गुरुवार, 21 नवंबर 2019



प्रसंगवश
नौणी विश्वविद्यालय ने निकाला प्याज का विकल्प 

हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में नौणी स्थित डॉ. यशवन्त सिंह परमार औघोगिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय ने प्याज की एक किस्म विकसित की है जो खरीफ मौसम में उगाई जा सकेगी और किसानों के लिए भी यह बेहतर आमदनी का स्त्रोत बनेगा । 
समय-समय पर यह देखा गया है कि प्याज के दाम, आम जनता की पहुंच से दूर हो जाते हैं । खरीफ प्याज जैसी नई किस्म न केवल आम जनता को महंगाई के दंश से बचा सकती है । अपितु किसानों की आमदनी बढ़ाने का भी एक विकल्प हो सकता है, बशर्ते किसान इसकी खेती की तकनीक हासिल कर वैज्ञानिक विधि अपनाएं । खरीफ प्याज की फसल ऐसे समय में बाजार में दस्तक देती है है जब आम जनता प्याज के आसमान छूती कीमतों से परेशान होती है । 
विश्वविद्यालय के सब्जी वैज्ञानिक डॉ. दीपा शर्मा, खरीफ प्याज की लोकप्रियता एवं जागरूकता बढ़ाने के लिए केन्द्र के विज्ञान एवं प्रौघोगिकी विभाग द्वारा स्वीकृत २०.४३ लाख रूपए की एक परियोजना पर कार्य कर रही   है । 
यह योजना वर्तमान मेंचम्बा जिले के विभिन्न स्थानों पर  चलाई जा रही है जिसमें विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. राजीव रैना और डॉ. संजीव बन्याल सह प्रमुख अन्वेषक के रूप में कार्य कर रहे है । इस परियोजना के अन्तर्गत गत दो वर्षोमें चम्बा जिले के विभिन्न स्थानों पर २४५ प्रदर्शन एवं १४ प्रशिक्षण कार्यक्रम किए गए जिनसे लगभग ३६२ किसान लाभान्वित हुए । 
डॉ.शर्मा के अनुसार खरीफ प्याज की एक क्विंटल गठि्ठयां तैयार कर रख ली जाएं तो बाद में प्याज के रूप में छह गुणा अधिक उत्पादन देती है । बाजर में यही प्याज ५० रूपए किलोग्राम के हिसाब से आराम से बिक जाता है । किसान एक क्विंटल गठि्ठयों से लगभग छह क्विंटल प्याज प्राप्त् कर ३० हजार रूपए तक आय प्राप्त् कर सकता है । लिहाजा किसान न केवल अपने लिए प्याज उत्पादन कर सकता है बल्कि आम जनता के लिए भी बाहरी राज्योंकी आवक के बजाय क्षेत्रीय प्याज को सस्ते दामोंपर उपलब्ध करा सकता है । 
विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. परविंदर कौशल ने खरीफ प्याज पर किए इस कार्य को किसानों द्वारा व्यावसायिक स्तर पर अपनाने तथा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को इसे अधिकाधिक किसानों तक पहँुचाने का आग्रह किया है । 
सम्‍पादकीय
अब देश में बनेगी जीन कुण्डली 

अब देश में ही जीन कुंडली बनवा पाना संभव हो गया है । इससे पता चल सकेगा कि भविष्य में आपको या आपकी संतानों को १७०० से ज्यादा किस्म की आनुवांशिक बीमारियों में से कौन सी बीमारी हो सकती है । यह भी जान सकेगे कि एक ही बीमारी से पीड़ित दो अलग-अलग मरीजों में से किसके लिए कौन सी दवा ज्यादा असरदार होगी । जीन कु ण्डली बनाना दरअसल किसी व्यक्ति के जीनोम को सीक्वेंस कर लेना है । 
किसी व्यक्ति की आंख, त्वचा, बालों के रंग, नाक व कान के आकार, आवाज, लम्बाई जैसे सभी लक्षणों से लेकर बीमारियों का होना या न होना जीन से तय होता है । जीन हर प्राणी की कोशिका में होते हैं । शरीर की हरेक कोशिका में मौजूद ३.३ अरब जीन को सामूहिक रूप से जीनोम कहा जाता है । सभी जीन को क्रमबद्ध करना जीन कुण्डली कहलाता है । 
काउंसिल ऑफ साईटिफिक एंड इंडस्ट्रीयल रिसर्च (सीएसआईआर) की हैदराबाद और दिल्ली की लैब ने छह महीने के भीतर देशभर से एकत्र किए गए १००८ नमूनों की जीनोम सीक्वेसिंग पूरी कर ली है । सैंपल देने वाले सभी लोगों की सीएसआईआर की आईजीआईबी लैब ने इंडिजेन कार्ड भी जारी किया है । सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि लैब में समय सीमा के अंदर जीनोम सीक्वेंस करने में सफलता पाई है । 
अभी तक जीन सीक्वेंस तैयार करने में सालों लगते थे । इंडिजेन कार्ड में व्यक्ति विशेष के जीनोम का पूरा डेटा उपलब्ध है जिसे एक विशेष एप व क्लीनिकल एक्सपर्ट की मदद से इस्तेमाल किया जा सकता है । इससे पता चल सकता है कि आनुवांशिक रूप से होने वाली बीमारियों में से किस बीमारी का जीन आपके शरीर में मौजूद है । यदि ऐसे व्यक्ति की शादी इसी किस्म के जीन वाले व्यक्ति से होती है, तो संतान को वह रोग हो सकता है । इसीलिए विवाह तय करने या संतान की योजना बनाने में इंडिजेन कार्ड यानी जीन कुण्डली उपयोगी साबित हो सकती है । 
सामयिक 
नर्मदा-घाटी में बांध-जिद या जरूरत 
शमारूख धारा / राकेश चान्दौरे 

पिछले साल तत्कालीन मुख्यमंत्री की नर्मदा यात्रा को लेकर भोपाल में हुए नर्मदा-प्रेमियों के जमावडे में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण` के तत्कालीन उपाध्यक्ष न े बड़े बांधों से तौबा करते हुए कहा था कि मध्यप्रदेश में अब इस तरह की परियोजनाएं केवल नागरिकों के आग्रह पर ही हाथ में ली जाएगी । 
मध्यप्रदेश राज्य और नर्मदा नदी के लगभग बीच में प्रस्तावित मोरंड-गंजाल परियोजना पिछली सरकार के इसी वायदे की अनदेखी का एक नायाब नमूना है । राज्य की नर्मदा घाटी में बनी और बन रही २९ बडी बांध परियोजनाआें में से एक मा ेरंड-ग ंजाल म ें भी व े सब कारनामे दोहराए जा रह े हैं जिन्हें 'रानी अवंतीबाई सागर,` 'इंदिरासागर,` ओंकारेश्वर,` 'महेश्वर` और 'सरदार सरोवर` ने भोगा है। 
इस साल के मानसून में सबसे ज्यादा व लगातार कोई मीडिया और आम जन-मानस के बीच चर्चित रहा है, ता े वह है बड़े बांध और उनसे प्रभावित लोग । प्रदेश ही नहीं देश के कई हिस्सों में मानव निर्मित इन बड़े बांधों के कारण मची तबाही से जनता उबर भी नही ं पाई है कि मध्यप्रदेश से एक और बड़ बांध के निर्माण की खबर मिली है। नर्मदा घाटी के तीस बडे बांधों में से पहला बांध होशंगाबाद जिले में तवा नदी पर वर्ष १९७८ में बनकर तैयार हुआ था । उसके करीब ४० साल बाद नर्मदा घाटी में ही सिंचाई और पीने के पानी की आपूर्ति के लिए एक और बडा बांध मोरंड एवं गंजाल नदी पर बनाया जाना प्रस्तावित है । यह बांध 'नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण` (एनवीडीए) द्वारा बनाया जायेगा । मोरंड-गंजाल बांध से हरदा, होशंगाबाद आ ैर बैतूल जिले के २३ गाँवों की जमीन और जंगल सीधे प्रभावित होंगे । 
मोरंड-गंजाल संयुक्त सिंचाई परियोजना का प्रस्ताव दो वर्ष की वैधता के साथ अक्टूबर २०१२ में मिला था, परन्तु 'एनवीडीए` निर्धारित समयावधि में पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रियाआ ें को पूर्ण नहीं कर पाया और नतीजे में इस अवधि का े बढ़ाकर चार वर्ष किया गया । किसी भी परियोजना के लिए अनिवार्य पर्यावरणीय मंजूरी प्रभावितोंकी जन-सुनवाई और पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) की प्रक्रिया की रिपोर्ट केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, को भेजने के बाद मिलती है, लेकिन एनवीडीए ने यह खानापूर्ति महज दो हफ्तों में ही पूरी कर दी । तीन से १८ नवम्बर २०१५ के बीच मात्र १५ दिनों में तीनों प्रभावितों जिलों हरदा, होशंगाबाद और बेतूल के प्रभावितों के तीखे विरोध के बावजूद जन-सुनवाई का तमाशा निपटा दिया गया और जुलाई १६ मेंपरियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी के लिए प्रस्तुत कर दिया गया । 
इस परियोजना का दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि इससे प्रभावित होने वाले तीनों जिलों का २३७१.१४ हेक्टेयर घना जंगल डुबोया जा रहा है । कानून के अनुसार इतने बड़े पैमाने पर वनभूमि को डुबोेने के लिए शुरुआत में ही मंजूरी लेना अनिवार्य हैै, लेकिन 'सूचना का अधिकार कानून-२००५` के तहत मिली जानकारी से पता चला कि इस मंजूरी के लिए जरूरी क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए सितम्बर २०१९ तक आवश्यक भूमि आरक्षित नही ं हो पाई थी । 
तीसरा मसला है 'पेसा कानून,` जिसक े तहत बिना ग्रामसभा की अनुमति लिए आदिवासी क्ष ेत्र में कोई परियोजना लागू नहीं की जा सकती । परियोजना प्रभावित परिवारों में ९४ प्रतिशत लोग जनजातीय समुदाय, विशेषतरू कोरकू और गौंड जनजाति के हैं, शेष ६ प्रतिशत दलित एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के । इन स्थानीय आदिवासी समुदायों द्वारा ग्रामसभाओं के माध्यम से लगातार मोरंड- गंजाल सिंचाई परियोजना का विरोध किया जा रहा है और कई बार अपनी-अपनी ग्रामसभाओं में वे इस बाबत प्रस्ताव भी पारित कर चुक े  हैं, लेकिन उनकी एक नहीं सुनी जा रही । ग्रामसभाओं के ठहराव-प्रस्ताव प्रदेश के हुक्मरानों को भी भेजे गए, परन्तु इन सभी तथ्यों को  दरकिनार करते हुए इस बांध परियोजना को प्रशासनिक स्वीकृति दे दी गई । यह लोकतंत्र की बुनियाद मानी जाने वाली ग्रामसभाआेंके अस्तित्व को नकार कर 'मध्यप्रदेश पंचायत एवं ग्राम स्वराज अधिनियम-१९९३` का भी स्पष्ट उल्लंघन था । 
इस परियोजना से जुडा चौथा मुद्दा है, 'अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-२००६` के तहत परियोजना प्रभावित गांवों में वन संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों का अभी तक निराकरण नहीं किया जाना । 'केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय` ने भी मार्च २०१७ में ही स्पष्ट कह दिया था कि इस परियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी तभी मिलेगी जब 'एनवीडीए` कोे पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्त होगी । इन सभी तथ्यों के आधार पर 'एनवीडीए` द्वारा बांध के निर्माण के लिए टेन्डर जारी करना कानून का उल्लंघन है । इससे हम समझ सकते हैं कि हमारे योजनाकारों को विकास के लिए बड़े बांध ही एकमात्र तरीका नजर आता है । 
परियोजना के आर्थिक पक्ष को देखें तो जब वर्ष २०१२ में इस परियोजना को बनाने का विचार शुरू हुआ था, तब सरकार ने उसका अनुमानित खर्च करीब १४३४ करोड़ रूपये बताया था, लेकिन करीब सात साल बाद इसी परियोजना का खर्च बढ़कर २८१३ करोड़ रूपये हो गया है । जब यह परियोजना शुरू होगी तो निश्चित ही इससे कई गुना ज्यादा खर्च होगा और लागत में यह बढ़ोत्तरी परियोजना के आगे बढ़ने के साथ-साथ लगातर बढ़ती रहेगी । मध्यप्रदेश जैसे राज्य के लिए यह विचारणीय सवाल है कि क्या करोड़ों खर्च कर लोगों को उजाड़ने के साथ ही पर्यावरणीय मुद्दों को नजर-अंदाज करना ठीक होगा ? 
हमारे पास यदि इतने संसाधन हैं तो बांध बनाने के बजाए व्यापक जन-संवाद कर जनता के विचारोंऔर जरूरतों के अनुसार पहले हमें पानी के उपयोग, संरक्षण, संवर्धन आदि के संबंध में नीति बनाना चाहिये । क्या सिंचाई तथा पीने के पानी की व्यवस्था स्थानीय स्तर पर छोटे तालाब, छोटी जल-संरचनायें और पानी बचाने के प्रयासों से नहीं की जा सकती ?
सरदार सरोवर का ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है जहाँ इसी साल मध्यप्रदेश के धार, अलीराजपुर, बड़वानी जिलों के १७८ गाँव बांध जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं । दूसरी ओर, मध्यप्रदेश के ही गांधीसागर बांध में पूर्ण जलाशय स्तर से ऊपर पानी भरने से डूब क्षेत्र का रामपुरा गाँव ही प्रभावित हो गया है । इन संकटों से सीख लेने की बजाए अपने अनुभवों को अनदेखा करके हम एक और बड़े बांध का सपना देख रहे हैं, जो निश्चित ही प्रदेश के हित मेंनहीं होगा ।
हमारा भूमण्डल
विश्व ऊर्जा का वर्तमान दृश्य
डॉ. बी.जी. देसाई
वर्ष१९७३ के ऊर्जा संकट ने ऊर्जा आपूर्ति और कीमतों को लेकर व्याप्त खुशफहमी को एक झटके में दूर कर दिया था। विश्व ने इसका जवाब ऊर्जा दक्षता में सुधार और तेल के विकल्पों के रूप में दिया । 
ग्लोबल वार्मिंग की चिंता ऊर्जा दक्षता और नवीकरणीय ऊर्जा के  विकास की ओर प्रोत्साहित कर रही है। इस लेख में ऊर्जा संकट के पहले और उसके बाद पूरे विश्व और भारत के परिदृश्य की चर्चा की गई है। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर आगे की कार्रवाई के लिए कुछ टिप्पणियां की गई हैं । 
१९७३ के अरब-इजराइल युद्ध ने ऊर्जा संकट को जन्म दिया । इस ऊर्जा संकट नेे विश्व को ऊर्जा, विशेष रूप से तेल, की सीमित उपलब्धता और बढ़ते मूल्य के प्रति आगाह किया । विकसित दुनिया ने सुरक्षित ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए १९७४ में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का गठन किया । १९७३ और ऊर्जा संकट के ४० साल बाद २०१४ के विश्व ऊर्जा परिदृश्य को देखना लाभदायक होगा । 
ऊर्जा एजेंसी ने अपना वार्षिक प्रतिवेदन वर्ल्ड एनर्जी स्टेटिस्टिक्स २०१६ (विश्व ऊर्जा सांख्यिकी) प्रकाशित कर दिया है। यह सारांश रूप में भी उपलब्ध है। ये प्रकाशन १९७३ में (ऊर्जा संकट से पहले) और २०१४ में (ऊर्जा संकट के बाद) विश्व ऊर्जा आपूर्ति और खपत के दिलचस्प ऊर्जा रुझान प्रस्तुत करते हैं। यह लेख ऊर्जा संकट के पहले और बाद दुनिया में ऊर्जा आपूर्ति और उपयोग की कुछ विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसमें भारत के लिए भी इसी प्रकार की तुलना की गई है।
प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति 
१९७३ में, विश्व ऊर्जा आपूर्ति ६१०१ एमटीओई थी। (एमटीओई यानी मिलियन टन तेल केसमतुल्य, यह गणना एक कि.ग्रा. तेल = १०००० किलो कैलोरी पर आधारित है।) २०१४ में यह १३,०९९ एमओटीआई हो गई थी। अर्थात १९७३ की तुलना में २०१४ में ऊर्जा आपूर्ति बढ़कर २.२५ गुना हो गई ।  
तेल की कीमतों में तेजी से वृद्धि के चलते इसके विकल्पों की खोज और कुशल उपयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ है। १९७३ में कुल ऊर्जा आपूर्ति में तेल का हिस्सा ४६ प्रतिशत था जबकि २०१४ में केवल ३१.३ प्रतिशत ऊर्जा आपूर्ति तेल से हुई । कोयले और गैस का उपयोग थोड़ा बढ़ा। जलाऊ लकड़ी और कंडे जैसे जैव इंर्धन, जिनका उपयोग मुख्यत: भारत जैसे विकासशील देशों में होता है, की ऊर्जा आपूर्ति में अभी भी १० प्रतिशत भागीदारी है। जहां नाभिकीय ऊर्जा के हिस्से में तेज वृद्धि देखी गई, वहीं पनबिजली में काफी कम वृद्धि हुई। विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी में भी नाटकीय परिवर्तन हुए हैं।  
ओईसीडी में युरोप, यूएसए, जापान और अन्य शामिल हैं। गैर गैर-ओईसीडी युरोप में रूस और इसके पूर्व सहयोगी युक्रेन, तुर्कमेनिस्तान आदि शामिल हैं। एशिया में भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका और अन्य शामिल हैं। तालिका से पता चलता है कि चीन और मध्य पूर्व में ऊर्जा उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि हुई है और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा युरोप में ऊर्जा आपूर्ति में गिरावट आई है। ऊर्जा आपूर्ति में एशिया की भागीदारी भी बढ़ी है।
वर्ष २०१४ और १९७३ में ऊर्जा के मूल्यों को वास्तविक इकाइयों में दर्शाया गया है और २०१४ व १९७३ में उनका अनुपात दिया गया है। तालिका से स्पष्ट है कि इस अवधि में तेल में अपेक्षाकृत कमी आई है, जबकि गैस और कोयले के साथ-साथ नाभि-कीय बिजली और पनबिजली में भी वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि पनबिजली का उत्पादन (३८३३ /२५३५) नाभिकीय से ३१ प्रतिशत अधिक है, लेकिन ऊर्जा एजेंसी जिस तरीके से गणना करता है उसके आधार पर पनबिजली (२.४ प्रतिशत) की तुलना में नाभिकीय ऊर्जा का योगदान अधिक है (४.८ प्रतिशत) है। 
जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और ऊर्जा उपयोग की तीव्रता को देखना काफी दिलचस्प हो सकता है । यह देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति की तुलना में जीडीपी काफी तेजी से बढ़ रहा है जिसका श्रेय ऊर्जा दक्षता में वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन  को जाता है।
इसके परिणामस्वरूप औद्योगिक ऊर्जा खपत में कमी आती है और परिवहन, आवासीय एवं वाणिज्यिक सेवाओं में ऊर्जा की खपत में वृद्धि होती है।  विशेष रूप से ओईसीडी देशों में औद्योगिक ऊर्जा खपत में गिरावट के रुझान तथा परिवहन और आवासीय ऊर्जा खपत में वृद्धि नजर आती है। मैन्यूफेक्चरिंग ओईसीडी से एशिया की ओर चला गया है। १९७३ और २०१४ में अंतिम ऊर्जा खपत और कुल ऊर्जा आपूर्ति के अनुपात की ओर ध्यान देना उपयोगी होगा ।
वर्ष १९७३ में, अंतिम ऊर्जा खपत/ कुल ऊर्जा आपूर्ति = ४६६१/ ६१०१ यानी ७६ प्रतिशत थी। २०१४ में, अंतिम ऊर्जा खपत / कुल ऊर्जा आपूर्ति = ९४२४/१३,६९९ यानी ६८ प्रतिशत थी।
यह ऊर्जा उपयोग में बिजली के अधिक इस्तेमाल का संकेत देता है। इसके चलते बिजली के उत्पादन के दौरान अधिक नुकसान होता है जिसका परिणाम यह होता है कि आपूर्ति की तुलना में अंतिम उपयोग कम हो जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि जहां १९७३ की तुलना में २०१४ में विश्व  ऊर्जा की खपत दोगुनी से भी अधिक हो गई, वहीं ओईसीडी की ऊर्जा खपत में केवल २८ प्रतिशत की वृद्धि हुई । भारत में १९७३ और २०१४ ऊर्जा परिदृश्य पर नजर डालना भी उपयोगी हो सकता है। देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति में नाटकीय वृद्धि हुई है और ऊर्जा दक्षता में सुधार हुआ है।
विश्व ऊर्जा आपूर्ति १९७३ से २०१४ के बीच दोगुनी से भी अधिक हो गई है। तेल उत्पादन केवल ५० प्रतिशत बढ़ा है। यह इंर्धन दक्षता और तेल की जगह अन्य इंर्धन के उपयोग में उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाता है। बिजली उत्पादन एवं अन्य उपयोगों के लिए तेल की जगह कोयले और गैस का उपयोग किया जाने लगा है। तेल का उपयोग मुख्य रूप से परिवहन क्षेत्र द्वारा किया जा रहा है। 
भारत में तेल की मांग में ८०० प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि विश्व में यह वृद्धि ५० प्रतिशत है।
ऊर्जा आपूर्ति दुगनी होने के साथ बिजली उत्पादन में लगभग ४ गुना वृद्धि हुई है। यह एक विद्युत-आधारित विश्व के प्रति रुझान को दर्शाता है। ६५ प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयला और गैस द्वारा किया जाता है।
ऊर्जा की उत्पादकता (दक्षता) में नाटकीय सुधार हुआ है। विश्व जीडीपी में १७ गुना और ऊर्जा आपूर्ति में मात्र २.२५ गुना वृद्धि हुई है। मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो जीडीपी में वास्तविक वृद्धि  इससे १० गुना अधिक होगी ।
भारत ने भी ऊर्जा के सभी रूपों - कोयला, गैस, और बिजली उत्पादन - में प्रभावशाली प्रगति की है। भारत ने ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरचनात्मक परिवर्तन की बदौलत ऊर्जा उत्पादकता में काफी सुधार किया है। सेवा क्षेत्र अब जीडीपी का ५० प्रतिशत से अधिक प्रदान कर रहा है जबकि उद्योगों की भागीदारी ७० प्रतिशत से घटकर २५ प्रतिशत हो गई है।
भारत में ऊर्जा परिदृश्य की दो प्रमुख समस्याएं हैं तेल की बढ़ती मांग और बायोमास के उपयोग की कमतर दक्षता। कच्च्े तेल का उपयोग आठ गुना बढ़ गया है। उचित नीतियों से इसे टाला जा सकता था।
तेल की बढ़ती मांग पर अंकुश लगाने के लिए सड़क की जगह रेल परिवहन को तथा निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए । इन दोनों उपायों की तत्काल आवश्यकता है।
पारंपरिक बायोमास इंर्धन ४० साल पहले ५० प्रतिशत ऊर्जा की आपूर्ति करता था, उसकी तुलना में अभी भी २५ प्रतिशत ऊर्जा इसी से मिलती है। इन इंर्धनों का उपयोग मुख्य रूप से खाना पकाने के लिए किया जाता है। 
उन्नत चूल्हे उपलब्ध होने के बाद भी खाना पकाने के चूल्हों की दक्षता ८-१० प्रतिशत ही है। एलईडी लैंप और नवीकरणीय ऊर्जा की तर्ज पर खाना पकाने के कुशल चूल्हों और सोलर कुकर को बढ़ावा देने के लिए बड़े कार्यक्रमों की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे एक कार्यक्रम के तहत जनवरी २०१८ तक २८ करोड़ एलईडी बल्ब वितरित किए जा चुके थे । 

बुधवार, 20 नवंबर 2019

गांधी - १५०
गांधी : पर्यावरण के भविष्यवक्ता
डॉ. ओ.पी. जोशी

    डेढ़ सौ पहले पैदा होकर करीब सत्तर साल पहले तक हमारे साथ रहे गांधीजी ने आज की लगभग सभी कठिन समस्याआें को महसूस करने और उनसे निपटने की तजबीज सुझाने का कमला किया था, लेकिन ठीक उसी दर्जे और लहजे का कमला हम हिन्दुस्तानियों और दुनियाभर के लोगों ने गांधी को अपनी अपनी हवस के चलते तुरत-फूरत खारिज करन े में भी किया। नतीजा हम सबकी बदहाली के रूप में सामने है। 


     गांधीजी के समय में न तो पर्यावरण शब्द इतना प्रचलित था और न पर्यावरण की समस्याएं ही इतनी गम्भीर थीं जितनी आज हैं। गांधीजी ने पर्यावरण की जगह प्रकृति शब्द का उपयोग किया था। उनके द्वारा व्यक्त  विचारा ें तथा लेखों में भविष्य की पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति उनकी चिंता झलकती थी । उन्होंने इन पर न केवल चि ंता जतायी अपितु समझाईश देकर चेतावनी भी दी। वर्तमान म ें पर्यावरण स े जुड़ी सारी चिंताएं मानव क ेन्द्रित हैं क्यों कि मानव आज अपने तथा कथित विकास के नाम पर पर्यावरण को जीवन-दाता मानने के बजाए एक दास या सेवक मानने लगा है। गांधीजी की सोच जीव-केन्द्रित पर्यावरण की थी जिसमें मानव के साथ-साथ पेड़ पौधा ें एवं जीव जंतुओं को भी समाहित कर महत्व दिया जाता है।
    सम्भवत: गांधीजी के इसी विचार से प्रेरित होकर हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-१९८६ में पर्यावरण में हवा, पानी व भूमि क े साथ-साथ पेड़-पौधों एवं जीव-जंतुआेंको भी स्थान दिया गया है । १९३० में दांडी यात्रा के  समय उन्होंने कई स्थानों पर प्राकृतिक संसाधनों के सीमित एवं समान वितरण की बातें लोगों को समझाई थीं । इसी दौरान उन्होंने यह भी कहा था कि पृथ्वी सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है, परन्तु किसी एक के भी लालच को पूरा नहीं कर सकती। गांधीजी की इतनी महत्वपूर्ण बात को हमने भुला दिया, उस पर ध्यान तक नहीं दिया ।
    एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ग्लोबल फूटप्रिंट ने नेटवर्क प्राकृतिक संसाधनों की पैदावार, उनका दोहन, उनकी बचत, स ंरक्षण एव ं पुर्ननिर्माण आदि को  जनसंख्या से जोड़कर अति-दोहन दिवस की गणना करती है। इस वर्ष यानि २०१९ में हमारा अति-दोहन दिवस २९ जुलाई को ही आ गया है। जाहिर है, हमने अपने लोभ-लालच के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इतनी तेजी से कर लिया है कि पूरे े साल भर चलन े वाले संसाधन सात महीनों में ही समाप्त हो गए हैं । वर्ष १९८७ में अति-दोहन दिवस १९ दिसम्बर कोे आया था यानि हमन े अपने स ंसाधनों को लगभग सालभर उपयोग किया था।
    मानव की यह अति-दोहन की प्रवृत्ति सतत विकास` की अवधारणा के ठीकी विपरीत है । सतत विकास की अवधारणा के अनुसार भावी पीढ़ियों को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वे सारे प्राकृतिक संसाधन उतनी ही मात्रा एवं गुणवत्ता में मिलें जितने वर्तमान पीढ़योंको भी वे चीजें मिल पायें। वर्ष १९३० में एक प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा था कि `ऐसा समय आयेगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने किये को देखेगे और कहेंगे कि ये हमने क्या किया ? आज  ऐसा समय आ गया है जिसमें बढ़ती जरूरतों की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की होड़ मची है ।
    २३ जनवरी १९४० को गांधीजी ने एक सभा में कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों को बचाकर एवं शारीरिक श्रम को महत्व देकर हम लाखों लोगों से जुड़ सकते हैं । वतमान में विज्ञान की नई तकनीकों से शारीरिक श्रम तो लगभग समाप्त् ही हो गया है एवं प्राकृतिक संसाधनों का
दोहन बढ़ गया है।
    प्राकृतिक संसाधनों का वितरण भी अब समान नहीं रहा है । ग्लोबल फूटप्रिंट नेटवर्क की कुछ वर्षोपूर्व जारी रिपोर्ट लिविंग प्लेनेट के अनुसार दुनिया की पांच प्रतिशत आबादी का ६० प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा है जबकि ६० प्रतिशत आबादी केवल पांच प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों में काम चलाती है। इस असमानता से सामाजिक व्यवस्था का संतुलन बिगड़ रहा है एवं संघर्ष की परिस्थितियां पैदा हो रही हैं। 'स्वास्थ्य की कु ंजी` शीर्षक अपने एक लेख में गांधीजी ने बताया था कि अच्छे मानव स्वास्थ्य के लिए तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण जरूरी हैं - साफ हवा, साफ पानी एवं निरामिष भोजन । हमारे देश में ये प्राकृतिक पोषण प्रदूषित हो गये हैं ।
    दक्षिण-अफ्रीका में १९१३ में गा ंधीजी ने एक  बैठक में कहा था कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से साफ हवा मुफ्त में दी है, परंतु आने वाले आधुनिक समाज में साफ हवा की काफी समस्या होगी एवं इसे प्राप्त् करने हेतु लागत लगेगी । गांधीजी की १०६ वर्ष पूर्व की यह चिंता या भविष्यवाणी आज सही साबित हो ेगयी है। दुनिया के १० में से नौ लोग प्रदूषित वायु में सांस ले रहे हैं तथा चीन के बीजिंग व हर्दिन शहरों में ग्रामीण साफ हवा बेच रह े हैं ।
    देश के स्वतंत्रता आ ंदा ेलन से जुड़कर दिसम्बर १९३० में गांधीजी ने कहा था कि आजादी के बाद लोकतंत्र मे ं सभी नागरिका ें को साफ हवा व पानी उपलब्ध होना चाहिए । गांधीजी के इसी विचार को बाद में न्यायालयों ने मौलिक अधिकार या मानवाधिकार बताया था। वर्ष १९३५ में गुजरात के काठियावाड़ के अकाल पीड़ित क्षेत्रों की एक जनसभा को  सम्बोधित करते हुए गांधीजी ने समझाया था कि अकाल का सामना करने हेतु रियासतें आपस में मिल-जुलकर पानी का प्रबंधन करें एव ं बड़े पैमाने पर जंगल नहीं काटें, क्योंकि जल आ ैर जंगल का रिश्ता गहन हा ेता है । दिल्ली की एक सभा में १९४७ में उन्होंने कहा था कि फसलों की सिंचाई हेतु बरसात के पानी का उपयोग किया जाना चाहिए । यही बात देश के प्रसिद्ध कृषि वैज्ञाानिक डा.एमएस स्वामीनाथन ने भी दोहरायी है।
    देश  मेंवाहनों की बढ़ती संख्या उनसे पैदा होने वाला प्रदूषण एवं यातायात जाम की समस्या को गांधीजी ने पहले ही भांप लिया था । वर्ष १९३५ में अमेरीका की यात्रा के समय वहां के राष्ट्रपति ने गांधीजी से बातचीत के दौरान कहा था कि हरेक अमेरीकी नागरिक के पास दो कारें व एक रेडियो सेट होना चाहिये । इस पर गांधीजी ने कहा था कि मेरे देश में यदि एक परिवार में भी एक कार आ गयी तो यातायात की समस्या गंभीर होगी एवं लोग पैदल भी स़़डकों पर नहीं चल पायेंगे । गांधीजी की यह सोच सही साबित हुई जब विश्वबैंक ने अपनी २०१८ की एक रिपोर्ट में कहा कि भारत के शहर कारों की बढ़ती संख्या से पैदा परेशानियों को निपटाने में सक्षम नहीं है ।
    गांधीजी छोटे हवादार एवं प्रकाशवान घरों में रहने की प्राथमिकता देते थे क्योंकि इससे ऊर्जा (बिजली) की बचत होती है । प्रसिद्ध टाइम मैगजीन के ९ अप्रेल २००७ के अंक में ग्लोबल वार्मिग से बचने हेतु ५१ उपाय बताये गये थे जिनमें सरल जीवन, सीमित उपभोग एवं ज्यादा साझेदारी गांधीजी की सोच पर ही आधारित है ।
    विश्व पर्यावरा एवं विकास आयोग की रिपोर्ट हमारा सामूहिक भविष्य - १९८७ तथा जून १९९२ में हुएए पृथ्वी शिखर सम्मेलन में तैयार एजेंडा २१ में बतलायी गई बातें भी वही हैं जो गांधीजी ने हिन्द स्वराज में १९०९ में लिखी थीं, अंतर केवल भाषा का था । देश केप्रसिद्ध पर्यावरणविद् प्रोफेसर टीएन खुशु ने बिल्कुल सही कहा है कि अत्योदय तथा सर्वोदय पर आधारित महात्गा गांधी के सादगीपूर्ण विकास के मॉडल से ही पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास संभव होगा ।    
स्वास्थ्य
टायफॉइड मुक्त विश्व की ओर एक कदम
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन


        विश्व चेचक मुक्त हो चुका है। और यह संभव हुआ है विश्वभर में चेचक के खिलाफ चले टीकाकरण अभियान से । बहुत जल्द हमें पोलियो से भी मुक्ति मिल जाएगी और ऐसी उम्मीद है कि पोलियो अब कभी हमें परेशान नहीं करेगा ।
    अब जल्द ही टायफॉइड भी बीते समय की बीमारी कहलाएगी। यह उम्मीद बनी है हैदराबाद स्थित एक भारतीय टीका निर्माता कंपनी - भारत बॉयोटेक - द्वारा टायफॉइड के खिलाफ विकसित किए गए एक नए टीके की बदौलत । इस टीके को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मंजूरी दे दी है। नेचर मेडिसिन पत्रिका के अनुसार यह २०१८ की सुर्खियों में छाने वाले उपचारों में से एक है। 
    विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टायफॉइड बुखार के खिलाफ टायफॉइड कॉन्जुगेट वैक्सीन, संक्षेप में टाइपबार टीवीसी नामक टीके को मंजूरी दी है। और यह एकमात्र ऐसा टीका है जिसे ६ माह की उम्र से ही शिशुओं के लिए सुरक्षित माना गया है। यह टीका प्रति वर्ष करीब २ करोड़ लोगों को प्रभावित करने वाले बैक्टीरिया-जनित रोग टायफॉइड के खिलाफ पहला संयुग्म टीक है। इसमें एक बैक्टीरिया-जनित रोग (टायफॉइड) के दुर्बल एंटीजन को एक शक्तिशाली एंटीजन (टिटेनस के रोगाणु) के साथ जोड़ा गया है ताकि शरीर उसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगे।
    भारत बायोटेक द्वारा टाइपबार टीसीवी टीके के निर्माण और उसके परीक्षण को सबसे पहले २०१३ में क्लीक्किल इंफेक्शियस डीसीज जर्नल में प्रकाशित किया गया था । इस टीके  का परीक्षण ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के समूह द्वारा इंसानी चुनौती मॉडल पर किया गया था। इंसानी चुनौती मॉडल का मतलब यह होता है कि कुछ व्यक्तियों को जानबूझकर किसी बैक्टीरिया की   चुनौती दी जाए और फिर उन पर विभिन्न उपचारों का परीक्षण किया जाए । परीक्षण में इस टीके को अन्य टीकों (जैसे फ्रांस के सेनोफी पाश्चर द्वारा निर्मित टीके) से बेहतर पाया गया। इस आधार पर इस टीके को अफ्रीका और एशिया के राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने की मंजूरी मिल गई।
    भारत में कई लोगों को यह मालूम नहीं है कि विश्व केएक तिहाई से अधिक टीके भारत की मुट?ठी भर बॉयोटेक कंपनियों द्वारा बनाए जाते हैं और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप, अफ्रीका और एशिया में उपलब्ध  कराए जाते हैं। और ऐसा पिछले ३० वर्षों में संभव हुआ है। तब तक हम विदेशों में बने टीके मंगवाते थे और लायसेंस लेकर यहां ठीक उसी प्रक्रिया से उनका निर्माण करते थे। वह तो जब से बायोटेक कंपनियों ने बैक्टीरिया और वायरस के स्थानीय प्रकारों की खोज शुरू की तब से आधुनिक जीव विज्ञान की विधियों का उपयोग करके स्वदेशी टीकों का निर्माण शुरू हुआ । इस संदर्भ में डॉ. चंद्रकांत लहरिया ने इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में भारत में टीकों और टीकाकरण के इतिहास का विवरण प्रस्तुत किया है। इसके पहले तक निर्मित टायफॉइड के टीके में टायफॉइड के जीवित किन्तु बहुत ही कमजोर जीवाणु को मानव शरीर में प्रविष्ट कराया जाता था, जिससे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली इसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने के लिए तैयार हो जाती थी। इसके बाद वैज्ञानिकों को इस बात का अहसास हुआ कि जीवित अवस्था में जीवाणु का उपयोग करना उचित नहीं है क्योंकि इसके कुछ  अनचाहे दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।
    इसलिए उन्होंने टीके में जीवाणु के बाहरी आवरण पर उपस्थित एक बहुलक का उपयोग करना शुरू  किया । मेजबान यानी हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसके खिलाफ वही एंटीबॉडी बनाता था जो शरीर में स्वयं जीवाणु के प्रवेश करने पर बनती है। हालांकि यह उपचार उतना प्रभावशाली या प्रबल नहीं था जितनी हमारी इच्छा थी। काश किसी तरह से मेजबान की प्रतिरक्षा शक्ति को बढ़ाया सकता ! इसके अलावा, टायफॉइड जीवाणु के आवरण के बहुलक को वाहक प्रोटीन के साथ जोड़कर भी टीका बनाने की कोशिश की गई थी। इस तरह के कई प्रोटीन-आधारित टायफॉइड टीकों का निर्माण हुआ जो आज भी बाजारों में उपलब्ध हैं।
    हाल ही मे इंफेक्शियस डिसीसेज मेंप्रकाशित एस. सहरुाबुद्धे और टी. सलूजा का शोधपत्र बताता है कि क्लीनिकल परीक्षण  में टाइपबार-टीवीसी टीके के नतीजे सबसे बेहतर मिले हैं, और इसलिए विश्व स्वास्थ संगठन ने इसे मंजूरी दे दी है और युनिसेफ द्वारा इसे खरीदने का रास्ता खोल दिया है।
    इसी  कड़ी में यह जानना और भी बेहतर होगा कि जस्टिन चकमा के नेतृत्व में कनाडा के एक समूह ने भारतीय टीका उद्योग के बारे में क्या लिखा है। यह समूह बताता है कि कैसे हैदराबाद स्थित एक अन्य टीका निर्माता कंपनी, शांता बायोटे-क्नीक्स, ने हेपेटाइटिस-बी का एक सफल टीका विश्व  को वहनीय कीमत पर उपलब्ध कराया है। उन्होंने इस सफलता के चार मुख्य बिंदु चिन्हित किए हैं - चिकित्सा के क्षेत्र और मांग की मात्रा की पहचान, निवेश और साझेदारी, वैज्ञानिकों और चिकित्सालयों के साथ मिलकर नवाचार, और राष्ट्रीय और वैश्विक एजेंसियों के साथ जुड़ाव और इन सबके अलावा अच्छी उत्पादन प्रक्रिया स्थापित करना ।
    भारत बॉयोटेक इन सभी बिंदुओं पर खरी उतरी है। वास्तव में उसके द्वारा रोटावायरस के खिलाफ सफलता पूर्वक निर्मित टीका टीम साइंस मॉडल का उदाहरण है जिसमें चिकित्सकों, वैज्ञानिकों, राष्ट्रीय और वैश्विक सहयोग समूहों और सरकार को शामिल किया गया था। टीम साइंस का एक और उदाहरण जापानी दिमागी बुखार के खिलाफ विकसित जेनवेक टीका है। और एक अंतिम बात-भारत सरकार द्वारा १९७० में लाए गए प्रक्रिया पेटेंट कानून की अहम भूमिका रही। इसके  कारण विश्व भर में कम कीमत पर अच्छी गुणवत्ता वाली दवा उपलब्ध कराने वाली निजी दवा निर्माता कंपनियों का विकास हुआ ।
विज्ञान, हमारे आसपास
विज्ञान के रास्ते समस्याआें का समाधान
गंगानंद झा


    आदिम मनुष्य बादल, आसमान, सागर, तूफान नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों,  जीव-जंतुओं के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।
    उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की । इन कथाओं के जरिए मनुष्य, विभिन्न जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई । इन कथाओं में जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया । आत्मा तथा परमात्मा की अनुभूति की  उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा । उसे सुरक्षा का आश्वासन मिला ।

     समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जानकारियां इकठ?ठी होती रहीं। समाज, संस्कृ-तियों का विकास होता गया । हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुइंर्। इन सभी परंपराओं की स्थापना है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका है। ईश्वर ने ब्राह्मंड की सृष्टि की, मनुष्यऔर अन्य जीवों का निर्माण किया । माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है।
    हम इन ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त् कर सकते हैं। मनीषियों के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राह्मंड केकिसी महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके ।
    सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा विकास हुआ । यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है कि ब्राह्मंड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी तलाश करनी है।
    वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति का आगाज किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता । वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर दिए गए या सजा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं। 
    सन १५४३ में निकोलस कॉपर्निकस की पुस्तक का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तकने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केन्द्र  धरती नहीं, सूरज है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी, जिसके अनुसार धरती ब्राह्मंड का केन्द्र है । यह बात आज साधारण लगती है, पर कॉपर्निकस के समय (१४७३ -१५४३) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कॉपर्निकस को विश्वास था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की । अपनी सुरक्षा के लिए कॉपर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने खुले तौर पर कॉपर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की धृष्टता की तो उन्हें इस कुकर्म के लिए जिंदा जला दिया गया था।
    गैलीलियो(१५६४-१६४२) ने प्रतिपादित किया कि प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया । इसमें प्राकृतिक तथ्यों की खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कॉपर्निकस की सूर्य केंद्रित बाह्मंड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया । लेकिन  इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण का सामना करना पड़ा था।
    एक सदी बाद, फ्रांसीसी गणितज्ञ और दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के अध्ययन के  लिए प्रवृत्त हुए । आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा। क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा सकती। जीवन और बाह्मंड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के क्षेत्र हो   गए । देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त ज्ञान से असहमति है।
    सन १८५९ में चार्ल्स डार्विन के जैव विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई ।
    आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती । सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए । 
    वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोजमर्रा जिंदगी के कुछ पहलुओं में यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है।
    प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता था। जब सर्वज्ञात ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?
    वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई संस्कृति की शुरूआत हुई। उसके केन्द्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।
    विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औजारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं।
पर्यावरण परिक्रमा
भारत में १९९० के बाद गरीबी दर आधी रह गयी 

    भारत में १९९० के बाद गरीबी के मामले में स्थिति में काफी सुधार हुआ हैं और इस दौरान हमारी  गरीबी दर आधी रह गयी । भारत ने पिछले १५ साल में ७ प्रतिशत से अधिक की आर्थिक वृद्धि दर हासिल की है । विश्वबैंक ने अंतरराष्टीय मुद्रा कोष के साथ सैलाना बैठक से पहले कहा कि भारत अत्याधिक गरीबी को दूर करने समेत पर्यावरण में बदलाव जैसे अहम मुद्दों पर वैश्विक वस्तुआें के प्रभावी अगुआ के तौर पर वैश्विक विकास प्रयासों की सफलता के लिए महत्वपूर्ण देश हैं ।
    विश्वबैंक ने कहा देश ने पिछले १५ साल में ७ प्रतिशत से अधिक की आर्थिक वृद्धि दर हासिल की है और १९९० के बाद गरीबी की दर को आधा कर लिया है । इसके साथ ही भारत ने अधिकांश मानव विकास सूचकांकों में भी प्रगति की हैं । विश्वबैंक ने कहा कि भारत को वृद्धि रफ्तार के जारी रहने और एक दशक मेंअति गरीबी को पूरी तरह समाप्त् कर लेने का अनुमान है ।
    इसके साथ ही देश की विकास यात्रा की राह मेंकई चुनौतियां भी हैं । भारत को इसके लिए संसाधनों की कार्यक्षमता को बेहतर बनाना होगा । शहरी क्षेत्रों में सामुदायिक अर्थव्यवस्था के जरिए और ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उत्पादन बढ़ाकर जमीन का बेहतर इस्तेमाल करना होगा । विश्वबैंक ने कहा कि भारत को अधिक मूल्यवर्धक इस्तेमाल के लिए पानी आवंटित करने को लेकर बेहतर जल प्रबंधन और विभिन्न क्षेत्रों में पानी के इस्तेमाल का मूल्य बढ़ाने के लिए नीतियों की जरूरत होगी । इसके साथ ही २३ करोड़ लोग बिजली ग्रिडों से अच्छी तरह जुड़े नहीं हैं । देश को कम कार्बन उत्सर्जन वाला विद्युत उत्पादन भी बढ़ाना होगा  ।
    भारत की तेज आर्थिक वृद्धि को बुनियादी संरचना में २०३०  तक अनुमानित तौर जीडीपी के ८.८ प्रतिशत के बराबर यानी ३४३ अरब डॉलर को निवेश की जरूरत होगी । इसके साथ ही टिकाउ वृद्धि के लिए समावेश को बढ़ाना होगा, विशेषकर अधिक और बेहतर रोजगार सृजित करने होंगे ।
    अनुमानित तौर पर प्रति वर्ष १.३० करोड़ लोग रोजगार योग्य आयुवर्ग में प्रवेश कर रहे हैं , लेकिन सालाना स्तर पर रोजगार के तहत ३० लाख अवसर सृजित हो पा रहे हैं । इसके साथ ही भारत के सामने एक अन्य चुनौती महिला कामगारों की संख्या में आ रही कमी है । भारत में श्रमबल में महिलाआें की भागीदारी २७ प्रतिशत हैं, जो विश्व में सबसे कम में से एक है ।
देश में ७० लाख लोगों को है रूमेटोइड ऑर्थराइटिस
    सूर्य की रोशनी अच्छी होने के बावजूद देश के अधिकांश लोगोंमें विटामिन डी की कमी पाई जाती है । प्रदूषण से बचने के लिए लोग कवर्ड होकर निकलते हैं, लेकिन धूप से वंचित हो जाते हैं । देश में बढ़ते ऑर्थराइटिस का यही बड़ा कारण है । देश में ७० लाख लोग इस बीमारी से पीड़ित है ।
    पिछले दिनों बेंगलुरू के रूमेटोलॉजिस्ट डॉ. केएम महेन्द्रनाथ ने यह जानकारी दी । उन्होंने कहा कि १५० तरह के ऑर्थराइटिस होते हैं । सूजन, थकान और सुबह जकड़न होना इसके प्रमुख लक्षण है । इसमें जोड़ों का दर्द होता है पर हर तरह का दर्द ऑर्थराइटिस नहीं होता ।
    हमारे देश में ७० लाख से ज्यादा मरीज हैं, पद उनके लिए पर्याप्त् चिकित्सक नही हैं । इसलिए डाइग्नोसिस में ही महीनों लग जाते हैं । इस कमी को पूरा करने के लिए हम इस तरह के जागरूकता कार्यक्रम और अन्य प्रयासोंके जरिए जनरल फिजिशियंस को ट्रेनिंग देने का प्रयास कर रहे हैं । इसके लिए एक सही सिस्टम बनाने की जरूरत है । फिलहाल देश में १३०० रूमेटोलॉजिस्ट है, इनमें से भी सिर्फ २०० डॉक्टर्स ही पूरी तरह प्रशिक्षित हैं, बाकी जनरल फिजिशियंस हैं जो अपनी रूचि के कारण इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं । इस समय देश में २० हजार रूमेटोलॉजिस्ट की जरूरत है ।
देरी के चलते परियोजनाआें की लागत में बढ़ोतरी
    देरी और कई अन्य वजहोंसे देशभर की ३६० बुनियादी परियो-जनाआें की लागत में कुल ३.८८ लाख करोड़ रूपए की बढ़ोतरी हुई   हैं । ये सभी परियोजनाएं मूल रूप में १५० करोड़ रूपए से अधिक की लागत वाली हैं । सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय १५० करोड़ रूपए  से अधिक लागत वाली बुनियादी ढांचा परियोजनाआें की निगरानी करता है । इन १,६०८ परियोजनाआें में से ३६० की लागत में इजाफा हुआ है, जबकि ५५० परियोजनाएं देरी से चल रही हैं ।
    मंत्रालय की जून २०१९ की रिपोर्ट के अनुसार १,६०८ परियोजनाआें की कुल मूल लागत १९,१७,७९६.०७ करोड़ रूपए थी । अब परियोजना खत्म होने तक इनकी अनुमानित लागत २३,०५,८६०.३३ करोड़ रूपए   होगी । यह दिखाता है कि इन परियोजनाआें की लागत में ३,८८,०६४.२६ करोड़ रूपए का इजाफा हुआ है । यह मूल लागत से २०.२३ प्रतिशत अधिक है ।
    जून २०१९ तक इन परियोजनाआें पर ९,३५,०२१.३९ करोड़ रूपए खर्च किए जा चुके हैंं । यह इन परियोजनाआें की अनुमानित लागत का ४०.५५ प्रतिशत हैं । हांलाकि, रिपोर्ट में कहा गया है कि परियोजनाआें को पूरा करने के नए कार्यक्रम को देखा जाए, तो देरी वाली परियोजनाआें की संख्या घटकर ४७४ पर आ जाएगी । देरी से चल रही कुल ५५० परियोजनाआेंमें से १८२ परियोजनाएं एक से १२ महीने, ११९ परियोजनाएं १३ से २४ महीने, १३३ परियोजनाएं २५ से ६० महीने और ११६ परियोजनाएं ६१ या उससे अधिक महीने की देरी से चल रही हैं ।
जिराफ की आबादी में ४० फीसदी की कमी
    पहली बार जिराफों को खतरे में पड़े जीवों की सूची में डालने की बात हो रही है । संयुक्त राष्ट्र की लुप्त्प्राय जीवों के कारोबार को नियमबद्ध करने वाले विश्व वन्यजीव संरक्षण के सम्मेलन में जिराफ के अंगों के वैध कारोबार को अंतर-राष्ट्रीय नियमोंमें बांधने की कोशिश की गई है । जिसका पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वालों और खासकर उप-सहारा अफ्रीकी देशों ने स्वागत किया है ।
    विश्व वन्यजीव संरक्षण सम्मेलन में हुई वोटिंग में सम्मेलन का आयोजन करने वाली समिति यानी साइट्स ने कुछ प्रस्तावों की रूपरेखा सामने रखी है । इन उपायों से जिराफ के शरीर के हिस्सों के व्यापार को नियंत्रित करने का काम होगा । जिराफ की खाल, हडि्डयों की नक्काशी और मांस के व्यापार पर खास नजर होगी हालांकि इस पर पूरी तरह से बैन नहींलगाया जाएगा ।
    वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसायटी के इंटरनेशनल पॉलिसी की वाइस प्रेसिडेंट सुजन लीबरमान का कहना है, इतने सारे लोग जिराफ के बारे मेंजानते हैं कि उन्हें लगता है बहुत सारे जिराफ होंगे, जैसे दक्षिण अफ्रीका मेंभले ही लगता हो कि वे ठीक होंगे, लेकिन असल में यह गंभीर रूप से लुप्त्प्राय हैं । ` लीबरमान बताती हैं कि पश्चिमी, केंद्रीय और पूर्वी अफ्रीका के हिस्सों में जिराफ खास तौर पर खतरे में हैं ।
    सोसायटी का मानना है कि जिराफ जैसे खतरों का सामना कर रहे हैं, उसके कारण उनकी जनसंख्या घट रही है । जिराफ के रहने की जगह कम होती जा रही है, जलवायु परिवर्तन के कारण ज्यादा सूखा पड़ने लगा ही है, और उनके अंगों के अवैध व्यापार के लिए जिराफ की जान का खतरा बढ़ता जा रहा है । सदस्य देशों को जिराफ के अंगोंके निर्यात का रिकार्ड रखना जरूरी होगा जो फिलहाल केवल अमेरिका कर रहा है । इसके साथ ही कारोबार के लिए परमिट लेना भी अनिवार्य किया जाएगा ।
    अफ्रीकन वाइल्डलाइफ फाउंडेशन की मैना फिलिप मुरूथि का कहना है पिछले ३० सालों में ही जिराफों की आबादी में ४० फीसदी से अधिक कमी आई है।  अगर ऐसा चलता रहा तो हम उन्हें खो देगे ।
    सहारा के आसपास के अफ्रीकी इलाकों में अब सिर्फ ९७५०० जिराफ बचे है । इंटरनेशनल  यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर के मुताबिक १९८५ की तुलना में यह संख्या करीब ४० फीसदी कम है । पश्चिम और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में भी जिराफ पाए जाते है । वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि ग्लोबल वार्मिग के कारण युरोप में पाया जाने वाला बोहिलिनिया जीव चीन और भारत की तरफ चला आया । बोहिलिनिया को आधुनिक जिराफ का पूर्वज माना जाता है ।
म.प्र. में जहरीली हवा से जीवन के साढे तीन साल कम
    मध्यप्रदेश की हवा तेजी से जहरीली होती जा रही है । इसका असर यह हुआ है कि प्रदेश में रहने वाले लोगों की उम्र औसतन करीब साढ़े तीन साल कम हो रही है । यह चितांजनक जानकारी अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय की शोध संस्था एपिक (एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट एट यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो) द्वारा तैयार किए गए वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक से सामने आई है । एपिक ने प्रदेश के जिलों के अनुसार यह एक्यूएलआई तैयार किया है । इसके अनुसार प्रदेश में सबसे ज्यादा जहरीली हवा भिंड की  है । इससे वहां के लोगोंके जीवन के करीब साढ़े सात साल कम हो रहे है ।
विज्ञान जगत
वैज्ञानिक दायित्व की ओर बढ़ता देश
अभय एस.डी. राजपूत


    भारत सरकार, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (उडठ) की तर्ज पर, विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के लिए एक नई नीति लागू करने जा रही है। इस नई नीति का प्रारूप तैयार कर लिया गया है जिसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की वेबसाइट (ुुु.वीीं. सिींर्.ळि) पर टिप्पणियों के लिए उपलब्ध कराया गया है।
    अगर यह नीति लागू हो जाती है तो विज्ञान के क्षेत्र में सामाजिक दायित्व के लिए ऐसी नीति बनाने वाला भारत दुनिया का संभवत: पहला देश होगा।
 

     यह नीति भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों और वैज्ञानिकों को विज्ञान संचार और प्रसार के कार्यों में बढ़-चढ़कर भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करेगी। ऐसा होने से वैज्ञानिकों और समाज के बीच संवाद बढ़ेगा जिससे दोनों के बीच ज्ञान आधारित खाई को भरा जा सकेगा। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में सुप्त् क्षमता का भरपूर उपयोग कर विज्ञान और समाज के बीच सम्बंधों को मजबूत करना और देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना है जिससे इस क्षेत्र को नई ऊर्जा मिल सके ।
    यह नीति वैज्ञानिक ज्ञान और संसाधनों तक जनमानस की पहुंच को सुनिश्चित करने और आसान बनाने के लिए एक तंत्र विकसित करने, वर्तमान और भावी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान के लाभों का उपयोग करने, तथा विचारों और संसाधनों को साझा करने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने, और सामाजिक समस्याओं को पहचानने एवं इनके हल खोजने के लिए सहयोग को बढ़ावा देने की दिशा में भी मार्गदर्शन करेगी। इस ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों और व्यक्तिगत रूप से सभी वैज्ञानिकों को उनके वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के बारे में जागरूक और प्रेरित करना होगा ।
    भारत सरकार ने पहले भी विज्ञान से सम्बंधित कुछ नीतियां बनाई हैं। वैज्ञानिक नीति संकल्प १९५८, प्रौद्योगिकी नीति वक्तव्य  १९८३, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति २००३ और विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं नवाचार नीति २०१३ इनमें प्रमुख हैं। वर्तमान वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व नीति का प्रारूप भी इन नीतियों को आगे बढ़ाता है। हालांकि इस नई नीति में कुछ व्यावहारिक और प्रासंगिक प्रावधान हैं जिससे विज्ञान व प्रौद्योगिक संस्थानों और वैज्ञानिकों (यानी ज्ञानकर्मियों) को समाज के प्रति अधिक उत्तरदायी और जिम्मेदार बनाया जा सकता है।
    ड्राफ्ट नीति के अनुसार प्रत्येक वैज्ञानिक को व्यक्तिगत रूप से अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए कम से कम १० दिन प्रति वर्ष अवश्य देने होंगे। इसके अंतर्गत विज्ञान और समाज के बीच वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान में योगदान देना  होगा ।  इस दिशा में संस्थागत स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर सही प्रयास हो सकें और ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त् प्रोत्साहनों के साथ-साथ आवश्यक आर्थिक सहायता प्रदान करने का भी प्रावधान होगा। वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के क्षेत्र में जो वैज्ञानिक व्यक्तिगत प्रयास करेंगे उन्हें उनके वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन में उचित श्रेय देने का भी प्रस्ताव किया गया है।
    इस नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि किसी भी संस्थान को अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व से सम्बंधित गतिविधियों और परियोजनाओं को आउटसोर्स या किसी अन्य को अनुबंधित करने की अनुमति नहीं होगी। अर्थात सभी संस्थानों को अपनी डडठ गतिविधियों और परियोजनाओं को लागू करने के लिए अंदरूनी क्षमताएं विकसित करना होगा।
    जब भारत में लगभग सभी विज्ञान व प्रौद्योगिक शोध करदाताओं के पैसे से चल रहा है, तो ऐसे में वैज्ञानिक संस्थानों का यह एक नैतिक दायित्व है कि वे समाज और अन्य हितधारकों को कुछ वापस भी दें। यहां पर हमें यह समझना होगा कि डडठ न केवल समाज पर वैज्ञानिक प्रभाव के बारे में है, बल्कि यह विज्ञान पर सामाजिक प्रभाव के बारे में भी है। इसलिए डडठ विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करेगा और समाज के लाभ के लिए विज्ञान का उपयोग करने में दक्षता लाएगा ।
    इस नीति दस्तावेज में समझाया गया है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में कार्यरत सभी ज्ञानकर्मियों का समाज में सभी हितधारकों के साथ ज्ञान और संसाधनों को स्वेच्छा से और सेवा भाव एवं जागरूक पारस्परिकता की भावना से साझा करने के प्रति नैतिक दायित्व ही वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (डडठ) है। यहां, ज्ञानकर्मियों से अभिप्राय हर उस व्यक्ति से है जो ज्ञान अर्थव्यवस्था में मानव, सामाजिक, प्राकृतिक, भौतिक, जैविक, चिकित्सा, गणितीय और कम्प्यूटर/डैटा विज्ञान और इनसे सम्बंधित प्रौद्योगिकी के क्षेत्रोंमें भाग लेता है।
    ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में डडठ गतिविधियों की निगरानी और कार्यान्वयन के लिए ऊडढ में एक केंद्रीय और नोडल एजेंसी की स्थापना की जाएगी । इस नीति के एक बार औपचारिक हो जाने के बाद, केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों, राज्य सरकारों और ड।ढ संस्थानों को अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार डडठ को लागू करने के लिए अपनी योजना बनाने की आवश्यकता होगी। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों को अपने ज्ञानकर्मियों को समाज के प्रति उनकी नैतिक सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में संवेदनशील बनाने, डडठ से सम्बंधित संस्थागत परियोजनाओं और व्यक्तिगत गतिविधियों का आकलन करने के लिए एक डडठ निगरानी प्रणाली बनानी होगी और डडठ गतिविधियों पर आधारित एक वार्षिक रिपोर्ट भी प्रकाशित करनी होगी ।
    संस्थागत और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर डडठ गतिविधियों की निगरानी एवं मूल्यांकन के लिए उपयुक्त संकेतक विकसित किए जाएंगे जो इन गतिविधियों के प्रभाव को लघु-अवधि, मध्यम-अवधि और दीर्घ-अवधि के स्तर पर मापेंगे।
    नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, एक राष्ट्रीय डिजिटल पोर्टल की स्थापना की जाएगी जिस पर ऐसी सामाजिक समस्याओं का विवरण होगा जिन्हें वैज्ञानिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह पोर्टल कार्यान्वयनकर्ताओं के लिए और डडठ गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिए एक मंच के रूप में भी काम करेगा ।
    नई नीति के अनुसार सभी फंडिंग एजेंसियों को डडठ का समर्थन करने के लिए :
    क) व्यक्तिगत डडठ परियो-जनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करनी होगी,
    ख) हर प्रोजेक्ट में डडठ के लिए वित्तीय सहायता के लिए एक निश्चित प्रतिशत तय करना होगा,
    ग) वित्तीय समर्थन के लिए प्रस्तुत किसी भी परियोजना के लिए उपयुक्त डडठ की आवश्यकता की सिफारिश करनी होगी।
    यदि इसे ठीक से और कुशलतापूर्वक लागू किया जाता है, तो यह नीति विज्ञान संचार के मौजूदा प्रयासों को मजबूत करते हुए, सामाजिक समस्याओं के लिए वैज्ञानिक और अभिनव समाधान लाने में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाएगी । इसके साथ-साथ, क्षमता निर्माण, कौशल विकास के माध्यम से सभी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, ग्रामीण नवाचारों को प्रोत्साहित करने, महिलाओं और कमजोर वर्गों को सशक्त बनाने, उद्योगों और स्टार्ट-अप की मदद करने आदि में यह नीति योगदान दे सकती है। सतत विकास लक्ष्यों, पर्यावरण लक्ष्यों और प्रौद्योगिकी विजन २०३५ की प्रािप्त् में भी यह नीति योगदान दे सकती है।
ज्ञान विज्ञान
यूरोप के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप

    हाल ही में वैज्ञानिकों ने दक्षिण युरोप के नीचे एक डूबा हुआ महाद्वीप खोजा है। ग्रेटर एड्रिया नामक यह महाद्वीप १४ करोड़ वर्ष पहले मौजूद था। शोधकर्ताओं ने इसका विस्तृत मानचित्र बनाया है।
    साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, ग्रेटर एड्रिया २४ करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना से टूटने के बाद उभरा था। गौरतलब है कि गोंडवाना वास्तव में अफ्रीका, अंटार्कटिका, दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अन्य प्रमुख भूखंडों से बना एक विशाल महाद्वीप  था । 


     ग्रेटर एड्रिया काफी बड़ा था जो मौजूदा आल्प्स से लेकर ईरान तक फैला हुआ था। लेकिन यह पूरा पानी के ऊपर नहीं था । उट्रेक्ट विश्ववद्यालय में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंसेज के प्रमुख वैन हिंसबरगेन और उनकी टीम ने बताया है कि यह छोटे-छोटे द्वीपों के रूप में नजर आता होगा। उन्होंने लगभग ३० देशों में फैली ग्रेटर एड्रिया की चट्टानों को इकटठा कर इस महाद्वीप के रहस्यों को समझने की कोशिश की ।
    गौरतलब है कि पृथ्वी कई बड़ी प्लेटों से ढंकी हुई है जो एक दूसरे के सापेक्ष खिसकती रहती हैं। हिंसबरगेन बताते हैं कि ग्रेटर एड्रिया का सम्बंध अफ्रीकी प्लेट से था, लेकिन यह अफ्रीका महाद्वीप का हिस्सा नहीं थी। यह प्लेट  धीरे-धीरे युरेशियन प्लेट के नीचे खिसकते हुए दक्षिणी युरोप तक आ पहुंची थी ।
          लगभग १० से १२ करोड़ वर्ष पहले ग्रेटर एड्रिया युरोप से टकराया और इसके नीचे धंसने लगा । अलबत्ता कुछ चट्टानें काफी हल्की थीं और वे पृथ्वी के मेंटल में डूबने की बजाय एक ओर इकठठी होती गई । इसके फलस्वरूप आल्प्स पर्वत का निर्माण हुआ ।
    हिंसबरगेन और उनकी टीम ने इन चट्टानों में आदिम बैक्टीरिया द्वारा निर्मित छोटे चुंबकीय कणों के उन्मुखीकरण को भी देखा। बैक्टीरिया

इन चुंबकीय कणों की मदद से खुद को पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सीध में लाते हैं। बैक्टीरिया तो मर जाते हैं, लेकिन ये कण तलछट में बचे रह जाते हैं। समय के साथ यह तलछट चट्टान में परिवर्तित हो जाती और चुंबकीय कण उसी दिशा में फिक्स हो जाते हैं। टीम ने इस अध्ययन से बताया कि यहां की चट्टानें काफी घुमाव से गुजरी थीं।
    इसके बाद के अध्ययन में टीम ने कई बड़ी-बड़ी चट्टानों को जोड़कर एक समग्र तस्वीर बनाने के लिए कम्प्यूटर की मदद ली ताकि इस महाद्वीप का विस्तृत नक्शा तैयार किया जा सके और यह पुष्टि की जा सके कि यूरोप से टकराने से पहले यह थोड़ा मुड़ते हुए उत्तर की ओर बढ़ गया था।
    इस खोज के बाद, हिंसबरगेन अब प्रशांत महासागर में लुप्त् हुई अन्य प्लेट्स की तलाश कर रहे हैं। अध्ययन की जटिलता को देखते हुए, किसी निष्कर्ष के लिए ५-१० साल की प्रतीक्षा करनी होगी ।

मस्तिष्क स्वयं की मौत को नहींसमझता
    लगभग एक स्तर पर हर कोई जानता है कि वह मरने वाला है। इस्राइल के बार इलान विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं की परिकल्पना थी कि जब बात खुद की मृत्यु की आती है तब हमारे मस्तिष्क में ऐसा कुछ है जो पूर्ण समािप्त्, अंत, शून्यता जैसे विचारों को समझने से इन्कार करता है।  



    इस्राइल के एक शोधकर्ता याइर डोर-जिडरमन का यह अध्ययन एक ओर मृत्यु के शाश्वत सत्य और मस्तिष्क के सीखने के तरीके के बीच तालमेल बैठाने का एक प्रयास है। उनका मानना है कि हमारा मस्तिष्क पूर्वानुमान करने वाली मशीन है जो पुरानी जानकारी का उपयोग करके भविष्य में वैसी ही परिस्थिति में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगाता है। यह जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण है। एक सत्य यह है कि एक न एक दिन हम सबको मरना है। तो हमारे मस्तिष्क के पास कोई तरीका होना चाहिए कि वह स्वयं हमारी मृत्यु का अनुमान लगा सके । लेकिन ऐसा होता नहीं है।
      इस विषय पर अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने २४ लोगों को चुना और यह समझने की कोशिश की कि स्वयं उनकी मृत्यु के  मामले में उनके मस्तिष्क का  पूर्वानुमान तंत्र कैसे काम करता है।
    जिडरमैन और उनकी टीम ने मस्तिष्क के एक विशेष संकेत पर ध्यान दिया जो अचंभे का द्योतक होता है। यह संकेत दर्शाता है कि मस्तिष्क पैटर्न को देख रहा है और उनके आधार पर भविष्यवाणी कर रहा है। उदाहरण के लिए, यदि आप किसी व्यक्ति कोे संतरे के तीन चित्र दिखाते हैं और फिर उसके बाद एक सेब का चित्र दिखाते हैं तब मस्तिष्क में अचंभे का संकेत पैदा होता है क्योंकि पूर्व पैटर्न के आधार पर भविष्यवाणी संतरा देखने की थी।  
    टीम ने वालंटियर्स को चेहरों की तस्वीरें दिखाइंर् - या तो उनका अपना या किसी अजनबी का । इन सभी तस्वीरों के साथ कुछ नकारात्मक शब्द या मृत्यु से जुड़े शब्द, जैसे कब्र जोड़े गए थे। इसी दौरान मैग्नेटोएनसेफेलोग्राफी की मदद से इन वालंटियर्स की मस्तिष्क की गतिविधियों को मापा गया ।  
    किसी चेहरे को मृत्यु सम्बंधी शब्दों से जोड़ना सीखने के बाद, वालंटियर्स को एक अलग चेहरा दिखाया गया । ऐसा करने पर उनके मस्तिष्क में अचंभा संकेत देखा गया । क्योंकि उन्होंने एक विशिष्ट अजनबी चेहरे के साथ मृत्यु की अवधारणा को जोड़ना सीख लिया था, एक नया चेहरा दिखाई देने पर वह आश्चर्यचकित थे । 
    लेकिन एक दूसरे परीक्षण में वालंटियर्स को मृत्यु शब्द के साथ उनकी अपनी तस्वीर दिखाई गई । इसके बाद जब उनको एक अलग चेहरे की तस्वीर दिखाई गई तब मस्तिष्क ने अचंभा संकेत नहीं दिया। यानी जब एक व्यक्ति को खुद की मौत से जोड़ने की बात आई तब उसके भविष्यवाणी तंत्र ने काम करना बंद कर दिया ।
    दिक्कत यह है कि जैव विकास की प्रक्रिया में चेतना का जन्म हुआ और इसके साथ ही हम समझने लगे कि मृत्यु अवश्यंभावी है। कुछ सिद्धांतकारों के अनुसार, मृत्यु के बारे में जागरूकता से प्रजनन की संभावना कम हो सकती है क्योंकि आप मौत से डरकर जीवन साथी चुनने के लिए आवश्यक जोखिम नहीं उठाएंगे । एक परिकल्पना है कि दिमाग के विकास के साथ मौत जैसी वास्तविकता से इन्कार करने की क्षमता विकसित होना अनिवार्य था। अध्ययन के निष्कर्ष जल्द ही न्यूरोइमेज जर्नल में प्रकाशित किए जाएंगे।

पौधों को  सूखे से निपटने मे मददगार रसायन

    वर्ष पानी की कमी या सूखा पड़ने जैसी समस्याएं फसल बर्बाद कर देती हैं। लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित ताजा अध्ययन के अनुसार ओपाबैक्टिन नामक रसायन इस समस्या से निपटने में मदद कर सकता है। ओपाबैक्टिन, पौधों द्वारा तनाव की  स्थिति में छोड़े जाने वाले हार्मोन एब्सिसिक एसिड (एबीए) के ग्राही को लक्ष्य कर पानी के वाष्पन को कम करता है और पौधों में सूखे से निपटने की क्षमता बढ़ाता है।

     युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के पादप जीव वैज्ञानिक सीन कटरल और उनके साथियों ने १० साल पहले पौधों में उन ग्राहियों का पता लगाया था जो एबीए से जुड़कर ठंड और पानी की कमी जैसी परिस्थितियों से निपटने में मदद करते हैं। लेकिन पौधों पर बाहर से एबीए का छिड़काव करना बहुत महंगा था और लंबे समय तक इसका असर भी नहीं रहता था। इसके बाद कटलर और उनके साथियों ने साल २०१३ में क्विनबैक्टिन नामक ऐसे रसायन का पता लगाया था जो एरेबिडोप्सिस और सोयाबीन के पौधों में एबीए के ग्राहियों के साथ जुड़कर उनमें सूखे को सहने की क्षमता बढ़ाता है। लेकिन क्विनबैक्टिन के साथ भी दिक्कत यह थी कि वह कुछ फसलों में तो कारगर था इसलिए शोधकर्ता क्?विनबैक्टिन के विकल्प ढूंढने के लिए प्रयासरत थे ।
    इस प्रक्रिया में पहले तो उन्होंने कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से लाखों रसायनों से लगभग १०,००० ऐसे रसायनों को छांटा जो एबीए ग्राहियों से उसी तरह जुड़ते हैं जिस तरह स्वयं एबीए हार्मोन जुड़ता है। इसके बाद पौधों पर इन रसायनों का छिड़काव करके देखा । और जो रसायन सबसे अधिक सक्रिय मिले उनके प्रभाव को जांचा ।
      पौधों पर ओपाबैक्टिन व अन्य रसायनों का छिड़काव करने पर उन्होंने पाया कि क्विनबैक्टिन और एबीए हार्मोन की तुलना में ओपाबैक्टिन से छिड़काव करने पर तनों और पत्तियों से पानी की हानि कम हुई और इसका प्रभाव ५ दिनों तक रहा । जबकि एबीए से छिड़काव का प्रभाव दो से तीन दिन ही रहा और सबसे खराब प्रदर्शन क्विनबैक्टिन का रहा जिसने टमाटर पर तो कोई असर नहीं किया और गेहूं पर इसका असर सिर्फ ४८ घंटे ही रहा।
    कटलर का कहना है कि पौधों में हस्तक्षेप कर उनकी वृद्धि या उपज बढ़ाने के लिए छोटे अणु विकसित करना, खासकर कवकनाशक, कीटनाशक और खरपतवारनाशक बनाने के लिए, अनुसंधान का एक नया क्षेत्र हो सकता है।                 
जन जीवन
सुप्रीम कोर्ट के फैसले हिन्दी में मिलेंगे
राजकुमार कुम्भज


    अदालतों में हिंदी और स्थानीय भाषाओं में कार्रवाई की मांग को लेकर बरसों से बहस चलती रही है, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की पहल पर इसे मंजूर किया गया है। आम लोगों को अब अपनी भाषा में उनके फैसलों की जानकारी मिल सकेगी।
    सर्वोच्च न्यायालय के  फैसलों का अब शीघ्र ही हिंदी में भी अनुवाद किया जाएगा। उच्च् न्यायालय और सर्वोच्च  न्यायालय में बहस और फैसले की भाषा को लेकर हिंदी के इस्तेमाल की मांग लंबे समय से चली आ रही है। समय-समय पर सरकार से ऐसी व्यवस्था करने की मांग भी की जाती रही है। अब मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसले देता है वे वादी की समझ में आना चाहिए। अगर फैसले का अनुवाद वादी को समझ में आने वाली भाषा में करवा दिया जाए तो उसे समझने में आसानी होगी। 


     मुख्य न्यायाधीश ने एक उदाहरण देकर समझाया है कि मान लीजिए कोई व्यक्ति तीस बरस तक मुकदमा लड़ता है और उसके बाद अंग्रेजी में आए फैसले से उसे घर, संपत्ति से बेदखल कर दिया जाता है। अगर सीधी अंग्रेजी में दिए गए उक्त फैसले को वह समझ नहीं सकता और उसका वकील भी समयाभाव की वजह से पूरा फैसला उसे समझा नहीं पाता अथवा उक्त फैसला समझाने के लिए अलग से पैसों की मांग करता है, तो यह व्यवस्था ठीक नहीं है। यहां इस बात का खास तौर से ध्यान रखना होगा कि फैसलों के हिंदी अनुवाद की भाषा बोल-चाल की सरल हिंदी ही हो, न कि सरकारी शब्दकोष वाली जटिल हिंदी। फैसलों के हिंदी अनुवाद की यह योजना जल्द ही शुरू  होने वाली है। हिंदी के बाद इस योजना को क्षेत्रीय भाषाओं में भी लाया जाएगा।
    अंग्रेजी की अनिवार्यता से मुक्ति पाने की दिशा में सर्वोच्च  न्यायालय का यह फैसला ऐतिहासिक और बेहद खास है। गांधीजी मानते थे कि समूचे हिंदुस्तान में व्यवहार करने के लिए हमें भारतीय भाषाओं में से एक ऐसी भाषा की जरूरत है जिससे ज्यादा-से-ज्यादा देशवासी परिचित हों और बाकी लोग भी जिसे झट से समझ सकें । संदेह नहीं कि हिंदी ही ऐसी भाषा है। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि हिंदी बोलने वालों की संख्या ५२ करोड़ है, जबकि इसे समझने वालों का आंकड़ा दोगुने से कहीं अधिक है।
    भाषा की राजनीति के चलते देश को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। साठ के दशक में एक तरफ आरएसएस ने जहां हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा दिया तो दूसरी तरफ समाजवादियों ने अंग्रेजी हटाओ का बिगुल बजाया। इससे दक्षिण भारत के लोग नाराज हो गए। दक्षिण भारत के राज्यों की आपत्ति सिर्फ हिंदी थोपे जाने की आशंका को लेकर नहीं थी, बल्कि उनकी यह शिकायत भी थी कि शिक्षा के ज्यादातर प्रमुख केन्द्र उत्तर भारत में स्थित हैं। अब पिछले चार-पांच दशक में भाषा को लेकर दिखाई देने वाले आग्रह, दुराग्रह और पूर्वाग्रह भी बदले हैं।
    भाषायी आशंका और आंदोलन के कारण दक्षिणी राज्यों ने उदारतापूर्वक अंग्रेजी अपनाई और दुनियाभर में हो रहे तकनीकी विकास का लाभ उठाया, जबकि अंग्रेजी विरोध की राजनीति करने वाले उत्तर भारतीय राज्य निरंतर पिछड़ते गए। कौन नहीं जानता कि उत्तर भारत में स्थापित ज्यादातर विश्व विद्यालय शैक्षणिक अराजकता के शिकार हो गए हैं। अंग्रेजी का विरोध करने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों ने भी दोहरा रवैया अपनाया है। इन लोगों ने खुद अपने बाल-बच्चें को तो अंग्रेजी में शिक्षित-दीक्षित किया, लेकिन आम जनता के दिलो-दिमाग में अंग्रेजी के विरूद्ध नफरत के बीज बो दिए। छदम गर्व से भरे ये हिंदी भाषी नेतागण अपनी जनता को यह समझाने में सफल रहे कि अंग्रेजी पढ़ने का अर्थ अपनी संस्कृति और परंपरा से विमुख होते जाना होगा। इसके चलते देश का एक बड़ा वर्ग हिंदी में ही अपना भविष्य देखने लगा। अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी गरीब होती चली गई।
    भाषा से जातीय बोध, निजत्व और स्वाभिमान झलकता है। गांधीजी भी यही कहते थे कि अंग्रेजी से दंभ, राग, द्वेष और जुल्म आदि बढ़े हैं, जबकि हिंदी विनम्रता सिखाती है। हिंदी वैचारिक स्वाधीनता की भाषा है, वह भारतीय ज्ञान परंपरा के पार, लौकिक विश्वास और आधुनिक जीवन, संस्कार के विचार को एक जिज्ञासु दृष्टिकोण से प्रासंगिक बनाती है। इसीलिए भारतीय चिंतन में कहा गया है कि हमें सब कुछ शब्द के  माध्यम से ही दिखाई देता है। जाहिर है, माध्यम स्वभाषा ही होती है।
    अगर स्वभाषा अथवा निज भाषा के उपयोग का अवसर किसी व्यक्ति समाज और समुदाय की समझ को  सशक्त बनाता है तो उससे वंचित कर दिए जाने पर वही व्यक्ति और समाज कई स्तरों पर विपन्न भी हो जाता है। भाषायी भेदभाव का यही संस्करण गुलामी को जन्म देता है। भाषायी परतंत्रता से ही सामाजिक, आर्थिक शोषण का भी विस्तार होता है। प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के महत्व को अब सर्वोच्च  न्यायालय ने भी स्वीकार कर लिया है।
    भूलना नहीं चाहिए किन्यायपालिका का क्षेत्र भी हमारे जीवन का एक अभिन्न व व्यवहारिक क्षेत्र है। अब से पहले उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की संपूर्ण कानूनी कार्रवाई अंग्रेजी में ही प्रतिपादित करने की बाध्यता थी जिसे लोकतंत्र की आत्मा के विरूद्ध माना गया था। जो न्याय किसी भी तरह से वादी की समझ में ही नहीं आता हो उसे पक्षपात रहित कैसे कहा जा सकता है। फिर जिस देश का बहुसंख्यक वर्ग, जिस भाषा में लिखता- पढ़ता-बोलना है, अगर उसे उसी भाषा में न्याय नहीं मिलता तो वह न्याय कैसा न्याय हुआ ?
    ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भाषा के प्रति गांधीजी की उस मंशा को सही-सही पकड़ा है जिसमें उन्होंने कहा था कि आज हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसे ज्यादा-से ज्यादा देशवासी जानते हैं और तुरंत समझ लेते हैं। सर्वोच्च  न्यायालय का यह कदम बेशक औपनिवेशिक मानसिकता से छुटकारे की ओर बढ़ता एक कदम तो है ही, गांधीजी को दी जाने वाली सच्ची श्रृद्धांजलि भी है। एक तरफ आज देश गांधीजी की डेढ़ सौवीं जयंती मनाने की तैयारी में जुटा है, वहीं दूसरी तरफ हिंदी के सम्मान में भी एक लंबी छलांग लगाई गई है। भाषायी-स्वाधीनता से वैचारिक स्वाधीनता आती है और वैचारिक स्वाधीनता से ही राजनीतिक स्वाधीनता संपूर्ण होती है। सर्वोच्च  न्यायालय के फैसलों का हिंदी अनुवाद दिए जाने की यह घोषणा न्यायिक सुधारों की दिशा में नए दौर की नई और बेहतर शुरूआत है।
    मुख्य न्यायाधीश ने एक और खास बात कही है। उन्होंने कहा है कि प्रमुख फैसलों की समरी (सार-संक्षेप) भी उपलब्ध करवाने पर सर्वोच्च  न्यायालय में चर्चा चल रही है। उदाहरण देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट किया है कि जैसे ट्रिपल तलाक का फैसला चार सौ पन्नों का है जिसकी समरी कुछ पन्नों में बन सकती है। इसके लिए थिंक टैंक बना दिया गया है जो यह काम करेगा, किंतु यहां यह जान लेना जरूरी है कि समरी सीधे-सीधे जारी नहीं कर दी जाएगी। थिंक टैंक द्वारा तैयार की गई फैसलों की समरी फैसला देने वाले न्यायाधीशों के समझ प्रस्तुत की जाएगी और न्यायाधीशों द्वारा पढ़ने और मंजूरी देने के बाद ही सार्वजनिक की  जाएगी ।
    वैसे तो यह सब व्यवस्थागत मसला है जो ऊपरी अदालतों की कार्रवाई को रेखांकित करता है, लेकिन इसका सीधा संबंध देश की जनता से भी जुड़ता है। यह लोकतंत्र और कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना का भी हिस्सा है। अब अगर मुख्य न्यायाधीश के हस्तक्षेप से सर्वोच्च न्यायालय की कार्रवाई में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाए भी शामिल होने जा रही हैं, तो बहुत रोमांचक प्रतीत हो रहा है। अभी तक हम एक ऐसी विचित्र व्यवस्था ही देखते आ रहे थे जिसमें संबंधित पक्ष या पक्षों को खुद के ही मुकदमे से संबंधित कानूनी प्रक्रिया, सुनवाई और फैसलों को समझने में नाना-नाना प्रकार की कठिनाईयां आती थीं।
    देश की बहुसंख्यक  आबादी सिर्फ हिंदी या क्षेत्रीय भाषा ही बोलती, समझती है। इनमें से भी मुकदमों का सामना कर रहे ज्यादातर लोग प्राय: हिंदी अथवा अपनी मातृ-भाषा ही सिर्फ बोल और समझ पाते हैं, वे लिखना-पढ़ना तक भी नहीं जानते हैं।
    सात दशक से चली आ रही इस विवश मानसिकता को बदलकर सर्वोच्च  न्यायालय ने न सिर्फ अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के अहंकार को तोड़ा है, बल्कि न्याय-प्रक्रिया का मान बढ़ाते हुए भाषायी-लोकतंत्र में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के गौरव की भी स्थापना की है। इससे किसी को भी कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए ।                      
जीवन शैली
धर्म और पर्यावरण
प्रो. वीरसागर जैन

     पर्यावरण प्रदूषण आज का सबसे अधिक ज्वलन्त मुद्दा है । इसने सारे विश्व को चिन्तित होने पर मजबूर कर दिया है ।
    पर्यावरण प्रदूषण ने न केवल किसी एक देश विशेष को हानि पहुंचाई है, अपितु समुचित जीव जातियाँ इस भयंकर खतरे की चपेट में है । अनेक प्रजातियां तो नष्ट ही हो गई है और अनेक प्रजातियाँ नष्ट (लुप्त्) होने के कगार पर आ गई है । पर्यावरण प्रदूषण के कारण आज प्रकृति का सारा सन्तुलन गड़बड़ा रहा है ।
    विपदाएं तो प्राचीन काल में भी बड़ी-बड़ी आई थीं, पर उनसे एक सीमित क्षेत्र में ही नुकसान होता रहा है, परन्तु पर्यावरण- प्रदूषण तो आज एक ऐसे सर्वग्रासी राक्षस के रूप में हमारे सामने आया है, जिसने कहीं भी किसी को भी नहीं छोड़ा है। अनेकानेक सज्जन, निर्दोष लोग, छोटे-छोटे बच्च्े तक पर्यावरण-प्रदूषण के कारण असमय ही काल के गाल में जा रहे हैं।

    दुनिया के किसी भी अस्त्र-शस्त्र, रोग, महामारी, अकाल, तूफान, दैत्य, राक्षस आदि से भी सृष्टि का कभी उतना नुकसान नहीं हुआ, जितना कि आज पर्यावरण-प्रदूषण से हो रहा है।
    पर्यावरण-प्रदूषण केवल एक समस्या नहीं है, अपितु अनेकानेक समस्याओं का जनक है, मूल है। इसके ही कारण विश्व में अनेक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं- ग्लोबल-वार्मिंग स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याएं, स्वच्छ अन्न-जल-वायु से सम्बन्धित समस्याएं आदि ।
    पर्यावरण-प्रदूषण से आज समाज में स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याएं बहुत अधिक बढ़ गई हैं। आजकल कहीं भी कोई व्यक्ति पूर्णरूप से स्वस्थ नहीं रह रहा है, जबकि गली-गली में आधुनिक चिकित्सालय खुले हुए हैं।
    अन्न, जल, वायु आदि में भी प्रदूषण ने अपना भयंकर कुत्सित प्रभाव व्याप्त् कर दिया है। आज शुद्ध अन्न, फल, सब्जी आदि कुछ नहीं मिलता। सभी शरीर को पोषण देने की बजाय शोषण का कार्य कर रहे हैं। पानी की भी कितनी विकराल समस्या हमारे सामने है- यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इस विषय में विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि अगर अगला विश्वयुद्ध हुआ तो जल के ही कारण होगा। वायु का भी बड़ा बुरा हाल है। सांस लेने तक के  लिए शुद्ध ऑक्सीजन नहीं मिल रही है।
    इस प्रकार पर्यावरण-प्रदूषण से बचने के लिए आए दिन वैश्विक स्तर पर शिखर सम्मेलन, पृथ्वी सम्मेलन एवं अनेक सेमीनार आदि आयोजित किए जा रहे हैं, जिनमें सभी देशों के समाजशास्त्री, राजनैतिज्ञ,दार्शनिक आदि बड़े-बड़े बुद्धिजीवी लोग भाग ले रहे हैं और इस समस्या के समाधान पर विचार कर रहे हैं।
    इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करते हैं कि आखिर धर्म की इस विषय में क्या भूमिका हो सकती है, क्या धर्म और पर्यावरण का कुछ रिश्ता है, क्या कोई धर्म पर्यावरण-प्रदूषण की कोई बात कहता है या फिर सभी धर्मों में पर्यावरण-चेतना पाई जाती है?
    विविध धर्म-दर्शनों के यथाशक्ति किए गए अध्ययन के आधार पर मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि सभी धर्मों में पर्याप्त मात्रा में पर्यावरण-चेतना पाई जाती है। सभी दर्शनों और धर्मों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रकार से पर्यावरण-संरक्षण का उपदेश दिया है। जैसे- वेदों में जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, सूर्य, चन्द्र आदि को देवता मानकर उनकी उपासना की बात की गई है, इत्यादि।
    आवश्यकता आज इस बात की है कि इस विषय को धर्म-ग्रन्थों के उद्धरणों के द्वारा समाज के  सम्मुख लाया जाए और जनता में पर्यावरण-चेतना जगाई जाए, क्योंकि आजकल लोग धर्म के नाम पर भी बहुत अधिक प्रदूषण फैला रहे हैं। पूजा-पाठ, हवन, यज्ञ, तीर्थयात्रा, पर्वाराधना आदि अनुष्ठान जो मूलत: पर्यावरण-शुद्धि के लिए ही बनाए गए थे, दु:ख का विषय है कि वे ही आज पर्यावरण को प्रदूषित करने के कारण बन रहे हैं। धर्म के नाम चल रही इस धर्मान्धता को धर्मग्रन्थों की समीचीन शिक्षा द्वारा रोकना चाहिए ।
    पर्यावरण को प्रदूषित करना वास्तव में देखा जाए तो एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह है, समाजद्रोह है, आने वाली समस्त पीढ़ियों के प्रति किया गया घोर अन्याय है।
    यहां हमें एक बात और भी ध्यान में रखनी होगी कि भारत एक धर्म-प्रधान देश है और आज भी, इतनी वैज्ञानिक चेतना विकसित होने के बाद भी, लोग  वैज्ञानिकों की कम और धर्मगुरुओं की बात अधिक मानते हैं, अत: पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए आज सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि धर्मगुरु लोगों को इस विषय में जागृत एवं प्रेरित करें।
    आज यदि सभी धर्मगुरु यह नारा दे दें कि जिस भी क्रिया से पर्यावरण प्रदूषित होता हो वह क्रिया कदापि धर्म की क्रिया नहीं हो सकती, वह तो पाप की ही क्रिया है, तो हमारा पर्यावरण आज भी बहुत सुन्दर बन सकता है, क्योंकि बहुत सारा प्रदूषण ज्ञान के अभाव मे फैलाया जा रहा हैंजैसे कि -
* नदियों में शव, अस्थि, नख, केश और पूजा-सामग्री, मूर्ति आदि विसर्जित करना ।
* देवी-देवताओं की पूजा के नाम पर खूब हिंसा करना, जीवों को मारना आदि ।
* पूजा के नाम पर ही बहुत अधिक दूध, दही, घी, पानी आदि बरबाद करना ।
* धर्म के नाम पर अस्त्र-शस्त्र बनाकर आतंकवाद फैलाना ।
* पर्वों के नाम पर पटाखे, रंग, भंग आदि के माध्यम से भारी प्रदूषण फैलाना । 
    अत: आज समाज में प्रदूषण फैलाने की हर कोशिश को हमें रोकना ही होगा और यह काम धर्मों की समीचीन शिक्षा देकर ही अच्छी तरह किया जा सकता है। हमें पृथक-पृथक सभी धर्म-दर्शनों में पर्यावरण-चेतना के सूत्रों को खोजकर प्रस्तुत करना होगा और जनता के समक्ष इस बात को बड़े ही स्पष्ट  रूप से रखना होगा कि जो व्यक्ति पर्यावरण को प्रदूषित करे, वह कदापि धर्मात्मा नहीं है, अपितु  महापापी है, अनेक निर्दोष जीवों का हत्यारा है।                             
कविता
माँकी आस
ऋचा पशीने मोहबे


सूर्योदर्य सेसूर्यास्त तक
पर्वत से लेकर सागर तक
धरती माँ की हरी चूनर
फैली थी जाने कहाँ तक,
    विचरते थे अंक में इसकी
    कितने ही जीव छोटे बड़े,
    उर फोड़कर इसका जाने
    कितने सरिता-सोते बहे,
बार झेल उदर पर अपने
इसने कितनों के उदर भरे,
सींचकर ममता से अपनी
मानव के झोले में मोती भरे ।
    भूल गया लेकिन मानव ये,
    बस बींध रहा है माँ का आँचल
    उन्नति के शूल चुभोकर
    करता आहत माँ का तन-मन
घाव लगाए देह पर इसकी
बंजर करता जाता कण-कण भर
कहीं इसका ही तो श्राप नहीं थे ?
कहीं दाबानल, कहीं जल प्लावन !
    सूनी हो रही धीरे-धीरे
    माता की गोद थी जो हरी-भरी,
    सम्पूर्ण जीव जगत संकट में,
    क्या छूट पाएगा मानव भी ?
समय रहते कर ले मान
अपने कर्मो का प्रायश्चित,
श्वास फूल रही धरित्री की
कर जो हो उपाय उचित
    सिलकर माँ की चूनर फिर से
    फिर लौटा उसका सम्मान,
    थोड़ा गतिरोध लगा प्रगति पर
    कर अगली पीढ़ी का ध्यान
जो हुई माँ की साँस शिथिल तो
अगली पीढ़ी क्या जी पाएगी ?
दूधो नहाओ, पूतो फलो की
फिर कहावत काम न आएगी
    कर बुद्धि का सही प्रयोग तू
    सुन ले अब तो माँ की आस,
    सोच-समझकर उठा कदम तू
    न करना अब उसे निराश !
कृषि जगत
संकट मेंहै भूमि
विवेकानंद माथने

     पर्यावरण विकास के मौजूदा ढांचे में भूमि सर्वाधिक कीमती जिन्स मानी जा रही है, पूंजी और कारपोरेट हितों ने उस पर अधिक-से-अधिक कब्जा भी जमा लिया है, लेकिन क्या इस तरह से हम अपनी भोजन की बुनियादी जरूरतों को भी संकट में नहीं डाल रहे हैं?
    भूमि तो तब से संकट में है, जब से मनुष्य अपना नाम लिखकर उसका मालिक बन बैठा। उसने यह मानने से इंकार कर दिया कि मनुष्य के नाते वह भी प्रकृति का हिस्सा है। उसने एक कानून बनाया जिसके मुताबिक भूमि पर जिसका नाम दर्ज होगा वह उसका मालिक होगा और उसकी खरीद-बिक्री भी कर सकेगा । भूमि तब से मनुष्य के अत्याचार की शिकार हुई। उसके मालिक बदलते रहे, लेकिन उसका शोषण जारी रहा। उसे जगह-जगह खोदकर जख्म दिये गये, खनिज निकाले गये, पानी का दोहन किया गया और जंगल नष्ट कर दिये गये । भूमि पर लोहा, सीमेंट बिछाकर हवा, पानी, प्रकाश से उसका रिश्ता ही तोड़ दिया गया। 


    मालकियत के अधिकार ने भूमि को अमीरों की दासी बना दिया। जिसके पास धन होगा वही उस भूमि का मालिक होगा और फिर मालिक जैसा चाहे वैसा उपभोग कर सकेगा। किसानों ने बडे संघर्ष के बाद खेती से रिश्ता जोड़कर उसे अपने सहजीवन का साथी बनाया था, लेकिन धीरे-धीरे फिर से भूमि को बाजार में खड़ा कर दिया गया। अब कारपारेटस ने तय किया है कि औद्योगिक विकास और आधुनिक खेती के नाम पर भूमि के मालिक बनेंगे और फिर उसकी मनमानी लूट करेंगे।
    सरकार पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनामी बनाने का संकल्प जाहिर कर रही है। इसके लिये प्रतिवर्ष २० लाख करोड़ रुपये के हिसाब से पांच साल में १०० लाख करोड़ रुपयों का निवेश लाने के लिये रोड मैप तैयार किया गया है। जिन्हें इसका लाभ मिल रहा है उनके लिये यह सब लुभावना हो सकता है, लेकिन जिन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी, उनके जीवन में विकास का अंधेरा छा जायेगा । गांव और किसानों से बडे? पैमाने पर कृषि भूमि, प्राकृतिक संसाधन और उससे प्राप्त् होने वाला रोजगार छीना जायेगा । रासायनिक खेती और जलवायु परिवर्तन के कारण भी कृषि भूमि और कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहे हैं और अति सिंचाई के कारण लवणीयता बढ़ने से कृषि भूमि का एक तिहाई हिस्सा तेजी से बंजर होते जा रहा है। जलवायु परिवर्तन का भी खेती और उसकी उपज पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में सरकार की  नीतियों का भूमि और उसके कारण खाद्यान्न सुरक्षा, राजनीतिक आजादी पर क्या असर पड़ेगा, यह समझना जरुरी है।
    भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र ३२.८७ करोड़ हेक्टर और रिपोर्टेड क्षेत्र ३०.५९ करोड़ हेक्टर है । कृषि विभाग के अनुसार कृषि भूमि का क्षेत्र १४ करोड़ हेक्टर के आसपास है और पिछले ७० सालों में इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन नेशनल स?म्पल सर्वे-२०१३  (७० वाँ दौर) के भारत में पारिवारिक स्वामित्व एवं स्वकर्षित जोत के अध्ययन के अनुसार ग्रामीण भारत में रहने वाले परिवारों के स्वामित्व में १९९२ में ११.७ करोड हेक्टर जमीन थी, जो २०१३ में घटकर ९.२ करोड़ हेक्टर रह गयी थी । याने की दो दशक में २.५ करोड़ हेक्टर कृषि भूमि कम हुई है। भूमि हस्तांतरण की इस गति के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि २०२३ के स?म्पल सर्वे में ग्रामीण भारत के पास केवल ८ करोड हेक्टर कृषि भूमि बचेगी।
    देश की कृषि संबंधी नीतियां बनाने, कृषि योजनाएं क्रियान्वित करने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण, आयात-निर्यात, विभिन्न फसलों का उत्पादन, कुल कृषि उत्पादन, सबसिडी, बजट आदि के लिये देश में कितनी कृषि भूमि है यह जानना सरकार के लिये जरुरी होता है। उसके लिये देश में कृषि भूमि का प्रत्यक्ष आंकलन करने की व्यवस्था है, लेकिन केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा कहीं भी जमीन का आंकलन ठीक से नहीं होता। सरकारें अनुमान (प्रोजेक्शन) से कृषि भूमि के आंकडे जोड़ती हैं और उसी के आधार पर योजनाएं बनाती हैं।
    मसलन सरकार के पास इसकी पक्की जानकारी उपलब्ध नहीं है कि भारत में कितनी कृषि भूमि है ? और आज तक किसानों और गांवों की कितनी भूमि गैर- कृषि कार्य के लिये इस्तेमाल हुई है? सरकारी विभाग अलग-अलग आंकडे दे रहे हैं। कृषि विभाग और सैम्पल सर्वे के आंकडों में बहुत अंतर है। उद्योग मंत्रालय के पास कोई हिसाब नहीं है कि पूरे देश में उद्योगों के लिये कितनी जमीन ली गई है। कृषि भूमि संबंधित सरकारी आंकडे अनुमान पर आधारित हैं। इन्हीं आंकडों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि सरकार की भावी विकास योजनाओं में कितनी कृषि भूमि लगेगी और उसके क्या प्रभाव होंगे।
    पूरे देश में बनाये जा रहे छह औद्योगिक गलियारों से २०.१४ करोड़ हेक्टर भूमि प्रभावित होगी जो देश के कुल रिपोर्टेड क्षेत्र का ६६ प्रतिशत है। रेल कॉरिडोर और प्राकृतिक संसाधन जुटाने के लिये बनाई जा रही परियोजनाओं के लिये कितनी भूमि की आवश्यकता पडे?गी, इसका अभी अनुमान लगाना मुश्किल है, लेकिन अगर इसका २० प्रतिशत उद्देश्य भी पूरा किया गया तो इसमें कम-से-कम चार करोड़ हेक्टर कृषि भूमि खेती से बाहर   होगी ।
    बढ़ती आबादी और घटती कृषि भूमि के कारण देश में किसान के पास प्रति परिवार औसत कृषि भूमि का क्षेत्र लगातार घट रहा है। वर्ष २०३१ में जब भारत की जनसंख्या १५० करोड़ के आसपास होगी और जब कुल कृषि भूमि चार करोड़ हेक्टर होगी, तब हर परिवार के हिस्से में औसत ०.१५ हेक्टर कृषि भूमि आयेगी।
    सरकार भूमि संबंधी नीति और कानूनों में तेजी से परिवर्तन कर रही है। पांच सालों में आधे किसानों को खेती से बाहर करने की सिफारिश खुद नीति आयोग ने की है। सरकार किसानों की संख्या कुल आबादी के २० प्रतिशत तक सीमित रखना चाहती है।
    कारपोरेट्स को अंधाधुंध भूमि सौंपने के लिये भूमि अधिग्रहण कानून में परिवर्तन, सीधे जमीन खरीदने के लिये कानून, बाहरी लोगों को जमीन न बेचने के राज्यों के अधिकारों को समाप्त करना, जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारित करने वाले शहरी और ग्रामीण सीलिंग एक्ट समाप्त् करना, लैंड बैंक, लैंड यूज बदलने के बाद भी जमीन किसानों को वापस न करते हुये लैंड बैंक में डालने का प्रावधान, आदिवासियों की जमीन बेचने का अधिकार आदि के लिये या तो कानून बनाये गये हैं या फिर बनाये जा रहे  हैं।
    कारपोरेट फार्मिंग के लिये खेती में विदेशी निवेश की अनुमति, पूंजी और तकनीक को प्रोत्साहन, कॉन्ट्रेक्ट खेती के लिये कानून, खेती को लंबी लीज पर लेने के लिये कानून आदि सब उसी योजना का हिस्सा है। कारपोरेट फार्मिंग के लिये उपजाऊ खेती कंपनियों को सौपी जायेंगी। देश की पूरी खेती को फिर से चाय और नील की खेती की तरह नई कारपोरेटी जमींदारी की तरफ धकेला जा रहा है।
    भूमि की मालकी समुदाय की है। अत: सरकार को इसका हस्तांतरण करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। जो जोते-बोएगा उसी के पास भूमि होनी चाहिये। सरकार ना मालिक है और ना उसे यह अधिकार है कि किसानों से भूमि छीनकर कारपोरेट्स के हवाले कर दे। सरकार केवल एक ट्रस्टी है। भूमि की मालकियत अगर समस्या है, तो समस्या का निराकरण भी मालकी विसर्जन से ही संभव है। ग्रामदान कानून में भूमि पर व्यक्तिगत मालकी विसर्जित होकर ग्रामसभा की मालकी स्थापित होती है जिसमें ग्रामसभा को निर्णय लेने का सर्वोच्च् अधिकार है।
    भूमि पर ग्रामसभा की मालकी स्थापित होने के बाद ग्रामसभा बाहरी व्यक्ति या कंपनी को जमीन लेने से मना कर सकती है। ग्रामदान कानून के तहत ग्रामदानी गांव घोषित होने के बाद देश का कोई कानून गांव की जमीन नहीं छीन सकता। गांव और भूमि बचाने के  लिये ग्रामदान कानून एक रास्ता    है।
    जब सरकारें कारपोरेट्स के दलाल बनकर काम कर रही हों तब भूमि बचाने के लिये जनता को ग्रामसभा के द्वारा स्वयं निर्णय लेने ही होंगे। जनता को इसी दिशा में व्यापक भूमि सुधार के लिये काम करना होगा। तभी वह कारपोरेट्स की गिद्ध-नजरों से बच पायेंगे। अन्यथा पूरे समाज को जमीन से उखाड़ दिया जायेगा या समाज की जमीन ही उखाड़ दी जायेगी।
पर्यावरण समाचार
पेरिस पर्यावरण समझौते को लागू करने की मांग

              बेसिक (ब्राजील, साउथ अफ्रीका, भारत और चीन) देशों के पर्यावरण मंत्रियों ने आह्वान किया है कि पेरिस जलवायु समझौते को व्यापक रूप से लागू किया जाए । जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्उ ट्रंप ने समझौते से हटने की धमकी दी है । मंत्रियों ने यह भी कहा कि विकसित देश जलवायु कार्ययोजना को लागू करने से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए विकासशील देशों को १०० अरब डॉलर की मदद दें ।
    पिछले दिनों बीजिंग में हुई बेसिक देशों के पर्यावरण मंत्रियों के २९वें सम्मेलन में भारत के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर शामिल हुए । बेसिक मंत्रियों की बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान मेंकहा गया कि मंत्रियों ने पेरिस समझौते को व्यापक रूप से लागू करने पर जोर दिया । विशेष रूप से लक्ष्य और सिद्धांतों को व्यापक रूप से लागू किया जाना चाहिए । श्री जावडेकर ने बताया कि दिसबंर में चीली में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन होने जा रहा है । बेसिक देशों के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में इस सम्मेलन में समूह के रूप में उठाए जाने वाले मुद्दों और प्राथमिकताआें को तय किया गया । श्री जावडेकर ने बताया कि बैठक सफल चीली में होने वाले सम्मेलन में पेरिस समझौते के क्रियान्वयन पर चर्चा की जाएगी । इसमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन कोे कम करने के साथ जलवायु वित्तीय मदद के मुद्दे पर चर्चा होगी ।
    चीन और अमेरिका को दुनिया मेंसबसे अधिक प्रदूषणकारी माना जाता हैं । दोनों ही देशों ने पेरिस समझौते पर दस्तखत किए हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने समझौता से हटने की धमकी दी हैं । समझौते पर हस्ताक्षर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने किए थे । पिछले दिनो ट्रंप ने कहा था कि अमेरिका पेरिस समझौते से निश्चित रूप से हटेगा । इस समझौते को उन्होंने बूरा सौदा करार दिया ।
    उन्होंने दावा किया कि उनकी जैव ईधन समर्थक नीतियो के कारण ही अमेरिका ऊर्जा में सुपरपावर बन पाया है । अमेरिका अगले साल समझौते से बाहर होगा । श्री जावड़ेकर ने कहा कि विकसित देश विकासशील व अविकसित देशों को हरसाल १०० अरब डालर की मदद दें जिससे जलवायु परिवर्तन का प्रबंधन हो सकें ।