मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

३ प्रकाश पर्व पर विशेष

रोशनी के नये आयाम
सेव्वी सौम्य मिश्रा
सी.एफ.एल. के बाद एल.ई.डी. तकनीक के आने से रोशनी को नए आयाम मिलने की उम्मीद है । इससे ऊर्जा संकट से गुजर रहे भारत को काफी राहत मिलने की उम्मीद है । परंतु इसका मूल्य अभी इसकी लोकप्रियता में बड़ी रूकावट है । वे लगभग ५० वर्षो से हमारे आसपास मौजूद हैं । पहले ये विभिन्न रंगों - लाल, नारंगी, हरा, पीला, नीला - में मिलते थे । अब यह पूर्णत: सफेद रूप में है । इन्हें प्रकाश उत्सर्जक यंत्र (लाईट इमिटिंग डायोड्स - एल.ई.डी.) के रूप में जाना जाता हैं, जिन्होंने काफी लम्बा सफर तय किया है । किसी भी इलेक्ट्रोनिक उपकरण का बटन दबाते ही ये अपनी चमक दिखाते हैं । हमारे देश में भी इनका उपयोग बिजली की बचत के विकल्प के तौर पर घरों, सड़कों को रोशन करने के लिए सीमित मात्रा में होने लगा हैं । इस वर्ष के प्रारंभ में दिल्ली में कुछ स्थानों पर १५० वॉट के सोलर वेपर लेम्प को ५० वॉट एलईडी से बदल दिया गया । नई दिल्ली नगर निगम के मुख्य अभियंता के अनुसार इसे देखरेख की आवश्यकता नहीं पड़ती । वातावरण की नमी और तापमान का इस पर कोई असर नहीं पड़ता । इन तकनीक से ऊर्जा की बचत होगी परंतु व्यापक स्तर पर उपयोग करने के पूर्व नगर निगम सोच विचार कर रहा है ा बैगलुरु मे एईडी का सर्वप्रथम प्रयोग सन् २००१ मे ट्रेफिक लाईट संकेतक मे किया गया था । अब दिल्ली इस मामले मे बैगलुरू का अनुसरण कर रहा है । हैदराबाद और चैन्नई जैसे महानगरो में भी इनका प्रयोग किया जा रहा है । इन दिनो एलईडी का इस्तेमाल कारपोरेट घरानों, रेल्वे स्टेशनों, शोरूम और विरासत के स्थलों पर बहुतायत में दिखाई देता है । एलईडी का सीधा पड़ने वाला प्रकाश संग्रहालयों, दुकानों और स्मारकों के अलावा हवाई बाधा चेतावनी तथा पानी के अंदर रोशनी को उभारने में सहायक होता है । अपनी ऊर्जा कार्यक्षमता की बदौलत सफेद एलईडी का बाजार पिछले पांच वर्षोंा में अत्यंत लोकप्रिय हो गया है । इसके चलते निकट भविष्य में एलईडी, सीएफएल का स्थान ले लेंगें क्योंकि ५ वॉट का एलईडी १५ वॉट सीएफएल केे बराबर रोशनी देता है जिससे बिजली के बिल में प्रतिवर्ष ७७ रूपए की बचत होगी । दूसरी ओर जहां सीएफएल का जीवन २५० दिन है और साधारण बल्बों का ४४ दिन वहीं एलईडी का जीवन इतना है कि इसे लगाकर भूला जा सकता है । भारत में पिछले वर्ष लगभग ४० लाख एलईडी आयात किए गए है ं। वर्तमान में इसका बाजार १२० करोड़ रूपए का है जो २० प्रतिशत प्रतिवर्ष की रफ्तार से बढ़ रहा है । जबकि इसका विश्वव्यापी बाजार करीब ४.८ अरब डॉलर के बराबर का है। पिछले तीन वर्षोंा में वाहनों में इसके उपयोग में २५ प्रतिशत की वृदि्घ हुई है अभी तक इनका इस्तेमाल वाहनों के पीछे की बत्ती धुंधरोधी व डेश बोर्ड की रोशनी हेतु किया जा रहा है । अब वाहन की मुख्य हेडलाईट की बारी है । वाहनों के लिए इनका छोटा होना ही सबसे बड़ा गुण है । जहां तक इनके उपयोग का सवाल है एलईडी रोशनी को कम किया जा सकता है । इसमें धक्का सहन करने की क्षमता है। यातायात संकेतक के रूप में ये सर्वश्रेष्ठ है। इतना ही नहंी इनसे सीएफएल जितना भी ऊर्जाक्षरण नहीं होता। रेडिएशन न छोड़ने के कारण ये अत्यधिक सुरक्षित भी हैं । साथ ही इसमें पारे जैसी घातक धातु भी नहीं होने से इन्हें नष्ट करने की कोई समस्या नहीं है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अपशिष्ट निपटान के अभाव में सीएफएल आधारित रोशनी की व्यवस्था शीघ्र ही समाप्त् हो जाएगी । आगामी तीन वर्षोंा में एलईडी की कीमतों में इतनी कमी आ जाएगी कि ये सीएफएल का स्थान ले सकेंगी । भारत सरकार के उर्जा विभाग के अंतर्गत कार्यरत स्वतंत्र नियामक (बी) एलईडी को भविष्य की रोशनी बता रहे हैं। एक ऊर्जा अर्थशास्त्री संदीप गर्ग के अनुसार ऊर्जा कार्यक्षमता के मानकों का स्तर बढ़ाने के लिए तकनीक के सुधार पर अत्यंत जोर देना आवश्यक है । एलईडी को अपनाने में एक बड़ा रोड़ा इसका मूल्य है । १० रूपए में मिलने वाले सादे बल्ब का स्थान १०० रूपए वाली सीएफएल ने ले लिया है । एलईडी की यही फिटिंग ८०० रूपए की पड़ेगी । पिछले साल इसकी कीमत १२०० रूपए थी । निर्माताआें का दावा है कि इसका अधिक मूल्य की समस्या का निराकरण बचत से हो जाता है । परंतु वर्तमान मूल्य पर उनकी लागत १० साल में वापस हो पाएगी । जबकि उपभोक्ता यह पूर्ति अधिकतम दो वर्ष में चाहते है । अतएव आवश्यक है कि एलईडी के मूल्य को घटाकर ३०० रूपए तक लाया जाए । एलईडी को प्रोत्साहित करने हेतु निर्माता सरकार से सब्सिडी की उम्मीद लगा रहे हैं। उनका कहना है कि सरकार इस पर सौर फोटो वोल्टिक पेनल पर लगने वाली दर से करारोपण करे । वर्तमान में एलईडी निर्माताआें का सीआईआई या फिक्की में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है । अतएव इन्हें स्वयं ही भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) के लिए मार्गदर्शिका तैयार करना होगी । मानक स्थापित होने से सरकार को सब्सिडी के निर्धारण में सहायता मिलेगी । वैसे बीआईएस ने एलईडी को लेकर बरती जाने वाली सुरक्षा, कार्यक्षमता और तकनीकी विवरणों के आकलन को लेकर एक समिति का गठन किया है एलईडी का मूल्य घटाने के लिए इसके निर्माण में वृद्धि आवश्यक है । एलईडी का निर्माण तीन चरणों में होता है - चिप निर्माण , पैकेजिंग (चिप को इलेक्ट्रॉनिक अवयवों से जोड़ना) और रोशनी के लिए फिटिंग लगाना । भारत एलईडी का आयात पैकेजिंग या रोशनी के लिए तैयार वाली स्थिति में करता है । अगर भारत में पैकेजिंग इकाईयां स्थापित हो जाती है तो इसके मूल्य में ३० प्रतिशत की कमी आ सकती है । एलईडी को लोकप्रिय बनाने में एक बड़ी रूकावट इनसे निकलने वाली गर्मी का प्रबंधन है । अगर इसमें गर्मी को व्यवस्थित नहंी किया जाता है जो रोशनी कम होती जाएगी और यंत्र का जीवन भी कम हो जाएगा । अतएव इसका उत्पादन व्यापक स्तर पर करने से पूर्व उच्च्स्तरीय मानक स्थापित करना आवश्यक है । बी ने योजना बनाई है कि १६ राज्यों में एक -एक किलोमीर की सड़कों को एलईडी रोशनी से जगमगाया जाए । इसी के साथ प्रत्येक राज्य के एक गांव को भी एलईडी की रोशनी से झिलमिलाते के प्रस्ताव पर स्वतंत्र नियामक गंभीरता से विचार कर रहा है । इससे राज्यों में एलईडी की मांग में वृद्धि हेागी । ***वेलेंटाइन डे पर बाघ दिवस मनाएगा भारत पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने घोषणा की है कि बाघों के संरक्षण के लिहाज से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित करने के लिए भारत अगले साल वेलेंटाइन डे पर बाघ दिवस की शुरूआत करेगा । इसकी शुरूआत जिम कार्बेट नेशनलपार्क से की जाएगी । श्रीरमेश ने कहा कि भारत ने १४ फरवरी २०१० से कॉरबेट में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाघ दिवस शुरू करने का प्रस्ताव रखा है , इसका समापन नवंबर २०१० में रणथंभोर नेशनल पार्क में होगा । श्री रमेश ने संवाददाताआें से कहा - ये दोनों आयोजन दर्शाएंगें कि भारत बाघ संरक्षण के क्षेत्र में क्या कर रहा है । गौरतलब है कि रूस सितम्बर २०१० में विश्व बाघ शिखरवार्ता का आयोजन करने जा रहा है ।

४ विशेष लेख

मानव , जनसंख्या और पर्यावरण
डॅा. रामनिवास यादव
ऐसा माना जाता है कि ४० लाख वर्ष पूर्व जैवमंण्डल में एक ऐसे जीव का विकास हुआ जिसने जलमंडल और वायुमंडल पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया है । वह जीव मानव है । पहले मानव एक शिकारी से सग्रंहक बना और फिर कृषक बना । खेती करने के बाद मानव एक ही स्थान पर स्थायी रूप से रहने लगा । मानव के सांस्कृतिक और तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ। इस क्रान्ति से संसार की अर्थव्यवस्था मेंएक नए युग का प्रारम्भ हुआ। आज हम ओद्योगिक क्रान्ति के दौर में हैं और अपनी पूर्व पीढ़ियों की बजाय कई गुणा अधिक प्राकृतिेक संसाधनों का दोहन करके पर्यावरण में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं । हमने जिस गति से आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास किया है उससे अधिक गति से मानव जनसंख्या मेंवृद्धि हुई है । बढ़ती हुई पर्यावरण आश्रित जनसंख्या ने वैश्विक संसाधनों पर बढ़ते बोझ के कारण विश्व समाज के लिए हमें एक और पर्यावरणीय संसाधनों के दोहन पर नियन्त्रण करना होगा दूसरी और तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को नियंत्रित करना होगा । विभिन्न राष्ट्रों के मध्य जनंसख्या वृद्धि में भिन्नता जनंसख्या वृद्धि- किसी भौगोलिक क्षेत्र की जनसंख्या के आकार में एक निश्चित समय में होने वाले परिवर्तन को जनसंख्या वृद्धि कहा जाता है। जनंसख्या वृद्धि मापने की दो विधिया है - पहली विधि प्रतिस्थापन प्रक्रिया विधि और दुसरी विधि अवलोकित परिवर्तन विधि है । प्रतिस्थापन प्रक्रिया विधि में मृत्यु का प्रतिस्थापन जन्म से माना जाता है । अर्थात् जनंसख्या वृद्धिजन्म दर व मृत्यु दर के शुद्ध अन्तर के आधार पर आकलित की जाती है जैसे जनसंख्या = प्राकृतिक वृद्धि(जन्म दर -मृत्यु दर)/मध्य वर्षीय जनसंख्या द १०० अवलोकित परिवर्तन विधि में किसी प्रदेश में दी गई जनगणना केदो क्रमिक आकंड़ों का प्रयोग किया जाता है। इसका सूत्र है -जनंसख्या वृ़़द्धि = झ१ -झ२ झ२ =द्वितीय जनगणना में वृद्धिझ१ = प्रथम जनगणना में वृद्धि संसार में जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है जो निम्न तालिका से स्पष्ट है - वर्ष जनसंख्या १६५० ई० ५० करोड़ १८५० ई० १०० करोड़ृ १९३० ई० २०० करोड़ १९६२ ई० ३०० करोड़ १९७५ ई० ४०६ करोड़ १९८७ ई० ५०० करोड़ृ १९९९ ई० ६०० करोड़ २००१ ई० ६१३ करोड़ २३०० ई० ९०० करोड़
स्त्रोत: थिश्रीव ऊर्शींशश्रििााशिीं ठशििीीं २००२ उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि संसार की जनंसख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है । विश्व जनसंख्या में यह वृद्धि अनेक प्रकार की सामाजिक , आर्थिक व पर्यावरणीय समस्याआें में वृद्धिकर मानव जीवन की गुणवता को कम कर रही है । जनंसख्या वृद्धि में प्रादेशिक भिन्नता: जनंसख्या वृद्धि संसार के भिन्न - भिन्न प्रदेशों में एक समान नहीं है । वरन् इसमें स्थानिक भिन्नता रही है । जनसंख्या वृद्धि में में भिन्नता विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों के मध्य स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है । निम्न तालिका में प्रादेशिक जनसंख्या वृद्धि दर में भिन्नता को दिखाया गया है । तालिका - विभिन्न महाद्वीपोंं की जनसंख्या वृद्धि दर -२००१महाद्वीप जन्मदर मृत्युदर प्राकृतिक कुल प्रतिहजार प्रतिहजार वृद्धि दर उत्पादक दर एशिया २२ ८ १.४ २.७अफ्रीका ३८ १४ २.४ ५.२ यूरोप १० ११ -०.१ १.४उत्तरी १४ ९ ०.५ २.० अमेरिकादक्षिणी २३ ७ १.६ २.६ अमेरिकाओशोनिया १८ ७ १.१ २.५विश्व २२ ९ १.३ २.८डिीर्लीश: िििर्श्रीरींिि ठशषशीशलिश र्इीीशर्री थरीहळसिींिि,२००१ उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि विभिन्न महाद्वीपों की जनंसख्या वृद्धि दर भिन्न-भिन्न रही है । इस कारण महाद्वीपों में जनांकिकीय, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक कारकों की प्रकृति में भिन्नता का होना है जो जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करते हैं । अफ्रीका महाद्वीप में उच्च् जन्म दर ३८ व्यक्ति प्रति हजार होने के कारण प्राकृतिक वृद्धि दर २.४ है जो विश्व में सार्वधिक है। दूसरे स्थान पर दक्षिणी अमेरिका जहां वृद्धि दर १.६ है तथा तीसरे स्थान पर एशिया महाद्वीपों के अनुसार विश्व में जनंसख्या वृद्धि का तुलनात्मक विवरण निम्नलिखित है - एशिया महाद्वीप - १. एशिया महाद्वीप मानव जाति के उद्भव एवं वैभव का केन्द्र रहा है । यहां आरम्भ से ही जनंसख्या अधिक रही है । सन् १६५० में एशिया की जनंसख्या ३५ करोड़ थी जो कि विश्व की कुल जनंसख्या की ६०प्रतिशत थी । सन् १८०० में बढ़कर ५९ करोड़ १९०० में ९१ करोड़,१९५० में १३७ करोड़ तथा २००१ में बढ़कर ३७२ करोड़ हो गई अत: सन् १६५० के बाद से जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई है । एशिया के देशों में जन्म दर का अधिक होना, मृत्यु दर पर नियंत्रण,खाद्यान उत्पादन में वृद्धि कृषि का मशीनीकरण , रोजगार के साधनों में वृद्धि तथा नगरीकरण की बढ़ती गति ने जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न कर दी ।२.यूरोप महाद्वीप - यूरोप महाद्वीप में जनंसख्या वृद्धि दर एशिया महाद्वीप से कम रही । सन् १७५० में यूरोप की जनसंख्या १४ करोड़ थी, १८५० में २७ करोड़,१९५० में ३९ करोड़ तथा २००१ में ५८ करोड़ हो गई । यूरोपिय राष्ट्रों ने विकसित अर्थव्यवस्था में उच्च् जीवन स्तर बनाए रखने की संकल्पना बनाई । फलस्वरूप सन् १९०० से १९५० के मध्य जनसंख्या में गिरावट आई तथा १९५० से २००१ के दौरान अनेक देशों में ऋणात्मक वृदि्घ दर अंकित की गई । वर्तमान में यूके्रन की वृदि्घ दर ७ ०.७, रूस की -०.७ ,हंगरी की -०.४ तथा लाटविया की वृदि्घ दर -०.६ है।३. अफ्रीका महाद्वीप - अफ्रीका महाद्वीप का अधिकतर भाग शुष्क मरूस्थलों, गहन वनों, सवाना घास, पठारी तथा पहाड़ी क्षेत्र से युक्त होने के कारण सघन मानव आवास के अनुकूल नहीं रहा है । १६५० में अफ्रीका की जनसंख्या १० करोड़ थी जबकि सन् १८०० मंे घटकर ९ करोड़ रह गई । अनुपयुक्त जलवायु, प्राकृतिक आपदाएं एवं महामारियां तथा उच्च् मृत्यु दर जनसंख्या में गिरावट के प्रमुख कारण थे । यहंा सन् १६५० से १९०० तक २५० वर्षोंा में केवल ३ करोड़ जनसंख्या ही बढ़ सकी । २० वीं शताब्दी में धीरे- धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी । कृषि उत्पादन बढ़ने तथा दूसरे महाद्वीपों से प्रवास करके आने वाले लोगों के कारण उस महाद्वीप की जनसंख्या में वृदि्घ हुई । सन् १९५० में १२ करोड़ १९९० में ६४ करोड़ तथा सन् २००१ में बढ़कर ८१ करोड़ हो गई । पूर्वी एवं मध्य अफ्रीका के देशों में जनसंख्या वृदि्घ दर सर्वाधिक है तथा जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है ।४. उत्तरी अमेरिका - सन् १६५० में उत्तरी अमेरिका महाद्वीप की जनसंख्या केवल १० लाख थी जो १७५० तक स्थिर रही । १८ वीं शताब्दी के उत्तराद्र्घ से यहंा यूरोपीय लोगों का आगमन प्रारम्भ हुआ जो १९ वीं शताब्दी तक तीव्र हो गया । यूरोपीय लोगों के भारी संक्रेदण से अमेरिका की जनसंख्या सन् १९०० तक ८.१ करोड़ हो गई तथा सन् १९५० तक बढ़कर १६.६ करोड़ हो गई ।५. दक्षिणी अमेरिका - सन् १६५० से १९९० तक यहंा की जनसंख्या मे २५ गुना वृद्धि हुई है । इस वद्धि का कारण प्राकृतिक वृद्धि दर के साथ ही प्रवासियों की प्रमुख भूमिका रही है । सन् १९०० में दक्षिणी अमेरिका की जनंसख्या ६.३ कराे़ड थी जो बढ़कर १९५० में १६.६ करोड़ तथा २००१ में ३५ करोड़ हो गई । इस महाद्वीप में ब्राजील सर्वाधिक जनसंख्या वाला राष्ट्र है जहां १७.१८ करोड़ लोग रहते है जो सम्पूर्ण महाद्वीप की ४८ प्रतिशत जनसंख्या है । सर्वाधिक वृद्धि दर पराग्वे की २.७ है । ६. ओशोनिया- ओशोनिया में आस्टे्रलिया, न्यूजीलैंड, पपुआ, न्युगिनी, फिजी, फेंच आदि द्वीपीय देश शामिल हैं । सन् १६५० में ओशोनिया की जनसंख्या लगभग २० लाख थी जो आगमी २०० वर्षोंा तक स्थिर रही । यह जनसंख्या सन् १९०० तक ६० लाख पहुंच पाई । २०वीं शताब्दी में यूरोप ,एशिया तथा अमेरिका से प्रवासियों के आगमन से जनसंख्या में कुछ वृद्धि संभव हो पाई । यहां की जनसंख्या १९५० में १.३ करोड़ थी जो २००१ में लगभग ३.१ करोड़ हो गई । विश्व के विभिन्न प्रदेशों में जनसंख्या वृद्धिके तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सर्वाधिक वृद्धि दर विकासशील एवं अर्द्धविकसित राष्ट्रों में है विकसित राष्ट्रों में जनसंख्या वृद्धि या तो सामान्य है या ऋणात्मक है ।जनसंख्या में विषमता के कारण: विकसित एवं विकासशील देशों की जनसंख्या में विषमता के निम्नलिखित कारण है । :-१. विकासशील देशों का पिछड़ापन - जनसंख्या वृद्धि में विकसित एवं विकासशील देशों में संसाधनों की कमी निर्धनता के कारण रोजगार के अवसरों का अभाव है । विकासशील देशों के लोग को जनसंख्या वृद्धि के नुकसान का ज्ञान नही है। विकसित देशों में रोजगार के साधन पर्याप्त् मात्रा में उपलब्ध हैं ।२. शिक्षा का प्रचार-प्रसार - विकसित देशों में सभी लोग शिक्षित तथा जनसंख्या वृद्धि के दुष्प्रभावों से परिचित हैं । अत: वहाँ जनसंख्या वृद्धि कमहै जबकि विकासशील राष्ट्रों में निरक्षरता के कारण लोगों में जनसंख्या वृद्धि के नुकसानों का ज्ञान नहीं है अत: जनसंख्या वृद्धि अधिक है ।३. जलवायु में अंतर - ठंडे प्रदेशों की बजाय गर्म देशों की जनसंख्या वृद्धिदर अधिक होती है । विकसित राष्ट्रों की जलवायु ठंडी है अत: जनसंख्या वृद्धिकम है जबकि विकासशील देशों की जलवायु गर्म है । अत: वहां जनसंख्या वृद्धि ज्यादा है ।४. सामाजिक मानसिकता- अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले विकासशील देशों के लोगोें की मानसिकता पिछड़ी हुई है। जिसमेंे वहां जनसंख्या वृद्धि अधिक है जबकि विकसित राष्ट्रों के लोगों की सामाजिकता विकसित है जिसमें वहां जनसंख्या वृद्धि दर कम है। ५.सामाजिक मान्यताएं- सामाजिक मान्यताएं भी जनसंख्या वृद्धि की विषमता में अहम् भूमिका निभाती है । हिन्दु धर्म में यह मान्यता है कि लड़के के जन्म से ही मुक्ति मिलती है । अत: घर में लड़के का होना आवश्यक समझा जाता है जो जनसंख्या वृद्धि में सहायक है । लड़का पैदा करने के चक्कर में कई -कई लड़कियाँ हो जाती हैं। जिसके फलस्वरूप जनसंख्या में वृद्धि होती है । ६. मनोरंजन के साधनों का अभाव- विकासशील देशों में मनोरंजन का एकमात्र साधन पत्नी ही होती है जबकि विकसित राष्ट्रों में अनेक मनोरंजन के साधन होते है। अत: विकासशील देशों में राष्ट्रों की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक होती है ।जनसंख्या विस्फोट भारत देश प्राचीन काल से ही एक बड़ा जनसमूह रहा है ।यहां लम्बे समय तक प्राकृतिक आपदाआें व महामारियों के कारण जनसंख्या में अधिक वृद्धि नहीं हुई । भारत की जनसंख्या में उल्लेखनीय वृद्धि २० वीं सदी के तीसरे दशक से मानी जाती ह। निम्न तालिका में भारत में जनसंख्या के आकार एवं वृद्धिदर को दर्शाया गया है -तालिका: भारत में जनसंख्या का आकार एवं वृद्धि दर (१९०१-२००१)जनगणना जनसंख्या औसत जन्म दर मृत्यु दर वर्ष करोड़ में वर्षिक प्रति हजार प्रतिहजार वृद्धि दर१९०१ २३.८३ ---- ---- -----१९११ २५.२० ०.५६ ४९.२ ४२.२१९२१ २५.१३ ०.०३ ४८.१ ४८.६१९३१ २७.८९ १.०४ ४६.४ ३६.३१९४१ ३१.८६ १.३३ ४२.२ ३१.२१९५१ ३६.१० १.२५ ३९.९ २७.४१९६१ ४३.९२ १.९६ ४१.७ २२.८१९७१ ५४.८१ २.२० ४१.२ १९.०१९८१ ६८.३३ २.२२ ३७.२ ११.४१९९१ ८४.३३ २.१४ ३२.५ ११.४२००१ १०२.७० १.९३ २६.० ८.००ैंेेडिीर्लीश : उशिीीर्ी षि खविळर, २००१ जनसंख्या के आधार पर विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का है ।भारत की जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ रही है । निरंतर जनसंख्या वृद्धि ने कई समस्याआें जैसे- बेरोजगारी ,भूखमरी,अशिक्षा, चोरी,डकैती तथा पर्यावरण प्रदूषण को जन्म दिया है । संसार के विभिन्न देशों में आर्थिक, सामाजिक, भौतिक और सांस्कृतिक विशिष्टताआें के कारण जनसंख्या वृद्धि भी भिन्न-भिन्न है । औद्योगिक और प्रौद्योगिकी क्रांति के परिणामस्वरूप विश्व के विकासशील देशों में जन्म - दर में वृद्धि तथा मृत्यु-दर में कमी होने से तीव्र जनंसख्या वृद्धि हुई है । बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जनसंख्या वृद्धि की दर तेज होने से विद्वानों ने एक ऐसी विस्फोटक स्थिति की कल्पना की जिसमें मानव संसाधन बुरी तरह असंतुलित हो जाएगा । इस असंतुलन का प्रभाव समाज के सभी वर्गोंा पर पड़ेगा । जनसंख्या में इस विशाल, तीव्र और निरंतर वृद्धि को जनसंख्या विस्फोट नाम दिया गया। जनसंख्या वृद्धि की दर से हिसाब से चीन व भारत अग्रणी रहे है । भारत में जनंसख्या की तीव्र के वृद्धि दर जारी है । एक अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या में प्रतिवर्ष एक आस्ट्रेलिया जुड़ जाता है । जनसंख्या की इस तीव्र वृद्धि दर का परिणाम सभी विकासशील देशों की विभिन्न समस्याआें के रूप में प्रकट होता है । जनसंख्या विस्फोट के पर्यावरणीय प्रभाव : जनसंख्या विस्फोट से न केवल सामाजिक समस्याएं पैदा हो रही है । अपितु अनेक पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं । जनसंख्या वृद्धि के साथ मानवीय आवश्यकताआें में असीमित वृद्धि हो रही है। जिससे पृथ्वी के सीमित संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । तेजी से बढ़ती जनसंख्या का पर्यावरण के विभिन्न घटकों पर प्रभाव पड़ रहा है । हमारे देश में बढ़ती हुई जनसंख्या से खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया है । यद्यपि आजादी के बाद हमारे देश में अनाज का उत्पादन काफी बढ़ा है लेकिन जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि के कारण आज भी प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन बहुत कम हैं। तेजी से बढ़ती जनसंख्या का दबाव हमारे प्राकृतिक संसाधनों के वाणिज्यिक महत्व को अधिक आंका जा रहा है जबकि इनके पर्यावरणीय महत्व की उपेक्षा की जाती है । वन, वन्य जीवों, खनिज, मृदा तथा जल संसाधनों का बड़े पैमाने पर शोषण किया जा रहा है । प्राकृतिक संसाधनों तथा जनसंख्या के मध्य संतुलन बिगड़ने से अनेक पर्यावरणीय समस्याएं जैसे प्रदूषण, भूक्षरण, बाढ़, सूखा तथा महामारियां आदि विपत्तियां उत्पन्न हो रहा है । तीव्र जनसंख्या वृद्धि एंव रोजगार की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों की ओर जनसंख्या के स्थानांतरण के कारण देश के नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या के स्थानांतरण के कारण देश के नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या का जल आपूर्ति में कमी, कूड़े-कचरे में वृद्धि, स्लम बस्तियों का विकास व अन्य सामाजिक तथा सांस्कृतिक समस्याएं उत्पन्न होती है । जनसंख्या वृद्धि तथा ऊर्जा संकट : हमारे देश में जनसंख्या वृद्धि के कारण न केवल खाद्य संकट उत्पन्न हुआ है बल्कि भोजन पकाने व उद्योगोंतथा वाहनों के चलाने के लिए ऊर्जा संकट भी उत्पन्न हो गया है । हमारे कोयले व खनिज तेल के भंडार समाप्त् हो रहे हैं । अपनी घरेलू आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए हम लाखों टन खनिज तेल विदेशों से आयात करते हैं जिस पर भारी स्वदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है । जनसंख्या विस्फोट/वृद्धि के कारण :१. जन्म दर : किसी क्षेत्र में प्रति हजार व्यक्तियों पर प्रति वर्ष जन्म लेने वाले बच्चें की संख्या के औसत को जन्म दर कहते हैं। जनसंख्या वृद्धि जन्म दर की वृद्धि पर निर्भर करती है । जन्म दर अधिक होने के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एंव सांस्कृतिक कारण होते हैं । विकासशील देशों में विकसित राष्ट्रों की तुलना में जन्म दर लगभग दुगनी से भी अधिक है । अत: विकासशील राष्ट्र जनाधिक्य की समस्या से ग्रस्त हैं ।२. मृत्यु-दर: किसी क्षेत्र में प्रति हजार व्यक्तियों पर प्रतिवर्ष मरने वाले लोगों की औसत संख्या कोमृत्यु दर कहते हैं। जनसंख्या वृद्धि में मृत्यु दर की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है । विज्ञान एंव तकनीकी के विकास के बाद मृत्यु दर में काफी गिरावट आई है । सन् १९२० से पहले विकासशील देशों में २३ प्रतिशत बच्च्े जन्म लेने से एक सप्तह के अंदर ही मर जाते थे जबकि १० प्रतिशत बच्चें की मृत्यु ४ वर्ष की आयु से पहले हो जाती थी । १७५० में मनुष्य की औसत आयु ३० वर्ष मानी जाती थी। १८५० में यह बढ़कर ४१ वर्ष, १९५० में ५४ वर्ष व २००१ के आंकड़ों के अनुसार ६५ वर्ष हो गई हैं । किसी क्षेत्र की जनसंख्या में कमी या वृदि्घ का कारण जनसंख्या का स्थानांतरण भी है । १८८० से पहले विश्व में किसी तरह के बंधन नहंी थे और कोई भी व्यक्ति कहीं भी जाकर रह सकता था। प्रथम विश्व युद्घ के बाद अंतर्राष्ट्रीय नियमों में कठोरता के कारण यह स्थान्तरण कम हुआ । १८८० से १९२० के मध्य यूरोप से लगभग ५ करोड़ लोग अफ्रीका, कनाड़ा, अमेरिका व एशिया में आए । इससे यूरोप की जनसंख्या कम हुई तथा अन्य स्थानों की जनसंख्या में वृदि्घ हुई। ***

५ कविता

माँ वसुन्धरा
पं. योगेन्द्र मौदगिल
भूमि श्रृंगार वृक्ष उपहार प्रकृति के,इन पर मानव का अत्याचार रोकिये,मानते हैं बात जो दरांतियों - कुल्हाड़ियों की,ऐसे असुरों को बेझिझक हो टोकिये,अब तो रे बाज आओ, मान जाओ , रूकजाओ,माफ अपराध सब अब तक जो किये,वृक्षों का कटान कर देगा अंत सभ्यता का,सभ्यता के हित में तत्काल इसे रोकिए ।
स्वयं को शाकाहार देंगें उपहार और,धरती के वृक्षोंका आधार देके जाएंगें,निर्णय हमारा अब एक होना चाहिए कि,हरी हरियाली ही अपार देके जाएंगें ।वरना ये हमने तो जैसे तैसे काट ली है,सोच संतान को क्या यार देके जाएंगे ।यही हाल रहा तो नवेली सब पीढ़ियों को,दमा, टीबी, अस्थमा उपहार देके जाएंगें ।
विषम विडम्बना में डूबा है विकासक्रम,बूझती है पर निरूपाए माँ वसुन्धरा ।वृक्षों का कटान निर्बाध देख देख हाय,टूक-टूक रोती असहाय माँ वसुन्धरा ।गहने - लत्ते सम तरू लुट गये लगती है,नित्य तेजहीन-कृशकाय माँ वसुन्धरा ।यही हाल रहा तो यह कह देगी इकदिन,दुनिया को सीधे बाय-बाय माँ वसुन्धरा ।***

६ प्रदेश चर्चा

म.प्र.: हानिकारक बीजों की दस्तक
प्रमोद भार्गव
अनुवांशिक तकनीक से रूपांतरित बीजों को खुली भूमि में बोकर फसल तैयार करने का विवादास्पद परीक्षण मध्यप्रदेश में भी शुरू हो गया है । यह प्रयोग जबलपुर के राष्ट्रीय बीज विज्ञान अनुसंधान केन्द्र में शुरू हुआ है । अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसेंटो द्वारा तैयार मक्के के बीज खुले आसमान के नीचे बोये गए हैं । जबकि इस तकनीक से तैयार फसल का मानव शरीर के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है , ये परीक्षण नहीं हुए हैं । इसलिए ये प्रयोग खतरनाक साबित हो सकते हैं । हैरत की बात यह है कि मध्यप्रदेश की जो सरकार पूरे प्रदेश में जैविक खेती को संरक्षण देते हुए बढ़ावा देने की बात कर रही है उसी राज्य में ये प्रयोग पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य की कोई चिंता किए बिना धड़ल्ले से किए जा रहे हैं । दरअसल आनुवांशिक रूपांतरित बीज ऐसे बीजों से तैयार किए जाते हैं जिनमें पैदावार बढ़ाने व पौष्टिकता लाने की दृष्टि से आनुवांशिक गुणों में परिवर्तन लाया जाता है । कीटाणुनाशक व खरतरवार रोधी बनाने का लक्ष्य भी इन बीजों के निर्माण में निहित होता है । ये बीज अन्य बीजों व जीवों से जीन्स लेकर विभिन्न फसलों व सब्जियों के बीजों में संक्रमित किए जाते हैं। इन बीजों के परिणाम भिन्न भौगोलिक, पारिस्थितिकी व जलवायु में भिन्न होते हैं, इसलिए इनके नतीजे हमेशा ही आशंकित रहने के साथ पारंपरिक खेती के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं । इन वजहों से जीएम फसलोंं के पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य प्रभावों को लेकर पूरी दुनिया में बहस चल रही है । अनेक अध्ययनों में इनका मानव व जीवों पर असर शरीर के विकास, रोग प्रतिरोधात्मक व प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक पाया गया है । जबलपुर में जिस मक्के के बीज को फलिहाल बतौर परीक्षण खेत मंे बोया गया है , आस्ट्रिया सरकार द्वारा किए गए एक अध्ययन में इसी बीज से उत्पन्न मक्का चूहों को खिलाई गई तो उनके प्रजनन क्षमता पर बेहद नकारात्मक प्रभाव सामने आए है ं। इस लिहाज से मध्यप्रदेश में इन बीजों के खुले में परीक्षण किए जाने से पर्यावरणविद् चिंता जता रहे हैं । खेती विरासत मिशन से जुड़ी कविता कुरूंगति का कहना हे कि जीएम फसल से आसपास की फसल के संक्रमित होने और बीज के गैरकानूनी रूप से बाजार में पहुंचने की आशा बनी रहती है । इसी तरह २००१-२००२ में महाराष्ट्र में बीटी कपास की फसलें पैदा करके किसान को परंपरागत खेती से बेदखल कर दिया गया । नतीजतन विदर्भ के लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। २००८ में इन आनुवांशिक बीजों के विस्तार की योजना जबसे परवान चढ़ने लगी तब परमाणु करार के हो-हल्ले में कृषि क्षेत्र में अमेरिका में ऐसा समझौता गुपचुप हो गया, जिस पर बहस मुबाहिशा को सर्वथा नजरअंदाज कर दिया गया । फलस्वरूप झारखण्ड व उत्तरप्रदेश में बीटी राइस और कर्नाटक में बीटी बैंगन के बीजों के प्रयोगों के मार्फत परम्परागत खेती किसानी बरबाद किए जाने का सिलसिला शुरू हो गया । उत्तरप्रदेश मेंतो आजकल धान बचाओ, जीई भगाओ आंदोलन चल रहा है । केन्द्र सरकार द्वारा कुछ समय पूर्व ही देश के उत्तरप्रदेश, झारखण्ड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में चावल उत्पादक बहुल बारह क्षेत्रों में धान के प्रयोग को मंजूरी दी है । इन क्षेत्रों में उत्तरप्रदेश का वह इलाका भी है जो बासमती चावल के उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र माना जाता है । यह क्षेत्र किसान के जीवनयापन एवं उसकी समृदि्घ का प्रमुख आधार है । महाराष्ट्र हाईब्रीड सीड कंपनी मायको धान की अनुवांशिक बीजों के प्रयोग की कोशिश में लगी है । चावल की विभिन्न किस्मों का पारंपरिक ज्ञान व तकनीक के बूते उपजाने वाले किसानों को आशंका है यदि इन बीजों का प्रयोग धान बहुल क्षेत्रों में किया जाता है तो इसके विषाणु दूसरे खेतों में फैल सकते हैं । यदि ऐसा हुआ तो बासमती और काली मूंछ जैसे चावलों की अद्वितीय किस्में जहरीली हो जाएंगी, जो मानव स्वास्थ्य और खेती की उर्वरा शक्ति को प्रभावित करेंगी नतीजतन कालांतर में किसान और जीएम चावल उपभोक्ता को अर्थ और स्वास्थ्य दोनों ही दृष्टियों से हानि पहुंचाएंगें । दरअसल आनुवांशिक आधार पर बीजों से खेतों के लिए सुरक्षा के व्यापक व कड़े इंतजाम करने होते हैं ताकि इन प्रयोगों का घातक असर अन्य फसल पर न पड़े । इसी लापरवाही के चलते अमेरिका का अरबों डालर का कारोबार करने वाला चावल उद्योग चौपट हो गया । चावल का निर्यात रूक गया । अमेरिका मे निर्मित हुए इन हालातों से कोई सबक लेने के बजाए हमारे देश में इन विनाशकारी प्रवृत्तियों को दोहराया जा रहा है । जबकि फ्रांस में जीएम बीजों से फसल उत्पादन पूरी तरह प्रतिबंधित है । गोया, संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट एनर्जी यूज इन फूड सिस्टम २००७ दर्शाती है कि भारत में चावल उत्पादन की दृष्टि से जैविक खेती के परिणाम सकारात्मक है । इन पर जलवायु परिवर्तन का असर भी एकाएक नहीं पड़ता । कपास, चावल और मक्का के बीजों की तरह ही कर्नाटक में कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में बैंगन का जीएम बीज तैयार किया जा रहा है । इसके तहत बीटी बैंगन यानी जीन मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया गया है । इस प्रयोग के तहत बहाना यह बनाया जा रहा है कि बीटी बैंगन कीटों के हमले से बचा रहेगा जबकि राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद के ख्याति उपलब्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने चेतावनी दी है कि बीटी जीन की वजह से यहां बैंगन की स्थानीय किस्म मट्टगुल्ला बुरी तरह प्रभावित होगी । मट्टगुल्ला किस्म के पैदावार का सिलसिला पन्द्रहवी सदी में संत वदीराज कहने से मट्टू गांव के लोगों ने की थी । बाद में यह किस्म अपने विशिष्ट स्वाद और पौष्टिक विशिष्टता के कारण पूरे कर्नाटक में फैल गई । इस कारण इस हरे रंग के भटे को स्थानीय पर्वोंा के अवसर पूजा भी जाता है । खाली पेट इस भटे को कच्च खाने से यकृत के विकार प्राकृतिक रूप से ठीक होते हैं । इन बीजों के प्रयोग के सिलसिले में सोचनीय पहलू यह है कि जीएम बीज एक मर्तबा प्रयोग के बार परंपरागत रूप से प्रयोग में नहंी लाया जा सकता है । निर्माता कंपनी से ही इसे खरीदने की बाध्यता होगी । जिस बीटी कपास को २००२ में चलन में लाया गया था, उसकी अब तक खपत दस हजार करोड़ रूपए की हो चुकी है । यदि यह धन किसानों की जेब से न निकला होता तो देश में ढाई लाख किसानों को शायद आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता । बहरहाल मध्यप्रदेश में मक्का के बीजों के प्रयोग पर अंकुश नहीं लगाया गया तो इसके परिणाम न खेती के हित में होंगें और न ही किसान के हित में होंगें । ***एक आत्मीय आग्रह यह पत्रिका स्वयं पढ़ने के बाद इसे अन्य मित्रों एवं सहयोगियों को पढ़ने को दे कर पर्यावरण चेतना के आलोक को जन-जन तक पहुँचाने में सहभागी बनें । - सम्पादक

७ पर्यावरण परिक्रमा

सौर ऊर्जा से जगमगायेंगें कश्मीर वादी के गांव
कश्मीर की हरी भरी गुरेज वादी में बसे गांवों के लोगों को अब बिजली की कमी महसूस नहीं होगी क्योंकि उनके घर अब सौर ऊर्जा से जगमगाएेंगें । दूरदराज के जिन गांवों में ग्रिड और तारों के जरिए बिजली पहुंचाना संभव नहीं है उन्हें सौर ऊर्जा के माध्यम से विद्युतीकृत करने की केंद्र सरकार की योजना से उत्तर कश्मीर के गुरेज तहसील के लोगों की रातें अब सौर ऊर्जा से रोशन होंगी । नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के प्रयासों से गुरेज तहसील के २७ गांवों के ३९०० घरों को सौर ऊर्जा से रोशन करने की प्रणाली हाल में स्थापित की गई है । इससे इन गांवों के करीब ३०००० लोग लाभान्वित होंगें । इस प्रणाली की स्थापना पर करीब पांच करोड़ रूपये खर्च हुए जिनमें से साढ़े चार करोड़ रूपये केंद्र सरकार ने उपलब्घ कराए हैं तथा शेष राशि राज्य सरकार वहन करेगी । सरकारी सूत्रों के अनुसार देश के दूरदराज के गांवों को सौर ऊर्जा के माध्यम से रोशन करने के कार्यक्रम के तहत २४ राज्यों के ९४०० गांवों को लिया गया है। इसके तहत नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय परियोजना का ९० प्रतिशत खर्च वहन करता है । शेष राशि परियोजना क्रियान्वित करने वाली एजेंसी उपलब्ध कराती है । सरकारों ने ११ वीं योजना की शेष अवधि के दौरान दूरदराज के १०००० गांवों को सौर ऊर्जा से रोशन करने के लिए ८६७ करोड़ रूपये का आवंटन किया है । सूत्रों के अनुसार मंत्रालय तथा जम्मू कश्मीर सरकार इससे पहले डोडा और कुपवाड़ा जिले के ८२०० घरों को रोशन करने के लिए इसी तरह की प्रणाली स्थापित कर चुकी है । इसके प्रति लोगों के उत्साह को देखते हुए राज्य के और गांवों में भी यह सुविधा उपलब्ध कराने के प्रयास किये जा रहे हैं । अनंतनाग, कुलगाम, बड़गाम, पुलवामा और शोपियां के ६८ गांवों में यह प्रणाली स्थापित करने की परियोजना को मंजूरी दी जा चुकी है । जिस पर करीब १५ करोड़ रूपये खर्च होंगें । राज्य सरकार १५० अन्य गांवों में भी इसी तरह की सुविधा उपलब्ध कराने का प्रस्ताव तैयार कर रही है । केंद्रीय मंत्रालय इस प्रणाली के जरिये घरों को रोशन करने के अलावा अस्पतालों ,स्कूलों तथा सरकारी भवनों में अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल के लिए भी वित्तिय सहायता उपलब्ध करा रहा है । इससे राज्य सरकार को काफी मात्रा मेंें डीजल बचाने में मदद मिलेगी जिसे वह अस्पतालों, स्कूलों और सरकारी भवनों में बिजली उपलब्ध कराने पर खर्च करती है । भारतीय दो पूर्वज समूहों की संतान है भारतीयों के पूर्वजों को लेकर काफी विवाद रहा है । लगता है वैज्ञानिकों ने यह गुत्थी सुलझा ली है । भारतीयों के मानव विज्ञान के इतिहास में अपने तरह के पहले जीनोम विश्लेषण से पता चला है कि भारत के लोग दो आदि समूहों की मिली - जुली संतानें हैं । इस खोज से पता चलता है कि भारतीयों को आनुवांशिक विकृतियां होने की संभावना काफी अधिक है । भारतीय आबादी में जिन दो अलग- अलग समूहों के मिले-जुले वंशज होने के साक्ष्य मिले हैं वे दो समूह एसेस्ट्रल नार्थ इंडियंस (एएनआई) और एसेंस्ट्रल साउथ इंडियन (एएसआई) हैं । एएनआई की आनुवांशिकी पश्चिम यूरेशियाई लोगों से मिलती जुलती है । एएसआई की आनुवांशिकी बिल्कुल भिन्न है और दुनिया में कहीं भी ऐसी आनुवांशिकी नहीं मिलती है । बहरहाल दो अलग-अलग लोगों के जीनोम के क्रम में केवल ०.१ फीसदी अंतर होता है लेकिन यह बारीक सा अंतर कई सूचनाओं का केंद्र होता है । इससे आधुनिक आबादी के ऐतिहासिक स्रोत को पुन: तैयार करने में मदद मिल सकती है । जींस में भिन्नता के कारण कुछ बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है । हाल के वर्षोंा में मानव जींस में भिन्नता के क्रम में दुनिया भर के लोगों की विविधता के बारे में नई जानकारी दी है । लेकिन अब तक भारत में ऐसे कोई संकेत नहंी मिले थे । सेंटर फार सेल्युलर एंड मालीक्यूलर बायोलाजी (सीसीएमबी) के एकवरिष्ठ वैज्ञानिक कुमारस्वामी थंगराज के मुताबिक नई खोज से पता चला है कि भारतीय समूह दो पूर्वज आबादियों की संतान है । यही बात परंपरागत उच्च् व निम्न जातियों व जनजातीय समूहों पर भी लागू होती है । अलग - अलग भारतीय समूहों को उनके पूर्वजोंके ४० से ८० फीसदी लक्षण विरासत मंे उस आबादी से मिले हैं जिसे हम एएनआई कहते हैं । एएनआई पश्चिमी यूरेशियाई लोगों से संबंधित हैं । शेष लक्षण एएसआई से मिले हैं जिनका संबंध भारत के बाहर किसी भी समूह से नहीं है । अध्ययन में अंडमान द्वीप समूह के मूल निवासियों को अपवाद बताया गया है । अंडमान में इन मूलनिवासियों की संख्या एक हजार से कम है । इन्हें एएसआई से संबंधित माना जाता है । आधुनिक मानव की उत्पत्ति करीब १.६ लाख साल पहले अफ्रीका में हुई थी । पूर्व के शोधों में भी कहा गया था कि अंडमान की जनजातियां ( आेंगे) पहले आधुनिक मानव हैं जो अफ्रीका से ६५ से ७० हजार साल पहले अन्यत्र चले गए । करीब पांच हजार साल पहले द्रविड़ों का आगमन हुआ और लोग तितर-बितर होकर छोटे- छोटे समुदाय बनाने लगे । यूरेशियाई लोगों के आगमन के बाद द्रविड़ों को दक्षिण की ओर जाना पड़ा । वैज्ञानिकों की राय में आनुवांशिक रूप से भारत एक विशाल आबादी वाला देश नहंी है । बल्कि छोटी-छोटी आबादियों वाले पृथक समूहों का मेल है । हैदराबाद सीसीएमबी और अमेरिका के हावर्ड मेडिकल स्कूल के वैज्ञानिकों का कहना है कि भारतीयों में आनुवांशिक बीमारियों के मामले शेष दुनिया की आबादी से अलग हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि भारत में एक जीन की विकृति संबंधी बीमारियाँ (रिसेसिव डिजीज) बहुतायत में होगी । रिसेसिव डिजीज उस स्थिति में होती है जब व्यक्ति में खराब जीन की दो प्रतिकृतियां मौजूद होती हैं । इन बीमारियों के ईलाज और दवा बनाने में काफी मेहनत करनी होगी । केरल में सिंधु घाटी सभ्यता के संकेत मिले केरल के अवानड जिले की एकडकल गुफाआें में चट्टान पर उकेरी गई आकृतियों से हड़प्पा संस्कृति के स्पष्ट संकेत मिलते हैं जिससे पता चलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता का दक्षिण भारत से संबंध था । इतिहासकार एमआर राघव वेरियर का कहना है कि कर्नाटक और तमिलनाडु में सिंधु घाटी सभ्यता के संकेत मिलते रहे हैं, लेकिन नई खोज से पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता इस क्षेत्र में भी मौजूद थी । इससे लौह युग के पूर्व के केरल के इतिहास का पता चल सकता है । हड़प्पा और मोहनजोदड़ो क्षेत्रों में पाई गईपाकिस्तान तक फैली सिंधु घाटी सभ्यता के अद्भुत प्रतीक राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई के दौरान हाल ही में गुफाआें में पाए गए । उत्खनन कार्य का नेतृत्व करने वाले वेरियर ने बताया कि इस दौरान ४२९ चीजों की पहचान की गई जिनमें से एक में एक व्यक्ति जारकप के साथ दिखाई देता है जो सिंधु घाटी सभ्यता का अद्भुत प्रतीक है । कुछ अक्षर भी मिले जो २३०० से १७०० ईसा पूर्व दक्षिण भारत में फैली हड़प्पा संस्कृति के प्रतीक चिह्न् हैं । श्री वेरियर ने कहा कि जार के साथ आदमी की आकृति उन क्षेत्रों में अक्सर पाई जाती रही है जहंा कभी सिंधु घाटी सभ्यता मौजूद थी । उन्होंने कहा कि एडक्कल में किए गए उत्खनन में अलग शैली अपनाई गई, क्योंकि इसमें द्विआयामी मानव आकृति को खोजने की कोशिश की गई । एडक्कल गुफाआें में पाए गए प्रतीक और चित्रों को पहली बार १९०१ में तत्कालीन मालाबार जिले के पुलिस अधिकारी फासेट ने अध्ययन का विषय बनाया था ।परिंदों की गंध से होती हैं कई व्याधियां दूर वे एक हाथ में अनाज से भरी बाल्टी लिए दूसरे हाथ से मैदान के चारों तरफ बिखेरते हैं । धीरे - धीरे पक्षियों का जमावड़ा शुरू होता है । वे दाने डालते जाते हैं और पक्षियों का दाना चुगने के साथ ही शुरू होती है कलरव और चहचहाट । जी हां, रामस्नेही संत रमताराम, जो गत ३५ वर्षोंा से इन परिंदों कीसेवा में लगे हुए हैं और राजस्थान में चित्तौड़गढ़ के रामद्वारा में नियमित एक क्विंटल दाना डालते हैं । अब पक्षी इन्हें तो क्या इनकी गंध को भी बखूबी पहचानने लगे हैं । जब ये दाना डाल रहे होते हैं तो पक्षी उनके पैरों पर आकर दाना चुगने लगते हैं और उनके साथ अठखेलियां करते हैं । यदि कोई अन्य व्यक्ति उनके बीच चला जाए तो वे उड़ जाते हैं । कई बार परिंदों के घायल हो जाने पर वे उनकी देखभाल करते हैं । घायल पक्षियों को वे उठाकर छत पर छोड़ देते हैं । पक्षियेां के दानों में शामिल होते है मक्की और गेहूँ के दाने क्योकि ये परिंदे इन्हें ही ज्यादा पसंद करते हैं । १०० वर्ष पूर्व अपने गुरू से शुरू हुई परम्परा को आगे बढ़ाने वाले श्री रमताराम कहते हैं कि परिंदों की गंध से व्यक्ति जीवन में कभी बीमार नहीं हो सकता। इनकी गंध सबसे तीव्र औषधि का काम करती है । कबूतर की गंध के सम्पर्क में आने से लकवे जैसी गंभीर बीमारी से छुटकारा मिलता है वहीं तोते का झूठा खाने से हकलाने या तुतलाने वाले व्यक्ति की आवाज सही हो सकती है । दाना चुगने के लिए कबूतर और तोते ही सबसे ज्यादा आते हैं। इन परिंदों की भी यहां आते हुए कई पीढ़ियां गुजर गई हैं । परिंदों की सेवा सबसे बड़ा पुण्य है । ***

८ जनजीवन

भारतीय संस्कृतिमें वृक्ष एवं पुष्प
डॉ. उषाकिरण त्रिपाठी
भारतीय संस्कृति को समस्त मानवीय सद्गुणों का समन्वय कहा जाता है, क्योंकि इसमें सर्वे%पि सन्तु सुखिन: का जहां शंखनाद है वहां वसुधैव कुटुम्बकम् की महान कल्याणकारी भावना है । सत्यमेव जयते पर दृढ़ विश्वास और संकल्प है वहां अहिंसा परमोधर्म: को केंद्र बिंदु मानकर प्राणीमात्र की रक्षा व दया करने का आह्वान किया है । संस्कृति का तात्पर्य है मनुष्य को श्रेष्ठतम मानवीय सद्गुणोंसे विभूषित करना, संस्कारित करना तथा सबको संवारकर सामाजिक कल्याण के लिए प्रस्तुत करना । सभी लोगों के सुसंस्कृत होने पर समाज का सर्वांगीण विकास होगा, जिससे सृष्टि के सभी प्राणी सुख- शांति से रह सकेंगें । यह भी हमारे देश की आस्था और संस्कृति का ही प्रतीक है कि हम नदी, पूर्वज, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, पुष्प में ईश्वर का वास मानकर उनकी पूजा करते हैं , उपासना करते हैं । इसी तारतम्य में कुछ अनुपमीय वृक्षों व पुष्पों का उल्लेख किया जा रहा है जो अपने नाम के अनुरूप गुण भी रखते हैं । अशोक शोक-दु:ख को दूर करने के कारण संभवत: इसे अशोक नाम से अलंकृत किया गया है । इसकी पुष्टि में श्रीराम का उल्लेख आवश्यक है । जब वे वनवास के समय अशोक से कहते हैं शोक को दूर करने वाले हे अशोक ! मुझे सीता का पता बताकर शोकरहित कर अपने नाम की सार्थकता सिद्घ करो । - वा.रा. अरण्यकांड ६०/१७. कामदेव के पंच पुष्प बाणों में एक अशोक भी हैं, जिसकी गरिमा का गान कवि भारवि ने किया है । वाल्मीकि रामायण में अशोक वाटिका को हनुमानजी द्वारा देखे जाने का वर्णन इस प्रकार है - सदैव पुष्पों व फलों से युक्त रहने वाली यह अशोक वाटिका सूर्योदय की आभा के समान है । वा.रा. सुन्दरकांड १५/५ । अशोक वाटिका में ही हनुमानजी ने सीताजी के दर्शन किए थे - करि सोई रूप गयउ पुनि तहवां । वन असोक सीता रह जहवां ।। - रामचरित मानस सुन्दरकांड प्राचीन साहित्य में श्रद्धा, विश्वास, पवित्रता, दु:ख निवारण के संदर्भ में अशोक की श्रेष्ठता का गुणगान भरपूर किया गया है । अशोक वृक्ष का शास्त्रों में तीन रंग में उल्लेख हुआ है - लाल, पीला व नीला अशोक अनेकों तांत्रिक औषधि गुणों से भरपूर है । मंगल की पीड़ा तथा बार-बार दुर्घटना की स्थिति में अशोक के वृक्ष के नीचे मंगल यंत्र के निर्माण से लाभ होता है, मंगल का पाठ भी इस वृक्ष के नीचे शीध्र फल देता है । यह ऋणमुक्ति तथा भूमि विवाद हल करने मेें सहायक है । तांत्रिक रूप से आवास की उत्तर दिशा में अशोक लगाना विशेष मंगलकारी माना गया है व इसके पत्ते घर मेेंे रखने से शांति रहती है । बौद्ध साहित्य में भी इसे अत्यधिक पावन माना जाता है । कल्पवृक्ष मनुष्य की सारी इच्छाआें को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष देवतरू विशेषण से अलंकृत है । कामनाआें की पूर्ति के कारण ही इसे कामतरू भी कहते है । कालिदास ने इनकी गरिमा का भरपूर गान अपने गं्रथों में किया है । संस्कृत साहित्य में कल्पवृक्ष की श्रेष्ठता का अत्यन्त बखान किया गया है । इसकी महत्ता बताने के लिए इसे दिव्यतरू भी कहा गया है । स्वर्गलोक में देवांगनाएं इसके किसलय का उपयोग अपने कान के आभूषणों के रूप में करती हैं । कल्पवृक्ष से जो कुछ भी मांगा जाए, वह देता है इसी संदर्भ में कुमार संभव में एक कथा है । एक बार तारकासुर अधिक उत्पाती होकर कल्पवृक्ष को भी काटकर फेंकने लगा तब इंद्र ने कल्पवृक्ष प्राप्त् रत्न, मणि आदि प्रलोभनस्वरूप उसे देकर आमंत्रित किया , अंत में वह शिवपुत्र द्वारा मारा गया । मेघदूत के अनुसार अलकापुरी की यक्षिणियों को वस्त्र-आभूषण व श्रृंगार सामग्री भी कल्पतरू से प्राप्त् होती थी । महाकवि बाणभट्ट ने हर्षचरित्म में बताया है कि इंद्रसभा में मां सरस्वती ने कल्पवृक्ष से प्राप्त् श्वेत दुकूल धारण किए हुए थे । कवि हर्ष ने कल्पवृक्ष की दानशीलता की उपमा देते हुए राजा नल की प्रशंसा की थी - राजा नल ने याचकों को इतना अधिक धन दिया कि उनकी निर्धनता दूर हो गई । उनकी दानशीलता कल्पवृक्ष को भी मात कर देने वाली थी । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने कल्पतरू को संकल्पशील मन का प्रतीक माना है । कल्पवृक्ष रूपी मानव मन में यदि सुन्दर आचार-विचार के फल-फूल खिलते हैं तो वह मनोवांछित सफलताएं प्राप्त् कर सकता है । दृढ़ संकल्प शक्ति होना चाहिए। पुराण के अनुसार समुद्र मंथन के समय निकले चौदह रत्नों में एक कल्पतरू है । कल्पवृक्ष हमारी संस्कृति का अक्षय कोष है । जिससे मनोवांछित फल प्राप्त् होते हैं, यह पृथ्वी लोक में अप्राप्त् है । वटवृक्ष वटवृक्ष की पावनता का गान भी हमारे धर्मग्रंथों में बहुत किया गया है । इसीलिए वटवृक्ष की पूजा बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ करते है । वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा या अमावस्या को स्त्रियां वटवृक्ष की पूजा आराधना बड़े भक्तिभाव से करके अपनी मनोकामनाआें की पूर्ति के लिए प्रार्थना करती हैं, क्योंकि वटवृक्ष में विभिन्न देवों का वास होता है -वटमूलेस्थितो ब्रह्मा वटमध्ये जतार्दन:।वटाग्रेतु शिवोदेवा सावित्री वटसंश्रिता ।। भविष्य पुराण और स्कंद पुराण मेें वटवृक्ष का विशेष महात्म्य बताया है । रक्षाबंधन के अवसर पर भी वटवृक्ष की पूजा करने से पारिवारिक सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है । भगवती सीता को वनवास के समय महर्षि भारद्वाज वट महावृक्ष के बारे में बताते हैं कि उसके नीचे सिद्ध पुरूष का वास होता है । महायोगी शिव भी अपनी समाधि वटवृक्ष के नीचे लगाकर साधना करते हैं -तहं पुनि संभु समुझि पन आपन ।बैठे बट तरू करि कमलासन ।।- रामचरित मानस बालकांड, ५७/७-८. प्राचीनकाल से हमारी संस्कृति में वटवृक्ष की पूजा की जाती रही है । कार्तिक माह में करवा चौथ के समय भी स्त्रियां वटवृक्ष की पूजा-अर्चना मनोवांछित फल पाने के लिए करती है । महाभारत में महर्षि विश्वामित्र व जमदग्नि की कथाएं इससे जुड़ी हुई हैं, पांडवों ने भी वनवास के समय प्रयाग में चतुर्मास व्रत ग्रहण करके इस अक्षय वट की पूजा-अर्चना की । अक्षय वट के मूल में भगवान विष्णु के वास के कारण इसे वट माधव भी कहते हैं । यही नहीं, ब्रह्मा को भी सृष्टि रचना के लिए अक्षय वट का सहारा लेना पड़ा । शास्त्रों की मान्यता है कि इस वृक्ष के नीचे प्राण त्याग करने पर मोक्ष मिलता है । इन्हीं सब कारणोंं से वटवृक्ष हमारी संस्कृतिमें पावन और पूजनीय माना गया है। आज भी इसके प्रति आस्था, विश्वास व श्रृद्धा है । वटवृक्ष के नीचे शनि स्त्रोत का पाठ करने से साढ़े साती व ढैया शनि के प्रभाव कम होते हैं । इसी वृक्ष के नीचे नेत्रोपनिषद् का पाठ करने से नेत्र पीड़ा दूर होती है । इसी प्रकार कुछ पुष्प भी हमारी संस्कृति के प्रतीक हैं, जिनका उल्लेख करना अनिवार्य है - पारिजात पारिजात देवतरू है जो इंद्र के नंदन कानन में है । प्राचीन ग्रंथों के अनुसार पारिजात का पुष्प कभी मुरझाता नहीं है और न ही इसकी गंध कभी समाप्त् होती है । इंद्र को इसकी प्रािप्त् समुद्र मंथन से हुई थी । महाकवि कालिदास ने इसके सुरराज वृक्ष की उपमा दी है । उन्होंने अपने रघुवंश महाकाव्यम् में महाराज अज को पारिजात एवं अन्य राजाआें को कल्पतरू के समान कहा है । बाणभट्ट ने भी अपनी कादम्बरी में वनदेवी से प्राप्त् पारिजात-मंजरी को महाश्वेता के कर्णशिखर को स्पर्श करने वाली मंजरी बताया है । हरिवंश पुराण में कहा गया है कि पारिजात पुष्प किसी के पास भी एक वर्ष से अधिक नहीं रहता । इस अवधि में उसे मनोवांछित सुगंध देकर वापस पारिजात वृक्ष से जुड़ जाता है । महाभारत में बताया गया है कि इसकी इतनी महत्ता है कि इसके दर्शन मात्र से स्वर्गलोक की प्रािप्त् हो जाती है, शिव को पारिजात पुष्प बहुत प्रिय है इसलिए शिवार्चन में अर्जुन पारिजात पुष्प चढ़ाते थे। मांगलिक कार्यो में भी इसका बहुत महत्व हैं । इससे मोक्ष मिलता है । फूल की परख उसकी सुगंध व सुन्दरता से की जाती है, जबकि पारिजात पुष्प सुगन्ध, सौन्दर्य और अन्य गुणों के कारण अन्य पुष्पों में श्रेष्ठ है ।ब्रह्मकमल शिवार्चन के लिए ब्रह्मकमल का प्रयोग हिमालय क्षेत्र में किया जाता है, क्योंकि यह पुष्प सब जगह प्राप्त् नहीं होता। यह पुष्प केदारनाथ और बद्रीनाथ तीर्थोंा के बीच महमहेश्वर घाटी में पाया जाता है । यहां अनेक शिवालय हैं जो भगवान शिव की महत्ता को दर्शाते हैं । यह कमल परिवार का पुष्प है । पुराणों में श्वेल, रक्त नील व ब्रह्मकमल के विवरण प्राप्त् होते है । लक्ष्मी कृपा के साथ शुक्र का आशीर्वाद, श्वेत कमल महालक्ष्मी को चढ़ाने से मिलता है। लाल कमल शिव हनुमानजी को अर्पण करने से चंडाल की शांति, नीलकमल शिव को अर्पण करने से चंद्रमा व शनि प्रसन्न रहते हैं। ब्रह्मकमल शिव को अर्पण करने से नवग्रह प्रसन्न रहते है । ब्रह्मकमल को विष्णु कमल भी कहा जाता है । कहते हैं कि भगवान विष्णु स्वयं शिव की पूजा एक हजार एक ब्रह्मकमल मंगवाकर करने लगे, पर अचानक एक फूल घट जाने पर उन्होंने अपना एक नेत्र शिव को अर्पित कर दिया । इससे शिव बहुत प्रसन्न हुए । इसी कारण इसे विष्णु कमल भी कहा जाता है । ब्रह्मकमल समुद्र सतह से पांच हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में प्राप्त् होता है तथा चैत्र से श्रावण तक प्राप्त् होता है । ब्रह्मकमल की अनुकृति या पेंटिंग घर में लगाने से सब वास्तुदोष दूर होते हैं। यह धार्मिक व औषधीय गुणों से संपन्न दिव्य पुष्प है । ***पेड़ पर घोंसला बनाने वाला मेंढक दिल्ली विश्वविद्यालय के एक वैज्ञानिक ने पश्चिमी घाट में पेड़ पर रहने वाले मेंढक का पता लगाने का दावा किया है, जो परभक्षियों से अपने अंडों की हिफाजत करने के लिए एक ही पत्ते से अपना घोंसला भी बनाता है । दिल्ली विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इनवायरमेंटल स्टडीज के वरिष्ट वैज्ञानिक एसडी बीजू ने बताया कि पूरी दुनिया से इस तरह की यह पहली रिपोर्ट है। एशिया में इस तरह के मेंढक की यह एकमात्र प्रजाति है , जो कीटों और गर्मी से बचने के लिए घोंसला बनाता है । यह राकोफोरस जटेरालिस प्रजाति का यह दुर्लभ और देशज प्रजाति का मेंढक कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में सिर्फ दक्षिण पश्चिमी घाट में पाया जाता है । वे झुरमुट के पत्ते में अपने अंडे को रखते हैं, जिसे मादा मेंढक द्वारा दोनों ओर से मोड़ दिया जाता है । श्री बीजू ने बताया कि चमकीला हरा या हल्की लालिमा लिये हुए हरे रंग वाले ये विलुप्त्प्राय प्रजाति के मेंढक हैं । इन्हें एक सदी के बाद फिर से खोज निकाला गया है । यह अध्ययन वर्ष २००० से २००५ के बीच केरल में वयनाड जिले के कलपोट्टा में किया गया । अंडनिक्षेपण और निषेचन की प्रक्रिया सिर्फ एक पत्ते पर होती है, वहीं इसका घोंसला लगभग ५३ से ८० मिमी लंबा और २८.६४ मिमी चौड़ा होता है । इसमें एक साथ ४३ से ७२ अंडे समा जाते हैं । अध्ययन में बताया गया है कि मादा मेंढक को एक घोंसला बनाने में १५ मिनट से आधे घंटे तक का समय लगता है ।

९ ज्ञान-विज्ञान







ऊंचे पहाड़ भूमध्य रेखा के नज़दीक क्यों है ?




दुनिया की सर्वाधिक ऊंची पर्वत श्रंृखलाएं निम्न अक्षांश पर यानी भूमध्य रेखा के आसपास ही पाई जाती है । क्या यह महज़ इत्तेफाक है ? ऐसा लगता है कि यह संयोग मात्र नहीं है । हो सकता है कि गर्म वातावरण पर्वतों की वृद्धि को बढ़ावा देता है कोई भी पर्वत श्रंृखला कितनी ऊंची हो सकती है यह तीन बातों पर निर्भर करता है - पर्वत के नीचे की भूपर्पटी कितनी शक्तिशाली है, ऊपर की ओर धक्का देने वाले टेक्टोनिक बल का परिमाण कितना है और अपरदन की मात्रा कितनी है जो पर्वतों की ऊंचाई कम करती है । यह तो काफी समय से पता रहा है कि दुनिया भर की ऊंची पर्वत श्रंृखलाआें के नीचे की भूपर्पटी सशक्त है किन्तु अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि दुनिया की ऊंची-ऊंची चोटियों के पीछे किस चीज़ का प्रमुख हाथ है - उसे ऊं चे उठाने वाले कारकों यानी टेक्टोनिक बलों का ज़्यादा असर है या अपरदन दर के कम होने का। इस सवाल का जवाब पानें के लिए ऑरहस विश्वविद्यालय, डेनमार्क के डेविड इगोल्म और उनके सहकर्मियों ने उपग्रह से प्राप्त् चित्रों की मदद से ६० डिग्री उत्तर और ६० डिग्री दक्षिण में स्थित सभी पर्वत श्रंृखलाआें का मानचित्र तैयार किया। इसमें मुख्य रूप से पर्वतों की भूसतह का क्षेत्रफल और ऊंचाई का ग्राफ बनाया । इसके अलावा उन्होंने प्रत्येक पर्वत पर हिम रेखा की औसत ऊंचाई और उसके अक्षांश की भी तुलना की । उन्होंने ग्लेशियर अपरदन के प्रभाव का मॉडल भी तैयार किया। उन्होने पाया कि निम्न अक्षांशों का गर्म वातावरण हिम रेखा को ऊपर की ओर धकेलता है और पर्वत अधिक ऊंचा होता है । ऑरहस विश्वविद्यालय के पेडर्सन बताते हैं कि हिम रेखा के ऊपर अपरदन की प्रक्रिया काफी तेज़ होती है जहां अपरदन मुख्यत: ग्लेशियरों के क्षरण का नतीजा होता है । पर्वतों की चोटियां आम तौर पर हिम रेखा के ऊपर ज़्यादा उठी नहीं होती । हिम रेखा के ऊपर पर्वत बमुश्किल १५०० मीटर से ज़्यादा ऊंचे होते हैं । इसका मतलब है कि निम्न अक्षांश की हिमालय जैसी पर्वत श्रंृखलाआें को शुरू से ही फायदा मिलता है क्योंकि इनकी हिमरेखा काफी ऊंचाई पर है। यदि हिम रेखा नीचे हो, तो पर्वत उसके बाद बहुत ज़्यादा ऊंचा नहीं हो सकता ।चींटियों को होता है मौत का पूर्वाभास चींटियों के बीच पाई जाने वाली मजदूर चींटियां अपने जीवन की संभावना को भांप लेती हैं । जब उन्हें लगता है कि उनके दिन अब कम बचे हैं तो वे ज़्यादा ज़ोखिम भरे काम करने लगती है। चींटी, मधुमक्खी और ततैया जैसे सामाजिक कीटों का मज़दूर वर्ग अपनी उम्र के अनुसार अपने काम में परिवर्तन करता है। उम्रदराज मज़दूर अपनी बांबी या छत्ते से बाहर निकलकर खतरे वाले काम करते हैं जबकि कमसिन मज़दूर बिल के अंदर रख-रखाव जैसे सुरक्षित काम करते हैं । इस तरह मज़दूर चीटिंयों की औसत आयु बढ़ जाती है और पूरी बस्ती की फिटनेस बढ़ जाती है। वैसे अभी यह पता नहीं है कि मज़दूर चींटियों के बीच पाया जाने वाला इस तरह काम का बंटवारा उम्र के साथ होने वाले शारीरिक बदलाव के चलते होता है या किसी अन्य कारण से । इसका पता लगाने के लिये डेविड मोरॉन और उनके सहकर्मियों ने पोलैण्ड के येगीलोनियन विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में मिर्मिका स्रब्रिनोडिस प्रजाति की चींटियों की ११ बस्तियां बनाइंर्। इनमें सभी कम उम्र की मज़दूर चींटियां थी। सभी कालोनियों की कम से कम आधी चींटियों की संभावित आयु कृत्रिम रूप से कम कर दी गई थी । इसके लिए या तो उन पर कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ी गई थी जिससे उनका रक्त अम्लीय और तंत्रिका तंत्र क्षतिग्रस्त हो गया था या उनकी बाहरी सतह को संक्रमित कर दिया गया था । पहचान के लिए इन चींटियों को रंगीन पेंट कर दिया गया। अगले पांच सप्तह में चिन्हित चींटियां कॉलोनी से बाहर जाने लगीं । वे अन्य अनुपचारित चींटियों के मुकाबले जल्दी बाहर जाने लगीं थीं और ज़्यादा बार। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि चींटियां अपनी उम्र के हिसाब से काम नहीं बदलती बल्कि अपनी बची हुई उम्र का अनुमान लगाकर उसके अनुसार काम करती हैं ।सबसे कम संभावित आयु वाली चींटियों ने सबसे पहले कॉलोनी छोड़ी । दूसरी ओर, जिन चींटियों की त्वचा को संक्रमित किया गया था उनमें संक्रमण की मात्रा और काम के बदलाव का ऐसा संबंध नहीं देखा गया। हो सकता है कार्बन डाईआक्साइड की बजाय संक्रमण की वजह से घटी हुई संभावित मृत्यु का अंदाजा लगाना अधिक मुश्किल होने के कारण ऐसा हुआ हो ।कमल के पत्तों पर पानी की बूंदें क्यों बनती हैं ? आपने भी देखा होगा कि कमल के पत्तों पर पानी गिरे तो पत्ता गीला नहीं होता बल्कि पत्ते पर पानी की बंूदे बन जाती है और लुढ़कती हैं । आखिर क्यों ? इसका जवाब पाने के लिए शोध -कर्ताआें ने कमल के पत्ते की सतह का अवलोकन इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से किया । उनहोंने जो कुछ भी देखा वह शायद काफी उपयोगी साबित होगा । इसकी मदद से कारों के लिए ऐसे विंडशील्ड बनाए जा सकेंगे जिन पर पानी कोहरे के रूप में जमा नहीं होगा, ऐसे कपड़े बनाए जा सकेंगे जो खुद को साफ कर सकेंगे और समुद्री जहाज़ों के लिए बेहतर पेंट बनाए जा सकेंगे । आई.आई.टी. कानपुर के मटेरियल्स एण्ड मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग विभाग और फ्लोरिडा इंटरनेशनल विश्व -विद्यालय के शोध -कर्ताआें ने कमल की ताज़ा पत्तियों का अवलोकन करने पर पाया कि कमल के पत्ते की सतह पर अत्यंत छोटे-छोटे उभार होते हैं । ये सूक्ष्म उभार अतिसूक्ष्म रोआें से आच्छादित होते हैं । एक रोएं की लंबाई ४००-१००० नैनोमीटर और मोटाई ५०-१३० नैनोमीअर होती है । इन अतिसूक्ष्म रोआें की वजह से पत्ते की सतह का खुरदरापन बढ़ जाता है और इसमें जलद्वैषी गुण पैदा हो जाते हैं यानी सतह पानी को अपने से दूख रखना चाहती है । परिणाम यह होता है कि सतह पर पानी गिरे तो वह फैल नहीं पाता बल्कि बूंद के रूप मेंे टिका रहता है । बूंद का लु़ढकना भी उपरोक्त रोआें की वजह से ही होता है । ये रोएं लगातार मुड़ते और सीधे होते रहते हैं । इसकी वज़ह से पानी की बूंद पत्ते पर टप्पे खाती रहती है। यानी सूक्ष्म उभार तो प्राथमिक खुरदरा बनाने के अलावा बूंदों के लुढ़कने का इन्तज़ाम भी करते हैं । यह पहला अध्ययन है जिसमें नैनो रोआें की यांत्रिक क्रिया को कमल के पत्ते के जलद्वैषी गुणों को जोड़ा गया है । इस तरह की सतह कृत्रिम रूप से बनाई जाए तो यही उपयोगी गुण प्राप्त् किया जा सकेगा ।हाथियों को डराने का नया नुस्खा अफ्रीकी किसानों ने हाथियों से अपनी ज़मीन और फसलों को बचाने के लिए क्या-क्या नहीं किया, कभी बागड़ बनाई तो कभी तेज़ रोशनी दिखाई और यहां तक कि रबर से बने जूतों के तले तक जलाए लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली । किसान अपनी फसलों को बचाने के लिए अभी तक प्रयासरत हैं । और इस प्रयास से एक सवाल पैदा हुआ है । अब इस सवाल का जवाब खोज निकाला गया है । ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में कार्यरत ल्यूसी किंग का कहना है कि मधुमक्खियों की भिनभिनाती आवाज़से यह काम हो सकता है । किंग को किसी ने बताया कि जहां मधुमक्खियों का छत्ता होता है वहां हाथी कभी नहीं जाते हैं। उन्हें किसी ने यह भी बताया था कि एक बहुत बड़े हाथी को मधुमक्खी ने काट लिया था, तो वह पूरी तरह पगला गया था । किंग ने इस विचार को आज़माने पर सही पाया। सुश्री किंग कहती हैं कि मधुमक्खी के छत्ते किसान खेत में लगाएेंगें तो हाथी के झुण्ड पास नहीं आएेंगें । ***

१० कृषि-जगत

खेती उद्योग नहीं है
अनिल कर्णे
खेती से अधिक वैज्ञानिक कार्य आज तक अस्तित्व में नहीं आया है । किसान सिर्फ बीज डालकर घर नहीं बैठ जाता । वह मौसम, मिट्टी, खाद, पालतू जानवरों का विशेषज्ञ भी होता है । यह तथ्य विचारणीय है कि उद्योगों को इतनी सरकारी सहायता के बावजूद हमेशा नई छूट का इंतजार रहता है । वहीं कृषक स्वयं को परिस्थति के अनुरूप ढालकर सदैव कार्यशील बना रहता है । देश में किसानों की दशा अब किसी से छुपी नहीं है । सारे समाज की अन्न की आवश्यकताआें को पूरा करने वाला अन्नदाता किसाना हाशिए पर कर दिया गया है । वह दाने-दाने को मोहताज है । अब किसान स्वयं ही नहीं वरन् परिवार सहित आत्महत्या कर रहा है । अपने परिवार पर जान न्योछावर करने वाला किसान जब परिवार के सदस्यों की जान लेकर अपना आत्महन्ता बनता है, तो इस कदम के पहले उसके सामने के जीवन की भयावहता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है । जब जीवन के सारे रास्ते बन्द हो जाते है तभी मनुष्य मृत्यु का विकल्प चुनता है । वर्ष १९९७ से २००८ के दौरान भारत में १ लाख ८२ हजार ९३६ किसानों ने आत्महत्या की (राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार) । आखिर इसका कारण क्या है ? क्यों किसान आत्महत्या कर रहा है ? प्रशासन क्या कर रहा है ? क्या हम किसानों की समस्याआें को समझ नहीं रहे हैं या समझने का प्रयास नहीं कर रहे हैं ? क्या किसान आत्महत्या कर रहा है या उसे आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है ? आखिर किसानों के संकट की मुक्ति का विकल्प क्या है ? किसान के इस संकट का समाधान क्या है ? ये ऐसे प्रश्न है जो हर संवेदनशील व्यक्ति के दिमाग में उठना स्वाभाविक है । इन्हीं सब सवालों के जवाब ढूंढने गैर-बराबरी उन्मूलन राष्ट्रीय अभियान, किसानी प्रतिष्ठा मंच एवं स्वामी सहजानन्द सरस्वती शोध संस्थान द्वारा वाराणसी, (उत्तरप्रदेश) में दो दिवसीय संगोष्ठी आयोजित की गई । जिसमें किसानी के संकट की वर्तमान स्थिति और इसके समाधान की दिशा पर विस्तृत चर्चा हुई । किसानी के संकट पर अपने विचार रखते हुए विख्यात चिंतक एवं भारत की अनुसूचित जाति और जनजाति के पूर्व आयुक्त डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने कहा कि भारत का किसान अधिक लागत और कम मूल्य की चक्की के पाटों के बीच पीसा जा रहा है । दुनिया के सबसे कुशल काम खेती किसानी को कृषि प्रधान भारत मेें अकुशल काम का दर्जा दिया गया है और इसके आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप मेंकिसान की मेहनत का मोल तय किया जा रहा है । इस तरह इस महंगाई के जमाने में लागत निकालने के बाद किसान की मेहनत का जो मोल बचता है वह उसके परिवार के भरण पोषण के लिए पर्याप्त् नहीं है । श्री शर्मा ने कहा कि इन्हीं कारणों से किसान कर्ज के जाल में फंसता है और चक्रवृद्धि ब्याज का चक्रव्यूह उसे आजीवन कर्ज के जाल से बाहर नहीं निकलने देता। जबकि खेती किसानी के कानूनों के तहत उस पर चक्रवृद्धि ब्याज नहीं लगाया जा सकता है परन्तु इसकी किसी को कोई खबर ही नहीं है । आपने कहा कि केन्द्र सरकार ने सन् १९८४ में बैंककारी विनियमन अधिनियम में संशोधन कर एक नई धारा २१(क) जोड़कर किसान, मजदूर का अदालत का रास्ता ही बन्द कर दिया है । वे कर्ज की अन्यायी शर्तोंा के खिलाफ न्यायालय में चुनौती नहीं दे सकते । साथ ही सरकार किसानों की कर्जदारी की जड़ में न जाकर किसान को और कर्ज लेने के लिए उकसा रही है । किसानी प्रतिष्ठा मंच के जयन्त वर्मा ने कहा कि १९९० के दशक के बाद से देश में खेती किसानी घाटे का सौदा बन गई है । देश के सकल घरेलू उत्पाद मेंे सन् १९४७ मेंखेती किसानी का हिस्सा ६७ प्रतिशत था यह २००८ में घटकर सिर्फ १७.५ फीसदी रह गया । जबकि इस बीच खेती किसानी का उत्पादन लगभग ४ गुने उत्पादन का तुलनात्मक मोल एक चौथाई और वास्तविक पैमाने पर एक बटे सोलह रह गया और योजना आयोग के दृष्टि पत्र २०२० की योजनानुसार वर्ष २०२० में सकल घरेलू उत्पाद में खेती किसानी का योगदान मात्र ६ प्रतिशत रह जायेगा । श्री वर्मा ने कहा कि कुछ अपवादों को छोड़कर कोई भी इस सच्चई का जिक्र तक नहीं करता कि राष्ट्र की कुल आय में खेती किसानी का हिस्सा कम से कमतर होते जाने का कारण सरकारी नीतियां हैं । किसान गरीब नहीं है उसके गरीब बनाया गया है । मेहनत की हकदारी इतनी होनी चाहिए कि जिससे मेहनतकश और उसके परिवार का अच्छी तरह भरणपोषण हो सके । अगर कामगार को मेहनत का सही मूल्य मिल जाए तो उसके घर की औरतें, बूढ़े और बच्च्े जलालत भरी मजदूरी के लिए क्यों घर के बाहर भटकेंगें ? बिहार किसान सभा के शिवसागर शर्मा ने कहा कि कृषि क्षेत्र में पिछले दस सालों में साम्राज्यवादी घुसपैठ हुई है । खेती किसानी को उद्योग का दर्जा दिये जाने की बात की जा रही है । यह मांग आत्महत्या करने की तरह है । उद्योग में एक मालिक और हजारों मजदूर होते हैं । खेती का निगमीकरण इसी का दूसरा रूप है । स्वामी सहजानन्द सरस्वती शोध संस्थान के संस्थापक एवं चिंतक राघवशरण शर्मा ने कहा कि किसान राजनीति के केन्द्र से विस्थापित कर दिए गये है । किसानी के संकट का समाधान किसान मजदूर राज की स्थापना से ही होगा । आपने कहा कि स्वामी सहजानन्द जी ने समाज को जाति के आधार पर नहीं वरन् वर्ग के मजदूर और शोषित को ही संघर्ष में सहभागी बनाने की बात कही और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की भूमिका को खारिज किया । किसानी के संकट के समाधान की दिशा में किए गए इस प्रयास में मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ के विभिन्न किसान संगठन, आन्दोलन एवं जन संगठन से जुड़े साथियों के विविध पहलुओ पर गहन विचार विमर्श के पश्चात् कुछ मुख्य बिन्दुआें पर सहमति हुई इनमें प्रमुख हैं - कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक विनिवेश बढ़ाया जाय । बैंककारी विनियमन अधिनियम १९४९ की धारा २१ (क) को भूतलक्षी प्रभाव से समाप्त् किया जाय । खेती किसानी कौशल एवं दक्षता का काम है लेकिन सरकारी दस्तावेजों में किसान को अकुशल कह कर उनके मेहनत के मोल को दबाया जा रहा है। अत: किसान को दक्ष एवं कुशल माना जाये। संसदीय समिति ने खेती पर चक्रवृद्धि ब्याज को किसानों की आत्महत्या का कारण माना है, चक्रवृद्धि ब्याज रद्द किया जाये । निश्चित समयावधि में कर्ज न चुका पाने की स्थिति में किसान को जेल भेजने का प्रावधान खत्म हो । किसानी के संकट के खात्मे के लिए आवश्यक है कि उक्त बिन्दुआेंको दृष्टिगत रखते हुए समाधान की दिशा में प्रयास किए जाए । तभी किसानों की आत्महत्या का यह दौर खत्म होगा और किसान सम्मानपूर्वक खेती कर देश के विकास में योगदान कर सकेगें ।***जल ही जीवन है

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

११ खास - खबर

चाँद पर पानी के नये प्रमाण
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा )
पिछले दिनों भारत के पहले महत्वाकांक्षी चाँद मिशन चंद्रयान प्रथम ने चाँद की सतह पर पानी उपलब्ध होने के सबूत खोजे हैं । अध्ययन में इसरो के दो वैज्ञानिकों जेएन गोस्वामी और मिलस्वामी अन्नादुराई ने अहम् भूमिका निभाई । चंद्रयान के परियोजना निदेशक श्री अन्नादुराई ने कहा कि हमारी परियोजना सफल रही है । वैज्ञानिकों ने यह घोषणा करते हुए बताया कि चंद्रयान पर मौजूद अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के उपकरण मून माइनरोलाजी मैपर एम (३) ने चाँद की सतह पर ऐसी लहरों की पहचान की है जिससे चाँद पर पानी की मौजूदगी प्रतीत होती है । चाँद की सतह पर हाइड्रोजन और ऑक्सीजन की बारीक परत है जिससे साबित होता है कि वहां पानी है । एम३ ने स्पष्ट किया है कि जो डाटा है उससे स्पष्ट है कि चाँद पर पानी है। इस खोज से चार दशकों का असमंजस स्पष्ट हो गया है । मैरीलैंड विवि के जेसिका सनशाइन और उनके सहयोगियों ने चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का प्रदर्शन करने के लिए इम्पैक्ट अंतरिक्ष यान से प्राप्त् इंफ्रारेड मानचित्रण का सहारा लिया । अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग के रोजर क्लार्क और उनके सहयोगियो ने चंद्रमा पर मौजूद पानी की पहचान के लिए कैसिनी अंतरिक्ष यान से प्राप्त् चित्रमापी का इस्तेमाल किया जो तत्वों और रसायनों के विश्लेषण के लिए प्रकाश किरणों को अलग करता है । वैज्ञानिकों के अनुसार मुख्य रूप से चंद्रमा के ध्रुवों पर केंद्रित पानी के अंश संभवत: सौर आंधी के कारण निर्मित हुए होंगें । पानी का यह अंश चंद्रमा पर धूल के कणों के साथ मिलकर इधर-उधर होता होगा । वैज्ञानिकों ने चार दशक पहले वहाँ से लाए गए चट्टान के टुकड़ों के नमूनों की जाँच की थी जिसमें चाँद पर पानी होने की संभावना व्यक्त की गई थी और तब से इस बारे में शीर्ष वैैज्ञानिक शोध कार्य में जुटे हुए थे । लेकिन जिस बॉक्स में रखकर चाँद से चट्टान के टुकड़े को लाया गया था उसके हवा के संपर्क में आने के कारण वैज्ञानिकों को उसकी शुद्घता पर संदेह था । हवाई विवि के पाल ल्यूरे ने लिखा है कि वर्तमान में चंद्रमा पर पानी होने के बारे में जो खोज की, उससे अलग वहाँ ऐसे क्षेत्र भी मौजूद हो सकते हैं जहाँ पानी अधिक मात्रा में मौजद हो । ऐसा भी संभव हो सकता है कि चंद्रमा से लाए गए नमूनों में दुलर्भ पानी से संबंधित खनिज होने का जो दावा किया गया था वह सही में मौजूद हो लेकिन उसके बारे में बाद में यह कह दिया गया कि पृथ्वी पर प्रदूषित होने के कारण उसमें वह खनिज तत्व मिल गए । चंद्रयान-१ की सफलता के बाद अब इसरो चांद पर खुदाई की योजना बना रहा है । खुदाई का काम चंद्रयान-२ करेगा इसरो के प्रमुख जी माधवन नायर ने कहा है कि चाँद से पानी निकालना संभव है । चंद्रयान-१ ने जून में ही चांद पर पानी मिलने के संकेत भेज दिए थे । लेकिन उसका उस वक्त खुलासा नहीं किया गया । अपने अभियान को चंद्रयान-१ ने सफलता पूर्वक अंजाम तक पहुंचाया है । लंबे अनुसंधान और दूसरे अमेरिकी सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों के अध्ययन के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुचे कि चांद पर पानी मौजूद है । नासा ने कहा कि इसरो की वजह से ही इतनी बड़ी सफलता हाथ लगी है । नासा चांद पर पानी ढूंढने के मिशन में पिछले कई दशकों से जुटा था । लेकिन कामयाबी इसरो ने दिलाई । गौरतलब है कि इसरो के चंद्रयान के साथ नासा का एक उपकरण मून मिनरोलॉजी मैपर भी भेजा गया था । इसी उपकरण ने पानी का पता लगाया । नासा के निदेशक जिम ग्रीन ने औपचारिक तौर पर घोषणा करते हुए कहा कि चंद्रयान के साथ तीन उपकरण थे जिसमें अमेरिकी उपकरण एमक्यू भी था। इसने जो जानकारी दी वो चौंकाने वाली है नासा के निदेशक ने कहा कि दशकों पहले अंतरिक्ष यान अपोलो से लाए चट्टानों की स्टडी के बाद ऐसा लगा कि चांद मरूस्थल की तरह है । फिर ९० के दशक में लूनर प्रासपेक्टर ने जो तस्वीरें भेजी उससे लगा कि कुछ हिस्सों में पानी के अंश हैं पर ये न के बराबर हैं । लेकिन चंद्रयान के जरिए जो जानकारी मिली है उससे साफ है कि वहां पानी है । हालांकि जिम ने साफ कर दिया कि चांद पर कितना पानी है इसका सही अंदाजा गहराई से जांच के बाद पता चलेगा लेकिन एक आकलन के मुताबिक एक हजार पाउंड मिट्टी और चट्टानों से १६ आउंस पानी निकल सकता है जो दो चम्मच के बराबर है । चंद्रयान को अक्टूबर २००८ में श्री हरिकोटा के प्रक्षेपण केंद्र से लाँच किया गया था । चंद्रयान पर कुल ११ उपकरण थे जिनमें से छह विदेशी एजेंसियों के थे । दो अमेरिकी, तीन यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और एक बुल्गारिया का उपकरण । बाकी के पांच उपकरण भारतीय थे जिन्हें इसरो ने तैयार किया था । इसरो का ये मिशन आज ऐतिहासिक साबित हो गया और दुनिया भर में देश का परचम लहरा गया । ***

१२ आसपास

पर्यावरण शरणार्थी - एक नया समूह
ची योक हेआँग
बांग्लादेश के दक्षिणी तट स्थिति कुतुबदिया नामक द्वीप अपने आकार में आज, एक शताब्दी पूर्व का मात्र २० प्रतिशत रह गया है । इसका कारण है शक्तिशाली व ज्वार की लहरों, एवं समुद्री तूफानों के कारण होने वाला कटाव । समुद्र इस द्वीप में १५ कि.मी तक घुस आया है । संयुक्त राष्ट्र की एक बसाहट रिपोर्ट में कहा गया है कि नदी डेल्टा वाले शहरों जैसे भारत में कोलकाता, म्यांमार में यंगून और वियतनाम के हाई पोंग जैसे शहर बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण अत्यधिक बाढ़ का सामना कर रहे हैं । आने वाले वर्षोंा में समुद्रतटीय शहरों का भी यही हाल होने वाला है । वर्ल्ड विजन रिपोर्ट के अनुसार अन्य शहरी क्षेत्रों को बढ़ते वैश्विक तापमान से सीधा खतरा तो नहीं है परंतु उपरोक्त प्रभावित शहरों से आने वाले पर्यावरणीय शरणार्थी इन शहरों के सम्मुख जबरदस्त चुनौती पैदा कर सकते हैं । अभी हमें जो दिखाई दे रहा है वह तो भविष्य की मात्र एक झलक ही है । विश्व में जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर एशिया और प्रशांत क्षेत्रों में हैं क्योंकि इन क्षेत्रों की विशाल समुद्री सीमा है जिसके पास बड़ी मात्रा में भूमि आच्छादित है । यह भी विश्वास जताया जा रहा है कि इन इलाकों ने जो सामाजिक आर्थिक उन्नति की है आगामी दो- तीन दशकों में बढ़ता जलस्तर उसे लील जाएगा । एशिया विकास बैंक की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण पूर्व एशिया की अर्थव्यवस्थाआें के सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण सन् २१०० तक ६.७ प्रतिशत की कमी आ सकती है । यह वैश्विक औसत से दुगुनी है । जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, क्षेत्र और देशों में अलग- अलग पड़ेगा । जलवायु परिवर्तन पर अंतरराजकीय पैनल का कहना है कि जलवायु परिवर्तन का बांग्लादेश पर अत्यंत विपरीत प्रभाव होगा । इसके परिणामस्वरूप यहांआने वाले तूफानों की आवृत्ति और तीव्रता दोनों में ही वृद्धि होगी । साथ ही गंगा - ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन में बाढ़ का प्रकोप भी बढ़ेगा । हिमालय, मध्य और पश्चिम एशिया एवं दक्षिण भारत में वर्षा के व्यवहार में परिवर्तन आएगा जिससे कृषि उत्पादन एवं खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है । इसके परिणामस्वरूप लाखों लोग भूख की चपेट में आ जाएंगे और बड़ी संख्या मेंलोग जलवायु शरणार्थी बन जाएंगे । इसके परिणामस्वरूप प्रशांत, दक्षिण पूर्व एशिया और हिंद महासगर के निचले क्षीपों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा । इसी के साथ ही साथ इस क्षेत्र में पानी की कमी बढ़ती जाएगी ।वैसे यह क्षेत्र अभी भी लगातार सूखे की चपेट में रह रहा है । पिछले दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण प्रचण्ड तूफानों, सूखा, गर्म हवाआें, भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक विपदाआें में वृदि्घ में बांग्लादेश , भारत , फिलिपीन्स और वियतनाम जैसे देश अव्वल रहे हैं और यहां पर इस अवधि में इन हादसों के कारण होने वाला नुकसान २० खरब डॉलर से अधिक है । भविष्य में बढ़ते तापमान के कारण समुद्र का स्तर बढ़ेगा , समुद्र और अधिक गरम होगा और समुद्र की क्षारीयता में वृदि्घ होगी । इससे तटीय क्षेत्रों में कटाव होगा और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचेगा । यही पारिस्थितिकी तंत्र प्रशांत एवं एशिया के देशों के लोगों की जीविका और पोषण तत्वों का मुख्य स्त्रोत है । विश्व वन्यजीव कोष के अध्ययन के अनुसार इस सदी के अंत तक प्रशांत महासागर से कोरल विलुप्त् हो जाएेंगें जिससे १० करोड़ से अधिक लोगों की जीविका और खाद्य आपूर्ति संकट में पड़ जाएगी । कोरल पर्यटकों को भी आकृष्ट करते हैं उनके न होने से पर्यटन से होने वाली अय पर भी विपरीत प्रभाव प्ड़ेगा । जलवायु परिवर्तन कृषि को भी प्रभावित करेगी । एशियाई विकास बैंक के अनुसार पानी की कमी के कारण थाईलैंड एवं वियतनाम में चावल का उत्पादन घटकर आधा रह जाएगा। वहीं दक्षिण एशिया में वर्ष २०५० तक कृषि उत्पादन में ५० प्रतिशत तक की कमी आ सकती है । वैसे उसके आसार अभी से नजर भी आने लगे हैं । बांग्लादेश के दक्षिणी जिले समुद्री जल से कुछ ही सेंटीमीटर ऊपर रह गए हैं जिसके परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा मे जमीन क्षारीय होकर बर्बाद हो रही है । यही स्थिति बंगाल की खाड़ी में भी हो रही है । हिमालय के घटते ग्लेशियरों के कारण अकाल से प्रभावित क्षेत्रों की स्थिति और बदतर हो सकती है । क्योंकि जलवायु परिवर्तन से पूरा फसल-चक्र ही गड़बड़ा गया है । जलवायु परिवर्तन मनुष्यों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव डालेगा । परिणामस्वरूप लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है । एशिया और प्रशांत क्षेत्रों में बाढ़ एवं सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाआें में वृद्धि होने से वायुजनित एवं गर्मी से संबंधित बीमारियों में भी वृद्धि होगी । जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप पानी और खाद्य पदार्थोंा की कमी भी स्वास्थ्य पर प्रतिकुल प्रभाव डालेगी । वास्तविकता यह है कि वर्ष २००४ से २००६ के मध्य आई प्राकृतिक विपदाआें में से ७० प्रतिशत एशिया, प्रशांत, अफ्रीका और मध्यपूर्व में आई थी । इससे इस इलाके की संवेदनशीलता का भी पता चलता है । जलवायु परिवर्तन का सबसे गहरा प्रभाव महिलाआें पर पड़ता है । परंतु परिस्थतियों के अनुरूप स्वयं को ढालने में भी उन्हें महारत हासिल है । उदाहरण के लिए दक्षिण भारत की एक संस्था डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी दलित महिलाआें के बीच कार्य कर उन्हें जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप फसलों पर पड़ने वाले प्रभावों से बचने की तकनीक सिखा रही है । इसके अंतर्गत उन्होंने ऐसी फसलें लगाई हैं जिनमें अतिरिक्त पानी, रासायनिक खाद अथवा कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं पड़ती । इस पद्धति से इन महिलाआें ने १९ तरह के देशज बीजों पर आधारित फसल खराब और क्षारीय भूमि पर काट ली है । परंतु इन परिस्थितियों से निपटने के लिए विकासशील देशों को अमीर देशों से अत्यधिक वित्तीय सहायता की आवश्यकता है जिससे कि ये देश विकासशील देश नई तकनीकों को अपना सकें और अपना पारम्पारिक विकास जारी रख सकें । जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ का सम्मेलन इस वर्ष दिसम्बर में होने वाला है । इस दौरान अंतराष्ट्रीय समुदाय को इस समस्या की गंभीरता को समझ कर वैशिवक सहयोग से इस समस्या का हल ढूंढने का प्रयास करना चाहिए । ***

१४ पर्यावरण समाचार

पर्यावरण समाचार

सन् २०२५ तक ७० फीसदी धरती होगी रेगिस्तान ! जलवायु परिवर्तन दुनिया के लिए गंभीर समस्या बनता जा रहा है । घटते वनक्षेत्र, धरती का बढ़ता तापमान और कम होता मानसून कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से सूखा पड़ने का खतरा बढ़ रहा है। यदि इस पर काबू पाने के गंभीर प्रयास जल्द नहीं किए गए तो २०२५ तक ७० प्रतिशत धरती रेगिस्तान बन जाएगी । यह चेतावनी बढ़ने मरूस्थलीकरण की समस्या पर विचार करने के लिए आयोजित संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में दी गई । अर्जटीना की राजधानी में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के नौवें सम्मेलन में कार्यकारी सचिव लुक नकाद्जा ने कहा, हम इस समस्या का हल नहीं खोज पाए तो २०२५ तक ७० प्रतिशत धरती इससे प्रभावित हो जाएगी । ग्लोबल क्लाइमेट रिपोर्ट के मुताबिक, अभी ४१ प्रतिशत धरती सूखा से करीब प्रभावित है । पर्यावरण में हो रहे नुकसान के कारण १९९० से इसमेें १५ से २५ प्रतिशत वार्षिक दर से वृद्धि हो रही हैं। नकाद्जा ने कहा, सूखा प्रभावित क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा के बगैर लोगों की जान नहीं बचाई जा सकती । उन्होंने जोर देकर कहा कि सूखे से निपटने के लिए विकासित देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के कारगर उपाय करने होंगे । अगला सम्मेलन दक्षिण कोरिया में २०१० में आयोजित किया होगा।गंगा डॉल्फिन राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित सरकार ने गंगा डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया है । मोर राष्ट्रीय पक्षी और बाघ राष्ट्रीय पशु पहले से ही घोषित हैं । किसी जलचर को अभी तक राष्ट्रीय जीव घोषित नहीं किया गया था । प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की अध्यक्षता में हुई गंगा नदी घाटी प्राधिकरण की बैठक में विलुप्त् हो रही गंगा डॉलफिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित करने का फैसला किया गया । इस बैठक में उन सभी राज्यों के मुख्यमंत्री या उनका प्रतिनिधित्व करने वाले अधिकारी मौजूद थे जहां से गंगा होकर बहती है । गंगा डॉलफिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया जाना बैठक में किया गया सबसे रोमांचकारी फैसला था । गंगा नदी को २०२० तक प्रदूषण मुक्त बनाने की ठोस रूप रेखा पेश करते हुए उन्होंने आज कहा कि आज २००० से भी कम गंगा डलिफॉन बची हैं । जब तक इनकी बड़ी संख्या में गंगा में वापीस सुनिश्चित नहीं होती देश के लोगों की आस्था से जुड़ी इस पवित्र नदी की सफाई का कार्यक्रम भी सफल नहीं होगा ।* **