सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

१२ आसपास

पर्यावरण शरणार्थी - एक नया समूह
ची योक हेआँग
बांग्लादेश के दक्षिणी तट स्थिति कुतुबदिया नामक द्वीप अपने आकार में आज, एक शताब्दी पूर्व का मात्र २० प्रतिशत रह गया है । इसका कारण है शक्तिशाली व ज्वार की लहरों, एवं समुद्री तूफानों के कारण होने वाला कटाव । समुद्र इस द्वीप में १५ कि.मी तक घुस आया है । संयुक्त राष्ट्र की एक बसाहट रिपोर्ट में कहा गया है कि नदी डेल्टा वाले शहरों जैसे भारत में कोलकाता, म्यांमार में यंगून और वियतनाम के हाई पोंग जैसे शहर बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण अत्यधिक बाढ़ का सामना कर रहे हैं । आने वाले वर्षोंा में समुद्रतटीय शहरों का भी यही हाल होने वाला है । वर्ल्ड विजन रिपोर्ट के अनुसार अन्य शहरी क्षेत्रों को बढ़ते वैश्विक तापमान से सीधा खतरा तो नहीं है परंतु उपरोक्त प्रभावित शहरों से आने वाले पर्यावरणीय शरणार्थी इन शहरों के सम्मुख जबरदस्त चुनौती पैदा कर सकते हैं । अभी हमें जो दिखाई दे रहा है वह तो भविष्य की मात्र एक झलक ही है । विश्व में जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर एशिया और प्रशांत क्षेत्रों में हैं क्योंकि इन क्षेत्रों की विशाल समुद्री सीमा है जिसके पास बड़ी मात्रा में भूमि आच्छादित है । यह भी विश्वास जताया जा रहा है कि इन इलाकों ने जो सामाजिक आर्थिक उन्नति की है आगामी दो- तीन दशकों में बढ़ता जलस्तर उसे लील जाएगा । एशिया विकास बैंक की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण पूर्व एशिया की अर्थव्यवस्थाआें के सकल घरेलू उत्पाद में बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण सन् २१०० तक ६.७ प्रतिशत की कमी आ सकती है । यह वैश्विक औसत से दुगुनी है । जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, क्षेत्र और देशों में अलग- अलग पड़ेगा । जलवायु परिवर्तन पर अंतरराजकीय पैनल का कहना है कि जलवायु परिवर्तन का बांग्लादेश पर अत्यंत विपरीत प्रभाव होगा । इसके परिणामस्वरूप यहांआने वाले तूफानों की आवृत्ति और तीव्रता दोनों में ही वृद्धि होगी । साथ ही गंगा - ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन में बाढ़ का प्रकोप भी बढ़ेगा । हिमालय, मध्य और पश्चिम एशिया एवं दक्षिण भारत में वर्षा के व्यवहार में परिवर्तन आएगा जिससे कृषि उत्पादन एवं खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है । इसके परिणामस्वरूप लाखों लोग भूख की चपेट में आ जाएंगे और बड़ी संख्या मेंलोग जलवायु शरणार्थी बन जाएंगे । इसके परिणामस्वरूप प्रशांत, दक्षिण पूर्व एशिया और हिंद महासगर के निचले क्षीपों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा । इसी के साथ ही साथ इस क्षेत्र में पानी की कमी बढ़ती जाएगी ।वैसे यह क्षेत्र अभी भी लगातार सूखे की चपेट में रह रहा है । पिछले दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण प्रचण्ड तूफानों, सूखा, गर्म हवाआें, भूस्खलन और अन्य प्राकृतिक विपदाआें में वृदि्घ में बांग्लादेश , भारत , फिलिपीन्स और वियतनाम जैसे देश अव्वल रहे हैं और यहां पर इस अवधि में इन हादसों के कारण होने वाला नुकसान २० खरब डॉलर से अधिक है । भविष्य में बढ़ते तापमान के कारण समुद्र का स्तर बढ़ेगा , समुद्र और अधिक गरम होगा और समुद्र की क्षारीयता में वृदि्घ होगी । इससे तटीय क्षेत्रों में कटाव होगा और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचेगा । यही पारिस्थितिकी तंत्र प्रशांत एवं एशिया के देशों के लोगों की जीविका और पोषण तत्वों का मुख्य स्त्रोत है । विश्व वन्यजीव कोष के अध्ययन के अनुसार इस सदी के अंत तक प्रशांत महासागर से कोरल विलुप्त् हो जाएेंगें जिससे १० करोड़ से अधिक लोगों की जीविका और खाद्य आपूर्ति संकट में पड़ जाएगी । कोरल पर्यटकों को भी आकृष्ट करते हैं उनके न होने से पर्यटन से होने वाली अय पर भी विपरीत प्रभाव प्ड़ेगा । जलवायु परिवर्तन कृषि को भी प्रभावित करेगी । एशियाई विकास बैंक के अनुसार पानी की कमी के कारण थाईलैंड एवं वियतनाम में चावल का उत्पादन घटकर आधा रह जाएगा। वहीं दक्षिण एशिया में वर्ष २०५० तक कृषि उत्पादन में ५० प्रतिशत तक की कमी आ सकती है । वैसे उसके आसार अभी से नजर भी आने लगे हैं । बांग्लादेश के दक्षिणी जिले समुद्री जल से कुछ ही सेंटीमीटर ऊपर रह गए हैं जिसके परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा मे जमीन क्षारीय होकर बर्बाद हो रही है । यही स्थिति बंगाल की खाड़ी में भी हो रही है । हिमालय के घटते ग्लेशियरों के कारण अकाल से प्रभावित क्षेत्रों की स्थिति और बदतर हो सकती है । क्योंकि जलवायु परिवर्तन से पूरा फसल-चक्र ही गड़बड़ा गया है । जलवायु परिवर्तन मनुष्यों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव डालेगा । परिणामस्वरूप लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है । एशिया और प्रशांत क्षेत्रों में बाढ़ एवं सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाआें में वृद्धि होने से वायुजनित एवं गर्मी से संबंधित बीमारियों में भी वृद्धि होगी । जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप पानी और खाद्य पदार्थोंा की कमी भी स्वास्थ्य पर प्रतिकुल प्रभाव डालेगी । वास्तविकता यह है कि वर्ष २००४ से २००६ के मध्य आई प्राकृतिक विपदाआें में से ७० प्रतिशत एशिया, प्रशांत, अफ्रीका और मध्यपूर्व में आई थी । इससे इस इलाके की संवेदनशीलता का भी पता चलता है । जलवायु परिवर्तन का सबसे गहरा प्रभाव महिलाआें पर पड़ता है । परंतु परिस्थतियों के अनुरूप स्वयं को ढालने में भी उन्हें महारत हासिल है । उदाहरण के लिए दक्षिण भारत की एक संस्था डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी दलित महिलाआें के बीच कार्य कर उन्हें जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप फसलों पर पड़ने वाले प्रभावों से बचने की तकनीक सिखा रही है । इसके अंतर्गत उन्होंने ऐसी फसलें लगाई हैं जिनमें अतिरिक्त पानी, रासायनिक खाद अथवा कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं पड़ती । इस पद्धति से इन महिलाआें ने १९ तरह के देशज बीजों पर आधारित फसल खराब और क्षारीय भूमि पर काट ली है । परंतु इन परिस्थितियों से निपटने के लिए विकासशील देशों को अमीर देशों से अत्यधिक वित्तीय सहायता की आवश्यकता है जिससे कि ये देश विकासशील देश नई तकनीकों को अपना सकें और अपना पारम्पारिक विकास जारी रख सकें । जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ का सम्मेलन इस वर्ष दिसम्बर में होने वाला है । इस दौरान अंतराष्ट्रीय समुदाय को इस समस्या की गंभीरता को समझ कर वैशिवक सहयोग से इस समस्या का हल ढूंढने का प्रयास करना चाहिए । ***

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