शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

११ ज्ञान विज्ञान


हिमालय में सुरक्षित है बंगाल टाइगर

तेजी से घटती बाघों की संख्या से चिंतित पूरी दुनिया के लिए हिमालय उम्मीद की नई किरण बन सामने आया है ।
यह शानदार जीवन समुद्र तल से १३ हजार फीट ( लगभग ४००० मीटर) की ऊँचाई पर मिला है । इस खोज से नई जानकारी मिली है कि इस क्षेत्र में बाघों तक मनुष्यों की पहुंच नहीं बन पाई है । बीबीसी की नेचुरल हिस्ट्री यूनिट के मेंबर और बाघ संरक्षणकर्ता ऐलन रैबिनोबिट्स ने बताया कि भूटान के ग्रामीणोंमें बाघों के हिमालय पर ४००० मीटर की ऊँचाई पर देखे जाने की चर्चा सुने जाने के बाद हमारी टीम ने इसके पुख्ता सबूत जुटाने का फैसला किया । टीम के कैमरामेन गार्डन बुचानन ने बताया कि तीन महीने पहले हमने हिमालय के जंगलोंमें ९८०० फीट और १३,४५० फीट ऊँचाई पर कैमरे लगाकर छह हफ्तोंतक शूटिंग की । टीम ने गुफाआें, बाघों के आवागमन के रास्ते और पेड़ों पर कैमरे छुपाकर उनकी फिल्म बनाई
है ।
रैबिनोबिट्ज ने कहा कि इस खोज ने बाघों के जीवन के बारे में पुरानी मान्यताआें को झूठला दिया है । विशेषज्ञ अब तक मानते रहे कि यह जीव मैदानी जंगलों से ही जीवित रह सकता है लेकिन इस खोज के बाद साबित हो गया है कि टाइगर अत्यधिक ठंड और ऊंचाई पर भी भोजन और प्रजनन कर जीवित रहने में सक्षम है ।
रैबिनोबिट्ज के अनुसार इस खोज से बाघों के संरक्षण मेंभारत, नेपाल और भूटान से गलती हिमालय की तलहटी में टाइगर कॉरिडोर को विकसित करना होगा । जिसमें म्यांमार, थाईलैंड और लाओस जैसे अन्य एशियाई देशों का सहयोग भी चाहिए । भारत की भूमिका बढ़ने के साथ ही अब भूटान को टाइगर नर्सरी के रूप में भूमिका निभाने के लिए तैयार होना चाहिए ।

पर्वत को बचाने की एक मुहिम

बर्फ के घर यानी हिमालय को बचाने की पहल उत्तराखंड की धरती पर शुरू हो रही है । सभी को लगने लगा है कि इस पर्वत श्रृंखला की रक्षा अब बेहद जरूरी है । अब भी न जागे तो देर हो जाएगी । हिमालय के खतरे में पड़ने का मतलब पर्यावरण के साथ ही कई संस्कृतियों का खतरे में पड़ना है ।
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर बने अन्तराष्ट्रीय पैनल की तीन साल पहले आई रिपार्ट में जब इस बात का खुलासा किया गया था कि हिमालय के ग्लेशियर २०३५ तक पिघल कर समाप्त् हो जाएँगे, तब ग्लोबल वार्मिंग से जोड़कर पूरी दुनिया के विज्ञानी चिंता में डूब गए थे । बाद में यह मामला हल्का पड़ा, लेकिन इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्लेशियर पिघलने की गति तेज हुई है । उत्तराखंड सरकार ने कई वर्ष पहले जलनीति के ड्राफ्ट में स्वीकार किया है कि राज्य में स्थित २३८ ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं । इन्हीं से गंगा, यमुना और काली जैसी नदियाँ निकलती
है ।
इस सूरत में हिमालय दिवस के बहाने इस मुहिम को परवान चढ़ाने वालों की सोच है कि हिमालय की रक्षा तभी होगी जब उसकी गोद में रचे-बसे करोड़ों लोग वहीं रहेंगे । बीते कुछ वर्षोंा से पलायन की जो गति है, उनसे इस चिंता को और बढ़ाया है । अगर पलायन की गति यूं ही बनी रही तो कंकड़-पत्थर का पहाड़ रहकर भी क्या
करेगा । यह मानने में किसी को एतराज नहीं होना चाहिए कि सुदूर पहाड़ों में कोई बड़ा कारखाना नहीं लग सकता । इस सूरत में हमें पहाड़ के बाशिंदों को रोकना आसान नहीं
होगा । वे तभी रूकेंगे जब उनके लिए आजीविका के ठोस इंतजाम किए जाएँगे । अभी पहाड़ों पर जो भी सामान बिक रहा है, सब नीचे से जा रहा है । ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि पहाड़ में पैदा होने वाले अन्न और वन उपजों से वहीं रोजगार के अवसर पैदा किए जाएँ ।
ग्लेशियरों के पिघलने की गति देखकर ही पर्यावरणविद कहने लगे हैं कि वह दिन दूर नहीं जब हमें पानी तरह बहाने के बजाय पानी की तरह बचाने का मुहावरा अपनाना होगा । यह मानने में किसी को एतराज नहीं कि अब जल जंगल, जमीन और खनिज को बचाए बिना कुछ हो नहीं सकता । इसके लिए एक नए आंदोलन की जरूरत है । विकास की अंधी दौड़ में बीते कई दशकों में हिमालयी पर्यावरण, लोक-जीवन, वन्य जीवन और मानवीय बन्दोबस्तों को भारी नुकसान पहुँचाया है । दुष्परिणाम हमारे सामने हैं । झरने सूख गए । नदियों में पानी कम हो गया । अकेलेउत्तराखंड में तीन सौ से ऊपर बिजली परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं । हालाँकि गंगा
पर बनने वाली तीन बड़ी परियोजनाएँ लोहारीनाम पाला, मनेरी-भाली और भैंरोघाटी
का निर्माण सरकार रद्द कर चुकी है, लेकिन अभी भी बड़ी-बड़ी सुरंगे अन्य परियोजनाआें के लिए बन रही हैं । नेपाल और भारत में पानी की अधिकतर आपूर्ति हिमालय से ही होती
है । पेयजल और कृषि के अलावा पनबिजली के उत्पादन में भी हिमालय की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता । बेशकीमती वनौषधियाँ यहाँ हैं ।
यह भारत को विदेशी हमलों से रक्षा भी करता आ रहा है । यह कुमाऊं शदोत्सव समिति की ओर से प्रकाशित स्मारिका में प्रो. शेखर पाठक लिखते हैं - हिमालय फिर भी बचा और बना रहेगा । हम सबको कुछ न कुछ देता रहेगा । मनुष्य दरअसल अपने को बचाने के बहाने हिमालय की बात कर रहा है, क्योंकि हिमालय पर चहुँओर चढ़ाई हो रही है ।

खतरे की घंटी है हिंद महासागर का तेजी से बढ़ता स्तर

भारत सहित बांग्लादेश, इंडोनेशिया और श्रीलंका के तटीय इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए हिंद महासागर का बढ़ता स्तर आने वाले समय में बड़ा खतरा साबित हो सकता है । यह नतीजे एक ताजा वैज्ञानिक अध्ययन में सामने आए हैं ।
नेचर जिओसाइंस के ताजा अंक में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंद महासागर का तट स्तर पहले की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ रहा है । सागरीय तट स्तर में सामान्यत: एक साल में तीन मिलीमीटर (०.११८१ इंच) तक की बढ़ोतरी होती है । लेकिन हिंद महासागर का तट स्तर इससे कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहा है । वैज्ञानिकों ने १९६० से लेकर अब तक के आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करने ओर कम्प्यूटराइज्ड मॉडल पर इसे परखने के बाद यह निष्कर्ष निकाला ।
हिंद महासागर पृथ्वी का तीसरा बड़ा जल भाग है, जो पृथ्वी कीकुल २० फीसदी जल राशि को अपने में समाए हुए हैं । अन्य महासागरों की तुलना में इसके तट स्तर में तेजी से वृद्धि की दो मुख्य वजहें बताई गई है । इसके अंडाकार क्षेत्र की जल राशि के स्तर में वृद्धि का एक स्वाभाविक कारण माना जा रहा है, जबकि ग्रीन हाउस गैसों के कारण बढ़ने वाले तापमान को भी इसके लिए उत्तरदायी ठहराया गया है । रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रीन हाउस
गैसों के कारण इस महासागरीय पूल के तापमान में पिछले ५० साल के मुकाबले ०.५ डिग्री सेल्सियस (१ डिग्री फेरनहाइट) का इजाफा दर्ज किया गया है । वैज्ञानिकोंका कहना है कि सागरीय जल के तापमान में वृद्धि से वायुमंडलीय धाराआें पर सीधा असर पड़ता है, जो महासागर के तट स्तर को बढ़ाने के लिए उत्तरदायी है । रिपोर्ट में कहा गया है कि इस तरह का अध्ययन इससे पहले नहीं किया गया था । नए अध्ययन में स्पष्ट चेतावनी दी गई है कि हिन्द महासागर से घिरे भूखंड पर इसके तट स्तर में वृद्धि के कारण खतरा बढ़ता जा रहा है ।
इंडोनेशिया, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे निचले इलाके बेहद प्रभावित हो सकते हैं । यही नहीं, इन क्षेत्रों में मानसून पर भी विपरित असर पड़ने की आशंका जताई जा रही है । रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि मौसम में बदलाव के कारण इस क्षेत्र की आने वाले समय में भीषण बाढ़ और सूखे जैसे हालातों का सामना करना पड़ सकता है ।
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