सालों में यहां गिद्धों की तादाद तेजी से कम हुई है । 
इंदौर में तीन साल पहले तक ३०० गिद्ध हुआ करते थे, अब वहां मात्र ९४ गिद्ध ही बचे हैं । उज्जैन और रतलाम जिलों में तो एक भी गिद्ध नहीं मिला । इसी तरह देवास जिले में भी मात्र दो गिद्ध पाए गए हैं । धार, झाबुआ और अलीराजपुर में भी कमोबेश यही स्थिति है । इंदौर शहर को देश का सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया है । लेकिन शहर की यही स्वच्छता अब गिद्धों पर भारी पड़ती नजर आ रही है । बीते मात्र दो सालों में इंदौर शहर और जिले से १३६ गिद्ध गायब हुए हैं  । कभी यहां के ट्रेचिंगग्राउंड पर गिद्धों का झुण्ड जानवरों के शवों की चीरफाड़ में लगा रहता था। अब वहां गंदगी के ढेर कहीं नहीं हैं । मृत जानवरों को जमीन में गाड़ना पड़ रहा है । अब गणना में ट्रेचिंग ग्राउंड पर सिर्फ ५४ गिद्ध मिले हैं । दो साल पहले तक यहां ढाई सौ के  आसपास गिद्ध हुआ करते थे । 
इसी तरह चोरल, पेडमी और महू के जंगलों में भी महज ४० गिद्ध ही मिले हैं जहां कभी डेढ़ सौ गिद्ध हुआ करते थे। गिद्ध खत्म होने के पीछे पानी की कमी भी एक बड़ा कारण है। ट्रेचिंग ग्राउंड के पास का तालाब सूख चुका है और एक तालाब का कैचमेंट एरिया कम होने से इसमें पानी की कमी रहती है और अक्सर सर्दियों में ही यह सूख जाता है । शहर से कुछ दूरी पर गिद्धिया खोह जल प्रपात की पहचान रहे गिद्ध अब यहां दिखाई तक नहीं देते । गणना के समय एक गिद्ध ही यहां मिला ।
इन दिनों गांवों में भी कहीं गिद्ध नजर नहीं आते । कुछ सालों पहले तक गांवों में भी खूब गिद्ध हुआ करते थे और किसी पशु की देह मिलते ही उसका निपटान कर दिया करते थे । अब शव के सडने से उसकी बदबू फैलती रहती है । ज्यादा दिनों तक मृत देह के सड़ते रहने से जीवाणु-विषाणु फैलने तथा संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है ।
देवास के कन्नौद में फॉरेस्ट एसडीओ एम. एल. यादव बताते हैं, करीब ७५ हजार वर्ग किमी में फैले जिले में २०३३ वर्ग कि.मी. जंगल है । कुछ सालों पहले तक जंगल में गिद्धों की हलचल से ही पता चल जाता था कि किसी जंगली या पालतू जानवर की मौत हो चुकी है। जंगलों में चट्टानों तथा ऊंचे -ंऊंचे पेड़ों पर इनका बसेरा हुआ करता था । इन्हें स्वीपर ऑफ फॉरेस्ट कहा जाता रहा है । मृत पशुओं के मांस का भक्षण ही उनका भोजन हुआ करता था । ये कुछ ही समय में प्राणी के शरीर को चट कर देते थे। लेकिन अब जिले के हरे-भरे जंगलों में भी इनका कोई वजूद नहीं रह गया है
सदियों से गिद्ध हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण सफाईकर्मी रहे हैं । ये मृत जानवरों के शव को खाकर पर्यावरण को दूषित होने से बचाते रहे हैं । लेकिन अब पूरे देश में गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों पर अस्तित्व का ही सवाल खड़ा होने लगा है । इनमें सामान्य जिप्स गिद्ध की आबादी में बीते दस सालों में ९९.९ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है । १९९० में तीन प्रजातियों के गिद्धों की आबादी हमारे देश में चार करोड़ के आसपास थी जो अब घटकर दस हजार से भी कम रह गई है । पर्यावरण के  लिए यह खतरे की घंटी     है ।
दरअसल पालतू पशुओं को उपचार के दौरान दी जाने वाली डिक्लोफेनेक नामक दवा गिद्धों के लिए घातक साबित हो रही है। इस दवा का उपयोग मनुष्यों में दर्द निवारक के रूप में किया जाता था । अस्सी के दशक में इसका उपयोग गाय, बैल, भैंस और कुत्ते-बिल्लियों के लिए भी किया जाने लगा। इस दवा का इस्तेमाल जैसे-जैसे बढ़ा, वैसे-वैसे गिद्धों की आबादी लगातार कम होती चली गई । पहले तो इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन जब हालात बद से बदतर होने लगे तो खोज-खबर शुरू  हुई । तब यह दवा शक के घेरे में आई । 
वैज्ञानिकों के मुताबिक डिक्लोफेनेक गिद्धों के गुर्र्दों पर बुरा असर डालता है । इस दवा से उपचार के बाद मृत पशु का मांस जब गिद्ध खाते हैं तो इसका अंश गिद्धों के शरीर में जाकर उनके गुर्दों को खराब कर देता है जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती है । खोज में यह बात भी साफ हुई है कि यदि मृत जानवर को कुछ सालों पहले भी यह दवा दी गई हो तो इसका अंश उसके शरीर में रहता है और उसका मांस खाने से यह गिद्धों के शरीर में आ जाता है।
कई सालों तक इस दवा के उपयोग को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के लिए पर्यावरण विशेषज्ञ और संगठन मांग करते रहे तब कहीं जाकर इस दवा के पशुओं में उपयोग पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध लगाया गया । लेकिन आज भी तमाम प्रतिबंधों को धता बताते हुए यह दुनिया के कई देशों में बनाई और बेची जा रही है । इससे भी खतरनाक बात यह है कि कई कंपनियां इन्हीं अवयवों के साथ नाम बदलकर दवा बना रही हैं। इसी वजह से गिद्धों को बचाने की तमाम सरकारी कोशिशें भी सफल नहीं हो पा रही हैं । 
अब जब गिद्धों की आबादी हमारे देश के कुछ हिस्सों में उंगलियों पर गिने जाने लायक ही बची है तब २००७ में भारत में इसके निर्माण और बिक्री पर रोक लगाई गई । लेकिन अब भी इसका इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है । कुछ दवा कम्पनियों ने डिक्लोफेनेक के विकल्प के रूप में पशुआें के लिए मैलोक्सीकैम दवा बनाई है । यह गिद्धों के लिए नुकसानदेह नहीं है।
विशेषज्ञों के मुताबिक संकट  के बादल सिर्फ गिद्धों पर ही नहीं, अन्य शिकारी पक्षियों बाज, चील और कुइयां पर भी हैं । कुछ सालों पहले ये सबसे बड़े पक्षी शहरों से लुप्त् हुए । फिर भी गांवों में दिखाई दे जाया करते थे पर अब तो गांवों में भी नहीं मिलते । कभी मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से चार तरह के गिद्ध मिलते थे ।
गिद्धों को विलुप्ति से बचाने के लिए सरकारें अब भरसक कोशिश कर रही हैं । संरक्षण के लिहाज से गिद्ध वन्य प्राणी संरक्षण १९७२ की अनुसूची १ में आते हैं। देश में आठ खास जगहों पर इनके ब्राीडिंग सेंटर बनाए गए हैं। हरियाणा के पिंजौर तथा पश्चिम बंगाल के बसा में ब्रीडिंग सेंटर में इनके लिए प्राकृतिक तौर पर रहवास उपलब्ध कराया गया है । पिंजौर में सबसे अधिक १२७ गिद्ध हैं ।
दो साल पहले भोपाल में भी केरवा डेम के पास मेंडोरा के जंगल में प्रदेश का पहला गिद्ध प्रजनन केन्द्र स्थापित किया गया है । वन अधिकारियों के मुताबिक यहां गिद्धों की निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं और उनकी हर हलचल पर नजर रखी जाती है ।
हमारे पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए गिद्धों को सहेजना बहुत जरूरी है । हमारे देश में किसानों के पास बीस करोड से ज्यादा गायें, बैल, भैंस आदि पालतू मवेशी हैं । इन्हें पशुधन माना जाता है। लेकिन जब इनकी मृत्यु हो जाती है तब इन्हें जलाया या दफनाया नहीं जाता है, बल्कि गांव किनारे की क्षेपण भूमि में मृत देह को रख आते हैं। गिद्धों के अभाव में मृत मवेशियों की देह सड़ती रहती है । गिद्धों की कमी के कारण मांस खाने वाले कुत्तों की तादाद बढ़ने से रैबीज जैसे रोगों का खतरा भी बढ़ जाता है ।
पारसी समुदाय में शवों को डोखमा (बुर्ज) में खुला छोड़ दिया जाता है । जहां गिद्ध जैसे बड़े पक्षी उन्हें नष्ट करते हैं । पारसी धारणा के मुताबिक शव को दफनाने से जमीन तथा जलाने से आग दूषित होती है । इसलिए इस समाज के लोगों के लिए तो गिद्धों का होना बहुत जरूरी है । अब गिद्धों की कमी के चलते बुर्जों पर सौर उर्जा परावर्तक लगाए जा रहे हैं ।
गिद्धों के संरक्षण के लिए सरकारों के साथ समाज को भी आगे आना पड़ेगा । तेजी से कम होते जा रहे गिद्धों के नहीं रहने से बढ़ते प्रदूषण पर सोचने भर से हम सिहर उठते हैं । गिद्धों का रहना हमारे पर्यावरण की सेहत के लिए बेहद जरूरी है । उनके बिना प्रकृति की सफाई कौन करेगा । 
किसान  चाहें तो खुद अपने मवेशियों को डिक्लोफेनेक देने से रोक सकते हैं। इसके विकल्प के रूप में मैलोक्सकैम दवा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए । इसके अलावा गिद्धों के प्राकृतिक आवास तथा घोंसलों को भी संरक्षित कर सहेजने की जरूरत है ।  कहीं ऐसा न हो कि हम अगली पीढ़ी को सिर्फ किताबों और वीडियो में दिखाएं कि कभी इस धरती पर गिद्ध रहा करते थे ।                                         
पक्षी जगत
खतरे में सारस पक्षी
डॉ. दीपक कोहली

सारस उत्तर प्रदेश का राज्य पक्षी है । इसे सारस क्रेन भी  कहा जाता है । वैज्ञानिक भाषा में इसका नाम र्ऋीीी रिळींसिशि है । संयोगवश यह विश्व के उड़ने वाले पक्षियों में सबसे बड़ा पक्षी है । वयस्क नर की ऊंचाई लगभग १५६ सेंटीमीटर तक होती है । नर एवं मादा देखने में एक समान होते हैं । यह अकेला पक्षी जो हिमालय के दक्षिणी भाग में प्रजनन करता है । पर्यावरण संतुलन में सारस पक्षी का महत्वपूर्ण योगदान है । 
सारस पक्षी का अपना विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व भी है । संसार के प्रथम ग्रंथ रामायण की प्रथम कविता का श्रेय सारस पक्षी को जाता है ं। रामायण का आरंभ एक प्रणयरत सारस-युगल के वर्णन से होता है । प्रात:काल की बेला में  महर्षि वाल्मीक इसके द्रष्टा हैं । तभी एक आखेटक द्वारा इस जोड़े में से एक की हत्या कर दी जाती हैं । जोड़े का दूसरा पक्षी इसके वियोग में प्राण दे देता है । ऋषि उस आखेटक को श्राप दे देते हैं ं। 
पूरे विश्व में इसकी कुल आठ जातियां पाई जाती हैं । इनमें से चार भारत में पाई जाती हैं । पांचवी साइबेरियन क्रेन भारत में से सन् २००२ में ही विलुप्त् हो गई । सारस पक्षी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यामांर, नेपाल के मैदानी क्षेत्रों में पाये जाते हैं । शनै:-शनै: इस पक्षी की संख्या में काफी कमी आई है और विश्व स्तर पर संकटग्रस्त पक्षी की श्रेणी में आ गया है । 
एक अनुमान के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी संख्या लगभग ८००० से १०००० है । संयोगवश उत्तर प्रदेश में ही इनकी संख्या विश्व की कुल संख्या का लगभग ४०%  है । वैसे तो यह पक्षी उत्तर प्रेश के समस्त मैदानी क्षेत्रों में देखा जाता है, इनको इटावा, मैनपुरी, औरैया, अलीगढ़ तथा लखीमपुर खीरी आदि जिलों में बड़े-बड़े जलीय एवं दलदली क्षेत्र (वेटलैंड) होने के कारण वहां उसकी उसकी अपेक्षाकृत बड़े झुंड दिखाई पड़ते हैं । किसी भी जलीय एवं दलदली क्षेत्र में सारस पक्षी का पाया जाना उस स्थान के स्वस्थ पर्यावरण का सूचक है, जिस पर इनका अस्तित्व निर्भर करता है । 
सामान्य रूप से ग्रामवासी सारस पक्षी को आदर भाव से देखते हैं तथा इसका शिकार नहीं करते । सारस का जोड़ा प्रेम एवं निष्ठा का प्रतीक है । बहुत सारे किसानों के बीच यह धारणा है कि उनके खेतों में सारस की उपस्थिति शुभ लक्षण के संकेत हैं । सारस घने वनों व वृक्षों का पक्षी नहीं है । यह मुख्यत: जलीय एवं दलदली क्षेत्रों का निवासी है । 
हाल ही में जलीय व दलदली क्षेत्रों में भू परिवर्तन, खेती के मशीनीकरण तथा कृषि फसलों में कीटनाशकों के अत्याधिक प्रयोग के कारण सारस के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है तथा सामान्यरूप से उनके प्राकृतिक वास में विघटन हुआ है । इसके अतिरिक्त खेतोंके ऊपर से जाते हुए उच्च् शक्ति के बिजली के तारों से टकाराना, शिकार, व्यस्क सारस को व्यापार हेतु पकड़ा जाना तथा इनके अंडों की चोरी, कुत्तों और कौवों द्वारा इनके अंडों और बच्चें को नुकसान पहुंचाना भी कुछ कारण है जिनके कारण इनकी संख्या में कमी आई है । 
वैश्विक स्तर पर इसकी संख्या में हो रही कमी को देखते हुए  खणउछ (खिशींीरिींळिरिश्र णळििि षिी उििर्शीीींरींळिि षि छर्रींीीश) द्वारा इसे संकटग्रस्त प्रजाति घोषित किया गया है । इसका अर्थ यह है कि वैश्विक स्तर पर इस पक्षी की संख्या में तेजी से कमी आ रही है और अगर इसकी सुरक्षा के समुचित उपाय नहीं किये गए तो यह प्रजाति विलुप्त् हो सकती हैं । यहां पर उल्लेखनीय है कि मलेशिया, फिलीपींस और थाईलैंड में सारस पक्षी की यह जाति पूरी तरह से विलुप्त् हो चुकी हैं । भारत वर्ष में भी कथित रूप से विकसित स्थानों में से अधिकांश स्थानों पर सारस पक्षी विलुप्त्प्राय हो चुके हैं । 
वैसे तो सारस पक्षी वर्षभर प्रजनन करते हैं, लेकिन अगस्त व सितंबर महीने इनके प्रजनन का शीर्ष समय होता है । सामान्य रूप से जमन-जुलाई में किसी झील या जलमग्न धान के खेतों के बीच टापूनुमा स्थान को चुनकर वहां घांस-फूस, पूआल का एक बड़ा सा घोंसला बनाते हैं, जिसमें मादा औसतन एक बार में २ अंडे देती हैं । 
मादा सारस अपने बच्चें को लगभग २ वर्षोंा तक अपने साथ रखती है, जब तक कि बच्च्े अपना भोजन स्वयं खोजने में सक्षम नहीं हो जाते हैं । इनका भाकजन मुख्यत: मेंढक, मछली, कीडे-मकोड़े एवं जलीय पौधे के तने व जड़ हैं । 
सारस पक्षी का संरक्षण आवश्यक है, क्योंकि सारस संरक्षण से उन जलीय क्षेत्रों का भी संरक्षण होता है जिन पर विभिन्न जलीय पौधे एवं जीव पनपते हैं । वनस्पति युक्त जलीय एवं दलदली क्षेत्र एक आवश्यक जल शोधक के रूप में कार्य करते हैं, इसलिए सारस पक्षी का संरक्षण आवश्यक है । सारस का पर्यावरण संतुलन में महत्वपूर्ण योगदान है । अत: सारस पक्षी को बचाना जाना अत्यंत आवश्यक है । 
ज्ञान विज्ञान
नई सौर तकनीक से स्वच्छ पेयजल का उत्पादन
युनिसेफ के अनुसार, दुनिया भर में ७८ करोड़ से ज्यादा लोगों (हर १० में से एक) के पास साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है। ये लोग प्रतिदिन कुल मिलाकर २० करोड़ घंटे दूर-दूर से पानी लाने में खर्च करते हैं । भले ही दूषित पानी को शुद्ध करने के लिए तकनीकें मौजूद हैं, लेकिन महंगी होने के कारण ये कई समुदायों की पहुंच से परे है।
    टैंकनुमा उपकरण (सोलर स्टिल) में रखे गंदे पानी को वाष्पन की मदद से साफ करने की प्रक्रिया काफी समय से उपयोग की जा रही है। सोलर स्टिल पानी से भरा एक काला बर्तन होता है जिसे कांच या प्लास्टिक से ढंक दिया जाता है। काला बर्तन धूप को सोखकर पानी को गर्म करके वाष्प में बदलता है और दूषित पदार्थों को पीछे छोड़ देता है। वाष्पित  पानी को संघनित करके जमा कर लिया जाता है।
लेकिन इसका उत्पादन काफी कम है। धूप से पूरा पानी गर्म होने तक वाष्पीकरण की प्रक्रिया शुरू नहीं होती ।  एक वर्ग मीटर सतह हो तो एक घंटे में ३०० मिलीलीटर पानी का उत्पादन होता है। व्यक्ति को पीने के लिए एक दिन में औसतन ३ लीटर पानी की आवश्यकता होती है। एक छोटे परिवार के लिए पर्याप्त् पानी के लिए लगभग ५ वर्ग मीटर सतह वाला बर्तन चाहिए ।
   टेक्सास विश्व-विद्यालय, ऑस्टिन के पदार्थ वैज्ञानिक गुहुआ यू और सहयोगियों ने हाल ही में इसके लिए एक रास्ता सुझाया है। इसमें हाइड्रोजेल और पोलीमर के मिश्रण से बना एक छिद्रमय जल-अवशोषक नेटवर्क होता है। टीम ने इस तरह का एक स्पंज तैयार किया जो दो पोलीमर से मिलकर बना है - एक पानी को बांधकर रखने वाला (पीवीए) और दूसरा प्रकाश सोखने वाला (पीपीवाय) । स्पंज को सौर स्टिल में पानी की सतह के ऊपर रखा जाता है ।
स्पंज में पानी के अणुओं की एक परत पीवीए से हाइड्रोजन बांड के जरिए कसकर बंधी होती है । लेकिन पीवीए के साथ बंधे होने के कारण पानी के अणु आस-पास के अन्य पानी के अणुओं से शिथिल रूप से बंधे होते हैं। इन कमजोर रूप से जुड़े पानी के  अणुआें को  यू  मध्यवर्ती पानी  कहते हैं।  ये अपने आसपास के अणुओं के  साथ कम बंधन साझा करते हैं,  इसलिए वे अधिक तेजी से वाष्पित होते हैं । इनके  वाष्पित होते ही स्टिल में मौजूद पानी के अन्य अणु इनकी जगह ले लेते हैं ।  नेचर नैनोटेक्नॉलॉजी में पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस तकनीक का उपयोग करते हुए, यू ने एक घंटे में प्रति वर्ग मीटर ३.२ लीटर पानी का उत्पादन किया था ।
अब यू की टीम ने इसे और बेहतर बनाया है। उन्होंने स्पंज में चिटोसन नाम का एक तीसरा पोलीमर जोड़ा है जो पानी को और भी मजबूती से पकड़ता करता है। इसको मिलाने से मध्यवर्ती पानी की मात्रा में वृद्धि होती है। साइंस एडवांसेज की ताजा रिपोर्ट के अनुसार नए स्पंज के उपयोग से १ वर्ग मीटर से प्रतिदिन ३० लीटर स्वच्छ पेयजल मिल सकता है। हाइड्रोेजेल में उपयोग किए गए तीनों पोलीमर व्यावसायिक रूप से उपलब्ध और सस्ते हैं। मतलब अब ऐसे इलाकों में भी साफ पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है जहां इसकी सबसे अधिक जरूरत है।
कुछ लोगों को मच्छर ज्यादा क्यों काटते हैं ?
यह तो जानी-मानी बात है कि कुछ लोगों को मच्छर बहुत ज्यादा काटते हैं जबकि कुछ लोग खुले में बैठे रहें तो भी मच्छर उन्हें नहीं काटते। वैज्ञानिकों का मत है कि मच्छरों द्वारा
व्यक्तियोंके बीच यह भेदभाव उन व्यक्तियों के आसपास उपस्थित निजी वायुमंडल के  कारण होता है। मच्छर इस वायुमंडल में छोटे-छोटे परिवर्तनों का लाभ उठाते हैं।
सबसे पहले तो मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से अपने शिकार को ढूंढते हैं। हम जो सांस छोड़ते हैं उसमें कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है। यह कार्बन डाईऑक्साइड तुरंत आसपास की हवा में विलीन नहीं हो जाती बल्कि कुछ समय तक हमारे आसपास ही टिकी रहती है। मच्छर इस कार्बन डाईऑक्साइड के सहारे आपकी ओर बढ़ते हैं । 
मच्छर कार्बन डाईऑक्-साइड की बढ़ती सांद्रता की ओर रुख करके उड़ते रहते हैं जो उन्हें आपके करीब ले आता है। देखा गया है कि मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता की मदद से ५० मीटर दूर के लक्ष्य को भांप सकते हैं। यह तो हुई सामान्य सी बात - कार्बन डाई ऑक्साइड के पैमाने पर तो सारे मनुष्य लगभग बराबर होंगे। इसके  बाद आती है बात व्यक्तियों के बीच भेद करने की ।
वैज्ञानिकों का मत है कि इस मामले में मच्छर कई चीजों का सहारा लेते हैं। इनमें त्वचा का तापमान, व्यक्ति के आसपास मौजूद जलवाष्प और व्यक्ति का रंग महत्वपूर्ण हैं। मगर सबसे महत्वपूर्ण अंतर उन रसायनों से पड़ता है जो व्यक्ति की त्वचा पर उपस्थित सूक्ष्मजीव हवा में छोड़ते रहते हैं। त्वचा पर मौजूद बैक्टीरिया हमारे पसीनेकेसाथ निकलने वाले रसायनों को वाष्पशील रसायनों में तबदील कर देते हैं जो हमारे आसपास की हवा में तैरते रहते हैं। जब मच्छर व्यक्ति से करीब १ मीटर दूर पहुंच जाता है तो वह इन रसायनों की उपस्थिति को अपने गंध संवेदना तंत्र से ग्रहण करके इनके बीच भेद कर सकता है। सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न इस रासायनिक गुलदस्ते में ३०० से ज्यादा यौगिक पाए गए हैं और यह मिश्रण व्यक्ति की जेनेटिक बनावट और उसकी त्वचा पर मौजूद सूक्ष्मजीवों से तय होता है। तो यह है आपकी युनीक आइडेंटिटी मच्छर के दृष्टिकोण से ।
२०११ में प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि जिन इंसानों की त्वचा पर सूक्ष्मजीवों की ज्यादा विविधता पाई जाती है, उन्हें मच्छर कम काटते हैं। कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले लोग मच्छरों को ज्यादा लुभाते हैं। और तो और, यह भी देखा गया कि कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरीर पर निम्नलिखित बैक्टीरिया पाए गए: लेप्टोट्रिचिया, डेल्फिटया, एक्टिनोबैक्टीरिया जीपी३, और स्टेफिलोकॉकस । दूसरी ओर, भरपूर सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरीर पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया में स्यूडोमोनास और वेरिओवोरेक्स ज्यादा पाए गए । 
वॉशिगटन विश्वविद्यालय के जेफ रिफेल का कहना है कि इन रासायनिक गुलदस्तों के संघटन में छोटे-मोटे परिवर्तनों से मच्छरोंद्वारा काटे जाने की संभावना में बहुत अंतर पड़ता है। वही व्यक्ति बीमार हो तो यह संघटन बदल भी सकता है। वैसे रिफेल यह भी कहते हैं कि सूक्ष्मजीव विविधता को बदलने के बारे में तो आप खास कुछ कर नहीं सकते मगर अपने शोध कार्य के आधार पर उन्होंने पाया है कि मच्छरों को काला रंग पसंद है। इसलिए उनकी सलाह है कि बाहर पिकनिक मनाने का इरादा हो, तो हल्के रंग के कपड़े पहनकर जाएं ।
बड़े शहर अपने बादल बनाते हैं 
लोग अक्सर यह कहते हैं कि बड़े शहरों का माहौल खुशनुमा नहीं लगता । हम यह भी जानते हैं कि शहरों में, कांक्रीटी निर्माण और इमारतों के कारण वहां का तापमान शहरों के आस-पास के इलाकों की तुलना में अधिक होता है। लेकिन हाल ही में पता चला है कि ये बड़े शहर अपने बादलों के आवरण को देर तक बांधे रख सकते हैं और इनके ऊपर गांवों की तुलना में अधिक बादल छाए रहते हैं।
विभिन्न मौसमों के दौरान लंदन और पेरिस के आसमान के उपग्रह चित्रों के अध्य-यन से पता चला कि वसंत और गर्मी की दोपहरी व शाम में शहरों के ऊपर आसपास के छोटे इलाकों की तुलना में अधिक बादल छाए रहे। ये बादल आसपास के इलाकों की तुलना में ५ से १० प्रतिशत तक अधिक थे । ये नतीजे हैरान करने वाले थे क्योंकि आम तौर पर बड़े शहरों में पेड़-पौधे कम होते हैं जिसके कारण वहां का मौसम काफी खुश्क रहता है। इस स्थिति में पानी कम वाष्पीकृत होगा और बादल भी कम बनना चाहिए । 
मामले को समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग की नताली थीउवेस ने जमीनी आंकड़ों पर ध्यान   दिया ।  ऐसा क्यों हुआ इसके स्पष्टीकरण में शोधकर्ता बताती हैं कि दोपहर तक इमारतें (और कांक्रीट के निर्माण) काफी गर्म हो जाती हैं, और उसके बाद ये इमारतें ऊष्मा छोड़ने लगती हैं जिसके कारण वहां की हवा ऊपर उठने लगती है जो हवा में रही-सही नमी को भी अपने साथ ऊपर ले जाती है, फलस्वरूप बादल बनते हैं। और खास बात यह है कि ये बादल आसानी से बिखरते भी नहीं हैं।             
कृषि जगत
जीएम फसल और भारतीय किसान  
भारत डोगरा
  हाल ही में महाराष्ट्र  में अपने को किसानों का हितैषी घोषित करते हुए कुछ व्यक्तियों ने किसानों को जीएम फसल उगाने के लिए उकसाना आरंभ कर दिया है। इतना ही नहीं, उन जीएम फसलों को उगाने के लिए भी उकसाया जा रहा है जिन्हें अभी उचित कानूनी प्रक्रिया से स्वीकृति भी नहीं मिली है।
यह केवल अवैध ही नहीं, बेहद अनैतिक  भी है क्योंकि विश्वस्तर पर जीएम फसलों के  विरुद्ध बहुत प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध है। भारत के कई शीर्ष वैज्ञानिक भी इन फसलों के विरूद्ध चेतावनी दे चुके हैं ।  
जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त् फसलों को संक्षेप में जी.ई. फसल या जी.एम. (जेनेटिकली मॉडीफाइड) फसल कहते हैं। सामान्यत: एक ही पौधे की विभिन्न किस्मों से नई किस्में तैयार की जाती रही हैं। जैसे गेहूं की दो किस्मों से एक नई किस्म तैयार कर ली जाए । पर जेनेटिक इंजीनियरिंग में किसी भी पौधे या जन्तु के जीन या आनुवंशिक गुण का प्रवेश किसी अन्य पौधे या जीव में करवाया जाता है। जैसे आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में या सूअर के जीन का प्रवेश टमाटर में या मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में या मनुष्य के जीन का प्रवेश सूअर में करवाना आदि ।
जी.एम. फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा यह असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल  सकता है। इस विचार को कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों की इंडिपेंडेंट साइंस पैनल ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है:  जी.एम. फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं तथा ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्ससजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। 
अत: जी.एम. फसलों व गैर-जी.एम. फसलों का सह अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जी.एम. फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत पर्याप्त् प्रमाण प्राप्त् हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती । जी.एम. फसलों को अब दृढता से खारिज कर देना   चाहिए । 
इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंग उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा व दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम कुछ नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर इनके कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, पर जेनेटिक प्रदूषण पर्यावरण में चला जाए तो वह हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है । 
ऐसी ही एक जी.एम. फसल (बीटी कपास) या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डॉ. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक व महाराष्ट्र में सामने आए हैं । पर अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है और इस गंभीर चिंता के विषय को उपेक्षित किया है। भेड़ बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गइंर् थीं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी कपास के बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आइंर्।
जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश महत्वपूर्ण उत्पादों के पेटेंट बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं तथा वे अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए इस तकनीक का जैसा उपयोग करती हैं, उससे इस तकनीक के खतरे और बढ़ जाते हैं। 
कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की टेक्नॉलॉजी मात्र छ:-सात बहुराष्ट्रीय कम्पनियों (व उनकी सहयोगी कम्पनियों या उप-कम्पनियों) के हाथों में हैं। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुअ ा है। 
हाल ही में देश के महान वैज्ञानिक प्रोफेसर पुष्प भार्गव का निधन हुआ है। वे सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बॉयोलाजी हैदराबाद के संस्थापक निदेशक रहे व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे। उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियां बहुचर्चित रही हैं । उन्हें श्रद्धांजलि देने के साथ यह भी जरूरी है कि जिन बहुत गंभीर खतरों के  प्रति उन्होंने बार-बार चेतावनियां दीं, उन खतरों के प्रति हम सावधान रहें । विशेषकर जीएम फसलों के विरूद्ध उनकी चेतावनी महत्वपूर्ण है।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रो. पुष्प भार्गव को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रवूल कमेटी (जी.ई.ए.सी) के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था । जिस तरह जी.ई.ए.सी. ने बीटी बैंगन को जल्दबाजी में स्वीकृति दी, डॉ. पुष्प भार्गव ने उसे अनैतिक व गंभीर गलती बताया था।
प्रो. पुष्प भार्गव ने बहुत प्रखरता से जी.एम. फसलों का  स्पष्ट और तथ्य आधारित विरोध किया । इस संदर्भ में अपने एक लेख में उन्होंने लिखा, आज संदेह से परे कई प्रमाण हैं कि जीएम फसलें मनुष्योंव अन्य जीवों के स्वास्थ्य के लिए, पर्यावरण व जैव विविधता के लिए हानिकारक हैं। (इनमें) प्रयोग होने वाला बीटी जीन कपास या बैंगन के पौधों में प्रवेश कर उनके विकास को प्रतिकूल प्रभावित करता है। जी.एम. खाद्यों के बारे में यह भी सिद्ध हुआ     है कि इनसे चूहों में कैंसर होता है।
एक अन्य लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा कि लगभग ५०० अनुसंधान प्रकाशनों ने जी.एम. फसलों के मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर हानिकारक असर को स्थापित किया है। ये सभी शोध पत्र ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठा है। उन्होंने आगे लिखा कि दूसरी ओर जी.एम. फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने कान्फिलक्ट ऑफ इंटरेस्ट स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं।
प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधान का आकलन कर यह स्पष्ट बता दिया कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने जीएम फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया कि जिन वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी न किसी स्तर पर जीएम बीज बेचने वाली कम्पनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं या प्रभावित रहे हैं।
इसी लेख में प्रो. भार्गव ने  यह भी लिखा है कि केन्द्रीय सरकार के कुछ विभाग जी.एम. तकनीक के दुकानदारों जैसा व्यवहार करते रहते हैं तथा संभवत: उन्होंने जी.एम. बीज बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सांठ-गांठ से ऐसा किया है।
प्रो. भार्गव का सवाल है कि जब अधिकतर देशों ने व विशेषकर युरोप के देशों ने जीएम फसलों से इन्कार किया है तो हमारी सरकार को इन खतरनाक फसलों को अपनाने की जल्दी क्यों है। 
ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने लेख में विश्व ख्याति प्राप्त इस वैज्ञानिक ने चेतावनी दी है कि जीएम फसलों को आगे बढ़ाने के इस प्रयास का अंतिम लक्ष्य भारतीय कृषि व खाद्य उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त् करना है । उन्होंने कहा कि इस षड़यंत्र से जुड़ी एक मुख्य कम्पनी का कानून तोड़ने व अनैतिक कार्यों का चार दशक का रिकार्ड है। 
आज जब शक्तिशाली स्वार्थों द्वारा जीएम खाद्य फसलों को भारत में स्वीकृति दिलवाने के प्रयास अपने चरम पर हैं, तब यह बहुत जरूरी है कि इस विषय पर प्रो. पुष्प भार्गव की तथ्य व शोध आधारित चेतावनियों पर समुचित ध्यान दिया जाए  ।