गुरुवार, 27 नवंबर 2008

१ गांधी जयंति पर विशेष

गांधी : लघु पत्रों के महानतम संपादक
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
महात्मा गांधी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महानायक थे। भारतीय जन मानस में उन्होंने अपनी असाधारण देश भक्ति और सत्य एवं अहिंसा के उच्च आदर्शो के कारण महत्वपूर्ण स्थान बनाया, उसीसे वे राष्ट्रपिता कहलाते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने जिन सत्याग्रहों और आंदोलन का नेतृत्व किया उसकी जानकारी तो सामान्य जन को न्यूनाधिक परिणाम में है, किंतु उनके पत्रकार स्वरुप के बारे में बहुत कम लोग जानते है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से ही की थी। उन्होंने संवाददाता के रुप में कार्य शुरु किया, अखबारों में लेख लिखे बाद में साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। गांधीजी ने कभी कोई बड़ा दैनिक पत्र नहीं निकाला एक अर्थ में वे लघु पत्रों के महानतम संपादक थे। लेखक के रुप में उनकी विश्व व्यापी ख्याति है, जीवन और साहित्य में उनकी लेखनी की धारा समान है। यह एक संयोग ही था कि गांधीजी ने अपना पत्रकार जीवन एक स्वतंत्र लेखक के रुप में प्रारंभ किया था। चढ़ती वय में जब वे लंदन में कानून का अध्ययन करने गये तो उन्होंने भारत की समस्या पर वहीं दैनिक टेलीग्राफ और डेलीन्यूज में समय समय पर लिखना आरंभ कर दिया था। दक्षिण अफ्रीका में भी उन्होंने भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों के बारे में भारत से प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू तथा अमृत बाजार पत्रिका और स्टेट्समेन आदि पत्रों में अनेक लेख लिखे थे। इस प्रकार भारतीय पत्रकारिता जगत के वरिष्ठ लेखकों से उनका सीधा जुड़ाव हो गया था। एक बार गाँधीवादी विचारक आर.आर. दिवाकर ने कहा था कि गांधी कदाचित् उस अर्थ में पत्रकार नहीं थे जिस अर्थ में हम पत्रकार की परिकल्पना आज करते हैं, क्योंकि गांधीजी का मिशन मातृभूमि की मुक्ति का मिशन था ।इस मिशन में उन्होंने पत्रकारिता को एक आयुध की तरह प्रयुक्त किया था। पत्रकारिता उनके लिए व्यवसाय नहीं थी बल्कि जनमत को प्रभावित करने का एक लक्ष्योन्मुखी प्रभावी माध्यम था। गाँधीजी ने इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया, और हरिजन जैसे ऐतिहासिक पत्रों का संपादन किया था। दक्षिण अफ्रीका में जब वे इंडियन ओपिनियन साप्ताहिक का प्रकाशन कर रहे थे तो उन्होंने लिखा था पत्रकारिता को मैने पत्रकारिता की खातिर नहीं अपनाया है, बल्कि मेने इसे एक सहायक के रुप में स्वीकार किया है जिससे मेरे जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने से सहायता मिले। मैं अपने चिन्तन को आचरण में ढालकर जो कुछ देना चाहता हँू, उसमें पत्रकारिता के माध्यम से सहायता मिलेगी। पत्रकारिता के अपने उद्देश्य की उद्घोषणा उन्होंने इन शब्दों में स्पष्ट कर दी थी। गांधीजी ने विभिन्न, सत्याग्रहों और आंदोलनों के सिलसिले में जनमत को प्रभावित करने के लिए समाचार पत्रों का बड़ा प्रभावशाली उपयोग किया था। सन् १९०४ में जब उन्होंने इंडियन ओपिनियन का प्रकाशन हिन्दी, गुजराती, उर्दू और अंग्रेजी भाषाआें में प्रारंभ किया तो पत्र के इन संस्करणों ने जनचेतना को प्रभावित करने का बड़ा काम किया। इंडियन ओपिनियन के माध्यम से उन्होंने टालस्टाय, लिंकन, ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे महापुरुषों पर न केवल प्रेरक लेख लिखे बल्कि भारत में वीर-वीरांगनाआें और संत महात्माआें के विषय में भी पाठकों को काफी जानकारी दी। भारत लौटने पर गांधीजी ने बम्बई से सत्याग्रह का प्रकाशन शुरु किया। इसके पहले ही अंक में उन्होंने रॉलेट एक्ट का तीव्र विरोध किया। बम्बई में अंग्रेजी साप्ताहिक यंग इंडिया के प्रकाशन की योजना बनने पर गांधीजी से उसके सम्पादन का दायित्व संभालने का भी आग्रह किया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। उसी प्रकाशन के अंतर्गत ७ अक्टूम्बर १८९१ से गुजराती मासिक नवजीवन का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। परन्तु इन सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध पत्र था हरिजन। ११ फरवरी १९३३ को घनश्याम दास बिड़ला की सहायता से हरिजन का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ और गांधीजी ने जो उस समय सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में पूना में जेल में थे, वहीं से पत्र का संचालन करते थे। इस पत्र के संपादक के रुप में आर.वी. शास्त्री का नाम छपना प्रारम्भ हुआ। हरिजन के माध्यम से गांधीजी ने हरिजनोद्धार और ग्रामीण उद्योगों के विकास का सन्देश दिया। जब सरकार की ओर से १८ अक्टूबर १९३९ को उन्हें यह चेतावनी दी गई कि हरिजन में प्रकाशित सत्याग्रह के समाचार बिना सक्षम अधिकारी को दिखाए प्रकाशित नहीं करेे, तो गांधीजी ने इसे प्रेस की स्वाधीनता पर आक्रमण माना और १० नवंबर १९३८ को उन्होंने पाठको से बिदा मांग ली। कुछ समय बाद हरिजन का प्रकाशन फिर प्रारंभ हो गया और वह अगस्त आंदोलन का संदेशवाहक बन गया। सन् १९४२ में जब गांधीजी जेल में थे, तो बम्बई सरकार ने हरिजन पर प्रतिबंध लगा दिया और नवजीवन प्रेस से प्रकाशित साहित्य को नष्ट करने का आदेश दिया तो गाँधीजी ने इसके विरुद्ध अलख जगाये रखा इसके पीछे उनकी यही भावना थी कि वे जनता के साथ अपना सीधा संवाद कर सके और जो कुछ वे व्यक्त कर रहे हैं, उनका सीधा उत्तरदायित्व ले सके। गांधीजी ने अपने किसी भी समाचार पत्र में कभी भी विज्ञापन स्वीकार नहीं किये। गाँधीजी ने १ फरवरी १९२२ को वायसराय को अपने पत्र में लिखा था कि देश के सामने सबसे बड़ा कार्य उसे पक्षपात से बचाकर उसकी अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की रक्षा करना है। वे वाणी की स्वाधीनता के हमेशा पक्षधर रहे, किंतु उनकी अनुशासित और संयम से नियंत्रित वाणी थी। १ जुलाई १९४० को हरिजन में अपने एक लेख में उन्होंने लिखा था कि दक्षिण अफ्रीका में जब उन्होंने इंडियन ओपिनियन प्रकाशित किया था, इस पत्र में पाठकों को लोगों की कठिनाईयों से सूचित करते थे। वे कहते थे कि समाचार पत्र में शास्त्रीय विवेचनाआें के लिए उनके पास समय नहीं है। गांधीजी ने इसे स्वीकार किया था कि सत्याग्रही लोगों को संगठित करने और उनका मार्ग प्रशस्त करने में इंडियन ओपिनियन ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। गांधीजी ने जितने भी पत्र संपादित किये उनकी एक विलक्षणता यह थी कि उनकी भाषा बहुत सरल होती थी। गाँधी का मार्ग सत्यान्वेषण का कंटकाकीर्ण पथ था, उन्होंने बड़े से बड़ा संकट मोल लेकर भी सत्य का उद्घाटन किया। किंतु इसके साथ ही वे दूसरों के विचारों के प्रति भी बहुत सहिष्णु थे। यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी ने जननायक होने के नाते एक सम्पादक के रुप में बड़े संयम और उत्तरदायित्व के साथ काम किया। २ जुलाई १९२५ को उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था कि मैं कभी क्षुब्ध होकर नहीं लिखता। किसी के प्रति मनोमालिन्य का भाव लेकर नहीं लिखता, मैं लोगों की भावनाआें को उत्तेजित करने के लिए भी नहीं लिखता । पाठकों के लिए यह कल्पना कठिन है कि प्रति सप्ताह मैं कितने संयम से काम ले पाता हूंू। विषयों का चुनाव करने और उन्हें उपयुक्त शब्दों में व्यक्त करने में कितना अनुशासित रहना होता हैं एक प्रकार से इसके जरिये मेरा प्रशिक्षण होता है। अक्सर मेरा अहंकार कुछ ऐसा अभिव्यक्ति करना चाहता है, जिससे आक्रोश को व्यंजना हो और उसके लिए किसी कठोर विशेषण का उपयोग आवश्यक हो जाता है। इसीलिये उसे धैर्यपूर्णक कॉंट-छाँटकर और भाषा को तराशकर इन सब दुर्गुणों से बचना पड़ा कठिन मानसिक व्यायाम होता है। यंग इंडिया का हर शब्द सुचिन्तित होता था । गांधीजी ने स्वयं कहा था कि यंग-इंडिया को पढ़कर लोग सोचते होंगे कि वह वृद्ध कितना सदाशयता पूर्ण हैं पर उन्हें यह पता नहीं कि मैं कितनी प्रार्थनाएं करके और कितने संयम के साथ भाषा को वह स्वरुप प्रदान करता हँू। गांधीजी भले ही व्यवसाय से पत्रकार न रहे हों, किंतु उन्होंने अपनी लेखनी का जिस उत्तरदायित्व के साथ उपयोग किया था और जैसे संयम और अनुशासन का उन्होंने अपने संपादन में उपयोग किया था, वह आज दुर्लभ है। गांधी की जैसी सरल भाषा और सहज सम्प्रेषणीयता पत्र कारिता में आज भी आदर्श हैै। आज तो इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गयी है । प्रेस की स्वतंत्रता के लिए गांधीजी को काफी संघर्ष करना पड़ा। वे मानते थे कि पत्र और पत्रकारिता का उद्देश्य है कि वह जनता की भावनाआें को समझे और तद्नुसार उनको अभिव्यक्त करे तथा समाज और सरकार में जो दोष दिखाई दे, उनका निर्भिकता से भण्डाफोड करें इन्हीं उद्देश्यों के लिए उन्होंने पत्र निकाले। सन् १९३९ में उनके पत्रों पर लगाये गये प्रतिबंध के उत्तर में उन्होंने लिखा था मेरे साप्ताहिक सत्य को उजागर करने के लिए निकाले जाते हैं यदि प्रेस की स्वतंत्रता पर इस तरह प्रहार किया जावेगा तो मैं उसे नहीं मानँूगा उसका विरोध करुंगा। इस प्रकार एक जिम्मेदार पत्रकार/संपादक की भूमिका गाँधी ने सफलता पूर्वक निभाई है । इसलिए एक महानतम पत्रकार/समपादक के रूप में गाँधी हमेशा याद किये जायेंगें । ***

२ सामयिक

वापस लौटने का क्षण
सतीश कुमार
जैनदर्शन की सबसे मूल्यवान धरोहर प्रतिक्रमण है । यह आत्मचिंतन का व्याकरण भी है । इसेआजकल एक तकनीक की तरह अपनाना प्रारंभ कर दिया गया है । परंतु प्रतिक्रमण अपने आप में पूर्ण चिंतन की धारा है । बढ़ते उपभोक्तावाद से नष्ट होते विश्व को बचाने का एकमात्र सूत्र स्वयं पर संयम ही है । इन दिनों चारों तरफ निराशा है। वैज्ञानिक पर्यावरणवादी व मौसम विज्ञानी सभी यही दावा कर रहे हैं कि प्रलय करीब है और मानव सभ्यता अपने विनाश की ओर बढ़ चली है । एक के बाद एक आने वाली नई किताबें हमें बताती हैं कि हमने उस चरम बिंदु को पार कर लिया है और हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां से लौटने का कोई रास्ता नहीं है । हमारा आसमान कार्बन डाईआक्साइड जैसी जहरीली गैसों से भर गया है और वातावरण ग्रीनहाउस गैसों से । हमें यह भी बताया जाता है कि हमारी यह धरती गरम हो चली है । अब हम चाहे कुछ भी कर लें, इस बढ़ते तापमान को कम नहीं कर सकते । इस बढ़ते तापमान से उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी और समुद्रों का जल-स्तर ऊपर उठेगा । इससे समुद्र किनारे बसे देश, शहर, गांव सभी डूबेगें । यह अमीर-गरीब का अंतर नहीं देखेगा । लंदन भी डूबेगा और बंबई भी । पिछले वर्षोंा में जो अमेरिका के न्यू आरलीन्स में हुआ, वहीं न्यूयार्क में भी होगा । उड़ीसा, आंध्र, बंगाल, म्यांमार (बर्मा) बंगलादेश सभी जगह समुद्री तूफान तेजी से उठेंगे । धरती का गरम होना अब रूक नहीं पाएगा । विशेषज्ञों व कार्यकर्ताआें द्वारा भयावहता की एक जैसी तस्वीर प्रस्तुत की जा रही है । बढ़ते तापमान के इस संकट की भयावहता को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते । हम उन वैज्ञानिकों का आदर करते हैं जो भविष्य को मानवता के लिए खतरनाक बता रहे हैं । हमारी वर्तमान जीवनपद्धत्ति जीवाश्म इंर्धन, पेट्रोल पर इस कदर निर्भर है कि अब हम कगार तक पहुंच चुकी है । यानी यदि हम जरा भी आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से खाई में जा गिरेंगे । इसलिए ऐसे में हमारे पास वापस लौटने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है । तो आइए, हम इसे वापस लौटने का क्षण कहें । अब हमें ऐसी जीवनपद्धति की ओर लौटना ही होगा जो पेट्रोल की खतरनाक निरर्भरता से मुक्त हो । फिलहाल, हम अपनी यात्राआें, पास-दूर, आने-जाने, खाने-पीने पर, कपड़े-लत्तों पर, मकान,प्रकाश और तो और मनोरंजन पर भी प्रति दिन लाखों-करोड़ों लिटर पेट्रोलियम पदार्थ फूंकते रहते है । ऐसी जीवनपद्धति, हम सबके जीने का यह तरीका न केवल बेकार है, बहुत अस्थिर है, डगमग है बल्कि खतरनाक भी है । जिस पेट्रोल के खजाने को जमा करने में प्रकृति को कोई बीस करोड़ वर्ष लगे थे उसे हम मात्र २०० वर्षोंा के भीतर ही लगभग समाप्त् कर चुके हैं । जिस गति से हम पेट्रोल, गैस के इस दुर्लभ खजाने को लुट रहे हैं वह जरा भी ठीक नहीं कहा जा सकता है । यह न्यायसंगत नहीं है । आज नहीं तो कल हमें वापस लौटना ही होगा । इस वापसी के बिंदु के लिए संस्कृत में एक सुंदर शब्द है : प्रतिक्रमण । यह अतिक्रमण शब्द का ठीक उल्टा है । अतिक्रमण का अर्थ है अपनी स्वाभाविक सीमाआें से बाहर निकल जाना। जब हम किसी अटल नियम को तोड़ते है तों वह अतिक्रमण कहलाता है। इसके ठीक उल्टा है प्रतिक्रमण : किसी क्रिया के केन्द्र की ओर या मन की आवाज के स्त्रोत बिंदु की ओर लौटना ही प्रतिक्रमण है । संस्कृत के ये दोनों शब्द हमारे संकट व उससे उभरने के संभावित रास्ते को समझने के लिए उपयोगी दृष्टि उपलब्ध कराते हैं । अपनी आत्मा को जानने के लिए गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है । हमें खुद से यह पूछने की जरूरत है कि क्या हम अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं या बस अपने लालच को पूरा करने में उलझते जा रहे हैं और यह सब करते हुए हम इस धरती को कुछ स्वस्थ बना रहे है या उसे पहले से भी ज्यादा बीमार। बदलता तापमान और उससे लगातार गरम होती जा रही धरती के मामले में पेट्रोलियम पदार्थोंा के प्रति हमारी यह निर्भरता अतिक्रमण ही कहलाएगी । हवा, पानी व धूप से तैयार की गई ऊर्जा, बिजली की ओर लौटना प्रतिक्रमण होगा। हमारे प्रतिक्रमण की शुरूआत का पहला कदम होगा उपभोक्तावाद पर लगाम लगाना । पश्चिम के बहुत से देशों में नए हाई-वे, एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाआें को बनने व बढ़ने से रोकना होगा । पूरी दुनिया में उद्योग बनती जा रही खेती पर तत्काल रोक लगानी ही पड़ेगी । एक बार हम जब पेट्रोल के इस्तेमाल पर रोक लगा लेंगे तभी सुधार का काम व परम्परागत संसाधनों की तरफ लौटने की अपनी यात्रा की शुरूआत हो सकेगी । यदि हम अपनी इस वापसी यात्रा पर सावधानी से चल पड़े हैं तो वह बहुप्रचारित सर्वविनाश भी थाम लिया जा सकेगा । गरम होती धरती की चुनौती से निपटने के लिए हमें अपनी उपभोक्ता की भूमिका पर आने की जरूरत है । कम-से-कम अब तो हम यह जान जाएं कि मानव जीवन की खुशहाली, शांति व आनंदपूर्ण जीवन, सादगी भरे जीवन से ही हासिल हो सकेता है । हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर, चकाचौंध से भव्यता की ओर, पीड़ा से राहत की ओर, धरती को जीतने के बदले उसके संवर्द्धन की ओर लौटने के एक शानदार मोेड़ पर खड़े है । चारों तरफ फैल रही निराशा के बीच आशा रखने का मन बनाना भी एक बड़ा कर्तव्य है ।***
केले के पत्तों से होगी खाद्य पदार्थो की पैकिंग श्रीलंका सरकार पालीथीन के कचरे से पर्यावरण को बचाने के लिए अनूठा अभियान शुरू करने जा रही है सरकार ने भविष्य में खाद्य पदार्थो को पालीथीन में पैक करने की बजाय केले के पत्ते में पैक करने का फैसला किया है । श्रीलंका के कृषि मंत्रालय का दावा है कि पैकिंग के लिए खास तकनीक से तैयार केले के पत्ते में कई औषधीय गुण मौजूद होंगे। इस केले के पत्ते में पैक किया गया खाना फ्रीज में एक महीने और कमरे के तापमान में पांच दिन तक सुरक्षित रहेगा । इस संबंध में श्रीलंका के तेलिजाविला स्थित कृषि शोध संस्थान में भी काफी शोध किए गए है । उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशियाई देशों में खाद्य पदार्थो को सुरक्षित रखने के लिए प्राचीन काल से केले के पत्तों का प्रयोग किया जाता रहा है । ऐसा करना न केवल खाने की सुरक्षा बल्कि पौष्टिकता के लिहाज से भी फायदेमंद होता है । इसके उलट पालीथीन में कई रासायनिक यौगिक होते हैं । इनके नष्ट होने में काफी समय तो लगता ही है साथ ही पर्यावरण को भी बहुत नुकसान होता है ।

३ दीपावली पर विशेष

पर्यावरण का धर्म
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
सृष्टि में दृश्यमान और अदृश्यमान शक्तियों में संतुलन होना ही योग है । योग ब्रह्मांड को ही नियमित एवं संतुलित नहीं रखता वरन हमारी देह को भी संतुलित रखता है , क्योंकि जो कुछ भी ब्रह्मांड में है वही हमारी देह पिण्ड में भी है । आज का युग धर्म और विज्ञान पर आधारित है । क्योकि विज्ञान तत्व है तो धर्म शक्ति । प्रकृति और पर्यावरण को भी तभी संतुलित रखा जा सकता है जब कि हम पर्यावरण के धर्म का पालन निष्ठापूर्वक करें। शक्तियों का संतुलन ही पर्यावरण का धर्म है । पर्यावरण का धर्म रहस्यमयी विज्ञान है जिसमें सत्कर्म का संज्ञान है । नियति का विधान है और राष्ट्र का संविधान भी है । हमारा जीवन धर्माधारित होगा तो पर्यावरण भी जीवन्त रहेगा । हम सभी पर्यावरण का अंग है । हमें अपने पर्यावरण से सामंजस्य बनाना होता है । सभी जीव-जन्तु और मनुष्य अन्योन्याश्रित हैं और परस्पर पूरक भी है। शांतिपूर्ण सामंजस्य के लिए समन्वय जरूरी है । किन्तु आज सम्पूर्ण मानवता पर्यावरण और प्रकृति के ध्वंस को देख रही है । यह संसार ईश्वर द्वारा रचित है । हम भी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में इस सुन्दर रचना संसार के अंग है तथा हमें प्रकृति उपादान उपांग धरती अम्बर हवा पानी अर्ग्नि आदि के प्रति कृतज्ञ भाव रखना चाहिए क्योकि पंचतत्वों की अक्षरता-अक्षुण्णता ही हमारे भी अस्तित्व का आधार है । अंतरिक्ष के तत्व प्रेरक होते है । वायु हमारी भावना विचार और वाणी की संवाहक है । अग्नि तत्व की दहकता पवित्र और पावस करती है । जल जीवन दाता है इसलिये कहा जा सकता है कि जल ही जीवन है। मातृ वत्सला धरती हमारी पोषक है । माटी से ही हमारी देहयष्टि बनती है । मानवीय स्वास्थ्य हमारी देह की भौतिक तथा मानसिक स्थिति के साथ-साथ ऊर्जस्विता पर भी निर्भर करता है । जब हमारे चारों ओर का ऊर्जा क्षेत्र श्रेयस, सकारात्मक और प्रभावशाली होता है तो हम भी पूर्ण उत्साहित, उल्लासित, तेजस्वित एवं आनंदित रहते है और प्रसाद मुद्रा में रहते है । धर्म मनुष्यता का संरक्षक और ईश्वरीय आशीर्वाद है । धर्म ही समस्त संसारों की प्रकृति एवं स्थिति का कारण है । संसार में मनुष्य ही श्रेष्ठता का निर्वहन और धर्म का अनुसरण करने को कृत-कृत्य है । धर्म से पाप दूर होता है । ग्लानि दूर होती है । समस्त चराचर जगत धर्माधारित है । धर्म को ही सदैव वरेण्य वंदनीय और श्रेष्ठ बतलाया गया है । महाभारत में महर्षि व्यास का उद्भाव है -धारणाद धर्ममित्याहू: धर्मो धारयते प्रजा:।यत् स्याद धारणसंयुक्त सधर्म इति निश्चय:।।उन्नति हि निखिला जीवा धर्मेणैव क्रमादिह।विद्धाना: सावधाना लाभन्तेडन्ते पर पदम्।। धारण करने को ही धर्म कहा है। धर्म ने ही समस्त संसार को धारण कर रखा है । जो धारण है संयुक्त है वही धर्म है यह निश्चित है । धर्म के द्वारा ही समस्त जीव उन्नति तथा लाभ पाते हुए अतं मेंे परमपद को प्राप्त् होते है। अत: जिन शुभ कार्यो से सुख शान्ति ज्ञान आदि सदगुणों की विकास और वृद्ध हो अर्थात शारीरिक आत्मिक एवं मानसिक उन्नति हो वही धर्म है । पर्यावरण के धर्म का आधार प्रेम है । प्रकृति ही प्रेम की प्रमेय है । प्रेम का प्रलेख तो प्रकृति के कण-कण में प्रतिक्षण है । प्रेममय रहना सिखाती है । जहाँ प्रेम होगा वहाँ त्याग भी अवश्य ही होगा । त्याग संगतिकणका प्रतिफल होता है । सत्संग का प्रतिफल होता है जिसमें प्रथम क्रिया के बाद एक तत्व का दूसरे तत्व के साथ संयोग होता है । त्याग से दान का भाव आता है । ऋतु का भाव आता है । ऋतबद्धता तथा ऋतुबद्धता तय का ही एक रूप है । वैदिक मान्यता के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ही एक प्रकार से यज्ञ चक्र अहिर्मिण चलता है । ऋतु का आशय वस्तुत: इलेक्ट्रोन तथा प्रोटोन का प्रकटीकरण ही है । त्याग और समर्पण ही समन्वय के सूत्र है । यही हमारी एक्यता के पोषक हैं । सामंजस्य के सोपान हैं । सामंजस्य सदैव शांतिदायक होता है । कहने का तात्पर्य है कि प्रेम, त्याग, समन्वय, शांति आदि ही पर्यावरण के धर्म के अंग है इन्हें हमें अवश्य ही अंगीकार एवं आत्मसात कर लेना चाहिए । जिस तरह ब्रह्मांड अपरिमित शक्ति का स्रोत है उसी तरह हमारी देह भी शक्तिपुंज है । पितृत्व शुक्राणु सुक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर भी जीव सत्ता का निर्माण करता है उसमें देहाणु रूप में देहांग हाथ पैर आदि अंग-प्रत्पंग बीज रूप में होते हैं । गर्भ-क्षेत्र में बीजारोपण एवं अंकुरण अर्थात स्त्रीत्व डिम्ब से मिलन के पश्चात जब भ्रूण बनता है तो भ्रूण अपने भू्रणीय रक्षा कवच में ही सामर्थ्य एवं शक्ति का संचय करने लगता है वह गर्भस्थ रहते हुए भी प्रकृति पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण से तालमेल बनाना सीख जाता है उसके रोम रोम में शक्ति का संचय होने लगता है चैतन्यता एवं जीवन्तता का अभ्युदय होता है । ब्रह्मांड की तरह हमारी देह संरचना में भी पांचभूत तत्व लगभग उसी अनुपात में समाहित है हमारी दृश्यमान भौतिक देह के आसपास कुछ अदृश्य परतें भी होती है जिन्हें पारलोकिक मानवीय (ईथरिक) देह कहते हैं इसीलिए हमें कुछ अतीन्द्रिय संज्ञान भी होता है तथा उन बातों का अहसास भी रहता है जो हमारे लिए अद्भुत होता है । यह अदृश्य वायवीय आवरण, विद्युतीय, चुम्बकीय या तापीय या इनका मिला जुला रूप हो सकता है । वायवीय परतो में विद्युत परत ओरा का निर्माण करती है। इसी ओरा के प्रभाव के कारण की हम किसी से प्रभावित या अप्रभावित होते है । ओरा वस्तृत हमारी तेजस्विता का परिचायक है । हमारा ओरा हमारी आंतरिक प्रवृत्तियों, अत: करण के भावों के साथ साथ प्रकृति और पर्यावरण से भी प्रभावित होता है । यदि हम पर्यावण के धर्म का पालन सुरूचिपूर्ण ढंग से करते हैं तो हमारी तेजस्तिता उज्जवल रहती है निर्मल रहती हैं सकारात्मक रहती है स्वस्थ्य रहती है और सुखद रहती है । पर्यावरण का धर्म कहता है कि हम धरती, जल वायु, अग्नि और आकाश को संतुुलित रखें । हमारी धरती हमारा जीवनाधार है जो अपनी गोद में हमे खिलाती है । पार्थिव सकारात्मकता ही हमें स्थायित्व तथा दृढ़ता प्रदान करती है। धरती ही अनुपयुक्त ऊर्जाआें का अवशोषण करती है । प्रदूषणों को भी अवशोषित करती है । पृथ्वी पर जल की उपलब्धता पर ही हमारा जीवन निर्भर है जल ही हमें द्रव्यता प्रदान करता है । हमारी देह में ८० प्रतिशत जल होता है। जल ही अवांछनीय ऊर्जा का विलायक और प्रवाहक है । जल ही हमें शुद्ध एवं निर्मल रखता है । शुद्धता से सुचिता रहती है । वायु तो प्राणों का आधार है । वायु हमारे मन-मस्तिष्क की नियामक भी है । वायु हमारे शब्दों की वाहक है । हमारे मन-मस्तिष्क की नियामक भी है । वायु हमारे शब्दों की वाहक है । हमारे विचारों का आदान प्रदान वायु के माध्यम से ही वाणी द्वारा होती है । बौद्धिकता की शोधक भी वायु ही है । वायु ही शक्ति की प्रस्तोता है । जल और वायु के माध्यम से ही हमारी देह में अणुआें का संचालन होता है जिससे देह में संतुलन बना रहता है । अग्नि तत्व भी शक्तिशाली होता है मृदुलता तथा कठोरता की निर्धारक अग्नि ही होती है जो पदार्थोंा को भस्मीभूत कर प्रकृति के सत्य को प्रकट करती है । अग्नि से ही प्रकाश उत्पन्न होता है । प्रकाश से ही जीवन चैतन्यता है । प्रकाश की उपस्थिति ही हमारे पौषण का आधार है । हमारे नकारात्मक भाव प्रकाश की उपस्थिति से ही शामिल होते है । अग्नि और प्रकाश से संकल्प शक्ति मिलती है इसलिए अग्नि के समक्ष ही कसमें खाई जाती है और शपथ ली जाती है । प्रकाश की उपस्थिति में हमारी अशुद्ध ऊर्जा शुद्ध ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है । आकाश तत्व तो प्रत्यक्ष रूप से हमारी चेतन्य शक्ति से जुड़ा है । आकाश अनंत है वह महतो महीयान है जो हमे भी अनंतता और दिग दिगन्तता प्रदान करता है । ईश्वरीय वितान के रूप में हमे सुरक्षा से आच्छादित रखता है । सभी अन्योन्यश्रित ब्रह्मांडीय शक्ति एवं ऊर्जा हमें प्रकृति ओर पर्यावरण के धर्म पालन से ही सुलभ है । हमारा धर्म हमारे नियमित खुशहाल जीवन, सामाजिक धारणाआें एवं वर्जनाआें के साथ-साथ पर्यावरण एवं प्रकृति का भी आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हिस्सा है । हमारे वेद पुराण उपनिषद एवं अन्य धर्मो के ग्रन्थोंमें भी दो प्रमुख तत्व प्रकृति तथा पुरूष का उल्लेख है । ब्रह्मांड रचयिता ब्रह्म ही प्रकृति तथा पुरूष के सर्तक और जनक है अत: प्रकृति और पुरूष में समन्वय जरूरी है संवाद जरूरी है । किन्तु हमारी अज्ञानता के कारण हम प्रकृति और पर्यावरण के प्रति अपने धर्म को भूल रहे है नैतिकता को भूल रहे हैं नैसर्गिकता से हम दूर हो रहे हैं । प्रकृति से हम दूर हो रहे है तथा प्रकृति पर मानवीय हस्तक्षेप बढ़ रहा है अत: पर्यावरण पर नये विषय के साथ नई सोच बनाने की महती आवश्यकता है। प्रकृति और पर्यावरण तो अपना धर्म निश्चित रूप से निभाते है प्रकृति की समस्त क्रियाएँ समय पर हमें स्वयमेव सुलभ होती है प्रकृतिके किंचित भी विचित्र होने पर हम विचलित हो जाते है । क्या हम भी ईमानदारी से अपना पर्यावरणीय धर्म निभाते है यह विचारणीय प्रश्न है । क्या हम पेड़ पौधौं वनस्पतियों एवं अन्य जीव जन्तुआें की रक्षा एवं संरक्षण करते हैं क्या हम जल वायु आकाश धरती अम्बर को प्रदूषण रहित स्वच्छ रख पा रहे है । क्या हमारी जीवन शैली प्रकृतिपरक एवं योग क्षेमकारी है सबका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा हमें प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण करना होगा उपभोक्तावाद से बचना होगा । पर्यावरण के प्रति अपने नैतिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए उत्तरदायी बनना होगा । प्राकृतिक प्रक्रमोंमें संतुलन बनाना होगा अपनी संस्कृति संस्कार कर्तव्य तथा व्यवहार को सुधरना होगा । अतएव हममें से प्रत्येक को प्रकृति प्रेमी एवं पर्यावरणवादी बनना होगा । ***
ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों की रिपोर्ट पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग की भयावह तस्वीर पेश करते हुए कहा है कि वर्ष २०३० तक यह लोगों को ध्रुवीय क्षेत्रों पर शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर कर देगा । ओलिंपिक खेल सिर्फ साइबर स्पेस पर आयोजित होंगे और आस्ट्रेलिया का मध्य क्षेत्र पूरी तरह निर्जन हो जाएगा । पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली ब्रिटिश संस्था फोरम फार द फ्यूचर और ह्रूलिट पैकर्ड प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने अपनी यह ताजा रिपोर्ट पर्यावरण को हो रहे नुकसान की ओर लोगों का ध्यान खींचने और इससे निबटने के उपायों को लेकर जन जागरूकता अभियान के लिए जारी की है । रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट ने दुनिया की अर्थ व्यवस्थाआें की जिस कदर चूलें हिला दी हैं उसी तरह एक दिन ग्लोबल वार्मिंग की समस्या भी अर्थव्यवस्थआें में ऐसा ही भूचाल लाएगी । फोरम के अध्यक्ष पीटर मैडन के मुताबिक यह रिपोर्ट कोरे कयासों पर नहीं बल्कि पूरी तरह वैज्ञानिक अनुसंधान और तथ्यों पर आधारित है । यह धरती की भविष्य की तस्वीर पेश करती है, जो निश्चित रूप से अच्छी नहीं कही जा सकती । श्री मैडन ने कहा कि चीजों को सुधारने का अभी भी वक्त है लेकिन इसके लिए पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के स्थान पर स्वच्छ और हरित ऊ र्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देना, कम कार्बन उत्सर्जन वाली गतिविधियों पर ध्यान देना और प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध दोहन पर अंकुश लगाना होगा । उन्होने कहा भविष्य के इतिहासकार हमारे युग को जलवायु परिवर्तन के युग के नाम से पुस्तकों में दर्ज करेंगे ।

४ वन संरक्षण

वन विनाश का मूल्य क्या है ?
सिद्धार्थ कृष्णन /सीमा पुरूषोथामन
केन्द्र सरकार ने क्षतिपूरक वनीकरण के उद्देश्य से एक कोष निर्मित करने की गरज से क्षतिपूर्ति वन्यीकरण अधिनियम २००८ का प्रारूप तैयार किया है । जंगलो (यहां तक के सुरक्षित वनों तक को भी ) गैर वन्य उद्देश्यों से उजाड़ने के एवज में लिए जाने वाले शुल्क को इस मद के अंतर्गत लाए जाने की योजना है । परविर्तित वनों के क्षतिपूरक मूल्य की गणना के लिए शुद्ध वर्तमान मूल्य (एनपीवी) को एक आर्थिक औजार के रूप में मान्य किया गया है । सरकार के इस कदम पर दोहरे सवालिया निशान लग रहे हैं । पहला तो इस तरह उजाड़ने के एवज में क्या उनका मात्र आर्थिक मूल्यांकन भर करना पर्याप्त् होगा जबकि उनके पर्यावरणीय एवं सांस्कृतिक महत्व से सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं । दूसरा, वनों जैसी महत्वपूर्ण इकाई की क्षतिपूर्ति के मूल्यांकण के लिए क्या एनपीवी एक उचित तरीका है ? पहले वनों के आर्थिक मूल्यांकन की बात करें । इसके अंतर्गत वनों से प्राप्त् होने वाले उत्पादों एवं सेवाआें के आर्थिक मूल्यांकन की बात आती है । प्रारूप में वन उत्पादों में गैर काष्ठ वन उत्पाद और जल का उल्लेख है तो वहीं दूसरी ओर इससे प्राप्त् होने वाली सेवाआें जैसे चरनोई, वन्य जीव संरक्षण, कार्बन अवशेष एवं खाद्य नियंत्रण को भी इसमें शामिल किया गया है । प्रारूप में वनो की सांस्कृतिक एवं शैक्षिक सेवाआें का भी उल्लेख है । किंतु क्या मात्र आथिक क्षतिपूर्ति से इन सेवाआें की वास्तविक क्षतिपूर्ति हो पाएगी? उदाहरण के लिए नीलगिरि के ऊ परी छोर के शोला-घास मैदानों के पर्यावरणीय महत्व को देखें । यहां फैले विस्तृत घास के मैदानों के बीच जंगल सालभर हरा-भरा रहता है । मानसून उपरांत यहां की शोला घास धीरे-धीरे पानी को अपने से पृथक कर नीचे कोंगू के मैदानी इलाकों के लिए छोड़ती है । जरा विचार कीजिए कि विकास के नाम पर इन शोला और घास मैदानों के साथ छेड़छाड़ की जाए तो क्या आर्थिक क्षतिपूर्ति इस जटिल अंर्तसंबंध की भरपाई कर पाएगी ? नीलगिरि के मैदानों इलाकों में कागज उद्योग के लिए यूकिलिप्ट्स वृक्षारोपण हेतु घास के मैदानों को उजाड़ने के दुष्परिणाम हम पहले भी भुगत चुके है । इसने उसे क्षेत्र की प्राकृतिक जल प्रणाली को हमेशा के लिए प्रभावित कर दिया है । क्षेत्र में जंगलीघास और कीट प्रजाति की विविधता का भी बड़े पैमाने का ह्रास हुआ । चूँकि ये घास के इलाके सदियों से स्थानीय टोडा समुदाय के लिा भौतिक एवं परमपरा के स्त्रोत रहे है अतएव यूकिलिप्टस वृक्षारोपण ने इनकी जीविका और पारम्परिक विद्यानों पर सीधा प्रहार हुआ । देश में ऐसे कई वन प्रदेश है जो आज भी पर्यावरण और संस्कृति को अपने योगदान से जीवित रखे हुए है । कर्नाटक स्थित बिल्लिगिरि रंगास्वामी मंदिर अभयारण्य को ही लें । यह वन पर्याविदों के बीच अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है । दूसरी ओर सोलिगा जनजाति सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी यहां निवास कर रही है और इन्हीं वनों पर आश्रित है । ये वन उनकी संस्कृति का आधार है । इससे नीचे बसे चामराजनगर के मैदानी इलाकों की जलआपूर्ति इन्हीं वनों की वजह से सुनिश्चित है । ये चीतों की शरणस्थली भी है । अब अगर इन्हें उजाड़ दिया जाएगा तो इतनी सारी वन्य प्रजातियों, जैव प्रजातियों और जनजातीय लोगों के अस्तित्व की क्षतिपूर्ति किस तरह होगी ? आरक्षित वनों के बारे में हमारी सोच का विस्तृत होना आवश्यक है क्योंकि ये हमारी अमूल्य धरोहरें हैं । ऐसी महत्वपूर्ण धरोहरों की एनपीवी तय करते समय हमें इनसे मिलने वाले समस्त लाभों को हासिल करने की लागत की न सिर्फ गणना करनी होगी बल्कि इन्हेंउजाड़ने के अतिरिक्त मौजुद अन्य बेहतर विकल्पों के बारे में भी सोचना होगा । मान लीजिए कि हम बहुत ही उन्नत वैज्ञानिक तरीके से इस एनपीवी को तय भी कर लें और उस हिसाब से अवनीकृत किए जाने उस समूचे क्षेत्रफल का कुल मूल्य ज्ञात कर कोष में जमा भी कर दें तो भी क्या हम उस कोष से उतनी उपयोगिता के सारे संसाधन जुटा पाएंगे ? एनपीवी कोष को एक अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण भूमि पर खर्च करना क्या अपने आप में ही नया सवाल नहीं खड़ा करता ? मौसम परिवर्तन के नजरिए से देखते हुए अगर एनपीवी निर्धारित करते समय पर्यावरण और सांस्कृतिक लाभों को अतिरिक्त महात्व दे दिया जाएगा तो भू-उपयोग के परिवर्तन की अनुमति मिलने की संभावना भी प्रबल हो जाएगी । इससे विभाग में इसके जरिए कोष जुटाने की प्रवृत्ति भी बढ़ जाएगी और कहीं एनपीवी कम आंकी गई तो परिवर्तन के लिए मांग भी अचानक बढ़ जाएगी । पर्यावरण से नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए एनपीवी जैसे आधार के चुनाव के साथ एक अन्य समस्या यह भी है कि एक प्रकार के वन के लिए औसत प्रति इकाई मूल्य उस समूचे क्षेत्र के वैविघ्यपूर्ण पर्यावरण संबंधी लाभ, सामाजिक-सांस्कृतिक लाभ व आर्थिक लागत और लाभ संबंधी प्रावधानों को समुचित रूप से परिलक्षित नहीं करता है । एनपीवी निर्धारण के लिए एक पृथकीकृत बहुआयामी सोच के द्वारा समस्या सुलझाई जा सकती है । पर्यावरण और सामाजिक लाभों की क्षतिपूर्ति के लिए आवश्यक एक प्रणाली के निर्माण के लिए सच्ची राजनैतिक इच्छाशक्ति की दरकार है । ***
बाघों का अवैज्ञानिक पुनर्वास चार वर्षोंा के लम्बे अंतराल के बाद सरिस्का पुन: अपने यहां बाघों की चहल- पहल देख रहा है । रणथम्भौर से बाघ का एक जोड़ा यहां लाकर छोड़ा गया है । तीन अन्य बाघों को भी शीघ्र ही यहा लाया जाएगा ।आजादी के बाद से पहला मौका है जब बाघ प्रजाति के किसी जानवर को इस तरह किसी अन्य वन्य में ले जाकर छोड़ा गया है । इस परियोजना में राजस्थान के वन विभाग, भारत सरकार और वन्य जीवन संस्था का सहयोग रहा है तो इससे बाघों की मौजूदा छोटी जनसंख्या के अनुवांशिक प्रबंधन को भी दिशा मिल जाएगी । पिछले कुछ दशकों में बाघ अभ्यारण्यों के आसपास रिहायशी और खेतीहर गतिविधियों में बहुत बढ़ोतरी हुई है जिसकी वजह से अभ्यारण्य एक दूसरे से पूरी तरह कट गए हैं अतएव सिंह प्रजाति के लिए स्थान परिवर्तन की संभावनाएं खत्म सी हो गई हैं । अभ्यारण्य के बाघों की कम जनसंख्या की वजह से आनुवांशिक अलगाव की परिणति अंत: प्रजनन में होगी । रणथम्भौर में भी ज्यादा बाघ नहीं है । यहां १९७३में प्रोजेक्ट टाइगर प्रारंभ करते समय वन- विभाग ने इनका आंकड़ा १३ बताया था । इन ३५ सालों में यह संख्या घटती - बढ़ती रही है । रणथम्भौर में बाघ की मौजूदा आबादी इन्हीं १३ मूल निवासियों की संतति है अत: इनके अंत: प्रजनन की प्रबल संभावना है । अतएव इसमें विस्तृत अध्ययन की दरकार है । सरिस्का में स्थानीय प्रजाति का वंश विषयक अध्ययन हो पाता इसके पूर्व ही वहां से बाघ विलुप्त् हो चुके थे । सरिस्का की इस बाघ बसाहट को अब वंश विषयक विविधता की आवश्यकता है । जानवरों के हित में इस दिशा में कार्य होना चाहिए परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिशा में महत्वपूर्ण आयामों की उपेक्षा की गई है । बाघों की पुर्नबसाहट के लिए अग्रिम योजना के साथ ही वर्षोंा का मैदानी अध्ययन और इसके पश्चात् लम्बे समय तक लगातार निरिक्षण की आवश्यकता होगी ।

५ ऊर्जा जगत

ऊर्जा का भ्रम
रावलिन कौर / टॉम केन्डाल
विश्व की प्राचीनतम सभ्यता की साक्षी गंगा आज विलुप्त् होने के कगार पर है। इस इलाके में कुछ किलोमीटर के अंतराल के पश्चात एक के बाद एक गंगा व सहायक नदियों का प्रवाह मोड़कर विद्युत उत्पादन के प्रयास किये जा रहे हैं । एक ओर जहां हिमालय क्षेत्र की नदियों में इतना पानी ही नहीं बचा है जिससे कि टरबाईन चल सकें वहीं इसके बावजूद निवेशकों द्वारा यहां पर विद्युत परियोजनाआें की स्थापना नए संशय को जन्म दे रही है । टिहरी से पावन गंगौत्री जाने वाले घुमावदार रास्ते पर आपको प्रत्येक पांच सौ मीटर पर अशुभ सूचना देते बोर्ड लगे मिल जाएंगे जिन पर लिखा होता है आगे विस्फोट क्षेत्र है । गंगा के अलौकिक दर्शन को आए श्रृद्धालुआें को इन सूचना पटों के साथ ही बांध गंगा की हत्या है और गंगा को अविरल बहने दो जैसे नारे भी बहुतायत में दिखाई देते है । गंगा अब पनबिजली परियोजनाआें के निशाने पर है । साथ ही इसकी सहायक भागीरथी और अलकनंदा के जलग्रहण क्षेत्र में पचपन पनबिजली परियोजनाआें पर या तो निर्माण जारी है या शीघ्र ही शुरू होने वाला है। गंगोत्री से देवप्रयाग व अलकनंदा तक के १४५ किलोमीटर के हिस्से पर नौ बड़े बांधों के अलावा कई छोटे बांध आकार लेने वाले हैं । इनमें से सबसे ज्यादा ऊँचाई पर है गंगोत्री से मात्र २७ किलोमीटर पर स्थित भैरोंघाटी बांध । इस सारी कवायद को केन्द्रीय प्रदूषण निवारण मंडल के पूर्व सदस्य सचिव जी.डी.अग्रवाल ने अपने नौ दिवसीय उपवास के माध्यम से चुनौती देते हुए मांग रखी थी कि उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच के १२५ किलोमीटर के हिस्से पर कोई परियोजना लागू नहीं की जाये । ऐसा होने पर नदी का प्रवाह बाधित होगा । परंतु उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड के सभापति एवं मुख्यमंत्री के सलाहकार योगेन्द्र प्रसाद का कहना है कि हमारे पास राजस्व के स्त्रोत बहुत सीमित हैं । फिर इनमें हम बाढ़ एवं सिंचाई के लिए जल नियंत्रण भी कर पाएंगे । गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का मानना है इंजीनियरों को नदी का सिंचाई अथवा विद्युत उत्पादन किए बगैर समुद्र में जा मिलना व्यर्थ प्रतीत होता है । किंतु नदी के नैसर्गिक प्रवाह के साथ इस तरह की छेड़छाड़ के भंयकर परिणाम निकलेगें । नदीजल के समुद्र में मिलने से खारे पानी के फैलाव को रोकने में मदद मिलती है । यह अनिवार्य है , लेकिन दुर्भाग्य से इसे अवैज्ञानिक ठहराया जाता है । फिर हिमालय क्षेत्र में बड़े भूकंप की आशंका को भी तो नकारा नहीं जा सकता । बांध के टूटने के बाद निचले इलाकों की बाढ़ से कैसे रक्षा होगी ? केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का मानना है कि सभी नदियोें के लिए न्यूनतम बहाव का एक ऐसा पूर्व निर्धारित स्तर तय नहीं हो सकता । क्षेत्र विशेष की परिस्थिति के अनुसार ही प्रत्येक मामले में न्यूनतम बहाव का निर्धारण किया जाना चाहिए । पर्यावरण प्रभाव का आकलन की शर्त है कि नदियों में न्यूनतम बहाव कायम रखा जाए । इसका आकलन नदी के बहाव के पिछले ३०-४० वर्षोंा के आंकड़ों के आधार पर करते हैं । परंतु अधिकांश मामलों में इन रिपोर्टस् को गंभीरता से नहीं लिया जाता । डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की नीति एवं कार्यक्रम विकास विभाग की वरिष्ठ संयोजक विद्या सुंदरराजन का न्यूनतम बहाव की अवधारणा को सिरे से नकारते हुए कहना है कि इसका आकलन मात्र ेंमनुष्यों की आवश्यकता के लिहाज से किया जाता है । वस्तुत: इसके आकलन के समय पर्यावरण की आवश्यकताआें व भूमिगत जलपुनर्भरण, सिंचाई, शहरी आवश्यकताएं, जलवायु, जलीय ऑक्सीजन मिट्टी का जमाव जैसे मुद्दों पर भी विचार किया जाना चाहिए । ईआयए बांधों में मिट्टी के जमाव के मुद्दे पर भी खामोश है, जबकि जमाव से निपटने का खर्च परियोजना लागत का २० से ३० प्रतिशत तक होता है । मानेरी भाली खख के बैराज में नौ करोड़ टन मिट्टी प्रतिवर्ष बहकर आती है। गंगाा के निचले इलाके व बंगाल की खाड़ी स्थित कृषकों के लिए बहकर आई यह मिट्टी बहुत उपयोगी होती है । किंतु नए बांध इसे वहीं रोक लेंगे । इस मुद्दे पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया है । बांधों की ईआयए रपटों पर अमेरिका की एनवायमेंट लॉ अलायंस वर्ल्डवाइड द्वारा किए गए आकलन के अनुसार मिट्टी का यह जमाव निचले इलाके में गंगा को एक भुखी नदी बना देगा । चूकिं पानी में मिट्टी की कमी होगी अत: निचले इलाकोंमें यह अपनी प्राकृतिक क्षुधा को अपने ही किनारों को काटकर शांत करेगी । इस वजह से जैविक खाद्य श्रंृखला प्रभावित होने से निचले इलाकों में कई किलोमीटर तक मत्स्यपालन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा । राज्य विद्युत मंडल जो इनके प्रमुख ग्राहक हैं को भी नुकसान उठाना पड़ेगा । क्योंकि विद्युत मिले या न मिले वे तो एक निश्चित रकम चुकाने के लिए बाध्य है । सब्सिडी आधारित वर्तमान शुल्क संरचना पनबिजली परियोजनाआें को निवेश के लिए आकर्षक विकल्प तो बनाती है किन्तु उन्हें विद्युत उत्पादन को ऊँचा रखने अथवा संसाधनों के पूर्ण उपयोग हेतु प्रोत्साहित नहीं करती है । विशेषज्ञों का कहना है परियोजना स्थापित करने वाले उद्यमियों की रूचि बहाव और मिट्टी के जमाव के सही आकलन में नहीं होती । योजना बनाते समय बहाव के पुराने आकड़ों का ही उपयोग किया जाता है ऐसे में विद्युत उत्पादन अनुमान से काफी कम होता है । भारत में निगरानीशुदा जलाशयों में गत बारह वर्षोंा के दौरान संग्रहण क्षमता से २५ प्रतिशत तक कम जलभराव हुआ है और प्रति मेगावाट स्थापित क्षमता में १९९४ की अपेक्षा २१ प्रतिशत की कमी हुई है । वास्तविकता यह है कि ज्यादातर बांध और पनबिजली परियोजनाएं गत ५० वर्षोंा के बहाव के आधार पर बनाई गई हैं न कि वास्तविक बहाव और जलवायु एवं बहाव में संभावित परिवर्तन का आकलन करके । दक्षिण एशिया बांध, नदी व व्यक्तियों के नेटवर्क के हिमांशु ठक्कर का कहना है कि परियोजनाआें को इस दावे के आधार पर स्वीकृति मिल जाती है कि वे अवलम्बित स्तर पर ९० प्रतिशत तक विद्युत उत्पादन में समक्ष होंगी । (इसका अर्थ यह भी है कि वे अपने अनुमानित जीवनकाल में क्षमता का ९० प्रतिशत विद्युत उत्पादन करती रहेंगी) इसे डिजाइन जनरेशन भी कहा जाता है । वहीं केन्द्रीय विद्युत प्राधिकारी से प्राप्त् पिछले २३ वर्षोंा के आंकड़े बताते है कि वर्तमान कार्यशील परियोजनाआें में से ८९ प्रतिशत निर्धारित स्तर से कम विद्युत उत्पादन कर रहीं है । हिमालय पर्वतश्रृंखला अपेक्षाकृत नयी है । जिससे यहां बारिश के मौसम मेंं भूस्खलन आदि का खतरा बना रहता है । विस्पोट, खुदाई, सुरंग निर्माण और मिट्टी के बड़ी मात्रा में ढेर लगाने से यह खतरा और बढ़ सकता है । इस क्षेत्र में भूकंप की आशंका भी बनी रहती है । अत: सबसे बड़ा खतरा तो यही है । हालांकि उद्यमियों को इसकी कोई चिंता नहीं है । एनटीपीसी के अधिकारी कहते है कि अब तकनीक बहुत उन्नत हो गई है अत: बांधों को कोई खतरा नहीं है । वहीं नेशनल जिओफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट हैदराबाद के हर्ष गुप्त का प्रश्न है कि बांधों के आसपास के पर्यावरण का क्या होगा ? अगर भूकंप आता है तो नदी मलबे से भर जाएगी और वह जब बांधों में इकट्ठा होगा तो उनका जीवनकाल वैसे ही सिकुड़ जाएगा । इसी संस्थान के वी.पी. डिमारि का कहना है, हिमालय अंचल में चट्टाने ठीक से जमी हुई नहीं है । खासतौर से सतह से थोड़ा नीचे । इसलिए जब सुरंगे खोदी जाएंगी तो ऐसी ढ़ीली चट्टाने भी उसमें मिलने की संभावना है । ऐसे में सुरंग में उपर अगर पर्याप्त् ठोस छत नहीं होगी तो सुरंग के दरकने के खतरे ज्यादा होंगे। स्थानीय निवासियों से किए जाने वाले क्षतिपूरक जमीन और रोजगार के वादे भी पूरे नहीं होते । यहां प्रभावित सत्तर परिवारों में से सिर्फ ३५ लोगों को रोजगार मिला, वह भी चौकीदारी का । इतनी कवायद, विस्थापन, पर्यावरण हास और खतरों को नियंत्रण की कीमत पर भी विद्युत उत्पादन एक सपना ही रह जाता है । त्रुटिपूर्ण नीतियां अक्षम परियोजनों को प्रभावित करेगी । अगर प्रत्येक योजना का अधिकतम लाभ उठाया जाए तो पूरे दृष्यपटल को ही बदल देने वाली योजनाआें की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी । किसी परियोजना को अनुमति देने के पूर्व ही जलवायु परिवर्तन, जल संबंधी आकड़ों ग्लेशियर के पिघलने और विस्तृत तलछट भार संबंधी अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए । योजनाकर्ताआें को यह ध्यान में रखना होगा कि नदी एक महत्वपूर्ण सम्पदा है । ***

६ जनजीवन

कदमताल करता विकास
अनिल चमड़िया

आज विकसित विकासवादी अवधारणा की तफतीश करते हुए यह समझा रहा है कि पिछले करीब ३५० वर्षोंा से विकास का लाभ एक सीमित वर्ग को ही प्राप्त् हो रहा है । आम जनता इस स्थिति में पहुंच गई है जिसे सन्निपात की ही संज्ञा दी जा सकती है । भारत में जातिवाद और सम्प्रदायवाद से समाज के टूटने का खतरा जाहिर किया जाता है । यह खतरा इसलिए है कि हम समाज के विविधता भरे ढ़ांचे और चरित्र को बनाए रखना चाहते हैं । साथ ही समाज को उन लड़ाईयों से दूर रखना चाहते हैं जिससे समाज के बड़े हिस्से का हर स्तर पर नुकसान ही होना है । ये धर्म और जाति उन पुरानी व्यवस्थाआें के आधार रहे हैं जिन्हे आधुनिक व्यवस्था से दूर करने का लक्ष्य होता है । आधुनिक व्यवस्थाएं ये लक्ष्य राजनीतिक विचारधाराआें के आधार पर निर्धारित करती हैं । लेकिन पुरानी व्यवस्थाआें के जो आधार रहे हैं उनसे जुड़े वर्गोंा के हित पुरानी व्यवस्था में ही सुरक्षित होते हैं इसलिए वे किसी भी स्तर पर उसे बनाए रखना चाहते हैं इसीलिए वे किसी भी स्तर पर उसे बनाए रखना चाहते हैं । वे उन आधारों को एक विचारधारा में परिवर्तित करने और उसे स्थापित करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं । लेकिन दूसरी तरफ आधुनिक व्यवस्थाआें की भी अपनी टकराहट होती है । वे नई - नई विचारधाराआें के लिए जगह बनाने की कोशिश करती हैं । आधुनिकतम होती व्यवस्थाआें में विचारधाराआें का आधार जाति, लिंग, धर्म और क्षेत्र से बदल जाता है। ऐसे समय लगता है कि जातियां समानता ग्रहण कर रही हैं । धर्म की भूमिका कम हो रही है । पूरी दुनिया ही एक क्षेत्र में बदल गई है । शोषित पीड़ित आबादी को मुक्ति मिल रही है । लेकिन एक उदाहरण से समझने की ये कोशिश की जा सकती है कि जो आधुनिक व्यवस्था में बदलने और विकास का अहसास है वह दूसरी तरफ कैसे एक अधीनता और असमानता को बनाए रखने की कोशिश ये आधुनिकतम कहलाने वाली विचारधारायें करती रहती है । सन् १६६० का एक तथ्य है । उस समय दिल्ली की आबादी लगभग पांच लाख थी । उसमें आधी से ज्यादा आबादी झुग्गी झोपड़ियों में रहती थी । इस संख्या का अनुमान १६६१ में दिल्ली में आग लगने की एक घटना के तथ्यों से भी लगया जा सकता है । उसमें ६० हजार झुग्गियां और झोपड़ियां जलकर राख हो गई थीं । दूसरी तथ्य खेत में अनाज पैदा करने वालों से जुड़ा है । दिल्ली और आगरा के इलाके में गेहँू का उत्पादन करने वाले खेतिहरों की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे गेहँू खरीद सकें । तीसरा तथ्य औरंगजेब के बाद इतिहास में मिलता है कि १७७० के आरम्भ में जितनी मौतें हुई और अनाज की जिस तरह से किल्लत देखी गई उतनी अतीत में न कभी देख गई थी और न ही सुनी गई थी। इन साढ़े तीन सौ वर्षोंा में व्यवस्थाएं आधुनिकतम होती चली गई हैं लेकिन ये कहने की जरूरत नहीं होगी कि व्यवस्थाएं कहां खड़ी रही हैं और आज भी हैं । उपरोक्त स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि राजनीतिक विचारधाराआें ने नई व्यवस्थाआें में विकास को एक ऐसा आधार बनाया जिसे केन्द्र में रखकर असमानताआें के पुराने आधारों को खत्म किया जा सकता है । इसीलिए विकास की अवधारणा के अंदर तमाम तरह के राजनीतिक विचारधाराआें के बीच तीखे संघर्ष होते रहे हैं । विकास की धुरी पर राजनीतिक सत्ताएं बिगड़ती रही हैं । लेकिन विकास को एक ऐसी विचारधारा के रूप में विकसित किया गया है । पुरानी व्यवस्थाआें के आधार पर जातिवादी, सम्प्रदायवादी आदि रहे हैं । उसी तर्ज पर विकासवादी जुड़ जाता है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने जाति और धर्म की तरह इसे एक विचारधारा के रूप में विकसित करने की कोशिश की है । भारतीय समाज को जातिवाद और सम्प्रदायवाद के मनोविज्ञान, मानसिक अवस्था और उसकी आक्रमकता के बारे में बताने की जरूरत नहीं हैं । लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत जैसे देशों मेें विकासवाद और विकासवादियों का भी वही चरित्र है । भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के फैसले सरकार ने जितने चरणों के लिए हैं वे उस विचारधारा को कट्टरपंथी के रूप में विस्तारित करने के चरण रहे हैं । इस विचारधारा के कट्टरपंथी होने के कम से कम दो लक्षण यहां देखे जा सकते हैं । पहला लक्षण शाइनिंग इंडिया या भारत २०२० का नारा बनना हैं । यानी यह देखा जा रहा हे कि लोग अपनी पहले की स्थिति में ही हैं लेकिन सत्तायें विकासवादी कहलाती है ं। इसमें आवाज पैदा की जाती है कि कहीं दूरदराज सपने पूरे हो रहे हैं । दूसरे विकास पर सवाल उठाने वाले आक्रमण के शिकार होते हैं । दिल्ली में लाखों की तादाद में झुग्गियों के गिराए जाने से लेकर छत्तीसगढ़ में नदियों को बेच देने तक पर कोई सत्ता का बाल बांका नहीं कर सका और ना ही लाख से ऊपर की तादाद में किसानोंे की मौत को कोई देख पाया । जातिवाद और सम्प्रदायवाद की भयावहता इसी तरह ही तो देखी जाती है । विकासवाद भी उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कम से कम साढ़े तीन सौ वर्षोंा पुरानी स्थिति में हमें खड़ा किए हुए है । वहां अनाज का अभाव और गेहँू के ऊँचे भाव से भूखमरी, मौत और कर्ज से किसानों की मौत में और आज की परिस्थिति में क्या अंतर है? पुराने विचार वहां और यहां केवल जाति, धर्म की तलाश करेंगे नई विचारधारा ने विकासवादी नामक एक नई जाति और धर्म को विकसित कर लिया है उसकी शिनाख्त कैसे होगी ? वैसे व्यवस्था आधार के रूपों का भी आधुनिकीकरण कर देती है । समाज ने जिन तमाम तरह की बहसों को जन्म दिया और वैचारिक लड़ाईयां लड़ीं वे उसकी सांस्कृतिक पूंजी हैं । इन्हें उनकी उपब्धियों के तौर पर देखा जा सकता है । लेकिन विकासवाद ने उन तमाम उपब्धियों और संस्कृतिक पूंजी पर अपना आक्रमण कर अधिकार जमा लिया है । यदि भारतीय समाज और राजनैतिक व्यवस्थाआें में इस विचारधारा के प्रभावों का अध्ययन किया जाए तो ये बेहद गहरे स्तर पर सक्रिय और सूक्ष्म स्तर पर आक्रमण दिखाई देगा । इसने अपनी भाषा विकसित की है और दूसरी तरफ आम जनता को बेजूबां करने के लिए भाषा छीन ली है । अब अक्सर यह सुना जाता है कि अजीब सा लगा रहा है या वह अजीब सा है । क्या कभी किसी समाज में ऐसा होता है कि उसके बीच कुछ खड़ा हो और वह अजीब सा लगे ? यदि आश्चर्यजनक चीजें अचानक खड़ी होती हों तो ऐसा हो सकता है। लेकिन यहां तो अजीबों की कड़ी तैयार दिख रही है और समाज उसे व्यक्त करने के लिए भाषा तैयार नहीं कर पा रहा है । सारे संबंध विघटन के दौर से गुजर रहे हैं । विकास जब तक एक योजना और कार्यक्रम है वह आक्रमणकारी नहीं हो सकता। जैसे ही वह विकास होता है उसके खतरे शुरू हो जाते हैं। विकासवाद ने तमाम और खासतौर से समानता मूलक राजनीतिक विचारों को रक्षात्मक स्थिति में ला दिया है । इसने व्यक्ति की हरेक इकाई को अपने प्रभाव में कर रखा है । हमें इसके बारे में सोचना होगा ।***

७ विशेष लेख

क्या गंगा अक्षुण्ण रहेगी ?
डॉ. चन्द्रशीला गुप्त
गौमुख की राह उमंग और आसभरी होती है । चट्टानों पर आपका एक-एक कदम उस ग्लेशियर की तरफ ले जाता है जो गंगा का उद्भव है । घाटी में नीचे भागीरथी चीड़ व देवदार के बीच उछलती बहती है । जैसे-जैसे ग्लेशियर नज़दीक आता जाता है, पेड़ दुर्लभ होते जाते है, केवल चट्टानें व पत्थर ही नज़र आते हैं । यहां भी छोटे-छोटे मंदिर व ढाबे ज़रूर मिल जाएंगे । भरतीय हिमालय के ९,५७५ ग्लेशियरों में से ७३ कि.मी. लंबे सियाचिन ग्लेशियर को छोड़ दें तो गंगोत्री सबसे बड़ा है । पौराणिक मिथक के अनुसार देवी गंगा नदी के रूप में यही अवतरित हुई थी ताकि राजा भागीरथ के पूर्वजों (सागर पुत्रों) को मोक्ष प्राप्त् हो । उन्हें मिले श्राप के अनुसार मोक्ष प्रािप्त् के लिए गंगा स्नान जरूरी था । राजा भागीरथ ने कई सदियों तक जिस शिला पर बैठकर शिव की तपस्या की थी, वह शिला गंगोत्री में आज भी मौजूद है । यही वजह है कि गंगा को यहां भागीरथी कहा जाता है । कहा जाता है कि गंगा के तेज़ प्रवाह को कम करने के लिए शिव ने गंगा को पहले अपनी जटाआें में झेला था । गंगोत्री मंदिर एक गोरखा कमांडर, अमरसिंह थापा ने १८वीं सदी की शुरूआत में बनाया था । सर्दियों में यह कस्बा पूरी तरह से वीरान रहता है लेकिन गर्मियों में यह श्रद्धालुआें से भरा होता है । प्रति वर्ष ५०,००० से अधिक भक्त गौमुख तक पहुंचते है । गंगोत्री कस्बे से गौमुख १८ कि.मी. दूर है । गंगोत्री कस्बा एकदम अनियोजित होटलों, ढाबों व गुमटियों से भरा है जो उस छोटे से क्षेत्र में जहां - जहां उग आए हैं । गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान संरक्षित क्षेत्र है जहां वाहन प्रवेश की अनुमति नहीं होना चाहिए । मगर टूरिस्ट ट्राफिक ने जंगलो का सफाया कर दिया है, रास्ते भर प्लास्टिक की बोतलें व पोलीथीन की थैलियां नज़र आती है । श्रावण मास में गौमुख में सबसे ज़्यादा श्रद्धालु जमा होते हैं । रास्ते मेंं भोजवासा बेस कैम्प है जहां श्रद्धालु व पर्वतारोही रात्रि विश्राम करते हैं । यह नाम यहां भोजवृक्ष का जंंगल होने से पड़ा है । मान्यता है कि महाभारत इन्हीं भोजवृक्षों के भोजपत्रों पर लिखी गई थी । आज भोज वास उजाड़ है, एक भोजवृक्ष ढूंढ़ना भी मुश्किल है, ढाबों में चूल्हा जलाने में सारे वृक्ष खप गए हैं । गंगोत्री ग्लेशियर ३००४४ से ३००५६ उत्तरी अक्षांश व ७९००४ से ७९०१६ पूर्वी देशांतर के बीच फैला है । इसके सामने के मुख पर एक विशाल हिम गुफा है । भौगोलिक रूप से यह उच्च् हिमालय के क्रिस्टेलाइन क्षेत्र में है । यह छोटे-बड़े ग्लेशियरों का समूह है । मुख्य ग्लेशियर की लंबाई ३०.२० कि.मी. व चौड़ाई ०.५-२.५ कि.मी. है । चार हज़ार फीट ऊं चाई पर स्थित भागीरथी नदी का स्त्रोत है जो देवप्रयाग में अलकनंदा से संगम के बाद गंगा कहलाती है । जब आप गंगा ग्लेशियर या गौमुख पर पहुंचते हैं तो आपकी कल्पनाएं चकनाचूर हो जाती हैं । यह कोई विशाल ग्लेशियर नहीं है वरन बर्फ से ढंकी चट्टानें भर हैं । यदि गंगोत्री ग्लेशियर इस तरह पिघलते रहे, तो गंगा का भविष्य कैसा होगा? क्या ग्लोबल वार्मिंग उस नदी को सुखा देगा जो ५० करोड़ लोगों की जीवन रेखा है ? पिघलते ग्लेशियर बर्फ का सबसे बड़ा भू-भाग बनाते हैं । यहां से ७ महानदियां (यमुना, सिंधु व ब्रह्मापुत्र आदि) निकलती हैं । राष्ट्र संघ की जलवायु परिवर्तन सम्बंधी सरकारी पेनल (आई.पी.सी.सी.) विश्व भर में जलवायु परिवर्तन पर किए गए वैज्ञानिक शोध को इकट्ठा करती है । पेनल ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में सख्त चेतावनी दी है सारी दुनिया में हिमालय के ग्लेशियर सबसे तेज़ी से पिघल रहे हैं और अगर यही दर जारी रही तो सन २०३५ या शायद और भी पहले ये विलुप्त् हो जाएंगे । वर्तमान का ५ लाख वर्ग कि.मी. बर्फीला क्षेत्र एक लाख वर्ग किमी रह जाएगा । ग्लेशियरों के पिछलने का वर्तमान रूझान गंगा, सिंधु, ब्रह्मापुत्र व उत्तर भरतीय मैदानों में बहने वाली अन्य नदियों को मौसमी बना देगा । लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ग्लेशियर भूसंरचना विज्ञानी मिलाप राम का मानना है कि यद्यपि गलेशियर पिघल रहे हैं, फिर भी वे गुम होने नहीं जा रहे हैं क्योंकि पिछले ३०-३५ वर्षोंा से सिकृड़ने की दर में कमी आई है । करंट साइंस में छपे एक लेख में किरीट कुमार व उनके साथियों ने भी यही कहा है कि ग्लोबल पाे़जीशनिंग सिस्टम से पिछले ६९ वर्षोंा में १५.१९ मीटर सिकुड़न पता चली है । यद्यपि सन १९७१ के बाद सिकुड़न की दर कम हुई है और २००४-०५ के बीच तो बेहद कम रही है । यह अध्ययन एक अन्य तथ्य की ओर इशारा कर रहा है कि ग्लेशियर का दक्षिणी मुख उत्तरी भाग की तुलना में धीमे पिघल रहा है । दूसरी ओर अधिकतम सिकुड़ने ग्लेशियर की मध्य रेखा में पाई गई है । इनका समर्थन करते हैं लखनऊ के रिमोट सेसिंग एप्लीकेशन सेंटर के ए.के. टांगरी । उनके अनुसार ग्लेशियर पिघलने की इस में कमी से तापमान बढ़ने की दर में भी कमी का संकेत मिलता है । हिमालय पर तापमान परिवर्तन का कोई अध्ययन नहीं हुआ है । दरअसल ऊ परी हिमालय पर दशकों से तापमान के रिकार्ड लेना मुश्किल रहा है । तापमान में वृद्धि के सही रूझान को समझने के लिए पिघले ३०-४० वर्षोंा के आंकड़ों की ज़रूरत होगी जबकि मात्र ७ वर्ष पहले कुछ स्वचलित मौसम केन्द्र स्थापित किए गए हैं । वैसे हिमालय को छोड़कर शेष भारत में तापमान ०.४२ डिग्री से ०.५७ डिग्री सेल्सियस प्रति १०० वर्ष की दर से बढ़ रहा है । आई.पी.सी.सी. के अनुसार पूरे विश्व का ताप ०.७४ डिग्री सेल्सियस प्रति शताब्दी बढ़ा है । सन १९८० से भागीरथी क्षेत्र में बर्फ का भाग कम हो रहा है । अर्थात नदी को पानी देने के लिए कम बर्फ उपलब्ध है । टांगरी का मत है कि भागीरथी के जलग्रहण क्षेत्र में कम बर्फ पिघलकर कम पानी पहुंच रहा है । राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, रूड़की के हिमखंड विशेषज्ञ मनोहर अरोड़ा के अनुसार गंगा अपने पानी के लिए गौमुख ग्लेशियर पर पूरी तरह निर्भर नहीं है । पश्चिम बंगाल तक का ज़्यादातर जलग्रहण क्षेत्र वर्षा से ही जल प्राप्त् करता है । देवप्रयाग तक का भागीरथी बेसिन (२०,००० वर्ग मि.मी.) कुल गंगा जल ग्रहण क्षेत्र का ७ पतिशत है । गंगा के कुल वार्षिक बहाव का ४८ प्रतिशत जल गंगोत्री से भागीरथी में व २९ प्रतिशत देवप्रयाग में गंगा से मिलता है । शेष वर्षा के जल से प्राप्त् होता है । एक असामान्य बात भी दृष्टिगोचर हुई है : पिछले कई वर्षोंा से ग्लेशियर की सतह पर एक नदी रक्तवर्ण बह रही है । पहले पानी ग्लेशियर के नीचे से आता था । अत: स्पष्टत: ये ग्लेशियर के जल्दी पिघलने के जल्दी पिघलने के संकेत हैं । जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा, सारा कृषि पैटर्न बदलेगा और बांघ डिज़ाइन के मापदंड व बाढ़ नियंत्रण उपायों पर भी पुन: विचार करना पड़ेगा । ग्लेशियर गति का वर्षोंा से अध्ययन कर रहे मिलाप शर्मा मानते हैं कि भौगोलिक समय रेखा पर नज़र डालने से पता चलेगा कि ग्लेशियर का सिकुड़ना नया नहीं है । करीब ३,९०० वर्ष पूर्व यह गौमुख तक फैला हुआ था और आज सिकुड़कर ८ कि.मी. दूर हो गया है । इसके सिकुड़ने की गति एक जैसी नहीं रही है, बीच के समय में लघु हिमयुग (१६-१७ वी शताब्दी) में यह ज़्यादा तेज़ी से सिकुड़ रहा था । वैसे ग्लेशियर का अस्तित्व तो बना रहेगा क्योंकि इसमें निरंतर बर्फ आ रहा है और इसलिए भी क्योंकि यह बहुत ऊँ चाई पर है । अलबत्ता, सारे पर्यावरणविद व वैज्ञानिक इस मामले में एक मत हैं कि पर्यटन को या तो एकदम बंद कर दिया जाए या कम से कम नियंत्रित तो किया जाए । वर्तमान में कोई रोक-टोक नहीं है, लोग ग्लेशियर पर चलते हैं, पानी में नहाते हैं, वहीं कपड़े छोड़ आते हैं, खाना खाते हैं । गंगा शुद्धिकरण अभियान के एस.एन.टेरियाल खिन्न मन से कहते हैं, कचरा बिना किसी उपचार के सीधा नदी में नही डाल दिया जाता है । ग्लेशियर मार्ग पर इस वर्ष १२,००० चप्पलें छोड़ी गई । कहते हैं कि गंगाजल बरसों ,खराब नहीं होता लेकिन अब तो यह स्त्रोत से ही प्रदूषित हैं । आज गंगोत्री पवित्र व आध्यात्मिक स्थान नहीं रह गया है । गलेशियर के पिघलाव के मद्देनज़र उत्तराखंड सरकार ने गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान व गौमुचा क्षेत्र में टूरिस्ट की संख्या मात्र १५० प्रतिदिन कर दी है । जुलाई-अगस्त में हज़ारों कावड़ियों का प्रवेश रोकने के लिए प्रवेश पर भी रोक लगाई गई है । गंगोत्री से ९० कि.मी. नीचे पाला मालेरी व लोहरी नागपाला - दो बांध बनाए गए हैं । विस्फोटों व सुरंगों से इस भूकंप संवेदी क्षेत्र में घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं । सन १९९१ में भूकंप से उत्तरकाशी क्षेत्र में ७६९ लोग मारे गए थे यहां आज भी झटके व भूस्खलन जारी हैं । बांधो से भूकंप के खतरे बढ़ते हैं और वर्तमान में गंगा पर दो बड़ी बांघ परियोजनाएं मानेरी वाली (चरण १ एवं २) एवं टिहरी चल रही हैं । ये नए बांध जंगल, खेत व चारागाह सबको लील जाएंगे । टिहरी बांध ने पूर्व में काफी तबाही मचाई है और सन १९७० से हुए बांध विस्थापितों को सरकार आज तक पुनर्स्थापित नहीं कर पाई है । इन सबके बावजूद उत्तराखंड सरकार बंाध निर्माण अभियान में पूरी तरह जुटी हुई है पूरे राज्य में तकरीबन १०० बांधों की योजना है । गंगा शुद्धिकरण अभियान के ही विष्ट कहते हैं, सरकार जल संरक्षण योजनाएं विकसित करने की बजाय बस बांध बनाए जा रही है जो नाज़ुक इकॉलॉजी को बिगाड़ रहे हैं । ़़ज्यादातर बांध सर्दियों में ही उपयोगी नहीं रह जाती जाते क्योंकि पानी कम हो जाता है। सुरेश्वर सिन्हा द्वारा उच्च्तम न्यायालय में प्रस्तुत एक जनहित याचिका में चार बांधों-पाला मानेरी, मानेरी बहली, लाहोरी नागपाला व भैंरोघाट को भगीरथी के सुखने का ज़िम्मेदार बताया गया है । पानी के छोटे स्रोत, झरने व हिमशिलाएं, सूख रहे हैं क्योंकि हिमपात न केवल गंगोत्री में बल्कि पूरे हिमालय पर कम हो रहा है । बड़े ग्लेशियरों की तुलना में छोटे ग्लेशियर तेज़ी से पिघले रहे हैं । हिमाचल प्रदेश में सन १९६२ से २००६ के दरम्यांन चिनाब, पार्वती व बस्पा बेसिन काफी सिकुड़ गए हैं । गूगल अर्थ पिक्चर्स ने हाल ही में भागीरथी का लगभग ८ कि.मी. सुखा क्षेत्र दिखाया है । साथ ही अन्य सहायक नदियां जैसे - भीलगंगा, असिगंगा व अलकनंदा में भी यही स्थिति नज़र आ रही है । इसरो के अनिल कुलकर्णी व उनके साथयों द्वारा किये गए ४६६ ग्लेशियरों के अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि टूटते रहने से ग्लेशियरों की संख्या बढ़ गई है व हिमशिला व बर्फखंड तेजी से पिघलने के कारण मात्र ३८ प्रतिशत शेष बचे है । जहां आज बर्फ नज़र आ रही है वह कल चट्टाने शेष रहेगी, गौमुख के रास्ते की चट्टाने भी कभी गंगा ग्लेशियर का भाग थी जा कल और सिमटेगा । कोई नही कह सकता, कल गंगा पर क्या असर होगा ?***
दवा परीक्षण और गरीब एक ओर हमारे देश दुनिया में आर्थिक उदारीकरण का झंडा फहराते हुए दुनिया के धनीमानी देशों के क्लब में बैठने को आतुर है, वह विश्व की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है । मगर हमारी करीब आधी आबादी की गरीबी भी एक भयानक सच है । यही वजह है कि भारत एक और तरह की खतरनाक आउटसोर्सिंग का बड़ा केंद्र बनने जा रहा है । बहुत जल्दी नई दवाआें तथा टीकों का प्रयोग भारत के लोगों पर किया जा सकता है जिनके प्रयोग का प्रथम चरण किसी और देश के लोगों पर संपन्न हो चुका है, लेकिन भारत के औषध महानियंत्रक ने प्रथम कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया है । यानी अब कानूनी रूप से किसी दवा या टीके का प्रयोग पशुआें पर करने के बाद सीधे हमारे यहाँ के लोगों पर हो सकेगा । सूचना टेक्नोलॉजी (आईटी) के क्षेत्र की आउटसोर्सिंग में उतार आने के बाद यह नया उद्योग विकसित होगा । उम्मीद की जा रही है कि चिकित्सा परीक्षण का उद्योग २०१२ तक ४५ हजार करोड़ रूपए तक पहुँच जाएगा । जाहिर है कि आर्थिक दृष्टि से इस आकर्षक उद्योग की गति को अब वापस मोड़ना कठिन होगा । यह भी सही है कि कानूनी तौर पर कई नई व्यवस्थाएँ की जाएँगी, ताकि गरीबों का शोषण न किया जा सके । लेकिन इस उद्योग का निशान अंतत: ऐसे गरीब बनेंगे, जिनकी मौत या जिनकी चिकित्सकीय हालत बिगड़ने का जिम्मेदार कोई नहीं होगा ।

८ वातावरण

बढ़ते तापमान की चुनौतियाँ
सुश्री सुनीता नारायण

कोयले से होने वाले उत्सर्जन और कोयले के अधिकाधिक इस्तेमाल स ेबचाव का एक रास्ता तो यह हो सकता है कि हम रीन्यूवेबल (नवीकरणीय) तकनीकों पर अपनी निर्भरता बढ़ाएँ । हमारे पास अपने ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव की क्षमता भी है क्योंकि अभी हम निर्माण क्षेत्र में निवेश कर ही रहे हैं । यानी हमारे पास विकल्प मौजूद हैं। नि:संदेह, उत्सर्जन में कमी लाने का एक बड़ा विकल्प बायोमास है । जलवायु में परिवर्तन अपरिहार्य है । लेकिन इधर जो परिवर्तन देखने में आ रहे हैं उनसे समूचे परिस्थितिकी तंत्र पर कहर टूट पड़ा है । यही नहीं इस परिवर्तन ने हमारी जीवन शैली, समाज और समुदायों के अस्तित्व को ही चुनौती दे डाली है । इस के मद्देनजर इस आधी सदी तक वैश्विक तापमान में ४ से ५ डिग्री तक की बढ़ोतरी से जुड़ी चेतावनी खतरे की घंटी है । इस मायने में कि इस तरह की चेतावनियाँ पहले भी आती रही है लेकिन उन्हें ध्यान में रखकर कहीं भी संजीदगी से कोई काम नहीं हुआ । बातें बहुत हुइंर्, तापमान को कम करने के उपायों पर चर्चाएँ हुई, लेकिन उन पर ईमानदारी से अमल शुरू नहीं हो सका। हाल ही में लंदन से आई चेतावनी हमें सचेत करती है कि तापमान को स्थिर बनाए रखने या आशंका के मुताबिक उसमें बढ़ोतरी को एक सीमा तक रोके रखने की दिशा में हमारे प्रयास अभी जमीनी स्तर पर शुरू ही नहीं हो सके हैं। आईपीसीसी (इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज) ने अपनी एक रिपोर्ट में पिछले साल ही आगाह किया था कि जलवायु में गर्मी पर अब कोई संदेह नहीं रह गया है । विश्व की औसत हवा, महासागरों के बढ़ते तापमान, बड़े पैमाने पर बर्फ पिघलने और समुद्र - स्तर में बढ़ोतरी से अब यह साफ हो गया है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है । वर्ष २००३ में भारत में मानसून से पहले चली गर्म हवाआें ने १४०० जानें ले ली । इसी साल अमेरिका पर ५६२ चक्रवातों का कहर टूटा जबकि इससे पहले १९९२ में वहाँ करीब ४०० चक्रवात आए थे । वर्ष २००७ में उत्तर ध्रुवीय सागर में सबसे ज्यादा बर्फ पिघलना भी इस बात की गवाही देता है कि तापमान में बढ़ोतरी हो रही है । एशिया में ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश में पानीकी उपलब्धता पर गहरा असर पड़ा है । मसूलाधार बरसात और तूफानों से पाकिस्तान में भारी तबाही हुई । जलवायु के इस कदर परिवर्तन से यह बात तो सिद्ध हो चुकी है कि ये बदलाव मानवीय गतिविधियों का ही नतीजा है । अगर तापमान में यह वृद्धि जारी रही तो वर्ष २१०० तक वैश्विक तापमान में ५ से ७ डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है । उस हालत में तूफानों की भयावहता बढ़ जाएगी, बर्फ तेजी से पिघलने लगेगी, गर्म हवाएँ अक्सर चलेंगी, समुद्र का जलस्तर भी तेजी से बढ़ेगा, विश्व की २५० मिलियन आबादी के लिए पानी मिलना दूभर हो जाएगा और ३० प्रतिशत प्रजातियों के विनाश का खतरा पैदा हो जाएगा । अगर कार्बन डाईआक्साइड कंसंट्रेशन की रेंज ३५०-४०० पीपीएम तक सीमित किया जा सका तो विश्व के औसत तापमान में बढ़त को २ से २.४ डिग्री सेल्सियस तक रोके रखा जा सकता है। हालाकि इसके बाद भी विश्व डेंजर जोन में तो पहुँच ही जाएगा । तापमान के लगातार बढ़ते साक्ष्यों और इस सचाई से विवादों की परतें हट जाने के बावजूद विश्व के अमीर देश जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं । ये देश जितनी मात्रा में ग्रीन हाउस उत्सर्जन कर रहे हैं उससे उभरते संसार के लिए कोई जगह ही नहीं बची है । यह उत्सर्जन लगातार बढ़ता चला जा रहा है । ईधन जलने से अमेरिका में मोटे तौर पर २० टन कार्बन डायऑक्साइड का उत्सर्जन होता है । प्रति व्यक्ति तुलना करने पर भारत में यह आँकड़ा १.१ और चीन में ४ टन ही बैठता है। इसमें संदेह नहीं है कि विकासशील मुल्क जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे अमीर देश उत्सर्जन के लिए भारत और चीन को ही ज्यादा जिम्मेदार मान रहे हैं । इनका कहना है कि जब तक भारत और चीन क्योटो प्रोटोकॉल पर दस्तखत नहीं करेंगे वे भी नहीं करने वाले । क्योटो प्रोटोकॉल को कमोबेश भुला ही दिया गया है । बहरहाल, जहाँ तक जलवायु परिवर्तन का ताल्लुक है विश्व के पास समय और विकल्पों की लगातार कमी हो रही है । तापमान को २डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से रोकना वाकई एक बड़ी चुनौति होगी । इसके लिए उत्सर्जन में ५० से ८५ प्रतिशत तक की कमी लानी होगी । और वह भी २०५० तक। इसके लिए इंर्धन के इस्तेमाल की नीतियाँ बदलनी होंगी । इन चिंताजनक चुनौतियों से नरम विकल्पों के जरिए नहीं निपटा जा सकता। जहाँ तक ऊर्जा की बात है हमारे पास समय तो कम बचा ही है बजट भी पर्याप्त् नहीं रह गया है । इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी ने अपनी २००७ की एक रिपोर्ट में कहा है कि जिस दर से अभी उत्सर्जन हो रहा है उसमें भारी कटौती करनी पड़ेगी । लेकिन विकासशील विश्व के लिए इस चेतावनी के मायने क्या हैं ? खासकर तब जबकि ये देश ऊर्जा का इस्तेमाल अपनी जरूरत से कहीं कम कर रहे हैं । भारत में ऊर्जा क्षेत्र जटिल है । थार्मल पॉवर हमारे यहाँ उर्त्सजन के लिए मूल रूप से जिम्मेदार है । हालाँकि हमारे यहाँ बिजली पैदा करने के तमाम विकल्पों की तलाश की जा रही है लेकिन इसके लिए कोयले की खपत बढ़ना तय है । कोयले से होने वाले उत्सर्जन और कोयले के अधिकाधिक इस्तेमाल से बचाव का एक रास्ता तो यह हो सकता है कि हम रीन्यूवेबल (नवीकरणीय) तकनीकों पर बदलाव की क्षमता भी है क्योंकि अभी हम निर्माण क्षेत्र में निवेश कर ही रहे हैं । यानी हमारे पास विकल्प मौजूद हैं । निसंदेह, उत्सर्जन में कमी लाने काएक बड़ा विकल्प बायोमास है । लेकिन इसके लिए हरियाली बढ़ाने वाले रास्तों पर ईमानदारी से चलना पड़ेगा । ***
रतनजोत का तेल पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक रतनजोत के उत्पादन व उपयोग को लेकर उठने वाले सवाल भी कम नहीं है । आस्ट्रेलिया समेत कई देशों ने इस पौधे को अवंाछित घोषित कर रखा है । शोधकर्ता बताते हैं कि थाईलैंड और अफ्रीकी देशों में पहले ही इस पौधे को बायोडीजल के बतौर इस्तेमाल करने का काम शुरू किया गया था लेकिन विभिन्न शोधों से पता चला कि रतनजोत का तेल पर्यावरण के लिए तो घातक है ही, मानव स्वास्थ्य के लिए भी यह लगभग जानलेवा हे । ऐसे निष्कर्षो के बाद इन देशोंमें रतनजोत के बीज से बायोडिजल की योजना ने दम तोड़ दिया । छ.ग. के युवा औषधि वैज्ञानिक व पर्यावरणविद पंकज अवधिया का कहना है कि बायोडिजल बनाने के लिए जिन सात पौधों का इस्तेमाल दुनियाभर में हो रहा है । उसमें रतनजोत अंतिम विकल्प माना जाता है । इसके पीछे रतनजोत के विषैले होने को मुख्य कारण बताते हुए वे कहते है, रतनजोत बेहद नुकसानदेह है । इसमें पाये जाने वाले करसिन की मारक क्षमता इस हद तक है कि इसका इस्तेमाल जैविक हथियार बनाने में किया जा सकता है । इसके तेल में १२ डी आक्सी, १६ हाईड्राक्सी और फोरबेल जैसे रसायन पाए जाते हैं, जिन्हें कैंसर व दूसरे त्वचा रोगों के लिए जिम्मेदार माना जाता है इसके अलावा रतनजोत से बनने वाला बायोडीजल फेंफड़ो को भी नुकसान पहुंचाता है ।

९ ज्ञान विज्ञान

पंख लगा कर इंसान आसमान में उड़ा
स्विट्जरलैंड के पूर्व सैन्य पायलट इव्य रॉसी ने खुद के बनाए पंखो के सहारे आसमान को नापा और इंग्लिश चैनल को उड़ते हुए पार करने का कारनामा करने वाले दुनिया के वे पहले व्यक्ति बन गए । फ्यूजनमैन के नाम से प्रसिद्ध ४९ वर्षीय रॉसी फ्रांस के स्थल कैलैस के ऊपर ८२०० फुट की ऊँचाई पर विमान से कूदे और इंग्लिश चैनल के आसमान की ३५ किलोमीटर की दूरी १२ से १५ मिनट में पूरी कर इंग्लैंड स्थित साउथ फोरलैंड के डोवर में उतर गए । जैसी ही रॉजी डोवर में उतरे, उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, अद्भुत वाकई अद्भुत । सबसे पहले रॉसी एक विमान से आसमान में पहँुचे । उनकी कमर में ८ फुट कार्बन मिश्रित कॉम्प्रेस्ड पंख बँधे थे । उनके जेट्स को आग लगाने से पहले अंतिम जाँच हुई और उन्होंने विमान से छलाँग लगा दी । रॉसी के पंख खुल गए और ऐतिहासिक उड़ान की और चल पड़े और रॉसी इंग्लिश चैनल की ३५ किमी दूरी तय कर ब्रिटेन की धरती डोवर में थे। चैनल पार करते ही रॉसी पैराशूट के सहारे नीचे आ गए। रॉसी के कमर में कार्बन मिश्रित पंखो के साथ केरोसिन से चलने वाले जेट टर्बाइन जोड़े गए, जिससे रॉजी हवा में रहे । पंखों में स्टीयरिंग नहीं थे अर्थात रॉसी ने उड़ान पर नियंत्रण अपने शरीर से ही किया । अपने शरीर से कुछ ही इंच ऊपर लगे टर्बाइन की गर्मी से बचने के लिए रॉसी ने अग्निरोधक पोशाक पहनी । रॉसी इससे पहले कभी भी १० मिनट से ज्यादा नहीं उड़े थे । कार्बन मिश्रित १२१ पौंड वजनी पंख उनके लिए चुनौती थे । एक छोटे कैमरे का वजन भी उन्होंने ढोना था ।
मौसम के लिए भी होगा टीवी चैनल अब शायद आपसे यह गलती न हो कि आप घर से खुशनुमा मौसम का अंदाज लगा कर निकलें और रास्ते में आंधी और बारिश के घेरे में फंस जाएं । केंन्द्रीय मौसम विभाग जल्द ही मौसम चैनल लांच करने वाला है, जिसमेें आप चौबीस घंटों न केवल मौसम की जानकारी हासिल करेंगे, बल्कि मौसम और प्रकृति से जुड़े तमाम रहस्यों से रूबरू भी होंगे । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मन्त्रालय की यह महत्वाकांक्षी योजना के अन्तिम चरण में हैं । यह योजना पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशीप पर आधारित है। मन्त्रालय को उम्मीद है कि यह चैनल दिसम्बर माह तक शुरू हो जाएगा। मन्त्रालय की इस योजना को सूचना और प्रसारण मन्त्रालय ने भी स्वीकृति प्रदान कर दी है । ग्याहरवीं योजना के अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने मौसम केन्द्रों को तकनीकी विकास के लिए ९ बिलियन रूपये आबंटित किए है । इसी राशि का एक अंश इस कार्य मेंभी इस्तेमाल किया जा रहा है । अमेरीका व यूके मेंपहले से ही इस तरह का चौबीसों घंटों का चैनल है । वहां के मौसम चैनल की सफलता को देखते हुए भारत में भी इस तरह के चैनल की शुरूआत की योजना बनाई गई । इस चैनल के लिए विभिन्न स्तर पर कार्य चल रहा हैं, एक में चैनल में दिखाए जा रहे कार्यक्रमों के लिए प्रायोजकों से बातचीत चल रही है, क्योंकि यह चैनल पूरी तरह पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप पर आधारित होगा ।यह योजना बनाई जा रही है कि चैनल में उनके द्वारा दिखाए जा रहे कार्यक्रमों की रूपरेखा क्या होगी, उनके लक्षित दर्शक कौन होंगे और भाषा किस तरह होगी । इस सन्दर्भ में अभी तक ये फैसले रहे है कि क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश हैं और देश की अब भी बड़ी आबादी खेती के लिए मौसम पर निर्भर करती हैं, इसलिए उनके टारगेटेड दर्शक गांव के लोग होंगे । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि दूरदर्शन के कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम इसमें दिखाए जाएंगे, जो पूरीतरह कृषि पर आधारित होंगे । भाषा हिन्दी और अंगे्रजी दोनों होगी , लेकिन ज्यादा कार्यक्रम हिन्दी में होंगे । यह योजना कुछ हद तक ज्योगाफिकल चैनल से प्रभावित है, लेकिन इसका क्षेत्र इतना विस्तृत नहीं होगा । मौसम के विभिन्न आयाम पृथ्वी अंतरिक्ष और भूमण्डल,प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, सभी विषयों पर इस चैनल में कार्यक्रम दिखाए जएगें । शुरू में यह चैनल सात घंटे प्रयोगिक तौर पर चलाए जाएगें, बाद में इसे चौबीस घंटे कर दिया जाएगा ।
कार है ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है । ग्लोबल वार्मिंग के विभिन्न कारकों में परिवहन भी एक प्रमुख कारक है । वैज्ञानिकों के एक शोध के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण परिवहन साधन हैं । इनमें कार सबसे ज्यादा हैं । कार के बाद ग्लोबल वार्मिंग बड़ाने का दूसरा कारण विमानन क्षेत्र है । परंतु पानी के जहाज का मामला बेहद जटिल है । एनवायरमेंट न्यूज नेटवर्क की एक रिपोर्ट के मुताबिक सीआईसीईआरओ (सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एनवायरमेंट रिसर्च) के पांच शोधकर्ताआें ने परिवहन क्षेत्र को चार उपक्षेत्रों में बांटा है । इनमें सड़क परिवहन, उड्डयन, रेल और जहाजरानी हैं । शोध में प्रत्येक उपक्षेत्र का ग्लोबल वार्मिंग में योगदान को आंका गया । इसके लिए रेडिएटिव फोर्स (आरएफ) को देखा गया, जो गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से होता है। अध्ययन के अनुसार औद्योगिकीकरण के पहले से १५ प्रतिशत आरएफ मानव निर्मित कार्बन डायऑक्साइड के उत्सर्जन से होता है । परिवहन क्षेत्र इसकी जड़ है । ओजोन के लिए परिवहन को ३० प्रतिशत तक जिम्मेदार माना जा सकता है । अध्ययन के अनुसार ज्यादा से ज्यादा ध्यान तेजी से बन रही सड़कों की और भी दिया जाना चाहिए । अकेले कार्बन डायऑक्साइडके उत्सर्जन में सड़क यातायात ने दो-तिहाई योगदान दिया है । अगले सौ साल में यह स्थिति और बिगड़ेगी यानी सड़क यातायात का योगदान ग्लोबल वार्मिंग में तेजी से बढ़ेगा । जहां तक पानी के जहाजों की बात है तो स्थिति और जटिल है । अभी तक यह माना जाता रहा है कि जहाजों से ज्यादा नुकसान नहीं होता । नाइट्रोजन उत्सर्जित होती है । इनका असर ठंडा होता है । चूंकि ये गैसें ज्यादा समय तक वातारण में नहीं रहती हैं और आने वाले समय मेंे कार्बन डायऑक्साइड इसका असर खत्म कर देगी । ऐसे में सड़क परिवहन को ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी करार दिया गया, जिसमें कारों का योगदान सबसे ज्यादा होता है ।
लौहमानव करेेंगे धमाकों से मुकाबला देश में बढ़ते आतंकी हमलों से बीच डीआरडीओ ने गृह मंत्रालय को विशेष किस्म के रोबोट या लौहमानव की पेशकश की है जो बमों को निष्क्रिय करने की जिम्मेदारी निभाएंगे । डीआरडीओ ने एक शीर्ष वैज्ञानिक ने बताया कि हम अपने तीन उपकरण-दूर से नियंत्रित किए जाने वाले बम निवारण यानी आरओवी सुजाव इलेक्ट्रोनिक सपोर्ट मेजर और सफारी इलेक्ट्रानिक काउंटरमेजर- को विस्पोटक संबंधी मामलों से निबटने वाली एजेंसियों को बेचने के लिए गृहमंत्रालय से चर्चा कर रहे हैं । डीआरडीओ के पुणे स्थित रिसर्च एंड डेवलपमेंट डस्टैब्लिशमेंट (इंजीनियर्स) में विकसित आरओवी का उपयोग बमों को निष्क्रिय करने में किया जा सकता है । इसमें कोई कर्मी विस्पोटक के संपर्क में नहीं आता है । सेना तीन साल पहले से उग्रवादी प्रभावित जम्मू-कश्मीर राजस्थान और पूर्वोत्तर राज्यों में इन उपकरणों का प्रयोग कर रही है । तभी से यह कर्मियों और बम निष्क्रिय होते देखने वाले आमजन के लिए आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं । डीआरडीओ वैज्ञानिकों का कहना है कि सुरक्षा और अर्धसैनिक बल आरओवी रोबोट का उपयोग बांदी सुरंगों का पता लगाने और परमाणु-जैविक-रासायनिक (एनबीसी) खतरों का सर्वेक्षण करने में कर सकते हैं । यह सुरक्षित है क्योंकि इस ऋम में कर्मी बांदी सुरंग या एनबीसी हथियारों के संपर्क में नहीं आते । यह रोबोट पूरी तरह देशज उत्पाद हैं । इसका विकास १० इंजीनियरों ने करीब पांच साल पहले किया था और इससे शहरी युद्ध स्थितियों में कार्मिकों की मौत के मामलों को जबरदस्त ढंग से कम किया जा सकता है। आराओवी रोबोट के एक और संस्करण में उसकी कंट्रोलरइकाई ५०० मीटर की दूरी से काम करती है । यह चार कैमरों और एक भुजा से लैस है जिसका उपयोग संदिग्ध वस्तुआें को उठाने और विस्फोटकों की जांच करने के अलावा बम को निष्क्रिय करने में किया जा सकता है । ***

९ ज्ञान विज्ञान



पंख लगा कर इंसान आसमान में उड़ा



स्विट्जरलैंड के पूर्व सैन्य पायलट इव्य रॉसी ने खुद के बनाए पंखो के सहारे आसमान को नापा और इंग्लिश चैनल को उड़ते हुए पार करने का कारनामा करने वाले दुनिया के वे पहले व्यक्ति बन गए । फ्यूजनमैन के नाम से प्रसिद्ध ४९ वर्षीय रॉसी फ्रांस के स्थल कैलैस के ऊपर ८२०० फुट की ऊँचाई पर विमान से कूदे और इंग्लिश चैनल के आसमान की ३५ किलोमीटर की दूरी १२ से १५ मिनट में पूरी कर इंग्लैंड स्थित साउथ फोरलैंड के डोवर में उतर गए । जैसी ही रॉजी डोवर में उतरे, उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, अद्भुत वाकई अद्भुत । सबसे पहले रॉसी एक विमान से आसमान में पहँुचे । उनकी कमर में ८ फुट कार्बन मिश्रित कॉम्प्रेस्ड पंख बँधे थे । उनके जेट्स को आग लगाने से पहले अंतिम जाँच हुई और उन्होंने विमान से छलाँग लगा दी । रॉसी के पंख खुल गए और ऐतिहासिक उड़ान की और चल पड़े और रॉसी इंग्लिश चैनल की ३५ किमी दूरी तय कर ब्रिटेन की धरती डोवर में थे। चैनल पार करते ही रॉसी पैराशूट के सहारे नीचे आ गए। रॉसी के कमर में कार्बन मिश्रित पंखो के साथ केरोसिन से चलने वाले जेट टर्बाइन जोड़े गए, जिससे रॉजी हवा में रहे पंखों में स्टीयरिंग नहीं थे अर्थात रॉसी ने उड़ान पर नियंत्रण अपने शरीर से ही किया । अपने शरीर से कुछ ही इंच ऊपर लगे टर्बाइन की गर्मी से बचने के लिए रॉसी ने अग्निरोधक पोशाक पहनी । रॉसी इससे पहले कभी भी १० मिनट से ज्यादा नहीं उड़े थे । कार्बन मिश्रित १२१ पौंड वजनी पंख उनके लिए चुनौती थे । एक छोटे कैमरे का वजन भी उन्होंने ढोना था ।
मौसम के लिए भी होगा टीवी चैनल अब शायद आपसे यह गलती न हो कि आप घर से खुशनुमा मौसम का अंदाज लगा कर निकलें और रास्ते में आंधी और बारिश के घेरे में फंस जाएं । केंन्द्रीय मौसम विभाग जल्द ही मौसम चैनल लांच करने वाला है, जिसमेें आप चौबीस घंटों न केवल मौसम की जानकारी हासिल करेंगे, बल्कि मौसम और प्रकृति से जुड़े तमाम रहस्यों से रूबरू भी होंगे । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मन्त्रालय की यह महत्वाकांक्षी योजना के अन्तिम चरण में हैं । यह योजना पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशीप पर आधारित है। मन्त्रालय को उम्मीद है कि यह चैनल दिसम्बर माह तक शुरू हो जाएगा। मन्त्रालय की इस योजना को सूचना और प्रसारण मन्त्रालय ने भी स्वीकृति प्रदान कर दी है । ग्याहरवीं योजना के अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने मौसम केन्द्रों को तकनीकी विकास के लिए ९ बिलियन रूपये आबंटित किए है । इसी राशि का एक अंश इस कार्य मेंभी इस्तेमाल किया जा रहा है । अमेरीका व यूके मेंपहले से ही इस तरह का चौबीसों घंटों का चैनल है । वहां के मौसम चैनल की सफलता को देखते हुए भारत में भी इस तरह के चैनल की शुरूआत की योजना बनाई गई । इस चैनल के लिए विभिन्न स्तर पर कार्य चल रहा हैं, एक में चैनल में दिखाए जा रहे कार्यक्रमों के लिए प्रायोजकों से बातचीत चल रही है, क्योंकि यह चैनल पूरी तरह पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप पर आधारित होगा ।यह योजना बनाई जा रही है कि चैनल में उनके द्वारा दिखाए जा रहे कार्यक्रमों की रूपरेखा क्या होगी, उनके लक्षित दर्शक कौन होंगे और भाषा किस तरह होगी । इस सन्दर्भ में अभी तक ये फैसले रहे है कि क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश हैं और देश की अब भी बड़ी आबादी खेती के लिए मौसम पर निर्भर करती हैं, इसलिए उनके टारगेटेड दर्शक गांव के लोग होंगे । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि दूरदर्शन के कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम इसमें दिखाए जाएंगे, जो पूरीतरह कृषि पर आधारित होंगे । भाषा हिन्दी और अंगे्रजी दोनों होगी , लेकिन ज्यादा कार्यक्रम हिन्दी में होंगे । यह योजना कुछ हद तक ज्योगाफिकल चैनल से प्रभावित है, लेकिन इसका क्षेत्र इतना विस्तृत नहीं होगा । मौसम के विभिन्न आयाम पृथ्वी अंतरिक्ष और भूमण्डल,प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, सभी विषयों पर इस चैनल में कार्यक्रम दिखाए जएगें । शुरू में यह चैनल सात घंटे प्रयोगिक तौर पर चलाए जाएगें, बाद में इसे चौबीस घंटे कर दिया जाएगा ।
कार है ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है । ग्लोबल वार्मिंग के विभिन्न कारकों में परिवहन भी एक प्रमुख कारक है । वैज्ञानिकों के एक शोध के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण परिवहन साधन हैं । इनमें कार सबसे ज्यादा हैं । कार के बाद ग्लोबल वार्मिंग बड़ाने का दूसरा कारण विमानन क्षेत्र है । परंतु पानी के जहाज का मामला बेहद जटिल है । एनवायरमेंट न्यूज नेटवर्क की एक रिपोर्ट के मुताबिक सीआईसीईआरओ (सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एनवायरमेंट रिसर्च) के पांच शोधकर्ताआें ने परिवहन क्षेत्र को चार उपक्षेत्रों में बांटा है । इनमें सड़क परिवहन, उड्डयन, रेल और जहाजरानी हैं । शोध में प्रत्येक उपक्षेत्र का ग्लोबल वार्मिंग में योगदान को आंका गया । इसके लिए रेडिएटिव फोर्स (आरएफ) को देखा गया, जो गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से होता है। अध्ययन के अनुसार औद्योगिकीकरण के पहले से १५ प्रतिशत आरएफ मानव निर्मित कार्बन डायऑक्साइड के उत्सर्जन से होता है । परिवहन क्षेत्र इसकी जड़ है । ओजोन के लिए परिवहन को ३० प्रतिशत तक जिम्मेदार माना जा सकता है । अध्ययन के अनुसार ज्यादा से ज्यादा ध्यान तेजी से बन रही सड़कों की और भी दिया जाना चाहिए । अकेले कार्बन डायऑक्साइडके उत्सर्जन में सड़क यातायात ने दो-तिहाई योगदान दिया है । अगले सौ साल में यह स्थिति और बिगड़ेगी यानी सड़क यातायात का योगदान ग्लोबल वार्मिंग में तेजी से बढ़ेगा । जहां तक पानी के जहाजों की बात है तो स्थिति और जटिल है । अभी तक यह माना जाता रहा है कि जहाजों से ज्यादा नुकसान नहीं होता । नाइट्रोजन उत्सर्जित होती है । इनका असर ठंडा होता है । चूंकि ये गैसें ज्यादा समय तक वातारण में नहीं रहती हैं और आने वाले समय मेंे कार्बन डायऑक्साइड इसका असर खत्म कर देगी । ऐसे में सड़क परिवहन को ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी करार दिया गया, जिसमें कारों का योगदान सबसे ज्यादा होता है ।
लौहमानव करेेंगे धमाकों से मुकाबला देश में बढ़ते आतंकी हमलों से बीच डीआरडीओ ने गृह मंत्रालय को विशेष किस्म के रोबोट या लौहमानव की पेशकश की है जो बमों को निष्क्रिय करने की जिम्मेदारी निभाएंगे । डीआरडीओ ने एक शीर्ष वैज्ञानिक ने बताया कि हम अपने तीन उपकरण-दूर से नियंत्रित किए जाने वाले बम निवारण यानी आरओवी सुजाव इलेक्ट्रोनिक सपोर्ट मेजर और सफारी इलेक्ट्रानिक काउंटरमेजर- को विस्पोटक संबंधी मामलों से निबटने वाली एजेंसियों को बेचने के लिए गृहमंत्रालय से चर्चा कर रहे हैं । डीआरडीओ के पुणे स्थित रिसर्च एंड डेवलपमेंट डस्टैब्लिशमेंट (इंजीनियर्स) में विकसित आरओवी का उपयोग बमों को निष्क्रिय करने में किया जा सकता है । इसमें कोई कर्मी विस्पोटक के संपर्क में नहीं आता है । सेना तीन साल पहले से उग्रवादी प्रभावित जम्मू-कश्मीर राजस्थान और पूर्वोत्तर राज्यों में इन उपकरणों का प्रयोग कर रही है । तभी से यह कर्मियों और बम निष्क्रिय होते देखने वाले आमजन के लिए आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं । डीआरडीओ वैज्ञानिकों का कहना है कि सुरक्षा और अर्धसैनिक बल आरओवी रोबोट का उपयोग बांदी सुरंगों का पता लगाने और परमाणु-जैविक-रासायनिक (एनबीसी) खतरों का सर्वेक्षण करने में कर सकते हैं । यह सुरक्षित है क्योंकि इस ऋम में कर्मी बांदी सुरंग या एनबीसी हथियारों के संपर्क में नहीं आते । यह रोबोट पूरी तरह देशज उत्पाद हैं । इसका विकास १० इंजीनियरों ने करीब पांच साल पहले किया था और इससे शहरी युद्ध स्थितियों में कार्मिकों की मौत के मामलों को जबरदस्त ढंग से कम किया जा सकता है। आराओवी रोबोट के एक और संस्करण में उसकी कंट्रोलरइकाई ५०० मीटर की दूरी से काम करती है । यह चार कैमरों और एक भुजा से लैस है जिसका उपयोग संदिग्ध वस्तुआें को उठाने और विस्फोटकों की जांच करने के अलावा बम को निष्क्रिय करने में किया जा सकता है । ***

१० विशेष रिपोर्ट

प्लास्टिक के तालाब से नया खतरा
सुश्री अपर्णा पल्लवी
केन्द्र सरकार महाराष्ट्र के सूखा - पीड़ित इलाकों के लिए एक नई विषैली योजना लेकर आई है जिसके अंतर्गत कपास उत्पादन वाले १६ जिलों के पंद्रह सौ तालाबों का निर्माण और उनमें प्लास्टिक की चादरें बिछाकर पानी का जमीन में रिसाव रोककर समस्या सुलझाने की कोशिश की जानी है । ऐसे तालाबों के निर्माण के लिए सौ प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा भी की गई है। किंतु सरकार सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने का उत्तर औद्योगिक उत्पाद में ढूंढ रही है । शुरूआती दौर में तो किसानों समुदाय योजना के प्रति उदासीन था किंतु जैसा कि ज्यादातर सरकारी नीतियों के साथ होता है , धीरे-धीरे इसे भी लोगोंने स्वीकार कर लिया । जैसे ही किसानों ने तालाब खोद लिए वैसे ही प्लास्टिक की चादरों की आपूर्ति करने वाली चुनिंदा कंपनियों ने इनकी कीमतों में १६ से १८ रूपये प्रति वर्ग मीटर की वृद्धी कर दी । इसके फलस्वरूप प्रति तालाब चादर की लागत में पचास से साठ हजार रूपयों की वृद्धि हो गई । जिन किसानों को सब्सिडी के तहत अभी तक धन नहीं मिला है उन्हें डर है कि यह अतिरिक्त लागत उन्हें स्वयं ही वहन करना होगी । नाराज किसानों ने तालाबों की खुदाई भी रोक दी है । वाशिम जिले के कृषकों ने जिलाधीश को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की है कि या तो सब्सिडी की राशि में वृद्धि की जाए अथवा कंपनियों को पूर्व घोषित मूल्य पर ही प्लास्टिक चादरों की आपूर्ति के निर्देश दिए जाएं । अधिकारीयों के पास अब स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की कमी का बहाना ही शेष बचा है । इस योजना को संचालित करने वाले राज्य उद्यानिकी मिशन ने बताया है कि उसने नाबार्ड को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की अनुशंसा की गई है । खैर यह तो हुआ सरकारी योजना के रवैये और चाल का हिस्सा किंतु एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आखिर तालाबों में इस तरह से प्लास्टिक चादर बिछाने का औचित्य क्या है ? सरकार तो विशाल आकार की संरचनाआें को ही प्रोत्साहित करती है जबकि यवतमाल के सावित्री ज्योति समाजकार्य महाविद्यालय के अविनाश शिर्के का कहना है कि पारम्परिक कृषि में खेतों में तालाब खुदवाने का एक मकसद भू-जलस्तर में वृद्धि करना भी है । पारम्परिक तकनीक में महज २०० वर्ग फीट क्षेत्रफल के दस फीट गहराई वाले छोटे तालाबों की श्रृंखला हुआ करती थी । कम लागत की वजह से कृषक इन्हें खुद ही खुदवा लेते थे । इसकी लागत मात्र ५ से १० हजार रूपये होती है । नागपुर के गैर सरकारी संगठन युवा से जुड़े कृषि विशेषज्ञ नितिन माटे भी इस योजना के खिलाफ हैं । उनका कहना है कि प्लास्टिक चादरें बिछाने से दीर्घावधि में कोई फायदा नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा यह एक फसल तक ही पानी का भंडारण कर पाएगी और चूँकि यह जलस्तर में बढौत्तरी में भी मदद नहीं करती हैं अत: इतनी ऊँची लागत भी तर्कसम्मत नहीं है । वाशिम जिले में पारम्परिक जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार के कार्य में लगे नीलेश हेड़ा भी इस विचार को अवैज्ञानिक करार देते हुए कहते हैं बड़े तालाबों में विशेषकर सूखे के दौरान वनस्पति की उपज में कमी की वजह से गाद भरने की प्रक्रिया तीव्र होती है । भले ही प्लास्टिक चादर की आयु पंद्रह वर्ष होने के दावे किए जाएं, किंतु वास्तविकता है कि यह गाद हटाने के कार्य मेंही फट जाएगी । वैसे भी रिसाव कम करने के लिए विदर्भ में किसान सिंचाई संरचनाआें में सदियों से काली मिट्टी का प्रयोग करते आ रहे हैं । विदर्भ में पहले सफल खेतिहर तालाब प्रयोग के परिकल्पक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण वाहिनी के योगेश अनेजा कहते हैं सरकार सामूहिकता के विचार को ठीक से समझ नहीं पाई है । इसमें हम छोटे तालाबों और जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार और पौधारापेण पर ध्यान देते हैं । नागपुर के वालनि गांव में हमारे प्रयोग की वजह से पूरे क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है । यहां तक कि विदर्भ के ताजा सूखे में भी गांव में फसल उत्पादन में कमी नहीं हुई । प्लास्टिक चादर के प्रयोग से कृषकों की उद्योगों और तकनीक विशेषज्ञों पर निर्भरता हो जाएगी । क्योंकि इसके बिछाने से लेकर रखरखाव तक का कोई भी काम विशेषज्ञ के बगैर नहीं हो पाएगा । वाशिम के गजानंद आंबेडकर जैसे आम किसान भी तकनीकी निर्भरता से असहज महसूस करते हुए कहते है हम सब्सिडी की वजह से तैयार हुए थे । किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब स्थितियां बजाए किसान के उद्योगों के हित में निर्दिष्ट कर दी गई हैं । ***केन्द्र सरकार महाराष्ट्र के सूखा - पीड़ित इलाकों के लिए एक नई विषैली योजना लेकर आई है जिसके अंतर्गत कपास उत्पादन वाले १६ जिलों के पंद्रह सौ तालाबों का निर्माण और उनमें प्लास्टिक की चादरें बिछाकर पानी का जमीन में रिसाव रोककर समस्या सुलझाने की कोशिश की जानी है । ऐसे तालाबों के निर्माण के लिए सौ प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा भी की गई है। किंतु सरकार सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने का उत्तर औद्योगिक उत्पाद में ढूंढ रही है । शुरूआती दौर में तो किसानों समुदाय योजना के प्रति उदासीन था किंतु जैसा कि ज्यादातर सरकारी नीतियों के साथ होता है , धीरे-धीरे इसे भी लोगोंने स्वीकार कर लिया । जैसे ही किसानों ने तालाब खोद लिए वैसे ही प्लास्टिक की चादरों की आपूर्ति करने वाली चुनिंदा कंपनियों ने इनकी कीमतों में १६ से १८ रूपये प्रति वर्ग मीटर की वृद्धी कर दी । इसके फलस्वरूप प्रति तालाब चादर की लागत में पचास से साठ हजार रूपयों की वृद्धि हो गई । जिन किसानों को सब्सिडी के तहत अभी तक धन नहीं मिला है उन्हें डर है कि यह अतिरिक्त लागत उन्हें स्वयं ही वहन करना होगी । नाराज किसानों ने तालाबों की खुदाई भी रोक दी है । वाशिम जिले के कृषकों ने जिलाधीश को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की है कि या तो सब्सिडी की राशि में वृद्धि की जाए अथवा कंपनियों को पूर्व घोषित मूल्य पर ही प्लास्टिक चादरों की आपूर्ति के निर्देश दिए जाएं । अधिकारीयों के पास अब स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की कमी का बहाना ही शेष बचा है । इस योजना को संचालित करने वाले राज्य उद्यानिकी मिशन ने बताया है कि उसने नाबार्ड को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की अनुशंसा की गई है । खैर यह तो हुआ सरकारी योजना के रवैये और चाल का हिस्सा किंतु एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आखिर तालाबों में इस तरह से प्लास्टिक चादर बिछाने का औचित्य क्या है ? सरकार तो विशाल आकार की संरचनाआें को ही प्रोत्साहित करती है जबकि यवतमाल के सावित्री ज्योति समाजकार्य महाविद्यालय के अविनाश शिर्के का कहना है कि पारम्परिक कृषि में खेतों में तालाब खुदवाने का एक मकसद भू-जलस्तर में वृद्धि करना भी है । पारम्परिक तकनीक में महज २०० वर्ग फीट क्षेत्रफल के दस फीट गहराई वाले छोटे तालाबों की श्रृंखला हुआ करती थी । कम लागत की वजह से कृषक इन्हें खुद ही खुदवा लेते थे । इसकी लागत मात्र ५ से १० हजार रूपये होती है । नागपुर के गैर सरकारी संगठन युवा से जुड़े कृषि विशेषज्ञ नितिन माटे भी इस योजना के खिलाफ हैं । उनका कहना है कि प्लास्टिक चादरें बिछाने से दीर्घावधि में कोई फायदा नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा यह एक फसल तक ही पानी का भंडारण कर पाएगी और चूँकि यह जलस्तर में बढौत्तरी में भी मदद नहीं करती हैं अत: इतनी ऊँची लागत भी तर्कसम्मत नहीं है । वाशिम जिले में पारम्परिक जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार के कार्य में लगे नीलेश हेड़ा भी इस विचार को अवैज्ञानिक करार देते हुए कहते हैं बड़े तालाबों में विशेषकर सूखे के दौरान वनस्पति की उपज में कमी की वजह से गाद भरने की प्रक्रिया तीव्र होती है । भले ही प्लास्टिक चादर की आयु पंद्रह वर्ष होने के दावे किए जाएं, किंतु वास्तविकता है कि यह गाद हटाने के कार्य मेंही फट जाएगी । वैसे भी रिसाव कम करने के लिए विदर्भ में किसान सिंचाई संरचनाआें में सदियों से काली मिट्टी का प्रयोग करते आ रहे हैं । विदर्भ में पहले सफल खेतिहर तालाब प्रयोग के परिकल्पक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण वाहिनी के योगेश अनेजा कहते हैं सरकार सामूहिकता के विचार को ठीक से समझ नहीं पाई है । इसमें हम छोटे तालाबों और जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार और पौधारापेण पर ध्यान देते हैं । नागपुर के वालनि गांव में हमारे प्रयोग की वजह से पूरे क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है । यहां तक कि विदर्भ के ताजा सूखे में भी गांव में फसल उत्पादन में कमी नहीं हुई । प्लास्टिक चादर के प्रयोग से कृषकों की उद्योगों और तकनीक विशेषज्ञों पर निर्भरता हो जाएगी । क्योंकि इसके बिछाने से लेकर रखरखाव तक का कोई भी काम विशेषज्ञ के बगैर नहीं हो पाएगा । वाशिम के गजानंद आंबेडकर जैसे आम किसान भी तकनीकी निर्भरता से असहज महसूस करते हुए कहते है हम सब्सिडी की वजह से तैयार हुए थे । किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब स्थितियां बजाए किसान के उद्योगों के हित में निर्दिष्ट कर दी गई हैं । ***केन्द्र सरकार महाराष्ट्र के सूखा - पीड़ित इलाकों के लिए एक नई विषैली योजना लेकर आई है जिसके अंतर्गत कपास उत्पादन वाले १६ जिलों के पंद्रह सौ तालाबों का निर्माण और उनमें प्लास्टिक की चादरें बिछाकर पानी का जमीन में रिसाव रोककर समस्या सुलझाने की कोशिश की जानी है । ऐसे तालाबों के निर्माण के लिए सौ प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा भी की गई है। किंतु सरकार सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने का उत्तर औद्योगिक उत्पाद में ढूंढ रही है । शुरूआती दौर में तो किसानों समुदाय योजना के प्रति उदासीन था किंतु जैसा कि ज्यादातर सरकारी नीतियों के साथ होता है , धीरे-धीरे इसे भी लोगोंने स्वीकार कर लिया । जैसे ही किसानों ने तालाब खोद लिए वैसे ही प्लास्टिक की चादरों की आपूर्ति करने वाली चुनिंदा कंपनियों ने इनकी कीमतों में १६ से १८ रूपये प्रति वर्ग मीटर की वृद्धी कर दी । इसके फलस्वरूप प्रति तालाब चादर की लागत में पचास से साठ हजार रूपयों की वृद्धि हो गई । जिन किसानों को सब्सिडी के तहत अभी तक धन नहीं मिला है उन्हें डर है कि यह अतिरिक्त लागत उन्हें स्वयं ही वहन करना होगी । नाराज किसानों ने तालाबों की खुदाई भी रोक दी है । वाशिम जिले के कृषकों ने जिलाधीश को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की है कि या तो सब्सिडी की राशि में वृद्धि की जाए अथवा कंपनियों को पूर्व घोषित मूल्य पर ही प्लास्टिक चादरों की आपूर्ति के निर्देश दिए जाएं । अधिकारीयों के पास अब स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की कमी का बहाना ही शेष बचा है । इस योजना को संचालित करने वाले राज्य उद्यानिकी मिशन ने बताया है कि उसने नाबार्ड को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की अनुशंसा की गई है । खैर यह तो हुआ सरकारी योजना के रवैये और चाल का हिस्सा किंतु एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आखिर तालाबों में इस तरह से प्लास्टिक चादर बिछाने का औचित्य क्या है ? सरकार तो विशाल आकार की संरचनाआें को ही प्रोत्साहित करती है जबकि यवतमाल के सावित्री ज्योति समाजकार्य महाविद्यालय के अविनाश शिर्के का कहना है कि पारम्परिक कृषि में खेतों में तालाब खुदवाने का एक मकसद भू-जलस्तर में वृद्धि करना भी है । पारम्परिक तकनीक में महज २०० वर्ग फीट क्षेत्रफल के दस फीट गहराई वाले छोटे तालाबों की श्रृंखला हुआ करती थी । कम लागत की वजह से कृषक इन्हें खुद ही खुदवा लेते थे । इसकी लागत मात्र ५ से १० हजार रूपये होती है । नागपुर के गैर सरकारी संगठन युवा से जुड़े कृषि विशेषज्ञ नितिन माटे भी इस योजना के खिलाफ हैं । उनका कहना है कि प्लास्टिक चादरें बिछाने से दीर्घावधि में कोई फायदा नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा यह एक फसल तक ही पानी का भंडारण कर पाएगी और चूँकि यह जलस्तर में बढौत्तरी में भी मदद नहीं करती हैं अत: इतनी ऊँची लागत भी तर्कसम्मत नहीं है । वाशिम जिले में पारम्परिक जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार के कार्य में लगे नीलेश हेड़ा भी इस विचार को अवैज्ञानिक करार देते हुए कहते हैं बड़े तालाबों में विशेषकर सूखे के दौरान वनस्पति की उपज में कमी की वजह से गाद भरने की प्रक्रिया तीव्र होती है । भले ही प्लास्टिक चादर की आयु पंद्रह वर्ष होने के दावे किए जाएं, किंतु वास्तविकता है कि यह गाद हटाने के कार्य मेंही फट जाएगी । वैसे भी रिसाव कम करने के लिए विदर्भ में किसान सिंचाई संरचनाआें में सदियों से काली मिट्टी का प्रयोग करते आ रहे हैं । विदर्भ में पहले सफल खेतिहर तालाब प्रयोग के परिकल्पक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण वाहिनी के योगेश अनेजा कहते हैं सरकार सामूहिकता के विचार को ठीक से समझ नहीं पाई है । इसमें हम छोटे तालाबों और जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार और पौधारापेण पर ध्यान देते हैं । नागपुर के वालनि गांव में हमारे प्रयोग की वजह से पूरे क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है । यहां तक कि विदर्भ के ताजा सूखे में भी गांव में फसल उत्पादन में कमी नहीं हुई । प्लास्टिक चादर के प्रयोग से कृषकों की उद्योगों और तकनीक विशेषज्ञों पर निर्भरता हो जाएगी । क्योंकि इसके बिछाने से लेकर रखरखाव तक का कोई भी काम विशेषज्ञ के बगैर नहीं हो पाएगा । वाशिम के गजानंद आंबेडकर जैसे आम किसान भी तकनीकी निर्भरता से असहज महसूस करते हुए कहते है हम सब्सिडी की वजह से तैयार हुए थे । किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब स्थितियां बजाए किसान के उद्योगों के हित में निर्दिष्ट कर दी गई हैं । ***केन्द्र सरकार महाराष्ट्र के सूखा - पीड़ित इलाकों के लिए एक नई विषैली योजना लेकर आई है जिसके अंतर्गत कपास उत्पादन वाले १६ जिलों के पंद्रह सौ तालाबों का निर्माण और उनमें प्लास्टिक की चादरें बिछाकर पानी का जमीन में रिसाव रोककर समस्या सुलझाने की कोशिश की जानी है । ऐसे तालाबों के निर्माण के लिए सौ प्रतिशत सब्सिडी की घोषणा भी की गई है। किंतु सरकार सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता बढ़ाने का उत्तर औद्योगिक उत्पाद में ढूंढ रही है । शुरूआती दौर में तो किसानों समुदाय योजना के प्रति उदासीन था किंतु जैसा कि ज्यादातर सरकारी नीतियों के साथ होता है , धीरे-धीरे इसे भी लोगोंने स्वीकार कर लिया । जैसे ही किसानों ने तालाब खोद लिए वैसे ही प्लास्टिक की चादरों की आपूर्ति करने वाली चुनिंदा कंपनियों ने इनकी कीमतों में १६ से १८ रूपये प्रति वर्ग मीटर की वृद्धी कर दी । इसके फलस्वरूप प्रति तालाब चादर की लागत में पचास से साठ हजार रूपयों की वृद्धि हो गई । जिन किसानों को सब्सिडी के तहत अभी तक धन नहीं मिला है उन्हें डर है कि यह अतिरिक्त लागत उन्हें स्वयं ही वहन करना होगी । नाराज किसानों ने तालाबों की खुदाई भी रोक दी है । वाशिम जिले के कृषकों ने जिलाधीश को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की है कि या तो सब्सिडी की राशि में वृद्धि की जाए अथवा कंपनियों को पूर्व घोषित मूल्य पर ही प्लास्टिक चादरों की आपूर्ति के निर्देश दिए जाएं । अधिकारीयों के पास अब स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की कमी का बहाना ही शेष बचा है । इस योजना को संचालित करने वाले राज्य उद्यानिकी मिशन ने बताया है कि उसने नाबार्ड को एक प्रस्ताव भेजा है, जिसमें सब्सिडी की राशि में बढ़ोत्तरी की अनुशंसा की गई है । खैर यह तो हुआ सरकारी योजना के रवैये और चाल का हिस्सा किंतु एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आखिर तालाबों में इस तरह से प्लास्टिक चादर बिछाने का औचित्य क्या है ? सरकार तो विशाल आकार की संरचनाआें को ही प्रोत्साहित करती है जबकि यवतमाल के सावित्री ज्योति समाजकार्य महाविद्यालय के अविनाश शिर्के का कहना है कि पारम्परिक कृषि में खेतों में तालाब खुदवाने का एक मकसद भू-जलस्तर में वृद्धि करना भी है । पारम्परिक तकनीक में महज २०० वर्ग फीट क्षेत्रफल के दस फीट गहराई वाले छोटे तालाबों की श्रृंखला हुआ करती थी । कम लागत की वजह से कृषक इन्हें खुद ही खुदवा लेते थे । इसकी लागत मात्र ५ से १० हजार रूपये होती है । नागपुर के गैर सरकारी संगठन युवा से जुड़े कृषि विशेषज्ञ नितिन माटे भी इस योजना के खिलाफ हैं । उनका कहना है कि प्लास्टिक चादरें बिछाने से दीर्घावधि में कोई फायदा नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा यह एक फसल तक ही पानी का भंडारण कर पाएगी और चूँकि यह जलस्तर में बढौत्तरी में भी मदद नहीं करती हैं अत: इतनी ऊँची लागत भी तर्कसम्मत नहीं है । वाशिम जिले में पारम्परिक जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार के कार्य में लगे नीलेश हेड़ा भी इस विचार को अवैज्ञानिक करार देते हुए कहते हैं बड़े तालाबों में विशेषकर सूखे के दौरान वनस्पति की उपज में कमी की वजह से गाद भरने की प्रक्रिया तीव्र होती है । भले ही प्लास्टिक चादर की आयु पंद्रह वर्ष होने के दावे किए जाएं, किंतु वास्तविकता है कि यह गाद हटाने के कार्य मेंही फट जाएगी । वैसे भी रिसाव कम करने के लिए विदर्भ में किसान सिंचाई संरचनाआें में सदियों से काली मिट्टी का प्रयोग करते आ रहे हैं । विदर्भ में पहले सफल खेतिहर तालाब प्रयोग के परिकल्पक गैर सरकारी संगठन पर्यावरण वाहिनी के योगेश अनेजा कहते हैं सरकार सामूहिकता के विचार को ठीक से समझ नहीं पाई है । इसमें हम छोटे तालाबों और जलस्त्रोतों के पुनरूद्धार और पौधारापेण पर ध्यान देते हैं । नागपुर के वालनि गांव में हमारे प्रयोग की वजह से पूरे क्षेत्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है । यहां तक कि विदर्भ के ताजा सूखे में भी गांव में फसल उत्पादन में कमी नहीं हुई । प्लास्टिक चादर के प्रयोग से कृषकों की उद्योगों और तकनीक विशेषज्ञों पर निर्भरता हो जाएगी । क्योंकि इसके बिछाने से लेकर रखरखाव तक का कोई भी काम विशेषज्ञ के बगैर नहीं हो पाएगा । वाशिम के गजानंद आंबेडकर जैसे आम किसान भी तकनीकी निर्भरता से असहज महसूस करते हुए कहते है हम सब्सिडी की वजह से तैयार हुए थे । किंतु ऐसा लगने लगा है कि अब स्थितियां बजाए किसान के उद्योगों के हित में निर्दिष्ट कर दी गई हैं । ***

बुधवार, 26 नवंबर 2008

११पर्यावरण परिक्रमा

ऊर्जा स्त्रोतों का पूरा दोहन करना होगा
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने एक ऐसी एकीकृत ऊर्जा नीति पर जोर दिया है, जिसमेंे ऊर्जा के दाम बाजार से तय हों तथा विदेश में ऊर्जा क्षेत्र हासिल करने के साथ ही देश में सभी उपलब्ध ऊर्जा स्त्रोतों का व्यापक दोहन किया जाएगा । पिछले दिनों देश की ऊर्जा जरूरतों पर केंद्रित योजना आयोग पूर्ण बैठक को संबोधित करते हुए डॉ. सिंह ने कहा कि कच्च्े तेल और गैस के आयात पर निर्भरता से लगातार अंतरराष्ट्रीय बाजार की उठापटक की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है । उसका लगातार असर पेट्रोलियम और दूसरे ऊर्जा उत्पादों के आयात पर भी पड़ रहा है । एकीकृत ऊर्जा नीति के जरिए विभिन्न मंत्रालयों में बेहतर तालमेल होगा तथा ऊर्जा मूल्यों के बारे एकरूपता आएगी । योजना आयोग की पूर्ण बैठक एकीकृत ऊर्जा नीति के प्रारूप पर विचार-विमर्श के लिए ही बुलाई गई थी । यह प्रारूप ऊर्जा विशेषज्ञ किरीट पारिख की अध्यक्षता वाले विशेषज्ञ दल ने तैयार किया है, जिसका गठन प्रधानमंत्री ने अगस्त २००६ में किया था । प्रारूप के मसविदे में गरीबों को सस्ती बिजली देने की बात के अलावा सब्सिडी का दुरूपयोग रोकने पर जोर दिया गया है ।
विकास नहीं, गाँव पर बाजार का दबदबा भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, लेकिन इक्कीसबीं सदी के शहरी भारत में गाँवों की आदते भी बदल रही हैं । शहरी हो रही हैं । ऐसी नेल्सन का सर्वे भी कुछ ऐसा ही बातें करता है । सर्वे जनवरी से लेकर जुलाई २००८ के बीच ग्रामीण भारत में हुई खपत के आँकड़े पेश करता है । इसमें बताया गया है कि गाँवों में टूथपेस्ट की खपत १२.८ फीसदी बढ़ी है । तो शहरों में सिर्फ ८.७ फीसदी । गाँवों में शहरों की तुलना में शैम्पू, साबून और केश तेल का ज्यादा इस्तेमाल होने लगा है, मगर इसका कारण बहुत अजीब है । कहा गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि और सत्तर हजार करोड़ कर्जमाफी से ऐसा हुआ है । तो क्या इस सत्तर हजार का फायदा किसानों को कम और साबुन, शैम्पू वालों ज्यादा हो रहा है । क्या किसी ने उस किसान के घर जाकर उपभोग का सर्वे किया है जो कर्जमाफी के बाद से खुद को मुक्त महसूस कर पा रहा है । वैसे भी महाजनों के चंगुल से अभी मुक्ति नहीं मिली है । हम गाँवों को नहीं जानते । भूल जाते हैं कि आखिरी आदमी तक माल पहुँचा देने की यह पूँजीवादी परिकल्पना पिरामिड के तल तक पहुँचने की नई रणनीति है । यह जरूर हुआ कि जब ब्रांडेड माल इतने महँगे हो गए तो स्थानीय उत्पादों ने लोगो की जरूरतें पूरी कीं । अब ब्रांड वाले उत्पाद कम पैसे और कम मात्रा के पैकेट में लोगों की आदत बन रहे हैं । जब गाँव के लोग शहरों में जाकर अजब-गजब के काम करने लगे तो उनके पीछे परिवार के सदस्य भी नए-नए काम करने लगे हैं । मोबाइल रिचार्ज कूपन, रिंगटोन डाउनलोड, कूरियर और टाटा स्काई से लेकर डिश टीवी जैसे नए-नए धंधे पनप रहे हैं । टाटा, रिलायंस और एयरटेल के पीसीओ अब गाँव-गाँव मेंे नजर आते हैं । गाँवों में लड़कियाँ जीन्स पहन रही हैं और लड़के कैप । विकास गाँवों तक नहीं पहँुचा । बाजार पहुँच रहा है अपने विस्तार के लिए । पचास पैसे से लेकर दो रूपए के पैकेट के जरिए । गाँवों से निकला बाजार अब एक बार फिर गाँवों की तरफ मुड़ रहा है ।
नर्मदा परिक्रमा पथ का विकास होगा म.प्र. सरकार नर्मदा परिक्रमा पथ विकास परियोजना को पूरा करने के लिए केन्द्र की विभिन्न योजनाआें का सहारा लेगी। इसके अधिकांश काम राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) की राशि से पूरे किए जाएँगे । मध्यप्रदेश रोजगार गांरटी योजना परिषद ने इसके अलावा संपूर्ण स्वच्छता अभियान और ग्रामीण विकास विभाग के माध्यम से भी योजना के तहत चिन्हित कार्योें का क्रियान्वयन किया जाएगा । परियोजना के लिए विभागों के बीच समन्वय और लक्ष्य को बताने का काम जन अभियान परिषद करेगी । नर्मदा परिक्रमा पथ को विकसित करने का बीड़ा जन अभियान परिषद के माध्यम से मध्यप्रदेश सरकार ने उठाया है । नदी के दोनों और करीब २६०० किलोमीटर वाले पथ को विकसित करने के लिए सरकार राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के प्रावधानों का उपयोग सड़क निर्माण, मिट्टी कटाव को रोकने के लिए बंधान, छोटी-छोटी जल संरचनाआें के साथ फलदार और छायादार वृक्षों के रोपण जैसे कार्य में करेगी। सूत्रों के मताबिक मुख्यमंत्री की घोषणा को अमलीजामा पहनाने के लिए मध्यप्रदेश रोजगार गारंटी योजना परिषद ने प्रस्ताव तैयार करने की कवायद शुरू कर दी है । नदी के दोनों ओर फलोद्यान तैयार करने के लिए करीब ३० लाख पौधों का रोपण किया जाएगा । मुरम की ग्रेवल सड़क (जिसके ऊपर पक्की सड़क बनाई जा सकती है) भी बनाई जाएगी । परिषद के अधिकारीयों का कहना है कि इससे योजना के तहत जहाँ मजदूरों को ज्यादा काम मिलेगा, वहीं हरियाली के और नदी के किनारे बसे गाँवों में विकास कार्य भी हो सकेंगे । अर्थ वर्क का काम ग्रामीण विकास विभाग की योजनाआें के दायरे में कराया जाएगा । मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की घोषणा के तारतम्य में नदी के किनारे बसे १५ जिलों के गाँवों को निर्मल ग्राम बनाने के लिए संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत कार्य स्वीकृत किए जाएँगे।
मंगल ग्रह पर फीनिक्स ने बर्फ खोजी अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के यान फीनिक्स ने मंगल ग्रह पर बर्फ का पता लगाया है । फीनिक्स को बर्फ उस जगह से थोड़ी दूर मिली जहाँ वह उतरा था । मंगल ग्रह के बादलों की संरचना का पता लगाने और मंगल की हवा में मौजुद बर्फ के टुकड़ों को काटने में फीनिक्स पर लगे रोबोट के हाथों का इस्तेमाल किया गया। मंगल ग्रह से मिले आँकड़ों के अनुसार वहाँ बर्फ सतह पर पर आने से पहले वाष्पीकृत हो जाती है । फीनिक्स वहाँकी स्थिति पर नजर रखे हुए है । कनाडा की यार्क यूनिवर्सिटी के मौसम वैज्ञानिक और इस अभियान से जुड़े जिम वाइटवे ने बताया कि अगले महीने हम मंगल पर बर्फ मामले की जाँच बहुत बारीकी से करेंगे। उन्होंने कहा, मंगल के वातावरण में बर्फ के बनने से पहले उसका वाष्प बनकर उड़ जाने की प्रक्रिया को समझना बहुत अहम् है । इसके लिये फीनिक्स यान कई उपकरण लेकर गया है । इसका मौसम केन्द्र यान के आसपास के तापमान, दबाव और हवा की निगरानी करता रहता है । केन्द्र से मिले आंकड़ों के मुताबिक वहाँ गर्मी के मौसम के कारण तापमान अधिक है । सर्दी का मौसम शुरू होते ही तापमान कम होन लगता है । अंतिरक्ष एजेंसी नासा की ओर से पिछले दिनों जारी अन्य महत्वपूर्ण आंकड़ों के अनुसार फीनिक्स के आसपास की मिट्टी की पहचान कैल्शियम कार्बोनेट के रूप में की गई है । यह पृथ्वी पर पाये जाने वाले चूना पत्थर से काफी मिलता जुलता है । फीनिक्स ने मंगल ग्रह पर मिट्टी जैसे एक पदार्थ का भी पता लगाया है । वैज्ञानिकोें का मानना है कि ये दोनों पदार्थ पानी की मौजुदगी में ही बनते हैं। फीनिक्स में एक मानव रहित यान है । नासा अपने इस मिशन के जरिए यह जानने का प्रयास कर रहा है कि क्या मंगल पर जीवन संभव है ।
भोपाल में बनेगा गिद्ध संरक्षण प्रजनन केन्द्र वन विहार राष्ट्रीय उद्यान भोपाल द्वारा बाह्य संरक्षण की दृष्टि से केरवा केन्द्र में गिद्धो की कैप्टिव ब्रीडिंग के केन्द्र को बनाये जाने का कार्य हाथ में लिया जा रहा है । इसके लिये पांच एकड़ भूमि कैरवा के पास चयनित कर ली गई है । उल्लेखनीय है कि गिद्धों को भोजन के रूप में बकरी का मंास दिया जाता है । वयस्क गिद्धों को चार दिन में एक किलोग्राम मांस तथा बच्चें को प्रतिदिन तीन बार१००-२०० ग्राम मांस दिया जाता है । गिद्धों का हमेशा से पर्यावरण में महत्वपूर्ण योगदान रहा हे । गिद्धो की विभिन्न प्रजातियां मृत जानवरों के मांस को अपना भोजन बनाती है, जिसके कारण ये मांस के सड़ने से होने वाली बीमारियों से बचाते रहे हैं । भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती रही हैं। इनमें से मध्यप्रदेश में गिद्धों की चार प्रजातियां क्रमश: बंगाल गिद्ध , इण्डियन लोंग बिल्ड, किंग वल्चर एवं सफेद गिद्ध प्रमुख रूप से पाये जाते रहे हैं । वर्ष १९९० के उपरांत गिद्धों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है । एक अध्ययन के अनुसार १९९० से २००२ तक इनमें लगभग ९० प्रतिशत कमी पाई गई है । गिद्धों की संख्या में इस गिरावट के कारण आई. यू.सी.एन. ने गिद्धों की इन प्रजातियों को गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखा है । गिद्धों की संख्या में गिरावट का मुख्य कारण पालतू जानवरों को दी जाने वाली एंटी इंफ्लामेटरी दवाई डायक्लोफेनिक है ।यह दवाई पालतू पशुआें के लीवर में पहुंच कर मांस के जरिए यह गिद्घों तक पहुंचती है । ***

१२ खास खबर

दीपावली और प्रदूषण

(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

रोशनी का पर्व दिवाली दीपों का त्योहार है । हमारे पुराणों में अग्नि की उजाले का प्रतीक माना गया है । यदि किसी कारण उजाले का अभाव हो तो आवाज को भी खुशियां मनाने का तरीका माना गया है दीपावली पर दीपक एवं पटाखे जीवन में उसी रोशनी और आवाज को प्रदर्शित करते है एवं ये दोनो ही खुशी मनाने के स्वरूप में स्वीकार करते है । लेकिन बदलते परिदृष्य में न सिर्फ खुशियां जाहिर करने के तरीके में बदलाव आया है, बल्कि त्योहार मनाने के तरीकों में काफी बदलाव आया है । दीपावली पर इस बार भी पिछले वर्ष की तरह रिकॉर्ड पटाखे छुटाए जाने की आशंका है । इस सबके बीच सुखद ये कि वर्षो बाद भी एंटी क्वेकर अभियान प्रभाव नहीं छोड़ रहा । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक, दीपालवली के दौरान राजधानी के वातावरण में सल्फर डाईआक्साइड की मात्रा काफी बढ़ जाती है कि पटाखे छौड़ने का वातावरण पर प्रभाव दीपावली क समय मौसम की स्थिति व वायु के प्रवाह पर भी निर्भर करता है । मौसम अधिक आद्र रहा तो वातावरण की मिक्सिंग हाइट कम रह जाती है और हवा में घुल चुके प्रदूषक तत्व ऊपर नहीं उठ पाते । पिछले साल और २००४ में ऐसी ही स्थिति थी इसलिए प्रदूषक तत्व हवा में कई दिनों तक बने रहे थे । दोनों साल दीपावली नवंबर के पहले हफते के बाद आई थी । इस साल २८ अक्टूबर को दीपावली है, लिहाजा मौसम ज्यादा आद्र रहने की संभावना नहीं है । प्रदूषक तत्व व परीक्षण की व्यवस्था : दीपावली से पहले और उस दिन केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से राजधानी की वायु गुणवत्ता की जांच प्रतिवर्ष की जाती है । दिल्ली के विभिन्न हिस्सो में बोर्ड की तरफ से दस जगहों पर अंशकालिक व चार जगह २४ घंटे परीक्षण की व्यवस्था की जाती है । बोर्ड के कर्मी कनॉट प्लेस, इंडिया गेट, पीतमपुरा, मॉडल टाउन, मयूर विहार फेज दो, लाजपत नगर, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, न्यू फ्रेंड कॉलानी और पूर्वी अर्जुन नगर में पटाखे से होने वाले वायु प्रदूषण व शोर स्तर की जांच अंशकालिक तौर पर प्रात: ६ बजे से रात के ग्यारह बजे तक करते है । शोर स्तर की जांच के लिए ६ घंटे के औसत पर कमला नगर, आईटीओ व दिलशाह गार्डन में भी मॉनिटरिंग की जाती है । इसके अलावा, पूर्वी अर्जुन नगर, आईटीओ, सीरीफोर्ट व दिल्ली कॉलेज आफ इंजीनियरिंग पर २४ घंटे वायु प्रदूषण की मानिटरिंग होती है । बोर्ड इन्हीं जगहों पर दीपावली से पहले भी आंकड़े जुटाने के बाद उनका तुलानात्मक अध्ययन का पटाखे से होने वाले दुष्प्रभावों का पता लगाता है । प्रदुषक तत्व है सेहत के दुश्मन : पटाखे से हवा में सल्फर डाइआक्साइड, नाइट्रोजन डाइआक्सााइड, निलंबित विविक्त कण व निलंबित विविक्त कणों मे इज़ाफा हो जाता है । ध्वनि प्रदूषण का स्तर तकरीबन हर जगह सामान्य दिनों से ज्यादा हो जाता है । शोर का मानक स्तर दिन में ५५ डेसिबल व रात में ४५ डेसिबल है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि २००७ में दीपावली पर ध्वनि प्रदूषण का स्तर ६३ से ८७ डेसिबल के बीच रहा जबकि २००६ में दीपावली पर यह स्तर ५६ से ७४ डेसिबल के बीच थाा दीपावली वाले दिन सल्फर उाइआक्साइड की मात्रा हवा में लगभग दो गुनी हो जाती है । इसी तरह निलंबित विविक्त कण ( आरएसपीएम) की मात्रा में भी हर जगह बढ़ोतरी होती है । प्रदूषक तत्वों का मानव जीवन पर प्रभाव पर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एस.के. त्यागी बताते है कि वायु में सल्फर व नाइट्रोजन के ऑक्साइड जैसे प्रदूषक तत्वों के बढ़ने से सांस की बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों पर ज्यादा असर पड़ता है । वायु में इनका असर एक से दो दिन में कम हो जाता है, लेकिन मानव शरीर में कई दिनों तक इनका दुष्प्रभाव बना रहता है । इसी तरह एसपीएम व आरएसपीएम भी सांस की बीमारी को बढ़ा देती हैं । इन पर मौजूद कार्सिनोजैनिक तत्व गले में श्लेष्मा झिल्ली पर प्रभाव छोड़ता है और फेंफड़े तक पहुंच कर रक्त से मिल जाती है । ऐसे में किडनी, लीवर व ब्रेन पर भी इनका असर पड़ता है । लंबे समय तक ऐसे प्रदूषक तत्वों का मानव शरीर पर प्रभाव पडे तो कैंसर भी हो सकता है । दीपों के मंगल त्यौहार में सजना- संवरना, दीप जलाना और पटाखे चलाना हर किसी को भाता है, पर दिवाली की असली खुश्यिां सुरक्षित दीवाली से ही संभव है । पटाखों का शोर और उनसे निकलने वाले धुएं से न सिर्फ पर्यावरण संबंधी समस्याएं पैदा होती है, बल्कि स्वास्थ्य संबंधी समस्याआें की आशंका भी बढ़ जाती है ।इस बार दिवाली पर प्रदूषण कम हो व वातावरण स्वच्छ रहे इसके लिए कुछ सरकारी व गैर सरकारी संस्थाएं अभी से जनजागरूकता अभियान चला रही है । अनेक गैर - सरकारी संगठन और पर्यावरणविद् लोगों में यह जागरूकता फैलाने का प्रयास कर रहे हैं कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले पटाखों का इस्तेमाल न करें या कम से कम करें । ये लोग पटाखों के शोर से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए काफी संघर्ष कर रहे हैं । आखिरकार वे लोगों को यह समझाने में सफल होगए है कि अधिक पटााखे फोड़ने से ध्वनि प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ जाता है, जो लोगों की बर्दाश्त की हद पार कर उनकी सुनने की क्षमता प्रभावित करता है । परिणामस्वरूप इस वर्ष न केवल त्यौहान पर कुल व्यय में पटाखों का प्रतिशत गिरा है, बल्कि ऐसे पटाखों की खरीदारी भी बढ़ी है जिनसे आवाज नहीं होती या फिर कम आवाज होती है । ऐसे पटाखों की मांग ३५ फीसदी तक पहुंच गई है । पोटेशियम नाइट्रेट, कार्बन और सल्फर वाले पटाखें बाजार में बहुत कम देखने को मिल रहे हैं । ये पटाखे अधिक शक्तिशाली होेते हैं और फोड़ने पर अधिक शोर करते हैं । पिछले कुछ वर्षोंा में उत्तर भारत के शहरों जैसे दिल्ली व चंडीगढ़ में शोर करने वाले पटाखे फोड़ने का रूझान कम हुआ है । दक्षिणी राज्यों में भी लोग पटाखों पर कम खर्च कर रहे हैं ।पिछले कुछ सालों में दीपावली के समय में होने वाले प्रदूषण के स्तर में कुछ कमी भी आई है खासतौर से महानगरों में । वर्ष २००६ में दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति डीपीसीसी द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि दिवाली पर दिल्ली में अन्य वर्षोंा की तुलना में कम प्रदूषण फैला है । यह एक अच्छी शुरूआत है आशा है हम इस दिशा में और आगे बढ़ेंगें । ***

१३ पर्यावरण समाचार

१३ पर्यावरण समाचार
तटबंध से बाढ़ नियंत्रण की सीमाएं
बिहार में कोसी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ ने एक बार फिर इस ओर ध्यान खींचा है कि तटबंध आधाारित बाढ़ नियंत्रण की कितनी सीमाएं हैं व कई बार इससे कितनी कठिनाइयां पैदा हो जाती है । भारत जैसे कई देशों मे तटबंध बाड़ नियंत्रण का मुख्य आधार रहे हैं । आज़ादी के बाद भारत में लगभग ४०,००० कि.मी. तटबंधा का निर्माण किया गया है । तटबंधों से जुड़ी समस्याएं कई देशों में उपस्थित हुई हैं । सबसे अधिक समस्याएं अधिक गाद-मिट्टी और मलबा लेने वाली नदियों व उन नदियों में उत्पन्न होती है । जब यह प्रयास किया जाता है तो कई बार बहुत प्रतिकूल आसार सामने आते हैं, जैसा कि हाल ही में कोसी की प्रलयंकारी बाढ़ में नज़र आया है । जब नदी को तटबंधों से बांधा जाता है तो नदी द्वारा लाई गई मिट्टी - गाद खेतों व अन्य बड़े मैदानी क्षेत्रों में फैलने के बजाय तटबंधों के भीतर ही सिमटकर रह जाती है । इस कारण प्रतिवर्ष तटबंध के भीतर नदी का पेंदा ऊपर उठता है और जल-स्तर बढ़ जाता है । कुछ वर्षोंा के बाद जल स्तर तटबंध की ऊँचाई तक पहुंच जाता है जिससे तटबंध द्वारा दी गई सुरक्षा बेकार हो जाती है । यह सही है कि थोड़ा - बहुत धन खर्च करके इस तटबंध को ऊंचा किया जा सकता है । मगर कुछ वर्षोंा बाद नदी का जल-स्तर यहां तक भी पहुंच सकता है । तटबंध कुछ क्षेत्र की बाढ़ समस्या कम करते हैं तो कुछ क्षेत्रों की बाढ़ या दलदलीकरण की समस्या बढ़ा भी सकते हैं । विशेशकर दो तटबंधों के बीच रहने वाले लोगों की जिंदगी को बुरी तरह तबाह हो सकती है । प्राय: उनके संतोषजनक पुनर्वास की व्यवस्था भी नहंी होती है । तटबंध एक ओर बाढ़ रोकते हैं तो दूसरी ओर , बाहरी पानी को नदी में मिलने से रोकते भी हैं । इस तरह रूके हुए पानी से कई जगह दलदलीकरण व बाढ़ की समस्या उत्पन्न होती है व कुछ खतरनाक बीमारियंा फैलने का खतरा भी पैदा होता हे । जहां दो या अधिक नदियां मिलती है , वहां भी तटबंध नई दिक्कतें उत्पन्न करते हैं । ***