मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

५ कविता

माँ वसुन्धरा
पं. योगेन्द्र मौदगिल
भूमि श्रृंगार वृक्ष उपहार प्रकृति के,इन पर मानव का अत्याचार रोकिये,मानते हैं बात जो दरांतियों - कुल्हाड़ियों की,ऐसे असुरों को बेझिझक हो टोकिये,अब तो रे बाज आओ, मान जाओ , रूकजाओ,माफ अपराध सब अब तक जो किये,वृक्षों का कटान कर देगा अंत सभ्यता का,सभ्यता के हित में तत्काल इसे रोकिए ।
स्वयं को शाकाहार देंगें उपहार और,धरती के वृक्षोंका आधार देके जाएंगें,निर्णय हमारा अब एक होना चाहिए कि,हरी हरियाली ही अपार देके जाएंगें ।वरना ये हमने तो जैसे तैसे काट ली है,सोच संतान को क्या यार देके जाएंगे ।यही हाल रहा तो नवेली सब पीढ़ियों को,दमा, टीबी, अस्थमा उपहार देके जाएंगें ।
विषम विडम्बना में डूबा है विकासक्रम,बूझती है पर निरूपाए माँ वसुन्धरा ।वृक्षों का कटान निर्बाध देख देख हाय,टूक-टूक रोती असहाय माँ वसुन्धरा ।गहने - लत्ते सम तरू लुट गये लगती है,नित्य तेजहीन-कृशकाय माँ वसुन्धरा ।यही हाल रहा तो यह कह देगी इकदिन,दुनिया को सीधे बाय-बाय माँ वसुन्धरा ।***

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