सोमवार, 18 फ़रवरी 2019



प्रसंगवश
देश में महिला-पुरूष वेतन में बड़ा अंतर
दुनियाभर में महिलाएं घर संभालने सेलेकर बच्चें की देखभाल करने तक, ऐसेअनेक काम करती हैं जिनके बदले उन्हें पैसेनहीं मिलते। पैंसेमें देखा जाएं तोउनके काम की कीमत ७०० लाख करोड़ रूपए  होती है । यह एपल  के सालाना रेवेन्यू का ४३ गुना है । ऑक्सफैम ने पिछलेदिनोंजारी स्टडी रिपोर्ट में यह जानकारी दी । भारत के बारेमें इसनेकहा कि शहरी महिलाएं रोजाना ३१२ मिनट और गांवों में २९१ मिनट अवैतनिक काम करती है । शहरों में पुरूष २९ मिनट और गावों में ३२ मिनट ऐसेकाम करतेहैं जिनके उन्हें पैसेनहीं मिलते। महिलाआें का अवैतनिक काम ६ लाख करोड़ रूपए यानी जीडीपी के ३.१ प्रतिशत के बराबर है । यह अंतर अमीरों में भी दिखता है । भारत के ११९ अरबपतियों में सिर्फ ९ महिलाएं है । 
ऑक्सफैम ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की पिछले साल की रिपोर्ट केहवाले से बताया है कि भारत मेंमहिला-पुरूष के वेतन में ३४ प्रतिशत अंतर है । जेंडर गेप इंडेक्स में भारत को १०८वें नंबर पर रखा गया है । २००६ की तुलना में भारत १० पायदान नीचे आया है । घर-परिवार की देखभाल करना महिलाआें का मुख्य काम माना जाता है । पैसे कमाना प्राथमिकता में नहीं है । 
ऑक्सफैम के अनुसार भारत में महिलाआें के खिलाफ हिंसा रोकने के अनेक कानून हैं । लेकिन उन पर अमल चुनौती हैं । वकीलों के एक समूह के १७ साल के संघर्ष के बाद २०१३ में ऑफिस में यौन प्रताड़ना के खिलाफ कानून बना । लेकिन हाल के मी-टू आंदोलन के बाद ही महिलाआें के लिए रास्ता   खुला । ज्यादातर महिलाएं अनौपचारिक क्षेत्र में  हैं । उनके सामने शोषण सहने या नौकरी छोड़ने के ही विकल्प होते हैं ।
ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर मेंमहिलाआें की तुलना में पुरूषों के पास ५० प्रतिशत ज्यादा संपत्ति है । ८६ प्रतिशत कंपनियोंके प्रमुख पुरूष ही हैं । इसलिए टैक्स में कटौती का ज्यादा फायदा पुरूषों को ही मिलता   है । वहीं, फीस के पैसे नहीं हुए तो पहले लड़कियों को स्कूल से निकाला जाता   है । 
सम्मेलन से पहले ग्लोबल टैलेंट इंडेक्स जारी किया गया । भारत इसमें एक स्थान के सुधार के साथ ८०वें स्थान पर पहुंच गया है । स्विट्जरलैंड पहले स्थान पर बना हुआ है । ४५वें नंबर पर चीन ब्रिक्स देशों में सबसे आगे हैं । 
सम्पादकीय
क्षिप्रा शुद्धिकरण में अभिनव पहल
देश के प्राचीनतम शहरों में से एक उज्जैन (उज्जयिनी) में पवित्र शिप्रा नदी को बचाने और पर्यावरण संरक्षण के लिए बड़ा कदम उठाया गया है । नदी किनारे पनौती के रूप मेंश्रद्धालुआें द्वारा छोड़े जाने वाले कपड़ों को पुर्नचक्रण कर सरकारी फाइलें और अन्य स्टेशनरी बनाने की शुरूआत हो चुकी है । खास बात यह है कि ये फाइलें और अन्य उत्पाद बाजार में मिलने वाले उत्पादों से तीन गुना सस्ते हैं । इसके साथ ही इस प्रोजेक्ट के जरिए स्व-सहायता समूहों की महिलाआें को रोजगार भी मिला है । 
यह प्रोजेक्ट नगर निगम उज्जैन ने स्वच्छ भारत अभियान के तहत शुरू किया है । यदि प्रयोग सफल हुआ तो प्रदेश के २७८ नगरीय निकायोंको फाइलों और स्टेशनरी की आपूर्ति की जाएगी । उज्जैन नगर निगम ने इससे बनी फाइलों का उपयोग शुरूकर दिया है । 
उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे और नदी मेंस्नान करने वाले हजारों श्रद्धालु पूजा-पाठ या अन्य वजहों से कपड़े छोड़ जाते हैं । इसके अलावा मंदिरों और उज्जैन स्थित दफ्तरों की पुरानी स्टेशनरी मिलाकर लगभग पांच टन इस तरह का कचरा हर महिने जमा होता है ।  
पुर्नचक्रण किए जाने योग्य कचरे को नदी से निकाल कर छोटी-छोटी कतरनों में काटा जाता है । इन कतरनों को एक मशीन में डालकर पानी के साथ दो से तीन घंटे तक चलाया जाता है और लुगदी बना ली जाती है । लुगदी को एक अन्य मशीन में डालकर पेपर शीट बनाई जाती है । पेपर शीट को प्रेसकर उसमें मौजूद पानी निकाला जाता है । फिर उसे फिनिशिंग देकर सुखा लिया जाता है । इससे फिर फाइल कवर और पेपर बैग बनाए जाते हैं । 
एक टन पुराने कपड़ों को पुर्नचक्रण कर पेपर फाइल और बैग आदि बनाने हेतु पेपर निर्माण में पर्यावरण की दृष्टि से देखे तो प्रक्रिया में लगने वाली तीन टन लकड़ी बचेगी, १०० क्यूबिक मीटर पानी बचेगा । ६ पेड़ और मिट्टी बचेगी, ऑक्सीजन भी मिलेगी । एक व्यक्ति के लिए २५ साल का पानी बचेगा ।
सामयिक
विज्ञान का मिथकीकरण
प्रदीप
पिछले दिनों १०६ वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन जालंधर  है । 
इस अधिवेशन में भी प्राचीन भारत के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की उपलब्धियों का इस तरह बखान किया गया कि वैज्ञानिक माहौल को बढ़ावा देने वाला यह विशाल आयोजन किसी धार्मिक जलसे जैसा ही रहा ! विज्ञान कांग्रेस की हर साल एक थीम होती है। इस वर्ष के  सम्मेलन की थीम थी -   फ्यूचर इंडिया : साइंस एंड टेक्नॉलॉजी । भविष्य में भारत के विकास का मार्ग विज्ञान और प्रौद्योगिकी किस प्रकार प्रशस्त करेंगे, इसकी चर्चा की बजाय प्राचीन भारत से जुड़े निरर्थक, प्रमाणहीन और हास्यास्पद छद्मवैज्ञानिक दावों ने ज्यादा सुर्खियां बटोरी । 
आंध्र विश्ववद्यालय के कुलपति और अकार्बनिक रसायन विज्ञान के जी. नागेश्वर राव ने कौरवों की पैदाइश को टेस्ट  ट्यूब बेबी और स्टेम सेल रिसर्च टेक्नॉलॉजी से जोड़ा तथा श्रीराम के लक्ष्य भेदन के बाद तुरीण में वापस लौटने वाले बाणों और रावण के २४ प्रकार के विमानों की बात कहकर सभी को चौंका दिया । तमिलनाडु के वर्ल्ड कम्यूनिटी सेंटर से जुड़े शोधकर्ता कन्न जोगथला कृष्णन ने तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धान्त को ही खारिज करते हुए कहा कि उनके शोध में भौतिक विज्ञान के सभी सवालों के जवाब हैं । वे यहीं पर नहीं रूके ।  आगे उन्होंने कहा कि भविष्य में जब वे गुरुत्वाकर्षण के बारे में लोगों के  विचार बदल देंगे, तब गुरुत्वीय तरंगों को  नरेन्द्र मोदी तरंग  के नाम से तथा गुरुत्वाकर्षण प्रभाव को  हर्षवर्धन प्रभाव  के नाम से जाना जाएगा । 
भूगर्भ विज्ञान की प्रोफेसर आशु खोसला के द्वारा इसी भारतीय विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत पर्चे में कहा गया है कि भगवान ब्राह्म इस ब्राह्मंड के  सबसे महान वैज्ञानिक थे । वे डायनासौर के बारे में जानते थे और वेदों में इसका उल्लेख भी किया है। इतने प्रतिष्ठित आयोजन में अवैज्ञानिक और अतार्किक दावों का ये चलन २०१५ से पहले शायद ही देखा गया हो । 
हालांकि प्राचीन भारतीय विज्ञान की बखिया उधेड़ने का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। इससे पहले आम नेता-मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, और प्रधानमंत्री तक भी मिथक, अंधविश्वास और विज्ञान का घालमेल कर चुके हैं । उनके दावों के मुताबिक यदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों की भलीभांति व्याख्या की जाए, तो आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कार उसमें पाए जा सकते हैं । जैसे राडार प्रणाली, मिसाइल तकनीक, ब्लैक होल, सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वाटंम सिद्धांत, टेस्ट ट्यूब बेबी, अंग प्रत्यारोपण, विमानों की भरमार, संजय द्वारा दूरस्थ स्थान पर घटित घटनाओं को देखने की तकनीक, समय विस्तारण सिद्धांत, अनिश्चितता का सिद्धांत, संजीवनी औषधि, कई सिर वाले लोग, क्लोनिंग, इंटरनेट, भांति-भांति के यंत्रोंपकरण वगैरह । वेदों, पुराणों में विज्ञान के जिस अक्षय भंडार को स्वयं आदि शंकराचार्य, यास्क से सायण तक के वेदज्ञ, आर्यभट, वराह मिहिर, ब्राहगुप्त् और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञ-ज्योतिषी नहीं खोज पाए, उसको हमारे वैज्ञानिकों और नेताओं ने ढूंढ निकला ।  
भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसके संविधान द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए प्रतिबद्धता को प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: यह हमारा दायित्व है कि  हम अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को जवाहरलाल नेहरु ने १९४६ में अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में विचारार्थ प्रस्तुत किया था । उन्होंने इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था।
पिछले सत्तर वर्षों में हमारे देश में दर्जनों उच्च् कोटि के वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैंऔर उन्होंने हमारे देश के समग्र विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। हमारे मन में अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो रच-बस गया है, मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खिड़की से बाहर फेंक दिया है। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रामक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था । पौराणिक कथाओं को विज्ञान बताया जा रहा है।
आज यह दावा किया जाता है कि हमारे वेदों-पुराणों में परमाणु बम बनाने की विधि दी हुई है । विज्ञान समानुपाती एवं समतुल्य होता है। अगर हम यह मान भी लें कि वैदिक काल में परमाणु बम बनाने का सिद्धांत एवं अन्य उच्च् प्रौद्योगिकियां उपलब्ध थीं, तो तत्कालीन वैदिक सभ्यता अन्य सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं आविष्कारों को खोजने में कैसे पीछे रह गई ? नाभिकीय सिद्धांत को खोजने की तुलना में विद्युत या चुम्बकीकय शक्तियों को पहचानना और उन्हें दैनिक प्रयोग में लाना अधिक सरल है। मगर वेदों में इस ज्ञान को प्रयोग करने का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है। यहां तक कि इन्द्र के स्वर्ग में भी बिजली नहीं थी, जबकि आज गांव-गांव में बिजली उपलब्ध है। तकनीक की ऐसी रिक्तियां विरोधाभास उत्पन्न करती हैं । निश्चित रूप से इससे यह तर्क मजबूत होता है कि वैदिक सभ्यता को नाभिकीय बम बनाने का सिद्धांत ज्ञात नहीं था। मगर इससे हमें वैदिक ग्रंथों के रचनाकारों की अद्भभूत  कल्पना शक्ति के बारे में पता चलता है। निसंदेह कल्पना एक बेहद शक्तिशाली एवं रचनात्मक शक्ति   है । 
आज के इस आधुनिक युग में जिस प्रकार से कोई खुद को अंधविश्वासी, नस्लवादी या स्त्री शिक्षा विरोधी कहलाना पसंद नहीं करता, उसी प्रकार से खुद को अवैज्ञानिक कहलाना भी पसंद नहीं करता है। वह अपनी अतार्किक बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए मूलभूत सच्चई की नकल उतारने वाले छल-कपट युक्त छद्म विज्ञान का सहारा लेता है। आज प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जुड़े जो मनगढ़ंत और हवाई दावे किए जा रहे हैं वे छद्मविज्ञान के ही उदाहरण हैं । 
इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन भारत ने आर्यभट, भास्करा-चार्य, सुश्रुत और चरक जैसे उत्कृष्ट वैज्ञानिक दुनिया को दिए । परंतु यह मानना कि हजारों साल पहले भी भारत को विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में महारथ हासिल थी, स्वयं को महिमामंडित करने का हास्यास्पद प्रयास है । 
हमारा भूमण्डल
विश्व में विकास विकल्पों की तलाश
भारत डोगरा
विकास को उत्तरोत्तर बढ़ते उपभोग से मापने के आधुनिक दौर में समूची दुनिया पर संकट मंडरा रहा है। 
अधिकतम उपभोग के लिए अधिकतम उत्पादन की मारामारी में इंसान और इंसानियत अब अपनी समाप्ति की कगार पर पहुंच गई लगती है। ऐसे में 'ग्लोबल वर्किंग ग्रुप बियान्ड डेवेलपमेंट` की रिपोर्ट 'ऑल्टरनेटिव्स इन ए वर्ल्ड ऑफ क्राइसिस` आशा जगाती है। 
विश्व के गहराते, बहु-आयामी संकट के बीच विकल्पों की तलाश ने भी जोर पकड़ा है। इनमें से कुछ प्रयास ऐसे हैं जो पूंजीवादी ढांचों, कट्टरता व बहुत समय से फैलाए गए मिथकों से आगे जाकर विकल्पों पर विमर्श कर रहे हैं । ऐसा ही एक प्रयास विश्व के अनेक देशों के विचारकों के मिले-जुले समूह ने किया है । इस समूह का नाम है 'ग्लोबल वर्किंग ग्रुप बियान्ड डेवेलेपमेंट` (विकास से आगे की सोच का वैश्विक कार्य समूह) ।  इनके विचार व अध्ययन हाल में 'आल्टरनेटिव्स इन ए वर्ल्ड ऑफ क्राईसिस` पुस्तक में प्रकाश्ति हुए  हैं ।
पुस्तक का उद्देश्य बताते हुए उसकी प्रस्तावना में लिखा गया है - `यह पुस्तक एक सामूहिक प्रयास का परिणाम है। इसे विश्व के विभिन्न भागों के लेखकों ने लिखा है -विभिन्न सामाजिक-आर्थिक संदर्भों और राजनीतिक स्थितियों से आए कार्यकर्ताओं व विद्वानों, महिलाओं व पुरुषों ने, ऐसे लेखकों ने जिन्होंने अधिक व्यापक सामाजिक बदलाव की संभावनाओं का संदेश दिया है । उनका साझा सरोकार यह है कि नवउदारवाद के 'इतिहास के अंत` के मंत्र के बावजूद विकल्प उपलब्ध हैं और चाहे यह बहुत नजर न आएं, बहुत चर्चित न हों पर आज भी इन विकल्पों की मौजूदगी है।'` इस पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में विश्व के विभिन्न भागों की ऐसी प्रक्रियाओं के बारे में बताया गया है जिन्होंने सामाजिक हकीकत को अनेक स्तरों पर, अनेक प्रकार से बदला है। आधिपत्य के विभिन्न पक्षों को एक साथ चुनौती दी है। आधुनिक पूंजीवाद की विनाशक राह, उसकी औपनिवेशिक प्रवृत्ति, पित्तृसता और वस्तुतीकरण के विकल्प प्रस्तुत किए हैं । 
इन सामाजिक बदलावों की प्रक्रियाआें के सामने अनेक तरह के विरोध, द्वंद व चुनौतियों की स्थितियां रही हैं । इनमें आन्तरिक व बाहरी दोनों स्तरों पर बदलाव की विभिन्न सफलताएं व स्थितियां सामने आई हैं । इसके बावजूद प्रयासों की आंशिक विफलता से भी बहुत कुछ सीखने को मिला है। यह पुस्तक सामाजिक संघर्षों का रोमांटीकरण नहीं करना चाहती । इसमें प्रयास किया गया है कि प्रभावित लोगों में एक-जुटता बनाते हुए विभिन्न स्थितियों व बदलावों का ऐसा ईमानदार विश्लेषण प्रस्तुत किया जाए जिससे इन लोगों, समूहों व सामाजिक आंदोलनों, उनके बहुपक्षीय, बंधन तोड़ने वाले बदलावों का ज्ञान समृद्ध हो सके । 
आधुनिक विकास की कुछ अति प्रचलित मान्यताओं को इस अध्ययन में चुनौती दी गई है। पुस्तक में लिखा गया है - `पूंजीवादी आधुनिकता जिस सभ्यतामूलक बुनियाद पर खड़ी है उससे बहुपक्षीय संकट उत्पन्न हुआ है। यह संकट आज विश्व के सामने है। इस बुनियाद की एक मुख्य सोच थी कि सामाजिक समस्याओं के समाधान में विज्ञान और तकनीकी की विशेष व प्रमुख भूमिका है। इससे जुड़ी यह सोच भी थी कि प्रकृति पर विज्ञान व तकनीक के जरिए आधिपत्य किया जाए व प्रकृति को मात्र प्राकृतिक  संसाधनों के भंडार के रूप में देखा जाए । 
एक अन्य सोच भी थी कि मनुष्य की अच्छी व बेहतर स्थिति को, उसके विकास की भौतिक वस्तुएं एकत्र व जमा करने से जोड़ कर देखा जाए । एक सोच थी कि मनुष्य को व्यक्तिवादी, निरंतर अपने मुनाफे को बढाने वाली इकाई के रूप में देखा जाए व सामाजिक-आर्थिक संरचना में असीमित आर्थिक समृद्धि को मुख्य आधार बनाया जाए तथा जीवन के सभी पक्षों को वस्तुओं में बदलकर भौतिकवाद को हावी होने दिया जाए । इस तरह की सोच-समझ को आधार बनाने से न केवल अनेक समस्याएं उत्पन्न हुई बल्कि उनके प्रस्तावित समाधान पहले से चली आ रही समस्याओं को और भी विकट करते गए । इस तरह मौजूदा संकट एक सभ्यता का संकट माना होता गया ।
हमारा विश्व कई मायनों में आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता से जुड़े एक ऐसे बहुत तेज पर्यावरणीय विनाश के दौर से गुजर रहा है जैसा पहले कभी देखा नहीं गया । इसमें जलवायु बदलाव, मौजूदा जल स्त्रोतों का विनाश, आजीविकाओं का ह्ास, प्रदूषण, वन-विनाश व जैव-विविधता में अत्यधिक कमी सम्मिलित हैं । इस पर्यावरण विनाश से मानवता का भविष्य तक संकट में है। संसाधनों के अत्यधिक दोहन से विश्व भर में आजीविकाएं खतरे में हैं । प्रकृति निरंतर एक वस्तु में तब्दील की जा रही है। दूसरी तरफ, विश्व के अनेक संस्थान व समझौते इन समस्याओं के खोखले समाधनों की पैरवी मेंलगे हैं ।  
इस पुस्तक में विकल्पों के अब तक के उपेक्षित स्त्रोत तलाशने पर जोर दिया गया है । पुस्तक कहती है, `द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विकास के विमर्श का उपयोग पूंजीवादी सामाजिक व आर्थिक संबंधों को उपनिवेशवाद के बाद के दौर में आगे बढ़ाने के लिए बहुत असरदार ढंग से किया गया । विकास व आधुनिकी-करण को आगे बढ़ाने के नाम पर विश्व में रहन-सहन के अनेक तौर-तरीकों को पिछड़ा व पुराना बता कर नकारा गया । विश्व के जो दो-तिहाई लोग दुनिया के अपने नजरिए, अपनी संस्कृति और गरिमा की सोच के अनुसार जी रहे थे उनको ऐसे अविकसित समुदायों के रूप में दर्शाया गया जिन्हें बाहरी सहायता की जरूरत थी । 
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को किसी क्षेत्र की स्थिति का मापक बताकर विकसित व अल्पविकसित देशों में दुनिया को बांट दिया गया और इस वर्गीकरण के आधार पर दुनिया के अधिकांश लोगों को उनके अपने अनुभवों की जमीन से हटाकर दूसरों की नकल करने के लिए कहा गया । तब से उनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन पश्चिमी पूंजीवादी आधुनिकता द्वारा तय मापदण्डों के आधार पर किया जाने लगा ।
दूसरी ओर, मौजूदा पंूजीवादी विकास का ढांचा ही ऐसा है कि इसकी सीमाओं के बीच अमीर 'उत्तर` व गरीब 'दक्षिण` की दूरी को पाटा नहीं जा सकता है। इन तथाकथित अल्प-विकसित समाजों को अभिजात्यों के साम्राज्य की जरूरतों को पूरा करने व उसके बोझ सहने की भूमिका के रूप में रखा गया है। अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए व्यापक विमर्श पर आधारित इस पुस्तक ने कहा है, `विकास` के आगे विकल्प तलाशने का अर्थ यह है कि पूंजीवादी आधुनिकता ने जो सभ्यता तैयार की है, उससे आगे विकल्प तलाश करना, ऐसी सभ्यता के आगे जो आर्थिक सम्पन्नता पर केन्द्रित है, प्रकृति से विनाशकारी व संकीर्ण स्वार्थ के संबंध पर आधारित है, मानवता की व्यक्तिवादी व मुनाफा अधिकतम करने वाली सोच पर केन्द्रित है व हमें गंभीर संकट में ले आई है।`
इन स्थितियों में यह पुस्तक सार्थक सामाजिक बदलावों के लिए कुछ महत्वपूर्ण योगदान देने का प्रयास करती है। पुस्तक की मान्यता है कि बहुआयामी संकट के लिए बहुआयामी उपाय चाहिए । आज सामाजिक बदलावों को एक साथ वर्ग, नस्ल, औपनिवेशिकता, लिंग व प्रकृति के जटिल संबंधों से जुड़े अनेक प्रयास करने चाहिए क्योंकि इनके अंतर्संबंधों से ही मौजूदा सभ्यतामूलक संकट उत्पन्न हुआ है। इस पुस्तक में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के अध्ययनों के माध्यम से मौजूदा समस्याओं और संभावित विकल्पों का विश्लेषण भी किया गया है । 
विशेष लेख
गायब हो रहे हैंकिसानों के मित्र पक्षी 
डॉ. कैलाशचन्द्र सैनी
प्रकृति में सभी जीवों के विकास और जीवनयापन का आधार एक-दूसरे के संरक्षण पर आधारित है। आदिकवि वाल्मिकी द्वारा जोड़े में से एक क्रौंच पक्षी का वध कर देने पर आक्रोशित स्वर में बहेलिए को जो अभिशाप दिया उसमें भी भारतीय संस्कृति का 'जियो और जीने दो'का संदेश छिपा था जिसकी प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है। पशु-पक्षियों की प्राकृतिक दिनचर्या से मनुष्य के  नीरस जीवन में प्रसन्नता और प्रफुल्लता का संचार होता है । 
प्रकृति हमें सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाती है। पक्षी मानव समाज के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुए हैं। कृषि प्रधान भारत के पर्यावरण संतुलन में भी इनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियां पक्षियों के लिए अनुकूल होने के कारण ही इसे पक्षियों का स्वर्ग कहा गया है।
मोर, तीतर, बटेर, कौआ, शिकरा, बाज, काली चिड़िया और गिद्ध आदि को किसानों का हितैषी कहा गया है। किसानों के ये मित्र दिनों-दिन लुप्त् होते जा रहे हैं । ये पक्षी खेतों में बड़ी संख्या में कीटों को मारकर खाते हैं और किसानों का कल्याण करते हैं । यदि कीड़ों की वंश वृद्धि निर्बाध रूप से होती रहे तो कुछ ही दिनों में सारी पृथ्वी पर कीड़े ही कीड़े हो जाएं और कीड़ों के अलावा कुछ न रहे। लेकिन हमें इन पक्षियों का आभारी होना चाहिए जो इन कीड़ों को खा-खा कर इनकी अनियंत्रित वंश वृद्धि को रोक देते हैं । पक्षी  केवल कीड़ों को ही नहीं, बल्कि चूहे, सांप, छिपकली, मेढ़क आदि की वंश वृद्धि को भी नियंत्रित करते हैं । अबाबील, कठफोड़वा, सारिका और टामटिट जैसे कीटभक्षी पक्षी बहुत बड़ी संख्या में हानिकारक कीटों का संहार करते हैं । कहते हैं टामटिट एक दिन में अपने वजन के बराबर कीटों को चट कर जाता है। सारिकाओं का एक परिवार एक दिन में तीन सौ पचास से अधिक इल्लियों, बीटलों और घोघों का नाश करता है। कोयल एक घंटे में लगभग सौ रोएंदार इल्लियाँ खा जाती है जिन्हें दूसरे पक्षी नहीं खाते।
पक्षी अपने बच्चें की परव-रिश के दौरान बहुत बड़ी मात्रा में हानिकारक कीटों का सफाया कर देते हैं । केवल कीट-भक्षी पक्षी ही नहीं बल्कि सिसकिन, गोल्ड फ्रिंच, गौरैया एवं बया जैसे अनाज-भक्षी पक्षी भी अपने बच्चें को चुग्गे में पोषक कीट खिलाना पसन्द करते हैं ।  तीव्र गति से बड़े हो रहे शिशुआें के लिए काफी भोजन की आवश्यकता होती है और उनके माँ-बाप सारे दिन इसी काम को अंजाम देने में लगे रहते हैं । निरीक्षण से पता चला है कि कठफोड़वा अपने बच्चों के लिए चौबीस घंटे में करीब तीन सौ बार चुग्गा लाता है। 
फलों, फूलों और पौधों की नई-नई किस्म पैदा करने में भी पक्षी बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं । फूलचुही, बया, शकरखोरा जैसे पक्षी एक फूल का पराग दूसरे फूल में डालकर नई किस्म के फूल और फल पैदा करते हैं । पक्षी फल खाते हैं ।  फलों के बीज उनके पेट से होकर उनकी बीट के साथ बाहर निकलते हैं और मिट्टी में मिलकर अंकुरित हो वृक्ष बन जाते हैं । साधारण ढंग से उगाये गये बीजों से उत्पन्न पेड़ों की अपेक्षा ये पेड़ अधिक हष्ट-पुष्ट होते  हैं । पक्षियों के उदर से होकर गुजरने वाले बीज अधिक सुगमता से उपजते हैं । 
पक्षी फल वृक्षों के बीजों के विकिरण में भी सहायक होते हैं । फल खाकर पक्षी इधर-उधर उड़ते रहते हैं । पर्यटन के शौकीन ये पक्षी दूसरे प्रान्तों और देशों की यात्रा भी करते हैं और वहां फल वृक्षों की उत्पत्ति करने में सहायक होते हैं । पक्षियों की बीट अच्छे किस्म की खाद के रूप में काम आती है। कबूतरों की बीट की खाद बहुत उपयोगी होती है, जो 'वायलट' जैसे मौसमी फूलों के लिए अत्यन्त आवश्यक है। 
पक्षी प्रकृति के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं । जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जिसमें पक्षी मनुष्य का साथ न देते हों। वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि पशु-पक्षियों को अपनी अन्त:प्रेरणा से बाढ़ और भूकम्प जैसे प्रकोपों का पूवार्नुमान हो जाता है, इसलिए इन्हें भविष्य दृष्टा भी कहते हैं । सबसे बड़ा भारतीय पक्षी सारस अंतरिक्ष विज्ञान का ज्ञाता है। वर्षा कम होगी या अधिक, इसका अनुमान यह पहले ही लगा लेता है। मादा सारस इसी अनुमान के अनुसार अंडे देने की जगह चुनती है। यदि ज्यादा वर्षा होने वाली हुई तो ऊंची वरना नीची जमीन पर ही अंडे देने का जुगाड़ किया जाता है ।
विभिन्न प्रजाति के पक्षी खेतों में बोयी गई फसलों में लगने वाले कीटों का सफाया करते हैं । खास बात यह है कि ये पक्षी खेतों में केवल  कीटोंका ही सफाया करते हैं,  फसलों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाते । किसानों के मित्र इन पक्षियों में नीलकंठ, सारिका और बगुला प्रमुख हैं । इनके अलावा और भी कई प्रकार की चिड़ियाँ हैं जो फसलों को नुकसान पहुँचाए बिना हानिकराक कीटों का सफाया करती हैं। देखा गया है कि जो इल्लियाँ हजारों रुपए की कीटनाशक दवाओं से नहीं मरती उन इल्लियों को बगुला बड़ी तेज से चट कर जाता है, जिससे अब किसानों को भी समझ आने लगा है कि यदि प्रकृति और वनों से छेड़छाड़ न की गई होती तो संभवत: उनका इतना नुकसान नहीं होता । विशेषज्ञों द्वारा प्राय: वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दवा व पानी का सही मात्रा में मिलाकर छिड़काव करने की सलाह दी जाती है। किसानों को यह सलाह भी दी जाती चाहिए कि अंकुरण के बाद खेतों में 'टी' आकार की लकड़ी की खूटियां समान दूरी पर लगाए जिन पर पक्षी बैठ कर इल्लियों को नियंत्रित कर सकें ।  
किसानों के मित्र समझे जाने वाले पक्षियों की कई प्रजातियां काफी समय से दिखाई नहीं दे रही हैं ।  इन मित्र पक्षियों के धीरे-धीरे लुप्त् होने के पीछे बहुत से कारण हैं जिनमें एक बड़ी वजह किसानों द्वारा कृषि में परम्परागत तकनीक को त्यागने और मशीनीकरण को अपनाने तथा रसायनों, उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिकाधिक उपयोग को माना जा रहा है ।  
आज से एक दशक पहले तक जो घरेलू पक्षी काफी अधिक संख्या में देखने को मिलते थे लेकिन अब इनमें से कुछ पक्षियों के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं । सबसे ज्यादा असर तो खेत और घरों में आमतौर पर दिखने वाली गोरैया चिड़िया पर पड़ा है। खेतों में तीतर व बटेर जैसे पक्षी दीमक को खत्म करने में सहायक होते हैं, क्योंकि उनका मनपंसद खाना दीमक ही है। इनके प्रजनन का माह अप्रैल-मई होता है और ये पक्षी आमतौर पर गेहूं के खेतों में ही अंडे देते हैं। आज किसान गेहँू कम्बाइन से काटते हैं और बचे हुए भाग को आग लगा देते हैं । इससे तीतर, बटेर के अंडे, बच्च्ेआग की भेंट चढ़ जाते हैं ।  इसी कारण इनकी संख्या में कमी आ रही है। नरमा, कपास के खेतों में दिन-प्रतिदिन जरूरत से ज्यादा कीटनाशकों के छिड़काव से भी हर साल बड़ी संख्या में तीतर-बटेरों की मृत्यु हो जाती है। 
किसानों को वर्षा के आगमन की पूर्व सूचना देने वाले खूबसूरत पक्षी मोर भी अब लुप्त् होते जा रहे हैं । ये पक्षी किसानों को सांप जैसे खतरनाक जंतुआें से भयमुक्त रखता है और साथ ही खेतों से चूहे मारकर खाने में भी पारंगत हैं ।  वर्तमान में केमिकलयुक्त विषैली दवाओं की वजह से मोरों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है। मनुष्य की नासमझी के कारण अब तो कौआ, तोता, मैना जैसी चिड़ियों के साथ-साथ गिद्धोंके सामने भी अस्तित्व का संकट गहराने लगा है ।
भारत में कभी गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती थीं, लेकिन अब बिरले ही कहीं दिखाई देते हैं । ऐसा मानना है कि पिछले १०-१२ सालों में गिद्धों की संख्या में अविश्सनीय रूप से ९७ प्रतिशत की कमी आ गई है। गिद्धों की इस कमी का एक कारण पशुआें को दर्दनाशक के रूप में दी जा रही दवा डायक्लोफेनाक को बताया जा रहा है। दूसरा कारण, पशुआें का दूध निकालने के लिए उन्हें लगातार दिए जा रहे ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन है। उपचार के बाद पशुओं के  शरीर में इन दवाओं के  रसायन घुल जाते हैं और जब ये पशु मरते हैं तो ये रसायन उनका मांस खाने वाले गिद्धों की किडनी और लिवर को गंभीर नुकसान पहुँचाते हैं। मुर्दाखोर गिद्ध पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं और सड़े हुए माँस से होने वाली अनेक बीमारियों की रोकथाम में भी सहायक होते हैं । 
कीटनाशकों का असीमित प्रयोग से खेतों में अन्य कीटों के  साथ-साथ चूहे भी मर जाते हैं और इन मरे हुए चूहों को खाने वाले किसान के हितैषी पक्षी भी मर जाते  हैं । खेतों में सुंडी जैसे कीटों को मारकर खाने वाली काली चिड़िया व अन्य किस्म की चिड़ियों पर भी कीटनाशकों का प्रतिकूल  प्रभाव पड़ा है । परिणामस्वरूप अब ये पक्षी कभी-कभार ही दिखाई देते हैं। 
किसानों और सफेद बगुलों में हुई मित्रता अनुकरणीय है। अक्सर किसानों को यह डर सताता रहता है कि पक्षी उनकी फसल को चौपट न कर दें । लेकिन प्रतापगढ़ के किसान प्रार्थना करते हैं कि सफेद बगूले उनके खेत में आएं । क्योंकि वे इनके लाभ परिचित हो गए हैं । बगूलों से किसानों को प्रेम है क्योंकि ये उनके काम में हाथ बटाते हैं । खेत में किसानों को जहरीले जीवों से नुकसान न हो, इसलिए बगूले बड़े बिच्छु को भी निगल जाते हैं । साथ ही छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़ों का भी सफाया कर देते हैं । हम सभी जानते हैं ं कि पक्षी इंसान को देखते ही भाग जाते हैं, लेकिन प्रतापगढ़  में अलग ही नजारा देखने को मिलता है। यहाँ खेतों में पक्षी और किसान साथ में मिलकर काम करते हैं। 
सम्पूर्ण भारत में पाये जाने वाले सुन्दर पक्षी नीलकंठ भी फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों को निगल कर किसानों की मदद करता रहा है। यह एकांत प्रिय पक्षी पलक झपकते ही फसलों के कीड़ों को अपना आहार बना लेता है। इसलिए इसे भारतीय किसानों का सच्चा मित्र भी कहा जाता है। लेकिन किसानों का यह मित्र अब विलुिप्त् के कगार पर पहुँच गया है। दो दशक पूर्व तक खेत-खलिहानों से लेकर बागानों में यह पक्षी खूब दिखाई देता था। लेकिन आज स्वयं किसान भी यह ठीक से नहीं बता पा रहेकि उन्होंने इसे आखिरी बार कब देखा । 
वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार नीलकंठ के लुप्त् होने के  लिए हम सभी दोषी हैं। हमने अधिक पैदावार के लिए खेतों में अंधाधुंध  कीटनाशकों का प्रयोग किया । यही जहर नीलकंठ के लिए जानलेवा साबित हुआ है। आज देश के कई भागों, विशेष रूप से इसका गढ़ कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी नीलकंठ विलुप्त् होने को है। धार्मिक मान्यता के अनुसार भी नीलकंठ के  दर्शन शुभ माने जाते हैं । धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं बल्कि किसानों के लिए लाभदायक और प्रकृति की गोद में विचरने वाले सुन्दर, सजीले और लुभावने नीलकंठ को बचाने की आवश्यकता है। 
किसानों के हित संवर्धन तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए यह जरूरी है कि हम लुप्त् हो रहे पक्षियों को बचाने की दिशा में जागरूक हो जायें। किसानों के पंख वाले मित्रों की संख्या यदि इसी प्रकार कम होती गई तो पर्यावरण में जो असंतुलन पैदा होगा उसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी भोगना होगा।  
वनस्पति जगत
पराग कण : आकार छोटा और महत्व बड़ा
डॉ. दीपक कोहली
हमारे पर्यावरण में वनस्प-तियों का स्थान सर्वोपरि है। ये सूर्य के प्रकाश में प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन बनाते हैं तथा हमारे सामाजिक परिवेश में मुख्य घटक हैं । 
फूल पौधों के अभिन्न अंग हैं। यदि फूल नहीं होंगे, तो पौधों में लैंगिक प्रजनन नहीं हो सकेगा और केवल  कायिक प्रवर्धन पर आधारित होने  पर मनुष्य का भोजन केवल कन्द-मूलों तक ही सीमित रह जाएगा । पुष्प  में पुमंग तथा जायांग लैंगिक प्रजनन के मूल आधार हैं । पुमंग में दो भाग होते हैं - पुतन्तु तथा परागकोश । परागकोश पुतन्तु के अग्रभाग प्रकोष्ठों से मिलकर बनता है । प्रत्येक प्रकोष्ठ में असंख्य पराग कण भरे होते हैं ।
पराग कण पौधों की सूक्ष्म जनन इकाइयां हैं, जो अपने व अपनी ही प्रजाति के पुष्प के वर्तिकाग्र पर पहुंच कर निषेचन का कार्य सम्पन्न करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप फलों का निर्माण होता है और इनके बीजों द्वारा नवीन संततियों का जन्म होता है ।
परिपक्व पराग कण एक, दो, चार या अनेक समूहों में मिलते हैं,इनका आकार प्रकार तथा धु्रवीयता सुनिश्चित होती है। पराग कणों का आकार अत्यन्त सूक्ष्म (१० माइक्रॉन से लेकर २५० माइक्रॉन तक) होता है। पराग कणों के चारों ओर सुरक्षा के लिए दो परतें होती हैं - पहली ब्राह्य परत या एक्सॉन, जो स्पोरोपोलेनिन नामक एक रसायन से बनी होती है। इस पर्त में तेजाब, क्षार, ताप, दाब आदि सहने की क्षमता होती है एवं यह कोशिका की रक्षा करती है ।
पराग कण जल, थल, वायु आदि सभी स्थानों पर पाए जाते हैं। इनका इतिहास पुरातनकालीन चट्टानों में करीब ३० करोड़ वर्ष से लेकर आज तक के पर्यावरण में मिलता है। पराग कणों के अध्ययन को परागाणु विज्ञान कहते हैं। परागाणु विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है - प्राथमिक परागाणु विज्ञान तथा व्यावहारिक परागाणु विज्ञान । प्राथमिक परागाणु विज्ञान केअन्तर्गत पराग कणों तथा बीजाणुओं की संरचना, उनके रासायनिक तथा भौतिक विश्लेषण और कोशिका विज्ञान, आकार वगिकी आदि का अध्ययन किया जाता है। 
व्यावहारिक परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों के व्यावहारिक उपयोग एवं महत्व का अध्ययन किया जाता है। व्यावहारिक परागाणु विज्ञान का आगे वर्गीकरण भी किया जा सकता है - भूगर्भ परागाणु विज्ञान, वायु परागाणु विज्ञान, शहद परागाणु विज्ञान, औषधि परागाणु विज्ञान, मल-अवशेष परागाणु विज्ञान तथा अपराध परागाणु विज्ञान ।
मिट्टी तथा चट्टानों के बनने की प्रक्रिया के समय पाई जाने वाली वनस्पतियां दबकर जीवाश्म के रूप में परिरक्षित होती हैं एवं इन चट्टानों की लक्षणात्मक इकाइयां बनकर चट्टानों की आयु बताने में समर्थ होती हैं। कोयले की खानों तथा तैलीय चट्टानों में दबे पराग कण एवं बीजाणुआें के अध्ययन से उनकी आयु के साथ-साथ उनके पार्श्व एवं क्षैतिज विस्तार की भी जानकारी प्राप्त् होती है। ऐसा अनुमान है कि जलीय स्थानों में तेल की उत्पत्ति कार्बनिक पदार्थों के विघटन के फलस्वरूप होती है। तदुपरान्त इसका जमाव जगह-जगह पर चट्टानों में होता है, खनिज तेल की खोज तथा कोयला भण्डारों की जानकारी प्राप्त् करने में इन सूक्ष्म इकाइयों का विशेष योगदान है। ऐसे जीवाश्मीय पराग कणों के अध्ययन को भूगर्भ परागाणु विज्ञान कहते    हैं । 
वनस्पतियों के अवशेष चट्टानों में दबे हुए मिलते हैं जिनसे पुराकालीन जलवायु, वनस्पतियों तथा उनके आसपास की जलवायु तथा भौतिक दशाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार झील तथा दलदली स्थानों के विभिन्न गहराइयों से लिए गए मृदा के नमूनों से लुप्त् होती वनस्पतियों, सिमटते तथा फैलते समुद्र के इतिहास का पता आसानी से लगाया जा सकता है । इस प्रकार, भूगर्भ परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत जीवाश्मित पराग कण व बीजाणु व इनके समतुल्य जनन इकाइयों के द्वारा प्राचीनकाल के पाई वाली पुरावनस्पतियों तथा पुरावातावरण की जानकारी प्राप्त् होती है ।
वायु परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत वायु में पाए जाने वाले पराग कणों तथा इनके समतुल्य जनन इकाइयों का अध्ययन किया जाता है। वायु में पेड़-पौधों के असंख्य पराग कण सदैव विद्यमान रहते हैं। कुछ पौधों के पराग कण संवेदनशील व्यक्तियों में सांस के रोग उत्पन्न करते है। । इनमें दमा, मौसमी जुकाम, एलर्जी, त्वचा रोग आदि प्रमुख है । 
पराग कण जब सर्वप्रथम नाक के द्रव के सम्पर्क में आते हैं, तो पहले-पहले कोई लक्षण प्रकट नहीं होते, परन्तु जब नाक का द्रव संवेदित हो जाता है तो शरीर में विजातीय तत्व के विरुद्ध प्रतिरक्षा तत्व (इम्यूनोग्-लोब्यूलिन) पैदा हो जाते हैं । जब  वही विजातीय तत्व (एलर्जेन) नासिका द्रव पर पुन: हमला करता है तो पहले से उपस्थित अवरोधक तत्व उस विजातीय तत्व को नष्ट कर देता है जिससे नासिका की कोशिकाओं का नाश होता है और इसकेपरिणाम स्वरूप उत्पन्न हिस्टामिन नामक रसायन एलर्जी के लक्षणों का कारण बनता है। इसके मुख्य लक्षण हैं - तालू व गले में खराश, नाक का बन्द हो जाना, तेज जुकाम के साथ छींकें आंखों में जलन, सांस फूलना, सिरदर्द आदि । मुख्यत: वायु द्वारा विसरित परागकण ही इन बीमारियों को जन्म देते हैं । वायु परागाणु विज्ञान केवल एलर्जी की नहीं बल्कि मनुष्य, जानवरों तथा पेड़-पौधों के विकास से जुड़े अन्य कई विषयों की भी विस्तृत जानकारी देता है। जैसे, वायु प्रदूषण, कृषि विज्ञान, वानिकी, जैव विनाश, जैव गतिविधि, मौसम विज्ञान आदि ।
शहद परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत शहद के नमूनों में पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। शहद के गुणोंतथा प्रभाव से सभी परिचित हैं । शहद की चिकित्सकीय उपयोगिता मुख्यत: पराग कणों के कारण ही होती है। मानव को आदिकाल से ही इसकी उपयोगिता का ज्ञान है। शहद और पराग कणों का पारस्परिक सम्बंध अटूट है। शहद की शुद्धता तथा गुणवत्ता उसमें निहित पराग कणों के द्वारा परखी जाती है। शहद एक ही प्रकार के फूलों के पराग कणों या अनेक प्रकार के फूलोंके पराग कणों का मिश्रण है। शहद का वैज्ञानिक विश्लेषण करने से ऋतु-सम्बंधी जानकारी भी प्राप्त् होती है। मधुमक्खियां मकरन्द व पराग कणों को फूलों से एकत्र करती हैं । बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ  में हुए एक शोध के अनुसार, शहद के एक नमूने में ४५ किस्म के परागकण विद्यमान थे ।
औषधि परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत पराग कणों से विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण सम्बंधी अध्ययन किए जाते हैं। आदिकाल से मनुष्य तथा जानवरों के लिए पराग कणों की महत्ता जैव उद्दीपक के रूप में रही है। स्वीडन की सिरनेले कम्पनी सन १९५२ से पराग कणोंका सत बना रही है जिससे पोलेन-टूथपेस्ट, पोलेन फेस क्रीम, पोलेन एनिमल फीड तथा पोलेन टेबलेट्स आदि का उत्पादन होता है। इस कम्पनी को १४ करोड़ टेबलेट्स बनाने के लिए करीब २० टन पराग कण आसपास के क्षेत्र से एकत्र करने पड़ते हैं । कहते हैं सर्निटिन  एक्सट्रेक्ट दीर्घ आयु तथा स्वस्थ जीवन प्रदान करने वाले सभी तत्वों  से भरपूर होता है। यह विभिन्न प्रकार के पौधों के पराग कणों से तैयार किया जाता है ।
       ओर्टिस पोलेनफ्लावर नामक  दवा मधुमक्खियों की सहायता से एकत्रित पराग कणों से बनाई जाती है, जिसमें स्वस्थ शरीर बनाए रखने के लिए शक्तिवर्धक तत्व मौजूद होते हैं। पोलेन-बी के नाम से प्रसिद्ध औषधियां धावकों तथा अन्य खिलाड़ियों द्वारा शक्तिवर्धक की तरह प्रयोग की जाती है।
प्रोस्टेट ग्रन्थि बढ़ने पर जिस दवा का प्रयोग किया जाता है, उसमें तीन-चार प्रकार के पराग कणों का सत होता है, जिसमें विटामिन-बी तथा स्टीरॉयड की प्रचुर मात्रा होती है। साइकस सर्सिनेलिस पौधे के पराग कणों को नींद की दवा के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। टाइफा लैक्समानी पौधे के पराग कणों को रक्तचाप नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
मल-अवशेष परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत मनुष्योंतथा जानवरों के मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों का अध्ययन किया जाता है। पाषाण युग में कंदराओं और गुफाओं में रहने वाले शिकारी, खानाबदोश पूर्वजोंतथा उनके काफिलों के पालतू जानवरों के खानपान, जलवायु तथा वनस्पतियों का लेखा-जोखा पराग कणों के माध्यम से पता किया जा सकता है। मल-अवशेषों में संरक्षित पराग कणों के परीक्षण से भोज्य वनस्पतियों की किस्मों, ऋतुओं, जलवायु आदि का अनुमान लगाया जा सकता है। भेड़-बकरियों, चमगादड़ों तथा मनुष्यों के मल-अवशेषों का अध्ययन ही अभी तक प्रमुख रूप से किया गया है। डॉ. ब्रयन्ट ने टेक्सास के सेमिनोल कैन्यन में रहने वाले ९००० वर्ष पूर्व के मानव के भोजन में प्रयोग किए गए पौधों का उल्लेख अपने एक शोध पत्र में किया है। मल-अवशेषों के पराग कण के अध्ययन से उस समय के पर्यावरण का भी अन्दाजा लगाया गया है।
डॉ. लीशय गोरहन ने गुफाओं में रहने वाले निएन्डरथल मानव के कंकाल के नीचे से मिली मिट्टी तथ अन्य अवशेषों के आधार पर ५०,००० वर्ष तक पुरानी वनस्पतियों के इतिहास को उजागर किया। उन्होंने यहां तक प्रमाणित किया कि शव को एफेड्रा नामक वृक्ष की शाखाओं पर मई-जून के महीने में दफनाया गया था । इस प्रकार आदि-मानव के इतिहास को जानने में यह परागाणु विज्ञान अत्यन्त कारगर सिद्ध हुआ है। 
अपराध परागाणु विज्ञान के अन्तर्गत अपराधों की जांच-पड़ताल में पराग कणों के उपयोग का अध्ययन किया जाता है। वर्ष १९६९ में प्रसिद्ध परागाणु विज्ञानी एर्टमैन ने स्वीडन तथा ऑस्ट्रिया में हुए दो अपराधों का पता पराग कणों के माध्यम से लगाकर दुनिया को अचंभित कर दिया था। उन्होंने वारदातों की गुत्थियां सुलझाने के लिए प्रमाण के तौर पर कपड़ों तथा जूतों की धूल से प्राप्त् पराग कणों का विश्लेषण किया और तत्पश्चात अपराधियों को ढूंढ निकालने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त् की । इसके अलावा बन्दूक पर चिपके पराग कणों की सहायता से वे एक मामले मे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हत्या संदिग्ध बन्दूक से नहीं बल्कि किसी अन्य बन्दूक का प्रयोग किया गया था। इस प्रकार आपराधिक मामलों की खोजबीन में परागाणु विज्ञान उपयोगी है ।
भोजन के रूप में भी पराग कणों की उपयोगिता सिद्ध हुई है। पराग कणों को संतुलित भोजन की श्रेणी में रखा गया है। पराग कणों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों ने इसके चमत्कारी गुणों को पहचान कर हेल्थ फूड नाम दिया है। इनमें जीवन प्रणाली को सुचारु रूप से चलाने वाले सभी पौष्टिक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं,जैसे प्रोटीन, विभिन्न विटामिन तथा खनिज तत्व । 
टाइफा पौधे की करीब ९ प्रजातियों के पराग कणों का भोज्य पदार्थ के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इनके पराग कणों को आटे के साथ मिलाकर केक व अन्य बेकरी पदार्थ बनाने में प्रयुक्त किया जाता है। सूप को गाढ़ा करने में तथा गरम दूध के साथ इनका सेवन किया जाता     है। मक्का के पराग कणों का आकार बड़ा होता है और वे खाने की सूची में विशिष्ट स्थान रखते हैं। कई देशों में पराग कणों का प्रयोग नवजात शिशु के प्रथम आहार के तौर पर भी किया जाता है। अनेकानेक गुणों के साथ पराग कणों का एक अवगुण भी है, जो एलर्जी के रूप में नजर आता है।
पराग कणों के गुणों-अवगुणों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि पराग कणों के गुणों का पलड़ा बहुत भारी है। पराग कण पेड़-पौधों के लिए जितने जरूरी हैं उतने ही मानव के लिए भी आवश्यक हैं। यदि समग्र रूप में पराग कणों के महत्व का मूल्यांकन किया जाए, तो ये निसन्देह मानव जीवन के लिए अपरिहार्य हैं तथा इनके अभाव में मानव के अस्तित्व की कल्पना भी कर पाना असम्भव है।
जीवन शैली
टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन
डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन
भारतीय लोग रोजना  लगभग ५२-५५ ग्राम प्रोटीन खातेहैं । यह उन्हें अधिकांशत: फलियों, मछली और पोल्ट्री सेमिलता है। कुछ लोग, खास तौर सेविकसित देशों में, जरूरत सेकहीं ज्यादा प्रोटीन का सेवन करतेहैं । 
वॉशिंगटन स्थित संस्था वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट नेहाल ही में सुझाया है कि लोगों कोबीफ (गौमांस) खाना बंद नहीं तोकम अवश्य कर देना चाहिए। यह सुझाव हमारेदेश के कई शाकाहारियों का दिल खुश कर देगा और गौरक्षकों की बांछें खिल जाएंगी । किन्तु  वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के इस सुझाव के पीछेकारण आस्था-आधारित न होकर कहीं अधिक गहरेहैं । आने वाले वर्षों में बढ़ती आबादी का पेट भरनेके लिए एक टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करनेके लिए अपनाए जानेवालेतौर-तरीकों की चिंता इसके मूल में है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट नेइस सम्बंध में एक निहायत पठनीय व शोधपरक पुस्तक प्रकाशित की है: शिफ्टग डाएट्स फॉर ए सस्टेनेबल फ्यूटर (एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन)।
संस्था नेइसमें तीन परस्पर सम्बंधित तर्क प्रस्तुत किए हैं । पहला तर्क है कि कुछ लोग अपनी दैनिक जरूरत सेकहींअधिक प्रोटीन का सेवन करतेहैं । यह बात दुनिया के सारेइलाकों के लिए सही है, और विकसित देशों पर सबसेज्यादा लागू होती है। एक औसत अमरीकी, कनाडियन, युरोपियन या रूसी व्यक्ति रोज़ाना ७५-९० ग्राम प्रोटीन खा जाता है - इसमें से३० ग्राम वनस्पतियों सेऔर ५० ग्राम जंतुओं सेप्राप्त् होता है । ६२ किलोग्राम वजन वालेएक औसत वयस्क को५० ग्राम प्रतिदिन सेअधिक की जरूरत नहीं होती ।
तुलना के लिए देखें, तोभारतीय व अन्य दक्षिण एशियाई लोग लगभग ५२-५५ ग्राम प्रोटीन का भक्षण करतेहैं (जोअधिकांशत: फलियों, मछलियों और पोल्ट्री सेप्राप्त् होता है)। यही हाल उप-सहारा अफ्रीका के निवासियों का है (हालांकि वेहमसेथोड़ा ज्यादा  मांस खातेहैं)।  मगर समस्या यह है कि आजकल ब्राजील और चीन जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के ज्यादा लोग पश्चिम की नकल कर रहेहैं और अपनेभोजन में ज्यादा  गौमांस कोशामिल करनेलगेहैं । वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि वर्ष २०५० तक दुनिया में गौमांस की  मांग ९५ प्रतिशत तक बढ़ जाएगी । दूसरेशब्दों में यह मांग लगभग दुगनी होजाएगी। यह इसके बावजूद है कि यूएस में लाल मांस खानेकोलेकर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के चलतेगौमांस भक्षण में गिरावट आई है ।
चलते-चलतेयह स्पष्ट करना जरूरी है कि जब बीफ की बात होती है तोउसमें गाय के अलावा सांड, भैंस, घोड़े, भेड़ें और बकरियां शामिल मानी जाती हैं ।  फिलहाल विश्व में १.३ अरब कैटल हैं (इनमें से३० करोड़ भारत में पालेजातेहैं )। उपरोक्त अनुमान का मतलब यह है कि आज से३० साल बाद हमें २.६ अरब कैंटल की जरूरत होगी ।
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का दूसरा तर्क है कि कैटल  पृथ्वी की जलवायु कोप्रभावित करतेहैं । येग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के औसत तापमान में वृद्धि में योगदान देतेहैं । इसके अलावा, कैटल के लिए काफी सारेचारागाहों की जरूरत होती है (एक अनुमान के मुताबिक अंटार्कटिक कोछोड़कर पृथ्वी के कुल भूभाग का २५ प्रतिशत चारागाह के लिए लगेगा)। यह भी अनुमान लगाया गया है कि विश्व के पानी में सेएक-तिहाई पानी तोपालतू पशु उत्पादन में खर्च होता है । इस सबके अलावा, चिंता का एक मुद्दा यह भी है कि गाएं, भैंसें, भेड़-बकरी व अन्य खुरवाले जानवर खूब डकारें लेतेहैं । मात्र उनकी डकार के साथ जोग्रीनहाउस गैसें निकलती है, वेग्लोबल वार्मिंगमें ६० प्रतिशत का योगदान देती हैं ।
इसके विपरीत गेहूं, धान, मक्का, दालें, कंद-मूल जैसी फसलों के लिए चारागाह की कोई जरूरत ज़रूरत नहीं होती और इनकी पानी की मांग भी काफी कम होती है। सबसेबड़ी बात तोयह है कि इनसेग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता या बहुत कम होता है । हमनेवचन दिया है कि अगलेबीस वर्षों में धरती के तापमान में १.५ डिग्री सेलिस्यस सेअधिक वृद्धि नहीं होनेदेंगे। किन्तु कैटल की संख्या में उपरोक्त अनुमानित वृद्धि के चलतेस्थिति और विकट होजाएगी ।
इस नजारेके मद्देनजर, वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का सुझाव है कि हम, यानी विकसित व तेजी सेउभरती अर्थ व्यवस्थाआें के सम्पन्न लोग, आनेवालेवर्षों में अपनेभोजन में कई तरह सेपरिवर्तन लाएं । पहला परिवर्तन होगा - अति-भक्षण सेबचें । दूसरेशब्दों में जरूरत सेज्यादा कैलोरी का उपभोग न करें । हमें रोजाना २५०० कैलोरी की जरूरत नहीं है, २००० पर्याप्त् है । आज लगभग २० प्रतिशत दुनिया जरूरत सेज्यादा खाती है, जिसकी वजह सेमोटापा बढ़ रहा है। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों सेसब वाकिफ हैं । कैलोरी खपत कोयथेष्ट स्तर तक कम करनेसेस्वास्थ्य सम्बंधी लाभ तोमिलेंगेही, इससेजमीन व पानी की बचत भी होगी ।
भोजन में दूसरा परिवर्तन यह सुझाया गया है कि प्रोटीन के उपभोग कोन्यूनतम अनुशंसित स्तर पर लाया जाए ।  इसके लिए खास तौर सेजंतु-आधारित भोजन में कटौती करना होगा। जब प्रतिदिन ५५ ग्राम सेअधिक प्रोटीन की जरूतर नहीं है, तो७५-९० ग्राम क्यों खाएं ? और इसकी पूर्ति भी जंतु-आधारित प्रोटीन की जगह वनस्पति प्रोटीन सेकी जा सकती है। 
सुझाव है कि पारम्परिक भूमध्यसागरीय भोजन (कम मात्रा में मछली और पोल्ट्री मांस) तथा शाकाहारी भोजन (दाल-फली आधारित प्रोटीन) कोतरजीह दी जाए । और भोजन में तीसरा परिवर्तन ज्यादा विशिष्ट है: खास तौर सेबीफका उपभोग कम करें। बीफ (सामान्य रूप सेकैटल) में कटौती करनेसेभोजन सम्बंधी और पर्यावरण-सम्बंधी, दोनों तरह के लाभ मिलेंगे। पर्यावरणीय लाभ तोस्पष्ट  हैं : इससेकृषि के लिए भूमि मिलेगी और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा । बीफफी बजाय हम पोर्क (सूअर का मांस), पोल्ट्री मछली और दालों का उपभोग बढ़ा सकतेहैं ।
हालांकि वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट विशिष्ट रूप सेइसकी सलाह नहीं देता किंन्तु  ऐसा करनेसेमदद मिल सकती है । जाहिर है, यह बहुत बड़ी मांग है और इसके लिए सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की दरकार होगी । मनुष्य सहस्त्राब्दियों सेमांस खातेआए हैं । लोगों कोमांस भक्षण छोड़नेकोराजी करना बहुत मुश्किल होगा ।  शायद बीफ कोछोड़कर पोर्क, मछली, मुर्गेव अंडेकी ओर जाना सांस्कृतिक रूप सेज्यादा स्वीकार्य शुरुआत होगी । स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और जलवायु-स्नेही लोग लचीला-हारी होनेकी दिशा में आगेबढ़ेहैं। लचीलाहारी शब्द एक लेखक नेदी इकॉनॉमिस्ट के एक लेख में उपयोग किया था। हिंदी में इसेमौकाहारी भी कह सकतेहैं । दरअसल भारतीय सेना में एक शब्द मौका-टेरियन का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जोवैसेतोशाकाहारी होतेहैं किंतु मौका मिलनेपर मांस पर हाथ साफ कर लेतेहैं । इन पंक्तियों का लेखक भी मौका-टेरियन है ।
शाकाहार की ओर परिवर्तन भारतीय और यूनानी लोगों नेकरीब १५००-५०० ईसा पूर्व के बीच शुरू किया था । इसका सम्बंध जीव-जंतुआें के प्रति अहिंसा के विचार सेथा और इसेधर्म और दर्शन द्वारा बढ़ावा दिया गया था । तमिल अध्येता-कवि तिरुवल्लुर, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त् व अशोक और यूनानी संत पायथागोरस शाकाहारी थे।
शाकाहार की ओर वर्तमान रुझान एक कदम आगेगया है । इसेवेगन आहार कहतेहैं और इसमें दूध, चीज, दही जैसेडेयरी उत्पादों के अलावा जन्तुआें सेप्राप्त् होने वाले किसी भी पदार्थ के उपभोग पर रोक होती है । फिलहाल करीब ३० करोड़ भारतीय शाकाहारी हैं जिनमें सेशायद मात्र २० लाख लोग वेगन होंगे, हालांकि यह आंकड़ा पक्का नहीं है।                                            
पर्यावरण परिक्रमा
वैज्ञानिकों ने बनाया खान-पान का चार्ट 
दुनिया के ३७ वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने खानपान का ऐसा विशेष चार्ट तैयार किया हैं, जोन सिर्फ लोगों की सेहत बल्कि धरती कोभी सुरक्षित रखेगा । अगर धरती पर मौजूद सभी लोग अपने खानपान में मांस और शक्कर में ५० प्रतिशत की कमी कर दें तोहर साल समय सेपहलेमरनेवाले१करोड़ लोगों में कमी लाई जा सकती है । 
वैज्ञानिकों का दावा है कि अगर इस चार्ट को अपनाया जाए तो२०५० तक एक करोड़ लोगों का पेट भी भरा जा सकता है । हालांकि सिर्फ डायट बदलने सेज्यादा फायदा तब तक नहीं होगा, जब तक खाने की बर्बादी जारी रहेगी । 
द प्लेनेट्री हेल्थ डायट नाम के इस डायट कोतैयार करनेमें २ साल का वक्त लग गया । इसमें जलवायु परिवर्तन सेलेकर आहर  तक को शामिल किया गया । फिलहाल दुनिया की आबादी ७.७ अरब हैं जो२०५० तक बढ़कर एक हजार करोड़ होजाएंगी । यह आबादी जितनी बड़ी है उसका पेट भरना भी उतनी ही बड़ी चुनौती होगी । 
प्रतिदिन हमें २५०० किलोकैलोरी की जरूरत इस डायट चार्ट सेउसकी पूर्ति की जा सकती है । तापमान बढ़ानेवाली ग्रीन हाउस गैसों में कमी आएगी । 
कई प्रजातियां विलुप्त् होने से बचेंगी, आबादी बढ़ेगी । पानी की बर्बादी रूकेगी । खेती योग्य भूमि कोबढ़ानेकी जरूरत नहीं पड़ेगी, जमीनें कम बंटेगी । जंगलों की कटान  रूकेगी । 
ग्लोबल वार्मिंग से दुग्ध उत्पादन में आएगी कमी
जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लोबल वार्मिंग के भारत में असर और चुनौतियों के दायरे में फल और सब्जियों पर ही नहीं बल्कि दुग्ध भी   है । जलवायु परिवर्तन के भारतीय कृषि पर प्रभाव संबंधी अध्ययन पर आधारित कृषि मंत्रालय की आंकलन रिपोर्ट के अनुसार अगर तुरन्त नहीं संभलेतोइसका असर २०२० तक १.६ मीट्रिक टन दूध उत्पादन में कमी के रूप में दिखेगा । 
रिपोर्ट में चावल समेत कई फसलों के उत्पादन में कमी और किसानों की आजीविका का असर कोलेकर भी आशंका जताई गयी है । पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से संबंद्ध संसद की प्राक्कलंन समिति के प्रतिवेदन में इस रिपोर्ट के हवाले सेअनुमान व्यक्त किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण दूध उत्पादन कोलेकर नहीं संभले तो२०५० तक यह गिरावट दस गुना तक बढ़ कर मीट्रिक टन होजायेगी । भाजपा सांसद मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा संसद में पेश प्रतिवेदन के अनुसार दुग्ध उत्पादन में सर्वाधिक गिरावट उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में देखने को मिलेगी । ग्लोबल वार्मिंग के कारण, येराज्य दिन के समय तेज गर्मीके दायरे मेंहोंगेऔर इस कारण पानी की उपलब्धता में गिरावट पशुधन की उत्पादकता पर सीधा असर डालेगी । चार हेक्टेयर सेकम कृषि भूमि के काश्तकार महज खेती से अपने परिवार का भरण पोषण करने में सक्षम नहीं होंगे। भारत में खेती पर आश्रित ८५ प्रतिशत परिवारों के पास लगभग पांच  एकड़ तक ही जमीन हैं । इनमें भी ६७ फीसदी सीमांत किसान है जिनके पास सिर्फ  २.४ एकड़ जमीन है । रिपोर्ट में कहा गया है कि २०२० तक चावल के उत्पादन मेंचार सेछह प्रतिशत, आलू में ११ प्रतिशत, मक्का में १८ प्रतिशत और सरसों के उत्पादन में दोप्रतिशत तक की कमी संभावित है । 
वहीं पश्चिम तटीय क्षेत्र केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र तथा पूर्वोत्तर राज्यों, अंडमान निकोबार और लक्ष्यद्वीप में नारियल उत्पादन में इजाफा होनेका अनुमान है । भविष्य की इस चुनौती के मद्देनजर मंत्रालय की रिपोर्ट के आधार पर समिति नेसिफारिश की है कि अनियंत्रित खाद के इस्तेमाल से बचते हुये भूमिगत जलदोहन रोक कर उचित जल प्रबंधन की मदद सेयुक्तिसंगत सिंचाई साधन विकसित करना ही एक मात्र उपाय है । 
अब लापता नहीं होगे विमान, उपग्रह रखेंगे नजर 
आने वाले दिनों में विमानों के लापता होनेकी घटनाएं सिर्फ इतिहास बनकर रह जाएगी । २०२० के बाद दुनियाभर मेंसेकोई भी उड़ान धरती और आसमान के बीच कभी लापता नहींहोगा । यह फिल्मी कल्पना नहीं, हकीकत है । 
दरअसल, वर्जीनिया स्थित अमरीकी निजी अंतरिक्ष संचार कंपनी इरिडियम ने एक ऐसा संचार,  नेटवर्क इरिडियम नेक्स्ट तैयार किया है, जो दुनियाभर के विमानों पर हर पल नजर रखेगा । इसके लिए कंपनी अब तक ७५ सैटेलाइट पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित कर चुकी है । इनमें से१० सैटेलाइट एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स के फॉल्कन रॉकेट द्वारा पिछलेशुक्रवार कोही भेजेगए हैं । 
इरिडियम नेक्स्ट एक प्रकार की वेश्विक उपग्रह नौवहन प्रणाली (ग्लोबल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम) हैं । जिसके तहत ७५ सैटेलाइट आपस में जुडे रहेंगे । रडार की तरह इनके द्वारा दुनियाभर मेंउड़नेवालेविमानों पर नजर रखी जाएगी । इन्हें उड्डयन कंपनी और हवाई यातायात नियंत्रकों (एयर ट्रैफिक कंट्रोलर) से जोड़ा जाएगा । 
इरिडियम एयरॉन सैटेलाइट जल्द ही विमानों की निगरानी का काम शुरू करेंगे, जिससेरडार के रेंज सेबाहर हवाई जहाज कभी गायब नहीं होंगे। गगन : भारत में उपग्रह आधारित हवाई नौवाहन सेवाआें के लिए गगन (जीपीएस एडेड जियोऑगमेटेड नेविगेशन) प्रणाली तैयार की गई है । ३० जून २०२० सेयह अनिवार्य होगा । यह प्रणाली द.पू. एशिया सेअफ्रीका, प. एशिया, ऑस्ट्रेलिया चीन व रूस के बीच यातायात में मददगार होगी । 
हर दिन २२०० करोड़ बढ़ी भारतीय कुबेरों की हैसियत
भारतीय धनकुबेरों की संपत्ति में पिछले साल रोजना २२०० करोड़ रूपयेकी बढ़ोत्तरी हुई । साल २०१८ में १ फीसदी धनकुबेर ३९ प्रतिशत ज्यादा अमीर हुए, जबकि वित्तीय रूप से कमजोर लोगों की संपत्ति में महज तीन फीसदी का इजाफा हुआ । 
वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की सालाना पांच दिवसीय बैठक से पहले पिछले दिनों जारी  ऑक्सफेम की रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर साल २०१८ में धनकुबेरों की संपत्ति में रोजना १२ फीसदी या २.५ अरब डॉलर का इजाफा हुआ, जब कि दुनिया के सबसेगरीब तबके लोगों की सम्पत्ति में ११ फीसदी की गिरावट आई । ऑक्सफेम नेकहा कि १३.६ करोड़ भारतीय साल २००४ सेही कर्ज में डूबे हैं । आबादी का यह आंकड़ा देश की सबसेगरीब आबादी का १० फीसदी है । रिपोर्ट के अनुसार अमीरी-गरीबी के बीच यह बढ़ती खाई दुनियाभर में लोगों का गुस्सा बढ़ा रहा है । 
रिपोर्ट के अनुसार कुल २६ लोगों के पास उतनी संपत्ति है जितनी दुनिया के ३.८ अरब लोगों के पास है । ऑक्सफेम इंटरनेशनल की कार्यकारी निदेशक बिनी ब्यानयिमा नेकहा, नैतिक रूप सेयह बेहद अपमानजनक है मुठ्ठीभर अमीर लोग भारत की संपत्ति में अपनी हिस्सेदारी बढ़ातेजा रहेहै, जबकि गरीब दोजून की रोटी और बच्चें की दवा तक के लिए संघर्ष कर रहेहै । 
ऑक्सफेम के अनुसार दुनिया भर में घर और बच्चें की देखभाल करते हुए महिलाएं सालभर में कुल १० हजार अरब डॉलर की पगार के बराबर काम करती हैंऔर एवज में उन्हें कोई भुगतान नहीं किया जाता । यह दुनिया की सबसेबड़ी कंपनी एप्पल के सालाना कारोबार का ४३ गुना है । भारतीय महिलाएं बिना वेतन वालेजोघरेलू काम करती है, उसका मूल्य देश की जीडीपी के ३.१ प्रतिशत के बराबर है । ऑक्सफेम  नेवैश्विक स्त्री-पुरूष असमानता सूचकांक २०१८ में भारत की खराब रैकिंग (१०८ वें पायदान) का जिक्र करतेहुए कहा कि इसमें २००६ के मुकाबलेसिर्फ १० स्थान की कमी आई है । भारत चीन व बांग्लादेश जैसेपड़ोसियों सेभी पीछे है ।१०० वर्ष बाद भी देख पाएंगे आज के उपकरण
आने वाली पीढ़ी १०० साल बाद भी आज इस्तेमाल होने वाले उपकरण देख पाएगी । नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों ने अत्याधुनिक तकनीक के प्रतीक १०० उपकरणों से तैयार किए गए टाइम कैप्सूल को एलपीयू (लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी) परिसर में जमीन के अंदर १०० साल के लिए दबा दिया । दुनिया में यह अपने प्रकार का पहला ऐसा अनोखा प्रयोग है । 
वर्तमान टेक्नोलॉजी को सहेजने के लिए जालंधर १०६वीं इंडियन साइंस कांग्रेस के दूसरे दिन यह कदम उठाया गया । १०० साल बाद तीन जनवरी २११९ को जब यह टाइम कैप्सूल जमीन से बाहर निकाला जाएगा, तब उस समय की पीढ़ी को वर्तमान में प्रयोग होने वाली टेक्नोलॉजी का पता चल सकेगा । 
टाइम कैप्सूल मेंभारतीय सांइस व टेक्नोलॉजी के प्रतीक मंगलयान, ब्रह्मोस मिसाइल व तेजस फाइटर विमानों के मॉडल भी रखे गए हैं । कैप्सूल को धरती में १० फीट की गहराई तक दबाया गया है । नोबेल पुरस्कार विजेता बॉयो केमिस्ट अवराम हर्षको, अमेरिकी फिजिसिस्ट डंकन डालडेन व बॉयो केमिस्ट थॉमस सुडोफ केबटन दबाते ही टाइम कैप्सूल धरती में समा गया ।                              
शिक्षा जगत
शिक्षा और समाज की अपेक्षायें 
अनिल सिंह
हमारे समय के प्राय: सभी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तक संकटों पर नजर डालें तोसाफ देखा जा सकता है कि इनकी बुनियाद में वह विरोधाभास है जोएक तरफ, संविधान और लोकतंत्र के आदर्शों और दूसरी तरफ, मौजूदा समाज की आकांक्षाओं के बीच की टकराहट के नतीजेमें उभरा है। शिक्षा इस लगातार बढ़तेविरोधाभास कोरोकने, नियंत्रित करनेमें खासी भूमिका निभा सकती है, लेकिन वह खुद तरह-तरह के पूर्वाग्रहों, ढांचों और बंधनों में फंसी है ।

सभी मानतेहैं कि 'शिक्षा मुक्ति का साधन है, यह मानव कोबंधनों सेमुक्त करती है और आज के युग में तोयह लोकतंत्र की भावना का आधार भी है । 
जन्म तथा अन्य कारणों सेउत्पन्न जाति एवं वर्गगत विषमताओं कोदूर करतेहुए शिक्षा मनुष्य कोइन सबसेऊपर उठाती है ।` इस सर्व-व्यापी मान्यता के बावजूद समाज में शिक्षा के साथ-ही-साथ विषमता और विभेद का परिदृश्य बड़ा होता जाता है । भारत जैसेविविधता वालेदेश में शिक्षा के तमाम सफल-असफल प्रयोगों के बीच यह बात मुख्य आधार रही है कि लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण के लिए सभी को शिक्षा जरुरी है। आधुनिक संस्कृति में जहाँ शिक्षा नेसमानता, व्यक्ति के सम्मान और सामाजिक न्याय जैसेमूल्यों कोस्थापित करनेका प्रयास किया है, वहीं वैश्वीकरण और उदारीकरण नेइन मूल्यों के दमन का संकट पैदा कर दिया है । इस विरोधाभास के बीच उम्मीद की जाती है कि इसका समाधान भी शिक्षा ही निकाले। जाहिर है, आज के दौर में अध्यापन अब इस जिम्मेदारी के  ईद-गिर्द ही होना चाहिए ।  
भारत का संविधान एक ऐसेसमाज का सपना दिखाता है जहाँ सामाजिक सद्भाव और शांति  का आधार न्याय व समता होगा । जिस तरह की शिक्षा प्रणाली खड़ी होरही है वह दरअसल संविधान विरोधी है । स्कूलों में जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, शहरी- ग्रामीण का भेद और ढांचा बरकरार है । 
भारत में मौजूदा स्कूली व्यवस्था भी बहु-स्तरीय है। निजी स्कूलों का तो एक श्रेणीक्रम है ही, सरकारी स्कूलों में भी नवोदय विद्यालय,  उत्कृष्टता विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय आदि की श्रेणियाँ हैं । ग्रामीण और शहरी स्कूलों में भी स्पष्ट फर्क है ।  ज्यादा पैसेवालों के स्कूल, मध्यम पैसेवालों के स्कूल, कम पैसेवालों के स्कूल और गरीबों के स्कूल । येस्कूल  भी समाज की ही तरह की बनावट अपनेआप में समेटेहुए हैं और सामाजिक विषमता क ेइसी रूढ़ ढांचेकोमजबूत करतेऔर बढ़ावा देतेहैं । कमजोर तबके के बच्चें के लिए स्कूल में टिक पाना अभी भी एक बड़ी चुनौती है । 'अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार अधिनियम-२००९` के बावजूद संवैधानिक मूल्यों की स्थापना में अभी तमाम अड़चनें हैं।     
वर्तमान समाज औद्योगिक समाज है। सरकार की नीतियां पूंजीवाद के दृष्टिकोण सेतय की जा रही हैं । हम देख पा रहेहैं कि प्रतिस्पर्धा, पूंजीवादी व्यवस्था का केन्द्रीय मूल्य है, जबकि इसके उलट 'एनसीएफ (नेशनल क्रॅरिकुलम फ्रेमवर्क राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा)- २००५` स्कूलों में प्रतिस्पर्धा खत्म करनेकी बात कहता है । सवाल है कि जब तक समाज में यह प्रतिस्पर्धा समाप्त न होजाये, तब तक स्कूलों में कैसेखत्म होसकती है ? एक तरफ संविधान द्वारा निर्धारित मूल्य हैं और 'एनसीएफ` भी उनकी वकालत करता है, दूसरी तरफ भारत में वर्तमान समाज की आंकाक्षाएं और अपेक्षाएं हैं जोनिजी लाभ, मुनोफे, जाति-वर्ग भेद, विषमता, शोषण और अवसरों को भुनानेकी बुनियाद पर खड़ी हैं । ऐसे में स्कूली-शिक्षा की उम्र व्यक्ति के निर्माण की दृष्टि सेअत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है । 
इस समाजीकरण सेही अध्यापन कर्म की सीधी टकराहट है । स्कूली शिक्षा के दौरान अध्यापक, विद्यार्थियों में संविधान की मंशानुरूप लोक-तांत्रिक मूल्यों की जड़ें मजबूत कर सकता है, व्यक्तिगत स्वायंाता का मूल्य विकसित कर एकता है। 'एनसीएफ` का ही एक मार्गदर्शी सिद्धांत ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ने की वकालत करता है, वह अध्यापक कोइस बात के तमाम अवसर देता है कि बाहर की स्थितियों पर समालोचनात्मक नजर डाली जायेऔर जिस समाजीकरण ने विद्यार्थियों में गैर-बराबरी और विषमता खड़ी की है उसे चुनौती दी जाये। यह अध्यापक की गहरी और व्यापकतैयारी की मांग करता है ।   
अध्यापक सामाजिक अंतक्रिया या सन्दर्भ की भूमिका का एकमात्र अपरिहार्य उपकरण है। अध्यापक वह है जिसनेसिखाई जानेवाली हर चीज के महत्व पर विचार किया है, साथ ही यह भी सोचा है  कि उसके हस्तांतरण का बेहतर तरीका क्या है। सामाजिक नियंत्रण सेपरेविद्यार्थी में सामाजिक स्थितियों पर समालोचनात्मक चिंतन की दृष्टि पैदा करना और शासन के निर्माण के दौरान इन सामाजिक स्थितियों के बदलाव की संभावना दिखा पाना अध्यापक के बूतेकी ही बात है । यद्यपि सामाजिक नियंत्रण के चलतेस्कूलों सेयह अपेक्षा रहती है कि वह विद्यार्थियों कोवर्तमान समाज की जरुरत और उसकी व्यवस्था के मुताबिक एक मानव संसाधन के रूप में तैयार करे। यह टकराव सिर्फ शिक्षा की विषयवस्तु नहीं, बल्कि नयी समाज-रचना की विषय वस्तु है । अध्यापक की दृष्टि में यह बदलाव अपेक्षित है। 
अध्यापक, शिक्षार्थी में सामाजिक ताने-बानेके सन्दर्भ में अपनी क्षमताओं का उत्तरोत्तर परिमार्जन करते हुए बेहतर मनुष्य होनेकी संभावनाओं की तरफ अग्रसर कर सकता है। उसके लिए जीवन की संभाव-नाओं को खोजना लक्ष्य बना सकता है। शिक्षित होकर समाज में अपनी वयस्क भूमिका के साथ जगह बना लेने से इतर, उसे चुनौतियों और समस्याओें के समाधान के लिए तैयार कर सकता   है । अध्यापक प्रचलित समाजीकरण की जड़  प्रवृत्ति को तोड़कर शिक्षार्थी में एक स्वायत्त व्यक्ति होनेका साहस भर सकता है । आज के बदले सन्दर्भोमें यही अध्यापन कर्म है ।
हर साल परीक्षाओं के दौरान देशभर सेबड़ी तादाद में विद्यार्थियों के आत्महत्या करनेया गहन अवसाद में चलेजानेकी खबरें आती हैं । इतना दबाव, इतना तनाव, इतनी संवाद-हीनता और भरोसेकी कमी.... यह कैसी शिक्षा है, जो जीवन पर भारी   है । अध्यापक भी अवसाद में है कि क्यों बड़ी तादाद में विद्यार्थी जीवन सेअसफल हो रहे हैं ? जीवन के प्रति वह वैज्ञानिक नजरिया क्यों नहीं पनप रहा जिसकी बात 'एनसीएफ -२००५` लगातार कर रहा है ? इसे कैसे बदला जा सकता है ? इसमें अध्यापककी क्या भूमिका है ? वह अपने जीवन को कैसे एक बने-बनाये ढांचे से इतर, नई तरह सेजी सकता  है ? कैसे और लोगों के लिए भी नई तरह से जीने का रास्ता खोल सकता  है ? नए सन्दर्भो में शिक्षार्थी की यह दृष्टि बनाना ही अध्यापन कर्म है । अध्यापक अब सिर्फ कर्मचारियों का एक कैडर भर नहीं, बल्कि वह भूमिका है जो बदले हुए परिदृश्य में शिक्षार्थियों को एक स्वायत्ता व्यक्ति के रूप मेंविकसित होने, बदलती परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करने, अलग-अलग विचारों और दृष्टिकोणों का सामना करने और अपनेआसपास के वातावरण के बारे में नयी खोजों से अपने जीवन का पुनर्मूल्यांकन करने में सक्षम बना सके । 
जाहिर है, इसके लिए ऐसे समावेशी और लोकतांत्रिक विद्यालयों की जरुरत है जहाँ अध्यापक सिर्फ लिखाने-पढ़ाने वाला व्यक्ति नहीं, बल्कि एक 'एक्टिविस्ट` की तरह काम करे। समाजीकरण ने जो जड़ता पैदा की  है उसेतोड़ने का प्रयत्न करे। श्रेष्ठता, विषमता और दमन के जिस बोध के साथ विद्यार्थी स्कूलों में आ रहेहैं उस बोध कोअपनेचिंतन, शिक्षण पद्धति और सचेत प्रयास से सवालों की ओर मोड़ सके । यथास्थिति को तोड़ने में खुद साहस दिखायेऔर विद्यार्थियों में ऐसा करने की प्रेरणा भरे । 
ऐसे एक्टिविस्ट अध्यापक ही शिक्षा के माध्यम से लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों की स्थापना कर सकेंगे । पँूजी द्वारा संचालित ढाँचे और स्पर्धाओं सेपरे, शिक्षार्थी कोडॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, मैनेजर या कंपनी सीईओके सीमित विकल्पों सेबाहर चित्रकार, संगीतकार, लेखक, यात्री, कृषक, विदूषक, रंगकर्मी, पक्षी-विशेषज्ञ, मिट्टी या काष्ठ-शिल्पी के रूप में उन्मुक्त जीवन जीनेकी राह दिखानेकी जिम्मेदारी अध्यापन कर्म पर ही है ।         
ज्ञान विज्ञान
समुद्र के पेंदे से २०० फीट नीचे सूक्ष्मजीव पाए गए 
जापान के समुद्र के पेंदे में सैकड़ों फुट नीचे कुछ सूक्ष्मजीव मिले  हैं ।  समुद्र में इतनी गहराई पर तापमान शून्य सेकई डिग्री नीचे होता है और दबाव हजारों वायुमंडल के बराबर होता है । इतना कम तापमान और दबाव किसी भी जीवन की संभावना कोखारिज कर देता है किंन्तु हाल ही में जापान के मैजी विश्वद्यालय के ग्लेन स्नाइडर नेइसी गहराई में ये सूक्ष्मजीव प्राप्त् किए हैं ।
    स्नाइडर और उनके साथी जापान के पश्चिमी तट सेकाफी अंदर गैस हायड्रेट की तलाश कर रहे थे । गैस हायड्रेट गैस और पानी सेमिलकर बने रवेदार ठोस होतेहैं । यह मिश्रण समुद्र की गहराई में मौजूद अत्यंत कम तापमान और अत्यंत उच्च् दबाव पर ठोस बन जाता है। उन्होंने पाया कि बड़े-बड़े (५-५ मीटर चौड़े) गैस हायड्रेट में अंदर डोलोमाइट के रवेफंसेहुए हैं । डोलोमाइट के येकण बहुत छोटे-छोटेथे(व्यास मात्र३० माइक्रॉन) । और इन डोलोमाइट रवों के अंदर एक और गहरेरंग का बिन्दु था। इस बिन्दु ने शोधकर्ताओं की जिज्ञासा बढ़ा दी ।
जब रासायनिक विधि सेहायड्रेट को अलग कर दिया गया तो शोधकर्ताओं कोडोलोमाइट का अवशेष मिला । उन्होंने अमेरिकन जियोफिजिकल युनियन के सम्मेलन में बताया कि जब उक्त  सूक्ष्म धब्बों का फ्लोरेसेंट रंजक सेरंगकर अवलोकन किया तो पता चला कि इनमें जेनेटिक पदार्थ उपस्थित है । यह जेनेटिक पदार्थ सूक्ष्मजीवों का द्योतक है ।
यह तो पहले से पता है कि सूक्ष्मजीव हायड्रेटस के आसपास रहतेहैं किन्तु यह पूरी तरह अनपेक्षित था कि ये हायड्रेडस के अंदर डोलोमाइट में निवास करते होंगे । अवलोकन से यह तो पता नहीं चला है कि ये सूक्ष्मजीव जीवित हैं या मृत किंतु इनका वहां पाया जाना ही आश्चर्य की बात है। चूंकि येहायड्रेटस के अंदर के अनछुए  वातावरण में मिले हैं इसलिए यह निश्चित है कि ये वहीं के वासी होंगे; ये वहां किसी इंसानी क्रियाकलाप की वजह  से नहीं पहुंचे होंगे ।
वैज्ञानिकों का विचार है कि मंगल ग्रह पर भी ऐसे हायड्रेटस पाए जाते हैंऔर काफी संभावना बनती है कि  उनके अंदर ऐसे सूक्ष्मजीवों का घर हो सकता है ।

चांद पर कपास के बीज उगे, अंकुर मर गए
चीन द्वारा चांग-४ अंतरिक्ष यान के साथ चांद पर भेजेगए ल्यूनर रोवर पर एक जैव मंडल (वजन २.६ किलोग्राम ) भी भेजा गया था जिसमें आलू के बीज, पत्ता गोभी सरीखा एक पौधा और रेशम के कीड़े की इल्लियों के अलावा कुछ कपास के बीज भी थे। कपास के बीज चांद पर भी अंकुरित हुए हालांकि उनके अंकुर पृथ्वी पर तुलना के लिए रखेगए कपास के अंकुरों सेछोटेरहे। मगर उल्लेखनीय बात यह मानी जा रही है कि येबीज यान के प्रक्षेपण, चांद तक की मुश्किल यात्रा को झेलकर चांद के दुर्बल गुरुत्वाकर्षण और वहां मौजूद तीव्र विकिरण के बावजूद पनपेथे। खास बात यह है कि उसी जैव मंडल में अन्य किसी प्रजाति में इस तरह जीवन के लक्षण नजर नहीं आए थे। किन्तु अब कपास के वेअंकुर भी मर चुके है ।  
चांग-४ के प्रोजेक्ट लीडर लिऊ हानलॉन्ग नेइस घटना की व्याख्या करतेहुए बताया है कि चांग-४ चांद के दूरस्थ हिस्सेपर उतरा है । जैसेही रात हुई, लघु जैव मंडल का तापमान एकदम कम होगया। उन्होंनेबताया कि जैव मंडल कक्ष के अंदर का तापमान शून्य से५२ डिग्री सेल्सियर नीचेचला गया था । अंदेशा यह है कि तापमान में और गिरावट होगी और यह ऋण १८० डिग्री सेल्सियस तक चला जाएगा । जैव मंडल कोगर्म रखनेका कोई इंतजाम नहीं है।
आम तौर पर पौधों में कम तापमान कोझेलनेके लिए अंदरुनी व्यवस्थाएं होती हैं ।  जैसेतापमान कम होनेपर पौधों की कोशिकाओं में शर्करा और कुछ कुछ अन्य रसायनों की मात्रा बढ़ती है जिसके चलतेकोशिकाओं के अंदर पानी के बर्फ बननेका तापमान (हिमांक) कम होजाता है। इसके कारण कोशिकाओं में पानी बर्फ नहीं बनता अन्यथा यह बर्फ कोशिकाओं को फैलाता है और तोड़ देता है । कुछ अन्य पौधों में कोशिका झिल्लियां सख्त हो जाती है जबकि कुछ पौधों में पानी को कोशिका सेबाहर निकाल दिया जाता है ताकि बर्फ बननेकी नौबत ही न आए ।
मगर इन प्रक्रियाओं के काम करनेके लिए जरूरी होता है कि पर्यावरण सेयह संकेत मिलता रहेकि ठंड आ रही है । मगर यदि तापमान अचानक कम होजाए तोये व्यवस्थाएं पौधेकोबचा नहीं पातीं । इसलिए यकायक पाला पड़े तो पृथ्वी की ठंडी जलवायु वाले पौधे भी बच नहीं पाते। कपास तो गर्म जलवायु का पौधा है। और चांद पर जोठंड आई होगी वह धीरे-धीरे जाड़े का मौसम आनेजैसा कदापि नहीं था । चांद पर दिन के समय (वहां का दिन हमारे१३ दिन के बराबर होता है) का तापमान तो१०० डिग्री सेल्सियस (पानी के क्वथनांक) तक होजाता है जबकि रात में यह ऋण १७३ डिग्री तक गिर जाता है । 
तो ऐसा लगता है कि यह शीत लहर कपास की क्षमता सेबाहर थी । पहले तो कोशिकाओं का पानी बर्फ बन गया होगा, जिसनेउन्हें अंदर सेफोड़ दिया होगा । फिर कोशिकाओं के बीच के पानी का नम्बर आया होगा जिसने पूरे अंकुर कोनष्ट कर दिया होगा । हानलॉन्ग के मुताबिक अब यह प्रयोग समाप्त् माना जाना चाहिए ।

हवा से ऑक्सीजन-१८ को अलग करने की तकनीक विकसित
भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा  विभाग (डीईए) की इकाई भारी जल बोर्ड नेहवा से ऑक्सीजन - १८ को अलग करनेकी तकनीक विकसित की है जिससे आर-म्भिक  चरण में ही कैंसर  की जांच सस्ती हो जाएंगी । 
बोर्ड के एक वैज्ञानिक ने बताया कि ऑक्सीजन - १८ वाले पानी का इस्तेमाल फ्लोरीन - १८ ग्लूकोज बनानेमें होता है । यह ग्लूकोज कैंसर की शुरूआती जांच की अत्याधुनिक तकनीक पॉजिट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (पीईटी) का आवश्यक तत्व है । अभी पीईटी जांच काफी महंगी है, लेकिन फ्लोरीन - १८ ग्लूकोज देश में ही बननेसेयह काफी सस्ता हो जाएगा और अंतत: कैंसर की जांच भी सस्ती जोजाएगी । ऑक्सीजन का परमाणु भार आमतौर पर १६ इकाई होता है । ऑक्सीजन - १८ इसका समस्थानिक है जिसकी परमाणु भार १८ होता  है । ऑक्सीजन - १८ वाला पानी भी प्राकृतिक रूप सेमिलता है, लेकिन इसकी मात्रा बहुत कम होती है । आम तौर पर नदियों में बहने वाले पानी या अन्य प्राकृतिक जल में ऑक्सीजन-१८ वाला पानी भी साथ-साथ पाया जाता है ।, भारी जल बोर्ड के वैज्ञानिक नेबताया कि अभी कैंसर की जांच के लिए ऑक्सीजन १८ वाला पानी आयात किया जा रहा है । दुनिया के कुछ ही देशों के पास इस तरह का भारी पानी बनानेकी तकनीक है । आयात करने पर इसकी कीमत करीब एक हजार डॉलर प्रति ग्राम आती है । वहीं बोर्ड द्वारा बनाए गए ऑक्सीजन १८ के पानी की कीमत २०० डॉलर प्रति ग्राम आती है । इस प्रकार इससेफ्लोरीन - १८ ग्लूकोज और कैंसर की पीईटी जांच  के भी सस्ता होनेकी उम्मीद है ।  
इंसान १७ तरह के हाव-भाव से खुशी जाहिर करते हैं 
कोलबंस कहावत है फर्स्ट इंप्रेशन इज द लास्ट इंप्रेशन । यानी पहली मुलाकात में उसकी जो छवि बनती है, वह अंत तक  जेहन में रहती है । 
आमतौर पर दिन भर में औसतन ६० प्रतिशत सेज्यादा बातें बिना बोलेभी कहीं जाती हैं । ऐसेमें रिश्तों कोबेहतर बनानेके लिए सामनेवालेकी शारीरिक हाव-भाव (बॉडी लेंग्वेज) की समझ रखना बेहद जरूरी है । हाव-भाव के द्वारा दिए जा रहे संकेतों को समझ पाना भी एक बेहद रोमांचक कला है । अमरीकी शोध-कर्ताआें की रिपोर्ट में सामनेआया है कि इंसान चेहरे पर १६३८४ तरह  के भाव बना सकता है । ओहियोस्टेट यूनिवर्सिटी के शोध के अनुसार मनुष्य किसी अन्य भावना के अपेक्षा सेखुशी जाहिर करनेके लिए चेहरेपर सर्वाधिक हाव-भाव का इस्तेमाल करतेहै । सामान्य तौर पर चेहरेके ३५ तरह के हाव-भाव पहचानेजातेहैं।          
जनजीवन
पर्यावरण संरक्षण, हम सबका दायित्व
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

हमारे   पर्यावरणीय प्रदूषण आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है  जिसका प्रभाव पूरे जगत पर हो रहा है। 
विवेकशील एवं विचारशील प्राणी होने के नाते मानव का यह कर्तव्य है कि वह भूमण्डल पर पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी बुद्धि और क्षमताओ का समुचित उपयोग करें । जीवन में भोगवादी जीवन शैली एवं बढती विलासिता के कारण हम अपने परिवेश की अनदेखी करने की गलती कर रहे हैं ।
इन दिनों विश्व स्तर पर हमारी जीवनशैली का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देने लगा  है । अब प्रकृति ने बाढ़, सूखे एवं भूकम्प के रूप में मानव को चेतावनी देना प्रारंभ कर दिया है । आज शायद ही कोई ऐसा क्षैत्र बचा हो जिस पर मानव जनित  प्रदूषण और पर्यावरण विनाश की काली छाया न दिखाई देती हो हो । मानव के  विभिन्न क्रियाकलाप पर्यावरण में व्याप्त् अंसतुलन के लिये जिम्मेदार   हैं । देश में तीव्र गति से बढ़ रही जनसंख्या के दबाव के कारण हमारे पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रमों में अपेक्षित गति नहीं आ पा रही है । 
हमारे देश में वन निरन्तर कम होते जा रहें है । शताब्दियों से यह सिकुडन जारी है पर जिस गति से वनों पर पिछले ४-५ दशको में दबाव बढ़ा है वैसा पहले कभी नहीं रहा । जब हमारा देश आजाद हुआ उस समय कुल क्षेत्रफल के २२ प्रतिशत भाग पर वन थे अब देश के केवल १९ प्रतिशत भाग पर ही वन बचे है। वनों के बचाव के लिये हमें दोहरी नीति अपनानी होगी यानि आज के आधुनिक प्रौघोगिकी ज्ञान को लोगों के पारम्परिक अनुभव के  साथ मिलाकर वन संवर्धन योजनाओ को आगे बढ़ाना होगा । लोकतान्त्रिक समाज में लोगों की सहभागिता के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता । 
देश के सभी नागरिकों का नैतिक दायित्व है कि वे पर्यावरण में संतुलन कायम करने के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाएँ । भारत की अरण्य संस्कृति ने  ही  हमें शिक्षा और संस्कृति के संस्कार दिए थे । यह हमारे लिए राष्ट्रीय जीवन की सामाजिक विरासत है । भारतीय वन्य जीव बोर्ड ने राष्ट्रीय वन्य जीव सुरक्षा के लिए व्यापक प्रबंध किए हैं ।  परन्तु फिर भी आए दिन सरंक्षित पशुओ का शिकार कर कस्तुरी, हाथी दांत, खाल व बाघ की हडि्डयों की तस्करी हो रही है । 
पर्यावरण को सन्तुलित रखने के लिए जल संरक्षण भी हमारी जिम्मेदारी है । कहा जाता है कि जल है तो कल है महाकवि रहीम ने बहुत पहले कहा था कि रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून । देश में सचमुच शुद्ध पानी की कमी है, देश में जल संसाधनों के प्रबंधन में लापरवाही और अनदेखी अगर जारी रही तो भविष्यमें जीवन संकट में पड़ जाएगा । 
हमारे देश में वर्षा जल के संरक्षण के  उद्देश्यों में सफलता नहीं मिल पा रही है । एक दूसरा भारी खतरा भूमिगत जलस्तर के निरन्तर गिरते जाने से उत्पन्न हो गया है । संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण संबंधी रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश नगर भूमिगत जल पर आधारित होते जा रहे हैं । नदियों व झीलों का जल जहरीला होता जा रहा हैं । 
देश की आबादी का बड़ा  हिस्सा गंदा पानी पीने को मजबूर है । हालात इतने गंभीर इसलिए हो गए कि भू-जल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौह व नाइट्रेट जैसे तत्वों, लवणों और भारी धातुआेंकी उपस्थिति के कारण ऐसे पानी को पीने वाले गंभीर बीमारियों के शिकार हो रहे है । इससे त्वचा संबंधी रोग, सांस की बीमारियां, हडि्डया कमजोर पड़ना, गठिया और कैंसर जैसे रोग दस्तक दे रहे है । 
देश आज पीने के पानी और साफ पानी की जिस समस्या से जूझ रहा है इसका कारण जल प्रबंधन में हमारी लापरवाही रही है । दो समस्याएं है, एक पानी नहीं है और दूसरी यह कि जहां पानी है वह पीने लायक नहीं है । देश में बारिश के  पानी को संग्रहित और संरक्षित करने का कोई ठोस तंत्र हम आज तक विकसित नहीं कर पाएं है, जबकि आज भी यह परंपरा का विषय बनकर रह गया है । कुछ राज्योंमें लोक परंपरा के रूप मेंलोग इन देशज उपायों को अपनाकर वर्ष की बूंदों को प्रकृति का उपहार मानकर सहेज रहे हैं । 
कहने को पेयजल के मसले पर कितनी ही योजनाएं-परियोजनाएं बनी, लेकिन जल संकट से मुक्ति नही मिली । यह इस बात का प्रमाण है कि इन योजनाओ पर ठोस तरीके से अमल नहीं हुआ । देश को साफ पानी की उपलब्धता की चुनौती को दूर करना बेहद जरुरी है । हर नागरिक को साफ पेयजल दिया जाना अभी भले ही चुनौती हो, मगर प्रयास किए जाएं, तो ऐसा संभव है । अब तक इस दिशा में सामूहिकता का अभाव दिखता है ।
इन दिनों देश में अनेक स्तरों पर पौधरोपण के कार्यक्रम चलाये जा रहे है यहाँ एक गाँव के प्रयासों की चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा महज दो हजार की आबादी वाले इस छोटे से गांव की गलियों में दो सौ से ज्यादा पेड़ पौधे लहलहाते है, यहाँ हर घर के सामने पेड़ है, इतना ही नहीं,पेड़ को किसी ने नुकसान पहुंचाया तो उसे जुर्माने के तौर पर नए पौधे लगाकर परवरिश करते हुए पेड़ बनाने की सजा सुनाई जाती है । पिछले ३५  सालों से यहां के ग्रामीण हर साल कुछ नए पौधे भी लगाते है । 
मध्यप्रदेश के देवास जिले के गांव देवली की गलियों में पेड़ पौधों की बहार है, गांवभर के लोग इनकी निगरानी करते है गाँव के बुजुर्ग इस बात का ध्यान रखते है कि कोई इन्हें नुकसान नही पहुचाएं, इन्हे सूखने पर नही काटा जाता, यदि कोई ऐसा करते है तो चौपाल पर बैठक में बुजुर्ग उसे नए पौधे लगाने और इन्हे बड़ा करने की सजा सुनाते है इस गाँव में ३५ सालों से यह प्रथा चली आ रही हैं  ।
हमारे देश में हजारो वर्षो से संचित भूजल का बिना सोचे -समझे दोहन किया गया, परिणाम यह हुआ कि हमने धरती का पेट खाली करके प्राकृतिक जल चक्र को प्रभावित किया है। इससे बाढ़ व सूखे की स्थितियां उत्पन्न हुई है और पर्यावरण असंतुलित हुआ है । आज देश के  प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह जल संरक्षण के विभिन्न उपायों को अपने जीवन में अमली जामा पहनाने का प्रयत्न करे तभी हम आगे आने वाली पीढ़ियों को पीने का पानी उपलब्ध करा पायेंगे । 
हमारे देश में शहरों का आकार निरन्तर बढ़ता जा रहा है । आज संसार में शहरी आबादी की दृष्टि से भारत का चौथा स्थान है । अनुमान है कि आज बड़े शहरों में लगभग ३५ करोड़ लोग रह रहे है । इतनी बड़ी  जनसंख्या के लिए आवास, परिवहन के साधन एवं पीने के पानी उपलब्ध कराना बहुत कठिन कार्य है । देश में कस्बो एवं छोटे शहरों की संख्या ४७०० है । इसमें केवल २५०० कस्बों व शहरों में ही पेयजल की सही व्यवस्था है । मलमूत्र की निकासी के लिए सीवरेज की पूरी व्यवस्था तो काफी कम शहरों में ही उपलब्ध है, ऐसे में पर्यावरण का प्रदूषण होना स्वभाविक है । 
अर्थतंत्र के हर हिस्से में पर्यावरणीय समस्याएं अपने पंजों को फैला रही हैं । आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनी विकास परियो-जनाओ को पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में तय करें व उन्हें पर्यावरण सम्मत बनाये रखे । जल विद्युत योजनाएं हो या थर्मल पॉवर योजनाएं या कोई और विकास कार्य हो, हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण असन्तुलित न होने पाए और यदि कुछ हद तक पर्यावरण  सन्तुलन में कुछ गड़बड़ होती है तो उस समस्या के निदान के रास्ते भी तय किय जाये और तुरन्त लागु किये जाये  ।
यदि राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक नागरिक पर्यावरण संतुलन के प्रयासों में एक जुट हो जाए तो हमारे देश की औद्योगिक गति की प्रक्रिया को कहीं अधिक सुगमता और तेजी से बढ़ाया जा सकता है । पर्यावरण से संबंधित सभी प्रकार के मुद्दो को  मिलजुलकर हल करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओ के बीच संयुक्त रूप से प्रयास करने होंगे । विकास की विभिन्न योजनाओ को प्रारंभ करने के पूर्व अनुसंधानों के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टि से सृजनात्मक एवं व्यावहारिक सुझावो को परियोजना में शामिल करते उनके अनुरूप कार्य करने होंगे । 
प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा व संरक्षण के लिए भारत सरकार ने विभिन्न कानून बनाएं है । जैसे कीटनाशक एक्ट १९६८, वन्य जीव एक्ट १९७२, जल प्रदूषण एक्ट १९७४, वायु प्रदूषण एक्ट १९८१ और पर्यावरण संरक्षण एक्ट १९८६ आदि  । लेकिन इन कानूनों की सार्थकता तभी होगी जब सरकार और समाज दोनों स्तर पर जिम्मेदारी की भावना से कार्य होगे इसके लिए हमें अपनी प्रवृत्ति बदलनी होगी और जीवन में प्रकृति मित्र दृष्टि का विकास करना होगा । प्रसिद्ध भौतिकविद स्टीफन हॉकिंग का कहना है कि मानव जाति अपने इतिहास में आज सबसे अधिक खतरनाक वक्त का सामना कर रही   है । विश्व की आबादी लगातार बढ़ रही है और प्राकृतिक संसाधन खत्म हो रहे है । पर्यावरण नष्ट हो रहा है । प्रकृतिक के साथ सन्तुलन बनाने वाले वन्य जीवों की प्रजातियां लुप्त् हो रही है । 
वैज्ञानिक बताते हैंकि दस हजार साल पहले तक धरती पर महज कुछ लाख इंसान थे । १८वीं सदी के आखिर में आकर धरती की आबादी ने सौ करोड़ का आंकड़ा छुआ था । १९२० में धरती पर दो सौ करोड़ लोग हुए । आज दुनिया की आबादी सात अरब से ज्यादा है । साल २०५० तक यह आंकड़ा करीब दस अरब और २२वीं सदी के आते-जाते धरती पर ११ अरब इंसान होने का अनुमान जताया जा रहा है । हम जिस तकनीकी और प्रौघोगिकी विकास का गुणगान करते हैं, वह हमारे नियंत्रण में नहीं है, इसीलिए स्टीफन कहते हैं कि हमारे पास अपने ग्रह को नष्ट करने की प्रौघोगिकी है, लेकिन इससे बच निकलने की क्षमता अब तक हमने विकसित नहीं की है । 
वैज्ञानिक स्टीफन ने प्रकृतिक के साथ लगातार किए जा रहे खिलवाड़ को लेकर जो चेतावनी जारी की है, उस पर पूरी दुनिया को तत्काल अमल करने की जरूरत है, ताकि विकास की अंधी दौड़ में हम इंसानी बस्तियों को कब्रिस्तान में बदलने की आदत से बाज आएं । साथ ही इंसानों को अपनी जीवनशैली में तत्काल बदलाव करने की जरूरत है । 
प्रकृति के जबरदस्त दोहन के परिणाम पहले भी हमारे सामने आते रहे हैं । कही बाढ़ कहीं सूखा तो कहीं भूकंप की त्रासदी से हमारा सामना होता ही रहता है । ये आपदाएं हमारे लिए सबक के समान है । धरती पर मानव सभ्यता को दीर्घजीवी बनाने के लिए मानव को अपनी जीवनशैली में तत्काल बदलाव लाने की जरूरत   है । 
पर्यावरण के संदर्भ में हमें अपनी बुद्धि, विवेक और मर्यादा के अनुसार इन सब बातों को ध्यान में रखकर उचित रूख अपनाना होगा और पर्यावरण संरक्षण को सबका साझा दायित्व समझकर सही निर्णय लेना होगा । जिस पर्यावरण के घटकों से हमारा शरीर बना है और जिन प्राकृतिक संसाधनों से हमारा जीवन चलता है उसके प्रति हमारी भावना निष्ठामय और निश्चल होनी चाहिए तभी पर्यावरण का सपना सफल  होगा । अपने पर्यावरण को सर्वोपरि मानकर ही हम उसका संरक्षण कर सकते हैं और सम्पूर्ण समाज को भी स्वस्थ, शांत तथा रोगमुक्त रख सकते है ।                                        
वन्य जीव
वन्य जीव संरक्षण प्राथमिक आवश्यकता
प्रो. कृष्ण कुमार द्विवेदी 
पृथ्वी पर वन्य जीव-जंतु एवं उनकी विविधता ही अरबों वर्षो से हो रहे जीवन के सतत् विकास की प्रक्रिया के आधार रहे हैं । प्रकृति में जीवों का विस्तार एवं जीव समुदायों के मध्य मिलने वाली जैन विविधता का अत्याधिक महत्व है । 

आज बढ़ते विभिन्न पर्यावरणीय ह्ास के कारण वन्य जीवों की विविधता का क्षय हुआ है और जीवों की अनेकानेक प्रजातियां लुप्त् हो गई है तथा सैकड़ों प्रजातियां संकटाग्रस्त हैं । वन्य जीवों का बने रहना समस्त स्थलीय एवं जलीय जीवों के लिए अत्यंत आवश्यक है । विशेषकर भावी पीढ़ियों के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए वन्य जीवों का संरक्षण वर्तमान में आवश्यकता बन गई हैं । वस्तुत: वन्यजीव एवं उनकी विविधता मानव सभ्यता की सांझी संपदा है, जिसका संरक्षण एवं संवर्धन संपूर्ण विश्व समुदाय का सामुहिक दायित्व है । 
विविध जीव-जंतु सदा- सर्वदा से विभिन्न मानवीय आवश्यकताआें की आपूर्ति के लिए वन्य जीवों पर ही निर्भर रहते आए हैं । वन्य जीव-जंतुआें से प्राप्त् विभिन्न उत्पाद तथा उनकी उपस्थिति मात्र ही मानव के लिए अत्यंत उपयोगी होने के साथ-साथ वन पारिस्थितिक तंत्र के निर्माण के मुख्य आधार होते हैं । 
वन्य जीव जंतुआें की विविधता का मानव के लिए नीतिपरक एवं आचरणगत महत्व भी अत्याधिक होता है । पंत्रतंत्र एवं जंगल-बुक जैसे ग्रंथ वन्य प्राणियों के नीति कथाआें से भरे पड़े हैं । वन्य जीव-जंतुआें के माध्यम से जीनोपयोगी शिक्षाआें को सरल एवं सरस रूप में व्यक्त किया जाता है । शेर जैसी निडरता, बगुले जैसी एकाग्रता, हिरण् जैसी चपलता, काग जैसी चेष्टा, स्वान जैसी स्वामी भक्ति आज भी मानव आचरण के लिए श्रेष्ठतम प्रतिमान मानी जाती है । 
वर्तमान में विकसित एवं अतिलोकप्रिय जूडो-कराटे, कुंग-फू आदि मार्शल आर्ट पूर्णत: वन्य प्राणियों से ही अभिप्रेरित होते   हैं । वन्य प्राणियों की विविधता पृथ्वी पर प्राकृतिक सौंदर्य में भी अतिशय अभिवृद्धि करती है । चिड़ियों की चहचहाट, पवनों के झोंको से मदमस्त घूमते वन्य प्राणी, कुलांचे भरते हिरण के छौने, कोयल की कूक, पपीहे की पी-पी, सभी का मन मोह लेती हैं । वन्य जीव और उनकी विविधता से समृद्ध प्राकृतिक स्थल एवं वन क्षेत्र के रूप में विकसित होने के आधार बनते हैं । 
यहां उल्लेखनीय है कि वन्य प्राणियों की विविधता का वन पारिस्थितिक तंत्र के तुलना मेंविशिष्ट महत्व होता है । उत्पादक, उपभोक्ता एवं अपघटक के रूप मेंअधिसंख्य वन्य जीव एक उत्कृष्ट पूर्ण पारिस्थितिक तंत्र के संचालन के आधार होते हैं । वन पारिस्थितिक तंत्र से ही विभिन्न वनस्पतियां एवं जीव-जंतुआें की संख्या में कमी आती हैं और उनका ह्ास होता है तो समग्र पर्यावरण असंतुलित हो जाता है जिसके कारण गहन पर्यावरणीय और प्राकृतिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती है । 
अतएव मानव सभ्यता की संरक्षा और भावी पीढ़ी के खुशहाल भविष्य के परिप्रेक्ष्य में तथा जलवायु परिवर्तन, भूमण्डलीय तापन तथा अन्य प्राकृतिक आपदाआें से बचने के लिए वन्य जीवों का संरक्षण करना एक सामयिक और अनिवार्य आवश्यकता है ।