शनिवार, 13 जुलाई 2013



शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

प्रसंगवश
बाघ संरक्षण में पिछड़ता मध्यप्रदेश

डॉ. महेश परिमल 
    पिछले एक साल में मध्यप्रदेश में एक दर्जन बाघों की मौत हुई है । बाघों की संख्या को देखते हुए पहले मध्यप्रदेश को टाइगर स्टेट कहा जाता था । इन दिनों मध्यप्रदेश सरकार को बाघों की कम और बाघों को देखने आने वाले पर्यटकों की चिंता अधिक है । इसलिए पर्यटकों के लिए लगातार सुविधाआें का विस्तार किया जा रहा है, पर बाघों का शिकार करने वाले अभी तक कानून की पहुंच से दूर हैं ।
    पिछले एक साल में जिस तरह से शिकारियों द्वारा बाघों का शिकार किया गया है, उससे यही लगता है कि बाघों का शिकार इलेक्ट्रिक तार में करंट देकर किया गया है । सभी मामलों में शिकारी इतने चालाक दिखाई दिए कि वन विभाग का अमला मृत बाघ तक पहुंचे, इसके पहले बाघ के तमाम अवशेष गायब कर दिए जाते हैं । देश में कुल ४० टाइगर रिजर्व में से अधिक ५ मध्यप्रदेश में ही हैं । पिछले एक दशक में मध्यप्रदेश के विभिन्न अभयारण्यों में कुल ४५३ बाघ कम हुए हैं । इसमें बाघों की प्राकृतिक मौत के अलावा उनके शिकार भी शामिल हैं । इनमें से अभी तक केवलदो व्यक्तियों पर ही बाघ की हत्या के मामले में सजा हुई है । इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि बाघों की सुरक्षा को लेकर मध्यप्रदेश सरकार कितनी चितिंत है ?
    आंकड़े सरकार की बेबसी को दर्शाते हैं । २००१-०२ में मध्यप्रदेश के ६ नेशलन पार्क में कुल ७१० बाघ थे । जब २०११ में गिनती हुई तब बाघों की संख्या कम होकर २५७ रह गई । अब इसमें लगातार कमी आ रही है । वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश में पिछले दो दशक में ९८६ बाघों की हत्या हुई है । ये आंकड़े केवलहत्या के हैं । कई बाघ प्राकृतिक तौर पर मृत्यु को प्राप्त् होते है । इनकी संख्या भी काफी अधिक है । बाघों की मौत के संबंध में मध्यप्रदेश पूरे देश में आगे है । यहां अभी तक बाघों के संरक्षण के लिए कोइ ठोस नीति नहीं बन पाई है और न ही बाघों की मौत के लिए जिम्मेदार लोगों पर किसी तरह की कठोर कार्यवाही हुई है । जो शिकारी पकड़े गए है, उन्हें भी मामूली सजा हुई है । इससे शिकारियों में किसी प्रकार की दहशत नहीं है । इससे यह सवाल बना हुआ है कि राज्य में बाघों का संरक्षण कैसे होगा                   
संपादकीय    
प्रलय के शिलालेख से सबक
पिछले दिनोंउत्तराखंड की त्रासदी से यह साबित हुआ है कि हमारे देश में आपदा प्रबंधन व्यवस्था बहुत ही कमजोर है । प्राकृतिक आपदाआें को रोक पाना मुश्किल है लेकिन वैज्ञानिक युग में आपदा से होने वाली तबाही को कम किया जा सकता है ।
    आपदा प्रबंधन एक चुनौतीपूर्ण विषय है । ऐसे समय में जब विश्व के किसी न किसी क्षेत्र में कोई न कोई आपदा आती ही रहती है  कुछ देश आपदा प्रबंधन को गंभीरता से लेते है उनके सालान बजट में इस हेतु बजट का प्रावधान भी रहता है । हमारे यहां कहने को तो प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण है, राज्यों में इसकी प्रादेशिक और जिला इकाइया है, लेकिन इस महान त्रासदी के समय पता चला कि उत्तराखंड सरकार के पास आपदाआें से निपटने की कोई तैयार नहीं थी, यह तो भारतीय सेना के जवानों का पराक्रम था कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होनें एक लाख से ज्यादा लोगों को अपनी जान जोखिम में डालकर सुरक्षित निकाला, हालांकि इसमें २० जवानों का अपने प्राण भी गंवाना पड़े लेकिन आपरेशन सूर्या होम से भारत की सेना का समर्पण और राष्ट्र निष्ठा की गौरवमयी भूमिका को सारी दुनिया ने सराहा है । 
    इस त्रासदी के बाद अब न केवल मंदिर का पुर्ननिर्माण करना है बल्कि प्रदेश के एक बड़े हिस्से में विध्वंस के बाद सृजन की नयी तैयारियां करनी होगी । इसके लिये केन्द्र सरकार और उनकी ऐजेन्सियोंके साथ प्रदेश सरकार को बेहतर तालमेल के साथ दीर्घकालीन योजनायें बनाकर तत्काल कार्य प्रारंभ करना होगें । इस प्राकृतिक आपदा से हमें अतीत की उन मानवीय भूलों और लापरवाहियों को सुधारना होगा, जो इस महाविनाश के लिये उत्तरदायी रही है ।
    यह समय त्रासदी पर राजनीति का नहींहै अपितु दलगत भावनाआें से उपर उठकर इस राष्ट्रीय संकट के समय मेंहमारे नीति निर्माता प्रकृति के इस कहर से सबक लेकर न केवल उत्तराखंड अपितु समूचे हिमालय क्षेत्र के संरक्षण और विकास की नयी रूपरेखा बनायेंगे ।
हिमालय त्रासदी - १
उत्तराखंड : त्रासदी के बाद क्या करें?
सुश्री सुनीता नारायण

    उत्तराखंड में आई बाढ़ की सबसे बड़ी आपदा के बाद उजाड़ हो गए हिमालयी क्षेत्र के विकास के लिए नई रणनीति के साथ-साथ जिस बात की सबसे ज्यादा आवश्यकता है वह है पर्यावरण संरक्षण । हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस क्षेत्र का आर्थिक विकास बहुत जरूरी है, लेकिन यह विकास कम से कम पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए । यदि ऐसा कुछ होता है तो पहले से ही पारिस्थितिकीय रूप से असंतुलित और आपदा की दृष्टि से अधिक संवेदनशील इस पूरे क्षेत्र की स्थिति और अधिक कमजोर होगी और विकास प्रभावित होगा ।
    हम इस बात को पहले से ही जानते है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्र प्रभावित हुआ है और यह क्षेत्र दिनोदिन कमजोर हुआ है । अब जो सबसे बड़ा सवाल है वह यही कि इस क्षेत्र के लिए विकास की नई रणनीति किस तरह की होनी चाहिए ? इस सवाल पर विचार करते समय हमेंपूरे हिमालयी परिदृश्य को ध्यान में रखकर विचार करना होगा ताकि ऐसे सभी राज्यों के लिए एक जैसी नीति बनाई जा सके । यहां इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि ऐसी कोई भी विकास की रणनीति बनाते समय हमें इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों जंगल, जल और जैविक विविधताआें के साथ जैविक खाघ पदार्थो का ध्यान रखना होगा । इसके साथ-साथ हमें प्राकृतिक पर्यटन की अवधारणा पर भी फिर से विचार करना होगा ताकि विकास की कीमत हमें पर्यावरण क्षरण के रूप में न चुकानी पड़े ।
    हिमालयी क्षेत्र की प्रमुख विशेषता है प्रचुर वन संसाधन । विकास के पहले चरण में जंगलों का विनाश किया गया । इसके तहत बड़े पैमाने पर जंगलों को काटा   गया । इसी के परिणामस्वरूप पहाड़ी क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी और अपनी आधारभूत आवश्यकताआें के लिए जंगल पर निर्भर एक बड़ी आबादी को अपना आधार खोना   पड़ा । पहाड़ी क्षेत्र में लगातार जंगलों को काटे जाने की समस्या को देखते हुए सरकार ने १९८० के दशक में वन संरक्षण कानून बनाया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बारे में दिशा-निर्देश दिए । सुप्रीम कोर्ट ने हिमालयी क्षेत्रों में जंगल पर आधारित उद्योगों को हटाने और उन्हें नियंत्रित करने के निर्देश दिए । यहां हमें देखना होगा कि इस क्षेत्र के आर्थिक विकास में वनों की भूमिका किस तरह उपयोगी बने । वर्तमान में वनों से होने वाली राज्यों की आमदनी घटी है । वन विभाग के खिलाफ स्थानीय लोगों की नाराजगी लगतार बढी है । इस सबसे साफ है कि हमें एक अलग तरह की विकास रणनीति बनानी होगी । नई रणनीति के तहत हमें विकास के लिए क्षेत्रीय संसाधनों के उपयोग को बढ़ावा देना होगा और स्थानीय लोगों को विशेष संसाधनों मुहैया कराने होंगे ।
    इसके बजाय वर्तमान में देखने को यहीं मिल रहा है कि सड़क और जलविद्युत परियोजनाआें के लिए जंगलों का बड़े पैमाने पर विनाश किया जा रहा है । हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि यहां मौजूद वृहद वन पहाड़ी क्षेत्रों की जैविक विविधता को संजोये रखने में बहुत उपयोगी है । जंगल न केवल मृदा क्षरण को रोकते है, बल्कि यह मैदानी इलाकों में बाढ़ को रोकने के साथ-साथ कार्बन की बढ़ती मात्रा को भी नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाते है । इस सबको देखते हुए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि स्थानीय लोगों के साथ मिलकर यहां के बचे जंगल को कटने से बचाया जाए ।
    इसके लिए १२वें और १३वें वित्त आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जंगलों को काटने से बचाने के एवज में इन राज्यों को वित्तीय मदद दी जाए । दुर्भाग्य से इस मद में दिया जाने वाला धन बहुत अल्प रखा गया है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज तक इस मद का धन संबंधित राज्यों को दिया ही नहीं गया । हिमाचल प्रदेश सरकार ने अब पारिस्थितिकीय अध्ययन करना शुरू किया है । वह अपने जंगलों को बचाने के लिए कार्बन ट्रेडिंग की नीति पर जोर दे रहा है । इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार किए जाने की आवश्यकता है और वन संसाधन को बचाने और बढ़ाने के लिए हिमालयी राज्यों में एक जैसी नीति बनाई जानी चाहिए । ऐसी कोई भी नीति बनाते समय खेती और अपनी दूसरी आधारभूत जरूरतों के लिए जंगलों पर निर्भर स्थानीय लोगों की आवाज को भी महत्व दिया जाना चाहिए । उच्च् हिमालयी क्षेत्रों में स्थित गांवों के अध्ययन से पता चलता है कि यहां खेती के लिए जल आदि की आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए जंगल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण   है । अभी भी जो सबसे बड़ा सवाल है वह यही है कि किस तरह स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए जंगल का इस्तेमाल हो ? इन क्षेत्रों का दूसरा प्रमुख संसाधन पहाड़ियों और ग्लेशियरों से मैदानी तक पहुंचने वाला जल है । वर्तमान में इसके दोहन के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में तमाम नदी परियोजनाआें और बांधों का निर्माण किया जा रहा है । सभी हिमालयी राज्यों में निजी कंपनियों की तरफ से जल विघुत परियोजनाआें की बाढ़ सी आई हुई  है ।
    जल विद्युत परियोजनाएं देश की ऊर्जा आवश्यकता और राज्य की आमदनी के लिए जरूरी है, लेकिन हमें इससे पैदा होने वाले पारिस्थितिकीय प्रभाव को भी ध्यान रखना होगा । अब यह साफ है कि उत्तराखंड में बाढ़ की आपदा बढ़ने की एक वजह यहां जल विघुत परियोजनाआें का गलत नियोजन और निर्माण है । इन परियोजनाआें की नए सिरे से समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है । इन परियोजनाआें का निर्माण करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि इनसे स्थानीय जल तंत्र और  पहाड़ों को किसी तरह का नुकसान नहीं हो । इसी तरह आर्थिक विकास के लिए यहां प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा करते समय क्षेत्रीय पारिस्थितिकी का भी ध्यान रखना होगा । हमें नहीं भूलना चाहिए कि यदि पर्यावरण प्रभावित होता है तो पर्यटन भी प्रभावित होगा । यदि पर्यटन को बेहतर प्रबंधन नहीं किया गया तो पर्यावरण प्रभावित होगा ।
    उत्तराखंड की बाढ़ ने हमें सिखाया है कि कमजोर पहाड़ी इलाकों में पर्यटन की बजाय तीर्थयात्रा आधारित विकास का मॉडल बनाया जाए । होटल और ठहरने के लिए बनाई जाने वाली इमारतों के अनियंत्रित निर्माण पर रोक लगानी होगी और यह सब कुछ सरकार की निगरानी में होना चाहिए । इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि यहां के पर्यटन से स्थानीय लोग लाभान्वित हो । उदाहरण के तौर पर लेह में सरकार ने घरों पर ठहरने की योजना के माध्यम से पर्यटन को बढ़ावा दिया है । इससे प्रदूषण की समस्या भी हल होगी और पारिस्थितिकी की भी । उत्तराखंड में आई बाढ़ हमारे लिए एक अवसर भी है कि हम स्थानीय संस्कृति और पारिस्थितिकी पर आधारित विकास का एक नया मॉडल अपनाएं ।
 हिमालय त्रासदी - २
त्रासदी, बेतरतीब विकास का नतीजा
भारत डोगरा

    हिमालय के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में इस समय सबसे बड़ी प्राथमिकता निश्चय ही बचाव व राहत कार्य है और इसमें कोई कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए । पर एक बार विपदा का वक्त गुजर जाए तो हिमालय क्षेत्रकी विकास नीति को नए सिरे से तैयार करना बहुत जरूरी है ताकि इस तरह की आपदाआें की आशंकाआें को यथासंभव कम किया जा सके, साथ ही जनहित के अनुकूल टिकाऊ विकास हो ।
    हिमालय हमारे देश का अत्याधिक महत्वपूर्ण व संवेदनशील क्षेत्र है । इसके संतुलित व टिकाऊ विकास के लिए नीतियां बहुत सावधानी से बनानी चाहिए । जल्दबाजी में अपनाई गई या निहित स्वार्थोंा के दबाव में अपनाई नीतियों के बहुत महंगे परिणाम हिमालयवासियों को व विशेषकर यहां के गांवों में रहने वाले लोगों को भुगतने पड़े हैं । 
     वनों के प्रति जो व्यापारिक रूझान अपनाया गया उससे गंभीर क्षति हुई है । वन नीति के व्यापारिकरण की नीति ब्रिटिश राज के दिनों में ही आरंभ हो गई थी पर आजादी के बाद इसे रोकने के स्थान पर इसे और आगे बढ़ाया गया । कई क्षेत्रों में यह इस रूप में प्रकट हुई कि चौड़ी पत्ती के पेड़ कम होते गए व चीड़ जैसे शंकुधारी पेड़ बढ़ते    गए । विदेशी शासकों की व्यापारिक प्रवृत्ति के कारण ही वनों का प्राकृतिक चित्र बदला और वन के क्षेत्र मेंचीड़ जैसे पेड़ों का प्रभुत्व बढ़ता गया जबकि स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी चौड़ी पत्ती के पेड़ (जैसे बांज) कम होते गए । चौड़ी पत्ती के पेड़ चारे के लिए भी उपयोगी है और इसकी हरी पत्तियों से खेतों के लिए बहुत अच्छी खाद भी मिल जाती है । अन्य लघु वन उपज के लिए भी यह उपयोगी है ।
    दूसरी ओर चीड़ न स्थानीय लोगों के लिए अच्छा साबित हुआ, न पशुपालकों के लिए न किसानों के लिए । वन-नीति का यह प्रयास होना चाहिए था कि वन प्राकृतिक स्थिति के नजदीक हो यानी मिश्रित वन हो, जिसमें चौड़ी पत्ती के तरह-तरह के पेड़ भी हों और शंकुधारी भी । यदि इस तरह की जैव-विविधता नहीं होगी व केवल चीड़ छा जाएगें तो जमीन के नीचे उनकी जड़ों को जमने में कठिनाई होगी और ये पेड़ भी हलके सेआंधी-तुफान मेंभी आसानी से गिरने लगेंगे जैसा कि हो भी रहा है ।
    हिमालय के अनेक क्षेत्रों में अत्याधिक व अनियंत्रित खनन से वनों की भी बहुत क्षति हुई है व खेती-किसानी की भी । इस खनन ने अनेक स्थानों पर भू-स्खलन व बाढ़ की समस्या को विकट किया है और अनेक गावों के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है । वन-कटान, खनन, निर्माण कार्य में विस्फोटकों के बहुत उपयोग से हिमालय की जमीन अस्त-व्यस्त होती है । इस तरह भू-स्खलन व बाढ़ का खतरा बढ़ता है और भूकंप मेंहोने वाली क्षति की आशंका बढ़ती है । हिमालय का भूगोल ही ऐसा है  कि यहां ऐसी आपदा की आशंका बढ़ेगी तो उसका असर दूर-दूर के मैदानी क्षेत्रों में भी पड़ेगा ।
    इस समय हिमालय क्षेत्र में सबसे बड़े विवाद का मुद्दा यहां की बांध परियोजनाएं बनी हुई हैं । पूरे हिमालय क्षेत्र में सैकड़ों बांध बनाए जा रहे हैं जिससे यहां के हजारों गांव तरह-तरह से संकटग्रस्त हो रहे       हैं । यदि इन सब परियोजनाआें को समग्र रूप से देखा जाए तो ये ग्रामीण समुदायों व पर्यावरण दोनों के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं और अनेक आपदाआें की विकटता इनके कारण काफी बढ़ सकती है । पर ऐसा कोई समग्र मूल्याकंन पूरे हिमालय क्षेत्र में तो क्या किसी एक राज्य या नदी घाटी के लिए भी नहीं किया गया । बड़ी कंपनियों से जल्दबाजी में सौदेबाजी की गई व ग्रामीण समुदायों से कुछ पूछा तक नहीं गया ।
    सच यह है कि उत्तराखंड पारिस्थितिक तौर पर खोखला होता जा रहा है । यहां अनगिनत विद्युत परियोजनाएं शुरू की गई हैं । बांध बनाने के लिए पहाड़ों में सुरंग खोदकर नदियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम जारी है । एक अनुमान के मुताबिक राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लम्बाई करीब पन्द्रह सौ किलोमीटर होगी । इतने बड़े पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ नदी के निशान ही बचे रहेंगे । पानी के नैसर्गिक स्त्रोत अभी से गायब होने लगे हैं । कहीं घरों में दरारें पड़ गई हैं तो कहीं जमीन धंसने लगी है ।
    बिना बारिश के भी कई जगह भूस्खलन के डर से वहां के अनेक परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर रहते हैं । हिमालय की रक्षा और लोकतंत्र की रक्षा, दोनों की मांग यह है कि इन बांध परियोजनाआें पर पुनर्विचार किया जाए । स्थानीय गांववासियों तक जरूरी तकनीक पहुंचाकर उनसे व्यापक विचार-विमर्श  करना चाहिए कि किस तरह से कितना पनबिजली उत्पादन गांवों को नदियों को क्षतिग्रस्त किए बिना हो सकता है ।
    इसी तरह पर्यटन के कार्य में जन-सहयोग के लिए गांववासियों  की आजीविका से जुड़कर कार्य करना चाहिए, इसमें पर्यावरण की रक्षा का भी ध्यान रखना चाहिए । पर्यटन में भी स्थानीय गांववासी केवल निचले स्थान पर न हों अपितु उन्हें सम्मानजनक भूमिका मिले । वन्य-जीव रक्षा के लिए लोगों को उजाड़ना कतई जरूरी नहीं है अपितु सही योजना बने तो वन्य जीव रक्षा के साथ ही स्थानीय गांववासियों को आजीविका के अनेक नए स्त्रोत मिल सकते हैं ।
हमारा भूमण्डल
कृषि क्रांति का हाहाकार
लता जिश्नु

    अमेरिका में मान्सेंटो द्वारा अवैध जीएम गेहूं उत्पादन से विश्वभर में हाहाकार सा मच गया है । जापान और दक्षिण कोरिया अमेरिका से गेहूं आयात प्रतिबंधित कर चुके हैं । भारत में जीएम खाद्यों की वकालत करने वालों को अब नजर उठाकर देखना चाहिए कि सारी दुनिया इस बात पर एकमत है कि जीएम खाद्यों से होने वाले नुकसान को नापने की गलती रहित तकनीक अभी तक विकसित नहीं हुई है ।
    अमेरिका के ओरेगान के एक खेत मेंजीन संवर्धित (जीएम) गेहूं पाए जाने से दुनियाभर में हाहाकार मच गया है । इस खरपतवाररोधी जीएम गेहूं को मोन्सेंटों ने विकसित तो किया है, लेकिन अमेरिकी कृषि विभाग ने अभी इसके उत्पादन की अनुमति नहीं दी है । खेत में परीक्षण और कार्यक्रम के वापस लिए जाने के नौ वर्ष पश्चात इसके पुन: एक खेत में उभरने से न केवल कृषि एवं विज्ञान जगत हिल गया है बल्कि विश्व गेहूं बाजार भी संकट मेंपड़ गया है । 
     जीएम गेहूं को व्यावसायिक तौर पर विश्व में कहीं जारी नहीं किया गया है, लेकिन इसे लेकर तीखी प्रतिक्रियाआई है और जापान एवं उत्तरी कोरिया जैसे गेहूं के बड़े आयातक देशों ने गेहूं आयात रोक दिया है । साथ ही अन्य गेहूं उत्पादक देशों में आई बंपर फसल की वजह अमेरिका के निर्यात में १० प्रतिशत कमी आई है । उधर यूरोपियन संघ ने भी अमेरिकी नरम-सफेद गेहूं के आयात के लिए सदस्य देशोंको सावधानी बरतने को कहा है ।
    यू.एस. डेवलपमेंट ने विश्वभर में अवैध जीएम गेहूं की फसल पर चल रही बहस को नई दिशा दी है और जीएम मिलावट को कमोवेश असंभव बताया है । वैसे भारत भी अपवाद नहीं है या पर मान्सेंटो कपास के राउंड-अप रेडी को अवैध रूप से तीन राज्यों में लगाए जाने की बात सामने आई है । भारतीय कृषि शोध संस्थान के वैज्ञानिकों ने नियामक तंत्र को ठीक करने की बात कही   है ।
    अमेरिका में अवैध जीएम सम्मिश्रण की भारी कीमत किसानों को मुआवजे  के रूप में चुकानी पड़ती है । वैसे इसका सबसे महत्वपूर्ण मामला सन् २०११ में जर्मनी आधारित कंपनी के बेयर एजी और उसकी मानयता प्राप्त् बेयर क्राप साइंस उवं अमेरिका धान उत्पादन किसान का था, जिसमें कंपनी को ७५ करोड़ डॉलर मुआवजा देना पड़ा था । यह मुआवजा उसके अतिरिक्त था, जो कि बेयर को चावल निर्यात और आयातकों, चावल मिलों, बीज विक्रेताआें और चावल उत्पादक किसानों को देना पड़ा था ।
    आरेगान के ३२ हेक्टेयर के खेत मेंमोनसेंटो के इस राउंड अप रेडी (बीज प्रबंधन के लिए) की उपस्थिति उसकी पुरानी आदत का दोहराव ही है । आरेगान ने भी जर्मनी की तरह की मुकदमें की बात कही है । वाशिंगटन राज्य के अनेक गेहूं उत्पादकों ने नियति में हुए घाटे की पूर्ति हेतु मोन्सेंटो पर दावा लगाया है इसी तरह का दावा केन्सास के किसान ने भी लगाया है । इस क्रांतिकारी जीएम गेहूं ने सभी के कान खड़े कर दिए हैं । वैसे इस नरम सफेद गेहूं की संपूर्ण फसल का कमोवेश निर्यात होता है ।
    चिंता का विषय यह है कि जीएम पदार्थ मेंसम्मिश्रण किस प्रकार और कब हुआ । मोन्सेंटो का दावा है कि उसने काफी पहले इस परीक्षण समाप्त् कर दिया है और इसके व्यवस्थित दस्तावेज और अंकेक्षण रिपोर्ट उसके पास भी है । उसका यह भी कहना है कि राउंडअप रेडी गेहूं का आरेगान के खेतों में अंतिम परीक्षण सन् २००१ में हुआ था और अन्य राज्यों में यह २००३ में समाप्त् हुआ । कंपनी के उपाध्यक्ष फिलिप मिलर का कहना है कि वे इस मामले की तह मेंजाना चाहते हैं और इस हेतु तकनीकी मदद प्रदान करने को भी तैयार हैं जिससे कि स्त्रोत की उपस्थिति का पता लगाया जा सके । बाद मोन्सेंटो के एक अधिकारी ने इसे तोड़फोड़ कहा । वहीं उनके मुख्य तकनीकी अधिकारी ने इसे जानबूझकर बीजोंमें मिलावट की संज्ञा दी है । अमेरिकी कृषि विभाग ने सन् १९९८ से २००५ के मध्य खेतों में १०० परीक्षणों की अनुमति दी थी । समाचार एजेंसी के अनुसार कुल १६१९ हेक्टेयर में २७० स्थानों पर परीक्षण हुआ था । ऐसे में केवलएक ही स्थान पर सम्मिश्रित जीएम गेहूं का पाया जाना रहस्य    है ।
    विश्व के नामचीन कृषि वैज्ञानिक डाउन गुरियन शेरमन का कहना है कि यह घोटाले का अंश मात्र भी नहीं है । हमें पता ही नहीं है कि प्रयोग किस स्तर पर हुए हैं । इसे लेकर हम सभी अंधेरे में हैं । इस स्थिति के उपजने के वे दो कारण बताते हैं, पहला अमेरिकी कृषि विभाग जिस अलगाव में इसे लगाने की बात करता है उसमें दूरी के बावजूद सम्मिश्रण होने को पूरी तरह से टाला नहीं जा सकता । इसके पीछे मानव भूल (गलती से बीजों की आपस में मिल जाना) भी हो सकती है । दूसरा यह कि खेतों में सम्मिश्रण की स्थिति का निरन्तर परीक्षण नहीं होता । इसके डीएनए उपलब्ध नहीं होते और कंपनियां गोपनीयता की आड़ लिए रहती हैं । इसलिए मोन्सेंटो ने हड़बडाहट मेंे जापान, कोरिया, ताइवान और यूरोपीय संघ को मूल राउंडअप परीक्षण रिपोर्ट दिखाई । वैसे विशेषज्ञों का कहना है कि वर्तमान परीक्षण तकनीक गुमराह करने वाले नतीजे सामने ला सकती है ।
    शेरमन का कहना है कि अमेरिका में प्रति वर्ष १००० से अधिक खेत परीक्षण होते हैं । इसमें मक्का जैसी फसले भी हैं । अतएव सम्मिश्रण की वास्तविक स्थिति का पता लगा पाना बहुत कठिन है । वैसे बेयर क्राप साइंस एकमात्र बड़ी बायोटेक कंपनी नहीं है, जिसे सम्मिश्रण का दोषी पाया गया है । अन्य मामलों में दोषी कंपनियों को सस्ते में छोड़ दिया गया था । दिसम्बर २००६ में सिजेंटा पर मात्र १.५ करोड़ डॉलर का जुर्माना इसलिए किया गया था कि बिना अनुमति वाले बीटी १० मक्का के बीज, खाद्य के लिए वितरित होने वाले बीजों में मिला दिए थे । सन् १९९७ में फ्रांस की लिमाग्रेन सीड एवं मोन्सेटो की केनेडियन केनोला के ६०,००० बोरे बीज इसलिए बाजार से उठाने पड़े थे, क्योंकि उन्होनें इसमें अमान्यता प्राप्त् खरपतवार रोधी बीज मिला दिए थे ।
    एक प्रमुख जैव सुरक्षा विशेषज्ञ जैक ए हैनेमन डाउन टू अर्थ को बताया कि सर्वाधिक चिंता का विषय है कि आधिकारिक रूप से परित्याग कर दिए गए एवं व्यावसायिक रूप से जारी न किए जाने के बरसों बाद ये बीज सामने आ रहे हैं । सन् २०१२ में भी वैज्ञानिकों ने कनाड़ा में पाया था कि अकेले सास्काट्चेका में ३ लाख एकड़ में अपंजीकृत गेहूं लगा दिया गया था । उन्होनें चेतावनी देते हुए कहा है कि संभवत: अभी सबसे खतरनाक प्रजातियों के परीक्षण की सुविधा ही हमारे पास नही है । गौर करना होगा कि वह क्या चिन्ह थे, जिससे आरेगन का किसान सतर्क हुआ, लेकिन ऐसी प्रजाति जो कि औषधि या औद्योगिक क्षेत्र मेंया पोषण की गुणवत्ता से संबंधित होगी, वे अधिक चिंता का केन्द्र है, क्योंकि उससे पहुंचने वाले नुकसान का पूर्व में अनुमान लगा पाना असंभव है ।
    और भी बुरी स्थिति यह है कि इस बीमारी का कारण भी रहस्य में ही रह जाएगा, क्योंकि जीएमओ को खोजने और इसके प्रभावों को जोड़ना आसान नहीं है । तब हमारे पास शायद इससे आंखे फेर लेना ही एकमात्र हल बचा रहेगा ।
वन महोत्सव पर विशेष
वन जीवन का आधार
चंदनसिंह नेगी
    वन हमारे जीवन का मूल आधार है । प्राणी मात्र का जीवन चक्र प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनोंऔर वृक्षों पर ही निर्भर है । वृक्षों से ईधन, चारा, प्राणवायु, गोंद, शहद, छाया, नमी, औषधियाँ और जीवनोपयोगी अनेक योग्य चीजे मिलती है । वन और वृक्ष औषधि का अमिट भण्डार  है । मन को प्रसन्नता देने वाली हरियाली वनो पर ही आश्रित है । वर्षा चक्र में वनों की महत्ता को कोई कैसे नकार सकता है । आधुनिकता के दौर मेंवनों की उपेक्षा के कारण वनों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी है ।
    विश्व भर के वैज्ञानिको की सबसे बड़ी चिंता जलवायु परिवर्तन से धरती पर हो रहे बदलावों को लेकर है । अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व भर के देश कार्बन उत्सर्जन को कम करने तथा हरियाली बढ़ाने को चित्तिंत है । वर्ष १९७२ में स्वीडन में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन का आयोजन किया गया । इसमें विश्व के ११९ देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सेदारी की । इसके बाद ब्राजील के रियो द जिनेटियों में प्रध्वी बचाने के लिए १७२ देशों ने चितांए व्यक्त करते हुए धरती को बचाने का संकल्प लिया । इसी क्रम में १९९७, २००७ और २००९ में भी विश्व स्तर पर ग्रीन हाउस गैसो के उत्सर्जन को कम करने के लिए विचार विमर्श किया गया ।
     विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन में कमी को लेकर चित्तांए तो कायम है परन्तु धरातल पर अभी तक वह नही हो पाया है जिसकी जरूरत महसूस की जा रही है । भारत में बड़ी आबादी के कारण यहां पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अधिक है । धरती पर बढ़ती गर्मी से भारत की कृषि पर विपरीत असर पड़ सकता है । साथ ही खेती में परम्परागत तौर तरीके से काम ने होने से भी कृषि उपज पर प्रभाव पड़ना निश्चित है । रासायनिक खेती के कारण खेतों में अधिक सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है ।
    विश्व भर में यद्यपि हानिकारक गैसो के उत्सर्जन में कमी आयी है परन्तु धरती को बचाने के लिए विषैली गैसो के उत्सर्जन को समाप्त् करने के स्तर पर प्रयास करने होगे । २०-२० तक ग्रीन हाउस गैसो के उत्सर्जन में २० से ३० प्रतिशत कमी लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है । यह तभी संभव है जब पेट्रोल डीजल पर आधारित ऊर्जा की खपत कम हो, औद्योगिक प्रदूषण में कमी लायी जाए और धरती पर सघन वनों का क्षेत्रफल बढ़े । भारत में वनों की सघनता पर सरकारे ही अधिक भूमिका निभा सकती है परन्तु शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में पौधारोपण कर पर्यावरण को बचाए रखने में हर जागरूक भारतीय अपना योगदान अवश्य दे सकता है ।
    घरेलू गैस को हर चूल्हे तक पहुंचाने से वृक्षों के कटाव पर तो एक सीमा तक कमी आयी है परन्तु बढ़ते औद्योगिकरण और रियल स्टेट कारोबार के तेजी से बढ़ने के कारण शहरी क्षेत्रोंके आसपास पेडो और बगीचो का कत्ल किया जा रहा है । यह चिंता का विषय है यद्यपि पौधारोपण के लिए समाज में एक वातावरण तैयार हुआ है परन्तु जब तक शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों की हर खाली जमीन पर पौधे नहीं लगाए जाते हम ग्लोबल वार्मिग पर जीत हासिल नहीं कर सकते । पेड लगेगे प्रदूषण कम होगा, धरती पर नमी बढ़ेगी, ग्रीन हाउस गैसो का अवशोषण होगा इसलिए पौधे लगाए और उसे बचाए तभी धरती को बचाने में हमारी भूमिका निर्णायक हो सकती है ।
विशेष लेख
प्रकृति से प्यार
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

    कभी कभी जेहन में स्वभाविक प्रश्न उठता है कि हमारे अस्तित्व का आधार क्या है ? अस्तित्व क्या है ? प्रगति क्या है ? प्रकृतिवाद क्या है ? मेरे विचार से ऐसे प्रश्नों की शब्द भंवर से बाहर निकलने के लिए सम्यक विचारधारा को ही पकड़ना होगा । संक्षेप में कहा जाये तो प्रकृति की प्रक्रिया ही अस्तित्व का आधार है तथा अस्तित्व बनाये रखने हेतु प्रकृतिपरक होना पड़ेगा । प्रकृति से प्यार करना ही होगा । प्रकृति में सर्वत्र प्रेम का प्रयोजन सिद्ध है ।
    प्रकृति का शाश्वत नियम है कि उसमेंसकारात्मक तथा नकारा-त्मक शक्तियों के मध्य द्वन्द चलता है । जिसके परिणामस्वरूप ही नूतन का अविर्भाव होता है । नव सृजन से दोनो धु्रवीय शक्तियों का समन्वय हो जाता है । सृष्टि में कोई भी त्रासदी नकारात्मक शक्ति के संचय की परिणति ही होती है । दार्शनिक हीगल ने भी कहा है कि - प्रत्येक वाद (थीसिस) के साथ किसी प्रतिवाद (एन्टी थीसिस) का संघर्ष होता है जिससे एक नये समवाद (सिनथेसिस) का विकास होता है जो प्रथम दोनों का समन्वित रूप होता है । इसी को अस्तित्ववाद कहा गया है । दरअसल सारी समस्याआें के मूल मेंकिसी भी क्रिया की प्रतिक्रिया ही होती है । लोक जीवन में हम देखते है कि हमारी सोच ही संघर्ष अथवा सहयोग का वरण करती है । भाव बदलने से भावनाएं बदल जाती है । आध्यात्मिक उक्ति है जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि । प्यार दो तो प्यार ही मिलता है और सौन्दर्यमयी सुवासित मन कुसुम खिलता है । 
  परम्परागत विचारधारा के अनुसार सृष्टि मेंपहले विचार (आइडिया) का उदय हुआ फिर वस्तु का अविर्भाव हुआ । यही तत्ववाद (आइडियालिज्म) है । इस विचार धारा के तोड़ में कहा गया कि जीवन ही क्षणभुंगर और मिथ्या है । तो विचार कैसे जन्मे, यह भी कहा गया कि व्यक्ति का अस्तित्व उसकी स्वयं की इच्छा पर निर्भर करता है । कोई व्यक्ति जैसा बनाना चाहता है वह वैसा ही बन जाता है । परिस्थितियों के बंधन को स्वीकारना अथवा न स्वीकारना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है । आप जो भी इच्छा रखते है वह सहप्रयासों से अवश्य ही पूरी होती  है । क्योंकि सम्पूर्ण कायनात उसे पूरा करने में जुट जाती है ।
    गीता में भगवान ने स्वयं कहा है कि मेरी अध्यक्षता में प्रकृति ही चर और अचर की रचना करती है । अपने कर्म और स्वभाव के अनुसार संसार बनता है और परिवर्तन होता रहता है । सभी क्रियाएं प्रकृति मेंहोती है । परमात्म अंश जीव भी निर्लिप्त् एवं असंग रहता है
    मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्
    हेतुननिन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।। (गीता ९/१०)
    अत: परिस्थितियों के अनुसार ढल जाने के लिए व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी है । हम परिस्थितियोंपर भी निर्भर करते है । प्रतिकूल परिस्थिति को अनुकूल बनाने का प्रयत्न करते है । कभी हम अपने प्रयास में सफल होते हैं तो कभी असफल भी हो जाते है । प्रश्न उठता है कि हम सफल क्यों नहीं होते तो कहा जा सकता है कि संकल्प शक्ति में कमी रहती है । संकल्पों के विकल्प में जीते है हम । इसीलिए विकल रहते हैं ।
    अस्तित्ववादी इस बात को सिरे से खारिज करते हैं और नकारते है । उनके अनुसार सुख की लालसा ही मिथ्या है । मनुष्य चाहे कितनी भी प्रगति एवं उन्नति कर ले वह पूर्ण सुख नहीं पा सकता है । क्योंकि पूर्णत: संतुष्ट एवं सुखी होना मानव की प्रकृतिमें ही है तब तक वह सुखी नहीं हो सकता, या तो वह मनुष्यता को त्यागे या फिर सुख की कामना का परित्याग करे । मैं इस बात से असहमत हॅू । मेरे विचार से मनुष्य होकर ही सुख एवं आल्हाद को पाया जा सकता है, बशर्ते अन्त:करण निर्मल एवं निरामय हो । प्रेम से पुलकित व्यक्ति अहंकार रहित रहता है । वह आत्मबल एवं तेज से ओतप्रोत रहता है । सदैव प्रसन्न रहता है । प्रसन्नता हमें सुख देती है । निष्काम भाव से हमें शांति मिलती  है ।
    प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपयाजते ।
    प्रसन्नचेतसो ह्मयाशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते ।। (गीता २/६५)
    अर्थात अन्त:करण की निर्मलता प्राप्त् होने पर साधक के सम्पूर्ण दु:खो का नाश हो जाता है । और ऐसे शुद्ध चित्त वाले साधक की बुद्धि नि:संदेह बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है । स्थिर चित्त वाले मनुष्य में समत्व भाव रहता    है । तब प्रतिकूलता एवं अनुकूलता का भेद ही समाप्त् हो जाता है । मनु र्भव का भाव ही हमें उत्कृष्टता प्रदान करता है और अस्तित्व को आधार देता है ।
    प्रकृति ने सृष्टि में समस्त जीवों के जीवन यापन एवं अस्तित्व की रक्षा हेतु पर्याप्त् व्यवस्था की हुई है । प्रकृति में किसी चीज को कमी न हो इसलिए चक्रान्तरण है । जल चक्र, वायु चक्र है विविध तत्वों सहयोग एवं विनियोग हे । नदियाँ सागर को जल से भरती है । सागर से मेघ उठते है । मेघ धरती पर आते और बरसते है । पर्वतों पर हिमनद बनते हैं जिससे वर्ष पर्यन्त नदियाँ सदानीरा रहती हैं । वर्षा का जल हमारी कृषि का आधार है । वर्षा का जल ही परिस्रवण द्वारा अर्थात रिस रिस कर भूमिगत हो जाता है जो कि धरती के पार्थिव तत्व को सरस रखता है ताकि धरती में नमी बने रहे ।
    प्रकृति का प्यार पाने के लिए हम प्रकृति के साथ चले । प्रकृति नृत्यमयी है । प्रकृति नित्य नयी है । प्रकृति परिवर्तनीय एवं परावर्तनीय    है । जीवन में वही सफल होता है जो प्रकट सत्ता के साथ जाग्रत भाव रखता है । प्रकृति हमें सदा ही सबकुछ देती है । प्रकृति के प्रसाद को पाने की जितनी पात्रता हमारे अंदर होती है हम उतना ही अर्जित कर पाते है । प्रकृति ही प्रगति की प्रस्तावक  है । प्रकृति अपनी तुला पर कर्म के बांटों से फलों को तौलती है । कहीं भी असंतुलन हुआ तो तुला डोलती  है । प्रकृतिदाता है, प्रकृति के आँचल में मनुष्य जीवनाधार पाता है ।
    प्रकृति अपने हिसाब की पक्की है । हमारा जीवन प्रकृति तत्वों पर ही आश्रित है । ईश्वरीय कृपा से प्रकृति ही हमारी आवश्यकताआें को पूर्ण करती है । प्रकृति की दया पर हमारी दशा निर्भर होती है । जब जब हम प्रकृति के विरूद्ध जाकर उसका अमंगल करते है वह भी हमसे प्रतिशोध लेती है । तब प्रकृति के आगे आदमी बौना एवं असहाय हो जाता है । प्रकृति हमें सबकुछ नि:शुल्क देती है बदले में केवल प्यार चाहती है । अत: हमे प्रकृति के साथ चलना चाहिए । प्रकृति संवेदनशील होती है, सहनशील होती है और हमें सजग भी करती है ।
    क्या हमने कभी गंभीरतापूर्वक यह विचार किया है कि हम दु:ख क्यों पाते है । क्योंकि हम प्रकृति की लगातार अवहेलना करते जाते है । प्रकृति हमें बार-बार संकेत देती है । हम उन्हें नहीं समझते अथवा समझने का प्रयास ही नहीं करते । हमने पेड़ काट डाले तो क्या हमें हरियाली मिलेगी ? हमने विकास के नाम पर क्या-क्या नहीं किया । पर्यावरणीय प्रदूषण जनित हलाहल को पेड़-पौधे ही तो पीते है । ऐसे शिवत्व पूर्ण पेड़ों को क्या हम सहेज रहे है ।
    मनुष्य यह बात नहीं समझ रहा है कि जितनी अधिक सुख-सुविधाएं वह जुटाता जाता है उतनी ही अधिक अशांति पाता है । भीड़ में भी स्वयं को तन्हा, एकाकी अनुभव करता है । क्योंकि सम्बन्धों में अपनत्व और प्रेम नहीं रहा सौन्दर्य से पुलकित परिवेश नहीं रहा । समस्त प्रकृति की जैव विविधता संकटापन्न हो रही है । फिर भी हमें चिंता नहीं है । हम चेतना शून्य होते जा रहे    है । हमारी जीवन शैली कृत्रिमतापूर्ण, यांत्रिक एवं निराशापूर्ण होती जा रही है । सौन्दर्य बोध खत्म हो रहा है । मलिनता ही मन में समा रही है । आज के खण्डित समाज में पाखण्ड अधिक है । आस्था एवं विश्वास हमारे पास नहीं ठहर पा रहा है । हम अपनी अक्षमताएं दूसरों पर थोपते जा रहे    है । ऐसे में कैसेसुरक्षित रहेगा हमारा अस्तित्व ?
    हम व्यष्टि चैतन्य तो है किन्तु समष्टि चैतन्य नहीं है । अत: सृष्टि एवं सृष्टा की अवहेलना करते हैं । प्रकृति के विपरीत जाते है दु:ख पाते है । प्रकृति एवं मनुष्य दोनो एक ही कलाकार की जीवंत कृतियां है ।  एकाकार होकर भी भिन्न प्रतीत होती है । प्रकृति निर्विकार है तो मनुष्य विकारों का पुतला है । प्रकृति में सबकुछ अनावृत है । उसकी सदाशयता मेंभी हम रहस्य ढूंढते है क्योंकि हम प्रकृति को समग्रता से जानने का प्रयास नहींकरते है ।
    हम प्रकृति के अनुसार चले । प्रकृति के साथ चलें । प्रकृति की प्रेरणाआें के अनुरूप अपना दृष्टिकोण बनाए तथा अपने क्रिया कलापों का निर्धारण करें । प्राकृतिक उत्कृष्टता तथा आदर्श का समन्वय हमारे अन्त:करण को ऋतबद्ध बनाता है । पवित्रता एवं उदारता के साथ हम प्रकृति के आराधक बनें ।
    हम अपनी भौतिक महत्वाकांक्षाआें को सीमित करें हमारा निर्वाह प्रकृतिके साथ हो हमारा आचरण प्रकृति के तद्रूप हो । इससे अभाव एवं असंतोष नहीं रहेगा । प्रकृति का वरदान एवं अभयदान मिलेगा । हम अहोभाव से भरे रहेंगे । संसार यज्ञकर्म के सहारे चलता है । प्रकृति की समुन्नत नियामक व्यवस्था है । हम उसमेंभरपूर सहयोग करे । हम कभी भी कहीं भी भ्रष्ट आचरण का हिस्सा न बने । इससे हमारा अस्तित्व भी सुरक्षित रहेगा और हमे स्थायी सुख मिलेगा ।
विज्ञान, हमारे आसपास
क्या रात को पेड़ के नीचे सोना ठीक है ?
डॉ. सुशील जोशी

    हालांकि कुछ बातें ऐसी हैं जिनका पता वैज्ञानिकों ने एक-दो सदियों पहले ही लगा लिया था मगर लोक मानस में वे भ्रम पैदा करती रहती हैं । विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें भी इन भ्रमों को दूर करने में कोई मदद नहीं करती । और तो और, कई बार तो पाठ्य पुस्तकें भ्रम को हवा देने का काम करती है । ऐसा ही एक मामला सांस लेने से संबंधित है ।
    यह तो सब जानते है कि मनुष्य समेत सारे प्राणी श्वसन करते हैं । अधिकांश प्राणियों के श्वसन की क्रिया मेंशर्करा (मूलत: ग्लूकोज) और ऑक्सीजन की क्रिया होती है । इस क्रिया मेंकाफी सारी ऊर्जा मुक्त होती है जो प्राणी अपने कामकाज के लिए उपयोग करते हैं । इस क्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड और पानी पैदा होते हैं । कार्बन डाईऑक्साइड को किसी न किसी तरह शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है । मनुष्य और कई अन्य प्राणियों में ऑक्सीजन प्राप्त् करने और कार्बन डाईऑक्साइड को बाहर निकालने के लिए विशेष अंग पाए जाते हैं, जबकि कई प्राणियों में इस कार्य के लिए कोई विशेष अंग नहीं होते । 
     प्राणियों के समान पेड-पौधे भी श्वसन की क्रियाकरते हैं, आखिर शरीर के कामकाज के लिए ऊर्जा तो उन्हेंभी चाहिए । पेड़-पौधों में भी श्वसन में शर्करा का उपयोग होता है, ऑक्सीजन से उसकी क्रिया होती है और कार्बन डाईऑक्साइड व पानी बनते हैं ।
    चूंकि श्वसन की क्रिया में ऑक्सीजन का उपयोग होता है और कार्बन डाईऑक्साइड का निर्माण होता है, इसलिए हमारी अधिकांश पाठ्य पुस्तकें आपको बताएंगी कि श्वसन में हम ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते है । यह पहला भ्रम है । यह वक्तव्य देते हुए यह नहीं बताया जाता कि सांस लेना और छोड़ना श्वसन का एक अंश मात्र     है । श्वसन के अन्तर्गत संास लेना  व छोड़ना, ली गई सांस में से ऑक्सीजन को सोखकर कोशिकाआें तक पहुंचाना, कोशिकाआें में इस ऑक्सीजन की मदद से शर्करा का ऑक्सीकरण करना (आंतरिक अथवा कोशिकीय श्वसन), इस ऑक्सीकरण के दौरान उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड को वापिस फेफड़ों तक पहुंचाना तथा अंतत: उसे शरीर से बाहर निकालना तक शामिल हैं ।
    सवाल यह है कि यदि मनुष्य श्वसन की क्रिया में ऑक्सीजन लेकर कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते हैं, तो जरा सोचिए कि फिर एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को कृत्रिम श्वसन देने की बात कैसे संभव है । दरअसल, आप जो हवा फेफड़ों में खींचते हैं और जो हवा फेफड़ों से छोड़ते है, यदि उनका विश्लेषण करें तो उनमें बहुत अंतर नहीं होता । जैसे जो हवा आप सांस में लेते हैं उसमें करीब ७९ प्रतिशत नाइट्रोजन, २० प्रतिशत ऑक्सीजन और १ प्रतिशत अन्य गैंसे होती है । अन्य गैसों में करीब ०.०३ प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड शामिल हैं । अब सांस में छोड़ी जाने वाली हवा गौर करे इसमें ७९ प्रतिशत नाइट्रोजन, करीब १६ प्रतिशत ऑक्सीजन और करीब ०.३ प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड होती है । आप देख ही सकते है कि इन दो हवाआें में कोई बड़ा अंतर नहीं है ।
    अब सवाल पेड़-पौधों का । पेड़-पौधों में श्वसन के लिए कोई विशेष अंग नहीं होते । इनमें हवा का आदान-प्रदान मूलत: पत्तियों में उपस्थित छिद्रों के जरिए होता है । इन छिद्रों को स्टोमेटा कहते हैं । इनके अलावा तने पर भी कुछ छिद्र होते हैं और जड़े अपनी पूरी सतह से सांस लेती है । श्वसन की क्रिया में पेड़-पौधें भी ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं और कार्बन डाईऑक्साइड का निर्माण करते हैं ।
    गौरतलब है कि सारे सजीव श्वसन करते हैं और चौबीसों घंटे करते हैं क्योंकि शरीर की किसी भी बुनियादी जीवन क्रिया या जरूरी हुआ तो हिलने-डुलने, चलने-फिरने के लिए जरूरी ऊर्जा श्वसन के जरिए ही मिलती है ।
    मगर हम यह भी पढते आए हैं कि पेड़-पौधे ऑक्सीजन देते हैं । यहीं से अलग चक्कर शुरू होता है । वास्तव में अट्ठारवीं सदी में कई वैज्ञानिकों के प्रयासों से यह स्पष्ट हो पाया था कि पेड़-पौधे हवा की मदद से एक क्रिया और करते हैं । उस क्रियाको प्रकाश संश्लेषण कहते हैं और उसमें पेड-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड तथा पानी की क्रियासे शर्करा और ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं । काफी पापड़ बेलने के बाद इस क्रिया को भलीभांति समझा जा सका । जो बात यहां महत्वपूर्ण है, वह यह है कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के पेड़-पौधों के सिर्फ उन भागों में होती है, जहां क्लोरोफिल होता है ।
    इसके आधार पर दो बातें साफ हैं । प्रकाश संश्लेषण अधिकांश पौधों में सिर्फ पत्तियों तक सीमित होता है और रात मे नहीं होता । दूसरी ओर, श्वसन दिन-रात हर समय चौबीसों घंटे चलता रहता है । इसके साथ एक बात और ध्यान देने योग्य है । प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बहुत तेज गति से होती है । सुबह होने के साथ ही तमाम पत्तियां कारखानों की तरह काम करना शुरू कर देती हैं और कार्बन डाईऑक्साइड और पानी कि क्रिया से शर्करा बनाने लगती    हैं । इस शर्करा को कई अन्य पदार्थोंा में बदला जाता है । प्रकाश संश्लेषण  की तेज रफ्तार का ही नतीजा है कि ये पदार्थ न सिर्फ पौधों के लिए बल्कि समस्त प्राणियों के लिए भी जीवन का आधार बन पाते हैं ।
    ध्यान दें कि दिन उगने के बाद भी श्वसन की क्रिया चल रही  है । मगर पेड़-पौधों में श्वसन की क्रिया धीमी होती है । उन्हें हिलना-डुलना, चलना-फिरना, धड़कना तो है नहीं । इसलिए उनकी ऊर्जा की जरूरत भी कम होती है और श्वसन की रफ्तार भी । श्वसन की क्रिया मेंजो कार्बन डाईऑक्साइड पैदा होती है, वह पत्तियों के अंदर ही खाली स्थानों में पहुंचती है । इन्हीं पत्तियों में प्रकाश संश्लेषण की क्रियाभी चल रही है । इस प्रकाश संश्लेषण क्रिया के लिए हवा में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग किया जाता है । इसके अलावा श्वसन क्रिया मेंबनी कार्बन डाईऑक्साइड भी इसी में खप जाती है । इसलिए कुल मिलाकर लगता है कि दिन में पौधे कार्बन डाईऑक्साइड लेकर ऑक्सीजन छोड़ते है । वैसे ध्यान दें कि स्टोमेटा में से जो हवा अंदर जाती है उसमें भी २० प्रतिशत ऑक्सीजन, ७९ प्रतिशत नाइट्रोजन और अल्प मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड व अन्य गैसें होती हैं । स्टोमेटा से बाहर आने वाली हवा में कार्बन डाईऑक्साइड नहीं होती जबकि ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है और नाइट्रोजन उतनी ही रहती है ।
    दिन के समय भी श्वसन तो बदस्तूर जारी रहता है और इस क्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड पैदा होती  है । मगर होता यह है कि श्वसन में उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में कर लिया जाता है । लिहाजा दिन के समय पत्तियों से नेट ऑक्सीजन बाहर निकलती है ।
    अब आई रात । प्रकाश संश्लेषण तो हो गया बंद, मगर श्वसन चलता रहा । यानी रात को ऑक्सीजन निर्माण नहीं हो रहा है । श्वसन के कारण ऑक्सीजन खर्च हो रही है और कार्बन डाईऑक्साइड बन रही है । दिन का टाइम होता, तो इस कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग हो जाता मगर ये न थी हमारी किस्मत ।
    यानी पौधे रात में कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ेंगे । और मनुष्य सहित सारे प्राणी तो दिन में यही कर रहे थे और रात में यही करेंगे । इसके आधार पर कहा जाता है कि रात में यदि आप पेड़ के नीचे सोए, तो आपकी खैर नहीं क्योंकि रात में आपको ऑक्सीजन के लिए पेड़ के साथ प्रतिर्स्पधा करनी होगी । साथ ही साथ पेड़ जो कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ेगा वह आपके फेफड़ों में घुस जाएगी और आपका दम घोट देगी । इसे मेरा मित्र मनोहर बहुत ही रोचक ढंग से बयान किया करता था । वह कहता था कि रात में पेड़ भी ऑक्सीजन खींच रहे हैं और आप   भी । अब पेड़ तो इतना बड़ा है, इसलिए उसकी ऑक्सीजन खींचने की ताकत भी बहुत ज्यादा है । तो वह आसपास की हवा की सारी ऑक्सीजन खींच लेगा । जब हवा में ऑक्सीजन खत्म हो जाएगी, तो वह आपके फेफड़ों के अंदर से भी ऑक्सीजन खींचेगा । ऑक्सीजन के साथ-साथ फेफड़ें भी खींचकर बाहर आ जाएंगे - ठीक उसी तरह जैसे किसी खाली थैली को खाली करते वक्त हम उसे उलट देते हैं ।  हकीकत इससे कहीं अधिक रोचक है । पेड़ हालांकि बहुत बड़े होते हैं मगर प्राणियों और पेड़-पौधों का एक अंतर बच्च-बच्च जानता है । पेड़-पौधे चलते-फिरते नहीं, हिलते-डुलते नहीं । इसलिए उनकी ऊर्जा की  जरूरत प्राणियों की अपेक्षा बहुत कम होती है । इस वजह से उनकी श्वसन दर भी बहुत कम होती है । एक मनुष्य औसतन प्रतिदिन करीब ५०० ग्राम कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ता है । यह दिन भर का औसत है, यदि दिन और रात को अलग-अलग करके देखेंगे तो रात में कम कार्बन डाइऑक्साईड छोड़ी जाएगी क्योंकि उस समय अधिकांश मनुष्य सोते हैं और उनकी श्वसन दर काफी कम हो जाती है । संभवत: रात भर में मनुष्य करीब १००-१५० ग्राम कार्बन डाईऑक्-साइड छोड़ेगा । पेड़ों की श्वसन दर निकालना मुश्किल काम है । फिर भी मौटे तौर पर १० टन वजन का एक बड़ा पेड़ रात भर में करीब १० ग्राम कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ेगा ।
    अब आसानी से देखा जा सकता है कि एक पेड़ के नीचे सोने और एक व्यक्ति के साथ कमरे मेंसोने के बीच क्या अंतर है । जाहिर है, एक और व्यक्ति के साथ सोना ज्यादा घातक साबित हो सकता है । पेड़ के नीचे सोने के खतरे की बात एक और कारण से भी बेतुकी है । किसी भी स्थान की हवा को एक स्थिर आयतन मानना कदापि ठीक नहीं है । आपके आसपास की हवा लगातार बदलती रहती है । खास तौर से तब जब आप खुले में सो रहे हैं । इतने सारे पक्षी, प्राणी पेड़ों पर ही रहते हैं । यदि वे सब ऑक्सीजन के लिए पेड़ों से प्रतिस्पर्धा करें तो उपरोक्त अधकचरे तर्क के आधार पर सब के सब, रातों रात मर जाने चाहिए । इसी प्रकार से, जाड़े के दिनों में ट्रेन के किसी खचाखच भरे डिब्बे में हमें किसी के बचने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि जाड़ों में खिड़कियां बंद रहती हैं ।
    पेड़ के नीचे सोने का खतरा, दरअसल, अधूरी वैज्ञानिक जानकारी के अधकचरे उपयोग का नतीजा है । जो वास्तविक खतरे हो सकते हैं, उनमें पेड़ की शाखा का गिरना और किसी पक्षी द्वारा बीट किया जाना वगैरह गिनाए जा सकते हैं । लेकिन इनका सम्बंध ऑक्सीजन से कदापि नहीं है ।
प्रदेश चर्चा
उत्तराखंड : विकास का सालाना उत्सव
चिन्मय मिश्र
    उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ने क्या प्रलय की पूर्व सूचना जारी कर दी है ? इस विध्वंस को रोका जा सकता था या नहीं ? यह मानव निर्मित है या प्रकृति जनित  है ? जैसे अनेक सवाल हवा में तैर रहे हैं, मगर मजाल हैं कहीं से कोई भविष्य के प्रति आशान्वित करने वाला बयान आया हो । प्रधानमंत्री भी उत्तराखंड हो आए हैं और ताबड़तोड़ एक हजार करोड़ की राहत घोषणा भी कर चुके हैं । इस धन से उक बार पुन  उत्तराखंड का वैसा ही विकास होगा जो कि इस लघु प्रलय का कारण बना है  । आवश्यकता इस बात की थी कि मानवीय सहायता पहुंचाने के बाद सारी आर्थिक विकासात्मक गतिविधियोंपर रोक लगाकर एक स्वतंत्र इकाई से पूरे क्षेत्र के भौतिक विकास की आवश्यकताआेंके आकलन को कहा जाता! हमेंअब यह हिसाब लगाना होगा कि उत्तराखंड में एक किलोमीटर सड़क बनाने में कितने पहाड़ों को नष्ट करना पड़ता है । यानि विनाश का चक्र विकास के चक्र पर सवार रहेगा और यह विकास का सालाना उत्सव बन जाएगा  ।  


     श्रीमद् भागवत में लिखा है,  साक्षात भगवान यज्ञ पुरूष त्रिविक्रम के (तीन डगोंसे) पृथ्वी, र्स्वगादि आदि को लांघते हुए वामपद के अंगुष्ठ (अंगूठे) से निकलकर उनके चरण पंकज का अवनेजन करती हुई भगवती गंगा जगत के पाप को नष्ट करती हुई स्वर्ग से हिमालय के ब्रह्म सदन में अवतीर्ण हुई । वहां से सीता, अलकनंदा, चक्षु एवं भद्रा चारों दिशाआें में प्रवाहित हुई । भारत की ओर आने वाली अलकनंदा कहलाई । जो हेमकुट आदि पर्वतों को लाघंती हुई भारत के दक्षिण पूर्व दिशा की ओर बहकर समुद्र की ओर बढ़ती    है ।  यानि भारत की बड़ी आबादीं गंगा के आश्रम में है, लेकिन हमने तो उत्तराखंड में ही इसे इतनी जगह रोकने की अव्यवस्था बना दी है कि जैसे सारे भारत की बिजली यही बन जाएगी और हम रोशनी से नहा  जाएंगे । जबकि वास्तविकता यह है कि टिहरी जैसे बांधों का पानी दिल्ली सरीखे शहरों के निवासियों के शौचालयों को साफ कर यमुना नदी को गंदे नाले में बदलने के काम में लाया जा रहा है ।
    अब भारत के मौसम विभाग ने स्पष्ट कर दिया है कि हिमालय क्षेत्र में बादल नहीं फटे थे, बल्कि लगातार तेज बारिश से ही यह कहर बरपा है और जिसकी विधिवत पूर्व सूचना दो दिन पूर्व दी जा चुकी        थी । इसरों के सूत्र बताते हैं कि अंतरिक्ष से खींची गई तस्वीरें बता रही है कि पिछले एक दशक में इस इलाके में हजारों नए भवन निर्मित किए गए हैं और नदी मार्ग में रूकावटें खड़ी की गई हैं । इससे नदी बेसिन में पानी का प्रवाह अवरूद्ध हुआ है । केदारनाथ नगर में आई बाढ़  के लिए वे यहां से ६ किलोमीटर ऊपर स्थित हिमनद (ग्लेशियर) वे केदार गुंबज के एक टुकड़े के टूटने को जिम्मेदार बता रहे हैं ।
    इसको पढ़कर प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जिन्होंने उत्तराखंड के दुर्गमतम इलाकोंका पैदल भ्रमण किया है और वे आज भी इन स्थानों की दूरी मील या किलोमीटरों में नहीं बल्कि दिनों में गिनाते हैं, ने अपने अनूठे निबंध  गौना ताल : प्रलय का शिलालेख  में लिखा है,  सन् १८९३ में उत्तराखंड के समीप स्थित एक सकरी घाटी के मुंह पर एक चट्टान गिरकर अड़ गई थी । धीरे-धीरे उस गहरी घाटी में पीछे से आकर बिरही और सहायक नदियों का पानी इकठ्ठा होने लगा । इस पर अंग्रेजों ने यहां एक तारघर स्थापित कर दिया और उसके माध्यम से ताल के जलस्तर की निगरानी करते रहे । एक साल तक नदियां ताल में पानी भरती रहीं । जलस्तर १०० गज उपर उठ गया । तार घर ने खतरे का तार नीचे भेज दिया । ताल सन् १८९४ में फूट    पड़ा । किनारे के गांव खाली करा लिए गए थे । प्रलय को झेलने की तैयारी थी । फूटने के बाद ४०० गज का जलस्तर ३०० फुट मात्र रह गया था । ताल सिर्फ फूटा था, पर मिटा नहींथा ।
    वो स्थान आज भी तारघर कहलाता है । अंग्रेज विदेशी शासक थे लेकिन उन्होंन अपने तारबाबू पर विश्वास किया था और प्रलय को समेट लिया था । लेकिन आज तो स्थितियां भयावह रूप लेती जा रही हैं और हमारी व्यवस्था मान रही है कि प्रकृति उनकी गुलाम है और उसकी इतनी औकात नही है वह चूं-चपड़ भी कर सके । तभी तो मौसम विभाग जब अपने आधुनिकतम यंत्रोंसे प्राप्त् सूचनाआें को संबंधित विभागों तक पहुंचाता है तो वे उस पर गौर नहीं करते । उत्तराखंड में मची हालिया तबाही के बाद जब उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन मंत्री श्री आर्य ये इस संबंध में सवाल किया गया तो उनका जवाब था,  ऐसी चेतावनियां तो जारी होती रहती हैं   यानि उन्हें जिस विभाग की जिम्मेदारी दी गई हैं उसे लेकर वे कतई गंभीर नहीं है और मौसम विभाग की भविष्यवाणियों या पूर्व सूचनाआें को वे  भेड़िया आया-भेड़िया आया  जैसी कहानी से ज्यादा कुछ नहीं मानते । शायद उन्होंने इस कहानी का अंत नहीं पढ़ा, जिससे एक दिन सच में भेड़िया आ भी जाता है । आपदा प्रबधंन विभाग को तो भेड़िये आने तक सतर्कताबरतना अनिवार्य है ।
    वैसे यहां की कांग्रेस सरकार ने सन् २०१२ में भागीरथी नदी से गोमुख तक के १०० कि.मी. पूरे हिस्से को पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र अधिसूचित भी कर दिया था तथा इस क्षेत्र में खनन, बांध सड़कों के निर्माण एवं पेड़ काटने पर रोक लगा दी     थी । यदि समाचार माध्यमों पर विश्वास करें तो उनके अनुसार भारतीय जनता पार्टी ने इसका विरोध किया । बीजेपी की ठेकेदार और बिल्डर लॉबी ने स्थानीय जनता को साधा और इस कार्यवाही को जनविरोधी बताया   गया । गंगा अलकनंदा और मंदाकनी नदियों एवं सहायक नदियों पर ७० जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित है । सोचने वाली बात यह है कि इन बांधों को निर्माण साम्रगी तो इसी इलाके सेआएगी और डायनामाइट के विस्फोटोंने पूरे उत्तराखंड को युद्ध भूमि के सदृश्य बना दिया है । बारिश के बिना भी यहां पहाड़ों का टूटना जारी रहता है । इस बाढ़ के साथ आई गाद ने बांध को १५ वर्षोंा जितना एक दिन भर में दिया है ।
    बात यदि उत्तराखंड तक सीमित होती तो भी निपटने के बारे में सोचा जा सकता था । लेकिन पूरे देश का विकास ही इस तरह से किया जा रहा है कि बाढ़ एवं सूखा इसके अभिन्न अंग बन चुके हैं । पिछले एक बरस से हम सुनते-पढ़ते आ रहे हैं  कि महाराष्ट्र में पिछले ५० वर्षोंा को सबसे भंयकर सूखा पड़ा है, लेकिन इन क्षेत्रों में पानी के भंडारण की इतनी भी क्षमता नहीं बची है कि वे एक दिन की बरसात के पानी को अपने में समेट सके । पुणे और मुंबई इसके जीवंत उदाहरण है । इंदौर मेंभी यही हुआ । यहां के एक पुराने तालाब पीपल्यामाला के आसपास पुराने टाइप के बगीचे को अत्याधुनिक सीमेंट कांक्रीट के बगीचे में बदल दिया  गया । इसमें प्रवेश शुल्क भी लगा दिया गया । बाहर सैकड़ों कारों के लिए पार्किंग की व्यवस्था भी कर दी गई । लेकिन हाल में जब बारिश आई तो सारे बाहरी इलाके तालाब बन गए थे, लेकिन तालाब में पानी नहीं गया, क्योंकि पानी जाने के रास्ते पर सड़के बन गई थी । ऐसा विकास हर शहर हर गांव में हो रहा है । इसी के साथ हमें छोटे राज्यों के गठन, उनकी आर्थिक व्यवहार्यता को भी देखना होगा । उत्तराखंड जैसे राज्यों की पर्यटक जिसमें धार्मिक पर्यावरण भी शामिल है पर अत्याधिक निर्भरता को भी जांचना होगा । क्योंकि यहां अधिकांश निर्माण पर्यटन की दृष्टि से किए गए हैं ।
    गंगा गंगोत्री या गांमुख से निकलकर कोलकाता से करीब १३० कि.मी. दूर सागर द्वीप में गंगासागर में मिलती हैं । यहीं पर संक्रांति पर गंगासागर का मेला लगता है । जहां अभी मेला लगता है पहले वहीं गंगा समुद्र में मिलती थी । लेकिन अब सागरद्वीप के पास गंगा की बहुत छोटी सी धारा समुद्र में मिलती है । यानि जो विकरालता उद्गम में नजर बाती है वह गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते लुप्त् या मात्र प्रतीकात्मक रह जाती है । दुनिया के अनेक देश आज प्राकृतिक संपदाआेंको जीवित इकाई मानते हुए उन्हें मनुष्यों की ही तरह जीवन के अधिकार दे रहें हैं, लेकिन हम तो जैसे उत्तराखंड में नदियों की भ्रूण हत्या कर रहे हैं । क्या हम नदियों के बिना बच पाएंगे ? हमें अमृत जहर बनने से रोकना होगा ।
पर्यावरण परिक्रमा
आधुनिक रॉडार होते तो बच जाती जानें
    सरकार की एक लापरवाही उत्तराखंड मेंभयानक रूप से जानलेवा साबित हुई है । यदि उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सोंमें आधुनिक डॉप्लर वेदर रॉडार होते तो समय रहते बादल फटने की चेतावनी देकर सैकड़ों जानें बचाई जा सकती थी । हैरत है कि कठोर कुदरत वाले उत्तर भारत के हिमालयी इलाके मेंएक भी ऐसा आधुनिक रॉडार नहीं लगा है, जबकि यह प्रणाली देश के १४ शहरों में लगाई गई है, जहां मौसम सहज है और लोग अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं । उत्तराखंड व हिमालय के मौसम का मिजाज पटियाला के रॉडार से नापा जाता है, जिसकी जानकारी अंदाजे पर आधारित होती है ।
    केदारघाटी का हादसा मंदाकिनी से उठे बादल के फटने की देन था, जो हिमालयी प्रदेश की नियमित आपदा है । मौसम विज्ञानी मानते है कि बादल फटने का लंबा पूर्वानुमान असंभव है लेकिन कुछ घंटे पहले इसका अंदाजा लगाया जा सकता है । इसके लिए डॉप्लर रॉडार सबसे उपयुक्त है जो बादलों का घनत्व, हवा का प्रवाह व बादल की स्थिति बताते हैं । बादल फटने की घटना एक सीमित इलाके मेंहोती है इसलिए त्वरित जानकारी के आधार पर लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा जा सकता है । डॉप्लर रॉडार उपग्रह के एस बैंड पर काम करता है लेकिन पूरे उत्तरी हिमालयी प्रदेश में इसकी कोई सुविधा नहीं है । हिमालय क्षेत्र को अगले चरण में शामिल किया जाएगा ।
    पटियाला का रॉडार करीब २५० कि.मी. की रेंज के साथ हिमालयी इलाकों का मोटा पूर्वानुमान ही दे पाता है । निजी मौसम एजेंसी स्काईमेट के प्रमुख जतिन सिंह कहते हैं कि बादल फटना एक स्थानीय घटना है और पहाड़ों में सिग्नल रूकते हैं इसलिए पर्वतीय इलाकों में कई छोटे रडार भी लगाए जाते हैं ताकि बादलों की स्थिति जानी जा सके और समय रहते चेतावनी दी जा सके । मौसम पूर्वानुमान तकनीकों को लेकर पहाड़ की उपेक्षा हैरत में डालती है । बड़े बांधों वाले पर्वतीय इलाकों में आकस्मिक बाढ़ के पूर्वानुमान का तंत्र अनिवार्य है लेकिन ४५ बांधों वाले उत्तराखंड में यह जानना कतई असंभव है कि कब कहां बादल फटेगा । यही हाल हिमाचल का है । ताजा आपदा से सार्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के चार जिलों रूद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ में २४ सक्रिय बांध हैं, जिनके आसपास फटने वाला बादल पूरे उत्तराखंड को डुबा सकता है ।
    बादल फटना एक आकस्मिक घटना है, जिसमें एक सीमित इलाके में बहुत तेज वर्षा होती है । इसकी रफ्तार १०० मिमी प्रतिघंटा हो सकती है । क्लाउड बर्सट में पानी से भरे बादल हवा थमने से भयानक वर्षा करते हैं । बादल फटने की घटना कुछ मिनट के लिए ही होती है लेकिन तबाही बड़ी होती है । पहाड़ों में यह बारिश ढलानों से पत्थर व भूस्खलन लाती है, जैसा कि उत्तराखंड में अभी हुआ है ।

दुनिया के ३८ देश २०१५ तक करेंगे भुखमरी खत्म
    संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने कहा है कि दुनिया के ३८ देश वर्ष २०१५ तक भुखमरी समाप्त् कर लेंगे ।
    संगठन के महानिदेशक जोसी ग्रेजियानो डी सिल्वा ने कहा कि वर्ष २०१५ तक भुखमरी समाप्त् कर सकने वाले ३८ देशों की पहचान की गयी है । इन देशों ने साबित कर दिया है कि मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति, सहयोग और समन्वय से भुखमरी में काफी तेजी से कमी लायी जा सकती है । ये देश बेहतर भविष्य की ओर अग्रसर हैं । उन्होने देशों से यह स्थिति बनाये रखने का अनुरोध किया ताकि भुखमरी को पूरी दुनिया से जड़ से उखाड़ा जा सके । आर्मेनिया, अजरबैजान, क्यूबा, डीजीबूती, जार्जिया, घाना, गुयाना, कुवैत, किर्गिस्तान, निकारागुआ, पेरू, सेंट विसेंट एण्ड द ग्रेनाडिस समोआ, सोओ टीम एण्ड प्रिंसिप, थाइलैंण्ड, तुर्कमेनिस्तान, वेनेजुएला, वियतनाम जैसे ३८ देश २०१५ तक भुखमरी खत्म करने की राह में काफी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं । इसके अलावा १५ विकासशील देशों में भुखमरी की दर पहले ही पांच फीसदी से भी नीचे आ चुकी है । श्री डी सिल्वा ने कहा कि हम पहली ऐसी पीढ़ी हैं जो भुखमरी का खात्मा कर सकते हैं, जिसने सभ्यता के जन्म के बाद से ही मानव जाति को त्रस्त कर रखा है । हमें इस मौके का फायदा उठाना चाहिये । डॉ. सिल्वा ने कहा कि पिछले दशक में भूख से मरने वाले लोगों की संख्या में काफी गिरावट आयी है, लेकिन अब भी ८७ करोड़ लोग अब भी कुपोषण का शिकार है । इसके अलावा लाखोंअन्य लोग विटामिन और खनिज तत्वों की कमी से जूझ रहे हैं तथा बच्चें      का सही तरीके से विकास नहीं हो पा रहा । उन्होनें लक्ष्य हासिल करने वाले देशों को संबोधित करते हुये कहा कि आप लोग इस बात की जिंदा मिसालें हो कि अगर समाज भुखमरी को खत्म करने की ठान ले तथा सरकार भी इसे लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध हो तो परिणाम अवश्य नजर आता है । हमें तब तक अपने प्रयास जारी रखने होंगे जब तक कि   दुनिया के हर व्यक्ति को भरपेट खाना व मिलने लगे और हर कोई स्वस्थ न हो जाये ।

गायब हो जाएंगे, नरम खोल वाले कछुए
    नरम खोल वाले दुर्लभ एन निगरीकरन कछुऐ विलुिप्त् के कगार पर है । इस प्रजाति के कछुए त्रिपुरा के गोमती जिले के तारिपुरेश्वरी मंदिर के जलाशय मेंपाए जाते है । अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संगठन (आईयूसीएन) ने बोसमती के लोकप्रिय नाम से पहचाने जाने वाले  इन विशेष प्रकार के कछुआें के विलुप्त् होने की आशंका जताई है ।
    पन्द्रहवी सदी के इस मंदिर को देश का सबसे पवित्र हिन्दु मंदिर माना जाता है । मंदिर परिसर का आकार कर्म (कछुआ) की याद दिलाता है । मंदिर के पास बने कल्याण सागर जलाशय में बोसतमी प्रजाति के कछुआें का निवास है । श्रदालु उन्हें चिवड़ा और बिस्कुट खिलाते है । माताबारी मंदिर समिति ने करीब एक दशक पहले जलाशय के किनारोंको सीमेंट से पक्का करा दिया था जिसके बाद से कछुआें की संख्या में लगातार कमी आ रही है ।
    लेबुचेरा स्थित सेन्ट्रल फिशरीज कालेज के प्रोफेसर मृणाल कांति दत्त ने बताया कि तत्काल संरक्षण के लिए कछुआें को प्राकृतिक वातावरण और रेतीला तट मुहैया कराया जाए । राज्य वन्यजीव बोर्ड के सदस्य ज्योति प्रकाश रायचौधरी ने बताया कि कछुआें को पक्के कर दिए गए तट पर आकर सुस्ताने और घुमने फिरने में दिक्कत आ रही है  । मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गत तीन जून को हुई राज्य वन्यजीव बोर्ड की बैठक में राय चौधरी ने सुझाव दिया था कि जलाशय के तटों को फिर से रेतीला बनाया जाए ।

अब हवा और धूप से चार्ज होगा मोबाइल

    हिमाचल प्रदेश के मण्डी स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के विद्यार्थियोंने भविष्य की तकनीकी चुनौतियों को देखते हुए ऐसे अहम डिजाइन तैयार किए हैं, जो न केवल कम लागत वाले हैं, बल्कि दैनिक जरूरतों को और बेहतर विकल्प   देंगे । विद्यार्थियों ने कम लागत के थ्रीडी प्रिंटर का डिजाइन तैयार करने में कामयाबी हासिल की है ।
    साथ ही, हवा व धूप से मोबाइल चार्ज करने की विधि भी खोज ली है । विद्यार्थियों ने संस्थान के कमाद स्थित परिसर में ओपन हाउस के दौरान कई नए मॉडल प्रदर्शित किए हैं । इनमें रेल हादसों पर अंकुश लगाने के लिए स्वचालित ब्रेक सिस्टम, स्वचालित व्हीलचेयर, धूल सोखने वाली मशीन, पानी का छिड़काव करने वाले यंत्र, इंटेलीजेंट पार्किग सिस्टम, ऑटोमेटिक पेपर रिसाइकलर, पर्वतीय क्षेत्र में बीज बोने के लिए रोबोट, अंधे लोगों के लिए ऑटो नेविगेशन उपकरण, होम ऑटोमेशन सिस्टम प्रमुख है ।
    संस्थान के इंजीनियरोंने हवा व धूप के उपयोग से चलने वाला हाइब्रिड मोबाइल चार्जर बनाया है । इस चार्जर की खासियत है कि इससे घर के अंदर बैठे हुए भी मोबाइल चार्ज किया जा सकता है । यह इस तरह से डिजायन किया गया है कि सीधी धूप के बिना भी मोबाईल चार्ज हो सकता है । ओपन हाउस में इस डिजाइन को दूसरा पुरस्कार मिला ।

नार्वेको एशिया के करीब लाई पिघलती बर्फ

    नार्वेके सुदूर उत्तर में किरकेनिस कस्बा किसी जमाने में किसी भी अन्य यूरोपीयन बंदरगाह के मुकाबले एशिया से बहुत अधिक दूर होता था, लेकिन अचानक से यह एशिया के करीब आता दिखा है और इसका कारण है जलवायु परिवर्तन । जलवायु परिवर्तन के कारण पिघलती बर्फ ने रूस की आर्कटिक तटरेखा के साथ-साथ नार्दर्न सी रूट को खोल दिया है जिससे अंतरराष्ट्रीय कारोबार का चलन-बदल गया है और यहां इस सुदूर इलाके में यह किसी चार लेन के राजमार्ग के बजाय किसी शांत से गांव की छोटी सी पगडडी अधिक दिखाता है । इस बदलाव का क्रांतिकारी महत्व है क्योंकि इसके चलते जापनी बंदरगाह योकोहामा तथा जर्मन के हेमबर्ग के बीच की यात्रा में लगने वाले समय में जहां ४० फीसदी की कमी आयी है वही ईधन पर खर्च भी २० फीसदी घट गया है ।
जनजीवन
इलेक्ट्रॉनिक कचरे का प्रबंधन
दिलीप भाटिया

    ई-वेस्ट बिजली और इलेक्ट्रॉनिक के वेउत्पाद हैं, जो उपयोगी न रह गए हों और कुछ कीमती सामग्री निकालने के लिए जिन्हें ठिकाने पर पहुंचाना हो या फिर अलग-थलग करना हो । यह कचरा आईटी एवं दूरसंचार उपकरणों तथा कंप्यूटर, टेलीविजन, मोबाइल फोन, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, ड्रायर, वीसीआर, स्टीरियो, कॉपियर और फैक्स मशीन जैसी बिजली व इलेक्ट्रॉनिक ई एंड ई उपभोक्ता सामग्री से उत्पन्न होता है । 
    ई एण्ड ई उत्पाद ठोस वस्तुएं होती हैं, जो भारी धातुआें, पॉलिमर्स, ज्वाला प्रतिरोधकों, पॉलिक्लोरिनेटेड, बाईफिनाइल्स वगैरह जैसी सामग्री से बनी होती है । इनके कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं ।
    कैथोड रे ट्यूब टेलीविजन में लगी होती है, जिसमें सीसा, पारा, कैडमियम और बेरिलियम एवं ब्रोमिनेटेड ज्वाला प्रतिरोधक होते हैं । 
     मोबाइल फोन में ५० अलग-अलग पदार्थ होते हैं, जिनमें बेस धातुएं (जैसे तांबा, टिन), विशेष धातुएं (जैसे कोबॉल्ट, इंडियम, एंटीमनी)और कीमती धातुएं (जैसे चांदी, सोना, पैलेडियम) होती हैं । सबसे ज्यादा पाया जाने वाला पदार्थ तांबा (९ ग्राम) होता है, जबकि कीमती धातुआें की मात्रा सिर्फ मिलीग्राम में होती है (करीब २५० मि.ग्रा. चांदी, २४ मि.ग्रा. सोना और ९ मि.ग्रा. पैलेडियम) लिथियम-आयन बैटरी में करीब ३.५ ग्राम कोबॉल्ट होता है ।
    ऐसा अनुमान है कि दुनिया में हर साल करीब ५०० लाख टन ई-वेस्ट पैदा होता है । यूएसए में इसकी मात्रा करीब ३० लाख टन, चीन में २५ लाख टन, युरोपीय संघ में ८०-९० लाख टन है । भारत करीब १० लाख टन ई-वेस्ट पैदा करता है । यह अनुमान है कि आने वाले वर्षोंा में ई-वेस्ट की मात्रा और भी बढ़ जाएगी ।
    ई-वेस्ट को अगर वातावरण में कोई प्रक्रियाकिए बिना छोड़ दिया जाए तो ई-वेस्ट में मौजूद कई विषैले पदार्थोंा से पर्यावरण को तथा मनुष्य के स्वास्थय को गंभीर क्षति पहुंच सकती है । ई-वेस्ट में पाए जाने वाले कुछ रसायनों के प्रभाव आगे बताए गए हैं ।
    ब्रोमिनेटेड ज्वाला प्रतिरोधक वातावरण में आसानी से घुल-मिल नहीं सकते और इनके दीर्घकालिक प्रभाव से याददाश्त एवं सीखने की काबिलियत पर बुरा असर पड़ता है । ब्रोमिनेटेड ज्वाला प्रतिरोधक के प्रभाव में अक्सर देखा गया है कि गर्भवती महिलाएं ऐसे बच्चें को जन्म देती हैं, जिन्हें व्यवहार सम्बंधी समस्याएं होती हैं, क्योंकि ये प्रतिरोधक एस्ट्रोजन एवं थाइरॉइड के क्रियाकलाप में बाधा डालते हैं ।
    सीसा लगभग सभी कंप्यूटर मॉनीटरोंऔर टेलीविजन सेटों में पाया जाता है । इससे बच्चें में मंदबुद्धि के लक्षण विकसित होने लगते हैं और मनुष्य की प्रजनन प्रणाली, तंत्रिका तंत्र और रक्त संचार तंत्र को गंभीर क्षति पहुंचती है ।
    कैडमियम लैपटॉप कंम्प्यूटर एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणोंमें की रिचार्जेबल बैटरियों में पाया जाता है । यह गुर्दे और हडि्डयों को नुकसान पहुंचा सकता है । कैडमियम पर्यावरण मेंसंचित हो सकता है तथा मनुष्यों के लिए यह अत्याधिक विषैला होता है, विशेषकर गुर्दे एवं हडि्डयों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है ।
    पारा सपाट स्क्रीन वाले मॉनिटरोंऔर टेलीविजन सेटों के लाइटिंग उपकरणों में पाया जाता है, जो तंत्रिका प्रणाली, गुर्दे और मस्तिष्क को नुकसान पहुंचा सकता है तथा मां के दूध द्वारा यह छोटे बच्चें के शरीर मेंभी पहुंच सकता है ।
    हेक्सावेलेंट क्रोमियम यौगिक एक जाना-माना कैंसर जनक है, जो ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों की धात्विक हाउसिंग बनाने में इस्तेमाल होता है ।
    प्रिंटेड सर्किट बोर्डोंा, कनेक्टरों, प्लास्टिक कवर और केबल के लिए पीवीसी केबलिंग का इस्तेमाल किया जाता है । जलाने या जमीन में गाड़ने पर पीवीसी वातावरण में डायऑक्सीजन छोड़ते हैं, जो मनुष्य की प्रजनन एवं रोग-प्रतिरोधक क्षमता पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं ।
    बहुमूल्य एवं खतरनाक पदार्थोंा की जटिल संरचना के कारण, ई-वेस्ट को संभालने में ऐसे विशिष्ट या उच्च् तकनीकी तरीकों की जरूरत होती है, जिनमें ज्यादा से ज्यादा सामग्री हासिल हो और मनुष्यों एवं पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचे । दुर्भाग्य से ऐसे विशिष्ट तरीके बहुत ही कम प्रयुक्त होते हैं और दुनिया का ज्यादातर ई-वेस्ट विकासशील देशों में पहुंचता है, जहां  उसमें से कीमती सामग्री निकालने या फिर से उपयोग हेतु उसके पुर्जे अलग-अलग करने के लिए अक्सर अपरिष्कृत तकनीकोंका इस्तेमाल किया जाता है । इन तकनीकों से असुरक्षित श्रमिकों ओर उनके आसपास के वातावरण को खतरा उत्पन्न हो जाता है ।
    इसके अलावा, सामग्री निकालने के लिहाज से भी ये तरीके पूरी तरह से कारगर नहींहोते, क्योंकि इन मामलों में आम तौश्र पर सोने और तांबे (जिनकी प्रािप्त् भी ठीक से नहींे हो पाती) की प्रािप्त् पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है, जबकि अन्य पदार्थ यूं ही छोड़ दिए जाते हैं, जो मनुष्य के स्वास्थय एवं पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं ।
    ई-वेस्ट निपटान के लिए घटाने, बारंबार उपयोग करने और पुन:चक्रण की मिली-जुली रणनीति अपनाई जानी चाहिए । वस्तुआेंके उत्तम चयन एवं रखरखाव द्वारा ई-वेस्ट की मात्रा को घटाया जा सकता     है । चालू इलेक्ट्रॉनिक उपकरणोंको दान करने या किसी को सस्ते में बेच देने के जरिए इनका पुन:उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है । जिन पुर्जोंा की मरम्मत नहीं की जा सकती, उन्हें पुन:चक्रित किया जाना   चाहिए । ई-वेस्ट उत्पादों को ठिकाने लगाने के लिए सिर्फ प्राधिकृत रिसाइक्लरोंको ही इसकी अनुमति होनी चाहिए ।
वानिकी जगत
पेड़-पौधों पर वायु प्रदूषण का प्रभाव
डॉ. विजयकुमार उपाध्याय

    आम धारणा है कि वायु-प्रदूषण से सिर्फ जन्तु ही प्रभावित होते हैं, वनस्पतियों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । लेकिन अध्ययनों से यह जानकारी प्राप्त् हुई है कि पेड़-पौधें भी वायु प्रदूषण से काफी प्रभावित होते हैं । सन् १९८० में बर्न हार्ड उलरिच नामक एक जर्मन वैज्ञानिक ने वायुमंडल में पहुंचने वाले मानव निर्मित चंद प्रदूषकों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया था । उलरिच विगत एक सदी से अम्ल वर्षा के कारण मिट्टी में आने वाले रासायनिक परिवर्तनों पर शोध कर रहे थे ।
    हालांकि अधिकांश वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि मिट्टी का ऑक्सीकरण मुख्य रूप से वर्षा जल में उपस्थित गंधकाम्ल तथा नाइट्रिक अम्ल की वजह से हुआ है, परन्तु कारण सिर्फ इतना नहीं है । 
      कुछ वैज्ञानिकोंका कहना है कि अम्ल वर्षा सीधे ही पत्तों को नुकसान पहुंचाती है । परन्तु इस विचार से अधिकांश वैज्ञानिक सहमत नहीं हैं । कुछ ऐसे प्रयोग भी किए गए जिनमेंपेड़-पौधों पर अम्लीय घोलों (जो प्राकृतिक अम्ल-वर्षा का प्रतिनिधित्व करते थे) का छिड़काव किया गया । इन प्रयोगों से पता चला कि यदि घोल की अम्लीयता बहुत अधिक न हो तो वनस्पतियों को अम्लीय वर्षा से कोई नुकसान नहीं होता । प्राय: रासायनिक परिवर्तन से प्रभावित मिट्टी वाले क्षेत्र में सामान्यत: जो अम्लीय वर्षा होती है वह साधारण है ।
    वर्षा को अम्लीय बनाने वाली प्रदूषक गैसों में शामिल हैं सल्फर डाईऑक्साइड तथा नाइट्रोजन के विभिन्न ऑक्साइड्स । अधिकांश परिस्थितियों में इंर्धनों को जलाने से ये ही दो प्रदूषक गैसें पैदा होती है । जलने के कारण तापमान बढ़ता है जिसके कारण नाइट्रोजन ऑक्साइड का परिमाण भी बढ़ जाता है । इंर्धनों के जलने के कारण नाइट्रोजन के जो ऑक्साइड्स पैदा होते है उनमें शामिल हैं नाइट्रिक ऑक्साइड तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड ।
    मानवीय क्रिया-कलापों के कारण उत्पन्न होने वाले नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स के परिमाण में क्रमिक वृद्धि ही पिछली सदी के उत्तरार्द्ध मेंवायु-प्रदूषण का मुख्य कारण रही है । यह वृद्धि उन क्षेत्रों में भी जारी है जहां प्रदूषण नियंत्रण के सम्बंध मेंकदम उठाए जाने के फलस्वरूप उत्सर्जित होने वाली सल्फर डाईऑक्साइड के परिमााण मेंकुछ कमी दर्ज की गई है । इसका नतीजा यह हुआ है कि विगत तीन दशकोंमें वायुमंडल में सल्फर डाईऑक्साइड के सापेक्ष नाइट्रोजन ऑक्साइड्स का परिमाण लगातार बढ़ता गया है । इसकी वजह से पेड़-पौधे अनेक प्रकार की बीमारियां से ग्रस्त हुए    हैं । नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स स्वयं विर्षले होने के अलावा वायुमंडल में ओजोन पैदा करने में भी योगदान देते हैं ।
    ओजोन गैस वायुमंडल का एक ऐसा प्रदूषक है जो पेड़-पौधों तथा अन्य सभी जीवधारियों के लिए विषैला तथा हानिकारक साबित हुआ है । ओजोन का उत्पादन तीव्र प्रकाश तथा ऊंचे तापमान द्वारा उत्प्रेरित होता है । यही कारण है कि ओजोन प्रदूषण ग्रीष्म ऋतु में काफी अधिक बढ़ जाता है ।
    अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि नाइट्रोजन के विभिन्न ऑक्साइड्स किस प्रकार वायुमण्डल से निकलकर पेड़-पौधों में प्रवेश कर पाने में सफल होते है । अध्ययनों से पता चला है कि पेड-पौधों में नाइट्रोजन ऑक्साइड्स का प्रवेश दो प्रकार से होता है । नाइट्रोजन ऑक्साइड्स का कुछ अंश वर्षा जल मेंघुलकर पहले मिट्टी में प्रवेश करता है, तथा वहां से फिर यह पेड़-पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है । इसके अलावा इसका कुछ अंश वायु के साथ मिलकर सीधे ही पेड़-पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है ।
    वायुमण्डल के एक अन्य प्रदूषक ओजोन द्वारा पेड़-पौधों पर पड़ने वाले प्रभाव के संबंध में अभी वैज्ञानिकों के पास ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है । परन्तु जड़ी-बूटियों को पहुंचने वाले नुकसान के संबंध में हाल ही में कुछ प्रमाण एकत्र किए गए हैं । ब्रिटेन में लंदन स्थित इम्पीरियल कॉलेज के डॉ. नीगेल बेल तथा उनके सहयोगियों द्वारा किए गए अध्ययनों एवं अनुसंधानों से जानकारी प्राप्त् हुई है कि यदि वायुमण्डल के प्रति एक अरब अणुआें में ओजोन का परिणाम एक सौ अणु से अधिक हो जाए तो पेड़-पौधों पर इसका हानिकारक प्रभाव पड़ता है और वे क्षतिग्रस्त होने लगते हैं । वैसे सामान्य तौर पर वायुमण्डल के प्रति एक अरब अणुआें में ओजोन के ४० अणु ही पाए जाते हैं । वायुमण्डल में ओजोन की इतनी मात्रा वनस्पतियों के लिए  हानिकारक नहीं है ।
    हालांकि वायुमण्डल में ओजोन प्रदूषण पेड़-पौधों की क्षति के लिए  जिम्मेदार पाया गया है, परन्तु अभी तक कोई भी ऐसा वैज्ञानिक प्रयोग विकसित नहीं किया जा सकता है जिसके द्वारा क्षतिग्रस्त पौधों की जांच कर निश्चित तौर पर यह बताया जा सके कि यह क्षति ओजोन प्रदूषण के कारण हुई है । ओजोन प्रदूषण को मापना या निर्धारित करना बहुत ही कठिन काम है क्योंकि  ओजोन शीघ्र ही विघटित होकर ऑक्सीजन में परिवर्तित हो जाती है तथा पौधों में अपनी उपस्थिति का कोई भी संकेत नहीं छोड़ती है ।
    पेड़-पौधों के सामान्य विकास में प्रकाश संश्लेषण विधि द्वारा पत्तों में पैदा होने वाले पोषक पदार्थ (शर्करा इत्यादि) पेड़-पौधों के अन्य भागोंमें वितरित होते रहते हैं । इस प्रकार का वितरण, जड़, धड़ तथा अन्य अंगों में उनकी आवश्यकता के अनुसार लगातार होता रहता है । कुछ समय पूर्व कुछ वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों एवं शोधों से जानकारी मिली है कि वायुमण्डल को प्रदूषित करने वाले सल्फर डाईऑक्साइड तथा ओजोन जैसे पदार्थ पौधों में शर्करा वितरण की क्रिया में व्यवधान पैदा करते हैं । इसके कारण पौधों के जमीन के नीचे वाले भाग (जड़ इत्यादि) में विकास की प्रक्रिया अवरूद्ध हो जाती है । इसके विपरीत पौधे के जमीन के ऊपर स्थित भाग (तना, पत्ता, फूल, फल इत्यादि) मेंविकास की गति तेज हो जाती है । जड़ के विकास की प्रक्रिया अवरूद्ध हो जाने के कारण पौधों को जमीन से आवश्यक मात्रा में पोषक पदार्थ उपलब्ध नहीं हो पाते । इसी वजह से पौधे धीरे-धीरे कमजोर होने लगते हैं, और अन्त में बहुत कम आयु में ही वे पूरी तरह सूख जाते हैं ।
    संयुक्त राज्य अमरीका के कृषि एवं खाद्य विभाग में कीट प्रबंधन विशेषज्ञ हीथर ग्रिफिथ नामक वैज्ञानिक द्वारा आेंटारियो क्षेत्र में फसलों पर प्रदूषित वायुमण्डल के प्रभावों का अध्ययन किया गया । इस अध्ययन से पता चला है कि प्रदूषकों की उच्च् सांद्रता से युक्त वायु के सम्पर्क मेंरहने पर फसलों को कई प्रकार का नुकसान हो सकता है जिनमें शामिल हैं पत्तों पर धब्बे पड़ना, पत्तों का पीला होना, पौधों का विकास बाधित होना, उपज में कमी आना तथा समय से पूर्व पौधों का सूख जाना इत्यादि । फसलों को नुकसान सिर्फ वायुमण्डल में प्रदूषकों की मात्रा पर ही निर्भर नहीं होता बल्कि इस बात पर भी निर्भर करता है कि पौधे कितनी अवधि तक प्रदूषकों के सम्पर्क में रहते हैं तथा वे विकास की किस अवस्था में हैं । हीथर ग्रिफिथ के अनुसार  फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले प्रदूषकों में सर्वप्रमुख है ओजोन । पौधों पर इसका प्रभाव सर्वप्रथम सन् १९४४ में अमरीका के लॉस एंजेल्स में देखा गया । ऐसे अन्य प्रदूषकों में शामिल हैं सल्फर डाईऑक्साइड, फ्लोराइइ्स, अमोनिया तथा विभिन्न प्रकार के धूल कण ।
ज्ञान विज्ञान
कीड़े खाओ, धरती बचाओ

    राष्ट्र संघ के खाद्य व कृषि आयोग ने लोगोंको सलाह दी है कि यदि वे अपनी धरती को बचाना चाहते हैं, तो उन्हें झिंगुर बिरयानी खाना शुरू कर देना चाहिए । यह सलाह हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट एडिबल इंसेक्ट्स :फ्रॉस्पेक्टस फॉर फूड एंड फीड सिक्यूरिटी में दी गई है ।
    रिपोर्ट के शीर्षक का हिन्दी तर्जुमा होगा - खाद्य कीट : खाद्यान्न व पशु आहार सुरक्षा की भावी संभावनाएं । रिपोर्ट में कहा गया है कि कीट हमारे भोजन में काफी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं । इनमें प्रोटीन का काफी मात्रा होती है और इनका उत्पादन सस्ता होता है । इसके अलावा, कीटों को खाने से पर्यावरण संबंधी लाभ भी मिलेंगे । 
    संगठन का कहना है कि सामान्य मांस खाना पोषण प्राप्त् करने का कार्यक्षम तरीका नहीं है क्योंकि इन पशुआें को आप जो दाना खिलाएंगे वह फसलों से प्राप्त् होगा । अब १ किलोग्राम गौमांस पैदा करने के लिए १० किलोग्राम दाने की जरूरत होती है । यानी फसलों से प्राप्त् उत्पादन की बरबादी हो रही है । इसके विपरीत यदि आप ०१ किलोग्राम झिंगुर का उत्पादन करना चाहें तो वह मात्र १.७ किलोग्राम पशु आहार लेगा । है ना फायदे का सौदा ? इसका मतलब यह भी है कि सामान्य मांस खाने के लिए काफी कृषि भूमि की जरूरत होती   है और खाद, कीटनाशक वगैरह का उपयोग होता   है ।
    उपरोक्त आधार पर खाद्य व कृषि संगठन का निष्कर्ष है कि झिंगुर सामान्य मांस के मुकाबले १२ गुना बेहतर साबित होंगे । यदि हम बराबर मात्रा में झिंगुर और कोई अन्य मांस प्राप्त् करना चाहें तो झिंगुर के उत्पादन में कही कम जमीन लगेगी और रसायनों का उपयोग भी कम होगा । मतलब प्रदूषण भी कम होगा ।
    मगर खाद्य व कृषि संगठन जैसी संस्थाआें के साथ दिक्कत यह है कि वे भोजन को एक तकनीकी मसला भर मानते हैं । पर्यावरण वगैरह तो ठीक है मगर कितने लोग हैं, जो अपना सामान्य भोजन छोड़कर धरती को बचाने की खातिर झिंगुर और टिड्डे और तिलचट्टे खाने को तैयार होंगे । फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता कि सिर्फ पर्यावरण का नाम जपकर कीटों को थाली में पहुंचाया जा सकेगा ।

जैव विविधता को बचाने की लागत

    हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि दुनिया में जोखिमग्रस्त प्रजातियों को बचाने की लागत दरसअल प्रकृति से मिलने वाले लाभों से कहीं कम है ।    
    साइन्स पत्रिका में प्रकाशित इस शोध पत्र में अनुमान लगाया गया है कि दुनिया की सारी जोखिम-ग्रस्त प्रजातियों को बचाने के लिए प्रतिवर्ष लगभग ४ अरब डॉलर खर्च करना होंगे । इसके अलावा उन इलाकों को सुरक्षित करना होगा । जहां ये प्रजातियां वास करती हैं । शोधकर्ताआें का अनुमान है कि इस काम में प्रतिवर्ष ७६ अरब डॉलर के निवेश की जरूरत होगी । 
     यह अध्ययन यू.के. स्थित बर्डलाइफ इंटरनेशनल नामक संस्था में कार्यरत संरक्षण वैज्ञानिक स्टुअर्ट वुचार्ट ने अपने साथियों के साथ मिलकर व्यक्त किया है । दरअसल यह दल समझने का प्रयास कर रहा था कि राष्ट्रों ने जिस जैव विविधता संधि पर हस्ताक्षर किए हैं, उसके लक्ष्यों की प्रािप्त् की लागत क्या   होगी । जैसे एक लक्ष्य यह है कि जोखिम-ग्रस्त प्रजातियों को उनकी स्थिति से एक स्तर ऊपर लाना । इसके आंकड़े भी गणना के लिए उन्होनें संरक्षण विशेषज्ञों से पूछा कि २११ जोखिमग्रस्त पक्षी प्रजातियों के संरक्षण का खर्च क्या होगा । विशेषज्ञोंके जवाबों के आधार पर गणना की गई तो पता चला कि दुनिया की कुल १११५ जोखिमग्रस्त पक्षी प्रजातियोंके संरक्षण हेतु ८७.५ करोड़ से १.२३ अरब डॉलर प्रति वर्ष तक खर्च होंगे । यदि इसी राशि के आधार पर समस्त जोखिमग्रस्त प्रजातियोंके लिए गणना की जाए तो आंकड़ा ३.४१ अरब से ४.७६ अरब डॉलर प्रति वर्ष आता है ।
    जैव विविधता संधि का एक और लक्ष्य पृथ्वी का १७ प्रतिशत भूमि सतह का संरक्षण है । इसकी गणना करना मुश्किल है मगर बुचार्ट व उनके दल का अनुमान है कि इस पर प्रतिवर्ष ७६.१ अरब डॉलर खर्च करने होंगे ।
    ये राशियां बहुत बड़ी-बड़ी नजर आती है मगर राष्ट्रों के बजट के संदर्भ मेंदेखें तो ये कुछ नहीं है । इसके अलावा बुचार्ट का कहना है कि ये राशियां उन सेवाआें की कीमत के सामने तुच्छ हैंजो प्रकृति हमेंप्रदान करती है । जैसे हमारे फसलों का परागण या हमारे द्वारा उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड का अवशोषण । इस तरह की इकोसिस्टम सेवाआें की कीमत २० से ६० खरब डॉलर के बीच आंकी गई है । तो दरअसल प्रकृति संरक्षण मेंखर्च को खर्च ने मानकर निवेश माना जाना चाहिए ।

सिर्फ मनुष्य ही नकलची नहीं होते

    यह तो जानी-मानी बात है कि मनुष्यों में आदतें एक-दूसरे की नकल करके सीखी जाती हैं और धीरे-धीरे साथ रहते-रहते एक संस्कृतिविकसित होती है । सवाल है कि क्या अन्य प्राणियों में भी ऐसा होता है, खास तौर से समूह में रहने वाले प्राणियों में ? हाल ही में प्रकाशित शोध पत्रों का निष्कर्ष है कि कम से कम बंदरों और व्हेलों में ऐसा होता है ।
    यूके सेन्ट एण्ड्रयूज विश्वविद्यालय की प्रायमेट विशेषज्ञ एरिका नानडीवॉल और उनके साथियों ने जंगल में रहने वाले वर्वेट बंदरों के दो समूहों का अध्ययन  किया । उन्होनें इन दो समूहों के बंदरों को प्रशिक्षित किया कि वे एक खास रंग (गुलाबी या नीले) में रंगे मक्का के दाने ही खाएं और दूसरे रंग के दानोंसे परहेज करें । इसके बाद शोधकर्ता दल ने यह देखने के लिए इंतजार किया कि जब इन समूहोंमें नए सदस्य आएंगे तो क्या होगा । नए सदस्य यानी प्रवासी नर अथवा नवजात बंदर शिशु । 


     देखा गया कि उक्त दोनों किस्म के नवागंतुक सदस्य उस समूह की सामाजिक परिपाटी का पालन करते हैं । शिशु बंदर उसी रंग के दाने खाते थे जो उनकी मां खाती थी । जो दस वयस्क बंदर अन्य समूहों (जिनमें रंग की वरीयता भिन्न  थी) से उस समूह में आए थे, उनमें से सात ने उस समूह की रंग संस्कृतिअपना ली । यानी सीखने की प्रक्रिया कर-करके नहींहोती बल्कि सामाजिक रूप से होती है । यह अध्ययन अपने किस्म का अनोखा अध्ययन है ? इसमें प्राकृतिक स्थिति में इन चीजों को देखा गया है ।
    दूसरा अध्ययन एक छात्र जेनी एलेन ने किया । एलेन के नेतृत्व में इस दल ने कूबड़ वाली व्हेलों के व्यवहार के २७ वर्षोके आंकड़ों का उपयोग किया ।
    कूबड़ वाले व्हेलों की विशेषता है कि वे भोजन पाने के लिए मछलियों के किसी झुंड के नीचे से बुलबुले छोड़ती हैं । मछलियां इन बुलबुलों में फंसने से बचने के चक्कर में एक साथ आ जाती है । तब व्हेल उस पूरे झंुड को निगल जाती है । मगर १९८० में कुछ शोधकर्ताआें ने एक नई बात देखी एक कूबड़वाली व्हेल ने बुलबुले वाली करामात करने से पहले पानी की सतह पर अपनी पूंछ के फावड़े जैसे भाग (फ्लूक) से छपाका मारा । उस साल १५० भक्षण घटनाआेंमें ऐसा एक ही बार हुआ । मगर २००७ तक उस स्थान (मैन की खाड़ी) पर ३७ प्रतिशत कूबड़वाली व्हेल इस तकनीक का उपयोग करती देखी गई । यह इतनी प्रचलित तकनीक बन चुकी थी कि वैज्ञानिकों ने इसे एक नाम भी दे दिया - लॉबटेल भक्षण विधि ।
    एलेन और उनके साथी यह जानना चाहते थे कि लॉबटेल विधि इतनी प्रचलित कैसे हो गई । इसके लिए उन्होनेंग्लाउसेस्टर के व्हेल सेंटर ऑफ न्यू  इंग्लैण्ड द्वारा १९८०-२००७ के बीच एकत्रित आंकड़े देखे । विश्लेषण के पीछे मान्यता यह थी कि जो सदस्य ज्यादा समय साथ-साथ बिताते हैं, वे एक-दूसरे के व्यवहार को ज्यादा प्रभावित करते होंगे ।
कविता
यह कैसा सृजन ?
डॉ.ए. कीर्तिवर्द्धन

    आज यह कैसा सृजन हो रहा है      ,
    अपने ही हाथों पतन हो रहा है ।
    काट कर वन - वृक्ष, पेड-पौधे सारे,
    कंकरीट का उपवन सघन हो रहा है ।
    आती नही हवायें पूरब - पश्चिम से अब,
    ए.सी. की हवा का चलन हो रहा है ।
    भीतर तो ठण्डा, मगर बाहर गरम है,
    आज हर कूंचा, अगन हो रहा है ।
    देखकर हालात अपने गुलशन के
    खून के आँसू वतन रो रहा है ।
    दिखते नही पशु - पक्षी, तितली आैं मौरें
    सूना - सूना सा चमन अब हो रहा है ।
    है यहाँ चिन्ता किसे, कल के जहाँ की,
    आज के सुख में, कीर्ति मगन हो रहा है ।
    करते हैं बातें पर्यावरण की, जो दफ्तर में बैठकर,
    विकास का ठेका अर्पण उन्हें ही हो रहा है ।    
पर्यावरण समाचार
देवभूमि त्रासदी दशकों की लापरवाही का नतीजा
    देवभूमि उत्तराखंड में हाल ही में आयी आपदा की सही वजहों का पता लगाया जाना अभी बाकी है, लेकिन पर्यावरणविदों ने इसे दशकों से प्राकृतिक संसाधनों के साथ किये जा रहे खिलवाड़ का परिणाम और मानव निर्मित संकट करार दिया है । कुछ विशेषज्ञोंका कहना है कि वैश्विक तापमान में अचानक भारी बदलाव के कारण ऐसे संकट आते हैं, लेकिन पर्यावरणविद इस बात पर एकमत हैं कि हिमालय की सुकुमार  पारिस्थितिकी से छेड़छाड़ की वजह से इस क्षेत्र में प्राकृतिक आपदायें आ रही है ।    
    पर्यावरणविदों का कहना है कि हिमालय दुनिया का सबसे तरूण पर्वत है, जहां कठोर चट्टानों पर मिट्टी जमा है । इसके कारण वहां भूक्षरण, भूस्खलन और भूकम्पीय हलचलें होने का अंदेशा लगातार बना रहता है । इस क्षेत्र में लंबे अर्से से जल, जंगल और खनिजों का बेहिसाब दोहन होता रहा है । नये पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के गठन के बाद विभिन्न सरकारों ने वहां की पारिस्थितिकी और पर्यावरण की परवाह किये बिना विपरीत गतिविधियां जारी रखी । इससे हिमालय को बहुत क्षति पहुंच है । अनियोजित एवं अवैज्ञानिक निर्माण और बांधों की बहुलता से इस क्षेत्र की नाजुक पारिस्थितिकी को भारी नुकसान पहुंचा है ।
    उत्तराखंड में जल विघुत परियोजनाआें के अंधाधुंध निर्माण की वजह से मामूली अंसतुलन से भी और जल विद्युत परियोजनाआें से हिमालय के ऊपरी हिस्से पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ता है । हिमालय की सतह बड़ी नाजुक है, जो आसानी से अस्थिर हो सकती है । जल विघुत परियोजनाआें के लिए निर्मित किये गये जलाशय पर्वत के निचले हिस्से के संतुलन को गड़बड़ा सकते हैं और यह गंगा के प्रवाह मेंदिखाई भी दे रहा है । वर्तमान में १० हजार मेगावाट विद्युत उत्पादन के लिए गंगा पर करीब ७० जल विघुत परियोजनाएं निर्मित हो गयी हैं या प्रस्तावित है । इन जल विद्युत परियोजनाआें की श्रृंखला से गंगा एक दिन या तो सुरंग में परिवर्तित हो जायेगी या वह एक जलाशय में तब्दील हो जायेगी । इससे गंगा के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो रहा है ।