शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

१ दृष्टिकोण


गाँधीवाद रहे न रहे
महात्मा गांधी

सन् १९४० में बंगाल के मालिकांदा में गाँधी सेवा संघ का छठा अधिवेशन हुआ था । गाँधीजी के भाषण से पहले कुछ लोग जोर-जोर से गाँधीवाद का ध्वंस हो जैसे नारे लगा रहे थे । उस ओर ध्यान आकृष्ट हुए गाँधी जी ने जो कहा- वह कितना स्पष्ट है, यह पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं । इसी के समानांतर बढ़ती हिंसा के वर्तमान दौर में गांधीजी की वीरोचित अहिंसा पथ प्रदर्शक का कार्य करेगी ।
अभी मैंने कई लोगों को गाँधीवाद का ध्वंस हो चिल्लाते सुना । जो गाँधीवाद का ध्वंस करना चाहते हैं, उनको ऐसा कहने का पूरा-पूरा अधिकार है । जो लोग मेरा भाषण सुनने आये हैं वे कृपाकरके खामोश रहें। उनको इन विरोधी नारों से चिढ़ना नहीं चाहिए ओर नहीं गाँधी की जय के नारे लगा कर उनका जवाब देना चाहिए । अगर आप अहिंसक हैं तो आपको ऐसे नारे चुपचाप सुन लेने चाहिए । अगर गाँधीवाद में सत्य है तो उसके नाश के लिए लाखोंया करोड़ों आवाजें लगायी जाने पर भी उसका नाश होने वाला नहीं है ।
जो लोग गाँधीवाद के विरूद्ध कुछ कहना चाहते हों, उन्हें वैसा कहने की आजादी दीजिए । उससे कोई नुकसान नहीं होगा । उसने किसी प्रकार का द्वेष या बैर न कीजिए । जब तक आप अपने विरोधियों को शांति से निबाह नहीं सकेंगे, तब तक अहिंसा को सिद्ध नहीं कर सकेंगे । अगर सच पूछा जाय तो खुद मैं ही नहीं जानता कि गाँधीवाद का क्या अर्थ है । वे लोग जो यह कहते हैं ।
गाँधीवाद को ध्वंस हो, उसमें अर्थ नहीं हैं, ऐसा नहीं है । अगर गाँधीवाद का अर्थ यंत्र की तरह चरखा चलाना ही हो तो उसका ध्वंस होना इष्ट है । यह तो प्रफुल्ल बाबू ने एक लाख गज सूत कातने की बात कही है, उसका महत्व मैंने आपको समझाया । परन्तु हमें उसका केवलशब्दार्थ नहीं लेना चाहिए । मैं उसकी दूसरी बाजू भी जानता हूँ । सिर्फ चरखा चलाने
से देश का कल्याण नहीं होगा । पुराने जमाने में भी कई अपाहिज और स्त्रियां चरखा चलाती थीं । कोटिल्य ने लिखा है कि उस जमाने में राजदंड के डर से चरखा चलवाया जाता था । चरखा चलाने वाले अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि मजबूरी से बेगार के तौर पर चरखा चलाते थे । औरतें चरखा कातने के लिए एक कतार में बैठती थीं । वह सब जबर्दस्ती का मामला था । यह लिखी हुई बात है । मैं केवल सुनी हुई बात नहीं कह रहा हूँ । अगर हमारा मतलब फिर उसी चरखे को जारी रखने से है, तब तो उसे चरखे का ध्वंस ही होना चाहिए और उस चरखे का महत्व मानने वाले गाँधीवाद का भी ध्वंस होना ही चाहिए ।
अगर हमारी अहिंसा वीर की अहिंसा न होकर कमजोर की अहिंसा है, अगर वह हिंसा के सामने झुकती है, हिंसा के आगे लज्जित और बेकार हो जाती है, तो ऐसे गाँधीवाद का भी ध्वंस होना चाहिए । उसका ध्वंस होने वाला ही हैं । हम अंग्रेजों से लड़े मगर उसमें हमने अशक्त लोगों के शस्त्र के रूप मेंअहिंसा को प्रयोग किया । हम उसे बुलन्द, शक्तिशाली का अस्त्र बनाना चाहते हैं, परन्तु वह बुजदिलों का कायरों का शस्त्र तो हरगिज नही ंहो सकती है । अगर कोई बुजदिल होकर अहिंसा को अपना लेता है तो अहिंसा उसका नाश करेगी । हमें यह देखना चाहिए कि हम चरखा चलाते हैं तो क्या उसमें से हममें अहिंसा की शक्ति पैदा होती है ? अगर हमारा चरखा अहिंसा को नित नया बल नहीं देता हमारी अहिंसा का दर्शन नहीं बढ़ाता तो मैं कहता हूँ कि गाँधीवाद का ध्वंस हो । वे लोग गाँधीवाद के ध्वंस के नारे पागलपन में लगा रहे हैं, रोष में आकर कह रहे हैं, लेकिन मैं तो बुद्धिपूर्वक कह रहा हूँ । यह बात आपसे एक ऐसा आदमी कहता है जो सारासार का विचार कर सकता है, जिसका मस्तिष्क काम करता है और जिसने सफलतापूर्वक वकालत भी की है ।
मैं यह साक्षी देता हूँ कि हम यदि अहिंसा का अनुसंधान करके ध्यानपूर्वक चरखा नहीं चलाते हैं तो गांधीवाद का अवश्य ही ध्वंस होना चाहिए । मैंने चरखे को अहिंसा नीति का व्यक्त प्रतिक माना है । आप मुझसे पूछेंगे कि यह सब तुमने कहां से पाया ? मैं कहूंगा , सेवा के अनुभव से । सन् १९०८ में मेरे दिल में यह बात जमी हुई थी । उस समय तो मैं करघे-चरखे का भेद भी नहीं जानता था । लेकिन बीज रूप में चरखे से मुझे प्रेरणा मिली ।
शायद आपको पता नहीं होगा कि मैंने हिन्द स्वराज किसके लिए लिखा । अब तो वे मर गये हैं, इसलिए उनका नाम बताने में
हर्ज नहीं हैं । मैंने सारा हिन्द स्वराज अपने मित्र डॉ. प्राण जीवन मेहता के लिए लिखा । उनसे जो चर्चा हुई, वहीं उसमें आयी है । एक महीना मंै डॉ. मेहता के साथ रहा । वे मुझे प्यार करते थे, लेकिन मेरी बुद्धि की उनके पास कोई कीमत नहीं थी । उनसे बुद्धिवाद करने की शक्ति मुझमें
कहां ? लेकिन मैंने अपनी बात उनके सामने रखी । उनके हृदय पर वह असर कर गयी । उनके विचार बदल गये । तो मैंने सोचा इसे लिख ही क्यों लिख न डालूं ? उनसे जैसा संवाद हुआ, वैसा ही उसमें लिखा है । मैंने उस समय तक चरखे का दर्शन ही नहीं किया था । चरखे की बात तो मेरे स्वतंत्र प्रकरणों में आई है । लेकिन तो भी मैंने वहां आखिरी दलील यही दी थी कि अहिंसात्मक संस्कृति का आधार सार्वत्रिक कताई ही हो सकती
है ।इसलिए मैं आपसे कहता हूँ कि चरखे में जो अर्थ भरे हैं, उनको न समझ कर अगर आप चरखा चलाते हैं तो या तो पद्मा नदी में फेंक दीजिए या जला कर जाइए । तब सच्च गांधीवाद प्रकट होगा । सिर्फ चरखा चलाने तक ही जो गाँधीवाद सीमित है, उसके लिए तो मैं कहूंगा कि गांधीवाद का ध्वंस हो ।
कल शाम को गांधीवाद ध्वंस होे का घोष हुआ । मारपीट भी हुई । दो-चार आदमी पिट गये । मैं आपसे पूछता हूं कि आपके दिल पर क्या असर हुआ ? हम दो सौ आदमी यहां इस तरह पिट कर मर जायें तो आपके दिल में रोष पैदा होगा या दया ? सिर्फ मर जाने से हम परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होंगे ।हमारे दिल में मारने वालों के लिए दया होनी
चाहिए । प्रेम तो वहां ठीक नहीं होगा । तो अत्याचार करते हैं, उनको हम यह शाप नहीं देंगे कि उनका सत्यानाश हो जाए । लेकिन उनको प्रेम भी कैसे कर सकते हैं? उन पर दया करेंगे कि वह उन्हें ज्ञान दें । हम तितिक्षा से उनके आघात सह लेंगे । हमारे हृदय से दया के उद्गार निकलेंगे । सिर्फ लोगों को सुनाने के लिए नहीं, बल्कि सच्च्े दिल से हम उन पर दया करेंगे । कोई मुझ पर हमला करता है, लेकिन मुझे उस पर गुस्सा नहीं आता । वह मारता जाता है, मैं सहता जाता हूं । मरते-मरते भी मेरे मुख पर दर्द का भाव नहीं बल्कि हास्य है, मेरे दिल में रोष के बदले दया है, तो मैं कहँूगा कि हमने वीर पुरूषों की अहिंसा सिद्ध कर ली । अहिंसा में इतनी ताकत है कि वह विरोधियों को मित्र बना लेती है और उनका प्रेम प्राप्त् कर लेती है ।
अगर हम यह काम शुद्ध बुद्धि से करेंगे तो हमारी शक्ति बढ़ेगी और हमारी हस्ती से जो डर पैदा हो रहा है, वह नहीं रहेगा । हमारी शक्ति अगर किसी के दिल में डर पैदा करती है या हिंसा की प्रेरणा पैदा करती है। तो वह अहिंसक नहीं हो सकती । ***
डॉ. सुमन जैन द्वारा संपादित ग्रंथ गांधी विचार और साहित्य से साभार ।

२ सामयिक


विकास की कठिन डगर
सुश्री सुनीता नारायण

वेदान्ता परियोजना पर रोक लगाने के निर्णय के बाद विकास का मुद्दा अहम हो गया है ।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा ओडिशा में वेदान्ता परियोजना पर रोक लगाने के निर्णय को समझना अनिवार्य है । यह एक ताकतवर कंपनी द्वारा कानून तोड़े जाने की कहानी है । परन्तु यह कहानी उतनी ही विकास की उस भूल भुलैया की भी है जिसमें देश की सबसे समृद्ध भूमि पर सबसे गरीब लोग जीवन निर्वाह करते हैं ।
एन.सी. सक्सेना समिति ने तीन आधारों पर खनन समूहों द्वारा पर्यावरण कानूनों को तोड़ने की ओर इंगित किया है । पहला कब्जा करके गांव के वनों की बिना अनुमति फेंसिंग कर दी गई । दूसरा कंपनी अपने कच्च माल अर्थात बाक्साइट की आपूर्ति अवैध खनन के माध्यम से कर रही थी जबकि पर्यावरण स्वीकृति के अन्तर्गत यह स्पष्ट शर्त थी कि ऐसा कोई कार्य न किया जाए । तीसरा आरोप जिसके समर्थन में मंत्रालय के अफसरों एवं राज्य के पर्यावरण विभाग के दस्तावेज भी लगे हैं, सर्वाधिक गंभीर हैं । इसके अनुसार कंपनी ने बिना अनुमति लिए अपने शोधन संयंत्र (रिफायनरी) की क्षमता को १० लाख टन प्रतिवर्ष से बढ़ाकर एक करोड़ ६० लाख तक प्रतिवर्ष करना प्रारंभ कर दिया ।
दूसरे शब्दों में कहें तो संयंत्र की वर्तमान में २६ लाख टन प्रतिवर्ष कच्चे माल की मांग का बढ़कर सिर चकरा देने वाले १.६ करोड़ टन प्रतिवर्ष पर पहुंच जाने को लेकर पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का अभी तक आंकलन ही नहीं किया गया है । बाक्साइट कहां से आएगा ? इस पर भी गंभीरता से विचार करना होगा कि इस हेतु कितना अतिरिक्त जंगल काटा जाएगा ? इस हेतु कितना पानी निगल जाएगा ? स्थानीय समुदाय में पानी को लेकर अभी भी गुस्सा है क्योंकि कंपनी वर्तमान में ६५ कि.मी. दूर स्थित तेल नदी एवं नलकूपों से पानी का दोहन कर इस संसाधन को स्थानीय
जनता की पहुंच से बाहर कर रही है । इसके अतिरिक्त क्या शोधन संयंत्र के विस्तार से होने वाले प्रदूषण के भार को कम किया जा सकता है ? परन्तु वेदान्ता एल्यूमिनियम लि. इस तरह के मामलों की तफसील में जाना ही नहीं
चाहती है । वह पर्यावरण आशंकाआें और प्रचलित कानूनों की पूर्णतया अवहेलना करते हुए, अपने विस्तार में जुटी रही ।
यह निर्णय अधिकारों से संबंधित उन कानूनों को लेकर भी है, जिनका कि राज्य सरकार ने पालन नहीं किया । वन अधिकार अधिनियम (२००६) स्पष्ट रूप से निर्देशित करता है कि किसी भी परियोजना को स्वीकृति देने से पहले आदिवासियों के अधिकारों की अनिवार्य रूप से पहचान कर उनका निपटारा कर दिया जाना चाहिए । सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कानून कहता है कि वन में निवास करने वाले समुदायों द्वारा ग्रामसभा के माध्यम से स्वीकृति दिये जाने के बाद ही किसी परियोजना को हरी झंडी दिखाई जाए । सक्सेना समिति का अभिमत है कि इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया । सबसे घटिया बात यह है कि राज्य सरकार ने भी इस लापरवाही को छुपाने का प्रयत्न किया । वेदान्ता से लिप्त्ता हमें नहीं चौंकाती परन्तु उसे दोषमुक्त करना चौंकाता है।
अब बड़ा सवाल है कि इस निर्णय का खनिज समृद्ध क्षेत्रों के भविष्य के विकास पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? आईये हम आधुनिक भारत के मानचित्र को समझते हैं। एक नक्शा लीजिए । पहले पहल इसमें उन जिलों पर निशान लगाइये जो कि वन संपदा के लिए जाने जाते हैं और जहां समद्ध और घने जंगल हैं । अब इसके ऊपर और भारत की जल संपदा वाला का एक नक्शा रख दीजिए जिसमें हमारी प्यास बुझाने वाली नदियों व धाराआें आदि के स्त्रोत अंकित हों । अब तीसरे दौर में इसके ऊपर देश की खनिज संपदाएं जैसे लौह अयस्क, कोयला, बाक्साइट और ऐसी सभी वस्तुआें जो हमें आर्थिक रूप से समृद्ध करती हों का मानचित्र रख दीजिए । आप देखेंगे कि ये तीनों प्रकार की संपदाए साथ-साथ ही अस्तित्व में रहती हैं ।
परन्तु यहीं पर मत रूकिए । अब इस नक्शे में उन जिलों पर निशान लगाइये जहां देश के सबसे गरीब लोग रह रहे हों । ये भी इस देश के आदिवासी जिले स्थानों पर चिन्हित
हैं । सबसे समृद्ध जमीनें वहीं हैं । जहां सबसे गरीब लोग रहते हैं । अब इन पर लाल रंग छिड़क दीजिए । ये वहीं जिले हैं जहां नक्सलवादी घूमते हैं और सरकार भी यह स्वीकार करती है कि वह वहां अपने ही लोगों से लड़ रही है । यह बद्तर विकास का एक पाठ है, जिससे हमें सीख लेने की आवश्यकता है ।
समस्या यह है कि खनन खनिज जैसे संसाधनों को छीन ले लेता है । इस प्रक्रियामें उन भूमि, जंगल एवं पानी की गुणवत्ता गिरती है, जिस पर कि लोग जिन्दा रहते हैं । सबसे बुरा यह है कि आधुनिक खनन और औद्योगिक क्षेत्र उस जीविका की प्रतिभूर्ति नहीं करते जो उन्होंने छीन ली होती है । इससे स्थितियां और भी जटिल हो जाती हैं । आधुनिक उद्योग को स्थानीय रोजगार की बहुत कम आवश्यकता पड़ती है । वेदान्ता के १० लाख टन के शोधन संयंत्र को केवल ५०० स्थायी एवं इसके अलावा १००० संविदा (कांट्रेक्ट) कर्मचारियों की भी आवश्यकता होती है । चूंकि स्थानीय व्यक्ति इस तरह की कुशलता भरे कार्योंा के लिए प्रशिक्षित ही नहीं होते अतएव वे अपनी जमीन और जीविका दोनों से ही हाथ धो बैठते हैं ।
इसीलिए वेदान्ता और अन्य हजारों पर्यावरणीय विद्रोहों से जिनमें हमारा देश रंगा हुआ है, गरीब व सामान्य व्यक्तियों (नक्सलवादी नहीं) के संघर्ष है और यह समझने के लिए बहुत अधिक विद्वता की आवश्यकता भी नहीं है । ये सभी गरीब हैं परंतु आधुनिक विकास जिसे हम तरक्की कहते हैं, ने इन्हें और भी गरीब बनाया है ।
यह गरीबों का पर्यावरणवाद है । वे हमें प्राकृतिक संपदा का मूल्य सिखा रहे हैं । वे जानते हैं कि अपनी जीविका हेतु वे समीप स्थित जल, जंगल व जमीन पर निर्भर हैं । वे यह भी जानते हैं कि यदि एक बार ये संसाधन चले गए या इनकी गुणवत्ता नष्ट हो गई तो आगे कोई मार्ग नहीं है । उनके लिए पर्यावरण एक विलासिता नहीं बल्कि जीवित रहने का साधन है । इसी वजह से वेदान्ता के विरूद्ध लिया गया निर्णय भविष्य की एक कठोर मांग भी है । यह हमसे अपेक्षा रखता है कि हम व्यक्तियों और उनके पर्यावरण के साथ जिस तरह से व्यापार करते आए हैं उसमें परिवर्तन लाएं । सर्वप्रथम हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि व्यक्तियों की विकास में भागीदारी हो ।
हम इन जमीनों पर बसने वाले समुदायों को बिना लाभ पहुंचाए न तो उनके संसाधन निकाल सकते हैंन ही उनका पानी प्रदूषित कर सकते है और न उनके वनोंको संरक्षित रख सकते हैं । इसलिए खान एवं खनिज (विकास एवं नियमन) अधिनियम के मसौदे में लाभ में हिस्सेदारी की व्यवस्था का उद्योगों के विरोध के बावजूद समर्थन किया जाना चाहिए । इतना ही नहीं इसके बाद भी काफी कुछ किया जाना बाकी है ।
दूसरे हमें अपने लोकतंत्र के प्रति गंभीर होना पड़ेगा । वन अधिकार अधिनियम में दिए गए वीटो कई अन्य परियोजनाआें के संबंध में कम से कम दो आशयों को स्वीकार करना ही होगा । पहला, परियोजना प्रवर्तकों को समुदायों को अपने बोर्ड मंे शामिल करने के लिए अपनी छबि सुधारने की दिशा में गंभीर प्रयत्न करने होंगे । दूसरा भारत को कम में ज्यादा अर्थात् गागर में सागर भरना होगा । हम सभी खनिजों का खनन् या सभी जमीनों का अधिग्रहण या संपूर्ण पानी लेकर उन सभी उद्योगों का निर्माण नहीं कर सकते जिनकी हमने योजना बनाई है या बनाना चाहते हैं । हमें अपनी जरूरतें कम करना होगी तथा अपनी निपुणता बढ़ाकर अधिग्रहित की गई भूमि के एक-एक इंर्च का खोदे गए खनिज के प्रत्येक अंश का और पानी की प्रत्येक बूंद का इस्तेमाल करना होगा ।
यह वास्तव में एक सख्त पाठ है जो कि कईयों के लिए भविष्य में और भी कठोर हो सकता है । विकास काकोई आसान रास्ता नहीं है उम्मीद है वेदान्ता ने अब तक यह सबक सीख लिया होगा ।
***

३ हमारा भूमण्डल


शताब्दी विकास लक्ष्य की वस्तुस्थिति
रेम्जी बरॉड

शताब्दी विकास लक्ष्यों (एम.डी. जी.) के महत्व को ध्यान में रखते हुए इनके क्रियान्वयन की समीक्षा करना आवश्यक है । इसी के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ के दोहरे व्यक्तित्व पर भी विचार करते हुए इसमेंसुधार के लिए उठने वाली आवाजों को मजबूती प्रदान की जाना चाहिए ।
संयुक्त राष्ट्र शताब्दी विकास लक्ष्यों (एम.डी.जी.) को जिस उम्मीदों के साथ सभी सरकारी दावों के बावजूद नजर आता है कि विकास की प्रवृत्ति प्रारंभ से ही त्रृटिपूर्ण थी । पिछले दस वर्षोंा में असंख्य समितियों, अंतर्राष्ट्रीय एवं स्थानीय संगठनों एवं स्वतंत्र शोधकर्ताआें ने दिन रात एक कर के चरम गरीबी और भूख, सभी को उपलब्ध प्राथमिक शिक्षा, लैंगिक समानता, शिशु मृत्यु आदि से संबंधित सभी प्रकार के सूचकांक, संख्या, तालिका और आंकड़े इकट्ठा किए हैं ।
आवश्यक नहीं है कि इन आंकड़ों से निकाले गए सभी निष्कर्ष भयंकर ही निकले हों । साथ ही संयुक्त राष्ट्र के सभी १९२ सदस्य देशोंें द्वारा स्वीकार किए गए आठ अन्तर्राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों को सुनिश्चित करने में अथक रूप से जुटे सभी स्त्री, पुरूषों की विश्वसनीयता पर संदेह भी नहीं किया जाना चाहिए । ये वे लोग हैं जो मुद्दों को सामने लाए और आज भी कृत संकल्प होकर उन्हें पाने में जुटे हुए
हैं ।
समस्या तो इस विचार में ही छुपी हुई है कि सरकारों और राजनीतिज्ञों पर फिर वे चाहे अमीर हों या गरीब, लोकतांत्रिक या तानाशाह या बढ़ते वैश्विक युद्ध या अकाल के अगाध गर्त से निकलने का प्रयास कर रहे हों, पर क्या सहज भरोसा किया जा सकता है कि वे मानवता के प्रति स्वार्थहीन एवं बिना शर्त लगाए ऐसे लोग, जिसमें गरीब, प्रतिकूल परिस्थितियों में रहने वाले, भूखे एवं बीमार शामिल हैं के साथ साझा लगाव दिखा पाएंगे? इस स्वप्नदर्शी स्थिति को किसी न किसी दिन पाया अवश्य जा सकता है लेकिन निकट भविष्य में उस दिन के आने की कोई संभावना नहीं है ।
तो फिर ऐसे लक्ष्यों को लेकर विशिष्ट समायावधि और नियमित रिपोर्टोंा के माध्यम से प्रतिबद्धता क्यों दर्शाई जा रही है जबकि इस हेतु ईमानदार वैश्विक सामंजस्य का अभाव है? अपने गठन के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ दो विरोधाभासी एजेन्डे का स्त्रोत रहा है । पहला है इसका अलोकतांत्रिक स्वरूप, जिसका नेतृत्व सुरक्षा परिषद में वीटो का अधिकार प्राप्त् देशांे को प्राप्त् है और दूसरा है समानतावादी और यह सामान्य सभा में परिलक्षित होता है । दूसरा स्वरूप वैश्विक मनोदशा और अंतर्राष्ट्रीय विचारों को पहले स्वरूप के मुकाबले ज्यादा सटीक रूप में सामने रखता है । क्योंकि पहला स्वरूप तो कमोबेश तानाशाह और शक्ति संपन्नता को ही प्रश्रय देता है ।
इसके परिणामस्वरूप पिछले छ: दशकों में विचार और व्यवहार के दो विरोधाभासी मत सामने आए हैं । इसमें से एक रोक लगाता है, युद्ध छेड़ता है और राष्ट्रों को नष्ट करता है, और दूसरा मदद के लिए हाथ बढ़ाता है, विद्यालय बनाता है और शरणार्थी को छत मुहैया कराता है । यद्यपि वह कमोब ेश छोटे स्तर पर ही सही, पर मदद तो देता है जबकि पहला बड़े स्तर पर ही सही, पर मदद तो देता है जबकि पहला बड़े स्तर पर तबाही और विध्वंस फैलाता है । शताब्दी लक्ष्य भी इसी द्वंद से उपजे हैं जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ के आदर्श सिद्धांतों को कमतर कर रहे हैं । एम.डी.जी. जहां एक ओर व्यक्तियों की चाहत का वास्तविक प्रतिबिंब है वहीं दूसरी ओर उन्हें प्राप्त् करने की उम्मीद कम ही है ।
इसका यह अर्थ भी नहीं है कि कोई भी अच्छी खबर नहीं है । ८ सितंबर २००० को जब साधारण सभा ने शताब्दी लक्ष्यों को अपनाया था तब से कई उत्साहजनक नतीजे भी सामने आए हैं । हालांकि २००५ में विश्व नेताआें के सम्मेलन में यह बात सामने आई थी कि प्रगति की गति धीमी है और नियत समय तक लक्ष्यों को प्राप्त् नहीं किया जा
सकता । २३ जून को अफ्रीका के लिए एम.डी.जी. अभियान के निदेशक चार्ल्स अबुग्रे ने बर्लिन में एम.डी.जी. २०१० रिपोर्ट प्रस्तुत की । इसके अनुसार २००८ में खाद्य एवं २००९ में वित्तीय संकट ने प्रगति को रोका तो नहीं परन्तु इसने वैश्विक गरीबी हटाने के लक्ष्य पाने को और अधिक कठिन बना दिया है ।
श्री अबुग्रे के अनुसार गरीबी में १५ प्रतिशत तक की कमी आई । साथ ही मध्य एशिया जहां पर सशस्त्र संघर्ष एवं युद्ध चल रहे हैं को छोड़कर पूरे विश्व में इस दिशा में प्रगति की है । परन्तु शिशु मृत्यु दर एवं महामारियों से बचाव के मामलों में या तो बहुत कम या बिल्कुल भी प्रगति नहीं हुई है । इतना ही नहीं पर्यावरण ह्ास भी खतरनाक रफ्तार से गतिमान है । श्री अबुग्रे का कहना है कि पिछले १७ वर्षोंा में कार्बन डायआक्साइड का उत्सर्जन ५० प्रतिशत बढ़ा है । संकट के चलते उत्सर्जन में थोड़ी बहुत कमी होने के बावजूद भविष्य में इसमें और अधिक वृद्धि की संभावना है ।
यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि कुछ देश अन्य देशों के मुकाबले शताब्दी विकास लक्ष्यों को प्राप्त् करने के अधिक नजदीक हैं । उदाहरण के लिए चीन को लें, जिसने अपने यहां गरीबी की संख्या में जबरदस्त कमी की है । जब कई अन्य देश और अधिक गरीबी में धंस गए हैं । गरीबी कम करने की दिशा में सख्या के हिसाब से तो कमी आती दिखती है । लेकिन सन् २००० में इसे लेकर जो वैश्विक संकल्प लिया गया था, उससे तुलना करने पर यह नगण्य जान पड़ती है ।
इसे राष्ट्रों की अपनी स्थिति से भी समझना होगा । उदाहरणार्थ चीन की आर्थिक प्रगति को शायद ही वर्ष २००० के सम्मेलन से जोडा जा सकता है । वहीं अफगानिस्तान ने २००१ में अमेरिका और नाटो हमले को नहीं चुना था । जिसनक उसके द्वारा इन लक्ष्यों की प्रािप्त् की सम्भावना को ही नष्ट कर दिया ।
एकमत होने को प्रयासरत होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा तय किए गए लक्ष्यों की गंभीरता से समीक्षा करना कठिन
है । क्योंकि इन्हें अंतर्राष्ट्रीय इकाईयों जैसे अंतरर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा गरीब देशों को आधारभूत परिवर्तन के बहाने उधारी और अत्यंत गरीबी में ढकेले जाने को ध्यान में रखा ही नहीं गया था । इनमें इस बात की भी अनदेखी की गई थी कि किस तरह अमीर और ताकतवर देश अपना सैन्य, आर्थिक एवं राजनीतिक वर्चस्व सुनिश्चित बनाए रखने के लिए गरीब, राजनीतिक रूप से संवेदनशील एवं रक्षा मामलों में कमजोर राष्ट्रों को अपने अधीन बनाए रखना चाहते हैं ।
सर्वसम्मति बनाने की निरर्थक खोज न केवल वास्तविक मुद्दों से ध्यान बटाएगी बल्कि इससे साधारण सभा की सौहार्दपूर्ण छवि को भी धक्का पहुंचेगा । यह कार्य सुरक्षा परिषद पर या सुरक्षा परिषद के उन सदस्योंे पर छोड़ देना चाहिए जिनका मत वास्तव में मायने रखता है कि और निर्बाध रूप से निर्णयात्मक और कू्रर नीतियां लागू करते रहते हैं ।
यह सब कुछ इसलिए नहींकहा जा रहा है कि शताब्दी लक्ष्यों को ही छोड़ देना चाहिए । परन्तु अनावश्यक आशावादिता भी मूल्यांकन में बाधा पहुंचाती है । शताब्दी विकास लक्ष्यों पर वास्तविकता और सच्चई की कीमत पर बहस नहीं की जानी चाहिए । साथ ही इसे अमीरों के लिए एक बार और अच्छा महसूस करने एवं गरीबों को और अपमानित करने के लिए भी प्रयोग में नहीं लाया जाना चाहिए । ***

४ गांधी जयंति पर विशेष


विचारहीन प्राथमिकताआें से आजादी
सुश्री मेघा पाटकर

आजकल सादगी व स्वावलंबन के सिद्धान्त पीछे छूटते जा रहे हैं । अत्यधिक उपभोग वाली बाजारमूलक नई अर्थव्यवस्था हमें आज परोक्ष रूप से गुलाम बना रही है जिसकी परिणति और भी भयावह हो सकती है । सोल्जेनित्सिन ने नोबल पुरस्कार लेते हुए कहा था कि, सुन्दरता ही संसार को बचायेगी । इसी तरह अगर विश्व को इस सुंदरता को बचाना है तो उसे सादगी को अपनाना होगा ।
प्रश्न उठता है कि आजादी के ६३ साल बाद देश की आम जनता स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे को फहराने के प्रति क्या उतनी ही उत्साहित है जितनी ६० वर्ष पूर्व थी ? स्वतंत्रता दिवस पर बच्चें के अलावा क्या देश के मेहनतकश, ग्रामीण व बहुसंख्य समाज भी प्रभातफेरी निकालते हुए आजाद महसूस करते हुए स्वयं को राष्ट्र की संप्रभुता और प्रगति के लाभार्थी के रूप में देख रहे हैं ? क्या हम राष्ट्र की राजनीतिक आजादी के माध्यम से भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक व प्राकृतिक धरोहरों को सहेज पाए हैं ? हमारी मूल विशेषता विविधता में एकता क्या हमारे राष्ट्र बने रहने में बुनियादी, बनावट का कार्य कर पा रही है ?
नागरिकों के मन में चक्रव्यूह बनकर चुभ रहे इन सवालों का जवाब देने का वक्त आ चुका है । ये सवाल आज सिर्फ राष्ट्रीय पर्व पर ही हमारे दिमाग में नहीं कौंधते बल्कि हम दिन-रात इस सवालों से घिरे रहते हैं । इन्हीं सवालों के जवाब आशा-निराशा के बीच देश में फैल रहे जनसंघर्ष भी खोज रहे हैं । आज आवाज केवल बड़े जनआंदोलनों के माध्यम से ही नहीं, बल्कि छोटे-छोटे समूहों से भी उठ रही है । इनमें व्याप्त् आक्रोश को यदि हम नजदीक से और गहराई से देखें तो पता चलता है कि लोग यह मान चुके हैं कि आजादी को लेकर हमारे सपने पूरे नहीं हुए हैं । देशभर में राजनीति के नाम पर बढ़ रही मनमानी लूट, हिंसा और जनता के अधिकारों की अवमानना देश के वर्तमान नेतृत्व की विकृति को सामने ला रही है ।
ब्रिटिशोंकी व्यवस्था से छुटकारा पाने की जरूरत तब भी थी और आज भी है । आज हमें ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जो जन-जन की आकांक्षा, विश्वास और जरूरतों का सम्मान कर सके । एक ऐसी व्यवस्था जो कि हमारे समाज, जीविकाआें, ताकतों और विविधिताआें को न कुचले । हम एक ऐसी व्यवस्था चाहते हैं, जो हमें साथ लेकर हमारी ही शक्ति और एकता से एक ऐसी सुव्यवस्थित कार्यप्रणाली विकसित करें, जो सिर्फ संविधान और कानून में ही नहीं बल्कि हमारे नीति-नियमों को छोटे-छोटे स्फूर्त, सहमति और सद्भाव से संचालित कर सकें । इसी के अभाव के कारण हम आजादी का खोखलापन और अभाव महसूस कर रहे हैं।
इस देश की समृद्धि हमारी मनुष्य शक्ति के साथ ही साथ भरपूर प्राकृतिक संसाधनों में छिपी हुई है । जनसंख्या के प्रश्न को हम महत्व का न मानते हुए यदि इसका हम ठीक से उपयोग करें तो यह ऊर्जा भी एक पूंजी हो सकती हैं । लेकिन आज श्रम की प्रतिष्ठा अपना स्थान खोती जा रही है । पश्चिमी सत्ता को हटा देने के बाद भी आज हम पश्चिमी विचारधारा और जीवन प्रणाली के बंधक बने हुए हैं । हमें ध्यान में रखना होगा कि स्वावलंबन के बिना स्वायत्ता नहीं मिल पाती है ।और स्वावलंबन के लिए जरूरी है हमारे हाथों में व हमारे पैरों तले उपलब्ध संसाधनों का आधार है । साधनों के अंधाधुंध उपयोग लिए दूसरों का शोषण और गैरबराबरी की बुनियाद के अलावा किसी की कब्र पर महल बनाने की ख्वाहिश न तो हमें संतोष देगी और नहीं और नहीं सार्वभौमिकता । इतना ही नहीं पड़ौसी राष्ट्रों से एवं वैश्विक स्तर पर भी इसी बुनियादी सिद्धान्त के आधार पर रिश्ते बनाने होंगे । देश के भीतर भी विविध तबकों के बीच समन्वय साधनों के विकेंद्रित उपयोग व निवेश को अपनाना होगा ।
परंतु हम तो विरोधी दिशा में चल कर कगार तक पहुंच चुके हैं । देश के संसाधनों व ताकत को धिक्कारते हुए हमारे राजनेता, अर्थशास्त्री व नियोजनकर्ता यहां प्रकृति और मेहनत से बनी सांस्कृतिक परम्परा को तहस नहस करने को ही विकास मान रहे हैं। विदेशीकरण और भूमंडलीकरण का भी तो यही आधार है । हमें अपने संसाधनों के विनाश और विस्थापन की कोई परवाह नहीं है । भूखे पेट और प्यासे कंठ लेकर भी हम कंपनियों के नए-नए उपयोग को अपनाने की सोचते रहे । नेतृत्व के स्तर पर भी हमें अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने की हिचकिचाहट नहीं दिखाई
देती । दिखावटी चर्चाआें के पार आम आदमी न केवल जलवायु परिवर्तन पर बल्कि अपने संसाधनों के भविष्य पर गंभीरता से विचार कर रहा है ।
आदिवासी क्षेत्रोंएवं किसानी क्षेत्रों की स्थिति से साफ जाहिर है कि लोग जंगल, नदियों, पहाड़ खेती-जमीन और जीविका के साथ-साथ इस अस्मिता भरे समाज को बचाने के लिए संघर्षरत हैं। वे शांति और इज्जत की जिंदगी चाहते हैं । हिंसा फैसले की शुरूआत तो प्रकृति व संस्कृति पर हो रहे विकास के हमले से ही हो रही है । इन आक्रमणों का डटकर सामना भाी अधिकांश स्थानों पर अहिंसा से ही हो रहा है । इस दौरान विकास की अवधारणा और मार्ग, नियोजन प्रणाली और औचित्य पर बहस उठी है । संघर्षरत साथियों के अलावा निर्माण हेतु सही तकनीक, लोकतांत्रिक प्रणाली और समता, न्याय व निरंतरता की आधारभूत चौखट इसमें योगदान दे रही है ।
सर्वप्रथम गांव स्तर पर विकास योजना तय करने जैसी छोटी सी बात आज बहुत बड़ी और बुनियादी बात सिद्ध हो रही
है । इसे कुचलने का विरोध कई जगह सशस्त्र संघर्ष का रूप ले लेता है । यह एक दुर्देव अवश्य है परंतु यह निश्चित तौर पर मात्र कानून व व्यवस्था का मुद्दा नहीं है । यह मुद्दा है आज भी बुरी तरह से हावी ब्रिटिशों की मानसिक गुलामी का । यह मुद्दा है हमारे संविधान मेंे ही अंतर्निहित मार्गदर्शक सिद्धांतों से प्रेरणा और दिशा लेकर मात्र पंचायती राज ही नहीं बल्कि जनवादी तंत्र और ताकत को उभारने का है । हमें गैर बराबरी समाप्त् करने के लिए सादगी को अपनाना होगा और अपने ही उपलब्ध संसाधनों से न्यूनतम जरूरतें पूरी करनी होगी । इन सभी को यदि हम प्रगतिशीलता का प्रतीक माने तो ही हम सही अर्थोंा मे आजादी पाएगें । संविधान की धारा २४३ या विभाग ९ के अलावा भी हमें जटिलता को समझते हुए संवेदना के साथ नए नियमों को गढ़ने की चुनौती स्वीकारनी होगी ।
हमारा ध्यान देश को महाशक्ति बनाने या सकल वृद्धि दर के उच्चांक की ओर देखने की बजाए सुदृढ़ व सुनियोजित होने के बावजूद एक पारदर्शी समाज बनाने और उसकी व्यवस्था खड़ी करने पर होना चाहिए । हम हमारे गांवों का कत्ल और सन् २०५० तक शहरी भारत वाली मानसिक विकृति को दूर कर पाएगें की नहीं ? आवश्यकता इस बात की है कि हम स्थानीय जल, जंगल का नियोजन और खेती के प्राकृतिक विकास को अहम मुद्दा बनाएं । हमें निर्माण हेतु सिर्फ ईमानदारी और संवाद वाला पथ ही मंजूर होगा । अंबानी और कंपनियों की दादागिरी को हर स्तर पर नकारते हुए हमें कहना होगा कि हम आजाद हैं तथा हमें भूख, लाचारी और विचारहीन प्राथमिकताआें से आजादी चाहिए ।
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५ जनजीवन


पानी में निजीकरण या अपनाकरण
अनुपम मिश्र

पानी की बढ़ती किल्लत से पूरा विश्व अचंभित है । परंतु बजाए ठंडे दिमाग से इसका हल ढूंढने के हड़बड़ी में इस पर कब्जा करने का प्रयास किया जा रहा है ।
आज हर बात की तरह पानी राजनीति चल निकली है । पानी तरल है, इसलिए उसकी राजनीति भी जरूरत से ज्यादा बहने लगी है । देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे प्रकृति उसके लायक पानी न देती हो, लेकिन आज दो घरों, दो गांवों, दो शहरों, दो राज्यों और दो देशों के बीच पानी को लेकर एक लड़ाई हर जगह मिलेगी ।
मौसम विशेषज्ञ बताते हैं कि देश को हर साल मानसून का पानी निश्चित मात्रा में नहीं मिलता, उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति आईएसआई मार्का तराजू लेकर पानी बांटने निकलने वाली पनिहारिन नहीं है । तीसरी-चौथी कक्षा से हम सब जलचक्र पढ़ते हैं । अरब सागर से कैसे भाप बनती है, इतनी बड़ी मात्रा में वह नौतपा के दिनोंमें कैसे आती है । कैसे मानसून की हवाएं बादलों को पश्चिम व पूरब से उठाकर हिमालय तक ला जगह-जगह पानी गिराती है, यह हमारा साधारण किसान भी जानता है । ऐसी बड़ी, दिव्य व्यवस्था मेें प्रकृति को मानक ढंग से पानी गिराने की परवाह नहीं रहती । फिर भी आप पाएंगे कि एकरूपता बनी रहती है ।
पानी की राजनीति ने प्रकृति के इस स्वभाव को भूलने की अक्षम्य गलती की है । इसलिए हम प्रकृति से क्षमा नहीं पा सके हैं। हमने विकास की दौड़ में सब जगह एक सी आदतों का संसार रच दिया है, पानी की एक जैसी खर्चीली मांग करने वाली जीवनशैली को आदर्श मान लिया है । अब सबको एक जैसी मात्रा में पानी चाहिए और जब वह नहीं मिल पाता तो हम सारा दोष प्रकृति व नदियों पर थोप देते हैं । अब हमारे सामने नदियों को जोड़ने की योजना भी रखी गई है । देश के जिस भूगोल ने लाखों साल की मेहनत से इस कोने से उस कोने तब तरह-तरह से छोटी-बड़ी नदियां निकालीं अब हम उसे दोष दे रहे हैं और चाहते हैं कि एक ही नदी कश्मीर से कन्याकुमारी तक क्यों नहीं बही? अभी भी करने लायक छोटे-छोटे कामों के बदले अरबोंरूपये की योजनाआें पर बात हो रही
है । प्रकृतिकी गोद मे कुछ ही पहले तक हजारों नदियां खेलती थी, अब हम उन सबको सुखाकर और चार-पांच नदियों को जोड़कर उनका पानी यहां-वहां ले जाना चाहते हैं ।
जलसंकट, जो प्राय: गर्मियों के दिनोंे में आता था, अब वर्ष भर बना रहता है । ठंड के दिनों में भी शहरों में लोग नल निचौड़ते मिल जाएंगे । राजनीतिक रूप से जो शहर थोड़े संपन्न और जागरूक हैं, उनकी जरूरत पूरी करने के लिए पानी पड़ोस से उधार भी लिया जाता है और कहीं-कहीं तो चोरी से खींच लिया जाता है लेकिन बाकी पूरा देश जलसंकट से उबर नहीं पाता । इस बीच कुछ हजार करोड़ रूपये खर्च करके जलसंग्रह, पानी-रोको, जैसी कई योजनाएं सामने आई हैं । वाटरशेड डेवलपमेन्ट को अनेक सरकारों और सामाजिक संगठनों ने अपनाकर देखा है, लेकिन इसके खास परिणाम नहीं मिल पाए । शायद एक बड़ी गलती हमसे यह हो रही है कि हमने पानी रोकने के समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध तरीकों को पुराना या परंपरागत करार देकर छोड़ दिया है । यदि कुछ लाख साल से प्रकृति ने पानी गिराने का तरीका नहीं बदला है तो हम भी उसके सेवन के तरीके नहीं बदल सकते । आग लगने पर कुआं खोदना पुरानी कहावत है । यही हम करते आ रहे हैं । प्यास लगती है, अकाल की आग लगती है, तो सरकार और समाज के कुआं खोदने पर शायद पानी निकलता भी है पर सरकारी आयोजनोंे और योजनाआें में इस पानी का रंग कुछ और ही दिखता है ।
तालाब, बावड़ी जैसे पुराने तरीकों की विकास की गई योजनाआें में बहुत उपेक्षा हुई है । न सिर्फ शहरों में, बल्कि गावों में भी तालाबों को समतल कर मकान, दुकान, मैदान या बस स्टैण्ड बना दिए गए हैं । जो पानी यहां रूककर साल भर ठहरता था तथा उस इलाके के भूजल को उठाता था, उसे हमने नष्ट कर दिया है । उसके बदले हमने आधुनिक ट्युबवेल, नलकूप, हैंडपम्प लगाकर पानी निकाला है । डालना बंद किया और निकालने की गति राक्षसी कर दी और मानते रहे कि सब कुछ हमारे अनुकूल चलेगा, लेकिन अब प्रकृति हमें हर साल चिट्ठी भेजकर याद दिला रही है कि हम गलती कर रहे हैं । इसकी सजा भुगतनी होगी । कभी पानी का प्रबंध और उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य-बोध के विशाल सागर की एक बूंद थी । सागर और बूंद एक दूसरे से जुड़े थे । बूंद अलग हो जाए तो न सागर रहे, न बूंद बचे । सात समुंदर पार से आए अंग्रेजों को न तो समाज के कर्त्तव्य-बोध का विशाल सागर दिख पाया, न उसकी बूंदे । उन्होंने अपने यहां के अनुभव और प्रशिक्षण के आधार पर यहां के राज में दस्तावेज जरूर खोजने की कोशिश की, लेकिन वैसे रिकार्ड राज में रखे नहीं जाते थे । इसलिए उन्होंने मान लिया कि यहां सारी व्यवस्था उन्हीं को करना है, यहां तो कुछ है ही नहीं । पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अकुशल कारीगरांे में बदल दिए गए । ऐसे बहुत से लोग, जो गुनीजनखाना यानी गुणी माने गए जनों की सूची में थे, अनपढ़ असभ्य, अप्रशिक्षित माने जाने लगे ।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि अकाल, सुखा, पानी की किल्लत, ये सब कभी अकेले नही आते । अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है । हमारी धरती सचमुच मिट्टी की एक बड़ी गुल्लक है । इसमें १०० पैसा डालेंगे तो १०० पैसा निकाल
सकेंगे । लेकिन डालना बंद कर देंगे और केवलनिकालते रहेंगे तो प्रकृति चिट्ठी भेजना भी बंद करेगी और सीधे-सीधे सजा देगी । आज यह सजा सब जगह कम या ज्यादा मात्रा मे मिलने लगी हंै । पंजाब और हरियाणा सूखे राज्य नहीं माने जाते, लेकिन आज इनमें भी पानी के बंटवारे को लेकर राजनीतिक कड़वाहट दिख रही है । इसी तरह दक्षिण में कर्नाटक और तमिलनाडु में कोई कम पानी नहीं गिरता,
लेकिन इन सभी जगहों पर किसानों ने पानी की अधिक मांग करने वाली फसलें बोई हैं । और अब उनके हिस्से का पानी उनकी प्यास नहीं बुझा पा रहा है । ऐसे विवादों का जब राजनीतिक हल नहीं निकल पाएगा तो हमें ऊंची अदालत का दरवाजा खटखटाना
होगा । अदालत भी इसमें किसी एक के पक्ष में फैसला देगी तो दूसरे पक्ष को संतोष नहीं
होगा । इसमे मुख्य समस्या प्यास की जरूरत की नहीं बची है और बनावटी प्यास और बनावटी जरूरत लंबे समय तक पूरी नहीं की जा सकेगी । कई बार जब अव्यवस्था बढ़ती जाती है, जन-नेतृत्व ओर सरकारी विभागों का निकम्मापन की बढ़ने लगता है तो दुर्भाग्य से एक ही हल दिखता है राष्ट्रीकरण के बदले निजीकरण कर दो ।
यही हल अब पानी के मामले मे भी आगे रखा जाने लगा है । पहले हमारा समाज न राष्ट्रीयकरण जानता था और न निजीकरण । वह पानी का अपनाकरण करता था । अपनत्व की भावना से उसका उपयोग करता
था । जहां जितना उपलब्ध था, उतना खर्च करता था, इसलिए कम से कम पानी के मामले में, जब तक बहुत सोची-समझी योजनाएं फिर से सामने नहीं आएंगी तब तक हम सब चुल्लु भर पानी में डूबते रहेंगे, लेकिन हमें शर्म नहीं आएगी । ***

६ विशेष लेख


अन्न सड़ने की नौबत
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

गोदामों में भरा अनाज सड़ रहा है । क्या हम यह खुशफहमी पाल लें कि अब हमारे देश में कोई भी भूखा नहीं सोता है । लेकिन आज भी हमारे देश में २० से २५ फीसदी लोगों के घरों में अनाज के अभाव में चूल्हा नहीं जलता है । फिर यह स्थिति कैसे उत्पन्न हो गई कि सरकारी भण्डारगृहों में अनाज सड़ने
लगा । भण्डारित क्षमता से अधिक उत्पादित होने के कारण खुले आसमान के नीचे लाखों टन अनाज सड़ रहा है । दरअसल यह सरकारी नीतियों के गलत होने का ही दुष्परिणाम है । क्या अनाज सड़ाने के लिए पैदा किया जाता है ?
अनाज हमारी धरती की अमानत
है । जिसे प्रकृति ने भूखों को निवाले देने के लिए उत्पन्न किया है । प्रकृति एवं धरती हमारी जरूरतों के मुताबिक ही हमको अन्न देती
है । किन्तु हम रासायनिक उर्वरकों को अनियंत्रित तरीके सेखेतोंमें छिड़ककर जबरन ही धरती की जान निकालते हैं । धरती हमारा पेट भर सकती है किन्तु लालच को पूरा नहीं कर सकती है ?
अपने नागरिकों के लिए समुचित पोषण की व्यवस्था करना राज्य सत्ता की जिम्मेदारी है । खाद्य सुरक्षा के नाम पर सरकार उर्वरकों कपर सब्सीडी देती है । यह बात भी सच है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने हितसाधन के लिए हमारी कृषि नीति पर मंहगे उर्वरकोंके प्रयोग का माया जाल फैलाया है । हमारी सरकार की उपज का समर्थन मूल्य निर्धारित कर सरकारी खरीद समर्थन मूल्य पर करती है ताकि महंगाई पर अंकुश रहे तथा उत्पादक एवं उपभोक्ता संतुष्ट रहे । देखा यह जा रहा है कि कीटनाशी रसायन एवं उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण कृषि लागत बढ़ती जाती है और महंगाई आती है । भण्डारित अनाज भी उचित रख रखाव के अभाव में खराब हो जाये तो समस्या और भी बढ़ जाती है ।
तमाम पर्यावरणीय विद्रूपताआें के कारण जैसे शहरीकरण, सड़क चौडीकरण, औद्योगिकीकरण एवं बस्तियों के विस्तार से देश में कृषि जोत घटी है फिर भी धरती से अधिक खाद्यान्न उपजाने की होड़ बढ़ी है । हरित क्रांति भी छलावा सिद्ध हुई है । हम धरती से जरूरत भर ही क्योंेनही ंलते है क्यों धरती से क्षमता से अधिक उपज पाने में प्रयास रत रहते हैं । इससे धरती अपनी धारण क्षमता खोकर रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के कारण बंजर और बेजान हो जाती है । फिर भी हमारी भूख और बढ़ जाती है ।
आज हम अधिक अन्न उपजाकर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं । और उसे गोदामों मे भरकर सड़ा रहे हैं । किन्तु भविष्य में जब हमारी धरती अपनी जीवनी शक्ति से रीत जाएगी तो क्या अकाल का सामना नहीं करना पड़ेगा ? यह विचारणीय प्रश्न है ।
हमारी सनातन संस्कृति एवं चिंतन धारा कहती है कि भूखे को भोजन देना धर्म
है । इसी श्रेयस भावना के वशीभूत हम लोग भण्डारे एवं लंगर आयोजित करते हैं । हमारे शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि जो व्यक्ति केवल स्वयं के पेट भरने की सोचता है वह पाप खाता है । जरूरत मंद का सहायक बनना तथा भूखे को भोजन एवं प्यासे को पानी देना परमार्थ के काम है ।
किसान के खून-पसीने से अभिसिंचित एवं उत्पादित अन्न की बर्बादी तथा भूखे गरीबों की बेवसी को दृष्टिगत रखते हुए सर्वाच्च् न्यायालय ने सरकार और उसके कृषि मंत्री को आदेश दिया कि वह अनाज को यूं सड़ाने की जगह गरीब भूखों को मुफ्त बांट
दे । किन्तु कृषि मंत्री ने अनाज को मुफ्त बांटने से स्पष्ट इंकार कर दिया तो अदालत को फटकार तक लगानी पड़ी एवं मंत्री को स्पष्टीकरण देना पड़ा । दरअसल सड़ते अनाज को मुफ्त बाँटने से इंकार करने का मंत्री जी का बयान भूख के प्रति उनकी संवेदनहीनता का द्योतक है । मंहगाई की मार भूख को और सताती है । मंहगाई जमाखोरी से आती है । बाजार बिचालियों एवं सटोरियों के हाथों में है ।
भ्रष्ट नेता, सरकारी अफसर एवं जमाखोरों का गठजोड़ भूख पर सियासत को हर वक्त तैयार रहता है । जानकार लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि सरकारी गोदामों में अनाज सड़ नहीं रहा वरन सड़ाया जा रहा है ताकि शराब (बीयर) बनाई जा सके । सड़ते अनाज को ओने-पोने दामों में अपने लोगों को दिया जा सके जो शराब व्यवसाय में संलग्न और सक्रिय हैं ।
अब वक्त आ गया है कि सरकार को खाद्यान्न के भण्डारण के उचित प्रबंध करने होंगे । अधिक क्षमता वाले भण्डार गृहों का निर्माण एवं रख-रखाव जरूरी है । यह भण्डार गृह सुरक्षित स्थानों पर हों । पहले घरों में भी उपभोक्ता अनाज को देशज विधियों से भण्डारित कर लेते थे और वक्त जरूरत पड़ने पर दान भी देने से नहीं हिचकिचाते थे । महिलाएं इस कार्य को दक्षता से अंजाम देती थीं । कीटनाशकों का प्रयोग भी न्यूनतम होता था । नीम की सूखी पत्तियाँ आदि से रक्षा की जाती थी । अत: इस दिशा में पुन: सक्रियता दिखलानी होगी । टूटते संयुक्त परिवार तथा आवास छोटे होने से घरों में अनाज नहीं रखा जाता । फास्ट फूड के प्रचालन ने भी इसे उकसाया है । बाजारवाद हावी है और अनाज सड़ रहा है । सारी सरकारी व्यवस्था में ही घुन लगा है और हर कोई मुक्त हस्त से लूट रहा है ।
यह स्थिति शर्मनाक है कि हम धरती के उपहार स्वरूप, प्रकृति के प्रसाद पाये हुए अनाज को सड़ा रहे हैं । उपजाने वाला किसान खुद रोटी गिनकर खाता है तब अनाज का यूं सड़ना मिट्टी के साथ हमारी कृतज्ञयता एंव अज्ञानता में हम अपना वर्तमान तो खराब कर ही रहे हैं भविष्य को भी बिगाड़ रहे हैं । हमें भूख तथा भीख के रिश्ते को भी समझना
होगा । आदमी जब भूख से लड़ता हुआ टूट जाता है तब ही भीख मांगता है । हमें भूख की संवेदना को समझना होगा ।
देश में हरित क्रांति के बाद भी क्यों यह स्थिति है । हमें केवल उस हरित क्रांति का हिमायती होना चाहिए जो प्रकृति से सौहार्दपूर्ण हो, पर्यावरण के अनुरूप हो । जो त्याग के साथ ग्रहण करने की मनीषा की पालक हो ।
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७ विदेश


सिंगापुर : रेती की भूख और पर्यावरण
टाम लेविट

आधुनिक विकास मेंशोषण अन्तर्निहित है । सिंगापुर आज स्वयं को एक साफ-सुथरा व पर्यावरण के प्रति जागरूक देश सिद्ध करने में सफल होता जा रहा है । समुद्र में भराव कर अपने को फैलाने वाला यह शहर देश अपने पड़ोसियों से अवैध रूप से रेती लाकर उनका पर्यावरण नष्ट कर रहा है । अब उसकी आँखे बांग्लादेश पर लग गई हैं ।
दक्षिण-पूर्व एशिया खासकर सिंगापुर में रेती के बढ़ते व्यापार से समुद्री परिस्थितिकी तंत्र और मछलियों को व्यापक नुकसान पहुंच रहा है । अत्यन्त घने बसे सिंगापुर ने समुद्र में भराव करके सन् १९६० से अब तक अपने क्षेत्रफल में २० प्रतिशत से अधिक की वृद्धि की है । इस प्रकार २००८ में कोई १.४२ करोड़ टन रेती आयात कर वह दुनिया का सर्वप्रथम देश बन गया । रेती का अधिकांश निर्यात पड़ोसी देशों-इंडोनेशिया, मलेशिया और वियतनाम से होता है । अब ये तीनोें देश रेती के निर्यात पर प्रतिबंध या इसे नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं । परन्तु अगले १० वर्षोंा में अपने क्षेत्रफल में अतिरिक्त ७ प्रतिशत की वृद्धि का इच्छुक सिंगापुर अब अपनी मांग की पूर्ति के लिए एक अन्य पड़ोसी कम्बोडिया पर निर्भर होता जा रहा हैं हालांकि सार्वजनिक तौर पर कम्बोडिया का दावा है कि उसने रेती के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है । लेकिन एक स्वयंसेवी संगठन ग्लोबल विटनेस का दावा है कि कम्बोडिया के प्रांत कोहकांग से ही कोई ७,९६,००० टन रेती, जिसका अंतर्राष्ट्रीय मूल्य २४.८० करोड़ अमेरिकी डॉलर है, निकालकर प्रतिवर्ष सिंगापुर को निर्यात की जा रही है ।
रेती निकालने की जबरदस्त पर्यावरणीय लागत आती है । निकर्षण या रेती निकालने से पानी की गुणवत्ता घटती है और उसमें गंदलापन आ जाता है । फलस्वरूप सूर्य की रोशनी बाधित होती है । और समुद्री घास एवं कोरल चट्टानों सहित अनेक पौधे नष्ट हो जाते हैं । रेती निकालने से प्राकृतिक तटबंदी में व्यवधान होता है जिसके परिणामस्वरूप भू-कटाव और बाढ़ का खतरा बढ़ता जाता है । इससे समुद्री जीवों की संख्या में भी काफी कमी आई है । आंदोलनकारी कम्बोडिया के कोह कांग प्रांत में रेत के खनन की बढ़ती गतिविधियों को लेकर चिंतित है कि कहीं इसका हश्र इंडोनेशिया के रिऊ द्वीप जैसा न हो जाए । जहां अत्यधिक खनन के चलते कोरल चट्टानों को जबदस्त नुकसान पहुंचा था और पूरा द्वीप ही विलुिप्त् के कगार पर पहुंच गया था । इस वजह से अंतत: सन् २००७ में अधिकारियों को रेती के निर्यात को प्रतिबंधित करना पड़ा था ।
कम्बोडिया के प्रधानमंत्री हुन सेन ने गत वर्ष रेती के निर्यात पर प्रतिबंध की घोषणा की थी परन्तु बाद में ग्लोबल विटनेस ने पाया कि वह प्रतिबंध नदियों के किनारों पर था समुद्री किनारों पर नहीं । इनका दावा है कि यह क्षेत्र पूरी तरह से भ्रष्टाचार में लिप्त् है और शासन वर्ग के नजदीकी रसूखदार लोग इसें लिप्त् हैं । रेती निकालने के लाइसेंस मेंग्रों और समुद्री घास के इलाकों में भी दे दिए गए हैं । स्थानीय समाचार पत्रों ने बताया है कि रेती निकालने का क्षेत्र बढ़ाने के फेर में स्थानीय लोगों को जबरन बेदखल किया जा रहा है । इस दौरान न केवलउन पर हमले हुए हैं बल्कि कईयों को जान भी गंवानी पड़ी । ग्लोबल विटनेस क्के जार्ज ब्राउन का कहना है कि अंतत: प्राकृतिक संसाधनों पर सर्वाधिक निर्भर समुदाय-मछुआरे और आदिवासी -खानाबदोश हो जाएंगे ।
ग्लोबल विटनेस का आरोप है कि देश के वन संसाधनों को ठिकाने लगाने के बाद कम्बाडिया का श्रेष्ठीवर्ग अब खनन कंपनियों के साथ सांठ गांठ कर रेती के अवैध व्यापार से जुड़ गया है । एक रिपोर्ट के अनुसार बिना किसी तरह का कर या रॉयल्टी चुकाए करोड़ों डॉलर के राष्ट्रीय धन की चोरी हो रही है । हमेशा की तरह कम्बोडिया के गरीब ही इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं जिनकी जीविका और तटीय पर्यावरण नष्ट हो रहा है ।
कम्बोडिया, मलेशिया और इंडोनेशिया को सबसे अधिक समस्याआें का सामना करना पड़ रहा हैं । जबकि अधिकांश लोग इसके लिए सिंगापुर को दोषी ठहरा रहे हैं जो कि नए रेसिंग ट्रेक, केसीनो और बंदरगाह विकसित करनेकी ललक में पर्यावरण प्रभावों की अनदेखी कर रेती के आयात में जुटा है । स्वयं सेवी संगठन के आरोपों के प्रत्युत्तर में सिंगापुर सरकार का कहना है कि सिंगापुर में रेत का आयात व्यावसायिक तौर पर किया जाता है और वह रेत के आयात के किसी भी अनुबंध से संबंधित नहीं हैं । जबकि ग्लोबल विटनेस का कहना है कि उसके पास इस बात के प्रमाण हैं कि कम्बोडिया से रेती खरीदने के मामले मे सिंगापुर के मंत्रालय लिप्त् है ।
पड़ोसी देशों द्वारा अपने पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए रेती निकालना प्रतिबंधित करने के बाद सिंगापुर को तस्करी से रेती पहुंचाने का धंधा अब बहुत फल फूल रहा है । ग्रीनपीस इंडोनेशिया का कहना है कि सिंगापुर को रेती निर्यात में तस्करों को कोई दिक्कत नहीं हैं क्योंकि ऐसा कभी कभार ही होता है कि नौसेना का सीमा शुल्क विभाग इनकी नावों को पकड़े । उनका कहना है कि प्रतिवर्ष ३० करोड़ क्यूबिक मीटर रेती अवैध रूप से निर्यात की जाती है । इस बीच ऐसी खबरें भी आ रही है कि सिंगापुर की नजरें अब बांग्लादेश पर टिकी हैं, जहां का समुद्र पूर्ण से ही कटाव से पीड़ित है, में रेत के खनन की संभावनाएं तलाश रहा है ।
ग्लोबल विटनेस ने सिंगापुर सरकार को कटघरे मे खड़े करते हुए कहा है कि सिंगापुर सरकार स्वयं को आंचलिक पर्यावरण नायक के रूप मेंप्रस्तुत करता है । और इस वर्ष जून में विश्व शहर सम्मेलन भी आयोजित कर चुका है । परंतु वास्तविकता यह है कि उसकी रेती की मांग से आसपास के देशों के पर्यावरण पर बहुत ही विपरित प्रभाव पड़ रहा है । संगठन का कहना है सिंगापुर को कच्च्े माल के टिकाऊ स्त्रोत हेतु निर्माण कंपनियों के लिए मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाने चाहिए ।
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८ जैव विविधता वर्ष


जैवविविधता से ही बचेगी मानवता
डॉ. किशोर पंवार

पृथ्वी पर व्याप्त् जैवविविधता ही हमारे जीवन का मूलाधार है । प्रकृति ने एक भी जीव या वनस्पति ऐसा नहींबनाई जिसका हमारे जीवन को बनाए रखने में कोई योगदान न हो । प्रत्येक की अपनी उपयोगिता है । परन्तु हम आज एकरसता के फेर में पड़ कर जैवविविधता के प्रति उदासीन हो गए हैं । पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए यह एक अनिवार्यता है ।
हमारी पृथ्वी तो एक ही है । परन्तु इस एकता में अनेकता के कई नजारे देखे जा सकता हैं । भांति-भांति के जंगल, पहाड़, नदी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और तरह-तरह के लोग । जंगल व पहाड़ भी एक जैसे नहीं, कई किस्सों के हैं । जंगल की बात करें तो कहीं सदाबहार तो कुछ जगहों पर शुष्क पर्ण पाती । कहीं मिश्रित भी । बर्फ के पहाड़ भी हैं और नग्न तपती चट्टानों वाले पहाड़ भी ।
रेत के टीलोंे और रेगिस्तान की अलग ही छटा है । कहीं मीलों तक फैले हरे-भरे घांस के मैदान हैं तो कहीं मीलों तक फैले मरूस्थल । जीवों की बात करें तो नाना प्रकार के रंग-गिरंगे पक्षी । हवा मेंइठलाती फूलों पर मंडराती तितलियां । जमीन पर विचरने वाले जलचर और हवा में अठखेलियां करते
नभचर । इसके अलावा बसने वाले लोग भी तरह-तरह के । गोरे भी काले भी, लम्बे भी नाटे भी । उभरी आंख नांक वाले तो चपटी नाक और धंसी आंख वाले । मैदानी भी पहाड़ी भी । पुरवासी भी और आदिवासी भी ।
जीव-जंतुआें की यही विविधता वैज्ञानिक शब्दावली में जैवविविधता कहलाती है । किसी एक स्थान पर मिलने वाले समस्त जीवों के प्रकारों को ही उस स्थान की जैवविविधता यानि बायोडायवरसिटी कहा जाता है । यह स्थानीय और वैश्विक दोनों ही तरह की होती है । इस वक्त दुनियाभर में जैवविविधता पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है । इसी को ध्यान में रखते हुए यह २०१० वर्ष अंतर्राष्ट्रीय जैवविविधता वर्ष के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है । जंगल के उपकारों से हर कोई वाकिफ है । तो फिर ऐसी बेरूखी क्यों ? याद रखिए हमारा सबका भविष्य दांव पर लगा है ।
एक मोबाईल कम्पनी का विज्ञापन संवेदनशील मन को बार-बार झकझोरता है । विज्ञापन में बताया गया था कि यहां जंगल, भोजन, पानी, हवा नहीं है । तो क्या हुआ, मोबाइल की तरंगे तो हैं । कितना बेतुका मजाक है ये । जैवविविधता खतरे में है लम्बी-चौड़ी सड़कों के निर्माण, बड़े-बांधों, उद्योगों व शहरीकरण के लिए जमीन लगती है । इनके कारण प्राकृतिक आवास स्थल नष्ट हो रहे हैंऔर वहां रह रहे जीव-जन्तु व पेड़-पौधों सब एक झटके में नष्ट हो जाते हैं । जनसंख्या के दबाव और विकास की चाहर में चलते जहां कल घने जंगल थे वहां अब शहर हैं । कुछ वर्षोंा पूर्व जहां गांव थे वहां शहर बस गए हैं और जहां कल तक जंगल थे वहां अब खेती की जा रही है ।
जंगलों पर अतिक्रमण बढ़ता ही जा रहा है । पता नहीं यह दुष्चक्र कब थमेगाा । जंगल नष्ट होने से प्राकृतिक आवास समाप्त् हो जाते हैं और वन्य जीवों के साथ ही कई किस्मों की वनस्पतियां भी खत्म हो जाती हैं । जैवविविधता को दूसरा बड़ा खतरा वन्य जीवों के अवैध शिकार से है । हमारे शेर, बाघ, हिरण, चीता और खरगोश सब जानवर खतरे मेंें हैं । उनकी चमड़ी, सींग, कस्तूरी, पंजे, नाखून और हडिडयों तक पर लालचीह और ि वलासी मनुष्यों की बुरी नजर है । शेर ओर बाघों को लेकर तो ऐसा लगता है कि मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की ।
बिना सोचे समझे शहरीकरण और औद्योगिकरण किया जा रहा है । ऐसा विकास जैवविविधता का दुश्मन है । छोटे-बड़े तालाबों को पाटने से जलीय विविधता खतरे में पड़ जाती है । जल प्रदूषण हो या वायु प्रदूषण इनके बढ़ने से जैवविविधता घटती जाती है । नदियों व झीलों में प्रदूषण बढ़ने वहां रह रहे संवेदी किस्म के प्राणी ओर वनस्पतियां विलुप्त् हो जाते हैं । केवलवे ही जीव बचते हैं जिनमें प्रदूषण के साथ होता है । मिट्टी के प्रदूषण से जमीन के अन्दर रहने वाले केचुएं, बेक्टीरिया, अन्य प्रकार के कीट और शैवालों की संख्या एवं गुणात्मकता दोनों घट जाती है ।
दुनिया भर में जीवों की लगभग ३ करोड़ जातियां हैं । ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां जैवविविधता अत्यनत सघन रूप में है तथा यहां विलुप्तीकरण की कगार पर पहुंचने वाली दुर्लभ प्रजातियां की अधिकता मिलती है । इन्हीं क्षेत्रों को जैवविविधता के हाटस्पाट कहा जाता है । विश्व में लगभग २५ ऐसे हाटस्पाट
चिन्हित किए गए हैं इनमें से दो, पूर्वी हिमालय एवं पश्चिमी घाट भारत में हैं ये ऐसे स्थान हैं जहां प्रजातियों की प्रचुरता है और वे संकटग्रस्त हैं तथा स्थानिक हैं अर्थात ये दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती । हमारे देश में लगभग २३५ पौध प्रजातियां एवं १३८ जन्तु प्रजातियों को संकटग्रस्त घोषित किया जा चुका है । संकटग्रस्त पौधों में घटपर्णी, सर्पगन्धा, बेलाडोना, चन्दन, चिलगोजा आदि प्रमुख
हैं ।
इन पेड़-पौधों और जन्तुआें का अपना महत्व है । कुछ महत्वपूर्ण औषधियां हैं तो कुछ विचित्र वनस्पतियां व कुछ सुन्दरतम जीव हैं । यह विविधता, विचित्रता कहीं आर्थिक पक्ष से जुड़ी हैं तो कहीं इसका सौन्दर्य बोध अमूल्य है ।
सवाल यह है कि इस जैव विविधता को कैसे बचाया जाए ? ऐसा नहीं है कि सब हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं ? अपने-अपने स्तर पर सभी प्रयास कर रहे हैं । परन्तु जब तक इस महायज्ञ में स्थानीय स्तर पर जन भागीदारी नहीं होगी हमारी इस विरासत को बचाना मुश्किल है । शिकारी घात लगाए बैठा है वो शेर का शिकार भी करता है और सागौन का भी । हमें मिल जुलकर उसके हौंसले पस्त करना होंगे ।
जैवविविधता शब्द का सबसे पहले प्रयोग वाल्टर जी रासेन ने १९८६ में किया था । तब से यह शब्द जीव विज्ञानियों एवं पर्यावरणवादियों के लिए एक महत्वपूर्ण शब्द बन गया है । जैवविविधता हमें प्राकृतिक आपदाआें के खतरे से बचाती है । पानी कम पड़े तो भी देसी गेहूँ की किस्में अंधी पैदावार दे देती हैं । कीटों का प्रकोप हो या बीमारियों का, जैवविविधता के कारण कुछ किस्मों पर प्रकोप कम होने से नुकसान कम होता है । जैवविविधता आड़े वक्त भी कोई ऐसा जीव खोज लिया जाए, जिससे कैंसर और एड्स जैसी भयावह बिमारियों की रोकथाम हो
सके । पूर्व में ऐसा भी हो चुका है । टेक्स और विन्का रोजिया इसके उदाहरण हैं ।
परन्तु खेद इस बात का है कि हम से कुछ लोगोंको ऐसी विविधता रास नहीं
आती । वे चाहते हैं कि देश के सभी खेतों में गेहूं,चावल या फिर सोयाबीन ही उगे । जरा सोचिए, कम संसाधनों में जीने वाले बाजार, मक्का और ज्वार जैसे अल्प संख्यकों का फिर क्या होगा ? कुछ लोग हैं जो चाहते हैं कि देश में सभी लोग एक ही रंग के कपड़े पहने या एक जैसी पगड़ी पहने । कोई तो उन्हें समझाएं कि तरह - तरह के फूल-पत्तियों से सजा गुलदस्ता ज्यादा खूबसूरत लगता है बजाए एक ही जैसे फूलों से लदी डाली के । ध्यान रहे जीवन का आनंद एकरसता में नहीं विविधता में है ।
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९ पर्यावरण परिक्रमा


टिकाऊ पर्यावरण के लक्ष्य से भटका देश

सहस्त्राब्दि विकास के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में शामिल टिकाऊ पर्यावरण को २०१५ तक हासिल करने में विफलता की चेतावनी देते हुए पर्यावरणविद् राजेंद्र कुमार पचौरी ने कहा कि इस चूक से सबसे अधिक कृषि प्रभावित होगी ।
श्री पचौरी ने कहा कि जलवायु परिवर्तन ने पर्यावरण फर सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव डाला है । इसके कारण मौसम संबंधी कई बदलाव आए हैं । टिकाऊ पर्यावरण संबंधी लक्ष्य को हासिल करने में विफलता के कारण सुखाड़, अतिवृष्टि और भूमि अवनयन जैसी समस्याएं आएगी । संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन समिति ने बताया कि भूमि अवनति के कारण बीते कुछ वर्षोंा में १० से ११ फीसदी कृषि योग्य भूमि की क्षति हुई है । हमें पर्यावरण तंत्र की गुणवत्ता को अक्षुण्ण रखने के गंभीर प्रयास करने होंगे ।
पर्यावरणविद डॉ. आर.के.पचौरी के नेतृत्व वाले टेरी और भारत स्थित नीदरलैंड मिशन के बीच समझौता प्रपत्र पर हस्ताक्षर हुए ताकि पानी और ऊर्जा जैसे अहम क्षेत्रोंमें सहयोग को बढ़ावा दिया जा सके । द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टीटयूट टेरी के महानिदेशक पचौरी ने नीदरलैंड के यूट्रेक्ट प्रांत के क्वीस कमिश्नर आर. राबर्डसन के साथ समझौता प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद कहा कि विज्ञान और प्रौद्योगिक तथा नवाचार के जरिए हम उन लोगोंकी जीवनशैली में बदलाव ला सकते हैं जो संसाधनों की कमी के कारण हाशिए पर
हैं ।

म.प्र. में नर्सरियों की ग्रेड तय करेगा बागवानी बोर्ड

पांच सितारा होटलों के ठाट-बाट से तो हम सब वाकिफ हैं ही । लेकिन अब अगर आपकी मुलाकात पांच सितारा गुलाब या चमेली से हो तो ताज्जुब न करें । होटलों की ही तर्ज पर जल्दी ही मध्यप्रदेश में नर्सरियां भी वन स्टार से लेकर फाइव स्टार तक की रेटिंग से लैस नजर आएंगी ।
नर्सरियों में बीजों, पौधों व फूलों की गुणवत्ता और वहां की व्यवस्थाआें के आधार पर स्टार रेटिंग दी जाएगी । रेटिंग का निर्धारण राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड करेगा । सबसे बेहतरीन नर्सरी की पांच सितारा रेटिंग
मिलेगी । इसी तरह उनसे कमतर नर्सरियों को चार सितारा और अन्य रेटिंग मिलेगी । रेटिंग की व्यवस्था पूरे देश में लागू की जा रही है । इसके तहत अगले एक साल के भीतर प्रदेश की तमाम मॉडल नर्सरियों को रेटिंग मिल चुकी होगी । रेटिंग के बाद बोर्ड समय-समय पर इसकी निगरानी भी करेगा । जरूरी नहीं है कि जो रेटिंग एक बार मिल चुकी है हमेशा वही बनी रहेगी ।
महाराष्ट्र सहित कुछ चुनिंदा राज्यों में नर्सरी एक्ट बने हुए हैं । इस वजह से वहां बीजों और पौध की गुणवत्ता का तमाम रिकार्ड रखा जाता है । लेकिन म.प्र. सहित अन्य तमाम
राज्यों में इस तरह के कोई कानून नहीं है । इसी वजह से राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड ने रेटिंग की व्यवस्था लागू की है ताकि हर प्रदेश में कुछ ऐसी नर्सरियों को चिन्हित किया जा सके जिनकी विश्वसनीयता सुनिश्चित हो और किसान व आम जनता वहां से बेफिक्र होकर बीज या पौधे खरीद सकें ।
प्रदेश में छोटी-बड़ी मिलाकर हजारों नर्सरियों हैं लेकिन उद्यानिकी विभाग से मान्यता प्राप्त् नर्सरियों की संख्या १९५ है ।

शहरी जिंदगी बढ़ाती है रोग प्रतिरोधक क्षमता

वैज्ञानिकों ने एक नए शोध में पाया है कि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के मुकाबले शहरों में रहने वाले लोग आनुवांशिक रूप से संक्रमण से लड़ने में अधिक सक्षम होते हैं ।
वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि शहरों ने मानव के विकास क्रम को प्रभावित किया है । शहरोंभागदौड़ की जिंदगी के चलते बीमारियों को फैलने मेंमदद करने वाली इस जीवनशैली का अध्ययन करने वाले युनिवर्सिटी आफ लंदन के शोधकर्ताआें ने पाया कि शहर के बाशिंदों के शरीर में एक विशेष प्रकार का जीन पाया जाता है जो तपेदिक और कुष्ठ रोग के प्रति उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ता
है । शोधकर्ताआें ने यह भी पाया कि शहरी जिंदगी उसके निवासियों को बिमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है । लेकिन इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि इन लोगों की आने वाली पीढ़ियां इन संक्रमणों के प्रति बचाव सीख लेंगी ।
विकास क्रम जैव विज्ञानी इयान बार्नेस ने बताया कि शोध बताता है कि विकास क्रम की प्रक्रिया चल रही है । उन्होंने लाइव साइंस को बताया कि शहरीकरण ने मानव जीनोम पर प्रभाव डाला है । बार्नेस और उनकी टी टीम ने एक जनेटिक वेरिएंट पर ध्यसान केन्द्रित किया, जिसका नाम एसएलसी-११, ए-११७२९५५ डीईएल-४ है । यह ऐसे विषाणुआें के प्रति प्राकृतिक प्रतिरोध से जुड़ा है, जो कोशिकाआें के भीतर घूमता रहता है ।

प्रदेश का पहला मोर संरक्षण केन्द्र होगा मंगरोला में

म.प्र. की आध्यात्मिक नगरी उज्जैन के चिंतामण गणेश मंदिर पहुंच मार्ग से करीब एक किमी दूर ८०० की आबादी वाला छोटा सा गांव मंगरोला है । यहां की आबोहवा ने राष्ट्रीय पक्षी मोर को लंबे समय से रोके रखा है । नतीजतन अब कई मोर इस गांव की पहचान बन चुके हैं लेकिन ... करीब तीन महीने में कूड़ा-करकट और कुत्तों के शिकार की वजह से मोरों की मरने की संख्या में इजाफा हो गया । लिहाजा, ग्रामीण लामबंद हुए व उन्होंने प्रशासन से गांव में पड़ी ५ बीघा सरकारी जमीन को मोर संरक्षण केन्द्र के लिए आवंटित करने की गुहार लगाई ।
कलेक्टर डॉ.एम.गीता ने गांव का दौरा कर हालात जाने व प्रस्ताव को मंजुरी देने पर सहमति जताई । अब ग्राम पंचायत की बैठक में सरकारी जमीन के लिए दोबारा ठहराव-प्रस्ताव कर जनपद को भिजवा कर संरक्षण के काम की पहल की जाएगी ।
ग्रामीणों ने इस केन्द्र का नाम मयूर पार्क रखना तय किया है ।
मंगरोला निवासी जितेन्द्र ठाकुर के मुताबिक पार्क को तीन हिस्सों में बनाने की योजना है । पहला हिस्सा सामान्य रहेगा जिसमें चौकीदार के लिए व्यवस्था होगी । दूसरे हिस्से में मोरों के दाना-पानी का प्रबंध किया जाएगा और तीसरे हिस्से में घना जंगल लगाया जाएगा यहां पूरी तरह से अंधेरा हरहेगा ताकि मोर आसानी से अंडे दे सके । इस पूरे मामले में सरकारी रूप से आर्थिक मदद की जरूरत भी है ।
श्री ठाकुर ने बताया मोरों के बचाव के लिए गांव के युवा आगे आए व मोर संरक्षण संस्थान समिति बनाने का निर्णय लिया । समिति बनी तो बाकायदा रजिस्ट्रेशन भी हुआ । समिति में यूं तो सात सदस्य हैं लेनिक गांव के हर बाशिंदे को समिति में ही माना जाता है ताकि सभी का सहयोग इस पुनीत काम में मिल
सके ।

मूत्र से इंर्धन बनाने की तैयारी

विज्ञान ने अब मूत्र का भी एक इस्तेमाल ढूँढ लिया है । र्स्कोटलैंड की हैरियट-वॉट यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ता मूत्र से इंर्धन बनाने की तैयारी कर रहे हैं । अनुसंधानकर्ताआें
ने एक ऐसा तरीका खोज निकाला है, जिसके जरिए ये पता लगाया जा सके कि मूत्र में मौजूद तत्वों का स्तेमाल ज्वलनशील हाइड्रोजन या मीथेनॉल के विकल्प के रूप में किया जा सकता है या नहीं ।
इंसान और पशुआें के मूत्र में मौजूद यूरिया यानी कार्बामाइड एक रासायनिक तत्व हैं जिसका इस्तेमाल खाद और उर्वरक बनाने में किया जाता है । कार्बामाइड के इस्तेमाल से बनाए जा रहे इस इंर्धन से कम प्रदूषण फैलाने वाला, किफायती और आसानी से लाने ले जाने योग्य इंर्धन बनाया जा सकता है । फिलहाल यूरिया का इस्तेमाल भारी वाहनों में होता है, ताकि इंर्धन में मौजूद प्रदूषण फैलाने वाले खतरनाक तत्वों को कम किया जा
सके ।
इंर्धन में यूरिया के इस्तेमाल को दुनियाभर में आसान बनाने के लिए इन दिनों संसाधन जुटाए जा रहे हैं । अनुसंधानकर्ता शानवेन ताओ और उनके सहयोगी रींग लैन फिलहाल इस इंर्धन का एक प्रारूप बनाने की तैयारी में हैं ।
मूत्र में मौजूद यूरिया से बनने वाले इंर्धन का इस्तेमाल खासतौर पर पनडुब्बियों, सैनिक वाहनों और दूरदराज के इलाकों जैसे रेगिस्तान और दूरदराज के द्वीपों पर बिजली बनाने के लिए किया जा सकता है । डॉ. ताओ ने कहा कि मैं चीन के इस ग्रामीण इलाके में पला, बढ़ा हूँ । मुझे पता था कि यूरिया का इस्तेमाल गाँवों में रासायनिक खाद के रूप में होता है, जब मैंने रसायन विज्ञान पढ़ा तब इस तरह का इंर्धन बनाने के बारे में सोचा ।
उनका कहना था फिलहाल हम इस इंर्धन का केवल एक नमूना तैयार कर रहे हैं , लेकिन अगर इसका इस्तेमाल पर्यावरण के लिए सुरक्षित और व्यासवसायिक रूप से इस्तेमाल होने वाली इंर्धन के तौर पर हो सकेगा तो हमें बेहद खुशी होगी । इससे दुनियाभर के में लोगों को फायदा होगा । यह नमूना फ्यूल सेल्स की मदद से बनाया जा रहा है, जो रासायनिक तत्वों को विद्युत ऊर्जा में बदलते हैं । फिलहाल फ्यूल सेल्स में केवल हाइड्रोजन और मीथेनॉल का इस्तेमाल होता है ।
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१० हमारा देश


क्या सचमुच मुक्त व्यापार है
डॉ. बनवारी लाल शर्मा

कम से कम पिछले तीस सालों से मुक्त व्यापार अन्तराष्ट्रीय व्यापार के एक उसूल के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है । विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का गठन १९९४ में इस उद्देश्य से किया गया था कि तमाम देशों के बीच व्यापार में आने वाली रूकावटों को दूर किया जा सके और उन्मुक्त प्रवाह के साथ व्यापार हो सके । अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में बड़ी शक्तियों ने घोषित किया था कि दुनिया का विकास व्यापार के जरिये ही संभव है । विकासशील देशों ने अपने घरेलू उत्पादों के विकास और कर लगा कर सस्ते विदेशी आयातों से उनकी रक्षा करने के लिए संरक्षणवाद का जो रास्ता अपनाया था, उसे गलत तरीका करार दिया गया । इस अन्तर्राष्ट्रीय नीति के परिणामस्वरूप भारत जैसे देशों को अपने दरवाजे खोलने पड़े । विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का इस्तेमाल निर्यातों के लिए बाजार हासिल करने के लिए किया
गया । उदाहरण के लिए १९९२ में विश्व व्यापार संगठन के विवाद निस्तारण बोर्ड ने अमेरिका की शिकायत पर एक फैसला दिया था जिसके तहत भारत को १४२९ विदेशी वस्तुआेंके लिए अपना बाजार मजबूरन खोलना पड़ा था । इनमें ऐसे उत्पाद भी शामिल थे जिनका भारत निर्माण करता आ रहा था ।
भारत और अन्य देशों को खास करके सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आउटसोर्सिंग के लिए प्रतिबंधित करने वाले जिस नये कानून पर हाल में राष्ट्रपति ओबामा ने हस्ताक्षर किये हैं वह मुक्त व्यापार बड़ा आघात है । बहुत अमरीकी कम्पनियां-एयरलाइन्स, बैंक आदि अपने सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी काम भारत जैसे देशों के सस्ते श्रमिकों द्वारा करवा लेते थे । पिछले कई सालों से भारत में बंगलोर, पुणे, मुम्बई, दिल्ली जैसे नगरों में तमाम कॉल सेन्टर चल रहे थे जिनमें सूचना प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षित युवक-युवतियां अमरीकी फर्मोंा के लिए रात मेंे काम करते थे (क्योंकि अमरीका में यह दिन का वक्त होगा) अनेक भारतीय आई.टी. कम्पनियां अच्छा बिजिनेस कर रही थीं ।
लेकिन अमरीका बिना किसी रूकावट के होने वाले इस व्यापार में जहां भारत के सस्ते श्रम का बखूबी इस्तेमाल कर रहा था, वहीं नौकरियां अमरीका से भारत को स्थानांतरित भी तो हो रही थीं । यही स्थिति अमेरीका और यूरोप से कृषि उत्पादों के निर्यात के मामले में भी थी । इन देशों की सरकारों द्वारा किसानों को भारी आर्थिक सहायता (सब्सीडी) दी जाती है । यह भारी आर्थिक सहायता डब्लूटीओ के प्रावधानों के विरूद्ध हैं, लेकिन मुक्त व्यापार के नाम पर जारी है । अमरीकी राष्ट्रपति द्वारा उठाया गया यह नया कदम अमरीका में मंदी से उत्पन्न बेरोजगारी को नियंत्रित करने के लिए है । कोई भी देश बेरोजगारी पर काबू करने के लिए ऐसे कदम उठा सकती है, लेकिन अमरीका को मुक्त व्यापार पर उपदेश देना बन्द कर देना चाहिए ।
पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर
वर्चस्व रखने वाले विकसित देशों द्वारा अपनाये गये दोहरे मानदंड का यह पहला उदाहरण नहीं है । भारत से इस्पात का निर्यात होता था जो कि अमरीका के इस्पात से बेहतर था और सस्ता भी था । तत्कालीन राष्ट्रपति जार्जबुश ने भारतीय इस्पात पर १५ फीसदी एण्टीडम्पिग ड्यूटी थोप दी थी । नतीजतन भारतीय इस्पात के व्यापार में बड़ा घाटा
हुआ ।
सूती वस्त्र का मामला सबसे ज्वलंत उदाहरण है दोहरे मानदंड का । १९९५ में डब्लूटीओ की स्थापना के साथ सूती वस्त्र के बड़े निर्यातक थे हम । सूती वस्त्र का व्यापार एमएफए (मल्टी फाइबर एग्रीमेंट) द्वारा नियंत्रित होता था और अन्तराष्ट्रीय व्यापार में इसे शामिल करने के लिए दस साल की अवधि निर्धारित की गयी थी । भारत को कई काफी नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि यूरोप द्वारा भारतीय सूती वस्त्र की खेपें लौटा दी जाती थीं ।
दरअसल तथ्य यह है कि कहीं से भी मुक्त व्यापार नहीं है तो यह बन्द हो जाता है । मुक्त व्यापार प्रतिस्पर्धा पर आधारित है, परन्तु जो हम देख रहे हैं यह प्रतिस्पर्धा नहीं है, बल्कि विलयन और अधिग्रहण है ।
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११ ज्ञान विज्ञान


हिमालय में सुरक्षित है बंगाल टाइगर

तेजी से घटती बाघों की संख्या से चिंतित पूरी दुनिया के लिए हिमालय उम्मीद की नई किरण बन सामने आया है ।
यह शानदार जीवन समुद्र तल से १३ हजार फीट ( लगभग ४००० मीटर) की ऊँचाई पर मिला है । इस खोज से नई जानकारी मिली है कि इस क्षेत्र में बाघों तक मनुष्यों की पहुंच नहीं बन पाई है । बीबीसी की नेचुरल हिस्ट्री यूनिट के मेंबर और बाघ संरक्षणकर्ता ऐलन रैबिनोबिट्स ने बताया कि भूटान के ग्रामीणोंमें बाघों के हिमालय पर ४००० मीटर की ऊँचाई पर देखे जाने की चर्चा सुने जाने के बाद हमारी टीम ने इसके पुख्ता सबूत जुटाने का फैसला किया । टीम के कैमरामेन गार्डन बुचानन ने बताया कि तीन महीने पहले हमने हिमालय के जंगलोंमें ९८०० फीट और १३,४५० फीट ऊँचाई पर कैमरे लगाकर छह हफ्तोंतक शूटिंग की । टीम ने गुफाआें, बाघों के आवागमन के रास्ते और पेड़ों पर कैमरे छुपाकर उनकी फिल्म बनाई
है ।
रैबिनोबिट्ज ने कहा कि इस खोज ने बाघों के जीवन के बारे में पुरानी मान्यताआें को झूठला दिया है । विशेषज्ञ अब तक मानते रहे कि यह जीव मैदानी जंगलों से ही जीवित रह सकता है लेकिन इस खोज के बाद साबित हो गया है कि टाइगर अत्यधिक ठंड और ऊंचाई पर भी भोजन और प्रजनन कर जीवित रहने में सक्षम है ।
रैबिनोबिट्ज के अनुसार इस खोज से बाघों के संरक्षण मेंभारत, नेपाल और भूटान से गलती हिमालय की तलहटी में टाइगर कॉरिडोर को विकसित करना होगा । जिसमें म्यांमार, थाईलैंड और लाओस जैसे अन्य एशियाई देशों का सहयोग भी चाहिए । भारत की भूमिका बढ़ने के साथ ही अब भूटान को टाइगर नर्सरी के रूप में भूमिका निभाने के लिए तैयार होना चाहिए ।

पर्वत को बचाने की एक मुहिम

बर्फ के घर यानी हिमालय को बचाने की पहल उत्तराखंड की धरती पर शुरू हो रही है । सभी को लगने लगा है कि इस पर्वत श्रृंखला की रक्षा अब बेहद जरूरी है । अब भी न जागे तो देर हो जाएगी । हिमालय के खतरे में पड़ने का मतलब पर्यावरण के साथ ही कई संस्कृतियों का खतरे में पड़ना है ।
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर बने अन्तराष्ट्रीय पैनल की तीन साल पहले आई रिपार्ट में जब इस बात का खुलासा किया गया था कि हिमालय के ग्लेशियर २०३५ तक पिघल कर समाप्त् हो जाएँगे, तब ग्लोबल वार्मिंग से जोड़कर पूरी दुनिया के विज्ञानी चिंता में डूब गए थे । बाद में यह मामला हल्का पड़ा, लेकिन इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्लेशियर पिघलने की गति तेज हुई है । उत्तराखंड सरकार ने कई वर्ष पहले जलनीति के ड्राफ्ट में स्वीकार किया है कि राज्य में स्थित २३८ ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं । इन्हीं से गंगा, यमुना और काली जैसी नदियाँ निकलती
है ।
इस सूरत में हिमालय दिवस के बहाने इस मुहिम को परवान चढ़ाने वालों की सोच है कि हिमालय की रक्षा तभी होगी जब उसकी गोद में रचे-बसे करोड़ों लोग वहीं रहेंगे । बीते कुछ वर्षोंा से पलायन की जो गति है, उनसे इस चिंता को और बढ़ाया है । अगर पलायन की गति यूं ही बनी रही तो कंकड़-पत्थर का पहाड़ रहकर भी क्या
करेगा । यह मानने में किसी को एतराज नहीं होना चाहिए कि सुदूर पहाड़ों में कोई बड़ा कारखाना नहीं लग सकता । इस सूरत में हमें पहाड़ के बाशिंदों को रोकना आसान नहीं
होगा । वे तभी रूकेंगे जब उनके लिए आजीविका के ठोस इंतजाम किए जाएँगे । अभी पहाड़ों पर जो भी सामान बिक रहा है, सब नीचे से जा रहा है । ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि पहाड़ में पैदा होने वाले अन्न और वन उपजों से वहीं रोजगार के अवसर पैदा किए जाएँ ।
ग्लेशियरों के पिघलने की गति देखकर ही पर्यावरणविद कहने लगे हैं कि वह दिन दूर नहीं जब हमें पानी तरह बहाने के बजाय पानी की तरह बचाने का मुहावरा अपनाना होगा । यह मानने में किसी को एतराज नहीं कि अब जल जंगल, जमीन और खनिज को बचाए बिना कुछ हो नहीं सकता । इसके लिए एक नए आंदोलन की जरूरत है । विकास की अंधी दौड़ में बीते कई दशकों में हिमालयी पर्यावरण, लोक-जीवन, वन्य जीवन और मानवीय बन्दोबस्तों को भारी नुकसान पहुँचाया है । दुष्परिणाम हमारे सामने हैं । झरने सूख गए । नदियों में पानी कम हो गया । अकेलेउत्तराखंड में तीन सौ से ऊपर बिजली परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं । हालाँकि गंगा
पर बनने वाली तीन बड़ी परियोजनाएँ लोहारीनाम पाला, मनेरी-भाली और भैंरोघाटी
का निर्माण सरकार रद्द कर चुकी है, लेकिन अभी भी बड़ी-बड़ी सुरंगे अन्य परियोजनाआें के लिए बन रही हैं । नेपाल और भारत में पानी की अधिकतर आपूर्ति हिमालय से ही होती
है । पेयजल और कृषि के अलावा पनबिजली के उत्पादन में भी हिमालय की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता । बेशकीमती वनौषधियाँ यहाँ हैं ।
यह भारत को विदेशी हमलों से रक्षा भी करता आ रहा है । यह कुमाऊं शदोत्सव समिति की ओर से प्रकाशित स्मारिका में प्रो. शेखर पाठक लिखते हैं - हिमालय फिर भी बचा और बना रहेगा । हम सबको कुछ न कुछ देता रहेगा । मनुष्य दरअसल अपने को बचाने के बहाने हिमालय की बात कर रहा है, क्योंकि हिमालय पर चहुँओर चढ़ाई हो रही है ।

खतरे की घंटी है हिंद महासागर का तेजी से बढ़ता स्तर

भारत सहित बांग्लादेश, इंडोनेशिया और श्रीलंका के तटीय इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए हिंद महासागर का बढ़ता स्तर आने वाले समय में बड़ा खतरा साबित हो सकता है । यह नतीजे एक ताजा वैज्ञानिक अध्ययन में सामने आए हैं ।
नेचर जिओसाइंस के ताजा अंक में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंद महासागर का तट स्तर पहले की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ रहा है । सागरीय तट स्तर में सामान्यत: एक साल में तीन मिलीमीटर (०.११८१ इंच) तक की बढ़ोतरी होती है । लेकिन हिंद महासागर का तट स्तर इससे कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहा है । वैज्ञानिकों ने १९६० से लेकर अब तक के आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करने ओर कम्प्यूटराइज्ड मॉडल पर इसे परखने के बाद यह निष्कर्ष निकाला ।
हिंद महासागर पृथ्वी का तीसरा बड़ा जल भाग है, जो पृथ्वी कीकुल २० फीसदी जल राशि को अपने में समाए हुए हैं । अन्य महासागरों की तुलना में इसके तट स्तर में तेजी से वृद्धि की दो मुख्य वजहें बताई गई है । इसके अंडाकार क्षेत्र की जल राशि के स्तर में वृद्धि का एक स्वाभाविक कारण माना जा रहा है, जबकि ग्रीन हाउस गैसों के कारण बढ़ने वाले तापमान को भी इसके लिए उत्तरदायी ठहराया गया है । रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रीन हाउस
गैसों के कारण इस महासागरीय पूल के तापमान में पिछले ५० साल के मुकाबले ०.५ डिग्री सेल्सियस (१ डिग्री फेरनहाइट) का इजाफा दर्ज किया गया है । वैज्ञानिकोंका कहना है कि सागरीय जल के तापमान में वृद्धि से वायुमंडलीय धाराआें पर सीधा असर पड़ता है, जो महासागर के तट स्तर को बढ़ाने के लिए उत्तरदायी है । रिपोर्ट में कहा गया है कि इस तरह का अध्ययन इससे पहले नहीं किया गया था । नए अध्ययन में स्पष्ट चेतावनी दी गई है कि हिन्द महासागर से घिरे भूखंड पर इसके तट स्तर में वृद्धि के कारण खतरा बढ़ता जा रहा है ।
इंडोनेशिया, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे निचले इलाके बेहद प्रभावित हो सकते हैं । यही नहीं, इन क्षेत्रों में मानसून पर भी विपरित असर पड़ने की आशंका जताई जा रही है । रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि मौसम में बदलाव के कारण इस क्षेत्र की आने वाले समय में भीषण बाढ़ और सूखे जैसे हालातों का सामना करना पड़ सकता है ।
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१२ प्रदेश चर्चा


पंजाब : अंधेपन का शिकार होते गांव
सुश्री मीनाक्षी अरोरा

किसी एक विशेघ क्षेत्र में अंधत्व का विस्फोट अत्यंत चिंताजनक स्थिति है । पंजाब के मालवा क्षेत्र के कुछ गांवों में संभवत: पानी के प्रदूषण की वजह से बहुत से बच्च्े अंधे पैदा हो रहे है । वहीं सरकार के दो विभाग विरोधाभासी बयान देकर स्थितियों को और अधिक जटिल बना रहे हैं ।
भारत-पाकिस्तान सीमा से लगे पंजाब के फीरोजपुर जिले के गांवों में रहने वाले लोगों के लिए दुनिया अंधेरी होती है । बच्च्े हों या बडे उनकी आंखे रोशनी खोती जा रही है । कारण कोई नहीं जानता पर लोग तरह-तरह की बातें करते हैं । लेकिन यह तो तय है कि यहां के लोगों को जैसा पीला-गंधयुक्त पानी पीने को मिल रहा है, वह कोई गंभीर गुल खिला रहा है । पेयजल के नाम पर लोग जहर पीने को मजबूर है । जहरीले रसायनों से युक्त पानी पीने की वजह से डोना नांका, नूरशाह तोजा रूहेला, खदूका आदि कई गांवों में बच्च्े या तो दृष्टिहीन पैदा हो रहे हैं या ये कुछ समय बाद धीरे-धीरे दृष्टिहीन होते जाते हैं ।
कुछ माह के अंदर ही डोना नांका गांव में कम से कम एक दर्जन बच्च्े या तो दृष्टिहीन पैदा हुए या फिर जन्म लेने के कुछ ही साल बाद उनकी आखों की रोशनी चली गई । बाईस साल के शंकर सिंह ने बताया, जब मैं पांचवी कक्षा पढ़ रहा था, तभी मेरी नजर कमजोर पड़ने लगी फिर धीरे-धीरे मैं पूरी तरह दृष्टिहीन हो गया । शंकर सिंह के भाई के साथ भी ऐसा ही हुआ । जन्म से उसे कोई परेशानी नहीं थी लेकिन बड़े होते-होते वह भी अंधेपन का शिकार हो गया ।
पास ही के गांव तेजा रूहेला और नूरशाह में भी तकरीबन पचास से ज्यादा छोटे-बड़े लोग दूषित पानी के कारण अंधेपन का शिकार हो गए हैं । कुछ की दृष्टि पूरी चली गई है और कई तेजी से अंधेपन की ओर बढ़ रहे
हैं ।
तेजा रूहेला की एक सात वर्षीय बच्ची वीना भी इसी जहर का शिकार हुई और पिता गुरनाम सिंह उसे इलाज के लिए राजस्थान में श्रीगंगानगर ले गए जहां ऑपरेशन के बावजूद भी उसकी आंखे बेनूर रहीं । एक और बच्ची शिमला बाई की आंखों ने तो दुनिया में उजाला देखा ही नहीं । वह तो जन्म से ही अंधेपन का शिकार हो गई थी । उधर लादूका गांव में कई लोग मौत का शिकार हो गए जिसके लिये हेपेटाइटस और पीलिया को जिम्मेदार बताया गया । लेकिन इसी तर्क के साथ यह भी ध्यान देने लायक है कि पीलिया और हेपेटाइटस दोनों मे ही प्रदूषित पानी एक बड़ी वजह होता है । गंदा और जहरीला पानी शरीर में जाकर लीवर पर असर करता है जो कई बार खतरनाक स्थिति में होने पर मौत का कारण भी बन जाता है । शाय यही हो रहा है पाकिस्तान के बॉर्डर के समीपवर्ती गांवों में ।
डोना नांका के शंकर सिंह के पिता महिंद्रसिंह ने बताया कि इन इलाकों में लोग पीने के पानी के लिए भूजल पर निर्भर हैं जिसे वे हैंडपंप के जरिए लेते हैं । महिंदर सिंह ने एक गिलास में हैंडपम्प का पानी भरा जो करीब बीस मिनट में ही पीला हो गया । इसी पीले पानी की ओर इशारा करते हुए कहा यही पानी है जिसे हम सालों से पी रहे हैं, यहां इस प्रदूषित भूजल के अलावा और कोई विकल्प हमारे पास नहीं है ।
गांव की गलियों में घरों की दीवारों पर बड़े-बड़े अक्षरों में सरकार की ओर से यह चेतावनी लिखी गई है कि यहां का भूजल सेहत के लिए ठीक नहीं है । लेकिन बावजूद शासकीय पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का दावा है कि वहां का भूजल जहरीला नहीं है । अगर ऐसा है तो फिर सरकार ने गांवों की दीवारों पर चेतावनी क्यों लगाई है ।
दूसरी ओर कई गैर सरकारी संगठनों की ओर से किए गए सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई है कि इलाके में भूजल जहरीला हो चुका है । इनका दावा है कि गांवों में अंधेपन के अलावा एक साथ इतने सारे लोग शारीरिक और मानसिक विकलांगता और कई अन्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं जिससे साफ संकेत मिलता है कि पानी में विषैलापन है । दूषित पानी का असर पशु-पक्षियों और फसलों पर भी साफ नजर आता है ।
इस क्षेत्र में सक्रिय एनजीओ एक्टिव- वॉइस के चेयरमेन नीरज अत्रि ने बातचीत में बताया कि ये सब गांव चंद्रभान नाम के के पास स्थित हैं और इस नाले में बहत सा औद्योगिक कचरा व गंदा रासायनिक पानी बहाया जाता है । यही रसायन और कचरा इन गांवों के भूजल को भी जहरीला बना रहा है । जबकि कुछ अन्य लोगों का कहना है कि खेती में बहुत ज्यादा रासायनिक खादों के प्रयोग की वजह से ऐसा हो रहा है । पंजाब के किसानों ने खेती में जिस अंधाधुंध तरीके से रासायनिक खादोंऔर कीटनाशक दवाईयों का इस्तेमाल किया है । उसका बुरा असर अब जमीन के नीचे के पानी पर भी दिखाई दे रहा है । एक ओर जमीन की उर्वरा-शक्ति घटती गई है, वहींदूसरी ओर भूजल का स्तर न केवल नीचे गया है, बल्कि उसमें रसायनों के जहर भी घुल गए हैं ।
इसके अलावा नदियों में औद्योगिक कचरा फेंके जाने प्लास्टिक और दूसरे प्रदूषक पदार्थोंा के जमीन के भीतर दब कर सड़ने-गलने की वजह से भी भूजल लगातार प्रदूषित होता गया है । बरसात के पानी के साथ बह कर गए रासायनिक खाद और कीटाणुरोधक दवाइयों के अवशेष ने नदियों, नहरों और तालाबों को भी दूषित कर दिया है । जीटीवी से जुड़े नरेन्द्र गोयल कहते हैं कि मालवा का एक बड़ा इलाका तो पहले से ही यूरेनियम के प्रदूषण से प्रभावित रहा है । नए किस्म को मामला हो, पर जांच के बाद ही स्पष्ट हो सकता है ।
वजह कुछ भी हो फिलहाल यह सच है कि लोग किसी जहर का शिकार हो रहे हैं और दूषित पानी पी रहे हैं जब पानी का असर फसलों पर भी हो रहा है । उपज पहले की अपेक्षा घट गई है। लेकिन सरकार मात्र दीवारों पर चेतावनियां लिखवा रही हैं । स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने के प्रति उसकी गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तेजा रूहेला गांव के पांच सौ परिवारों में से सिर्फ अस्सी परिवारों तक साफ पानी पहुंच पाता
है । वह भी अनियमित रूप से । राजो बाई सरकार तंत्र पर सवालिया निशान लगाती हुई कहते हैं कि बाकी लोग पानी के लिये कहां जाएं ? गांव में जब कोई खास व्यक्ति आता है तब टैंकर से पानी मंगवाया जाता है । लेकिन बाकी दिनों का क्या ?
पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीटयुट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआई) चंडीगढ़ के विशेषज्ञों का कहना है कि अंधेपन के लिये भूजल प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है । इसी संस्थान के प्रो.आमोद गुप्त का कहना है, हालांकि समस्या गंभीर है लेकिन इसके लिये जांच की जरूरत है और अंधेपन के कारणों का पता लगाने के लिये उनके इस संस्थान मेंसभी जरूरी संसाधन मौजूद हैं । लेकिन सवा यह है कि पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड केवल अपने ही संसाधनों और अध्ययनों पर भरोसा करता है और बोर्ड के बाबू राम की मानें तो भूजल में कोई विषैलापन नहीं है । हाल में किये गये सर्वेक्षणों में केवल टीडीएस की मात्रा ज्यादा पाई गई है । आर्सेनिक, क्रोमियम या जिंक जैसे किसी भी विषैले तत्व की उपस्थिति नहीं पाई गई । उन्होंने यह भी बताया कि ऐसे कदम भी उठाए जा रहे हैं जिससे सीवेज को बिना संशोधित किये सीधे पानी में न डाला जाए ।
एक और बोर्ड का यह कहना है तो दूसरी ओर सवाल उठता है कि अगर भूजल में जहरीलापन नहीं तो दीवारों पर सरकारी फरमान से चेतावनियां क्यों लिखी गई कि यहां का पानी पीने के लिये ठीक नहीं है ?
भारत में आज भी पीने के पानी के लिए नलकूपों और परम्परागत स्त्रातों पर लोगों की निर्भरता समाप्त् नहीं हो पाई है । बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहां लोग नदियों या झरनों आदि का पानी पीते हैं । जब तक हर इलाके में पानी की गुणवत्ता को जांचने और उसमें मिले खतरनाक तत्वों को दूर करने के उपाय नहीं किये जाते लोगों को प्रदूषित पेयजल की मजबूरी से छुटकारा नहीं दिलाया जा सकता ।
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१२ प्रदेश चर्चा


पंजाब : अंधेपन का शिकार होते गांव
सुश्री मीनाक्षी अरोरा

किसी एक विशेघ क्षेत्र में अंधत्व का विस्फोट अत्यंत चिंताजनक स्थिति है । पंजाब के मालवा क्षेत्र के कुछ गांवों में संभवत: पानी के प्रदूषण की वजह से बहुत से बच्च्े अंधे पैदा हो रहे है । वहीं सरकार के दो विभाग विरोधाभासी बयान देकर स्थितियों को और अधिक जटिल बना रहे हैं ।
भारत-पाकिस्तान सीमा से लगे पंजाब के फीरोजपुर जिले के गांवों में रहने वाले लोगों के लिए दुनिया अंधेरी होती है । बच्च्े हों या बडे उनकी आंखे रोशनी खोती जा रही है । कारण कोई नहीं जानता पर लोग तरह-तरह की बातें करते हैं । लेकिन यह तो तय है कि यहां के लोगों को जैसा पीला-गंधयुक्त पानी पीने को मिल रहा है, वह कोई गंभीर गुल खिला रहा है । पेयजल के नाम पर लोग जहर पीने को मजबूर है । जहरीले रसायनों से युक्त पानी पीने की वजह से डोना नांका, नूरशाह तोजा रूहेला, खदूका आदि कई गांवों में बच्च्े या तो दृष्टिहीन पैदा हो रहे हैं या ये कुछ समय बाद धीरे-धीरे दृष्टिहीन होते जाते हैं ।
कुछ माह के अंदर ही डोना नांका गांव में कम से कम एक दर्जन बच्च्े या तो दृष्टिहीन पैदा हुए या फिर जन्म लेने के कुछ ही साल बाद उनकी आखों की रोशनी चली गई । बाईस साल के शंकर सिंह ने बताया, जब मैं पांचवी कक्षा पढ़ रहा था, तभी मेरी नजर कमजोर पड़ने लगी फिर धीरे-धीरे मैं पूरी तरह दृष्टिहीन हो गया । शंकर सिंह के भाई के साथ भी ऐसा ही हुआ । जन्म से उसे कोई परेशानी नहीं थी लेकिन बड़े होते-होते वह भी अंधेपन का शिकार हो गया ।
पास ही के गांव तेजा रूहेला और नूरशाह में भी तकरीबन पचास से ज्यादा छोटे-बड़े लोग दूषित पानी के कारण अंधेपन का शिकार हो गए हैं । कुछ की दृष्टि पूरी चली गई है और कई तेजी से अंधेपन की ओर बढ़ रहे
हैं ।
तेजा रूहेला की एक सात वर्षीय बच्ची वीना भी इसी जहर का शिकार हुई और पिता गुरनाम सिंह उसे इलाज के लिए राजस्थान में श्रीगंगानगर ले गए जहां ऑपरेशन के बावजूद भी उसकी आंखे बेनूर रहीं । एक और बच्ची शिमला बाई की आंखों ने तो दुनिया में उजाला देखा ही नहीं । वह तो जन्म से ही अंधेपन का शिकार हो गई थी । उधर लादूका गांव में कई लोग मौत का शिकार हो गए जिसके लिये हेपेटाइटस और पीलिया को जिम्मेदार बताया गया । लेकिन इसी तर्क के साथ यह भी ध्यान देने लायक है कि पीलिया और हेपेटाइटस दोनों मे ही प्रदूषित पानी एक बड़ी वजह होता है । गंदा और जहरीला पानी शरीर में जाकर लीवर पर असर करता है जो कई बार खतरनाक स्थिति में होने पर मौत का कारण भी बन जाता है । शाय यही हो रहा है पाकिस्तान के बॉर्डर के समीपवर्ती गांवों में ।
डोना नांका के शंकर सिंह के पिता महिंद्रसिंह ने बताया कि इन इलाकों में लोग पीने के पानी के लिए भूजल पर निर्भर हैं जिसे वे हैंडपंप के जरिए लेते हैं । महिंदर सिंह ने एक गिलास में हैंडपम्प का पानी भरा जो करीब बीस मिनट में ही पीला हो गया । इसी पीले पानी की ओर इशारा करते हुए कहा यही पानी है जिसे हम सालों से पी रहे हैं, यहां इस प्रदूषित भूजल के अलावा और कोई विकल्प हमारे पास नहीं है ।
गांव की गलियों में घरों की दीवारों पर बड़े-बड़े अक्षरों में सरकार की ओर से यह चेतावनी लिखी गई है कि यहां का भूजल सेहत के लिए ठीक नहीं है । लेकिन बावजूद शासकीय पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का दावा है कि वहां का भूजल जहरीला नहीं है । अगर ऐसा है तो फिर सरकार ने गांवों की दीवारों पर चेतावनी क्यों लगाई है ।
दूसरी ओर कई गैर सरकारी संगठनों की ओर से किए गए सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई है कि इलाके में भूजल जहरीला हो चुका है । इनका दावा है कि गांवों में अंधेपन के अलावा एक साथ इतने सारे लोग शारीरिक और मानसिक विकलांगता और कई अन्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं जिससे साफ संकेत मिलता है कि पानी में विषैलापन है । दूषित पानी का असर पशु-पक्षियों और फसलों पर भी साफ नजर आता है ।
इस क्षेत्र में सक्रिय एनजीओ एक्टिव- वॉइस के चेयरमेन नीरज अत्रि ने बातचीत में बताया कि ये सब गांव चंद्रभान नाम के के पास स्थित हैं और इस नाले में बहत सा औद्योगिक कचरा व गंदा रासायनिक पानी बहाया जाता है । यही रसायन और कचरा इन गांवों के भूजल को भी जहरीला बना रहा है । जबकि कुछ अन्य लोगों का कहना है कि खेती में बहुत ज्यादा रासायनिक खादों के प्रयोग की वजह से ऐसा हो रहा है । पंजाब के किसानों ने खेती में जिस अंधाधुंध तरीके से रासायनिक खादोंऔर कीटनाशक दवाईयों का इस्तेमाल किया है । उसका बुरा असर अब जमीन के नीचे के पानी पर भी दिखाई दे रहा है । एक ओर जमीन की उर्वरा-शक्ति घटती गई है, वहींदूसरी ओर भूजल का स्तर न केवल नीचे गया है, बल्कि उसमें रसायनों के जहर भी घुल गए हैं ।
इसके अलावा नदियों में औद्योगिक कचरा फेंके जाने प्लास्टिक और दूसरे प्रदूषक पदार्थोंा के जमीन के भीतर दब कर सड़ने-गलने की वजह से भी भूजल लगातार प्रदूषित होता गया है । बरसात के पानी के साथ बह कर गए रासायनिक खाद और कीटाणुरोधक दवाइयों के अवशेष ने नदियों, नहरों और तालाबों को भी दूषित कर दिया है । जीटीवी से जुड़े नरेन्द्र गोयल कहते हैं कि मालवा का एक बड़ा इलाका तो पहले से ही यूरेनियम के प्रदूषण से प्रभावित रहा है । नए किस्म को मामला हो, पर जांच के बाद ही स्पष्ट हो सकता है ।
वजह कुछ भी हो फिलहाल यह सच है कि लोग किसी जहर का शिकार हो रहे हैं और दूषित पानी पी रहे हैं जब पानी का असर फसलों पर भी हो रहा है । उपज पहले की अपेक्षा घट गई है। लेकिन सरकार मात्र दीवारों पर चेतावनियां लिखवा रही हैं । स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने के प्रति उसकी गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तेजा रूहेला गांव के पांच सौ परिवारों में से सिर्फ अस्सी परिवारों तक साफ पानी पहुंच पाता
है । वह भी अनियमित रूप से । राजो बाई सरकार तंत्र पर सवालिया निशान लगाती हुई कहते हैं कि बाकी लोग पानी के लिये कहां जाएं ? गांव में जब कोई खास व्यक्ति आता है तब टैंकर से पानी मंगवाया जाता है । लेकिन बाकी दिनों का क्या ?
पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीटयुट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआई) चंडीगढ़ के विशेषज्ञों का कहना है कि अंधेपन के लिये भूजल प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है । इसी संस्थान के प्रो.आमोद गुप्त का कहना है, हालांकि समस्या गंभीर है लेकिन इसके लिये जांच की जरूरत है और अंधेपन के कारणों का पता लगाने के लिये उनके इस संस्थान मेंसभी जरूरी संसाधन मौजूद हैं । लेकिन सवा यह है कि पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड केवल अपने ही संसाधनों और अध्ययनों पर भरोसा करता है और बोर्ड के बाबू राम की मानें तो भूजल में कोई विषैलापन नहीं है । हाल में किये गये सर्वेक्षणों में केवल टीडीएस की मात्रा ज्यादा पाई गई है । आर्सेनिक, क्रोमियम या जिंक जैसे किसी भी विषैले तत्व की उपस्थिति नहीं पाई गई । उन्होंने यह भी बताया कि ऐसे कदम भी उठाए जा रहे हैं जिससे सीवेज को बिना संशोधित किये सीधे पानी में न डाला जाए ।
एक और बोर्ड का यह कहना है तो दूसरी ओर सवाल उठता है कि अगर भूजल में जहरीलापन नहीं तो दीवारों पर सरकारी फरमान से चेतावनियां क्यों लिखी गई कि यहां का पानी पीने के लिये ठीक नहीं है ?
भारत में आज भी पीने के पानी के लिए नलकूपों और परम्परागत स्त्रातों पर लोगों की निर्भरता समाप्त् नहीं हो पाई है । बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहां लोग नदियों या झरनों आदि का पानी पीते हैं । जब तक हर इलाके में पानी की गुणवत्ता को जांचने और उसमें मिले खतरनाक तत्वों को दूर करने के उपाय नहीं किये जाते लोगों को प्रदूषित पेयजल की मजबूरी से छुटकारा नहीं दिलाया जा सकता ।
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