ज्ञान विज्ञान
नई सौर तकनीक से स्वच्छ पेयजल का उत्पादन
युनिसेफ के अनुसार, दुनिया भर में ७८ करोड़ से ज्यादा लोगों (हर १० में से एक) के पास साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है। ये लोग प्रतिदिन कुल मिलाकर २० करोड़ घंटे दूर-दूर से पानी लाने में खर्च करते हैं । भले ही दूषित पानी को शुद्ध करने के लिए तकनीकें मौजूद हैं, लेकिन महंगी होने के कारण ये कई समुदायों की पहुंच से परे है।
टैंकनुमा उपकरण (सोलर स्टिल) में रखे गंदे पानी को वाष्पन की मदद से साफ करने की प्रक्रिया काफी समय से उपयोग की जा रही है। सोलर स्टिल पानी से भरा एक काला बर्तन होता है जिसे कांच या प्लास्टिक से ढंक दिया जाता है। काला बर्तन धूप को सोखकर पानी को गर्म करके वाष्प में बदलता है और दूषित पदार्थों को पीछे छोड़ देता है। वाष्पित पानी को संघनित करके जमा कर लिया जाता है।
लेकिन इसका उत्पादन काफी कम है। धूप से पूरा पानी गर्म होने तक वाष्पीकरण की प्रक्रिया शुरू नहीं होती । एक वर्ग मीटर सतह हो तो एक घंटे में ३०० मिलीलीटर पानी का उत्पादन होता है। व्यक्ति को पीने के लिए एक दिन में औसतन ३ लीटर पानी की आवश्यकता होती है। एक छोटे परिवार के लिए पर्याप्त् पानी के लिए लगभग ५ वर्ग मीटर सतह वाला बर्तन चाहिए ।
टेक्सास विश्व-विद्यालय, ऑस्टिन के पदार्थ वैज्ञानिक गुहुआ यू और सहयोगियों ने हाल ही में इसके लिए एक रास्ता सुझाया है। इसमें हाइड्रोजेल और पोलीमर के मिश्रण से बना एक छिद्रमय जल-अवशोषक नेटवर्क होता है। टीम ने इस तरह का एक स्पंज तैयार किया जो दो पोलीमर से मिलकर बना है - एक पानी को बांधकर रखने वाला (पीवीए) और दूसरा प्रकाश सोखने वाला (पीपीवाय) । स्पंज को सौर स्टिल में पानी की सतह के ऊपर रखा जाता है ।
स्पंज में पानी के अणुओं की एक परत पीवीए से हाइड्रोजन बांड के जरिए कसकर बंधी होती है । लेकिन पीवीए के साथ बंधे होने के कारण पानी के अणु आस-पास के अन्य पानी के अणुओं से शिथिल रूप से बंधे होते हैं। इन कमजोर रूप से जुड़े पानी के अणुआें को यू मध्यवर्ती पानी कहते हैं। ये अपने आसपास के अणुओं के साथ कम बंधन साझा करते हैं, इसलिए वे अधिक तेजी से वाष्पित होते हैं । इनके वाष्पित होते ही स्टिल में मौजूद पानी के अन्य अणु इनकी जगह ले लेते हैं । नेचर नैनोटेक्नॉलॉजी में पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस तकनीक का उपयोग करते हुए, यू ने एक घंटे में प्रति वर्ग मीटर ३.२ लीटर पानी का उत्पादन किया था ।
अब यू की टीम ने इसे और बेहतर बनाया है। उन्होंने स्पंज में चिटोसन नाम का एक तीसरा पोलीमर जोड़ा है जो पानी को और भी मजबूती से पकड़ता करता है। इसको मिलाने से मध्यवर्ती पानी की मात्रा में वृद्धि होती है। साइंस एडवांसेज की ताजा रिपोर्ट के अनुसार नए स्पंज के उपयोग से १ वर्ग मीटर से प्रतिदिन ३० लीटर स्वच्छ पेयजल मिल सकता है। हाइड्रोेजेल में उपयोग किए गए तीनों पोलीमर व्यावसायिक रूप से उपलब्ध और सस्ते हैं। मतलब अब ऐसे इलाकों में भी साफ पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है जहां इसकी सबसे अधिक जरूरत है।
कुछ लोगों को मच्छर ज्यादा क्यों काटते हैं ?
यह तो जानी-मानी बात है कि कुछ लोगों को मच्छर बहुत ज्यादा काटते हैं जबकि कुछ लोग खुले में बैठे रहें तो भी मच्छर उन्हें नहीं काटते। वैज्ञानिकों का मत है कि मच्छरों द्वारा
व्यक्तियोंके बीच यह भेदभाव उन व्यक्तियों के आसपास उपस्थित निजी वायुमंडल के कारण होता है। मच्छर इस वायुमंडल में छोटे-छोटे परिवर्तनों का लाभ उठाते हैं।
सबसे पहले तो मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से अपने शिकार को ढूंढते हैं। हम जो सांस छोड़ते हैं उसमें कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है। यह कार्बन डाईऑक्साइड तुरंत आसपास की हवा में विलीन नहीं हो जाती बल्कि कुछ समय तक हमारे आसपास ही टिकी रहती है। मच्छर इस कार्बन डाईऑक्साइड के सहारे आपकी ओर बढ़ते हैं ।
मच्छर कार्बन डाईऑक्-साइड की बढ़ती सांद्रता की ओर रुख करके उड़ते रहते हैं जो उन्हें आपके करीब ले आता है। देखा गया है कि मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता की मदद से ५० मीटर दूर के लक्ष्य को भांप सकते हैं। यह तो हुई सामान्य सी बात - कार्बन डाई ऑक्साइड के पैमाने पर तो सारे मनुष्य लगभग बराबर होंगे। इसके बाद आती है बात व्यक्तियों के बीच भेद करने की ।
वैज्ञानिकों का मत है कि इस मामले में मच्छर कई चीजों का सहारा लेते हैं। इनमें त्वचा का तापमान, व्यक्ति के आसपास मौजूद जलवाष्प और व्यक्ति का रंग महत्वपूर्ण हैं। मगर सबसे महत्वपूर्ण अंतर उन रसायनों से पड़ता है जो व्यक्ति की त्वचा पर उपस्थित सूक्ष्मजीव हवा में छोड़ते रहते हैं। त्वचा पर मौजूद बैक्टीरिया हमारे पसीनेकेसाथ निकलने वाले रसायनों को वाष्पशील रसायनों में तबदील कर देते हैं जो हमारे आसपास की हवा में तैरते रहते हैं। जब मच्छर व्यक्ति से करीब १ मीटर दूर पहुंच जाता है तो वह इन रसायनों की उपस्थिति को अपने गंध संवेदना तंत्र से ग्रहण करके इनके बीच भेद कर सकता है। सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न इस रासायनिक गुलदस्ते में ३०० से ज्यादा यौगिक पाए गए हैं और यह मिश्रण व्यक्ति की जेनेटिक बनावट और उसकी त्वचा पर मौजूद सूक्ष्मजीवों से तय होता है। तो यह है आपकी युनीक आइडेंटिटी मच्छर के दृष्टिकोण से ।
२०११ में प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि जिन इंसानों की त्वचा पर सूक्ष्मजीवों की ज्यादा विविधता पाई जाती है, उन्हें मच्छर कम काटते हैं। कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले लोग मच्छरों को ज्यादा लुभाते हैं। और तो और, यह भी देखा गया कि कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरीर पर निम्नलिखित बैक्टीरिया पाए गए: लेप्टोट्रिचिया, डेल्फिटया, एक्टिनोबैक्टीरिया जीपी३, और स्टेफिलोकॉकस । दूसरी ओर, भरपूर सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरीर पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया में स्यूडोमोनास और वेरिओवोरेक्स ज्यादा पाए गए ।
वॉशिगटन विश्वविद्यालय के जेफ रिफेल का कहना है कि इन रासायनिक गुलदस्तों के संघटन में छोटे-मोटे परिवर्तनों से मच्छरोंद्वारा काटे जाने की संभावना में बहुत अंतर पड़ता है। वही व्यक्ति बीमार हो तो यह संघटन बदल भी सकता है। वैसे रिफेल यह भी कहते हैं कि सूक्ष्मजीव विविधता को बदलने के बारे में तो आप खास कुछ कर नहीं सकते मगर अपने शोध कार्य के आधार पर उन्होंने पाया है कि मच्छरों को काला रंग पसंद है। इसलिए उनकी सलाह है कि बाहर पिकनिक मनाने का इरादा हो, तो हल्के रंग के कपड़े पहनकर जाएं ।
बड़े शहर अपने बादल बनाते हैं
लोग अक्सर यह कहते हैं कि बड़े शहरों का माहौल खुशनुमा नहीं लगता । हम यह भी जानते हैं कि शहरों में, कांक्रीटी निर्माण और इमारतों के कारण वहां का तापमान शहरों के आस-पास के इलाकों की तुलना में अधिक होता है। लेकिन हाल ही में पता चला है कि ये बड़े शहर अपने बादलों के आवरण को देर तक बांधे रख सकते हैं और इनके ऊपर गांवों की तुलना में अधिक बादल छाए रहते हैं।
विभिन्न मौसमों के दौरान लंदन और पेरिस के आसमान के उपग्रह चित्रों के अध्य-यन से पता चला कि वसंत और गर्मी की दोपहरी व शाम में शहरों के ऊपर आसपास के छोटे इलाकों की तुलना में अधिक बादल छाए रहे। ये बादल आसपास के इलाकों की तुलना में ५ से १० प्रतिशत तक अधिक थे । ये नतीजे हैरान करने वाले थे क्योंकि आम तौर पर बड़े शहरों में पेड़-पौधे कम होते हैं जिसके कारण वहां का मौसम काफी खुश्क रहता है। इस स्थिति में पानी कम वाष्पीकृत होगा और बादल भी कम बनना चाहिए ।
मामले को समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग की नताली थीउवेस ने जमीनी आंकड़ों पर ध्यान दिया । ऐसा क्यों हुआ इसके स्पष्टीकरण में शोधकर्ता बताती हैं कि दोपहर तक इमारतें (और कांक्रीट के निर्माण) काफी गर्म हो जाती हैं, और उसके बाद ये इमारतें ऊष्मा छोड़ने लगती हैं जिसके कारण वहां की हवा ऊपर उठने लगती है जो हवा में रही-सही नमी को भी अपने साथ ऊपर ले जाती है, फलस्वरूप बादल बनते हैं। और खास बात यह है कि ये बादल आसानी से बिखरते भी नहीं हैं।
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