शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

४ गांधी जयंति पर विशेष


विचारहीन प्राथमिकताआें से आजादी
सुश्री मेघा पाटकर

आजकल सादगी व स्वावलंबन के सिद्धान्त पीछे छूटते जा रहे हैं । अत्यधिक उपभोग वाली बाजारमूलक नई अर्थव्यवस्था हमें आज परोक्ष रूप से गुलाम बना रही है जिसकी परिणति और भी भयावह हो सकती है । सोल्जेनित्सिन ने नोबल पुरस्कार लेते हुए कहा था कि, सुन्दरता ही संसार को बचायेगी । इसी तरह अगर विश्व को इस सुंदरता को बचाना है तो उसे सादगी को अपनाना होगा ।
प्रश्न उठता है कि आजादी के ६३ साल बाद देश की आम जनता स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे को फहराने के प्रति क्या उतनी ही उत्साहित है जितनी ६० वर्ष पूर्व थी ? स्वतंत्रता दिवस पर बच्चें के अलावा क्या देश के मेहनतकश, ग्रामीण व बहुसंख्य समाज भी प्रभातफेरी निकालते हुए आजाद महसूस करते हुए स्वयं को राष्ट्र की संप्रभुता और प्रगति के लाभार्थी के रूप में देख रहे हैं ? क्या हम राष्ट्र की राजनीतिक आजादी के माध्यम से भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक व प्राकृतिक धरोहरों को सहेज पाए हैं ? हमारी मूल विशेषता विविधता में एकता क्या हमारे राष्ट्र बने रहने में बुनियादी, बनावट का कार्य कर पा रही है ?
नागरिकों के मन में चक्रव्यूह बनकर चुभ रहे इन सवालों का जवाब देने का वक्त आ चुका है । ये सवाल आज सिर्फ राष्ट्रीय पर्व पर ही हमारे दिमाग में नहीं कौंधते बल्कि हम दिन-रात इस सवालों से घिरे रहते हैं । इन्हीं सवालों के जवाब आशा-निराशा के बीच देश में फैल रहे जनसंघर्ष भी खोज रहे हैं । आज आवाज केवल बड़े जनआंदोलनों के माध्यम से ही नहीं, बल्कि छोटे-छोटे समूहों से भी उठ रही है । इनमें व्याप्त् आक्रोश को यदि हम नजदीक से और गहराई से देखें तो पता चलता है कि लोग यह मान चुके हैं कि आजादी को लेकर हमारे सपने पूरे नहीं हुए हैं । देशभर में राजनीति के नाम पर बढ़ रही मनमानी लूट, हिंसा और जनता के अधिकारों की अवमानना देश के वर्तमान नेतृत्व की विकृति को सामने ला रही है ।
ब्रिटिशोंकी व्यवस्था से छुटकारा पाने की जरूरत तब भी थी और आज भी है । आज हमें ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जो जन-जन की आकांक्षा, विश्वास और जरूरतों का सम्मान कर सके । एक ऐसी व्यवस्था जो कि हमारे समाज, जीविकाआें, ताकतों और विविधिताआें को न कुचले । हम एक ऐसी व्यवस्था चाहते हैं, जो हमें साथ लेकर हमारी ही शक्ति और एकता से एक ऐसी सुव्यवस्थित कार्यप्रणाली विकसित करें, जो सिर्फ संविधान और कानून में ही नहीं बल्कि हमारे नीति-नियमों को छोटे-छोटे स्फूर्त, सहमति और सद्भाव से संचालित कर सकें । इसी के अभाव के कारण हम आजादी का खोखलापन और अभाव महसूस कर रहे हैं।
इस देश की समृद्धि हमारी मनुष्य शक्ति के साथ ही साथ भरपूर प्राकृतिक संसाधनों में छिपी हुई है । जनसंख्या के प्रश्न को हम महत्व का न मानते हुए यदि इसका हम ठीक से उपयोग करें तो यह ऊर्जा भी एक पूंजी हो सकती हैं । लेकिन आज श्रम की प्रतिष्ठा अपना स्थान खोती जा रही है । पश्चिमी सत्ता को हटा देने के बाद भी आज हम पश्चिमी विचारधारा और जीवन प्रणाली के बंधक बने हुए हैं । हमें ध्यान में रखना होगा कि स्वावलंबन के बिना स्वायत्ता नहीं मिल पाती है ।और स्वावलंबन के लिए जरूरी है हमारे हाथों में व हमारे पैरों तले उपलब्ध संसाधनों का आधार है । साधनों के अंधाधुंध उपयोग लिए दूसरों का शोषण और गैरबराबरी की बुनियाद के अलावा किसी की कब्र पर महल बनाने की ख्वाहिश न तो हमें संतोष देगी और नहीं और नहीं सार्वभौमिकता । इतना ही नहीं पड़ौसी राष्ट्रों से एवं वैश्विक स्तर पर भी इसी बुनियादी सिद्धान्त के आधार पर रिश्ते बनाने होंगे । देश के भीतर भी विविध तबकों के बीच समन्वय साधनों के विकेंद्रित उपयोग व निवेश को अपनाना होगा ।
परंतु हम तो विरोधी दिशा में चल कर कगार तक पहुंच चुके हैं । देश के संसाधनों व ताकत को धिक्कारते हुए हमारे राजनेता, अर्थशास्त्री व नियोजनकर्ता यहां प्रकृति और मेहनत से बनी सांस्कृतिक परम्परा को तहस नहस करने को ही विकास मान रहे हैं। विदेशीकरण और भूमंडलीकरण का भी तो यही आधार है । हमें अपने संसाधनों के विनाश और विस्थापन की कोई परवाह नहीं है । भूखे पेट और प्यासे कंठ लेकर भी हम कंपनियों के नए-नए उपयोग को अपनाने की सोचते रहे । नेतृत्व के स्तर पर भी हमें अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने की हिचकिचाहट नहीं दिखाई
देती । दिखावटी चर्चाआें के पार आम आदमी न केवल जलवायु परिवर्तन पर बल्कि अपने संसाधनों के भविष्य पर गंभीरता से विचार कर रहा है ।
आदिवासी क्षेत्रोंएवं किसानी क्षेत्रों की स्थिति से साफ जाहिर है कि लोग जंगल, नदियों, पहाड़ खेती-जमीन और जीविका के साथ-साथ इस अस्मिता भरे समाज को बचाने के लिए संघर्षरत हैं। वे शांति और इज्जत की जिंदगी चाहते हैं । हिंसा फैसले की शुरूआत तो प्रकृति व संस्कृति पर हो रहे विकास के हमले से ही हो रही है । इन आक्रमणों का डटकर सामना भाी अधिकांश स्थानों पर अहिंसा से ही हो रहा है । इस दौरान विकास की अवधारणा और मार्ग, नियोजन प्रणाली और औचित्य पर बहस उठी है । संघर्षरत साथियों के अलावा निर्माण हेतु सही तकनीक, लोकतांत्रिक प्रणाली और समता, न्याय व निरंतरता की आधारभूत चौखट इसमें योगदान दे रही है ।
सर्वप्रथम गांव स्तर पर विकास योजना तय करने जैसी छोटी सी बात आज बहुत बड़ी और बुनियादी बात सिद्ध हो रही
है । इसे कुचलने का विरोध कई जगह सशस्त्र संघर्ष का रूप ले लेता है । यह एक दुर्देव अवश्य है परंतु यह निश्चित तौर पर मात्र कानून व व्यवस्था का मुद्दा नहीं है । यह मुद्दा है आज भी बुरी तरह से हावी ब्रिटिशों की मानसिक गुलामी का । यह मुद्दा है हमारे संविधान मेंे ही अंतर्निहित मार्गदर्शक सिद्धांतों से प्रेरणा और दिशा लेकर मात्र पंचायती राज ही नहीं बल्कि जनवादी तंत्र और ताकत को उभारने का है । हमें गैर बराबरी समाप्त् करने के लिए सादगी को अपनाना होगा और अपने ही उपलब्ध संसाधनों से न्यूनतम जरूरतें पूरी करनी होगी । इन सभी को यदि हम प्रगतिशीलता का प्रतीक माने तो ही हम सही अर्थोंा मे आजादी पाएगें । संविधान की धारा २४३ या विभाग ९ के अलावा भी हमें जटिलता को समझते हुए संवेदना के साथ नए नियमों को गढ़ने की चुनौती स्वीकारनी होगी ।
हमारा ध्यान देश को महाशक्ति बनाने या सकल वृद्धि दर के उच्चांक की ओर देखने की बजाए सुदृढ़ व सुनियोजित होने के बावजूद एक पारदर्शी समाज बनाने और उसकी व्यवस्था खड़ी करने पर होना चाहिए । हम हमारे गांवों का कत्ल और सन् २०५० तक शहरी भारत वाली मानसिक विकृति को दूर कर पाएगें की नहीं ? आवश्यकता इस बात की है कि हम स्थानीय जल, जंगल का नियोजन और खेती के प्राकृतिक विकास को अहम मुद्दा बनाएं । हमें निर्माण हेतु सिर्फ ईमानदारी और संवाद वाला पथ ही मंजूर होगा । अंबानी और कंपनियों की दादागिरी को हर स्तर पर नकारते हुए हमें कहना होगा कि हम आजाद हैं तथा हमें भूख, लाचारी और विचारहीन प्राथमिकताआें से आजादी चाहिए ।
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