गुरुवार, 29 दिसंबर 2011



प्रसंगवश

प्रकाश से तेज रफ्तार शायद प्रयोग की गड़बड़ी है
हाल ही में यह खबर आई थी कि इटली की एक प्रयोगशाला में न्यूट्रिनो नामक कण को प्रकाश से भी तेज रफ्तार से गमन करते देखा गया है । यह प्रयोग इटली की ग्रान सासो नेशनल लेबोरेट्री में किया गया था जिनेवा के पास स्थित सर्न प्रयोगशाला से कुछ न्यूट्रिनो इटली की प्रयोशाला को भेजे गए थे और इन्हें ७३१ किलोमीटर की यह दूरी तय करने मेंे अपेक्षा से ६० नैनोसेकंड कम समय लगा था । गणनाएं बता रही थी कि ये कण प्रकाश से भी तेज गति से चले होगें । इटली में चल रहे इस प्रयोग को ऑपेरा नाम दिया गया है ।
इसके बाद कई प्रयोगशाआलों ने इस पर ध्यान दिया । कई भौतिक शास्त्रियों ने इस अवलोकन की व्याख्या के प्रयास किए हैं । २२ सितम्बर की उक्त घोषणा के बाद एक माह से कम समय में ३० से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं । अब पूरे घटनाक्रम में एक नया आयाम जुड़ गया है । इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के सैद्धांतिक शोधकर्ता कार्लो कोन्टाल्डी ने प्रयोग की गणनाआें पर सवाल उठाए है।
ऑपेरा के दल ने न्यूट्रिनो को भेजने और पहुंचने के समय का मापन दो घड़ियों की मदद से किया था । इन दो घड़ियों को ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम की मदद से आपस में समकालिक बनाया गया था । अर्थात ये दो घड़िया बिलकुल एक साथ चलती थी । कोन्टाल्डी का कहना है कि ऑपेरा दल ने इस बात ध्यान नहीं रखा कि गुरूत्वाकर्ष बल के मान में थोड़ा सा परिवर्तन भी घड़ियों की गति में परिवर्तन पैदा कर देगा । यह बात आइस्टाइन के विशिष्ट सापेक्षता सिद्धांत का तकाजा है ।
कोन्टाल्डी का मत है कि गुरूत्व बलों में अंतर के कारण सर्न की घड़ी (यानी न्यूट्रिनो की यात्रा के आरंभ को नापने वाली घड़ी) इटली में रखी घड़ी से थोड़ी धीमी गति से चलेगी । घड़ियों की गति में इस अंतर का असर परिणामों पर पड़ेगा ।
अन्य भौतिक शास्त्री भी स्वीकार करते हैं कि इस प्रयोग का एक निर्णायक पहलू यही है कि उक्त प्रयोग में इस्तेमाल की गई घड़ियों का आपसी तालमेल कितना सटीक था । यदि इनके तालमेल में थोड़ी भी कमी हुई तो कई नैनोसेंकड का अंतर पड़ जाएगा । वैज्ञानिक कामकाज की परम्पराआें के अनुरूप कोन्टाल्डी व उक्त प्रयोग को करने वाले दल के बीच इस मामले में संवाद जारी है । उम्मीद की जानी चाहिए कि वे जल्दी ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचेगे ।

संपादकीय

वाहनों की अधिकतम गति का सवाल

पिछले कुछ वर्षो में वाहनों की अधिकतम गति बढ़ती ही गई है । आजकल की कारें आसानी से १५० कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार पर भाग सकती है ं । रफ्तार के साथ-साथ कारों की डिजाइन में अन्य परिवर्तन भी किए जाते हैं ताकि वे अपनी अधिकतम गति पर भी सुरक्षित रहें । मगर उनमें सवारी करने वाली इन्सानों की डिजाइन तो वही की हैं । उदाहरण के लिए कारों में विकास के साथ हमारा प्रतिक्रिया समय नहीं बदला है । तो अधिकतम गति का निर्धारण कार की डिजाइन से हो या इन्सान की डिजाइन से ?
यह सवाल काफी पेचीदा है । आम तौर पर जब हम पैदल भागते हैं तो गति का एहसास कई तरह से होता है - पैरों में थकान, हृदय गति बढ़ना, हवा के झोके वगैरह । मगर कार चलाते समय गति का एहसास बिलकुल भी नहीं होता । बस एक स्पीडोमीटर देखकर ही बताया जा सकता है कि हम कितनी गति पर चल रहे हैं । ऐसी स्थिति में दुर्घटना की संभावना बढ़ जाती है ।
इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि बढ़ती रफ्तार के साथ दुर्घटना के परिणाम भी बदल जाते हैं । अमेरिकन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक शोध पत्र के मुताबिक यू.एस.ए. में अधिकतम गति सीमा को ९० कि.मी. घंटा से बढ़ाकर १०५ कि.मी. प्रति घंटा करने पर कार दुर्घटनाआें में मौतों की संख्या में१५ प्रतिशत की वृद्धि हुई थी । दरअसल दुर्घटना में मृत्यु की आशंका गति में वृद्धि के वर्ग के अनुपात मेंबढ़ती है ।
दुर्घटना में मृत्यु होने की आशंका इस बात से भी निर्धारित होती है कि दुर्घटना कहां होती है और किनके बीच होती है । जैसे अंदरूनी स़़डकों पर प्राय: वाहन और पैदल व्यक्ति की टक्कर होने की संभावना ज्यादा होती है । दूसरी ओर, कई सड़कों पर छोटी-छोटी साइड गलियों से वाहन मुख्य सड़क पर प्रवेश करते हैं । यहां साइड से टक्कर की आशंका ज्यादा होती है । और हाइवे पर एकदम अलग ढंग की दुर्घटनाएं होती हैं । यहां वाहनों के आपस में टकराने की आशंका बहुत कम होती है । इन सब परिस्थितियों में अलग-अलग गति सीमा आवश्यक होेती है ।
अध्ययनों से पता चलता है कि जहां सर्विस मार्गो पर २० किलोमीटर प्रति घंटा से अधिक गति घातक हो सकती है वही हाईवे पर ११०-१२० की रफ्तार चल जाएगी । शहर की बड़ी सड़कों पर शायद ५०-६० की गति ठीक रहेगी ।
अगर सवाल इन सीमाआें को लागू करवाने का है, जो और भी पेचीदा है । इसे टेक्नॉलॉजी की मदद से सुलझाया जा सकता है । मगर साथ में कई अन्य व्यवस्थाआें की जरूरत होगी ।

सामयिक

गैस त्रासदी : प्रभाव, घाव और अभाव
अज़हर हाशमी

त्रासदी की तोप में बरबादी की बारूद भरी हुई होती है । सन् १९८४ की दो और तीन दिसंबर की दरम्यानी रात में घटित भोपाल गैस त्रासदी ऐसी ही तोप की तरह थी, जिसने मासूमों की मुस्कानें छीनी, सुहागनों का सिंदूर उजाड़ा, हवाआें में जहर घोला, जिसकी वजह से शहर में कहर डोला । भोपाल में यूनियन काबाईड के कारखाने से रिसी गैस ने तोप की तरह काम किया था ।
जिसने जिंदगियों का काम तमाम कर दिया था । इस इस गैस त्रासदी के प्रभाव को चिन्हित करते हुए प्रसिद्ध पत्रकारद्वय डोमिनीक लापियर और जोवियर मोरो ने लिखा था - इस विषैली गैस के गुबार ने पांच लाख से अधिक भोपालियों को प्रभावित किया था, दूसरे शब्दों में शहर के हर चार निवासी में से तीन इससे पीड़ित थे ।
आंखों और फेफड़ों के बाद सबसे अधिक प्रभावित होने वाले अंगों में मस्तिष्क, मांसपेशियां, अस्थिजोड़, लीवर, गुर्दे, प्रजनन-तंत्र, स्नायु तंत्र तथा प्रतिरक्षा-तंत्र शामिल थे । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् के अनुसार ५२१२६२ लोग प्रभावित हुए थे ।
इस आंकड़े में वे पीड़ित शामिल नहीं थे जो भोपाल के स्थायी निवासी नहीं थे और वे जिनका कोई नियत घर नहीं था अथवा जो घूमंतु जातियों के थे । इसमें वे पीड़ित भी शामिल नहीं थे, जो इस त्रासदी से अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए, जैसे वे बच्च्े जो मां की कोख में थे अथवा जो उसके बाद पैदा हुए जब उनके माता-पिता जहरीली गैस से प्रभावित हो चुके थे । अनेक पीड़ित ऐसी देशा में पहुंच चुके थे कि, उनके लिए हिलना-डुलना भी असंभव था । कई लोग अकड़न, असहाय खराश अथवा दोहरे माइग्रेन से प्रभावित हो गए थे । बस्तियों की ये महिलाएें भोजन पकाने के लिए चूल्हें नहीं जला सकती थी, क्योंकि धुएं के फेफड़ों में बैठ जाने की दशा में उनसे खून बाहर आने का खतरा था । दुर्घटना के दो हफ्ते बाद बचे हुए लोगों को पीलिया की महामारी ने अपनी चपेट में ले लिया, जिनकी रोगों से लड़ने की प्रतिरक्षा प्रणाली खत्म हो चुकी थी । कई मामलों में तंत्रिका तंत्र के प्रभावित होने से कुछ लोगों के शरीर में एेंठन थी तथा कुछ को लकवा मार गया था, कुछ अचेत हो गए तो कुछ काल का ग्रास बन गए ।
मनोवैज्ञानिक दुष्परिणामों का आकलन करना तो और भी कठिन है । इस त्रासदी के बाद शुरूआत के महीनों में एक नया ही लक्षण पैदा हो गया था। डॉक्टर उसे मुआवजा तंत्रिका रोग कहने लगे थे । सबसे अधिक गंभीर मानसिक प्रभाव था घबराहट के साथ उदासी, कमजोरी और भूख की कमी के बचे हुए लोगों में से अधिकांश में सूनापन और निराशा पैदा कर दी थी । इससे कभी कभी वे इस विनाश को ईश्वर-दण्ड के रूप में देखते थे । घबराहट से अनेक लोग निराश होकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गए थे ।
यह बात हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक भोपाल बारह बजकर पांच मिनट में लेखक लापियर और मोरो ने भी लिखी है । यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस ने तोप की तरह काम करके जिंदगियों का काम तमाम कर दिया था, जिसके बाद रही-सही कसर व्यवस्था की विसंगतियों ने पूरी कर दी । मेरे मत से एंडरसन (यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन सर्वेसर्वा) ने थंडरसन के रूप में यमदूत की तरह कार्य किया था लेकिन लीपापोती करके उसे देवदूत के रूप में वंडरसन की तरह पेश किया गया था ।
जनता को यह मुगालता देकर कि एंडरसन फ्रंटडोर से लाया जा रहा है, उसे दरअसल बैकडोर से गुपचुप बाहर भेज दिया गया । इसके बाद बयानों के बवंडर चलते रहे लेकिन गैस त्रासदी के पीड़ित हाथ मलते रहे । घंटिया बजती रही । फाइलें सजती रही, फिर ऐसा दौर आया कि फाइलों पर धूल जमती गई । पीड़ितों की तकदीर में परेशानी रमती रही । न्यायिक प्रक्रिया का भी सहारा लिया गया । मुआवजा भी मिला, मगर वह ऊंट के मुंह में जीरा रहा । कुल मिलाकर गैस त्रासदी का प्रभाव आज भी घाव और अभाव ही है ।

हमारा भूण्डल

चीन में जी.एम. खाद्यान्न फसलों पर रोक
ची योक लिंग

पिछले कुछ समय से भारत में जी.एम. खाद्यान्न को लेकर बीज कंपनियां वातावरण तैयार करने में जुटी हैं । इस बीच सोयाबीन प्रसंस्करण उद्योग जी.एम. सोयाबीन की मांग कर रहा है। उसका कहना है कि इससे उत्पादन में वृद्धि होगी । जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि जी.एम. फसलों से पैदावार नहीं बढ़ती । चीन द्वारा जी.एम. खाद्यान्नों के व्यावसायिकरण पर एक दशक के लिए रोक लगाने से हमारे कृषि वैज्ञानिकों एवं संबंद्ध अधिकारियों को सबक लेना चाहिए ।
कई वर्षो तक वैज्ञानिक एवं सार्वजनिक बहस के पश्चात यह बात सामने आई है कि चीन अगले ५ से १० वर्षो तक अपने मुख्य भोजन जैसे चावल एवं गेहूं में व्यावसायिक जैव संवर्धित (जी.एम.) फसलों को अनुमति नहीं देगा । एक लोकप्रिय आर्थिक साप्तहिक इकॉनोमिक ऑब्जर्वर ने चीन के कृषि विभाग के एक नजदीकी स्त्रोत के माध्यम से इस समाचार का प्रकाशन किया है । यह कमावेश उसी धारा की तार्किक परिणिति है जिसके अन्तर्गत चीन की सरकार में सर्वोच्च् स्तर पर जी.एम. फसलों को लेकर सावधानी बरतने की बात सामने आई थी । बीजिंग में अप्रैल २०११ में सम्पन्न चौथी अंतर्राष्ट्रीय जैव सुरक्षा कार्यशाला जिसे अनेक चीनी वैज्ञानिक संगठनों के सहयोग से आयोजित किया गया था, में चीन के पर्यावरण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने अपने उदघाटन भाषण में कहा था कि प्रधानमंत्री वेन जिआबाओ ने जी.एम. उत्पादों को लेकर अधिक सावधानी बरतने को कहा है ।
जी.एम.तकनीक की व्यवहार्यता को लेकर वर्तमान में व्याप्त् अनिश्चितता ही इसके पीछे का मुख्य कारण है । इकॉनोमिक आब्जर्वर ने एक सार्वजनिक रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि जी.एम. चावल की किस्म बी.टी. शान्यो - ६३ से पैदावार में ८ प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है । लेकिन सूत्रों का कहना है कि वर्तमान में देशी विशेषज्ञों द्वारा तैयार जी.एम. बीजों में फसल बढ़ाने वाला जीन मौजूद ही नहीं है । क्योंकि जी.एम. फसलें कीटरोधी हैं अतएव बढ़ी हुई उपज वास्तव में कीटनाशक की लागत की बचत भर है जिसे अधिक पैदावार की तरह गिन लिया जाता है । गौरतलब है कि शान्यो - ६३ को सर्वप्रथम सन् १९८१ में फ्यूजिआन प्रांतीय कृषि विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकोंने विकसित किया था ।
जी.एम. चावल को व्यावसायिक रूप न देने संबंधी नीतिगत निर्णय आधुनिक कृषि फसल बीज उद्योग विकास योजना (२०११-२०१०) जो कि इस वर्ष के अंत में जारी की जाएगी, में सामने आ जाएगा । यह योजना राज्य परिषद् (चीन में केबिनेट के बराबर) की १८ अप्रैल की रिपोर्ट जिसका शीर्षक आधुनिक बीज उद्योग के विकास को गति देने संबंधी विचार पर आधारित है । मजेदार बात यह है कि इकॉनोमिक आब्जर्वर के लेख से प्रतीत होता है कि इस रिपार्ट में जी.एम. का जिक्र संक्षिप्त् रूप से सिर्फ दो बार आया है ।
चीन में अपवाद स्वरूप केवल जी.एम. मक्का के व्यावसायीकरण के बारे में विचार किया जा रहा है । इकानॉमिक आब्जर्वर के लेख के अनुसार मक्का का आयात तेजी से बढ़ रहा है और सबसे ज्यादा बोई जानी वाली किस्मों में से एक किस्म (जी.एम. नहीं) जिसे देश में ही विकसित किया गया है, द्वारा वर्षो तक अधिकतम उत्पादन देने के बाद उसे अब एक नए कीड़े का सामना करना पड़ रहा है । जी.एम.मक्का और सोयाबीन का वर्तमान में जानवरों के खाने और खाद्य प्रसंस्करण हेतु आयात किया जाता है और इसकी व्यावसायिक खेती की अनुमति नहीं है ।
नवम्बर २००९ में जब चावल की दो जी.एम. किस्मों और मक्का की एक किस्म को उत्पादन प्रमाणपत्र प्रदान किए गए तो वैज्ञानिक समुदाय एवं जनता के मध्य जी.एम. फसलों एवं उत्पादों से पर्यावरण एवं मानव की सुरक्षा को लेकर तीव्र विचार-विमर्श प्रारंभ हो गया । चूंकि चावल देश का मुख्य भोजन है अतएव इस सर्वाधिक संवेदनशील मामले पर जैव सुरक्षा आकलन हेतु ५ वर्ष से अधिक का समय लिया गया । प्रत्येक सुरक्षा प्रमाणपत्र सामान्यतया किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र (चीन में २८ प्रांत एवं स्वशासी क्षेत्र, ४ महानगरीय क्षेत्रों के साथ ही साथ २ विशेष प्रशासनिक क्षेत्र हैं) तक के लिए सीमित है एवं यह पूरे देश के लिए नहीं है । उदाहरण के लिए जी.एम. चावल का प्रमाणपत्र केवल एक प्रांत के लिए ही है ।
हालांकि इस तरह के प्रमाणीकरण का अर्थ यह नहीं है कि इनकी व्यावसायिक खेती की अनुमति दे दी गई है । ग्लोबल टाइम्स के लेख में इस बात को दोहराते हुए लिखा है कृषि मंत्रालय के जी.एम. सुरक्षा उत्पाद विभाग के प्रवक्ता ने पीपुल्स डेली को बताया कि जी.एम. उत्पादों को महज सुरक्षा प्रमाण पत्र मिल जाने का यह अर्थ नहीं है कि इनका व्यावसायीकरण किया जा सकता है । जनता के बीच ले जाने से पहले उन्हें कठोर क्षेत्रीय और उत्पादन परीक्षणों से अनिवार्य रूप से गुजरना होगा । इस बीच कृषि मंत्रालय में एक उपमंत्री चेन झिआहुआ ने वैज्ञानिकों से कहा है कि वे जी.एम. फसलों से सुरक्षा सुनिश्चित करें और इन उत्पादों के व्यावसायीकरण के संबंध में सतर्कता बरतें ।
इसी रिपोर्ट में चीन के प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक युआन लांगपिंग जिन्हें हाइब्रीड चावल का जनक कहा जाता है ने बार-बार सरकार से अपील की है कि जी.एम. फसलों के व्यावसायिक उत्पादन संबंधी कदम फूंक-फूंक कर ही उठाया जाना चाहिए । एक समाचार पत्र से चर्चा के दौरान उन्होनें कहा जी.एम. फसलों की एक मुख्य विशेषता उनका कीटरोधी होना है, लेकिन वैज्ञानिक भी नहीं जानते कि इन फसलों की इस क्षमता का मनुष्यों पर कोई प्रभाव पड़ेगा या नहीं । नानझिंग पर्यावरण विज्ञान शोध संस्थान के झु डेयुआन और पर्यावरण सुरक्षा मंत्रालय के मुख्य जैव सुरक्षा वैज्ञानिक ने ग्लोबल टाइम्स को बताया कि अधिकारियों को चाहिए कि वे जी.एम. उत्पादों के व्यावसायीकरण एवं कुछ जी.एम. तकनीक के निरीक्षण एवं प्रबंधन की दिशा में और अधिक कार्य किए जाने की आवश्यकता है । मंत्री परिषद ने भी अप्रैल की अपनी रिपोर्ट में जी.एम. कृषि फसलों के सुरक्षा आकलन के और अधिक प्रमाणीकरण पर जोर दिया है ।
सरकार द्वारा मुख्य जी.एम. खाद्य फसलों के व्यावसायीकरण को स्थगित करने के निर्णय की चीन के विभिन्न समूहों ने प्रशंसा की है । ग्रीन पीस के खाद्य एवं कृषि कार्यकर्ता पान वेनजिंग का कहना है यह कदम चीन में सभी तरह के जी.एम. चावल के व्यावसायीकरण को समाप्त् करने की प्रक्रिया में मील का पत्थर है । वे आगे कहते है जैव संवर्धित फसलों के मनुष्यों के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर पड़ने वाले दीर्घकालीन प्रभाव अभी भी ज्ञात नहीं हैं । श्री पान का कहना है चीन में पाए गए अनेक जी.एम. चावल पर गैर चीनी पेटेंट की छाप लगी है । यदि इन्हें व्यावसायिक अनुमति दे दी गई तो ये चीन की खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बन सकते है।
ग्रीन पीस ने अपनी प्रेस विज्ञिप्त् में सरकार से जी.एम. नीति एवं जी.एम. फसलों पर किए जा रहे विशाल निवेश पर पुन: आकलन करने की अपील करते हुए कहा है कि वह इसके बजाय आधुनिक पारिस्थितकी कृषि एवं अन्य सुस्थिर तकनीक पर अधिक निवेश करे । साथ ही यह होना चाहिए कि चीन की कृषि से पर्यावरण की सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने एवं किसानों की आर्थिक स्थिति को सुरक्षित करने के लिए अधिक सुस्थिर बनाने की प्रक्रिया में तेजी लाई जा सके ।

जल जगत

नदियों से जुड़ा है देश का भविष्य
डॉ. कश्मीर उप्पल

पिछले दिनों इलाहाबाद में नदियों के पुनर्जीवन को लेकर महत्वपूर्ण सम्मेलन का आयोजन किया गया । इसमें देश भर से पानी के क्षेत्र में कार्य कर रहे कार्यकर्ताआें एवं प्रशासनिक अधिकारियों ने भागीदारी की ।
विश्व की अनेक संस्कृतियों की भांति भारतीय संस्कृति का जन्म भी नदियों के किनारे हुआ है । इसीलिए भारतीय संस्कृति में नदियों को सर्वोच्च् स्थान दिया गया है । भारतीय धर्म और संस्कृति में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम स्थल का विशेष महत्व है । अत: इलाहाबाद में दो दिवसीय नदी पुनर्जीवन सम्मेलन का होना अपने आप में पूरे देश की नदियों के शुद्धिकरण का एक संदेश बन जाता है । इस सम्मेलन में भारत की नदियों का भूजल - अधोभूजल पुनर्भरण करके नदियों का प्रवाह सुनिश्चित करने का कार्य कैसे किया जा सकता है, पर विचार-विमर्श किया गया । समाज के सभी वर्गो की सहभागिता से नदियों का प्रवाह सुनिश्चित करने और नदियों का शोषण बंद करने की योजना की रूपरेखा और कार्यक्रम बनाने की गाइडलाइन मिली है । इसमें नदियों के सवाल को पूरे राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में उठाया और देखा गया । सम्मेलन का उद्घाटन २३ सितम्बर को केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय विभाग के प्रमुख सचिव वी.के. सिन्हा ने किया ।
उनका कहना था कि देश की बड़ी नदियां पहले ही प्रदूषित हो चुकी है और अब छोटी नदियों में भी प्रदूषण फैल रहा है । अत: बडी नदियों को बचाने के पहले छोटी नदियों को बचाना होगा । उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि नदियों को पुनर्जीवन देने के लिए दुनिया के सबसे बड़े रोजगार कार्यक्रम केन्द्र सरकार के मनरेगा योजना का बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए । इस संबंध में मनरेगा कानून को बहुत गंभीरता से पढ़ा जाना जरूरी है ।
केन्द्र सरकार के ही ग्रामीण विकास मंत्रालय के संयुक्त-सचिव डी.के. जैन ने बताया कि मनरेगामें कार्यक्रम रखे गये हैं जिनमें से ६-७ कार्यक्रम केवल पानी से संबंधित है । अत: मनरेगा से छोटी-बड़ी नदियों का पुर्नरूद्धार कार्य किया जाना चाहिए । मनरेगा में ५० प्रतिशत कार्यक्रम ग्राम - पंचायतों के माध्यम से किये जाने चाहिए जिन्हें आवश्यकतानुसार ७० से ८० प्रतिशत तक भी बढ़ाया जा सकता है । तमिलनाडु में मनरेगा में १०-१० हजार लोग इस योजना में एक साथ काम करते है ।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष प्रोफेसर एस.सी. गौतम का कहना था कि सर्वप्रथम १९७४ में केन्द्र सरकार द्वारा वाटर एक्ट १९७४ लाया गया था । सनातन धर्म में मृत्यु नहीं होती केवल कायांतरण होता है । वैसे ही कभी कोई नदी मरती नहीं है । भारत सरकार के पास १० हजार वाटरशेड मेप तैयार है जिनकी सहायता से नदियों का उद्धार किया जाना चाहिए । यदि बाढ़ के पानी को छोटी-छोटी डिस्ट्रीब्यूटरी में विभाजित कर छोटी नदी में बड़े-बड़े कुंए बना दिये जायें तो छोटी नदियों को सदानीरा बनाया जा सकता है ।
उत्तरप्रदेश गंगा रिवर बेसिन
अथॉरिटी के डॉ वी.डी. त्रिपाठी के अनुसार व्यक्ति की आयु होती है लेकिन सिस्टम की नहीं इसीलिए सिस्टम को ही मजबूत बनाना चाहिए । अनेक कारणों से भूमिगत जल स्तर नीचे हो जाता है और बाद में उसका स्थान लेने के लिए नदियों का पानी भी नीचे चला जाता है । इसी कारण अधिकांश नदियां सूख जाती है । अत: भूमिगत जलस्तर बढ़ाने के उपायों से नदी को भी जीवित किया जा सकता है ।
उत्तर मध्य संस्कृति मंच के निदेशक आनन्द शुक्ला ने बताया कि संस्कृति मंच म.प्र., बिहार, यू.पी., राजस्थान सहित सात राज्यों में काम करता है । इन राज्यों में मनरेगा और अन्य कार्यक्रमों के बारे में सांस्कृतिक मंच की टोलियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में जन-जागरूकता फैलाने का काम करती है । नदियों के संबंध में लोगों को जोड़ने के काम में यह मंच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।
पर्यावरण शोधकर्ताआें ने सरकार की नीतियों के फलस्वरूप पर्यावरण पर आ रहे कई खतरों की ओर भी ध्यान आकर्षित किया । जामिया मिलिया के प्रोफेसर एवं पर्यावरणविद् विक्रम सोनी ने मुम्बई - दिल्ली के मध्य प्रस्तावित इंड्रस्ट्रीयल कॉरिडोर की एक गोपनीय योजना का उल्लेख करते हुए कहा कि केन्द्र सरकार इस परियोजना के माध्यम से सात नदियों यमुना, चंबल, माही, लोनी, साबरमती, ताप्ती और नर्मदा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है । इस कॉरिडोर के किनारे कई हाईटेक शहर, औघोगिक केन्द्र, तेज रफ्तार सड़क और रेल परियोजना बनेगी । इस परियोजना पर १३ अरब डॉलर खर्च होगा और लगभग २० करोड़ लोग इन प्रस्तावित नये कॉरिडोर के शहरों में बसेंगे । चीन में भी शंघाई - ह्ववांग्हो नदी प्रयोग किया गया है परन्तु उससे वहां का पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ रहा है । नदी का कम से कम ५० प्रतिशत पानी बहकर समुद्र में मिलना ही चाहिए । किसी भी नदी के केवल २५ प्रतिशत पानी का ही उपयोग करना चाहिए ।
तरूण भारत संघ और इस नदी सम्मेलन के आयोजक मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त् राजेन्द्र सिंह ने कहा कि हमारे देश की नदियों को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ाने की नीतियों ने मार डाला है । देश की कुल आय बढ़ाने के लिए सिर्फ उत्पादन पर ही जोर दिया जा रहा है । इससे नदियों का जीवन संकट से भर गया है ।
राजेन्द्र सिंह के अनुसार केन्द्र सरकार एवं नदियों को बचाने में जुटे लोगों के मध्य आपस में बात चल रही है । देश को एक अच्छी नदी-नीति की जरूरत है । इससे नदियों से जुड़े विवादों का समाधान भी होगा । इसके साथ ही नदियों में खनन और नदियों की जमीन पर अतिक्र्र मण को भी रोका जा सकेगा ।
नदियों की सुरक्षा के लिए रिवर-पुलिसिंग कानून बनाने पर भी विचार-विमर्श हो रहा है । इसके अन्तर्गत नदियों के किनारे नदी पुलिस चौकियां स्थापित की जायेगी । इस नदी पुलिस को नदियों में किसी भी प्रकार का प्रदूषण फैलाने वालों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही करने का अधिकार होगा ।
इस सम्मेलन को देश के ११ राज्यों से आये नदी-कार्यकर्ताआें के साथ-साथ कई राज्यों से आये जनप्रतिनिधियों, कानून के विशेषज्ञों और साधु संतों ने भी संबोधित किया । इन सभी ने नदियों के प्रदूषण से होने वाले वीभत्स पर्यावरणीय नुकसान का वर्णन किया ।
पटना के दिनेश कुमार ने बताया कि १९८१ के पूर्व तक नन्दलाल बसु के बनाये चित्रों को बिहार की प्रकृति में देखा जा सकता था । परन्तु नदियां सूख जाने से बिहार की प्राकृतिक और ग्रामीण व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है । पर्यावरण के इस संकट से ही बिहार में माओवादी बनने का संकट बना और बढ़ा है ।
पूर्व महाधिवक्ता एस.एम. काजमी ने कानपुर और इलाहाबाद में बिजली के भारी बिलों के कारण बिजली के शवदाहगृह बंद कर दिये जाने की बात रखी । कानपुर में ८० चमड़ा उद्योगों (टेनरी) का गंदा पानी प्रदूषण नियंत्रण यंत्रों से होकर गंगा में जाता है। प्रतिदिन तीन घंटे बिजली नहीं रहने से गंदा पानी सीधा गंगा नदी में मिलता है ।
झारखंड के पूर्व विधायक सरयू पांडे ने बोकारो के कचरे और सिंगरोली के ताप बिजलीघर से नदियों के प्रदूषित होने का विवरण दिया । बुन्देलखंड के वक्ताआें ने कहा कि बुन्देलखंड की नंदियां यमुना में मिलकर यमुना को जल से परिपूर्ण कर गंगा नदी को भी भरपूर पानी देती हैं । बुन्देलखंड में बीहड़ों का समरूपण कर खेती करने की परियोजना बन रही है । यदि यह योजना क्रियान्वित की जाती है तो इसका बुन्देलखंड की नदियों के साथ-साथ देश की नदियों पर भी खतरनाक प्रभाव पड़ेगा ।
डॉ. कश्मीर उप्पल के अनुसार नर्मदा घाटी विकास परियोजनाआें से लाखों हेक्टेयर वन डूब क्षेत्र में आ गया है । गांवों के कई विस्थापितों के गांवो को दो-दो तीन-तीन बार नई जमीनों पर बसाया गया है । इससे भी वनों की कटाई हुई है । सरकार के पास विस्थापितों के लिए जमीन नहीं बची है । अत: जंगल काटकर विस्थापितों के गांव बसाये जाते हैं । दूसरी ओर वनों को काटने की सरकारी नीति के कारण वन क्षेत्र बहुत कम रह गया है । इससे सतपुड़ा से निकलने वाली सैकड़ों छोटी नदियां सूखकर बरसाती नाला बन गई है । हम सौभाग्यशाली है कि हमारे देश में ग्लेशियरों का काम हमारे वन कर रहे है ।

जनजीवन

लवासा परियोजना : एक परम्परागत निर्णय
चिन्मय मिश्र

लवावा परियोजना को केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा मिली पर्यावरणीय स्वीकृति ने मंत्रालय के इस रिकार्ड को बनाए रखने में मदद की है जिसमें कि इसके गठन के पश्चात् से आज तक एक भी परियोजना को पर्यावरणीय स्वीकृति न मिलने पर रद्द नहींकिया गया है ।
वर्ष २००२ में पर्यावरण विभाग की स्वीकृति से इस पहाड़ी शहर का निर्माण प्रारंभ हुआ था। लेकिन पर्यावरणीय मापदंडों पर खरा न उतरने पर यहां निर्माण पर रोक लगा दी गई थी । पन्द्रह दिन पूर्व महाराष्ट्र सरकार ने लवासा कारपोरेशन के प्रमोटरों सहित १५ व्यक्तियों पर पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम के उल्लघंन को लेकर मामला भी दर्ज कर लिया था । तब यह सोचा गया था कि इससे लवासा पर दबाव बढ़ेगा लेकिन स्वीकृति पत्र से मालूम पड़ा कि यह तो स्वीकृति दिए जाने की एक पूर्व शर्त थी ।
इसका एक अर्थ यह निकलता है कि महाराष्ट्र सरकार की निगाह में किया गया कानून का उल्लघंन केन्द्र सरकार के लिए चरित्र प्रमाणपत्र है । यानि इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि न्यायालय में चार्जशीट दाखिल हो जाने के बाद आरोपी जमानत का हकदार हो जाता है । ठीक इसी तरह प्रथम दृष्टया कानून का उल्लघंन का दोषी पाए जाने के बाद लवासा को दंडित नहीं बल्कि पुुरस्कृत किया जा रहा है । हम सब पिछले एक दशक से जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम देख और भुगत रहे है लेकिन भारत सरकार शायद यह मान बैठी है कि हमारा देश इससे अप्रभावित ही रहेगा ।
दरअसल भारत के वन व पर्यावरण मंत्रालय के गठन की प्रक्रिया के दौरान ही शायद यह विचार आत्मसात कर लिया गया था कि इस मंत्रालय का कार्य विरोध की आग को ठंडा करना है । तभी तो जैसे ही स्थानीय व्यक्ति और संगठन परियोजना में कानूनों में उल्लघंन के मामले को लेकर सड़क पर उतरते है, मंत्रालय एकदम से जनहितैषी की भूमिका में प्रोएक्टिव होकर सामने आता है और हम सबको लगने लगता है कि जैसे देश मंे लोकतंत्र अभी भी सक्रिय है । मंत्रालय की कार्यवाही से कमोवेश आशान्वित होकर लोग अपने रोजमर्रा के कामों यानि जीविका उपार्जन में लग जाते हैं और कुछ महीनों बाद एक दिन अचानक हमें मालूम पड़ता है कि पर्यावरण मंत्रालय ने परियोजना को सशर्त अनुमति दे दी है ।
ऐसा हम नर्मदा घाटी पर बन रहे महेश्वर बांध के मामले में भी देख चुके हैं । अनुमति देते हुए घडियाली आंसू रोते हुए तत्कालीन पर्यावरण एवं वन मंत्री ने कहा था कि वे भारी मन से इस परियोजना को अनुमति दे रहे हैं, क्योंकि उन पर अत्यधिक दबाव था । वैसे शरद पवार द्वारा पेट्रोल के दाम बढ़ाने के मामले में यूपीए सरकार का समर्थन करना और पर्यावरण को लेकर आया यह पारम्परिक निर्णय क्या महज संयोग है ? यदि ऐसा हो तो इसे सुखद ही माना चाहिए । वैसे खाद्य आपूर्ति मंत्री ने अगले १५ दिनों में चीनी के निर्यात के मामले पर भी पुन: विचार करने की बात कही है ।
दरअसल भारतीय राजनीति अब उस दौर में पहुंच गई है जिसमें उसने विश्वसनीयता की फिक्र करना ही छोड़ दी है । लवासा सिटी की बात के चलते हमें महाराष्ट्र के ही आदर्श हाउसिंग सोसायटी के मामले में हो रही लेट लतीफी और अब सूचना के अधिकार कानून के अन्तर्गत जानकारी देने मेंहो रही ना-नुकुर इस मामले के भविष्य को हमारे सामने स्पष्ट रूप से ला रही है । ३००० करोड़ रूपए की लवासा परियोजना अपने प्रारंभ से ही विवादों के घेरे में रही है और उच्च् न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद लग रहा था कि अब गाड़ी पटरी पर आ सकती है । लेकिन इस बार भी निराशा ही हाथ लगी ।
पर्यावरण मंत्रालय ने अपने स्वीकृति पत्र में कुल ५३ शर्ते लगाई हैं । साथ ही ५ प्रतिशत धन महाराष्ट्र सरकार के पास जमा करने का कहा है । इसका उपयोग महाराष्ट्र सरकार तब कर सकेगी जबकि लवासा कॉरपोरेशन पर्यावरण पुर्नस्थापना कार्य करने में असफल रहेगी । यहां भी उसकी जिम्मेदारी एक तरह से महज नकद भुगतान तक सीमित कर दी है । यदि लवासा कॉरपोरेशन पर्यावरणीय शर्ते पूरी नहीं करता है तो भी अब उसे प्राप्त् निर्माण स्वीकृति को रद्द नहीं किया जा सकता क्योंकि महाराष्ट्र सरकार के पास निश्चित धनराशि जमा करा देगी । इससे साफ जाहिर होता है कि पर्यावरण मंत्रालय की रूचि पर्यावरण संरक्षण के अलावा अन्य सभी में है । वरना उसे सर्वप्रथम तो पुन: निर्माण प्रारंभ करने की अनुमति ही नहीं देनी थी और यदि दे ही दी थी तो इसके साथ यह शर्त लगानी चाहिए थी कि पर्यावरण पुर्नस्थापना कार्य का निरीक्षण करने के लिए एक जनसमिति का गठन किया जाएगा और यदि यह समिति पाती है कि उपरोक्त कार्य नियमानुसार नहीं हो रहा है या हुआ है तो दी गई स्वीकृति स्वमेव निरस्त मानी जाएगी और किया जा चुका निर्माण तत्काल प्रभाव से अवैध घोषित होकर नष्ट कर दिया जाएगा ।
लेकिन नई पर्यावरण मंत्री ने बहुत ही नजाकत और नफासत से पर्यावरणीय प्रभाव संबंधी सारी जिम्मेदारियां अपने ही सहयोगी यानि महाराष्ट्र सरकार के सिर पर लाद दीं । यह निर्णय हम सबको एक बार पुन: सोचने पर मजबूर कर रहा है कि विरोध का स्वरूप क्या हो और अंतिम निर्णय आने तक हम समुदाय को किस तरह से जोड़े रख सकते हैं ? कुडनकुलम परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे जनसमुदाय ने संभवत: इस सरकारी चालाकी को कुछ हद तक समझा है । तभी तो उन्होनें प्रधानमंत्री से मिले आश्वासनों के बावजूद अपना संघर्ष नहीं रोका । प्रधानमंत्री ने इसकी सुरक्षा की सुनिश्चितता बताने के लिए एक उच्च्स्तरीय समिति का गठन भी कर दिया है । लेकिन लोगों को यदि प्रधानमंत्री के आश्वासन पर भी भरोसा नहीं हो रहा है तो यह एक गंभीर रजानीतिक संकट है और यूपीए गठबंधन को अपनी नीतियों और कार्यप्रणाली का पुन: मूल्यांकन करना चाहिए ।
जहां तक पर्यावरण व वन मंत्रालय का प्रश्न हे वह नर्मदा घाटी परियोजनाआें सहित अनेक परियोजनाआें जिसमें उड़ीसा की मलकानगिरि आदि में खनन जैसी परियोजना शामिल है, से पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन के लिए विशेषज्ञों की अनेक समितियों का गठन करती रही है । अधिकांश मामलों में विशेषज्ञों ने जो रिपोर्ट दी हैं जिसमें नर्मदा घाटी परियोजनाआें को लेकर देवेन्द्र पांडे समिति की रिपोर्ट भी शामिल है, ने भारी अनिमितताआें एवं पर्यावरणीय कानूनों के उल्लघंन की बात करते हुए इन पर तुरन्त प्रभाव से रोक लगाने की अनुशंसा की थी । लेकिन पर्यावरण मंत्रालय ने अधिकांश मामलों में इन रिपोर्टो को मानने से इंकार कर, निर्माण, खनन व अन्य पर्यावरणीय विनाश के कार्यो को चलते रहने देने की अनुमति दे दी ।
कबीर कहते है कि संतों, जागत नींद न कीजैं । परन्तु हमारे भाग्य नियंता आंख खोले सो रहे हैं और जितना भी पर्यावरण विनाश वे अपने जीवनकाल में करवा सकते है उसके पीछे प्राण प्रण से लगे हैं । कर्नाटक में बेल्लारी का मामला अभी ठंडा हुआ ही नहीं था कि मध्यप्रदेश के सतना जिले के जंगलों से अवैध खनन का बड़ा मामला सामने आया है जिसमें राज्य के दो मंत्रियों की संलिप्त्ता बताई जा रही है । लेकिन बरसों बरस कुछ नहीं होगा । जनता में से कोई एढ़ी-चोटी का जोर लगाकर मामले को अदालत तक ले जाएगा और हमारे पर्यावरण एवं वन मंत्रालय सफेद हाथी की तरह देश-विदेश में हो रहे सेमिनारों में अपने देश का पक्ष भर रखकर जबानी जमा खर्च करते रहेंगे ।
लवासा कॉरपोरेशन को दी गई अनुमति वास्तव में भारतीय जनता की सेाच की व्यावहारिकता सिद्ध करती है क्योंकि वह इस संघर्ष के प्रारंभ से ही जानती थी कि इसका अंत क्या होगा । वैसे जनता चाहे तो अंत अपने अनुरूप भी करवा सकती है । लवासा सिटी के मामले में जनआकांक्षा की अवहेलना भारतीय पर्यावरण और भारतीय राजनीति पर भारी पड़ सकती है ।

स्वास्थ्य

खाद्य व औषधि उद्योग के संक्रामक हाथ
सुश्री विभा वार्ष्णेय

संयुक्त राष्ट्र संघ एक ऐतिहासिक पहल कर मधुमेह, हृदय रोग व कैंसर जैसी लंबी अवधि की बीमारियों पर सम्मेलन का आयोजन कर इससे निपटने की व्यूह रचना तैयार करना चाहता है । लेकिन दवाई एवं भोजन उद्योग इस पहल पर पानी डालना चाहते हैं । कुछ अमीर देश भी इस प्रयास में उनकी सहायता कर रहे हैं । देखना होगा कि इसमें किसकी जीत होगी ।
विश्व में मृत्यु के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी अंसक्रामक रोगों (एनसीडी) से निपटने के लिए विश्व के नेता १९ और २० सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यूयार्क स्थित मुख्यालय में एकत्रित ह्ुए थे । इसी के समानांतर औषधि एवं खाद्य (भोजन) उद्योग एवं कुछ अमीर देश इस पहल को कमजोर करने मेंभी जुट गए हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ के इतिहास में यह दूसरा मौका है जबकि वह स्वास्थ्य के एक मुद्दे, असंक्रामक रोगों पर जिसका महत्वपूर्ण सामाजिक - आर्थिक प्रभाव है, पर सभा का आयोजन कर रही है । इसके पहले वह एचआईवी/एड्स पर इस तरह का सम्मेलन आयोजित कर चुकी है । फोरम की रिपोर्ट का कहना है कि यह वैश्विक अर्थव्यवस्था पर दूसरा सबसे बड़ा खतरा है । भारत जैसे निम्न एवं मध्यम आय देश जो कि इन लंबी बीमारियों से निपट पाने में असमर्थ हैं, ने इस सम्मेलन से बहुत आस लगा रखी है । अगर ये बीमारियां वैश्विक प्राथमिकता बन जाती हैं, तो विश्व नेता इस संबंध में समन्वयकारी ढंग से निपटने में तदोपरांत प्रतिबद्धता दर्शाएंगे और वित्तीय सहायता भी प्रदान करेंगे ।
संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हेतु सलाह मशविरा करते हुए इसकी स्वास्थ्य इकाई विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) ने राष्ट्रों से इन बीमारियों की व्यापकता, राष्ट्रीय योजना और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से की जा रही उम्मीदों पर विचार विमर्श किया । इस संबंध में अप्रैल में मास्को में वैश्विक मंत्री स्तरीय बैठक आयोजित कर असंक्रामक रोगों से संबंधित जानकारियों को और पुख्ता किया गया । इस संबंध में नागरिक समूहों, स्वास्थ्य विशेषज्ञों और रोगी समूहों से भी विमर्श जारी है ।
हितों में टकराव - मास्को में हुई मंत्रीस्तरीय बैठक में निम्न और मध्य आय वर्ग देशों में इन बीमारियों से निपटने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कोष बनाने की इच्छा व्यक्त की । विश्वभर में असंक्रामक कोष बनाने की इच्छा व्यक्त की । विश्वभर में असंक्रामक रोगों से प्रतिवर्ष होने वाली ३.५ करोड़ मौत में से ८० प्रतिशत इन्हीं देशों में होती हैं । परन्तु सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ सुनिश्चित नहीं हैं, कि औद्योगिक लॉबी के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ सम्मेलन में कोष स्थापना की मांग चर्चा में आ भी पाएगी या नहीं । मंंत्रियों की बैठक के पश्चात डॉक्टरों के समूहों, रोगी समूहों और औषधी उद्योग जैसे द लांसेट एनसीडी एक्शन गु्रप, और एनसीडी एलायंस ने एक सभा का आयोजन कर संयुक्त राष्ट्र संघ को एक ज्ञापन देकर वैश्विक कोष की आवश्यकता का विरोध किया । अपने ज्ञापन में उन्होनें कहा है कि आर्थिक समस्या का समाधान वर्तमान संसाधनों के प्रभावशाली उपयोग एवं नवाचार लिए हुई वित्तीय प्रणाली के माध्यम से हो सकता है । उनका मत है कि सं.रा. संघ बजाए उपचार के जागरूकता फैलाने एवं स्वास्थ्यकर जीवनशैली अपनाने की वकालत कर इन बीमारियों को रोकने पर स्वयं को केन्द्रित करे ।
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का मत :-
ख़मानसिक स्वास्थ्य, मिर्गी, मुंह की बीमारी और चोटों को भी इनमें शामिल करें ।
ख़ स्वास्थ्यकर भोजन पर सब्सिडी दी जाए ।
ख़ इस कार्यक्रम हेतु अल्कोहल, तम्बाखू एवं अस्वास्थ्यकर भोजन पदार्थो पर कर लगाकर धन उपलब्ध करवाया जाए ।
ख़ नियंत्रण की रणनीति बनाने हेतु अन्य मंत्रालयों को भी शामिल किया जाए ।
ख़ उपचार को आम आदमी की हद में लाया जाए ।
उनके (उद्योग) ज्ञापन से लगता है कि वे उद्योग के हित की रक्षा कर रहे है । यह बात इस तथ्य से भी उभरकर आती है कि इन समूहों के गठबंधन को औषधि उद्योग से धन प्राप्त् होता है । उदाहरण के लिए एनसीडी अलायंस में चार रोगी समूह है और सभी को औषधि कंपनियों से मदद मिलती है । इनमें एक समूह अंतर्राष्ट्रीय डायबिटिक फेडरशन लिली, नोवो नोर्डिक्स, सनोफी एवेंटिस, अब्बॉट डायबिटिक केयर, मॅर्क, एवं फाइजर जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साझेदार है ।
उद्योग की इस दबी-छुपी गतिविधि के पीछे के कारण को समझाते हुए थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क के के. गोपालकुमार कहते है औषधि उद्योग सम्मेलन को असंक्रामक रोगों के उपचार के बजाए उसकी रोकथाम पर इसलिए एकाग्र करना चाहता है जिससे कि वह औषधियों के मूल्यों में कमी एवं अनिवार्य लायसेंस से स्वयं की रक्षा कर सके । मंत्रियों की बैठक के दौरान भी उद्योग के दबाव को महसूस किया गया । पेप्सी को, कोका कोला, नेसले, दि वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ एडवरटाजर्स, और इंटरनेशनल फूड एण्ड बेवरीज (आईएफबीए) जैसे निगमों ने भी इस बैठक में भागीदारी की थी ।
खाद्य एवं पेय से संंबंधित कार्य समूह की अध्यक्षता कोका कोला के एक प्रतिनिधि ने की थी । आइएफईबी के प्रतिनिधि ने सुझाव दिया कि उद्योग भोजन को पुन: सूत्रबद्ध करने हेतु स्वैच्छिक स्वनियमन करे । उदाहरण के लिए इनमें नमक एवं चिकनाई जैस पदार्थो में कमी लाएं, जिम्मेदार विज्ञापनों में वृद्धि करें और बीमारी एवं स्वास्थ्यकर जीवनशैली के संबंध मेंजागरूकता कायम करने हेतु सरकारी एवं गैर सरकारी एजेंसियों की मदद करने जैसे सुझाव दिये गए हैं । परन्तु तथ्य बताते है कि उद्योग का स्वनियमन काम नहीं आता । अतएव सरकारी नियंत्रण ही एकमात्र हल है ।
अलायंस अगेंस्ट कनफ्िलक्ट ऑफ इंटररेस्ट के संयोजक अरूण गुप्त का कहना है ऐसी कंपनियों जो कि स्वयं ही असंक्रामक रोग फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं, जैसे कि नेसले, जो कि माँ के दूध के विकल्प के रूप में बच्चें के खाद्य (बेबी फूड) को प्रोत्साहित करती है, को इस तरह की सभाआें मेंे आमंत्रित ही नहीं किया जाना चाहिए । इस बात के भी प्रमाण हैं कि शिशुकाल में स्तनपान से इन बीमारियों से सुरक्षा प्राप्त् होती है क्योंकि इससे शरीर में नमक कम मात्रा में पहुंचता है । परन्तु विश्व स्वास्थ्य संगठन की उद्योग पर निर्भरता के प्रमाण डायरेक्टर जनरल मार्गरेट चान द्वारा सभा के अंत में की गई टिप्पणियों से साफ नजर आते हैं जिसमें उन्होनें बार-बार निजी क्षेत्र की बढ़ती भूमिका और उनके माध्यम से धन प्रािप्त् पर जोर दिया । असंक्रामक रोगों को वैश्विक प्राथमिकता देने पर भी राष्ट्रों के बीच में मतभेद हैं ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक हेतु मसौदा अब विभिन्न सरकारों द्वारा अपनी टिप्पणी देने के लिए जारी कर दिया गया है । अमेरिका, कनाडा और यूरोपियन यूनियन द्वारा की गई टिप्पणियों के समय पूर्व लीक हो जाने से पता लगा है कि वे असंक्रामक रोगों के लिए महामारी शब्द के उपयोग से खुश नहीं है । वे इसे अत्यधिक वृद्धि या तेजी से बढ़ती से बदलना चाहते हैं । चिकित्सकों के एक अंतर्राष्ट्रीय समूह यंग प्रोफेशनल क्रॉनिक डिसीज नेटवर्क के अरिया इल्याड अहमद का कहना है ऐसा शायद संसाधनोंको उपलब्ध करवाने संबंधी मसलों, ट्रिप्स के लचीलेपन का प्रयोग, समयबद्ध लक्ष्य प्रािप्त् में कमी और ठीक से देखभाल न हो पाने के कारण हो रहा है ।

पक्षी जगत

कहां गए जटायु के वंशज
डॉ. महेश परिमल

किसी को ठिकाने लगाना, यह एक मुहावरा हो सकता है, पर सच तो यह है कि यह बहुत ही मुश्किल काम है । दुनिया में हर रोज़ सैकड़ों मौतें होती है, कुछ प्रकृति के नियम के अनुसार, तो कुछ प्रकृति के विरूद्ध जाकर । जिस तरह मौत एक सच्चई है, उसी तरह लाशों का ठिकाने लगाना भी एक शाश्वत सत्य है । मगर लाशों को ठिकाना ऐसे ही नहीं मिल जाता । उन्हें ठिकाने लगाने का काम जटायु के वंशज करते हैं ।
आज भी जब कभी हम आसमान पर गिद्ध के झंुड देखते हैं, तो समझ जाते हैं कि कहीं कोई मृतदेह है, जिसका भोज वे सब मिलकर कर रहे हैं । पर अब ऐसा दृश्य कभी-कभी ही दिखाई देता है, क्योंकि आज जटायु के उन वंशजों के हाल बुरे हैं ।
हमारी आंखों के सामने ही जटायु के वंशज लुप्त् जा रहे हैं, हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं । हममें से ही एक डॉक्टर विभु प्रकाश के अथक प्रयासों से इस प्रजाति के अंडों को सहेजकर रखा गया, अब उनमें से बच्च्े आ गए हैं और वे खुशी-खुशी बढ़ रहे हैं । ये चूजे हम सबके लिए आशा की किरण बनकर आए हैं ।
किसी गांव में किसी किसान का बैल मर जाए, या किसी की भैंस मर जाए, तो उसे जंगल में ऐसे ही फेंक दिया जाता है । बहुत ही दूरदृष्टि रखने वाले गिद्ध को इसकी जानकारी सबसे पहले मिलती है । मृतदेह को देखने के बाद ये गिद्ध बहुत ऊपर जाकर एक विशेष प्रकार की ध्वनि निकालते हैं, इससे आसपास के ही नहीं, बल्कि बहुत दूर-दूर के गिद्धों को पता चल जाता है कि कही कोई मृतदेह है, जिसे ठिकाने लगाना है । बस थोडी ही देर में लाश ठिकाने लग जाती है । इससे यह कहा जा सकता है कि प्रकृति ने गिद्ध को पर्यावरण का रक्षक बनाकर हमारे पास भेजा है, जो मृतदेहों को कुछ ही देर में सफाचट कर देते हैं । पर्यावरण के ये रक्षक ही आज हमारे समाज से सफाचट होने लगे है ।
गिद्धों की संख्या में लगातार कमी आ रही है, पर्यावरणविदों को इसकी जानकारी सबसे पहले तो पारसियों के माध्यम से मिली । पारसियों में यह परम्परा है कि मृतदेह को वे न तो दफनाते हैं और न ही जलाते हैं । वे मृतदेहों की जाली लगे विशेष प्रकार के कुंए में रख देते हैं, जिसे टॉवर ऑफ साइलेंस या दखमा कहा जाता है । इनसे होता यह है कि गिद्ध उस मृतदेह को कुछ ही देर में सफाचट कर देते हैं । मुम्बई, सूरत, उदवाड़ा, नवसारी, अहमदाबाद आदि शहरों में इस तरह के स्थान हैं । जब इन स्थानों में गिद्ध कम आने लगे, तो पारसियों को आशंक हुई कि किसी ने किसी वजह से गिद्धों की संख्या में अचानक कमी आ गई है । तब उन्होनें इसकी सूचना पर्यावरणविदों एवं अन्य वैज्ञानिकों को दी ।
गिद्धों की संख्या लगातार तेजी से कम होने का एक मुख्य कारण यह भी है कि पशुआें का डाइक्लोफिनेक नामक दर्द निवारक दवाई दी जाती है । यह पशुआें में सूजन कम करने के लिए दी जाती है । कई देशों में इसके स्थान पर मेलॉक्सिकेम का इस्तेमाल किया जा रहा है । हमारे देश में भी यह दवा आ गई है, किन्तु इसकी कीमत लगभग दुगनी होने के कारण इसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है ।
सरकार ने दो वर्ष पूर्व ही कहा था कि डाइक्लोफिनेक का इस्तेमाल छह माह के अंदर ही बंद कर दिया जाएगा । इसके बाद भी यह दवा हमारे देश में खुले आम बिक रही है । अब देखें कि यह दवा गिद्धों को किस तरह से प्रभावित कर रही है । हमारे गांवों में जब भी किसी जानवर की मौत इलाज के दौरन हो जाती है, तब उसे यूं ही जंगल में फें क दिया जाता है । गिद्ध इसकी लाश को खाते हैं और अनजाने में ही यह डाइक्लोफिनेक उनके शरीर में प्रवेश कर जाती है । दो दिन बाद ही उन गिद्धों की मौत हो जाती है, क्योंकि उक्त दवा से गिद्धों की किडनी काम करना बंद कर देती है । मेलॉक्सिकेम के इस्तेमाल से गिद्धों को कोई नुकसान नहीं होता ।
गिद्धों की संख्या कम होने के कारण आज पशुआें की लाशें सड़कर दुर्गन्ध फैलाती है । उनमें से टीबी, एंथ्रेक्स आदि रोग फैलाने वाले विषाणु पैदा होते हैं । ये विषाणु मानव शरीर में घुसकर अन्य कई रोग पैदा करते हैं ।
जब हमारे देश में कड़ाके की ठंड पड़ती है, तब कुछ सैलानी पक्षियों का आगमन होता है । इनमें गिद्ध की कुछ प्रजातियां भी शामिल होती है । जब इन पक्षियों का यहां से जाना हुआ, तब इंग्लैण्ड की रॉयल सोसायटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बड्र्स और बड्र्स लाइफ इंटरनेशनल जैसी संस्थाआें का ध्यान इस ओर गया । १९९९ में इन संस्थाआें ने भारत सरकार का ध्यान इस दिशा में दिलाया । लेकिन इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया । भारत सरकार की इस उदासीनता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने गिद्धों के संरक्षण के लिए डेढ़ लाख पाउण्ड की सहायता की । इस राशि से हरियाणा के पिंजोर प्रजनन केन्द्र में पक्षी विशेषज्ञों ने गिद्धों के संरक्षण और उसकी वंशवृद्धि के लिए काम शुरू किया । लगातार काम के सकारात्मक परिणाम सामने आए । वैज्ञानिकों को विश्वास था कि उनके भागीरथ प्रयासों का असर कुछ वर्षो बाद ही दिखाई देगा, किन्तु प्रकृति को मनुष्यों पर दया आ गई । पिछले साल ही एक मादा गिद्ध ने एक अंडा दिया, जिसकी खूब देखभाल की गई । इससे कुछ गिद्धों का जन्म हुआ । गिद्धों की संख्या को बढ़ाने में यह प्रयास एक मील का पत्थर साबित हुआ है ।
हमारे आसपास न जाने कितने पक्षी ऐसे हैं, जो प्रकृति की गोद में ही रहकर अपनी वंशवृद्धि करते हैं । गिद्ध भी इसी स्वभाव का पक्षी है । वह आम तौर पर बंद अवस्था में प्रजनन नहीं करता । प्रजनन केन्द्र के प्रभारी डॉ. विभु प्रकाश का इस संबंध में कहना है कि मादा गिद्ध ने अंडे दिए, इसका आशय यही हुआ कि हम उनकी वंशवृद्धि के लिए अनुकूल वातावरण केन्द्र में ही उपलब्ध करा पाए है । इससे यह कहा जा सकता है कि भविष्य में हम गिद्धों की संख्या बढ़ाने में योगदान दे सकते हैं ।

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

कृषि जगत

जी.एम. फसलों को रिझाता नया कानून
भारत डोगरा

प्रस्तावित बायोटेक्नॉलॉजी अथॉरिटी ऑफ इंडिया कानून (ब्राई) के माध्यम से केन्द्र सरकार एक ओर मानव पशु स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के साथ घातक खेल खेलना चाह रही है वहीं दूसरी ओर इस विषय में राज्य सरकारों के अधिकारों का अतिक्रमण कर वह देश के संघीय ढांचे से भी छेड़-छाड़ का प्रयास कर रही है आवश्यकता इस बात की है कि इस काननू को संसद में प्रस्तुत करने से पहले व्यापक विचार-विमर्श हो और सरकार जी.एम. फसलों की पक्षधरता से बाज आए
हाल के वर्षो में विश्वस्तर पर निरन्तर नए समाचार मिलते रहे हैं कि जी.एम. (जेनेटिकली मोडीफाईड) फसलें कितनी खतरनाक हैं इसके बावजूद केन्द्र सरकार संसद में शीघ्र ही बॉयोटेक्नालाजी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ब्राई) कानून २०११ प्रस्तुत करने जा रही है, जिससे भारत में जी.एम. फसलों के तेज प्रसार का खतरा पहले की अपेक्षा और बढ़ जाएगा हालांकि ऐसे विधेयक से उम्मीद तो यह थी कि जी.एम.फसलों के गंभीर खतरों की विश्वस्तर पर व्यापक स्वीकृति के दौर में वह जी.एम. तकनीक के प्रसार को कड़े नियंत्रण में रखेगा परन्तु वास्तव में वह इससे विपरीत दिशा में जा रहा है जी.एम. फसलों संबंधी निर्णय की प्रक्रिया में केन्द्रीकरण गोपनीयता को बढ़ा कर जी.एम.फसलों को अधिक छूट देने ऐसे निर्णय में कॉरपोरेट निहित स्वार्थो के हावी होने की संभावना को बढ़ा रहा है
पिछले वर्ष बी.टी. बैंगन पर लगी रोक में पर्यावरण मंत्रालय की महत्वपूर्ण भूमिका थी चूंकि जी.एम. फसलों से सर्वाधिक खतरे पर्यावरण स्वास्थ्य संबंधी हैं अत: यह निर्णय प्रक्रिया पर्यावरण मंत्रालय या स्वास्थ्य मंत्रालय के आधीन ही रहनी चाहिए थी पर अब यह बिल विज्ञान तकनीक मंत्रालय द्वारा लाया जा रहा है जबकि यह मंत्रालय तो जी.एम.फसलों पर अनुसंधान बढाने उसे आर्थिक सहायता देने से जुड़ा रहा है
बी.टी. बैंगन विवाद के दौरान यह स्पष्ट हो गया था कि अनेक राज्य सरकारें जी.एम.फसलों के विरूद्ध है पर ब्राई २०११ विधेयक इस प्रक्रिया में राज्य सरकारों की भूमिका का कम करता है अब उनकी भूमिका केवल सलाहकार की हो गई है जबकि निर्णायक शक्ति को केन्द्र सरकार उसके विज्ञान तकनीक मंत्रालय मेंकेन्द्रीकृत किया गया है इतना ही नहीं, निर्णय प्रक्रिया में गोपनीयता बढ़ाई गई है पारदर्शिता कम की गई है इस प्रयास पर सही समझ बनाने के लिए जी.एम. तकनीक को भारतीय कृषि में तेजी से बढ़ाने के समय प्रयासों से संबंधित एक खतरनाक कदम के रूप में देखना चाहिए
हाल के समय में भारत में जी.एम. फसलों के प्रयोगों अनुसंधान ने बहुत जोर पकड़ा है नियमों की अवहेलना करते हुए कई जी.एम.फसलों के खुले खेतों में परीक्षण इस तरह हो रहे हैं, जिससे आसपास की सामान्य फसल में जेनेटिक प्रदूषण का खतरा बहुत बढ़ जाता है नवीनतम आंकड़ों के अनुसार लगभग १४ फसलों पर खेतों में परीक्षण हो रहे हैं तो अन्य तरह के जी.एम.फसल संबंधी अनुसंधान प्रयोग ७४ फसलों पर हो रहे हैं इस तरह हमारी लगभग सभी महत्वपूर्ण खाद्य फसलें किसी किसी स्तर पर जी.एम.फसलों के अनुसंधान क्षेत्र में रही है
फरवरी २०१० में जब बी.टी. बैंगन के व्यापारिक स्तर की रिलीज की स्वीकृति देने से पर्यावरण मंत्री ने मना किया था इस पर प्रतिबंध लगा दिया था तो उस समय उन्होनें एक विस्तृत नोट में बहुत वाजिब कारण बताए थे कि ऐसी खाद्य जी.एम.फसल को स्वीकृति क्यों नहीं दी सकती लेकिन पर्यावरण मंत्रालय के इस निर्णय के बाद जी.एम.फसल के प्रसार से जुड़े स्वार्थो ने अपना प्रचार-प्रसार और तेज कर दिया उन्होंने जी.एम.फसलों संबंधी निर्णय प्रक्रियापर पर्यावरण मंत्रालय की पकड़ को ही कमजोर करना शुरू किया इसके अतिरिक्त ऐसे कानून बनवाने का प्रयास किया, जिससे जी.एम.फसल के विरूद्ध आवाज उठाने वालों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की संभावना बढ़ जाए उन्होंने सरकारी तंत्र में अपनी घुसपैठ मजबूत की अनेक राज्य सरकरों, कृषि विश्वविघालयों से ऐसे समझौते किए, जिससे बाद में जी.एम. फसलों की अनुमति मिलने पर बहुत तेजी से उन्हें प्रसारित करने की पृष्ठभूमि बन सके सरकारी तंत्र में जी.एम.फसलों के अनुकूल माहौल बनाया जा सके
जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त् की गई फसलों का मनुष्यों सभी जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जी.एम.फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक जेनेटिक रूलेट् (जुआ) के ३०० से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है जी.एम. फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याआें का वर्णन है
यूनियन ऑफ कन्सर्नड साइंर्टिस्टस नामक वैज्ञानिकों के संगठन ने कुछ समय पहले अमेरिका में कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग के उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि यह असुरक्षित हैं तथा इनसे उपभोक्ताआें, किसानों पर्यावरण को कई खतरे है
जब भारत में बी.टी. बैंगन के संदर्भ में इस विवाद ने जोर पकड़ा तो विश्व के १७ विख्यात वैज्ञानिकों ने भारत के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई पत्र में कहा गया है कि जी.एम. प्रक्रिया से गुजरने वाले पौधे का जैव-रसायन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्वों का प्रवेश हो सकता है उसके पोषण गुण कम हो सकते हैं या बदल सकते हैं उदाहरण के लिए मक्के की जी.एम. किस्म जी.एम. एमओएन ८१० की तुलना गैर-जी.एम. मक्का से करें तो इस जी.एम. मक्का में ४० प्रोटीनों की उपस्थिति महत्वपूर्ण हद तक बदल जाती है जीव - जंतुआें को जी.एम. खाद्य खिलाने पर आधारित अनेक अध्ययनों से जी.एम. खिलाने पर आधारित अनेक अध्ययनों से जी.एम. खाद्य के गुर्दे(किडनी), यकृत (लिवर) पेट निकट के अंगों (गट), रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) पर नकारात्मक स्वास्थ्य असर सामने चुके हैं
यह ध्यान में रखना बहुत जरूरी है कि जी.एम.फसलों का थोड़ा बहुत प्रसार परीक्षण भी बहुत घातक हो सकता है मूल मुद्दा यह है कि इनसे जो सामान्य फसलें हैं वे भी दूषित हो सकती है जेनेटिक प्रदूषण बहुत तेजी से फैल सकता है इस कारण जो क्षति होगी उसकी भरपाई नहीं हो सकती है। यदि एक बार जेनेटिक प्रदूषण फैल गया तो दुनिया भर में अच्छी गुणवत्ता सुरक्षित खाद्यों का जो बाजार है तथा जिसमें फसलों की बेहतर कीमत मिलती है, वह हमसे छिन जाएगा
जेनेटिक प्रदूषण से जी.एम. फसलें उन अन्य किसानों के खेतों को भी प्रभावित कर देंगी, जो सामान्य फसलें उगा रहे हैं इस तरह जिन किसानों ने जी.एम.फसलें उगाने से साफ इंकार कर दिया है, उनकी फसलों पर भी इन खतरनाक फसलों का असर हो सकता है