सोमवार, 20 अगस्त 2007

७ आवरण कथा















प्रदूषित हो रहा है पवित्र अमरनाथ धाम






सुदेश पौराणिक






शिवभक्तों में कौन ऐसा होगा जो अमरनाथ के दर्शन करने नहीं जाना चाहता। हर शिवभक्त की यह आकांक्षा होती है कि वह जीवन में कम से कम एक बार पवित्र गुफा में स्थित इस हिमलिंग के दर्शन करें, जिसकी कथा सुनने मात्र से अनेक पाप नष्ट हो जाते हैं । ऐसे पवित्र स्थान में बढ़ रहे प्रदूषण को लेकर श्रद्धालुआे में चिंता होना स्वाभाविक है । आज पहलगाम से लेकर पवित्र गुफा तक प्लास्टिक की खाली बोतलें, पोलीथीन की थैलियां तथा थर्माकोल के बर्तन बिखरे पड़े हैं । एक अत्यंत पवित्र धर्मस्थल में लगातार बढ़ रहे प्रदूषण पर नियंत्रण करना आवश्यक हो गया है । जम्मू व कश्मीर सरकार, पहलगाम विकास प्राधिकरण, श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड तथा स्थानीय प्रशासन सभी इस बढ़ते प्रदूषण को लेकर गंभीर दिखाई नहीं देते हैं। धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर में १२,७२३ फीट ऊँचाई पर हिम आच्छादित पर्वतों के बीच स्थित भगवान अमरनाथजी की महिमा निराली है । मनमोहन झीलों, चश्मों, देवदार व चीड़ के घने जंगलों के बीच से बहती दूधिया नदियों की कलकल आवाज में श्री बाबा अमरनाथ की ध्वनि स्पंदित होती है । पर्वतों के मध्य में लगभग ६० फीट लम्बी, ३० फीट चौड़ी और १५ फीट ऊँची उबड़-खाबड़ गुफा के अंदर प्रतिवर्ष हिमलिंग की रचना होना अपने आप में एक आश्चर्य है ।



















अमरनाथ यात्रा के आधार शिविर पहलगाम और बालटाल, चन्दनवाड़ी, पिस्सुघाटी, समुद्रतल से १४९०० फीट की ऊँचाई पर स्थित महागुनस टाप, जोजेपाल, पर्वतों के बीच गहरे हरे नीले जल की विशाल जलराशि शेषनाग झील, पोषपत्री तथा चंदनवाड़ी में अतुलनीय सौंदर्य बिखरा पड़ा है । इन रास्तों पर चलते वक्त ऊँचाई का अहसास नहीं होता और यह भी विश्वास नहीं होता कि प्रकृति इतनी सुंदर हो सकती है । मन को अपूर्व शांति व सुख देने वाली कश्मीर घाटी में यात्रियों द्वारा फैलाया जा रहा प्रदूषण मन को विचलित कर देता है। इंसान द्वारा फैलाये गये इस प्रदूषण का प्रारंभ दोनों आधार शिविरों बालटाल और पहलगाम से ही हो जाता है । पहलगाम आधार शिविर के पास बहने वाली नदी के किनारे शौच के बाद फेंकी गयी पैकेज्ड वाटर की बोतलें तथा खाद्य पदार्थोंा की पॉलीथीन सर्वत्र बिखरी दिखाई देती है । पिछले कुछ सालों से अमरनाथ यात्रा में शामिल होने वाले लोगों की बढ़ती संख्या का ही परिणाम है कि लिद्दर दरिया का पानी पीने लायक नहीं रह गया है और बैसरन तथा सरबल के जंगल जो अभी तक मानव के कदमों से अछूते थे। अब अपने अस्तित्व की लड़ाई में लगे हैं। पिछले साल यात्रा के बाद ५५ हजार किग्रा. कूड़ा-करकट यात्रा मार्ग पर एकत्र किया गया था, इसमें आधा प्लास्टिक था और जो दरियाआे मे बहा दिया गया था, उसका कोई हिसाब नहीं है। श्री अमरनाथ गुफा के पास बहने वाली नदी में पानी की खाली बोतलें तैरती दिखाई देती हैं । सबसे ज्यादा प्रदूषण तो उस समय दिखा जब शेषनाग झील के पास स्थित नागाकोटी के मनोरम जल प्रपात में अज्ञानी यात्रियों द्वारा सैकड़ों प्लास्टिक की बोतलें व खाद्य पदार्थों के पोलीथीन फेंककर इसे गंदा किया गया । श्री अमरनाथ यात्रा के दौरान स्थानीय निवासियों द्वारा जगह-जगह लगायी गयी खाद्य सामग्री की दूकानें तो खूब हैं, लेकिन खाली बोतलों, पॉलीथीन तथा थर्माकोल के कप व गिलास को यथास्थान फेंकने की व्यवस्था नहीं है। श्री अमरनाथ श्राइन बार्ड की कार्यप्रणाली भी सुस्त व निष्क्रिय लग। बोर्ड ने कहीं भी ऐसे इंतजाम नहीं किये जिससे इस पवित्र अमरनाथ धाम को प्रदूषित होने से बचाया जा सके । श्री अमरनाथ गुफा के ठीक नीचे स्थित हेलीपेड के पास भी कभी नष्ट न होने वाली प्लास्टिक व पोलीथीन जहां तहां बिखरी पड़ी है । श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड में श्रद्धालुआे को जागरूक करने के लिए कोई प्रयास किया हो ऐसा दिखाई नहीं पड़ता है। यही हाल पहलगाम विकास प्राधिकरण (पी.डी.ए.) का भी है । पूरी यात्रा के दौरान ऐसा लगा कि जिस तरह से श्री अमरनाथ धाम में घातक प्रदूषण बढ़ रहा है । यदि उसे रोकने के लिए समय रहते ठोस उपाय नहीं किये गये तो वह दिन दूर नहीं जब कश्मीर की यह मनोरम वादी प्लास्टिक के कचरे से पट जायेगी जिससे घाटी के पर्यावरण को अपूर्णनीय क्षति पहँुचेगी । शिव को अनेक नामों से जाना जाता है । शिवभक्त शंकर ने शिव को शंकर कहा था, शंकर का शाब्दिक अर्थ है - शं यानी कल्याण तथा कर याने करने वाले अर्थात कल्याण करने वाला । ऐसे शंकर के पवित्र धाम को यदि हम अज्ञानतावश प्रदूषित कर रहे हैं , इससे जनता को जागरूक करने के लिए एक जन जागरूकता अभियान की जरूरत है जिसे श्रद्धालुआे, शिवभक्तों की सेवा करने वाले भण्डारे वाले, पहलगाम विकास प्राधिकरण, श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड, स्थानीय दुकानदारों तथा प्रशासन के द्वारा जन सहयोग से चलाया जा सकता है। भारतीय दर्शन व विज्ञान की उत्कृष्ट परम्परा के प्राण कहे जाने वाले, कल्याण करने वाले देवता शिव के पवित्र धाम में प्रदूषण नियंत्रण करने का उचित समय आ गया है ।

सम्पादकीय

कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण केखतरे बढ़ रहे है । एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है । इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा । प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं । इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन, रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने, फ्लोरेसेंट, ट्यूब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें भी बेकार हो जाते हैं । जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है । कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी । इनमें धातुआे व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है । लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं । अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है । इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्च्े होते हैं । इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है । महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, आंध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, पश्चिमी बंगाल व मध्यप्रदेश में इस कचरे की मात्रा बढ़ती जा रही है । मुंबई, दिल्ली, बंगलोर, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, सूरत, नागपुर इसके बड़े केंद्र है । ये सब बारूद के ढेर पर बसे हैं । मेनन कमेटी की सिफारिश पर इसके लिए नियम भी बनाए गए थे, उनमें हर वर्ष सुधार भी होता रहा है । मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से सोना निकालने की बनी हुई है । इस कारण कचरे से पर्यावरण प्रदूषण का खतरा बड़ता जा रहा है ।

प्रसंगवश स्वतंत्रता दिवस

गांधीजकी की दृष्टि में भारतीय लोकतंत्र
सर्वोच्च् कोटि की स्वतंत्रता के साथ सर्वोच्च् कोटि का अनुशासन और विनय होता है । अनुशासन और विनय से मिलने वाली स्वतंत्रता को कोई छीन नहीं सकता । संयमहीन स्वच्छंदता, संस्कारहीनता की द्योतक है, उससे व्यक्ति की अपनी और पड़ोसियों की भी हानि होती है । यंग इंडिया, ३-६-२६ कोई भी मनुष्य की बनाई हुई संस्था ऐसी नहीं है, जिसमें खतरा न हो । संस्था जितनी बड़ी होगी, उसके दुरूपयोग की संभावनाएं भी उतनी ही बड़ी होगी । लोकतंत्र एक बड़ी संस्था हैं, इसलिए उसका दुरूपयोग भी बहुत हो सकता है, लेकिन उसका इलाज लोकतंत्र से बचना नहीं, बल्कि दुरूपयोग की संभावना को कम से कम करना है ।यंग इंडिया ७-५-३१ जनता की राय के अनुसार चलने वाला राज्य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता । यदि वह जनमत के खिलाफ जाएगा तो नष्ट हो जाएगा । अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु है, लेकिन राग-द्वेष, अज्ञान और अंधविश्वास आदि दुर्गुणों से ग्रस्त जनतंत्र अराजकात के गड्डे में गिरता है और अपना नाश खुद कर डालता हैं ।यंग इंडिया, ३०-७-३१ प्रजातंत्र का सार ही यह है कि उसमें हर व्यक्ति उन विविध स्वार्थो का प्रतिनिधित्व करता है, जिनसे राष्ट्र बनता है । यह सच है कि इसका यह मतलब नहीं कि विशेष स्वार्थो के विशेष प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व करने से रोक दिया जाये, लेकिन ऐसा प्रतिनिधित्व उनकी कसौटी नहीं है । यह उसकी अपूर्णता की एक निशानी है ।हरिजन सेवक २२.४.३९ आजाद प्रजातांत्रिक भारत आक्रमण के खिलाफ पारस्परिक रक्षण और आर्थिक सहकार के लिये दूसरे आजाद देशों के साथ खुशी से सहयोग करेगा । वह आजादी और जनतंत्र पर आधारित ऐसी विश्व व्यवस्था की स्थापना के लिये काम करेगा, जो मानव जाति की प्रगति और विकास के लिये दुनिया के समूचे ज्ञान और उसकी समूची साधन सम्पत्ति का उपयोग करेगा ।
हरिजन २३.९.२९

१ जीवन शैली

आधुनिक यंत्र और लाचार होता मनुष्य
सुश्री रेशमा भारती
विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार बना तेजी से बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है । आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं । इंटरनेट और मोबाइल भी दूरी व समय की सीमाआे को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं । इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है । स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं । दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है । रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं। कई लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं । बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याआें का आधार तैयार किया है । दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था - ''अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएेंगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए'' (अनुवादित यंग इंडिया, २ जुलाई १९३१) । स्वास्थ्य का आधार तो बिगड़ा ही, साथ ही आधुनिकतम मशीनों ने शरीर और मस्तिष्क संबंधी कई नए किस्म के विकार भी पैदा किए हैं । शारीरिक श्रम करके आजीविका जुटाने वाले अनेक मेहनतकशों के लिए अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण बेराजगारी, शोषण और भेदभाव की संभावनाएं बढ़ता है । तेजी से बढ़ते मशीनीकरण ने विभिन्न कार्यक्षेत्रों में श्रम का अवमूल्यन और बेरोजगारी की स्थितियां पैदा कर दी हैं । पहले से कमजोर आर्थिक स्थिति वाले कई मेहनतकश इस तथाकथित तरक्की में और लाचार होते जा रहे हैं । उदाहरण के लिए कृषि में कम्बाइन हारवेस्टर मशीन का बढ़ता हुआ उपयोग कटाई के दौरान खेतीहर मजदूरों को मिलने वाली आजीविका का परंपरागत आधार छीन रहा है । गांधीजी ने मशीनों से आने वाली बेकारी पर विशेष चिंता प्रकट की थी, उन्होंने लिखा था, ''मुझे आपत्ति स्वयं मशीनों पर नहीं, बल्कि उनके लिए पागल बनने पर है । यह पागलपन श्रम बचाने वाले यंत्रों के लिए है । लोग श्रम बचाने में लगे रहते हैं । यहां तक कि हजारों लोगों को बेकार करके भूख से मरने के लिए खुली सड़कों पर छोड़ दिया जाता है ।'' (यंग इंडिया, १३.११.१९२४)। बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है । एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाआे को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुआे के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाआे से प्रेरित होता है । ये महत्वाकांक्षाएं और उनसे बढ़ते उत्पादन का दबाव कच्च्े माल, सस्ते श्रम और बाजार की लालचपूर्ण तलाश को जन्म देता है । यह अंतहीन प्रतिस्पर्धा, शोषण, संसाधनों की लूट, आधिपत्य और साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों का आधार तैयार करती है । 'हिंसा' इस प्रक्रियाकी स्वाभाविक परिणति होती है । गांधीजी ने भी यंत्रों के इस शोषणपूर्ण चरित्र का विरोध करते हुए कहा था, ''यंत्रों के मेरे बुनियादी विरोध का आधार यह सत्य है कि यंत्रों ने ही कुछ राष्ट्रों को दूसरे राष्ट्रों का शोषण करने की शक्ति दी है ।'' (यंग इण्डिया, २२ अक्टूबर १९३१) । अधिकतम मुनाफे और बाजार पर छाने की महत्वाकांक्षाआे से प्रेरित बेलगाम मशीनीकरण वाली औद्योगिक अर्थव्यवस्था वास्तव में मजदूरों के शोषण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर फलती आई है । जो आधुनिक मशीनें ''मुट्ठी भर लोगों को करोड़ों की पीठ पर सवार होने में मदद करती हैं ।'' गांधीजी उसके विरूद्ध संघर्षरत थे । सन् १९८८ में किशन पटनायक ने भी यंत्रों के चरित्र पर कुछ ऐसे ही बुनियादी सवाल उठाए थे । इस ऐतिहासिक सत्य को हम कैसे भुला सकते हैं कि आधुनिक टेक्नालॉजी को उन्हीं शक्तियों ने विकसित करवाया है जिनका निहित स्वार्थ साम्राज्यवादी संपर्कों को दृढ़ करना था । अरबों डॉलर लगाकर सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों को पैसे और प्रतिष्ठा के जरिए प्रलोभित कर जो कंपनियाँया सरकारें दिन-ब-दिन यंत्रों को अधिक क्षमताआे से लैस करा रही हैं क्या उनके सामाजिक चरित्र का पुट इन यंत्रों में प्रकट नहीं हो जाता ? बेलगाम बढ़ती मशीनें ऊर्जा व इंर्धन की खपत बेइंतहा बढ़ाकर पर्यावरण पर भी बोझ डाल रही है और प्रदूषण फैलाकर ग्लोबल वार्मिंग की स्थितियों को और भी विकट बना रही हैं । मशीनों का बढ़ता कचरा पर्यावरण को असीम और स्थायी क्षति पहँुचा रहा है । यंत्रों का बुरा उपयोग आसानी से कर लिया जाता है । यह भी गांधीजी की यंत्रों पर एक प्रमुख आपत्ति थी । इस विरोध की प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गई है जब हम देखते हैं कि टीवी, इंटरनेट, मोबाइल आदि कैसे हिंसा व अश्लीलता के प्रचार-प्रसार का प्रमुख माध्यम बन गए हैं । हिंसक, आक्रामक व आतंकवादी शक्तियाँ भी अपने संकीर्ण व विनाशकारी लक्ष्यों की पूर्ति के लिए मशीनों का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं । हथियारों का उद्योग निरन्तर फल-फूल रहा है । इंटरनेट जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकी में अंतर्निहित खामियों व खतरों को रेखांकित करते हुए किशन पटनायक ने अपने एक लेख में चेताया था ''आधुनिक साम्राज्यवादी टेक्नालॉजी में पैदा करने की क्षमता नहीं है सिर्फ एकत्रित करने की क्षमता है । आधुनिक विज्ञान का चमत्कार एक तरफ तो एकत्रीकरण का चमत्कार है और दूसरी तरफ ध्वंस का चमत्कार । इंटरनेट और वैश्विक शहर (ग्लोबल विलेज) की परिकलपना ही भयावह है । यह दुनिया के एक फीसदी लोगोे को विश्व श्हरी बनाकर बाकी लोगो को साधनविहीन बना देने का षड़यंत्र है । वैश्विक शहर इंटरनेट ज्ञान की विविधता को नष्ट करने का षड़यंत्र है । ज्ञान का स्थान सूचना ले लेगी और सूचनाआें का काफी हिस्सा गलत तथा अधूरा भी हो सकता है ।'' मशीनों से जिंदगी में आयी तेजी और यांत्रिकता कहीं न कहीं व्यक्ति के व्यवहार व रिश्तों में भी अधीरता, संवेदनहीनता व कृत्रिमता का प्रभाव छोड़ सकती है । मौलिक सोच-विचार की क्षमता और जीवंत अहसास से उत्पन्न संवेदनशीलता का अभाव भी ऐसे समाज में देखा जा सकता है जिस पर मशीनें हावी हों । इस सबके बावजूद हम यह नहीं भूल सकते कि मशीनों के जरूरी व सार्थक उपयोगों की भी कई संभावनाएं मौजूद हैं, बशर्ते कि किसी सार्थक उद्देश्य की पूर्ति का इन्हें ही एकमात्र या प्रमुख साधन न बना लिया जाए । गांधीजी ने यंत्रों के उपयोग पर सीमाएं लगाने पर बल दिया था और विध्वंसक व शोषणकारी यंत्रों का विरोध किया था । ``मैं यंत्र मात्र के विरूद्ब नहीं हूं । मैं यंत्रों की विवेकहीन वृद्धि के खिलाफ हूं । मैं यंत्रों की बाहरी विजय से प्रभावित होने से इंकार करता हूं । मैं तमाम नाशकारी यंत्रों का कट्टर विरोधी हूं । यंत्रों का अधिक से अधिक उपयोग करने के बजाय हमें उनका कम से कम उपयोग करके काम चलाना चाहिए और इसी में समाज की सच्ची सुरक्षा और आत्मरक्षा निहित हैं ।''

२ सामयिक

सेज : अन्याय की पराकाष्ठा
डॉ. रामजी सिंह
इतिहास अपनी पुरावृत्ति करता है। आज पुन: पूंजीवाद अपने नये रूप में अवतरित हो रहा है । एक समय था जब पाश्चात्य जगत ने अर्थशास्त्र में उदारवाद को अपने विकास का स्वधर्म मान लिया था । एडम स्मिथ, मार्शल और कन्स की क्रांति तक उदारवाद का ही झंडा लहराता रहा । मार्क्स और एंजेल्स के समाजवादी अर्थशास्त्र को दरिद्रता का दर्शन (फिलॉसफी ऑफ पॉवर्टी) घोषित किया गया । मार्क्स ने `पूंजी' में पूंजीवाद की शव परीक्षा ही कर डाली थी । बोल्शेविक क्रांति ने समाजवाद को केवल रूस में ही नहीं विश्व में अनेक मार्गो में प्रतिष्ठित किया था । एक समय पूंजीवाद के बदले समाजवाद ही युगधर्म बन गया था। इसी के साथ-साथ एशिया और अफ्रीका के देशों में उपनिवेशवाद भी धराशायी हो गया इसीलिए साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के समर्थकों ने विश्वविजय की एक साझा योजना बनाई जिस हम विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन आदि संस्थाआे में सगुण रूप से देख सकते हैं । साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का मध्ययुगीन या १८वीं १९वीं शताब्दी का रूप अब चल नहीं सकता था । इसीलिए उदारवाद के नाम पर निजीकरण, उदारीकरण और भमंडलीकरण की त्रयी सामने आई । यह प्रचारित किया गया कि आर्थिक विकास का यही राजमार्ग है । दुर्भाग्य तो यह है कि सोवियत संघ ने भी समाजवादी अर्थव्यवस्था को अलविदा कह दिया और चीन भी विश्व व्यापार संघ के दस्तावेज पर मुहर लगाकर वैश्विक पूंजीवाद में महाप्रपंच में शामिल हो गया। चीन ने अपने देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र की सर्वप्रथम स्थापना शुरू की थी । भारत में भी नेहरू युग तक समाजवादी ढांचा और लोकतांत्रिक समाजवाद का वर्चस्व रहा, जो इंदिरा गांधी तक बैंकों का राष्ट्रीकरण, प्रिवीपर्स की समािप्त् और गरीबी हटाओ के कार्यक्रम में देखा जा सकता है । लेकिन उस समय भी देशी पूंजीवाद को बढ़ाने के लिए अनेकानेक प्रोत्साहन दिए गए । राजीव गांधी के समय भी देश पूंजीवादी दिशा की ओर बढ़ता रहा लेकिन डॉ. नरसिम्हा राव के काल में वैश्वीकरण की राह में नई आर्थिक नीति के नाम पर उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण को अपना लिया गया जिसके मुख्य सलाहकार डॉ. मनमोहनसिंह (जो आज भारत के प्रधानमंत्री हैं) थे । जो विश्वबैंक के उच्च् पद पर निष्ठापूर्वक कार्य कर चूके थे । इसी क्रम में आज हमारे सामने विशेष आर्थिक क्षैत्र की समस्या आती है ।१. सामंतवाद का पुनरागमन - भारत में भूमि का स्वामित्व प्रारंभ में ग्राम समाज का रहा, इसीलिए वेद में भूमि को माता कहा गया है । माता भूमि पुत्रोअहम् पृथिव्या - पृथ्वी पर किसी व्यक्ति का अधिकार नहीं है । वह तो प्रकृति या ईश्वर की कृति है । इसीलिए सर्वभूमि गोपाल भी कहा जाता है । लेकिन सामंत युग में जमीन पर व्यक्तिगत अधिकार होने लगे जो मुगल काल तक कायम रहे । अंग्रेजों के समय लार्ड कार्नवालिस ने भूमि व्यवस्था के बारे में चिरस्थाई प्रबंध के नाम से एक योजना लागू की जिसमें भूमिपुत्र किसानों और राज्य के बीच जमींदारों को रखा गया जो बिचौलिये के रूप में थे । इस प्रकार इस चिरस्थाई प्रबंध के द्वारा जमीन पर निहित स्वार्थ रखने वाले समूह का निर्माण हुआ और जमीन जातने वाले और जमीन के मालिक में असमानता और भेदभाव कायम हुआ । स्वतंत्रता के पश्चात जमींदारों को इसीलिए मुआवजा देकर हटा दिया गया । इसी को ध्यान में रखकर भूमि सुधार के प्रगतिशील कार्यक्रम राज्य सरकारों ने बनाए । जिसमें जमीन की हदबंदी, चकबंदी, जमीन जोतने वालों को फसल का आधा हिस्सा न्यूनतम मजदूरी, सूद से कुछ हद तक मुक्ति आदि कुछ कानून लागू भी हुए । लेकिन विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम से पुन: पूंजीपतियों को शहर के आसपास जमीन खरीदने का अधिकार दे दिया गया है । महाराष्ट्र सरकार ने अंबानी को समुद्र किनारे हजारोंएकड़ जमीन खरीदने की इजाजत दे दी है, जिसे उसने औने पौने दाम में खरीद लिया । जो जमीन २० से ४० लाख रू. प्रति एकड़ खरीदी जानी चाहिए थी उसे मात्र एक लाख प्रति एकड़ में खरीद लिया गया । इसी तरह हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में राज्य सरकारों की संठगांठ से किसानों की जमीन सस्ते दाम में खरीदने की मुहिम चली । इससे किसानों का असंतोष भड़का और कई आंदोलन हुए । तब पूंजीपतियों ने राज्य सरकारों की मदद से जमीन खरीदना प्रारंभ कर दिया । बहाना यह है कि इससे उद्योगों का विकास होगा । सरकार ने शहरी जमीन की हदबंदी का कानून तो खत्म ही कर दिया है । अब गांव की भूमि की हदबंदी पूंजीपतियों के लिए खत्म की जा रही है । इसी तरह हम कह सकते हैं कि नई आर्थिक नीति के नाम पर सामंतवादी व्यवस्था पुर्नस्थापित हो रही है, जो एक प्रतिक्रयावादी कदम हैं।२. सर्वहारा का अंत - सरकार की कृषि व्यवस्था के दुष्परिणाम स्पष्ट हो रहे हैं । कृषि प्रधान देश में आज लगभग डेढ़ लाख किसानों की आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ा है । कृषि अलाभकारी होती जा रही है और किसान कर्ज से दबा जा रहा है । प्रधानमंत्री ने कहा है कि सिर्फ १० प्रतिशत आबादी की खेती पर निर्भर रहना चाहिए। पता नहीं शेष ९० प्रतिशत नागरिकों को रोजगार क्या चांद या मंगलगृह पर मिलेगा? सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार नए उद्योगों से केवल १.५ लाख लोगों को रोजगार मिल पाया है । खेती में जिस प्रकार औद्योगिकरण का समावेश हो रहा है उससे खेतिहर मजदूर छोटे और सीमांत किसान तो समाप्त् ही हो जाएगें । अभी देश में इनकी संख्या लगभग ११ करोड़ है, जो खेती में बढ़ते औद्योगिकरण के कारण बेकार हो रहे हैं । उसी तरह छोटे और सीमांत किसान की जमीन बेचकर हट रहे हैं । ३. सार्वजनिक कोष से पूंजीपतियों का संरक्षण - विशेष आर्थिक क्षेत्र ऐसे क्षेत्र में निर्मित किया जाए जहां की जमीन खेती के उपयुक्त न हो तो एक बार सहन भी किया जा सकता है । परंतु सिंगुर में ऐसी जमीन ली गई है जहां सरकार ने सारी सुविधाएं जनता के खर्च पर दी हैं । रेल, सड़क, बिजली आदि के लिए पूंजीतियों को अपना खर्च नहीं करना पड़ा । सरकार पूंजीपतियों को तो मनमाने कर्ज की सुविधा देती है या ऐसी जगह उद्योग लगाने की सुविधा देती है जहां जनता के खर्च से दी जाने वाली बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हैं। सरकार ने बड़े पूंजीपतियों को ८५ हजार करोड़ रूपए कर्ज की माफी के रूप में दिये हैं जिसके वसूल होने की संभावना नहीं है । जबकि किसानों पर छोटे-मोटे कर्जो की वसूली के लिए दबाव बनाया जाता है ।४. पर्यावरण - पूंजीपति पर्यावरण की रक्षा पर ध्यान नहीं देते उन्हें तो सिर्फ मुनाफा चाहिए । यही कारण है कि चाहे कृषि हो या सेवा क्षेत्र, उनका ध्यान व्यक्तिगत मुनाफे पर रहता है । हरित क्रांति के नाम पर कृषि में रासायनिक खाद और कीटनाशक के कारण थोड़े समय तक जो उपज बढ़ी लेकिन उससे भूमि की उर्वराशक्ति घटी है । भूगर्भ के जल का अत्यधिक दोहन करने से जल संकट बढ़ा है । आज हमारा देश अन्न का पुन: आयात करने लगा हैं।५. संप्रभुता का लोप - सन् २००५ में जो सेज कानून बना है उसके अनुसार उस क्षेत्र में केन्द्र या राज्य सरकारों के बहुत से कानून स्थगित रहेंगे । वहां श्रमिकों की हड़ताल आदि के अधिकार सीमित कर दिए जाएंगे। वहां विदेशी कंपनियों को टैक्स भी नहीं लगेगा । जबकि वर्तमान में इन क्षेत्रों से एक लाख करोड़ की आमदनी होती है । बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जो छूद दी जाएगी उससे जहां सरकार को ७५ हजार करोड़ का घाटा होगा वहीं सरकार को मात्र ४७०० करोड़ की आय होगी । जब एक ईस्ट इंडिया कंपनी आयी थी तो देश आर्थिक गुलामी के साथ राजनीतिक गुलामी में डेढ़ सौ साल रहा । आज लगभग १७५० बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां चली आई हैं ।६. सांस्कृतिक आक्रमण - विशेष आर्थिक क्षेत्र ऊपर से तो व्यापार का मुखौटा रखते हैं लेकिन धीरे-धींरे हमारे राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं और उससे भी अधिक हमारी भाषा संस्कृति आदि को भी प्रभावित करते हैं। इसीलिए आज देश में मातृभाषा के स्थान पर विदेशी भाषा का वर्चस्व है । इतना ही नहीं हम विदेशी सभ्यता और संस्कृति में डूबते जा रहे हैं । इसीलिए सेज के द्वारा ने केवल आर्थिक गुलामी आएगी बल्कि स्वदेशी संस्कृति को भी खतरा हो गया है। सेज या विशेष आर्थिक क्षेत्र जो सबसे पहले चीन से शुरू हुआ था आज भारत में फैलने लगा है । लगभग ४०० ऐसे क्षेत्रों की पहचान कर ली गई है । हर्ष की बात यह है कि आज जनता ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है और सरकार और पंूजीपति वर्ग मिलकर संघर्ष का दमन कर रहे हैं । बंगाल में मार्क्सवादी सरकार ने भी सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों पर जो कहर ढाया है उससे साम्यवाद भी कलंकित हो गया है । हाल में इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों का विरोध करने के लिए माओवादी नक्सलवादीयों ने पांच प्रांतों में जो आर्थिक नाकेबंदी की है वह चाहे जितनी भी विध्वंसक हो उसने सरकार के बहरे कानों तक अपनी आवाज पहुंचा दी है । गांधी और सर्वोदय के लोग सेज और सरकार की आर्थिक नीति का विरोध कर रहे हैं । आवश्यकता है कि हम मिलजुलकर एक जनमोर्चा बनाएं । माओवादी अगर आर्थिक नीति और सेज का विरोध करते हैं तो उन्हें चीन की नीति का भी विरोध करना होगा और उसके माक्सर्वादी ढांचों का भी विरोध करना होगा । साथ ही संघर्ष का कोई एक नया विकल्प ढूंढना होगा जिसमें आतंक और हिंसा का कोई स्थान न हो । गांधी ने चंपारण, खेड़ा, बारडोली आदि अनेकों जगह में कृषकों को न्याय दिलाने के लिए प्रभावशाली आंदोलन किए थे और उसमें सफलता भी पाई थी । आज देश में लोकतंत्र है जहां जनता ही सौर्वभौम है । यदि हम जनता को लामबंद कर लें तो और नई आर्थिक नीति के परिवर्तन का ही मुद्दा देश के सामने रखें तो शायद हम परिवर्तन की दिशा में एक मौन क्रांति कर सकते है । अहिंसा हिंसा से अच्छी हैं । लेकिन जब हमें हिंसा और कायरता में चुनाव करना होगा तो हमें हिंसा को ही चुनना ही तर्क संगत होगा । गांधी का सत्याग्रह कायरता नहीं, बल्कि वीरता की पराकाष्ठा है । वह अन्याय के प्रतिकार का अहिंसक अणुबम है ।

३ हमारा भूमण्डल

ग्लोबल वार्मिंग : दूसरे के अपराध की सजा
प्रो. जोसेफ स्टिगलीज
दुनिया में एक बहुत बड़ा प्रयोग चल रहा है जिसमें यह पता लगाया जा रहा है कि जब आप वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों को अधिकाधिक उत्सर्जित करते जाते हैं, तो क्या परिणाम होता है । वैज्ञानिक समुदाय इसके परिणाम को अच्छी तरह से जानता है कि इससे परिणाम भयावह हैं । प्रदूषण से पैदा होने वाली गैसों धरती के आसपास एक आवरण (ग्रीनहाउस) का प्रभाव निर्माण करती हैं, जिससे पृथ्वी क्रमश: गर्म होती जाती है । हिमनद और ध्रुवीय बर्फ पिघलने लगती है, समुद्री धाराएं दिशा बदल लेती हैं और सागरों का जलस्तर ऊपर उठने लगता है । यह सब पूर्व अनुमानों से ज्यादा तेजी से हो रहा है और इसके दुष्परिणाम भी ज्यादा भयावह होंगे । अगर पृथ्वी जैसे हजारों गृह हमारी पहुंच में होते, तो किसी एक गृह पर यह प्रयोग किया जा सकता था, क्योंकि अगर स्थिति और ज्यादा खराब होती है, जिसकी आशंका वैज्ञानिक व्यक्त कर रहते हैं, तो हम किसी दूसरे गृह पर जा सकते थे । लेकिन हमारे पास वह विकल्प नहीं है । पृथ्वी जैसा कोई दूसरा गृह नहीं है । अतएव हर हाल में हमें इसी धरती पर रहना है । वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग (पृथ्वी के तापमान में वृद्बि) से अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण कोई दूसरा वैश्विक मुद्दा नहीं है । हम सभी को एक ही वायुमंडल में सांस लेनी है । गौरतलब है कि अकेला अमरीका ही हर साल ६ अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड हवा में छोड़ कर तापमान वृद्धि में मदद करता है, जिसका खामियाजा दुनिया के सभी लोगों को भुगतना पड़ रहा है । अगर यह संभव होता कि अमरीका द्वारा छोड़ी गई ग्रीन हाउस गैसें उसकी वायुसीमा में ही रहतीं तो भले ही वह हवा में जहरीली गैस छोड़ने का अपना यह विनाशकारी प्रयोग जारी रख सकता था, मगर बदकिस्मती से कार्बन हार्डऑक्साइड गैस राष्ट्रों की सीमाआे को नहीं पहचानती हैं । अमरीका चीन या किसी और देश द्वारा छोड़ी गई गैसें समूची दुनिया के वायुमंडल को प्रदूषित करती हैं । अमरीका या चीन या ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले किसी और देश को उसके द्वारा किये जाने प्रदूषण की कीमत अपने देश की सीमा के बाहर नहीं चुकानी पड़ती है, इसलिए पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिक कड़े उपाय करने की जरूरत है । हाल में प्रकाशित अपनी किताब मेकिंग ग्लोबलाइजेश वर्क, अमेरिका - में मैंने ध्यान दिलाया है कि अपना जीवन स्तर ऊँचा रखने के नाम पर अमरीका जैसे देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने को तैयार नहीं हैं । जबकि अन्य कुछ देश ऐसे भी हैं, मगर अमरीका जैसे देश उनसे कोई प्रेरणा नहीं ले रहे हैं । दूसरी ओर सन् १९९७ के क्योटो प्रोटोकॉल के अनुसार जापान, यूरोपीय और अन्य कुछ लोगों ने अपना स्वार्थ एक ओर रखकर भी सारी दुनिया की भलाई के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया हैं । भूमंडलीकरण की अन्य बुराईयों के साथ यह भी तय है कि गरीब व्यक्ति को ही इसके सर्वाधिक त्रासद दुष्प्रभावों को झेलना होगा और उनके पास ही इसका सामना करने के साधन भी नहीं है । बांग्लादेश और मालदीव दूसरे राष्ट्रों के प्रदूषण के कारण उपजे ऐसे ही संकट का सामना कर रहे हैं, जो उनके बस में नहीं है । बांग्लादेश का अधिकांश क्षेत्र नीचा पठार है जो धान उपजाने के लिये बहुत अच्छा माना जाता है । मगर साथ ही समुद्र की सतह में होने वाली थोड़ी सी वृद्धि इस उपजाऊ जमीन को निगल लेगी। अभी भी वह लगातार आने वाले तूफानों और चक्रवातों का सामना करते रहता है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से देश की एक तिहाई भूमि समुद्र निगल जायेगा और १४ करोड़ की आबादी वाले इस देश में शेष बची भूमि पर भीड़ और जनसंख्या का बोझ भी और ज्यादा बढ़ जाएगा। उपजाऊ जमीन के डूब जाने से इस गरीब देश की आमदनी भी घट जाएगी । बांग्लादेश से भी बुरे परिणाम अन्य कुछ देशों को भोगने पड़ेंगे । हिंद महासागर में १२०० द्वीपों पर फैलाऔर ३३०००० की आबादी वाला मालदीव एक समय में ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र का स्वर्ग माना जाता था । विश्वसनीय वैज्ञानिक अनुमानों के अनुसार यह सुंदर देश अगले पचास वर्षो में पूरी तरह जलमग्न हो जाएगा । इसी प्रकार के नीची भूमि वाले अनेक द्वीपों का अस्तित्व खतरे में है । जिस क्योटो समझौते के अनुसार दुनिया में होने वाले कुल प्रदूषण का ७५ प्रतिशत विकसित देशों द्वारा किया जा रहा है, उस पर न तो अमरीका ने हस्ताक्षर किए हैं और ना ही उसने जंगलों की कटाई रोकने के ठोस कदम उठाए हैं । ज्ञातव्य है कि जंगल ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव कम करने में सहायक होते हैं। कम लागत पर वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के लिए विशेष दक्षता की आवश्यकता होती है । जंगल विकसित करना उसका एक तरीका हो सकता है । मगर अधिकांशतया विकासशील देशों में मौजूद वर्षावनों को बचाना ज्यादा प्रभावी उपाय है । जंगलों की कटाई से वायुमंडल को दो प्रकार से हानि पहुंचती है कार्बन हाडऑक्साइड को ऑक्सीजन में बदलने वाले वृक्षों की संख्या घट जाती है और लकड़ी को जलाने या उसके सड़ने से उसमें विद्यमान कार्बन हवा में मिल जाती है। इस प्रकार उष्णकटिबंधीय वन वायुमंडल से कार्बन की उपस्थिति घटाने के साथ-साथ जैव विविधता को भी सुरक्षित रखते हैं । सन् १९९२ में संपन्न जैव विविधता सम्मेलन में निर्णय हुआ था कि इन वनों के रखरखाव के लिए उपाय किए जाएंगे, जिसमें एक उपाय विकासशील देशों को इसके लिए आर्थिक सहायता देना भी था। किंतु अमरीका ने इस समझौते को भी स्वीकार नहीं किया । कोस्टारिका और पापुआ न्यू गिनी के नेतृत्व में विकासशील देशों का एक नया समूह - वर्षावन राष्टों का गठबंधन के नाम से एक नए प्रस्ताव के साथ सामने आया है । वे ग्रीन हाउस गैसों की सीमा तय करने को तैयार हैं, मगर साथ ही वे इसमें वनों के संरक्षण के बदले में कार्बन क्षतिपूर्ति को बेचने का अधिकार पाना चाहते हैं । इससे वे केवल लकड़ी का व्यापार करने के बदले वनों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकेंगे । कोस्टारिका, नाईजीरिया, वियतनाम और भारत समेत कम से कम बारह विकासशील देश इस संगठन में शामिल हैं । जब तक विकासशील देशों को वनों के संरक्षण के बदले में वित्तीय सहयोग नहीं मिलता तब तक उनके पास वनों को बचाने हेतु प्रोत्साहन और संसाधनों का भी अभाव बना रहेगा । क्योंकि वर्तमान परिस्थितियों में उन्हें इन उत्पादों के वास्तविक मूल्य का मात्र ५ प्रतिशत ही प्राप्त् हो पाता है । साथ ही यह पहल इसलिए और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पहल स्वयं विकासशील देशों की ओर से हुई है जो उनकी रचनात्मकता और सामाजिक देयता को दर्शाता है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे जापान और अन्य औद्योगिक विकसित देशों (अमेरिका को छोड़कर) की तरह जिम्मेदारी पूर्वक इस विश्व को विनाश से बचाना चाहते हैं। कुछ लोग मुद्दे को सन् २०१२ तक विचाराधीन रखने का सुझाव दे रहे हैं, तथा यह आशा की जा रही है कि तब इस दिशा में संशोधित समझौता सामने आ जाएगा । पर क्या हम इतनी प्रतिक्षा कर सकते हैं ? वन विनाश की वर्तमान दर जारी रहते हुए भी केवलब्राजील और इण्डोनेशिया ने ही क्योटो समझौते के मापदण्डों के आधार पर प्रदूषण में ८० प्रतिशत की कमी की है । इसलिए इस समस्या का तत्काल समाधान करना जरूरी है, ताकि क्योटो समझौते की उपलब्धियों को बनाए रखा जा सके । यदि हम तत्काल कदम उठाएं तो इमारती लकड़ी वाले वन और जैव विविधता में अब तक हुए नुकसान की भी क्षतिपूर्ति करना संभव होगा। आज दुनिया के सामने दो सबसे बड़ी समस्याएं हैं - ग्लोबल वार्मिंग और वैश्विक गरीबी । वर्षावन राष्ट्रों का गठबंधन इन दोनों का समाधान करने में बड़ी भूमिका निभा सकता है । ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए इसका प्रस्ताव बाजार के मूलभूत सिद्धांत- प्रोत्साहन और वैश्विक समुदाय की क्षमता के विकास पर आधारित है । विश्व के समक्ष अपना और अपने बीच सर्वाधिक जरूरतमंदों का भला करने का यह एक दुर्लभ अवसर हैं ।

५ जन्मदिवस के अवसर पर विशेष

युगमनीषी डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा के प्रख्यात कवि डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन की कविता बीसवीं शताब्दी के साहित्य की सुदीर्घ परम्परा और सम- सामयिक इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। देश की युवा पीढ़ी सांसों का हिसाब के कवि के रूप में सुमनजी को जानती है । हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील विचारधारा के प्रमुख कवि होने के साथ ही सुमनजी के काव्य में मानवतावाद और सामान्यज की पीड़ा का मुखरता से वर्णन हुआ है । सुमनजी की कविता, उनका भाषण और उनके विलक्षण व्यक्तित्व का जादू केवल हिन्दी भाषी राज्यों तक ही सीमित न रहकर पूरे देश में और विदेशों में दशकों तक चलता रहा । मालवा की माटी से उन्हें विशेष लगाव था । लगभग पांच दशक तक मालवा की सांस्कृतिक नगरी उज्जैन में रहकर आपने सुमन और उज्जैन को एक दूसरे के पर्याय के रूप में प्रसिद्धि दिलायी थी । उ.प्र. के उन्नाव जिले के झगरपुर गांव में परिहारवंशीय ठाकुर घराने में नागपंचमी (५ अगस्त १९१५) को सुमनजी का जन्म हुआ था, आप अपना जन्म दिवस नागपंचमी तिथि को ही मनाते थे ।

राष्ट्र के लिये उत्सर्गशीलता और साहित्यिकता की परम्परा आपको विरासत में मिली थी । आपके प्रपितामह ठा. चंद्रिकाबख्शसिंहजी ने सन् १८५७ के प्रथम स्वत़ंत्रता संग्राम में अग्रेजों के विरूद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहूति दी थी। आपके बड़े भाई रामसिंहजी ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और बहन कीर्तिकुमारी की गिनती भी वरिष्ठ साहित्यकारों में होती थी। सुमनजी की प्रारंभिक शिक्षा उ.प्र. में हुई । बाद में रीवा, ग्वालियर और बनारस शहर आपकी शैक्षणिक यात्रा के मुख्य पड़ाव रहे । आपको हिन्दी के दिग्गज महापुरूषों आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दर दास और आचार्य केशव प्रसाद मिश्र जैसे शिक्षकों का मार्गदर्शन मिला थ। ग्वालियर, बनारस और उज्जैन ऐसे नगर हैं जहां सुमनजी को खूब लोकप्रियता मिली। उज्जैन में तो यह लोकप्रियता उस स्तर तक पहुंची जहां व्यक्ति जनप्रियता के शिखर पर पहुंच जाता है ।

ग्वालियर नगर में सुमनजी को सुमन उपनाम मिला । ग्वालियर के कवि रामकिशोर शर्मा किशोर ने सन् १९३४ में शिवमंगलसिंह नाम में शिव से सु, मंगल से म और सिंह के अनुस्वार से न लेकर सुमन उपनाम की रचना की थी । सुमनजी प्रारंभ में पत्रकारिता से जुड़े लेकिन उन्हें अध्यापन का अवसर मिला तो उसी में रम गए । उज्जैन और ग्वालियर में आपकी अध्यापकीय गौरव गाथा के स्तंभ देखे जा सकते हैं । ग्वालियर में अटलबिहारी वाजपेयी, रामकुमार चतुर्वेदी चंचल, वीरेन्द्र मिश्र तो उज्जैन में प्रकाशचंद्र सेठी, श्याम परमार , शरद जोशी और डॉ. चिंतामणि उपाध्याय को आपके विद्यार्थी होने का गौरव मिला । डॉ. सुमन जैसा वक्ता हिन्दी में दुर्लभ है । सुमनजी को शब्दों का जादूगर कहा जाता था , उनके भाषण में घंटों श्रोता बंधे रहते थे। आपके काव्यपाठ में भी भाषण का पुट रहता था, भाषण कब कविता पाठ हो जाता और कविता कब भाषण बन जाती थी पता ही नहीं चलता था । सुमनजी हिन्दी के उन सौभाग्यशाली कवियों में शामिल हैं, जिन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राष्ट्रनायक पंडित नेहरू को कविता सुनाने का अवसर मिला था । नेहरूजी से सुमनजी की डायरी मेंसंदेश लिखा था अपने जीवन को एक कविता बनाना चाहिये यह छोटा सा संदेश सुमनजी के जीवन का ध्येय वाक्य बन गया। जिन लोगों को कभी सुमनजी से मिलने का या उनका भाषण सुनने का अवसर मिला है, वे जानते हैं कि डॉ. सुमन से मिलना , चर्चा करना या भाषण सुनना हमेशा नये अनुभव के दौर से गुजरना होता था । सुमनजी का भाषण कभी समाप्त् नहीं होता, उसे तो बंद करना पड़ता था । उनके असीम ज्ञान के खजाने से शब्द दर शब्द भाषण का झरना बहता रहता और अभिभूत श्रोता समय को भूल कर सुनने में तल्लीन रहते । आपका भाषण डाक्यमेंट्री फिल्म की तरह चलता था, जिसमें सब कुछ सजीव और जीवंत लगता था । सुमनजी का कोई भाषण प्रसाद, पंत, निराला, तुलसी , सूर और टैगोर जैसे साहित्यकारों, गांधी-नेहरू और पटेल जैसे राष्ट्रनायकों के जीवन की घटनाआे, उनके सुभाषित या व्यक्तिगत घटनाआे के शब्द चित्रों के बिना पूरा नहीं होता था। सुमनजी का डायरी लेखन प्रसंग भी उल्लेखनीय है । कई बार जब कोई उनसे मिलता था तो पता चलता कि वे दस मिनिट पूर्व तक की डायरी लिख चुके हैं । डायरी लेखन में इतनी निष्ठा और गतिशीलता बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है । सुमनजी व्यक्तिगत डायरी के साथ ही एक दूसरी डायरी भी रखते थे , जिसमे किसी के द्वारा कही गयी कोई विश्ेष बात , कविता, संस्मरण या सुभाषित पसंद आने पर उसे तुरंत नोट कर लेते थे । सुमनजी सामान्य पूजा पाठ से भिन्न एक विशिष्ट पूजा नियमित करते थे । नियमित रूप से गीता - रामायण और अन्य कोई पुस्तक /पत्रिका रोज निश्चित समय पर पढ़ना ही उनकी पूजा थी । सुमनजी चाहे घर में होते, देश में या विदेश में प्रवास पर होते यह क्रम निरंतर चलता रहता था । इससे साहित्य , समाज और राजनीतिक गतिविधियों पर सुमनजी की सजग दृष्टि बनी रहती थी । युवा लेखकों की रचनाशीलता से सतत संपर्क के साथ ही सामाजिक सरोकारों के लिये सार्थक हस्तक्षेप सुमनजी के व्यक्तित्व की विशेषता थी । यह पूजा इसकी मुख्य आधारभूमि थी । साहित्य और समाज के सरोकार को लेकर डॉ. सुमन ने लिखा है जब सर्जक नि:स्व भाव से रूढ़िग्रस्त समाज के अनाचारों और विभिषिकाआे को चुनौती देने का साहस संजोने में समर्थ होता है, तब वह संवेदना की अखंड परंपरा को प्रवाहमान करने का अधिकारी बनता है । भारत जैसे धर्मप्राण देश में पहली कविता न कोई स्रोत है न मंगलाचरण वरन् बहेलिए के बाण से बिद्ध छटपटाते हुए पक्षी को देख किसी महान संवेदनशील सह्रदय का अत्याचार के विरूद्ध अप्रयास फूट पड़ने वाला आक्रोश है । निश्चय ही साहित्य का उत्स अवरोधों , विरोधों और बाधाआे के पहाड़ों के अंतस से ही प्रार्दुभूत हुआ है । युवा जगत में सुमनजी सर्वाधिक लोकिप्रय रहे । सुमनजी का आभामण्डल इतना विस्तृत रहा कि उसने देश और काल की सीमा के बंधनों को तोड़कर युवाआें की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया था । युवाआे के लिये सीख स्वयं सुमनजी के शब्दों में जीवन में कोई बड़ा स्वप्न संजोकर अवश्य रखना चाहिये । इसी स्वप्न के सहारे व्यक्ति समाज या राष्ट्र फिर उठ खड़ा हो सकता है, चल-दौड़ सकता है और लक्ष्य तक पहुंच सकता है । यह सीख्र हर युग में युवाआे के लिये प्रासंगिक बनी रहेगी । सुमनजी की दिनचर्या उनके उम्र के नवें दशक में भी बड़ी ही अनुशासित और गतिशीलता लिये हुए रहती थी । बड़े सवेरे जग कर घूमने जाना उनका दैनिक क्रम था । देश के कोने - कोने से लोग उनसे मिलने आते थे, सभी से सुमनजी आत्मीयता से प्रसन्नतापूर्वक मिलते थे और यथा संभव हरेक की सहायता करते थे और कोई कभी भी उनसे मिलकर निराश नहीं लौटता था। लोगों से बातचीत करने में , उनके सुख-दुख में सहभागी बनने में सुमनजी को ऊर्जा मिलती थी, इससे वे अपने आपको तरोताजा महसूस करते थे ।

आज से साढ़े तीन दशक पूर्व नवीं कक्षा में पढ़ते हुए (१३-१४ बरस की उम्र में) मुझे सुमनजी के प्रथम दर्शन का अवसर मिला था । उनके स्नेह स्पर्श और आत्मीयतापूर्ण आशीर्वाद की मुझ जैसे अनेकों तरूणों के जीवन में नया उत्साह भरने में महत्वपूर्ण भमिका थी । सुमनजी के निर्देशन में शोध कार्य करने में मुझे जो विशिष्ट अनुभव और गौरव मिला उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है । आज महाकाल की नगरी का सबसे खूबसूरत सुमन बगीचे से गायब हो गया है लेकिन इसकी खुश्बू अनेक शताब्दियों तक भारत के दिग-दिगन्त में व्याप्त् रहेगी ।

६ गैस त्रासदी

भोपाल के बाद अब गुजरात की बारी
नरेन्द्र छिब्बर/महेश एल
भोपाल गैस त्रासदी को २३ वर्ष हो गए हैं । वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में व्यापकता से फैल कर प्रति वर्ष और अधिक क्षेत्र को जहरीला बना रहा है । भारत शासन चाहे तो कंपनी को इस बात के लिए मजबूर कर सकता है कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे । परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के निवासियों का जीवन संकट में डाल रही हैं । मध्यप्रदेश सरकार के उस विवादास्पद कदम को जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा है जिसके अंतर्गत उसने भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड फेक्ट्री में पड़े जहरीले अपशिष्ट को जलाने का निश्चय किया है । नागरिकों समूहों ने इस अपशिष्ट को गुजरात भेजने की घोर निंदा की है । उनका कहना है कि अंकलेश्वर (गुजरात) स्थित भस्मक बहुत ही बुरी स्थिति में है और स्वास्थ्य संबंधी खतरों के लिए महज एक स्थान से दूसरे स्थान पर हस्तांतरण का क्या अर्थ है ? और इससे जहरीले रासायनिक अपशिष्ट के निपटान में कोई मदद भी नहीं मिलेगी । समूहों का कहना है कि इस कदम से डो-केमिकल्स को उसकी जिम्मेदारियों से भी मुक्ति मिल जाएगी । उपरोक्त समूह मध्प्रदेश सरकार की इस योजना के खिलाफ मध्यप्रदेश उच्च् न्यायालय में गए थे परन्तु न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया । यह कदम न्यायालय के निर्देश से ही उठाया जा रहा है । न्यायालय ने राज्य व केन्द्र सरकार को आदेश दिया है कि वे इस अपशिष्ट के निपटान में आ रहे २ करोड़ रूपए के व्यय को साझा रूप से उठाएं । गोदाम में रखे ५ हजार मीट्रिक टन अपशिष्ट में से मात्र ३४५ मीट्रिक टन गुजरात में अंकलेश्वर स्थित भरूच इनवायरोन इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (बी.ई.आई.एल.) में पहँुचेगा । अन्य ४० मी. टन अपशिष्ट इंदौर (म.प्र.) के निकट स्थित पीथमपुर में जमीन के भीतर दबा दिया जाएगा । ये कुल अपशिष्ट का क्रमश: ६.९ व ०.८ प्रतिशत भर है । भोपाल गैस त्रासदी कल्याण एवं पुनर्वास विभाग उच्च् न्यायालय से पूरे अपशिष्ट के निपटान की समयावधि व प्रक्रिया पर दिशा निर्देश की प्रतिक्षा में है। इसके सचिव अजीत केसरी कहते हैं, 'इसकी प्रत्याशा में हमने संपूर्ण जहरीले रासायनिक अपशिष्ट के परिवहन की सभी तैयारियां पूर्ण करने की कार्यवाही प्रारंभ कर दी है ।' मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जो कि उच्च् न्यायालय द्वारा गठित उस टास्क फोर्स का हिस्सा है जो कि इस सफाई की तकनीकी सहमति देगा, ने कहा है कि वह अपशिष्ट के निपटान की निगरानी नहीं करेगा । वहीं गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भरोसा दिलाते हुए कहा है कि यह संयंत्र इस तरह के अपशिष्ट के निपटान हेतु पूर्णतया सज्जित है । भरूच के आंचलिक अधिकारी का कहना है कि 'बी.ई.आई.एल. की क्षमताआें का आकलन करने के बाद ही हमने यह अनुमति दी है ।' इतना ही नहीं बोर्ड के चेयरमेन एस.पी. गौतम का कहना है कि 'गैर सरकारी संगठन चाहे जो कहते रहें परन्तु यह भस्मक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है और देश के सर्वश्रेष्ठ भस्मकों में से एक है ।' गौतम के अनुसार एक बार मध्यप्रदेश का विभाग टेण्डर की कार्यवाही पूरी कर लें तो हम अपशिष्ट के परिवहन की अनुमति दे देंगे और इस जहरीले अपशिष्ट के निपटान की प्रक्रिया की निगरानी भी रखेंगे । बी.ई.आई.एल. के प्रतिनिधि ने अहमदाबाद में कहा कि कंपनी के पास विश्वस्तरीय निपटान संयंत्र है । इतना हीं नहीं उसके पास किसी भी तरह के ठोस जहरीले रासायनिक अपशिष्ट के परिवहन, भंडारण और निपटान की भरपूर सुविधाएं उपलब्ध है । गुजरात के पूर्व नर्मदा विकास मंत्री जयनारायण व्यास ने बी.ई.आई.एल. का बचाव करते हुए कहा कि 'भोपाल के जहरीले अपशिष्ट का अंकलेश्वर में बिना स्थानीय पर्यावरण को नुकसान पहुचाए सुरक्षित निपटान कर दिया जाएगा ।' उनका कहना है कि हम ठोस अपशिष्ट भोपाल में दो दशकों से अधिक समय से पड़ा है जो कि अब तक तो कम जहरीला हो गया होगा । अतएव इसका अंकलेश्व में सुरक्षित प्रबंधन हो सकता है । परन्तु समूह इन दावों पर भरोसा नहीं कर रहे हैं । भोपाल गैस त्रासदी से प्रभावित नागरिक व कार्यकर्ता भस्मक की प्रदूषण नियंत्रण क्षमता पर ही प्रश्नचिह्न् लगा रहे हैं । उनका कहना है कि इस जहरीले अपशिष्ट से उसी प्रकार से इलाका प्रदूषित होगा जैसा कि यूनियन कार्बाइड से भोपाल में हुआ था । इस प्रकार हम एक अन्य त्रासदी को जन्म दे रहे हैं । साथ ही उनका यह भी कहना है कि यह 'प्रदूषणकर्ता भुगतान करे' के सिद्धांत के खिलाफ है । भोपाल के एक गैर सरकारी संगठन 'इंफारमेशन एण्ड एक्शन' ने इसके खिलाफ उच्च् न्यायालय में मुकदमा भी दायर किया है । उन्होंने न्यायालय में बी.ई.आई.एल. और बैबीशीन, जर्मनी स्थित ट्रीटमेन्ट स्टोरेज डिस्पोजल फेसिलिटी का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है । ईकार्ट शुल्ट्स द्वारा तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि अंकलेश्वर में उपलब्ध न्यून सुविधाआें के कारण तापमान में उतार-चढ़ाव हो सकता है । जिसके परिणामस्वरूप पारा वातावरण में फैल सकता है । साथ ही उनका कहना है कि चूंकि भस्मक में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है अतएव बाद में मलबे की धूल को भूमि के नीचे भरने से इलाके के खनिज, नमक व अन्य प्राकृतिक पदार्थ प्रदूषित हो सकते हैं । इससे इलाके में रहने वाले एक लाख लोगों के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर दीर्घकालिक विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। रिपोर्ट का कहना है कि अपशिष्ट को मानवीय श्रम द्वारा खाली कर प्लास्टिक के थैलों में पुन: भरा जाएगा इससे यहां के अनुभवहीन श्रमिकों के स्वास्थ्य को भी गंभीर खतरा पैदा हो सकता है । वहीं पीथमपुर (मध्यप्रदेश) में भी जमीन के नीचे इसका भरा जाना खतरनाक है क्योंकि यह स्थान पहाड़ी पर स्थित है जहां पर कि वर्षा का पानी जा सकता है। साथ ही उनका कहना है कि यहां स्थित जोंको पर भी निगरानी रखने की पूरी सुविधा नहीं है । गुजरात में अंकलेश्वर बचाओ समिति ने स्थानीय नागरिकों की विरोध रैलियां आयोजित कर अधिकारियों को चेतावनी देते हुए कहा है कि अगर जहरीले अपशिष्ट को निपटान हेतु यहां लाया गया तो हम आंदोलन करेंगे । स्थानीय नागरिकों का यह भी कहना है कि अभी तक अधिकारियों ने उनसे यह नहीं कहा है कि वे अपशिष्ट यहां पर ला रहे हैं । पर्यावरणवद् रोहित प्रजापति का कहना है कि केन्द्रीय पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दिसम्बर २००६ में गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से कहा था कि वह अंकलेश्वर संयंत्र स्थित सुविधाआें का आकलन कर बताए कि वह प्रदूषणकारी तत्वों से किस प्रकार निपटेगा । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना था कि भरूच में पूर्व से ही प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा है । वहीं गैर सरकारी संगठनों का कहना है कि उनके पास इसके विकल्प मौजूद हैं । वे इस हेतु एक कार्य योजना लेकर प्रस्तुत हुए हैं । उनका कहना है कि इस जहरीले अपशिष्ट को गुजरात या पीथमपुर ले जाने के बजाए सरकार इस बात पर ध्यान लगाए कि इस मानसून में यह जहरीला अपशिष्ट जमीन में और गहरे में न उतरे । उन्होंने डो-केमिकल्स से मांग की है कि वह इस जहरीले अपशिष्ट को वापस अमेरिका ले जाए, जैसा कि यूनीलिवर ने कोडाईकनाल में किया था । यह अपशिष्ट सुरक्षित तौर पर अमेरिया ले जाया जा सकता है जहां पर अत्याधुनिक तकनीक उपलब्ध है । अभी तक तो कंपनी ने इस बात का आकलन भी किसी संस्था से नहीं करवाया है कि आखिरकार भोपाल स्थित कारखाने में कुल कितना जहरीला अपशिष्ट पड़ा हुआ है । वहीं विशेषज्ञों का कहना है कि, 'सरकारी संगठनों ने विलंब से विभ्रम की स्थिति पैदा कर दी है । अभी तक इस बात का तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया है कि यूनियन कार्बाईड के अपशिष्ट में अन्य जोखिम भरे अपशिष्ट कितनी मात्रा में समाहित हैं ।'

८ हमारा देश

दिल्ली : यमुना तट पर उभरते पर्यावरणीय नासूर
मनोज कुमार मिश्र
दिल्ली की जान ! यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही 'यमुना एक्शन प्लान' जैसी कई योजनाआे द्वारा सफाई अभियान चल रहा है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं । उच्च् न्यायालय और सर्वोच्च् न्यायालय एक दशक से भी ज्यादा समय से राज्यों को उनकी लापरवाही पर चेतावनी दे रहे हैं । यहां तक कि माननीय उच्च् न्यायालय, दिल्ली ने तो नदी के ३०० मीटर के दायरे से प्रदूषण फैलाने वाले कारकों और कब्जों को हटाने के लिए 'ऊषा मेहरा समिति' नियुक्त कर दी, नतीजा एक साल के अन्दर ही २००६ में नदी तट पर बनी झुग्गियों को जोर-जबरदस्ती से हटा दिया गया । राष्ट्रीय संसद ने भी इस कार्यवाही पर अफसोस जाहिर करते हुए राज्य प्रशासन को तुरन्त आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिये । लेकिन शायद किसी को भी बेघर-उजड़े लोगों की परवाह ही नहीं थी । किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए 'इको सिस्टम' की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता । हालांकि नदी से मैला साफ करने के लिए महंगी-महंगी तकनीकें मौजूद हैं लेकिन अगर वजीराबाद बैराज से ओखला बैराज तक २२ किलोमीटर के दायरे में फैली यमुना के 'रिवर बैड' या 'नदियों का तट' पर किसी भी तरह का कोई ढांचा खड़ा किया गया तो आने वाले खतरों से बचने का कोई रास्ता नहीं होगा। १९६२ और २००१ के मास्टर प्लान में 'जोन-ओ' नाम से अंकित क्षेत्र को पर्यावरणीय कारणों और रिवर बैड पर ग्राउण्ड वाटर को सालाना रिचार्ज करने की क्षमता के कारण ही अलंघनीय घोषित किया गया था । दिल्ली में पानी की बढ़ती हुई जरूरत का अधिकतम् हिस्सा 'ग्राउण्ड वाटर' ही पूरा करता रहा है और आज भी कर रहा है । नदियों का लंबा-चौड़ा तट न केवल ग्राउण्ड वाटर रिचार्ज के लिए जरूरी है, बल्कि विध्वंसक बाढ़ के खतरों से बचाने के लिए भी जरूरी है । दिल्ली १९७७, १९७८, १९८८ और १९९५ में बाढ़ की विनाश लीला देखी जा चुकी है । इसके अलावा, जरूरी तथ्य यह है कि भूकम्पीय खतरों से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों के ('जोन-४' यहां भूकम्प का सबसे ज्यादा खतरा है) राष्ट्रीय नक्शे में दिल्ली को भी अंकित किया गया है। क्योंकि यमुना का तट भी जोन-४ का हिस्सा है, इस दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र है और इसी वजह से, विशेषज्ञों का भी मनाना है कि इस क्षेत्र में कुछ भी निर्माण कार्य करना संकट को दावत देना है । यदि इस संबंध में पहले से कोई सावधानी न रखी गई तो विशेषज्ञों की राय मे निकट भविष्य में जल्दी ही भूकम्प के कारण भीषण विनाश होगा, क्योंकि भूकम्प नहीं मारते बल्कि इमारतें मारती हैं, संवेदनशील क्षेत्र में बनी इमारतें नरसंहार करती हैं । इसलिए नदियों के तट पर कुछ भी बनाना, मौत को दावत देना है । दिल्ली में यमुना तट को पहले ही ३० स्थानों से लगभग खत्म कर दिया गया है । अनधिकृत रिहायशी कॉलोनियां, पॉवरप्लांट, १९८२ में एशियाड के लिए बनाया गया स्पोर्टिंग कॉम्प्लेक्स, दिल्ली सचिवालय (जो मूल रूप में १९८२ में खिलाड़ियों का छात्रावास था) जैसे प्रशासकीय इमारतें और दिल्ली स्टॉक एस्जचेंज पर्यावरणीय नासूर इन स्थानों पर उभर आए हैं । इनमें से कई तो राज्य द्वारा बनवाए गए हैं जो नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है और पूर्वी तट, शास्त्री पार्क, मेट्रो डिपो और यमुना मैट्रो डिपो के लिए कब्जा जमाया जा रहा है । इतना ही नहंी इस क्षैत्र को व्यापारिक रूप से प्रयोग करने के लिए डीएनडी फ्लाईवे का इस्तेमाल किया जा रहा है । प्रमाण के तौर पर यहां आयोजित किया जा चुका टाईम्स ग्लोबल विलेज में तटों का व्यावसायीकरण साफ दिखाई देता है । पूर्व के अनेक प्रशासनिक और गैर- प्रशासनिक विरोंधों के बावजूद भी राजनीतिक संरक्षण में , यमुना तट के १०० एकड़ के दायरे में राष्ट्रीय सम्मान की आड़ लेकर डीडीए (दिल्ली डिवलपमेंट ऑथोरिटी) द्वारा यमुना तट पर कब्जा किया जा रहा है, वह भी मात्र १० दिन के लिए । अक्टूबर २०१० में होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय कॉमनवेल्थ खेलों के लिए । दिल्ली के लोगों को यह कह कर बहकाया जा रहा है कि २०१० के कॉनवेल्थ खेल एक राष्ट्रीय गौरव की घटना है। जबकि सच्चई तो बिल्कुल उलट है - इसमें सरकार के खेल मंत्रालय का कोई योगदान नही है । कॉमनवेल्थ खेलों का प्रबन्धन और प्रशासन गैर- सरकारी निकाय द्वारा किया जाता है, इसके लिए लंदन स्थित कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन और दिल्ली स्थित इण्डियन ओलम्पिक एसोसिएशन है । भारत सरकार को नहीं बल्कि आईओए को सीजी (कॉमनवेल्थ गेम्स) २०१० के आयोजन की जिम्मेदारी मिली है जबकि भारत सरकार ने डीडीए के माध्यम से और दिल्ली सरकार ने, आईओए को रदरकिनार करते हुए, खुद ही खेलों के प्रबंधन का जिम्मा ओढ़ लिया है । नदियों के तट के विकास के नाम पर तो कभी देश की इज्जत का सवाल बनाकर अन्तराष्ट्रीय खेलों के लिए अपने तुच्छ स्वार्थोंा की पूर्ति के लिए पूरे शहर को खतरे की बाढ़ में झोंका जा रहा है । खेल गांव के लिए नदी तट पर स्थाई रूप से रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें बनाए जाने की योजनाएं चल रही है, इन इमारतों के लिए यमुना की १०० एकड़ जमीन कब्जाई जाएगी । शायद ही आम आदमी इस बात को जानता है कि ये कॉलोनियां प्राइवेट बिल्डर्स द्वारा बनाई जाएंगी और १० दिन के खेलों का समापन होते ही, उसे बेच दी जाएंगी । बिल्डर-डेवलपर्स की यमुना तट को कब्जाने की नीयत का इस तथ्य से खुलासा होता है कि खेल गांव बनाने की योजना बनाते समय डीडीए ने इस बात पर विचार तक नहीं किया कि क्या यदि कसी अन्य स्थान पर बनाया जा सकता है ` समय का अभाव और देश की इज्जत के नाम पर डीडीए ने पर्यावरण और वन मंत्रालय पर दबाव डालकर आवश्यक पर्यावरणीय स्वीकृति भी प्राप्त् कर ली, जबकि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने केवल अस्थायी निर्माण के लिए ही स्वीकृति दी थी । तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए, सुरक्षित जीवन के अधिकार, यहां तक कि पीने के पानी को छीना जाता हुए देखकर, देश का आम आदमी कब तक चुप रह सकता है ? बिल्डर-डेवलपर्स के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि केन्द्रीय खेल मंत्री अकेले ही इस सारे षड़यंत्र का विरोध कर रहे हैं क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय खेलों के लिये यमुना तट पर होने वाले निर्माण की कीमत, देश की जनता को चुकानी होगी ।

९ पर्यावरण परिक्रमा

रामसेतु मानव निर्मित नहीं
नासा ने कहा है कि रामेश्वरम् के पास मिट्टी के टापुआे से बना प्राचीन एडम्स ब्रिज मानव निर्मित नहीं है । वरन् प्राकृतिक रूप से बना हुआ है । इसके पास ही सेतुसमुद्रम् शिपिंग चैनल प्रोजेक्ट (एसएससीपी) का काम चल रहा है । यह जानकारी सेतुसमुद्रम् कॉर्पोरेशन लि. के सीएमडी तथा तूतिकोरन पोर्ट ट्रस्ट के अध्यक्ष एनके रघुपति ने दी। श्री रघुपति ने बताया कि परियोजना के एक अधिकारी ने २६ जुलाई को ई-मेल भेजकर नासा से कहा था वह उपग्रह सूचनाआे के आधार पर बताए कि एडम्स ब्रिज मानव निर्मित है या नहीं । इसके जवाब में नासा ने बताया कि भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाले छोटे - छोटे टापुआे से बना एडम्स ब्रिज विभिन्न प्राकृतिक क्रियाआे का परिणाम है, इन्हें किसी मानवीय गतिविधि द्वारा बनाए जाने के कोई सबूत नहीं मिले हैं । नासा का यह निष्कर्ष इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अनेक हिंदू संगठन तथा कुछ राजनीतिक दल रामार ब्रिज (रामसेतु या एडम्स ब्रिज) को ध्वस्त करने का यह करते हुए विरोध कर रहे हैं कि इसे भगवान राम के लिए हनुमानजी तथा उनकी वानरसेना ने बनाया था । इनका दावा है कि नासा ने तस्वीरों जारी करते समय बताया था कि यह पुल मानव निर्मित है । श्री रघुपति ने कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा मुद्दा उठाए जाने पर भी नासा ने स्पष्ट किया था कि एडम्स ब्रिज की तस्वीरें नासा की थीं , उनकी उनकी व्याख्या नासा ने नहीं की थी । नासा ने कहा था कि उपग्रह से ली गई तस्वीरें यह नहीं बता सकती हैं कि पुल मानव ने बनाया था या नहीं ।
नेपाल में गिद्धों के लिए अनूठा रेस्तरां
विकसित देशों में पालतू कुत्तों व दूसरे जीवों के लिए होटल और भोजनालय उपलब्ध हैं, लेकिन दुनिया के सबसे गरीब देशों मे से एक नेपाल ने विलुप्त्प्राय गिद्धों के लिए एक अनूठा भोजनालय स्थापित किया है । इस तरह के भोजनालय कई और इलाकों में स्थापित किए जाएगें । कभी ये गिद्ध नेपाल के विभिन्न इलाकों में झ्ुड में नजर आते थे , लेकिन रहस्मय तरीके से ये जीव गायब होते जा रहे हैं । भारत, नेपाल, पाकिस्तान जैसे देशों में ९० फीसदी से अधिक गिद्ध मौत के शिकार बन चुके हैं । माना जाता है कि पश्ुआे और खासकर गायों के इलाज में डिक्लौफैनक नामक दवा के इस्तेमाल के कारण गिद्धों की आबादी खतरे में पडी । पशुआे के मरने के बावजूद उनके कंकाल में इस दवा की मात्रा बरकरार रहती है । जैसे ही गिद्ध इन मृत पशुआे का मांस खाते हैं, इस दवा के कारण गिद्धों का गुर्दा खराब हो जाता है । इन एशियाई देशों में तीन प्रजातियों के गिद्धों में से ९० फीसदी से अधिक के खात्मे के पीछे इस दवा की खास भूमिका रही है । यूं तो नेपाल समेत कई देशों की सरकारों ने इस दवा के इस्तेमाल पर रोक लगा दी , लेकिन अभी भी नेपाल में पशुआे के इलाज के लिए इस दवा का इस्तेमाल किया जाता है । इससे चिंतित होकर नेपाल के एक संगठन बर्ड कंजरवेशन नेपाल (बीसीएन) ने अनूठी पहल की है । इस संगठन ने गिद्धों के लिए रसायन मुक्त भोजनालयों की व्यवस्था की है । गिद्धें के लिए पहला ऐसा भोजनालय पश्चिमी नेपाल के नवलपरासी जिले के कावासोती गांव में स्थापित किया गया है। बीसीएन ने वहां एक भूखंड खरीदा है जहां मरणासन्न पशुआे को रखा जाता है। यह कंपनी किसानों से बूढ़े और बीमार पशुआे की ख्ररीददाराी करता है और फिर इनका डिक्लोफैनक के बजाए किसी और वैकल्पिक दवा से इलाज किया जाता है। जब पशु की मौत हो जाती है तो उसके पार्थिव अवशेष को खुले मैदान में छोड़ दिया जाता है । डिक्लोफैनक से मुक्त यह मांस गिद्धों के लिए लाभदायक होता है । डिक्लौफैनक के बजाए मरणासन्न पशुआे को मैलोक्सीकम दवा दी जाती है जो गिद्धों के लिए खतरनाक नहीं है । इस तरह के कई और रेस्तरां गिद्धों के लिए बनेंगें । पंचनगर गांव में भी गिद्धों के लिए एक ऐसा ही भोजनालय बना है ।
एडीबी गंगा की गंदगी दूर करेगा
एशियन डेवलपमेट बैक ने गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है । एडीबी ने नंदप्रयाग, गौचर, कर्णप्रयाग, मुनि की रेती, देवप्रयाग, कीर्तिनगर व ऋषिकेश में सीधे प्रवाहित हो रहे मल मूत्र को रोकने के लिए ४८ करोड़ रूपये स्वीकृत किए हैं । इस धनराशि से इन शहरों का सीवरेज सिस्टम दुरूस्त किया जायेगा । एडीबी की दस वर्षीय योजना के चतुर्थ चरण में गंगा के प्रदूषण को रोकने की दिशा में कारगर कदम उठाये जाएेंगें । एडीबी की इस पहल को गंगा प्रदूषण रोकने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम मना जा रहा है । एशियन डेवलपेमेंट बैंक ने उत्तराखंड की विभिन्न विकास परियोजनाआे के लिए १३५६ करोड़ (३.०१मिलियन डॉलर) रूपये की धनराशि को भी हरी झंडी दी है। इस धनराशि से राज्य के ३१ छोटे बड़े नगरों की विभिन्न नागरिक समस्याएं हल की जएएगी । एडीबी से मिली धनराशि से प्रदेश के नगरों की पानी, ससवीरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा । एडीबी उत्तराखंड के शहरों के विकास में खर्च होने वाली इस धनराशि को १० वर्ष के अंदर चार चरणें में प्रदान करेगा एडीबी की ओर से जारी सूची के अनुसार राज्य के १३ नगरों की जलापूर्ति, १० की सीवेज सिस्टम, २९ शहरों में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लान, १० कस्बों में सड़क व ट्रेफिक मैनेजमेंट व ७ शहरों में जारी गंगा के प्रदूषण को रोका जाएगा। देहरादून की महापौर श्रीमती मनोरमा ने एडीबी के अधिकारियों का आभार प्रकट करते हुए कहा कि इस योजना से उत्तराखंड का कायाकल्प हो जायेगा । ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ मैयर्स की चेयरपर्सन श्रीमती मनोरमा ने बताया कि हाल ही में फिलीपींस यात्रा के दौरान उत्तराखंड की समस्याआे के संदर्भ में एडीबी के अधिकारियों से विस्तृत वार्ता हुई थी वार्ता के बाद बैंक ने उदार रवैया अपनाते हुए विभिन्न नागरिक समस्याआे को दूर करने का बीड़ा उठाया है ।बढ़ते मरूस्थल से ५ करोड़ प्रभावित होंगें संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं । संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के मुताबिक अगले १० सालों में करीब पाँच करोड़ लोग विस्थापित हो सकते हैं,खासकर सब सहारा और मध्य एशिया में । यह रिपोर्ट २५ देशों के करीब २००० विशेष्ज्ञाो ने मिलकर तैयार की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है । रिपोर्ट के अनुसार भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से बात और बिगड़ रही है । जलवायु परिवर्तन को भी मिट्टी के बदलते स्वरूप का एक मुख्य कारण बताया गया है । संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है । इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं ।
उ.प्र. में खेत बंजर होने का खतरा
उ.प्र.कृषि विभाग की ओर से पिछले दिनों राज्य के सभी नौ कृषि जलवायु क्षैत्र (एग्रो क्लाइमेट जोन) में कराए गए एक सर्वेक्षण के बाद जो चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है , उसके आधार पर विभाग किसानों को सचेत कर रहा है। रिपोर्ट के अनुसार राज्य के बहुत से क्षैत्रों में रसायनों का इतना अधिक इस्तेमाल हो चुका है कि खेत लगभग बंजर होने की स्थिति मे पहुंच चुके हैं । रिपोर्ट के अनुसार पौधे के वानस्पतिक विकास के लिए जिम्मेदार पोष्क तत्व नाइट्रोजन प्रदेश में सभी कृषि जलवायु क्षैत्र में न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुका है, जबकि जड़ के विकास के लिए महत्वपूर्ण पोषक तत्व फास्फोरस तो कई क्षैत्रों में अति न्यूनतम स्तर पर है । अन्य पोषक तत्वों में जिंक व सल्फर पश्चिमी मैदानी क्षैत्र में तेजी से कम हो रहा है, जबकि बुंदेलखंड को छोड़कर सभी कृषि जलवायु क्षैत्र में आयरन की काफी कमी है । पश्चिमी मैदानी क्षैत्र तथा मध्य- पश्चिमी मैदानी क्षैत्र को छोड़कर अन्य क्षैत्रों में मैंगनीज की भारी कमी है । रिपोर्ट में इस बात पर विशेष टिप्पणी की गई है कि कई क्षैत्रों में सूक्ष्म पोषक तत्व की स्थिति लगातार दयनीय हो रही है, अगर जल्द ही इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में इन जमीनों पर उत्पादन की आशा निरर्थक होगी । यह सब खेती के तेजी से मशीनीकरण के चलते हुए हुआ है । यदि शीघ्र भूमि की जल धारण क्षमता को बढ़ाने के उपाय नहीं किए गए तो पूरे प्रदेश में खेती की स्थिति भयावह हो सकती है ।

१० कविता

मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला
डॉ. शिवमंगल सिंह
सुमनघर-आंगन सब में आग लग रही ।
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन ।
तन जलता है , मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन ।
दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला,
मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला।
भाई की गर्दन पर
भाई का तन गया दुधारा
सब झगड़े की जड़ है
पुरखों के घर का बँटवारा
एक अकड़कर कहता
अपने मन का हक ले लेंगें,
और दूसरा कहता तिल
भर भूमि न बँटने देंगें ।
पंच बना बैठा है घर में,
फूट डालनेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी,
किंतु एक दिन को भी
हमको अखरी नहीं गुलामी ।
दानों को मोहताज हो गए
दर-दर बने भिखारी,
भूख, अकाल, महामारी से
दोनों की लाचारी ।
आज धार्मिक बना,
धर्म का नाम मिटानेवाला
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

होकर बड़े लड़ेंगें यों
यदि कहीं जान मैं लेती,
कुल-कलंक-संतान
सौर में गला घोंट मैं देती ।
लोग निपूती कहते पर
यह दिन न देखना पड़ता,
मैं न बंधनों में सड़ती
छाती में शूल न गढ़ता ।
बैठी यही बिसूर रही माँ,
नीचों ने घर घाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

भगतसिंह, अशफाक,
लालमोहन, गणेश बलिदानी,
सोच रहें होंगें, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की
देकर खाद खून से सींचा ,
अंकुर लेते समय उसी पर
किसने जहर उलीचा ।
हरी भरी खेती पर ओले गिरे,
पड़ गया पाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

जब भूखा बंगाल,
तड़पमर गया ठोककर किस्मत,
बीच हाट में बिकी
तुम्हारी माँ - बहनों की अस्मत।
जब कुत्तों की मौत मर गए
बिलख-बिलख नर-नारी ,
कहाँ कई थी भाग उस समय
मरदानगी तुम्हारी ।
तब अन्यायी का गढ़ तुमने
क्यों न चूर कर डाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
पुरखों का अभिमान तुम्हारा
और वीरता देखी,
राम - मुहम्मद की संतानों !
व्यर्थ न मारो शेखी ।
सर्वनाश की लपटों में
सुख-शांति झोंकनेवालों !
भोले बच्चें, अबलाआे के
छुरा भोंकनेवालों !
ऐसी बर्बरता का
इतिहासों में नहीं हवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

घर-घर माँ की कलख
पिता की आह, बहन का कंरदन,
हाय , दूधमुँहे बच्च्े भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन ?
इस दिन की खातिर ही थी
शमशीर तुम्हारी प्यासी ?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
रहे न भारतवासी।
हँसते हैं सब देख गुलामों का यह ढंग निराला ।
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।
जाति-धर्म गृह-हीन
युगों का नंगा-भूखा-प्यासा,
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा ।
ये छल छंद शोषकों के हैं
कुत्सित, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फंदे ।
तेरा एका गुमराहों को
राह दिखानेवाला ,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।

रविवार, 19 अगस्त 2007

११ ज्ञान विज्ञान

इन्सान दो पाए कैसे हुए ?

यह सवाल मानव शास्त्रियों के लिए एक पहेली रहा है कि इन्सान दो पैरों पर कैसे चलने लगे । सवाल यह भी है कि पहले इन्सान पेड़ों पर से उतरे और उसके बाद दो पैरों पर चलने की स्थिति आई या इससे उल्टा हुआ । अब कुछ शोधकर्ताआे ने ऐसे सबूत जुटाने का दावा किया है जिनसे पता चलता है कि पेड़ों पर रहते -रहते ही दोपायापन प्रकट होने लगा होगा। लिवरपूल विश्वविद्यालय के रॉबिन क्रॉम्प्टन और उनके साथियों ने विस्तृत अवलोकन के बाद बताया है कि ओरांगुटान पेड़ों की पतली टहनियों पर दो पैरों पर चलते हैं और हाथों से ऊपर की टहनी को थामे रहते हैं । उनका निष्कर्ष है कि संभवत: यह दो पैरों पर चलने की शुरूआत रही होगी । इसका मतलब है कि दो पैरों पर चलना पेड़ों से उतरकर मैदान में आने से पहले की घटना है। वैसे इस संदर्भ में कई परिकल्पनाएं मौजूद हैं कि दो पैरों पर चलने से विकास की दृष्टि से क्या लाभ मिलता होगा । जैसे यह कहा जाता है कि घांस के मैदानों में सीधे खड़े जानवर को कम धूप का सामना करना होता है । अलबत्ता इस परिकल्पना के साथ दिक्कत यह रही है कि हमारे पूर्वजों का ज्यादातर समय खुले मैदानों में नहीं बल्कि घने जंगलों में बीतता था जहां इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।
मंगल पर जीवन ?

मंगल हमारा पड़ोसी ग्रह है और इसकी अनुकूल जलवायु को देखते हुए यह आशा व्यक्त की गई है कि शायद यहां कभी जीवन पनपा और फला-फूला होगा । जहां पानी है, वहां जीवन संभव है। नासा ने अपने नवीनतम अंतरिक्ष यान ग्लोबल सर्वेयर से प्राप्त् चित्रों के आधार पर बताया है कि ऐसा प्रतीत होता है कि मंगल की सतह पर काफी हाल में परिवर्तन हुए हैं । नासा के मुताबिक यह इस बात का सबसे पुख्ता प्रमाण है कि शायद आज भी वहां पानी बहता है । वर्ष २००४ और २००५ में खींची गई तस्वीरों में कुछ चटख रंग वाली खंदकें नजर आती हैं जो १९९९ और २००१ की तस्वीरों में नहीं थी । नासा के वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि वहां जो मिट्टी , लवण वगैरह जमा हुए हैं वे नालों में बहते पानी के साथ आए होंगें। वैसे कुछ वैज्ञानिकों ने मत व्यक्त किया है कि ये मलबा पानी के साथ नहीं बल्कि धूल के साथ आया है । मंगल पर जीवन था या नहीं, इसे समझने के लिए हमे वहां पानी के इतिहास पर नजर डालनी होगी । यदि अतीत मे मंगल पर पानी था, तो उसका क्या हुआ ? एक सिद्धांत यह है कि जलवायु परिवर्तन के चलते यह पानी धीरे-धीरे भाप बनकर उड़ गया । अलबत्ता ग्रह के उत्तरी ध्रुव में पानी फंसा हुआ है और शायद काफी सारा पानी सतह के नीचे पानी या बर्फ के रूप में मौजूद है। मंगल पर जीवन के रूप तो विज्ञान कथाआे में खूब पल्लवित हुए हैं। एच.जी. वेल्स ने अपने उपन्यास वॉर ऑफ दी वर्ल्ड्स में मंगल के बुद्धिमान जीवों के हमले की कल्पना की है । मगर तथ्यों को देखें तो इससे उल्टा ही ज्यादा संभव दिखता है कि धरती के लोग मंगल पर जा धमकेंगें। हाल ही में स्टिफन हॉकिंग ने भविष्यवाणी की है कि मंगल पर मानव बस्तियां अगले ४० वर्षोंा के अंदर बन जाएंगी। मंगल जं(मं)गल में मंगल संभव बनाने के लिए ग्रह स्तर पर इंजीनियरिंग के जबर्दस्त चमत्कारों की दरकार होगी ।
शिफ्ट में कार्य करने से घटती है आयु


शिफ्ट वर्क , यानी कभी दिन की ड्यूटी तो कभी देर रात को काम करना आज के इस औद्योगिक युग की मजबूरी है । विश्व की आबादी का पांचवा भाग शिफ्टों में काम करता है । विभिन्न अध्ययनों से यह साबित किया जा चुका है कि शिफ्टों में काम करने से न केवल सेहत पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि कर्मचारी नींद सम्बंधी तकलीफों से भी ग्रस्त हो जाते हैं। इससे व्यक्ति के कार्य प्रदर्शन की क्षमता भी घटती है और बड़ी औद्यौगिक दुर्घटनाआे की एक प्रमुख वजह भी यही बनती है । मगर इस बात को लेकर अब तक कोई साफ राय नहंी बन पाई थी कि क्या शिफ्टों में कार्य करने से व्यक्ति की आयु पर भी असर पड़ता है । कुछ का कहना रहा है कि इससे आयु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि कुछ अन्य का मानना है कि इससे व्यक्ति की आयु घटती है । हालांकि इन दावों के समर्थन में कोई प्रमाण नहंी थे । हाल ही में रविशंकर विश्वविद्यालय के अतनु कुमार पति व के. वेणु अचरी द्वारा किए गए एक अध्ययन से इस बात का परीक्षण किया गया है कि शिफ्ट वर्क से मनुष्य की आयु पर क्या असर पड़ता है? यह अध्ययन दक्षिण-पूर्व-मध्य रेल्वे (नागपुर) के कर्मचारियों पर किया गया । इस अध्ययन में पिछले २५ सालों में विभिन्न कारणों से मृत्यु को प्राप्त् रेल्वे के ५९४ कर्मचारियों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया । इन ५९४ कर्मचारियों में से २८२ दिन में काम करने वाले और ३१२ शिफ्टों में काम करने वाले कर्मचारी थे । दोपहर में ऑफिस टाइम पर काम करने वालों का समय सुबह ९ बजे से शम ६ बजे तक था, जबकि शिफ्ट वर्क वाले तीन शिफ्टों में काम करते थे - सुबह ८ से शाम ४ बजे, शाम ४ बजे से १२ बजे और रात १२ से सुबह ८ बजे। एक शिफ्ट में एक कर्मचारी सप्तह भर काम करता था । एक दिन के अवकाश के बाद उसकी शिफ्ट बदल जाती थी । अध्ययन में शामिल अधिकांश मृत कर्मचारी पुरूष थे । महिलाएं केवल चार थीं । इस अध्ययन में हर कर्मचारी की जन्मतिथि, सेवानिवृत्ति की आयु और मृत्यु तिथि का विश्लेषण किया गया और औसत आयु का आकलन किया गया । पता चला कि शिफ्ट कर्मचारियों की औसत आयु ऑफिस टाइम में काम करने वाले कर्मचारियों की तुलना में करीब ४ साल कम होती है । गौरतलब है कि इससे पहले एक ब्रिटिश अध्ययन में पाया गया था कि शिफ्ट वर्क का व्यक्ति की आयु पर कोई असर नहीं पड़ता है, जबकि डेनमार्क के एक अध्ययन के अनुसार शिफ्ट कर्मचारियों को मौत का खतरा अन्य की तुलना में १.१ फीसदी ज्यादा होता है । मगर दोनों ही अध्ययनों में कर्मचारियों की औसत आयु की सीधी गणना नहीं की गई थी । लेकिन ताजा अध्ययन में कर्मचारियों की आयु को सीधे-सीधे शामिल किया गया था । इसके अलावा यह अध्ययन एक ही संस्थान मे काम करने वाले कर्मचारियों पर किया गया, जहां अन्य परिस्थितियां लगभग एक जैसी थीं । इससे दोनों की सही तुलना हो सकी ।


मानव प्रोटीन युक्त धान को मंजूरी






अब शायद यह कोई खबर नहीं है कि एक प्रजाति का जीन अब दूसरी प्रजाति में रोपकर एक नई किस्म बनाई गई । अब बताया गया है कि अमेरिका की एक कम्पनी ने एक धान तैयार किया है जिसके दानों में मानव दूध में पाए जाने वाले प्रोटीन पाए जाएंगे । वहां के कृषि विभाग ने इसे उगाने को मंजूरी भी दे दी है । वैसे यह पहली बार नहीं है कि किसी फसल में कोई प्रोटीन बनाने के लिए किसी अन्य प्रजाति का जीन रोपा गया हो। इस मायने में अब कई पौधों को औषधि बनाने के कारखानों में तबदील किया जा चुका है । मगर मानव प्रोटीन बनाने वाली यह पहली फसल होगी । धान की यह नई किस्म अमेरिकन कम्पनी वेंट्रिया बायोसाइन्स ने तैयारी की है।

१२ खाद्य पदार्थ

जी.एम. खाद्य पदार्थ और कानूनी संवर्द्धन
सौरव मिश्रा
केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने १० मार्च २००६ को अखिल भारतीय मेडिकल परिषद् की अनुवांशिक रूप से तैयार जी.एम. खाद्य पदार्थों को चिहि्न्त या लेबल करने की अनुशंसाआे को मंजूरी दे दी है । जी.एम. खाद्य पदार्थों की दुनिया में प्रवेश का यह पहला निर्णायक कदम है । हालांकि इस पहल की समझदारी पर कई सवाल हैं । जहां कुछ लोगों ने इसका स्वागत किया है वहीं कईयों ने इसे आत्मघाती कदम बताते हुए कहा है कि इससे स्वास्थ्य की गंभीर समस्याआे से लदे-फंदे जी.एम. खाद्य पदार्थोंा पर प्रतिबंध लगाना असंभव हो जाएगा । खाद्य अपमिश्रण संरक्षण कानून (१९५४) के अंतर्गत बनी खाद्य मानकों की केन्द्रीय समिति ने अखिल भारतीय मेडिकल परिषद से सुझाव मांगे थे ताकि जी.एम. खाद्यों को चिन्हित करने के लिए खाद्य अपमिश्रण कानून को संशोधित किया जा सके । व्यापार विश्लेषक रंजन कुमार के अनुसार जी.एम. खाद्य को भारत मेंचिन्हित करना इसलिये आवश्यक है कि क्योंकि वह बड़ी मात्रा में मक्का और सोयाबीन तेल का आयात करता है । भारत ने २००४-०५ में २० लाख टन सोया तेल का आयात किया था । पर किसान नेता विजय जवान्धिया का कहना है कि यह कदम साफ तौर पर सभी जी.एम. खाद्यों के आयात की मंजूरी है । उनके मुताबिक भारतीय बाजारों में जी.एम. खाद्यों का अस्तितत्व खाद्य सामग्रियों पर से २००१ में मात्रात्मक प्रतिबंध उठाने के बावजूद मौजूद था, पर इसको कोई वैधानिक स्वीकृति नहीं थी और इस पर कभी प्रतिबंध लगाया जा सकता था । पर इन नए नियमों का अर्थ है कि भारत सार्वजनिक उपभोग के लिए इन खाद्य पदार्थो को स्वीकृति प्रदान कर रहा है । इससे यहां विदेशी कृषि व्यापार को बढ़ावा मिलेगा । जी.एम. पदार्थो की मिलावट अन्य आयातित खाद्य पदार्थ, जैसे - टमाटरों के रस, टमाटर कैचप ओर आलू चिप्स में होने की भी शंका जताई जा रही है । नए नियमों से देशी जी.एम. खाद्यों के उत्पादन को प्रोत्साहन मिलेगा । चूंकि भारत में कपास एक मात्र वैध जी.एम. फसल है इसलिए वनस्पति तेलों में संभावित जी.एम. के अंश वाला घरेलू खाद्य उत्पाद भी ९ प्रतिशत कपास का तेल है । केन्द्रीय विज्ञान और तकनीक मंत्रालय के बायो-तकनीक विभाग के निदेशक टी.रामइया कहते हैं कि जी.एम. कपास के तेल के जहरीले प्रभाव से मुक्ति तभी संभव है जब इसका दो बार शोधन किया जाए । हालांकि स्थानीय उत्पादक इस बात के लिए ख्यात हैं कि वे अधिक लागत के कारण शोधन से ही बचते हैं। ऐसे में यहां पर गफलत हो सकती हैं । प्रस्तावित नियमों में प्रावधान है कि जी.एम. खाद्यों को चिन्हित किया जाए । यह इसलिए आवश्यक है कि इससे ट्रान्सजीन (आनुवांशिक परिवर्तन के मूल स्त्रोत) की जानकारी एवं प्रक्रिया उपलब्ध हो सकेगी । हालांकि लेबल की सच्चई की जांच की ठीक-ठीक पद्धति अंतिम रूप तय नहीं की गई है । स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि एलर्जी की जांच, संभावित विषाक्तता, पौष्टिक संयोजन और जी.एम. खाद्य पदार्थो और फसलों के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों को ध्यान में रखते हुए लेबल को सुनिश्चित किया जाना चाहिए । आई.सी.एम.आर ने खाद्य पदार्थो में जी.एम. अवयवों की मात्रा यूरोपियन यूनियन द्वारा निर्धारित मात्रा से कुछ अधिक निर्धारित की है । जहां यूरोपियन यूनियन ने सबसे कठोर पैमाना यानि ०.९ प्रतिशत मान्य किया है । वहीं जापान में यह ५ प्रतिशत है और भारत में इसकी सीमा एक प्रतिशत निश्चित की गई है । भारत को यूरोपियन यूनियन से सबक लेना चाहिए, जहां जी.एम. खाद्य पदार्थो की जांच के लिए बुनियादी ढांचा और धन भी पर्याप्त् मात्रा में उपलब्ध है लेकिन वहां भी नियमों का पालन करवाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है । भारत में प्रस्तावित नियमों में दण्डात्मक प्रावधानों का खुलासा नहीं किया गया है जबकि यूरोपियन यूनियन इस मामले में एकदम स्पष्ट है । इससे इसकी मार्केटिंग करने वालों को बहुत ही सुविधा होगी । एक और चिंता का विषय मिलावट है । ऐसी संभावना है कि आयातित सामग्री सबसे अधिक मिलावटी होगी परन्तु वे आसानी से बच निकलेंगी । प्रस्तावित नियमों में यह प्रावधान है कि अगर उत्पादित देश में उनकी बिक्री की अनुमति है तो वह यहां भी स्वीकृत होगी और आयात करने वाला देश उसकी अनिवार्य जांच नहीं कर सकेगा । विश्व व्यापार संगठन में इसको लेकर समस्याएं खड़ी हो रही हैं । अमेरिकी दबाव के कारण इंटरनेशनल कोडेक्स कमेटी अभी तक जी.एम. खाद्य पदार्थो में लेबल का पैमाना तय नहीं कर पाई है । ऐसे में अगर भारत अनिवार्य जांच का आग्रह करता है तो इस बात का खतरा है कि उसे विश्व व्यापार संगठन में चुनौती का सामना करना पड़े । यह सचमुच डर और चिंता का विषय है कि हम स्वास्थ्य के मसलों पर ध्यान दिए बिना सिर्फ जोड़-तोड़ में ही लगे हैं ।

१३ पर्यावरण समाचार

पर्यावरण की जानकारी हर व्यक्ति के लिए आवश्यक


देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के कुलपति का स्वागत




पर्यावरण की समस्या आज विश्स की प्रमुख समस्याआे में से एक है । पर्यावरण की जानकारी हर स्तर तथा हर उम्र के व्यक्ति के लिये आवश्यक है । जन जागरूकता से पर्यावरणीय समस्याआे के समाधान की दिश में कारगर कदम उठाये जा सकते है । पर्यावरण डाइजेस्ट पत्रिका ने इस दिशा में सराहनीय कार्य किया है । उक्त आशय के विचार देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. भागीरथ प्रसाद ने पर्यावरण डाइजेस्ट के कार्यालय में चर्चा के दौरान व्यक्त किये । डॉ. प्रसाद ने कहा कि पर्यावरण डाइजेस्ट हिन्दी की विशिष्ट पत्रिका है, इसमेंविद्वान लेखको के शोध अध्ययनपूर्ण लेखों से जिज्ञासुओ को महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है । पर्यावरण संरक्षण की लोक चेतना के लिये स्वयं शिक्षण से लोकशिक्षण तक के कार्यो में काम आने वाली सामग्री पत्रिका के लेखो में रहती है । प्रांरभ में पत्रिका के संपादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित ने कुलपतिजी का सूतमाला से स्वागत किया और पत्रिका के २१ वर्षो की प्रकाशन यात्रा की विस्तार से जानकारी दी । डॉ. प्रसाद ने पत्रिका के इंटरनेट संस्करण पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए संपादक को पत्रिका के लोकव्यापीकरण के इस नये आयाम के लिये बधाई दी । पत्रिका के प्रकाशन के २० वें वर्ष प्रकाशित सभी अंको की जिल्द भी डॉ. भागीरथ प्रसाद को भेंट की गई । पत्रिका के डी.टी.पी. प्रभारी विपुल पीतलिया ने अंत में सभी के प्रति आभार व्यक्त किया ।