कृषि जगत
संकट मेंहै भूमि
विवेकानंद माथने
पर्यावरण विकास के मौजूदा ढांचे में भूमि सर्वाधिक कीमती जिन्स मानी जा रही है, पूंजी और कारपोरेट हितों ने उस पर अधिक-से-अधिक कब्जा भी जमा लिया है, लेकिन क्या इस तरह से हम अपनी भोजन की बुनियादी जरूरतों को भी संकट में नहीं डाल रहे हैं?
भूमि तो तब से संकट में है, जब से मनुष्य अपना नाम लिखकर उसका मालिक बन बैठा। उसने यह मानने से इंकार कर दिया कि मनुष्य के नाते वह भी प्रकृति का हिस्सा है। उसने एक कानून बनाया जिसके मुताबिक भूमि पर जिसका नाम दर्ज होगा वह उसका मालिक होगा और उसकी खरीद-बिक्री भी कर सकेगा । भूमि तब से मनुष्य के अत्याचार की शिकार हुई। उसके मालिक बदलते रहे, लेकिन उसका शोषण जारी रहा। उसे जगह-जगह खोदकर जख्म दिये गये, खनिज निकाले गये, पानी का दोहन किया गया और जंगल नष्ट कर दिये गये । भूमि पर लोहा, सीमेंट बिछाकर हवा, पानी, प्रकाश से उसका रिश्ता ही तोड़ दिया गया।
संकट मेंहै भूमि
विवेकानंद माथने
पर्यावरण विकास के मौजूदा ढांचे में भूमि सर्वाधिक कीमती जिन्स मानी जा रही है, पूंजी और कारपोरेट हितों ने उस पर अधिक-से-अधिक कब्जा भी जमा लिया है, लेकिन क्या इस तरह से हम अपनी भोजन की बुनियादी जरूरतों को भी संकट में नहीं डाल रहे हैं?
भूमि तो तब से संकट में है, जब से मनुष्य अपना नाम लिखकर उसका मालिक बन बैठा। उसने यह मानने से इंकार कर दिया कि मनुष्य के नाते वह भी प्रकृति का हिस्सा है। उसने एक कानून बनाया जिसके मुताबिक भूमि पर जिसका नाम दर्ज होगा वह उसका मालिक होगा और उसकी खरीद-बिक्री भी कर सकेगा । भूमि तब से मनुष्य के अत्याचार की शिकार हुई। उसके मालिक बदलते रहे, लेकिन उसका शोषण जारी रहा। उसे जगह-जगह खोदकर जख्म दिये गये, खनिज निकाले गये, पानी का दोहन किया गया और जंगल नष्ट कर दिये गये । भूमि पर लोहा, सीमेंट बिछाकर हवा, पानी, प्रकाश से उसका रिश्ता ही तोड़ दिया गया।
मालकियत के अधिकार ने भूमि को अमीरों की दासी बना दिया। जिसके पास धन होगा वही उस भूमि का मालिक होगा और फिर मालिक जैसा चाहे वैसा उपभोग कर सकेगा। किसानों ने बडे संघर्ष के बाद खेती से रिश्ता जोड़कर उसे अपने सहजीवन का साथी बनाया था, लेकिन धीरे-धीरे फिर से भूमि को बाजार में खड़ा कर दिया गया। अब कारपारेटस ने तय किया है कि औद्योगिक विकास और आधुनिक खेती के नाम पर भूमि के मालिक बनेंगे और फिर उसकी मनमानी लूट करेंगे।
सरकार पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनामी बनाने का संकल्प जाहिर कर रही है। इसके लिये प्रतिवर्ष २० लाख करोड़ रुपये के हिसाब से पांच साल में १०० लाख करोड़ रुपयों का निवेश लाने के लिये रोड मैप तैयार किया गया है। जिन्हें इसका लाभ मिल रहा है उनके लिये यह सब लुभावना हो सकता है, लेकिन जिन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी, उनके जीवन में विकास का अंधेरा छा जायेगा । गांव और किसानों से बडे? पैमाने पर कृषि भूमि, प्राकृतिक संसाधन और उससे प्राप्त् होने वाला रोजगार छीना जायेगा । रासायनिक खेती और जलवायु परिवर्तन के कारण भी कृषि भूमि और कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहे हैं और अति सिंचाई के कारण लवणीयता बढ़ने से कृषि भूमि का एक तिहाई हिस्सा तेजी से बंजर होते जा रहा है। जलवायु परिवर्तन का भी खेती और उसकी उपज पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में सरकार की नीतियों का भूमि और उसके कारण खाद्यान्न सुरक्षा, राजनीतिक आजादी पर क्या असर पड़ेगा, यह समझना जरुरी है।
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र ३२.८७ करोड़ हेक्टर और रिपोर्टेड क्षेत्र ३०.५९ करोड़ हेक्टर है । कृषि विभाग के अनुसार कृषि भूमि का क्षेत्र १४ करोड़ हेक्टर के आसपास है और पिछले ७० सालों में इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन नेशनल स?म्पल सर्वे-२०१३ (७० वाँ दौर) के भारत में पारिवारिक स्वामित्व एवं स्वकर्षित जोत के अध्ययन के अनुसार ग्रामीण भारत में रहने वाले परिवारों के स्वामित्व में १९९२ में ११.७ करोड हेक्टर जमीन थी, जो २०१३ में घटकर ९.२ करोड़ हेक्टर रह गयी थी । याने की दो दशक में २.५ करोड़ हेक्टर कृषि भूमि कम हुई है। भूमि हस्तांतरण की इस गति के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि २०२३ के स?म्पल सर्वे में ग्रामीण भारत के पास केवल ८ करोड हेक्टर कृषि भूमि बचेगी।
देश की कृषि संबंधी नीतियां बनाने, कृषि योजनाएं क्रियान्वित करने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण, आयात-निर्यात, विभिन्न फसलों का उत्पादन, कुल कृषि उत्पादन, सबसिडी, बजट आदि के लिये देश में कितनी कृषि भूमि है यह जानना सरकार के लिये जरुरी होता है। उसके लिये देश में कृषि भूमि का प्रत्यक्ष आंकलन करने की व्यवस्था है, लेकिन केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा कहीं भी जमीन का आंकलन ठीक से नहीं होता। सरकारें अनुमान (प्रोजेक्शन) से कृषि भूमि के आंकडे जोड़ती हैं और उसी के आधार पर योजनाएं बनाती हैं।
मसलन सरकार के पास इसकी पक्की जानकारी उपलब्ध नहीं है कि भारत में कितनी कृषि भूमि है ? और आज तक किसानों और गांवों की कितनी भूमि गैर- कृषि कार्य के लिये इस्तेमाल हुई है? सरकारी विभाग अलग-अलग आंकडे दे रहे हैं। कृषि विभाग और सैम्पल सर्वे के आंकडों में बहुत अंतर है। उद्योग मंत्रालय के पास कोई हिसाब नहीं है कि पूरे देश में उद्योगों के लिये कितनी जमीन ली गई है। कृषि भूमि संबंधित सरकारी आंकडे अनुमान पर आधारित हैं। इन्हीं आंकडों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि सरकार की भावी विकास योजनाओं में कितनी कृषि भूमि लगेगी और उसके क्या प्रभाव होंगे।
पूरे देश में बनाये जा रहे छह औद्योगिक गलियारों से २०.१४ करोड़ हेक्टर भूमि प्रभावित होगी जो देश के कुल रिपोर्टेड क्षेत्र का ६६ प्रतिशत है। रेल कॉरिडोर और प्राकृतिक संसाधन जुटाने के लिये बनाई जा रही परियोजनाओं के लिये कितनी भूमि की आवश्यकता पडे?गी, इसका अभी अनुमान लगाना मुश्किल है, लेकिन अगर इसका २० प्रतिशत उद्देश्य भी पूरा किया गया तो इसमें कम-से-कम चार करोड़ हेक्टर कृषि भूमि खेती से बाहर होगी ।
बढ़ती आबादी और घटती कृषि भूमि के कारण देश में किसान के पास प्रति परिवार औसत कृषि भूमि का क्षेत्र लगातार घट रहा है। वर्ष २०३१ में जब भारत की जनसंख्या १५० करोड़ के आसपास होगी और जब कुल कृषि भूमि चार करोड़ हेक्टर होगी, तब हर परिवार के हिस्से में औसत ०.१५ हेक्टर कृषि भूमि आयेगी।
सरकार भूमि संबंधी नीति और कानूनों में तेजी से परिवर्तन कर रही है। पांच सालों में आधे किसानों को खेती से बाहर करने की सिफारिश खुद नीति आयोग ने की है। सरकार किसानों की संख्या कुल आबादी के २० प्रतिशत तक सीमित रखना चाहती है।
कारपोरेट्स को अंधाधुंध भूमि सौंपने के लिये भूमि अधिग्रहण कानून में परिवर्तन, सीधे जमीन खरीदने के लिये कानून, बाहरी लोगों को जमीन न बेचने के राज्यों के अधिकारों को समाप्त करना, जमीन की अधिकतम सीमा निर्धारित करने वाले शहरी और ग्रामीण सीलिंग एक्ट समाप्त् करना, लैंड बैंक, लैंड यूज बदलने के बाद भी जमीन किसानों को वापस न करते हुये लैंड बैंक में डालने का प्रावधान, आदिवासियों की जमीन बेचने का अधिकार आदि के लिये या तो कानून बनाये गये हैं या फिर बनाये जा रहे हैं।
कारपोरेट फार्मिंग के लिये खेती में विदेशी निवेश की अनुमति, पूंजी और तकनीक को प्रोत्साहन, कॉन्ट्रेक्ट खेती के लिये कानून, खेती को लंबी लीज पर लेने के लिये कानून आदि सब उसी योजना का हिस्सा है। कारपोरेट फार्मिंग के लिये उपजाऊ खेती कंपनियों को सौपी जायेंगी। देश की पूरी खेती को फिर से चाय और नील की खेती की तरह नई कारपोरेटी जमींदारी की तरफ धकेला जा रहा है।
भूमि की मालकी समुदाय की है। अत: सरकार को इसका हस्तांतरण करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। जो जोते-बोएगा उसी के पास भूमि होनी चाहिये। सरकार ना मालिक है और ना उसे यह अधिकार है कि किसानों से भूमि छीनकर कारपोरेट्स के हवाले कर दे। सरकार केवल एक ट्रस्टी है। भूमि की मालकियत अगर समस्या है, तो समस्या का निराकरण भी मालकी विसर्जन से ही संभव है। ग्रामदान कानून में भूमि पर व्यक्तिगत मालकी विसर्जित होकर ग्रामसभा की मालकी स्थापित होती है जिसमें ग्रामसभा को निर्णय लेने का सर्वोच्च् अधिकार है।
भूमि पर ग्रामसभा की मालकी स्थापित होने के बाद ग्रामसभा बाहरी व्यक्ति या कंपनी को जमीन लेने से मना कर सकती है। ग्रामदान कानून के तहत ग्रामदानी गांव घोषित होने के बाद देश का कोई कानून गांव की जमीन नहीं छीन सकता। गांव और भूमि बचाने के लिये ग्रामदान कानून एक रास्ता है।
जब सरकारें कारपोरेट्स के दलाल बनकर काम कर रही हों तब भूमि बचाने के लिये जनता को ग्रामसभा के द्वारा स्वयं निर्णय लेने ही होंगे। जनता को इसी दिशा में व्यापक भूमि सुधार के लिये काम करना होगा। तभी वह कारपोरेट्स की गिद्ध-नजरों से बच पायेंगे। अन्यथा पूरे समाज को जमीन से उखाड़ दिया जायेगा या समाज की जमीन ही उखाड़ दी जायेगी।
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