सोमवार, 19 अगस्त 2019

जनमानस
पर्यावरण में बढ़ता प्रदूषण
रूपनारायण काबरा

पर्यावरण प्रदूषण इस समय एक विश्वव्यापी समस्या है, एक चुनौती है और है एक चेतावनी । इस प्रदूषण ने हमारे जन-जीवन को, हमारे स्वास्थ्य को, हमारे मौसम और प्राकृतिक संसाधनों की स्थिति को एवं हमारे मन-मस्तिष्क को, सभी को बुरी तरह प्रभावित ही नहीं आक्रान्त कर रखा है । 
समझदार बड़े चिन्तित है, भयावह भविष्य को स्वयं समझते हैं तथा लोगों को समझाते हैं पर नासमझ अधिकांश उसी ढर्रे पर चले जा रहे हैं, बेखबर से, और जिस डाल पर बैठे हैं उसी पर अपनी स्वार्थपरता की कुल्हाड़ी से प्रहार किये जा रहे हैं । आज हमने तथाकथित विकास की महत्वाकांक्षा में हमारी धरती, वायु, वनस्पति, जीव-जन्तु एवं जल इत्यादि पूरे पर्यावरण को प्रदूषित कर डाला है । कालजयी पतितपावनी गंगा तक भी मैली हो गई है । शहरों में ध्वनि प्रदूषण भी एक चिन्तनीय समस्या है । अत्याधिक शोर बहरापन एवं विक्षिप्त्ता पैदा करता है । 
मानव प्रकृति पर अपनी विजय की महत्वाकांक्षा के चक्कर में प्रकृति का अन्धाधुन्ध दोहन कर रहा है, शोषण कर रहा है । हमारी संस्कृति के मूल में प्रकृति के प्रति जो आस्था भाव था, जो मैत्री भाव था वह आज लुप्त् होता जा रहा है । पेड़, पौधों की पूजा करने वाले इस देश का वन-भाग औसत से भी बहुत कम है । धर्मो रक्षति रक्षित: की भावना का अर्थ तो यही है कि पर्यावरण की रक्षा करो, यह तुम्हारी रक्षा करेगा, पर हम इस अर्थ को भूल गये है । 
प्रकृति उसे कभी निराश नहीं करती जो उसे प्यार करता है । प्रकृति माता है, माफ करती है औैर करती रही है पर प्रकृति के प्रति हमारे स्वार्थजनित अपराध इतने बढ़ गये हैं कि प्रकृति माता भी रूष्ट होने लगी है, वह बर्दाश्त नहीं कर पा रही है अपनी वन-संपदा का विनाश, वन्य जीवों का संहार, अपने जल, वायु, एवं मृदा का प्रदूषण और यदि हमने अपने आपको सुधारा नहीं तो हमें प्रकृतिके क्रोध का सामना करना पड़ेगा । 
विश्व की सम्पूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि भी प्रकृति की हल्की सी चपत के सामने, उसकी जरा सी कुंचित भृकुटि के सामने नगण्य है, नतमस्तक है और विवश है । विज्ञान न तूफान रोक सकता है, न बारिश और भूकम्प पर तो उसके वश का प्रश्न ही नहीं उठता । विज्ञान अपने स्वयं के दुष्परिणामों यथा ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन की परत का पतला होना, रेडियोधर्मिता एवं वायु-प्रदूषण व जल-प्रदूषण को नहीं रोक पा रहा है । हमें प्रकृति को पहले की ही भांति स्वच्छ एवं सम्पन्न रखना है । प्रकृति से लेने के साथ देने का भी भाव रखा जाय । सघन वृक्षारोपण द्वारा हम प्रकृति के प्रति अपने ऋण को काफी हद तक उतार सकते है और बढ़ती आवश्यकताआें को नियन्त्रित करने का तो एक ही साधन है, जनसंख्या वृद्धि पर रोक । 
भोपाल त्रासदी और चेरनो-बिल परमाणु-संयत्र- विस्फोट एवं सुनामी लहर हमें चेतावनी दे चुके हैं पर हम नहीं सुनते ही नहीं । यदि हमने वृक्षों को काटना कम करते सघन वृक्षावली विकसित नहीं की, यदि परमाणु बम परीक्षणों को, कारखानों की गैसों को, शहरों की भीड़ को, बढ़ते शोर को, बढ़ती जनसंख्या को, वाहनों के धुयें को, रासायनिक खादों के प्रयोग एवं कीटनाशकों के छिड़काव तथा अत्याधिक यन्त्री-करण को नियन्त्रित नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब कयामत रूवयं हमारी बुलाई हुई आयेगी । हमें बढ़ते जा रहे कार्बन उत्सर्जन पर नियन्त्रण करना ही है । 
पर्यावरण संरक्षण अभियान हेतु और कुछ नहीं तो हम यह तो कर ही सकते हैं कि - 
१. लोगों में प्रकृति और वातावरण के प्रति रूचि पैदा करने के लिए इस विषय को शिक्षा एवं जन-संसार कार्यक्रमों का एक प्रमुख अंग बना दिया जाये । धार्मिक कथावाचक भी इसे अपनी कथा में समाहित कर लें तो अच्छा हो । 
२. पर्यावरण जागृति को एक रचनात्मक आन्दोलन का स्वरूप प्रदान किया जाये । प्राकृतिक संसाधनों की सीमितता के प्रति जागरूक किया जाय े । जल संरक्षण किया जाये व जल प्रदूषण को रोका जाये । 
३. उद्योग लगाने से पहले प्रदूषण को रोकने के उपाय आवश्यक हो । प्रभावी सफाई संयंत्र की व्यवस्था अनिवार्य हो । 
४. पर्यावरण को असन्तुलित करना एक अपराध माना जाये । 
५. पारिस्थितिक सम्बन्धों को जन मानस के हद्य में अंकित किया जावे कि समस्त पर्यावरण वनस्पति और प्राणीजगत की सहजीविता पर ही टिका है । 
मानव एवं पर्यावरण का अनन्य सम्बन्ध है । वे एक-दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संदिग्ध है । कोई भी जीवधारी अकेला नहीं रह   सकता । सभी जीवधारी चाहे वह मनुष्य हो, जीव जन्तु हो अथवा वनस्पति सभी एक पर्यावरण में रहते है, सब पारिस्थितिकी से बंधे हैं । 
खूब पेड़ लगाकर ही हम प्रकृति के प्रति अपना प्रेम एवं श्रद्धा प्रकट कर सकते है और तब प्रकृति देगी हमें अपना आशीर्वाद एवं वरदान । हमारी धरती लहलहा उठेगी, पक्षियों के संगीत से गूंज उठेगी । मौसम सुहाने होंगे, न होगी बाढ़, न होगी अनावृष्टि और जलवायु परिवर्तन नियमित होंगे । हमारी फसलें भरपूर होंगी । 
हम और हमारे पक्षी एवं पशु सुखी स्वस्थ होंगे और तब पग-पग पर पसरा प्रकृति का सौन्दर्य भौतिकवाद से ग्रस्त मानव को अनुपम शांति देगा ।

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