रविवार, 14 अक्तूबर 2012

 प्रदेश चर्चा
म.प्र. : पानी में गलते विस्थापितों की जीत
                                                                      प्रशांत कुमार दुबे
    क्या आपको सत्रह दिनों तक पानी में खड़े रहना अकल्पनीय प्रतीत होता है । लेकिन नर्मदा घाटी के निवासियों ने इस कल्पना को साकार कर जमीन के बदले जमीन के अपने सपने को अमली जामा पहनाने की दिशा में पहली जीत हासिल कर ली है ।
    सुनो/वर्षो बाद
    अनहद नाद / दिशाआें में हो रहा है । शिराआें से बज रही है / एक भूली याद वर्षो बाद ...... ।
    दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां १० सितम्बर २०१२ को तब चरितार्थ हो गई जबकि मध्यप्रदेश सरकार ने खंडवा जिले के घोघलगांव में पिछले १७ दिनों से जारी जल सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सत्याग्रहियों की मांगे मान ली तथा विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने का भी एलान      किया । सरकार ने आेंकारेश्वर बांध का जलस्तर घंटों में कम भी कर दिया । यह एक ऐतिहासिक जीत थी ।
    सवाल यह है कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां गांव वालों के समाने   रहीं कि वे उसी मोटली माई (नर्मदा), जिसे वे पूजते हैं, में स्वयं को गला देने के लिए मजबूर हो गए । दरअसल विस्थापन एक मानव निर्मित त्रासदी है। कभी कभार सरकारी अधिकारी भी इसके पक्ष में सुर अलापने लगते हैं । सोचना होगा यह कैसा विकास है और किसी कीमत पर किसा विकास ? पूरे देश और दुनिया में विकास बनाम विनाश की इस अवधारणा को सामने लाने का और इस पर बहस छेड़ने का काम नर्मदा बचाओ आंदोलन ने किया है और इस बहस की परिणति ही है यह जल सत्याग्रह ।
    मुनव्वर राणा कहते है
    धूप वायदों की बुरी लगने लगी है अब हमें, अब हमारे मसअलों का कोई हल भी चाहिए ।
    आेंकारेश्वर और इंदिरा सागर बांध के संबंध में वर्ष १९८९ में नर्मदा पंचाट के फैसले में यह स्पष्ट कर गया था कि हर भू-धारक विस्थापित परिवार को जमीन के बदले जमीन एवं न्यूनतम ५ एकड़ कृषि योग्य सिंचित भूमि का अधिकार दिया जायेगा । इसके बावजूद पिछले २५ सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने एक भी विस्थापित को आज तक जमीन नहीं दी है ।
    इस मसले पर पीड़ितों ने २००८ में उच्च् न्यायालय में याचिका दायर की और उस पर उच्च् न्यायालय ने प्रभावितों के पक्ष में दिए अपने निर्णय में कहा था कि सरकार को पुनर्वास नीति का कड़ाई से पालन करना होगा । इस फैसले को चुनौती देते हुए राज्य सरकार ने उच्च्तम न्यायालय में अपील की । पिछले साल ११ मई २०११ को सर्वोच्च् न्यायालय ने भी उच्च् न्यायालय के फैसलेको बरकरार रखते हुए यह कहा है कि इस हेतु जो भी किसान इच्छुक है वे शिकायत निवारण प्राधिकरण के समक्ष अपना आवेदन कर सकता हैं । इस आदेश के बाद आेंकारेश्वर बांध के २५०० विस्थापितों ने जमीन के आवेदन भरे, जिसमें से १००० से ज्यादा आवेदनों की सुनवाई शिकायत निवारण प्राधिकरण पूरी कर चुका है व आवेदनों पर सुनवाई जारी है । २२५ से ज्यादा आदेश आ चुके है। प्राधिकरण ने सरकार तथा परियोजनाकर्ता कम्पनी को यह आदेश दिया है  कि वे प्रभावितों द्वारा आधा मुआवजा लौटाने पर उनको ५.५ एकड़ जमीन प्रदान करें या ५ एकड़ जमीन खरीदने पर आर्थिक मदद करें । सर्वोच्च् न्यायालय यह भी कहा है कि दी जाने वाली जमीन किसान की मूल जमीन से खराब नहीं हो सकती है तथा वह अतिक्रमित भी नहीं हो । न्यायालय ने यह भी कहा है कि जमीन आवंटन का काम बांध निर्माण के पूर्व पूरा करना पड़ेगा ।
    गौरतलब है कि २४ जुलाई २०१२ को आेंकारेश्वर का यह आदेश सर्वोच्च् न्यायालय ने इंदिरा सागर के विस्थापितों पर भी लागू कर दिया कि जिससे इंदिरा सागर बांध के २०,००० से अधिक किसान ५.५ एकड़ सिचिंत जमीन के पात्र बन गये । जमीन देने के आदेशोंसे बौखलाई सरकार तथा एन.एच.डीसी. कम्पनी अब इंदिरा सागर तथा आेंकारेश्वर परियोजना का जलस्तर बढ़ाने में तुली हुई थी ताकि सभी विस्थापित इधर-उधर भटक जाये व पुनर्वास नीति विफल हो     जाये । अपनी इसी मांग को लेकर १६ जुलाई से अनशन कर रहे लोग २५ जुलाई को अचानक  जलस्तर बढ़ाए जाने के विरोध में खंडवा के घोघलगांव में जल सत्याग्रह पर बैठ गए और उन्होंने १७ दिनों अपने शरीर को गलाना जारी रखा ।
    अपने घरों में, खेतों में घुस रहे पानी को लेकर लोगों ने सत्याग्रह शुरू किया । बरसात के गंदे पानी में, कीड़े मकौड़ों के बीच उन्होनें अपने कीचड़ से सने पैरों से सत्ता के अहंकार को रोंद दिया । १७ दिनो के लंबे जल सत्याग्रह पर उस पर देश और दुनिया में मचे बवाल पर सरकार को उनकी मांगे मानने पर मजबूर होना पड़ा ।
    लेकिन सरकार के झुकने की क्या यही वजहेंथी ? वैसे सरकार अक्टूबर माह के अंतिम सप्तह में इन्दौर में सरकार विश्व के कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों के साथ एक निवेशक बैठक (सरकार भाष में इन्वेस्टर्स मीट) करने जा रही है । इस जल सत्याग्रह से यह संदेश जाता कि सरकार के पास जमीन नहीं है और मध्यप्रदेश में जमीन अधिग्रहण में सरकार मदद नहीं करती है ।
    सरकार इस तरह की निवेशक बैठक के पहले निवेशकों को लुभाने के लिए वैश्विक स्तर पर विज्ञापन जारी करती है तो उसमें लिखा होता है सस्ती दरों पर बड़ी परियोजनाआें के लिए एक मुश्त जमीन की उपलब्धता । सरकार यह भी कहती है कि तीव्र औद्योगिक विकास में सहायक होना, मध्यप्रदेश सरकार की नीति है । इस मीट की व्यवस्थाएं सर्वोच्च् प्रशासनिक एवं राजनीतिक तंत्र देखता है ।
    इस बीच जब एशियाई मानवाधिकार आयोग ने दुनियाभर में मध्यप्रदेश सरकार की इस अमानवीय हरकत को साझा किया तो दुनियाभर में सरकार की मंडल के खंडवा पहुंचने की खबर ने पूरी कर दी । अतएव प्रतिनिधिमंडल आने के पहले कुछ निर्णय लेना जरूरी था । सरकार की मंशा पर सवाल यहां भी खड़ा होता है कि जब सत्याग्रही के साथ बातचीत करने के लिए एक (अ) शिष्ट मंडल बनाया । यह शिष्ट मण्डल इतना अशिष्ट था कि बगैर सत्याग्रहियों की पूरी बात सुने उनसे लड़ कर आ गया । इस शिष्ट मण्डल के सदस्य और अब बनी समिति के अध्यक्ष ने सोमवार को एक टी.वी. चैनल पर कहा कि हम सरकार हैं और हम पैसा लुटा नहीं सकते हैं । हरदा के खरदना में चल रहे जलसत्याग्रह पर तल्ख टिप्पणी करते उन्हें कहा कि सत्याग्रही वहां से उठे, नहीं तो हम सरकार है और शासन करना हमें भी आता है ।
    सरकार की असवंदेनशीलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार के राहत एवं पुनर्वास विभाग को अभी तक यही नहीं पता है कि मध्यप्रदेश में अलग-अलग विकास परियोजनाआें से कितने लोग विस्थापित हुए हैं । नर्मदा बचाओ आंदोलन जिसने सक्रियता दिखाते हुए कुछे बांधों से विस्थापितों की सूचियां तैयार करने का काम किया था तो यह आंकड़ा मिल पा रहा है । अफसोस यह कि सरकार इन्हें अब मध्यस्थ कहती है और बरगलाने का आरोप लगा रही है । सरकारें हमेशा से हाशिए के लोगों को कमतर आंकती रही हैं और देशहित के नाम पर उनकी बलि चढ़ाती रही हैं । इस बार सत्याग्रहियों ने सरकार को नाकों चने तो चबवा दिए हैं ।
    अब सत्याग्रहियों की मुश्किलें और बढ़ गयी हैं क्योंकि अब उन्हें इस निष्ठुर सरकार से उसकी विपरीत मानसिकता के बावजूद उपजाऊ जमीन निकलवानी है और सही मायने में लोकतंत्र को स्थापित होने में मदद करनी है ।

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