बुधवार, 20 नवंबर 2019

गांधी - १५०
गांधी : पर्यावरण के भविष्यवक्ता
डॉ. ओ.पी. जोशी

    डेढ़ सौ पहले पैदा होकर करीब सत्तर साल पहले तक हमारे साथ रहे गांधीजी ने आज की लगभग सभी कठिन समस्याआें को महसूस करने और उनसे निपटने की तजबीज सुझाने का कमला किया था, लेकिन ठीक उसी दर्जे और लहजे का कमला हम हिन्दुस्तानियों और दुनियाभर के लोगों ने गांधी को अपनी अपनी हवस के चलते तुरत-फूरत खारिज करन े में भी किया। नतीजा हम सबकी बदहाली के रूप में सामने है। 


     गांधीजी के समय में न तो पर्यावरण शब्द इतना प्रचलित था और न पर्यावरण की समस्याएं ही इतनी गम्भीर थीं जितनी आज हैं। गांधीजी ने पर्यावरण की जगह प्रकृति शब्द का उपयोग किया था। उनके द्वारा व्यक्त  विचारा ें तथा लेखों में भविष्य की पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति उनकी चिंता झलकती थी । उन्होंने इन पर न केवल चि ंता जतायी अपितु समझाईश देकर चेतावनी भी दी। वर्तमान म ें पर्यावरण स े जुड़ी सारी चिंताएं मानव क ेन्द्रित हैं क्यों कि मानव आज अपने तथा कथित विकास के नाम पर पर्यावरण को जीवन-दाता मानने के बजाए एक दास या सेवक मानने लगा है। गांधीजी की सोच जीव-केन्द्रित पर्यावरण की थी जिसमें मानव के साथ-साथ पेड़ पौधा ें एवं जीव जंतुओं को भी समाहित कर महत्व दिया जाता है।
    सम्भवत: गांधीजी के इसी विचार से प्रेरित होकर हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम-१९८६ में पर्यावरण में हवा, पानी व भूमि क े साथ-साथ पेड़-पौधों एवं जीव-जंतुआेंको भी स्थान दिया गया है । १९३० में दांडी यात्रा के  समय उन्होंने कई स्थानों पर प्राकृतिक संसाधनों के सीमित एवं समान वितरण की बातें लोगों को समझाई थीं । इसी दौरान उन्होंने यह भी कहा था कि पृथ्वी सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है, परन्तु किसी एक के भी लालच को पूरा नहीं कर सकती। गांधीजी की इतनी महत्वपूर्ण बात को हमने भुला दिया, उस पर ध्यान तक नहीं दिया ।
    एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी ग्लोबल फूटप्रिंट ने नेटवर्क प्राकृतिक संसाधनों की पैदावार, उनका दोहन, उनकी बचत, स ंरक्षण एव ं पुर्ननिर्माण आदि को  जनसंख्या से जोड़कर अति-दोहन दिवस की गणना करती है। इस वर्ष यानि २०१९ में हमारा अति-दोहन दिवस २९ जुलाई को ही आ गया है। जाहिर है, हमने अपने लोभ-लालच के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन इतनी तेजी से कर लिया है कि पूरे े साल भर चलन े वाले संसाधन सात महीनों में ही समाप्त हो गए हैं । वर्ष १९८७ में अति-दोहन दिवस १९ दिसम्बर कोे आया था यानि हमन े अपने स ंसाधनों को लगभग सालभर उपयोग किया था।
    मानव की यह अति-दोहन की प्रवृत्ति सतत विकास` की अवधारणा के ठीकी विपरीत है । सतत विकास की अवधारणा के अनुसार भावी पीढ़ियों को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वे सारे प्राकृतिक संसाधन उतनी ही मात्रा एवं गुणवत्ता में मिलें जितने वर्तमान पीढ़योंको भी वे चीजें मिल पायें। वर्ष १९३० में एक प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा था कि `ऐसा समय आयेगा जब अपनी जरूरतों को कई गुना बढ़ाने की अंधी दौड़ में लगे लोग अपने किये को देखेगे और कहेंगे कि ये हमने क्या किया ? आज  ऐसा समय आ गया है जिसमें बढ़ती जरूरतों की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की होड़ मची है ।
    २३ जनवरी १९४० को गांधीजी ने एक सभा में कहा था कि प्राकृतिक संसाधनों को बचाकर एवं शारीरिक श्रम को महत्व देकर हम लाखों लोगों से जुड़ सकते हैं । वतमान में विज्ञान की नई तकनीकों से शारीरिक श्रम तो लगभग समाप्त् ही हो गया है एवं प्राकृतिक संसाधनों का
दोहन बढ़ गया है।
    प्राकृतिक संसाधनों का वितरण भी अब समान नहीं रहा है । ग्लोबल फूटप्रिंट नेटवर्क की कुछ वर्षोपूर्व जारी रिपोर्ट लिविंग प्लेनेट के अनुसार दुनिया की पांच प्रतिशत आबादी का ६० प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा है जबकि ६० प्रतिशत आबादी केवल पांच प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों में काम चलाती है। इस असमानता से सामाजिक व्यवस्था का संतुलन बिगड़ रहा है एवं संघर्ष की परिस्थितियां पैदा हो रही हैं। 'स्वास्थ्य की कु ंजी` शीर्षक अपने एक लेख में गांधीजी ने बताया था कि अच्छे मानव स्वास्थ्य के लिए तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण जरूरी हैं - साफ हवा, साफ पानी एवं निरामिष भोजन । हमारे देश में ये प्राकृतिक पोषण प्रदूषित हो गये हैं ।
    दक्षिण-अफ्रीका में १९१३ में गा ंधीजी ने एक  बैठक में कहा था कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से साफ हवा मुफ्त में दी है, परंतु आने वाले आधुनिक समाज में साफ हवा की काफी समस्या होगी एवं इसे प्राप्त् करने हेतु लागत लगेगी । गांधीजी की १०६ वर्ष पूर्व की यह चिंता या भविष्यवाणी आज सही साबित हो ेगयी है। दुनिया के १० में से नौ लोग प्रदूषित वायु में सांस ले रहे हैं तथा चीन के बीजिंग व हर्दिन शहरों में ग्रामीण साफ हवा बेच रह े हैं ।
    देश के स्वतंत्रता आ ंदा ेलन से जुड़कर दिसम्बर १९३० में गांधीजी ने कहा था कि आजादी के बाद लोकतंत्र मे ं सभी नागरिका ें को साफ हवा व पानी उपलब्ध होना चाहिए । गांधीजी के इसी विचार को बाद में न्यायालयों ने मौलिक अधिकार या मानवाधिकार बताया था। वर्ष १९३५ में गुजरात के काठियावाड़ के अकाल पीड़ित क्षेत्रों की एक जनसभा को  सम्बोधित करते हुए गांधीजी ने समझाया था कि अकाल का सामना करने हेतु रियासतें आपस में मिल-जुलकर पानी का प्रबंधन करें एव ं बड़े पैमाने पर जंगल नहीं काटें, क्योंकि जल आ ैर जंगल का रिश्ता गहन हा ेता है । दिल्ली की एक सभा में १९४७ में उन्होंने कहा था कि फसलों की सिंचाई हेतु बरसात के पानी का उपयोग किया जाना चाहिए । यही बात देश के प्रसिद्ध कृषि वैज्ञाानिक डा.एमएस स्वामीनाथन ने भी दोहरायी है।
    देश  मेंवाहनों की बढ़ती संख्या उनसे पैदा होने वाला प्रदूषण एवं यातायात जाम की समस्या को गांधीजी ने पहले ही भांप लिया था । वर्ष १९३५ में अमेरीका की यात्रा के समय वहां के राष्ट्रपति ने गांधीजी से बातचीत के दौरान कहा था कि हरेक अमेरीकी नागरिक के पास दो कारें व एक रेडियो सेट होना चाहिये । इस पर गांधीजी ने कहा था कि मेरे देश में यदि एक परिवार में भी एक कार आ गयी तो यातायात की समस्या गंभीर होगी एवं लोग पैदल भी स़़डकों पर नहीं चल पायेंगे । गांधीजी की यह सोच सही साबित हुई जब विश्वबैंक ने अपनी २०१८ की एक रिपोर्ट में कहा कि भारत के शहर कारों की बढ़ती संख्या से पैदा परेशानियों को निपटाने में सक्षम नहीं है ।
    गांधीजी छोटे हवादार एवं प्रकाशवान घरों में रहने की प्राथमिकता देते थे क्योंकि इससे ऊर्जा (बिजली) की बचत होती है । प्रसिद्ध टाइम मैगजीन के ९ अप्रेल २००७ के अंक में ग्लोबल वार्मिग से बचने हेतु ५१ उपाय बताये गये थे जिनमें सरल जीवन, सीमित उपभोग एवं ज्यादा साझेदारी गांधीजी की सोच पर ही आधारित है ।
    विश्व पर्यावरा एवं विकास आयोग की रिपोर्ट हमारा सामूहिक भविष्य - १९८७ तथा जून १९९२ में हुएए पृथ्वी शिखर सम्मेलन में तैयार एजेंडा २१ में बतलायी गई बातें भी वही हैं जो गांधीजी ने हिन्द स्वराज में १९०९ में लिखी थीं, अंतर केवल भाषा का था । देश केप्रसिद्ध पर्यावरणविद् प्रोफेसर टीएन खुशु ने बिल्कुल सही कहा है कि अत्योदय तथा सर्वोदय पर आधारित महात्गा गांधी के सादगीपूर्ण विकास के मॉडल से ही पर्यावरण संरक्षण एवं सतत विकास संभव होगा ।    

कोई टिप्पणी नहीं: