गुरुवार, 27 नवंबर 2008

६ जनजीवन

कदमताल करता विकास
अनिल चमड़िया

आज विकसित विकासवादी अवधारणा की तफतीश करते हुए यह समझा रहा है कि पिछले करीब ३५० वर्षोंा से विकास का लाभ एक सीमित वर्ग को ही प्राप्त् हो रहा है । आम जनता इस स्थिति में पहुंच गई है जिसे सन्निपात की ही संज्ञा दी जा सकती है । भारत में जातिवाद और सम्प्रदायवाद से समाज के टूटने का खतरा जाहिर किया जाता है । यह खतरा इसलिए है कि हम समाज के विविधता भरे ढ़ांचे और चरित्र को बनाए रखना चाहते हैं । साथ ही समाज को उन लड़ाईयों से दूर रखना चाहते हैं जिससे समाज के बड़े हिस्से का हर स्तर पर नुकसान ही होना है । ये धर्म और जाति उन पुरानी व्यवस्थाआें के आधार रहे हैं जिन्हे आधुनिक व्यवस्था से दूर करने का लक्ष्य होता है । आधुनिक व्यवस्थाएं ये लक्ष्य राजनीतिक विचारधाराआें के आधार पर निर्धारित करती हैं । लेकिन पुरानी व्यवस्थाआें के जो आधार रहे हैं उनसे जुड़े वर्गोंा के हित पुरानी व्यवस्था में ही सुरक्षित होते हैं इसलिए वे किसी भी स्तर पर उसे बनाए रखना चाहते हैं इसीलिए वे किसी भी स्तर पर उसे बनाए रखना चाहते हैं । वे उन आधारों को एक विचारधारा में परिवर्तित करने और उसे स्थापित करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं । लेकिन दूसरी तरफ आधुनिक व्यवस्थाआें की भी अपनी टकराहट होती है । वे नई - नई विचारधाराआें के लिए जगह बनाने की कोशिश करती हैं । आधुनिकतम होती व्यवस्थाआें में विचारधाराआें का आधार जाति, लिंग, धर्म और क्षेत्र से बदल जाता है। ऐसे समय लगता है कि जातियां समानता ग्रहण कर रही हैं । धर्म की भूमिका कम हो रही है । पूरी दुनिया ही एक क्षेत्र में बदल गई है । शोषित पीड़ित आबादी को मुक्ति मिल रही है । लेकिन एक उदाहरण से समझने की ये कोशिश की जा सकती है कि जो आधुनिक व्यवस्था में बदलने और विकास का अहसास है वह दूसरी तरफ कैसे एक अधीनता और असमानता को बनाए रखने की कोशिश ये आधुनिकतम कहलाने वाली विचारधारायें करती रहती है । सन् १६६० का एक तथ्य है । उस समय दिल्ली की आबादी लगभग पांच लाख थी । उसमें आधी से ज्यादा आबादी झुग्गी झोपड़ियों में रहती थी । इस संख्या का अनुमान १६६१ में दिल्ली में आग लगने की एक घटना के तथ्यों से भी लगया जा सकता है । उसमें ६० हजार झुग्गियां और झोपड़ियां जलकर राख हो गई थीं । दूसरी तथ्य खेत में अनाज पैदा करने वालों से जुड़ा है । दिल्ली और आगरा के इलाके में गेहँू का उत्पादन करने वाले खेतिहरों की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे गेहँू खरीद सकें । तीसरा तथ्य औरंगजेब के बाद इतिहास में मिलता है कि १७७० के आरम्भ में जितनी मौतें हुई और अनाज की जिस तरह से किल्लत देखी गई उतनी अतीत में न कभी देख गई थी और न ही सुनी गई थी। इन साढ़े तीन सौ वर्षोंा में व्यवस्थाएं आधुनिकतम होती चली गई हैं लेकिन ये कहने की जरूरत नहीं होगी कि व्यवस्थाएं कहां खड़ी रही हैं और आज भी हैं । उपरोक्त स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि राजनीतिक विचारधाराआें ने नई व्यवस्थाआें में विकास को एक ऐसा आधार बनाया जिसे केन्द्र में रखकर असमानताआें के पुराने आधारों को खत्म किया जा सकता है । इसीलिए विकास की अवधारणा के अंदर तमाम तरह के राजनीतिक विचारधाराआें के बीच तीखे संघर्ष होते रहे हैं । विकास की धुरी पर राजनीतिक सत्ताएं बिगड़ती रही हैं । लेकिन विकास को एक ऐसी विचारधारा के रूप में विकसित किया गया है । पुरानी व्यवस्थाआें के आधार पर जातिवादी, सम्प्रदायवादी आदि रहे हैं । उसी तर्ज पर विकासवादी जुड़ जाता है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने जाति और धर्म की तरह इसे एक विचारधारा के रूप में विकसित करने की कोशिश की है । भारतीय समाज को जातिवाद और सम्प्रदायवाद के मनोविज्ञान, मानसिक अवस्था और उसकी आक्रमकता के बारे में बताने की जरूरत नहीं हैं । लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत जैसे देशों मेें विकासवाद और विकासवादियों का भी वही चरित्र है । भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के फैसले सरकार ने जितने चरणों के लिए हैं वे उस विचारधारा को कट्टरपंथी के रूप में विस्तारित करने के चरण रहे हैं । इस विचारधारा के कट्टरपंथी होने के कम से कम दो लक्षण यहां देखे जा सकते हैं । पहला लक्षण शाइनिंग इंडिया या भारत २०२० का नारा बनना हैं । यानी यह देखा जा रहा हे कि लोग अपनी पहले की स्थिति में ही हैं लेकिन सत्तायें विकासवादी कहलाती है ं। इसमें आवाज पैदा की जाती है कि कहीं दूरदराज सपने पूरे हो रहे हैं । दूसरे विकास पर सवाल उठाने वाले आक्रमण के शिकार होते हैं । दिल्ली में लाखों की तादाद में झुग्गियों के गिराए जाने से लेकर छत्तीसगढ़ में नदियों को बेच देने तक पर कोई सत्ता का बाल बांका नहीं कर सका और ना ही लाख से ऊपर की तादाद में किसानोंे की मौत को कोई देख पाया । जातिवाद और सम्प्रदायवाद की भयावहता इसी तरह ही तो देखी जाती है । विकासवाद भी उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कम से कम साढ़े तीन सौ वर्षोंा पुरानी स्थिति में हमें खड़ा किए हुए है । वहां अनाज का अभाव और गेहँू के ऊँचे भाव से भूखमरी, मौत और कर्ज से किसानों की मौत में और आज की परिस्थिति में क्या अंतर है? पुराने विचार वहां और यहां केवल जाति, धर्म की तलाश करेंगे नई विचारधारा ने विकासवादी नामक एक नई जाति और धर्म को विकसित कर लिया है उसकी शिनाख्त कैसे होगी ? वैसे व्यवस्था आधार के रूपों का भी आधुनिकीकरण कर देती है । समाज ने जिन तमाम तरह की बहसों को जन्म दिया और वैचारिक लड़ाईयां लड़ीं वे उसकी सांस्कृतिक पूंजी हैं । इन्हें उनकी उपब्धियों के तौर पर देखा जा सकता है । लेकिन विकासवाद ने उन तमाम उपब्धियों और संस्कृतिक पूंजी पर अपना आक्रमण कर अधिकार जमा लिया है । यदि भारतीय समाज और राजनैतिक व्यवस्थाआें में इस विचारधारा के प्रभावों का अध्ययन किया जाए तो ये बेहद गहरे स्तर पर सक्रिय और सूक्ष्म स्तर पर आक्रमण दिखाई देगा । इसने अपनी भाषा विकसित की है और दूसरी तरफ आम जनता को बेजूबां करने के लिए भाषा छीन ली है । अब अक्सर यह सुना जाता है कि अजीब सा लगा रहा है या वह अजीब सा है । क्या कभी किसी समाज में ऐसा होता है कि उसके बीच कुछ खड़ा हो और वह अजीब सा लगे ? यदि आश्चर्यजनक चीजें अचानक खड़ी होती हों तो ऐसा हो सकता है। लेकिन यहां तो अजीबों की कड़ी तैयार दिख रही है और समाज उसे व्यक्त करने के लिए भाषा तैयार नहीं कर पा रहा है । सारे संबंध विघटन के दौर से गुजर रहे हैं । विकास जब तक एक योजना और कार्यक्रम है वह आक्रमणकारी नहीं हो सकता। जैसे ही वह विकास होता है उसके खतरे शुरू हो जाते हैं। विकासवाद ने तमाम और खासतौर से समानता मूलक राजनीतिक विचारों को रक्षात्मक स्थिति में ला दिया है । इसने व्यक्ति की हरेक इकाई को अपने प्रभाव में कर रखा है । हमें इसके बारे में सोचना होगा ।***

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