सोमवार, 22 अक्तूबर 2012



रविवार, 14 अक्तूबर 2012

प्रसंगवश
बालिकाआें की संख्या में कमी चिंता का विषय
     वर्ष २००१ से २०११ के दशक में भारत जन्मदर में कमी तो आई है, परन्तु कुछ जन्म लेने वाले बच्चें में बालकों की अपेक्षा बालिकाआें की संख्या काफी कम रही है । इस दौरान बालकों की संख्या में करीब २० लाख की कमी आई, जबकि बालिकाआें की संख्या करीब ३० लाख घट गई । इसकी वजह से बालक बालिकाआें का लिंगानुपात बिगड़ गया है । केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन ने यह बात कही है ।
    संगठन ने चिल्ड्रन इन इंडिया २०१२- अ स्टैटिस्किल अप्रेजल नामक अध्ययन की रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि २००१-२०११ के दशक में कुल जनसंख्या में ० से ६ वर्ष आयु समूह के बच्चें का प्रतिशत घटा है । हालांकि इसमें बालकों की तुलना में बालिकाआें की संख्या में काफी ज्यादा कमी दर्ज की गई है ।
    बालिकाआें की संख्या ३० लाख घटी : वर्ष २००१ में ० से ६ वर्ष आयु समूह में बालिकाआें की संख्या ७.८८३ करोड़ थी, जो कि २०११ में घटकर ७.५८४ करोड़ रह गई । अर्थात् दशक में इनकी संख्या में २९.९ लाख की कमी आई । वर्ष २००१ में महिलाआें की कुल जनसंख्या (४९.६५ करोड़) में इस आयु समूह की बालिकाआें का हिस्सा १५.८८ प्रतिशत था, जो कि २०११ की जनसंख्या (५८.६४ करोड़) में १२.९ प्रतिशत ही रह गया ।
    बालकों की संख्या मे २० लाख की कमी : वर्ष २००१ में ०-६ साल के बालकों की संख्या ८.५०१ करोड़ थी, जो कि २०११ में घटकर ८.२९५ करोड़ रह गई । इनकी संख्या में २०.६ लाख की कमी आई । २००१ में कुल पुरूष जनसंख्या में बालकों की हिस्सेदारी १५.९७ प्रतिशत थी, जो कि २०११ में घटकर १३.३ प्रतिशत रही ।
    संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि दशक के दौरान कुल लिंगानुपात में सुधार आया है परन्तु बच्चें के लिंगानुपात की स्थिति अभी भी खराब है । यह चिंता का विषय है । वर्ष २०११ में प्रति १,००० बालकों पर बालिकाआें की संख्या (बाल लिंगानुपात) मात्र ९१४ रही है । इसमें से भी शहरी क्षेत्रों की हालत ग्रामीण क्षेत्रों से ज्यादा खराब रही । प्रति १,००० बालकों पर गा्रमीण क्षेत्र में बालिकाएं ९१९ रहीं, जो कि शहरी क्षेत्र से १७ अधिक है ।
संपादकीय 
हम स्वयं बुलाते हैं सेहत के लिए खतरे
               करीब दो लाख साल से इंसान चंद जरूरतों के साथ खुशहाल जीवन जीता आया है । मगर, पिछले २५० सालों में आदमी की जीवनशैली में काफी बदलाव आया है । बदलावों की वही अति अब हमें काल के गाल में ले जा रही है । हमारा शरीर हवा, पानी एवं खानपान में मिश्रित प्रदूषण का पिटारा बन गया है । नतीनजन हम ढेरों जानलेवा बीमारियों का प्रकोप झेल रहे हैं । हां, कुछ हद तक सतर्क रहे तो बचे रहने की संभावना अभी बाकी है ।
    अपने शरीर से हम किसी भी तरह की लाइफ स्टाइल को सहज स्वीकारने की उम्मीद करते हैं । तब यह नहीं सोचते कि बिना विरोध के यह कैसे संभव है । आज तमाम जानलेवा बीमारियां लगातार बढ़ रही है । यहां तक कि जो रोग पूरी तरह खत्म हो चुके थे, वे भी लौट रहे हैं । वास्तव में हमारी बनावटी और आधुनिक जीवनशैली के प्रति शरीर के विरोध का ही नतीजा है दिल, दमा और कैंसर जैसे गंभीर रोग ।
    जल प्रदूषण भारत के पर्यावरण संबंधी खतरों में से एक बड़ा खतरा बनकर उभरा है । इसके सबसे बड़े स्त्रोत, शहरी सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट हैं, जो सीधे नदियों में पहुंचते है । कृषि और औद्योगिक उत्पादन जैसी गतिविधियां जैविक अपशिष्ट के साथ पानी को भी प्रदूषित करती है ।
    प्रदूषित जल हैजा, पेचिस, टीबी और पेट की बीमारियों जैसी अन्य कई बीमारियों का कारण बनता है । वर्तमान में इसमें सिर्फ १६ प्रतिशत जल ही शोधित हो पाता है, अत: नदियों से मिलने वाला पेयजल दूषित तथा रोगजनित जीवाणुआें से भरा होता है ।
    आधुनिक वातवरण और पदार्थो में मौजूद प्रदूषण का शरीर में प्रवेश करना स्वाभाविक है । इनमें से कई शरीर में जमा हो जाते हैं । मिलावटी खानपान के चयापचय  की दृष्टि से हमारे शरीर की संरचना नहीं हुई है, फिर भी शरीर प्रणाली प्रदूषण के असर को कम और खत्म करने में जुटी रहती है । ये जब उसके वश के बाहर हो जाता है, तो वह रोगों के रूप में प्रकट होता है । पर्यावरणीय चिकित्सकों के अनुसार दुनिया का २५ से ३० प्रतिशत हिस्सा पर्यावरण प्रदूषण संबंधी किसी न किसी रोग से पीड़ित है ।
 सामयिक
वन मिटा सकते हैं गरीबी
चण्डीप्रसाद भट्ट

    यदि वनों का प्रबंधन एक सुविचारित जनोपयोगी रणनीति के तहत किया जाए तो यह आगामी दो दशकों में भारत की गरीबी को कम करने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है । आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अपनी हर गतिविधि से धनोपार्जन का लालच छोड़े ।
    वन किसी भी राष्ट्र के सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों में से एक हैं और इसी कारण वन संबंधी कुछ ना कुछ अनौपचारिक एवं औपचारिक नीतियां एवं कानून ऐतिहासिक समय से चले आ रहे हैं । नए जमाने में जब से राष्ट्र एवं राज्य की अवधारणा बनी है, इन ऐतिहासिक नीतियों एवं कानूनों को विज्ञान आधारित पहचान दी जाने लगी है और उन्हें पूर्ण रूप से औपचारिक स्वरूप भी दिया जाने लगा है । किन्तु ये तत्कालीन संप्रभुआें की राजनीतिक एवं आर्थिक प्राथमिकताआें को देखकर बनाये गये थे, सामान्यजन के लिए नहीं । ये तब भी अप्रांसगिक थे और आज भी अप्रासंगिक हैं । यही अप्रासंगिक वनों के समुचित संरक्षण एवं विकास को कोई भी ठोस दिशा देने से रोकती रही है । एशिया एवं शेष विश्व के अधिकांश देशोंमें इसी कारण वनों का हृास लगातार जारी हैं । भारत एवं चीन जैसे कुछ ही देश ऐसे हैं, जिनमें वन क्षेत्र की थोड़ी बहुत बढ़ोत्तरी हाल के वर्षो में आंकी गई है । हालांकि ऐसी बढ़ोत्तरी पर समाजशास्त्री एवं तकनीकी वानिकी विशेषज्ञ दोनों मिलकर लगातार प्रश्नचिन्ह लगाते रहे हैं ।
    क्या यह बढ़ोत्तरी वैसी वनस्पति एवं सम्पदा की हो रही है, जो स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी है, जो उनकी दिनों दिन की मूलभूत आवश्यकताआें को पूरा करने में सक्षम है, या क्या यह बढोत्तरी स्थानीय लोगों को रोजगार के साधन बढ़ाकर उनकी आर्थिक प्रगति का कोई स्तंभ बन सकती है ? उत्तर सरल नहीं है क्योंकि यह विषय दुरूह एवं गंभीर है लेकिन तत्काल निदान की मांग भी करता है ।
    यह एक सरल कार्य नहीं होगा और ना ही इसके लिए कोई एक सा राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय तरीका हो सकता है । हमें इनके लिए स्थानीय उपाय ढूंढने होंगे, जो स्थानीय तौर पर प्रासंगिक हों । इस परिप्रेक्ष्य में ऐसे नये वानिकी संस्थानों को बनाना आवश्यक होगा, जो स्थानीय लोगों की जरूरतों एवं उनकी आकांक्षाआें को पूरा कर  सके । संस्थान से मेरा तात्पर्य संस्था तथा संस्था को चलाने वाले नियम, परम्परा आदि सभी को मिलाकर हैं ।
    मेरे विचार से इन विभिन्न वानिकी संस्थानों के बीच में एक साझा तथ्य जो इन सभी को जोड़ सकता है, वह प्रजातांत्रिक वानिकी संस्था की धारणा । किन्तु अधिकांशत: विश्वभर में ये प्रजातांत्रिक संस्थाएं एवं व्यवस्थाएं अनौपचारिक स्तर पर कार्यरत रहती हैं तो उनका प्रभाव बहुत क्षेत्र बहुत ही छोटा रहता है एवं छोटे से छोटे विवाद होने पर यह तुरन्त बिखरने लगती हैं । वैसे हमारे देश में के उत्तराखण्ड राज्य की वन पंचायत जो तत्कालीन औपनिवेशिक राज्य से लोहा लेते हुए अपने पैरों पर खड़े रही, स्वतंत्र भारत में भी उन्हें सीमित औपचारिक मान्यता ही दी गई है । लेकिन ऐसी संस्थाआें की देशव्यापी राजनीतिक परिदृश्य के अन्तर्गत क्या भूमिका होगी, यह स्पष्ट नहीं है ।
    समस्या से निपटने हेतु मेरा सुझाव है कि देश की तीन चौथाई से अधिक अत्यन्त निर्धन जनता झारखण्ड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश राज्य के आदिवासी बहुल इलाकों में रहती है । यह इलाका वन बहुल है एवं स्थानीय निवासी वनों पर अत्यधिक निर्भर है । अब पूर्णत: साबित हो चुका है कि भूमि उपयोग के रूप में वानिकी सबसे अधिक लाभकारी है अत: गरीबी हटाने के लिए स्थानीय ग्रामीण समुदाय को उनके वन संसाधनों के प्रबंध एवं उपयोग के लिए पूर्ण स्वायत्ता दी जानी अत्यन्त आवश्यक है । उदाहरण के तौर पर भारत में ऐसे १,७३,००० गांव हैं, जिनमें वन भूमि उपलब्ध है । गत १५ सालों से सरकार का भी संयुक्त वन प्रबंधन के अधीन उल्लेखनीय कार्य भी हुए है । किन्तु यह संभव नहीं है कि ऐसी प्रबंधन संस्थाएं गरीबी जैसे गंभीर एवं दुरूह विषय को अपने स्तर पर ही हल कर सकें । इसके कई कारण हैंपहला, संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम अधिकांशत: सरकारी पहल एवं धन पर निर्भर है एवं सरकारी पहल तथा प्रस्ताव के कारण स्थानीयजनों के प्रयास तथा पहल पृष्ठभूमि में रह जाते हैं । दूसरा, संयुक्त वन प्रबंधन का राष्ट्रीय स्तर पर कोई कानूनी ढांचा नहीं है, जिसके कारण स्थानीय ग्रामीण समुदायों में यह पूर्ण विश्वास नहीं है कि वनों के संरक्षण एवं विकास में लगाई गई उनकी मेहनत का पूरा-पूरा लाभ उन्हें ३०-४० वर्षो के बाद उन्हें सुनिश्चित रूप से मिल पाएगा ।
    यदि हम इन गांवों में मात्र ५०-५० हेक्टेयर का भी ठीक-ठीक प्रबंध करें तो ३० सालों के चक्र पर हर गांवों को १० लाख रूपये की डिस्काउंटेड आमदनी पर मिल सकेगी । ऐसा करने से किसी भी सरकार का गरीबों के प्रति उनके झुकाव स्पष्ट रूप से स्थापित हो सकता है । नागरिक समाज का एक बड़ा तबका वन व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन मांग करता रहा है । उसके अनुसार भारतीय वन कानून को या तो पूर्ण रूप से बदलना या समाप्त् कर देना चाहिए क्योंकि वे इस कानून को भारत के औपनिवेशिक इतिहास का एक हिस्सा मानते हैं एवं समझते हैं कि इसी कानून के चलते वन प्रबंध में जो कमांड एवं नियंत्रण व्यवस्था है तथा जिनके चलते वन प्रबंध में लोकमत से दूरी है अक्षुण्ण रह रही है । सबूत के तौर पर भारतीय वन अधिनियम के अध्याय - ।। जो रिजर्व फॉरेस्ट के बारे में है, का उदाहरण लें, जिसमें किसी भी गैर सरकारी व्यक्ति द्वारा किसी रिजर्व फॉरेस्ट में कार्य करने के लिए सरकारी अनुमति को आवश्यक बताया गया है । हमेशा की तरह सरकारी वन विभाग नागरिक समाज की इस प्रकार की मांग को अपने अस्तित्व पर ही खतरे के रूप में देखता है और ऐसी मांगों को सिरे से खारिज करने के प्रयास में जुट जाता है । किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि भारतीय वन अधिनियम के अध्याय ३ में ग्राम वन की स्पष्ट एवं सुदृढ़ व्यवस्था की गई है, जिसके अधीन सरकार रिजर्व फॉरेस्ट को ग्राम वन के रूप में घोषित करते हुए उनका पूर्ण प्रबंधक स्वायत्त रूप से करने के लिए ग्राम समुदाय को प्राधिकृत कर सकती है । वर्तमान में अध्याय-३ मात्र रिजर्व फॉरेस्ट पर ही लागू होता    है किन्तु भारतीय वन कानून में एक छोटा संशोधन कराकर बड़ी आसानी से इस अध्याय को अन्य लोकभूमि जैसे संरक्षित वन गोचर, सामुदायिक भूमि आदि पर लागू किया जा सकता है ।
    इसी प्रकार, वन एवं वन उत्पादों की बढ़ती महत्ता के मद्देनजर भारतीय वन अधिनियम तथा ग्राम वन न केवल वन उपयोग वाले १,७३,००० गांव में ही नहीं बल्कि भारत के सभी ६ लाख गांवों में उपलब्ध विभिन्न प्रकार की लोक भूमियों पर लागू होंगे । इन्हें वन पंचायत जैसे प्रजातांत्रिक वन संस्था के अधीन किया जा सकता है ताकि स्थानीय भागीदारी से एवं स्थानीय लोगों के लिए वन भूमि संसाधनों का त्वरित विकास प्रबंध एवं उपयोग किया जा सके ।
    भारतीय के संविधान के तहत मतदान द्वारा चयनित पंचायती राज संस्थाआेंको सामाजिक एवं कृषि वानिकी का जिम्मेदार बनाया गया है । यह आवश्यक है कि इसके लिए उत्तराखण्ड जैसे वन पंचायती संस्थाआें का निर्माण कर ग्राम वन उन्हीं के अधीन किए जाए । ऐसा करना इसलिए भी समीचीन है कि मतदान द्वारा चयनित पंचायती राज संस्थाआें का परिक्षेत्र बहुधा प्रशासनिक कारणों से परिसीमित है एवं यह आवश्यक नहीं है कि ऐसा क्षेत्र उस भूभाग की प्राकृतिक सीमाआें से पूर्ण रूप से मेल खाता ही हो ।
    यदि सरकार देश के हर गांव में एक ग्राम वन बनाती है एवं उसका उत्तरदायित्व पूर्ण रूप से वन पंचायत को देती है तो इस प्रकार न केवलनिर्धनता की समस्या पर अंकुश लगाया जा सकेगा बल्कि देश का चहुंमुखी विकास भी हो सकेगा एवं पर्यावरणीय लाभ के चलते लोक स्वास्थ्य, जल एवं भूमि प्रबंध, वायु प्रदूषण, स्थानीय जलवायु परिवर्तन आदि पर होने वाले खर्चो में भी कमी आएगी ।
हमारा भूमण्डल
पर्यावरण ऋण को नकारते विकसित राष्ट्र
सोशल वॉच
    मनुष्य की परिस्थिति को मापने के लिए महज राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद को पैमाना बना लेने के दुष्परिणाम हम सभी के सामने है । भारत का बढ़ता सकल घरेलू उत्पाद और बढ़ती गरीबी का समानांतर चलना दर्शाता है कि मानव विकास सूचकांक को नए सूचकांको से मापने की आवश्यकता है ।
    विश्व के अठारह प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताआें एवं विद्वानों द्वारा गठित सिविल सोसायटी रिफ्लेक्शन ग्रुप ऑन ग्लोबल डेवलपमेंट यानि वैश्विक विकास परिप्रेक्ष्य में नागरिक समाज के चिंतन समूह ने सुझाव दिया है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, राष्ट्रों एवं विश्व के द्वारा अर्थव्यवस्था, समता, बेहतरी, मानवाधिकार एवं सुस्थिरता को मापने के लिए हर हाल में नए सूचकांको की खोज करेंं । चिंतन समूह द्वारा हाल ही में रियो डी जेनेरिया में आधिकारिक रूप से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि अब समय आ गया है कि हम समानांतर रूप से आर्थिक, वित्तीय, खाद्य एवं जलवायु संकट जो कि विकास और आर्थिक प्रगति के इस प्रबल मॉडल की असफलता दर्शाता हो और जो समाज में प्रगति को सकल घरेलू उत्पाद के माध्यम से भ्रमित करता हो और असमानता और सामाजिक न्याय की अवहेलना करते हुए मात्र गरीबी को ही एक प्राथमिक तकनीकी चुनौती मानता हो, ये सबक लेना चाहिए । अध्ययन ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अनुशंसा की है कि वह पारम्परिक विकास अवधारणा से परे भी देखे एवं उत्तर एवं दक्षिण में हुई सामाजिक प्रगति के मॉडल एवं माप पर मूलभूत रूप से पुन: विचार करे ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् १९५३ में संयुक्त राष्ट्र राष्ट्रीय लेखा प्रणाली (एस.एम.ए.) के निर्माण ने राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सूचकांकों की तुलना को संभव बनाया और सकल घरेलू उत्पाद को कमोवेश विकास का पर्यायवाची माना जाने लगा । लेकिन सकल घरेलू उत्पाद किसी अर्थव्यवस्था की पूरी तस्वीर सामने नहीं रखता । उदाहरण के लिए यह असमानता नहीं दर्शाता, यह ऐसी सभी संपत्तियां, जिसमेें आर्थिक ढांचे, जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र, संस्कृतिएवं मानव पूंजी शामिल हैं, के निर्माण एवं विध्वंस को भी सामने नहीं लाता । इतना ही नहीं यह परिवार के सदस्यों द्वारा अपने परिवारों को नि:शुल्क प्रदान की जाने वाली सेवाआें का भी हिसाब नहीं रखता, जबकि बाजार में इसी तरह की उपलब्ध सेवाआें से इस मद का आसानी से निर्धारण हो सकता है ।
    चिंतन समूह ने अपने अध्ययन में देशों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) द्वारा सन् १९९० से गणना किए जा रहे मानव किवास सूचकांक, आर्गेनाइजेशन फॉर इकानॉमिक को ऑपरेशन एवं डेवलपमेंट (ओईसीडी), जिसमें कि विश्व की ३४ सर्वाधिक समृद्ध अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं, की वर्ष २०११ से तैयार रिपोर्ट और भूटान के राष्ट्रीय सुख समृद्धि सूचकांक के आधार पर किया है ।
    संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक विशेषज्ञ सुस्थिर विकास का नया सूचकांक निर्मित करने हेतु पूर्ववर्ती तीनों स्तंभों समाज, पर्यावरण एवं अर्थव्यवस्था को एक साथ ही रखना चाहते हैं । यह विचार आकर्षक है और इसके समर्थकों को मानना है कि इससे जीडीपी के हौवे से छुटकारा मिल सकती है । लेकिन आर्थिक प्रदर्शन एवं सामाजिक प्रगति आकलन आयोग के नोबल पुरस्कार प्राप्त् अर्थशास्त्री सदस्य जोसेफ स्टिग्ल्जि एवं अर्मत्य सेन एवं फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां पाल फिटोउस्सी इसके ठीक विपरीत विचार का समर्थन करते हुए कहते है सुस्थिरता का प्रश्न वर्तमान बेहतर स्थितियों या आर्थिक प्रदर्शन से जुड़ा हुआ है और इसे पृथक से देखा जाना अति आवश्यक हैं ।
    इस तिकड़ी ने अपनी रिपोर्ट को समेटते हुए बेहतरी के सूचकांक एवं सुस्थिरता पर विमर्श करते हुए इस बात पर अत्यधिक जोर दिया है कि ये दोनोंअपनी प्रकृति मेंएकदम विपरीत हैं । इस संदर्भ में उन्होने कार के डेश बोर्ड के प्रतीक को चुनते हुए कहा है कि वहां रफ्तार एवं बचे हुए पेट्रोल को दो अलग-अलग स्थानों पर प्रदर्शित किया जाता है । एक हमें जानकारी देता है कि गन्तव्य तक पहुंचने में कितना समय लगेगा और दूसरा हमें दर्शाता है कि गन्तव्य तक पहुंचने में कितने संसाधन (पेट्रोल) की आवश्यकता है और यदि इसकी समय पर पूर्ति नहीं की गई तो यह गन्तव्य पर पहुंचने से पहले यह समाप्त् भी हो सकता है । यदि इन दोनों को मिला दिया जाएगा तो ड्रायवर भ्रमित हो जाएगा ।
    इनके अनुसार किसी भी गतिविधि की सुस्थिरता उसकी सम्पत्ति या निश्चित भंडारण के पुर्नउत्पादन से ही संभव है । यदि चारागाहों से अधिक घास काट ली जाएगी तो वे गायब हो जाएंगे । यदि सीमा से अधिक मछलियों का शिकार कर लिया गया तो वे लुप्त् हो जाएंगी । इसी तरह कार्बनडाई ऑक्साइड का अत्यधिक उत्सर्जन जो कि जीवाश्म ईधन के अत्यधिक प्रयोग को इस वजह हो रहे जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए वातावरण मेंजाने से पहले रोकना पड़ेगा ।
    क्या मापा जाए - चिंतन समूह का निष्कर्ष है कि सकल घरेलू उत्पाद जीवन की गुणवत्ता को नहीं मापता न ही सुस्थिरता का माप है और इतना ही नहीं यह आर्थिक प्रदर्शन को मापने का भी सही पैमाना नहीं है । रिपोर्ट में कहा गया है कि स्टिग्ल्टि्स, सेन एवं फिटोउस्सी आयोग के अनुसार सही तस्वीर जानने के लिए सूचकांक की समीक्षा एवं इनका एक दूसरे से तारतम्य बैठाना आवश्यक है । असमानता एवं वितरण को आंकने के संबंध में समूह में गिनी गुणांक का जिक्र करते हुए कहा गया है कि ये तो मात्र विश्व बैंक में एवं कुछ ही अन्य देशों के मौजूद हैं । नीति निर्माताआें या शोधकर्ताआें के लिए असमानता कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है । एक बेहतर माप के लिए यूएनडीपी को अपनी गणना में असमानता को समाहित करने वाले मानव विकास सूचकांक में इन तीनों घटकों आयु, शिक्षा एवं प्रतिव्यक्ति आय को समाहित करना चाहिए ।
    इसी के साथ इसमें अन्य विभिन्न सूचकांक जैसे कुपोषण, नैतिकता, शिक्षा का स्तर या सशुल्क एवं नि:शुल्क कार्य में दिया गया समय, आपस में संवाद, अवकाश एवं आपसी मेलजोल को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए । रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि इसके बिना अर्थव्यवस्था भले ही विकसित हो जाए लेकिन मानव पूंजी या सामाजिक पूंजी का तो हृास ही होगा ।
    वर्ष २००९ में २९ प्रमुख वैज्ञानिकों ने नौ ग्रहीय सीमाआें की पहचान की थी । इनमें से तीन जलवायु, वैश्विक नाईट्रोजन चक्र एवं जैव विविधता के संबंध मेंतो मानकों का उल्लघंन हो ही रहा है । वैश्विक सुस्थिरता हेतु प्रत्येक देश या आर्थिक इकाई (निर्माता या उत्पादक) द्वारा किए जा रहे उल्लघंन को मापना आवश्यक है । इसकी सीमाआें पर उल्लघंन को मापने से ही इस प्रणाली के सुधार के लिए चुकाए जाने वाले मुल्य की गणना की जा सकती है । अतएव सिद्धांत के तौर पर तो यह मानना ही पड़ेगा कि प्रदूषणकर्ता को तो भुगतान करना ही पड़ेगा और उसे इसे पर्यावरणीय ऋण की संज्ञा देना होगी । लेकिन प्रदूषण फैलाने वाले देश उन पर चढ़े हुए ऋण के बारे में कुछ सुनना ही नहीं चाहते ।
गांधी जंयती पर विशेष 
चरखा और करघा
रमेश थानवी

    कबीर और गंाधी के समयकाल मे करीब पांच शताब्दियोंका अंतर है । लेकिन दोनों ने जिस अंतिम व्यक्ति के हित के लिए कार्य किया वह आज भी वंचित जीवन जी रहा है । कबीर के करघे और गांधी के चरखे की आवाज इतनी मधुर है कि कर्कश आवाजोंके आदि हो चले हमारे कान शायद उस मधुरता का रसास्वादन करने लायक ही नहीं बचे हैं । इन विषम परिस्थितियों में भी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक कहीं कहीं ये स्वर आज भी मौजूद हैं और भरोसा दिलाते हैं कि कबीर और गांधी वैचारिक परम्परा अनंत तक प्रवाहित रहेगी ।
    कबीर करघे पर कपड़ा बुनते थे । झीनीझीनी चदरिया बुनते थे । ऐसे जतन से बुनते थे कि कोई उसे ओढ़े पर मैली ना करे । झीनी भी इसलिए बुनते थे कि उनकी बुनी चदरिया किसी के तन पर बोझ ना बने और जब चाहे तब छोड़ दे, उतार दे और पार उतर जाए ।
    कबीर के इस करघे में जो ताने-बाने थे, वे उनकी साधना से बने थे । साधना के साथ उनके तप से बने थे और तप के साथ उनके त्याग से बने थे । घर में लाख तंगी हो मगर कबीर के करघे से उतरा हुआ कपड़ा सिर्फ ऐसे ही दामों में बिकता था कि हर गरीब उसे ओढ़ सके, पहन सके । कबीर को मुफलिसी  में रहना मंजूर था मगर मुनाफे की रोटी खाना गवारा नहीं था ।
    कबीर के इस करघे का तप था कि वह जन-जन का तन ढकता था । कबीर का अपना तन भले अधढका, अधनंगा रहे, मगर कबीर को चिंता औरों की थी । लोक की थी और लोक-लाज की थी ।
    कबीर के इस करघे का ताना-बाना कथनी और करनी के मेलमिलाप से बना था । वहां कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था । जो किया जा रहा है वही कहा भी जा रहा है और जो कहा जा रहा है वह सिर्फ सच है । ऐसा सच है, जो इस जुलाहे ने खुद उघाड़ कर देखा है, स्वयं उद्घाटित किया है । यह ऐसा सच है, जो जानने से पहले कहा गया है और जिसे जानने के लिए खोजा गया है और खोजते हुण् उसे पाया गया है । ऐसे और इतने खरे सत्य से और कर्म से बुना गया ताना-बाना  जो चादर बनाएगा, वह कैसी होगी इसका अंदाज तो कोई भी सुधी पाठक लगा सकता   है ।  
    कबीर के जिस करघे से कपड़ा बुनने में तल्लीन थे, उसको बुनने को मुख्य उद्देश्यउनका सत्यान्वेषण था और उनका  सत्याग्रह था । कबीर पहले सत्याग्रही थे । गांधी दूसरे । 
    कबीर के करघे और गांधी के चरखे के बीच एक करीब का रिश्ता    है । यह रिश्ता एक-दूसरे का पूरक-परिपूरक रिश्ता है । कबीर के समय और समाज का संकट कुछ ऐसा था कि उनके करघे का सूत अनायास ही रीत गया, खत्म हो गया । जैसा कि समय सबके साथ करता है कबीर के साथ भी     हुआ । करघा भी धरा का धरा रह गया और कबीर भी अपनी खुशी से सहसा चल बसे । उनका जाना एक तरह से मृत्यु को वरण करना था । पूरी तैयारी के साथ काशी छोड़कर वे मगहर चले गए थे और जानते थे कि वहीं उन्हें शरीर छोड़ना है । यह इच्छा-मृत्यु स्वयं कबीर के लिए भले सामयिक रही हो मगर समाज के लिए तो एक बड़ी दुर्घटना     थी । उस काल विशेष के एक बड़े सामाजिक सत्याग्रह के आगे विराम लगा दिने वाली घटना थी । विराम न भी कहें तो एक लंबा अर्द्ध-विराम तो लगा ही गया था ।
    इस अर्द्ध-विराम को हटाने के लिए एक दूसरे संत का आगमन हुआ । ये संत गांधी थे । उन्होनेंचरखे का चयन ही इसलिए किया कि कबीर के करघे का सूत कभी रीते नहीं और उसे निरन्तर कता-कताया सूत मिलता रहे । अकेले गांधी नहींथे, जो चरखा कातने लगे थे बल्कि उनके साथ करोड़ों हिन्दुस्तानी थे, जो चरखा कातने लगे थे । इस चरखे के सूत का अंतर्सबंध भी जन-जन की जरूरत से था ।
    कबीर भी अधनंगे थे और गांधी भी । किसी को यह स्वीकार करने में शर्म नहीं आनी चाहिए कि तब तीन-चौथाई देश अधनंगा था । आज भी आधा देश अधनंगा ही है और आधा बेशकीमती कपड़ों के अंबार में दफन हुआ जा रहा है । शर्म आज भी नहीं      है । मगर सच्चई आज की यह है कि आज कोई चरखा नहीं कात रहा है ।
    गांधी का चरखा कबीर के करघे को बनाए रखने के लिए था । तो कबीर का करघा जन-जन की जरूरत को पूरी करने के लिए था । ऊपर से दिखने में तो यह वस्त्र की जरूरत थी, मगर भीतर से देखने में यह जरूरत मानवीय सूत, इंसानी बाने को बनाए रखने की थी । गरज यह थी कि इंसानी बाना जस का तस बना रहे और आदमी-आदमी से सिर्फ प्रेम करता  रहे । जीवनपर्यत सिर्फ ढाई आखर सीखता रहे और फिर इन्हीं ढाई अक्षरों को ताजिंदगी जीता रहे और जीने देता रहे।
    गांधी भी इंसानी भेदभाव के खिलाफ थे और इंसानी लिबास की एकरूपता के हिमायती थे । उनके यहां भी जात-पात का कोई अर्थ नहीं था । गांधी भी सत्य के आलोक मेंहर हकीकत को देखना चाहते थे और कबीर भी सिवाय सत्य के और कुछ भी जानना जरूरी नहींसमझते थे ।
    आज मुड़कर के देखें तो लगता है कि गांधी का आना जैसे कबीर के सच को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी     था । कबीर के करघे और गांधी के चरखे के बीच एक रूहानी रिश्ते को देखने का काम मैं भी अपनी किसी अंत:प्रज्ञा के मार्फत ही कर पा रहा हॅू । तर्क शास्त्री यदि कुछ जानना चाहेंगे तो मैं यही कहूंगा कि दोनों रिश्तों को तर्क से नहीं समझा जा सकता । इसे तो बस प्रेम की पूर्णता से ही जाना जा सकता है ।
सरोकार
राष्ट्रीय जलनीति : नयी कम, पुरानी ज्यादा
मीनाक्षी अरोड़ा/केसर
    संशोधित राष्ट्रीय जलनीति - २०१२ जारी कर दी गई है । इसी वर्ष जनवरी में जारी मसौदा जलनीति पर पूरे देश में व्यापक विमर्श हुआ था और देशभर से इस नीति में सुधार करने की बात उभरकर आई थी । सरकार ने दिखावें के लए इनमें कुछ सुझावों को संशोधित नीति में शामिल तो कर लिया है लेकिन अब इस संशोधित नीति पर कोई बहस नहीं हो सकती और महज दो सरकारी विभागों की स्वीकृति के पश्चात् लागू किया जा सकता है । जबकि संशोधित प्रारूप में भी ढेर सारे आपत्तिजनक प्रावधन मौजूद हैं ।
    इंतजार खत्म हुआ और संशोधित राष्ट्रीय  जलनीति - २०१२ का सुधरा हुआ प्रारूप जारी हो गया    है  । इसी वर्ष जनवरी में जलनीति - २०१२ का मसौदा आया था, जिसकी कइंर् बातों पर विरोध जताया गया था । समाज के विभिन्न लोगों और संस्थाआें की ओर से आए, जिन पर चालाकी पूर्वक विचार करने के बाद जल संसाधन मंत्रालय ने नए संशोधित मसौदे का प्रारूप तैयार किया है ।
    राष्ट्रीय  जलनीति का मुख्य उद्देश्य जल उपभोक्ताआें का निर्धारण और पदनुरूप जल का वितरण करना है । मसौदे के अंतर्गत मुख्य रूप से दो क्षेत्रों पर कड़ा विरोध था, निजीकरण और जल प्रयोग की प्राथमिकता । हांलाकि जुलाई में आए संशोधित मसौदे में सुधार के प्रयासों ने कुछ हद तक विरोध स्वरों को शांत करने का प्रयास किया है फिर भी जो प्रयास हुए हैं वे नाकाफी हैं । यह कहना भी कोई अतिश्योक्ति न होगा कि पुरानी शराब को नई बोतल में पेश किया गया है ।
    जनवरी माह में राष्ट्रीय  जलनीति का जो मसौदा आया था उसमें जल-सेवाआें में सरकारी भूमिका को सीमित कर दिया गया था । जल-सेवाएं सरकारी क्षेत्र से छीनकर कंपनियों के हाथों में सौंपी जा रही थीं । इसमें पानी को इकॉनोमिक गुड्स कहा गया था, गोया कि यह कोई वस्तु है जिसका व्यवसाय किया जा सकता है । गैर सरकारी संगठन, किसान और आम आदमी जो भी मसौदे की लच्छेदार भाषा को समझ पाए, सभी ने एक स्वर से मसौदे को नकार दिया ओर निजीकरण का जामा पहनने से इंकार कर दिया ।
    नए संशोधित मसौदे में पहले की तरह साफ शब्दों में तो नहीं लेकिन दबे स्वरों में और अपगत्यक्ष रूप से निजीकरण की बात कही गई है । पूर्व मसौदे में सरकार जलापूर्ति की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ रही थी और यह काम बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और वित्तीय संस्थाआें को सौंपना चाहती थी । लेकिन नए संशोधित मसौदे के पैरा १२.३ के मुताबिक जल संसाधनों और जल परियोजनाआें एवं सेवाआें का प्रबंधन सामुदायिक सहभागिता से किया जाना चाहिए । जहंा भी राज्य सरकार अथवा स्थानीय शासी निकाय ऐसा निर्णय लें वहां निजी क्षेत्र की असफलता के लिये जुर्माने सहित सेवा प्रदान करने की सहमत शर्तो को पूरा करने हेतु सार्वजनिक निजी सहभागिता में एक सेवा प्रदाता को प्रोत्साहित किया जा सकता है ।
    यानी अब यह राज्य सरकारों या स्थानीय शासी निकायों की इच्छा पर होगा कि वे जल सेवाआें में निजी भागीदारी को सुनिश्चित करना चाहती है या नहीं । लेकिन प्राथमिकता सामुदायिक सहभागिता को देना होगी । एक बात जो पहली बार इस मसौदे में उभर कर सामने आई है वो है समझौता और शर्ते । निजी क्षेत्र की भागीदारी एक लिखित समझौता पत्र के तहत सेवा प्रदान करने संबंधी शर्तो पर सुनिश्चित होगी । शर्तो को पूरा न करने पर जुर्माने का भी प्रावधान किया गया है । पहले ऐसा नहीं था । जाहिर है कंपनिया जो भी सेवाएं देती हैं लाभ के लिये देती हैं । नए संशोधित मसौदे में इस प्रावधान के चलते निजी क्षेत्र की मनमानी को कुछ हद तक रोका जा सकता है ।
    नए संशोधित मसौदे का यह कदम स्वागत योग्य है । अब सवाल उठता है कि क्या इतना ही काफी है ? नए प्रारूप में निजीकरण का स्वर कमजोर जरूर हुआ है परन्तु शान्त   नहीं । जब बात निजी और सामुदायिक भागीदारी की हो तो पैसे के बल पर जीत कंपनी की ही होती है । फिर नया संशोधित मसौदा इस बात पर चुप है कि अगर स्थानीय शासन निजी भागीदारी को सुनिश्चित करना चाहे तो उसमें समुदाय की भूमिका क्या होगी ? जहां जल सेवाआें में सामुदायिक भागीदारी को ऊपर रखने की बात की गई हैं वहीं निजी भागीदारी की सुनिश्चिता के समय सामुदायिक मंजूरी पर नया संशोधित मसौदा मौन है । यानी स्थानीय लोगों की मंजूरी की कोई जरूरत ही नहीं है । कुलमिलाकर देखा जाए तो ऐसा नहीं लगता कि हमारी सरकार ने निजीकरण की नीतियों से इतने सालों में कोई सबक लिया हो वरना दबे स्वरों में ही सही, निजीकरण की बात नहीं होती । यानी निजी क्षेत्र के लिये जल सेवा परियोजनाआें के दरवाजे अभी भी खुले है ।
    दूसरा विरोध था प्राथमिकताआें को लेकर था । मूल प्रारूप में खेती को दरकिनार कर उद्योगों को वरीयता दी गई थी । विरोध का असर दिखा और अब प्राथमिकताआें में भी सुधार हुआ  है । राष्ट्रीय जल नीति १९८७ और २००२ में पेयजल का प्राथमिक आवश्यकता सुनिश्चित किया गया था एवं उसके बाद कृषि, जल विघुत, पारिस्थितिकी, उद्योग आदि ..... लेकिन जनवरी २०१२ के जलनीति मसौदे ने इन प्राथमिकताआेंको दरकिनार कर उद्योगों को वरीयता दी थी । संशोधित मसौदे के मुताबिक गरीबों की खाद्य सुरक्षा और जीविका के लिये पानी के प्रयोग को उच्च् प्राथमिकता दी जाएगी और इस हेतु पानी के उपभोग को उतना ही जरूरी माना गया है जितना की जिंदा रहने और पारिस्थितिकी के लिये । जानवरों की पानी की जरूरतों के मद्देनजर भी सराहनीय कदम उठाए गए है ।
    जनवरी मसौदे में जहां नदी जोड़ परियोजना की वकालत की गई थी और उसी को बढ़ाने की दिशा में अंतर्बेसिन हस्तांतरण की बात की गई थी । इसका मुख्य उद्देश्य था कम पानी वाले क्षेत्रों को पानीदार बनाकर समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना करना । संशोधित मसौदा भी कुछ शर्तो के साथ इसी बात की वकालत करता है कि परियोजना को लागू करने से पहले सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों के पक्ष और विपक्ष का अध्ययन करना जरूरी होगा । स्थान विशेष की परिस्थितियों और अध्ययनों को ध्यान में रखते हुए ही इस तरह का कोई कदम उठाया जाएगा । हालांकि यह कदम इस बात की राहत तो देता है कि अंधाध्ंाुध अंतर्बेसिन हस्तान्तरण नहीं होगा लेकिन दूसरी और यह विष भरा कनक घट ही साबित होगा क्योंकि यह उसी रिवर लिकिंग परियोजना में एक पेबंद है जो लोगों को जड़ों से उखाड़ने पर आमादा  है ।
    चिंताजनक बात यह है कि नए संशोधित मसौदे ने पेयजल को मानवाधिकार के रूप में मंजूरी नहीं दी है । २०१२ से पूर्व के मसौदों में साफ तौर पर कहा गया था कि साफ, सुरक्षित पेयजल और सेनिटेशन को अन्य मानवाधिकारों की तरह जीवन के अधिकार के रूप में समझा जाना चाहिये । जबकि नए संशोधित मसौदे से तो ये शब्द ही नदारद है । इस सच को जाने बिना कि बड़े बांध ही हमारी नदियों के मरने या मरणासन्न होने के जिम्मेदार हैं, बड़े-बड़े बांधों की पुरजोर वकालत की गई है । लोगों को पानी, बिजली मुहैया कराने के नाम पर बहुउद्देशीय बांध परियोजनाआें की आड़ में धंधाखोरी और पर्यावरण की विनाशलीला का जो खेल खेला जाता है वो जग-जाहिर है । छोटी परियोजना की बजाए बड़ी परियोजनाआें की वकालत क्यों होती है, इसे कौन नहीं जानता ।
    सरकार ने राष्ट्रीय जलनीति के इस संशोधित स्वरूप को ही अंतिम मान लिया है । इस पर अब जनता की राय नहीं ली जाएगी । इसके क्रियान्वयन के लिये अब मात्र दो महकमोंकी मंजूरी चाहिये अतएव जनता की राय अब कोई मायने नहीं रखती । राष्ट्रीय जल बोर्ड के अनुमोदन के बाद वाटर रिसोर्स काउंसिल की मोहर लगते ही सब दस्तावेज पक्के हो जाएंगे ।
    यानी अब इस पूरे खेल को समझने के लिये न तो हमेंअपने दिमागों पर जोर देने की जरूरत है न ही किसी को सुझाव देने की । फिर भले ही इसमें कई ऐसी खामियां हो जो आम आदमी से पानी तक पीने का अधिकार छीनकर कंपनियों को दे दे या हो सकता है बांध परियोजनाआें, नदी-जोड़ जैसी नीतियों के चलते पानी का संकट बढ़ता गहरात जाए ।
 वन्य जीवन सप्तह पर विशेष
खामोश परिंदों का व्यापार
डॉ. महेश परिमल
    क्या आप जानते है कि विश्व में जो गैरकानूनी धंधे हैं, उनमें नशीली दवाइयों और हथियारों के बाद किसका नम्बर आता है ? जी हां, खामोश पक्षियों का । विश्व में पक्षियों की संख्या लगातार घटती जा रही है । आखिर कम कैसे ना हो, करीब २५ हजार अरब रूपए अवैध कारोबार पक्षियों के नाम ही होता है ।
    पक्षियों के नाम पर होने वाले इस विश्व स्तरीय गोरखधंधे में हजारों लोग लगे हुए हैं । ये न तो  परिंदों की जुबान समझते हैं, न ही उनकी संवेदनाआें से इनका वास्ता है । खामोश परिंदों की तस्करी भी अजीबो-गरीब तरीके से होती हे । असम में तो पक्षियों का हाट लगता है । आश्चर्य की बात यह है कि सरकार ने अभी तक इस दिशा में कोई गंभीर कदम नहीं उठाया है । जिस देश में मानव तस्करी नहीं रोकी जा सकती, वहां जानवरों और पक्षियों की क्या बिसात ?
    हाल ही में मुंबई के सहारा अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर इथियोपियन एयरलांइस से एक बड़ा पार्सल आया । यह पार्सल किसी ने अदिस अबाबा से बुक कराया था । दो फीट लंबे इस बैग से दुर्गध आ रही थी । इससे एयरपोर्ट कर्मचारियों को शंका हुई । तुरन्त ही सोसायटी फॉर प्रिवेंशन ऑफ क्रुएल्टी टू एनिमल (एसपीसी) को फोन किया  गया । वहां से कुछ अनुभवी कर्मचारी आए, बैग खोला गया । बैग खुलते ही सबकी आंखे चौंधिया गई । बैग से दस खूबसूरत भूरे रंग के अफ्रीकन तोते निकले । इन इस तोतों में से ५ की मौत हो चुकी थी । बाकी की हालत गंभीर  थी । इन तोतों को परेल के पशु चिकित्सालय ले जाया गया ।
    कई दिनों तक खुराक न मिलने और घुटन के कारण इन मूक पक्षियों की हालत बहुत ही खराब थी । इलाज के दौरान ५ में से तीन तो अस्पताल में ही मर गए । दो तोतों को बड़ी मुश्किल से बचा लिया गया । अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इन तोतों की कीमत २५-४० हजार रूपए है । हमारे देश से हर सला इस तरह से डेढ़ लाख पक्षियों की तस्करी की जाती है । मुम्बई इस तस्करी का मुख्य अड्डा है ।
    विश्व में पक्षियों की कुल १२ हजार प्रजातियां पाई जाती हैं । इनमें से ३०० प्रजातियां ऐसी हैं, जिनका गैर कानूनी रूप से व्यापार किया जाता है । इसके पीछे कई कारण है । विश्व भर के हजारोंशौकीन पक्षी पालते हैं । केवलइसी शौक के कारण हजारोंपक्षी शिकारियों के जाल में फंस जाते हैं । कई लोग अपनी जीभ के स्वाद के कारण पक्षियों का भक्षण करते हैं । अब इन मांसाहारियों को मुर्गे और बतख के मांस में उतना मजा नहीं आता, इसलिए ये लोग अब सारस और मोर का मांस खाने लगे हैं । ऐसे लोगों की जीव्हा को तुष्ट करने के लिए हर वर्ष करोड़ों पक्षियों का मारा जाता है ।
    युरोप और अमरीकी देशों में एशिया और अफ्रीका के दुर्लभ पक्षियों का बड़ा बाजार है । ब्रिटेन हर वर्ष हजारों पक्षियों का आयात करता है । ब्रिटेन का कानून ऐसा है कि जिन पक्षियों को पिंजरे में कैद कर  पाला जा सकता है, उन पक्षियों का आयात किया जा सकता है । अब यह कहना मुश्किल है कि किस पक्षी को जंगल से पकड़कर लाया गया है और किसे पिजंरे में पालकर लाया गया है । ब्रिटेन ने १९९५ से २००० के बीच २३ हजार ९३० पक्षियों को आयात किया  था । ब्रिटेन में जिन देशों से पक्षियों का आयात किया जाता है, उनमें भारत, चीन और अफ्रीकन देश हैं । ब्रिटेन जितने पक्षियों का आयात करता है, उनमें से ८८ प्रतिशत जंगल से शिकारियों द्वारा पकड़े जाते हैं ।
    पक्षियों का शिकार करने के लिए विभिन्न तरीके इस्तेमाल होते हैं । कई तरीके तो बहुत ही ज्यादा क्रूर हैं। कई शिकारी जंगल में पक्षियों को फंसाने के लिए पेड़ों पर जाल बिछा देते हैं बड़े पक्षियों के लिए पिंजरा छोड़ देते हैं । पिंजरों में पक्षियों की प्रिय खुराक रख देते हैं । कई शिकारी डालियों पर चिकना पदार्थ लगा देते हैं । इस डाली पर बैठने वाला पक्षी बाद में उड़ नहीं पाता । पक्षियों को इतने क्रूर तरीके से पकड़ा जाता है, इसका अहसास भी पक्षी पालकों और पक्षीभक्षियों को न होगा ।
    हमारे देश में हजारों पक्षी तो केवलपिंजरे में ही दम तोड़ देते हैं । यही नही कई बार शिकारी जाल बिछाकर भूल जाते हैं, पक्षी उसमें फंसेरहकर ही अपना दम तोड़ देते हैं । यदि शिकारी पक्षियों को जंगल से ले भी आएं, तो तुरन्त ही उन्हें ग्राहक नहीं मिलते । शिकारियों के पास पक्षियों को खुराक भी ठीक से नहीं मिलती, इसलिए यहां भी पक्षी अपनी जान नहीं बचा पाते । एक ही पिंजरे में आवश्यकता से अधिक पक्षियों को कैद कर दिया जाता है । पिंजरे मेंपक्षी आपस में झगड़ते भी हैं । यहां भी बलशाली पक्षी अपने से कमतर पक्षी को मार डालता है । इस तरह से जितने पक्षी विमान या स्टीमर से बाहर भेजे जाते हैं, उनमें से कई पक्षियों की मौत तो इस तरह से हो जाती है ।
    भारत से पक्षी निर्यात सिंकदर के समय से चला आ रहा है । भारत के एक महाराज ने सिकंदर को बोलता हुआ तोता भेंट किया था । सिकंदर को यह तोता इतना भाया कि वह उसे यूनान ले गया । इस तोते को सिकंदर ने अपने गुरू अरस्तू को भेंट में दिया । जो तोता सिकंदरभारत से ले गया था, आज उसे एलेक्जेंड्रियन पेराकीट के रूप में जाना जाता है । आज भी अरब के शेख ऐसे तोतों को भारत से ले जाते है । अरब शेखों का दूसरा शौक बाज़है, जिसे वे अन्य पक्षियों के साथ लडाने के लिए पालते हैं । उनके इस शौक मेंलाखों पक्षियों की जान जाती है ।
    विश्व बाजार में जिन पक्षियों का निर्यात किया जाता है, उनमें मुख्य हैं, बुलबुल, मैना, तोता, बाज आदि । पालतू पक्षियों में लव बर्ड की भी विदेशों में काफी मांग है । यह कहा जाता है कि जो पक्षी जितना सुंदर होता है, उसकी हत्या की संभावना उतनी ही अधिक होती     है । उत्तर भार में हंस, बतख, फ्लेमिंगो का बाजार लगता है । एक बाजार में चार महीने में करीब २ हजार पक्षी खरीदे बेचे जाते है । भारत में पक्षी पकड़ने का सीजन जनवरी से जनू तक माना जाता है । असम के गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र के किनारे पक्षियों का बहुत बड़ा बाजार लगता है । यहां बेचे गए पक्षी सुदूर मुम्बई तक पहुंचाए जाते हैं ।
    भारत में पक्षियों के अवैध व्यापार के संबंध में अब तक का सबसे बड़ा शोध शाद बाम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसायटी के अबरार अहमद ने किया है । काम इस तरीके से किया गया कि शिकारियों को भनक तक न लगे । देश के अनेक जंगलों की खाक छानने के बाद उन्होनें रिपोर्ट दी, वह चौंकाने वाली है । अहमद ने अपनी आंखो के सामने दो लाख पक्षी पकड़कर बेचे जाते देखा  है । अपने इस रिसर्च को अहमद अब पीएच.डी. के रूप में प्रस्तुत करने जा रहे हैं ।
    पक्षियों की तस्करी रोकने के लिए १९७३ में अमरीका के वाशिंगटन में विश्व के ८० देशों के प्रतिनिधियों की एक बैठक हुई थी । इस बैठक में पक्षियों की तस्करी रोकने के लिए कई नियम-कायदे बनाए गए । भारत ने भी इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं । इस समझौते को कन्वेशन ऑफ इंटरनेशनल ट्रेंड एंडेंजर्ड स्पीशीज (सीआईटीएस) के नाम से जाना जाता है । इसके द्वारा ६ पक्षी प्रजातियों को रेड डैटा लिस्ट में रखा है । रेड डैटा लिस्ट का मतलब होता है कि ये प्रजातियां अब कभी भी विलुप्त् हो सकती है ।
    एक शोध में यह बात सामने आई है कि पूरे विश्व में दो करोड़ पक्षी पकड़े जाते है, इसमें से केवल ३५ प्रतिशत पक्षी ही बाजार तक पहुंच जाते है, शेष ६५ प्रतिशत पक्षियों की मौत हो जाती है । पक्षियों के इस गैर कानूनी व्यापार का आंकड़ा २५ अरब अमरीकन डॉलर तक पहुंचता है ।
    इस तरह से देखा जाए तो कई बार पक्षियों की मौत हमारी नासमझी के कारण होती है । अंधविश्वास है कि कौआें की टांग पर धाग बांधकर उन्हें छोड़ दिया जाए, तो शगुन होता है । इसलिए लखनऊ में एक निश्चित दिन कौआें का बाजार लगता है । दूसरी ओर तांत्रिक विद्या में भी पक्षियों के खून की आवश्यकता पड़ती है । कहीं कबूतर लड़ाने का शौक है, तो कहीं मुर्गे । तांत्रिक उल्लुआें का शिकार कर उनका उपयोग तंत्र विद्या के लिए करते हैं । इस तरह के खामोश परिंदों का गलत इस्तेमाल विभिन्न तरीकों से हमारे देश में हो रहा  है । लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है, जिससे लगे कि हमारा देश मूक पक्षियों के लिए भी चिंतित है ।
जनजीवन
वायु प्रदूषण : आनुवांशिकता पर प्रभाव
डॉ. गीता शुक्ला
    पर्यावरण को बचाने की लड़ाई हिटलर को खत्म करने से बहुत ज्यादा कठिन है क्योंकि यह लड़ाई अपने आप से है । अलगोर
    पर्यावरण समस्त भौतिक (हवा, जल, मिट्टी, ध्वनि, सड़क, भवन, पुल आदि) जैविक और सामाजिक (परिवार, समुदाय, व्यवसाय, उद्योग आदि) कारकों की यह व्यवस्था है जो मानव को किसी न किसी प्रकार से प्रभावित करती है ।
    प्रदूषण से तात्पर्य केवल हानिकारक तत्वों का वातावरण में आ जाना ही नहीं बल्कि पर्यावरण के किसी घटक की प्राकृतिक गुणवत्ता में परिवर्तन से है । वायु के भौतिक, रासायनिक या जैविक घटकों का वह परिवर्तन जो मानव एवं उसके लाभदायक जीवों व वस्तुआें पर प्रतिकूल प्रभाव डाले वह वायु प्रदूषण कहलाता   है ।
    सन् १९७० से लेकर आज तक जो कुछ घटा है वह सब अप्रत्याशित है । विभिन्न आविष्कारों ने विश्व का नक्शा ही बदल दिया है । पूरी धरती को एक छत के नीचे लाकर विश्वग्राम बना दिया है परन्तु इससे जो क्रूर माजक प्रकृति के साथ हुआ है उसका प्रतिफल हम सब भुगत रहे हैं । पारिवारिकता समाप्त् हुई है, संवेदना का हृास हुआ है तथा मानवीय मूल्यों में तेजी से गिरावट आई है । व्यक्ति की जीवनशैली में आए भटकाव से उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण संकट हमारे कृत्यों की ही प्रतिक्रिया है ।
    जब अपराधी छोटे स्तर के दण्ड से नियंत्रित नहींहोते तो उनके लिए बड़े और विशिष्ट स्तर के दण्ड का प्रावधान करना पड़ता है और प्रदूषण की प्रतिक्रिया मनुष्य के बन्ध्यत्व के रूप में घटित होने जा रही है । सर्वप्रथम इसकी जानकारी एक विज्ञान कथा लेखिका की एक रचना से मिली । जो कि इस प्रसिद्ध अंग्रेज लेखिका का उपन्यास है ।
    विकृत पर्यावरण का प्रभाव केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर ही नहींबल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। उत्तेजना या दबाव चाहे ऋतुआें के कारण हो या प्रदूषण से दोनों ही स्थितियों में उतना काम नहीं हो सकता है जितना संतुलित वातावरण में ।
    पर्यावरण का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है । प्रदूषण से अजन्मा बच्च भी प्रभावित हो रहा है क्योंकि गर्भस्थ शिशु भी बाह्य पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होता है । यह प्रदूषण गर्भ में पल रहे भ्रूण पर भी कहर बरपा रहा है गर्भस्थ शिशु के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को तहस-नहस करने की पूरी क्षमता प्रदूषण में है ।
    नई दिल्ली के अपोलो अस्पताल की एक स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. मधुरूचि के अनुसार कुछ प्रदूषित तत्वों का भार वा रासायनिक संरचना गर्भस्थ शिशुआें के आहार से मिलती-जुलती है जिससे ये तत्व प्लेसेंटा द्वारा गर्भ में पहँुच जाते हैं इनमें से टेराटोजेंस नामक रसायन तो भ्रूण की सरंचना को ही चौपट कर सकता है ।
    नई दिल्ली के ही गुरू तेग बहादुर अस्पताल के बालरोग विशेषज्ञ डॉ. फरीदी के अनुसार - पर्यावरण प्रदूषण से घर की चहारदीवारी के अन्दर भी वायु की गुणवत्ता घटी है जिससे गर्भस्थ शिशु बुरी तरह प्रभावित होता है और यह स्थिति विकासशील एवं अविकसित राष्ट्रों में कुछ ज्यादा ही खराब है । कार्बनमोनो ऑक्साइड भ्रूण को प्राणदायी ऑक्सीजन से वंचित करने का काम करता है । प्लेसेंटा में फैलकर भ्रूण के रक्त संचार से जुड़ जाता है । यदि भ्रूण में कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ती है तो उसे मीकोनियम कहते हैं इससे मस्तिष्क व हृदय बुरी तरह से प्रभावित होते हैं । मीकोनियम भ्रूण के मुँह या फेफड़ों में पहुँचकर गर्भस्थ शिशु को मौत की नींद सुला देता है क्योंकि यह कॉर्बनडाईऑक्साइड की अपिेक्षा २०० गुना ज्यादा तेजी से हीमोग्लोबिन में पहुँचता है ।
    थियोकोलवॉन द्वारा रचित एक ग्रन्थ अवर स्टोलन फ्यूचर प्रदूषण से होने वाली समस्याआें की विशद विवेचना की है । उनका कहना है कि प्रदूषण के कारण पुरूषों की प्रजनन क्षमता प्रभावित हो रही है । शुक्राणुआें की संख्या २१ प्रतिशत की दर से कम हो रही है । इंडोक्राइन के व्यातिक्रम के कारण पुरूषों का स्त्रीकरण और स्त्रियों का पुरूषीकरण हो रहा है जिसे जेंडरवेंडर्स के नाम से जाना जाता है ।
    एक पाश्चात्य विद्वान के अनुसार - लड़कियाँ समय से पूर्व युवावस्था को प्राप्त् हो रही हैं जिसका जिम्मेदार ऑस्ट्रेजन नामक हार्मोन है और इस हार्मोन के व्यतिक्रम का कारण वायु प्रदूषण है । अत: वायु प्रदूषण को रोकना होगा ।
    वायुमण्डल की जीवनोपयोगी स्थिति कायम रहे इसके लिए आवश्यक है कि दृश्य और अदृश्य जीव सत्ता का अस्तित्व स्थिर रहे जबकि प्रदूषण से ऑक्सीजन घटेगी कार्बनिक गैसें बढ़ेगी जिससे प्राणियों का जीवन कठिन हो जाएगा वे क्रमश: दुर्बल सुस्त और अविकसित होते चले जाएँगे और केवल जीवधारी ही नहींजीवाणु सत्ता भी अपना अस्तित्व गंवाती चली जाएगी क्योंकि गैसीय आहार तो उन्हें भी चाहिए ।
    मिलान (इटली) के एक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक ने अपनी वैज्ञानिक शोधों के आधार पर बताया है कि जल्दी ही वह युग आ रहा है जब धरती पर से पुरूष सत्ता का नामो निशान मिट  जाएगा । यह संभावना इसलिए की गई है कि उससे भू्रण में नरलिंग निर्धारण करने वाले क्रोमोसोम नष्ट हो जाते हैं प्रदूषित वातावरण की घुटन असाध्य बीमारियों से भी आगे बढ़कर अनुवांशिकी नष्ट करने पर तुल गई है ।
    एक डनिश अन्त:शास्त्री ग्रन्थि विशेषज्ञ नील्स ई.स्कैकविक ने अपनी एक शोध रिपोर्ट एक जर्नल में प्रकाशित करवाई जो ६१ ग्रन्थों के अध्ययनों पर आधारित थी । इस रिपोर्ट के अनुसार - पिछले ५० वर्षो में स्वस्थ पुरूषों के शुक्रणुआें में ४० प्रतिशत की गिरावट आई है और असामान्यों में विकारयुक्त होने की पुष्टि हुई है जिसमें या तो सन्तानोत्पत्ति की क्षमता होती ही नहीं या फिर विकृत सन्तानोपत्पत्ति होती     है ।
    द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् सैकड़ों रसायनों की खोज और प्रयोग से जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है । ये रसायन साबुन सौन्दर्य प्रसाधन, रंगरोशन, प्लास्टिक, कीटनाशक या अन्य उत्पादों में विद्यमान रहता है और इनके माध्यम से ये हमारी जीवनशैली के अंग बन चुके है । ये प्रदूषणकारी तत्व जेनेटिक संरचना को भी परिवर्तित करने मेंसमर्थ है । ये रसायन ऑस्ट्रेजन की तरह हैं जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है ।
    न केवलपाश्चात्य अपितु भारतीय डॉ. अनिरूद्ध मालपानी तथा डॉ. अंजली मालपानी ने भी इसकी निश्चित विवेचना अपनी एक रचना में की है ।
    डब्ल्यू.एच.ओ. (विश्व स्वास्थ्य संगठन) की जन स्वास्थ्य एवं पर्यावरण निदेशक मारिया नीरा के अनुसार इस दिशा में हमें प्रयास करने की जरूरत है यदि हम पर्यावरण की स्थिति पर नजर रखें और इसे स्वच्छ रखने के लिए कदम उठाएँ तो पर्यावरण प्रदूषण से होेने वाली बीमारियाँ कम हो जाएंगी । इसके अतिरिक्त यू.एन.ई.पी. के निदेशक ने अपने संदेश में विश्व समुदाय का आहृान करते हुए कहा है कि पर्यावरण की सुरक्षा विश्व की सुरक्षा है ।
पर्यावरण परिक्रमा
अभी नहीं संभले तो भविष्य में पानी की कंगाली
    पर्यावरण विशेषज्ञों ने करीब २०० प्रमुख वैश्विक परियोजनाआें की २० साल तक समीक्षा के बाद कई कारणों से पानी की कंगाली वाली पैदा होने की चेतावनी दी है ।
    संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम  (यूएनईपी) के साथ मिलकर सार्वजनिक कोष मुहैया कराने वाली सबसे बड़ी  संस्था, ग्लोबल एनवायरमेंट फेसिलिटी (जीईएफ) ने जल परियोजनाआें पर यह रपट पेश की है, जिनकी कुल लागत सात अरब डॉलर से अधिक है । यूएन यूनिवर्सिटी इंटरनेशनल नेटवर्क ऑन वाटर, एनवायरमेंट एंड हेल्थ के निदेशक और रपट के सहलेखक जफर अदील ने कहा है कि यह अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि उभरते मुद्दों के संबंध में शुरूआती चेतावनियों को कैसे सुना जाए और उनका पालन किया जाए ।
    साइंस-पॉलिसी ब्रिजेज ओवर ट्रबल्ड वाटर्स शीर्षक वाली रपट दुनिया भर के  ९० से अधिक वैज्ञानिकों के निष्कर्षोंा का संश्लेषण करती है । इन वैज्ञानिकों को जीईएफ के  ५ अंतरराष्ट्रीय जल विज्ञान कार्यकारी समूहों में बांटा गया था, जिन्हें भूजल, झीलों, नदियों, जमीनी प्रदूषण स्त्रोतों, विशाल समुद्री परिस्थितिकियों और खुले महासागरों पर ध्यान केंद्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी । रपट में कहा गया है, कमजोर निर्णय प्रक्रिया के नतीजे घातक हैं, हम दुनिया के कई क्षेत्रों में जल कंगाली की स्थिति का सामना कर रहे हैं, जिसका मानव सुरक्षा की चुनौतियों पर असर है । जल एवं जल प्रणालियों पर बढ़ी मानवीय मांगों के अपर्याप्त् और असंबद्ध प्रबंधन ने ऐसी स्थिति पैदा की है, जहां सामाजिक और पारिस्थितिकी खतरे में आ गई हैं और यहां तक की नष्ट भी हो गर्ह हैं ।  
प्रतिरोधी टीबी का इलाज
    पिछले ५ वर्षो में टीबी का प्रकोप बढ़ा है और चिंता का विषय यह रहा है कि टीबी अब कई मौजूदा दवाइयों की प्रतिरोधी हो गई है । टीबी का दवा  प्रतिरोधी होना जन स्वास्थ्य की एक प्रमुख समस्या बनकर सामने आई है । मगर अब यह खबर है कि एक ऐसी दवा खोज ली गई है जो प्रतिरोधी टीबी के खिलाफ कारगर है और इससे टीबी के उपचार में लगने वाला समय भी कम हो जाएगा ।
    इस नई दवा का नाम है पीएएमजेड । दरअसल यह दवाइयों का एक मिश्रण है जिसमें एक दवा तो वही है जो पहले भी टीबी के इलाज में उपयोग की जाती थी पायरीजिनेमाइड । इसके साथ मॉक्सिफ्लाक्सेसिन और एक अन्य दवा पीए-८२४ मिलाई गई है । इन दोनों का उपयोग टीबी के इलाज में नहीं किया जाता था हालांकि पीए-८२४ की टीबी के खिलाफ प्रभाविता की खबरें २००१ में मिल चुकी थी ।
    परीक्षण के दौरान देखा गया है कि पीएएमजेड़ टीबी बैक्टीरिया (मायाकोबैक्टीरियम ट्यूबकुलोसिस) की कई प्रतिरोधी किस्मों का खात्मा कर देती है । इनमें वे प्रतिरोधी बैक्टीरिया शामिल हैं जो दक्षिण अफ्रीका, भारत और पूर्व सोवियत देशों में टीबी फैलातें है । और तो और, पीएएमजेड को यह काम करने के लिए सामान्य की अपेक्षा तीन गुना कम गोलियों की जरूरत होती है और लागत भी पहले से १० गुना कम आती है । विश्व स्वास्थ्य संगठन के टीबी विरोधी अभियान के निदेशक मारियो रेविग्लियोन का मत है कि पीएएमजेड़ सचमुच एक समाधान है और यह सस्ता, कम विषैला तथा आसान है ।
    दी लैंसेट में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक  पीएएमजेड़  के असर का अंदाज दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में लोगों के चार समूहों पर परीक्षण से मिला है । खखार परीक्षण के आधार पर देखा गया कि इन तीन दवाइयों का मिश्रण दो सप्तह के अंदर टीबी के ९९ फीसदी बैक्टीरिया का सफाया कर देता है ।
मंगल पर कभी बहती थी जलधाराएं
    मंगल पर जीवन की संभावनाआें से जुड़े चिन्ह तलाशने के लिए गए अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के रोवर क्यूरोसिटी को अपने मिशन की पहली कामयाबी के तौर पर यहां पानी के शुरूआती संकेत मिले हैंै। नासा की क्यूरोसिटी टीम से जुड़े वैज्ञानिक रिबेका विलियम्स ने कहा कि क्यूरोसिटी द्वारा भेजी गई तस्वीरों को देखकर हमें यह लगता है कि जिस जगह रोवर लैंड हुआ है, वहां कभी जलधारा बहा करती थी । इसमें घुटने तक पानी था । 
    क्यूरोसिटी ने गेल क्रेटर के उत्तरी सिरे पर एक बड़ी चट्टान को ढूंढ निकाला । क्यूरोसिटी द्वारा प्रेषित इस चट्टान की कई तस्वीरों में उसमें कइ्रर् गोलाकार पत्थरों को फंसा दिखाया गया है । यह चट्टान हवा में आधी उठी हुई थी । 
    वैज्ञानिकों का कहना है कि चट्टान में फंसेपत्थर बेहद वजनी है और मंगल पर चलने वाले अंधड़ में उड़कर उनका यहां तक पहुंचना      मुमकिन नहीं होगा । रिबेका ने कहा कि यहां यकीनन पानी की एक ताजा बहने वाली धारा रही होगी, जो इन पत्थरों को बहाकर यहां लाई होगी । कैलिफोर्निया प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिक जान ग्रोटजिगंर ने कहा की यकीनन बहता हुआ पानी सूक्ष्म जीवों के पनपने की आदर्श जगह रहा होगा । यह चट्टान इस तरह के तत्वों के संरक्षण की आदर्श जगह हो भी सकती है और नहीं भी । वैज्ञानिकों ने अभी तक यह तय नहीं किया है कि इस चट्टान का रासायनिक परीक्षण करने का विचार नहीं किया ।

चुनाव अभियान में जानवरों पर प्रतिबंध

    भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने एक आदेश जारी कर चुनाव अभियानों में राजनीतिक दलों द्वारा जानवरों  के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया है । एक पशु अधिकार संगठन ने कहा है कि यहां जारी एक परामर्श में राजनीतिक दलों से कहा गया है कि चुवान प्रचार में किसी भी जानवर का किसी भी रूप में इस्तेमाल न किया जाए ।
    पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल (पेटा) ने कहा है कि पशु संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताआें के बार-बार के अनुरोध के बाद निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलोंऔर उम्मीदवारों से अपनेे अभियानों में जानवरों के उपयोग सेे बाज आनेे के लिए कहा है ।   निर्वाचन आयोग के परामर्श में कहा गया है कि आयोग को कई व्यक्तियों और संगठनों से अनुरोध प्राप्त् हुए हैं, जिनमें आरोप लगाया है कि घोड़े, टट्टू , गधे, हाथी, ऊंट और बैल चुनाव अभियानों के औरान कई मायनों में क्रुरताके  शिकार होते हैं । निर्वाचन आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को परामर्श जारी किया है और उनसे कहा है कि वे पशु क्रुरता निवारक अधिनियम-१९६० और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-१९७२ का उल्लघंन न करें । निर्वाचन आयोग के इस कदम का स्वागत करते हुए पेटा-इंडिया के पशु मामलों के निदेशक मणिलाल वलियाटे ने कहा कि यह उन सभी पशुआें की जीत है, जो आसानी से उल्लंघनों का शिकार बनते हैं, क्योंकि वे चुवान के दौरान नियमित सड़कों पर घूमते रहते हैं । 
गौरेया और मधुमक्खियों को बचाने की मुहिम
    केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने लंबे समय बाद आखिरकार मान लिया है कि मोबाइल फोन के टावरोंसे निकलने वाला रेडिएशन गौरेया और मधुमक्खियों के लिए घातक है । इससे अब विलुप्त् होती जा रही चिड़िया और मधुमक्खियों को बचाने की उम्मीद जगी है । हालांकि दूरसंचार मंत्रालय अब भी यह मानने को तैयार नहींे है कि टावरों से निकलने वाला रेडिएशन मनुष्य और पक्षियों के लिए खतरनाक है । ऐसे में केंद्र सरकार के दो मंत्रालयों के बीच टकराव की नौबत आ सकती है । दिल्ली में गौरेया को बचाने के लिए प्रदेश सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन दूरसंचार मंत्रालय मोबाइल टावरों को लेकर गंभीर नजर नहीं आ रहा है । पर्यावरण व वन मंत्रालय ने इस विषय पर विशेषज्ञों की रिपोर्ट आने के बाद नए मोबाइल टावर लगाने को लेकर सख्त दिशा-निर्देश व सुझाव जारी कर दिये हैं । इसके तहत अब वन्यजीव व संरक्षित क्षेत्रों में नये मोबाइल टावर लगाने से पहले पर्यावरण व वन मंत्रालय की मंजूरी अनिवार्य कर दी गई है ।  दूरसंचार मंत्रालय से कहा गया है कि एक  किलोमीटर के दायरे में  नया टावर न लगाए ।
ऊर्जा जगत 
पवन ऊर्जा क्षेत्र की निकली हवा
अंकुर पालीवाल
    पवन ऊर्जा क्षेत्र में इस तिमाही में स्थापित क्षमता में आई कमी को नवीन एवं नवीकृत ऊर्जा मंत्रालय सामान्य घटना मान रहा है और परोक्ष रूप से यह भी स्वीकार कर रहा है कि अवांछित प्रोत्साहन की वजह से चलताऊ किस्म के उद्यमियोंने महज आर्थिक लाभ के लिए इस क्षेत्र मेंप्रवेश कर पवन ऊर्जा के महत्वपूर्ण स्थलोंको हथिया लिया है ।
    पिछले वर्ष की पहली तिमाही के मुकाबले इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) मेंपवन ऊर्जा क्षेत्र में धीमी वृद्धि दर्ज की गई है । पिछले वर्ष इसी अवधि के मुकाबले इस वर्ष क्षेत्र में १०० मेगावट कम क्षमता वृद्धि हुई है । अधिक चिंता की बात यह है कि वर्ष २०१२ की पहली तिमाही में तमिलनाडु में जहां सर्वाधिक पवन ऊर्जा का उत्पादन होता है, वहां क्षमता संवर्द्धन में आधे से अधिक की और राजस्थान में भी जबरदस्त कमी आई है । वहीं केन्द्रीय नवीन एवं नवीकृत ऊर्जा मंत्रालय इन आंकड़ों से संतुष्ट है और उसका कहना है कि समय के साथ क्षमता मेंसुधार हो जाएगा ।
    इस वर्ष अप्रैल से जून की अवधि में कुल २९१.७ मेगावाट क्षमता वृद्धि हुई जबकि इसकी तुलना में पिछले वर्ष यह वृद्धि ३९४.७ मेगावाट थी । भारतीय पवन ऊर्जा एसोसिएशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वी. सुब्रमण्यम का कहना है कि इस वर्ष कुल १२०० मेगावाट से अधिक क्षमता स्थापित हो पाने की संभावना नहींहै । गतवर्ष स्थापित क्षमता ३२०० मेगावाट थी जबकि वर्ष २०१०-११ में यह २३५० मेगावाट थी ।
    उद्योेग पिछले काफी समय से इस अशुभ या डरावनी स्थिति के बारे में अपनी चिंता से अवगत कराते रहे हैं । इसी वजह से मंत्रालय ने एक अगस्त को एक सभा का आयोजन किया था । उद्योग ने इसमें क्षमता में वृद्धि में गिरावट के कईकारण गिनाए थे, जिसमें उत्सर्जन आधारित प्रोत्साहन (जी.बी.आई.) और त्वरित मूल्य हृास या, घटाव (ए.डी.) का वापस लिया जाना मुख्य था ।
    नवीन एवं नवीकृत ऊर्जा मंत्रालय ने जीबीआई योजना वर्ष २००९ में प्रांरभ की थी, जिसमें पवन चक्की (विंड मिल) से ग्रिड को दी जाने वाली विद्युत की प्रत्येक यूनिट पर ५० पैसे का भुगतान होना था और इसके अलावा साफ ऊर्जा की आपूर्ति हेतु विकासकर्ता को उच्च् दर पर शुल्क की भरपाई (फीड इन टेरिफ) का प्रावधान शामिल था । जीबीआई परियोजना सरकार की अन्य प्रोत्साहन योजनाआें के अतिरिक्त थी । ए.डी. को सन् १९९० के दशक में लागू किया गया था । ए.डी. के अन्तर्गत ऐसी कंपनियां जो कि पवन ऊर्जा संयंत्रों में निवेश करेगी, उन्हें पहले वर्ष में निवेश की गई पूंजी पर ८० प्रतिशत तब बचत की अनुमति थी ।
    जीबीआई की अवधि मार्च २०१२ में समाप्त् हो गई और इसे पुन: प्रारंभ नहीं किया गया । मंत्रालय के अधिकारी ने अपना नाम गुप्त् रखते हुए कहा कि ए.डी. की वजह से इस क्षेत्र में पवन चक्कियां लग रही थी और ७० प्रतिशत ऊर्जा संवर्द्धन भी इसी योजना के माध्यम से हो रहा था । लेकिन इसकी वजह से घटिया गुणवत्ता वाली पवन चक्कियां स्थापित हुई और इसी वजह से हमें देश के बेहतरीन पवन ऊर्जा स्थलोंसे भी हाथ धोना पड़ा ।
    स्थापित क्षमता में कमी के अन्य कारण विशिष्ट राज्यों से संबंधित है । तमिलनाडु में राज्य के स्वामित्व वाली इकाई ने पवन ऊर्जा उत्पादकोंका पिछले एक वर्ष से उनके बकाया का भुगतान नहींकिया है । तमिलनाडु राज्य विद्युत बोर्ड ने हाल ही में बकाया का भुगतान प्रारंभ किया है । तमिलनाडु डिस्काम के निदेशक (वित्त) जी. राजगोपाल का कहना है कि कुल १५०० करोड़ रूपए के बकाया में से ७०० करोड़ रूपए दिए गए है । राजस्थान में भी भुगतान में देरी हो रही है क्योंकि वहां भी राज्य स्वामित्व वाली इकाई पर पैतालिस हजार करोड़ का कर्जा है । उद्योग के स्त्रोत का कहना है इसी अनिश्चितता की वजह से बैंके पवन ऊर्जा परियोजनाआें को ऋण देने से हिचकिचा रही है ।
    वहीं मंत्रालय इस स्थिति से कतई विचलित नहीं है । एक अधिकारी का कहना है हम यह स्वीकार करते हैं कि इस वर्ष का क्षमता संवर्द्धन पिछले वर्ष से कम होगा । लेकिन ए.डी. के समाप्त् होने से केवल गंभीर प्रतिस्पर्धी ही इस क्षेत्र में प्रवेश करेंगे । इस वर्ष की पहली तिमाही के भले ही २९१.७ मेगावाट की ही वृद्धि हुई हो लेकिन हमें प्रसन्नता है कि केवलगंभीर उद्यमियों ने ही इस क्षेत्र में प्रवेश किया है । उनका यह भी कहना था कि वर्ष २०१०-११ के असाधारण क्षमता वृद्धि के पीछे का कारण यह था कि इसी वर्ष मार्च में ए.डी. का समय समाप्त् हो रहा था इसलिए उद्योग में पवन चक्कियां स्थापित करने की होड़ मच गई । गंभीर उद्यमियों को प्रोत्साहित करने के लिए हम शीघ्र ही जीबीआई पुन: लागू करने के लिए चर्चा कर रहे हैं । मंत्रालय के सूत्रोंका कहना है विकासकर्ताआें के पास ग्रिड को आपूर्ति के लिए १५० मेगावाट क्षमता तैयार पड़ी है लेकिन वे जीबीआई के पुन: प्रारंभ होने की रास्ता देख रही है ।
    वहींदूसरी ओर मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है इस कथन में सत्यता नहीं है कि क्षमता के गिरने में ए.डी. के वापस लिए जाने का योगदान है । अगर यही मामला था तो वर्ष २०१०-११ की पहली तिमाही में स्थापित क्षमता केवल२०३ मेगावाट ही क्यों थी ?
 महिला जगत
घरेलू हिंसा से अशांत होता समाज
रोली शिवहरे
    भारत में महिलाआें के विरूद्ध घरेलू हिंसा में निरंतर वृद्धि हो रही है । इसका प्रभाव अंतत: व्यापक तौर पर समाज में महिलाआें के प्रति दुर्व्यवहार एवं यौन हिंसा के रूप मेंभी सामने आ रहा है । हमें यह ध्यान में रखना होगा कि जब तक हमारे घरों में हिंसा खत्म नहीं होगी तब तक समाज में व्याप्त् हिंसा में कमी आनं की बात सोचना भी बेमानी है ।
    मध्यप्रदेश के इंदौर के एक शंकालु पति द्वारा अपनी पत्नी के यौनांग पर लगातार पांच साल तक ताला लगाने की घटना ने पूरे देश को शर्मसार कर दिया है । इस हैवानियत से तंग आकर एक दिन पत्नी ने जहर खा लिया तब इंदौर के एम.वाय. अस्पताल मेंडॉक्टरों की जांच के दौरान यह बात सामने आई कि उसका पति रोज सुबह काम पर जाते समय ताला लगा देता था और शाम को काम से लौटने पर ताला खोलता था । ये घटना मानवीयता और पुरूषवादी सोच का घिनौना चेहरा हमारे सामने लाती  है ।
    महिलाआें के साथ होने वाली हिंसा का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि अब उनके लिये परिवार भी एक सुरक्षित जगह नहीें है । परिवार के अंदर होने वाली हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं । इस पर लगाम लगाने के लिये ही घरेलू हिंसा से महिलाआें का संरक्षण अधिनियम २००५ बनाया गया था । राष्ट्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो के २०११ आंकड़े दर्शाते हैं कि वर्ष २०११ में मध्यप्रदेश में बलात्कार के जहां ३४०६ मामले दर्ज हुए वहीं पति द्वारा की गई हिंसा के ३७३२ मामले दर्ज हुए हैं । इनमें दहेज के कारण होने वाली हत्याआें  को भी देखना महत्वपूर्ण हैं । क्योंकि प्रदेश में प्रतिदिन २ महिलाएं दहेज के लिए जला दी जाती है । राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के तृतीय चक्र के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में १५-४९ वर्ष की ४५ प्रतिशत महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार हुई हैं वहीं १० प्रतिशत ने यौन हिंसा झेली है ।
    सर्वेक्षण एक चौकाने वाली सच्चई भी हमारे सामने लाता है कि प्रदेश की ५१ प्रतिशत महिलाआें ने किसी विशिष्ट परिस्थिति में पुरूष द्वारा उन पर की गई शारीरिक हिंसा को उचित ठहराया है  । ये विचारणीय है कि महिला अपनी ही मार पिटाई को क्यों जायज ठहराती है ? हम जिस समाज में रहते हैं उसमें परिवार के मुखिया का दर्जा हमेशा पुरूष को ही दिया जाता       है । वहीं परिवार के सभी निर्णय लेता   है । दरअसल इन सबके पीछे जिम्मेदार कारकों में सामाजिकसांस्कृतिक मूल्य भी अहम स्थान रखते हैं । भारतीय समाज में पत्नी की कल्पना महज पतिव्रता स्त्री से की गई है । भले ही उसका पति चाहे कितना कुकर्मी क्यों ना हों ।
    भारतीय समाज को जिस तरह से ४ वर्णोंा और आश्रमों में बांटा उसी तरह महिलाआें को भी न केवल बांटा गया है बल्कि एक कदम आगे बढ़कर समाज ने उनके ऊपर अपने रीति रिवाजों के लेबल भी चिपका दिए हैं जो जीवनभर उसके साथ चिपके रहते हैं । जब लड़की कुंवारी होती है तो उसकी वेशभूषा से पता चल जाता है । शादी के बाद उसकी मांग में सिन्दूर ऐसे भरा जाता है जैसे किसी ने मकान खरीदकर उस पर नेम प्लेट लगाा दी हो । किसी कारणवश उसके पति की मृत्यु हो जाती है तो सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदलते देर नहीं लगती । कई जगह उसे सर मुंडवाने से लेकर सफेद कपड़े पहनने तक को मजबूर किया जाता है । और तो और कई बार उन्हें घर से भी निकाल दिया जाता है और उन्हें भजन - पूजन की सलाह दी जाती है ।  समाज में ऐसी मान्यता है कि अगर विधवा के हाथ से किसी शुभ काम की शुरूआत की जाती है तो वो काम कभी सफल/शुभ नहीं हो सकते ।
    हिन्दू धर्म में विवाह एक महत्वपूर्ण कर्म है । इस कर्म पर गौर करने पर हमें साफ पता चलता है कि सामाजिक रीति रिवाजों में पुरूषवादी सोच कितनी कूट-कूट कर भरी गई  है । विवाह के दौरान वर और वधू दोनों से कुछ प्रतिज्ञाएं कराई जाती हैं, जिसे हम सात फेरे भी कहते है । इसमें एक फेरे में वर, वधू से यह वचन लेता है कि वह घर ओर बच्च्े संभालने की जिम्मेदारी निभाएगी । एक वचन में यह कहा गया है कि पत्नी के लिये हमेशा पति ही सबकुछ होगा वो दूसरे आदमी पर नजर नहीं डालेगी । कन्यादान के रिवाज पर तो लगातार सवाल उठ रहे हैं पर मुश्किल यह है कि जब राज्य ही एक लड़की के दान की वकालत करने लगे तो फिर किससे उम्मीद की जा सकती है ? ज्ञात हो मध्यप्रदेश सरकार ने कन्यादान योजाना लागू की है । 
    यह किसी एक धर्म विशेष का मामला नहीं है कमोवेश हर धर्म के यही हाल हैं । एन.एफ.एच.एस. - ३ के आंकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश में अन्य धार्मिक समुदाय की तुलना में मुस्लिम महिलाएं शारीरिक, भावनात्मक और यौन प्रताड़ना की अधिक शिकार होती है । अगर भिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के आधार पर महिलाआें पर होने वाली हिंसा की तुलना करें तो पता चलता है जैन महिलाआें में २७.७ व हिंदू महिलाआें में ४८.६ की तुलना में सर्वाधिक ६०.८ प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं हिंसा का दंश झेलती हैं । भोपाल में मुस्लिम समुदाय के साथ काम करने वाले जावेद अनीस का कहना है कि पुरूषवादी सोच का एक उदाहरण ही है कि निकाह के दौरान दोनों की सहमति ली जाती है पर अगर महिला किसी कारणवश अपने पति से अलग होना चाहती है तो उसे काजी के पास जाना होगा पति कहीं से भी ३ बार तलाक कह दे तो तलाक हो जाता है । 
    भारत का संविधान तो सबको बराबरी का दर्जा देता है, जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं । राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट के अनुसार तहिलाआें से संबंधित ४३ कानून  बने हैं परन्तु इनके क्रियान्वयन की स्थिति क्या है यह किसी से छुपी नहीं है । इसी का कारण है कि महिलाआें की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है । स्पष्ट है कि कहीं ना कहीं कानून बनाने और उसे जमीन पर लागू कराने की मंशा में विरोधाभास है । भोपाल में परिवार परामर्श केंद्र की एक काउंसलर ने कहा हमारे पास आने वाले ९० प्रतिशत पारिवारिक हिंसा के प्रकरणों में हम समझौते की हि कोशिश करते हैं । जब इस तरह के कानूनोंके क्रियान्वयन में लगे रहने वाले लोगों का मानस ही ऐसा होगा तो महिला कैसेलड़ पायेगी ? सवाल यह भी हैं कि क्या इन सब  कारकों के पीछे केवल सरकार  ही दोषी हैं या कहीं समाज भी जिम्मेदार है ?
    महिलाआें के ऊपर बढ़ती घरेलू हिंसा के कारणों की एक बड़ी वजह उनका चहारदीवारी लाघंना भी है । आज हर क्षेत्र में महिलाएं पुरूष के साथ बराबरी से चल रही हैं । वे किसी भी बंदिश में नहीं रहना चाहतीं । समाज व परिवार इसे स्वीकार  नहीं कर पा रहा क्योंकि इस पुरूषसत्तात्मक समाज में हमेशा पुरूष को सर्वोच्च् माना गया है । इस स्थिति को बदलने हेतु तत्काल प्रयास करने होगें । इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम पुरूषसत्ता के सापेक्ष किसी  मातृसत्ता की बात कर रहे हैं बल्कि हम तो सिर्फ बराबरी की बात कर रहे हैं । सुप्रसिद्ध नारीवादी कमला भसीन का कहना है कि पति का अर्थ स्वामी होता है और यदि पति के रूप में एक स्वामी होगा तो निश्चित रूप से दूसरा दास ही होगा । ऐसे में बराबरी पर आधारित रिश्तों से ही कुछ उम्मीद  की जा सकती है ।  
ज्ञान विज्ञान
भेड़े स्वार्थवश झुंड बनाती हैं
    भेड़ों का झुंड में चलना जग प्रसिद्ध है । कोई शिकारी पीछा करे तो हरेक भेड़ का व्यवहार क्या होता है ? कई शोधकर्ताआें का ख्याल है कि ऐसे मौकों पर भेड़ों के व्यवहार की व्याख्या स्वार्थ के आधार पर की जा सकती है ।
    दशकों पुराने  इस विचार को स्वार्थी झुंड सिद्धांत कहते है। मगर इसे सिद्ध करने  के लिए प्रमाण बहुत कम थे । पहले सील मछलियों, केंकड़ों और कबूतरों पर कुछ अध्ययन किए गए थे और संकेत मिले थे कि इन जंतुआें में झंुड बनाने की प्रवृत्ति के पीछे स्वार्थ होता है । मगर इन अध्ययनों से प्राप्त् आंकडे अस्पष्ट थे । अब एक अध्ययन भेड़ों पर किया गया है और इससे प्राप्त् आंकड़े स्वार्थी झुंड सिद्धांत की पुष्टि करते   है ।
    लंदन विश्वविघालय के जीव वैज्ञानिक एंड्रयू किंग और उनके साथियों ने ४६ भेड़ों की पीठ पर जीपीएस उपकरण बांध दिए । जीपीएस उपकरण की मदद से उन्हें हर क्षण पता रहता था कि कौन सी भेड़ कहां है और कहां जा रही है । इसी तरह से उन्होंने एक शिकारी कुत्ते की पीठ पर भी एक जीपीएस उपकरण लाद दिया । 
 
 
अब इस शिकारी कुत्ते को भेड़ों के समूह का पीछा करने को छोड़ दिया और ४६ में से एक-एक भेड़ की स्थिति हर सेकंड रिकॉर्ड की । जब इन आंकड़ों का विश्लेषण किया गया तो पता चला कि शिकारी कुत्ते से बचने की फिराक में अलग-अलग भेड़े कुत्ते से दूर भागने की कोशिश नहीं कर रही थीं । न ही वे अपने आगे वाली भेड़ के पीछे-पीछे चल रही थीं । दरअसल, सारी की सारी भेड़े भागकर झंुड के बीच में पहुंचने की कोशिश कर रही थीं ।
    यानी भेड़ों की गति की व्याख्या सिर्फ यह देखकर की जा सकती है कि झुंड का केन्द्र कहां है । इसका मतलब हुआ कि शिकारी कुत्ते से सामना होने पर वे स्वयं को बचाने के लिए अन्य भेड़ों को खतरे में डाल देती है । आखिर जो भेड झुंड के बीच में रहेगी वही सबसे सुरक्षित है और सारी भेड़े तो केन्द्र में हो ही नहीं सकती । यदि कुछ भेड़े झुंड के केन्द्र मेंपहुंच जाती हैं, तो इसका मतलब है कि उन्होनें कुछ भेड़ों को झुंड के किनारे पर धकेला होगा और किनारे की भेड़ों के पकड़े जाने की संभावना ज्यादा है ।
    यह तो एक स्वार्थी व्यवहार ही कहा जाएगा कि खुद को बचाने के लिए अपनी साथी भेड़ों को झुंड के किनारों पर छोड़ दो । इस अध्ययन से उक्त सिद्धांत की पुष्टि होती है और अंदाज लगता है कि जैव विकास के लंबे दौर मं वे कौन से दबाव थे जिन्होनें जन्तुआें को झंुड बनाकर रहने की ओर धकेला होगा । शोधकर्ताआें का विचार है कि अभी इस अध्ययन के परिणामों को सामान्य नियम कहना ठीक नहीं     होगा । जैसे अभी यह नहीं कहा जा सकता कि भेड़ों का व्यवहार बाकी जन्तुआें के मामले में भी लागू किया जा सकता है ।  इसी प्रकार से एक प्रशिक्षित शिकारी कुत्ता कुदरती खतरों का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता है । शोधकर्ता यह भी देखना चाहते हैं कि जब झंुड में कुछ भेड़ों को कोई ऐसी बीमारी हो जाती है तो तेजी से पूरे झंुड में फैल सकती हैं, तब भेड़ों का व्यवहार कैसाहोता है । इससे जन्तुआें के झंुड में बीमारियों की निगरानी करने में मदद मिल सकती है।
घाव ठीक करने में शहद ज्यादा असरदार
    घावों को ठीक करने के लिए मशूहर दवा बेटाडीन पर भारतीय चिकित्सा शास्त्र में अचूक माना जाने वाला शहर चार गुना भारी पड़ रहा है । देश के सबसे बड़े चिकित्सा संस्थान एम्स ट्रॉमा सेंटर के डॉक्टरों ने प्रयोग के  आधार पर यह बात साबित कर दी है । ४२ मरीजों पर छ: सप्तह तक किया गया इसका प्रयोग सफल रहा है । जल्द ही इसके प्रयोग की अनुमति पूरे अस्पताल में मिलने की उम्मीद है ।
    द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सेना ने जवानों के घाव भरने में शहद का प्रयोग किया था । इसी को आधार बनाते हुए एम्स में प्रो. अनुराग श्रीवास्तव की अगुआई में किए गए इस अध्ययन को इंडियन जर्नल ऑफ सर्जरी ने भी प्रकाशित किया है । डॉक्टर अनुराग का कहना है अब तक हजारों मरीजों पर इसका प्रयोग किया जा चुका है । लेकिन सुचारू रूप से ४२ मरीजों पर किया गया यह अध्ययन काफी सरल रहा । एम्स की सर्जरी ओपीडी में आए ४५ में से २३ मरीजों को शहद से इलाज के लिए चुना गया और २२ को बेटाडीन मरहम से इलाज के लिए । बाद में शहद से इलाज करा रहा एक मरीज और बेटाडीन से इलाज करा रहे दो मरीज इस अध्ययन से हट गए । 
   
इसके बाद ४२ मरीजों पर छ: सप्तह तक अध्ययन किया गया । हर दूसरे दिन सभी मरीजों की पट्टी बदली गई । दो सप्तह में पता चला कि शहद से इलाज करा रहे लोगों के घाव तेजी से भर रहे हैं । छ: सप्तह के बाद पता चला कि घाव भरने में बेटाडीन की तुलना में शहद चार गुना ज्यादा असरदार साबित हुआ है । यहीं, नहीं मरीजों को पट्टी बदलने के दौरान दर्द भी कम हुआ ।
    शहद मेें हाइड्रोजन पराक्साइड पाया जाता है, जो जीवाणु को धीरे-धीरे मारता है । शहद खुद एंटीबायोटिक्स का बहुत बड़ा स्त्रोत है । इसमें विटामिन सी. एमीनो एसिड व फ्रक्टोज शुगर के तत्व भी होते है । इससे संक्रमण का भी खतरा नहीं   होता । अध्ययन में शामिल मरीजों में गामा किरणों की मदद से कीटाणु मुक्त किए गए शहद का प्रयोग किया गया था ।
   
चूहा भी गा सकता है प्रेम गीत
    चूहे इंसानों की तरह गाने की काबिलियत रखते हैं और इस दम पर मादाआें का आकर्षित कर सकते हैं ।
    वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोग में बताया है कि नर चूहे इंसानों की तरह तेज आवाज में प्रेम गीत गाकर मादाआें से प्रणय निवेदन कर सकते हैं । अपनी धुनों को चटपटा कर वे होड़ भी जीत सकते  हैं । शोधकर्ताआें ने पाया कि चूहों के मस्तिष्क में मानवीय विशेषताएं होती हैं और गीत सीखने वाले पक्षी की तरह वे अपनी आवाज भी बदल सकते  हैं । 
 
 
इस अध्ययन के नेतृत्वकर्ता न्यूरोबायो-लॉजिस्ट एरिक जार्विस ने कहा कि हम दावा करते हैं कि चूहों में सीमित वाणी क्षमता होती है जो मस्तिष्क व व्यावहारिक विशेषताआें से युक्त होती हैं । इस अध्ययन ने ६० वर्ष पूर्व उस धारण को खंडित किया है कि चूहों में वाणी सीखने की क्षमता नहीं होती है । मेडिकल इंस्टीट्यूट के अन्वेषक हार्वर्ड युग्स ने कहा कि यदि हम गलत नहीं हैं तो यह अध्ययन ऑजिज्म व मानसिक विकारों को समझने में बड़ी छलांग होगा 

मल्टीविटामिन से बढ़ती है मेमोरी
    एक नई रिसर्च के मुताबिक मल्टीविटामिन गोलियों के रोजाना सेवन से याददाश्त बढ़ती है और यह मानसिक कमजोरी को धीमा करती है। शोधकर्ताआें का मानना है कि इसके सेवन से याददाश्त पर लाभप्रद प्रभाव पड़ता है और मस्तिष्क कोशिकाआें की कार्यक्षमता में इजाफा होता है । 
 
 
     शरीर की सुचारू कार्यप्रणाली और स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए शरीर को १३ विटामिन्स की जरूरत होती है । विटामिन ए,सी,डी,ई के और बी का शरीर मेंविशिष्ट कार्य है । विटामिन सी कोशिकाआें को स्वस्थ रखता है जबकि विटामिन डी कैल्शियम का नियंत्रण करता है । विटामिन ई कोशिकाआें के आकार को कायम रखता है तो वहीं विटामिन बी व फोलिक एसिड विविध कार्य करते हैं । ऑस्ट्रेलिया की मोनाश यूनिवर्सिटी के अध्ययन में ३२०० महिला व पुरूषों को शामिल किया गया । इसमें पाया गया कि जिन्होनें मल्टीविटामिन का प्रयोग किया उनकी जानकारियॉ व घटनाआें के स्मरण की शक्ति बढ़ी
कविता
पानी की चाहत
रमेशचन्द्र मंगल

बूंद-बूंद पानी की चाहत
धरती खोद रही वसुधा का ऑगन
चलनी कर खोज रही
पर यह जन कब अपना अन्तर
खोज सका चाह से भी ज्यादा
यह पानी वहां रहा
पानी यह अनमोल
धरा का
रंग में बहता है
पर अब कब वर्षा जल
नदी तालों में रहता है ।
जिससे धरती का सिरा
हमेशा तर और ताजा हो
हर मानव जिससे
शहर पा
हर दम राजा हो
पानी तो उतना ही
जितना पहले होता था
बड़ी आबादी वैज्ञानिक
तकनीक कब ढोता था
कुलर, फ्लेक्स और झंझावत
कितने लाद दिये
हर घर के छत की बगीयांे में भी
हरित क्रान्ति लिये कब हम अब
नई तकनीक से पानी रोक रहे
जिससे धरती की प्यास हर दम त्रप्त रहे ।
 प्रदेश चर्चा
म.प्र. : पानी में गलते विस्थापितों की जीत
                                                                      प्रशांत कुमार दुबे
    क्या आपको सत्रह दिनों तक पानी में खड़े रहना अकल्पनीय प्रतीत होता है । लेकिन नर्मदा घाटी के निवासियों ने इस कल्पना को साकार कर जमीन के बदले जमीन के अपने सपने को अमली जामा पहनाने की दिशा में पहली जीत हासिल कर ली है ।
    सुनो/वर्षो बाद
    अनहद नाद / दिशाआें में हो रहा है । शिराआें से बज रही है / एक भूली याद वर्षो बाद ...... ।
    दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां १० सितम्बर २०१२ को तब चरितार्थ हो गई जबकि मध्यप्रदेश सरकार ने खंडवा जिले के घोघलगांव में पिछले १७ दिनों से जारी जल सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सत्याग्रहियों की मांगे मान ली तथा विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने का भी एलान      किया । सरकार ने आेंकारेश्वर बांध का जलस्तर घंटों में कम भी कर दिया । यह एक ऐतिहासिक जीत थी ।
    सवाल यह है कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां गांव वालों के समाने   रहीं कि वे उसी मोटली माई (नर्मदा), जिसे वे पूजते हैं, में स्वयं को गला देने के लिए मजबूर हो गए । दरअसल विस्थापन एक मानव निर्मित त्रासदी है। कभी कभार सरकारी अधिकारी भी इसके पक्ष में सुर अलापने लगते हैं । सोचना होगा यह कैसा विकास है और किसी कीमत पर किसा विकास ? पूरे देश और दुनिया में विकास बनाम विनाश की इस अवधारणा को सामने लाने का और इस पर बहस छेड़ने का काम नर्मदा बचाओ आंदोलन ने किया है और इस बहस की परिणति ही है यह जल सत्याग्रह ।
    मुनव्वर राणा कहते है
    धूप वायदों की बुरी लगने लगी है अब हमें, अब हमारे मसअलों का कोई हल भी चाहिए ।
    आेंकारेश्वर और इंदिरा सागर बांध के संबंध में वर्ष १९८९ में नर्मदा पंचाट के फैसले में यह स्पष्ट कर गया था कि हर भू-धारक विस्थापित परिवार को जमीन के बदले जमीन एवं न्यूनतम ५ एकड़ कृषि योग्य सिंचित भूमि का अधिकार दिया जायेगा । इसके बावजूद पिछले २५ सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने एक भी विस्थापित को आज तक जमीन नहीं दी है ।
    इस मसले पर पीड़ितों ने २००८ में उच्च् न्यायालय में याचिका दायर की और उस पर उच्च् न्यायालय ने प्रभावितों के पक्ष में दिए अपने निर्णय में कहा था कि सरकार को पुनर्वास नीति का कड़ाई से पालन करना होगा । इस फैसले को चुनौती देते हुए राज्य सरकार ने उच्च्तम न्यायालय में अपील की । पिछले साल ११ मई २०११ को सर्वोच्च् न्यायालय ने भी उच्च् न्यायालय के फैसलेको बरकरार रखते हुए यह कहा है कि इस हेतु जो भी किसान इच्छुक है वे शिकायत निवारण प्राधिकरण के समक्ष अपना आवेदन कर सकता हैं । इस आदेश के बाद आेंकारेश्वर बांध के २५०० विस्थापितों ने जमीन के आवेदन भरे, जिसमें से १००० से ज्यादा आवेदनों की सुनवाई शिकायत निवारण प्राधिकरण पूरी कर चुका है व आवेदनों पर सुनवाई जारी है । २२५ से ज्यादा आदेश आ चुके है। प्राधिकरण ने सरकार तथा परियोजनाकर्ता कम्पनी को यह आदेश दिया है  कि वे प्रभावितों द्वारा आधा मुआवजा लौटाने पर उनको ५.५ एकड़ जमीन प्रदान करें या ५ एकड़ जमीन खरीदने पर आर्थिक मदद करें । सर्वोच्च् न्यायालय यह भी कहा है कि दी जाने वाली जमीन किसान की मूल जमीन से खराब नहीं हो सकती है तथा वह अतिक्रमित भी नहीं हो । न्यायालय ने यह भी कहा है कि जमीन आवंटन का काम बांध निर्माण के पूर्व पूरा करना पड़ेगा ।
    गौरतलब है कि २४ जुलाई २०१२ को आेंकारेश्वर का यह आदेश सर्वोच्च् न्यायालय ने इंदिरा सागर के विस्थापितों पर भी लागू कर दिया कि जिससे इंदिरा सागर बांध के २०,००० से अधिक किसान ५.५ एकड़ सिचिंत जमीन के पात्र बन गये । जमीन देने के आदेशोंसे बौखलाई सरकार तथा एन.एच.डीसी. कम्पनी अब इंदिरा सागर तथा आेंकारेश्वर परियोजना का जलस्तर बढ़ाने में तुली हुई थी ताकि सभी विस्थापित इधर-उधर भटक जाये व पुनर्वास नीति विफल हो     जाये । अपनी इसी मांग को लेकर १६ जुलाई से अनशन कर रहे लोग २५ जुलाई को अचानक  जलस्तर बढ़ाए जाने के विरोध में खंडवा के घोघलगांव में जल सत्याग्रह पर बैठ गए और उन्होंने १७ दिनों अपने शरीर को गलाना जारी रखा ।
    अपने घरों में, खेतों में घुस रहे पानी को लेकर लोगों ने सत्याग्रह शुरू किया । बरसात के गंदे पानी में, कीड़े मकौड़ों के बीच उन्होनें अपने कीचड़ से सने पैरों से सत्ता के अहंकार को रोंद दिया । १७ दिनो के लंबे जल सत्याग्रह पर उस पर देश और दुनिया में मचे बवाल पर सरकार को उनकी मांगे मानने पर मजबूर होना पड़ा ।
    लेकिन सरकार के झुकने की क्या यही वजहेंथी ? वैसे सरकार अक्टूबर माह के अंतिम सप्तह में इन्दौर में सरकार विश्व के कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों के साथ एक निवेशक बैठक (सरकार भाष में इन्वेस्टर्स मीट) करने जा रही है । इस जल सत्याग्रह से यह संदेश जाता कि सरकार के पास जमीन नहीं है और मध्यप्रदेश में जमीन अधिग्रहण में सरकार मदद नहीं करती है ।
    सरकार इस तरह की निवेशक बैठक के पहले निवेशकों को लुभाने के लिए वैश्विक स्तर पर विज्ञापन जारी करती है तो उसमें लिखा होता है सस्ती दरों पर बड़ी परियोजनाआें के लिए एक मुश्त जमीन की उपलब्धता । सरकार यह भी कहती है कि तीव्र औद्योगिक विकास में सहायक होना, मध्यप्रदेश सरकार की नीति है । इस मीट की व्यवस्थाएं सर्वोच्च् प्रशासनिक एवं राजनीतिक तंत्र देखता है ।
    इस बीच जब एशियाई मानवाधिकार आयोग ने दुनियाभर में मध्यप्रदेश सरकार की इस अमानवीय हरकत को साझा किया तो दुनियाभर में सरकार की मंडल के खंडवा पहुंचने की खबर ने पूरी कर दी । अतएव प्रतिनिधिमंडल आने के पहले कुछ निर्णय लेना जरूरी था । सरकार की मंशा पर सवाल यहां भी खड़ा होता है कि जब सत्याग्रही के साथ बातचीत करने के लिए एक (अ) शिष्ट मंडल बनाया । यह शिष्ट मण्डल इतना अशिष्ट था कि बगैर सत्याग्रहियों की पूरी बात सुने उनसे लड़ कर आ गया । इस शिष्ट मण्डल के सदस्य और अब बनी समिति के अध्यक्ष ने सोमवार को एक टी.वी. चैनल पर कहा कि हम सरकार हैं और हम पैसा लुटा नहीं सकते हैं । हरदा के खरदना में चल रहे जलसत्याग्रह पर तल्ख टिप्पणी करते उन्हें कहा कि सत्याग्रही वहां से उठे, नहीं तो हम सरकार है और शासन करना हमें भी आता है ।
    सरकार की असवंदेनशीलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार के राहत एवं पुनर्वास विभाग को अभी तक यही नहीं पता है कि मध्यप्रदेश में अलग-अलग विकास परियोजनाआें से कितने लोग विस्थापित हुए हैं । नर्मदा बचाओ आंदोलन जिसने सक्रियता दिखाते हुए कुछे बांधों से विस्थापितों की सूचियां तैयार करने का काम किया था तो यह आंकड़ा मिल पा रहा है । अफसोस यह कि सरकार इन्हें अब मध्यस्थ कहती है और बरगलाने का आरोप लगा रही है । सरकारें हमेशा से हाशिए के लोगों को कमतर आंकती रही हैं और देशहित के नाम पर उनकी बलि चढ़ाती रही हैं । इस बार सत्याग्रहियों ने सरकार को नाकों चने तो चबवा दिए हैं ।
    अब सत्याग्रहियों की मुश्किलें और बढ़ गयी हैं क्योंकि अब उन्हें इस निष्ठुर सरकार से उसकी विपरीत मानसिकता के बावजूद उपजाऊ जमीन निकलवानी है और सही मायने में लोकतंत्र को स्थापित होने में मदद करनी है ।
पर्यावरण समाचार
टाइगर रिजर्व में मिल सकती है पर्यटन की इजाजत

    सुप्रीम कोर्ट ने बाघों के संरक्षण के लिए नए दिशा-निर्देशों की अधिसूचना जारी करने के लिए केन्द्र को एक हफ्ते की मोहलत दी है । शीर्ष अदालत ने २४ जुलाई के अपने आदेश मेंबदलाव कर टाइगर रिजर्व में सीमित पर्यटन गतिविधियों की इजाजत देने का संकेत भी दिया है । कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि वह पर्यटन के खिलाफ नहीं है । पर्यटन गतिविधियों पर रोक का अंतरिम आदेश इसे नियंत्रित करने के लिए है।
    न्यायमूर्ति एके पटनायक और स्वतंत्र कुमार की पीठ ने कहा कि जिन राज्यों को नए दिशा-निर्देशों पर एतराज हो, वह उसे कोर्ट में चुनौती देने के लिए स्वतंत्र है । मामले की अगली सुनवाई १६ अक्टूबर को होगी । पीठ ने यह भी कहा कि न तो हम किसी दिशा-निर्देश को वैध ठहरा सकते है और न ही संविधान विरूद्ध घोषित कर सकते हैं ।
    केन्द्र की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने भरोसा दिलाया कि नेशनल टायगर कंजरवेशन अथॉरिटी द्वारा तैयार नए दिशा-निर्देश २४ घंटे में अधिसूचित होेगे ।
    सुप्रीम कोर्ट ने गत २४ जुलाई को टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में सभी तरह की पर्यटन गतिविधियों पर रोक लगा दी थी । २९ अगस्त को यह रोक २७ सितम्बर तक बढ़ा दी गई  थी । अवधि बढ़ाते हुए कोर्ट ने यह संकेत भी दिया था कि वह नियंत्रित पर्यटन गतिविधियोंके खिलाफ नहींहै, बशर्ते केन्द्र सरकार विलुप्त् हो रहे बाघों के संरक्षण के संबंध में समुचित उपायों वाले नए दिशा-निर्देश जारी करें । इस पर केन्द्र सरकार ने २६ सितम्बर को बाघ सरंक्षण के संबंध में राज्यों के लिए नए दिशा-निर्देश का मसौदा कोर्ट के समक्ष पेश किया था । इसमें केन्द्र ने कहा था कि टाइगर रिजर्व में पर्यटन के लिए कोई नया बुनियादी ढांचा नहीं बनाया जाना चाहिए । बाघों के आवास के कोर एरिया के अधिकतम २० फीसद क्षेत्र में नियंत्रित व सीमित पर्यटकों की आवाजाही हो सकती है ।